सुबह ‘तजुर्बा’ किया गया।
गैराज के पिछवाड़े में एक विशाल कम्पाउन्ड था जहां ‘आइडेन्टिकल कंडीशंस’ स्थापित की गयीं और कर्मचन्द को सीढ़ी खींचने को बोला गया।
तर्जुबा फेल हो गया।
दूसरी ओर की सपोर्ट हटते ही सीढ़ी के वजन को वह न सम्भाल पाया, सीढ़ी नीचे को झूल गयी और उसका पहला, आजाद सिरा, भड़ाक की आवाज से जमीन से जा कर टकराया।
कर्मचन्द ने फिर कोशिश की।
फिर वही नतीजा निकला।
अब विमल को छोड़ कर बाकी तीनों के हवास गुम थे।
“की कीत्ता जाये?”—लाभ सिंह पशेमान लहजे से बोला।
“उस्तादजी बोलेगा न!” — विमल सहज भाव से बोला।
लाभसिंह ने, बाकियों ने भी, मायाराम की तरफ देखा।
मायाराम बेचैनी से पहलू बदलने लगा।
“इसी की गारन्टी थी” — विमल बोला — “कि एल्यूमीनियम की होने की वजह से सीढ़ी ज्यादा वजनी नहीं थी!”
“ओये!” — मायाराम भड़का — “बाज आ जा।”
“आ गया, उस्तादजी।” — विमल ने होंठ भींच लिये।
कई क्षण खामोशी रही।
“कोई हल भी तो होगा!” — फिर गुरांदित्ता दबे स्वर में बोला।
“हर समस्या का होता है।” — कर्मचन्द भी वैसे ही स्वर में बोला।
“बोलो, उस्ताद जी!” — लाभसिंह बोला।
मायाराम निगाह चुराने लगा, पहलू बदलने लगा।
“ओये, काका” — लाभसिंह विमल से मुखातिब हुआ — “हुन ‘तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा देना’ जैसा तू ही कुछ कर के दिखाना न! आखिर वड्डा तजुर्बेकार तो तू ही है हम सारे जनों में! समस्या खड़ी की है तो कोई हल भी तो बोल न!”
“बोलूं!”—विमल तनिक विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
“ओये, रहे रब्ब दा नां! अभी भी पूछ ही रहा है! आज रात ही तो हम सब ने फांसी लगना है! अब नहीं बोलेगा तो कब बोलेगा!”
“आसान तरीका तो यही है, भाई लोगो” — विमल बोला — “कि गोदाम की इमारत में कर्मचन्द के साथ एक आदमी और हो। यानी उधर से सीढ़ी को दो जने सम्भालें, दो जने खींचे। वो दूसरा आदमी मैं हो सकता हूँ।”
मायाराम तत्काल इंकार में सिर हिलाने लगा।
सबकी सवालिया निगाहें उस पर टिकीं।
“ये नहीं हो सकता।” — मायाराम बोला — “विमल का मेरे साथ होना जरूरी है।”
“क्यों?” — कर्मचन्द बोला।
“वजह मैं अभी नहीं बता सकता। मौका आने दो, वजह तुम सब खुद समझ जाओगे।”
“विमल नहीं तो कोई और...”
“नहीं। भीतर एक आदमी कम से काम नहीं चल सकता। मैं तो सच पूछो तो ये चाहता था कि किसी तरीके से हम सब वाल्ट के भीतर होते। अब एक आदमी और कम हो जाये, इसका तो मैं खयाल भी नहीं कर सकता।”
“ओह!”
फिर खामोशी छा गयी।
फिर लाभसिंह विमल से बोला — “कोई होर तरीका सोच, बाउ।”
“और तरीका” — विमल विचारपूर्ण स्वर में बोला — “और सार्इंटिफिक तरीका तो यह है कि पुल्लियां इस्तेमाल की जायें। गोदाम में और बैंक की इमारत में पुल्लियां फिक्स की जायें — दो गोदाम की इमारत में और एक बैंक की इमारत में — और उन पर से मजबूत रस्सी गुजारी जाये। रस्सी को गोदाम की ओर मौजूद सारी सीढ़ी के उधर से पहले डण्डे के साथ बांधा जाये, फिर रस्सी को काफी पीछे कहीं सीढ़ी के लैवल पर फिक्स पुल्ली से गुजारा जाये, उसको आगे ऊपर लगी पुल्ली से गुजारा जाये जहां से रस्सी खिड़की से बाहर निकल कर दूसरी खिड़की तक पहुंचे, वहां ऊंचाई पर लगी पुल्ली पर से गुजरे और दूसरे सिरे को बैंक की साइड पर टिके सीढ़ी के आखिरी डण्डे से बान्धा जाये। इस इन्तजाम के तहत जब बैंक की ओर से पुल्ली पर से रस्सी को खींचा जायेगा तो सीढ़ी आगे गोदाम की तरफ सरकेगी। तब कर्मचन्द का काम महज सीढ़ी को सम्भालना होगा, उसका बैलेंस बरकरार रखना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि रस्सी उसकी तरफ की पुल्लियों पर से उतरने न पाये। यूं सीढ़ी सेफ गोदाम में पहुंच जायेगी।”
“वदिया।” — लाभसिंह हर्षित स्वर में बोला।
“कहना न होगा कि इसी प्रॉसेस को रिवर्स करने पर सीढ़ी वापिस बैंक की इमारत पर पहुंच जायेगी।”
“वदिया।”
“तुम्हारी बातों से लगता है” — मायाराम सन्दिग्ध भाव से बोला — “कि इस स्कीम में कोई भेद है।”
“है तो सही!”
