सुबह नौ बजे सुनील फिर ज्योति कालोनी में था और देवीना महाजन की कालबैल बजा रहा था।

इस बार दरवाजा खुद देवीना ने खोला।
उसकी सजधज बता रही थी कि वो कहीं जाने को तैयार थी।
“तुम!”—वो हैरानी से बोली—“फिर आ गये?”
“जी हां।”—सुनील इत्मीनान से बोला—“गुड मार्निंग।”
“इतनी सुबह!”
“अन्देशा था कि कहीं निकल न लें। लग रहा है कि निकल ही रही थीं! नहीं?
“अब क्या चाहते हो?”
“वही जो कल चाहता था। बात करना चाहता हूं।”
“हो नहीं चुकी बात?”
“थोड़ी बाकी रह गयी है।”
“मेरे पास टाइम नहीं है।”
“बात आपके काम की है, आप के मतलब की है। नहीं जानेंगी तो घाटे में रहेंगी, इसलिये थोड़ा टाइम निकाल ही लीजिये।”
“पांच मिनट।”
“ठीक है।”
“आओ।”
सुनील उसके साथ फिर ड्रार्इंगरूम में पहुंचा जहां दोनों आमने सामने बैठे।
“बोलो।”—वो उतावले स्वर में बोली।
“कल आपने सच न बोला!”
“किस बाबत?”
“मंगलवार रात होटल स्टारलाइट गयी होने की बाबत।”
“क्या सच न बोला? जब मैंने कहा मैं नहीं गयी थी...”
“आप गयी थीं। एक तरीके से आप की वहां हाजिरी है बाकायदा।”
“वाट नानसेंस!”
“मैंने उस शाम की होटल की सीसीटीवी की फुटिंग देखी है। वो फुटिंग आप की होटल की लॉबी में हाजिरी लगाती है।”
वो खामोश हो गयी।
“आप खुद कबूल करती हैं कि अगले रोज की मुलाकात पहले ही मुकरर्र थी क्योंकि और अगले रोज उसने राजनगर से कूच कर जाना था।”
“टाइम मुकरर्र नहीं था।”—वो होंठों में बुदबुदाई।
“ऐसा था तो समझिये कि टाइम मुकरर्र होने का आप से और इन्तजार न हुआ और आप खुद होटल पहुंच गयीं। अपनी हेठी होना कुबूल कर के आप होटल पहुंच गयीं। कहिये कि मैं गलत कह रहा हूं?”
वो परे देखने लगी।
“मंगलवार रात को मकतूल अपने कमरे में पूरी तरह से ड्रैस्ड अप मौजूद था जिस से साफ जाहिर था कि वो कहीं जाने की तैयारी में था लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि उस दौरान उसे कई मेहमानों को रिसीव करना पड़ गया और उसकी रवानगी मुलतवी होती गयी। इस बात से जाहिर होता है कि उस की आप से न सिर्फ मुलाकात मुकरर्र थी, मुलाकात का टाइम भी मुकरर्र था। इसी वजह से आप होटल की लॉबी में मौजूद थीं। अब आप मुकर के दिखाइये कि ऐसा नहीं था। ताकीद है कि सीसीटीवी फुटेज के सच को आप नहीं नकार पायेंगी। अब कहिये जो कहना है।”
“अब क्या कहना है?”—वो मरे स्वर में बोली—“जब तुम्हें पता लग ही गया है तो...तो...अब क्या कहना है?”
“फिर भी कहिये!”
“था टाइम मुकरर्र मुलाकात का। उसने मुझे रात सवा नौ बजे स्टारलाइट की लॉबी में मिलने को बोला था।”
“सवा नौ बजे आप लॉबी में मौजूद थीं?”
“हं-हां।”
“फिर?”
“मैं ने काफी देर इन्तजार किया लेकिन वो न आया। मुझे इस बात में अपनी इंसल्ट लगने लगी। वो तो होटल में ही मौजूद था, मेरी तरह उसने तो कहीं दूर से वहां नहीं पहुंचा था, उसे तो मेरे से पहले लॉबी में मौजूद होना चाहिये था!”
“ठीक।”
“डिले से परेशान मुझे पहले तो सूझा कि मैं वापिस लौट जाऊं लेकिन फिर मैंने उसके रूम में जाने का फैसला किया।”
“जिस पर आपने अमल किया?”
“हां।”
“टाइम का कोई अन्दाजा?”
“जब मैंने उसके कमरे की कालबैल बजाई थी, तब नौ बज कर चालीस मिनट हुए थे।”
“आप को कालबैल का जवाब न मिला तो आपने पाया कि दरवाजा लाक्ड नहीं था, खुला था!”
“हां।”
“आप भीतर दाखिल हुर्इं तो उसे मरा पड़ा पाया?”
“हां।”
“फिर?”
“फिर क्या? उल्टे पांव मैं वहां से भाग खड़ी हुई।”
“ठहर कर, ठिठक कर माहौल का जायजा न लिया?”
“बिल्कुल भी नहीं। मैं वहां ठहरती तो बेहोश होकर वहीं गिरी पड़ी होती।”
“जो कह रही हैं, सच कह रही हैं?”
“सौ फीसदी सच कह रही हूं। मेरी झूठ बोलने की मर्जी होती तो मैं तुम्हारे सीसीटीवी के हवाले की भी धौंस न खाती, फिर जो होता, देखा जाता।”
“आपने कत्ल नहीं किया?”
“नाओ यूं आर टाकिंग नानसेंस। मेरी उससे डेट थी तो क्या कत्ल करने के लिये थी? मेरा कत्ल का इरादा होता तो मैं लॉबी में बैठी टाइम पास कर रही होती!”
“ठीक।”
“अब तुम क्या करोगे?”
“मैं क्या करूंगा?”
“अभी जो सुना, उसे अपने अखबार में छाप दोगे?”
“अभी नहीं।”
“क्या मतलब?”
“मेरा दिल गवाही दे रहा है कि बहुत जल्द कातिल का राज फाश होने वाला है। लिहाजा मैं कुछ अरसा आप की बताई इस नयी बात की बाबत खामोश रहना अफोर्ड कर सकता हूं।”
“अगर तुम्हारी उम्मीद के मुताबिक कातिल का पता लग गया?”
“तो आप के नये बयान का जिक्र वैसे ही गैरजरूरी हो जायेगा।”
“ओह!”
“इजाजत चाहता हूं।”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
दोपहरबाद रमाकान्त ‘ब्लास्ट’ के आफिस में पहुंचा।
“भई, वाह!”—उसे देखते ही सुनील हर्षित स्वर में बोला—“आज तो चींटी के घर भगवान आ गये!”
“कमला मार्इंयवा!”—रमाकान्त उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठता बोला—“ओये, भगवान मेरे जैसे होते हैं? चींटी तेरे जैसी होती है?”
“मैंने मुहावरा इस्तेमाल किया था।”
“सुबह सवेरे मत इस्तेमाल किया कर मुहावरा।”
“रमाकान्त, साढ़े बारह बजने को हैं।”
“ऐज आई सैड, सुबह सवेरे मत इस्तेमाल किया कर मुहावरा।”
“ओके। अब बोलो, काफी पियोगे?”
“नहीं, काफी मैं सांझ ढ़ले, चिराग जले पीता हूं। अभी थोड़ी सी पिऊंगा।”
“मेरा सवाल चाय की बुआ की बाबत था।”
“मेरा जवाब काफी की ग्रैंडमदर की बाबत था।”
“अब बोलो न! काफी पियोगे?”
“दिखाई देगी तो पिऊंगा न!”
सुनील ने घन्टी बजा कर चपरासी मानसिंह को बुलाया और काफी का आर्डर दिया।
तत्काल दोनों को काफी सर्व हुई।
दोनों ने काफी के साथ अपने अपने ब्रांड के सिग्रेट भी सुलगा लिये।
“काकाबल्ली”—फिर रमाकान्त संजीदगी से बोला—“तेरा ये अन्दाजा गलत निकला है कि लड़की उसी हाउसिंग बोर्ड के फ्लैट्स में से एक में रहती थी जिसमें जमूरा रहता था।”
“कौन लड़की? कौन जमूरा?”
“लगता है ध्यान कहीं और है। अरे भई, विनायक नगर के हाउसिंग बोर्ड फ्लैट नम्बर पैंतालिस का बाशिन्दा जमूरा। प्रहलाद राज। मकतूल का बिजनेस पार्टनर। और लड़की वो जो तेरे खयाल से उसकी मशूक हो सकती है।”
“ओह! वो लड़की उसी हाउसिंग बोर्ड के किसी फ्लैट में नहीं रहती?”
