आख़िरी मुलाक़ात

जनवरी 2007

भारतीय रेल नंबर 12779, गोवा एक्सप्रेस, मडगाँव से अपने निर्धारित समय, शाम के 3.45 पर निकल चुकी थी। मध्य रेलवे मार्ग से होती हुई गोवा एक्सप्रेस अपनी पूरी गति से दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन की ओर बढ़ रही थी, हालाँकि दिल्ली अभी बहुत दूर था। अगले 40 घंटे यानी कि दो रातें और एक पूरा दिन ट्रेन में ही गुज़रने वाला था। फ़िलहाल, लंबे सफ़र की परवाह किसी को ना थी। रेलमार्ग इतना ख़ूबसूरत था कि उससे नज़र हटाए नहीं हट रही थी। यह रेलमार्ग पहाड़ियों के बीच से गुज़रता हुआ, ग़ज़ब की हरियाली से लदा हुआ था। रेलमार्ग के आस-पास जंगल इतना घना था कि ट्रेन की खुली खिड़की से पेड़ पौधों की नमी महसूस कर पाना संभव था और कहीं-कहीं तो पेड़ों के पत्ते ट्रेन को छूकर निकल रहे थे। हर कोई अपने तरीक़े से AIET के उस आख़िरी सुहाने सफ़र का मज़ा ले रहा था। एक साथ समूह में मस्ती भरे गानों के आवाज़ के साथ गिटार का म्यूज़िक माहौल में जैसे नई ऊर्जा भर रहा था। हवा का बहाव इतना तेज़ था कि इतनी ऊँची आवाज़ में गाने के स्वर भी हवा के साथ-साथ कभी बहुत तेज़ तो कभी एकदम से बिल्कुल कम हो जाता। रेलमार्ग का अधिकतर हिस्सा पहाड़ियों को काटकर बनाया गया था और जब-जब ट्रेन लंबी सुरंगों से होकर निकलती तो गाने की आवाज़ तेज़ चिल्लाने की आवाज़ों में बदल जाती थी। उस सफ़र का एक-एक पल अनमोल यादों के हिस्से में जुड़ रहा था तो हर पल को जी भर जी लेना तो स्वाभाविक ही था।

टूर ख़त्म हो चुका था और टूर का आख़िरी सफ़र अब दिल्ली की ओर बढ़ रहा था। हर कोई अपनी मस्ती में मस्त था। शाम के समय ख़ूबसूरत वादियों और सुरंगों से होता हुआ भारतीय रेल का वो सफ़र अद्भुत था। पलाश जिग्ना को याद कर ही रहा था कि तभी उसका फ़ोन आ गया। पलाश के वापस लौटने की बात सुनकर जिग्ना बहुत ख़ुश थी। समय से बड़ा छलिया इस दुनिया में और कोई नहीं, जो एक ही साथ अपने कई रंग दिखाकर हमें छलता है। एक ओर तो टूर के वो बाईस दिन कब गुज़र गए, पता ही नहीं चला और दूसरी ओर प्रेम-पंछियों के लिए यह बाईस दिन का समय भी सदियों लंबा हो गया था।

समय रेगिस्तान में मुट्ठी से निकलती उस रेत के समान है जो हाथों में तो कुछ पल भी नहीं रुक पाता लेकिन रेगिस्तान में अथाह रेत के भंडार जैसे ही, पीछे छोड़ जाता है यादों का रेगिस्तान जिसमें प्यास तो होती है लेकिन वो कभी बुझ नहीं पाती। बहरहाल, घने जंगल, पहड़ियों और सुरंगों के कारण मोबाइल नेटवर्क बहुत अच्छा नहीं था और फ़ोन बार-बार कट रहा था। ट्रेन दो दिन बाद सुबह लगभग 7 बजे दिल्ली पहुँचने वाली थी और फिर पलाश के पास शाम को जयपुर के लिए दूसरी ट्रेन लेने से पहले जिग्ना के साथ बिताने के लिए पूरा दिन था। दोनों ने पहले ही मुलाक़ात तय कर ली थी। लेकिन आख़िर कब तक उन दोनों को इस तरह मिलते रहना था?

ख़ैर, इसी तरह हँसते-गाते मस्ती करते सफ़र के दो दिन कब बीत गए, पता ही नहीं चला। सुबह के 7.10 मिनट का समय, ट्रेन दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर पहुँच चुकी थी। लंबे सफ़र के बाद सभी थके हुए तो थे ही, उस पर जनवरी के महीने में दिल्ली की सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी। जो भी हो AIET की उस आख़िरी ट्रेन यात्रा में भी सबने जमकर मज़े किए जो यादों के पुलिंदे में तो बँध ही गए थे, थोड़े बहुत कैमरे के फ़ोटो रोल्स में भी क़ैद हो गए थे। वह भारत में डिजिटल युग की शुरुआत का समय था तो फ़ोटो रोल्स वाला मैनुअल कैमरा ही एक सीधा सरल उपाय था, यादों को क़ैद करने की नाकाम कोशिश का। इसी कोशिश में पलाश भी अभी तक छह फ़ोटो रोल्स ख़त्म कर चुका था। वैसे हम डिजिटल युग से पहले ही ज़्यादा अच्छे थे। मैनुअल कैमरे में हर एक फ़ोटो क्लिक करने के बाद देखना कि कितनी बाक़ी रह गई और फिर हर बार फ़ोटो क्लिक करने से पहले सोचना। आज-कल के बैचलर इस बात को शायद कभी ना समझ पाएँ। एक बात तो तय है कि पहले फ़ोटोज़ के साथ-साथ उनमें क़ैद यादें भी वज़नी होती थीं, लेकिन आजकल के डिजिटल ज़माने में डिजिटल फ़ोटोज़ के साथ-साथ यादें भी हल्की हो गई हैं।

आधिकारिक रूप से तो टूर पंतनगर पहुँचकर ही पूरा होना था लेकिन बहुत सारे बच्चे अन्य राज्यों से भी थे और दिल्ली से घर लौटने में उन्हें सहूलियत थी। इसीलिए ज़्यादातर लोग दिल्ली पहुँचकर अपने-अपने घरों के लिए अपनी सुविधानुसार रवाना हो गए थे। एक हफ़्ते बाद ही नया सेमेस्टर शुरू होने वाला था तो घर पर सिर्फ़ हफ़्ते भर की छुट्टी ही मिलने वाली थी। पार्थ और UD को तो पंतनगर तक लौटना ही था क्योंकि पार्थ उत्तराखंड से था और UD तो पंतनगर में ही रहता था। पलाश ने समय ख़राब ना करते हुए पार्थ और UD के साथ ही बाक़ी लोगों को भी अलविदा कहा और अपना बैग लेकर स्टेशन से बाहर निकल गया। पलाश ने स्टेशन के बाहर से तुरंत ही देव के घर मयूर विहार के लिए ऑटो ले लिया क्योंकि जयपुर के लिए ट्रेन तो शाम को थी और उससे पहले उसे जिग्ना से भी तो मिलना था।

देव को तो पलाश और जिग्ना की मुलाक़ात के बारे में पहले से ही पता था। पलाश लगभग 8.30 बजे देव के घर पहुँचा। फिर पलाश ने नहा-धोकर देव के साथ ब्रेकफ़ास्ट किया और अगला एक घंटा तो दोनों भाइयों ने टूर की बकैती साझा करते हुए ही निकाल दिया। पलाश, लंबे टूर और दो रातों के ट्रेन के सफ़र से काफ़ी थका हुआ था लेकिन फिर भी वह अपने आप को ऊर्जावान महसूस कर रहा था, आख़िर बात जिग्ना से मुलाक़ात की जो थी। इससे पहले कि पलाश जिग्ना से मिलने के लिए निकलता, उसने टूर में क्लिक किए सारे फ़ोटो रोल्स प्रिंट के लिए देव को दे दिए। देव का अपना ख़ुद का काम फ़ोटोग्राफ़ी और वीडियोग्राफ़ी से ही संबंधित था, इसीलिए पलाश का काम बहुत सस्ते में होने वाला था। घर से हफ़्ते भर की छुट्टियों के बाद फिर वापस पंतनगर तो जाना ही था, तो वापस दिल्ली आना भी तय था, तब तक सारे फ़ोटोज भी प्रिंट हो जाते जिन्हें पलाश अपने साथ ले जा सकता था।

नियति ने सारी कड़ियाँ पहले ही जोड़ी हुई थीं। देव का संबंधित क्षेत्र में कार्य करना, फिर टूर की फ़ोटोज़ दिल्ली में प्रिंट होना भी उनमें से ही एक कड़ी थी। देखते हैं, कैसे नियति द्वारा नियत यह सारी कड़ियाँ एक-एक करके उस समय जुड़ गईं, जब पलाश और जिग्ना अपने लिए पहले से ही निर्धारित जीवन के उस महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँचे, जिसने सब-कुछ बदल दिया।

जिग्ना की सुविधानुसार मुलाक़ात का समय 11 बजे तय हुआ था और जगह हर बार की तरह EDM मॉल। जैसा कि पलाश की हमेशा कोशिश रहती थी कि जिग्ना को इंतज़ार ना करना पड़े, वह ठीक 10 बजे देव के घर से निकल गया था, ताकि समय से थोड़ा पहले ही पहुँच जाए। हमेशा की तरह लगभग 11 बजे जिग्ना का मॉल के पीछे वाले STD से फ़ोन आ गया। दोनों प्रेम-पंछी इस तरह से मिले, जैसे मानो, ना जाने कब के बिछड़े हों। प्यार भी बड़ी अजीब चीज़ है, दूर हों तो एक पल भी पूरी सदी के समान लंबा लगता है और जब पास हों तो लगता है जैसे सदियाँ भी पल भर में ही गुज़र गई हों। आज भी हर बार की तरह दोनों के पास सिर्फ़ कुछ ही घंटे थे, जो कि पलक झपकते ही गुज़र जाने वाले थे। फिर शाम 5.15 पर पलाश को जयपुर लिए ट्रेन भी पकड़नी थी। इधर-उधर की भागदौड़ की बजाय दोनों ने मॉल में ही समय व्यतीत करने का निर्णय लिया और टॉप फ़्लोर पर मॉल के फूड कोर्ट में बैठकर इत्मि‍नान से बातों का सिलसिला शुरू हो गया। ये प्रेम-पंछी कुछ अलग ही मिट्टी के बने होते हैं, बातें उनकी ऐसे होती हैं कि मानो अपनी रग-रग में बसा हर एहसास एक-दूसरे से साझा कर लेना चाहते हों, ताकि बातों को भी बीच में आने का मौक़ा न मिले। पलाश ने टूर में हुई हर घटना के बारे में जिग्ना को बताया और उसके लिए उपहार स्वरूप लाई वो छोटी-छोटी प्यार की निशानियाँ भी उसे दीं। जिग्ना को स्टोन ज्वैलरी का सेट और दोनों का नाम गढ़ा हुआ शंख बहुत पसंद आया।

जिग्ना, पलाश के साथ अपने प्यार के यादगार पलों को बिताकर बहुत ख़ुश थी, लेकिन साथ ही भविष्य के लिए अब और भी अधिक चिंतित थी। उसके पिता अब उसकी शादी को लेकर पहले से भी ज़्यादा गंभीर थे और जल्द-से-जल्द लड़का देखकर उसकी शादी कर देना चाहते थे। जिग्ना ने यह सारी बात पलाश को भी बताई और यह भी आशंका जताई कि अगर उसके पिता को उन दोनों के बारे में कुछ भी पता चला तो मुश्किलें और भी अधिक बढ़ जाएँगी। हालाँकि, इन सब संभावनाओं के बाद भी पलाश के साथ अपने भविष्य को लेकर जिग्ना का निर्णय दृढ़ था। जिग्ना का यह दृढ़ निश्चय ही पलाश की एक बहुत बड़ी ताक़त भी थी जो उसमें नये आत्मविश्वास का संचार कर रही थी। एक बार फिर पलाश ने जिग्ना से वादा किया, “सही समय आने पर वो सब-कुछ सँभाल लेगा। फिर चाहे कुछ भी क्यों ना हो।” साथ ही उसने जिग्ना को फिर याद दिलाया कि जब वो मुश्किल समय आएगा तो उसे पहला क़दम उठाना होगा और उसके बाद सारी ज़िम्मेदारी उसकी होगी। असल में यह पलाश का बहुत ही सुलझा हुआ निर्णय था कि पहले जिग्ना को उसके पास आना होगा क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि उसकी प्रेम-कहानी का भविष्य जिग्ना के आख़िरी फ़ैसले पर ही टिका हुआ था और यह तो मुश्किल घड़ी आने पर ही पता चलने वाला था कि क्या होना है?

इन्हीं सब क़समों, वादों और यादगार पलों के साथ समय निकल गया और लगभग 3 बज गए थे। अगले हफ़्ते वापस लौटते समय फिर मिलने के वादे के साथ पलाश, मयूर विहार के लिए निकल गया। देव के घर पहुँचते-पहुँचते 3.45 हो गए थे। पलाश ने कुछ देर जिग्ना और अपने बारे में बात करते हुए ही देव के साथ चाय पी और फिर लगभग 4.10 पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकल गया। दिल्ली से जयपुर तक छह घंटे का सफ़र था और पलाश को जनरल डिब्बे में ही यात्रा करनी थी क्योंकि हर बार की तरह ही रिज़र्वेशन नहीं था। टूर पूरा हो चुका था और जिग्ना से मिलने के बाद अब वह सुकून की साँस ले रहा था। आख़िरकार, अब पलाश घर जा रहा था लेकिन उसके दिलो-दिमाग़ में आने वाले समय को लेकर एक अजीब-सा संघर्ष चल रहा था। वह हर समय बस जिग्ना और उसकी शादी के बीच आने वाली सारी सकारात्मक और विपरीत परिस्थितियों के बारे में ही सोच रहा था।

ना जाने क्यों उसे अब एहसास होने लगा था कि वो मुश्किल समय अब बहुत जल्दी ही आने वाला है। लेकिन, कब? कहाँ? कैसे? उसके पास इन सब सवालों के जवाब फ़िलहाल नहीं थे।

यही सब सोचते-सोचते ट्रेन में छह घंटे कैसे निकल गए पलाश को पता ही नहीं चला। बहरहाल, थके-हारे रात के 11.15 पर पलाश जयपुर पहुँच ही गया था। घर पर माता-पिता उसका इंतज़ार कर रहे थे और थोड़े चिंतित भी थे क्योंकि वह टूर उसकी अब तक की सबसे लंबी यात्रा थी। ख़ैर, अब वो घर पहुँच गया था तो माता-पिता ने भी चैन की साँस ली। पलाश ने खाना खाया और थोड़ी बातचीत के बाद कन्याकुमारी से पूजा घर के लिए ख़रीदा हुआ बड़ा शंख भी माता-पिता को दिया। फिर माता-पिता के स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बाद वह सोने के लिए चला गया।

घर तो आख़िर घर ही होता है, टूर के बाद पिछले तेईस दिनों में अब पलाश बेफ़िक्री और सुकून वाली नींद सो रहा था। अगली सुबह पलाश एकदम तरोताज़ा, एक नई स्फूर्ति से भरा हुआ उठा। अपने रोज़मर्रा के काम से निपटकर पलाश ब्रेकफ़ास्ट कर रहा था कि माँ ने बताया कि उन्हें कुलदेवी के दर्शन के लिए जाना है और वो उसी के आने का इंतज़ार कर रहे थे। पलाश बचपन से ही कुलदेवी और मंदिर के बारे में सुनता तो आया था लेकिन आज तक कभी वहाँ गया नहीं था। परिवार की कुलदेवी के यहाँ पलाश अपनी अभी तक की उम्र में नहीं गया था, सुनने में विचित्र था लेकिन सच तो यही था। इसके पीछे जो भी कारण रहा हो, कुलदेवी और पलाश को लेकर एक रोचक कहानी थी जो वो अपने माता-पिता से बचपन से सुनता आया था।

पलाश के जन्म के समय माँ को स्वास्थ्य संबंधी काफ़ी समस्या हो रही थी और कोई दवा असर नहीं कर रही थी। ऐसे में माँ के साथ-साथ बच्चे की जान को भी ख़तरा बन आया था। माता-पिता के अनुसार जब कोई दवा काम नहीं कर रही थी तो कुलदेवी के आशीर्वाद से ही पलाश का जन्म सही सलामती से हो पाया था। पलाश के जन्म के बाद ही कुलदेवी ने पुजारी के ज़रिये यह कह दिया था, “जब भी इस बच्चे की शादी होगी तो घर जाने से पहले नवविवाहित जोड़े को मेरे मंदिर पर आना होगा।”

हालाँकि, पलाश को इन सब बातों पर बहुत अधिक विश्वास नहीं था, लेकिन यह पलाश की नियति ही थी कि एक ओर तो वह जिग्ना के साथ जीवन भर के लिए शादी की डोर में बँध जाने का निर्णय कर चुका था। दूसरी ओर जिस कुलदेवी के दर्शन का मौक़ा उसे जन्म के बाद पिछले तेईस सालों में नहीं मिल पाया था, आज उसे वहीं जाने का भी मौक़ा मिल रहा था। क्या यह सारी बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं?

