उसी शाम को इमरान और फ़ैयाज़ जज साहब के ड्रॉइंग-रूम में बैठे उनका इन्तज़ार कर रहे थे। उनकी लड़की भी मौजूद थी और उसने उस वक़्त भी काले रंग की ऐनक लगा रखी थी। इमरान बार-बार उसकी तरफ़ देख कर ठण्डी आहें भर रहा था। फ़ैयाज़ कभी-कभी राबिया की नज़र बचा कर उसे घूरने लगता।
थोड़ी देर बाद जज साहब आ गये और राबिया उठ कर चली गयी।
‘बड़ी तकलीफ़ हुई आपको!’ फ़ैयाज़ बोला।
‘कोई बात नहीं, फ़रमाइए।’
‘बात यह है कि मैं अयाज़ के बारे में और जानकारी चाहता हूँ।’
‘मेरा ख़याल है कि मैं आपको सब कुछ बता चुका हूँ।’
‘मैं उसके ख़ानदानी हालात मालूम करना चाहता हूँ ताकि उसके रिश्तेदारों से मिल सक़ूँ।’
‘अफ़सोस कि मैं उसके बारे में कुछ न बता सक़ूँगा।’ जज साहब ने कहा, ‘बात आपको अजीब मालूम होगी, लेकिन यह हक़ीक़त है कि मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, हालाँकि हम गहरे दोस्त थे।’
‘क्या आप यह भी न बता सकेगे कि वह बाशिन्दा कहाँ का था?’
‘अफ़सोस मैं यह भी नहीं जानता।’
‘बड़ी अजीब बात है। अच्छा पहली मुलाक़ात कहाँ हुई थी?’
‘इंग्लैण्ड में।’
फ़ैयाज़ एकदम चौंक पड़ा, लेकिन इमरान बिलकुल ठस बैठा रहा। उस पर कोई असर नहीं पड़ा।
‘कब की बात है?’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘तीस साल पहले की, और यह मुलाक़ात बड़े अजीब हालात में हुई थी। यह उस वक़्त की बात है जब मैं ऑक्सफ़ोर्ड में क़ानून पढ़ रहा था। एक बार हंगामे में फँस गया, जिसकी वजह सौ फ़ीसदी ग़लतफ़हमी थी। अब से तीस साल पहले का लन्दन नफ़रतअंगेज़ था। जितनी नफ़रत की जाये, कम थी। इसी से अन्दाज़ा लगाइए कि वहाँ के एक होटल पर एक ऐसा साइनबोर्ड था जिस पर लिखा था–‘हिन्दुस्तानियों और कुत्तों का दाख़िला मना है!’ मैं नहीं कह सकता कि वह अब भी है या नहीं। बहरहाल, ऐसे माहौल में अगर किसी हिन्दुस्तानी और किसी अंग्रेज़ के दरमियान में कोई ग़लतफ़हमी पैदा हो जाये तो अंजाम ज़ाहिर ही है। वह एक रेस्तराँ था जहाँ एक अंग्रेज़ से मेरा झगड़ा हो गया। इलाक़ा ईस्ट एण्ड का था जहाँ ज़्यादातर जंगली ही रहा करते थे। आज भी जंगली ही रहते हैं। इन्तहाई ग़ैरमुहज़्ज़ब लोग जो जानवरों की तरह ज़िन्दगी बसर करते हैं। ओह, मैं ख़ामख़ा बात को लम्बी कर रहा हूँ। मतलब यह कि झगड़ा बढ़ गया। सच्ची बात तो यह है कि मैं ख़ुद ही किसी तरह जान बचा कर निकल जाना चाहता था। अचानक एक आदमी भीड़ को चीरता हुआ मेरे पास पहुँच गया। वह अयाज़ था। उसी दिन मैंने उसे पहले-पहल