देवराज चौहान, जगमोहन, मंगल पाण्डे, उस्मान अली और नीना पाटेकर बैंक में प्रवेश करते चले गये। चन्द ही पलों में यह लोग खतरनाक दृढ़ निश्चय के साथ बैंक डकैती करने वाले थे। डालचन्द बैंक से कुछ दूर, कार के साथ मौजूद था। खास वक्त के पश्चात उसने कार को बैंक अहाते में ला खड़ा करना था।

इन्हीं लोगों ने कल, इसी बैंक के अहाते से साढ़े पाँच करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन उड़ाई थी। इसी कारण बैंक के अहाते में चार पुलिस वाले भी लापरवाही से खड़े पहरा दे रहे थे। कल बैंक वैन रॉबरी के समय फेंके गये ग्रेनेडों के कारण अहाते की चारदीवारी कई जगह से उड़ी हुई थी.... । अहाते में भी दो जगह गड्ढे नजर आ रहे थे।

सुबह के दस बजे थे। बैंक का कार्य अभी ठीक तरह से शुरू भी नहीं हुआ था। कल ही बैंक के अहाते से उड़ाई गई, साढ़े पाँच करोड़ के नोटों से भरी वैन के कारण बैंक में सनसनी-सी फैल गई थी। हर कर्मचारी दूसरे को प्रश्न भरी निगाहों से देख रहा था। उत्सुकतावश आज बैंक में ग्राहक भी कुछ ज्यादा ही नजर आने शुरू हो गये थे....। शायद इस कारण कि कल हुई बैंक रॉबरी के बारे में कोई खास जानकारी मिल सके।

देवराज चौहान क्षण भर के लिये ठिठका। दोनों हाथ जेबों में डाले आस-पास निगाह मारी। एक हाथ जेब में पड़ी रिवाल्वर पर था। सब अपने-अपने काम में व्यस्त थे। ग्राहक भी अपने-अपने काउण्टर पर जमा होते जा रहे थे।

उस्मान अली और जगमोहन बैंक के प्रवेश गेट के करीब ही जम गये थे। दोनों के हाथों में, बैंक का फार्म था, जिसे कि वह भरने का दिखावा कर रहे थे। वहां से उन्हें अहाते में टहल रहे चारों पुलिस वाले भी नजर आ रहे थे। जिनके कन्धों पर हथियार लटक रहे थे। हाव-भाव में उनके लापरवाही कूट-कूट कर भरी पड़ी थी। वह सोच भी नहीं सकते थे कि आज भी बैंक में कोई हादसा हो सकता है। चंद कदमों के फासले पर ही बैंक का चौकीदार कंधे पर दोनाली बन्दूक लटकाये खड़ा था। कल की बैंक वैन रॉबरी के कारण वह खुद को कुछ ज्यादा ही सतर्क -सा दिखा रहा था।

नीना पाटेकर आखिरी काउण्टर के करीब खड़ी हो गई थी। उसका तोप जैसा हुस्न होने कारण, कई मर्दों की निगाहें उस पर पड़ रही थीं। जबकि इस बारे में जानते हुये भी, नीना पाटेकर अनजान सी बनी रही।

मंगल पांडे आराम से टहलता हुआ चारों तरफ निगाहें घुमा रहा था। उसके चेहरे पर हल्का-सा गुस्सा था। मन-ही-मन वह मोटे नटियाल को ढेरों गालियां दे रहा था कि नटियाल की लापरवाही के कारण उसे बैंक डकैती में भी शामिल होना पड़ा, वरना वह तो बैंक डकैती के लिये तैयार ही नहीं था। कल साढ़े पांच करोड़ की बैंक वैन रॉबरी में से मिलने वाला हिस्सा उसके लिये बहुत था। आज बैंक डकैती करके, वह खामखाह के खतरे में नहीं पड़ना चाहता था, परन्तु किस्मत ने उसे यहां ला धकेला था।

तभी मंगल पांडे को बेहद करीब किसी के खड़े होने का अहसास हुआ। उसने फौरन गरदन घुमाई। वह देवराज चौहान था। दोनों की आंखें मिलीं। आंखों ही आंखों में इशारे हुए। फिर देवराज चौहान आगे बढ़ गया।

मंगल पांडे अपनी जगह हिला। जगमोहन और उस्मान अली पर निगाह मारी, जो अपनी जगह पर ठीक तरह से टिके थे। मंगल पांडे नीना पाटेकर के करीब पहुंचा। दोनों की आँखें मिलीं, इशारे हुए। मंगल पांडे लापरवाही से आगे बढ़ गया।

काम शुरू करने का सिगनल हो चुका था।

देवराज चौहान, एक तरफ कोने में बने बैंक मैनेजर के केबिन की तरफ बढ़ा। करीब पहुंच कर इससे पहले कि, केबिन का दरवाजा खोलता, तभी दरवाजा खुला और भीतर से दो आदमी निकलकर, आगे बढ़ गए। खुला दरवाजा इससे पहले कि बन्द होता, देवराज चौहान ने दरवाजे का पल्ला थामा और भीतर प्रवेश कर गया।

पचास बावन वर्षीय मैनेजर लुटा-पिटा सा बैठा था। कल हुई वैन रॉबरी ने उसके कैरियर पर धब्बा डाल दिया था। थकी-थकी सी निगाहें उठाकर उसने देवराज चौहान को देखा, फिर गहरी सांस लेकर बोला---

“कहिये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?"

“सुना है, कुछ लोग कल आपके बैंक के कम्पाउण्ड से साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन ले भागे हैं?" देवराज चौहान से शान्त स्वर से कहा।

“भाई साहब।” बैंक मैनेजर आहत स्वर से, अपना क्रोध दबाकर बोला--- “अब किस-किस को इस बात का उत्तर देता फिरूं कि कल बैंक वैन उड़ा ली गई है? कैसे लोग हैं, जो सब कुछ जानते भी हैं, फिर भी मेरे पास आकर पूछ रहे हैं। बाहर जाकर पूछिए। मेरा दिमाग मत खाइये, अगर बैंक से सम्बन्धित कोई काम हो तो मेरे पास आइयेगा।"

देवराज चौहान के होठों पर गहरी मुस्कान नाची।

“मैं आपकी जानकारी में इजाफा करना चाहता हूं।"

"कैसा इजाफा ?”

"आप जानते हैं कि बैंक वैन रॉबरी किसने की है?"

"हां... देवराज चौहान ने, कोई बहुत ही खतरनाक डकैत है। उसने की है।"

“देवराज चौहान को देखा है आपने कभी मैनेजर साहब?"

"नहीं।"

“तो ध्यान से मुझे देख लीजिए, मैं ही देवराज चौहान हूं। मैंने ही कम्पाउण्ड से साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन उड़ाई है। वैन इस समय मेरे कब्जे में है। उसके बीच में वह दोनों गार्ड अभी तक बन्द हैं।"

बैंक मैनेजर चौंककर उछल पड़ा।

"क्या कह रहे हो? त....तुम देवराज चौहान हो?"

तभी दरवाजा खुला और कम्पाउण्ड में पहरा दे रहे चार पुलिस वालों में से एक ने भीतर प्रवेश किया।

"मैनेजर साहब!" पुलिस वाला भीतर आते ही बोला--- "कुछ नाश्ते-पानी का प्रबन्ध कीजिए। आज तो हम लोग नाश्ता करके भी नहीं आये....। सुना है, बैंक की कैंटीन में बटर टोस्ट, सैंडविच और कॉफी बहुत अच्छी बनती है।"

मैनेजर ने गले में फंसा थूक निगला और सूखे स्वर से बोला---

"सुनो! य...यह... आदमी देवराज चौहान है।"

पुलिस वाले ने चौंककर देवराज चौहान को देखा, वह हवलदार रैंक का था। उसे देखते पाकर देवराज चौहान जल्दी से बोल पड़ा---

"हवलदार साहब, मैं आपको वह खतरनाक मुजरिम बैंक उड़ाने वाला देवराज चौहान लगता हूं? वह तो कहीं बैठा साढ़े पांच करोड़ के नोटों के साथ ऐश कर रहा होगा।"

“इसने मुझसे खुद कहा है कि यह देवराज चौहान है।"

"वह तो.....।" देवराज चौहान हंसा--- "मैं....मैं मजाक कर रहा था। तुम खुद ही सोचो हवलदार साहब....कि अगर मैं देवराज चौहान होता तो, आज बैंक में क्यों आता? और आकर बैंक मैनेजर को ही बताना था कि मैं देवराज चौहान हूं?"

"तूने...।" हवलदार ने झिड़क भरे स्वर में कहा--- "मैनेजर साहब से कहा कि तू देवराज चौहान है....। सच बोलना... झूठ बोला तो....तो.....।"

"वह तो मैं मजाक कर रहा था।"

"सुन बे! ऐसा खतरनाक मजाक फिर कभी नहीं करना, वरना ऐसा अन्दर बन्द करूंगा कि कोई तुझे बाहर भी नहीं निकाल सकेगा।" कहने के साथ ही हवलदार ने जेब से तम्बाकू की पुड़िया निकाली और हाथ पर डालकर चूना मिलाकर तम्बाकू तैयार करने लगा।

“ठीक है साहब जी!" देवराज चौहान मासूमियत भरे स्वर में कह उठा--- "भूल हो गई। कान पकड़ता हूं, फिर भूलकर भी ऐसा नहीं करूंगा।"

हवलदार ने अकड़ भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखकर, मैनेजर से कहा---

"मुझे तो यह सनकी लगता है मैनेजर साहब। खैर छोड़िए। नाश्ता, कॉफी आप कब भिजवा रहे हैं। मुझे और बाकी तीनों को भी, भूख लग रही है।"

बैंक मैनेजर के होठों से गहरी सांस निकल गई। अनमने और उखड़े से लहजे से उसने हवलदार को जवाब दिया---

"भिजवाता हूं।"

हवलदार पूर्ववतः अन्दाज में देवराज चौहान को घूरता हुआ बाहर निकल गया।

एकाएक देवराज चौहान के चेहरे पर क्रूरता के भाव विद्यमान होते चले गए।

“हां तो मैनेजर साहब! बैंक मैनेजर साहब, मेरा नाम देवराज चौहान है। कल मैंने बैंक के अहाते से साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी वैन उड़ाई थी। वह नोट जो कि मुल्खराज एण्ड कम्पनी को भेजे जा रहे थे। और आज बैंक में एक्स्ट्रा चार करोड़ रुपया आया हुआ था। सेवाराम-मेवाराम एम्पोर्ट एक्सपोर्ट कम्पनी का। कुछ ही देर में यह रुपया निकाला जाने वाला है। आज मैं इन्हीं चार करोड़ को लेने आया हूं।"

“क... क्या कह रहे हो?” बैंक मैनेजर पुनः हक्का-बक्का रह गया।

“शायद आपको विश्वास नहीं आ रहा है कि मैं देवराज चौहान हूं?” दरिन्दगी भरे स्वर में कहते हुए देवराज चौहान ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ली।

बैंक मैनेजर की आंखें फटती चली गईं।

“तुम... तुम वास्तव में देवराज चौहान हो?" स्वर में हकलाहट व्याप्त हो गई थी।

“हां, मैं वास्तव में देवराज चौहान हूं....और बैंक के स्ट्रांग रूम में पड़ा चार करोड़ फौरन हासिल करना चाहता हूं। उठो और जो मैं कहता हूं, वही करो।"

बैंक मैनेजर फटी-फटी सी आंखों से देवराज चौहान को देखता रहा।

“सुना नहीं तुमने ?” देवराज चौहान की आवाज में दरिन्दगी बढ़ गई।

“पागल.... पागल तो नहीं हो तुम।"

"क्यों?"

"बा-बाहर पुलिस वाले खड़े हैं।" बैंक मैनेजर सूखे स्वर में बोला---  "बैंक में अब तक न जाने कितने ग्राहक आ चुके हैं। और ढाई सौ बन्दों का कम-से-कम बैंक स्टाफ है। इतने सारे लोगों के होते हुए तुम सेवाराम-मेवाराम वाले चार करोड़ नहीं ले जा सकते।"

"मैं ले जाऊंगा। दो सौ प्रतिशत ले जाऊंगा।" देवराज चौहान खतरनाक लहजे में बोला--- "तुम उठो और मुझे उन चार करोड़ तक ले जाने का प्रबन्ध करो। कहां पड़े हैं? बैंक के स्ट्रांग रूम में होंगे। थैलों में या सरकारी ट्रंकों में पैक होंगे। ठसाठस भरे पड़े होंगे।"

बैंक मैनेजर सूखे होठों पर जीभ फेरकर रह गया।

"तुम मरोगे!" बैंक मैनेजर सकते की-सी हालत में उसकी रिवॉल्वर देख रहा था--- "और अपने साथ-साथ बैंक में मौजूद निर्दोष लोगों को भी मारोगे।"

'तड़ाक' देवराज चौहान का हाथ हिला और जोरदार चांटा बैंक मैनेजर के गाल पर जा पड़ा। बैंक मैनेजर कराह के साथ कुर्सी सहित नीचे जा गिरा। देवराज चौहान आगे बढ़ा और मैनेजर की कमीज का कॉलर पकड़कर उसे तीव्र झटके सहित उठाया। एक ही चांटे में उसका रंग उड़ गया था। खुश्क गले में बड़े-बड़े कांटें उभर आये थे। दिल में दहशत की ऊंची-ऊंची लहरें उठने लगी थीं।

“वक्त बरबाद करके अपनी मौत को बुलावा मत दो मैनेजर। तुम्हारे केबिन का दरवाजा खुला है। कोई भी भीतर आ सकता है। जिसने नहीं भी मरना, ऐसा हो गया तो वह भी मरेगा। समझदारी इसी में है कि जो मैं कह रहा हूं, वह फौरन करो...।" देवराज चौहान उसके चेहरे के सामने रिवॉल्वर नचाकर क्रूर स्वर में बोला।

“नहीं! मैं तुम्हें चार करोड़ नहीं ले जाने दूंगा...।" मैनेजर कांपते स्वर में कह उठा--- "कल तुम साढ़े पांच करोड़ से भरी वैन ले जाकर मेरे कैरियर पर धब्बा डाल चुके हो। आज तुम चार करोड़ ले गए तो मैं सस्पैंड हो जाऊंगा। मुझ पर केस चलेगा। पुलिस जाने कहां से ऐसे सबूत ढूंढ लेगी कि जिससे लगेगा कि मैं तुम लोगों के साथ मिला हुआ हूं। मेरी राय और जानकारी में ही यह सब हुआ। नहीं....नहीं! मैं तुम्हारी बात किसी भी हालत में नहीं मान सकता... ब....बेशक तुम म....मुझे गोली मा....मार दो।"

एकाएक देवराज चौहान मुस्कुराया। खुलकर मुस्कुराया । थोड़ा-सा हंसा। तत्पश्चात् उसने लापरवाही से भरी मुद्रा में रिवॉल्वर जेब में डाली और बोला---

"तुम ठीक कहते हो। मैं चलता हूं।"

बैंक मैनेजर के चेहरे पर परेशानी और व्याकुलता नाच उठी। वह समझ नहीं पाया कि देवराज चौहान के जाने का क्या मतलव है? इतना तो वह समझ रहा था कि यह खतरनाक आदमी इस तरह आसानी से जाने वाला नहीं, कुछ करके ही जायेगा...फिर आखिर यह चाहता क्या है?

देवराज चौहान ने बैंक मैनेजर को घूरते हुए सिगरेट सुलगाई।

"जानते हो मेरे जाने के बाद क्या होगा?"

"क्या होगा?" उसने सूखे होठों पर जीभ फेरी।

“मेरे यहां से निकलते ही, इस बैंक में खास जगह रखे तीन पावर फुल बम फटेंगे।"

“क्या! क्या मतलब, बम ?"

"हां। तीन बम ।" देवराज चौहान ने जेब में हाथ डालकर छोटा-सा रिमोट कन्ट्रोल निकालकर उसे दिखाया--- "देख लो, इस पर तीन बटन हैं। एक बटन दबता जाएगा, एक बम फटता जायेगा। तीनों खतरनाक बम हैं। मेरे साथियों ने कुछ देर पहले ही रखे हैं। सब कुछ तबाह हो जाएगा। छः-मंजिला वजीरचन्द प्लेस का नामो-निशान ही मिट जाएगा। बैंक के सारे कर्मचारी बेमौत मारे जायेंगे, सिर्फ तुम्हारी गलती के कारण कि तुमने मेरी बात नहीं मानी। जरा आगे तो सोचो मैनेजर! वजीरचन्द प्लेस छः-मंजिला है। ऊपर बिजनेस संस्थाओं के आफिस भरे पड़े हैं। जाने कितने लोग होंगे और कितनी शहर की अहम हस्तियां होंगी। जब सारी इमारत नीचे गिरेगी....बम फूटने से तो, सोचना जरा कि तुम्हारी वजह से कितने मरेंगे?"

बैंक मैनेजर के फक्क चेहरे पर लगे होंठ हिलकर रह गये।

“मैं चलता हूं मैनेजर। अगले आधे मिनट में तुम चीख-चिल्ला कर कितनों को बचा लोगे? क्योंकि आने वाले साठ सेकिण्ड में मैं पहला बम ब्लास्ट करने जा रहा हूं।"

"झूठ बोलते हो तुम.....।” बैंक मैनेजर सूखे स्वर में बोला।

"मैं सच कह रहा हूं। इसका एक नमूना तो मैं तुम्हें अभी दिखा देता हूं। बैंक में मौजूद चार करोड़ अगर मेरे नहीं तो किसी के भी नहीं। एक बम बैंक के पिछले हिस्से में रखा है। उसे मैं तुम्हारे सामने ही फोड़ता हूं....बटन दबाकर उस तरफ मेरा कोई आदमी मौजूद नहीं है, मैं पहले ही वहां से उन्हें हटाकर आया था। ताकि शुरुआत करने की नौबत आए तो पीछे से ही करूं। यह देखो।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने हाथ में थमा रिमोट कन्ट्रोल आगे करके, उसके बटन पर उंगली रखी।

बैंक मैनेजर के हलक से दबी-दबी चीख निकली---

"ठ....ठहरो। "

हरकत करते देवराज चौहान के हाथ रुक गये। सर्द निगाहों से वह बैंक मैनेजर को देखने लगा जिसके माथे पर पसीने की, हल्की-हल्की बूंदें उभर आयीं थीं। बटन में हो रही कंपकपाहट स्पष्ट नजर आ रही थी।

“फूटो भी मुंह से!" देवराज चौहान गुर्राया ।

बैंक मैनेजर के होंठ हिले, परन्तु शब्द कोई भी बाहर न निकला।

"मेरी बात मानने को तैयार हो?" देवराज दोहान की आवाज में वहशीपन था।

बैंक मैनेजर का पीला चेहरा सहमति के अन्दाज में हिला।

“गुड।” देवराज चौहान सख्त स्वर में बोला--- "तुम्हारी हां ने सैकड़ों जानों को मौत के मुंह में जाने से बचा लिया, वरना अब तक चीखो-पुकार मच चुकी होती।"

"इस बात की क्या गारन्टी है कि तुम बाद बम ब्लास्ट नहीं करोगे?"

