रेस्टोरेंट से बाहर आकर तीनों एक टैक्सी में सवार हुए और होटल कोहेनूर की ओर रवाना हो गए।
अजय उन दोनों के साथ पिछली सीट पर ही बैठा।
मन ही मन कुछ तय करते हुए उसने धीमे राजदाराना लहजे में कहा–"वो कलैक्शन सुमेरचन्द के पास है या नहीं, इसका पता तो आप भी लगा सकती हैं, रंजना जी।"
–"कैसे?" रंजना ने जानना चाहा।
–"बहुमूल्य वस्तुओं के संग्रहकर्ता, आमतौर पर, अपने संग्रह को तहखानों, स्ट्रांग रूम, वगैरा जैसी जगह रखते हैं और उसकी गोपनीयता एवं सुरक्षा के कड़े प्रबंध भी करते हैं।" अजय ने कहा–"जाहिर है हीरे, जवाहरात का संग्रहकर्ता होने के नाते, सुमेरचन्द ने भी अपने संग्रह की सुरक्षा के ऐसे ही प्रबंध किए हुए होंगे। आप बता सकती हैं, वे प्रबंध क्या हैं?"
–"शायद।" रंजना ने लम्बी खामोशी के बाद जवाब दिया।
–"क्या मतलब?"
रंजना बताने लगी।
अजय ध्यानपूर्वक सुनता रहा।
–"जो कुछ मैंने बताया है वो सब सुमेरचन्द अविनाश की बातचीत के आधार पर मेरा अनुमान है।" अंत में रंजना बोली–"यह किस हद तक सही है या किसी हद तक सही है भी या नहीं। मैं नहीं जानती।"
–"मान लो यह पूरी तरह सही है?"
–"तब भी वहां तक पहुंच पाना मेरे लिए नामुमकिन है।"
अजय कुछ नहीं बोला।
टैक्सी होटल कोहेनूर के सम्मुख पहुंच कर रुक चुकी थी।
अजय ने पुनः आश्वासन दिया कि वह असलियत का पता लगाने की पूरी कोशिश करेगा।
रंजना धन्यवाद देकर नीचे उतरी और होटल के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ गई।
* * * * * *
अजय के आदेश पर टैक्सी नीलम के निवास स्थान की ओर दौड़ने लगी।
–"रंजना दिमागी तनाव के बड़े मुश्किल दौर से गुजर रही लगती है।'' नीलम गंभीरतापूर्वक बोली। फिर गहरी सांस लेकर पूछा–"खैर, उसकी कहानी के बारे में क्या ख्याल है तुम्हारा?''
–"अगर उसकी कहानी सही है तो वह खुद भी बड़े भारी खतरे में है।" लम्बी खामोशी के बाद अजय विचारपूर्ण स्वर में बोला–"और अगर उसकी कहानी सही नहीं है तो मेंटल ब्रेकडाउन का शिकार होने वाली है। दरअसल वह बड़ी मुश्किल के साथ और बेमन से ही इस बात को स्वीकार कर पाने की कोशिश कर रही है कि सुमेरचन्द और उसका पति या अविनाश बुरे लोग हैं।'' फिर उसने इस ढंग से कहा मानो स्वयं से ही कह रहा था–“लगता है, बड़ी भारी तैयारी करनी पड़ेगी।"
नीलम चौंकी।
–"किस बात की?''
–"विशालगढ़ जाने की।"
–"कब जाओगे?''
–"सुबह चलेंगे।"
नीलम चकराई।
–"चलेंगे? और कौन जाएगा तुम्हारे साथ?''
–"तुम।"
नीलम के चेहरे पर एक पल के लिए अविश्वासपूर्ण भाव उत्पन्न हुए फिर पुलकित स्वर में बोली–"ओह तुम कितने अच्छे हो, अजय।''
अजय पूर्ववत् गंभीर था।
–"बेहतर होगा, अच्छा या बुरा होने का फैसला विशालगढ़ पहुंचने के बाद ही करो।"
–"क्यों?"
टैक्सी उस इमारत के सामने, जिसमें नीलम का फ्लैट था। पहुंचकर रुक गई थी। लेकिन उसका इंजन चालू था।
–"बताता हूं।" अजय बोला–"नीचे उतरो।"
नीलम टैक्सी से उतर गई।
–"बताओ।" वह उत्सुकतापूर्वक बोली।
अजय ने दरवाजा बन्द करके खिड़की से झांकते हुए पूछा–"नाराज तो नहीं होओगी?"