क्या कुलदेवी ने ख़ुद पलाश को बुलाया था क्योंकि वो जिग्ना के साथ शादी के बंधन में बँधने वाला था?

और क्या पलाश और जिग्ना का मुश्किल समय अब बहुत क़रीब आ चुका था?

इन सब सवालों के जवाब तो समय के पास ही थे, लेकिन पलाश को यह सब बातें कहीं-न-कहीं जल्द ही आने वाली मुश्किलों का एहसास तो करवा ही रही थीं।

पलाश माता-पिता की बात मानकर कुलदेवी के दर्शन को जाने के लिए तैयार हो गया था। अगले दिन ही वह माता-पिता के साथ कुलदेवी के मंदिर के लिए निकल गया, जो कि जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर, एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित था। पहाड़ी की चोटी पर मंदिर तक पहुँचने के लिए सिर्फ़ सीढ़ियाँ ही एक रास्ता था। अब दर्शन तो होने ही थे, कुलदेवी ने ख़ुद जो पलाश को बुलाया था। कुछ घंटों में 700 सीढ़ियाँ चढ़कर, आख़िरकार देवी के दर्शन हुए। पलाश देवी के मंदिर के वातावरण में फैली पवित्रता और आध्यात्मिकता से अपने आपको दूर नहीं रख पाया। देवी के दर्शन के दौरान उसके मन से बस एक ही आवाज़ निकली, “आप तो मेरे और जिग्ना के बारे में सब जानते हो और अब सब-कुछ आपके हाथों में है, मैं तो बस ज़रिया मात्र हूँ।”

कुलदेवी के मंदिर के आध्यात्मिक वातावरण ने एक ग़ज़ब का आत्मविश्वास पलाश में भर दिया था। उसने ख़ुद कुलदेवी से अपनी बात साझा करके, अपने अंतर्मन को तो हल्का कर ही लिया था। आगे देखना यह था कि कुलदेवी ने जिग्ना के साथ उसकी प्रेम-कहानी की नियति किस प्रकार लिखी है।

सत्य ही है, हमारे प्रयास और दृढ़ निश्चय ही हमें अपने भविष्य की ओर अग्रसर करते हैं और फिर सारी कायनात आपके साथ आपके सफ़र में चल पड़ती है। पहले हाजी अली, फिर सिद्धिविनायक और आज कुलदेवी, सब कहीं-न-कहीं पलाश के साथ ही तो चल पड़े थे। जिग्ना के साथ उसकी प्रेम-कहानी के साक्षी बनकर।

जॉब कॉल

जनवरी 2007

जिस घर में हमारा पूरा बचपन बीता होता है, जिसके आँगन में हम खेलकर बड़े होते हैं, उस घर से एक अलग ही अनकहा-सा नाता होता है वो सिर्फ़ तब महसूस होता है जब हम उस घर में होते हैं। चाहे हम पूरी दुनिया में घूम आएँ लेकिन वो घर ही वो जगह होती है जहाँ पहुँचकर हम सारी तकलीफ़ें, सारे काम भूलकर अपने बचपन में लौट जाते हैं और फिर समय ऐसे गुज़रता है कि मानो घर की दीवारें आपको जीवन भर वहीं क़ैद कर लेना चाहती हों। घर की बोलती-सी दीवारों और चहकते से आँगन में एक हफ़्ता कैसे निकला, पलाश को पता ही नहीं चला। दो दिन बाद ही पंतनगर में नये सेमेस्टर की शुरुआत थी और उसे सुबह वाली ट्रेन से ही दिल्ली के लिए निकलना था। दिन में जिग्ना से मुलाक़ात, फिर रात को रानीखेत एक्सप्रेस का जनरल डिब्बा। अभी तक तो यही प्लान था, आगे देखते हैं नियति को क्या मंज़ूर था?

पिछले एक हफ़्ते में पलाश की जिग्ना से 2-3 बार ही बात हो पाई थी। पलाश ने सुबह निकलने के लिए अपना सारा समान पैक कर लिया था। सब कुछ ठीक ही था लेकिन ना जाने क्यों वो कुछ असहज महसूस कर रहा था। उसे लग रहा था जैसे कुछ ग़लत हो रहा है, लेकिन क्या? उसे इस बारे में कोई अंदेशा नहीं था। इसीलिए वह जिग्ना से मिलने को बेताब था और जल्दी से रात गुज़रने का इंतज़ार कर रहा था। इन्हीं सब के बीच वह अपने रूम में सोने की नाकाम कोशिश कर रहा था। वह बार-बार अपना फ़ोन भी चेक कर रहा था क्योंकि सुबह से ही जिग्ना का कोई फ़ोन या मैसेज भी नहीं आया था। तभी अचानक से उसने महसूस किया कि‍ फ़ोन वाइब्रेट हो रहा था। रात के 10.30 का समय था, अच्छी बात थी कि उसका फ़ोन वाइब्रेशन मोड पर था, नहीं तो सब जाग जाते। हालाँकि पलाश दूसरे कमरे में था फिर भी तुरंत ही उसने अपने आप को पूरा रज़ाई में ढक लिया, वो नहीं चाहता था कि ग़लती से भी माता-पिता को पता चले।

पल भर में ही पलाश ने देखा कि फ़ोन जिग्ना के पिता के नंबर से आ रहा था। पिता के नंबर से कॉल आते देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया था, रात को इतनी देर से उसे जिग्ना के कॉल की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी और वो भी पिता के नंबर से। पलाश को पहले ही असहज महसूस हो रहा था और अब पिता के नंबर से फ़ोन आता देखकर वह संशय में पड़ गया था। बहरहाल, हमेशा की तरह पलाश ने कुछ ही सेकंड में सारी परिस्थिति को मद्देनज़र रखते हुए अपने आप को फ़ोन उठाने के लिए तैयार कर लिया। अगले ही पल, इससे पहले की फ़ोन कट जाता, उसने फ़ोन उठा लिया लेकिन पूरी सावधानी बरतते हुए उसने कुछ भी बोलने की जगह सिर्फ़ सुनना ही बेहतर समझा। अगले ही पल जब पलाश ने दूसरी ओर से जिग्ना के पिता की आवाज़ सुनी तो उसे जैसे बिजली का झटका लग गया। उस पर और भी हैरत की बात यह थी कि जिग्ना के पिता ने बिना कुछ कहे सुने ही पलाश को गालियाँ देना शुरू कर दिया था।

अब ऐसा तो पलाश ने दूर-दूर तक नहीं सोचा था। फ़िलहाल, यह सच में हो रहा था और पलाश बिना एक शब्द बोले जिग्ना के पिता को सुन रहा था। वो ग़ुस्से में पलाश को जिग्ना से दूर रहने की चेतावनी दे रहे थे। लगभग 5 मिनट तक अपनी भड़ास निकालने के बाद भी जब दूसरी ओर से पलाश ने कुछ नहीं बोला तो जिग्ना के पिता ने ग़ुस्से में उसे उसके पिता को फ़ोन देने को कहा। पलाश अब तक समझदारी से काम लेते हुए सिर्फ़ सुन रहा था लेकिन यह जवाब देने का सही समय था और फिर पलाश ने बहुत मद्धिम आवाज़ में जवाब दिया, “मेरे माता-पिता सो चुके है, अगर आप उनसे बात करना चाहते हैं तो सुबह फ़ोन कर सकते हैं।” इतना सुनना था कि जिग्ना के पिता ने फ़ोन कट कर दिया।

अचानक से कुछ ही मिनटों में बहुत कुछ हो गया था। पलाश यक़ीन नहीं कर पा रहा था कि जिग्ना के पिता को उनके बारे में पता चल चुका था। उसे लग रहा था जैसे वो सपना देख रहा है। फ़िलहाल वो सब कुछ सच था और वो फ़ोन कॉल पलाश के लिए बहुत सारे सवाल पीछे छोड़ गया था। यह तो पक्का था कि जिग्ना के पिता को उनके बारे में पता चल चुका था।

लेकिन क्या जिग्ना ठीक थी? उसके पिता को उनके बारे मैं कैसे पता चला? उनको पलाश का मोबाइल नंबर कैसे मिला? क्या जिग्ना उससे मिलने कल आ पाएगी? और सबसे बड़ी बात यह थी कि पलाश का अगला क़दम क्या होगा?

मोहब्बत में कुछ कर गुज़रने का जुनून ऐसा होता है कि आँखें नींद से बेवफ़ाई कर ही बैठती हैं। पलाश उस रात एक मिनट भी नहीं सो पाया और फिर सुबह 4 बजे ही दिल्ली के लिए ट्रेन भी पकड़नी थी। पलाश 3.30 बजे ही अपना सारा समान लेकर निकलने के लिए तैयार हो गया था। यह पलाश की नियति ही थी कि यह सब उस समय घटित हुआ जब उसे सुबह ही दिल्ली के लिए निकलना था। यह बिल्कुल ऐसा था मानो जैसे नियति ने कुछ अधूरा काम पूरा करने के लिए उसे संदेशा भेजा और उसे जाकर वो अधूरा काम पूरा करना था। हालात कुछ ऐसे बने थे कि पलाश उस फ़ोन कॉल के बारे में अपने माता-पिता को भी नहीं बता सका और फिर यह सही ही हुआ, नियति द्वारा जो जंग उसके लिए तय थी वो तो उसे अकेले ही लड़नी थी। फिर होना तो वही था जो नियति को मंज़ूर था। जाते-जाते माता-पिता ने दिल्ली में सतर्क रहने और देव के घर के अलावा कहीं और नहीं जाने की हिदायत फिर से दी। उसने माता-पिता को अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त किया और उनका आशीर्वाद लेकर दिल्ली के लिए निकल गया।

जैसे-जैसे ट्रेन दिल्ली की ओर बढ़ रही थी, पलाश का ख़ुद अपने आप से ही वैचारिक संघर्ष भी बढ़ता जा रहा था। बहुत सारे सवाल थे जिनके जवाब ढूँढकर उसे अगले क़दम के लिए उचित निर्णय लेना था।

अब आगे वह क्या और कैसे करेगा? क्या उसे जिग्ना को कॉल करना चाहिए या फिर उसके कॉल का इंतज़ार, लेकिन कब तक? जिग्ना के साथ क्या घटित हुआ था और इसकी जानकारी उसे कैसे मिलेगी?

ऐसे ही और ना जाने कितने सवालों से जूझते हुए भी पलाश ने अपने आप को संयम में रखकर, जल्दीबाज़ी में कोई भी क़दम उठाने से रोका हुआ था।

असल में सारी परिस्थितियाँ जैसे मानों, पलाश के साथ ही थी और उसे बस उसकी नियति की ओर खींच ले जा रही थी। जिग्ना के पिता का कॉल रात में ही आना भी, पलाश के पक्ष में था। अगर कहीं कॉल दिन में आया होता तो कुछ और ही बात होती। फिर रात में कॉल आने की वजह से ही वो अपने माता-पिता को कॉल की जानकारी लगने से भी बच पाया था। बहरहाल, ट्रेन तेज़ी से दिल्ली की ओर बढ़ रही थी। सारी परिस्थितियों का बार-बार बड़ी गहराई से विश्लेषण करने के बाद पलाश ने तय कर लिया था कि वो जिग्ना के कॉल या मैसेज का इंतज़ार करेगा। उसे पूरा भरोसा था कि जिग्ना उस तक पहुँचने या कॉल और मैसेज करने की कोशिश ज़रूर करेगी। वैसे भी उस समय जिग्ना का इंतज़ार करने से बेहतर और कुछ नहीं था क्योंकि उसे जिग्ना के साथ हुई परिस्थिति के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था। ऐसे में जल्दबाज़ी में उठाया गया कोई भी क़दम मामले को और भी गंभीर बना सकता था।

देव के घर पहुँचते-पहुँचते पूरे 12 बज ही गए थे और अभी तक जिग्ना का कोई कॉल या मैसेज नहीं आया था। पलाश जिग्ना को लेकर परेशान तो था ही साथ ही वो अपने आप से सवाल पूछ रहा था कि “क्या यही वह मुश्किल समय था जिसका वो इंतज़ार कर रहा था?

