4 मई : सोमवार
वसन्तराव कालसेकर पुश्तैनी ज्वेलर था जिसका ताज होटल के पास मैरीन ड्राइव पर तब से शोरूम था जब से मैरीन ड्राइव था। कालसेकर की पाँचवीं पीढ़ी ‘ताज ज्वेलर्स’ के नाम से जाने वाले भव्य गोल्ड और डायमंड ज्वेलरी शोरूम की संचालक थी। वो उनका एक्सक्लूसिव बिजनेस था जिसमें कोई ऐरा-गैरा ग्राहक कदम नहीं रखता था। उनका बड़ी ट्रैवल एजेन्सीज़ से टाईअप था इसलिए बड़ी हैसियत वाले ग्राहक ही वहाँ कदम रखते थे।
वसन्तराव कालसेकर की रिहायश कोलाबा में थी जहाँ अफ़गान चर्च के करीब एक शान्त सड़क थी, जिस पर सैकंड वर्ल्ड वार से पहले के बने सिर्फ पाँच बंगले थे जिनमें से एक, आख़िरी सिरे वाला, उनका था। कालसेकर लगभग सवा सौ किलो का, डबल क्या, ट्रिपल बैरल व्यक्ति था। गनीमत थी कि कद पौने छ: फुट से ऊपर था। ख़ुदा-न-ख़ास्ता कद में मात खाया होता तो चलता तो रास्ते पर ड्रम लुढ़कता जान पड़ता। उम्र में पैंसठ के करीब का था, नौ साल से विधुर था, बीवी तीन बच्चे – दो लड़कियाँ, एक लड़का विष्णु – छोड़कर आंत के कैंसर से जन्नतनशीन हुई थी। दोनों बेटियाँ कोलकाता के हमपेशा व्यापारियों में ब्याही थीं। लड़का, उनसे छोटा था, अविवाहित था, उसके साथ रहता था, शोरूम पर साथ हाजिरी भरता था लेकिन शाम आठ बजे शोरूम बन्द हो जाने के बाद वहाँ से निकला रात दो-ढाई बजे से पहले कभी घर नहीं लौटता था। बंगले में पिता की देखभाल करने के लिए काफी मुलाज़िम थे – कुक, माली, वाॅचमैन, ड्राइवर, दो मेड – इसलिए शुरूआती ऐतराज़ों के बाद उसने बेटे की लेट नाइट घर वापिसी की परवाह करना बन्द कर दिया था।
सब कुछ सुख-चैन से चल रहा था कि एकाएक सुख-चैन में बड़ा फच्चर पड़ गया था। वो अन्डरवर्ल्ड के एक ‘भाई’ के फोकस में आ गया था जिसके मवालियों जैसे दो आदमी एक रोज़ उसके पास पहुँचे थे और चैम्बूर के एक चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम से चन्दा माँगने लगे थे। उसने बोला कि वो चैम्बूर के चैरिटेबल ट्रस्ट को पहले से चन्दा दे रहा था तो जवाब मिला वो ट्रस्ट बन्द हो चुका था और बन्द ट्रस्ट को ही दूसरे नाम से शिवाजी चौक पर फिर चालू किया गया था। ज्वेलर ने चन्दा देना कुबूल किया लेकिन जो रकम ऑफ़र की, वो उनकी नाक नीचे न आई, ‘भाई’ के हुक्म के हवाले से लाखों की माँग खड़ी कर दी। कालसेकर ने दो दिन की मोहलत माँगी और कूपर कम्पाउन्ड पहुँचा जहाँ वो एक अरसे से रेगुलर चन्दा देता आ रहा था। सिर्फ पहली बार उस बाबत उससे दरख़्वास्त हुई थी, उसके बाद चन्दे की बाबत उसको कभी याद नहीं दिलाया गया था।
कालसेकर ने कूपर कम्पाउन्ड पर चलते ट्रस्ट को ताला लगा पाया। इत्तफ़ाक से उसे शोहाब मिला जिससे वो पहले से वाकिफ़ था। मालूम पड़ा कि जो शख़्स तुका के बाद उस ट्रस्ट का संचालक था और जिसे मुम्बई के ज़रूरतमंद ‘चैम्बूर का दाता’ के नाम से जानते हैं, एकाएक हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया था और उसके पीछे उसकी तरह ट्रस्ट को सुचारू रूप से चलाए रख पाने वाला कोई नहीं था।
तो वो क्या करे?