“क्या?”
“ये वक्तखाऊ काम है। इस इन्तजाम को आर्गेनाइज करने में वक्त बहुत बहुत लगेगा। पुल्लियां फिक्स करनी होंगी, उन की अलाइनमेंट करनी होगी, वजन सम्भालने की उन की क्षमता को परखना होगा ताकि ऐसा न हो कि सीढ़ी पर इंसानी जिस्म का वजन पड़े तो कोई पुल्ली अपनी जगह से उखड़ जाये।”
“कितना? कितना वक्त?”
“कम से कम एक घन्टा। डेढ़ भी लग सकता है।”
“नामंजूर। बिल्कुल नामंजूर। हमारा एक एक मिनट गिना हुआ है, यूं डेढ़ घंटा बर्बाद करना हमारी स्कीम को बर्बाद कर देगा, हमें बर्बाद कर देगा।”
सब के सिर चिन्तापूर्ण भाव से सहमति में हिले।
“फिर तो एक ही तरीका है” — विमल बोला — “लाभसिंह की जुबान में जटका तरीका।”
“क्या?” — लाभसिंह बोला।
“जैसा कि हमने सोचा हुआ है, गोदाम की तरफ से सीढ़ी परली तरफ सरकाई जायेगी, जाने वाले पार जायेंगे तो उधर सीढ़ी के आखिरी डंडे के साथ एक मजबूत लम्बी रस्सी बान्ध दी जायेगी। जब कर्मचन्द के सीढ़ी खींचने की नौबत आयेगी तो बैंक की तरफ से हम मजबूती से रस्सी को थाम के रखेंगे और दूसरी तरफ से उसको कर्मचन्द के खींचने पर रस्सी को धीरे धीरे ढील देंगे। इस इन्तजाम के तहत न सीढ़ी नीचे गिरेगी और न दूसरी तरफ दीवार से टकरायेगी।”
“वदिया! शावाशे, विमल बाउ!”
“इसमें एक फच्चर है।”
“फच्चर है!”
“हां।”
“क्या?”
“जब पहली बार कर्मचन्द सीढ़ी वापिस खींच लेगा तो दोनों इमारतों के बीच सीढ़ी की जगह रस्सी तनी दिखाई देगी।”
“ओह!”
“लेकिन ये कोई बहुत हौसला पस्त करने वाली बात नहीं, क्योंकि ये प्राब्लम पुल्लियों वाले इन्तजाम के साथ भी थी।”
“लेकिन...”
“लेकिन का जवाब ये है कि हमें ऐसी रस्सी चुननी होगी जो कि पतली हो लेकिन मजबूती में कम न हो। ऐसी रस्सी नायलोन की हो सकती है। मुझे उम्मीद नहीं कि रात के अन्धेरे में कोई नीचे से ऊपर सिर उठायेगा तो वो रस्सी उसे दिखाई देगी। अब बोलो, क्या कहते हो?”
तीनों ने मायाराम की ओर देखा।
“जब और कोई रास्ता नहीं” — मायाराम निर्णायक भाव से बोला — “तो ये रिस्क तो हमें लेना ही पड़ेगा! वैसे मेरा भी इसी बात पर ऐतबार है कि अमावस की रात के अन्धेरे में जमीन से पचास फुट ऊपर तनी रस्सी नीचे से किसी को नहीं दिखाई देगी।”
“वदिया।” — लाभसिंह बोला — “हमें उस्तादजी के ऐतबार पर एतबार है। क्यों, वीर भ्रावो!”
सब ने सम्वेत् स्वर में हामी भरी।
महफिल बर्खास्त हो गयी।
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