बहरहाल, उसे अभी ना तो जिग्ना के तरफ़ की और ना ही निकट भविष्य की किसी भी परिस्थिति का कोई अंदाज़ा था। लेकिन एक बात तय थी कि नियति, अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, हर क़दम उसके पक्ष में थी और उसे होनी की ओर धकेल रही थी। फ़िलहाल, देव के घर पहुँचते ही उसने सारी बात उसको बताईं। देव ही अकेला एक ऐसा व्यक्ति था जो पलाश के जिग्ना से मिलने से पहले ही दोनों को जानता था और दोनों की प्रेम-कहानी कहानी को क़रीब से समझता था। पलाश से साथ हुई घटना को सुनकर देव भी चिंतित हो गया था। उसे जिग्ना से ज़्यादा चिंता पलाश की थी क्योंकि वो जानता था कि आगे अगर बात बिगड़ी तो पलाश का करियर भी ख़राब हो सकता था। चूँकि, पलाश का नंबर जिग्ना के पिता को मिल चुका था इसीलिए उसकी सुरक्षा के मद्देनज़र देव ने उसे फ़ोन स्विच ऑफ़ कर देने को कहा। अपनी बात जारी रखते हुए देव ने कहा, “अगर जिग्ना को कॉल करना हुआ तो तेरा नंबर बंद आने पर वह मुझे कॉल करेगी।” क्योंकि जिग्ना तो यह तो पता ही था कि पलाश उस दिन दिल्ली में था। देव ने पलाश को भरोसा दिलाया कि जिग्ना पक्का कॉल करेगी और हमें उसका इंतज़ार करना है। देव की बात समझते हुए सुरक्षा की दृष्टि से पलाश ने तुरंत ही अपना फ़ोन बंद कर दिया।

पलाश काफ़ी परेशान था जो कि स्वाभाविक था, आख़िर उसकी प्रेम-कहानी का सवाल था। देव ने सारी स्थिति को देखते हुए माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए पलाश को चाँदनी चौक चलकर कुछ शॉपिंग करने कहा। वैसे भी पलाश जब भी देव से मिलता था तो उनका शॉपिंग करना तो हर बार का नियम था ही लेकिन आज हालात की भी यही माँग थी। लंच करने के बाद दोनों भाई बाइक से चाँदनी चौक के लिए निकल गए। बाइक पर चलते हुए भी रास्ते भर पलाश देव के साथ संभावित परिस्थितियों और उनके हल को लेकर ही विचार-विमर्श करता रहा। हमेशा की तरह ही मुश्किल समय को लेकर दोनों भाइयों के बीच हो रहे इस विचार-विमर्श से पलाश को आने वाले समय के लिए आत्मबल तो मिल ही रहा था और कहीं-न-कहीं सारी संभावित स्थितियाँ को अब पलाश और अधिक अच्छे से समझ पा रहा था। हालाँकि, असल परिस्थितियों का तो अभी सामने आना बाक़ी था।

लगभग 3 बजे का समय हो रहा था जब वो दोनों चाँदनी चौक मार्केट पहुँचे। सर्दियों का समय था तो पलाश को एक सफ़ेद रंग की ऊनी कैप पसंद आ गई और उसने तुरंत ही उसे ख़रीद लिया। नियति यहाँ भी पलाश का पीछा कर रही थी। उस सफ़ेद रंग की ऊनी कैप का ख़रीदा जाना भी नियति द्वारा पलाश के आने वाले समय के लिए की जा रही तैयारियों में ही शामिल था। जिग्ना और पलाश के जीवन की कभी न भूलने वाली उस अप्रत्याशित घटना में उस सफ़ेद ऊनी कैप ने कैसे अपने हिस्सेदारी निभाई, यह जानने के लिए अगले अध्याय तक तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा। वो सफ़ेद ऊनी कैप आज भी पलाश और जिग्ना की प्रेम-कहानी के उस जीवंत घटनाक्रम की कहानी कहती है और पलाश के पास सुरक्षित है।

जब नियति अपने पर आती है तो हर क़दम साये की इस तरह पीछा करने लगती है जैसे मानो बिछड़ी हुई मोहब्बत हो। अभी दोनों भाई मार्केट में कुछ ही दूर निकले थे कि अचानक से देव के फ़ोन पर जिग्ना का कॉल आ गया, जिसका पलाश पिछली रात से ही इंतज़ार कर रहा था। देव ने तुरंत फ़ोन उठाया और कुछ ही सेकंड की बात के बाद फ़ोन कट गया। जिग्ना ने पलाश से बिना बात किए ही फ़ोन काट दिया था, पलाश समझ ही गया था कि कुछ गड़बड़ तो ज़रूर है। कुछ बताने से पहले देव ने जल्दी चलने को कहा। अगले ही पल दोनों दौड़ते हुए बाइक स्टैंड पर पहुँचे और कुछ ही मिनट में वो बाइक पर हवा से बातें करते हुए देव के घर की ओर जा रहे थे।

बाइक पर ही देव ने पलाश को बताया कि जिग्ना दिपेन के घर आ गई थी। दिपेन, देव और जिग्ना दोनों का ही दोस्त था और उसे इस प्रेम-कहानी के बारे में थोड़ा-बहुत पता भी था, हालाँकि पलाश से उसकी जान-पहचान कम ही थी। दिपेन का घर देव के घर से कुछ ही दूरी पर था। नियति का फेर था कि जिग्ना दिपेन के घर का पता जानती थी क्योंकि वसुंधरा से पहले वो लोग उसी क्षेत्र में रहते थे। वो दिपेन के घर पहले एक बार आ चुकी थी लेकिन देव के घर का पता वो नहीं जानती थी। वो पलाश से मिलना चाहती थी लेकिन उस दिन बात हर बार जैसी नहीं थी। सारी घटना की वजह से वो बहुत परेशान थी और फिर समय भी उसके पास कम था। इसीलिए, पलाश का फ़ोन जब बंद आया तो वो सीधा दिपेन के घर आ गई थी क्योंकि वो जानती थी कि पलाश उस दिन देव के साथ दिल्ली में था और दिपेन का घर देव के घर के नज़दीक ही था। दिपेन के घर पहुँचकर वो उसकी मदद से देव के घर आना चाहती थी, मगर दिपेन के कहने पर उसने पहले देव को फ़ोन किया था। देव ने पलाश को बताया कि जिग्ना फ़ोन पर रो रही थी और वो उससे आमने-सामने बात करना चाहती थी।

पलाश पहले ही बहुत सारे अनुत्तरित सवालों से घिरा हुआ था और अब उसके लिए हालात और भी मुश्किल हो गए थे।

जिग्ना ने उससे बात किए बिना ही फ़ोन क्यों कट कर दिया था? ऐसी क्या बात थी जो वो उससे सिर्फ़ आमने-सामने मिलकर ही करना चाहती थी? उसके रोने के पीछे पूरी वजह क्या थी?

पलाश, देव से बात करते हुए इन सभी सवालों के संभव जवाब खोजने में लगा हुआ था। साथ ही अब लगभग 3.30 बज चुके थे, और सर्दियों का मौसम होने के कारण अगले 3 घंटे में ही पूरा अँधेरा हो जाने वाला था इसीलिए देव फ़ुल स्पीड पर बाइक चला रहा था।

मात्र 20 मिनट में ही वो लोग दिपेन के घर पहुँच गए थे। हालाँकि, पलाश दिपेन से देव के घर पर पहले ही मिल चुका था लेकिन यह पहला मौक़ा था जब वह दिपेन के घर आया था। सारी परिस्थितियों और जिग्ना की हालत को देखते हुए, दिपेन घर के बाहर ही चिंतित-सा उनका इंतज़ार कर रहा था। दिपेन ने बताया की जिग्ना पहली मंजिल पर है, देव और पलाश दोनों ही तेज़ी से ऊपर की ओर दौड़े। कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था, जिग्ना को देखकर पलाश अंदर गया और देव, दोनों को एकांत में बात करने का मौक़ा देते हुए, बाहर ही रुक गया।

जिग्ना की आँखों में आँसू भरे हुए थे और वो सिसक-सिसककर रो रही थी। पलाश जिग्ना की मासूम आँखों में भरा हुआ ग़ुस्सा भी साफ़ महसूस कर पा रहा था। ऐसे लग रहा था कि वो बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन मगर पलाश को देखकर कुछ नहीं कह पा रही थी। पलाश को देखते ही उसकी आँखों में भरे हुए आँसू फूट पड़े थे। जिग्ना को पलाश ने कभी भी इतने तनावपूर्ण और गंभीर परिस्थिति में नहीं देखा था। फिर भला वो अपने आँसू कैसे रोक पाता। बिना एक भी शब्द कहे दोनों एक-दूसरे को देखे जा रहे थे और फिर पलाश की आँखों से भी अश्रुधारा बह पड़ी।

पलाश ने जिग्ना की आँखों में इतना ग़ुस्सा पहले कभी नहीं देखा था। जो भी परिस्थिति रही हो, उन दोनों के बीच प्यार का अटूट बंधन तो था ही जो उन्हें आज यहाँ तक खींच लाया था। पलाश महसूस कर पा रहा था कि जिग्ना उससे ग़ुस्सा है, लेकिन क्यों? उसके पास ना तो उस सवाल का जवाब था और ना ही भावुकता से भरे उन नाज़ुक क्षणों में वो कुछ जानना चाहता था। बहरहाल, पलाश की उपस्थिति ने जिग्ना को काफ़ी हद तक शांत कर ही दिया था। इससे पहले कि पलाश उससे कुछ पूछता, जिग्ना से उससे पूछा, “कल रात को फ़ोन पर तुमने मेरे पिता से क्या कहा था?”

पलाश ने कहा, “मैंने तो कुछ भी ग़लत नहीं कहा। तुम्हारे पिता ही गालियों पर गालियों दिए जा रहे थे और तुमसे दूर रहने की चेतावनी भी दे रहे थे और जब उन्होंने मेरे पिता से बात करवाने को बोला तो सिर्फ़ एक वाक्य जो मैंने तुम्हारे पिता से कहा वो यह था कि, मेरे माता-पिता सो रहे गए हैं। अगर आप बात करना चाहते हैं तो सुबह कॉल कर सकते हैं।”

असल में जिग्ना के पिता ने दोनों के बीच ग़लतफ़हमियाँ पैदा करने के लिए पलाश को निशाना बनाया था। उन्होंने जिग्ना को बोला था कि पलाश ने उन्हें अपनी बेटी को पहले सँभालने की नसीहत देते हुए फ़ोन काट दिया था। फ़िलहाल, जिग्ना और पलाश के बीच जो नियति का नियत किया हुआ प्यार का अटूट बंधन था, वो इन छोटी-मोती ग़लतफ़हमियों से तो टूटने वाला नहीं था। पलाश से बात करने के बाद, बीती रात की सारी बातें अब जिग्ना के सामने साफ़ हो चुकी थीं। फिर जिग्ना ने बीती रात की सारी घटना पलाश को बताई।

पलाश और उसकी प्रेम-कहानी के बारे में पता चलने के बाद, जिग्ना को अपने ही घर में पिता द्वारा जिस मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ा था उसे शब्दों में बयाँ करना तो शायद संभव नहीं होगा। लेकिन एक बात तय थी, “जैसे हवा लगने पर सुलगते हुए कोयले बुझने के बजाय तेज़ी से जलने लगते हैं, ठीक वैसे ही मोहब्बत मुश्किलों में और गहरी हो जाती है।” बिल्कुल ऐसे ही इस घटना ने पलाश को जिग्ना के और क़रीब ला दिया था और वो जिग्ना के साथ अपने भविष्य के इरादों को लेकर और भी दृढ़ हो गया था।

जब जिग्ना के पिता को पलाश के बारे में पता चला तो उन्होंने घर में हँगामा खड़ा कर दिया। उन्होंने इन सब के लिए जिग्ना की माँ को भी ज़िम्मेदार ठहराया जबकि उन्होंने तो बहुत पहले ही जिग्ना को पलाश से मिलने से मना कर दिया था। लेकिन जिग्ना के पिता को सिर्फ़ अपनी ही बात समझ आती थी। जिग्ना और उसकी माँ से सवाल-जवाब होने पर वो अपना हाथ उठाने में भी पीछे नहीं रहे थे। घर में यह सब ड्रामा होने के बाद उन्होंने जिग्ना से पलाश का नंबर लेकर उसे कॉल कर दिया था। कॉल के बाद पलाश को ही ग़लत ठहराते हुए, ग़लतफ़हमियाँ पैदा करने के लिए जिग्ना के पिता ने उसे झूठ बोल दिया था। यही कारण था कि जिग्ना पलाश से ग़ुस्सा थी और उससे आमने-सामने होकर आख़िरी बार बात करना चाहती थी। लेकिन अभी सब कुछ साफ़ हो चुका था।

पलाश को फ़ोन करने से पहले ही पिता से वाद-विवाद के दौरान जिग्ना ने पूरी दृढ़ता के साथ साफ़-साफ़ कह दिया था कि वो पलाश के अलावा किसी और से शादी कभी नहीं करेगी। जिग्ना ने बचपन से लेकर अभी तक कभी अपने पिता के कहे का विरोध नहीं किया था। जिग्ना का यह फ़ैसला सुनने के बाद घर में उसके लिए परिस्थितियाँ और भी मुश्किल हो गई थीं। किसी तरह उसने रात बिताई लेकिन दोपहर के बाद वो अपने आपको रोक नहीं पाई और पलाश से मिलने के लिए दिपेन के घर आ गई थी।

जिग्ना का दिपेन के घर आना भी जैसे नियति द्वारा नियत ही था। जैसा पलाश ने जिग्ना को कहा था, “जब समस्या तुम्हारे नियंत्रण से बाहर होने लगे तो तुम्हें पहला क़दम उठाते हुए मेरे पास आना होगा।” असल में ठीक वैसा ही हुआ था और जिग्ना पलाश के पास आ चुकी थी।

लेकिन क्या यह वही नज़ारा था जिसकी पलाश ने कल्पना करते हुए जिग्ना को वो शब्द कहे थे? अब आगे क्या होने वाला था? क्या सब-कुछ पहले जैसे सामान्य हो जाएगा? क्या जिग्ना अपने घर वापस चली जाएगी? या फिर यह एक नई ही कहानी की शुरुआत थी?

आख़िरी क़दम

जनवरी 2007

कभी-कभी प्यार में एक मुक़ाम तक पहुँचने के लिए आख़िरी क़दम की अहमियत शुरुआत से भी ज़्यादा हो जाती है और वही आख़िरी क़दम उस प्रेम-कहानी को अद्वितीय बना देता है। लगभग शाम के 4.30 बजे का समय। पिछले 30 मिनट से पलाश और देव से बात करते हुए जिग्ना अब रात के घटनाक्रम वाले सदमे से काफ़ी हद तक बाहर हो चुकी थी। घर पर चाहे जो भी कुछ हुआ हो, पिता ने पलाश के बारे में कुछ भी कहा हो, अभी वह पलाश के साथ थी और सारी हक़ीक़त जान चुकी थी कि पलाश ने कुछ भी ग़लत नहीं बोला था। उसे पलाश पर भरोसा था और अभी भी पलाश से अपने किए हुए वादे पर अटल थी।

स्थिति को सहज होते देख पलाश ने जिग्ना से पूछा कि इतना सब कुछ होने के बाद भी वो घर से बाहर आने में कैसे सफल हुई? उसने बताया कि पिता ने उसे घर से बाहर, यहाँ तक कि कोचिंग क्लासेज़ जाने तक को भी मना कर दिया था और माँ को भी इस बात के लिए सख़्ती से बोल दिया था। लेकिन बाद में जब पिता घर से बाहर थे तो उसने माँ को किसी तरह कोचिंग क्लासेज़ जाने के लिए मना लिया था। दूसरी ओर माँ को नहीं पता था कि जिग्ना के दिमाग़ में क्या चल रहा था और वो कोचिंग जाने के जगह दिपेन के घर चली आई थी।

पलाश ने कहा, “तुम्हारा आना तो ठीक था लेकिन अब वापस घर जाने पर तुम हालात को कैसे सँभालोगी? तुम्हारी माँ इस सारे मामले को कैसे सँभालेगी? मुझे लगता है कि तुम और माँ दोनों ही बड़ी समस्या में पड़ने वाले हो।”

पलाश अभी बोल ही रहा था कि जिग्ना ने उसके सारे सवालों का जवाब एक वाक्य में देते हुए दृढ़ता से कहा, “मैं वापस घर नहीं जाऊँगी।”

जिग्ना के इस सीधे साफ़ जवाब से पलाश हैरान रह गया, इसलिए नहीं कि वो घर जाने को मना कर रही थी। पल भर में ही पलाश के दिमाग़ में पिछले कुछ महीनों में हुई उनकी सारी बातें बिजली के गति से वापस घूम गई। पलाश आश्चर्य से भर उठा था कि क्या यह वही समय था जिसका वो कब से इंतज़ार कर रहा था? जैसा कि उसने जिग्ना को कहा था, “सही समय का इंतज़ार करने और मुश्किलें बढ़ने पर उसके पास चले आने को।” और उसी के अनुरूप क्या अब वह हमेशा के लिए उसके पास आ चुकी थी?