"बम तो मैंने तुमको समझाने के लिये स्टेज किया है कि अगर तुम मेरी बात न मानो तो अपना गुस्सा बम ब्लास्ट करके ठण्डा कर सकूं। अगर तुम मेरी बात मानोगे तो मैं ऐसा क्यों करूंगा। चलो, मेरे साथ चलो।"

मैनेजर बुत की मानिन्द बैठा रहा।

"सुना नहीं तुमने--- अब भी उठ जा वक्त बरबाद मत कर।" देवराज चौहान की आवाज में खूनी भाव था। मन-ही-मन सिहर उठा ।

"इसे... इसे तो जेब में डाल लो।"

देवराज चौहान ने रिमोट कन्ट्रोल जेब में डाला और बोला---

"मैं रिवाल्वर भी जेब में डाल रहा हूं। रास्ते में कोई गड़बड़ करने की चेष्टा मत करना। और यह भी मत भूलना कि कदम-कदम पर यहां मेरे आदमी फैले हैं। किसी भी तरह की कोई भी चालाकी काम नहीं आएगी।"

थरथराते बैंक मैनेजर ने झुककर टेबिल की दराज खोली और उसमें से आधा फिट लम्बी चाबी निकाल कर जेब में डाल ली।

"दूसरी चाबी हैंड कैशियर के पास है।" बैंक मैनेजर कांपते स्वर में बोला।

"उसे तुम सम्भालो। हर हाल में उसे सम्भालना है, अगर नहीं सम्भाला, तो यहां पर मौजूद लाशें गिननी कठिन हो जाएंगी। रिमोट कन्ट्रोल के बाहर आने में सिर्फ दो सेकेण्ड का समय लगेगा-- और उसके बाद तीन तगड़े बम ब्लास्ट ।"

बैंक मैनेजर कांपकर रह गया।

देवराज चौहान बैंक मैनेजर के साथ केबिन से बाहर निकला।

“अपने थोबड़े को ठीक करो। तुम्हें देखकर कोई गड़बड़ होने का शक न करे।"

बैंक मैनेजर ने कठिनता से खुद को सम्भाला।

“तुम...तुम कहते हो कि तुमने कल साढ़े पांच करोड़ के नोटों वाली वैन लूटी थी।"

"हां....तो....?"

“जब इतनी मोटी रकम....तुम्हारे पास है तो....तो आज फिर यह.... यह सब क्यों ?"

"साढ़े पांच में चार मिलाओ तो साढ़े नौ होते हैं। मैं साढ़े नौ करोड़ इकट्ठे अपने पास देखना चाहता हूं...। समझे अब कि यह सब क्यों?"

बैंक मैनेजर कुछ न बोला, उसकी भय से भरी निगाहें बैंक के बड़े हॉल में घूम रही थीं। चाल में बेहद मामूली लड़खड़ाहट थी। देवराज चौहान लापरवाही से भरी मुद्रा में उसके साथ चल रहा था-- अगर कोई ध्यानपूर्वक उन दोनों को देखता तो, फौरन उसे किसी-न-किसी गड़बड़ का शक हो जाता।

"हैड कैशियर कहां है?"

“उधर! कैशियर केबिन में?"

"सीधे वहीं चलो और बात करो उससे।"

बैंक मैनेजर, देवराज चौहान के साथ कैश केबिन के करीब पहुंचा।

हैड कैशियर सन्दीप तनेजा ने अपना काम छोड़कर प्रश्न भरी  बैंक मैनेजर पर डाली।

बैंक मैनेजर के होंठ हिले, परन्तु कोई शब्द बाहर न निकला।

देवराज चौहान ने तुरन्त उसके जूते पर अपना जूता मारा।

मैनेजर ने घबराकर देवराज चौहान को देखा, फिर हैड कैशियर को।

“आपकी तबीयत तो ठीक है न मैनेजर साहब?" संदीप तनेजा अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।

“हां।" मैनेजर ने अपने कांपते स्वर पर काबू पाया--- "ठीक ही हूं। त....तुम आना जरा।"

"क....कहां सर?" संदीप तनेजा यही समझ रहा था कि कल हुई बैंक वैन रॉबरी के कारण ही मैनेजर कुछ अस्वस्थ सा दिखाई दे रहा है। इसी कारण उसकी घबराहट का उसने कोई खास नोटिस नहीं लिया और उसकी हालत को वह सामान्य समझ रहा था।

"स्ट्रांग रूम ।" मैनेजर पूर्ववत् लहजे में बोला--- “चाबी ले आना।"

"कम्पनी वाले पैसा लेने आ गये सर?"

“हां...।" मैनेजर ने गोल-मटोल ढंग से ही सिर हिलाया।

संदीप तनेजा ने फौरन अपनी जेबें टटोलकर, वहां चाबी के मौजूद होने का आभास पाया, फिर एक पतला किन्तु लम्बा-सा रजिस्टर उठाकर केबिन के पिछले हिस्से से बाहर निकला और स्टाफ के बीच में से गुजरता हुआ आगे बढ़ गया।

“आ....ओ।" मैनेजर ने सूखे स्वर में देवराज चौहान से कहा।

"तुम अपना काम ठीक तरह से नहीं कर रहे मैनेजर।" देवराज चौहान ने खतरनाक लहजे में कहा--- "खुद को सम्भालो, वरना मैं यहां पर कहर बरपा दूंगा।"

मैनेजर के चेहरे का रंग और भी फक्क पड़ गया।

दोनों आगे बढ़ने लगे। चंद ही पलों में वह काउंटर के आखिरी कोने में पहुंचे। जहां कि नीना पाटेकर पहले से ही मौजूद थी। देवराज चौहान को मैनेजर के साथ आते देखकर, नीना पाटेकर ने मुंह घुमा लिया। दोनों उसकी बगल से गुजर गए।

आगे हैड कैशियर संदीप तनेजा खड़ा मिला। उसने भरपूर निगाहों से देवराज चौहान को देखा। साथ ही उसके चेहरे पर सोच के भाव आ गए।

"आप.... आप आए हैं सेवाराम-मेवाराम कम्पनी से पैसा लेने....?" तनेजा ने पूछा।

"हां।" देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर जवाब दिया।

"लेकिन मैंने पहले तो कभी भी आपको नहीं देखा ?" तनेजा के स्वर में किसी प्रकार का भाव नहीं था।

"आपके मैनेजर साहब ने देखा है।" देवराज चौहान ने उसी प्रकार मुस्कुराते हुए कहा।

मैनेजर ने तुरन्त सिर को ऊपर-नीचे हिलाकर अपनी सहमति दी। साथ ही जेब से रूमाल निकालकर अपना चेहरा पोंछते हुए कह उठा---

“मैं इन्हें बहुत अच्छी तरह जानता हूं तनेजा ।"

“सर! चार करोड़ जैसी बड़ी रकम का मामला है। बेशक आप इन्हें जानते हैं, फिर भी हमें अच्छी तरह अपनी तसल्ली कर लेनी चाहिए।" तनेजा ने कहा।

“मैंने तसल्ली कर ली है।" मैनेजर ने रूमाल जेब में डालते हुए कहा--- "फोन पर अभी-अभी सेवाराम से बात करके ही तुम्हारे पास आया था।"

"ओह!” तनेजा के चेहरे पर तसल्ली के भाव आए--- “यह अकेले ही आए हैं।”

“मेरे साथ स्टाफ के और लोग भी हैं।" देवराज चौहान ने शांत लहजे से कहा--- “आप अपना शुरू कीजिए कैशियर साहब। पैसा ले जाने का मुकम्मल इन्तजाम हम करके आए हैं।"

तनेजा ने सिर हिला दिया।

तीनों आगे बढ़े। चंद कदमों के पश्चात बेसमेन्ट में जाने के लिए सीढ़ियां थीं। वह तीनों सीढ़ियां उतरने लगे। देवराज चौहान मैनेजर के प्रति पूरी तरह सतर्क था। इस समय मैनेजर की हालत चोट खाये घायल सांप की तरह थी। क्योंकि कल भी इसी ब्रांच के अहाते से बैंक वैन रॉबरी हुई थी, इसी कारण मैनेजर कभी भी झल्लाहट अथवा क्रोध में कुछ भी उल्टा-सीधा कर सकता था।

बेसमेंट में भी करीब बीस लोगों का स्टाफ था, बैंक के लॉकर भी बेसमेंट में ही थे। उन सबको पार करके कोने में स्ट्रांग रूम मौजूद था।

तीनों स्टाफ के बीच में से गुजरकर स्ट्रांग रूम तक पहुंचे।

मैनेजर ने स्ट्रांग रूम के आधा फीट मोटे दरवाजे पर नजर आ रहे होल में चाबी लगाई। ऐसा करते समय उसके हाथ कांप-से रहे थे। फिर किसी प्रकार चाबी को उसने तीन बार घुमाकर खोला। तत्पश्चात ! हैड कैशियर सन्दीप तनेजा ने जेब से चाबी निकालकर दूसरे की-होल में चाबी तीन बार घुमाई। इसके साथ ही तनेजा ने दरवाजे पर लगी चाबी को कई बार घुमाकर खास जगह पर फिक्स किया। फिर उसने हैंडिल को नीचे करके पूरी शक्ति से दरवाजे को भीतर की तरफ धकेला।

लोहे का बेहद भारी दरवाजा धीरे-धीरे खुलता चला गया।

"आइये।" कहने के साथ तनेजा भीतर प्रवेश करता चला गया।

मैनेजर की चाल में अब लड़खड़ाहट-सी भर आयी थी। वह भीतर प्रवेश कर गया। उसके पीछे देवराज चौहान था। भीतर पहुंच कर तनेजा ठिठका और मैनेजर से बोला---

"सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी का चार करोड़ रुपया इन बक्सों में है। यह जो सात बक्से पड़े हैं। कल शाम मैंने ही इन्हें यहां रखवाया था।"

स्ट्रांग रूम में एक तरफ काफी बड़े-बड़े काले रंग के सात बक्से पड़े थे। वह इतने बड़े थे कि एक आदमी टांगें मोड़कर आसानी से उसके भीतर सो सकता था। उन सातों ट्रंकनुमा बक्सों पर मोटे-मोटे ताले लटक रहे थे, जिन पर सील लगी हुई थी।

देवराज चौहान की चमक भरी निगाह उन सातों बक्सों पर जा टिकी।

“इन्हें ले जाना कैसे है?” तनेजा ने गरदन घुमाकर देवराज चौहान को देखा।

तभी स्ट्रांग रूम के खुले दरवाजे से नीना पाटेकर और मंगल पांडे ने भीतर प्रवेश किया। मैनेजर तो फौरन समझ गया कि यह देवराज चौहान के साथी होंगे। परन्तु हैड कैशियर संदीप तनेजा उन्हें देखकर चौंका। क्योंकि दोनों के चेहरे इस बात की चुगली खा रहे थे कि इनके इरादे ठीक नहीं हैं। मंगल पांडे के तो पूरे चेहरे पर ही बदमाशी की छाप थी।

“य....यह।" देवराज चौहान ने उन दोनों की तरफ इशारा करके मुस्कुराते स्वर से कहा--- "यह दोनों ले जायेंगे इन बक्सों को। तुम इस बारे में निश्चिन्त रहो कि....।"

“यह कौन हैं?” तनेजा पल भर के लिए हड़बड़ा उठा।

"यह सेवाराम-मेवाराम कम्पनी के खास ओहदेदार हैं, जो कि मेरे साथ पैसे लेने आए हैं।"

तनेजा ने अविश्वास भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

"मैनेजर साहब!" तनेजा ने तेज स्वर में कहा--- "यह लोग वह नहीं हो सकते।"

"कौन नहीं हो सकते?" पूछा देवराज चौहान ने।

"सेवाराभ-मेवाराम कम्पनी वाले।" तनेजा ने पूर्ववतः लहजे में कहा--- "एक तो यह सारे नए चेहरे हैं। पुराना इनमें से कोई भी नहीं है। दूसरा, इस आदमी को देखिए।" उसने मंगल पांडे की तरफ इशारा किया— “यह आदमी कम्पनी का आदमी नहीं, बल्कि बदमाश लगता है।"

मैनेजर के चेहरे का रंग हल्दी की तरह पीला पड़ गया।

देवराज चौहान के चेहरे पर क्रूरता नाच उठी।

नीना पाटेकर और मंगल पांडे के चेहरों पर हिंसक भाव उभर आए।

"हम कम्पनी के ही आदमी हैं....क्यों मैनेजर साहब?" क्रूरता भरी हंसी हंसा देवराज चौहान।

मैनेजर के चेहरे का रंग पीला। फक्क चेहरा।

अब सन्दीप तनेजा को पूर्ण विश्वास हो गया कि मामला थोड़ा ही नहीं, पूरा का पूरा ही गड़बड़ है। जहान भर की सतर्कता उसमें भर आयी।

"मैं अभी सेवाराम-मेवाराम कम्पनी फोन करके मालूम करता...।"

तनेजा अपने शब्द पूरे भी नहीं कर सका। शब्द गले में ही फंसकर रह गए।

फटी-फटी आंखें देवराज चौहान के हाथ में थमी रिवॉल्वर पर जा टिकी थीं।

चंद क्षणों के सन्नाटे को देवराज चौहान की दरिन्दगी भरी आवाज ने तोड़ा।

“तुम दोनों।" देवराज चौहान ने मंगल पांडे और नीना पाटेकर से कहा--- "इन सातों ट्रंकों को उठाकर बाहर ले जाओ, जल्दी। तब तक मैं इसे सम्भालता हूं। और मैनेजर, तुम इनके साथ ही जाओगे, जब यह यहां से ट्रंक उठाकर ले जायेंगे। रास्ते में वैसे तो कोई गड़बड़ होगी नहीं, इन ट्रंकों को हमने सिर्फ बाहर तक ही ले जाना है, अगर गड़बड़ होती है तो उसे सम्भालना तुम्हारा काम है। वरना जानते ही हो कि क्या होगा ?”

मैनेजर का चेहरा पूरी तरह निचुड़ चुका था।

तनेजा हक्का-बक्का मैनेजर को देखे जा रहा था।

“सर....।" तनेजा के होठों से फटा-फटा सा स्वर निकला--- "यह सब.....।"

“अपना मुंह बन्द रखो।" देवराज चौहान गुर्राया--- “तुझे भी सब कुछ समझा देता हूं।"

तनेजा हक्का-बक्का सा खड़ा रह गया।

मंगल पांडे और नीना पाटेकर फुर्ती के साथ अपने काम में जुट गये। बड़े ट्रंक का एक तरफ का कुन्दा नीना ने थामा और दूसरी तरफ का कुन्दा मंगल पांडे ने और तेजी के साथ स्ट्रांग रूम से बाहर निकलते चले गए।

"तू यहां खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है?” देवराज चौहान मैनेजर को देखकर गुर्राया ।

मैनेजर को जैसे होश आया। वह तेजी से बाहर निकल गया।

देवराज चौहान ने खा जाने वाली निगाहों से तनेजा को देखते हुए जेब में से रिमोट कन्ट्रोल निकाल कर हथेली पर रखा। तनेजा बुत की मानिन्द खड़ा था।

“मैंने इस बैंक की बिल्डिंग में तीन पावरफुल बम लगा रखे हैं। जिनका सम्बन्ध इस रिमोट कन्ट्रोल से है। इस पर तीन बटन हैं। एक बटन दबेगा, एक बम फटेगा। तीसरा बम फटने तक, यह छः मंजिला इमारत भरभरा कर नीचे गिर जायेगी। अब समझ में आई बात कि तुम्हारा मैनेजर क्यों खामोशी के साथ मेरी हर बात माने जा रहा है?"

बमों के बारे में सुनते ही तनेजा ठगा-सा रह गया।

“बोल.... । दबा दूं बटन को?” देवराज चौहान के होंठों से भेड़िये की तरह आवाज निकली।

“नहीं।” तनेजा सिर से पांव तक सिहर उठा।

"नहीं तो खामोशी से खड़ा रह।” देवराज चौहान ने पूर्ववत् लहजे में कहा--- “मेरे दबाये बटन किस हद तक बरबादी-तबाही फैला सकते हैं.... यह तुम अच्छी तरह समझ सकते हो।"

पल भर में ही तनेजा खौफ के साये में लिपटा नजर आने लगा। उसकी दहशत से भरी निगाहें, देवराज चौहान के हाथ में मौजूद, रिमोट कन्ट्रोल पर टिकी थीं। जिसे कि चंद पलों के बाद देवराज चौहान ने जेब में डाल लिया था।

"न.... नहीं, इसे जेब में मत डालो।" तनेजा आतंक भरे स्वर में कह उठा।

"क्यों?" देवराज चौहान ने भिंचे होंठों से उसकी आंखों में झांका।

"जेब में बटन....बटन दब सकता है।" तनेजा के होठों से खरखराहट भरा स्वर निकला।

"चिन्ता मत करो।" देवराज चौहान वहशी स्वर में कह उठा--- "जब तक मैं नहीं चाहूंगा, इसका बटन नहीं दबेगा। और जब मैं चाहूंगा, एक सेकेण्ड में ही इसका बटन दब जायेगा।"

तनेजा आतंक भरी मुद्रा में वहीं खड़ा रहा।

■■■

बैंक मैनेजर, नीना पाटेकर और मंगल पांडे के साथ चल रहा था। उन दोनों ने ट्रंक का एक-एक कुन्दा पकड़ कर उसे उठा रखा था। देखते-ही-देखते वह लोग बैंक के मुख्य द्वार के करीब जा पहुंचे। दरबान ने फौरन मैनेजर को देखकर सलाम मारा।

करीब ही मौजूद जगमोहन और उस्मान अली ने यह सब देखा तो उनकी आंखों में तीव्र चमक उत्पन्न हो गई। दोनों ने अर्थपूर्ण निगाहों से एक-दूसरे को देखा।

मुख्य द्वार से बाहर निकल कर सामने ही अहाते में दोनों ने उस ट्रंक को रखा। अहाते में टहल रहे चारों पुलिस वालों ने यह सब देखा, परन्तु मैनेजर के साथ होने के कारण ट्रंक के बारे में खास नोटिस नहीं किया।

“जल्दी मैनेजर।" नीना पाटेकर मैनेजर से बोली--- “बाकी का काम हमें फौरन निपटाना है।"

मैनेजर फक्क चेहरे से मुड़ने को हुआ कि पुलिस वाला पास आ पहुंचा। उसने नीना पाटेकर और मंगल पांडे पर निगाह मारकर कहा---

"मैनेजर साहब! हम आपके नाश्ते का इन्ताजर कर रहे हैं। अभी तक आया नहीं।"

मैनेजर ने अंगारों भरी निगाह से उसे घूरा।

"अभी मैं व्यस्त हूं। देख नहीं रहे...।" मैनेजर अपना क्रोध दबा न सका।

"तो आपने कौन सा नाश्ता बनाना है?" मैनेजर के क्रोध पर पुलिस वाला सकपका कर कह उठा--- “आपने तो कैन्टीन में ऑर्डर ही देना है। इसके बाद तो....।"

"अभी इन्तजार करो। आधा घण्टा ठहरो।" मैनेजर ने खूनी स्वर में कहा--- “फिर नाश्ता तो क्या, लंच का भी इंतजाम करूंगा, तुम लोगों के लिए मक्खन वाले लंच का!"

