अगले दिन सुबह नौ बजे महाजन, गुलशन बर्मा के साथ तयशुदा

जगह पर मौजूद था। वर्मा ने कहीं फोन किया था कि उस जगह पर एक आदमी टाटा सूमो छोड़ गया था।

“इस सूमो पर जम्मू चलना है?” महाजन ने सूमो पर नजर मारी।

“हां। सूमो में इतने लोग आसानी से आ जायेंगे।” वर्मा ने लापरवाही से कहा।

“अपने बारे में नहीं बताओगे।” महाजन बोला- “कम से कम मेरे फोन करने पर सूमो नहीं आ पाती। मेरी पहचान का ऐसा दिलदार इन्सान कोई नहीं है।”

“इसे मेरे पहचान वाले ने नहीं भेजा।” वर्मा इधर-उधर देखते हुए बोला।

“मतलब कि तुम्हारी है।”

“तुम्हारे बन्दे नहीं आये। नौ-बीस हो चुके हैं।” गुलशन वर्मा ने उसे देखा।

“आ जायेंगे। कुछ देर भी हो सकती है।”

“एक दो को तो आ ही जाना चाहिये था।”

“आने वाले होंगे।”

वक्त बीतने लगा।

समय दस से ऊपर हो गया।

“मेरे ख्याल में वो लोग नहीं आयेंगे।” गुलशन वर्मा ने महाजन को घूरा- “या फिर तुम्हारे पास ऐसे लोग हैं ही नहीं। ये सब ड्रामा तुमने मुझे बेवकूफ बनाने के लिये किया है।”

महाजन की तीखी निगाह गुलशन वर्मा पर जा टिकी।

“ठीक सोचा तुमने।” स्वर कड़वा था महाजन का- “मैं वास्तव में तुम्हें बेवकूफ बना रहा था।” कहने के साथ ही महाजन ने पेंट में फंसी छोटी सी बोतल निकाली और घूँट भरा।

वर्मा के दांत भिंच गये।

“दांतों पर ज्यादा जोर मत डालो।” महाजन बोतल को वापस पेंट में फंसाता हुजा बोला- “इस सब में टूट गये तो दाना पानी भी पेट में पहुंचना मुश्किल हो जायेगा।”

“तुम बहुत ज्यादा बोल रहे हो।”

“जैसी बात तुमने काही, मैं वैसी ही बातों में जवाब दे रहा है।”

“क्या गलत कहा मैंने। नौ बजे का वक्त था। अब सवा दस हो....”

तभी पास पहुंचकर ऑटो रुका।

देखते ही देखते अजीत सिंह छलांग मारकर बाहर निकला। कंधे पर छोटा सा बैग था।

“ओ महाजन! तेरे को देखकर तो दिल के मरीज को मज्जा ही आ गया। मैं तो...”

“सारा मजा तू मत ले। कुछ मुझे भी लेने दे।” इन शब्दों के साथ ही बलविन्दर सिंह ऑटो बाहर आया- “देखूं तो ये अपना वो ही महाजन है।”

“जो मजा बच पाये, वो मैं ले लूंगा।” कृष्णपाल निकला ऑटी से।

महाजन का चेहरा मुस्कराहट से भर उठा, तीनों को देखकर। आगे बढ कर उसने तीनों को बांहों के घेरे में लेकर छाती से लगा लिया।

“बस कर।” कृष्णपाल कह उठा- “तेरी बोतल चुभ रही है।”

कृष्णपाल के इन शब्दों पर बलविन्दर सिंह हंस पड़ा।

महाजन ने चेहरे पर मुस्कान समेटे उन्हें छोड़ा और बोला।

“तुम लोगों को सामने देखकर, मुझे बहुत अच्छा लग रहा है।”

“ओए, दिल मरीज से पूछ। मेरे को कितना अच्छा लग रहा है। हार्टअटैक हो चुका है। मेरे को तो डर था कि तेरे को देखकर फिर से दिल का दौरा न पड़ जाये। लेकिन ये जो दिल है ना, वो ही हरामी लगता है। एक बार हार्टअटैक का झटका देकर, ठण्डा होकर बैठ गया। दोबारा अटैक ही नहीं मारता। जान को इधर करता है न उधर।”

“फिक्र मत कर।” बलविन्दर सिंह ने उसका कंधा थपथपाया- “इस बार तेरे को तगड़ा अटैक होगा।”

“मैं तेरे को गारन्टी देता हूं कि नहीं होगा।” कृष्णपाल कह उठा।

सबकी निगाह कृष्णपाल की तरफ उठी।

“तू मेरे दिल की गारन्टी कैसे ले सकता है सूखे ।” अजीत सिंह ने मुंह बनाया- “तेरा बाप डाक्टर था या तेरे पड़ोस में डाक्टर रहता था?”

“मेरा बाप डाक्टर नहीं था। समझ बात को।”

“समझा क्या, यकीन भी कर लिया। क्योंकि अगर वहां डाक्टर होता तो तेरी ये सूखी हालत नहीं होती।” अजीत सिंह ने सिर हिला कर कहा- “लेकिन तूने ये गारन्टी कैसे दी कि मेरे को हार्टअटैक नहीं होगा।”

“मेरे पड़ोस में ज्योतिषी रहता था। उसने बताया था कि अजीत सिंह की मौत गोली लगने से होगी।”

“वाह! फिर तो वो बहुत पौंचा हुआ पंडित होगा। ये भी बताया था कि वो गोली देश के दुश्मनों की होगी?”

“हां” कृष्णपाल ने गहरी सांस ली- ये भी कहा था।”

“वाह! फिर तो मरने का मज्जा ही आ जायेगा।”

“गौरव शर्मा और वजीर सिंह नहीं आये?” एकाएक महाजन ने पूछा।

“तुमने पिछली बार गौरव शर्मा को पांच लाख रुपये दिये थे कि अगर उसे कुछ हो जाता है तो उसकी मां भूखी नहीं मरेगी।” बलविन्दर सिंह कह उठा- “वो तो बच आया था और उस पांच लाख से उसने काम-धन्धा शुरू किया। अब तो मोटे नोट पीट रहा है। मैंने उसे फोन किया तो साथ चलने को नखरे दिखाने लगा। बोला कि दो-चार दिन वो बोत व्यस्त हैं। लोगों से पेमेंट लेनी है। और भी परेशानियां बताने लगा। मेरे से तो उसकी इतनी बातें सुनी नहीं गई। मैंने उसे जगह का पता बताकर कहा कि वक्त पर पहुंचना हो तो पहुंच जाना। नहीं तो मौज कर। तेरे बिना हमारा काम रुकने वाला नहीं।

महाजन ने बोतल निकाल कर घूँट भरा।

“बलविन्दर ठीक कहता है। कृष्णपाल कह उठा- “गौरव शर्मा के बिना भी हमारा काम चल...”

ठीक उसी समय टैक्सी वहां आकर रुकी।

उनके देखते ही देखते गौरव शर्मा बाहर निकला। इस वक्त वो खाता-पीता....पैसे वाला व्यक्ति लग रहा था। गले में सोने की चेन।

हाथ की दो उंगलियों में कीमती अंगूठियां। महंगे कपड़े।

“आ गया।” अजीत सिंह बोला- “मज्जा ही आ गया। ठण्डक पहुंची दिल के मरीज को, तेरे को देखकर।”

उन सबको देखते ही गौरव शर्मा मुस्करा पड़ा।

“दांत कम फाड़” बलविन्दर मुंह बनाकर बोला- “कल तो आने में नखरे दिखा रहा था।”

“चारों को देखे बिना दिल भी तो नहीं मानता।” हंसकर कहते हुए गौरव शर्मा आगे बढ़कर सबके गले मिला, फिर टैक्सी वाले को पैसे देकर, अपना बैग बाहर निकाल कर कंधे पर लगाया।

टैक्सी आगे बढ़ गई।

“दिखता नहीं तेरे को।” कृष्णपाल कह उठा- “हमारा ऑटो वाला अभी तक खड़ा है। हम उसे पैसे देने भूल गये तो तू ही दे दे। अब तो माल वाला बन्दा हो गया है।”

गौरव शर्मा ने मुस्कराकर ऑटो वाले को पैसे दिए तो वो भी चला गया।

महाजन ने पुनः घूँट भरा।

“तुम लोगों को देखकर, आज मुझे वैसे ही खुशी हो रही है, जैसे बाग के माली को होती है कि उसके लगाये पौधे खिल उठे हैं। मेहनत बेकार नहीं गई।” महाजन मुस्कराकर कहा- “दुश्मनों से टकराने के लिए, मैं खुद को अकेला महसूस करता। लेकिन तुम लोगों को पास पाकर लगता है मेरे पास इतनी बाहें हैं कि दुश्मनों पर वार करते हुए थकेंगी नहीं।”

“हम तो देश के दुश्मनों के लिए मौत की ब्रिगेड हैं।” अजीत सिंह कह उठा।

“मौत की ब्रिगेड? कृष्णपाल बोला- “बिग्रेड में इतने कम लोग नहीं होते। उसमें तो...”

“ओए, ये हमारी प्राईवेट ब्रिगेड है। सरकारी ब्रिगेड की बात नहीं कर रहा मैं।” अजीत सिंह छाती ठोककर कह उठा- “ओए, प्राईवेट मामले तो प्राईवेट ही होते हैं। हम जो मर्जी कहें।”

“ठीक कहता है अजीत सिंह।” गौरव शर्मा हंसा- “हमारा काम। हमारा दाम। और करने वाले भी हम। किसी को क्या।”

“अब तूने की यारी वाली बात। मेरी बातों में हां मिलाकर।” अजीत सिंह हंस पड़ा।

गुलशन वर्मा सूमो से टेक लगाये खड़ा, इन सबको देख-सुन रहा था। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे सोच रहा हो कि इनमें कितना दम-खम है। वक्त आने पर ये कुछ कर सकते हैं या पीठ दिखा देंगे। उसकी सोच किसी किनारे पर नहीं पहुंच पा रही थी।

“वजीर सिंह नहीं आया क्या?” गौरव कह उठा।

“तूने कहा था कि तू उसे खबर भिजवा देगा।” बलविन्दर सिंह बोला।

“हां। वो सोनीपत के पास के गांव में है। मैंने रात को ही अपने ड्राईवर के हाथ, उसके लिये मैसेज भिजवा दिया था।”

“तो ड्राईवर ने क्या कहा?”

“ड्राईवर नहीं आया। उसका गांव करनाल के पास पड़ता है। उसका परिवार वहां है। कई दिन से वो छुट्टी के लिये कह रहा था। मैंने तुम लोगों के साथ जाना था। तो उसे कहा कि वजीर सिंह को मैसेज देकर गया कि वजीर सिंह से जो बात हो, वो फोन पर मुझे बता दे।”

पांच दिन के लिये अपने गांव चला जाये। लेकिन उसे ये कहना भूल महाजन ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी।

“वजीर सिंह को इसी जगह का वक्त दिया था।”

“हां। नौ बजे पहुंचने को बोला था।” गौरव शर्मा ने कहा।

“अब ग्यारह बज रहे हैं।” महाजन ने सोच भरी निगाहों से तीनों को देखा- “वजीर सिंह के न आने के दो ही मतलव हो सकते है कि या तो उस तक मैसेज नहीं पहुंचा या फिर जगह के बारे में गलत समझा होगा। अगर ये बात नहीं है तो वो अवश्य किसी ऐसे काम में फंसा होगा कि यहां नहीं पहुंच पाया। वरना वजीर सिंह उन लोगों में से नहीं है, जो ऐसे काम से पीछे हट जायें।”

“मतलब कि अब वो नहीं आयेगा।” कृष्णपाल के होने से निकला।

“उसके न आने की वजह तो नहीं मालूम। लेकिन तय वक्त से दो घंटे ज्यादा का वक्त हो गया है। इससे ज्यादा उसका इन्तजार करना किसी भी तरफ से समझदारी नहीं।” महाजन ने कहा।

“अगर वक्त हो तो उसका इन्तजार कर...” बलविन्दर सिंह ने कहना चाहा।

“हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है।” महाजन ने टोका- “जम्मू पहुंचना है हमने। अगर देर हो गई तो फिर हमारे वहां जाने का कोई फायदा नहीं होगा।”

“ये बात है तो अभी चल पड़ो। छोड़ो वजीर सिंह को।” अजीत सिंह कह उठा।

“मैं भी यही कहने जा रहा था।” गौरव शर्मा मुस्कराया।

“कमाल है! तू तो दिल के मरीज की हर बात में हां लगा रहा है। मेरी तो कोई जायदाद भी नहीं कि जो तू मुझे मक्खन लगाये। कोई दूसरा लालच हो तो, उसका कोई फायदा नहीं होगा। मैं मौका ही नहीं दूंगा।”

“दूसरा लालच?” गौरव शर्मा ने उसे देखा।

“तू नहीं समझेगा।” बलविन्दर सिंह कह उठा।

गौरव शर्मा के चेहरे पर उलझन उभरी। वो कुछ कहने ही लगा था कि महाजन बोला।

“वो आ गया।”

“कौन?” अजीत सिंह के होंठों से निकला।

“उधर देख, वो अपना वजीर सिंह।” कृष्णपाल खुशी से भरे स्वर में कह उठा।

सबकी निगाह उस तरफ उठी।

फुटपाथ पर ही वजीर सिंह कंधे पर छोटा सा बैग लटकाये उनकी तरफ बढ़ा आ रहा था।

गुलशन वर्मा ने भी उसे देखा।

वजीर सिंह के सिर के बाल छोटे-छोटे थे। चेहरे पर मूंछे थीं। तीन-चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई थी। वो काली पैंट और हल्की नीली कमीज में था। कपड़े मैले से हो रहे थे। पांवों में सफेद रंग के स्पोर्ट्स शूज थे, वो भी मैले हो रहे थे।

उसने दूर से उन्हें अपनी तरफ देखते पाकर हाथ हिलाया।

“हाथ तो ऐसे हिला रहा है जैसे योरोप से शादी करके मेम लाया हो और ये एयरपोर्ट हो।” बलविन्दर सिंह बोला।

“ओए, तेरे को क्या । योरोप से आये या सोनीपत के गांव से । मेम लाये या ग्रामीण युवती । तू हमेशा दूसरों की जेब में हाथ डालता है।” अजीत सिंह मुंह बनाकर कह उठा- “अपना यार आ गया, ये क्या कम है। मेरे हार्ट अटैक वाले दिल की उम्र बढ़ गई अपने यार को आता देखकर।”

“ये तो बहुत पैसे वाला है।” कृष्णपाल बोला- “इसका बाप तो जमींदार था।”

“तो?”

“इसकी हालत कुछ खास बढ़िया नजर आ रही-।”

“मेरे को क्या। यार तो यार होता है। मेरे को तो हालत ठीक-ठाक नजर रही है। पहले से ज्यादा सेहतमंद हो गया है। मूंछे भी करारी हो गई हैं। भैंस के असली दूध की धारें लेता होगा, सीधी-सीधी।”

वजीर सिंह पास आ पहुंचा।

सब दिल खोलकर गले मिले।

महाजन ने उसे छाती से लगाया। वजीर सिंह का चेहरा देखकर लग रहा था, जैसे बहुत दिनों बाद वो मुस्कराया हो। सब से मिलने के बाद बोला।

“मैंने तो सोचा था कि तुम लोग नहीं मिलोगे। यहां पहुंचने में देरी हो गई।”

“ठीक बोला तू। हम तो निकल ही रहे थे। देरी क्यों हुई तेरे को?”