देखा। और इस रूप में देखा कि आज तक हैरान हूँ। वह मजमा जो मुझे मार डालने पर तुल गया था, अयाज़ की शक्ल देखते ही तितर-बितर हो गया। ऐसा मालूम हुआ जैसे भेड़ों के झुण्ड में कोई भेड़िया घुस आया हो। बाद में मालूम हुआ कि अयाज़ उस इलाक़े के दार–ओ-असर लोगों में से था। ऐसा क्यों था, यह मुझे आज तक न मालूम हो सका। हमारे ताल्लुक़ात बढ़े और बढ़ते चले गये। लेकिन मैं उसके बारे में कभी कुछ न जान सका। वह हिन्दुस्तानी ही था, लेकिन मुझे यहाँ तक भी मालूम नहीं हो सका कि वह किस सूबे या शहर का बाशिन्दा था।’
जज साहब ने ख़ामोश हो कर उनकी तरफ़ सिगार केस बढ़ाया। इमरान ख़ामोश बैठा छत की तरफ़ घूर रहा था। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे फ़ैयाज़ ज़बरदस्ती किसी बेवक़ूफ़ को पकड़ लाया हो। बेवक़ूफ़ ही नहीं, बल्कि ऐसा आदमी जो उनकी गुफ़्तगू ही समझने के लायक न हो। फ़ैयाज़ ने कई बार उसे कनखियों से देखा भी, लेकिन वह ख़ामोश ही रहा।
‘शुक्रिया!’ फ़ैयाज़ ने सिगार लेते हुए कहा और फिर इमरान की तरफ़ देख कर बोला, ‘जी, यह नहीं पीते।’
इस पर इमरान ने छत से अपनी नज़रें न हटायीं। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह ख़ुद को तन्हा महसूस कर रहा हो। जज साहब ने भी अजीब नज़रों से उसकी तरफ़ देखा। लेकिन कुछ बोले नहीं।
अचानक इमरान ने ठण्डी साँस ले कर ‘अल्लाह’ कहा और सीधा हो कर बैठ गया। वह मुँह चलाता हुआ उन दोनों को बेवक़ूफ़ों की तरह देख रहा था।
इस पर फ़ैयाज़ को ख़ुशी हुई कि जज साहब ने इमरान के बारे में कुछ नहीं पूछा। फ़ैयाज़ कोई दूसरा सवाल सोच रहा था और साथ-ही-साथ यह दुआ भी कर रहा था कि इमरान की ज़बान बन्द ही रहे तो बेहतर है, मगर शायद इमरान चेहरा पढ़ने में भी माहिर था, क्योंकि दूसरे ही लम्हे में उसने बकना शुरू कर दिया।
‘हाँ साहब! अच्छे लोग बहुत कम ज़िन्दगी ले कर आते हैं। अयाज़ साहब तो वलीअल्लाह थे। चर्ख़ कज रफ़्तारो नाहंजार कब किसी को...ग़ालिब का शेर है!’
लेकिन इससे पहले कि इमरान शेर सुनाता, फ़ैयाज़ बोल पड़ा, ‘जी हाँ क़स्बे वालों में कुछ इसी क़िस्म की अफ़वाह है!’
‘भई, यह बात तो किसी तरह मेरे हलक़ से नहीं उतरती! सुना मैंने भी है।’ जज साहब बोले, ‘उसकी मौत के बाद क़स्बे के कुछ मुअज़्ज़िज़ लोगों से मिला भी था। उन्होंने भी यही ख़याल ज़ाहिर किया था कि वह कोई पहुँचा हुआ आदमी था, लेकिन मैं नहीं समझता। उसकी शख़्सियत भेद-भरी ज़रूर थी...मगर इन मानी में नहीं!’