"ओह तो यह बात है। कोई बात नहीं, हम आधा घन्टा ठहर जाते हैं।" पुलिस वाले ने सिर हिलाया और टहलता हुआ अपने साथियों के करीब जा पहुंचा था।

“चलो मैनेजर.... ।” मंगल पांडे ने सामान्य स्वर में कहा।

मैनेजर पलटने ही लगा था कि ठिठक गया। कदम जड़ होकर रह गये। चेहरे पर कई क्षणों के लिये आतंक से भरे भाव आ गये थे। उसकी निगाहें सफेद रंग की उस विदेशी कार पर आ टिकी थीं जो अभी-अभी अहाते में आकर रुकी थी। उस कार को वह अच्छी तरह पहचानता था। वह विदेशी कार सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी के मालिकानों की थी। और उस पर सेवाराम या मेवाराम दोनों पार्टनरों में से एक अवश्य होता था। मैनेजर की समझ में न आया कि कम्पनी वाले जो रुपये लेने आये थे, उन्हें तो देवराज चौहान और उसके साथी लिए जा रहे थे।

“क्या हुआ?” पांडे ने मैनेजर के चेहरे के भावों को देखते हुए पूछा।

तभी कार से ड्राइवर नीचे उतरा और उसने फौरन पीछे वाला दरवाजा खोल दिया। अगले ही पल मेवाराम नीचे उतरा।

“क्या बात है मैनेजर ?” पांडे ने पुनः कहा--- “तुम काम में बहुत देर लगा रहे हो। हमारे पास पल भर का वक्त नहीं है-- और तुम यहां से हिलने नाम नहीं...।"

"सामने उस कार से मेवाराम उतरा है। सेवाराम-मेवाराम कम्पनी वाला मेवाराम ।" मैनेजर ने सूखे होठों पर अपनी जीभ फेरकर धीमें स्वर में कहा--- "यह चार करोड़ लेने आया है। "

मंगल पांडे से कुछ करते न बना।

“यह अकेला है?” एकाएक नीना पाटेकर बोली।

“मुझे क्या पता।" मैनेजर की हालत बुरी हो चुकी थी। वो सोच रहा था कि अब क्या करे। बैंक में डकैती की बात खुलने पर उसका बुरा हाल हो जायेगा।

“मैनेजर !” एकाएक नीना पाटेकर धीमें किन्तु सर्द लहजे में मैनेजर के कान में बोली--- “जो भी हो यह सारा मामला तुमने ही सम्भालना है। गड़बड़ होने का मतलब जानते ही हो कि क्या होगा?"

मैनेजर की हालत बदरंग! चेहरा और फक्क!

बैंक के गेट के भीतर खड़े जगमोहन और उस्मान अली को इस बात का आभास हो चुका था कि कुछ गड़बड़ होने जा रही है। वह फौरन सतर्क हो गये।

जब तक मेवाराम कार से निकल कर वहाँ तक पहुंचा था। वह साठ बरस का चुस्त बूढा व्यक्ति था। चेहरा सेब की तरह सुर्ख था।

"हैलो....मैनेजर साहब!" मेवाराम ने हाथ बढ़ाकर बुत की तरह खड़े मैनेजर का हाथ थामकर जोर से हिलाया--- "मैंने सोचा खुद ही बैंक जाकर रकम की डिलीवरी ले लें। भई, आजकल वक्त का कोई भरोसा नहीं। कल हुई बैंक वैन रॉबरी के बारे में सुना तो घबरा गया। भगवान का लाख-लाख शुक्र अदा किया कि कल का पैसा हमारी कम्पनी का नहीं था। वैसे हादसे का मुझे दिली अफसोस है। डकैतों का हौसला तो देखिये कि किस दरियादिली के साथ बैंक से ही वैन को उड़ाकर ले गये--- उनकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी।"

मैनेजर के होंठ हिले। कह कुछ भी नहीं सका।

“कम्पनी की रकम तैयार है ना?" मेवाराम पुनः बोला।

“हां....हां क्यों नहीं!” मैनेजर ने खुद पर काबू पाकर कहा--- "वह समझ चुका था कि हालातों पर उसे काबू पाना पड़ेगा, वरना वह पिस कर रह जायेगा। और भी जाने कितनी निर्दोष जानें जायेंगी। और सारी जिम्मेवारी उस पर ही आयेगी--- "आप अकेले आये हैं?"

“अभी तो अकेला ही हूं। दस-पन्द्रह मिनट में कम्पनी की तरफ से सिक्योरिटी वाले और दो एकाउंटेंट आ रहे हैं। वही सब कुछ सम्भालेंगे।"

"यह तो बहुत अच्छी बात है।" मैनेजर ने भावहीन स्वर में कहा-- “मैं भी दस-पन्द्रह मिनट जरा व्यस्त हूं। आप मेरे केबिन में बैठिये। मैं अभी आता हूं। आइये, मैं आपको केबिन तक छोड़ दूं।" इसके साथ ही वह नीना और मंगल से बोला--- “आप लोग चलें, मैं मेवाराम जी को केबिन में छोड़कर आ रहा हूं।"

ना चाहते हुए भी नीना और मंगल स्ट्रांग रूम की तरफ बढ़ गये।

मैनेजर ने मेवाराम को अपने केबिन में बिठाया और यह कहकर बाहर निकला कि दस मिनट में आ जाऊंगा। केबिन से बाहर निकलते ही उसका सामना अपने असिस्टेंट से हो गया। असिस्टेंट बैंक मैनेजर बोला---

"बंसल साहब।" मैनेजर ने कहा--- "मेरे केबिन में मेवाराम जी बैठे हैं। उनसे पूछ लीजिए कि उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं। मैं जरा व्यस्त हूं। दस मिनट में आता हूं।"

बंसल ने सहमति से सिर हिला दिया।

मैनेजर सीधा बेसमेंट में मौजूद स्ट्रांग रूम में जा पहुंचा।

"सब ठीक है?" देवराज चौहान उसे देखते ही गुर्राया ।

"हां। मेवाराम रकम रिसीव करने आया है।" मैनेजर सूखे स्वर में बोला।

"अब वह कहां है?"

"मेरे केबिन में बैठा, मेरा इन्तजार कर रहा है....।"

"मैनेजर!” देवराज चौहान दरिन्दगी भरे स्वर में बोला--- "हम सब का भला इसी में है कि हम जल्दी से चार करोड़ के साथ यहां से बाहर निकल जायें। समझ रहे हो ना मेरी बात ?"

मैनेजर ने घबराहट भरी मुद्रा में सिर हिलाया।

“सर....।” तभी तनेजा बोला--- "इनके चले जाने के बाद हमारी क्या स्थिति होगी.... ।”

"यह हमारे जाने के बाद सोचना।" मंगल पांडे ने खतरनाक लहजे से कहा।

तनेजा ने फौरन होंठ बन्द कर लिये।

“इतने बड़े-बड़े ट्रंक एक ही कार में नहीं जा सकते। तुम यह बात गेट के पास खड़े जगमोहन से कहो।” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा।

“जगमोहन क्या करेगा?" पाटेकर बोली।

“जो मैंने कहा है, तुम वही करो।” देवराज चौहान गुर्राया ।

मंगल पांडे और नीना पाटेकर ने ट्रंक उठाया और बाहर निकल गये। मैनजर बॉडीगार्ड की तरह उनके पीछे हो गया।

सारा रास्ता तय करके उन्होंने मुख्य द्वार के करीब पहले रखे ट्रंक के पास, दूसरे को रखा और पलट कर वापस चल पड़े। मैनेजर उनके साथ था। मंगल क्षण भर के लिये जगमोहन और उस्मान अली के पास खिसक कर बोला---

“ऐसे सात ट्रंक हैं। इन्हें ले जाने का मुनासिब इन्तजाम करो। कार में यह सब नहीं जायेगा।" कहने के साथ ही मंगल पांडे आगे बढ़ता चला गया।

“उस्मान....।" जगमोहन बेहद धीमें स्वर में बोला--- “हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है। मैं अभी कुछ इन्तजाम करके आता हूं। वरना गड़बड़ हुई समझो.... ।”

उस्मान अली सिर्फ सिर हिलाकर रह गया। जगमोहन मुख्य द्वार के बाहर निकल गया।

■■■

डालचन्द बैंक से सिर्फ अस्सी गज दूर कार के साथ मौजूद था। उसके चेहरे पर चिन्ता की हल्की-सी छाप मौजूद थी। दिल की धड़कन भी सामान्य गति से कुछ तेज ही थी। कल तो वह बैंक वैन को सफलतापूर्वक ले उड़ा था, किस्मत से वह बैंक वैन आर्म्स प्रूफ थी। रास्ते में पुलिस वाले मिल गये तो उनसे बचना कठिन हो जायेगा। गड़बड़ हो गई तो वह सीधा जेल में जा पहुंचेगा और वैन में मौजूद साढ़े पांच करोड़ की दौलत उनके लिये तो बेकार ही हो जायेगी। लेकिन वह अब इस काम से पीछे भी तो नहीं हट सकता था। आज के काम से पीछे हटने का मतलब था, बैंक वैन में मौजूद साढ़े पांच करोड़ में से भी हिस्सा नहीं मिलेगा।

हिस्सा सिर्फ उसे ही मिलेगा, जो शुरू से अन्त तक देवराज चौहान के साथ रहा हो। उसे देवराज चौहान की यह जिद्द फिजूल ही लगी थी कि साढ़े नौ करोड़ को एक साथ वह अपने सामने देखना चाहता है। उसके बाद ही हिस्से किए जायेंगे, जबकि डालचन्द की समझ के मुताबिक वह साढ़े पांच करोड़ ही बहुत था जो कि बैंक वैन में अभी तक बंद था।

सबसे बड़े खतरा तो उस बैंक अहाते में हथियारों सहित टहलते उन चार पुलिस वालों से लग रहा था। उन चारों की मौजूदगी में डकैती की दौलत ले उड़ना आसान नहीं था। जाने वह सारे बैंक के भीतर अब क्या कर रहे होंगे? डकैती में सफल भी होंगे या नहीं?

डालचन्द तरह-तरह के विचारों में फंसा पड़ा था। बहरहाल, फिर भी वह निश्चिन्त था कि डकैती में गड़बड़ हो गई तो भीतर वाले ही फंसेंगे। उसका क्या है, वह तो बाहर-से-बाहर को ही, खामोशी से खिसक जायेगा। उसने घड़ी में समय देखा, उसे कार सहित बैंक के अहाते में पहुंचने में अभी, सात-आठ मिनट का वक्त बाकी था।

तभी डालचन्द चौंका। उसने जगमोहन को देखा जो बैंक से निकल कर तेज-तेज कदमों से उसकी तरफ बढ़ा आ रहा था। डालचन्द को लगा मामला कहीं-न-कहीं तो गड़बड़ हो ही गया है, क्योंकि योजना में बैंक से निकल कर, जगमोहन को उसकी तरफ आना नहीं था। आने का सीधा मतलब था कि कहीं गड़बड़ हो चुकी है।

"डालचन्द, थोड़ी सी गड़बड़ हो गई है।" जगमोहन बोला।

"वह तो मैं तुझे देखते ही समझ गया था। डकैती असफल हो गई ना?"

"नहीं।" जगमोहन जल्दी से बोला--- “सब ठीक है, परन्तु चार करोड़ की दौलत सात बड़े-बड़े ट्रंकों में भरी हुई है। जिन्हें कि कार में लाद कर नहीं ले जाया जा सकता। उसके लिये कोई बन्द वैन चाहिए। मैटाडोर टाइप की बंद वैन। फौरन इन्तजाम करो।"

“क्या?" डालचन्द हड़बड़ाया--- "मैटाडोर बंद वैन का फौरन इन्तजाम करूं? तुम्हारा दिमाग तो सही है? इतने कम समय में मैं किसकी वैन उठाकर लाऊंगा---।"

“यह समय बहस करने का नहीं है। कुछ करो डालचन्द कहीं से भी।"

“तुम खुद कर लो।" डालचन्द ने होंठ भींच लिये--- "मैं वैन का इन्तजाम नहीं कर सकता....यह कार है मेरे पास। इस पर जितने ट्रंक आयेंगे, वह मैं ले जाऊंगा।"

"इस पर तो दो से ज्यादा नहीं आने वाले.... ।"

“कोई बात नहीं। मैं दो ही ले जाऊंगा।" डालचन्द ने उसे घूरा--- “ऐसी बातों का इन्तजाम फौरन नहीं किया जाता जगमोहन । समय लगता है....।"

“डालचन्द....।" जगमोहन विवशता भरे स्वर में कह उठा--- “तुम.... ।”

“तुम खुद ही क्यों नहीं कर लेते?"

“क्या?”

“बंद वैन का इन्तजाम। जिसमें वह सातों ट्रंक आ सकें ।"

"मैं कहां से करूंगा?"

“यही तो मैं कह रहा हूं कि मैं कहां से लाऊंगा।" डालचन्द ने दांत भींचे।

जगमोहन के होंठ भिंच गये? डालचन्द ठीक ही तो कह रहा था। उसकी निगाहें दायें-बायें घूमने लगीं। सामने ही पार्किंग प्लेस था। वहां पर तरह-तरह के वाहन मौजूद थे। जैसी वैन उन्हें चाहिए थी, पांच-सात वैसी वैनें वहां मौजूद थीं, परन्तु उन्हें हासिल करना असम्भव था। वहां दो पार्किंग अटेंडेन्ट थे। उनकी मौजूदगी में भला यह काम कैसे हो सकता था?

वह कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसकी निगाह सफेद रंग की खूबसूरत बंद वैन पर पड़ी, जो सड़क से मुड़ कर बैंक की तरफ बढ़ रही थी। वैन की बॉडी के दोनों तरफ खूबसूरती के साथ सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी लिखा हुआ था। उसके देखते ही-देखते सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी की बन्द वैन, बैंक के अहाते में जा खड़ी हुई। उसके पिछले और आगे वाले दरवाजे खुले, चार खतरनाक से नजर आने वाले गार्ड नीचे उतरे और बैंक में प्रवेश कर गये। उसके साथ कम्पनी का एकाउन्टेंट भी था।

ड्राईवर वैन के पास खड़ा होकर, बीड़ी सुलगाने में लग गया।

“डालचन्द.... ।" जगमोहन की सिकुड़ चुकी आंखों में चमक पैदा हो चुकी थी।

डालचन्द ने प्रसन्नता भरी निगाहों से, जगमोहन को देखा।

"वह सफेद वैन....जो बैंक में.... ।”

“सेवाराम-मेवाराम वाली?"

“हां.... मैं उसी की बात कर रहा हूं। उसे चलाने में तुम्हें कैसा लगेगा ?"

“बहुत अच्छा लगेगा। नई वैन है। खूब दौड़ेगी। लेकिन उस पर कब्जा जमाना सपना देखने के बराबर है। जिन नोटों को हम ले उड़ने वाले हैं, वह उन्हीं नोटों को लेने आये हैं। फिर वहां पर चार पुलिस वाले मौजूद हैं। ऐसे में वैन छीनकर मरना है क्या? डकैती तो असफल होगी ही, जान पर भी बन आयेगी। मेरी मानो तो कार पर जितने ट्रंक आते हैं, बहुत हैं।"

“देखते जाओ।" जगमोहन एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- “तुम उस वैन को ड्राइव करने के लिये तैयार रहो। वैन पर कब्जा जमाना मेरे हिस्से में रहा।"

“गड़बड़ हो जायेगी।” डालचन्द बेचैन हो उठा।

जगमोहन कुछ नहीं बोला और बैंक की तरफ बढ़ गया।

■■■

तब नोटों से भरा चौथा ट्रंक नीना और मंगल उठाये ले जा रहे थे-- जब मैनेजर के केबिन में मेवाराम के साथ असिस्टेंट मैनेजर बंसल की निगाह उस पर पड़ी। ट्रंक को देखते हो बंसल के चेहरे पर अजीब से भाव व्याप्त होते चले गये। आंखों में हैरत के भाव उभरे, उसने तुरन्त गर्दन घुमाकर मेवाराम को देखा।

"आपका काम शुरू हो गया?" बंसल ने पूछा।

"कैसा काम ?”

"पैसे को बैंक से निकालने का काम ।"

"अभी नहीं।” मेवाराम ने अपनी जेब थपथपाई--- "अभी तो मैंने अपने कागजात भी मैनेजर साहब को नहीं दिए। एक तो मैनेजर साहब बिजी हैं। कह रहे थे, फुर्सत मिलने में पन्द्रह मिनट लगेंगे। दूसरे, अभी मेरे आदमी नहीं आये। सिक्योरिटी गार्ड और एकाउंटेन्ट आने ही वाले हैं। तब मेरा काम शुरू होगा।"

“तो फिर यह मामला उल्टा कैसे हो गया?" बंसल बड़बड़ा उठा। निगाहें पांडे और नीना के द्वारा उठाये गये ट्रंक पर और साथ चल रहे मैनेजर साहब पर उठ रही थीं।

“क्षमा कीजियेगा मेवाराम जी। मैं अभी आया.....।" बंसल अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।

मेवाराम जी सिर हिलाकर रह गये। इससे पहले कि बंसल केबिन से बाहर निकलता, तभी दरवाजे में से मेवाराम की कम्पनी के एकाउन्टेन्ट ने भीतर प्रवेश किया।

“तुम आ गये गुप्ता!” मेवाराम जी उसे देखते ही बोले--- “आओ बैठो.....।” फिर उन्होंने बाहर खड़े सिक्योरिटी गार्डों पर निगाह मारकर बंसल से कहा--- "मैनेजर साहब, अब हमारा पैसा स्ट्रांग रूम से निकालने का इन्तजाम कीजिये।"

“पांच मिनट ठहरिये मेवाराम जी। मैं अभी इन्तजाम करता हूं।" कहने के साथ ही बंसल बाहर निकला। उसके चेहरे पर अजीब-से भाव फैले हुए थे।

नीना, पांडे और मैनेजर ट्रंक के साथ मेन द्वार से बाहर निकल गये थे।

बंसल केबिन से निकल कर तेजी से काउन्टरों के साथ होता हुआ आगे बढ़ गया। चंद ही पलों में वह तनेजा के केबिन के पास था। तनेजा को केबिन में ना पाकर वह ठिठका। गर्दन घुमाकर देखा तो नीना, मंगल और मैनेजर को मुख्य द्वार से भीतर प्रवेश करता पाया। बंसल वहीं खड़ा रहा। मैनेजर ने उसके करीब से गुजरना था।

जब वह उसके करीब से गुजरे तो बंसल ने टोका---

"सर!"