“मैं तो वक्त पर गांव से निकला। लेकिन रास्ते में ऐसी जगह कार खराब हो गई कि जहां न तो कार ठीक करने का कोई इन्तजाम था, ना ही उसे मैं ठीक कर सकता था।” वजीर सिंह ने मुंह बनाया- “लिफ्ट भी नहीं मिली। रोडवेज की बस के सामने ठीक सड़क के बीच खड़ा हो गया, तब बस में बैठ सका। यहां से कुछ दूर ही बस ने उतारा तो मैं यही सोचकर वहां से पैदल ही इस तरफ आने लगा कि तुम लोग नहीं मिलोगे। जो चुके होगे।”

“वो तो ठीक है। मिल गये।” कृष्णपाल बोला- “लेकिन हालत देखकर नहीं लगता कि तू तगड़े जमींदार का बेटा है। पहले तो ठां-ठां था।”

वजीर सिंह के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“फिर वही बात।” अजीत सिंह उखड़ा- “ओ तूने इससे उधार वापस लेना है या देना है जो तेरे को चिन्ता लग गई कि इसके बाद की जमींदारी फेल हो गई या अभी पास की हालात में चल रही है।”

“मेरा बाप मर गया था अस्पताल में।” वजीर सिंह ने गहरी सांस ली- “वो अस्पताल में मर रहा था और वो ही वक्त मिल्ट्री में मेरा इन्टरव्यू देने का था। मैं अपने पिता को उस हाल में छोड़कर नहीं जाना चाहता था, लेकिन भाई-भाभियों की जबर्दस्ती पर चला गया। लेट पहुंचा। इन्टरव्यू का वक्त खत्म हो चुका था। मिल्ट्री में नहीं जा सका। उम्र की समय सीमा भी खत्म हो गई कि दोबारा मिल्ट्री में भर्ती होने के लिये इन्टरव्यू नहीं दे सकता था। वापस पहुंचा तो पिताजी नहीं रहे।”

“मतलब कि सारी मुसीबतें एक साथ ही सिर पर आईं।” गौरव शर्मा ने धीमे स्वर में कहा।

“शायद यही जिन्दगी है।” वजीर सिंह शांत भाव में करा पड़ा।

“तू तो इसी शहर में कमरा किराये पर लेकर रहता....।” बलविन्दर सिंह ने कहना चाहा।

“ये बातें बाद में भी हो सकती हैं।”

“महाजन ठीक कहता है। यहां खड़े हम क्यों वक्त खराब कर रहे हैं।” अजीत सिंह कह उठा- “कस के गले मिलना है तो रास्ते में भी मिल सकते हैं।”

“जम्मू जाना है?” गौरव शर्मा ने पूछा।

“हां।” महाजन ने पैंट में फंसी बोतल निकाल कर घूँट भरा- “बाकी जो भी पूछना हो, रास्ते में ही पूछना। यहां कोई सवाल-जवाब नहीं होगा।”

“ये बगुला भक्त कौन है?” बलविन्दर सिंह ने छः-आठ कदमों की दूरी पर खड़े गुलशन वर्मा की तरफ इशारा करके कहा- “मजे से हम लोगों की बातें सुन रहा है।”

सबकी निगाह गुलशन वर्मा पर गई।

वर्मा जवाब में मुस्कराया।

“हम जिस काम के लिये चल रहे हैं। उसमें ये भी साथ है।”

महाजन बोला-“गुलशन वर्मा नाम है इसका।”

“गुलशन वर्मा तो नाम हुआ इसका।” अजीत सिंह ने कहा- “लेकिन करता क्या है ये?”

“मालूम नहीं।” महाजन ने सिर हिलाया- “लेकिन इस काम में हमारे साथ है।”

“महाजन!” अजीत सिंह के माथे पर बल पड़े- “ये तेरे को मालूम नहीं कि ये कौन है और काम में हमारे साथ है। क्या पता ये दुश्मनों का ही साथी हो और हमें फांस रहा हो।”

“बात तो सही है।” कृष्णपाल ने तुरन्त सिर हिलाया।

महाजन की निगाह गुलशन वर्मा पर गई।

वर्मा शांत ढंग से मुस्करा रहा था।

तभी वजीर सिंह आगे बढ़ा। पास पहुंच कर वर्मा को सिर से पांव तक देखा।

“महाजन।” वजीर सिंह के स्वर में किसी तरह का भाव नहीं था- “इस काम में इसकी जरूरत है?”

“हां- “

“तो ये साथ ही रहेगा।” वजीर सिंह ने पहले वाले स्वर में ही कहा।

“वजीरे!” अजीत सिंह बोला- “ये दुश्मनों का आदमी भी तो.....”

“तो इसकी गर्दन उसी वक्त तोड़ देंगे।” वजीर सिंह की आवाज में बहुत नर्मी थी- “महाजन को इसके साथ रहने की जरूरत है तो समझो, हमें भी जरूरत है। महाजन बेवकूफ नहीं है जो किसी ऐसे इन्सान को खास काम में साथ रखे है, जिसके बारे में इसे ज्यादा जानकारी नहीं है। बाकी बातें सफर में पूछ लेंगे।”

महाजन के होंठों छोटी-सी मुस्कान उभरी।

“ठीक है।” अजीत सिंह ने गुलशन वर्मा को घूरा- “इस पर बराबर नजर रखूगा।”

“चलो। सूमो में बैठो।” महाजन बोला।

“सूमो से जम्मू तक जाना है। बढ़िया है। अच्छी दौड़ती है।”

अजीत सिंह सूमो की तरफ बढ़ा- “मैं ड्राइव करूंगा।”

“गाड़ी चलाते वक्त तेरे को फिर से हार्टअटैक हो गया तो हमें ले डूबेगा।” बलविन्दर बोला।

“इतना ही डर लगता है तो सूमो के भीतर मत बैठना। छत पर बैठ जा। जब मेरे को हार्टअटैक हो तो छत से कूद जाना और पीछे आते ट्रक के पहियों के नीचे आकर मर जाना।” अजीत सिंह ने तीखे स्वर में कहा- “जब देखो सड़ी-सड़ी बातें ही करता रहता है।”

अजीत सिंह ने सूमो की ड्राईविंग सीट संभाल ली। बगल में कृष्णपाल बैठ गया।

बाकी सब पीछे बैठे।

जम्मू के लिये सफर शुरू हो गया।

☐☐☐

दिन के बारह बजे तक मोना चौधरी और पारसनाथ जम्मू पहुंच गये थे। सारे रास्ते पारसनाथ ने ही कार ड्राइव की थी। माना चौधरी ने कार के पीछे वाली सीट पर अच्छी नीट ली थी। आखिरी ढाई-तीन घंटे पारसनाथ पीछे वाली सीट पर जा सोया था और तब माना चौधरी ने कार ड्राइव की थी।

मोना चौधरी ने जम्मू के भरे पूरे बाजार में कार रोकी और इंजन कर दिया।

पीछे वाली सीट पर लेटा पारसनाथ उठ बैठा ! इधर-उधर देखा।

“तुम बैठो। मैं सूरज पाहवा को फोन करके आती हूं, जिसके बारे में नकली अविनाश परेरा ने बताया था।”

“क्या बात करोगी?”

“अभी कुछ नहीं कह सकती। पहले देखूंगी, उधर से क्या जवाब मिलता है।”

कार से निकलकर मोना चोधरी सामने नजर आ रही दुकान पर पहुंची, यहां लोकर फोन का बोर्ड लगा था। वहां से उसने नम्बर मिलाकर बात की।

“हैलो।” दूसरी तरफ से आवाज आई।

“मिस्टर सूरज पाहवा बोल रहे हैं?” मोना चौधरी ने कहा।

“कमाल है!” दूसरी तरफ से उखड़ा स्वर कानों में पड़ा- “जो भी फोन करती है। उसे ही पूछती है। कभी तो मुझे भी पूछ लिया करो। दिखने में उससे तो बहुत अच्छा हूं मैं...”

मोना चौधरी के होंठों पर छोटी-सी मुस्कान उभरी।

“अगली बार तुम्हें पूछ लूंगी।”

“पक्का--?”

“मेरा नाम मालूम है?”

“नाम की क्या जरूरत है। तुम्हारी आवाज मैं हमेशा याद रखूगी।”

“भूल मत जाना।”

“मैं कभी भी कोई बात नहीं भूलती। सूरज पाहवा कहां है?” मोना चौधरी ने कहा।

“अभी है नहीं। आने वाला है।”

“कितनी देर में आयेगा?”

“कभी भी आ सकता है वो कोई खास काम-बात हो मुझे बताओ।”

“नहीं। तुमसे बात नहीं बनेगी। उसी से काम था।”

“मुझसे भी बात बन जायेगी। तुम जो भी हो, एक बार मुझे आजमाकर तो देखो।”

मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“वो काम नहीं है जो तुम समझ रहे हो। तुम मुझे पता दो। मैं आ जाती हूं। मेरे पास फोन नम्बर ही है।”

“नोट करो।”

मोना चौधरी ने पता सुना और मस्तिष्क में बिठा लिया।

“आ रही हो?” उधर से आवाज आयी।

“आ जाओ। देखू तो सही कि तुम देखने में कैसी लगती हो।”

“देखकर ही तुम्हारी तसल्ली हो जायेगी।” कहने के साथ ही मोना चौधरी ने रिसीवर रख दिया।

पारसनाथ कार की ड्राइविंग सीट पर आ पहुंचा था।

मोना चौधरी उसकी बगल की सीट पर बैठती हुई बोली।

“फोन पर सूरज पाहवा तो नहीं मिला, लेकिन जहां पर फोन लगा है, वहां का पता मिल गया है। सूरज पाहवा वहां पहुंचने वाला है। उसे पकड़ने का हमारे पास बहुत अच्छा मौका है।”

“पता क्या है?”

मोना चौधरी ने पता बताकर कहा।

“रास्ते में पूछना पड़ेगा। जगह हमारे लिये अन्जान है।”

पारसनाध ने कार आगे बढ़ा दी।

“गुलशन वर्मा ने कहा था कि वो हम पर नजर रखवायेगा।”

मोना चौधरी कार से बाहर देखते हुए कह उठी- “तुम्हारा क्या ख्याल है कि इतने लम्बे सफर के बाद भी उसके आदमी की नजर हम पर होगी?

“यकीन के साथ कुछ नहीं कह सकता।”

आधे घंटे बाद ही मोना चौधरी सूरज पाहवा वाले पते पर पहुंच कर बेल बजा रही थी।

दरवाजा खोलने वाला पच्चीस वर्षीय युवक था। उसने मोना चौधरी को देखा फिर पीछे खड़े पारसनाथ को। मोना चौधरी को देखकर उसके चेहरे पर प्रशंसा के भाव आ गये थे।

“यस?” उसने पूछा।

मोना चौधरी फौरन उसकी आवाज पहचान गई।

“तुमने ठीक कहा था कि तुम देखने में बुरे नहीं हो।” मोना चौधरी मुस्कराकर कह उठी।

“ओह, तुम!” उसके होंठों से निकला- “आओ-आओ-आओ। साहब कौन हैं?”

“सूरज पाहवा इन्हें अच्छी तरह जानता है।” मोना चौधरी ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा।

पारसनाथ भी भीतर आ गया।

ये छोटा सा ड्राइंगरूम था। इसके आलावा वहां दो बैडरूम थे।

“बैठो। खड़े क्यों हैं आप लोग।” उस युवक ने कहा। बार-बार वो मोना चौधरी को निहार रहा था।

मोना चौधरी आगे बढ़ी और बैठते हुए बोली।

“सूरज पाहवा नहीं आया?”

“नहीं। वो आने ही वाले होंगे।”

पारसनाथ भी तब तक बैठ चुका था।

“तुम उसके क्या लगते हो?”

“मैंने क्या लगना है, नौकर हूं। नौकरगिरी करता हूं। मेरे कपड़ों पर मत जाना कि ये बढिया हैं। सफाई-झाडू से लेकर, खाना बनाने तक, कपड़े धोने तक और आने वाले फोनों पर या लोगों का रिकार्ड रखना मेरी नौकरी है। बदले में जो मुझे मिलता है वो मेरे लिये बहुत है।”

“नाम क्या है तुम्हारा?”

“भोलानाथ...”

“पाहवा साहब करते क्या हैं?”

“तुम ये सब क्यों पूछ रही हो? यहां तक आई हो तो तुम्हें सब मालूम होना....”

“मालूम है। मालूम है।” मोना चौधरी ने लापरवाही से मुस्करा कर कहा- “फिर भी पूछ रही हूं। शायद तुम्हें मालूम हो कि पाहवा साहब ने अपने रिश्ते की बात चलाई है। इसलिये ये सब पूछना...”

“रिश्ते की बात?”

“हैरान क्यों हो रहे हो?”

“मुझे तो खबर भी नहीं है कि मालिक ऐसा कर रहे हैं!” भोलानाथ सिर खुजलाने लगा।

मोना चौधरी कुछ कहने लगी कि तभी खुले दरवाजे पर कोई आ खड़ा हुआ।

आने वाला सूरज पाहवा ही था, जो कि चालीस बरस का स्वस्थ व्यक्ति था। लम्बाई छ: फीट को छू रही थी। पैंट के ऊपर हाफ बाजू की शर्ट पहनी हुई थी।

“मालिक!” भोलानाथ कह उठा- “आपसे मिलने आये हैं।”

सूरज पाहवा ने दोनों को देखकर सिर हिलाया, फिर दूसरे कमरे में दरवाजे की तरफ बढ़ा।

“इन्हें पानी पिलाओ। मैं आता हूं।” वो दूसरे कमरे में चला गया।

भोलानाथ उसके पीछे-पीछे दूसरे कमरे में पहुंचा।

“कौन हैं ये लोग?” सूरज पाहवा दांत भींचकर, धीमे स्वर में कह उठा।

“गड़बड़ हो गई।” भोलानाथ ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी- “इस लड़की ने फोन पर इस तरह बात की जैसे तुम्हें पुराना जानती हो। पता मांगा तो मैंने पता दे दिया। उस आदमी के साथ यहां आ गई। अब तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रही है कि तुम क्या करते हो। पूछने पर कहने लगी कि तुमने कहीं रिश्ते की बात चलाई है। इसलिये पूछताछ जरूरी है। मेरे ख्याल में ये दोनों पुलिस वाले हो सकते।”

“तुमने एक बार पहले भी ऐसी ही गलती की थी।” सूरज पाहवा दांत भींच कर बोला- “अब फिर वही गलती कर दी। उसके पास फोन नम्बर था तो उसे पता दे दिया। भीतर बिठा दिया। अगर ये लोग पुलिस वाले हुए या कोई मुसीबत खड़ी करेंगे तो बचना कठिन हो जायेगा। इस बार मैं तुम्हें...”

“उस पर क्यों नाराज होते हो।”

आवाज सुनते ही उन दोनों की नजर घूमी।

दरवाजे पर रिवाल्वर थामे मोना चौधरी खड़ी थी। होठों पर मुस्कान। आंखों में कठोरता।

सूरज पाहवा की आंखें सिकुड़ गईं।

“कौन हो तुम?” सूरज पाहवा के चेहरे पर गुस्सा नजर आने लगा- “इस तरह किसी के घर में घुसकर, उस पर रिवॉल्वर तानने का मतलब जानती हो।”

“मतलब पूछने वाला यहां है ही कौन।” सख्त स्वर में कहते मोना चौधरी दो कदम भीतर आ गई।

अब दरवाजे पर पारसनाथ आने लगा। रिवॉल्वर हाथ में दबी थी।

सूरज पाहवा की नजरें पारसनाथ पर गईं, फिर मोना चौधरी पर जा टिकीं।

“कौन हो तुम?”

“बख्तावर सिंह ने तुम्हें नहीं बताया।” मोना चौधरी के कठोर स्वर में कहर भर आया।

“बख्तावर सिंह?” सूरज पाहवा की आंखें सिकुड़ीं। उसी पल आंखें फैल गईं- “तुम-मोना चौधरी।”

“खूब-।” मोना चौधरी के चेहरे पर जहरीले भाव फैलते चले गये- “पहचानने में देर नहीं लगाई।”

सूरज पाहवा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरे पर से कई रंग गुजर गये।

“म-मर वार में कैसे पता चला?”

“चल गया।”

“तुम-तुम तो दिल्ली में थीं। बख्तावर सिंह ने यही बताया था कि वो तुम्हें वहां उलझा आया है।”

“मैं कटी हुई पतंग की डोर नहीं जो उलझ जाऊंगी।” मोना चौधरी उसी अंदाज में हंसी- “तुमने बातचीत करने से मेरा काम आसान हो गया कि तुम्हें कुछ भी बताने-समझाने की जरूरत नहीं। अब तुम समझ ही चुके हो कि मैं यहां बख्तावर सिंह की तलाश में आई हूं और तुम जानते ही हो कि वो कहां है। समझे मेरी बात-?”