पुलिस के पास जाए।
उसी रोज़ वो थाने जाने की जगह फ़ोर्ट में स्थित पुलिस हैडक्वार्टर पहुँचा और उस डीसीपी से मिला जिसके अन्डर साउथएण्ड के आठ थाने आते थे जिनमें कोलाबा और मैरीन ड्राइव के थाने भी थे।
डीसीपी ने बहुत धीरज से कालसेकर की बात सुनी, फिर उसे आश्वासन दिया कि वो उन दो थानों में हिदायत भिजवायेगा कि उधर गश्त बढ़ाई जाए।
यानी पहले एक सिपाही गश्त करता था तो अब दो कर दिए जाएं।
दो दिन बाद दोनों मवाली फिर उसके बंगले पर पहुँच गए।
डीसीपी से शह पाए कालसेकर ने उन्हें डांट कर भगा दिया।
अगला दिन ख़ामोशी से गुज़रा तो उसने यही समझा कि वो दोनों टपोरी ‘भाई’ का नाम उछाल कर ख़ुद की अपनी जेबें भरने की फिराक में थे, इसीलिए आसानी से टल गए थे।
लेकिन उससे अगले दिन जब शोरूम खुला तो जैसे प्रलय आ गई। एकाएक लोहे की छड़ों और हाकियों से लैस कितने ही मवाली भीतर घुस आए और चुटकियों में उन्होंने सब फोड़ डाला, कोई चीज साबुत न छोड़ी। शीशे के सारे शोकेस, सारी डिस्पले विंडोज़, सब चूर-चूर कर दीं। गोल शोरूम के मिडल में छत से लटका झूमर भी न छोड़ा। फिर जैसे ख़ामोशी से आए थे, वैसे ही ख़ामोशी से सब निकल लिए।
जब पुलिस पहुँची तब शोरूम का मालिक कालसेकर आँखों में आँसू लिए, पत्ते की तरह काँपता बर्बाद हो चुके शोरूम के बीच में खड़ा था।
पुलिस ने मालिक और स्टाफ़ के बयान लेने की औपचारिकता पूरी की, सीसीटीवी की फुटेज देखी तो पाया सारे आतताई सिर पर हैल्मेट लगाए थे। दोपहरबाद पुलिस ने कालसेकर को थाने तलब करके औपचारिक एफ़आईआर साइन कराई जिसके अनुसार ‘अज्ञात व्यक्तियों ने’ शोरूम पर आक्रमण किया था और आक्रमण की वजह स्पष्ट नहीं थी।
क्यों स्पष्ट नहीं थी? – कालसेकर ने कहा था – किसी अन्डरवर्ल्ड डॉन ने उससे जबरिया वसूली की कोशिश की थी, ये वजह थी।
तफ्तीश होगी। देखेंगे। पता करेंगे।
कुछ न देखा। कुछ न पता किया। इलाके के नोन बैड कैरेक्टर्स की पुलिस रिकाॅर्ड में मौजूद तस्वीरें दिखाने के लिए भी उसे थाने तलब न किया गया।
दो करोड़ का नुकसान हुआ। सारे शोकेस, सारी विंडोज़ बैल्जियम ग्लास की थी। छत से लटका अकेला झूमर ही पचास लाख रुपए का था।
शोरूम में रेनोवेशन का काम एक महीना दिन-रात हुआ तब भी काम अभी इतना ही मुकम्मल था कि शोरूम चालू किया जा सकता, बाकी काम चलते शोरूम में होता रह सकता था और यूँ भी दो हफ्ते और लगे।
अपने बेटे और अपने वकील की राय पर उसने उस विषय में पुलिस कमिश्नर को मेल भेजी, जिसका कमिश्नर की तरफ से उसके पीएस का भेजा फौरन जवाब आया कि कम्पलेंट को संबंिधत थाने में फाॅरवर्ड कर दिया गया था जहाँ से उसे केस की प्रॉग्रेस की रिपोर्ट मिलती रहा करेगी।