“नहीं।”
“आसपास कहीं रहती होगी!”
“आस पास भी नहीं। काफी दूर। केनिंग रोड पर। यानी तेरी आब्जरवेशन गलत थी कि प्रहलाद राज से मिलने उसने कहीं दूर से नहीं आना था, उसका मुकाम करीब ही कहीं था।”
“रमाकान्त, हर तीर तो निशाने पर नहीं बैठता न! कोई तुक्का भी होता है।”
“ये तीर नहीं बैठा निशाने पर।”
“केनिंग रोड है कहां?”
“विनायक नगर से आठ किलोमीटर दूर है। कूपर रोड के करीब।”
“ये तो काफी फासला हुआ! फिर तो मैं यही कहूंगा कि वो लड़की प्रहलाद राज के फ्लैट के इर्द गिर्द ही कहीं मंडराती और जब मुझे वहां से रुखसत होता देख लेती तो लौट आती।”
“हो सकता है।”
“है कौन? मालूम पड़ा?”
“नहीं मालूम पड़ा तो क्या मैं यहां काफी पीने आया हूं?”
“यानी कि पड़ा!”
“हां। लड़की का नाम निधि सांगवान है। केनिंग रोड पर पंकज अपार्टमेंट्स नाम की एक नौ-मंजिला रेजीडेंशल इमारत है जिस की तीसरी मंजिल के एक फ्लैट में वो रहती है। नम्बर है अट्ठारह।”
“वार्किंग गर्ल है?”
“हां। शंकर रोड पर के ज्वेलरी के एक बड़े शोरूम में सेल्सगर्ल है।”
“कैसे जान लिया इतनी जल्दी?”
“तू आम खाने से मतलब रख, पेड़ न गिन।”
“फिर भी?”
“प्रहलाद राज की निगरानी से जाना? पट्ठा गया न रात को केनिंग रोड मशूक से मिलने!”
“वो गया?”
“कल शाम को बीवी एकाएक मायके से लौट आयी।”
“तभी।”
“फिर आज सुबह लड़की की निगरानी से पता लगा कि वो शंकर रोड पर नौकरी करती थी।”
“ठीक?”
“लेकिन वो अपने फ्लैट में अकेली नहीं रहती।”
“अकेली नहीं रहती?”
“हां। साथ एक फ्लैटमेट है। नाम डिम्पल सक्सेना है।”
“वो क्या करती है?”
“वही, जो निधि सांगवान करती है। दोनों शंकर रोड के एक ही ज्वेलरी शोरूम में सेल्सगर्ल हैं।”
“इसीलिये सखियां हैं! फ्लैटमेट हैं!”
“क्योंकि केनिंग रोड पर, सुना है, रेंटल वैल्यू बहुत हाई है। इसलिए फ्लैट शेयर कर के किराया आधा आधा भरती हैं।”
“निधि को तो मैंने देखा और उस के मिजाज का थोड़ा अन्दाजा मुझे लगा, फ्लैटमेट मिजाज में कैसी है?”
“जौहरी ने कुछ बोला तो है इस बाबत!”
“क्या?”
“सपोर्टिंग। अश्योर हर गुड टाइम एण्ड शी वुड टो युअर लाइन। आसान जुबान में कहूं तो लैविश ड्रिंक्स डिनर की ट्रीट के वादे पर किसी के भी साथ चल देने वाली।”
“और निधि?”
“जैसी रूह, वैसे फरिश्ते।”
“ओह!”
“मालको, मिडल क्लास की सिंगल, इंडीपेंडेंट, शहरी लड़कियां ऐसी ही होती हैं आजकल।”
“और?”
“और जौहरी की रिपोर्ट की रू में एक बात मैं जोड़ना चाहता हूं। निधि सांगवान इस वक्त प्रहलाद राज से सैट है इसलिये हो सकता है तुझे घास न डाले, डाले तो आसानी से न डाले, इसलिये अगर कोई जानकारी हासिल करना चाहता है तो दूसरी को, डिम्पल सक्सेना को, अपना निशाना बना।”
“रमाकान्त, जानकारी तो मुझे निधि की और बाजरिया निधि प्रहलाद राज की चाहिये, डिम्पल के पीछे पड़ने से क्या हाथ आयेगा?”
“आयेगा। दोनों सखियां हैं, फ्लैटमेट हैं, एक ही जगह जॉब करती हैं, एक ही तरह की इंडीपेंडेंट लाइफ है दोनों की, लिहाजा ये नहीं हो सकता कि दोनों एक दूसरे की राजदां न हों। ऐसी लड़कियां राजदां से वैसे ही बहुत बतियाती हैं। तू पहले डिम्पल की तरफ तवज्जो दे, कुछ हाथ आता न दिखाई दे तो निधि पर भी लाइन मार देखना। वो कहीं भागी तो जा नहीं रही!”
“हूं। वो शंकर रोड वाले ज्वेलर्स शोरूम का नाम क्या है?”
“आर के ज्वेलर्स। सुबह ग्यारह बजे खुलता है और शाम सात बजे बन्द होता है।”
“ठीक। मैं डिम्पल सक्सेना को पहचानूंगा कैसे?”
“क्लोजिंग टाइम से पहले जाना। तमाम सेल्सगर्ल्स ने अपनी साड़ी ब्लाउज वाली पोशाक पर नेमप्लेट लगाई होती है। नेमप्लेट दिखाई दे जायेगी न! या उसकी जगह कुछ और ही ताड़ने लगेगा?”
“उसकी जगह नहीं। उसके साथ हो सकता है।”
“सदके जावां! रंगीली बात कर रहा है अपना काकाबल्ली!”
सुनील हँसा।
“हस्सया ई कंजर।”
“और?”
“और ये।”
रमाकान्त ने उसके सामने एक ए-4 शीट रखी।
“ये प्रहलाद राज के नेशनल बैंक में एकाउन्ट की आखिरी कुछ ऐंट्रीज़ का प्रिंट आउट है। इस के मुताबिक जमूरे का अपटूडेट बैंक बैलेंस पचपन हजार रुपये के करीब है।”
“बस! इतने से ही पट्ठा सिंगल माल्ट पीता है!”
“और एकाउन्ट होगा। बल्कि और एकाउन्ट होंगे।”
“हो सकता है।”
“ठेकेदारी के धन्धे में लोगबाग कैश में भी बड़ी बड़ी रकमें पास रखते हैं। दो नम्बर का पैसा ज्यादा चलता है इस धन्धे में।”
“ठीक।”
“और ये देख।”—रमाकान्त ने एक और शीट उसके सामने रखी।
“ये क्या है?”
“उसके आधार कार्ड की फोटोकापी की फोटोकापी। आजकल बैंक एकाउन्ट को आधार से लिंक अप करना लाजमी हो गया है न! इसलिये ये कापी बैंक में थी।”
“निकलवाई क्यों?”
“ताकि कनफर्म हो जाता कि ये कोई दूसरा प्रहलाद राज नहीं। इस पर कार्ड होल्डर की फोटो भी है। देख, वही है!”
“वही है। पता भी वही है विनायक नगर वाला।”
“तो थैंक्यू बोल।”
“थैंक्यू, वड्डे भापा जी।”
“अब बोल, काफी के अलावा और क्या मिलता है तेरे द्वारे?”
“सब कुछ मिलता है। क्या चाहिये?”
“वोदका पूरी मिलती है?”
“क्या?”
“पानी पूरी समझता है?”
“हां। गोलगप्पों का मुम्बईया नाम है।”
“तो वोदका पूरी क्यों नहीं समझता?”
“नहीं, वो नहीं मिलती।”
“फिर क्या खाक मिलता है यहां!”—वो उठ खड़ा हुआ—“चलता हूं।”
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
“मार्इंयवी लाई बेकद्रां नाल यारी, टुट गयी तड़क्क कर के।”
“इस का क्या मतलब हुआ?”