‘उसके नौकर के बारे में क्या ख़याल है जो क़ब्र की मुजाविरी करता है।’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘वे भी एक पहुँचे हुए बुज़ुर्ग हैं।’ इमरान तड़ से बोला। और जज साहब फिर उसे घूरने लगे, लेकिन इस बार भी उन्होंने उसके बारे में कुछ नहीं पूछा।
‘क्या वसीयत में यह बात ज़ाहिर कर दी गयी है कि क़ब्र का मुजाविर इमारत के बाहरी कमरे पर क़ाबिज़ रहेगा।’ फ़ैयाज़ ने जज साहब से पूछा।
‘जी हाँ! क़तई!’ जज साहब ने उकताए हुए लहजे में कहा, ‘बेहतर होगा अगर हम दूसरी बातें करें। उस इमारत से मेरा बस इतना ही ताल्लुक़ है कि मैं क़ानूनी तौर पर उसका मालिक हूँ। इसके अलावा और कुछ नहीं। मेरे घर का कोई आदमी आज तक उसमें नहीं रहा।’
‘कोई कभी उधर गया भी न होगा?’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘भई क्यों नहीं! शुरू में तो सब ही को उसको देखने का शौक़ था! ज़ाहिर है कि वह एक हैरतअंगेज़ तरीक़े से हमारी मिल्कियत में आयी थी।’
‘अयाज़ साहब के जनाज़े पर नूर की बारिश हुई थी।’ इमरान ने फिर टुकड़ा लगाया।
‘मुझे पता नहीं।’ जज साहब बेज़ारी से बोले, ‘मैं उस वक़्त वहाँ पहुँचा था जब वह दफ़्न किया जा चुका था।’
‘मेरा ख़याल है कि उसी इमारत पर किसी हवा का असर है।’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘हो सकता है! काश वह मेरी मिल्कियत न होती! क्या अब आप लोग मुझे इजाज़त देंगे?’
‘माफ़ कीजिएगा।’ फ़ैयाज़ उठता हुआ बोला, ‘आपको बहुत तकलीफ़ दी, मगर मामला ही ऐसा है।’
फ़ैयाज़ और इमरान बाहर निकले। फ़ैयाज़ उस पर झल्लाया हुआ था। बाहर आते ही बरस पड़ा।
‘तुम हर जगह अपने गधेपन का सबूत देने लगते हो।’
‘और मैं यह सोच रहा हूँ कि तुम्हें गोली मार दूँ।’ इमरान बोला।
‘क्यों, मैंने क्या किया है?’
‘तुमने यह क्यों नहीं पूछा कि एक आँख वाली चौदह तारीख़ की रात को कहाँ थी?’
‘क्यों बोर करते हो! मेरा मूड ठीक नहीं है।’
‘ख़ैर, मुझे क्या मैं ख़ुद ही पूछ लूँगा।’ इमरान ने कहा, ‘सर जहाँगीर को जानते हो।’
‘हाँ क्यों?’
‘वह मेरा रक़ीब है।’
‘होगा तो मैं क्या करूँ।’
‘किसी तरह पता लगाओ कि वह आजकल कहाँ है?’
‘मेरा वक़्त बर्बाद न करो।’ फ़ैयाज़ झुँझला गया।
‘तब फिर तुम भी वहीं जाओ जहाँ शैतान क़यामत के दिन जायेगा।’ इमरान ने कहा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ जज साहब के गैराज की तरफ़ चला गया। यहाँ से राबिया जाने के लिए कार निकाल रही थी।
‘मिस सलीम,’ इमरान खँखार कर बोला, ‘शायद हम पहले भी मिल चुके हैं।’
‘ओह, जी हाँ, जी हाँ।’ राबिया जल्दी से बोली।
‘क्या आप मुझे लिफ़्ट देना पसन्द करेंगी?’
‘शौक़ से आइए...!’