हम कितना ही क्यों ना सोच लें लेकिन नियति समय के साथ मिलकर आने वाली हर घड़ी को अपने अलग ही निराले अंदाज़ में लेकर आती है और इस निराले अंदाज़ का रौंगटे खड़े कर देने वाला रोमांच ही जीवन का असली मज़ा है। पलाश आज नियति के उसी रोमांच को प्रत्यक्ष जी रहा था। लेकिन, क्या इस रोमांच और सामने खड़ी परिस्थिति से गुज़रना इतना आसान था?

पलाश कुछ पलों के लिए स्तब्ध रह गया और कुछ नहीं बोल पाया। जिग्ना के साथ अपनी पूरी प्रेम-कहानी और सारी परिस्थितियों को सोचते हुए उसने अपने आप को शांत किया। वह जानता था कि ठंडे और शांत दिमाग़ से लिए गए निर्णय हमेशा ही बेहतर होते हैं। इसीलिए पलाश ने सारी बातों को ध्यान में रखते हुए सबसे पहले जिग्ना को घर वापस जाने को कहा। क्योंकि अगर वो घर नहीं जाती तो पलाश को अगला क़दम उठाना पड़ता जो कि सिर्फ़ उन दोनों की शादी था। उन परिस्थितियों में जब पलाश को अपनी ग्रेजुएशन पूरी करने में भी एक साल का समय और बाक़ी था, शादी करने का निर्णय सही नहीं था। फिर पलाश उस समय इन सब के लिए पूरी तरह तैयार भी नहीं था। फ़िलहाल, ये सब पलाश के भीतर बैठे एक तार्किक व्यक्ति के प्रथम विचार थे, जो अच्छी तरह जनता था कि जिग्ना अपने निर्णय को लेकर बहुत हठी है। ख़ैर, आख़िरी निर्णय तो जिग्ना की प्रेम-कहानी वाले पलाश को लेना था जो तार्किक होने के साथ-साथ ही अपनी ज़ुबान और वादों का भी पक्का था।

पलाश के वापस घर जाने को कहने पर जिग्ना थोड़ा चुप और गंभीर हो गई। कुछ पलों की चुप्पी के बाद जिग्ना ने पलाश से कहा, “अगर तुम कहते हो तो मैं आज जाऊँगी ज़रूर मगर अपने घर नहीं बल्कि इस दुनिया से ही चले जाऊँगी।”

पलाश बहुत अच्छी तरह जानता था कि जिग्ना अपने इरादों की पक्की है और वो जो कहती है वो ही करती है। जिग्ना की चुप्पी और गंभीरता से उसकी मानसिक स्थिति साफ़ झलक रही थी। उसकी आँखें बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह रही थी। पलाश को जिग्ना से कहे हुए अपने वो शब्द याद आ रहे थे, “जब तुम्हें लगने लगे कि परिस्थितियाँ तुम्हारे नियंत्रण में नहीं हैं, तो तुम्हें मेरे पास आना होगा और उसके बाद तुम मेरी ज़िम्मेदारी होगी।” पलाश की नियति ने आज उसके कहे हुए शब्दों को सच बनाकर उसके सामने ला खड़ा किया था। अब अगला क़दम उठाने की बारी पलाश की थी। वह अच्छी तरह समझ चुका था कि वो समय आ चुका है जिसका वह इंतज़ार कर रहा था।

पलाश अपने इरादों का पक्का था और अब अपने कहे हुए शब्दों और वादों पर खरा उतरना ही उसके प्यार की असल परीक्षा थी। जिग्ना अपने घर वापस ना जाने का फ़ैसला सुना के साफ़ कर चुकी थी कि अब बारी पलाश की थी। पलाश भी अगले क़दम के लिए तैयार था, लेकिन वो अगला क़दम क्या था और कैसे होना था?

इरादे अगर मज़बूत हों तो नियति ख़ुद-ब-ख़ुद रास्ता बना देती है। नियति, पलाश और जिग्ना को इस मोड़ तक ले आई थी तो कुछ-न-कुछ रास्ता भी ज़रूर बनाया ही होगा। देव भी उन दोनों के साथ था और शुरू से लेकर अब तक की हर बात से वाक़िफ़ था। वो भी समझ चुका था कि ये प्रेम-दीवाने तो कुछ कर के ही मानेंगे, ये मुश्किलें इन्हें नहीं डिगा पाएँगीं। नियति अब देव के मुँह से आगे का रास्ता बताने वाली थी।

देव ने अपने अंकल को यह सारा मामला बताकर उनकी सलाह लेने का सुझाव दिया। देव के अंकल उसके साथ ही वीडियोग्राफी और फ़ोटोग्राफी का काम करते थे। साथ काम करने के कारण ही उन्हें पहले से ही देव और जिग्ना के बारे में थोड़ा बहुत पता भी था। वह एक खुले विचारों वाले व्यक्ति थे और देव को पूरा भरोसा था कि वो ज़रूर मदद करेंगे। दूसरी तरफ़ पलाश सुनिश्चित नहीं था कि देव के अंकल इस मामले में उनकी मदद क्यों करेंगे? खैर, पलाश के पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था इसीलिए वो देव के सुझाव पर सहमत हो गया। उसे क्या पता था कि नियति ख़ुद ही उसके लिए आगे बढ़ने का रास्ता बना रही थी।

देव ने अपने अंकल को फ़ोन किया और पिछली रात से लेकर अभी तक के सारे मामले की संक्षिप्त जानकारी उनको दी। अंकल ने सीधे शब्दों में देव को कहा, “जिग्ना और पलाश दोनों को लेकर उनके घर आ जाए बाक़ी सारा मामला वो सँभाल लेंगे।”

पलाश जनता था कि देव की आंटी का स्वर्गवास हो चुका था और अंकल घर में अपनी चौदह साल की बड़ी बेटी और 12 साल के छोटे बेटे के साथ रहते थे, इसलिए उनके घर जाने में कोई समस्या भी नहीं थी। पलाश को अभी थोड़ा सुकून तो था ही क्योंकि देव के अंकल उनके माता-पिता के समान ही थे और उनका साथ मिलना अच्छी बात थी।

इतना सब कुछ होते हुए 5 बज गए थे। पलाश के क़दम आगे बढ़ने को तैयार थे लेकिन अभी तक भी मामला साफ़ नहीं था कि आगे क्या और कैसे होगा? पलाश अपनी सारी सकारात्मक ऊर्जा को दिमाग़ में केंद्रित करते हुए हर पहलू से आने वाली हर संभावित परिस्थिति का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहा था। वह अपने आप में एक नये जोश का संचार महसूस कर रहा था जिसकी वजह से उसका दिमाग़ सामान्य से अधिक तेज़ी से काम करता प्रतीत हो रहा था। जब मुश्किल सामने खड़ी हो तो इंसान की दिमाग़ी ताक़त और लड़ने की शक्ति दोनों ही दोगुना हो जाती है और ऐसे में इंसान वो भी कर जाता है जो उसकी क्षमता से बाहर होता है। बिल्कुल यही पलाश के साथ हो रहा था।

ख़ैर, आगे क़दम बढ़ाने और अंकल के घर जाने से पहले उसने अपने माता-पिता के बारे में सोचा और उन्हें एक बार इस बारे में बताने का निर्णय लिया। आगे बढ़ने से पहले वो जानना चाहता था कि माता-पिता की इस बारे में क्या राय है?

एक दृष्टि से पलाश का यह निर्णय सही भी था, बाक़ी करना तो उसे वही था जो वो ठान चुका था।

लेकिन कैसे? माता-पिता को सीधा तो बताना ठीक नहीं था। इसीलिए पलाश ने अपनी बहन को इस बारे में बताने का निश्चय किया। फिर माता-पिता तक तो निश्चित रूप से बात पहुँच ही जानी थी। हालाँकि, पलाश को इस बात का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि यह बात जानकार बहन की क्या प्रतिक्रिया होगी? लेकिन बता देने से, कम-से-कम यह संशय तो नहीं रहता कि उसने घरवालों को बताया नहीं। इसीलिए पलाश ने दृढ़ होकर, बिना समय गँवाए अपना फ़ोन स्विच ऑन किया और बहन को फ़ोन करके संक्षेप में सारी बात कह दी। पलाश को बहन से वो ही जवाब मिला जो कि एक बड़ी बहन से ऐसी स्थिति में मिलना चाहिए। बहन ने कहा, “शादी जैसे जीवन के बड़े निर्णय इस तरह जल्दीबाज़ी में नहीं होते हैं। तुम जिग्ना को उसके घर भेज दो और पहले अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करो ताकि तुम्हें इन सब के लिए तैयार होने का पूरा मौक़ा भी मिल जाए।” बहन अपने स्थान पर सही थी और यह सब जानकार थोड़ा चिंतित भी हो गई थी। पलाश ने भी बहन के साथ सहमति जताई और उसके कहे अनुसार ही करने के बात कहकर फ़ोन कट कर दिया।

असल में जो हालात थे, वो तो सिर्फ़ जिग्ना और पलाश ही समझ सकते थे। लेकिन पलाश का बहन को फ़ोन करके बताना भी ज़रूरी था और फिर ठीक वैसा ही हुआ, जैसा कि पलाश ने सोचा था। बहन ने तुरंत ही कॉल करके माता-पिता को भी सब-कुछ बता दिया था और पाँच मिनट बाद ही पलाश के फ़ोन पर पिता का कॉल आ रहा था। पलाश अपने माता-पिता तक यह बात पहुँचाना चाहता था और ऐसा हो चुका था इसीलिए वो उसे कॉल कर रहे थे। हालाँकि, पलाश ने फ़ोन नहीं उठाया क्योंकि उसका मक़सद पूरा हो चुका था। सच तो यह था कि कोई भी माता-पिता कभी नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे ऐसा कोई क़दम उठाएँ, इसलिए पलाश उनसे बात करके बात को ज़्यादा बढ़ाना नहीं चाहता था।

घर पर बहन का फ़ोन जाने से कबीर को भी इस बारे में पता लग चुका था और वो पलाश की ख़बर लेने के लिए बार-बार देव को कॉल कर रहा था। कबीर को शक था कि देव ज़रूर पलाश के साथ होगा। बार-बार फ़ोन आने पर आख़िर देव ने फ़ोन उठाया और कबीर को कह दिया कि वो पलाश के साथ नहीं है। अब पलाश के घर पर हर किसी को इस मामले की ख़बर लग चुकी थी। पलाश यही चाहता था कि सबको इस बारे में पता होना चाहिए। अब इसका नतीजा यह हुआ कि पलाश को बार-बार फ़ोन आने लगे, कभी घर से तो कभी बहन के नंबर से। इस परिस्थिति में ऐसा होना तो बहुत ही स्वाभाविक था लेकिन पलाश बार-बार इस बारे में बात करके बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहता था। इसीलिए समय की माँग और मामले की नज़ाकत को समझते हुए उसने दुबारा अपनी बहन से बात करने का निश्चय किया ताकि मामले को शांत किया जा सके। यह बहुत ज़रूरी था क्योंकि पलाश के बार-बार जवाब ना देने की स्थिति में पलाश के माता-पिता चिंतित होकर सिर्फ़ छह घंटे में ही दिल्ली पहुँच सकते थे। इसके अलावा वो देव के माता-पिता को भी इस बारे में कॉल कर सकते थे। दोनों ही परिस्थितियों में जिग्ना और पलाश की प्रेम-कहानी का रुख़ बदल सकता था।

शाम के लगभग 5.30 बजे का समय। पलाश ने अपनी बहन को कॉल किया और पूछने पर बताया, “जिग्ना उसके घर वापस जा चुकी है और वो रात वाली ट्रेन से पंतनगर के लिए निकल जाएगा।” पलाश ने अपनी बहन को झूठ कहा था लेकिन समय और नियति की माँग यही थी। अपने घर वालों को शांत करने का उसके पास बस एक यही तरीक़ा था। जैसा कि पलाश ने सोचा था, कुछ ही देर में घर से भी कॉल आना बंद हो गए। अब पलाश मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से जिग्ना और अपने भविष्य का अगला क़दम उठाने के लिए तैयार था।

जिग्ना पलाश के पास ही खड़ी उसकी सारी बातें सुन रही थी कि कैसे उसने अपने घरवालों को पहले सारी बात बताई और फिर अपने क़दम आगे बढ़ाने के लिए उन्हें शांत भी कर दिया। पलाश की बातें सुनकर अब जिग्ना भी पूरी आत्मविश्वास से भरी उसे देख रही थी। पलाश के घरवालों का तो ठीक था लेकिन दूसरी ओर जिग्ना के घरवालों के पास सिर्फ़ पलाश का नंबर था जो अब दुबारा से स्विच ऑफ़ हो चुका था। ऐसे में जिग्ना के घर नहीं पहुँचने पर उसके घरवाले क्या करने वाले थे? यह तो समय आने पर ही पता चलने वाला था। पलाश ने देखा कि जिग्ना हमेशा की तरह आज भी अपना कॉलेज बैग साथ लेकर आई थी लेकिन आज बैग कुछ ज़्यादा ही भरा हुआ लग रहा था। पलाश ने माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए हँसते हुए जिग्ना से पूछा, “उसके बैग में क्या है?”