“मां का सिर मतलब हुआ। मतलब किसी बात का नहीं समझता, वैसे वड्डा आलम फाजिल बनता है। गुड बाई टिका लै।”
“शाम को मिलते हैं।”
“शाम को मिलते हैं। बल्ले! सारी बैठक में ये एक ही काम की बात की है तूने। आना। तेरे आने पर ही रोजा खोलूंगा।”
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
रमाकान्त विदा हो गया।
तीन बजे के करीब सुनील पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा।
अर्जुन उसे प्रैसरूम में कुछ अन्य पत्रकारों से गप्पें लड़ाता मिला।
सुनील को देख कर वो ग्रुप से अलग हुआ और उसके पास पहुंचा।
“क्या खबर है?”—सुनील बोला।
“बड़ी खबर कोई नहीं, गुरु जी, छोटी मोटी खबरिया ही हैं।”
“वो ही बोल।”
“पुलिस ने मकतूल के निजी सामान की तलाशी में दो प्लेन टिकट बरामद किये थे। एक इंडिगो का मुम्बई का और दूसरा सिंगापुर एयरलाइन्स का न्यूयार्क का। दोनों टिकट नकली पाये गये हैं।”
“वो तो होना ही था! मकतूल जब लोकल बाशिन्दा था तो उसने मुम्बई या न्यूयार्क झक मारने जाना था! वो टिकटें उसकी कॉनमैनशिप के प्रॉप्स थे।”
“यही बात होगी। टिकटों की तलाश के दौरान ही पुलिस को न्यूयार्क के एक कोर्ट से जारी हुआ एक डाईवोर्स सर्टिफिकेट मिला था जो जाहिर करता था उसने अपनी फ्लोरेंस वैस्टलेक नाम की अमेरिकन बीवी से बाकायदा तलाक लिया था। वो सर्टिफिकेट भी नकली पाया गया है।”
“क्योंकि वो भी कॉनमैनशिप का प्रॉप था। और?”
“और सौ सौ डालर के साठ नोटों की एक गड्डी बरामद हुई!”
“वो भी नकली?”
“नहीं। एक दम जेनुईन। चौकस।”
“लगभग चार लाख रुपये!”
“हां। क्या वो भी प्रॉप थे आप की जुबान में?”
“हां। मकतूल ने अपने जाल में फंसती बुलबुल के सामने खुद को अमरीकी बाबू जो बताना होता था।”
“ठीक।”
“माई फर्स्ट बार्न, इस केस में एक काम ऐसा हुआ है जैसा पुलिस ने पहले कभी नहीं किया। सौ डालर के नोटों की गड्डी मंगलवार रात को बरामद हुई और शुक्रवार पुलिस की जुबानी उसका जिक्र आया। यूं ही मकतूल के पोजेशन में दो किलो सोना था—ये दीगर बात है कि पड़ताल में नकली साबित हुआ था—उसका भी जिक्र पुलिस ने बरामदी के दो दिन बाद किया। प्रभूदयाल ने उस बात से ये कह के पल्ला झाड़ लिया था कि पीआरओ भूल गया होगा। अब नोटों के बारे में भी यही कहेगा कि पीआरओ जिक्र करना भूल गया। इसी केस में दो बार भूल गया! पहले तो ऐसा कभी न हुआ!”
अर्जुन ने सहमति में सिर हिलाया।
“केस का इनवैस्टिगेटिंग आफिसर प्रभूदयाल न होता तो मैं समझता कि हाकिम की नीयत मैली हो गयी थी और उसने बरामदी को खुद हड़प जाने की कोशिश की थी। फिर जब पता लगा था कि सोना नकली था तो बाजरिया पीआरओ उस का जिक्र छेड़ दिया था।”
“लेकिन एक बिस्कुट तो असली था! वो भी तो तीन लाख रुपये का था!”
“उसे नहीं पता चला होगा!”
“ठीक।”
“ऐसे ही डालर के नोट अगर नकली निकलते तो कहानी कुछ और होती, तो उन का जिक्र फौरन आता।”
“नोट चौकस थे। इस से तो यही लगता है कि पीआरओ से कोताही हुई।”
“हो सकता है। बहरहाल वो दोनों चीजें अहम नहीं जान पड़तीं क्योंकि नकली सोने की खेप की या डालर्स की केस के हल के सिलसिले में कोई कन्ट्रीब्यूशन नहीं दिखाई देती।”
“शायद हो!”
“नहीं है। उन दोनों चीजों का जो रोल था, वो उजागर हो चुका था। सोने का लालच देकर वो अपनी एक ठगी जा चुकी शिकार को और ठगना चाहता था और डालर्स के पुलंदे की नुमाइश से वो अपनी एक भावी शिकार को मन्त्रमुग्ध करना चाहता था, उस पर ये सिक्का जमाना चाहता था कि वो बहुत दौलतमन्द आदमी था। दूसरे, कत्ल का उद्देश्य अगर मकतूल को लूटना होता तो न उसके पास से सोने के दो किलो वजन के बिस्कुट बरामद होते और न डालर्स समेत उसके पास से कोई रोकड़ा बरामद होता।”
“तो क्या था कत्ल का उद्देश्य?”
“ये विकट सवाल है। जैसे कत्ल हुआ, उससे लगता है कि वो प्रीमेडीटेटिड नहीं था, कोई घर से ही फैसला करके, या तैयारी करके नहीं आया था कि उसने कत्ल करना था। इसका सबूत ये है कि आलायकत्ल चाकू कातिल अपने साथ नहीं लाया था, वो उसे इत्तफाकन मौकायवारदात पर पड़ा मिला था। यानी मेजबान और किसी मेहमान के बीच हालात ऐसे बन गये थे कि वक्ती जुनून के हवाले मेहमान ने वहां पड़ा चाकू काबू में किया था और उसे मकतूल की छाती में घोंप दिया था।”
अर्जुन प्रभावित दिखाई देने लगा।
“बहरहाल ये निश्चित जानो कि अगर केस का विवेचन अधिकारी प्रभूदयाल न होता तो मौकायवारदात से न डालर्स की बरामदी दिखाई जाती और न गोल्ड बिस्कुट्स की बरामदी दिखाई जाती, भले ही वो हरकत करने वाले को बाद में पता चलता कि सिर्फ एक बिस्कुट जेनुइन था, बाकी तमाम सोने का मुलम्मा चढ़ा पीतल था।”
“सही कहा।”
“इस बाबत मैं प्रभूदयाल से एक डायलॉग और करना चाहता हूं।”
“इस वक्त तो नहीं हो सकेगा!”
“क्यों?”
“अभी दस मिनट पहले मैंने उसे सब इन्स्पेक्टर बंसल और दो हवलदारों के साथ जीप में सवार होकर कहीं जाते देखा था। जीप सायरन बजा रही थी जिससे लगता था कि उन्हें कहीं पहुंचने की बहुत जल्दी थी।”
“फिर कोई वारदात!”
“क्या बड़ी बात है! ये शहर ही हादसों का है।”
“ठीक! फिर तो मैं चलता हूं।”
“मेरे लिये क्या हुक्म है?”
“तू भी जा।”
“आफिस?”
“घर।”
“जीते रहो, गुरु जी, बड़ा सार्इं आपको चीफ एडीटर बनाये।”
“और तुझे मेरी जगह दिलाये।”
“अभी नहीं।”
“अभी नहीं! यानी निगाह वहीं है?”
“हीं हीं हीं।”
साढ़े छ: बजे सुनील शंकर रोड पर था।
आर के ज्वेलर्स का शोरूम खूब बड़ा था और उसके सारे फ्रंट के साइज का नाम का नियोन साइन उस पर जगमगा रहा था। सुनील को उसकी बाबत किसी से पूछने की जरूरत ही न पड़ी। फासले से ही जगमग नियोन साइन उसे दिखाई दे गया था।
शोरूम के भीतर की सजधज बड़े बजट की फिल्मों के सैट जैसी थी। वहां एक ही तरह की सिल्क की साड़ी और ब्लाउज पहने बीस बाइस सेल्सगर्ल्स थीं जिन में से डिम्पल सक्सेना के नाम की नेमप्लेट वाली लड़की उसने जल्दी ही सिंगल आउट कर ली। वो कोई सत्ताइस अट्ठाइस साल की कदरन भारी बदन वाली लड़की थी जो औरत ज्यादा लग रही थी। उस के नयन नक्श अच्छे थे और उस घड़ी उन पर फुल मेकअप की परत थी। उसका केश विन्यास बहुत आधुनिक और स्टाइलिश था।
उस से विपरीत दिशा के एक काउन्टर पर उसे प्रहलाद राज की सम्भावित माशूक—निधि सांगवान—भी दिखाई दी। एक बार क्षण भर को दोनों की निगाहें भी लॉक हुर्इं लेकिन उसकी सूरत से न लगा कि उसने सुनील को पहचाना था।
सुनील बाहर निकल आया और शोरूम से थोड़ा परे स्टैण्ड पर खड़ी अपनी मोटरसाइकल की सीट पर एक ओर टांगें लटका कर बैठ गया।
आगे एक विकट स्थिति पैदा हो सकती थी जो उसे चिन्तित कर रही थी। वो दोनों सखियां थीं, एक जगह काम करती थीं, एक जगह रहती थीं, छुट्टी के बाद दोनों इकट्ठी बाहर निकल सकती थीं और इकट्ठी घर को रवाना हो सकती थीं।
वो खुदा से दुआ करने लगा कि वैसा न हो, कम से कम उस रोज वैसा न हो।
उसने एक सिग्रेट सुलगा लिया और उसके कश लगाता प्रतीक्षा करने लगा।
वैसा न हुआ।
निधि अकेली बाहर निकली।
सात बजने में अभी बीस मिनट बाकी थे।
वो सड़क पर पहुंची, करीब से गुजरते एक ऑटो को हाथ हिला कर उसने रोका और उस पर सवार हो गयी। तत्काल ऑटो सड़क पर दौड़ चला।
गुड!