सूरज पाहवा के चेहरे पर फंसे भाव नजर आने लगे।

“बख्तावर सिंह इस वक्त कहां मिलेगा?” मोना चौधरी का कठोर स्वर शांत था।

वो चुप रहा।

“ये ऐसे नहीं बतायेगा।” पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा और उसकी तरफ बढ़ना चाहा।

“जल्दी मत करो पारसनाथ । पहले मुझे बात कर दो। चौधरी ने कहा तो पारसनाथ ठिठक गया- “पहले ये बताओ कि बख्तावर हिन्दुस्तान में क्या करने आया है।”

सूरज पाहवा चुप रहा। रह-रह करके सूखे होंठों पर जीभ फेर रहा था।

“सुनो पाहवा!” मोना चौधरी का स्वर खतरनाक हो गया- “जो बात मैं जानने आई हूं, वो तो जान कर ही यहां से जाऊंगी। अगर यह सोचो कि यूं ही चली जाऊंगी तो गलत सोच रहे हो। अगर बिना जवाब के जाना पड़ा तो पीछे तुम्हारी और इसकी लाशें ही छोड़कर जाऊंगी।”

सूरज पाहवा ने जल्दी से भोलानाथ को देखा।

“मेरे पास वक्त कम है। इस वक्त तो बताओ या गोली खाओ जैसी बात है। पसन्द तुम्हारी।” स्वर में क्रूरता आ गई थी मोना चौधरी के- “पारसनाथ इनकी जेबें चैक करो।”

पारसनाथ ने आगे बढ़कर दोनों की तलाशी ली। दोनों से रिवॉल्वर मिले।

सूरज पाहवा के चेहरे पर घबराहट स्पष्ट नजर आने लगी।

“ये वही मोना चौधरी है, जिसके बारे में तुमने मुझे बताया था?”

भोलानाथ ने पूछा।

“हाँ।”

“तुम ही तो कह रहे थे कि बहुत खतरनाक है। बख्तावर सिंह जैसा आदमी भी इसके सामने पड़ने से बचना चाहता है।” भोलानाथ घबराकर कह रहा था- “सोचते क्या हो बता दो, जो ये पूछती है।”

“तुमसे ज्यादा तो ये ही समझदार है।”

“इसी की समझदारी का नतीजा है कि तुम यहां हो।” सूरज पाहवा में गहरी सांस ली- “ये सच है कि मैं तुमसे धोखेबाजी करना ठीक नहीं समझता। जिसके सामने बख्तावर सिंह न पड़ना चाहता हो, तो मैं क्या हूं। लेकिन इस बात का वायदा करना होगा कि हम दोनों को कुछ नहीं कहोगी।”

“वायदा रहा।” मोना चौधरी का स्वर शान्त था।

दो पलों की खामोशी के बाद पाहवा वाला।

“क्या पूछना चाहती हो?”

“बख्तावर सिंह यहां क्या करने आया है?”

“हिन्दुस्तान की मिल्ट्री ने बीते तीन महीनों में श्रीनगर और और उसके आसपास की जगहों से बहुत ही ज्यादा संख्या में हथियार बरामद किये हैं, जोकि कीमती हैं। इसक साथ ही मादक पदार्थों के बड़े जखीरे पकड़े हैं। परसा श्रीनगर से ये सामान तीन ट्रकों में जम्मू के लिय रवाना हो रहा है। दो ट्रकों में करोड़ों रुपयों के हथियार हॉग और एक ट्रक कीमती ड्रग्स से भरा होगा। बख्तावर सिंह रास्ते में इन ट्रकों को लूटना चाहता है।”

मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ीं।

पारसनाथ अपने खुरदुर चेहरे पर हाथ फेरने लगा।

“उन हथियारों और ड्रग्स को लूटकर बखावर सिंह क्या करेगा?”

मोना चौधरी ने पूछा।

“दरअसल ऐसा करना बख्तावर सिंह की मजबूरी है। वो ये काम नहीं करना चाहता। लेकिन किए बिना सब ठीक भी न होगा।” सूरज पाहवा कह उठा- “पाकिस्तान से जाने कौन, उसकी बहन की बेटी, यानि कि भाजी को उठाकर कश्मीर ले आया है। जाने बख्तावर सिंह से कहा है कि अगर अपनी भांजी को जिन्दा-सलामत वापस चाहते हो तो इन तीनों ट्रकों को लूटकर उसके हवाले करे। ऐसे में बखावर सिंह को पाकिस्तान से यहां आना पड़ा, ताकि उनकी बात मानकर अपनी भांजी को बचा सके।”

मोना चौधरी और पारसनाथ की नजरें मिली।

“ये झूठ बोल रहा है।” पारसनाथ के सपाट स्वर में कठोरता थी- “बख्तावर सिंह ऐसा इन्सान है कि जिसे खिलौने की तरह नचाया नहीं जा सकता। जिसने उसकी भांजी को उठाया है, उसे वो आसानी से ढूंट...”

“गलत कह रहे हो। बख्तावर सिंह अपनी भांजी को नहीं ढूंट पाया।” सूरज पाहवा कह उठा-पच्चीस दिन पहले उसकी भांजी का अपहरण करके, उसे कश्मीर में रखा गया था। अपहरण करने वाले ने ये बात स्पष्ट तौर पर बख्तावर सिंह को बताई। और बताया कि वो क्या चाहता है। साथ में ये भी कहा कि अगर श्रीनगर में से अपनी भांजी को ढूंढकर, वो बचाकर ले गया तो, दोबारा उसे कुछ नहीं कहा जायेगा नहीं ढूंढ सका तो, ये तीनों ट्रक लूटकर उसके हवाले कर दे। अगर ट्रकों को लूटने में कामयाब न रहा तो उसकी भांजी की लाश उसी दिन कहीं पड़ी मिल जायेगी। पाकिस्तान की बात होती तो, बख्तावर सिंह अपनी भांजी को ढूंढ निकालता, परन्तु ये बात तो हिन्दुस्तान की थी। श्रीनगर की थी। इस पर भी बख्तावर सिंह ने सैकड़ों की संख्या में अपने आदमी श्रीनगर और आसपास के इलाकों में फैला दिए ताकि उसकी भांजी को ढूंढा जा सके। और खुद वो उन ट्रकों को लूटने के इन्तजाम में लग गया कि अगर भांजी नहीं मिली तो उसे बचाने के लिये ट्रकों को लूटना पड़ेगा। परसों उन ट्रकों ने श्रीनगर से जम्मू के लिये रवाना होना है। स्पष्ट है कि अब बख्तावर सिंह उन ट्रकों को लूटने के लिये मजबूर है जबकि वो तीनों ट्रक मिल्ट्री के हैं। उनके साथ मिल्ट्री भी होगी।”

मोना चौधरी और पारसनाथ सूरज पाहवा को देखते रहे।

“बख्तावर सिंह ने बताया था कि दिल्ली में तुम जाने कैसे उसके मामले में उलझ गईं। उसने सावरकर के साथ बात की थी कि ट्रकों को लूटने का इन्तजाम करे। तुम।”

“पारसनाथ-!” मोना चौधरी ने सोच भरी आवाज में टोका।

“कहो-!”

“सुनी इसकी बात?”

“हां। सुनी और समझने की कोशिश भी कर रहा हूं।” पारसनाथ की निगाह सूरज पाहवा पर थी।

“मुझे तो लग रहा है कि ये इस नई बात में खामखाह ही हमें उलझा रहा है।” मोना चौधरी ने कहा।

“नहीं। मैं सच कह रहा हूं।” सूरज पाहवा के होंठों से निकला- “बख्तावर सिंह से पूछ लो।”

“कहां है, बख्तावर सिंह?” मोना चौधरी ने उसके चेहरे पर निगाह टिका दी।

पाहवा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“जवाब दो। बख्तावर सिंह कहां है?”

“घंटा भर पहले तो जानता था कि बख्तावर सिंह कहां है। लेकिन अब नहीं जानता

“क्या मतलब?”

“मैं अभी बख्तावर सिंह से मुलाकात करके ही आ रहा हूं। जम्मू में वो जहां ठहरा था-अब वो जगह छोड़कर वहां से श्रीनगर के लिये रवाना हो चुका है। मैंने ही उसके शिकार का इन्तजाम किया है। अब उसका पूरा ध्यान मिल्ट्री के उन तानों ट्रकों पर है कि उन्हें कैसे लूटना है। इसके लिये आदमियों का इन्तजाम हो चुका है। वैसे तो उसके पास जानकारी है कि तीनों ट्रक कब, कहां से रवाना होंगे। लेकिन वो कल आखिरी बार पक्की जानकारी फिर इकट्ठी करेगा और परसों किसी जगह पर उन ट्रकों को घेर कर उन पर कब्जा जमाना चाहेगा। ऐसे में अब वो कहां ठहरेगा। उसका ठिकाना क्या होगा। इस बारे में कुछ नहीं जानता।” पाहवा ने एक ही सांस में कहा।

कुछ पलों के लिये वहां चुप्पी सी छा गई।

“बख्तावर सिंह की भांजी का नाम क्या है?” मोना चौधरी ने पूछा।

“श्वेता।”

“उम्र?”

“अट्ठारह-उन्नीस के करीब है।”

“देखने में कैसी है?”

“बख्तावर सिंह ने उसका हुलिया ही नहीं, तस्वीर भी दी थी।

उसका कद तुम्हारे बराबर है। देखने में सुन्दर है।” कहते हुए सूरज पाहवा ने जेब से पर्स निकाला और उसमें से छोटी-सी तस्वीर निकालकर मोना चौधरी की तरफ बढ़ाई- “ये है श्वेता की तस्वीर । बख्तावर सिंह ने ऐसी तस्वीर हर उस आदमी को दे रखी है, जो श्वेता को ढूंढने के लिये भागदौड़ कर रहा है।”

मोना चौधरी ने तस्वीर लेकर देखी।

पारसनाथ ने भी तस्वीर वाले चेहरे को देखा। तस्वीर में नजर आ रही युवती के चेहरे पर मासूमियत और समझदारी नजर आ रही थी। वो आकर्षक व्यक्तित्व वाली थी।

“ये बख्तावर सिंह की बहन की लड़की है?” मोना चौधरी की निगाह तस्वीर पर ही थी।

“हां।”

“कहां-कहां तलाश किया गया इसे?”

“जम्मू-कश्मीर, हर उस जगह, जहां से इसे कैद करके रखे जाने की संभावना हो सकती थी, परन्तु ये नहीं मिली। अगर ये मिल जाती तो बख्तावर सिंह कभी भी उन ट्रकों को हाथ डालने की नहीं सोचता।

लेकिन वो अपनी भांजी को नहीं ढूंढ सका।”

“बख्तावर सिंह सरकारी तौर पर हिन्दुस्तान में मौजूद है?”

“नहीं। बख्तावर सिंह व्यक्तिगत तौर पर हिन्दुस्तान आया है। पाकिस्तान सरकार का इस मामले से जरा भी वास्ता नहीं। वो अपनी भांजी को लेकर वास्तव में परेशान है।”

मीना चौधरी ने पारसनाथ को देखा।

“तुम्हारा क्या ख्याल है, ये ठीक बातें कह रहा है?” मोना चौधरी बोली।

“इसका चेहरा तो यही बताता है कि, शायद सच ही कह रहा है ये।” पारसनाथ ने अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा फिर पाहवा से पूछा-- “ये भी तो हो सकता है कि बख्तावर सिंह की भांजी को जम्मू-कश्मीर में न रखकर कहीं और रखा हो और-।”

“नहीं। वो श्रीनगर में ही कहीं है।” सूरज पाहवा यकीन के साथ

वोला- “पाकिस्तान से उसका अपहरण करके लाने वाले ने बख्तावर सिंह से कहा था कि श्वेता इस वक्त श्रीनगर, था उसके करीबी इलाके के पास है। अगर वक्त से पहले उसे ढूंढ निकाला तो, ये बात यहीं खत्म हो जायेगी। ट्रकों की रवानगी के वक्त तक नहीं ढूंढ पाया तो उसे ट्रक पर कब्जा जमाकर उसके हवाले करने होंगे। नहीं तो उसकी भांजी की लाश फौरन बाद ही कहीं पड़ी मिल जायेगी। और बख्तावर सिंह को पूरा यकीन है कि श्वेता का अपहरण करने वाला सच कह रहा है। श्वेता को श्रीनगर के पास ही कहीं रखा गया है।”

मोना चौधरी ने श्वेता की तस्वीर अपनी जेब में डाल ली।

“मान लो कि अगर बख्तावर सिंह उन तीनों ट्रकों पर अपना कब्जा कर लेता है तो ट्रकों को उस इन्सान के हवाले कैसे करेंगा, जिसने उसकी भांजी का अपहरण किया है। इसके लिये कोई जगह तो तय की होगी?”

“कोई जगह तय नहीं है।” पाहवा ने इन्कार में सर हिलाया- “इसके बारे में बख्तावर सिंह ने बताया था कि वो जो भी है, रास्ते में ट्रकों पर नजर रखेगा। अगर ट्रकों पर उसका कब्जा हो गया तो उसके आदमी उसी वक्त सामने आकर ट्रकों को उससे ले लेंगे और बाद में उसकी भांजी श्रीनगर में ही कहीं नजर आ जायेगी।

“ये भी तो हो सकता है कि बाद में श्वेता को वो लोग न छोड़ें-।”

“हां। ऐसा हो सकता है। बखतावर सिंह से इस बारे में बात हुई थी। लेकिन बख्तावर सिंह कहता है कि इस बारे में उस पर दबाव डाला था कि ट्रकों और श्वेता के लेन-देन हाथों-हाथ हों। लेकिन वो नहीं माना। बख्तावर सिंह इस वक्त मजबूर है, उसकी बात मानने को।”

“ये सच कहता लगता है।” मोना चौधरी ने बखतावर सिंह से कहा।

“हां।” बख्नावर सिंह ने सपाट स्वर में कहा। खुरदरा चेहरा कठोर हो उठा था- “तुम कब से पाकिस्तानी एजेन्ट बने हुए हो?”

सूरज पाहवा हिचकिचाया।

“जवाब दो।” भोलानाथ ने जल्दी से, पाहवा से कहा।

“दस-बारह साल हो गये?”

“हिन्दुस्तानी हो। हिन्दुस्तान में रहकर, पाकिस्तान के लिये जासूसी करते हो। गलत बात है या नहीं?”

“हां- “ पाहवा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी- “है। मैं....।”

तभी पारसनाथ के हाथ में दबे रिवॉल्वर से गोली निकली और पाहवा की छाती में जा लगी। पाहवा के होंठों से चीख निकली। वो उछलकर नीचे आ गिरा।

भोलानाथ खौफ में डूबा, हड़बड़ाकर दो कदम पीछे हुआ। उस वक्त दूसरी गोली चली और भोलानाथ के सिर को बिखराकर दीवार से जा टकराई।

☐☐☐

सौ की रफ्तार को छू रही थी सूमो।

अजीत सिंह मस्ती भरे अंदाज में ड्राईव कर रहा था। शाम के पांच बज रहे थे। पास में कृष्णपाल आंखें बंद किए पुश्त से टेक लगाए बैठा था।

बाकी सब भी सुस्ती भरे ढंग से बैठे थे। कोई नींद में था तो कोई आधी नींद में था।

तभी बलविन्दर सिंह कह उठा।

“ड्राईव करते हुए मजे मत ले । हम सब को खामखाह मरवायेगा। मेरे को तो हर वक्त डर लगा रहता है कि तेरे को फिर हार्टअटैक न हो...”