मैनेजर ठिठका। नीना और मंगल भी ठिठके ।

"तुम! मैंने तुम्हें मेवाराम के पास ठहरने को कहा था।" मैनेजर बोला।

"मैं मेवाराम के पास से ही उठकर आ रहा हूं।" बंसल बोला--- "सर, स्ट्रांग रूम से आप जो नोटों से भरी पेटियां निकाल रहे हैं, वह किसके नाम हैं?"

“क्यों?" मैनेजर के माथे पर बल पड़ गये।

“आप जवाब तो दीजिये सर.... ।"

"पहले तो मुझे बताओ कि तुम्हारे यह प्रश्न पूछने के पीछे....।"

“सर....।" बंसल ने बात काटकर कहा--- "यह पेटियां कल शाम चार बजे रिजर्व बैंक से आई थीं। इनमें सेवाराम-मेवाराम कम्पनी का चार करोड़ रुपया है। इन्हें कल स्ट्रांग रूम में मैंने और तनेजा ने ही रखवाया था। और अब मेवाराम जी इन्हीं पैसों को लेने के लिये आपके केबिन में बैठे हैं और उनकी फारमल्टीज पूरी किए बिना ही आप पैसा जाने किसके लिए निकाले जा रहे हैं?" कहने के साथ ही बंसल ने नीना और मंगल पर निगाह मारी।

मैनेजर क्षण भर के लिये ठगा-सा रह गया।

“तुम्हें....तुम्हे पूरा विश्वास है कि यह ट्रंक मेवाराम कम्पनी के ही हैं?"

“श्योर सर! मैंने और तनेजा साहब ने ही तो इन्हें कल अन्दर रखवाया था। इनके तलों पर गोंद से मैंने स्लिप भी चिपका रखी है कि यह मेवाराम कम्पनी का पैसा है। आप बेशक ट्रंकों के नीचे वाले हिस्से पर लगी स्लिप देख सकते हैं।" बंसल ने अपने शब्दों पर जोर दिया।

मैनेजर ने एक निगाह नीना और मंगल पर मारी ।

“लेकिन तनेजा ने तो मुझे इस बारे में कुछ नहीं बताया।" मैनेजर ने कहा।

“हैरानी है सर कि अगर उसने इस बारे में कुछ भी नहीं बताया तो.... ।”

“बंसल! तनेजा स्ट्रांग रूम में है। तुम साथ चलो और उससे बात कर लो।"

"चलिये सर।"

मैनेजर, नीना, मंगल पांडे और बंसल बेसमेंट की तरफ बढ़ गए।

■■■

जगमोहन वापस अपनी जगह पर पहुंचा। उस्मान अली ने प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा। जगमोहन ने धीमें स्वर में सारी बात उसे बताकर कहा---

"मैं सेवाराम-मेवाराम वाली वैन को अपने कब्जे में करने जा रहा हूं। उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। ना ही इतनी जल्दी हम अन्य वैन का इन्तजाम कर सकते हैं।"

“पागल हो गये हो?" उस्मान अली हड़बड़ाया।

“क्या मतलब?”

"तुम शायद हालातों पर गौर नहीं कर रहे। बैंक के भीतर डकैती हो रही है। उधर मैनेजर के केबिन में मेवाराम खुद बैठा है। अभी चार उसके सिक्योरिटी गार्ड पहुंचे हैं, जो मैनेजर के केबिन के बाहर ही खड़े हैं। सब-के-सब खतरनाक हैं। इधर नोटों से भरे ट्रंक बाहर रखे जा रहे हैं और चंद कदमों के फासले पर चार पुलिस वाले हथियारों सहित खड़े हैं। उन्हें इस बात का आभास मिलने की देर है, देखना....वह ।"

"तुम्हारा मतलब कि, मैं वैन को अपने कब्जे में ना करूं?" जगमोहन व्यंग से बोला ।

“नहीं। नहीं करना ही हमारे लिये अच्छा होगा।"

“तो उस्मान अली! यह जो नोटों से भरे बड़े-बड़े ट्रंक यहां इकट्ठे किए जा रहे हैं, इन्हें ले जाना कैसे है? क्या जाते हुए हम एक-एक सिर पर उठाकर ले जायेंगे?" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा--- "क्योंकि डालचन्द के पास जो कार है, उसमें दो से ज्यादा जाने से रहे।"

उस्मान अली कुछ ना बोला।

"हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है उस्मान अली। चार ट्रंक बाहर आ चुके हैं। ज्यादा-से-ज्यादा दो-तीन और होंगे। इस काम से निपट कर मैनेजर ने मेवाराम की तरफ ध्यान देना है और उसका ही पैसा हम ले जा रहे हैं। सारा माल बाहर आते ही हमें फौरन यहां से खिसक जाना होगा, नहीं तो ऐसे फंसेंगे कि बचना भी कठिन हो जायेगा। ज्यादा सम्भावना हमारी लाशों के बिछने की है। क्योंकि चार पुलिस वाले हथियारों सहित और मेवाराम के चार सिक्योरिटी गार्ड हैं। उन्होंने हमें गोलियों से उड़ाने में एक सेकेण्ड की देर नहीं लगानी है।"

उस्मान अली ने सूखे होठों पर जीभ फेरी।

“व.... वैन पर कैसे कब्जा करोगे?"

“यह बात तुम मेरे ऊपर छोड़ दो।" जगमोहन ने होंठ भींचकर कहा।

"मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।"

"नहीं। तुम यहीं खड़े होकर सब कुछ देखो। गड़बड़ होने पर ही आगे जाना।" जगमोहन ने सर्द स्वर में कहा और बैंक के मुख्य द्वार से निकलकर, वैन की तरफ बढ़ गया।

■■■

बंसल उनके साथ स्ट्रांग रूम में पहुंचा। देवराज चौहान की तीखी निगाह बंसल पर जा टिकी। बंसल हैरानी से देवराज चौहान और तनेजा को देखने लगा, फिर दो लम्बी-लम्बी सांसें लेकर बोला---

"तनेजा साहब! यह आप क्या कमाल कर रहे हो? वो पेटियां वापस मंगवाईये। नहीं तो गजब हो जायेगा। हमारी नौकरी तो गई ही समझो।”

“क्यों?” तनेजा ने सूखे होठों पर जीभ फेरी ।

"यह नोटों वाली पेटियां तो सेवाराम-मेवाराम कम्पनी की हैं। भूल गये, कल शाम ही तो हमने इन्हें रिजर्व बैंक की गाड़ी से उतरवा कर रखा था। इनके नीचे तलों पर मैंने ही स्लिप चिपकाई थी। सेवाराम-मेवाराम कम्पनी के नाम की, देखिये।" बंसल आगे बढ़ा और पूरी शक्ति लगाकर किसी प्रकार पेटी को जरा-सी टेढ़ी करके बोला--- “देखो तो, मैंने गलत तो नहीं कहा?"

तनेजा ने एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया।

बंसल ने पेटी छोड़ी और सीधा खड़ा हो गया।

“तुम खामोश क्यों हो तनेजा ?"

"तुम ठीक कह रहे हो बंसल-- कि वह पैसा सेवाराम-मेवाराम कम्पनी का है।"

"इसका मतलब तुम जानते हो?" बंसल जोरों से चौंका।

"हां।"

"मैनेजर साहब भी जानते हैं?" बंसल ने मैनेजर को देखा।

मैनेजर पूर्ववतः मुद्रा में खड़ा रहा।

"यह लोग किस कम्पनी से हैं?" बंसल ने देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान के होठों पर क्रूरता से भरी मुस्कान उभरी । पलक झपकते ही उसके हाथ में रिवॉल्वर नजर आने लगी। अगले ही पल रिवॉल्वर की नाल, बंसल के गाल पर पड़ी। उसके होठों से कराह निकल गई। गाल भीतर से कट गया। होठों के कोनों से खून उभर आया। आंखों में आतंक के भाव लिए गाल पर हाथ रखे, वह दो कदम पीछे हट गया।

"खबरदार, जो मुंह से आवाज निकाली।" देवराज चौहान के होठों से भेड़िए की-सी गुर्राहट निकली--- “हम डकैती डाल रहे हैं। और हमारे कदम रुकने का मतलब है यहां मौजूद सैकड़ों लोगों की मौत। तनेजा, समझा दो इस बेवकूफ आदमी को।"

बंसल ने घबराकर तनेजा को देखा।

“तुम लोग जल्दी से अपना काम करो....।" देवराज चौहान, मंगल और नीना से बोला--  “रुको मत....हमारे पास समय बहुत कम है। उठाओ।"

मंगल और नीना पांचवां ट्रंक उठाकर बाहर निकल गये। मैनेजर उसके साथ बाहर निकल गया। उसकी हालत बुरी हो रही थी। डकैती को वह चाहकर भी किसी हालत में नहीं रोक सकता था। रोकने की कोशिश करने का भी मतलब था वास्तव में सैकड़ों लोगों को मौत के मुंह में धकेल देना। देवराज चौहान ने जेब में पड़े रिमोट कन्ट्रोल के बटनों को दबाना था कि अगले ही पल हर तरफ तबाही ही तबाही होनी थी।

हॉल से गुजरते समय मैनेजर को सेवाराम-मेवाराम कम्पनी का एकाउन्टेंट केबिन के बाहर टहलता नजर आया। मैनेजर को देखते ही तुरन्त वह उसकी तरफ लपका।

"मैनेजर साहब।" एकाउन्टेन्ट पास आते हुए तेज स्वर में बोला--- “सेठ जी को इस तरह ज्यादा देर बैठने की आदत नहीं है। वह जल्द ही रकम की डिलीवरी ले जाना चाहते हैं।"

“बस! पांच मिनट और.... ।" मैनेजर ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।

"यहां सेठ जी के लिए अब एक-एक मिनट बिताना भारी हो रहा है।"

“मिस्टर !” मैनेजर ने एकाउन्टेन्ट से तीखे स्वर में कहा-- "आप जाकर केबिन में बैठिए। मैं अभी वहीं आकर आपसे बातें करता हूँ।"

"आप ठीक लहजे में बातें नहीं कर रहे हैं मैनेजर साहब।" एकाउन्टेन्ट ने क्रोध भरे स्वर में कहा।

मैनेजर उनके साथ चलते हुए खामोश रहा। इस समय वह जिन हालातों से गुजर रहा था, उसके कारण उसका मन कर रहा था कि इसे उठाकर बाहर फेंक दे....। परन्तु अपनी इस ख्वाहिश और इच्छा को वह दबाकर रह गया था।

एकाउन्टेन्ट उसके साथ ही चलने लगा।

“मैं सेठ जी से कहकर कम्पनी का खाता आपके बैंक से निकलवा दूंगा।" वह पुनः बोला।

“जो मन में आये कीजियेगा।" मैनेजर ने शुष्क स्वर में कहा।

“क्या?” एकाउन्टेन्ट का मुंह खुला का खुला रह गया--- "सेवाराम-मेवाराम कम्पनी का खाता आपके बैंक से हट जाए, इस पर आपको कोई एतराज नहीं ?"

"नहीं।”

तब तक मंगल पांडे और नीना पाटेकर ट्रंक उठाये बैंक से बाहर पहुंचे और वहां मौजूद चार ट्रंकों के पास पांचवां भी रख दिया। बैंक मैनेजर और एकाउन्टेन्ट भी चलते हुए उनके पास ठिठक गये। वह अपनी बातों पर चिक-चिक कर रहे थे। फिर देखते-ही-देखते वह सारे पुनः भीतर प्रवेश कर गये।

■■■

जगमोहन, सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी की सफेद रंग की वैन के पास पहुंचा। वैन का ड्राईवर, वैन से टेक लगाये बीड़ी पिये जा रहा था।

“यह वैन सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी की है?" जगमोहन ने रुआब से पूछा।

“हां.... क्यों?” ड्राइवर ने जगमोहन पर एक प्रश्न भरी निगाह मारी।

“वैन को बैंक के दरवाजे पास लगाओ। जल्दी।"

"क्या मतलब?" ड्राइवर एकाएक ही सतर्क हो गया।

"मतलब अपने मालिक से पूछना। मैं असिस्टेन्ट मैनेजर हूँ। मेरा काम नोटों से भरे वह सामने रखे ट्रंकों को वैन में लदवाना है। उसके बाद तुम लोग जानो ।"

"ल....लेकिन एकाउन्टेन्ट साहब कहां हैं? और वह चारों गार्ड तो....।"

“आ रहे हैं....आ रहे हैं।" जगमोहन जल्दी का दिखावा करते हुए तेज स्वर में बोला--- “तुमसे जो कहा है, वही करो। मेरे पास ज्यादा समय नहीं है-- और भी काम मुझे करने हैं। "

शक की गुंजाइश ही कहां थी। ड्राइवर ने जल्दी से बीड़ी फेंकी और आगे बढ़कर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। अगले ही पल उसने वैन स्टार्ट की और बैक करते हुए वैन को बैंक के मुख्य द्वार के समीप ले जाकर खड़ा कर दिया।

जगमोहन पहले ही वहां पहुंच चुका था।

ड्राइवर नीचे उतरा तो जगमोहन ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया और कहा---

“जरा हाथ लगाना.... ।" फिर वह दरवाजे के पास पहुंचा--- “भाई साहब! आपको कष्ट तो होगा, लेकिन जरा हाथ लगाना। यह सभी ट्रंक वैन में रखने हैं। मैं वैन के भीतर खड़ा हो जाता हूं और आप वैन के ड्राइवर ट्रंक उठाकर ऊपर रखना....और मैं भीतर से खींच लूंगा। दो-चार मिनट ही लगेंगे।"

दरबान को मालूम था कि इन ट्रकों में क्या है। कल हुई बैंक वैन रॉबरी के कारण वह पहले से ही बौखलाया हुआ था। इस कारण उसकी दिली ख्वाहिश थी कि नोटों से भरे यह ट्रंक जल्द-से-जल्द यहां से चले जायें। जगमोहन की बात उसने फौरन मान ली। कन्धे पर लटका रखी दोनाली बन्दूक को उसने तुरन्त दीवार के सहारे खड़ा किया और ट्रंकों के पास जा पहुंचा। तब तक ड्राइवर ने वैन के पिछले दोनों पल्ले खोल दिए ।

जगमोहन एक ही छलांग में वैन के भीतर जाकर खड़ा हो गया। उसका दिल तेजी के साथ धड़क रहा था। सेवाराम-मेवाराम कम्पनी के चार गार्ड। एक एकाउन्टेन्ट और एक पार्टनर बैंक के भीतर था। वह लोग कभी भी बाहर आ सकते थे। उनके बाहर आने की देर थी सारा खेल खतरे में पड़ जाना था। अपनी वैन पर ट्रंकों को भरते देखकर उन्होंने फौरन चौकस हो जाना था। पांच ट्रंक बाहर आ चुके थे।

चौकीदार और ड्राइवर एक-एक ट्रंक वैन के फर्श पर रखने लगे और जगमोहन उन्हें खींचकर भीतर सरका देता।

देखते-ही-देखते पांचों ट्रंक वैन के भीतर पहुंच गये थे।

तभी नीना पाटेकर और मंगल पांडे छठवां ट्रंक उठाये बाहर आ पहुंचे। बाहर का नजारा देखकर क्षण भर के लिये वह ठिठके--फिर ट्रंक रखकर खामोशी के साथ वह पलट गये। परन्तु उनके साथ आया मैनेजर ट्रंकों को सेवाराम-मेवाराम कम्पनी की वैन में पड़ा देखकर ठगा-सा रह गया। नीना पाटेकर ने मैनेजर को कोहनी मारी तो हड़बड़ा कर वह पलटा-- और उनके साथ भीतर प्रवेश कर गया।

चौकीदार और ड्राइवर ने वह छठा ट्रंक भीतर रख दिया।

उस्मान अली सतर्कता से खड़ा सब कुछ देख रहा था। रह-रहकर उसकी निगाह बैंक के अहाते में टहल रहे चारों पुलिस वालों की तरफ जा उठती थी...जो दो-दो की टोली में खड़े गप्पे हांकने में व्यस्त थे।

और बैंक की बाहरी टूटी दीवार के करीब खड़ा डालचन्द सब कुछ देख रहा था कि किस तरह से ट्रंक वैन में रखे जा रहे हैं। वह एकदम तैयार था वैन को उड़ा ले जाने को। उसे तो सिर्फ इशारे की देर थी। साथ ही दिल तेजी से धड़क रहा था कि यह सफेद रंग की नई वैन है। वैन की बॉडी के दोनों तरफ एक्सपोर्ट कम्पनी का नाम लिखा था। वैन दौड़ाने के पांच मिनट बाद ही सब जगह यह खबर फैल जानी थी कि सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी की वैन में डकैती का माल जा रहा है और यही बात खतरे वाली थी कि सम्भव था किसी सड़क पर वैन को जल्दी ही पुलिस अपने घेरे में ले ले।

■■■

नीना पाटेकर और मंगल पांडे ने धड़कते दिल के साथ स्ट्रांग रूम में प्रवेश किया....और नोटों से भरे हुए आखिरी ट्रंक पर निगाहें जा टिकीं।

उनको वापस आते देखकर देवराज चौहान ने मन-ही-मन गहरी सांस ली। एक ही ट्रंक बचा था। यानी कि डकैती सफल रही। कुछ ही देर में उस ट्रंक के साथ उन सबने बाहर होना था। देवराज चौहान ने तनेजा और असिस्टेन्ट मैनेजर पर निगाह मारी।

"अब आखिरी ट्रंक हमें बाहर ले जाना है। तुम दोनों भी इस बार साथ चलोगे। रास्ते में किसी प्रकार की कोई चालाकी न दिखाते हुए खुद को सामान्य रखना। वरना जानते ही हो कि चालाकी का क्या अन्जाम होगा?" कहते हुए देवराज चौहान ने जेब से रिमोट कंट्रोल निकाल लिया।

दोनों की निगाहें रिमोट कन्ट्रोल पर जा टिकीं। चेहरे दूध की भांति सफेद पड़ गये।

मंगल पांडे और नीना पाटेकर ने आगे बढ़कर उस आखिरी ट्रंक को उठा लिया।

"चलो।" देवराज चौहान ने तनेजा और असिस्टेन्ट मैनेजर से कहा।

फिर सबसे पहले नीना पाटेकर और मंगल पांडे ट्रंक सहित स्ट्रांग रूम से बाहर निकले। उसके बाद मैनेजर। तत्पश्चात् तनेजा और असिस्टेन्ट मैनेजर। फिर देवराज चौहान।

सामान्य गति से चलते हुए वह सब बेसमेंट से निकल कर ऊपरी तल में पहुंचे। और तेज-तेज कदमों से सब लम्बे काउन्टर की बगल से गुजरते हुए, लम्बे हॉल को पार करते हुये बाहर की तरफ बढ़े कि एकाएक उनके सामने मेवाराम आ खड़ा हुआ।

"मैनेजर!" मेवाराम के स्वर में क्रोध का पुट था---  "हमें जाना है.... और तुम हमें इतनी देर से बिठाए हुए हो, हमें इतनी देर बैठने की आदत नहीं है। यह काम छोड़ो और फौरन हमारा काम करो।"

"मेवाराम साहब....सिर्फ दो मिनट और।"

"पिछले बीस मिनट से आप दस मिनट....पांच मिनट की रट लगाये हुए हैं।"  मेवाराम ने उखड़े स्वर में कहा--- "एकाउन्टेन्ट साहब बता रहे थे कि आपका बोलने का लहजा ठीक नहीं है। आपको हमारी कम्पनी के खाते की जरा भी परवाह नहीं है। क्या यह सच है?"