जिग्ना ने मुस्कुराते हुए अपना बैग खोला जिसे देखकर पलाश अपने भावों को रोक नहीं पाया और एक बार फिर ना चाहते हुए भी भावनाएँ आँसू बनकर उसकी आँखों से बह निकली। बैग में वो सारे गिफ़्ट थे जो पलाश ने जिग्ना को दिए थे। सुनहरी राजस्थानी चूड़ियाँ, बैंगलोर से लाई स्टोन ज्वैलरी, दोनों का नाम गढ़ा हुआ शंख, पिंक स्वेटर और कुछ किताबों के साथ माता-पिता और भाई की फ़ोटो।

जिग्ना के बैग में रखी दौलत, उसके दृढ़ निश्चय और मज़बूत इरादों की कहानी कह रही थी, जिनके लिए वो अपने पीछे पूरी दुनिया छोड़ आई थी।

योजना और भूमिका

जनवरी 2007

हम अक्सर नई सुबह की बात करते हैं लेकिन उस शाम को भूल जाते हैं जिसमें उस नई सुबह की भूमिका बनती है। आज पलाश के जीवन की एक ऐसी ही शाम थी जिसमें नियति उसके जीवन में एक नई शुरुआत की भूमिका बना रही थी। शाम 6 बजे का समय, अब धीरे-धीरे अँधेरा होने लगा था। जिग्ना और पलाश, दोनों अलग-अलग बाइक्स पर देव और दिपेन के साथ अंकल के घर की बढ़ रहे थे। जब वो सब अंकल के घर पहुँचे तो वो घर के बाहर खड़े उनका इंतज़ार ही कर रहे थे। अंकल ने बहुत जीवन देखा था और अच्छे-बुरे का सटीक अनुभव रखते थे। मामला तो सारा उन्हें लगभग पता ही था, इसलिए माहौल को हल्का बनाते हुए बड़ी ख़ुशमिज़ाजी से उन्होंने सबका स्वागत किया। दिपेन तो घर के बाहर से ही वापस लौट गया, बाक़ी तीनों अंकल के साथ घर में चले गए।

देव ने जिग्ना का अंकल से परिचय करवाया, फिर पलाश ने कल रात से अब तक सारी घटना विस्तार से अंकल को बताई। सारी बात जानने के बाद अंकल ने सबसे पहले एक सीधा-सरल सवाल, जिग्ना और पलाश दोनों से पूछा, “अब वो दोनों क्या चाहते हैं?”

उनका जवाब स्वाभाविक रूप से शादी ही था क्योंकि दोनों ही जानते थे जिग्ना के घर वापस ना जाने की स्थिति में शादी ही उनके लिए एक मात्र बचा हुआ अगला क़दम था, वरना उस दिन उनकी प्रेम-कहानी का अंत निश्चित था।

दोनों का दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास भरा जवाब सुनकर, अंकल ने उन्हें सुनिश्चित किया कि आने वाले कल में उन दोनों की शादी हो जाएगी। अंकल का जवाब सुनकर पलाश ने थोड़ी राहत महसूस की क्योंकि वो अब अकेला नहीं था। लेकिन अभी तो सब कुछ होना बाक़ी था, बीच में थी मुश्किलें और इंतज़ार।

सुरक्षा के मद्देनज़र पलाश का फ़ोन तो पहले ही स्विच-ऑफ़ था और जिग्ना के पास कोई फ़ोन नहीं था। अंकल के कहने पर देव ने भी अपना फ़ोन भी स्विच-ऑफ़ कर दिया क्योंकि जिग्ना और उसकी दोस्त जिया, दोनों के ही पास देव का नंबर था और जिग्ना के घर नहीं पहुँचने की स्थिति में देव का नंबर उसके पिता के हाथ लगने की पूरी संभावना थी। अब यह भी बहुत साफ़ और स्वाभाविक था कि जिग्ना के नहीं पहुँचने पर उसके घरवाले उसकी खोजबीन करेंगे और संभव था कि पुलिस में गुमशुदा रिपोर्ट भी दर्ज करवा दें। पुलिस के पास अगर मामला पहुँचता तो मुश्किलें और ज़्यादा बढ़ सकती थीं। बहरहाल, इतना तो पक्का था कि पलाश और जिग्ना को शादी हो जाने तक बहुत सतर्क रहना था।

देव और पलाश, अंकल के साथ विचार-विमर्श में लगे थे कि किस तरह सुरक्षित रहते हुए सब-कुछ किया जाएगा। अगर किसी भी तरह पुलिस उन तक पहुँच गई तो पलाश के साथ-साथ देव और अंकल भी मुश्किल में पड़ सकते थे। पलाश जिग्ना को और अधिक मानसिक तनाव नहीं देना चाहता था इसलिए उसने उसे पहले ही अंकल के बच्चों के साथ दूसरे रूम में भेज दिया था।

अंकल का अभी तक का जीवन दिल्ली में ही बीता था और उन्होंने अब तक ऐसे कई सारे मामले देखे थे। विचार-विमर्श, सुरक्षा के बाद जब शादी के मुद्दे पर पहुँचा तो अंकल ने कहा, “अभी की परिस्थितियों में शादी के दो रास्ते हैं, या तो शादी कोर्ट में हो या आर्य समाज मंदिर में और दोनों ही सूरतों में दो गवाह तो होने ही चाहिए।” बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा, “देखा जाए तो सिर्फ़ आर्य समाज मंदिर में शादी करना ही आख़िरी रास्ता है क्योंकि कोर्ट मैरिज के लिए तो एक महीने का नोटिस ज़रूरी होगा।” फ़िलहाल प्राथमिक रूप से आर्य समाज मंदिर में शादी होना तय था। गवाह के रूप में अंकल और देव भी उपलब्ध थे। पलाश को पहले ही जानकारी थी कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत आर्य समाज मंदिर की शादी वैध है। रुद्रपुर वाले वकील ने भी पलाश को यही बताया था और अंकल तो इस बात से भली-भाँति परिचित थे ही। आर्य समाज मंदिर में शादी के बाद मिलने वाले सर्टिफ़िकेट को क़ानूनी दस्तावेज़ की तरह उपयोग करके शादी का कोर्ट में रजिस्ट्रेशन करवाने का प्रावधान भी अंकल को पता था। आर्य समाज मंदिर में शादी के लिए दो गवाहों के अतिरिक्त अगर कुछ और चाहिए था तो वो यह कि लड़का-लड़की दोनों बालिग़ होने चाहिए, यानी लड़का कम-से-कम 21 वर्ष का और लड़की 18 वर्ष की।

पलाश और जिग्ना दोनों ही बालिग़ थे और गवाह भी मौजूद थे। अब समस्या यह थी कि अपने बालिग़ होने के प्रमाण के लिए दोनों को ही अपने आयु प्रमाण-पत्र चाहिए थे, जो उनके पास उस समय मौजूद नहीं थी। नियति तो पलाश का इस दिन के लिए न जाने कब से पीछा कर रही थी। इसीलिए उसने आल इंडिया टूर पर जाने से पहले ही जिग्ना को कहकर उसका आयु प्रमाण-पत्र अपने हॉस्टल के पते पर मँगवा लिया था। अब समस्या यह थी कि दोनों के आयु प्रमाण-पत्र तो पलाश के पास थे लेकिन उस समय वो पंतनगर में उसके हॉस्टल की आलमारी में थे।

पंतनगर जाकर वो सर्टिफिकेट लाना तो समय के अभाव में असंभव-सा लग रहा था। तो अब वो सर्टिफ़िकेट पलाश तक कैसे पहुँचने वाले थे? लगभग शाम के 7 बजे का समय था और पंतनगर जाने के लिए रात को रानीखेत एक्सप्रेस थी लेकिन पहुँचकर, वापस सुबह संपर्क क्रांति से दिल्ली आने में तो शाम के पूरे 4 बज जाते, जो कि समय और परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था। अगर बस से यात्रा का देखें तो सड़क मार्ग अच्छा नहीं था और उसमें भी काफ़ी समय लगने वाला था। साथ ही जितना अधिक समय शादी से पहले लगता, उतना ही अधिक ख़तरा भी बढ़ जाता। जब कुछ और नहीं सूझा तो पलाश ने अपने कुछ क़रीबी दोस्तों को फ़ोन करने का निर्णय लिया, जो उसके लिए रात को रानीखेत एक्सप्रेस से चलकर सुबह तक सर्टिफ़िकेट दिल्ली पहुँचा सकते थे। यह दिखने में तो संभव लग रहा था लेकिन, क्या कोई पलाश का यह काम करने के लिए तैयार हुआ? फ़िलहाल, और कोई चारा नहीं था और पलाश को तो अपनी कोशिश करनी ही थीं।

बड़े कमाल का होता है मुश्किल समय, साथ में हो तो लोगों के चेहरे से मतलब का नक़ाब उतार ही देता है। पलाश ने सबसे पहले पार्थ को फ़ोन किया लेकिन उसने फ़ोन नहीं उठाया। UD तो अपने घर वालों के साथ रहता था तो उसे फ़ोन करने का तो कोई सवाल ही नहीं था। पार्थ के बाद कुछ और लोगों को पलाश ने बारी-बारी से फ़ोन किया लेकिन सभी ने कुछ न कुछ कारण बताकर उसका काम करने से मना कर दिया। कोई भी बिना किसी बात के मुश्किल में नहीं पड़ना चाहता था। अब पलाश के पास पार्थ ही आख़िरी रास्ता था लेकिन बार-बार कॉल करने पर भी वो फ़ोन नहीं उठा रहा था। फिर पलाश ने पार्थ तक मैसेज पहुँचाने के लिए जब किसी और को फ़ोन किया तो पार्थ उसके पास ही खड़ा हुआ था। असल में पलाश को नियति ने फिर से उस ज़रिये तक पहुँचा दिया था जो अब उसकी प्रेम-कहानी में हीरो बनने वाला था और वो था, पार्थ।

उसने अपना फ़ोन चार्ज होने के लिए रूम पर ही छोड़ दिया था इसलिए वो पलाश का फ़ोन नहीं उठा पा रहा था। पलाश ने तुरंत ही सारी बात पार्थ को बताई और सर्टिफ़िकेट दिल्ली लाने को कहा। हॉस्टल में पलाश का कमरा और कमरे के अंदर अलमारी दोनों पर ही ताला लगा हुआ था और चाबी उसके पास दिल्ली में थी, लेकिन पार्थ तो नियति का भेजा हुआ दूत था। अभी पलाश उससे फ़ोन पर बात ही कर रहा था कि वो अपने कमरे से एक छोटी लोहे की राड लेकर पलाश के रूम के बाहर पहुँच गया।

हॉस्टल में कमरे की चाबी खो जाना और फिर ताला तोड़ना बहुत आम बात थी। आज पार्थ अपने उसी ताला तोड़ने वाले हुनर का उपयोग कर रहा था। कुछ ही मिनटों में पार्थ ने कमरे का ताला तोड़ दिया। अभी तो उसे अलमारी का ताला भी तोड़ना था। अलमारी का ताला छोटा था तो पार्थ ने दो पल्ले वाली अलमारी का हैंडल पकड़कर एक झटका दिया तो ताला चिटकनी सहित निकलकर अलग जा पड़ा। पलाश अभी फ़ोन पर ही था, उसने अपनी हमेशा सुव्यवस्थित रहने वाली अलमारी में पार्थ को डॉक्युमेंट्स वाली फ़ाइल की जगह बताई और अगले ही पल दोनों के आयु प्रमाण-पत्र पार्थ के हाथ में थे। अभी शाम के 7.30 बजे थे, रानीखेत एक्सप्रेस के समय में अभी भी 2 घंटे थे। पार्थ ने पलाश को आश्वस्त किया कि वह सुबह सर्टिफ़िकेट लेकर दिल्ली पहुँच जाएगा। पार्थ ने आज फिर प्रत्यक्ष तौर पर एक सच्चा दोस्त होने का फ़र्ज़ अदा किया था।

चूँकि दिल्ली पार्थ के लिए नया शहर था और वह सिर्फ़ AIET के दौरान ही वहाँ गया था। दूसरी ओर पलाश तो दिल्ली और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से भली-भाँति परिचित था। पलाश ने पार्थ को बताया की उसे सुबह ट्रेन से उतरकर बस क्लॉक रूम पर पहुँचना है। पूरे स्टेशन पर एक ही क्लॉक रूम था और वो भी पार्थ AIET के दौरान दिल्ली आने पर पलाश के साथ देख चुका था। बात जारी रखते हुए पलाश ने कहा कि सुरक्षा कारणों से कोई और उससे सर्टिफ़िकेट लेने आएगा और अंकल का फ़ोन नंबर भी उसे दे दिया ताकि कोई समस्या ना हो। देव तो अपने घर में होने के कारण इतनी सुबह स्टेशन जा नहीं सकता था तो सिर्फ़ अंकल ही थे जिन्हें सुबह स्टेशन जाकर पार्थ से सर्टिफ़िकेट लेने थे। आख़िर में पार्थ के समय पर स्टेशन पहुँचने की उल्टी गिनती शुरू होने के साथ ही सब-कुछ अच्छा होने की उम्मीद करते हुए पलाश ने फ़ोन कट कर दिया।

पार्थ से बात होने के बाद पलाश ने उसका नंबर अंकल को भी दे दिया और पार्थ से हुई बात के अनुसार उन्हें बताया कि वो रानीखेत एक्सप्रेस से आएगा और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम पर मिलेगा। फ़ोन नंबर तो ठीक थे लेकिन सिर्फ़ फ़ोन पर निर्भर रहना भी ठीक नहीं था। फिर पलाश को ख़याल आया कि देव AIET के फ़ोटो बनवाकर उसे सुबह ही दे चुका था जो उसने एक हफ़्ते पहले उसे प्रिंट के लिए दिए थे। वो फ़ोटोज पलाश के पास कॉलेज बैग में ही थे। उसने तुरंत ही फ़ोटोज निकाले और एक फ़ोटो अंकल को दे दिया जिसमें पार्थ भी था। अब अंकल के पास पार्थ के नंबर के साथ-साथ उसका फ़ोटो भी था, अब इंतज़ार था तो बस सुबह होने का।

इतना होने के बाद भी पलाश, देव और अंकल को सबसे बड़ी चिंता अपने आप को सुरक्षित रखने की थी। यह एक लड़की का मामला था जो बहुत नाज़ुक मोड़ पर था जिसमें पुलिस किसी भी समय बीच में आ सकती थी। अगर वो लोग किसी भी तरह से जिग्ना और पलाश की शादी होने से पहले पुलिस के हत्थे चढ़े तो जिग्ना और पलाश की प्रेम-कहानी का अंत तो निश्चित था ही, साथ-ही-साथ सभी लोग बड़ी मुसीबत में भी फँस सकते थे।

8 पहले ही बज चुके थे। पलाश का बैग देव के घर पर था और अब लगभग वही समय होने जा रहा था जब पलाश अक्सर देव के घर से पंतनगर के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन को निकलता था। हर बार की तरह ही पलाश को देव के घर से पंतनगर के लिए निकलना था ताकि किसी को कोई शक ना हो। दूसरी ओर पलाश अपने घरवालों को भी बता चुका था कि वो रात को पंतनगर के लिए निकल जाएगा।

पलाश हमेशा 9 बजने से पहले ही देव के घर से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकल जाता था लेकिन आज परिस्थितियाँ दूसरी थीं। पलाश और देव दोनों ही अभी तक घर नहीं पहुँचे थे। जल्द ही यह संभव था कि देव के माता-पिता उन दोनों को अंकल के घर ढूँढे। साथ ही पलाश के माता-पिता भी उसके पंतनगर के लिए निकलने की बात को पुख़्ता करने के लिए देव के माता-पिता को कॉल कर सकते थे।

यह एक नई समस्या थी जिससे बाहर आने के लिए पलाश को जल्द ही कुछ निर्णय लेना था वरना मुश्किलें और भी बढ़ सकती थीं।

क्या पलाश देव के साथ उसके घर गया? क्या हर बार की तरह ही वो देव के घर से नियत समय पर पंतनगर के लिए निकला? पलाश ने सारी परिस्थितियों को कैसे हैंडल किया?