“ओए चुप कर। मेरा दिल है। वो अटैक मारे या न मारे। तेरे बाप का क्या जाता है। बार-बार तू बुरी नजरों से मेरे हार्ट को देख रहा है।” अजीत सिंह कड़वे स्वर में कह उठा- “सब मेरे दिल के पीछे रहते हैं। मिल्ट्री में भर्ती होने गया तो मैंने सोचा था कि मैडिकल चैकअप में दिल का चैकअप करना भूल जायेंगे और मैं फौजी बन जाऊंगा।

लेकिन उस घटिया डॉक्टर ने सबसे पहले मेरे दिल को ही चैक किया। शरीर के बाकी हिस्सों की तो बारी ही नहीं आने दी। बोला, आप तो  दिल के मरीज हैं। आपको हार्ट अटैक हो चुका है। भला ये बताओ, मेरे लिये कोई नई खवर थी। मुझे मालूम था कि मेरे को हार्ट अटैक हो चुका है। मैंने पचासों बार उन गधों से पूछा कि कौन सी किताब में लिखा है कि दिल का मरीज फौजी बनकर देश की सेवा नहीं कर सकता। गन नहीं पकड़ सकता। लेकिन वो तो एक बात कहते हैं कि फौज में भर्ती होने के लिए शरीर को हर तरह से फिट होना जरूरी है।

तब भी मैंने कहा कि मेरे दिल पर शक मत करो। मैं सो किलो वजन एक ही झटके में उठा लूंगा और आपका कोई तगड़ा जवान नहीं उठा सकता। मुकाबला करा के देख लो। बहुत कहा। लेकिन मुकाबले के लिये उन्होंने किसी को आगे ही नहीं आने दिया और मुझे चलता कर दिया। मालूम नहीं उन बेवकूफों को किसने मिल्ट्री में भर्ती कर लिया था। गधा जब बोझ ढोने को तैयार है तो उससे बोझ उठवाओ। वो लंगड़ा है तो क्या हुआ, बोझ तो उठाने को तैयार है।”

“मतलब कि तू लंगड़ा गधा है।” बलविन्दर सिंह ने व्यंग्य से कहा।

“मैं नहीं मेरा दिल लंगड़ा है। कानों को साफ रखकर, बात सुना कर। अगर तू मिल्ट्री में भर्ती हो जाता और कैप्टन कहता फायर तो तू समझता सीज़ फायर कहा जा रहा है। गन को कंधे पर लटकाकर मूंगफली खाने लग जाता।”

“आगे देख- “ बलविन्दर सिंह ने मुंह बनाया- “खड्डा आ रहा है।”

“बड़े-बड़े खड्डे देखे हैं। ये क्या है।” अजीत सिंह का ध्यान सामने था- “मेरा बाप तो मुझे फूल की तरह नाजुक समझता है। सोचता है कि दोबारा अटैक न हो जाये। मुझे कपड़े के शो-रूम में बिठा दिया। बोला तू आराम से बैठेगा। काम करना तो दूर ग्राहकों से कैश भी रिसीव नहीं करेगा। ऐसा करने से टैंशन आ जायेगी। दो कदम दूर बैठकर हरे-नीले-पीले नोटों को देखता रह। दोपहर को लस्सी के साथ लंच कर और पूरे दो घंटे आराम करना है। रात को वाप मेरा कार में बिठाकर घर ले आता है। मैं कुछ भी कहूं मानता ही नहीं। अब मौसी के यहां जाने को कह निकला हूं। करता रहे बाद में मौसी को फोन कि मैं पहुंचा क्यों नहीं। मां के कान में कह आया हूं पहले की तरह कि शिमला घूमने जा रहा हूं।”

सीट पर पसरे महाजन ने पास रखी बोतल उठाकर घूँट भरा।

“ड्राइविंग किसी और को दे दे अजीत सिंह । तू आराम कर ले।”

महाजन ने कहा।

“चलने दे यारा। अभी तो इतना दम है कि सूमो को चाँद तक ड्राईव कर सकू।” अजीत सिंह हौले से हंस कर कह उठा- “लेकिन उस सड़क का पता नहीं जो चाँद तक जाती है।”

तभी कृष्णपाल ने गर्दन घुमाकर पीछे बैठे वजीर सिंह को देखा।

“तेरे को क्या हुआ?”

“मेरे को?” वजीर सिंह ने कृष्णपाल को देखा- “मेरे को क्या होता है?”

“साल भर पहले जब तेरे को देखा था तो टिट-फैट बढ़िया बढ़ा था। अब तो तेरी हालत ही बदली हुई है। लगता है तेरे बाप की मौत से माल-पानी कम हो गया है।” कृष्णपाल ने कहा।

वजीर सिंह के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“ऐसी कोई बात नहीं है। हमारे परिवार में दौलत पहले भी बहुत थी और अब तो और भी ज्यादा हो गई है। पिता के मरने के बाद उनके सारे काम मैंने संभाल लिए। भाई भी साथ काम करते हैं। हमारा इकट्ठा ही काम है। लेकिन ज्यादा काम मैं करता हूं। उनके परिवार है। जिम्मेवारियां हैं। मैंने तो ब्याह भी नहीं किया। कभी-कभी तो खेतों में बने मकान में ही रात गुजार देता हूं। मेरे काम संभालते ही काम पहले से बहुत बढ़ गया है। दौलत भी बढ़ गई है। हमारी जमींदारी में अभी भी हमें अपने पिता के नाम से जाना जाता है।”

“ऐसा है तो तेरी हालात बढ़िया होनी-?”

“मेरी हालत बढ़िया ही है।” वजीर सिंह ने शांत भाव में कहते हुए सिग्रेट सुलगा ली- “मिल्ट्री में जाना चाहता था और जमींदारी संभालनी पड़ रही है। इसलिये मन खराब रहता है।”

“मैं बढ़िया रहा।” गौरव शर्मा मुस्कराकर महाजन से कह

“तुमने जो पांच लाख दिए थे, वापस आकर मैंने उन पैसों से बिजनेस शुरू किया और साल भर में ही ये हालात है कि पच्चीस लाख का बंदा बन चुका हूं। ये सब तुम्हारी मेहरबानी से हुआ।”

“वो ऊपर जो बैठा है, सब वही करता है। मेहनत हमारी होती है।” महाजन ने घूँट भरा।

“मैं तो पहले भी वैसे और अब भी वैसे।” कृष्णपाल कह उठा- “किसी से कोई शिकायत नहीं...”

“मेरा हाल भी तेरे जैसा ही है।” बलविन्दर सिंह हंस कर कह उठा।

गुलशन वर्मा खामोश बैठा, उन सबको देख सुन रहा था।

तभी गौरव शर्मा, महाजन को देखते हुए कह उठा।

“तुमने बताया नहीं कि इस बार मामला क्या है?”

“मालूम हो जायेगा। जल्दी क्या है। साथ ही तो है।” कृष्णपाल कह उठा।

“इस बार भी बख्तावर सिंह का ही मामला है।” सूमो ड्राईव करते अजीत सिंह कह उठा।

सबकी निगाह महाजन पर जा टिकी।

“पिछली बार तो बख्तावर सिंह इसलिये बच गया कि हमें नजर नहीं आया और खिसक आया था।” वजीर सिंह कह उठा।

“इस बार भी अबोटाबाद जाना है?” गौरव शर्मा ने पूछा- “सीमा पार करनी है क्या?”

“सीमा क्या, मैं तो पाकिस्तान को पार कर जाऊं।” अजीत सिंह बोला- “मैंने हिन्दुस्तान की सीमा को फिर से ईरान तक पहुंचा देना है। मेरे अटैक वाले दिल का कमाल तो देखना। वक्त आने दो।”

“इस बार क्या करना होगा हमें?” वजीर सिंह ने पूछा। महाजन ने गम्भीर निगाह गुलशन वर्मा पर मारी फिर उन सबको

“अभी इतना ही बता सकता हूं कि बख्तावर सिंह हिन्दुस्तान में आया हुआ है।” महाजन ने धूंट भरने के बाद कहा- “अब से तीसरे दिन श्रीनगर से जम्मू के लिए मिल्ट्री के तीन ट्रक रवाना हो रहे हैं। दो ट्रकों में करोड़ों के हथियार हैं जो कि श्रीनगर और उसके आसपास के इलाकों से बीते तीन महीनों में बरामद किये गये हैं। तीसरे ट्रक में करोड़ों-अरबों के मादक पदार्थ भरे पड़े हैं। बख्तावर सिंह उन मिल्ट्री के तीनों ट्रको को लूट लेना चाहता है। हमने वख्तावर सिंह को उसकी कोशिश में कामयाब नहीं होने देना है। कोशिश करनी है कि माके पर ही बख्तावर सिंह को खत्म भी कर दिया जाये।”

“मिल्ट्री के जवान भी तो होग, उन ट्रकों के साथ।” कृष्णपाल बोला।

“हां। लेकिन उनकी संख्या कम भी हो सकती है। बख्तावर सिंह और उसके आदमी उन पर हावी हो सकते हैं। वो जवान नहीं जानते कि रास्ते में उन्हें घेरा जायेगा। जब कि हम जानते हैं कि ऐसा होने वाला है।”

“मिल्ट्री वालों को इस बात की खबर कर दी जाये तो।” गौरव शर्मा ने कहना चाहा।

“हां। ऐसा करने से मिल्ट्री वाले ट्रकों पर तगड़ी सुरक्षा बिठा देंगे। वो आसानी से तीनों ट्रकों को बचा लेंगे। लेकिन ऐसे मौके पर बख्तावर सिंह बचकर खिसक जायेगा।” महाजन एक-एक शब्द चबाकर कह उठा- “जबकि उन ट्रकों को हम भी बखावर सिंह के हाथों से बचा सकते हैं। क्योंकि हमें पहले से मालूम है कि रास्ते में क्या होने वाला है। जबकि इसके साथ-साथ हम घात लगाकर, बख्तावर सिंह को भी खत्म करने का चांस ले सकते हैं, जबकि मिल्ट्री वाले इस काम में शायद सफल न हो सकें।”

“ये बात तो है।” होंठ भींचे गौरव शर्मा ने सिर हिलाया।

वजीर सिंह ने गुलशन वर्मा पर निगाह मारी।

“ये साहब, इस मामले में क्या कर रहे हैं?” वजीर सिंह ने पूछा।

“इसी वर्मा ने मुझे बताया है कि बख्तावर सिंह किस फेर में है।”

महाजन ने शांत स्वर में कहा- “ये ही हमें जम्मू में हथियार हासिल करवायेगा। इस काम के लिये हम लोगों की संख्या कम हुई तो ये और बंदों का इन्तजाम करेगा।”

“ये ऐसा क्यों कर रहा है?” बलविन्दर सिंह ने कहा- “इसकी क्या दिलचस्पी है कि...”

“मालूम नहीं।” महाजन बोला- “इस बारे में ये कुछ भी नहीं बताता। कहता है बाद में बताऊंगा।”

गुलशन वर्मा की नजरें उन सब पर फिर रही थीं।

“हो सकता है ये गलत कह रहा हो। बजावर सिंह हिन्दुस्तान में हो ही नहीं।” कृष्णपाल बोला- “इसकी बात पर सामान बांध कर चल पड़ना, हमारी देवकूफी भी हो सकती है।”

“बख्तावर सिंह हिन्दुस्तान में ही है। मैं जानता हूं। कुछ दिन पहले तक वो दिल्ली में था।” महाजन शांत स्वर में कह उठा- “वो वास्तव में ऐसे ही किसी काम के लिये हिन्दुस्तान आया है।”

“मतलब कि ये बात तुम्हें पहले से पता थी?”

“हां।”

“फिर ठीक है।”

“मैं तो इस पर नजर रदूंगा।” अजीत सिंह कह उठा- “जहां इसने गड़बड़ की, वहीं इसकी गर्दन साफ। मैं दिल का मरीज। क्या पता ये मेरे पे रिवॉल्वर तान दें। इसकी गोली बच जायेगी और मैं तो गया जान से, बिना गोली के। मैं तो राह चलते बन्दों पर विश्वास नहीं करता। महाजन समझा देना इसे।”

“ये समझदार है।” महाजन ने वर्मा पर निगाह मारी- “तुम्हारी बात को अच्छी तरह समझ रहा है।”

गौरव शर्मा ने गुलशन वर्मा को देखा।

“ये बिना वजह बख्तावर सिंह के पीछे नहीं पड़ेगा। इसमें अवश्य इसका कोई खास मतलब होगा।”

“मतलब कि अपने मतलब की वात नहीं बता रहा।” बलविन्दर सिंह ने कहा।

तभी सूमो ड्राईव करता अजीत सिंह कह उठा।

“महाजन! ये गुलशन वर्मा, जो भी है, तू इसके बारे में तो जानता हकीकत में ये कौन है। ये भी तो हो सकता है कि ये बख्तावर सिंह का ही आदमी हो और हमें मुर्गा बनाने के लिये ले जा रहा हो। कोई खेल खेल रहा हो तुमसे । बखतावर सिंह तो वैसे भी तुमसे खार खाता है। बख्तावर सिंह ने सोचा हो कि इस बार भी तुम उसे रगड़ा न दे दो। ऐसे में इसे आगे करके उसने ये चाल चली हो।”

अजीत सिंह के शब्दों पर खामोशी ही छा गई वहां। नजरें गुलशन वर्मा पर जाने लगीं।

महाजन ने होंठ सिकोड़ कर वर्मा को देखा फिर घूँट भरा।

गुलशन वर्मा के चेहरे पर शांत सी मुस्कान उभर आई थी।

“क्यों?” महाजन की निगाह वर्मा पर थी- “अजीत सिंह की बात ठीक भी हो सकती है।”

“मैंने कब कहा कि वो गलत कहता हो सकता है।” गुलशन वर्मा ने पहली बार उनके बीच मुंह खोला- “वो ठीक कहता भी हो सकता है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। वो गलत कर रहा है।”

“मैं कहता हूं कि मैं ठीक कह रहा हूं।” अजीत सिंह बोला- “तू साबित कर कि मैं गलत कह रहा हूं।”

“इस वक्त मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है कि तुम्हारी बात को झूठा साबित कर सकूँ।” वर्मा ने कहा।

“एक रास्ता है कि जिससे तुम अपनी सफाई दे सकते हो।” वजीर सिंह की कठोर निगाह उस पर थी।

“कैसा रास्ता?”

“अपने बारे में बताओ। तुम कौन हो? क्या करते हो? बख्तावर सिंह के मामले से तुम्हारा क्या संबंध है?”

ये बातें बताकर तुम हमारी तसल्ली करा सकते हो कि...”

“कुछ देर सब्र करो। जल्दी ही तुम लागों की तसल्ली हो जायेगी।” गुलशन वर्मा ने शब्दों को चबाकर कहा- “दो-तीन दिन की बात है बख्तावर सिंह की लाश शायद हमारे सामने पड़ी हो। उसके बाद मैं अपने बारे में भी बता दूंगा। तुम लोग जो सवाल करोगे। जवाब दूंगा।”

“ये तो हमारी बात को टरका रहा है।” बलविन्दर सिंह बोला।

“इस पर पूरा विश्वास नहीं किया जा सकता।” गौरव शर्मा ने महाजन से कहा।

“हालात ऐसे हैं कि इसे उठाकर सूमो से बाहर भी नहीं फेंक सकते।” कृष्णपाल कह उठा- “क्योंकि आगे का रास्ता बताने वाला ये ही तो है। बेशक वो रास्ता गलत हो।”

तभी अजीत सिंह ने सड़क के किनारे सूमो रोक दी।

“क्या हुआ?” बगल में बैठे कृष्णपाल ने उसे देखा।

“बहुत हो गई ड्राईवरी।” अजीत सिंह इंजन बंद करता हुआ बोला- “दिल का मरीज हूं। किसी को तरस भी नहीं आता मुझ पर कि इसे थोड़ा आराम दे दिया जाये। मेरी मां साथ होती तो फूलों की तरह मुझे बिठाकर आराम देती। गहरी नींद में सोया होता तो इस वक्त मैं-।”

“मैं ड्राईव करता हूं।” गौरव शर्मा कह उठा। मिनट भर में ही गौरव शर्मा ड्राईविंग सीट पर था और अजीत सिंह सूमो के पीछे वाले हिस्से में, गौरव शर्मा की जगह पर बैठा था। गौरव शर्मा ने सूमो को आगे बढ़ा दिया।

गुलशन वर्मा ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।

“वर्मा!” महाजन गम्भीर स्वर में बोला- “इस बात का पूरा शक किया जाना चाहिये कि तुम बख्तावर सिंह के आदमी हो सकते हो। ये सब कुछ तुम्हारी योजना का हिस्सा हो सकता है।”

“विक्रम दहिया की कैद से तुम्हें जो छुड़ाया। उसके बारे में क्या कहोगे?”