अब डिम्पल जब भी बाहर निकलती, अकेली निकलती।
वो प्रतीक्षा करता रहा।
सात बजने को हुए तो शोरूम की लाइटें एक एक करके बन्द होने लगीं।
वो सम्भल कर बैठ गया।
सात बज चुकने के थोड़ी देर बाद शोरूम के कर्मचारी एक-एक‚ दो-दो करके बाहर निकलने लगे।
सवा सात बजे उसे डिम्पल दिखाई दी। शोरूम के आगे की सीढ़ियां उतर कर वो सड़क पर पहुंची और उधर बढ़ी जिधर कि बस स्टैण्ड था।
जरूर उसका इरादा केनिंग रोड की ओर की बस पकड़ने का था।
सुनील उस के पीछे लपका।
“मैम!”—उसने आवाज लगाई—“प्लीज!”
वो ठिठकी, घूमी।
सुनील उसके करीब पहुंचा।
“आप डिम्पल हैं—डिम्पल सक्सेना?”
तब तक उसने अपनी ड्रैस पर से नेमप्लेट हटा ली हुई थी।
“हां।”—माथे पर बल डालती वो बोली।
“मेरा नाम सुनील है। मैं दो मिनट आप से बात करना चाहता हूं।”
“क्या बात करना चाहते हो?”
“बोलूंगा न!”
“क्यों बात करना चाहते हो?”
“वो भी बोलूंगा न!”
उसने सिर से पांव तक सुनील का मुआयना किया।
सुनील निर्दोष भाव से मुस्कराया।
“करो।”—वो बोली।
“कहीं चलकर बैठ जायें तो...”
“दो मिनट की बात के लिये क्या बैठना! यहीं करो।”
“वो तो मैं ने मुहावरे के तौर पर कहा था।”
“यानी बातचीत लम्बी चल सकती है?”
“चल सकती है। नहीं भी चल सकती। सब आप के मूड पर मुनहसर है।”
“हूं। कहां बैठें?”
“‘फ्रीकआउट’ करीब ही है।”
“फ्रीकआउट! वो तो डिस्को है!”
“डिस्को नौ बजे के बाद होता है। उससे पहले नार्मल रेस्टोबार है।”
“शहर की काफी जानकारी है तुम्हें!”
“जी हां, पुराना बाशिन्दा हूं न!”
“हम्म!”
“फ्रीकआउट की तो आप को भी जानकारी होनी चाहिये। आखिर शंकर रोड पर ही तो जॉब है आप की!”
“जानकारी है लेकिन कभी भीतर जाने का इत्तफाक नहीं हुआ। ये जो तुमने कहा कि डिस्को वाली छवि उसकी रात नौ के बाद बनती है, ये तो मुझे कतई मालूम नहीं था।”
“चलिये, अब मालूम हो गया।”
“तो नौ से पहले फ्रीकआउट रेस्टो...बार?”
“हां।”
“बार! गुड! विल यू स्टैण्ड मी ए ड्रिंक?”
“ऐंजलफेस, आई विल स्टैण्ड यू सैवरल ड्रिंक्स।”
“बातें बढ़िया करते हो!”
“और मुझे आता क्या है!”
“दिलदारी की।”
“वो भी!”
“मार्इंड इट, आई डोंट सबस्क्राइब टु आईएमएफएल।”
“आई टू।”
“गुड। वैसे हो कौन तुम? नाम के अलावा कुछ बोलो।”
“मेरा तआरूफ थोड़ा पेचीदा है। बैठ कर बयान करूं तो कैसा रहे!”
“ओके। चलेंगे कैसे? कार है तुम्हारे पास?”
“जी नहीं, मोटरसाइकल है।”
उसकी शक्ल पर मायूसी साफ नुमायां हुई।
“कहां है?”—वो बोली।
“आप यहीं ठहरिये, मैं ले के आता हूं।”
“ओके।”
सुनील वापिस अपनी मोटरसाइकल की तरफ लपका और उस पर सवार होकर आनन फानन वापिस लौटा।
“विराजिये।”
उसने हैरानी से मोटरसाइकल को देखा।
“ये...ये मोटरसाइकल है!”—फिर बोली।
“जी हां।”—सुनील सहज भाव से बोला—“मोटरसाइकल ही है।”
“कमाल है! मैंने तो ऐसी मोटरसाइकल पहले कभी नहीं देखी। बहुत महंगी होगी!”
“जी हां। नयी तीस लाख की आती है।”
“ये...ये नयी नहीं है?”
“नहीं। सैकण्डहैण्ड है।”
“लगती तो नयी है!”
“क्योंकि बहुत मुहब्बत से रखता हूं। बहुत सेवा करता हूं इसकी।”
“सैकण्डहैण्ड कितने की ली?”
“चौदह लाख की।”
“कमाल है! फिर भी कार नहीं रखते हो! इतने में तो दो कारें आ जातीं!”
“बैठो।”
वो पैसेंजर सीट पर सवार हुई तो सुनील ने मोटरसाइकल आगे बढ़ाई।
‘फ्रीकआउट’ में उस वक्त कोई खास रश नहीं था। वो दोनों कोने की एक तनहा टेबल पर जा कर बैठे।
एक स्टीवार्ड उन के करीब पहुंचा। उसने दोनों को मेन्यू पेश किया।
डिम्पल ने मेन्यू थामने की कोई कोशिश न की, वो बोली—“आई विल हैव ए लार्ज ग्लैनफिडिक फिफ्टीन ईयर्स ऑन रॉक्स।”
“सेम फार मी।”—सुनील बोला—“बट विद वाटर एण्ड आइस।”
ड्रिंक्स सर्व हुए। दोनों ने चियर्स बोला।
“मैं सिग्रेट पी सकता हूं?”—सुनील बोला।
“मुझे भी दो तो पी सकते हो।”—जवाब मिला।
सुनील ने जेब से अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला, अपने विशिष्ट अन्दाज से उसे यूं झटका कि एक सिग्रेट आधा बाहर उछल आया। उसने पैकेट युवती की तरफ बढ़ाया।
युवती ने सिग्रेट खींच लिया।
सुनील ने भी एक सिग्रेट लिया और पहले उसका, फिर अपना सिग्रेट सुलगाया।
“थैंक्यू।”—वो बोली।
“वैलकम।”
“तुमने कहा था कि तुम अपना तआरूफ बैठ के बयान करोगे। अब बैठे हुए हो इसलिये बोलो... नहीं ये बताओ कि मुझे जानते कैसे हो?”
“क्योंकि जानता हूं कि तुम निधि सांगवान की फ्लैटमेट हो।”
“गॉड! तुम्हें ये भी पता है मैं कहां रहती हूं।”
“भई, जब निधि का पता है कहां रहती है तो उसकी फ्लैटमेट वहीं तो रहती होगी!”
“कहां?”
“फ्लैट नम्बर अट्ठारह, थर्ड फ्लोर, पंकज अपार्टमेंट्स केनिंग रोड।”
“कमाल है! तुम तो बहुत पहुंचे हुए आदमी हो!”
“अभी कहां पहुंचा हूं! आप का सहयोग हासिल हुआ तो अभी तो पहुंचूंगा!”
“हूं। अब बोलो, कौन हो, क्या हो तुम?”
“देखो, अपने तआरूफ के खाते में मैंने कई कुछ सोचा हुआ था, जैसे कि ऐड एजेंसी के लिये टेलेंट स्काउट हूं, प्राइवेट डिटेक्टिव हूं, सीआईडी आफिसर हूं, वगैरह लेकिन जब मैंने तुम्हें एक भली और सपोर्टिंग लड़की पाया तो मैंने फरेब का जाल फैलाने का खयाल छोड़ दिया। अब मैं तुम से झूठ नहीं बोलूंगा। ब्राइटआइज, में मीडिया पर्सन हूं, ‘ब्लास्ट’ का चीफ रिपोर्टर हूं। इनवैस्टिंगेटिव जर्नलिज्म—खोजी पत्रकारिता—मेरी स्पैशियलिटी है। मंगलवार को कूपर रोड पर स्थित होटल स्टारलाइट में एक कत्ल हुआ था जिसकी उम्मीद करता हूं कि तुम्हें खबर होगी।”
“है। वो होटल केनिंग रोड से मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर दूर है। पंकज अपार्टमेंट्स से इतने करीब हुए कत्ल की खबर का हम तक पहुंचना लाजमी था।”
“यानी कत्ल की खबर है! मुझे उसकी डिटेल्स दोहराने की जरूरत नहीं!”