देखते हैं, आगे क्या हुआ?

एक नई शुरुआत

जनवरी 2007

कभी-कभी सच को बचाने के ख़ातिर, झूठ को सच का नक़ाब पहनाकर पेश करना पड़ता है। फिर वो झूठ सच का नक़ाब पहनकर जितना सच के क़रीब रहता है, उस झूठ को पकड़ पाना उतना ही मुश्किल होता जाता है। आज पलाश को भी अपनी प्रेम-कहानी को बचाने के लिए झूठ बोलना पड़ा था और अब उसे देव के घर जाकर पंतनगर के लिए निकलने का झूठा नाटक भी करना था। लगभग 8.30 बजे का समय, पलाश और देव दोनों साथ-साथ घर पहुँचे। जाते ही उसने हमेशा की तरह जल्दी से अपना समान व्यवस्थित करके बैग पैक कर लिया क्योंकि ट्रेन के लिए निकलने का समय भी होने वाला था। देव की माँ को भी पता था कि पलाश को निकलना है तो उन्होंने तुरंत ही खाना भी लगा दिया था। दोनों भाई साथ-साथ खाना खा रहे थे, तभी माँ ने पूछा कि वो दोनों पूरे दिन भर से कहाँ घूम रहे थे।

देव ने पहल करते हुए, माँ को संतोषपूर्ण जवाब दे दिया। उसके लिए तो इस तरह काम की सिलसिले में दिनभर घर से बाहर रहना लगभग रोज़ की ही बात थी। पलाश पूरी तरह निश्चित तो नहीं था कि उसके माता-पिता ने देव के घर उसकी जानकारी लेने के लिए फ़ोन किया था या नहीं। लेकिन देव की माँ के बात करने का अंदाज़ बता रहा था कि उन्हें किसी बात का कोई पता नहीं था। फ़िलहाल, पलाश को भी ऐसा ही दिखाना था और इसलिए खाना खाने के बाद वह बड़े ही स्वाभाविक रूप से, घर से स्टेशन को निकलने के लिए तैयार हो गया था।

ठीक 9 बजे पलाश जब स्टेशन के लिए निकलने लगा तो ऑटो स्टैंड तक छोड़ने के लिए देव भी साथ आया। देव की माँ ने ठीक से जाने की हिदायत दी और दोनों भाई बाइक से ऑटो स्टैंड के लिए निकल गए। यह तो सिर्फ़ घरवालों को दिखाने के लिए था कि पलाश पंतनगर के लिए निकल गया है। असल में तो दोनों भाई घर से निकले और फिर दूसरे रास्ते से होते हुए वापस अंकल के घर पहुँच गए थे।

जिग्ना के घर नहीं पहुँचने के कारण उसके घर पर क्या माहौल होगा? उसका तो बस अंदाज़ा ही लगाया जा सकता था। लेकिन इतना तो तय था कि खोजबीन जारी होगी और बात किसी भी समय गंभीर मोड़ भी ले सकती थी। इन्हीं सब बातों के मद्देनज़र पलाश को रातभर के लिए किसी और स्थान पर ठहराने का प्लान हुआ, लेकिन कहाँ?

9 बज चुके थे, समय कम था और देव को जल्दी ही वापस घर भी पहुँचना था। इसलिए उसने पहल करते हुए अपने सर्कल में कुछ दोस्तों को कॉल किया, जिनके यहाँ पलाश को रातभर के लिए ठहराया जा सकता था। लेकिन यह इतना आसान नहीं था, कोई भी इस लफड़े में नहीं फँसना चाहता था इसलिए देव को सब जगह से नकारात्मक जवाब ही मिल रहे थे। ज़रूरत एक ऐसी चीज़ है जो अक्सर कभी भी समय पर पूरी नहीं होती, इसीलिए तो वो ज़रूरत होती है। ख़ैर, देव ने अपनी कोशिश जारी रखी और फिर पलाश की नियति उसका पीछा इतनी आसानी से कहाँ छोड़ने वाली थी। आख़िर पलाश की प्रेम-कहानी में नियति द्वारा नियत अगला पड़ाव मिल ही गया।

अंकित एक फ़ोटोग्राफ़र था और अपना ख़ुद का स्टूडियो चलाता था। वह शादीशुदा था और देव के घर के अगले ब्लॉक में ही अपने परिवार के साथ रहता था। जब देव ने उसे फ़ोन करके सारा मामला बताया और पलाश को रातभर रुकने की बात कही तो वो तुरंत ही तैयार हो गया। नियति ज़रूरत और ज़रूरतमंद दोनों को क़रीब ले ही आती है। असल में अंकित की शादी भी एक लव मैरिज थी, वो ऐसी स्थिति से गुज़र चुका था इसलिए देव की बात समझते उसे देर नहीं लगी।

पलाश ने अपना सामान और कपड़ों से भरा बैग अंकल के घर ही छोड़ दिया और जिग्ना को अपना ख़याल रखने के लिए कहते हुए अपना कॉलेज बैग लेकर देव के साथ अंकित के घर के लिए निकल पड़ा। जाने से पहले अंकल ने पलाश को कोई चिंता नहीं करके, ठीक से आराम करने को कहा ताकि सुबह के लिए पूरी तरह तैयार रह सकें। जिग्ना को अंकल के बच्चों के साथ उनके घर पर ही रुकना था, तो कोई समस्या नहीं थी।

9.30 बज चुके थे, जब देव पलाश को अंकित के घर छोड़कर वापस लौटा। देव जल्दी में था और थोड़ा परेशान भी था क्योंकि उसके पिता भी बहुत सख़्त थे और ज़्यादा देर होने पर घर में डाँट पड़ने की पूरी संभावना थी। दूसरी ओर अभी भी पलाश के माता-पिता के फ़ोन आने की संभावना थी और अगर ऐसा होता तो फिर देव से पूछताछ तो ज़रूर होती। इन्हीं सब बातों को लेकर उस समय सभी चिंतित थे। फ़िलहाल, सब कुछ ठीक था, बिना किसी गड़बड़ के देव अपने घर पहुँच चुका था। अब बस बिना किसी समस्या के रात के ठीक से गुज़रने का इंतज़ार था।

उधर अंकित को सारा मामला देव पहले ही समझा चुका था, इसलिए अंकित ने पलाश से इस बारे में कोई बात नहीं करते हुए बस अपना परिचय दिया। अंकित का शादीशुदा जीवन कुछ ही महीनों पहले शुरू हुआ था और वो अपनी पत्नी के साथ वहाँ किराए पर रहता था। घर की पहली मंज़िल पर एक छोटा-सा कमरा, रसोई और बाथरूम। अंकित का घर ज़रूर छोटा था लेकिन दिल बड़ा था, वो यह बात साबित कर चुका था। रात के लगभग 10 बजने को थे और सोने की तैयारी हो चली थी। कमरा इतना छोटा था कि मुश्किल से ही तीन लोगों के लिए पर्याप्त था, विशेष रूप से जब अंकित की पत्नी उसके साथ थी। बहरहाल, अंकित ने पलाश के पहुँचने से पहले ही बिस्तर लगा दिया था। जमीन पर किए हुए बिस्तर पर तीनों लोग, किसी तरह समायोजित हो ही गए। अंकित नियति का भेजा हुआ दूत ही था, जिसने बिना किसी जान-पहचान के भी इन परिस्थितियों में पलाश के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल दिए थे।

पलाश मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से थका हुआ था क्योंकि वह पिछली रात से ही सोया भी नहीं था, उसे आराम की सख़्त आवश्यकता थी। वह सोने की कोशिश कर रहा था लेकिन समय ही ऐसा था कि उसकी आँखें नींद के साथ सहमत नहीं थी। उसका दिमाग़ बस इसी उड़ेध-बुन में लगा था कि आगे क्या होने वाला है?

फ़िलहाल उसके हाथ में जिग्ना को किए हुए अपने वादे और दृढ़ निश्चय से अधिक और कुछ नहीं था। अब उसकी नियति ही थी जो उन दोनों के भविष्य की सूत्रधार थी। ख़ैर, समय और परिस्थितियों की बेवफ़ाई, आँखों से नींद की मोहब्बत के आगे ज़्यादा देर नहीं टिक पाई और पलाश नींद के आग़ोश में चला गया।

सुबह जब पलाश की आँख खुलीं तो 7 बज चुके थे। कुछ ही घंटों की नींद में भी वो पूरी तरह फ़्रेश और अपने आपको को एक नई ऊर्जा से भरा हुआ महसूस कर रहा था। अंकित पहले ही उठ चुका था और अपनी दुकान पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। कमरे में सीधी आती सूरज की रौशनी मानो पलाश के आत्मविश्वास में एक नया ही जोश भर रही थी। पलाश को नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है लेकिन वह अपने अंतर्मन से आ रही नियति की आवाज़ को साफ़ सुन पा रहा था जो कह रही थी कि आज उसका दिन है।

पलाश अब पार्थ के बारे में सोच रहा था कि ट्रेन तो सुबह 5 बजे ही पहुँच जाती है।

क्या वो दिल्ली पहुँच गया था? क्या अंकल ने उससे मिलकर डॉक्युमेंट्स ले लिए थे?

इन सवालों के जवाब के लिए पलाश को अंकल के फ़ोन का ही इंतज़ार करना था क्योंकि उसका फ़ोन तो बंद था। तभी अंकित ने पलाश को बताया कि अंकल का फ़ोन आया था, उनको पार्थ से डॉक्युमेंट्स मिल चुके हैं। पलाश ने मन-ही-मन नियति के उस दूत को धन्यवाद दिया। पार्थ ने सही समय पर डॉक्युमेंट्स दिल्ली पहुँचाकर एक सच्चे मित्र का फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया था। पलाश चाहता था कि पार्थ उस दिन उसके साथ हो लेकिन बाद में उसे पता चला कि अगले ही दिन परीक्षा होने के कारण वह अंकल को डॉक्युमेंट्स देकर तुरंत ही वापस पंतनगर के लिए निकल गया था। फ़िलहाल, अच्छी बात ये थी कि जिग्ना और पलाश दोनों के डॉक्युमेंट्स दिल्ली पहुँच चुके थे, अब देखना था कि आगे क्या होने वाला था?

अंकित ने पलाश को तैयार होकर उसके साथ ही उसकी दुकान पर चलने को बोला। देव ने रात को ही उसे पलाश को अपने साथ रखने के लिए समझा दिया था। पलाश का कॉलेज बैग उसके साथ था जिसमें उसने रात को ही कुछ कपड़े रख लिए थे। वह तुरंत ही नहाकर तैयार हो गया। यह पलाश की नियति ही थी कि उसने जब रात को जल्दीबाज़ी में कॉलेज बैग में कपड़े रखे तो वही PJ वाला स्वेटर रख लिया था जो कि उसे जिग्ना ने गिफ़्ट किया था। जनवरी की ठंड थी तो स्वेटर तो पहनना ही था। पलाश, जिग्ना के प्यार की निशानी, वो PJ वाला स्वेटर पहनकर तैयार हो गया। अंकित के घर ही दोनों ने ब्रेकफ़ास्ट किया और फिर दुकान के लिए निकल गए।

पलाश अंकित को सिर्फ़ पिछले 12 घंटे से जानता था और रातभर उसके घर रुकने के बाद अब उसके साथ उसकी दुकान पर जा रहा था। बहरहाल, रात तो निकल ही गई थी और वो मन-ही-मन अंकित को भी धन्यवाद दे रहा था जिसने सही समय पर उसकी इतनी बड़ी मदद की थी। अंकित की दुकान पर पहुँचते-पहुँचते 8.30 बज गए थे। देव या अंकल का फ़ोन आने तक पलाश को तो अंकित की दुकान पर ही इंतज़ार करना था।

यह अंकित का अपना फ़ोटो स्टूडियो था जो वो एक किराए की दुकान में चला रहा था। दुकान सड़क के किनारे पर ही स्थित थी और बैठने के लिए पर्याप्त स्थान भी था। अभी तक सब कुछ सही ही चल रहा था। पलाश के माता-पिता को पता था कि वो पंतनगर चला गया है। दूसरी ओर जिग्ना के घर क्या चल रहा है, यह किसी को नहीं पता था। जिग्ना के वापस नहीं लौटने पर घर का माहौल क्या होगा? यह तो कोई भी समझ सकता था लेकिन मुख्य बात यह थी कि क्या उन्होंने जिग्ना के गुमशुदा होने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करवा दी थी? बहरहाल, पलाश को अभी तक ऐसी कोई ख़बर नहीं थी और वो सुरक्षित था। लेकिन पूरी संभवना थी कि जिग्ना के पिता जल्द ही पुलिस रिपोर्ट करवा देंगे, इसलिए सुरक्षा के मद्देनज़र पलाश चाहता था कि जितनी जल्दी हो सके वो जिग्ना के साथ शादी के बंधन में बँध जाए। पलाश अच्छी तरह जानता था कि अगर एक बार उनकी शादी हो गई तो फिर कम-से-कम उन्हें साथ होने से कोई नहीं रोक सकता था। हालाँकि, और भी कई नकारात्मक परिस्थितियाँ संभव थीं और पलाश उन्हीं के हल ढूँढने की उधेड़-बुन में लगा हुआ था।

हर गुज़रता पल पलाश के लिए बहुत भारी था। अंकित की दुकान पर इंतज़ार करते हुए अब उसे लगभग चार घंटे होने जा रहे थे। देव और अंकल की तरफ़ से अभी कोई ख़बर नहीं थी। पलाश जिग्ना के लिए अधिक चिंतित था क्योंकि कल रात के बाद से अभी तक उसकी उससे कोई बात नहीं हुई थी। लगभग, 12.30 बजे अंकित के फ़ोन पर देव का कॉल आया। अंकित ने फ़ोन पलाश को दिया और देव ने संक्षिप्त में बोला कि अभी तक सब ठीक है, बाक़ी वो उसे प्रत्यक्ष में मिलने पर ही बताएगा और सही समय पर वो उसे लेने पहुँच जाएगा। ज़रूरी बात जो देव ने बोलने के लिए फ़ोन किया था वो यह थी कि उन्हें जिग्ना और पलाश दोनों के ही दो-दो पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो की ज़रूरत थी। जिग्ना के फ़ोटो तो पलाश के पास थे और वो पहले ही अंकल को दे चुका था लेकिन उसके पास अपनी ख़ुद की पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो नहीं थी। देव ने अंकित से कहकर तुरंत ही दो पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो बनवाने को बोला। यह पलाश की नियति ही थी कि उसे पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो की आवश्यकता थी और वो पहले से ही एक फ़ोटो स्टूडियो में था। अंकित ने तुरंत ही पलाश की फ़ोटो क्लिक कर दी और कुछ देर में ही उसकी पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो तैयार थी।