–"नहीं।" नीलम संदिग्ध स्वर में बोली।
–"मेरे साथ विशालगढ़ चलने का अपना इरादा भी नहीं बदलोगी?"
–"नहीं।"
–"प्रॉमिस?"
–"प्रॉमिस।"
–"तुम्हें वहां बतौर मेरी बीवी साथ रहना होगा।"
नीलम तुरन्त भड़क गई।
–"क्या बक रहे हो?" वह गुर्राकर बोली–"तुम्हारा भेजा तो खराब नहीं हो गया है?" और साथ ही उसका दायां हाथ हवा में लहराया।
लेकिन इससे पहले कि उसके हाथ में थमा हैंडबैग, खिड़की से बाहर झांकते, अजय के चेहरे से टकराता। अजय के आदेश पर टैक्सी आगे बढ़ चुकी थी।
–"गुड नाइट।" अजय गरदन घुमाकर ऊंची आवाज में बोला–"सुबह आठ बजे वाली ट्रेन पकड़नी है। ठीक वक्त पर स्टेशन पहुंच जाना।"
नीलम ने जवाब देने की बजाय खा जाने वाले भाव में टैक्सी की दिशा में घूरा फिर पलटकर, पांव पटकती हुई इमारत के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ गई।
अजय मुस्कराया। वह जानता था नाराजगी के बावजूद नीलम सही वक्त पर स्टेशन जरूर पहुंचेगी। उसने निश्चितता पूर्वक सिगरेट सुलगाकर सीट की पुश्त से पीठ सटा ली और अपनी योजना पर मन ही मन विचार करने लगा।
* * * * * *
वह वापस 'ब्लैक रोज' पहुंचा।
टैक्सी का भाड़ा चुकाने के बाद उसने पब्लिक काल से अपने एक ट्रेवल एजेंट दोस्त को फोन करके विशालगढ़ की दो ट्रेन टिकट का प्रबन्ध किया फिर रेस्टोरेन्ट के पार्किंग स्पेस से अपनी मोटर साइकिल निकाली और शहर के घनी आबादी वाले भाग की और ड्राइव करने लगा।
वह जमील से मिलने जा रहा था। करीब पचपन वर्षीय जमील अपने जमाने का लाजवाब तिजोरीतोड़ था। अपने पूरे अपराधी जीवन में किसी गिरोह में रहकर अथवा किसी और के लिए काम करने की बजाय उसने अकेले और अपने लिए ही काम किया। स्वयं निर्मित औजार, हुनर और तजुर्बा ही उसके साथी थे। शायद यही बड़ी वजह थी कि पकड़ा जाना तो दूर रहा उस पर कभी शक भी नहीं किया जा सका। उसके द्वारा की गई हर एक वारदात बेमिसाल कारनामा बनकर रह जाया करती थी।
लेकिन जमील अपने बारे में ऐसी किसी गलतफहमी का शिकार कभी नहीं हुआ। वह इस कठोर सच्चाई से भली–भांति परिचित था कि जिस रोज भी तकदीर दगा दे गई और उससे कोई चूक हो गई उसी रोज वह जेल के सींखचों के पीछे पहुंच जाएगा। साथ ही वह न तो लालची था और न ही अपने दायरे के लोगों में अपनी प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच आने देनी चाहता था। वैसे भी तिजोरी तोड़ने के अपने धन्धे से वह इतना नावां कमा चुका था कि उसकी अपनी जिन्दगी बड़े ही आराम व चैन के साथ गुज़र सकती थी। अपने दोनों बेटों को भी अच्छे कॉलेजों में ऊँची बढ़िया तालीम दिलाकर वह काबिल इंसान बना सकता था। ताकि वे इज्जत और शान के साथ शराफत की जिंदगी गुजार सकें। यही सब सोचकर करीब पन्द्रह साल पहले एक रोज उसने बाकायदा कसम खाकर तौबा कर ली और जरायम पेशा जिन्दगी से हमेशा के लिए किनारा कर लिया। अपनी उस कसम को जमील पूरी ईमानदारी के साथ निभाता भी रहा।