मैनेजर कुछ कहने ही वाला था कि देवराज चौहान बोल पड़ा---

"मैनेजर साहब.... पहले आप हमें फारिग कीजिए....। हमें जल्दी जाना है।"

"मेवाराम साहब.... बस एक मिनट...मैं इन्हें बाहर तक छोड़ आऊं।"

"उसके बाद ?"

"उसके बाद मैंने आपका ही काम करना है।" मैनेजर ने फंसे स्वर में कहा।

"ठीक है, चलिए..... मैं भी आपके साथ बाहर चलता हूं। देखता हूँ....इसके बाद आप मेरा काम करते हैं या कुछ और? कसम से अगर मुझे मालूम होता कि बैंक में आकर....आपके केबिन में बैठकर....इस तरह मुझे 'वेट' करना पड़ेगा तो मैं...।"

"चलिए मैनेजर साहब।" देवराज चौहान शुष्क स्वर में बोला।

वह सब पुनः आगे बढ़ गये।

मेवाराम भी उनके साथ चल पड़ा। उसके चेहरे पर क्रोध के भाव नाच रहे थे। परन्तु अन्य लोगों के सामने वह अपने भाव को जब्त किए हुए था।

मेवाराम के साथ चलने पर नीना और मंगल की आंखें मिलीं। दोनों सतर्क हो गए। गड़बड़ होने जा रही थी। नोटों से भरे ट्रंकों को सेवाराम-मेवाराम कम्पनी की वैन में रखा जा रहा था। अभी तक ये बात भीतर वालों को पता न थी। परन्तु मेवाराम के बाहर जाते ही यह बात खुल जानी थी और मेवाराम ने शोर मचा देना था। बाहर चार पुलिस वाले भी मौजूद थे। उन्होंने मेवाराम के साथ आये गार्डों पर निगाह मारी। वह मैनेजर के केबिन के बाहर टहल रहे थे।

देवराज चौहान अभी इस बात से अनजान था कि ट्रंक किस वाहन में लादे जा रहे हैं। मुख्य द्वार के करीब पहुंचते ही नीना पाटेकर ने उस्मान अली को इशारा किया--  इशारे में मेवाराम को सम्भालने के लिए कहा गया था।

इशारा समझते ही उस्मान अली के चेहरे पर दृढ़ता के भाव आ गये। उसका हाथ जेब में गया और रिवाल्वर पर जा टिका। उसकी आंखों में हल्की-सी दरिन्दगी भर आई थी।

नीना और मंगल पांडे तेजी से बाहर निकले। एकाएक उन्होंने अपनी चाल तेज कर दी थी। पलक झपकते ही उन्होंने ट्रंक उठाकर वैन में रखा। वहां खड़े जगमोहन ने ट्रंक को फौरन सरका कर भीतर किया। देवराज चौहान को देखते ही वह समझ गया कि माल पूरा बाहर आ गया है।

एक ही छलांग में वह नीचे आ गया और देखते-ही-देखते बाहर से वैन का दरवाजा बन्द कर दिया-और जरा-सा वैन से हटकर खास ढंग से इशारा किया।

वह इशारा डालचन्द के लिये था, जो कि डालचन्द ने देख लिया था।

तभी मेवाराम की हैरत से भरी आवाज ने वहां छाई शांति को भंग किया---

"यह क्या-- हमारी कम्पनी की वैन में---।"

"खबरदार!" उस्मान अली की गुर्राहट वहां गूंज उठी--  "आवाज अन्दर। मुंह बन्द। एक शब्द भी होठों से अगर निकला तो छः की छः गोलियां तुम्हारी पीठ में उतार दूंगा।"

सेठ मेवाराम की सांस गले में ही अटक कर रह गई थी।

मंगल पाण्डे, नीना पाटेकर, जगमोहन और देवराज चौहान के हाथों में भी रिवाल्वर चमक उठे। पल भर में ही माहौल खतरनाक हो उठा।

चारों पुलिस वालों ने यह नजारा देखकर हथियारों को सीधा करना चाहा।

"जैसे खड़े हो, वैसे ही खड़े रहो।" देवराज चौहान पुलिस वालों को देखकर ऊंचे स्वर में गुर्राया--- "अगर तुम लोगों ने कोई हरकत की तो तुम्हारा यह करोड़पति मेवाराम नहीं बचेगा। साथ ही और भी कई जानें जाएंगी-- और हर मौत के जिम्मेदारी सिर्फ तुम लोग पर ही होगी। समझे?"

"त..... तुम देवराज चौहान ही हो?” उसी पुलिस वाले ने आतंक भरे स्वर से पूछा--- जो कि चाय-पानी के लिए मैनेजर के केबिन में आया था और देवराज चौहान को धमकी भी दी थी।

"हां.... मैं ही देवराज चौहान हूं।"

“क....क्या किया है अब त....तुम लोगों ने?”

"डकैती। मेवाराम कम्पनी के चार करोड़ रुपये की। अब हम जा रहे हैं। तुम लोगों द्वारा कोई भी हरकत करने का मतलब है.....कई निर्दोष लोगों का मारा जाना।" देवराज चौहान ने दरिन्दगी भरे स्वर में कहा--- “जो जहां है, वहीं खड़ा रहे।"

“क... कल भी तुम्हीं ने बैंक वैन रॉबरी....।"

“हां.... हमने ही साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी वैन उड़ाई थी। अब अपना थोबड़ा बन्द रख-- वरना अगली सांस तू ऊपर जाकर लेगा।" देवराज चौहान गुर्राया ।

पुलिस वाला हड़बड़ा कर फौरन खामोश हो गया।

"तुम लोग मेरा चार करोड़ ले जा रहे हो?" मेवाराम के होठों से फटा-फटा सा स्वर निकला।

“चुप कर!" उस्मान अली दहाड़ा--- “अब यह हमारा है। तुम बैंक से वसूल करते रहना।"

मेवाराम भयपूर्ण निगाहों से वहां मौजूद लोगों को देखने लगा।

अब तक डालचन्द भी ड्राइविंग सीट पर आ जमा था....चाबी इग्नीशन में ही मौजूद थी। पलक झपकते ही उसने वैन को स्टार्ट कर दिया।

वैन स्टार्ट होते ही सब सतर्क हो गये।

बैंक के चौकीदार और वैन ड्राइवर की हालत बुरी थी। असली नजारा तो उनकी समझ में अब आया था। वह सकते की-सी हालत में ही खड़े रह गये थे।

"हम जा रहे हैं। कोई गलत हरकत न करे।" कहते देवराज चौहान मैनेजर के समीप पहुंचा और जेब से रिमोट कंट्रोल निकालकर मैनेजर के हाथ पर रखते हुए बोला--- “यह लो....घर जाकर बच्चों को देना.... वह इससे खेलेंगे।"

"क्या....?" मैनेजर का मुंह फटा-का-फटा रह गया--- "व....वह बम....।"

“नहीं है। कोई बम नहीं है।" देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा---"एक बात हमेशा के लिए याद रखना कि देवराज चौहान सैकड़ों लोगों की जानों पर खेलकर कभी भी दौलत नहीं लूटेगा।"

मैनेजर मुंह फाड़े हक्का-बक्का सा रह गया।

तभी बैंक के मुख्य द्वार से फायर हुआ। गोली देवराज चौहान की बांह से रगड़ खाती हुई उस्मान अली की पीठ में जा घुसी। उस्मान अली के होठों से चीख निकली और वह नीचे गिरकर तड़पने लगा। रिवॉल्वर उसके हाथ से छूट गई थी।

एकाएक वहां हलचल मची।

नीना पाटेकर और मंगल पांडे रिवॉल्वर सहित घूमे। एक साथ ही उनकी रिवॉल्वरों से दो फायर हुए। और गोलियां मुख्य द्वार के करीब भीतर से झांकते मेवाराम के एक गार्ड के चेहरे को उघेड़ती चली गईं। वह चीख भी न सका और नीचे जा गिरा ।

उस्मान अली ठण्डा पड़ गया था।

देवराज चौहान के जबड़े सख्ती के साथ कसते चले गये-- आंखों में हिंसक भाव उभरे।

"यह मेवाराम के गार्ड हैं।" जगमोहन चीखा।

मेवाराम का चेहरा और भी फक्क पड़ गया।

उसी पल जगमोहन उसके सिर पर था और हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर की नाल वह मेवाराम की खोपड़ी से सटा चुका था।

मेवाराम की टांगों में कम्पन होना आरम्भ हो गया था और गले में खौफ के बड़े-बड़े कांटे से उभरने लगे थे।

अब मुख्य द्वार के करीब कोई भी गार्ड नजर नहीं आ रहा था।

नाग की तरह फुंफकारते हुए देवराज चौहान, मंगल पांडे और नीना पाटेकर से बोला---

"तुम लोग जाओ।"

"क्या?" मंगल पांडे अचकचा कर कह उठा।

"मैंने कहा है, तुम लोग जाओ---।" देवराज चौहान गुर्रा उठा--- "हम भी यहां से रवाना हो रहे हैं। तुम लोग यहां रह गये तो यह पुलिस वाले या बैंक के भीतर मौजूद गार्ड तुम लोगों को भूनने में देर नहीं लगायेंगे। भाग लो यहां से।"

"तुम....तुम सब निकल जाओगे न यहां से?" नीना पाटेकर के होंठों से निकला।

"जो तुम लोगों को कहा है....वही करो।" देवराज चौहान ने दांत किटकिटाये--- “और यहां से वहीं पहुंचो....जहां से सुबह हम निकले थे। जल्दी करो। जाते-जाते इन पुलिस वालों के हाथों से हथियार लेकर उनसे दूर फेंक देना। ये चारों पुलिस वाले हमें बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं।"

खोपड़ी से रिवॉल्वर सटी होने के कारण मेवाराम की घिग्गी बंधी हुई थी। मैनेजर, तनेजा, असिस्टेन्ट मैनेजर सकते की सी हालत में खड़े थे।

नीना पाटेकर और मंगल पांडे अपनी जगह से हिले। तेज कदमों से चलते हुए वह पुलिस वालों के पास पहुंचे और उनके हाथों से हथियार लेकर दूर फेंकने के पश्चात तेज रफ्तार के साथ भागते हुए बैंक के अहाते से बाहर निकलते चले गये।

मौत से भरा सन्नाटा वहां पर व्याप्त था।

देवराज चौहान ने आगे बढ़कर मेवाराम को कवर कर लिया। उसकी एक आंख बैंक के मुख्य द्वार पर थी। वह हर तरह के खतरे से निपटने के लिए पूरी तरह से सतर्क था।

"जगमोहन, तुम भी निकल जाओ।" देवराज चौहान धीमे से गुर्राया।

"मैं!"

"हां-- फौरन यहां से खिसक जाओ।"

"लेकिन तुम...तुम...।"

"मेरी फिक्र मत करो। अब यह मेवाराम हमारे साथ जायेगा। रास्ते में कोई हमारा कुछ नहीं...।"

"मैं साथ चलता हूं।"

"नहीं... तुम इस जगह से तुरन्त दूर हो जाओ।" देवराज चौहान की सतर्क निगाहें चारों तरफ घूम रही थीं। वो धीमे स्वर में कह रहा था--- "मेरे साथ डालचन्द है। तुम यहां से सीधे नटियाल के पास फार्म पर पहुंचो। हम भी वहीं आ रहे हैं। फौरन वहां जाकर अपनी ड्यूटी सम्भालो। अकेले नटियाल पर पूरी तरह भरोसा करना ठीक नहीं। जाओ।"

जगमोहन ने फिर रुकना मुनासिब नहीं समझा और भागते हुए बाहर निकलता चला गया।

अब वहां देवराज चौहान अकेला रह गया था, डालचन्द वैन की ड्राइविंग सीट पर मौजूद, वैन को स्टार्ट रखे हुए था और दौड़ने के लिए तैयार था।

"मेवाराम!" देवराज चौहान वहशी स्वर में कह उठा--- "मेरी रिवॉल्वर तेरी कमर के साथ लगी है। मेरे पास ज्यादा समय नहीं। है। जो मैं कह रहा हूँ....फौरन वही कर। तेरे साथ आए गार्ड बैंक के मुख्य द्वार से भीतरी तरफ घात लगाये खड़े हैं। मुझे अपनी चिंता नहीं है। मैं तेरी ओट में हूं। वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते....लेकिन मुझे वैन की चिन्ता है। वह वैन के पहिये को फायर करके उड़ा सकते हैं। दोबारा नहीं कहूंगा। इसलिये जो मैं कह रहा हूँ, वह एक बार में कह डाल। उन्हें आवाज दे....बाहर आने को कह। जल्दी-से-जल्दी ।"

मेवाराम ने गले में फंसी थूक निगली और गला फाड़कर बोला।

"ऐ! तुम लोग हाथ उठाकर बाहर आ जाओ। यह मेरा आदेश है।" आवाज में भय व्याप्त था।

बाकी बचे तीनों गार्डों में से कोई भी बाहर नहीं निकला।

“सुना नहीं तुम लोगों ने...बाहर आ जाओ।" चीखा मेवाराम--- "वरना नौकरी से निकाल दूंगा।"

सबकी निगाहें बैंक के मुख्य द्वार पर ही जा टिकी थीं।

अगले ही पल तीनों खतरनाक से नजर आने वाले गार्ड हाथ उठाये बैंक के मुख्य द्वार से बाहर निकले। अपने हथियार उन्होंने भीतर ही छोड़ दिये थे। मुख्य द्वार से वह तीनों एक-एक कदम ही बाहर निकले होंगे कि देवराज चौहान का हाथ बिजली की-सी तेजी के साथ हिला।

रिवॉल्वर की नाल मेवाराम की पीठ से अलग होकर गाडी की तरफ हुई। फिर एक साथ तीन बार ट्रैगर दबा, तत्पश्चात् रिवॉल्वर की गरम नाल पुनः मेवाराम की पीठ से जा सटी।

तीनों गोलियां-- तीनों गार्डों के सीने में जा लगी थीं।

हर कोई अपनी जगह स्तब्ध-सा खड़ा था।

पुलिस वाले तो बुत बने रह गये थे।

“मेवाराम....। अगर तुम्हें मरना नहीं है तो मेरे साथ चलो।"

"क....कहां?" मेवाराम भय से चीखा।

"उल्लू के पट्ठे यह बाद में पूछना कहां? चल।" देवराज चौहान मौत के-से स्वर में गुर्राया और उसे धकेलता हुआ वैन की बगल से गुजर कर वैन के अगले हिस्से की तरफ बढ़ा।

मेवाराम देवराज चौहान की बात मानना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि यह खतरनाक इन्सान अपनी बात मनवाकर ही रहेगा। इसकी बात न मानने का मतलब था गोली खाना। जो कि वह नहीं चाहता था, परन्तु मेवाराम की टांगें उसका साथ नहीं दे रही थीं। खौफ के कारण टांगों में ऐसी थरथराहट व्याप्त थी कि उसके लिए एक कदम भी उठाना कठिन हो रहा था। देवराज चौहान रिवॉल्वर के साये में मेवाराम को धकेलता हुआ वैन के दरवाजे तक लेकर पहुंचा। दरवाजा पहले ही खुला था। देवराज चौहान ने मेवाराम के ऊपर चढ़ने का इन्तजार नहीं किया, उसने मेवाराम की बगलों से पकड़कर वैन की सीट पर फेंक दिया। मेवाराम के होंठों से चीख निकली। वह नीचे गिरने को हुआ कि ड्राइविंग सीट पर बैठे डालचन्द ने फौरन उसके सिर के बाल पकड़कर उसे सम्भाला।

देवराज चौहान ने गरदन घुमाई और दूर खड़े मैनेजर को देखा।

“मैनेजर....पुलिस को इन्फार्म करते समय यह बताना मत भूलना कि मेवाराम मेरे साथ है, अगर तुम बताना भूल गये तो समझो मेवाराम की मौत हो गई।" देवराज चौहान वहीं से चीख कर ऊंचे स्वर में बोला और एक छलांग में वैन में बैठता चला गया।

उसी पल ही डालचन्द ने वैन को दौड़ा दिया। सबके देखते-ही-देखते चार करोड़ की डकैती की दौलत के साथ वैन उनकी आंखों के सामने से ओझल होती चली गई।

"इसकी क्या जरूरत थी?" डालचन्द ने लम्बी-लम्बी सांसें भरते हुए कहा।

"यह मेवाराम है। सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी का पार्टनर। रास्ते में अगर कहीं पर हमें पुलिस घेरेगी तो इसके दम पर हम अपना बचाव करेंगे।" देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाने के पश्चात कश लत हुए कहा--- "वैन को उड़ाकर ले चलो डालचन्द। हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है। अब तक पुलिस को खबर की जा रही होगी हमारे बारे में। जाहिर है, रास्ते में कहीं-न-कहीं तो पुलिस हमें पकड़ने के लिए घेरा डालेगी ही। हमारा रास्ता भी काफी लम्बा है। रास्ते में कई नाजुक जगहों से गुजरना है।"

डालचन्द के होंठ सख्ती से भिंचते चले गए।

“सब ठीक है न?" "उस्मान अली गया।"

■■■

खूबचन्द चौंका ही नहीं, उछल भी पड़ा, जब उसे इस बात का आभास हुआ कि वह लोग बैंक में डकैती डालने गये हैं। वह ठीक प्रकार से सोच नहीं पाया कि माजरा क्या है? कल इसी बैंक से इन्होंने साढ़े पांच करोड़ नोटों से भरी वैन उड़ाई थी और अब इस बैंक में ही यह लोग डकैती डाल रहे हैं।

परन्तु इतना तो वह समझ गया था कि मोटी ही रकम होगी। तभी यह लोग बैंक में डाका डाल रहे हैं। उसने अपनी आंखों से नीना पाटेकर, मंगल पांडे और जगमोहन को बैंक से भागते देखा। डालचन्द को सफेद वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठे देखा। वह उस्मान अली के बारे में सोचने लगा कि वह कहां है?