“नहीं।”—वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली—“कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते हो कि निधि का उस कत्ल से कोई रिश्ता है?”
“नहीं, ये तो मैं नहीं कहना चाहता!”
“तो?”
“देखो, मकतूल, जो अंशुल खुराना के नाम से होटल स्टारलाइट में ठहरा हुआ था और जो खुद को मुम्बई से राजनगर पहुंचा बताता था‚ असल में अविनाश खत्री नाम का एक लोकल बाशिन्दा था जो कि सुभाष नगर में—जो कि जार्जटाउन से थोड़ा आगे है—रहता था। अब मालूम पड़ा है कि वो एक कॉनमैन था जो ऐसी भोला भाली सिंगल लेकिन पैसे वाली लड़कियों को शादी का झांसा देकर ठगता था...”
“आजकल तो ऐसी ठगी बहुत कामन हैं! आये दिन अखबारों में कोई न कोई वाकया छपता है। ऐसा कॉनमैन पहले अपने शिकार का फेसबुक फ्रेंड बन के उस का विश्वास जीतता है फिर अपना ठगी का जाल फैलाता है, बोलता है उसके पास फॉरेन में कहीं से हैवी ज्वेलरी का‚ यूरो, पाउन्ड, डालर जैसी मजबूत करेंसी का एक आल ड्यूटीज पेड पार्सल आ रहा था जिसे वो छुड़ा ले। फिर कहता है कि ड्यूटी कम जमा हुई थी या कोई पैनेल्टी लग गयी थी जिसको अदा करने के लिये उसे लाखों में रकम मांगता है जो वो ये सोच कर अदा कर देती है कि पार्सल का माल उससे कहीं ज्यादा कीमत का था। फिर उसे पता लगता है कि ऐसे किसी पार्सल का वजूद ही नहीं था और वो फेसबुक फ्रेंड भी हमेशा के लिये गायब हो जाता है।”
“ऐग्जैक्टली। ठगी का एकदम करैक्ट कैरीकेचर खींचा है तुमने।”
“मिलती जुलती ठगी मैट्रीमोनियल वैबसाइट के जरिये होती है। सम्पन्न‚ नौजवान लड़कियों का बायोडाटा वैबसाइट पर पोस्ट होता है। कॉनमैन उन विज्ञापनों में किसी ऐसे प्रॉस्पैक्ट को निशाना बनाता है जो पक्की उम्र की हो और चाइल्डलैस डाईवोर्सी हो। जवाब में कॉनमैन खुद को भी दौलतमन्द डाइवोर्सी बताता है और अपना बायोडाटा यूं पोस्ट करता है जैसे मैट्रीमोनियल प्रॉस्पैक्ट्स के तौर पर वो गुणों की खान हो। अपने आप को एमबीए या डाक्टर या इंजीनियर बताता है और डेढ़ दो करोड़ की सालाना इंकम बताता है। रेगुलर चैटिंग के जरिये कॉनमैन शिकार लड़की का विश्वास जीतता है, फिर सरकाता है कि उसे कुछ लाख रुपयों की फौरी जरूरत आन पड़ी थी क्योंकि उसका अपना सारा पैसा इनवेस्टमेंट्स में टाइड अप था और लड़की से टैम्परेरी माली इमदाद की दरख्वास्त करता है। शादी के उम्दा प्रॉस्पैक्ट्स से थर्राई हुई वो लड़की उसको मांगी गयी रकम उसे ट्रांसफर कर देती है, फिर रकम भी गायब और वुड बी ग्रूम भी गायब।”
“तुम तो बहुत कुछ जानती हो!”
“या वो आता है, पूरे आडम्बर के साथ बाकायदा शादी करता है और फिर किसी तिगड़म से लड़की का माल हथिया कर हमेशा के लिये गायब हो जाता है। यानी लड़की का आर्थिक शोषण ही नहीं करता, शारीरिक शोषण भी करता है।”
“कैसे जानती हो इतना कुछ?”
“क्योंकि यूं लुटी दो लड़कियों को जानती हूं।”
“ओह!”
“लेकिन तुम अपनी बात कहो।”
“पहले रिपीट न मंगवा लें?
“ओके।”
“साथ फिश फिंगर्स मंगवाऊं?”
“मैं नानवैज नहीं खाती।”
“शुक्र है, कोई तो काम है जो नहीं करती हो।”
“क्या बोला?”
“कुछ नहीं। मैं वेजीटेबल कबाब प्लैटर मंगाता हूं।”
उसने वेटर को इशारा किया।
रिपीट ड्रिंक्स उन्हें तुरन्त सर्व हुए।
“रीफ्रेशंड चियर्स!”—वो चहकती-सी बोली।
ग्लैनफिडिक अपना असर दिखाने लगी थी।
दोनों ने फिर जाम टकराये।
“होटल स्टारलाइट में कत्ल हुआ शख्स”—सुनील वार्तालाप का सूत्र वापिस अपने हाथ में लेता बोला—“ऐसा ही एक्सपीरियेंस्ड कॉनमैन था...”
“निधि का उससे क्या रिश्ता?”—वो बोली।
“सीधा कोई नहीं लेकिन मैं वही पहुंच रहा हूं।”
“पहुंचो।”
“अभी। जैसा कि मैंने कहा, वो मकतूल कॉनमैन असल में अविनाश खत्री नाम का एक लोकल बाशिन्दा था जो अपने आप को बड़े मॉडेस्ट स्केल पर बिल्डर बताता था। उस धन्धे में उसका एक पार्टनर था जिस का नाम”—सुनील एक क्षण ठिठका, फिर बोला—“प्रहलाद राज है।”
नाम की उस पर तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। वो सम्भल कर बैठी।
“जो विनायक नगर में रहता है?”—उसने सावधान स्वर में पूछा—“वहां के हाउसिंग बोर्ड के एक फ्लैट में?”
“हां।”
“अरे, वही तो है जिससे निधि आजकल प्रेम के झूले झूल रही है!”
“मेरे को भी ऐसी ही कुछ खबर लगी है।”
“कैसे लगी?”
“कल मैं प्रहलाद राज से उसके फ्लैट पर मिलने गया था। जब वहां से रुखसत पा रहा था तो वो वहां पहुंच गयी थी लेकिन प्रहलाद राज के साथ मुझे मौजूद पाकर वहां रुकी नहीं थीं, ‘फिर आऊंगी’ कहकर हवा हो गयी थी लेकिन उस मुख्तसर-सी घड़ी में दोनों के चेहरे के भावों से साफ जाहिर होता था कि उन दोनों के बीच कुछ था।”
“सब कुछ था।”—वो वितृष्णापूर्ण भाव से बोली।
तभी वेटर उन का किचन का आर्डर ले आया।
उसने आर्डर सर्व कर दिया, प्लेटें छुरी कांटे उन के सामने सजा दिये और रुखसत हो गया तो वो बोली—“तुम हो किस फिराक में?... देखो, मैं तुम्हें भली लड़की लगी हूं तो तुम भी मुझे ऐसे ही लगे हो, इसी वजह से हम यहां आमने सामने बैठे ड्रिंक्स शेयर कर रहे हैं। अब अगर झूठ बोलोगे तो...तो ये एक नाजायज हरकत होगी।”
“मैं झूठ नहीं बोलता। हमारी सात पुश्तों में किसी ने झूठ नहीं बोला।”
“गुड।”
“मैं इस कत्ल के केस के हल तक पहुंचने की कोशिश में हूं।”
“तुम क्यों?”
“क्योंकि मैं एक खोजी पत्रकार हूं। मैं अगर इस केस को हल करने में कामयाब होता हूं तो ‘ब्लास्ट’ पहला अखबार होगा जिस में कत्ल का हल उजागर होगा, जिसमें दावे के साथ दर्ज होगा कि फलां शख्स कातिल था।”
“तुम क्यों करोगे ऐसा? ये तो पुलिस का काम है!”
“वो करे अपना काम। कौन रोकता है! करे हल केस को। बताये कातिल कौन है! लेकिन उस दौरान अगर मैं कुछ कर दिखाता हूं तो उससे ‘ब्लास्ट’ की जयजयकार होती है। यही मेरा मिशन है।”
“कर लोगे?”
“कोशिश तो है!”
“पहले कभी किया?”