लेकिन अपने औजारों से, जिन्हें उसने बड़ी मेहनत और कुशलता के साथ बनाया था, उसे पहले जितना ही प्यार था। वह चाहकर भी उन्हें खुद से जुदा नहीं कर पाया। किसी दुर्लभ एवं अमूल्य वस्तु की भाँति बड़ी एहतियात के साथ वह उन्हें इस ढंग से छुपा कर रखता था कि उसके अलावा किसी और की निगाह भी उन पर न पड़ सके। उसकी बीवी की बरसों पहले मृत्यु हो चुकी थी और उसके बारोजगार और बाल–बच्चेदार बेटे सोच भी नहीं सकते थे कि उनका बाप एक जमाने में बेमिसाल तिजोरीतोड़ रह चुका है। उनकी निगाहों में उनका बापं सर्राफा बाजार का एक बेहद कामयाब दलाल था जो कि प्रत्यक्षतः जमील था भी।
जमील की गुजश्ता जिन्दगी के जरायम पेशा पहलू के बारे में बस कुछेक लोग ही जानते थे और उन जानने वालों में से अब सिर्फ उसका जिगरी दोस्त तीरथराम ही जिन्दा था। आपका होटल जो कि जरायम पेशा लोगों का एक खास किस्म का अड्डा था, का मालिक तीरथराम अजय का भी प्रशंसक और भरोसेमंद दोस्त था। काशीनाथ की हत्या के बाद, जब अजय विराट नगर के नए–पुराने तिजोरी तोड़ों के बारे में अपने ढंग से छानबीन कर रहा था, तीरथराम ने जमील के विगत जीवन के बारे में न सिर्फ अजय को बताया था बल्कि जमील से उसकी मुलाकात भी करा दी। हालांकि तीरथराम ने सौ फीसदी गारन्टी के साथ कहा था जमील बेगुनाह था और फिर भी अजय ने बड़ी सफाई से पूछताछ कराई तो पता चला काशीनाथ की हत्या की रात जमील कलकत्ता में था।
हालांकि अजय को जमील से न तो कोई कारामद जानकारी हासिल हुई और न ही हासिल होने की कोई उम्मीद नजर आई। मगर पहली ही मुलाकात में इकहरे जिस्म, साँवली रंगत और हर क्षण चौकस नजर आने वाला अधेड़ जमील उसे उसूल वाला और दिलचस्प आदमी जरूर नजर आया। वैसे भी उस पुराने खलीफा से मिलते रहने में कोई हर्ज अजय को दिखाई नहीं दिया। इसलिए मौका पाते ही अजय उससे मिलने चला आता था।
खुद जमील को भी अजय एकदम पसन्द आ गया था। फिर थंडर में उसके कारनामे पढ़कर वह भी तीरथराम की भाँति उसका प्रशंसक भी बनता चला गया। नतीजतन, उम्र के फर्क के बावजूद, दोनों में दोस्ताना ताल्लुकात बनते चले गए।
सहसा अजय चौंका और उसका विचार प्रवाह छिन्न–भिन्न हो गया। सामने कुछ ही गज के फासले पर बायीं ओर साइन बोर्ड गड़ा था–गली अफजल खाँ।
उसने फौरन स्पीड कम करके मोटर साइकिल उधर ही मोड़ दी। गली पन्द्रह–सोलह फुट से कम चौड़ी नहीं थी। करीब बीस गज गुजरने के बाद उसने साइड में मोटर साइकिल पार्क की और पास बने एक शानदार तीन मंजिला मकान की ओर बढ़ गया।
चन्द क्षणोपरान्त, डोरबैल के जवाब में, दरवाजा खुद जमील ने खोला। उसने एक पल के लिए हैरानगी से अजय को देखा फिर एक तरफ हटकर बोला–"आओ, बरखुरदार।"
अजय भीतर दाखिल हो गया।
जमील, दरवाजा पुनः बन्द करके, अजय सहित बैठक वाले कमरे में पहुंचा।
–"रात में बेवक्त कैसे तकलीफ की?" उसने पूछा।
अजय एक सोफा चेअर में धंस गया।
–"बेहद जरूरी काम से आया हूँ, जमील भाई।" संजीदगी के साथ बोला–"इन्कार मत करना।"
जमील खामोश खड़ा रहा।
–"तुम तो जानते ही हो मदन मोहन सेठी बेगुनाह है।" अजय अपनी ही रौ में कहता गया–"लेकिन रॉबरी विद मर्डर के जुर्म में उसे न सिर्फ सजा–ए–मौत सुना दी गई है बल्कि दस दिन बाद फाँसी भी लगा दी जाएगी।" फिर संक्षिप्त मौन के बाद बोला–"इस सिलसिले में मुझे एक लीड मिली है और मैं फौरन उसे फॉलो करके एक्शन लेना चाहता हूँ।" वह तनिक रुका। लेकिन जमील को फिर भी कुछ कहता न पाकर तीव्र स्वर में पूछा–"बोलो, क्या कहते हो?"