कोई रिपोर्ट न मिली।
अलबत्ता अनऑफ़िशियल तरीके से ये खुफ़िया जानकारी हाथ लगी कि कमिश्नर का प्राइवेट सैक्रेट्री डिप्टी कमिश्नर रैंक का अफ़सर होता था जो यूँ हासिल हुई मेल का ख़ुद ही निपटारा कर देता था।
उस दौरान बाज़रिया फोन ‘भाई’ की धमकी भी जारी हो गई कि अगर उसने फौरन पुलिस के टॉप ब्रास से सम्पर्क साधना बन्द न किया, या अपनी व्यथाकथा मीडिया को सुनाने की कोशिश की तो वो अपने मौजूदा नुकसान से कहीं बड़े नुकसान के लिए तैयार रहे।
वैसा कोई कदम तो आइन्दा उसने हरगिज़ न उठाया अलबत्ता हर घड़ी, सुबह-दोपहर-शाम-रात, कहीं बड़े नुकसान का तसव्वुर बराबर करता रहा।
उस दौरान वही शुरू में आए दो आदमी रात के अन्धेरे में उसके बंगले पर आए और ‘भाई’ के हुक्म के हवाले से बीस लाख रुपए ले गए।
फिर उसे ये ख़बर भी लगी कि जो ख़ामोश ट्रीटमेंट उन्होंने उसके शोरूम को दिया था, वैसे का मज़ा कुछ और बड़े व्यापारियों को भी चखना पड़ा था – किसी की पॉर्किंग में खड़ी बीएमडब्ल्यू फंुक गई थी, किसी की बेटी स्कूल से लौटते वक्त उठ गई थी, किसी के सारे स्टाफ़ ने एक साथ नौकरी छोड़ दी थी और ग्राहकों की सुरक्षा को लेकर पीछे ऐसा हौवा खड़ा किया गया था कि ट्रैवल एजेन्ट्स के गाइड्स की मनुहार के बावजूद कोई ग्राहक – अधिकतर टूरिस्ट – भीतर कदम रखने को तैयार नहीं था। एक व्यापारी एयरपोर्ट के करीब हाई एण्ड बार चलाता था, बार खुलने से पहले उसका सारा लिकर स्टाॅक बार के फ़र्श पर बहता दिखाई दिया, जबकि कई बोतलें कीमती फ़्रेंच शैम्पेन की थीं।
पता लगा कि उसके बाद किसी व्यापारी का चन्दे की ‘वसूली’ से इंकार करने का हौसला नहीं हुआ था।
तीन महीने बाद वसूली उसे फिर भुगतनी पड़ी।
अब तीसरे फेरे के लिए उसे उसी रोज़ ख़बरदार किया गया था।
और अब वो बीस लाख रुपयों का पैकेट बनाए उनकी आमद के लिए तैयार बैठा था।
अपने बेटे को उस बाबत उसने मुकम्मल तौर पर कुछ नहीं बताया था, खाली इसी बात पर ज़ोर रखा था कि जो हुआ था, किसी प्रतिद्वन्द्वी ज्वेलर के इशारे पर हुआ था। ऐसा दुश्मन कौन निकला था, इसका उसे कोई अन्दाज़ा नहीं था। बेटा आश्वस्त नहीं था लेकिन पिता अपनी फर्ज़ी स्टोरी से न हिला। आख़िर एक ही बेटा था, गर्म ख़ून था, गर्मजोशी में कोई उलटा-सीधा कदम उठा बैठता तो अंजाम गंभीर होता! शोरूम की तबाही का नुकसान वो झेल सकता था, औलाद का नुकसान कैसे झेलता!