राबिया ख़ुद ड्राइव कर रही थी। इमरान शुक्रिया अदा करके उसके बराबर बैठ गया।
‘कहाँ उतरिएगा,’ राबिया ने पूछा।
‘सच पूछिए तो मैं उतरना ही न चाहूँगा।’
राबिया सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह गयी। उस वक़्त उसने एक नक़ली आँख लगा रखी थी इसलिए आँखों पर ऐनक नहीं थी।
फ़ैयाज़ की बीवी ने उसे इमरान के बारे में बहुत कुछ बताया था। इसलिए वह उसे बेवक़ूफ़ समझने के लिए तैयार नहीं थी।
‘क्या आप कुछ नाराज़ नहीं हैं?’ इमरान ने थोड़ी देर बाद पूछा।
‘जी!’ राबिया चौंक पड़ी। ‘नहीं तो।’...फिर हँसने लगी।
‘मैंने कहा शायद, मुझसे लोग आम तौर से नाराज़ रहा करते हैं। उनका कहना है कि मैं उन्हें ख़ामख़ा गुस्सा दिला देता हूँ।’
‘पता नहीं। मुझे तो आपने अभी तक ग़ुस्सा नहीं दिलाया।’
‘तब तो यह मेरी ख़ुशक़िस्मती है।’ इमरान ने कहा, ‘वैसे अगर मैं कोशिश करूँ तो आपको ग़ुस्सा दिला सकता हूँ।’
राबिया फिर हँसने लगी। ‘कीजिए कोशिश!’ उसने कहा।
‘अच्छा तो आप शायद यह समझती हैं कि यह नामुमकिन है।’ इमरान ने बेवक़ूफ़ों की तरह हँस कर कहा।
‘मैं तो यही समझती हूँ। मुझे ग़ुस्सा कभी नहीं आता।’
‘अच्छा तो सँभलिए!’ इमरान ने इस तरह कहा जैसे एक तलवारबाज़ किसी दूसरे तलवारबाज़ को ललकारता हुआ किसी घटिया-सी फ़िल्म में देखा जा सकता है।
राबिया कुछ न बोली। वह कुछ बोर-सी होने लगी थी।
‘आप चौदह तारीख़ की रात को कहाँ थीं?’ इमरान ने अचानक पूछा।
‘जी....’ राबिया एकदम चौंक पड़ी।
‘ओह! स्टीयरिंग सँभालिए! कहीं कोई ऐक्सीडेंट न हो जाये!’ इमरान बोला, ‘देखिए, मैंने आपको ग़ुस्सा दिलाया न।’ फिर उसने एक ज़ोरदार क़हक़हा लगाया और अपनी टाँग पीटने लगा।
राबिया की साँस फ़ूलने लगी थी और उसके हाथ स्टीयरिंग पर काँप रहे थे।
‘देखिए।’ उसने हाँपते हुए कहा, ‘मुझे जल्दी है...वापस जाना होगा...आप कहाँ उतरेंगे?’
‘आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।’ इमरान शान्त लहजे में बोला।
‘आपसे मतलब? आप कौन होते हैं पूछने वाले?’
‘देखा...आ गया ग़ुस्सा! वैसे यह बात बहुत अहम है और अगर पुलिस के कानों तक जा पहुँची तो ज़हमत होगी! मुमकिन है मैं कोई ऐसी कार्रवाई कर सकँू जिसकी वजह से पुलिस यह सवाल ही न उठाये।’
राबिया कुछ न बोली। वह अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेर रही थी।
‘मैं यह भी न पूछूँगा कि आप कहाँ थीं?’ इमरान ने फिर कहा, ‘क्योंकि मुझे मालूम है। मुझे आप सिर्फ़ इतना बता दीजिए कि आपके साथ कौन था?’