–"तुम नशे में तो नहीं बहक रहे हो?" जमील ने असमंजसता पूर्वक पूछा।
–"मजाक मत करो।"
–"मजाक मैं नहीं तुम कर रहे हो, बरखुरदार। बाकी गाथा तो गा गए मगर यह नहीं बताया मुझसे क्या चाहते हो?"
अजय के चेहरे पर खेदपूर्ण भाव प्रगट हो गए।
–"ओह! सॉरी, जमील भाई।" उसने कहा, फिर सुमेरचन्द का नाम लिए बगैर उसके संग्रह के बारे में रंजना द्वारा बताए गए सुरक्षा प्रबंधों को बड़े ही राजदाराना ढंग से दोहराने के बाद पूछा–"उस संग्रह तक कैसे पहुँचा जा सकता है?"
जमील मुस्कराया।
–"यह काम आसान नहीं है।"
–"इससे कोई मतलब मुझे नहीं है। यह सब कुछ तुम्हारी सरदर्दी है।" अजय जिद भरे लहजे में बोला–"मैंने हर हालत में उस संग्रह तक पहुँचना है।"
–"देखो अजय, एक बात साफ तौर पर समझ लो।" जमील ने कहा–"तुम्हारी या किसी की भी खातिर तिजोरी तोड़ने जैसा काम तो मैंने करना नहीं है।"
–"ऐसा कुछ करने के लिए मैं तुमसे कह भी नहीं रहा। अजय बोला–"सवाल तो यह है, मौत की सजा पाए एक बेगुनाह को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिए तुम क्या कर सकते हों?"
जमील दरवाजा बन्द करके ठीक उसके सामने बैठ गया।
–"संग्रह के सुरक्षा प्रबन्धों के बारे में एक बार फिर बताओ।" वह धीमे स्वर में विचारपूर्वक बोला।
अजय ने बता दिया।–"संग्रह कहाँ है और किसका है?" उसके कथन की समाप्ति पर जमील ने पूछा।
–"सॉरी, यह मैं नहीं बता सकता।
–"ठीक है।" खामोशी. से सोचने के बाद जमील बोला–"लेकिन सुरक्षा प्रबंधों के बारे में जो तुमने बताया है वो नाकाफी है। इसके आधार पर कुछ नहीं किया जा सकता।" उसने गहरी साँस ली–"अगर पूरी जानकारी समेत उस स्थान का नक्शा ले आते तो तुम्हें संग्रह तक पहुँचाने की तरकीब निकालने की कोशिश मैं कर सकता था। लेकिन।"
–"जितनी जानकारी मैंने दी है।" अजय उसकी बात काटकर बोला–"उसके भी सही होने की कोई गारन्टी नहीं की जा सकती जमील भाई।"
–"तब तो यकीनन तुम एक नामुमकिन काम को अंजाम देना चाहते हो।"
–"जो चाहो, समझ सकते हो। मैं सिर्फ इतना जानता हूं मौत की सजा पाए एक बेगुनाह को बेगुनाह साबित करने की मेरी उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है।"
जमील कुछ नहीं बोला। देर तक सोचने के बाद वह उठा और एक राइटिंग पैड और बालपैन ले आया।
–"तुम्हारी मदद करने की मैं पूरी कोशिश करूँगा।" वह पुनः अपनी कुर्सी पर बैठता हुआ–बोला–"बशर्ते कि तुम मेरे सवालों के जवाब दे सको। मंजूर है?"