देव से बात हो जाने के बाद पलाश को थोड़ा सुकून तो था ही। भले ही देव ने उसे पूरी बात ना बताई हो लेकिन इतना तो वह समझ ही गया था कि वो अब अगले क़दम के लिए तैयारी में हैं इसीलिए पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो की ज़रूरत पड़ी थी। जो भी था अभी तक पलाश को जिग्ना की कोई ख़बर नहीं थी और वह उसके लिए चिंतित था। आगे आने वाली मुश्किलों की जद्दोजहद और आत्मविश्लेषण करते-करते अगले कुछ घंटे और बीत गए। आख़िरकार इंतज़ार ख़त्म हुआ और 2 बजे के लगभग देव पलाश को लेने अंकित की दुकान पर आ पहुँचा। देव अपनी बाइक से ना आकर ऑटो से आया था क्योंकि वो पहले ही सचेत था कि उसके घरवालों को किसी प्रकार से कोई संदेह ना हो। ज़्यादा समय नहीं लगाते हुए दोनों भाइयों ने अंकित को तहे दिल से धन्यवाद दिया और ऑटो लेकर तीस हज़ारी कोर्ट के लिए निकल पड़े। नियति ही थी कि अंकित ने सही समय पर एक फ़रिश्ते की तरह आकर उनकी मदद की थी वरना उनकी मुश्किलें और बढ़ सकती थीं। तीस हज़ारी पुरानी दिल्ली के पास स्थित दिल्ली का एक प्रमुख कोर्ट था। देव ने ऑटो में ही पलाश को बताया कि काफ़ी कोशिशों के बाद अंकल को एक दोस्त की सहायता से तीस हज़ारी कोर्ट का एक वकील मिल गया है जो कोर्ट से एफ़िडेविट लेने का काम करवाएगा।

शादी तो आर्य समाज मंदिर में ही होना तय था लेकिन उसके लिए पहले, कोर्ट से आयु प्रमाणपत्र के आधार पर स्वैछिक शादी का एफ़िडेविट लेना ज़रूरी था। इसी एफ़िडेविट को आधार मानकर दो गवाहों की उपस्थिति में आर्य समाज मंदिर में शादी होनी थी। जिग्ना और पलाश दोनों के ही आयु प्रमाणपत्र अंकल के पास थे इसलिए वो पहले ही तीस हज़ारी कोर्ट पहुँचकर, वकील की सहायता से एफ़िडेविट लेने का प्रयास कर रहे थे। वैसे तो सभी कुछ सही चल रहा था और वकील की सहायता से डॉक्युमेंट्स के आधार पर एफ़िडेविट मिल जाने की पूरी उम्मीद थी। बहरहाल, थोड़ी संभावना इस बात की भी थी कि एफ़िडेविट जारी करने वाला जज जिग्ना और पलाश की प्रत्यक्ष उपस्थिति के लिए भी कह सकता था। इसलिए, पलाश को जल्द-से-जल्द वहाँ पहुँचना था। देव ने पलाश को बताया कि अंकल जिग्ना के साथ कोर्ट के बाहर ही उनका इंतज़ार कर रहे थे।

पूरे 3 बज चुके थे जब वो दोनों तीस हज़ारी कोर्ट पहुँचकर अंकल और जिग्ना से मिले। पलाश जिग्ना को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था क्योंकि उसने वही पिंक स्वेटर पहनी हुई थी जो उसने उसे गिफ़्ट में दी थी। पलाश हैरान था कि उन दोनों ने वो ही कपड़े पहने हुए थे जो उन्होंने एक-दूसरे को गिफ़्ट किए थे। शायद, यह एक संयोग से ज़्यादा उन दोनों की नियति थी जो उन्हें इस तरह हमेशा के लिए एक-दूसरे के क़रीब ले आना चाहती थी, जहाँ हर चीज़ उन दोनों के प्यार की गवाही दे रही हो। ख़ैर, अभी यह देखना बाक़ी था कि आगे क्या होने वाला था?

वैसे तो अब परिस्थितियाँ काफ़ी हद तक साफ़ होती जा रही थीं लेकिन भविष्य को भला कौन जान पाया है। अभी भी बहुत सारी अनिश्चितताएँ मौजूद थीं। सबसे बड़ा सवाल था कि क्या उन्हें समय पर एफ़िडेविट मिलेगा क्योंकि 3 पहले ही बज चुके थे और कोर्ट के बंद होने का समय 4 बजे था। पलाश के पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो लेकर अंकल तुरंत ही बचा हुआ काम पूरा करने के लिए कोर्ट में चले गए। जिग्ना और पलाश दोनों ही अब जज के समक्ष उपस्थिति के लिए भी तैयार थे।

देव दोनों के साथ बाहर ही इंतज़ार कर रहा था और उस गंभीर स्थिति में भी कुछ हँसी-ठिठोली वाली बातें करके माहौल हो हल्का करने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर के लिए ही सही, तीनों सब कुछ भूलकर अपनी पुरानी अल्हड़ यादों में खो गए। जिग्ना और पलाश दोनों बस जैसे नियति के हाथों में बँधे, किसी कहानी के पात्र जैसे अभिनय करते जा रहे थे। उन्हें बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था कि अगले कुछ ही घंटों में समय उन्हें जीवन के अगले पड़ाव पर ले जाने वाला है और उनकी आगे की ज़िंदगी पूरी तरह बदलने वाली थी। नियति के खेल अक्सर ऐसे ही होते हैं, हम पूरा खेल, खेल चुके होते हैं और हम समझ ही नहीं पाते कि कौन जीता और कौन हारा। जो भी हो इतना तो तय है कि सकारात्मक विचार, मुश्किल रास्तों को भी आसान बनने पर मजबूर कर देते हैं।

तीनों मिलकर इन्हीं मुश्किलों को हवा में उड़ा रहे थे और फिर लगभग 3.30 बजे अंकल एफ़िडेविट के रूम में ग्रीन सिग्नल अपने साथ लेकर कोर्ट से बाहर आए। जिग्ना और पलाश को अपने मर्ज़ी से शादी करने के लिए कोर्ट से एफ़िडेविट मिल चुका था। अब उन्हें आर्य समाज मंदिर जाकर दो गवाहों के समक्ष शादी करनी थी। पलाश रोमांच के साथ-साथ आश्चर्य से भी भरा हुआ था।

क्या यह सब इतना आसान था? क्या यह वो ही समय था जिसका उसे इतने समय से आभास हो रहा था? क्या जिग्ना और पलाश की प्रेम-कहानी का वो सफ़र अब दोनों को हमसफ़र बनाने जा रहा था?

जिग्ना अपनी आँखों में आत्मविश्वास भरे शांत थी। लेकिन पलाश के दिलो-दिमाग़ में वो पल एक अजीब-सी घबराहट भर गया था जिसके कारण उसके रोंगटे खड़े हो गए थे। पलाश स्वभाव से तार्किक था और बहुत-सी बातों का पल भर में ही विश्लेषण कर लेने में माहिर था। जिग्ना से हुई पहली मुलाक़ात से लेकर अब तक हुई हर एक बात, हर एक मुलाक़ात, हर घटना, कुछ ही पलों में उसके दिमाग़ में सैकड़ों बार घूम गई थी। अब वह निश्चिंत था कि यह वही समय था जिसका वो लंबे समय से इंतज़ार कर रहा था। लेकिन नियति की नियत यह कहानी अभी बाक़ी थी।

अंकल ने पहले ही आर्य समाज मंदिर के बारे में भी पता कर लिया था जो कि तीस हज़ारी कोर्ट से लगभग 8 किलोमीटर दूर यमुना विहार में था। अगले कुछ ही मिनटों में चारों लोग ऑटो में बैठे यमुना विहार के आर्य समाज मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। ठीक 3.45 मिनट पर वो सभी आर्य समाज मंदिर पहुँच चुके थे। अंकल ने पलाश को बताया कि वास्तव में तो आर्य समाज मंदिर के नियम के हिसाब से उन्हें एक दिन पहले शादी के लिए अर्ज़ी लगानी थी लेकिन जल्दबाज़ी के चलते इतना समय नहीं था। अंकल मंदिर के ऑफ़िस में गए जबकि पलाश, देव और जिग्ना बाहर ही इंतज़ार कर रहा था। समय और नियति से भला कौन जीत सका है। पलाश की नियति तो जैसे हर क़दम, हर समस्या के लिए उसके साथ ढाल बनकर खड़ी थी। कुछ ही देर में अंकल आए और उन्होंने बताया की हालात को समझते हुए एफ़िडेविट के आधार पर मंदिर के मुख्य प्रबंधक ने जिग्ना और पलाश की शादी को मंज़ूरी दे दी है। हालाँकि, उन्हें थोड़ा इंतज़ार करना था क्योंकि उनसे पहले दो जोड़े लाइन में लगे हुए अपनी शादी का इंतज़ार कर रहे थे। आर्य समाज मंदिर की शादी में कुल 15 ही मिनट का समय लगने वाला था, 10 मिनट में शादी और फिर 5 मिनट में ही आधिकारिक औपचारिकताओं के बाद सर्टिफ़िकेट जारी। नियति ख़ुद-ब-ख़ुद सारी समस्याओं का हल कर रही थी। अब बस लगभग 30 मिनट का इंतज़ार था। गवाही के लिए अंकल और देव तो अपने पहचान पत्र के साथ उपस्थित थे ही।

यह आर्य समाज मंदिर एकदम यमुना नदी के किनारे पर स्थित था। अभी भी लगभग 20 मिनट बाक़ी थे। समय की अहमियत समझकर देव ने जिग्ना और पलाश दोनों को अकेला छोड़ दिया था। दोनों मंदिर परिसर में ही नदी के तट पर बने चबूतरे पर खड़े अपनी प्रेम-कहानी पर हमेशा के लिए लगने वाली आधिकारिक मोहर से पहले, आख़िरी बार बात कर रहे थे।

कुछ पलों तक दोनों के बीच चुप्पी थी, वो बस नदी के किनारे पर ठहरे हुए शांत पानी को देख रहे थे। जैसे नदी का पानी किनारा मिलने पर शांत हो जाता है, वैसे ही मानो जैसे उनकी प्रेम-कहानी को भी किनारा मिल गया था। पलाश ने चुप्पी तोड़ते हुए और जिग्ना की मन:स्थिति को समझते हुए पूछा, “क्या सोच रही हो? अभी तुम्हें कैसा लग रहा है?”

जिग्ना ने बहुत शांति से आत्मविश्वास भरे शब्दों में जवाब दिया, “मुझे तुम पर और हमारे प्यार पर पूरा भरोसा है। जैसा कि‍ मैंने तुमसे वादा किया था, मैं तुम्हारे पास आ चुकी हूँ। अब तुम्हारी बारी है, और तुम जो भी करोगे, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।”

जिग्ना का यही विश्वास और दृढ़ निश्चय था जो हर बार पलाश को एक नई ताक़त और ऊर्जा से भर देता था। पलाश ने जिग्ना की ख़ूबसूरत आँखों में देखते हुए, बिना कुछ कहे ही सहमति में अपना सिर हिलाया। तब तक देव और अंकल मंदिर प्रबंधन के साथ बाक़ी औपचारिकताएँ पूरी करने में व्यस्त थे। सारी तैयारियाँ पूरी हो जाने पर जब देव ने उन्हें मंदिर में अंदर आने को कहा, तब तक उन 20 मिनटों में जिग्ना और पलाश अपनी प्रेम-कहानी को एक बार फिर से जी चुके थे। आख़िर, वो घड़ी आ गई जब पलाश और जिग्ना, दोनों ने मंदिर में प्रवेश किया।

मंदिर के शादी वाले कक्ष में सब कुछ पहले से ही तैयार था। बीचों-बीच एक हवन कुंड जिसके चारों और लाल रंग की दरी बिछी हुई थी। हवन कुंड के चारों तरफ़ चार लकड़ी के खंभों पर टिका हुआ और फूलों से सजा मंडप भी बना हुआ था। पीली धोती और लाल गमछा लिए पंडित जी हवन कुंड के एक ओर बैठे मंत्र पढ़ने के लिए तैयार थे। मंदिर प्रबंधन स्टाफ़ के तीन लोग, किसी भी प्रकार जी ज़रूरत पड़ने पर वहाँ उपस्थित थे। कुल मिलाकर, हिंदू रीति-रिवाज से शादी करने का समुचित प्रबंध वहाँ उपलब्ध था। अंकल और देव हाथ बाँधे एक ओर खड़े जिग्ना और पलाश को देख रहे थे। तब तक देव के बताए अनुसार अंकित भी अपना कैमरा लेकर मंदिर पहुँच चुका था।

शादी की सारी तैयारियाँ थी और पलाश जल्द-से-जल्द शादी की औपचारिकता पूरी कर देना चाहता था। कुछ भी हो, हमारे हिंदू समाज में शादी का एक अलग ही सांस्कृतिक महत्त्व है और हम सब कहीं-न-कहीं उससे भावनात्मक रूप से भी जुड़े होते हैं। पलाश शुरू से ही एक तर्कसंगत व्यक्ति था और उसके लिए इस परिस्थिति में समायोजित हो जाना स्वाभाविक था। लेकिन, जिग्ना के लिए शायद यह मुश्किल था। लड़के के मुक़ाबले, एक लड़की की भावनात्मक सोच और विचारों का स्तर कुछ अलग ही होता है। अब चाहे जो भी हो लेकिन सच तो यही है कि‍ लड़के सिर्फ़ एक हद तक ही लड़की की भावनाओं को समझ पाते हैं। लड़की को शादी करके नया जन्म लेकर, जीवन भर के लिए दूसरे घर में में जाना पड़ता है। एक तरह से देखा जाए तो पैदा होने से लेकर अब तक की सारी भावनाओं का क़त्ल करके ही वो शादी के लिए नया जन्म ले पाती है। आज जिग्ना के साथ भी वही परिस्थिति थी लेकिन फ़िलहाल उसे पलाश के साथ किए हुए अपने प्यार के वादे को निभाने के लिए अगला क़दम उठाना था।

दूल्हा-दुल्हन को मंडप में बैठने के पंडित के आग्रह को सुनकर, दोनों जाकर हवन कुंड के एक ओर मंडप में बैठ गए। आर्य समाज मंदिर की शादी थी, फिर पलाश और जिग्ना की तो परिस्थितियाँ ही अलग थीं तो शादी के लिए विशेष कपड़ों की औपचारिकता की ज़रूरत नहीं थी। असल में उनके कपड़े तो पहले से ही विशेष थे जो नियति द्वारा पहले ही नियत थे। दोनों ने एक-दूसरे को अपने प्यार की निशानी स्वरूप गिफ़्ट किए हुए कपड़े ही पहने हुए थे। नियति तो जैसे उन्हें हर क़दम पर साथ ले आने की ज़िद कर चुकी थी।