ग्यारह बजे के करीब बंगले की कालबैल बजी।
रात को बाहरी सड़क पर हमेशा नीमअन्धेरा रहता था। वहाँ एक ही बिजली का खम्बा था जिस पर लगा शेड वाला बल्ब सारी सड़क का अन्धेरा दूर करने में असमर्थ था। पाँचों बंगलों में बड़ी हैसियत वाले, एक्सक्लूसिव लिविंग वाले लोग रहते थे जो अपने काम से काम रखते थे इसलिए भी उस सड़क का किरदार शरेआम रास्ते वाला नहीं था।
कालसेकर ने ख़ुद जाकर मेन डोर खोला।
बाहर का आयरन गेट उसके बेटे के आने तक खुला ही रहता था। नौकरों को उसने उस रोज़ कदरन जल्दी सोने भेज दिया था।
उसने देखा मेन डोर तक पहले की तरह एक ही जना आया था। उसका जोड़ीदार आयरनगेट से बाहर सड़क पर खड़ा था।
आगन्तुक का वो तीसरा फेरा था और तीनों बार कालसेकर ने उसे क्रिकेट के खिलाड़ियों जैसी कैप पहने देखा था।
“सलाम बोलता है, बाप।” – वो अदब से बोला – “‘भाई’ के काम से आया।”
कालसेकर ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया और दरवाज़े से एक ओर हटा।
आगन्तुक ने भीतर कदम डाला।
“‘भाई’ का हुक्म है” – कालसेकर अप्रसन्न भाव से बोला – “नाम नहीं बोलने का?”
“नाम में क्या रखा है, बाप!” – वो पूर्ववत् अदब से बोला – “समझ लो टोपी है!”
“टोपी?”
“हाँ।”
“ये नाम है?”
“समझ लो।”
“जो बाहर खड़ा है, वो पगड़ी है?”
“मसखरी किया, बाप! वो तो नंगे सिर है! पण वान्दा नहीं। मालिक हो, जो बोलाे, मंज़ूर।”
“पैकेट उधर टेबल पर पड़ा है।”
टोपी सहमति में सिर हिलाता सेंटर टेबल की तरफ बढ़ा। उसने वहाँ से पैकेट उठाया और उसे हथेली पर रख कर उसके वजन का जायजा लेने लगा।
“ऐसे क्या पता लगेगा?” – कालसेकर भुनभुनाया – “खोल के चौकस कर।”
“नहीं माँगता।” – वो वापिस कदम बढ़ाता बोला – “तुम बोला चौकस तो चौकस।”
“ऐसे कब तक चलेगा?”
“अभी मैं क्या बोलेगा, बाप! मैं तो खाली हरकारा! जो हुक्म हुआ, उसको फाॅलो करता है।”
“मैं पैकेट न दे तो ताकत नहीं बताएगा?”
“बाप, मेरे में तो ताकत हैइच नहीं, मैं किधर से बताएगा!” – वो एक क्षण ठिठका फिर उसका स्वर सर्द हुआ – “बोले तो, बताने वाला बताएगा न!”
“जैसे मेरे शोरूम का कचरा करके बताया?”
“अभी क्या बोलेगा! बड़ा लोग! बड़ी बातें! मैं साला किस गिनती में!”
“हम्म!”
“पण एक बात बोलता है।”
“बोल।”
“चन्दा दे के सबाब के काम में हाथ बंटाता है, बाप। अल्लाह तेरे को इसका अज्र देगा।”
“चन्दा देकर न! चन्दा देने वाले की मर्ज़ी से होता है, लेने वाले की मंज़ूरी से होता है। देने वाला जो दे, वो लेने वाले को कबूल होना चाहिए। पहले कूपर कम्पाउन्ड में ऐसा ही चलता था। उधर कोई वसूली नहीं करता था तुम लोगों की माफ़िक!”
“अभी क्या बोलेगा, बाप! बोला न, बड़े लोगों की बातें हैं। मैं तो खाली हुक्म की तामील करता है। जाता है, बाप।”
“एक बात और बता के जा।”
“बोलो, बाप?”
“मेरे जैसी वसूली और किधर-किधर से करता है?”