‘मुझे प्यास लग रही है।’ राबिया भर्रायी हुई आवाज़ में बोली।
‘ओहो! तो रोकिए...कैफ़े नब्रास्का नज़दीक ही है।’
कुछ आगे चल कर राबिया ने कार खड़ी कर दी और वह दोनों उतर कर फ़ुटपाथ से गुज़रते हुए कैफ़े नब्रास्का में चले गये।
इमरान ने नज़र दौड़ायी। कोने वाली टेबल ख़ाली थी। वे बैठ गये। चाय से पहले इमरान ने एक गिलास ठण्डे पानी के लिए कहा।
‘मुझे य़कीन है कि वापसी में कुंजी उसके पास रह गयी होगी।’ इमरान ने कहा।
‘किसके पास?’ राबिया फिर चौंक पड़ी।
‘फ़िक्र न कीजिए! मुझे य़कीन है कि उसने आपको अपना सही नाम और पता हरगिज़ न बताया होगा और कुंजी वापस कर देने के बाद से अब तक मिला भी न होगा।’
राबिया बिलकुल निढाल हो गयी। उसने मुर्दा-सी आवाज़ में कहा, ‘फिर अब आप क्या पूछना चाहते हैं?’
‘आप उससे कब और किन हालात में मिली थीं?’
‘अब से दो माह पहले!’
‘कहाँ मिला था?’
‘एक फ़ंक्शन में। मुझे यह याद नहीं कि किसने मिलवाया था।’
‘फ़ंक्शन कहाँ था?’
‘शायद सर जहाँगीर की सालगिरह का मौक़ा था।’
‘ओह!’...इमरान कुछ सोचने लगा। फिर उसने आहिस्ता से कहा, ‘कुंजी आपको उसने कब वापस की थी?’
‘पन्द्रह की शाम को।’
‘और सोलह की सुबह को लाश पायी गयी थी।’ इमरान ने कहा।
राबिया बुरी तरह हाँफने लगी। उसने चाय की प्याली मेज़ पर रख कर कुर्सी से टेक लगा ली। उसकी हालत बाज़ के पंजे में फँसी हुई किसी नन्ही-मुन्नी चिड़िया की तरह थी।
‘पन्द्रह को दिन भर कुंजी उसके पास रही। उसने उसकी नक़ल तैयार कराके कुंजी आपको वापस कर दी। उसके बाद फिर वह आप से नहीं मिला। ग़लत कह रहा हूँ?’
‘ठीक है।’ वह आहिस्ता से बोली, ‘वह मुझसे कहा करता था कि वह सैलानी है। जाफ़रिया होटल में रुका है...लेकिन परसों मैं वहाँ गयी थी...’
वह ख़ामोश हो गयी। उस पर इमरान ने सिर हिला कर कहा, ‘और आपको वहाँ मालूम हुआ कि उस नाम का कोई आदमी वहाँ कभी ठहरा ही नहीं।’
‘जी हाँ।’ राबिया सिर झुका कर बोली।
‘आप से उसकी दोस्ती का मक़सद सिर्फ़ इतना ही था कि वह किसी तरह आपसे इस इमारत की कुंजी हासिल कर ले।’
‘मैं घर जाना चाहती हूँ...मेरी तबीयत ठीक नहीं।’
‘दो मिनट।’ इमरान ने हाथ हिला कर कहा ‘आपकी ज़्यादातर मुलाक़ातें कहाँ होती थीं?’
‘टिप टॉप नाइट क्लब में!’
‘लेडी जहाँगीर से उसके ताल्लुक़ात कैसे थे।’
‘लेडी जहाँगीर...’ राबिया चिढ़ कर बोली। ‘आख़िर इन मामलात में आप उनका नाम क्यों ले रहे हैं?’