“मुझे क्या मालूम कि मैं विक्रम दहिया की कैद में था वो तो मेरे सामने आया ही नहीं।” पहले कुछ लोगों ने मुझे कैद कर लिया और कहा गया कि दहिया की कैद में हूं। उसके बाद कुछ आदमियों ने मुझे छुड़ा लिया और तुमने बोला कि तुम्हारे आदमियों ने मुझे छुड़ाया। जबकि मैं तुम्हें नहीं जानता कि...”

“जान-पहचान इसी तरह होती है, जैसे कि अब हो रही है।” वर्मा ने कहा।

“तुम बहुत बड़े फ्रॉड हो सकते हो। बख्तावर सिंह के साथी हो सकते हो। मुझे और मोना चौधरी को बख्तावर सिंह के जाल में फंसाकर खत्म करवाना भी तुम्हारा लक्ष्य हो सकता है। तुम बख्तावर सिंह के इशारे पर काम करते हो सकते हो।” कहते हुए महाजन की आवाज में सख्ती आ गई थी।

“मैं इस वक्त किसी भी तरह से अपनी सफाई देना पसन्द नहीं करूंगा।” वर्मा ने शांत स्वर में कहा।”

“मोना चौधरी भी इस मामले में है?” बलविन्दर सिंह ने पूछा।

“हां। वो शायद जम्मू में ही हम से कहीं मिले।” महाजन की तीखी निगाह वर्मा पर थी।

“इस वक्त तो हमें सबसे बड़ा खतरा, इसी वर्मा से हो सकता है।” ड्राइव करता गौरव शर्मा कह उठा।

“इसकी तो सारी जिम्मेवारी मुझ पर छोड़ दे।” अजीत सिंह कड़वी निगाहों से गुलशन वर्मा को देखता हुआ कठोर स्वर में कह उठा- “तभी तो आगे से पीछे आया हूं। अगर ये हमें मुर्गा बनाने के फेर में है तो यारों इसकी हड्डियों तो मैं कच्ची चबा जाऊंगा। मेरी हड्डियों कि कैल्शियम की कमी सारी दूर हो जायेगी। यूं समझो कि अब फेवीकोल के पक्के जोड की तरह मैं इससे चिपक गया। क्यों वर्मा, हमारी जोड़ी खूब जमेगी। तब तो खूब जमेगी, जब तू हरामीपन दिखायेगा।”

वर्मा मुस्कराया।

महाजन ने घूँट भरा।

सूमो तेज रफ्तार के साथ दौड़ी जा रही थी।

☐☐☐

मोना चौधरी और पारसनाथ जम्मू में होटल में रुके थे। होटल में कमरा लेते ही उन्होंने लंच लिया और उसके बाद नींद में जा डूबे। जब उठे तो शाम के साढ़े चार बजे रहे थे। पारसनाथ ने चाय मंगवा ली।

“सूरज पाहवा से अजीब ही बात मालूम हुई।” मोना चौधरी चाय का घूँट लेते हुए कह उठी।

“हां।” पारसनाथ ने भी चाय का घूँट भरा- “अगर उसने सच कहा है कि तो वास्तव में ये एक गम्भीर बात है।”

“पाहवा यकीन से सच कह रहा था।” मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव छाये हुए थे- “पहले तो ये जानकर मुझे भी अजीब लगा कि बख्तावर सिंह, हिन्दुस्तान के मिल्ट्री के ट्रकों को लूटने आया है। क्योंकि इस काम में वख्लावर सिंह के मुकाबले खतरा ज्यादा है। ये काम उसके लायक नहीं है। बख्तावर सिंह को ये काम अपनी भांजी के वापस पाने के लिये करना पड़ रहा है?”

“श्वेता को पाकिस्तान से उठाकर, जो श्रीनगर आया है, उसने लम्बी सोची होगी कि बजावर सिंह के दम पर वो हथियारों और मादक पदाथों को पा लेगा। वो...”

“तुम ठीक कहते हो।” मोना चौधरी कह उठी- “वो जानता होगा कि बख्तावर सिंह अपनी भांजी को वापस पाने के लिये सिर से पांव तक जोर लगा देगा और उसका काम उसे करना ही होगा।” कहते मोना चौधरी का स्वर गम्भीर हा गया- “उसने बख्तावर सिंह को यहां तक कहा कि उसकी भांजी को वो श्रीनगर में रख रहा हो। ट्रकों की रवानगी वाले दिन तक अगर उसने भांजी को ढूंढ लिया तो बात भी खत्म हो जायेगी। वरना उसे ट्रकों को लूटकर उसके हवाले करना होगा। नहीं तो श्वेता को मार दिया जायेगा। यानि कि जिसने भी श्वेता का अपहरण करके बख्तावर सिंह को चैलेंज दिया है। उसके पांव श्रीनगर में अच्छी तरह जमे हुए हैं। उसे पूरी तरह विश्वास रहा होगा कि बख्तावर सिंह श्रीनगर में श्वेता को नहीं ढूंढ पायेगा।”

“और वो नहीं ढूंढ सका। बख्तावर सिंह के फैले आदमी श्रीनगर में श्वेता की कोई भनक नहीं पा सके। पारसनाथ कह उठा- “अब वो ट्रकों को लूटने का पक्का इरादा कर चुका है।”

“ऐसा होने पर भारी तौर पर खून-खरादा होगा।” मोना चौधरी के होंठों में कसाव आ गया- “बख्तावर सिंह हर हाल में ट्रकों को पाना चाहेगा और ट्रकों के साथ मौजूद जवान डटकर उत्तका मुकाबला करेंगे। जान का नुकसान होगा।”

पारसनाथ की निगाह मोना चौधरी पर जा टिकी।

“परसों, मिल्ट्री के तीनों ट्रक श्रीनगर से जम्मू के लिये चलेंगे। और रास्ते में कहीं भी बख्तावर सिंह के आदमी उन ट्रकों को घेर कर पाना चाहेंगे। उधर वर्मा, महाजन जम्मू पहुंच चुके होंगे। या पहुंचने वाले होंगे। जरूरत के मुताविक और लोग इकट्ठे करके, बख्तावर सिंह के इरादे को आसानी से नाकाम कर दिया जा सकता है। उसे आसानी से हम पीछे हटने को मजबूर कर सकते हैं।”

“बख्तावर सिंह को पीछे करना, मामूली बात है। अब मुद्दा बख्तावर सिंह नहीं रहा।”

“मैं समझा नहीं, मोना चौधरी...”

“पारसनाथ!” चाय का धूंट भरने के बाद मोना चौधरी उठी और चेहरे पर सोचें समेटे टहलती हुई कह उठी-- “इसमें कोई शक नहीं कि  बख्तावर सिंह मेरा पुराना दुश्मन है। वो मेरी जान लेना चाहता है और मैं उसकी। बख्तावर सिंह काई छिपा हुआ नहीं, जगजाहिर मेरा। लेकिन देश का वो नया दुश्मन नजर आया है, जो मिल्ट्री के ट्रकों में मौजूद हथियारों और मादक पदार्थों को हर हाल में पाना चाहता है। जिसके लिये उसने अपने हाथ पाकिस्तान तक लम्चे किए और अपना काम पूरा करवाने के लिये वख्तावर सिंह की भांजी श्वेता को उठा लाया। जानते हो पारसनाथ को हथियारों से भरे ट्रक और मादक पदार्थों को पाकर क्या करेगा। उन हथियारों को हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में बेचेगा। जिससे कि खून-खराबे का भारी दौर शुरू होगा। मादक पदार्थों के दीवाना को ये दोनो चीजें बेच दी तो, ये लोग देश की जड़ें तक हिला देंगे। यानि कि बख्तावर सिंह से ज्यादा इस वक्त, हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन है जो हथियारों से भरे ट्रकों और मादक पदार्थ के ट्रक को पाना चाहता है। अगर इस बार वो असफल हो गया तो, दोबारा वो फिर ऐसा कोई काम करेगा, जिससे कि उसे फायदा और हिन्दुस्तान को बड़ा नुकसान हो। वो जो भी है। सबसे पहले उसे निकालना जरूरी है, बख्तावर सिंह को तो फिर भी देखा जा सकता है।”

पारसनाथ की नजरें, मोना चौधरी पर जा ठहरीं। माथे पर हल्के से बल उभरे।

“मतलब कि तुम उस तक पहुंचना चाहती हो जिसने बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता का अपहरण...”

“मैं उस इन्सान तक पहुंचना चाहती हूं, जो बख्तावर सिंह के माध्यम  से, हथियारों और मादक पदार्थों के ट्रकों को पाना चाहता है। वो आस्तीन का सांप है जो हिन्दुस्तान को कभी भी डंस सकता है। सबसे पहले तो उसे खत्म करना जरूरी है।” चेहरा कठोर हो गया था मोना चौधरी का।

“अगर तुम ये करना चाहती हो तो, बेशक कर लेना। लेकिन पहले तो बख्तावर सिंह को ही देखना होगा। परसों वो मिल्ट्री के उन ट्रकों पर हाथ डालने जा रहा है। हमारे पास वक्त कम है।”

“ये कोई समस्या नहीं।” मोना चौधरी ने सिर हिलाया।

“वो कैसे?” पारसनाथ का खुरदरा चेहरा सपाट हो गया।

“उन ट्रकों ने परसों श्रीनगर से रवाना होना है। उनकी रवानगी का वक्त बढ़ाया जा सकता है। ये काम मिस्टर पहाड़िया आसानी से कर देंगे।” मोना चौधरी बोली- “मैं अभी मिस्टर पहाड़िया से बात करके आती हूं।”

“माना कि उन ट्रकों की रवानगी में दो-चार दिन का वक्त आगे बढ़ाया जाता है तो बख्तावर सिंह की तरफ से हम निश्चित रह सकते हैं।” पारसनाथ ने कहा- “लेकिन उसके बाद भी हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं होगा। दो-चार दिन में हम उस इन्सान तक कैसे पहुंच सकते हैं, जो बख्तावर सिंह का सहारा लेकर ट्रकों को पाना चाहता है। जबकि बख्तावर सिंह के आदमी उसे नहीं ढूंढ पाये।”

“हां। तुम्हारी ये बात हमारे लिये अवश्य समस्या खड़ी कर सकती है।” मीना चौधरी ने सोच भरे स्वर में कहा- “लेकिन इसका भी रास्ता शायद निकल आये।”

“कौन सा रास्ता?”

“जावेद खान..”

“जावेद खान?” पारसनाथ के होंठ हिले- “वो जो बड़गाम में रहता है और...”

“हां। मैं उसी जावेद खान की बात कर रही हूं। शायद वो इस काम में हमारी सहायता कर सके।” मोना चौधरी दरवाजे की तरफ बढ़ती हुई बोली- “मिस्टर पहाड़िया से बात करके आती हूं।”

होटल के बाहर पास एस०टी०डी० बूथ से मोना चौधरी ने मिस्टर पहाड़िया से बात की।

“हैलो।” मिस्टर पहाड़िया की आवाज कानों में पड़ी।

“मिस्टर पहाड़िया।”

क्षणिक चुप्पी के बाद मिस्टर पहाड़िया की आवाज कानों में पड़ी।

“तुम जम्मू कैसे पहुंच गईं बेटी?”

“आपको कैसे मालूम?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।

“फोन की स्क्रीन पर जम्मू की एस.टी.डी. कोड आया हुआ है।”

“ओह!” मोना चौधरी ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया- “मुझे आपसे कुछ काम था मिस्टर पहाड़िया।”

“कहो बेटी।”

“परसों श्रीनगर से तीन ट्रक जम्मू के लिए रवाना हो रहे हैं। दो ट्रकों में हथियार भरे हुए हैं और एक ट्रक में मादक पदार्थ भरे हुए हैं।”

मोना चौधरी ने कहा।

“तुम्हें कैसे मालूम! उन ट्रकों की रवानगी का काम तो गोपनीय तरीके से किया जा रहा है।” मिस्टर पहाड़िया का उलझन से भरा स्वर, मोना चौधरी के कानों में पड़ा।

“और गोपनीयता का ये आलम है कि ये खबर जरूरत से ज्यादा आम है। जिसे नहीं जाननी चाहिये, उसे भी मालूम है। बख्तावर सिंह को भी पता है। श्रीनगर में कोई है, जिसे पच्चीस दिन से यह बात पता है।”

“ओह...”

“मैं चाहती हूं उन ट्रकों की रवानगी का दिन कुछ आगे कर दिया जाये। लेकिन इसकी वजह जायज होनी चाहिये कि सुनने वाले को ये न लगे कि, जानबूझ कर ऐसा किया गया है।”

“समझ गया। ऐसा ही होगा।” मिस्टर पहाड़िया का गम्भीर स्वर मोना चौधरी के कानों में पड़ा- “लेकिन बात क्या है। तुम्हारे शब्दों से ये तो मैं समझ ही गया हूं कि कोई गम्भीर बात है।”

“मैं समझ नहीं पा रही हूं कि आपको क्या बताऊं। मैं नहीं चाहती कि मिल्ट्री वाले इस मामले में दखल दें।”

“मैं जानता हूं कि मेरी बेटी समझदार है। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। जब तक तुम नहीं चाहोगी, मैं किसी भी तरह का एक्शन नहीं लूंगा। बेझिझक मुझे सब कुछ बता सकती हो।”

मोना चौधरी ने कम शब्दों में सारा मामला बताया।

“ये तो बहुत गम्भीर बात है। तुम क्या कर रही हो?” मिस्टर पहाड़िया का स्वर कानों में पड़ा।

“इस वक्त मैं वही कर रही हूं जो मुझे करना चाहिये।” मोना चौधरी ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा- “बख्तावर सिंह न तो मेरे हाथों से दूर है। न ही आंखों से। जरूरत पड़ने पर उसके किये में आसानी से पाकिस्तान पहुंच सकती हूं। लेकिन जो बख्तावर सिंह के माध्यम से ये काम करवाना चाहता है। वो इस वक्त, अपना काम करवाने के लिये अपनी ‘बिल’ से बाहर आया हुआ है। ये काम हुआ या न हुआ, उसके बाद वो फिर अण्डरग्राउण्ड हो जायेगा। जाने वो कौन है और दोबारा कोई.खतरनाक योजना बनाकर, फिर बाहर निकलेगा। वो खतरनाक इन्सान कभी भी हमारे देश की पीठ पर वार कर सकता है। मैं सबसे पहले उसे खत्म करना चाहती हूं फिर बख्तावर सिंह...”

“बेटी!” मिस्टर पहाड़िया का स्वर गम्भीर था- “तुम उसके बारे में कुछ जानती हो कि वो कौन है? कहां छिपा है या ऐसी ही कोई बात सुनी हो कि उस तक पहुंच सको?”

“अभी तक तो उसके बारे में कुछ नहीं मालूम-।”

“यही मैं कहना चाहता हूं कि उसकी तलाश में बख्तावर सिंह ने अपना पूरा जोर लगा लिया होगा, परन्तु वो नहीं मिला। उन ट्रकों को कुछ देर के लिये तो मैं रुकवा लूंगा। और उस कुछ देर में शायद तुम उस न दृढ सको।”

“मैं पूरी कोशिश करूंगी मिस्टर पहाड़िया।” मोना चौधरी का चेहरा सुलग उठा- “कि उसे ढूंढ लूं।”

“इस काम के लिये ज्यादा दिन नहीं होंगे तुम्हारे पास।”

“मैं समझती हूं।”

“मेरी सहायता की जरूरत पड़े तो फोन कर देना।”

“ठीक है।”

“एक बात और-।” मिस्टर पहाड़िया का गम्भीर स्वर कानों में पड़ा- “बहू-बेटियां सबकी साझी होती हैं। ये नहीं देखा जाता कि कोई दुश्मन की बेटी है। बेटी-बेटी होती है। अगर तुम उस तक पहुंच जाओ, जो बख्तावर सिंह से काम ले रहा है तो कोशिश करना, बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता को उसकी कैद से छुड़ा लो। तब ये मत सोचना कि वो तुम्हारे दुश्मन बख्तावर सिंह की भांजी है।”

“ठीक है मिस्टर पहाड़िया! मैं आपकी बात का ध्यान रखूंगी।” इसके साथ ही मोना चौधरी ने रिसीवर रख दिया।

“मिस्टर पहाड़िया, ट्रकों की रवानगी को दो-चार दिन आगे बढ़ा देंगे।” मोना चौधरी ने होटल के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा- “अब हमें तेजी दिखानी होगी।”

पारसनाथ ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।

“मुझे तो ये काम होता नहीं लगता।” पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा- “दो-चार, पांच दिन का वक्त है हमारे पास। इतने कम समय में ऐसे व्यक्ति को ढूंढना, जिसके बारे में हमें कुछ भी नहीं मालूम जिसे पूरी मेहनत के पश्चात् भी बख्तावर सिंह नहीं ढूंढ सका। उसे...”