“किधर से भी नहीं करता।”
“बोम मारता है।”
“मेरे को एकीच जगह जाने का हुक्म . . . जिधर मैं ये टेम खड़ेला है।”
“बाहर का गेट ठीक से बन्द करके जाना, खुला न छोड़ जाना, मैं बत्तियां बुझाने लगा हूँ।”
“बरोबर, बाप।”
वो आगे बढ़ा। उसके पीछे दरवाज़ा बन्द हो गया। वो अभी आउटर गेट पर पहुँचा भी नहीं था कि कोठी की सारी बत्तियां ऑफ़ हो गई ं ।
“कोई तो बत्ती जलती छोड़ता!” – टोपी गेट पर पहुँचा तो बड़बड़ाया – “अभी उसके छोकरे ने आना है!”
“हमेरे को क्या!” – जोड़ीदार लापरवाही से बोला।
टोपी ने पैकेट जोड़ीदार को थमाया जिसे उसने गले में लटके बैग में डालकर जिप बन्द की।
टोपी ने पीछे आयरन गेट बन्द किया।
वो कार पर आए थे लेकिन उन्हें हिदायत थी कि ख़ामोशी से मंजिल पर पहुँचना था इसलिए वो कार को गली से बाहर मेन रोड पर पार्क करके आए थे।
नीमअन्धेरे में वो ख़ामोशी से आगे बढ़े।
वो गली के दहाने के करीब पहुँचे तो एकाएक थमक कर खड़े हुए।
परे खड़ी उनकी वैगन-आर के करीब कोई खड़ा था।
“कौन है?” – टोपी दबे स्वर में बोला।
“कोई नहीं।” – जोड़ीदार लापरवाही से बोला – “ऐसीच खड़ेला है! हमेरे को देखेगा तो चला जाएगा।”
“बोले तो बेवड़ा!”
“झूल तो रहा है सहारा ले के!”
“हम्म!”
टोपी ने फिर उस पर निगाह डाली तो उसकी तवज्जो उसकी पोशाक की तरफ भी गई। वो हुड वाली जैकेट पहने था और सिर झुका होने की वजह से उसकी सूरत का कोई अन्दाज़ा उन दोनों को नहीं हो पा रहा था।
“चल!” – जोड़ीदार बोला – “नहीं हटता तो देता है एक लाफा।”
टोपी ने सहमति में सिर हिलाया लेकिन इससे पहले कि वो आगे कदम उठाते, हुड वाला कार के पास से हटा, गली के दहाने में दाखिल हुआ और बीच रास्ते ठिठका।
पीछे मेन रोड रौशन थी इसलिए नीमअन्धेरी गली के भीतर वो बिल्कुल ही काला साया लग रहा था।
“अरे, कैसे खड़ेला है बीच रास्ते में खम्बा का माफ़िक!” – टोपी कर्कश स्वर में बोला – “बाजू हट!”
“हटा।” – साया शान्ति से बोला।
“क्या बकता है साला! मैं हटाए तेरे को?”
“खम्बा बोला न! हटा!”
“फोड़ देगा साला!”
“फोड़!”
टोपी ने जोड़ीदार की तरफ देखा, फिर दोनों जबड़े भींचे साये की तरफ बढ़े।
“थाम्बा!”
दोनों ठिठके, फिर भड़के कि साया उन्हें हुक्म दे रहा था।
“ठहर जा, साले!” – जोड़ीदार टोपी से ज़्यादा भड़का।
“पीछे!”
“क्या! क्या बोला साला तू?”