‘क्या आप मेरे सवाल का जवाब न देंगी?’ इमरान ने बड़ी शराफ़त से पूछा।
‘नहीं! मेरा ख़याल है कि मैंने उन दोनों को कभी मिलते नहीं देखा।’
‘शुक्रिया! अब मैं उसका नाम नहीं पूछूँगा। ज़ाहिर है कि उसने नाम भी सही न बताया होगा। लेकिन अगर आप उसका हुलिया बता सके तो शुक्रगुज़ार हूँगा।
राबिया को बताना ही पड़ा। लेकिन वह बहुत ज़्यादा ग़मगीन थी और साथ-ही-साथ रंजीदा भी।
***
इमरान फ़ुटपाथ पर तन्हा खड़ा था—राबिया की कार जा चुकी थी। उसने जेब से एक च्यूइंगम निकाली और मुँह में डाल कर दाँतों से उसे कुचलने लगा। चिन्तन-मनन करते समय च्यूइंगम उसका बेहतरीन साथी साबित होती थी। जासूसी उपन्यासों के जासूसों की तरह न उसे सिगार से दिलचस्पी थी, न पाइप से। शराब भी नहीं पीता था।
उसके ज़ेहन में उस वक़्त कई सवाल थे। वह फ़ुटपाथ के किनारे पर इस तरह खड़ा हुआ था जैसे सड़क पार करने का इरादा रखता हो। मगर उसके ज़ेहन में इस क़िस्म का कोई ख़याल नहीं था।
वह सोच रहा था कि इन मामलों से सर जहाँगीर का क्या ताल्लुक़ हो सकता है। दूसरी लाश के क़रीब उसे काग़ज़ का जो टुकड़ा मिला था वह सर जहाँगीर ही के राइटिंग पैड का था। राबिया से रहस्यमय नौजवान की मुलाक़ात भी सर जहाँगीर ही के यहाँ हुई थी। लेडी जहाँगीर ने जिस ख़ूबसूरत नौजवान का ज़िक्र किया था, वह उसके अलावा और कोई नहीं हो सकता था। लेकिन लेडी जहाँगीर भी उससे वाक़िफ़ नहीं थी। लेडी जहाँगीर की यह बात भी सच थी कि अगर वह शहर के किसी अच्छी हैसियत के ख़ानदान का आदमी होता तो लेडी जहाँगीर उससे ज़रूर वाक़िफ़ होती। फ़र्ज़ किया कि अगर लेडी जहाँगीर भी किसी साज़िश में शरीक थी तो उसने उसका ज़िक्र इमरान से क्यों किया। हो सकता है कि वह उसकी दूसरी ज़िन्दगी से वाक़िफ़ न रही हो। लेकिन फिर भी सवाल पैदा होता है कि उसने ज़िक्र किया ही क्यों? वह कोई ऐसी अहम बात न थी। सैकड़ों नौजवान लड़कियों के चक्कर में रहे होंगे। चाहे वह पानी भरने की मशक़ से भी बदतर क्यों न हों। फिर एक सवाल उसके ज़ेहन में और उभरा। आख़िर उस मुजाविर ने पुलिस को राबिया के बारे में क्यों नहीं बताया था। क़ब्र और लाश के बारे में तो उसने सोचना ही छोड़ दिया था। फ़िक्र इस बात की थी कि वह लोग कौन हैं और इस मकान में क्यों दिलचस्पी ले रहे हैं। अगर वे सर जहाँगीर ही हैं तो उनका इस इमारत से क्या ताल्लुक़। सर जहाँगीर से वह अच्छी तरह वाक़िफ़ था, लेकिन यूँ भी नहीं कि उन पर किसी क़िस्म का शक कर सकता। सर जहाँगीर शहर के इज़्ज़तदार लोगों में थे। न सिर्फ़ इज़्ज़तदार, बल्कि नेक नाम भी।
थोड़ी देर बाद इमरान सड़क पार करने का इरादा कर ही रहा था कि रुकती हुई एक कार उसके रास्ते में आ गयी। यह राबिया ही की कार थी।
‘ख़ुदा का शुक्र है कि आप मिल गये।’ उसने खिड़की से सिर निकाल कर कहा।
‘मैं जानता था कि आपको फिर मेरी ज़रूरत महसूस होगी।’ इमरान ने कहा और कार का दरवाज़ा खोल कर राबिया के बराबर बैठ गया। कार फिर चल पड़ी।
‘ख़ुदा के लिए मुझे बचाइए।’ राबिया ने काँपती हुई आवाज़ में कहा, ‘मैं डूब रही हूँ!’