“हमें किसी से कोई मतलब नहीं है कि इस काम में दूसरे ने क्या किया पारसनाथ।” मोना चौधरी शांत स्वर में कह उठी- “एक बार हम कोशिश करेंगे। तुम्हें अभी श्रीनगर जाना होगा। मालूम करो कि कौन सी पलाईट कितने बजे श्रीनगर जा रही है।”

“श्रीनगर?”

“हां। वहां से टैक्सी करके बड़गाम।”

“जावेद खान से मिलना है।” पारसनाथ अपने खुरदुरे चेहरे पर हाथ फरने लगा।

“हां। इस बार में उससे बात करना। शायद वो।”

“जावेद खान की मेरे साथ खास पहचान नहीं है। वो तुम्हें या महाजन को ज्यादा अच्छी तरह जानता है। उसने मुझे तुम्हारे और महाजन के साथ देखा भर था।”

“इतनी ही पहचान बहुत है।” मोना चौधरी ने पारसनाथ को देखा- “अगर तुम्हें लगे कि जावेद खान तमसे बात करने में हिचक रहा है तो फोन पर मेरे से बात करा देना। मैं यहीं पर हूं।”

“तुम्हारे यही रहने का खास मकसद?”

“गुलशन वर्मा और महाजन।”

“आह।”

“वो दोनों जम्मू पहुंच चुके हैं या पहुंचने वाले हैं। मुझे पूरा यकीन है कि वर्मा का कोई आदमी अवश्य मुझ पर नजर रख रहा होगा। वर्मा जम्मू में अवश्य मुझसे मिलेगा और मैं अभी तक नहीं जान पाई कि वर्मा की असलियत क्या है। कौन है वो, जो कि सारा मामला जानता है और उसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। मेरे ख्याल में इन हालातों में वर्मा के बारे में जानकारी पाना बहुत जरूरी हो गया है। वो यूं ही बख्तावर सिंह के पीछे नहीं पड़ा। अवश्य खास वजह होगी। खास वजह तभी पैदा होती है जबकि वर्मा भी खास आदमी हो। वरना बख्तावर सिंह से उसका क्या वास्ता। अगर ये सब बातें नहीं हैं तो गुशलन वर्मा बख्तावर सिंह का आदमी भी हो सकता है और हम सबको फंसाने के लिये अपनी योजना बनाकर वो हमें बख्तावर सिंह की हद तक आसानी से पहुंचा देना चाहता है कि बख्तावर सिंह हमें खत्म कर सके। यकीन के साथ कुछ नहीं कह पा सकता। आने वाला वक्त बतायेगा कि वर्मा की असलियत क्या है।”

सोच में डूबे पारसनाथ आगे बढ़ा और रिसीवर उठाकर इन्टरकॉम पर, होटल के रिसैप्शन से श्रीनगर जाने वाली फ्लाइट की बाबत बात की तो पता चला कि आज की आखिरी फ्लाइट, अब से ठीक आधे घंटे बाद साढ़े पांच बजे टेक ऑफ करेगी, जो कि श्रीनगर एयरपोर्ट पर छ: बजे लैंड कर जायेगी। पारसनाथ ने कहा कि उस फ्लाइट में उसकी सीट रिजर्व करवा दी जाये। वो पांच मिनट में रिसैप्शन पर पहुंच रहा है।

होटल से एयरपोर्ट का रास्ता पन्द्रह मिनट का था ।

“तुम्हें अभी निकल चलना चाहिये।” मोना चौधरी बोली- “श्रीनगर में जो भी हो, फोन पर बता देना।”

“ठीक है।”

“तुम आठ बजे तक, बड़गाम में जावेद खान तक आसानी से पहुंच जाओगे।”

“हां” पारसनाथ चलने की तैयारी करके दरवाजे की तरफ बढ़ा- “जरूरत पड़ी तो फोन करूंगा।” इसके साथ पारसनाथ बाहर निकल गया।

सोचों में डूबी मोना चौधरी कमरे में टहलती रही।

☐☐☐

“वक्त क्या हो गया?” गौरव शर्मा ने पूछा। वो अभी भी सूमो ड्राईव कर रहा था।

“सात बजे हैं शाम के।” महाजन ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी- “तुम ड्राईविंग मुझे दे दो।”

“हां। अब थकान सी होने लगी है।” गौरव शर्मा सूमो को साईड में रोकता हुआ बोला।

कुछ ही देर में महाजन ड्राईविंग सीट संभाल चुका था और गौरव शर्मा महाजन की जगह पर बैठ गया। सूमो फिर आगे बढ़ गई थी।

“कितनी देर लगेगी जम्मू पहुंचने में?” पास बैठे कृष्णपाल ने पूछा। महाजन ने घूँट भरा और बोतल उसे थमाता हुआ बोला।

“पकड़ के रख । दस बजे जम्मू पहुंच जायेंगे।” अजीत सिंह, जो कि बरावर गुलशन वर्मा की हरकतों पर नजर रख रहा था। कह उठा।

“जब से तेरे को देखा है तू चुप ही है। बोलता क्यों नहीं?” जवाब में गुलशन वर्मा के होंठों पर शांत सी मुस्कान उभरी।

“मैं सब समझता हूं कि चुप रहकर तू यही सोच रहा है कि मैं तेरे पर नजर रख रहा हूं। आगे का काम तू कैसे करेगा। कैसे मुझे पीछे करे। लेकिन कान खोलकर सुन ले। अजीत सिंह तेरे साथ फेवीकोल लगाकर चिपक गया है। अब ये जोड़ बिना मेरी मेरी मर्जी के छूटेगा नहीं। तू जो भी करेगा, मेरी आंखों के सामने करेगा। जहां भी गड़बड़ करता नजर आया। वहीं तेरा काम खत्म।”

पुनः मुस्कराया। कहा कुछ नहीं।

“वीरे!” बलविन्दर सिंह कह उठा- “वो तीनों भी होते तो कितना मजा आता।”

“रूपमदास की बात कर रहा है।” वजीर सिंह ने उसे देखा।

“हाँ।” रूपमदास । सतीश कुमार। लल्लू सिंह था। कितने अच्छे थे तीनों वो।

“अच्छे थे तभी तो देश के नाम पर पहले शहीद हो गये और हम पीछे रह गये।” अजीत सिंह बोला।

“तब हमारे पास इतना भी वक्त नहीं था कि उनका अन्तिम संस्कार कर पाते।

“वो तीनों बेवकूफ थे। बहुत बड़े बेवकूफ।” महाजन कह उठा।

“क्या मतलब?” वजीर सिंह ने ड्राईव करते महाजन को देखा- “उन्होंने देश के नाम पर अपनी जान दे दी और तू कहता कि वो बेवकूफ थे। मतलब कि हम भी बेवकूफ हैं।”

“देश के नाम पर जान दे देना समझदारी नहीं होती। देश के ज्यादा से ज्यादा काम आना समझदारी होती है। वो तीनों ही अपनी जल्दबाजी की वजह से मरे थे। सतीश ठाकुर को क्या जरूरत थी, उन लोगों से उलझने की। हम अपने काम जा रहे थे तो हमें अपने काम की तरफ ध्यान देना चाहिये। रूपमदास ने बड़गाम में वक्त से पहले तब फायरिंग शुरू कर दी, जब जरूरत नहीं थी और फायरिंग का ढंग भी गलत था। तभी वो मरा। सब्र से काम लेता तो आज भी वो जिन्दा होता।”

“वो लल्लू सिंह था।” बलविन्दर सिंह का स्वर तीखा हो गया- “वो भी गलत था, जिसने अबोटाबाद में बख्तावर सिंह की पक्की पहरेदारी को अपनी जान देकर तोड़ा। वरना हम तो भीतर ही प्रवेश नहीं कर पा रहे थे।”

“तब ऐसी कोई आफत नहीं आ रही थी कि उसको वो करना पड़ता, जो उसने किया। कुछ देर बाद ही सही, हम लोग उस इमारत के भीतर प्रवेश कर ही जाते। पाकिस्तान के अबोटाबाद में, तब वहां उनको तुरन्त ही ऊपर से कोई सहायता नहीं मिल सकती थी। जब तक उनके लिए सहायता आती, हम अपना काम करके निकल गये होते।” कहते हुए महाजन की आवाज में सख्ती सी आ गई थी- “उसको उस वक्त इन्तजार करना चाहिये था। लेकिन लोग तो ऐसे मौके पर देश के लिए जान देने पर आमादा हो जाते हैं। जबकि हकीकत तो ये है कि देश को तुम लोगों की जान नहीं, काम चाहिये। काम में जान चली जाये, वो जुदा बात है। खामखाह सिर आगे करके गर्दन कटवाने से देश या स्वर्ग में पहला नम्बर नहीं मिलेगा।”

महाजन की चुप्पी के साथ ही वहां खामोशी सी छा गई। इंजन की आवाज ही कानों में पड़ रही थी। वजीर सिंह ने ही उस खामोशी को तोड़ा।

“महाजन ठीक कहता है।” स्वर में गम्भीरता थी- “देश का एक काम करके अगर हम मर गये तो, दोबारा जब देश को हमारी जरूरत पड़ी तो क्या होगा।”

“हां।” गौरव शर्मा ने वजीर सिंह को देखा- “तू ठीक कहता है। हमें अपनी जान बचाकर देश के काम आना चाहिये कि दोबारा भी देश के लिये काम कर सके। रूपमदास । सतीश ठाकुर और झा, अगर आज जिन्दा होते तो वो भी हमारे साथ एक बार फिर धरती मां की सेवा के लिये, कदम बढ़ाकर चल रहे होते।”

अजीत सिंह ने होंठ भींचे पहलू बदला।

गुलशन वर्मा की निगाह उन सब पर जा रही थी।

“अजीते।” बलविन्दर सिंह बोला- “तू चुप क्यों है?”

“मैं सोच रहा हूं कि मेरे पास इंट नहीं है।” अजीत सिंह ने दांत भींचकर कहा।

“ईट? क्यों ईट की क्या जरूरत पड़....?”

“महाजन का सिर फाड़ देता।” अजीत सिंह ने कठोर स्वर में कहते हुए महाजन को देखा- “इतने काम की बात इसने पहले क्यों नहीं बताई। तुम चारों आज के बाद इस बात का ध्यान रखना की सेवा करते हुए खुद को बचाना भी है, ताकि दोबारा देश की सेवा कर सकें।”

“हम चारों ध्यान रखें।” वजीर सिंह बोला- “और तू?”

“मेरा क्या है। मैं ठहरा दिल का मरीज । बिना गोली के ही मेरा काम हो जायेगा । जब दिल ही ऐसा हो तो फिर दुश्मनों की जरूरत ही कहां पड़ती है। अब हूं तो पांच मिनट के बाद नहीं हूं। इसलिये ध्यान रखना कि पहले सेवा का मौका मुझे मिलना चाहिये।” अजीत सिंह मुस्करा पड़ा।

“क्यों?” बलविन्दर सिंह ने तीखे स्वर में कहा-“दिल का मरीज होने का फायदा उठाना चाहता है।”

“फायदा नहीं उठा रहा। मैं तो....।”

“चुप कर । मैं-तो। मैं-तो, किए जा रहा है। बड़े देखे तेरे जैसे दिल के मरीज। दिल पर हाथ रखे बैठा है और मरने का नाम नहीं लेता। असली दिल होता तो कब का खड़क गया होता। वक्त आने पर तेरे को आगे कर दें। बोत सयाना बनता है। मैं भर गया हूं क्या।”

“महाजन ने अभी क्या कहा। तूने सुना नहीं?” अजीत सिंह बोला।

“मैंने तो सुना। पर लगता है तेरे दूसरे कान से महाजन की कही बात निकल गई। ठण्डा होकर बैठा रह। तेरे को दिल का मरीज होने का फायदा नहीं उठाने दूंगा।” बलविन्दर सिंह ने पक्के स्वर में कहा।

“कैसा कठोर दिल का है तू जो तेरे को मुझ पर जरा भी रहम नहीं आता कि....” अजीत सिंह ने कहना चाहा।

“चुप भी हो जाओ।” कृष्णपाल कह उठा- “जब आगे का वक्त आये तो तब इस मुद्दे पर बहसबाजी कर लेना। आगे बढ़ने का काम मैं देख लूंगा।”

“कर लो बात ।” अजीत सिंह ने कहा- “एक और मुंह फाड़ के आगे आ गया।”

☐☐☐

साढ़े आठ बजे तक पारसनाथ बड़गाम पहुंच गया था। रात का अंधेरा चारों तरफ छाया हुआ था। श्रीनगर की तीव्र सर्दी का एहसास उसके सख्त जान जिस्म को कम ही हो रहा था। पारसनाथ ने टैक्सी को छोड़ा और पैसे देकर कहा कि एक घंटा उसका इंतज़ार कर ले। हो सकता है, वापस श्रीनगर जाना पड़े। उसके बाद पारसनाथ कालोनी की ऊंची-नीची गलियों में प्रवेश करता चला गया। अधिकतर मकानों की लाइटें बंद थीं। कोई भी आता जाता नजर नहीं आ रहा था। उसके जूतों की मध्यम-सी गूंज वहां पैदा हो रही थी। कुछ मोड़ काटने के बाद, पारसनाथ एक बड़े से मकान के बंद दरवाजे के सामने ठिठका । वो मकान बहुत पुराना और बहुत बड़ा था। गली के बीचों-बीच बना था। भीतर कहीं रोशनी हो रही थी तो, कम से कम वो रोशनी बाहर से नजर नहीं आ रही थी।

पारसनाथ ने हाथ से जोर से, दरवाजा थपथपाया। बेल कहीं भी नहीं था।

दूसरी बार और भी जोर से दरवाजा खटखटाया।

तभी गली पर सामने के मकान की खिड़की खुली और एक आदमी की आवाज आई।

“क्या है भाई-कौन हो तुम?”

पारसनाथ ने फौरन पलट कर, उस मकान की तरफ देखा। खिड़की की ग्रिल के

भीतर आदमी नजर आया, परन्तु उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखाई दिया।

“जावेद खान से मिलना है।” पारसनाथ ने सामान्य सपाट स्वर में कहा।

“वो तो पांच-सात दिन से नजर नहीं आया। घर बंद है।” उसने कहा- “उसका तो कुछ पता नहीं चलता कि वो कब आता है। कब जाता है। पूरे खानदान को तो जाने किन लोगों ने गोलियों से भून दिया था। वो तो अच्छा रहा कि तब जावेद मुम्बई में हीरो बनने गया था। नहीं तो वो भी मारा जाता। अब तो वो जिन्दगी के बाकी दिन काट रहा है इधर-उधर भटक कर । मैंने बहुत कहा कि ब्याह कर ले। घर बसा ले। लेकिन मेरी तो सुनता ही नहीं। अब तो मुझे देखकर मुंह ही फेर लेता है कि मैं उसे फिर ब्याह के लिये कहने लगूंगा। बहुत दुःखी है बेचारा। किसी से भी ज्यादा बात नहीं करता है। समझ में नहीं आता क्या करूं।”

पारसनाथ ने अपने खुरदरे मुंह पर हाथ फेरा ।

“जावेद को ढूंढना चाहूं तो कहां तलाश करूं।” पारसनाथ ने पूछा।

“मुझे नहीं मालूम कि वो कहा जाता है। मैं तो खिड़की बंद कर रहा हूं। ठंड लग रही है। तुम भी जाओ। दो-चार दिन बाद फिर फेरा लगा जाना। शायद मुलाकात हो जाये।” इसके साथ ही उस व्यक्ति ने खिड़की बंद कर ली।

दूर स्ट्रीट लाईट की रोशनी यहां तक नहीं पहुंच रही थी, परन्तु मन को राहत दे रही थी कि दूर ही सही, लेकिन मध्यम सा प्रकाश तो फैला रही है। सोच में डूबे पारसनाथ ने सिग्रेट सुलगाई। जावेद खान से मिलना जरूरी था। लेकिन कई दिन से वो घर पर नहीं था। कहां था, ये भी किसी को पता नहीं था।

पारसनाथ को यहां आना बेकार होता लगा। वो ये सोचकर वहां से हिला कि एस०टी०डी० बूथ तलाश करके मोना चौधरी से बात की जाये कि जावेद खान नहीं मिला। आगे क्या करना है? अभी पारसनाथ कुछ कदम ही आगे बढ़ा होगा कि कमर पर सख्त सी चीज आ सटी। सो समझ गया कि रिवाल्वर सट गई है। वो ठिठका। चेहरे पर खुरदरापन और बढ़ गया। होंठ भिंच गये।

“कौन हो तुम?” पारसनाथ के होंठों से सख्त स्वर निकला।

“जावेद खान! जिसकी तलाश तुम कर रहे थे। जिससे तुम मिलना चाहते थे।” कठोर स्वर कानों में पड़ा।

पारसनाथ फुर्ती से घूमा । एक हाथ उसकी रिवाल्वर वाली कलाई पर जा टिका। लेकिन दूसरे ही पल कलाई से पारसनाथ की पकड़ ढीली पड़ती चली गई।

बेशक वहां अंधेरा था। लेकिन वो जावेद खान को पहचान गया था।

जावेद खान ने भी उसे पहचाना।

“तुम?” जावेद खान के होंठों से निकला-“तुम पारसनाथ हो। यहां....मोना चौधरी के साथी.....”