“देख! पीछे! प्लीज़़ करके बोलता है।”
दोनों ने झिझकते हुए पीछे निगाह डाली।
उनके प्राण कांप गए।
सामने वाले एक साये जैसे पीछे छ: साये खड़े थे।
“क-क-क्या?” – टोपी के मुँह से निकला।
किसी ने जवाब न दिया।
छ: साये बाज़ की तरह उन पर झपटे। पलक झपकते वो बारह हाथों की गिरफ्त में छटपटा रहे थे।
फिर ख़ामोशी से छ: जनों ने उन दो जनों को धुनना शुरू कर दिया।
दस मिनट तक सुनसान गली में वो सिलसिला चला।
“बस!” – विमल बोला।
बारह हाथ तत्काल थमे।
बैग को विमल पहले ही काबू में कर चुका था।
छ: जने शोहाब, इरफ़ान, आकरे, विक्टर, बुझेकर और पिचड़ थे।
वैगन-आर की चाबी टोपी के पास से बरामद हुई। दोनों बेहोश मवालियों को ख़ामोशी से वैगन-आर में लादा गया। इरफ़ान और पिचड़ ड्राइविंग सीट पर सवार हुए। वैगन-आर वहाँ से रवाना हो गई।
उन्हें पहले से गाड़ी को उस इलाके से दूर कहीं खड़ी छोड़ आने की हिदायत थी।
आकरे और बुझेकर विक्टर की कैब पर रवाना हो गए।
इरफ़ान की कैब पीछे मौजूद थी जिसे शोहाब चला सकता था, ख़ुद विमल चला सकता था।
विमल और शोहाब कालसेकर के बंगले पर लौटे।
शोहाब ने मेन डोर पर जाकर कालबैल बजाई।
कोई प्रतिक्रिया न हुई।
वो दोबारा बैल बजाने ही लगा था कि भीतर रोशनी हुई। फिर दरवाज़े के पार से किसी ने पूछा – “कौन?”
“मैं शोहाब! चैम्बूर से। कूपर कम्पाउन्ड से।”
“इस वक्त?”
“ज़रूरी है।”
“अकेले हो?”
“नहीं।”
“साथ कौन है?”
“बोलूँगा।”
“वेट।”
दरवाज़ा खुला। कालसेकर एक ओर हट कर खड़ा हुआ तो दोनों ने भीतर कदम रखा।
“मैं समझा लड़का जल्दी आ गया था।” – कालसेकर बोला – “मेन डोर की उसके पास अपनी चाबी थी, सोचा था कहीं रख के भूल गया इसलिए कालबैल बजाता था। फिर भी पूछा तो हैरानी हुई। लौट के आने का तो नहीं बोला था!”
शोहाब ने विमल की तरफ देखा।
“आपकी अमानत लौटानी थी।” – विमल बोला, उसने बैग में से पैकेट निकाल कर सेंटर टेबल पर रख दिया और बैग शोहाब को सौंप दिया।
“ये . . . ये” – कालसेकर बोला – “वापिस किसलिए? चन्दा था, रख लेते?”
“वसूली थी।”
“वापिस छीन ली?”
“हाँ।”
“उन दोनों का क्या हुआ?”
“सलामत हैं लेकिन मुमकिन है चार-छ: दिन बैड पर से न उठ पाएं।”
“नतीजा सोच लिया?”
“तभी सोच लिया था जब शोहाब ने आपसे इस बाबत बात की थी।”
“जो हुआ, उसके लिए मेरे को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।”
“ख़ामख़ाह! आपने बिना हुज्जत उन्हें मुँहमाँगी रकम देकर विदा किया। वो रकम की हिफ़ाज़त न कर सके तो इसमें आपका क्या कसूर है?”
“ठीक!”
“जब तक कोई ख़ुद ज़िक्र न छेड़े, तब तक आपको इस बाबत कोई ख़बर नहीं।”
“ठीक! ये वन टाइम प्रोग्राम तो होगा नहीं!”
“आप सहयोग देंगे तो नहीं होगा। जैसे इस बार हमें अदायगी की ख़बर थी, आपकी मेहरबानी से आप जैसों की हमें आगे भी ख़बर होगी तो जो अब हुआ, वो फिर, फिर और फिर होगा।”
“मकसद?”
विमल ने शोहाब की तरफ देखा।
“अभी तो मकसद हलचल पैदा करना ही है।” – शोहाब बोला – “हम नहीं जानते कि हम किससे मुकाबिल हैं, यूँ मुमकिन है आख़िर इस बाबत हमें कोई सुराग मिल सके।”
“फिर?”