“कई बार। कई बार कत्ल के कई केस पुलिस से पहले सुनील भाई मुलतानी ने हल किये हैं।”
“वो कौन हुआ।”
“खाकसार।”—सुनील सिर नवाता बोला।
“लेकिन मुलतानी...”
“मेरा तकिया कलाम है।”
“कमाल के आदमी हो!”
“तुम क्या कम कमाल की हो जो मुझे भाव दे रही हो! करीब बैठकर ड्रिंक्स शेयर करने का मौका दे रही हो!”
“पहले क्यों न मिले?”
“इत्तफाक की बात है।”
“हूं। तो अब तुम चाहते हो कि मैं निधि और प्रहलाद राज की बाबत कुछ कहूं?”
“प्लीज!”
“उससे केस के हल में तुम्हें क्या मदद मिलेगी?”
“पता नहीं। खोजी पत्रकारिता में फिशिंग एक्सपिडीशन आम बात है। कभी मछली फंसती है, कभी नहीं फंसती लेकिन फिशिंग एंथुजियास्ट फिशिंग तो नहीं छोड़ देता न!”
“ये बात तो जिन्दगी पर भी लागू होती है! कभी किसी से मन भीगता है, कभी नहीं भीगता लेकिन कोई कोशिश तो नहीं छोड़ देता न!”
“जिन्दगी को हम किसी आइन्दा मुलाकात में डिसकस करेंगे।”
“आइन्दा मुलाकात?”
“हां।”
“पक्की बात?”
“हां।”
“प्रामिस?”
“आई प्रामिस।”
“प्रामिस ब्रेक तो नहीं करोगे?”
“नैवर। प्रामिस ब्रेकर, शू मेकर।”
“बातें बढ़िया करते हो!”
युवती पर अब बाकायदा नशा हावी था। अब उसकी आंखों मे रंगीन डोरे तैर रहे थे जो पता नहीं नशे की वजह से थे या किन्हीं उम्मीदों की वजह से थे।
“तो”—वो बोला—“वो दोनों एक दूसरे पर फिदा हैं?”
“राज है। पंजे झाड़ के पीछे पड़ा है। निधि तो बस उसकी लाइन टो कर रही है और बेवकूफ बन रही है।”
“ऐसा?”
“और नहीं तो क्या? इतना फर्क है दोनों की उम्र में...”
“कितना।”
“निधि छब्बीस साल की है, वो मुझे चालीस का जान पड़ता है।”
“इतना तो नहीं है!”
“मिले हो उससे?”
“हां। कल मिला न! अभी बोला तो था?”
“हां। तभी तुमने उस से मिलने पहुंची निधि को देखा था। नहीं?”
“हां।”
“चालीस का न सही, थोड़ा बहुत ही कम होगा। ऊपर से शादीशुदा है। बताओ तो! शहर में एलीजिबल बेचलर्स का घाटा है जो शादीशुदा मर्द से प्रेम की पींगे बढ़ा रही है! क्या कमी है उसमें! खूबसूरत है, नौजवान है, अच्छी नौकरी करती है, क्या जरूरत है राज को भाव देने की!”
“जब वो शादीशुदा है तो इस यूनियन का नतीजा क्या निकलेगा?”
“कहता है निधि शादी के लिये हामी भरेगी तो बीवी को तलाक दे देगा।”
“करेगा ऐसा?”
“क्या पता! कहता तो यही है!”
“तुम्हारा खुद का खयाल क्या है?”
“दे सकता है तलाक। आशिकी में सिर घूमा हुआ हो तो लोग बाग बड़ी बड़ी कुर्बानी कर बैठते हैं, भले ही वो गलत हों, नाजायज हों।”
“लाख रुपये की बात कही।”
“दरअसल निधि किसी और ही बात पर लट्टू है।”
“और क्या बात?”
“ऐश कराता है। उस पर खुल्ला खर्चा करता है। एक्सपेंसिव गिफ्ट देता है, वीकएण्ड पर तो ग्रैंड पार्टी अश्योर्ड होती ही है, इन बिटविन भी ट्रीट्स देता है।”
“इतना पैसा खर्चने की हैसियत है उसकी?”
“होगी ही! जब बेहिचक खर्चता है तो होगी ही!”
“मिलने निधि ही उसके पास जाती है या वो भी आता है?”
“वो भी आता है। क्योंकि निधि तो उसके फ्लैट पर तभी जा सकती है जब कि उसकी बीवी मायके गयी हुई हो। अब बीवी सदा तो मायके नहीं गयी रहती न!”
“बीवी साथ होती है तो क्या करता है? कैसे मुलाकात करता है निधि से?”
“केनिंग रोड हमारे फ्लैट पर आता है।”
“अक्सर?”
“अक्सर ही समझो।”
“तुम्हें कोई असुविधा नहीं होती?”
“होती है न! ढ़ेर होती है। वो निधि से मिलने आता है तो मुझे फ्लैट से चला जाना पड़ता है।”
“रात को ही आता होगा?”
“हां। दिन में तो निधि शोरूम में होती है। जब आता है, शाम आठ बजे के बाद ही आता है।”
“कब तक ठहरता है?”
“कोई निश्चित नहीं। लेट आये तो जल्दी चला जाता है लेकिन रीजनेबल टाइम पर आ जाये तो जाने का कोई टाइम नहीं।”
“लेट अक्सर आता है?”
“नहीं, अक्सर तो नहीं लेकिन कभी कभार तो आता ही है लेट। अभी मंगल को ही दस बजने को थे जब कि आया था।”
“इस मंगल को?”
“हां। लेकिन ज्यादा देर नहीं ठहरा था। मैं फ्लैट से कूच करने लगी थी तो उसी ने मुझे रोक दिया था।”
“ज्यादा देर ठहरता तो इतनी लेट नाइट में भी तुम बाहर?”
“हां। यही तो मुसीबत है!”
“तुम इंकार कर दो तो?”
“वो मुझे फ्लैट से ही चलता कर देगी। लीज़ उसके नाम से है।”
“लेट नाइट में दो ढ़ाई घन्टे तुम्हें फ्लैट से बाहर रहना पड़ता है तो कहां जाती हो?”
“जहन्नुम में।”—वो गुस्से से बोली।
“वो तो कोई अच्छी जगह नहीं रात को जाने के लिये! सच पूछो तो दिन में जाने के लिये भी अच्छी जगह नहीं। उसके अलावा कहां जाती हो?”
“पास एक पार्क है। वहां जाके बैठ जाती हूं।”
“सर्दियों में भी?”
“हां, भई।”
“लेट नाइट में पार्क में कौन होता होगा!”
“गर्मियों में तो काफी होते हैं लोगबाग—वहां की कुल्फी बहुत मशहूर है, और नहीं तो लोगबाग कुल्फी खाने ही आ जाते हैं—लेकिन सर्दियों में तो कोई इक्का दुक्का ही होता है।”
“आई सी।”
“एक बार जानते हो क्या हुआ?”
“क्या हुआ?”
“गॉड! बताते शर्म आती है।”
“आपसदारी में कैसी शर्म!”
“मुझे पुलिस ने पकड़ लिया।”
“अरे!”
“दो सिपाही आये और मेरे पर इलजाम लगाने लगे कि मैं तो...मैं तो...वो थी और वहां किसी ग्राहक की तलाश में मौजूद थी।”
“तौबा! कैसे पीछा छूटा?”
“पांच सौ रुपये ले कर टले।”
“ये बात निधि को बताई?”
“हां।”
“क्या बोली।”
“बोली, पांच सौ रुपये मेरे से ले ले और आगे से रेलवे स्टेशन पर या मुगलबाग स्थित इन्टरस्टेट बस टर्मिनल पर चली जाया कर या नाइट शो में पिक्चर देखने चली जाया कर।”
“यानी सलाह थमाई, अपने कारोबार को ब्रेक देने का आश्वासन न दिया!”
“हां।”
“वापिसी कैसे होती थी?”
“उसके फोन करने पर। मोबाइल पर काल करके बताती थी न, कि वो चला गया था।”
“तुम्हारे से कैसे पेश आता है?”
“डीसेंटली। लाइक ए जन्टलमैन। एक दो बार तो वीकएण्ड आउटिंग पर बाकायदा जिद करके मुझे भी साथ ले के गया।”
“तुम्हारे पर कभी लाइन न मारी?”
“न।”
“मारता तो?”
“तो मरता। इधर के चक्कर में उधर से भी जाता। दो किश्तियों का सवार मंझधार में गिरता है।”
“लाख रुपये की बात कही!”
“लाख रुपये की तो पिछली बात थी!”
अब उसका गिलास खाली था और वो बाखूबी तरंग में थी।
“सवा लाख रुपये की बात कही!”