शादी के लिए जो ज़रूरी था वो लड़के के लिए सेहरा और लड़की के लिए लाल चुनरी जो मंदिर में पहले से ही उपलब्ध थी। पंडित ने देर ना करते हुए पलाश को सेहरा और जिग्ना को चुनरी लेकर तैयार हो जाने को कहा। अगले ही पल दूल्हा-दुल्हन दोनों सेहरे और चुनरी के साथ तैयार थे। पंडित ने हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित कर मंत्र उच्चारण शुरू कर दिया। हवन कुंड की पावन अग्नि और पंडित के मंत्र उच्चारण से मंदिर का वातावरण पूरी तरह आध्यात्मिक हो चला था। जिग्ना और पलाश अगले कुछ मिनटों तक पंडित के निर्देशानुसार अग्नि के समक्ष शादी के अनुष्ठान में व्यस्त हो गए। शादी की जगह चाहे कोई भी रही हो लेकिन पूरे हिंदू रीति-रिवाज से दोनों की शादी हो रही थी, उससे भी ऊपर दोनों का सच्चा प्यार था जो अब अग्नि को साक्षी मानकर जीवन भर के लिए एक-दूसरे को स्वीकार कर रहा था।

इसी बीच, पंडित ने कन्यादान के लिए कहा। कन्यादान का हिंदू विवाह में अपना अलग महत्त्व है और लड़की के पिता को यह रस्म निभानी होती है। पलाश थोड़ा सोच में पड़ गया, क्योंकि जिग्ना के पिता तो वहाँ थे नहीं, लेकिन किसी को तो वो रस्म पूरी करनी थी। नियति तो अपनी तैयारियाँ पहले ही कर चुकी थी। देव के अंकल वहाँ उपस्थित थे और वो दोनों के ही पिता समान थे। अगले ही पल अंकल ने आगे बढ़कर कन्यादान की रस्म भी पूरी कर दी। अब अग्नि के समक्ष फेरे लेने का समय आ गया था। पंडित के निर्देशानुसार दोनों अपने स्थान पर खड़े हो गए थे। पलाश के हाथ में जिग्ना की चुनरी का एक छोर था और फिर एक-एक करके सात फेरों के साथ शादीशुदा जीवन के सात वचनों को निभाने के कर्तव्य के साथ ही पाणिग्रहण संस्कार पूरा हो गया। फेरों के बाद पंडित ने पलाश को पवित्र सिंदूर से जिग्ना की माँग भरने को कहकर, शादी की आख़िरी रस्म पूरी करने को कहा। पलाश ने अग्नि के समक्ष चुटकी भर सिंदूर जिग्ना की माँग में भर दिया और अब वो दोनों हमेशा-हमेशा के लिए शादी के बंधन में बँध चुके थे।

आख़िर में जिग्ना और पलाश ने आधिकारिक तौर पर मैरिज सर्टिफ़िकेट पर साइन किए। देव और अंकल ने भी गवाह के रूप में मैरिज सर्टिफ़िकेट पर साइन कर दिए। आर्य समाज मंदिर में शादी के लिए मंदिर प्रबंधन की कुछ फ़ीस तो तय होती ही है। देव और अंकल वो फ़ीस पहले ही दे चुके थे, फिर मंदिर प्रबंधन ने सर्टिफ़िकेट और गवाहों के पहचान पत्र के साथ उनकी जानकारी अपने रेकॉर्ड में दर्ज कर सर्टिफ़िकेट पलाश को सौंप दिया। अंकित, देव के साथ मिलकर शादी की सारी रस्में कैमरे में क़ैद कर चुका था जो बाद में पलाश के मूल निवास क्षेत्र के कोर्ट में शादी को रजिस्टर करवाने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ था। आख़िरकार, जिग्ना और पलाश आधिकारिक रूप से शादी के बंधन में बँध चुके थे।

अंकल के बताए अनुसार अभी उन सबको पहले अंकल के घर पहुँचना था लेकिन उसके बाद क्या करना है? यह अभी तक तय नहीं था। फ़िलहाल, अभी सबसे बड़ी बात यह थी कि शादी हो चुकी थी।

जैसे ही वो लोग मंदिर परिसर से बाहर आए। कुछ किन्नर आ गए और नवविवाहित जोड़े को नये जीवन की शुभकामनाएँ देते हुए रुपयों की माँग करने लगे। हिंदू संस्कृति में किन्नरों का भी अपना अलग महत्त्व है और उनके आशीर्वाद को बहुत शुभ माना जाता है। पलाश की जेब में कुछ पैसे थे, तो उसने बिना समय बर्बाद किए किन्नरों को कुछ रुपये देकर बात ख़त्म कर दी। असल में जिग्ना की माँग में सिंदूर भरा हुआ था और कोई भी उसे देखकर पहचान सकता था कि वो शादीशुदा है। पलाश ने तुरंत अपना कॉलेज बैग खोला और उसमें से वो सफ़ेद ऊनी कैप निकालकर जिग्ना को पहनने के लिए दी। जिग्ना की भरी हुई माँग कैप के कारण छुप गई थी और इस तरह एक दिन पहले चाँदनी चौक से ख़रीदी हुई उस सफ़ेद ऊनी कैप ने उनकी प्रेम-कहानी में अपना किरदार निभाया, जब तक कि वो घर नहीं पहुँच गए।

अगले कुछ ही मिनटों में वो सब लोग ऑटो में देव के अंकल के घर की ओर बढ़ रहे थे।

आगे क्या होना था? अब पलाश जिग्ना को लेकर कहाँ जाएगा? आगे दोनों का भविष्य क्या था?

क्या उन्होंने अपने माता-पिता को शादी के बारे में बता दिया? क्या उनके माता-पिता ने इस शादी के बाद उनको स्वीकार करेंगे? क्या जिग्ना के माता-पिता ने पुलिस रिपोर्ट कर दी थी?

पलाश के लिए अब ये सारे सवाल अगली चुनौती थे और वो इन्हीं सब सवालों के जवाब खोजने में उलझा हुआ था। ऑटो में सन्नाटा छाया हुआ था, सब लोग अपने-अपने तरीक़े से जो हो गया था उसे सोचने में लगे हुए थे और ऑटो अपनी गति से अंकल के घर की ओर बढ़ रहा था।

लगभग 5.30 बज चुके थे, जब वो सब लोग अंकल के घर पहुँचे। एक ओर तो पलाश को यह सुकून था कि जिग्ना और वो शादी के बंधन में बँध चुके थे। दूसरी तरफ़, वह भविष्य की चुनौतियों को लेकर परेशान भी था। वहीं, जिग्ना, कुछ शांत नज़र आ रही थी, हालाँकि, वह अपने जीवन का एक कठिन और चुनौती भरा फ़ैसला कर चुकी थी। देव तुरंत ही अंकित के साथ शादी की फ़ोटोज़ के प्रिंट निकलवाने के लिए प्रिंटिंग लैब चला गया था। आने वाली समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उसने शादी की फ़ोटोज़ की कई सारी कॉपी करवा ली थी। एक कॉपी पलाश ने अपने पास रख ली और सुरक्षा के मद्देनज़र देव को उन फ़ोटोज़ की डिजिटल कॉपी बनाकर सुरक्षित रखने को भी बोला।

शाम के 6.30 बज चुके थे और अँधेरा लगभग हो ही चुका था। शादी हो चुकी थी लेकिन अब जल्दी ही पलाश को आगे के लिए कुछ निर्णय लेना था। दोनों की ही अभी तक पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी और अभी की स्थिति में पलाश के पास कमाई का कोई साधन भी नहीं था। सबसे बड़ी बात यह थी कि पलाश अब शादीशुदा था और जिग्ना उसकी ज़िम्मेदारी थी। हालाँकि, आगे आने वाली हर कठिन परिस्थिति के लिए तैयार था लेकिन सच तो यही था कि घरवालों के सहयोग के बिना उसकी मुश्किलें बहुत ज़्यादा बढ़ जाने वाली थी। बहरहाल, अभी वो जिग्ना के साथ शादी करके अपना भावी जीवन तो नियत कर ही चुका था और अब देखना यह था कि उसके माता-पिता उन दोनों को स्वीकार करते हैं या नहीं। सारी परिस्थितियों और सभी अनिश्चितताओं को सैकड़ों बार सोचने के बाद आख़िर में पलाश ने अपने पिता को फ़ोन करके शादी के बारे में बताने का निर्णय लिया। वैसे भी, एक बार उन्हें बताना तो ज़रूरी था ही, फिर चाहे उनका निर्णय कुछ भी हो।

हालाँकि, पलाश ने अपने माता-पिता की बात को नज़रअंदाज़ करके अपने ख़ुद के निर्णय के अनुसार जिग्ना से शादी की थी लेकिन अभी माता-पिता को बताना ही सबसे अच्छा विकल्प था। पलाश ने माता-पिता को शादी के बारे में बताने की बात देव और अंकल से जब साझा कि तो वो दोनों भी इस बार पर पलाश के साथ पूरी तरह सहमत थे। लगभग शाम के 7 बजे का समय था जब पलाश ने आख़िरकार हिम्मत करके अपने पिता के मोबाइल नंबर पर कॉल किया। पलाश ने अपना मोबाइल अभी भी सुरक्षा कारणों से बंद ही रखा था और वो टेलीफ़ोन बूथ से पिता को काल कर रहा था। जब पिता ने फ़ोन उठाया था पलाश ने सीधे और नपे-तुले शब्दों में उन्हें बताया कि उसने जिग्ना से शादी कर ली है और अब वो दोनों घर आना चाहते हैं। पलाश के पास ज़्यादा कुछ बताने को था नहीं और परिस्थितियों के अनुसार उसने संक्षिप्त में बात करना ही बेहतर समझा। फ़िलहाल, पलाश के अच्छी तरह से पूर्ण कल्पित निर्णय और आत्मविश्वास भरी सीधी साफ़ बात ने उसे हरी झंडी दिखा दी थी। पिता ने भी संक्षिप्त में ही जवाब दिया, “जो हुआ ठीक है, अभी पहले घर आ जाओ।” बस इतने पर ही बात ख़त्म हो गई और फ़ोन कट गया। सब कुछ ऐसे हो रहा था मानो पहले से ही नियति ने सब नियत किया हो।

आख़िरकार, अब घर जाने का समय आ गया था वो भी जिग्ना को अपने साथ लेकर। जिग्ना और पलाश दोनों ही घर जाने की बात से बड़े ख़ुश थे। अंकल के घर पर ही हल्का-फुल्का खाना खाने के बाद दोनों ने अपना समान व्यवस्थित करके जाने के लिए तैयार हो गए थे। पलाश का बैग तो पहले से अंकल के घर पैक रखा हुआ था और जिग्ना के पास कॉलेज बैग में ज़्यादा कुछ था नहीं। अगर नया कुछ वो दोनों अपने साथ ले जा रहे थे तो वो थी आर्य समाज मंदिर में हुई शादी के फ़ोटोज़ और पिछले दो दिनों में बीते कठिन समय की यादें। निकलने के लिए उनके पास अभी पर्याप्त समय था। जयपुर के लिए ट्रेन रात के 9.15 पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से थी लेकिन पलाश ने ट्रेन से नहीं जाकर बस से जाने का निर्णय लिया क्योंकि रात का सफ़र था और जिग्ना के साथ जनरल डिब्बे की यात्रा मुश्किल होती। फिर जनवरी की सर्दी थी और रिज़र्वेशन के लिए समय निकल चुका था। दूसरी ओर बस के लिए कोई समय निर्धारित नहीं था और कम-से-कम अपनी सीट लेकर आराम से यात्रा की जा सकती थी।

आख़िर, अपनी प्रेम-कहानी से शादी तक की इस यात्रा में नियति द्वारा भेजे गए सभी लोगों को दोनों ने मन-ही-मन धन्यवाद दिया। देव दोनों को ऑटो तक छोड़ने के लिए आया और फिर पलाश, जिग्ना के साथ सराय काले ख़ान अंतर्राज्यीय बस स्टैंड के लिए निकल गया। वो सफ़ेद रंग की ऊनी कैप अभी तक जिग्ना ने लगाई हुई थी जो कि अब घर पहुँचकर ही हटने वाली थी। लगभग 9.30 का समय हो चुका था जब ऑटो बस स्टैंड पहुँचा। पलाश ने तुरंत ही काउंटर पर जाकर जयपुर के लिए दो टिकिट ले ली। अगले 10 मिनट में ही बस जयपुर के लिए निकलने वाली थी। जिग्ना खिड़की के साथ वाली सीट पर बैठी, चुपचाप बाहर देख रही थी और पलाश सीट के नीचे बैग व्यवस्थित करने में लगा था।

कुछ ही देर में बस चल पड़ी और फिर कुछ देर बाद ही रात का सफ़र होने के कारण ड्राइवर ने बस की लाइट बंद कर दी थी। बस में पूरा अँधेरा था और बस अपनी गति से जयपुर की ओर बढ़ रही थी। ठंड का मौसम होने के कारण अब चलती बस में ज़्यादा ठंड हो गई थी। दोनों के पास ओढ़ने के लिए बस एक छोटा, हल्का कंबल ही था जो मुश्किल से ही दोनों को पूरा ढक पा रहा था। जिग्ना पलाश के कंधे पर सर रखकर सोने की कोशिश कर रही थी। बस की खिड़की बंद थी लेकिन किनारे के महीन सुराख़ से होकर सर्द हवा अंदर आने में कामयाब हो रही थी। पलाश जिग्ना को कंबल से ढक कर सर्द हवा से बचाने की लगभग नाकाम-सी कोशिश बार-बार कर रहा था। मानो जैसे खिड़की के महीन छिद्रों से आती वो सर्द हवा पलाश को एहसास दिला रही थी कि मुश्किलें अभी ख़त्म नहीं हुई हैं।

आगे क्या हुआ?

क्या पलाश जिग्ना को लेकर सुरक्षित अपने घर पहुँचा?

क्या पलाश के माता-पिता ने उन दोनों को स्वीकार किया?

क्या पलाश वापस पंतनगर जाकर अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर पाया?

पलाश की ज़िंदगी वापस रानीखेत एक्सप्रेस से होकर पंतनगर कैसे पहुँची?

इन सभी सवालों के जवाब के साथ पलाश और जिग्ना की संघर्ष पूर्ण प्रेम-कहानी का अगला पड़ाव जानने के लिए आपको रानीखेत एक्सप्रेस के अगले चरण का इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा जिसमें आप पुलिस और अदालत के साथ-साथ सामाजिक बुराइयों का घिनौना रूप भी देखेंगे।

क्या जिग्ना और पलाश की प्रेम-कहानी यहाँ ख़त्म हो गई थी या फिर नई चुनौतियों को लिए हुए यह एक नई शुरुआत थी?