–"यह तो सवाल सुनने के बाद ही बता सकता हूँ।"
न सिर्फ सुनता रहा बल्कि बीच–बीच में टोक–टोक कर सवाल भी करता रहा।
करीब दो घंटे बाद, जमील को जब पूरा यकीन हो गया अजय सब कुछ भली–भाँति समझ चुका था तभी उसने समझाना बंद किया।
–"तुम इन तमाम बातों को नक्शे की मदद से एक बार अपने आपको दोहराओ, अजय।" वह खड़ा होकर बोला–"मैं अभी आता हूँ।" और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।
अजय किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति, जमील द्वारा समझाई गई बातों को, मन ही मन दोहराने लगा।
जमील करीब दस मिनट बाद वापस लौटा। पुनः दरवाजा बंद करके वह अजय के पास पहुंचा। ड्रेसिंग गाउन की डोरी खींचकर खोलने के बाद उसने अपनी कमर के इर्द–गिर्द लिपटी आठ–दस इंच चौड़ी चमड़े की बैल्ट खोलकर मेज पर रख दी।
अजय ने देखा विभिन्न आकार–प्रकार के कोई डेढ़ दर्जन औजार उस बैल्ट में खुंसे हुए थे।
जमील बैठ गया और उन औजारों के प्रयोग के बारे में विस्तारपूर्वक बताने लगा।
इस काम में पूरा डेढ़ घंटा लग गया।
अंत में जरूरी हिदायतों, एहतियातों, वगैरा के बारे में बताने के बाद जमील बोला–"तुम एक नेक काम को अंजाम देने जा रहे हो, बर्खुरदार। इसीलिए मैंने तुम्हें न सिर्फ अपना राजदार बल्कि शागिर्द भी बनाया है। मैं अल्लाह ताला से तुम्हारी कामयाबी के लिए दुआ करूँगा। वह जरूर तुम्हारी मदद करेगा।"
–"शुक्रिया, जमील भाई।" अजय खड़ा हो गया।
जमील के संकेत पर उसने कोट उतारा, टूल बैल्ट उठाकर बांधी और पुनः कोट पहनकर बटन बन्द कर लिए।
जमील से विदा लेकर वह बाहर निकला।
* * * * * *
मुश्किल से आधा घंटा बाद वह पार्क स्ट्रीट पर स्थित उस सात मंजिला इमारत के एक गैराज में, अपनी मोटर साइकिल पार्क कर रहा था, जिसके चौथे खंड पर उसका फ्लैट था।
अपने फ्लैट में पहुंचा और अपनी जरूरी चीजें पैक करने – लगा। रोजाना की जरूरत की चीजों के अलावा उनमें प्रमुख चीज थी–टूल बैल्ट।
पैकिंग से निबटने के बाद उसने एक बार फिर अपनी योजना पर विचार किया और फिर एस० टी० डी० सुविधा का लाभ उठाते हुए विशालगढ़ में थंडर के स्थानीय संवाददाता को फोन किया।
कई सेकण्डों तक घंटी बजती रही। फिर एक उनींदा मर्दाना स्वर लाइन पर उभरा–"हलो?"
–"अरुण।" अजय आवाज पहचानकर बोला–"अजय बोल रहा हूँ विराट नगर से।"
–"हुक्म कीजिए।" अपेक्षाकृत सतर्क स्वर में कहा गया।
–"सुबह आठ बजे की ट्रेन पकड़कर मैं विशालगढ़ पहुँचूंगा। और वहाँ होटल अलंकार में ठहरूँगा।" अजय ने कहा–"इस बीच क्या तुम वहाँ एक किराए की कार का इन्तजाम कर सकते हो?"
–"जी, हाँ।"
–"गुड।" अजय बोला–"ध्यान से सुनो। सुबह होते ही तुमने होटल अलंकार में मिसेज एंड मिस्टर अजय कुमार के नाम से एक सस्ता सुइट बुक कराना है। फिर देखने में मामूली नजर आने वाली एक कार, जो एम्बेसेडर या फिएट न हो, किसी ऐसी कार रैंटल एजेन्सी से किराए पर लेनी है जिसका होटल अलंकार से किसी किस्म का रिश्ता न हो। उसके बाद कार को होटल के नजदीकी किसी पार्किंग लॉट में ले जाकर पार्क कर देना।नम्बर समेत कार के हुलिए की डिटेल्स, चाबियाँ, पार्किंग टिकिट वगैरा, को एक मोटे सील्ड लिफाफे में होटल अलंकार के रिसेप्शनिस्ट को इस हिदायत के साथ सौंप देना कि वहाँ पहुँचते ही वो मुझे मिल जाए। समझ गए?"
–"जी, हाँ। क्या चक्कर है?"
–"वहीं आने पर बताऊँगा।"
–"सॉरी, सर। मैं आपको नहीं मिल सकूंगा। मेरी बीबी प्रिगनेंट है। उसकी पहली डिलीवरी होनी है और मैंने रिवाज़ के मुताबिक उसे दोपहर की गाड़ी से अपनी ससुराल दिल्ली पहुँचाने जाना है। सारा प्रोग्राम तय हो चुका है।"
–"और मेरा काम?"
–"उसकी फिक्र मत करिए। वो हो जाएगा। मैंने. दोपहर की गाड़ी से जाना है।"
–"ठीक है। बहुत–बहुत धन्यवाद।"
अजय ने संबंध विच्छेद कर दिया।
उसने अपनी रिस्टवाच पर निगाह डाली–पौने तीन बज रहे थे।
कुछ देर आराम करने के विचार से बिस्तर पर फैल गया।
जल्दी ही वह नींद की बाँहों में समा गया।
उसके धीमे–धीमे खर्राटें गूंजते रहे।
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