वो हँसी।
“तुम्हारे निधि से कैसे ताल्लुकात हैं?”—सुनील ने पूछा।
“बहुत अच्छे। बहनों जैसे। ऐसे ही तो मैं इतनी कुर्बानी नहीं करती कि उसकी खातिर रातबरात जाकर पार्क में बैठती हूं।”
“फिर भी कहती हो वो तुम्हें फ्लैट से चलता कर देगी!”
“फिगर आफ स्पीच के तौर पर कहा। मैं उसके लिये जो कुछ करती हूं, उस पर अहसान जताने के लिये नहीं करती, अपनी फास्ट फ्रेंड के लिये फर्ज मान कर करती हूं।”
“फास्ट फ्रेंड बोला तो अपना दिल तो तुम्हारे सामने खोलती होगी!”
“हां।”
“तो क्या कहती है? शादी कर लेगी?”
“बीवी को सच में तलाक दे देगा तो कर लेगी।”
“क्या पता तलाक का उसका कोई इरादा न हो, ऐसा वो ऐश लूटने के लिये, लूटते रहने के लिये, निधि से कहता हो?”
उसने उस बात पर विचार किया।
“मैं ने इस बाबत कभी सोचा नहीं था”—फिर बोली—“लेकिन अब तुमने जिक्र किया तो...तो लगता है ऐसा हो तो सकता है। मैं”—वो निर्णायक भाव से बोली—“इस बाबत निधि से बात करूंगी और बाकायदा उसे खबरदार करूंगी।”
“अच्छा करोगी। सिंसियर फ्रेंड होने का सबूत दोगी।”
“मैं करूंगी।”
“मर्द बहेलिये की जात होता है, पंछी फंसाने को बहुत तरह के जाल फैलाता है। विवाहित मर्दों की माशूकों के लिये ये स्टैण्डर्ड लाइन आफ एक्शन है कि माई वाइफ डज़ नाट अन्डरस्टैंड मी।”
“अब तुमने लखटकिया बात कही! एक लाख पैंतीस हजार की, टु बी एग्जैक्ट।”
“आइल आर्डर ए रिपीट।”
“नो! नो!”
“वाई नो?”
“मैं घर से बाहर दो से ज्यादा कभी नहीं पीती।”
“क्यों?”
“बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।”
“घर में नहीं होती?”
“होती है। आते हैं नाजायज खयाल। जागती हैं आवारा ख्वाहिशें। लेकिन घर होती हूं तो घर नहीं जाना होता न!”
“वैरी वैल सैड। डिनर?”
“नो, थैंक्स। इट्स टू अर्ली। आई एम यूज्ड टु लेट डिनर।”
“सो शैल वुड काल इट ए डे?”
“यस। प्लीज।”
सुनील ने बिल चुकता किया।
“अब कहां जाओगी?”—उसने पूछा।
“घर ही जाऊंगी?”—वो झूमती-सी बोली।
“मैं ड्रॉप करता हूं।”
“अरे, नहीं...”
“अरे, हां।”
“मुझे आराम से ऑटो मिल जायेगा।”
“वो तो मिल जायेगा लेकिन अगर मोटरसाइकल की सवारी में तुम्हारी हेठी न होती हो तो...”
“पागल हुए हो! इट विल बी ए रीयल ट्रीट। मेरा तीस लाख की मोटर साइकल पर बैठना क्या रोज रोज होगा!”
“चौदह लाख की।”
“देखने वालों को क्या पता चलेगा कि सैकंडहैण्ड है!”
“ठीक! तो चलें फिर।”
“तुम्हें जहमत होगी...”
“अब बस करो न! ब्राइटआइज, कोई जहमत नहीं होगी।”
दोनों बाहर निकले और सुनील की मोटरसाइकल पर पहुंचे। सुनील ने इंजन स्टार्ट किया और उसे इशारा किया। वो उसके पीछे पिलियन सीट पर बैठ गयी।
कमर में हाथ डाल के। सट के।
सुनील ने मोटरसाइकल दौड़ा दी।
रात की उस घड़ी केनिंग रोड और आगे पंकज अपार्टमेंट्स पहुंचने में पैंतीस मिनट लगे।
“ओके”—वो पीछे से उतरी तो सुनील बोला—“गुड नाइट।”
“अभी नहीं गुड नाइट।”—वो बोली—“लवनैस्ट देख के जाओ।”
“तुम्हारा?”
“निधि और राज का। चलो।”
सुनील ने मोटरसाइकल खड़ी की और उसके साथ हो लिया।
लिफ्ट द्वारा वो तीसरी मंजिल पर पहुंचे।
डिम्पल ने चाबी लगा कर फ्लैट नम्बर अट्ठारह का दरवाजा खोला और भीतर की बत्तियां जलार्इं।
सुनील ने भीतर कदम डाला तो पाया कि वो बहुत सुरुचिपूर्ण ढ़ण्ग से सजा हुआ फ्लैट था।
“छोटा-सा है।”—वो बोली—“टू बैडरूम, ड्रार्इंग डायनिंग।”
“तुम दो जनियों की इतनी ही जरूरत है।”
“बैठो।”
“नहीं। लवनैस्ट देख लिया, अब मैं चलता हूं।”
“अरे, बैठो तो!”—उसने बड़ी अदा से उसकी छाती पर हाथ टिकाया और उसे हौल से पीछे सोफे पर धक्का दिया।
“लेकिन...”—सुनील ने विरोध करना चाहा।
“वन फार दि रोड।”—वो बोली—“बाई चांस यहां ग्लैनफिडिक है।”
“तुम घर में बोतल रखती हो?”
“अरे, मैं नहीं रखती। राज लाया था। पहुंचा था तो मूसलाधार बारिश होने लगी थी। दोनों ने तफरीह के लिये निकलना था, नहीं निकल सके थे। फिर ड्रिंक डिनर का प्रोग्राम यही चला था।”
“ओह!”
“सारी विस्की कनज्यूम नहीं हुई थी इसलिये बोतल में जो बची थी वो पीछे छोड़ गया था। लाती हूं।”
वो पिछले एक दरवाजे के पीछे कहीं गायब हो गयी।
पीछे सुनील ने एक सिग्रेट सुलगा लिया।
उसका सिग्रेट समाप्तप्राय था जब कि वो एक ट्रे उठाये लौटी। उसने ट्रे सेंटर टेबल पर रखी और उसके सामने बैठ गयी।
सुनील ने देखा ट्रे पर ग्लैनफिडिक की लिटर की बोतल मौजूद थी जो एक तिहाई भरी हुई थी। साथ में एक मिनरल वाटर की बोतल, एक पीनट्स का कटोरा और दो खाली गिलास थे।
दो!
“अब घर पर हूं न!”—वो यूं बोली जैसे उसकी निगाह का मन्तव्य समझ गयी हो।
“ओह!”
“प्लीज सर्व।”
सुनील ने दो पैग तैयार किये।
दोनों में फिर चियर्स का आदान प्रदान हुआ।
उसने सुनील के पहलू में पड़ा सिग्रेट का पैकेट और लाइटर खुद ही उठा लिया और एक सिग्रेट सुलगा लिया।
“अच्छी शाम गुजरी।”—वो धुंआ उगलती बोली।
“अभी कहां गुजरी!”—सुनील विनोदपूर्ण स्वर में बोला—“अभी तो गुजर रही है।”
“राइट। मेरे खयाल से मैरीड नहीं हो।”
“कैसे जाना?”
“तुम्हारी उम्र के शादीशुदा नौजवानों को शाम को घर जाने की जल्दी होती है। तुम्हें कोई जल्दी नहीं है, ऐसे जाना।”
“वाह! ब्रीलियेन्ट डिडक्टिव रीजनिंग!”
“कभी गोल्ड या डायमंड ज्वेलरी की जरूरत पड़े तो आर के ज्वेलर्स में आना। प्रोप्राइटर से स्पैशल डिस्काउन्ट दिलवाऊंगी।”
“मैं जरूर आऊंगा। एक बात सूझी मुझे। ये फ्लैट छोटा है लेकिन इतना छोटा भी नहीं कि यहां उन दोनों की मौजूदगी में तुम भी न समा सको! पार्क में जाकर बैठने की जहमत की जगह तुम अपने बैडरूम में रहो तो क्या प्राब्लम है?”
“मुझे कोई प्राब्लम नहीं, उन्हें प्राब्लम है। उन्हें कम्पलीट प्राइवेसी चाहिये। मैं घर में नहीं तो मुझे क्या मालूम पीछे क्या हुआ! मैं अपने बैडरूम में बैठूं तो सोचूंगी तो सही न कि बगल के बैडरूम में क्या हो रहा होगा! कुछ नहीं भी हो रहा होगा तो शैतानी खयाल तो आये बिना नहीं रहेगा न!”