“हां।” पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहते हुए उसकी कलाई छोड़ दी- “तुम कहां थे?”

“गली के कोने पर पहुंचा था कि तुम्हें दरवाजा खटखटाते देखा। अंधेरे की वजह से पहचान नहीं सका।” जावेद खान ने जेब में रिवाल्वर डाल ली- “लेकिन तुम्हारी चाल-आकार पहचाना सा लगा। मन में आया कि कहीं तुम मेरा बुरा करने न आये हो, इसलिए रिवाल्वर लगाकर तुम्हें कवर किया। अकेले हो क्या?”

“हां। तुमसे काम....”

“आओ। भीतर चलते हैं। आराम से बैठकर बातें करेंगे।” जावेद खान ने पारसनाथ की कमर थपथपाकर कहा।

☐☐☐

जावेद खान का बहुत बड़ा मकान था। पुराना पुश्तैनी घर था। भीतर पहुंचकर जावेद खान ने कोई खास बात नहीं की, जबकि पारसनाथ ने बात शुरू करने की कोशिश अवश्य की थी। हाथ मुंह धोकर जावेद खान किचन में चला गया और अनुभवी अंदाज में खाना तैयार करने लगा। पारसनाथ ने उसे काम करते देखा। कहा कुछ नहीं। जेबों में हाथ डाले वो इधर-उधर टहलता रहा। सिर्फ आधे घंटे में जावेद खान ने रोटी-सब्जी तैयार करके टेबल पर लगा दी।

“आओ।” जावेद खान मुस्कराकर कुर्सी पर बैठता हुआ बोला- “घर का गर्म खाना हो तो, खाने का मजा ही बढ़ जाता है। मैं जानता हूं तुमने कुछ नहीं खाया। डिनर का वक्त तो अब हुआ है।”

पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर मुस्कान उभरी और कुर्सी पर बैठ गया।

दोनों ने खाना शुरू किया।

“महाजन जानता है कि मैं खाना बहुत बढ़िया बनाता हूं। साल भर पहले महाजन जब मिला था तो उनके लिए खाना मैंने ही बनाया था। साथ में कुछ और भी दिलजले थे, जो देश की खातिर अपनी जान को, दूसरे से पहले गवां देना चाहते थे। मेरी नज़रों में तो वो सब पागल थे देश के लिए....।”

“हां। देखा था मैंने उन्हें।” पारसनाथ ने कहा- “कम लोग ही ऐसे होते हैं। लल्लू सिंह झा के बारे में सुना था कि दुश्मनों की पोजिशन तोड़ने के लिए, उनके बीच कूद गया था और मारा गया।”

खाने के दौरान उनकी बातें जारी थीं।

“तुम क्या करते हो इन दिनों।” पारस नाथ ने पूछा।

‘मैं....।” जावेद खान के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी- “मैंने क्या करना है। पुश्तों की तगड़ी जायदाद है। कई मकान हैं, बे-शुमार पैसा है। दोनों हाथों से बरबाद करूं तो भी मेरी जिन्दगी मजे से कट जाये।”

“मतलब कि कुछ नहीं करते?”

“करता हूं।” एकाएक जावेद खान चुप-चुप सा हो गया- “वक्त भी तो बिताना है। मेरे पूरे खानदान को गोलियों से भून दिया गया। तब मैं मुम्बई में फिल्मों में हीरो बनने की कोशिश कर रहा था। दो फिल्में साईन भी कर ली थीं। एक तो सुभाष घई की फिल्म थी। ये खुशी भरी खबर देने के लिए यहां घर फोन किया तो सुनने को मिला कि कुछ घंटे पहले ही मेरे सारे परिवार को गोलियों से भून दिया गया है। क्योंकि उन्होंने कुछ लोगों को पैसा देने से मना कर दिया था। मुम्बई से मन खराब हो गया और वापस आ गया। पूरे परिवार को हंसता-खेलता छोड़कर गया था। वापस आया तो घर का इकलौता सदस्य सिर्फ मैं ही था। मां-बाप, दादा, बहन, भाई सब को ही मार दिया था। कोई नहीं बचा।”

पारसनाथ, जावेद खान के गम्भीर चेहरे को देख रहा था।

“आज तक नहीं मालूम कर सका कि वो कौन लोग थे जिन्होंने मेरे परिवार को खत्म कर दिया था। उनके बारे में मुझे कोई खबर नहीं मिल सकी। शायद कभी मालूम हो जाये।” जावेद खान ने गम्भीर स्वर में कहते हुए पुनः खाना शुरू कर दिया- “साल भर में मैंने अपना सारा ध्यान खीचकर कश्मीर में होने वाली हरकतों पर लगा रखा है।”

“वो कैसे?” पारसनाथ धीरे-धीरे खाना खा रहा था।

“सब को देखता हूं कि कौन क्या कर रहा है। किसने क्या किया। जिस बात के बारे में हर कोई नहीं जानता, उसके बारे में मैं जानता हूं। बहुत से काले सफेद मेरे सामने हैं।” जावेद खान बोला- “बस देखता रहता हूं।”

“इससे तुम्हें क्या फायदा?”

“मैं तो वक्त बिताता हूं। फायदा-नुकसान नहीं देखता।” जावेद खान के होंठों पर मुस्कान उभरी- “खाना बहुत धीमें खाते हो पारसनाथ। वैसे तुम मेरे पास कैसे आये। बिना वजह तो आये नहीं होगे। पहले ये बताओ कि महाजन कैसा है। मोना चौधरी कैसी है?”

“महाजन ठीक है। इस वक्त जम्मू पहुंच गया होगा या पहुंचने वाला होगा। मोना चौधरी भी जम्मू में है।”

जावेद खान की निगाह पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर जा टिकी।

“और तुम बड़गाम में हो।” जावेद खान बोला- “मतलब कि कोई खास बात है। क्यों?”

“हां। मोना चौधरी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। वो व्यस्त थी। नहीं तो वो अवश्य आती। कोई बात मालूम करनी थी। मोना चौधरी ने कहा कि इस काम में तुम्हारी सहायता मिल सकती है।”

दोनों लगभग खाना समाप्त कर चुके थे।

“क्या बात?”

“बख्तावर सिंह को तो तुम जानते ही होगे कि.....।”

“मैं नहीं जानता उसे।” जावेद खान ने टोका- “पहली बार साल भर पहले तुम लोगों के साथ ही उसका नाम सीमा पार अबोटाबाद में सुना था। उसके बाद तो यहां उसका नाम सुनने को मिल ही जाता है। पाकिस्तानी मिल्ट्री का बड़ा ओहदेदार है वो। लेकिन इन दिनों फंसा पड़ा है।”

पारसनाथ की आंखें सिकुड़ीं।

“कैसे फंसा पड़ा है।”

“श्रीनगर के किसी बंदे ने पाकिस्तान से उसकी भांजी श्वेता का अपहरण करके, उसे श्रीनगर ले आया है और श्वेता को छोड़ने के लिए शर्त रखी है कि बखावर सिंह तीन दिन बाद रवाना होने वाले मिल्ट्री के तीन ट्रकों को लूटकर सुरक्षित ढंग से उसके हवाले कर दे।” जावेद खान के स्वर में लापरवाही आ गई थी।

पारसनाथ के चेहरे पर हैरानी उभरी और लुप्त हो गई।

“ये सब खबर है तुम्हारे पास?”

“यही नहीं, बल्कि श्वेता का अपहरण करीब पच्चीस दिन पहले किया गया। अपहरण करने वाले ने अपने मैसेज में बख्तावर सिंह से कहा कि इस दौरान अगर वो श्रीनगर से अपनी भांजी श्वेता को बरामद कर लेता है तो ये मामला खत्म समझा जायगा। और बख्तावर सिंह ने बहुत कोशिश की, अपने ढेरों आदमी श्रीनगर में फैला दिए कि श्वेता को तलाश कर सके। लेकिन वो नहीं कर सका।”

बख्तावर सिंह ने गहरी निगाहों से जावेद खान को देखा।

“क्या देख रहे हो?”

“तुम्हें ये सब कैसे मालूम?”

“भूल गये कि मैंने अभी कहा था कि वक्त बिताने के लिए मैं श्रीनगर-कश्मीर की हरकतों पर नजर रखता हूं। अकसर ऐसी बातें मुझे पता होती हैं, जो किसी को नहीं मालूम। अल्लाह की मेहरबानी अपनी जिन्दगी इस तरह बिता रहा हूं। उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता।” जावेद खान मुस्करा पड़ा।

“तब तो तुम्हें ये भी मालूम होगा कि बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता का अपहरण किसने किया है?”

“तुम्हें इस बात से क्या लेना-देना?”

“मैं यही बात जानने के लिए यहां आया हूं।” पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा।

जावेद खान की निगाह, पारसनाथ पर जा टिकी।

“बोलो, जावेद खान....।” पारसनाथ पुनः बोला।

“जान भी लोगे तो कोई फायदा नहीं....।” जावेद खान ने गम्भीर स्वर में कहा। सिक्का अपना ही खोटा हो तो फिर दूसरे को क्या कहना।” जावेद खान ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया- “उसके बारे में मालूम होने पर भी उसे कुछ कह पाना सम्भव नहीं।” जावेद खान ने गहरी सांस ली।

“तुम बताओ जावेद खान।”

“क्यों जानना चाहते हो?” जावेद खान बोला- “इस बात को जानने यहां तक क्यों आये हो?”

“इसके जवाब में तुम्हें सब कुछ बताना होगा?”

“जबाब चाहिये तो सब कुछ बताओ। मुझे भी तो लगे कि तुम्हें वास्तव में ये बात जानने की जरूरत है।”

पारसनाथ ने जावेद खान को सब कुछ बताया।

सुनकर जावेद खान कई मिनटों की सोच में डूबा रहा।

“ये वजह है कि बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता कहां है ये जानना

“मेरे ख्याल में तुम लोगी. बख्तावर सिंह की भांजी को बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए। वो हमारे देश का दुश्मन है। हिन्दुस्तान में तोड़-फोड़ की कई कार्यवाहियों के पीछे उसका हाथ होता है।”

“जावेद खान! बख्तावर सिंह अपने देश की खातिर अपना फर्ज-धर्म निभाता है। उसकी किसी के साथ व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। वो बेशक पाकिस्तान का कितना बड़ा ऑफिसर ही सही, लेकिन ऊपर से मिला आर्डर उसे भी पूरा करना पड़ता है।” पारसनाथ सपाट स्वर में कहा- “उसकी भांजी श्वेता का तो इन मामलों से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। फिर उसका क्यों अपहरण किया....?”

“पारसनाथ!” जावेद खान का स्वर कठोर होता चला गया- “मेरी मासूम बहन का देश के मामलों से क्या रिश्ता था जो उसे गोलियों से भून दिया गया? मेरे भाई को क्यों मारा गया? मां-बाप, दादा को क्यों गोलियों से भून दिया गया? क्या इसलिए मार दिया गया कि बन्दूकों के दबाव में वो सालों से, कुछ लोगों को पैसा दे रहे थे और उस बार उन्होंने पैसा देने से मना कर दिया था? वो....।”

“ये काम बख्तावर सिंह ने किया था?” पारसनाथ ने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा।

“मालूम नहीं किसने किया.....”

“तो फिर बख्तावर सिंह की भांजी से उन लोगों की दुश्मनी क्यों उतार रहे हो। समझदारी से काम लो जावेद खान। मन को साफ कर। बिना वजह किसी से बदला नहीं लेना चाहिये।

“मैं बदला नहीं ले रहा।” जावेद खान होंठ भींचकर बोला- “अपने दिल की आग को ठण्डा कर रहा....”

“इस तरह दिल की आग ठण्डी नहीं होती। भड़कती है। तुम्हारे साथ जो हुआ बुरा हुआ। लेकिन तुम अपने मन में आग रखकर, अपने लिये और भी बुरा कर रहे हो। ये सोचो कि जो तुम्हारे परिवार के साथ हुआ, वो किसी और के साथ न हो। इसे सोचकर जो भी काम करोगे, तुम्हें सकून मिलेगा। शान्ति मिलेगी मन को। किसी परिवार को बचाकर तो देखो, बेशक वो दुश्मनों का परिवार ही क्यों न हो। तब तुम्हें ऐसा मालूम होगा कि अपने परिवार को बचाया है तुमने।”

जावेद खान देखता रहा पारसनाथ को।

“सच मानो, जावेद खान, मैं ठीक कह.....”

“मेरे मन में किसी के परिवार क लिये कोई दुश्मनी नहीं है।” कश लेते हुए जावेद खान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“नहीं है तो श्वेता के बारे में बताओ कि वो कहां है? किसने उसे कैद कर रखा है? और....।

“इधर तुम श्वेता को छुड़ाने की सोच रहे हो। उधर बख्तावर सिंह मिल्ट्री के ट्रकों को लूटने की पूरी तैयारी कर चुका है।” जावेद खान बोला- “तुम लोग ये काम क्यों कर....?”

“बख्तावर सिंह अपनी भांजी की वजह से मजबूर होकर ये काम कर रहा है। उसे श्वेता मिल जायेगी तो वो हिन्दुस्तान से उसी वक्त निकल जायेगा। नहीं तो बहुत खूनखराबा होगा। ट्रकों के साथ हमारे जवान होंगे। जो इस बेकार की लड़ाई में अपनी जान गवां बैठेंगे। और....”

जावेद खान के होंठों पर उभरी मुस्कान को देखकर, पारसनाथ खामोश हो गया।

“अब कोई फायदा नहीं। कुछ पहले आते तो शायद ठीक हो जाता मामला। आज का दिन बीत गया। कल का दिन बाकी है। परसों सुबह वो तीनों ट्रक जम्मू के लिए रवाना हो रहे हैं।” जावेद खान ने सिर हिलाकर कहा- “यानि कि इतना वक्त है ही नहीं कि श्वेता को छुड़ाकर, बख्तावर सिंह को रोका जा सके।”

पारसनाथ ने जावेद खान की आंखों में देखा और धीमे स्वर में कह उठा।

“परसों वो तीनों ट्रक जम्मू के लिए रवाना नहीं होंगे।”

“क्या मतलब?”

“ट्रकों को रवाना होने में दो-चार दिन का बक्त और लगेगा।”

“परसों का दिन तय है और.....”