फिर देखते-ही-देखते वैन उसकी निगाहों से ओझल हो गई। खूबचन्द के पास कोई नहीं था जिससे कि वह वैन का पीछा कर पाता। टैक्सी पर इस तरह का पीछा करना भी बेमानी था।

बहरहाल, उसे वैन की चिंता नहीं थी। वह जानता था कि वैन फार्म पर ही जायेगी। इसके बाद खूबचन्द टहलता हुआ बैंक की तरफ बढ़ गया। जहां हंगामा-सा मचा था। वहीं पर उसने उस्मान अली और तीन गार्डों की लाशें देखीं।

पुलिस को इन्फार्म कर दिया गया था। वायरलैस सैट पर वायरलैस सैट खड़कने लगे। सारे शहर में जैसे भूकम्प मच गया।

अगले बीस मिनटों में ही बैंक के जर्रे-जर्रे पर पुलिस ही पुलिस बिखरी पड़ी थी। जब खूबचन्द को मालूम हुआ कि डकैती चार करोड़ रुपये की हुई, तो सन्न रह गया। फिर हिसाब लगाने लगा कि साढ़े पांच कल....चार आज यानी कि साढ़े नौ करोड़ कैश रुपया लूट चुके हैं। साढ़े नौ करोड़ के नाम पर ही खूबचन्द को खुरक होने लगी थी कि इतनी भारी और बड़ी रकम ?

■■■

अगले दस मिनट में ही वायरलैस सैटों द्वारा पुलिस कन्ट्रोल रूम में दी गई सूचना शहर की हर पुलिस पेट्रोल कार तक पहुंच गई कि बैंक डकैती के मुजरिम डकैती की दौलत के साथ सफेद रंग की नई वैन पर फरार हुए हैं। और वैन के दोनों तरफ सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी लिखा हुआ है। इसके साथ ही पुलिस वालों को सावधानी बरतने के लिए कहा गया कि डकैत अपने साथ मेवाराम नाम के व्यक्ति का अपहरण करके ले गये हैं। डकैतों को पकड़ने की कोशिश में मेवाराम को कोई नुकसान न पहुंचे, ऐसी कोई स्थिति आ जाए तो सिर्फ डकैतों की सफेद वैन का पीछा किया जाये। उन्हें छेड़ा न जाए।

सारे शहर की सड़कों पर पुलिस की गाड़ियों का जाल बिछता चला गया।

■■■

डालचन्द तूफानी गति से वैन को सड़कों पर दौड़ाये जा रहा था। वैन की रफ्तार देखकर वाहनों वाले खुद ही साइड हो जाते थे। अब तक डालचन्द एक कार को टक्कर मार चुका था। वह कार उलट कर सड़क के किनारे खड़े पेड़ से जा टकराई थी।

मेवाराम आतंक से जड़ था। उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे फंसी हुई थी। वैन की रफ्तार देखकर उसे पूरा-पूरा विश्वास हो गया था कि वह जल्द ही उलट जायेगी। खौफ के कारण वह हिल भी नहीं रहा था। एक तरफ देवराज चौहान बैठा था तो दूसरी तरफ डालचन्द ।

"देवराज चौहान!" डालचन्द के होंठ सख्ती से भिंचे हुए थे।

देवराज चौहान ने प्रश्न भरी निगाहों से डालचन्द को देखा।

"वैन को फार्म पर मत ले जाओ।"

"क्यों?" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती थी।

"तुझे बताया तो था कि कल शाम वहां मुझे इंस्पेक्टर वानखेड़े मिला था। वह बैंक वैन को तलाश कर रहा था---उसे पूरा विश्वास था कि बैंक बैन इन्हीं फार्मों में से किसी फार्म पर है।

"तो?"

"वह आज भी वहीं हो सकता है। बैंक वैन को तलाश करता हुआ वहीं हो सकता है।"

"कोई जरूरी तो नहीं।"

“जरूरी नहीं है?" डालचन्द के होठों से गुर्राहट निकली। उसकी निगाहें सड़क और ट्रेफिक पर थीं--- "लेकिन....अगर ऐसा हो गया तो क्या होगा? बैंक वैन भी हाथ से जायेगी और उसमें मौजूद साढ़े पांच करोड़ भी। साथ ही यह वैन भी हाथ से गई और उसमें पड़ा चार करोड़ भी। इतना सब कुछ करने के बाद भी हाथ कुछ नहीं लगेगा।"

देवराज चौहान के होंठ सख्ती से भिंच गये।

तभी मेवाराम सूखे कांपते स्वर से कह उठा---

“भगवान के लिए मुझ पर रहम खाओ। मुझे छोड़ दो.... यहीं उतार दो मुझे। मैं.... ।”

देवराज चौहान का हाथ घूमा और मेवाराम के बूढ़े चेहरे पर जा पड़ा। मेवाराम के होठों से चीख निकली। वह पायदान पर लुढ़कने को हुआ कि देवराज चौहान ने उसके सिर के बाल मुट्ठी में जकड़ लिये। मेवाराम का गाल फट गया था। होठों से खून बहने लगा था।

"अब तू बोला तो---।" देवराज चौहान मौत के से स्वर में गुर्राया--- “तेरे को गोलियों से भूनकर तेरी लाश को चलती वैन से बाहर फेंक दूंगा।"

मेवाराम सिर से पांव तक सिहर उठा। जिस प्रकार देवराज चौहान ने तीनों गार्डों को शूट किया था, उससे ही वह समझ चुका था कि यह बहुत खतरनाक इन्सान है, इससे रहम की आशा रखना बेकार है। मेवाराम दांत-पर-दांत जमाकर खामोश हो गया।

देवराज चौहान ने उसके सिर के बाल छोड़ दिए।

“अब यह मुमकिन नहीं....।" देवराज चौहान ने दांत किटकिटाकर कहा ।

“क्या?"

"यही कि वैन को कहीं और ले जाना। या तो पहले ही हमें किसी जगह का इन्तजाम....।"

"जगह हमारे पास है।" डालचन्द गुर्राया--- "तुम्हारा ठिकाना है, वह जगह। यहां से सिर्फ दो मिनट का ही रास्ता है....हम वहां पर इस चार करोड़ को ले जा सकते हैं। अभी पुलिस हरकत में नहीं आई है। अगले दस मिनट तक पुलिस हरकत में आ जाएगी। उससे पहले ही हम वहां पर चार करोड़ को ठिकाने लगा देंगे। इस तरह पुलिस से भी बच जायेंगे और वानखेड़े से भी। वरना वानखेड़े हमें पूरी तरह से बरबाद कर सकता है, अगर वह फार्म एरिए में हुआ तो---।"

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ गई।

"दो जगह दौलत पड़ी होगी। फार्म पर साढ़े पांच करोड़ । तुम्हारे ठिकाने पर चार करोड़। अगर कहीं बुरा वक्त आ गया तो कम-से-कम एक जगह का माल तो सुरक्षित रहेगा।"

"तुम ठीक कह रहे हो।" देवराज चौहान ने तुरन्त ही फैसला किया।

"ले चलूं वैन को तुम्हारे घर पर....?" डालचन्द की आंखों में चमक उभरी।

"हां....।" देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी भरी पड़ी थी।

"तुम्हारा क्या ख्याल है, पुलिस कब तक हरकत में आयेगी?" डालचन्द बोला।

"पांच-सात मिनट तक। अब हैडक्वार्टर से हमारे बारे में वैन के बारे में सूचना जारी की जा रही होगी। हमें बैंक से निकले छः-सात मिनट हो चुके हैं। घर पर हम....कब तक पहुंचेंगे?"

"ज्यादा-से-ज्यादा अगले तीन मिनट तक।" डालचन्द के दांत भिंचते चले गये।

"गुड!" देवराज चौहान कहर भरे स्वर में कह उठा--- “तब तक पुलिस से हमारा टकराव नहीं होगा.....जो कि अच्छी बात है।"

"बेशक स्पीड कुछ धीमी कर लो।"

परन्तु डालचन्द ने वैन की गति कम नहीं की। वैन जैसे हवा में उड़ रही थी।

■■■

इंस्पेक्टर वानखेड़े अपने असिस्टेन्ट सुधीर के साथ फार्म एरिए में नौ बजे ही पहुंच गया था। दोनों पूरी तरह चाक-चौबन्द थे और काफी देर से घूम रहे थे।

“सर!" सुधीर बोला--- "हमें यह आइडिया लगाना चाहिए कि बैंक वैन किस फार्म पर हो सकती है।”

"यह आइडिया नहीं लग सकता।" वानखेड़े सिगरेट सुलगाकर चारों तरफ निगाहें दौड़ाता हुआ बोला--- "पचासों फार्म हैं। क्या मालूम किस फार्म पर बैंक वैन मौजूद हो।"

“सर! इतने फार्मों की खाक छानना बेहद कठिन काम है।"

“मैं भी सोच रहा हूं कि बैंक वैन के बारे में....कैसे मालूम करें कि वह कौन से फार्म पर है। तुम कोई आइडिया सोचो सुधीर ।"

“अब मैं क्या बताऊं सर?"

इंस्पेक्टर वानखेड़े खामोशी से सड़क के किनारे खड़ा कश लेता हुआ फार्मों पर निगाह जमाये रहा। सामने ही एक कच्चा रास्ता फार्म की तरफ जाता हुआ दिखाई दे रहा था।

“सुधीर!"

"यस सर ।”

“एक आइडिया है।"

“क्या सर?"

“कल शाम को मुझे यहीं कार रेसर डालचन्द मिला था। फार्म पर जाने और आने का यही एक कच्चा रास्ता है।” इंस्पेक्टर वानखेड़े विचार भरे स्वर में कहे जा रहा था--- "अब तक वैन में बन्द गार्डों द्वारा हमें देवराज चौहान, जगमोहन, डालचन्द, मंगल पाण्डे, नीना पाटेकर और नटियाल के नामों का पता चला है। इनमें से नटियाल और मंगल पांडे को छोड़कर हम बाकी सबको जानते हैं। सबके चेहरे भी जानते हैं। समझे न मेरी बात ?"

“समझ गया सर। परन्तु आप कहना क्या चाहते हैं?" सुधीर ने वानखेड़े को देखा।

“यह लोग फार्म पर हैं तो बाहर आयेंगे। बाहर हैं तो फार्म पर आयेंगे।"

“समझ गया सर।" एकाएक सुधीर की आंखों में तीव्र चमक विद्यमान हो गई।

“यानी कि हम किसी सुरक्षित जगह पर खड़े होकर इन्तजार करें तो बेहतर नतीजा निकल सकता है। देर-सवेर में वे लोग यहीं से आते-जाते नजर आयेंगे। इस तरह हम यह जान सकते हैं कि यह किस फार्म पर जाते हैं....। यानी कि बैंक वैन को किस फार्म पर छुपाया गया है, हमें मालूम हो सकता है। बिना भाग-दौड़ के मालूम हो सकता है।"

"राइट सर....वेरी गुड आइडिया। लेकिन एक बात मुझे खटक रही है।"

"वह क्या।"

"कल आपने डालचन्द को वहां से शहर तक लिफ्ट दी थी। उससे बैंक वैन के बारे में पूछा था। तो क्या वह बात डालचन्द ने अपने साथियों को नहीं बताई होगी?"

“अवश्य बताई होगी। परन्तु इस मामले में सावधानी बरतने के अलावा वे और कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि फार्मों पर जाने के लिए एकमात्र यही कच्चा रास्ता है।" वानखेड़े ने कहा।

“बात तो आपकी ठीक है सर।"

“एक बात और भी है---।"

वानखेड़े की बात अधूरी रह गई। क्योंकि उसका मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर फ्लैश होता नम्बर देखकर वह समझ गया कि कमिश्नर साहब उससे बात करना चाहते हैं।

दूसरे ही पल बात हो गई ।

“वानखेड़े! तुम इस समय कहां हो?” कमिश्नर साहब का स्वर उभरा।

"मैं इस समय काम पर हूं सर।"

“तुम्हारे लिए एक बहुत जबरदस्त सूचना है वानखेड़े।"

“क्या सर?"

"देवराज चौहान ने कुछ देर पहले ही बैंक में डकैती की है।"

“व्हाट सर!"

“चौंको मत। वास्तव में हैरत की बात है ही। कल साढ़े पांच करोड़ की बैंक वैन रॉबरी की और आज चार करोड़ की बैंक डकैती कर डाली। जानते हो किस बैंक में डकैती की है उसने?"

“किस बैंक में?"

“उसी बैंक में......जिसके अहाते से कल उसने नोटों से भरी वैन उड़ाई थी।”

हैरानी के कारण वानखेड़े के होठों से एक शब्द भी न निकला।

“यह क.... कब की बात है सर?"

"आधे घण्टे पहले की बात है। जिस वैन पर वे डकैती के बाद फरार हुए है--- उसके दोनों तरफ सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी लिखा हुआ है। अपने साथ वह शहर के करोड़पति मेवाराम को भी ले भागे हैं।"

"आल राइट सर। इस समय मैं आपसे बात करना बन्द कर रहा हूं। फिर बात करूंगा।"

"ओ०के० ! ओवर एण्ड आल ।"

सम्बन्ध-विच्छेद होते ही इंस्पेक्टर वानखेड़े ने सुधीर को देखा।

"सुधीर, हो सकता है डकैती करके वह लोग फार्म की तरफ ही आयें। आओ, किसी जगह हमें छिप कर यहां निगाह रखनी चाहिए।"

सुधीर सिर हिलाकर रह गया।

आधे घण्टे के लम्बे इन्तजार के बाद उन्होंने सड़क पर एक टैक्सी रुकती दिखी। टैक्सी से जगमोहन उतरा और बिल चुकता करके तेजी के साथ कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ गया। टैक्सी वापस शहर की ओर रवाना हो गई।

“यह जगमोहन है।” वानखेड़े फुसफुसाया। उसकी आंखों में चमक लहरा उठी।

"देवराज का खास दोस्त और साथी ?"

“हां।”

“सर, हमें इसका पीछा करना चाहिए।”

“नहीं सुधीर । इन लोगों को अभी जाने कितनी बार इस रास्ते से गुजरना है। फिर हो सकता है, वह सफेद वैन भी यहां पहुंचने वाली हो, जिसमें चार करोड़ डालकर थोड़ी देर पहले ही यह लोग भागे हैं।"

सुधीर सिर हिलाकर रह गया।

■■■

नीना पाटेकर और मंगल पांडे वैन के साथ-साथ ही लगभग देवराज चौहान के ठिकाने पर पहुंचे। डालचंद वैन में ही बैठा रहा। देवराज चौहान वैन से नीचे उतर कर उनके करीब पहुंचा।

“वैन में मौजूद ट्रंकों को मकान के भीतर रखो।”

“तुम लोग तो किसी और जगह----।"

“शटअप! जो कहा है, जल्दी करो ।”

दस मिनट में ही सारे ट्रंक उतार कर मकान के भीतर रख दिये गये। मेवाराम को भी मकान के भीतर पहुंचा दिया गया। देवराज चौहान, डालचन्द के पास पहुंचा।

दोनों की आंखें मिलीं।

“जाता हूं।"

“तो सावधान रहना ।"

डालचन्द ने गर्दन हिला दी।

"वैन को दूर ले जाकर छोड़ देना--- फिर बेशक यहां या फार्म पर आ जाना।”

“अगर मुझे कुछ हो जाए तो मेरी मां और बहन का ध्यान रखना।"

“चिन्ता मत करो।" देवराज चौहान ने उसकी बांह थपथपाई।

"हो सके तो उस स्थिति में मेरा हिस्सा मेरी मां और बहन को दे देना।" कहने के साथ डालचन्द ने वैन को आगे बढ़ा दिया।

देवराज चौहान वापस मकान में पहुंचा।

नीना पाटेकर और मंगल पांडे प्रश्न भरी निगाहों से देखने लगे।

“यहां आने का प्रोग्राम कैसे बन गया?" नीना पाटेकर ने पूछा।

देवराज ने सारी बात बताकर कहा---

“हो सकता है फार्म एरिए में वानखेड़े मौजूद हो--- ऐसी हालत में दौलत के साथ-साथ हम भी खतरे में पड़ जाते।"

“अब क्या करना है?” मंगल पांडे बोला।

“तुम दोनों यहीं रहो और इस दौलत की निगरानी करो। मैं फार्म पर जाकर वैन में मौजूद गार्डों से वैन का दरवाजा खुलवाने की कोशिश करता हूं।"

"कम-से-कम अब बता दो कि वैन को किस फार्म पर कहां छिपा रखा है।"

“तुम्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए।"

“डालचन्द कहां गया?" नीना पाटेकर ने पूछा।

"वैन को ठिकाने लगाने।"

"उस्मान अली के साथ वास्तव में बुरा हुआ। उसके हिस्से का क्या होगा?" मंगल पांडे बोला।

"सब में बंट जायेगा।"

फिर नीना पाटेकर खाने का सामान लेने चली गई। और देवराज भी बाहर निकल गया।

■■■

राजाराम की निगाह अखबार पर टिकी हुई थी। वह कल हुई बैंक की वैन रॉबरी की खबर बहुत ध्यान से पढ़ रहा था। भीमराव खामोशी से हाथ बांधे पास ही खड़ा था। पूरी खबर पढ़ने के बाद अखबार एक तरफ उछालता हुआ राजाराम भीमराव से बोला---

"खबर यह है कि यह काम देवराज चौहान ने किया है, पट्ठा साढ़े पांच करोड़ ले उड़ा!" है।"

"राजाराम साहब! देवराज चौहान हमेशा मोटे हाथ ही मारता है।"

“हां... हर महीने अखबारों में उसका नाम आता है कि देवराज चौहान फलां जगह डकैती डालकर मोटा माल ले उड़ा....हरामी कभी पकड़ा भी नहीं जाता।"

"इस मामले में उसकी किस्मत तेज है।" भीमराव ने कहा।

“भीमराव, अखबार में एक खास बात और भी है।"

"कौन-सी बात?”