“पाखंड है।”
“अब जो है सो है।”
“निधि की आज भी राज के साथ डेट है?”
“नहीं।”
“घर पर तो नहीं है!”
“एक बर्थडे पार्टी में गयी है। इसीलिये आज आधा घन्टा पहले छुट्टी की थी ताकि यहां आके शोरूम की ड्रेस उतार कर कोई पार्टी ड्रैस पहन पाती।”
“चेंज के लिये पहले घर आयी, फिर पार्टी में गयी?”
“हां, ऐसा ही बोली थी वो।”—उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली—“आती ही होगी!”
“फिर तो मुझे चलना चाहिये।”—सुनील एकाएक व्यस्तता जताने लगा, अपना सिग्रेट का पैकेट और लाइटर सम्भालने लगा।
“अरे, बैठो।”
“वो क्या सोचेगी?”
“राज की आमद पर जब मैं कुछ नहीं सोचती तो तुम्हारी आमद पर वो क्यों कुछ सोचेगी, भई?”
“वो तो ठीक है लेकिन...”
कालबैल बजी।
“मेरे खयाल से आ ही गयी।”
उसने जाकर दरवाजा खोला और जगमग जगमग निधि के साथ वापिस लौटी।
निधि सुनील को देख कर सकपकाई।
“सुनील।”—डिम्पल गर्व से बोली—“माई फ्रेंड।”
“ओ, हल्लो।”
सुनील ने उठ कर जवाबी ‘हल्लो’ बोला।
“ये निधि है”—डिम्पल बोली—“निधि सांगवान! मेरी फ्लैटमेट। अभी मैं इसी का जिक्र कर रही थी।”
“नाइस मीटिंग यू, निधि।”—सुनील बोला।
वो मुस्कराई।
सुनील ने देखा वो एक जींस जैसी टाइट, टखनों से थोड़ा ऊपर तक पहुंचने वाली वाइट पैंट और वैसी ही सामने से खुली स्लीवलैस जैकेट पहने थी। जैकेट के नीचे लम्बी धारियों वाली और कालर वाली लाल कमीज थी। उसके गले में एक झिलमिलाता चोकर था और सिर पर बड़े स्टाइल से तनिक तिरछी पहनी हुई पतलून-जैकेट के रंग की ही सफेद गोल्फ कैप जैसी कैप था और...
पैरों में लाल रंग की एक्स्ट्रा हाई हील्स की सैंडलें थीं।
स्टिलेटो हील्स!
“बैठो, भई।”—वो मधुर स्वर में बोली।
“पहले आप।”—सुनील बोला।
“हां, हां। मैं भी।”
वो डिम्पल के साथ बैठ गयी।
सुनील वापिस यथास्थान बैठा।
निधि ने एक उड़ती निगाह डिम्पल पर डाली और बोली—“लगता है तुम भी अभी आयी हो! मेरे आगे आगे ही!”
“हां।”—डिम्पल सहज भाव से बोली—“कैसे जाना?”
“शोरूम की ड्रैस से जाना। जो चेंज न की। अभी भी पहने हो।”
“ब्रीलियेंट!”
“यहां आते रहते हो”—कुटिल भाव से डिम्पल को देखती वो सुनील से सम्बोधित हुई—“और मुझे खबर नहीं लगी या आये ही पहली बार हो?”
“आया ही पहली बार हूं।”—सुनील बोला।
“फिर तो वैलकम!”
“थैंक्यू।”
“तुम्हारी शक्ल कुछ पहचानी-पहचानी सी लग रही है। लगता है मैंने तुम्हें पहले कहीं देखा है। और वो भी हाल ही में। कभी मिले हैं हम?”
“नहीं।”
“फिर तुम्हारी सूरत मुझे फेमिलियर क्यों लग रही है?”
“ये तो आप को मालूम होगा!”
“मैं पार्टी से लौटी हूं, फैटीग के हवाले हूं, दिमाग भी थका हुआ है लेकिन याद तो मुझे आ के रहेगा।”
“कहीं राह चलते देखा होगा!”
“हो सकता है।”
“मैं आपके लिये ड्रिंक बनाऊं?”
“क्या! अरे, नहीं। नहीं। आई हैड एनफ एट पार्टी।”
“तो एक कम्पलीमेंट पेश करूं।”
“जरूर।”
“यूं आर लुकिंग रैविशिंग!”
वो खुश हो गयी।
“थैंक्यू।”—वो बोली।
“हाई हील में आप का कद शाहाना लग रहा था।”
“है न! पार्टी में भी कई लोग ऐसा बोले। हील तो मैं पहनती हूं लेकिन इतनी हाई आज पहली बार पहनी है। चलते डर लग रहा था कि लड़खड़ा न जाऊं। गनीमत जानो कि कुछ न हुआ।”
“चार इंच से कम तो क्या होगी?”
“पांच इंच है। स्टिलेटो हील्स बोलते हैं।”
“आई सी। सैंडलें ब्रांड न्यू जान पड़ती हैं! इम्पोर्टिड भी!”
“नयी तो हैं लेकिन इम्पोर्टिड नहीं हैं।”
“कहां से खरीदीं?”
“खरीदी नहीं। अमेजन से आर्डर कीं। सीओडी।”—उसने बारी बारी दोनों सैंडलें उतार कर सोफे के बाजू में डाल दीं और अपने तलुवे मसलने लगी।
“कीमती होंगी!”
“नहीं, ज्यादा नहीं। बस, आठ हजार की।”
“कमाल है! शान बान तो ऐसी है कि आप कीमत चार गुणा भी बोलतीं तो मैं यकीन कर लेता।”
“कितने गुणा?”
“चार गुणा। बत्तीस हजार।”
“अरे, नहीं। इतनी कीमती होती तो मैं इस के सपने ही देखती, पहने न होती।”
“ऐसा?”
“हां।”
सुनील ने सहज भाव से हाथ बढ़ा कर एक सैंडल उठा ली।
“तौबा!”—वो उसे उलटता पलटता बोला—“पंजा जमीन पर और एड़ी पांच इंच उठी हुई! तकलीफ होती होगी पहनने में! पहन कर चलने में!”
“शुरू शुरू में होती है थोड़ी बहुत लेकिन फिर जल्दी ही आदत पड़ जानी है। बैलेंस बना के रखने का अभ्यास हो जाता है।”
“इसके तले पर तो मेड इन इटली एम्बौस्ड है! वहीं का कोई एम्बलम भी बना हुआ है!”
“अच्छा! मैंने ध्यान नहीं दिया था।”
“एम्बलम तो ठीक से पल्ले नहीं पड़ रहा लेकिन ‘मेड इन इटलीʼ तो साफ लिखा है।”
“डुप्लीकेट होंगी।”
“हो तो सकता है। आजकल तो हर इन्टरनेशनल ब्रांड का डुप्लीकेट बनता है! लेकिन अमेजन डुप्लीकेट माल बेचता हो, ये बात तो कुछ यकीन में नहीं आ रही!”
“अब छोड़ो न! क्यों इतनी सिरखपाई कर रहे हो? तुमने क्या करना है सैंडलों की जानकारी हासिल करके? दुकान खोलनी है?”
सुनील हँसा, उसने सैंडल हाथ से निकल जाने दी।
“वैसे खोल सको तो कोई बुरा धन्धा नहीं है। सुना है हण्डर्ड पर्सेंट का प्राफिट मार्जन है!”
“मैं ने नहीं सुना।”—सुनील ने अपना गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ—“इजाजत चाहता हूं।”
“तुम”—निधि बोली—“काम क्या करते हो, सुनील?”
“जी।”
“आई सैड वाट डु यू डू फार ए लिविंग?”
“ओह, दैट। मैं जर्नलिस्ट हूं।”
‘किसी पेपर में या...”
“पेपर में। ‘ब्लास्ट’ में। चीफ रिपोर्टर हूं मैं ‘ब्लास्ट’ में।”
“आई गॉट यू नाओ।”—एकाएक वो नेत्र फैलाती बोली—“तुम कल विनायक नगर में थे! प्रहलाद राज के फ्लैट पर!”
“देखा! जरा दिमाग ने रिलेक्स किया तो सब याद आ गया!”
“तुम...डिम्पल के फ्रेंड हो?”
“इस बात की तसदीक तो वो ही करेगी जिसने ऐसा कहा। गुडनाइट लेडीज़। स्वीट ड्रीम्स।”
अपने पीछे चिन्तित निधि सांगवान को छोड़ कर सुनील वहां से रुखसत हुआ।
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