“फिर . . . देखेंगे।”
“मुकाबला कर सकोगे?”
“वो भी देखेंगे।”
कालसेकर ने विमल की ओर देखा।
“हार-जीत पहले से मुकर्रर करके मुकाबला नहीं होता।” – विमल बोला – “पहला कदम उठाते ही मंजिल पर पहुँचने की गारन्टी किसी को नहीं हो जाती। लिहाज़ा शोहाब का जवाब ठीक है।”
“देखोगे?”
“हाँ।”
“उनका नुकसान हुआ, ‘भाई’ का नुकसान हुआ, भरपाई के लिए मुझे मजबूर किया जा सकता है।”
“बेग़ैरत शख़्स कुछ भी कर सकता है। जो सामने आए, ख़बर कीजिएगा।”
“भरपाई का दबाव बने तो!”
“तो आप अपना काम करना, हम अपना काम करेंगे।”
“फिर छीन लोगे?”
“बिलाशक।”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“मैं” – फिर ज्वेलर दबे स्वर में बोला – “जिमखाना क्लब का मेम्बर हूँ, वहाँ मैं अक्सर जाता हूँ और वहाँ अक्सर मेरी मुलाकात मेरे पेशे के या किसी और कारोबार के बड़े व्यापारियों से होती है। उनमें से कम से कम चार को, मुझे यकीनी तौर पर मालूम है, मेरी तरह ट्रस्ट को चन्दे के नाम पर जबरिया वसूली का शिकार बनाया जाता है।”
“कैसे?” – विमल ने पूछा – “कैसे यकीनी तौर पर मालूम है?”
“मेरे से मशवरा किया।”
“ओह!”
“तब मुझे बताना पड़ा कि मैं भी उसी मुसीबत का मारा था।”
“उनसे भी आपकी तरह रेगुलर वसूली होती है?”
“हाँ।”
“जैसे आपने सहयोग किया, वैसे वो करेंगे?”
“कह नहीं सकता। पूछ कर देखो।”
“आप पूछेंगे तो बेहतर नतीजा निकलेगा।”
“मुझे पूछने से कोई ऐतराज़ नहीं लेकिन किसी को, किसी को भी, ये लाइन ऑफ़ एक्शन नामंज़ूर हुई तो वो अपनी गुडविल बनाने के लिए आगे बोल सकता है जोकि बहुत बुरा होगा।”
“ठीक!”
“लेकिन तुम पूछोगे तो ऐसा कोई खतरा नहीं होगा। वो सहयोग से इंकार करेंगे, आगे बोलेंगे तो किसके बारे में बोलेंगे! तुम लोगों को तो उधर कोई जानता नहीं होगा!”
“बिल्कुल ठीक! उन चारों का नाम पता दीजिए, फिर मिलते हैं उनसे और देखते हैं ऊँट किस करवट बैठता है! मोबाइल नम्बर भी दीजिएगा।”
उसने एक लैटर पैड काबू में किया, एक वरके पर सबकुछ लिखा और वरका फाड़ कर विमल के हवाले किया।
“शुक्रिया।” – विमल कृतज्ञ भाव से बोला।
कालसेकर ने सहमति में सिर हिला कर शुक्रिया कुबूल किया।
“ये पूछना तो बेमानी होगा कि” – वो बोला, ठिठका, फिर बोला – “तुम कौन हो!”
विमल ख़ामोश रहा।
कालसेकर ने आशापूर्ण नेत्रों से शोहाब की तरफ देखा।
शोहाब परे देखने लगा।
“सच पूछो तो” – कालसेकर संजीदगी से बोला – “मैं नहीं जानना चाहता।”
शोहाब की भवें उठीं।
“जिस बात का मुझे अन्दाज़ा है, उसकी तसदीक से परहेज़ रखना ही मुझे मुनासिब कदम जान पड़ता है।”
“अन्दाज़ा है?” – शोहाब बोला।
“मैं गणपति बप्पा से ‘चैम्बूर का दाता’ की लम्बी उम्र की दुआ करूँगा।”
मीटिंग समाप्त हो गई।
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