“खबर में इस बात पर जोर दिया गया है कि जो इन्सान रॉबरी के पश्चात उस वैन को दौड़ा रहा था, वह बहुत ही दक्ष ड्राइवर था।"

भीमराव प्रश्न भरी निगाहों से राजाराम को देखता रहा।

"नहीं समझे? अरे भई, अपना वो डालचन्द है न, कार रेसर। वह भी इस तरह का ड्राइवर है। हो सकता है वही उस वैन को भगा रहा हो।"

भीमराव के चेहरे पर असहमति के भाव पैदा हो गये।

“शायद तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं आ रहा है भीमराव।”

“बात विश्वास आने के लायक नहीं है। डालचन्द ऐसी दिलेरी का काम नहीं कर सकता।"

"मैं तुम्हें समझाता हूं। आज सुबह डालचन्द हमें धोखा देकर पिछले दरवाजे से खिसक गया। तभी मैं समझ गया था कि वह किसी भारी लफड़े में हाथ डाल बैठा है। उसने मेरी भी परवाह नहीं की। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि डालचन्द को अपने साथ मिलाकर देवराज चौहान ने बैंक वैन रॉबरी की हो और आज डालचन्द इसलिए जल्दी में था....क्योंकि उसे कल माल में से हिस्सा लेने जाना था?"

भीमराव फिर भी सहमत नहीं हुआ।

राजाराम हंसा ।

"मेरी बात का विश्वास तू तब करेगा....जब खुद डालचन्द आकर तुझे कहेगा कि यह काम मैंने किया है....। उसकी मां-बहन का क्या हाल है?"

"ठीक है। अड्डे पर कैद रखा हुआ है।"

"ध्यान रखना उसका। मुझे लगता है कि डालचन्द से हमें मोटी रकम मिलने वाली है। अब जरा आंखें खुलीं रखकर कल हुई वैन रॉबरी पर नजर रख। कोई भी खबर हमारे काम की हो सकती है।"

भीमराव ने सिर हिलाया और कमरे से बाहर होता चला गया।

राजाराम ने पुनः अखबार उठाकर, बैंक वैन रॉबरी की खबर पढ़नी शुरू कर दी।

■■■

ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था, जगमोहन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी ।

नटियाल फूंस के कमरे के करीब कुर्सी रखे, हाथ में रिवॉल्वर लिए सावधानी से बैठा था। रह-रहकर वह चंद कदमों पर बेचैनी से टहलते हुए जगमोहन को भी देख लेता था।

“यहां आओ!” नटियाल ने आवाज देकर जगमोहन को बुलाया।

जगमोहन पास आया और कुर्सी पर बैठ गया।

"वैन को लेकर परेशान हो कि वह लोग अभी तक क्यों नहीं आये?”

“बात ही परेशानी वाली है।" जगमोहन खीझ भरे स्वर में बोला।

"हो सकता है कि पुलिस ने इस बार उन्हें पकड़ लिया हो।" आज वाली वैन आर्डिनरी थी। इस वैन की तरह आर्म्ड प्रूफ नहीं होती।"

जगमोहन ने होंठ भींच लिए। उसका चेहरा धधक उठा।

“जगमोहन!” नटियाल ने गम्भीर स्वर में कहा--- "देवराज चौहान की तो दूसरी बात है....लेकिन डालचन्द कच्चा खिलाड़ी है। पुलिस की सख्ती के कारण अपना मुंह खोल देगा।"

"क्या मतलब?"

"मतलब यह कि डालचन्द इस जगह के बारे में पुलिस को बता सकता है!"

जगमोहन के होंठ भिंच गए। नटियाल ठीक कह रहा था। अगर वह पुलिस की गिरफ्त में पहुंच गये हैं तो फिर पुलिस के सामने डालचन्द ज्यादा नहीं टिक पायेगा-- और वह अपना मुंह खोल देगा। और तब पुलिस कभी भी आ सकती है यहां।

"हमें किसी तरह से वैन का दरवाजा खुलवाना चाहिए।" नटियाल ने कहा।

"वह हरामजादे वैन का दरवाजा नहीं खोलेंगे।" जगमोहन गुर्राया ।

"कोशिश करने में क्या हर्ज है? मैं बात करके देखता हूं।" नटियाल की बात पूरी होने से पहले ही जगमोहन वैन के करीब पहुंचा, जोर से वैन की बॉडी को थपथपाया।

"क्या है?" वैन के भीतर से आवाज आई।

नटियाल भी वैन के करीब आ पहुंचा।

“क्या हाल है तुम दोनों का?" जगमोहन ने सामान्य स्वर में पूछा।

"तुम लोगों से तो बेहतर ही है।" भीतर से कड़वे स्वर में कहा गया।

"किसी चीज की आवश्यकता तो नहीं?”

"नहीं।"

"सुनो।" जगमोहन संजीदा स्वर में बोला--- "हम पर विश्वास करके दरवाजा खोल दो। हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे-- बल्कि तुम लोगों को भी बराबर का हिस्सा दिया जायेगा।”

"लूट की दौलत की हमें जरूरत नहीं।".

"वैन के नीचे आग लगा दो जगमोहन-- तब यह हरामजादे अपने आप बाहर निकल आयेंगे।" नटियाल ने खतरनाक अंदाज में कहा।

"तब तो नोट भी जल जायेंगे...जिसे हासिल करने के लिए तुम लोग मरे जा रहे हो।"

"यह बहुत ढीठ है।" जगमोहन ने नटियाल से कहा।

"वैन के तले बने छिद्रों से इनको सांस लेने की हवा मिल रही है।" नटियाल ने खतरनाक लहजे में कहा---"यदि हम उन छिद्रों को बन्द कर दें तो दम घुटने पर खुद ही तड़प कर बाहर आयेंगे।"

"तुम्हारी कोई तरकीब सफल न हो सकेगी। हमारे पास गनें हैं। हम वैन के तले को शूट करके और भी छिद्र बना लेंगे।"

“एक नम्बर के हरामजादे हैं साले!" जगमोहन ने दांत किटकिटाये।

भीतर से हंसी की आवाज आई।

"यह बात अपने दिमाग से निकाल दो कि तुम लोग सुरक्षित हो।" जगमोहन बोला--- "हम जल्द ही तुम्हें वैन से बाहर निकाल कर दिखायेंगे।"

"करो, कोशिश करते रहो।"

जगमोहन और नटियाल वापस कुर्सी पर आकर बैठ गये।

■■■

बारह बज रहे थे। इंस्पेक्टर वानखेड़े की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी।

तभी सुधीर बोला---

"सर, वह लोग अभी तक आये नहीं। जबकि अब तक उन्हें आ जाना चाहिए था।"

“मेरे ख्याल से अब वह लोग आयेंगे भी नहीं।" वानखेड़े ने उसे देखा।

“क्यों सर?”

"दो कारण हैं। या तो उन्होंने कोई और ठिकाना ढूंढ रखा है या फिर पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया है।"

“अब क्या करें सर?"

"कमिश्नर साहब से बात करनी पड़ेगी। शायद उन्हें कोई खबर हो।"

चन्द पलों बाद ही वानखेड़े मोबाइल पर कमिश्नर साहब से बात कर रहा था।

“सर, उन लोगों के बारे में कोई खबर?"

“हैरत की बात है वानखेड़े। बात कुछ भी समझ में नहीं आ रही है।"

“क्या हुआ सर?”

"जिस वैन से वह लोग लूट का माल लेकर भागे थे, वह अचानक ही गायब हो गई। उसके बाद जब नजर आई तो वह खाली थी। उसे चलाने वाले को पुलिस ने पकड़ा-- परन्तु एक पुलिस वाले को शूट करके भाग निकला। पुलिस अभी तक उसके पीछे है। आशा है शायद वह पकड़ा जाये।"

"ओह!"

"इस समय तुम कहां हो?"

"सर, इस समय हम उस जगह से थोड़ी ही दूर है....जहां इन लोगों ने कल की गई रॉबरी की बैंक वैन को छिपा रखा है?"

"तुम जानते हो उस स्थान को?"

"यस सर। घण्टा भर पहले ही देवराज चौहान का एक खास साथी हमारे सामने से गुजर कर गया है।"

“तो फिर इन्तजार किस बात का? तुरन्त कार्यवाही करो।"

“अभी नहीं सर ।"

“क्या मतलब?”

“सर, वहां पर देवराज चौहान नहीं है। और मैं उसे ही सबसे पहले पकड़ना चाहता हूं।”

"ठीक है..... जैसा चाहो करो।" कमिश्नर साहब ने कहा--- "पर यह भी ध्यान रखना कि तुम्हारा इन्तजार उन्हें भागने का मौका न दे दे।"

"आप बेफिक्र रहें सर ।"

"ओ०के० ।”

वानखेड़े ने मोबाइल ऑफ किया और फिर सुधीर से बोला---

“तुम इसी जगह पर डटे रहो। मैं शहर जा रहा हूं।"

"क्यों सर?"

“मेरे ख्याल से मैं उस जगह को ढूंढ लूंगा, जहां उन लोगों ने डकैती का माल उतारा होगा।"

"ठीक है सर।"

“मैं शाम तक लौटूंगा। तुम आने-जाने वालों पर ही निगाह रखना। अगर खास बात हो तो ट्रांसमीटर पर तुम मुझसे बात कर सकते हो।"

“आल राइट सर।"

वानखेड़े वहां से निकला और कुछ दूर छिपाकर रखी अपनी कार में पहुंचा। कार स्टार्ट करके वह सड़क पर लाया--- और शहर की ओर दौड़ा लिया।

■■■

सायरन की आवाज सुनते ही डालचन्द चौंका। उसने बैक मिरर में देखा। पुलिस जीप नजर आते ही हड़बड़ा उठा। चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आईं। एक्सीलेटर पर उसके पैरों का दबाव खुद-ब-खुद बढ़ता चला गया।

वैन की गति बेइन्तहा तेज हो गई।

तभी अगले चौराहे पर लाल बत्ती हुई। काफी ट्रैफिक खड़ा था। वैन निकाल ले जाने की गुन्जाइश न थी। क्षण भर के लिए उसकी आंखों के सामने पुलिस स्टेशन का दृश्य घूमने लगा। परन्तु उसने खुद को सम्भाला। चाहे जो भी हो, उसे पुलिस के हाथ नहीं पड़ना है।

ट्रैफिक के पीछे पहुंचकर उसने एकाएक वैन के ब्रेक मारे। ब्रेक इतने जबर्दस्त लगे कि रुकते-रुकते वैन के पहिए घूमते चले गये। वह उलटते-उलटते बची। जब रुकी तो तिरछी होकर रुकी थी। उस पल दरवाजा खोल कर डालचन्द वैन से कूदा और घबराया-सा तेजी से एक तरफ दौड़ पड़ा। मस्तिष्क में सिर्फ एक बात ही थी कि उसे पुलिस के हाथ नहीं पड़ना है।

उसे अपने पीछे दौड़ते पुलिस के कदमों की आवाज आई। दौड़ते-दौड़ते उसने गर्दन पीछे घुमाई तो कांपकर रह गया। कठिनता से बीस कदम के फासले पर वह पुलिस वाले उसके पीछे दौड़ रहे थे। पांच के हाथ में डंडे थे, एक ने रिवॉल्वर थाम रखी थी।

डालचन्द समझ गया कि अब उसका बचना सम्भव नहीं रहा।

पीछे भागते छः पुलिस वालों का आखिर कब तक मुकाबला करता रहेगा! दो-चार मिनट में कोई तो उस तक पहुंचेगा। किसी का हाथ तो उसका गिरेबान थामेगा ही। डालचन्द का खून सूखने लगा। अब उसे महसूस होने लगा कि उसने डकैती जैसे काम में हाथ डालकर बहुत बड़ी गलती कर दी है। यह काम उसकी औकात से बाहर का काम था। उसे इन कामों से दूर ही रहना चाहिए था। देवराज चौहान जैसे लोग ही इस काम को कर सकते हैं और करके पुलिस से बच सकते हैं।

तभी डालचन्द के मस्तिष्क में धमाका हुआ। उसे जेब में रिवॉल्वर के पड़े होने का आभास मिला। पलक झपकते ही उसने जेब से रिवॉल्वर निकाली। इस दृढ इरादे के साथ ही वह किसी भी पुलिस वाले के हाथ नहीं पड़ेगा। भागते-भागते ही उसने हाथ पीछे करके रिवॉल्वर से फायर कर दिया। तेज धमाका हुआ। उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि गोली किसे कहां लगी। अलबत्ता चीख से उसे मालूम हो गया कि उसकी गोली किसी को लगी अवश्य है।

जबकि उसकी गोली एक कांस्टेबल की छाती में लगी थी। वह उसी समय ही पीठ के बल नीचे जा गिरा था। यह जानकर कि सामने भागने वाले के पास रिवॉल्वर है, पुलिस वाले हड़बड़ा उठे थे। इसी कारण उनके भागने की गति कम हुई। भागते हुए सब-इंस्पेक्टर ने डालचन्द को गोली का निशाना बनाना चाहा कि तभी इत्तफाक से वह करीब की गली में घुसता चला गया था। उसके दौड़ने की गति में कमी नहीं आई थी। इस बात से वह भली-भांति वाकिफ था कि एक बार पुलिस के हाथ पड़ गया कि सारी जिंदगी खत्म ।

पीछे पुलिस वालों को न पाकर, उसने रिवॉल्वर जेब में रख ली थी।

यहां से उसका घर ज्यादा दूर नहीं था और कोई जगह इस समय उसके लिए नहीं थी। इस वक्त सबसे सुरक्षित जगह उसका घर ही था। वह भागने की गति को धीमा करता जा रहा था। उसने फौरन घर का रुख कर लिया। जब घर कुछ ही दूर रह गया तो, उसने दौड़ना छोड़ दिया.... और सामान्य चाल चलने लगा। वह नहीं चाहता था कि उसे भागते पाकर, कोई पहचान वाला उसे शक की निगाहों से देखे ! सामान्य चाल चलता हुआ वह घर पहुंचा। घर का दरवाजा खुला हुआ था। वह भीतर प्रवेश कर गया। मां और बहन कमला घर पर नहीं थीं। डालचन्द ने यही सोचा कि वह दोनों दायें-बायें किसी पड़ोस में गई होंगी। यह तो वह सोच भी नहीं सकता था कि सुबह वह राजाराम को जुल देकर भाग गया था। तब ही राजाराम ने उसकी मां-बहन को कैद कर लिया था।

दरवाजा बन्द करके वह चैन भरी सांस लेने लगा। कुछ ही देर में बाहर हो रही हलचलों से उसे मालूम पड़ गया कि इस इलाके को पुलिस अपने घेरे में ले रही है। यानी कि पुलिस को विश्वास है कि डकैती की वैन चलाने वाला इसी इलाके में कहीं छिपा है। अगले दस मिनट में डालचन्द ने नहा-धोकर दूसरे कपड़े पहन लिए थे.... और चाय बनाकर घूंट मारने लगा था। मन-ही-मन वह भगवान का लाख-लाख शुक्र मना रहा था कि पुलिस के फन्दे में पड़ने से वह बच निकला है। अब उसे बाहर हो रही पुलिस की हरकतों की परवाह नहीं थी।

■■■

डालचन्द ने चाय समाप्त की और प्याला टेबल पर रखा। तभी उसकी निगाह टेवल पर तह किये हुए कागज पर पड़ी। असमंजसता में घिरे उसने तह किया कागज उठा कर खोला। उसमें चंद शब्द इस प्रकार लिखे हुए थे---

तुम्हारी मां और बहन मेरे पास हैं। जब भी फुर्सत मिले, आकर उन्हें ले जाना ।

राजाराम

डालचन्द कई पलों तक हक्का-बक्का रह गया, उसकी मां-बहन गैंगस्टर राजाराम के कब्जे में हैं? आज सुबह उसने उसका कहना नहीं माना था और उसे धोखा देकर भाग निकला था। इसी खुन्दक में राजाराम ने उसकी मां-बहन को उठा लिया था। डालचन्द के होंठ भिंच गये, चेहरा क्रोध से धधक कर लाल हो गया। अगर उसकी मां-बहन को किसी ने बुरी निगाहों से देखा भी तो वह उसकी आंखें निकाल लेगा। परन्तु साथ ही वह जानता था कि राजाराम के सिर के बाल के बराबर भी नहीं है वह। राजाराम जैसे गैंगस्टर का वह चाहकर कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और न ही इस पत्र के मुताबिक वह राजाराम के अड्डे पर जाकर अपनी मां-बहन को वापस ला सकता है। जाहिर है उसकी मां-बहन को राजाराम ने इसी कारण उठाया होगा कि वह उससे मिलना चाहता हो, चुपचाप खिसक जाने की सजा देना चाहता होगा उसे। हो सकता है उसे गोली से उड़ा दे । राजाराम जैसे इंसान का क्या भरोसा? आखिरकार उसने इस सिलसिले में देवराज चौहान से बात करने का विचार किया। अगर देवराज चौहान चाहे तो उसकी मां-बहन को राजाराम की कैद से वापस ही नहीं ला सकता बल्कि उसकी अक्ल भी ठिकाने लगा सकता है।

डालचन्द क्रोध भरी गम्भीरता से बाहर निकला। मेन दरवाजे पर ताला लगाया और आगे बढ़ गया। कई जगह उसे पुलिस वाले नजर आए। जो कि शायद इस इलाके के घर-घर की तलाशी लेने का प्रोग्राम बना रहे थे। डालचन्द उनके करीब से गुजरता चला गया। नहा-धोकर वह कपड़े बदल चुका था। उसके पीछे वाले भी अब उसे पहचान नहीं सकते थे। पुलिस की तरफ से वह निश्चिंत था।

■■■

"क्या है?" राजाराम ने भीमराव को देखा।

"एक बहुत जबरदस्त खबर है राजाराम साहब....।" भीमराव ने कहा।

"क्या, फटाफट बोल।”

"आप जिस बैंक वैन रॉबरी का जिक्र कर रहे थे-- जिसमें साढ़े पांच करोड़ रुपया मौजूद था, उस वैन को कल वजीरचंद प्लेस के नीचे वाले हिस्से में मौजूद बैंक के अहाते से तब उड़ाया गया था, जब उसमें नोट भर चुके थे, वह चलने की तैयारी में थी।

"तो?”

“आज उसी बैंक में, चार करोड़ की बैंक डकैती देवराज चौहान ने की है। "

“क्या?” राजाराम चौंककर सीधा हो गया--- “कल देवराज चौहान ने साढ़े पांच करोड़ पर हाथ मारा, और आज चार करोड़ पर! पट्ठे ने चौबीस घण्टों में साढ़े नौ करोड़ पर हाथ मारा लिया?"