“दिन और वक्त आगे भी तो बढ़ाया जा सकता है।”

दोनों कुछ पल एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे।

“मतलब कि किसी तरह से तुम लोगों ने ट्रकों की रवानगी का वक्त आगे बढ़ा दिया है।”

“हां”

जावेद खान एकाएक कुछ नहीं कह सका।

“अब वजह सोचने लगे.....।”

जावेद खान ने कश लिया और सिग्रेट कमरे के कोने की तरफ उछाल दी।

“मतलब कि तुम लोग हर हाल में श्वेता के बारे में जानना चाहते हो।”

“इस मामले में श्वेता के बारे में मालूम हो जाना, उसे पाना बहुत जरूरी है कि......”

“जो भी हो बख्तावर सिंह की सहायता करना ठीक नहीं....।”

“ये बख्तावर सिंह की सहायता नहीं है, बल्कि हम अपने देश में शान्ति कायम रख रहे हैं। अपने उन जवानों को बचा रहे हैं, जो बिना वजह मारे जाने वाले हैं। ये काम बख्तावर सिंह अपनी मर्जी से नहीं कर रहा बल्कि उसे ब्लैकमेल करके, करवाया जा रहा है। अगर बख्तावर सिंह खुद ये काम कर रहा होता तो फिर हालात दूसरे ही होते। हम शान्ति जरूर चाहते हैं, लेकिन हाथ जोड़कर मिलने वाली शान्ति नहीं चाहते हम।” पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा- “वैसे भी हमारे देश की परम्परा रही है कि बहू-बेटी सबकी एक-जैसी होती हैं। बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता, यहां केद है। अगर बख्तावर सिंह उन ट्रकों को लूटने में सफल नहीं हुआ तो उसे अपहरण करने वाले लोग, उसके साथ कैसा भी बुरा सलूक कर सकते हैं।”

जावेद खान के होंठ भिंच गये।

“एक बात और सुन लो जावेद खान कि बख्तावर सिंह किसी भी हाल में सफल नहीं हो सकेगा।” पारसनाथ का खुरदरा चेहरा कठोर होता चला गया- “मिल्ट्री के उन तीन ट्रकों के साथ, कई जवान होंगे।

मोना चौधरी, महाजन और में भी वहीं, पास ही कहीं होंगे। हो सकता है, जरूरत के मुताबिक हम और लोग भी इकट्टे कर लें। बख्तावर सिंह कैसे भी जोर लगा ले, वो ट्रकों पर हाथ डालने में सफल नहीं हो पायेगा।”

“वो पागलों की फौज नहीं है, इस बार साथ में?” जावेद खान के होंठ सिकुड़े।

“फौज?”

“जिन्हें महाजन अपने शब्दों में ब्रिगेड कहता वो देश के दीवाने....।”

“मेरे ख्याल में शायद नहीं-वो लोग इस बार नहीं होंगे।”

पारसनाथ ने उसे देखा।

“वो होते तो मजा आ जाता।” जावेद खान के होंठों पर हल्की सी मुस्कान उभरी- “वो सब ही बहुत बड़े जियाले हैं। जितने मासूम हैं, देश के दुश्मनों के लिए उतने ही खतरनाक हैं। उनके बारे में जब भी सोचता हूं तो मन में यही हाल आता है कि अगर हर हिन्दुस्तानी उन जैसा होता तो कितना अच्छा होता।”

“मोना चौधरी जम्मू में मेरे फोन का इन्तजार कर रही है।”

पारसनाथ की नज़रें जावेद खान पर थीं।

दो पल की चुप्पी के बाद जावेद खान ने अपना गम्भीर चेहरा हिलाया।

“श्वेता, जहां है, वहां से उसे निकाल पाना असम्भव है।

“पारसनाथ!” जावेद खान ने कहा।

“तुम्हारा मतलब कि वो बहुत ही सुरक्षित जगह पर है?” पारसनाथ के होंठों से निकला।

“वो मिल्ट्री के बेस में कैद है।” जावेद खान के चेहरे पर कड़वापन आ गया।

“मिल्ट्री के बेस में?” पारसनाथ के होंठों से निकला- “तुम्हारा मतलब कि हिन्दुस्तान मिल्ट्री की कैद में?”

जावेद खान ने होंठ भींच लिए।

“बोलो-जवाब दो?”

“हिन्दुस्तानी मिल्ट्री की कैद में नहीं है वो। हिन्दुस्तानी मिल्ट्री के बेस में कैद करके उसे रखा गया है।” जावेद खान ने एकाएक शब्द चबाकर कहा- “एक सिक्का खोटा हो तो, सब सिक्कों को खोटा नहीं कहना चाहिए।”

“साफ-साफ कहो।”

“मेजर सुदेश बख्शी ने श्वेता का अपहरण करवाया है।” जावेद खान बोला- “और अपने ही घर में कैद कर रखा है। जो कि मिल्ट्री एरिये में पड़ता है। वहां मिल्ट्री के जवानों का पहरा रहता है। कोई भी बाहरी आदमी वहां नहीं पहुंच सकता तो ऐसे में श्वेता की खबर किसी को कैसे मिलेगी?”

आंखें सिकुड़ गई, पारसनाथ की।

“मेजर सुदेश बख्शी के बारे में बताओ।”

“अपने डिपार्टमेंट में मेजर सुदेश बख्शी का बहुत दबदबा है। पांच सालों से श्रीनगर और आसपास के इलाकों में ही तैनात है। एक बार दिल्ली के लिए ट्रांसफर आ आर्डर आया, लेकिन उस आर्डर को कैंसिल करवा दिया ये कहकर कि जब तक श्रीनगर के हालात ठीक नहीं हो जाते, उसे यहीं रहने दिया जाये। जबकि हकीकत कुछ और ही है। मेजर सुदेश बख्शी श्रीनगर के हालातों को खराब करने का पचास प्रतिशत जिम्मेवार है। किसी को इस बात का पता नहीं। क्योंकि उसके काम करने का ढंग ही ऐसा है। कुछ को पता है तो बख्शी के दबदबे की वजह से बोलते नहीं। किसी ने उसके खिलाफ सिर उठाने की कोशिश की तो, बख्शी उसके मुंह खोलने से पहले ही बहाने से कोई इल्जाम लगाकर उसे शूट कर दिया जाता। बख्शी अकेला नहीं, मिल्ट्री के और लोग भी उसके साथ, उसके कामों में- “ जावेद खान ने कहा।

“आगे कहो.....।” पारसनाथ के माथे पर बल नज़र आ रहे थे।

“बख्सी यहां के लोगों को हथियार सप्लाई करता है और मोटी रकमें वसूलता है। असला बेचता है। अधिकतर सामान तो मिल्ट्री का ही होता है। उसे सिर्फ दौलत चाहिये। ड्रग्स, जो मिल्ट्री के जवान पकड़ते हैं। गोदाम से उन्हें चोरी करवाकर बाहर बेच देता है। बस ठिकाने बना रखे हैं उसने। कई बार जवान, अपनी जान पर खेलकर, जान गंवाकर, दो-चार खतरनाक लोगों को पकड़कर कैद करते हैं तो बाहरी लोगों से दौलत का सौदा करके,

उन कैदियों को निकल भागने का मौका देता है।” जावेद खान एक-एक शब्द चबाकर कह रहा था- “सुनने में तो ये भी आया है कि देश की महत्वपूर्ण बातें भी, दौलत लेकर बाहरी लोगों को बताता है।”

“हैरानी की बात है कि इतना सब कुछ यो कर रहा है और पकड़ा भी नहीं गया।”

“तुमने ये बात नई-नई सुनी है। इसलिये हैरानी हो रही है। पहली बार जब उसके बारे में जाना तो मुझे भी हैरानी हुई थी। अब नहीं होती। सामान्य बात लगती है।”

“तुमने कहा कि बस्लावर सिंह की भांजी श्वेता को पाकिस्तान से उठवाकर अपने पास ही वहां रखा हुआ है।”

“हा। उधर कुछ जगह मिन्ट्री वालों की है। वहां मकान भी हैं। फ्लैट भी हैं। जिसमें बड़े ऑफिसर अपने परिवारों के साथ रहते हैं। ऐसे ही एक बंगले में मेजर बख्शी अपने परिवार वालों के साथ रहता है। वहीं पर श्वेता को कैद कर रखा है। वहां वो श्वेता को, बिना किसी की निगाह में आये कैसे ले गया। मैं नहीं जानता। वैसे ये तो उसके लिये मामूली काम है।” जावेद खान बोला- “उस सारी जगह पर मिल्ट्री के जवान हथियारों के साथ पहरा देते रहते हैं बाहर का आदमी उस जगह में प्रवेश नहीं कर सकता। अगर ऐसा कोई आदमी नजर आ जाये तो उनके पास उसे शूट करने का पूरा अधिकार है।”

पारसनाथ ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।

“तुम चाहते तो मिल्ट्री के बड़े ऑफिसरों को गुप्त रूप से खबर दे सकते थे कि बख्तावर सिंह की भांनी मेजर बख्शी की कैद में है और मेजर बख्शी असल में क्या-क्या करता है।” पारसनाथ ने धीमें स्वर में कहा।

“मैं ऐसा नहीं कर सकता। खबर देने से अच्छा है कि मेजर बख्शी को काम करने दिया जाये.....” जावेद खान ने कहा।

“क्या मतलब?”

“ऐसे किसी मौके के लिये मेजर शुक्ला ने बहुत खतरनाक इन्तजाम कर रखा है।” जावेद खान ने पारसनाथ को देखकर कहा- “मेजर शुक्ला बहुत खतरनाक इन्सान है। मुझे डर है कि उसने अपना दिमाग देश की सेवा पर क्यों नहीं लगाया। अगर वो ऐसा करता तो यकीनन देश का कुछ भला होता।”

“मैं समझा नहीं....”

“भीतरी खबर है।” जावेद खान ने गहरी सांस ली- “ये वो बातें हैं कि जिन्हें जानने में मुझे साल भर और जबर्दस्त मेहनत लगी है। तो मैं बता रहा था कि भातरी खबर है, दो-ढाई साल पहले, जब वो जगह ज्यादातर खाली थी, ती जवानों ने फोन केबल्स डालने के लिये खुदाई की। ऐसे में फोन केबल्स तो डाल दी गई, साथ ही मेजर बख्शी ने मिल्ट्री के अन्य आदमी के साथ मिलकर, केबल्स के ऊपर ही डाइनामाईट भी बिछा दिया और मिट्टी डाल दी गई। कुल मिलाकर वहां की स्थिति ऐसी है कि मिल्ट्री के लोगों की रहने वाली वो छोटी सी कालोनी डाइनामाईट से घिरी हुई है। जिसका कंट्रोल मेजर सुदेश बख्शी के हाथों में है।”

“ऐसा उसने क्यों किया.....?”

“क्योंकि वो ये बात तो अच्छी तरह जानता है कि बुरे कामों की जिन्दगी ज्यादा देर नहीं होती। उसकी हरकतें कभी भी आम हो सकती हैं। कभी भी उसे पकड़ने के लिए, उसके ही डिपार्टमेंट वाले आ सकते और थी उनके हाथ पकड़ा नहीं चाहता। ऐसा होने पर पहले तो वो आने वाले लोगों को धमका लेगा कि उसे गिरपतार न किया जाये, वरना यो पूरी कालोनी को डाइनामाईट से उड़ा देगा।”

“उसने ऐसा किया तो वो भी नहीं बचेगा।”

“हां। वो नहीं बचेगा, लेकिन ये सोचो कि देश की सेवा में लगे, कितने ऑफिसर, अपने परिवारों के साथ खत्म हो जायेंगे। कितनी तबाही होगी। मलबे से लाशों को भी निकलने की समस्या पैदा हो जायेगी।”

पारसनाथ होंठ भींचे, जावेद खान को देखता रहा।

“उसकी बात न मानकर, उसे गिरफ्तार करने की कोशिश की गई तो वो अपने कंट्रोल का इस्तेमाल करके पूरी कालोनी उड़ा देगा शैतान दिमाग का है वो। यही वजह रही कि मैं आज तक उसके कारनामों की गुप्त खबर मिल्ट्री के बड़े ऑफिसरों को नहीं भेजी कि डाइनामाईट से वो वहां तबाही मचा दे पारसनाथ कि निगाह जावेद खान पर थी।

“ये बहुत लम्बा और सोचा-समझा प्लान है मेजर बख्शी का। वो उन ट्रकों को भीतर रखा माल खुद ले लेना चाहता है। क्योंकि उससे भारी दौलत कमा लेगा वो। हथियारों को ऊंची से ऊंची कीमत पर बेच देगा और एक ट्रक में पड़ी ड्रग्स भी आसानी से बेच देगा। लेने वाले बहुत हैं। उसके सम्बन्धों की लाईन गुपचुप तरीके से बहुत लम्बी है।

उन ट्रकों को लूटने के लिये यहां के लोगों को इस्तेमाल करता तो बात खुल सकती थी कि इस मामले के पीछे किसका हाथ है। उसका नाम आ सकता है। ऐसे में उसने दूर की सोची। बख्शी के पास आदमियों की क्या कमी। उसने कुछ आदमी सीमा पार कराकर पाकिस्तान भेज ओर बख्तावर सिंह की भांजी श्वेता का अपहरण करवाकर, यहां मंगवा लिया। उसे अपने पास कैद कर लिया। वख्तावर सिंह को सारे हालातों की खबर की दी कि अगर वो अपनी भांजी की सलामती चाहता है उन तीन ट्रकों को लूटकर, सुरक्षित ढंग से उसके हवाले करके, श्वेता को वापस ले ले। वरना.....”

पारसनाथ ने सख्ती भरे अंदाज में कश लिया।

“अब बख्तावर सिंह के सामने इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं कि श्वेता को वापस पाने के लिए उन ट्रकों पर हाथ डाले। उसके बाद भी कोई गारण्टी नहीं कि, क्या होता है । इस मामले में बख्तावर सिंह के बीच में आ जाने से, कोई सोच भी नहीं सकता कि असल जड़ मेजर बख्शी है।”

“मुझे अभी भी तुम्हारी बात पर यकीन नहीं आ रहा।” पारसनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मैंने तुम्हें बात बताई है। यकीन करने को नहीं बोला।” जावेद खान मुस्करा पड़ा- “मैं ऐसी ही बातें जानने में लगा रहता हूँ यहाँ मैं तो वो-वो बातें जानता हूं कि तुम कभी भी यकीन नहीं कर पाओगे। लेकिन वो बातें बताने की तुम्हें जरूरत नहीं समझता। अपने काम की बात सुन ली बहुत है।”

पारसनाथ कश लेता रहा।

“कॉफी चलेगी?” जावेद खान ने पूछा।

“इस मामले में बख्तावर सिंह पूरी तरह निर्दोष है अगर तुम्हारी बात पर यकीन किया जाये तो।”

“मैंने जो कहा है, सच कहा है। लेकिन यकीन करने को नहीं कहा। वो तुम्हारी समझ काफी?” जावेद खान ने कहा- “लेकिन क्यों भूलते हो कि बख्तावर सिंह इस देश का दुश्मन है।”

“सोचने की बात तो ये है जावेद खान कि कौन सा दुश्मन देश के लिए ज्यादा खतरनाक है। वो जो सामने खड़ा हमारा निशाना लेने की कोशिश कर रहा है या वो जो हमारे ही घर में बैठा, छुरा थामे चुपचाप हमारी गर्दन काटे जा रहा है। पहले किसे खत्म करना चाहिये। जवाब दो।”

जावेद खान, देखता रहा पारसनाथ को।

“जवाब दो।”

“मेजर बख्शी को पहले खत्म होना चाहिये। लेकिन डाइनामाईट....।” जावेद खान ने कहना चाहा।

“मैं मोना चौधरी से बात करना चाहता हूं। पास में एस०टी०डी० बूथ कहां पर होगा?” पारसनाथ उठ खड़ा हुआ।

“मैंने तो साल भर से अपना फोन ही कटवा रखा है।” जावेद खान उठता हुआ बोला- “किसी का फोन आये, मुझे अच्छा नहीं लगता और मुझे कहीं फोन करने की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे मोना चौधरी को फोन करके तुम क्या बात करना चाहते हो?”

“आगे क्या फैसला करना है, ये मोना चौधरी ही देखेगी।”

“तुम्हें फैसला लेने पर मनाही है?”

“ये मोना चौधरी का मामला है और पास ही मौजूद है तो मैं फैसला लेना जरूरी नहीं समझता।”

☐☐☐