“अभी खास बात तो आपको बतानी है राजाराम साहब।"

"बोल, फटाफट बोल ।”

“आज डकैती के बाद, सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी की वैन में चार करोड़ वह लेकर भागे। मालूम हुआ है कि वैन चलाने वाला भी बहुत एक्सपर्ट ड्राइवर था। वह तूफानी गति से वैन को दौड़ा रहा था।" भीमराव ने कहकर चुप्पी साध ली।

राजाराम की आंखें सिकुड़कर छोटी हो गईं।

“आगे बोलेगा या बस है तेरी---।"

"मैंने डालचन्द की मां-बहन से मालूम किया है। डालचन्द कल सुबह जल्दी ही घर से निकल गया था और रात गए, देर से वापस लौटा। और आज सुबह ही वह यह कहकर घर से निकला था कि जहां उसे नौकरी मिली है, वह लोग उसे टूर पर भेज रहे हैं, बीस-पच्चीस दिन के बाद लौटेगा।"

राजाराम हंसा। और जोर से हंसा वह।

"अब भी नहीं समझे भीमराव।" राजाराम ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा--- "कल देवराज चौहान ने बैंक वैन रॉबरी की। वैन भगाई डालचन्द ने। और आज हम वास्तव में कुछ गलत वक्त पर पहुंचे, वह हमारे साथ कैसे चल सकता था? तब वह बैंक डकैती पर जा रहा था। उसने अगर हमें धोखा दिया है तो गलत नहीं दिया। उसकी जगह कोई भी होता तो ऐसा ही करता। जिस काम की योजना पहले से बनी पड़ी थी, उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जा सकता। अब यकीन आया मेरी बात का?"

भीमराव हिचकिचाया, फिर बोला----

"यकीन के साथ कुछ नहीं कह सकता।"

"लेकिन मैं यकीन के साथ कह सकता हूं। अगर तेरा दिमाग भी मेरी तरह ही चलता होता तो आज तू राजाराम बना होता। सिर्फ भीमराव ही नहीं होता। कल और आज दोनों दिन वैन को डालचन्द ने भगाया था। मैं इस बात को दावे के साथ कह सकता हूं आज जिस तरह डालचन्द धोखा देकर घर के पिछले दरवाजे से निकल भागा, उसे मद्देनजर रखते हुए मेरा दावा और भी पक्का हो जाता है।"

भीमराव सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।

“साढ़े नौ करोड़!” राजाराम कुछ इस तरह खुश हो रहा था जैसे कि सारी दौलत की लूट उसने की हो--- "तुम जरा ये तो सोचो कि, साढ़े नौ में से डालचन्द का कितना हिस्सा होगा?"

“क्या मतलब?"

“मतलब कि डालचन्द के पल्ले कितना पड़ेगा?" राजाराम हंसा ।

"वह तो इस बात पर निर्भर करता है कि इस लूट में कितने आदमी शामिल रहे हैं।"

"पांच-सात से ज्यादा क्या रहे होंगे?"

“सवा-डेढ़ करोड़ तो डालचन्द को मिलेगा ही।"

“बहुत है। बहुत है। अपनी मां-बहन को वापस पाने के लिए वह एक करोड़ तो हमें दे ही सकता है और खामखाह का इतना पैसा हमें मिलना, हमारे लिए बहुत है। इससे मैं अपनी स्मगलिंग का दायरा और बढ़ा सकता हूं। हमें डालचन्द के आने का इन्तजार करना होगा, बंटवारा होने में अभी दो चार दिन तो लग ही जायेंगे। लेकिन कोई बात नहीं। हम इन्तजार कर लेंगे।"

"राजाराम साहब।" भीमराव ने धीमे स्वर में कहा--- "हो सकता है ऐसा कुछ भी न हो, जैसा आप सोच रहे हैं।"

राजाराम जोर से हंस पड़ा।

"हां। शहर की खबरों पर नजर रख। यह मामला तेरी समझ में नहीं आएगा।"

भीमराव ने सिर हिलाया और बाहर निकल गया।

"पट्ठा देवराज चौहान बहुत नसीब वाला है, हर बार करोड़ों पर हाथ मारता है। हरामी के पास अब तक अरबों का माल इकट्ठा हो चुका होगा।" राजाराम मुंह बनाकर बड़बड़ा उठा।

■■■

डालचन्द, देवराज चौहान के मकान पर पहुंचा, वहां पहुंचकर उसे मालूम हुआ कि देवराज चौहान तो कब का वहां से जा चुका है। यह सुनकर डालचन्द के चेहरे पर छाई बेचैनी बढ़ गई । मंगल पांडे एक तरफ कुर्सी पर, सिगरेट के कश लेता हुआ, उन नोटो से भरे ट्रंकों को देखे जा रहा था। वह ट्रंकों के बीच में मौजूद नोटों की झलक पाने को बेताब था। परन्तु इस तरह उन्हें खोलना ठोक नहीं था। उसका तो मन कर रहा था कि इस चार करोड़ को लेकर खामोशी से वहां से दफा हो जाए, परन्तु नीना पाटेकर के वहां होने के कारण, वह इस बात का हौसला नहीं कर पा रहा था। पाटेकर के बदले कोई और उसके पास होता तो शायद हो सकता था वह ऐसा कुछ कर गुजरने का हौसला कर बैठता। परन्तु नीना पाटेकर जैसी खतरनाक शख्सियत के सामने गड़बड़ कर पाने की हिम्मत उसमें नहीं थी।

नीना पाटेकर ने डालचन्द के चेहरे पर छाई व्याकुलता को नोट किया।

“क्या बात है डालचन्द, तुम इतने घबराये हुए क्यों हो?" नीना पाटेकर उसके करीब पहुंची।

“राजाराम ने मुसीबत डाल दी है।" डालचन्द सूखे होठों पर जीभ फेरकर बोला--- "मैंने तुम्हें बताया था कि आज सुबह जब घर से निकला तो, राजाराम आ पहुंचा था। वह चाहता था कि मैं उसकी कार ड्राइव करूं। उसे दूसरे शहर में कहीं जल्दी ही पहुंचना था। लेकिन मैं उसे धोखा देकर भाग निकला।"

नीना पाटेकर ने सिर हिलाया।

"मैं अभी घर गया था....तो वहां से मालूम हुआ.... कि मेरी मां-बहन को राजाराम उठा ले गया है।"

नीना पाटेकर चौंकी। डालचन्द ने जेब से राजाराम वाला पत्र निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया। पाटेकर ने उस पत्र को पढ़ा। चेहरे पर सख्ती के भाव आ गये।

करीब ही मंगल पांडे बैठा सब बातें सुन रहा था। उसने एक बार भी बीच में दखल देने की जरूरत न समझी, राजाराम के मामले से वह दूर ही रहना चाहता था।

“मैं इस बारे में देवराज चौहान से बात करने आया था।" डालचन्द ने चिंतित लहजे से कहा।

"देवराज चौहान से भी बात कर लेना।" नीना पाटेकर ने गर्दन हिलाई, वह गहरी सोच में थी--- “राजाराम को मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूं और वह मुझे जानता है। मैं उससे बात करती हूं।”

"वह तुम्हारा कहना मान जायेगा?"

“मालूम नहीं.... । यह तो अब बात करने से ही पता चलेगा। तुम यहां का मामला संभालो।”

“यहां पर क्या संभालना है?"

"इसे संभालना है।” नीना पाटेकर ने मंगल पांडे की तरफ उंगली की--- "यह नोटों से भरे ट्रंक को देखकर कुछ ज्यादा ही बेचैन हो रहा है और भीतर कमरे में मेवाराम बन्द है। मैं दो घण्टों में लौट आऊंगी, राजाराम से बात करके।"

मंगल पांडे ने नीना पाटेकर की इस बात की जरा भी परवाह नहीं की।

डालचन्द सिर हिलाकर रह गया।

“वैन को तुमने कहां छोड़ा ?"

वैन के बारे में सब कुछ बता कर डालचन्द ने गहरी सांस ली---

“मुझे लगता है मेरी गोली से, शायद कोई पुलिस वाला मारा गया है। मैं भी क्या करता! वह लोग मेरे करीब आ गए थे कि फायर करने के अलावा मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था। "

“चिंता मत करो। यह सब तो चलता ही रहता है। अब तुम यहां से बाहर नहीं निकलना। मैं जल्दी ही वापिस आ जाऊंगी।"

"देवराज चौहान फार्म पर गया है?" डालचन्द ने एकाएक पूछा।

"शायद फार्म पर !”

नीना पाटेकर बाहर निकल गई। डालचन्द ने मंगल पांडे को देखा।

"कोई गड़बड़ करने की चेष्टा मत करना।" डालचन्द सर्द लहजे में बोला--- "मैं पहले से ही परेशान हूं। अगर तुमने जरा भी गलत कदम उठाया तो मैं तुम्हें शूट कर दूंगा।"

"मेरा कुछ भी करने का इरादा नहीं है।" मंगल पांडे गहरी सांस लेकर रह गया।

■■■

बैंक वैन में दो गार्ड जो बन्द थे, उनकी उम्र, नाम कुछ इस प्रकार थे। एक की उम्र पैंतीस बरस थी। नाम था सीताराम। उत्तर प्रदेश के किसी गांव का था। परिवार के नाम पर उसकी पत्नी लाजवन्ती थी और एक तीन बरस का लड़का था। सीताराम प्यार से उसे लाजो कहा करता था।

दूसरा पचपन बरस का था। रिटायर होने वाला था, परिवार में दो जवान लड़कियां थीं जिनकी शादी तीन बरस पहले ही करके उसने फुर्सत पा ली थी। बीवी को स्वर्गवासी हुए बरसों बीत चुके थे। उसका नाम किशनलाल था।

दो घण्टों की मेहनत के पश्चात देवराज चौहान ने बैंक वैन में बन्द गार्डो के बारे में यह जानकारी हासिल की। उनके घरों का अता-पता जाना। चूंकि किशनलाल के परिवार में अब कुछ भी नहीं बचा था। इसलिए वह उसके लिए बेकार था। परन्तु सीताराम उसके काम का था, वह सीताराम के घर पर पहुंचा। गन्दी बस्ती में उसने एक कमरा ले रखा था। जिसमें वह अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहता था।

दरवाजा खटखटाने पर सीताराम की पत्नी लाजवंती ने ही दरवाजा खोला। उसे देखकर ही देवराज चौहान समझ गया कि वह सीताराम की पत्नी है, क्योंकि रो-रोकर उसकी आंखें लाल हो रही थीं। स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि वह अभी रोकर हटी है।

देवराज चौहान ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की। जवाब में लाजवंती ने सिर हिलाया और प्रश्नभरी निगाहों से उसे देखने लगी।

“मैं सीताराम का दोस्त हूं।"

यह सुनते ही लाजवंती देवराज चौहान को भीतर ले गयी। देवराज चौहान पुरानी-सी कुर्सी पर बैठा और लाजवंती की तरफ देखकर बोला---

"सीताराम के बारे में जानकर बहुत दुःख हुआ...कि डकैत जिस वैन को ले भागे हैं, वह उसी वैन में बन्द था। कुछ खबर मिली कि वह किस हाल में है?"

"नहीं....।" लाजवंती ने भी भीगे स्वर में जवाब दिया--- “उनके बारे में कोई खबर नहीं मिली। भगवान रक्षा करे, वह ठीक हों! मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या करूं?"

“क्या आप जानती हैं वह बैंक वैन किसने उड़ाई है?" देवराज चौहान ने शांत स्वर से पूछा।

"हां! देवराज चौहान नाम का कोई आदमी है। सुना है बहुत खतरनाक है। भगवान ही जाने वह मेरे आदमी को जिंदा छोड़ेगा भी या नहीं। पुलिस कोशिश तो कर रही है, परन्तु मुझे पुलिस का यकीन नहीं। देवराज चौहान का नाम लेते हुए पुलिस वाले भी डर रहे थे। ऐसे में कहां से पकड़ पायेंगे उसे?" लाजवन्ती ने भर्राए स्वर में जवाब दिया।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कश लेकर बोला---

“मैं देवराज चौहान ही हूं।"

“तुम? आप....आप देवराज चौहान।" लाजवन्ती जोरों से चौंकी।

"हां!" देवराज चौहान ने आहिस्ता से गर्दन हिलाई--- “तुम्हारा आदमी अभी तक तो सही सलामत है। परन्तु आने वाले समय के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह ठीक रहेगा या नहीं। क्योंकि वह दूसरे गार्ड के साथ वैन को भीतर से बन्द किए बैठा है। हम ज्यादा देर इन्तजार नहीं कर सकते। हम वैन को आग लगाने जा रहे हैं.... । दौलत हाथ बेशक न लगे परन्तु उन लोगों को हम किसी भी कीमत पर जिंदा नहीं छोड़ेंगे। आग लगने पर वह दोनों वैन के भीतर ही जल मरेंगे, अगर दरवाजा खोलकर बाहर आते हैं तो हम उन्हें गोलियों से भून देंगे।"

"नहीं-नहीं! ऐसा मत करना।" लाजवन्ती के होठों से चीख निकली।

"नहीं करना पड़े, इसी कारण मैं तुम्हारे पास आया हूं।" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती भर आई--- “तुम्हें एक मौका देता हूं कि अपने आदमी को समझा लो। उसे कहो कि शराफत से वैन का दरवाजा खोलकर बाहर निकल आये-- नहीं तो हम वैन को आग लगाने जा रहे हैं।"

"हां-हां।" लाजवन्ती घबराकर कर कह उठी--- "आप मुझे एक बार उनके पास ले चलिये। मैं उन्हें समझा दूंगी। सब ठीक हो जायेगा। बस, उनकी जान मत लीजियेगा ।"

"तुम्हारे आदमी की जान लेने से हमें कोई फायदा नहीं है। वैन का दरवाजा न खोलकर वह हमें मजबूर कर रहे हैं कि मैं कुछ करूं। लगता है उन्हें अपनी जान प्यारी नहीं।"

"आप मुझे वहां ले चलिये। मैं...मैं उन्हें खोलने को कहूँगी वैन का दरवाजा....।" लाजवन्ती की आंखों में आंसू बह निकले--- “फिर तो आप उनकी जान नहीं लेंगे न।"

"नहीं।"

लाजवंती ने बैड पर सोये तीन वर्षीय लड़के को उठा कर कंधे पर डाला। देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ। दोनों बिना कुछ कहे बाहर निकल गये। कुछ आगे जाकर देवराज चौहान ने लाजवंती को कार में बिठाया। फिर स्टार्ट करके कार आगे बढ़ा दी। रास्ते में सुनसान जगह पर कार रोककर, देवराज चौहान ने लाजवंती की आंखों पर रूमाल बांधा।

"यह क्यों?” लाजवंती के होठों से निकला।

"मैं नहीं चाहता कि तुम यह देखो कि, मैं तुम्हें कहां ले जा रहा हूं।"

लाजवंती ने आंखों पर रूमाल बंधवाने में कोई एतराज नहीं उठाया।

“एक बात कहूं....।" कुछ देर बाद ही लाजवंती बोली।

"क्या?"

"पुलिस वाले बता रहे थे कि देवराज चौहान बहुत खतरनाक इन्सान है। इस नाम को लेते हुए भी जैसे वह हिचकिचा रहे थे। परन्तु आप में तो मुझे ऐसी कोई बात नहीं दिखाई दी। भले लगे हैं आप मुझे।" लाजवन्ती ने एकाएक भोलेपन से कहा।

देवराज चौहान अब इस बात का जवाब भी क्या देता! कार ड्राईव करता हुआ वह गहरी सांस लेकर रह गया। इस बात का जवाब तो खुद उसके पास भी नहीं था कि वह कैसा इन्सान है!

■■■

वानखेड़े पिछले दो घण्टों से वैन के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहा था। जिन-जिन रास्तों में वैन गुजरी थी, वह उसी पर जगह-जगह से पूछताछ कर रहा था, एक चौराहे पर मौजूद पनवाड़ी से उसने पैकेट खरीद कर सिगरेट सुलगाई और पैसे देते हुए बोला---

"क्यों भाई! साढ़े दस ग्यारह बजे के दरम्यान यहां से कोई सफेद रंग की वैन निकली ?"

"उस वैन के बारे में तो मत पूछिये साहब। अभी तक मैं उस वैन के ड्राइवर को गालियां दे रहा हूँ। साला मिल गया तो उसका सिर फोड़कर रख दूं।" पान वाले ने क्रोध भरे स्वर में कहा।

"क्यों, ऐसा क्या कर डाला उसने?"

"पूछिये क्या नहीं किया? उस वैन ने यहीं से मोड़ काटना था। उल्लू के पट्ठे को मोड़ना भी नहीं आता। मेरी दुकान पर वैन चढ़ते-चढ़ते बची। जिन्दगी भर की कमाई मेरी यही दुकान है। उस वैन ने मुझे बरबाद कर देना था। वह तो अच्छा रहा कि मैं बच गया।"

"फिर वह वैन कहां गई?"

“यहां से सीधी सड़क पर जाने कहां गई थी।" पनवाड़ी ने मुंह बनाकर कहा।

वानखेड़े कार में बैठा और पनवाड़ी की बताई सड़क पर चल पड़ा। कुछ को मालूम भी हो गया था कि उस वैन में बैठे लोग, बैंक डकैती करके भाग रहे थे।

वानखेड़े ने अगले चौराहे से पूछताछ की। दो-तीन दुकानदारों से पूछने पर एक ने वैन के बारे में बताया---

"साहब, मुझे तो वैन का ड्राइवर पागल लगता था। या फिर नशे में था...। आम समझदार इन्सान इन सड़कों पर इतनी खराब ड्राइविंग नहीं कर सकता था। वैन की इतनी ज्यादा स्पीड थी कि उतनी स्पीड तो हाईवे पर ही होती है। तौबा! मुझे तो हैरानी है ट्रैफिक वालों ने उसे पकड़ा क्यों नहीं। उसने अवश्य दो चार को मारा होगा।"

"यहां से किस तरफ गई वह वैन?"

"उस सड़क पर मुड़ गई थी।" उसने एक सड़क की तरफ इशारा किया।

वानखेड़े कार में बैठा, पुनः आगे बढ़ गया। वानखेड़े को मन-ही-मन पूरा विश्वास था कि वह वैन की आखिरी मंजिल तलाश कर लेगा। जल्दी ही तलाश कर लेगा वैन के ठिकाने का आखिरी छोर। उस सड़क पर कुछ आगे जाने पर, चौराहे पर मौजूद पनवाड़ी से पूछताछ की।

"हा साहब। उस वैन को कोई सनकी व्यक्ति चला रहा था।" पान वाले ने बताया--- "यहीं से वह मुड़ा था। एक बच्चा नीचे आते-आते बचा था। मुझे तो हैरानी है कैसे बच गया वह बच्चा! एकदम नीचे आने को था कि वैन के ड्राइवर ने वैन को कट देकर बच्चे को बचा लिया! वैसे मानना पड़ेगा कमाल की ड्राइविंग थी वैन चलाने वाले की!"

“यहां से किस तरफ गई वैन?” वानखेड़े ने पूछा।

"इधर साहब।"

वानखेड़े कार में बैठा और पनवाड़ी के बताये रास्ते पर बढ़ गया। वैन की तेज रफ्तार ही उसे, अपराधियों तक पहुंचाने में सहायक हो रही थी।

■■■