‘तो क्या आप मुझे तिनका समझती हैं।’ इमरान ने क़हक़हा लगाया।
‘ख़ुदा के लिए कुछ कीजिए। अगर डैडी को इसका इल्म हो गया तो...?’
‘नहीं होने पायेगा।’ इमरान ने संजीदगी से कहा, ‘आप लोग मर्दों के कन्धे-से-कन्धा मिला कर झक मारने मैदान में निकली हैं....मुझे ख़ुशी है...लेकिन आप नहीं जानतीं कि मर्द हर मैदान में आपको उल्लू बनाता है...वैसे माफ़ कीजिए मुझे नहीं मालूम कि उल्लू की मादा को क्या कहते हैं।’
राबिया कुछ न बोली और इमरान कहता रहा, ‘ख़ैर, भूल जाइए इस बात को। मैं कोशिश करूँगा कि इस ड्रामे में आपका नाम न आने पाये! अब तो आप बेफ़िक्र हैं न...गाड़ी रोकिए...अच्छा टाटा...’
‘अरे!’ राबिया के मुँह से हल्की-सी चीख़ निकली और उसने पूरे ब्रेक लगा दिये।
‘क्या हुआ!’ इमरान घबरा कर चारों तरफ़ देखने लगा।
‘वही है।’ राबिया बड़बड़ाई। ‘उतरिए....मैं उसे बताती हूँ।’
‘कौन है? क्या बात है?’
‘वही जिसने मुझे इस मुसीबत में फँसाया है।’
‘कहाँ है?’
‘वह...इस बार में अभी-अभी गया है, वही था...चमड़े की जैकेट और कत्थई पतलून में...’
‘अच्छा तो आप जाइए...मैं देख लूँगा!’
‘नहीं मैं भी...’
‘जाओ!’ इमरान आँखें निकाल कर बोला। राबिया सहम गयी। उस वक़्त इमरान की आँखें उसे बड़ी ख़ौफ़नाक मालूम हुईं। उसने चुपचाप कार मोड़ ली।
इमरान बार में घुसा। बताये हुए आदमी को तलाश करने में देर नहीं लगी। वह एक मेज़ पर तन्हा बैठा था। वह गठीले जिस्म का एक ख़ूबसूरत जवान था। चौड़ा माथा चोट के निशानों से दाग़दार था। शायद वह सिर को दायीं जानिब थोड़ा-सा झुकाये रखने का आदी था। इमरान उसके क़रीब ही मेज़ पर बैठ गया।
ऐसा मालूम हो रहा था जैसे उसे किसी का इन्तज़ार हो। कुछ बेचैन भी था। इमरान ने फिर एक च्यूइंगम निकाल कर मुँह में डाल ली।
उसका अन्दाज़ा ग़लत नहीं था। थोड़ी देर बाद एक आदमी चमड़े की जैकेट वाले के पास आ कर बैठ गया। और फिर इमरान ने उसके चेहरे से बेचैनी के लक्षण ग़ायब होते देखे।
‘सब चौपट हो रहा है!’ चमड़े की जैकेट वाला बोला।
‘उस बुड्ढे को ख़ब्त हो गया है!’ दूसरे आदमी ने कहा।
इमरान उनकी गुफ़्तगू साफ़ सुन सकता था। जैकेट वाला कुछ देर सोचते हुए अपनी ठोड़ी खुजलाता रहा फिर बोला—
‘मुझे य़कीन है कि उसका ख़याल ग़लत नहीं है। वह सब कुछ वहीं है, लेकिन हमारे साथी बोदे हैं। आवाज़ें सुनते ही उनकी रूह फ़ना हो जाती है।’
‘लेकिन भई!...आख़िर वे आवाज़ें हैं कैसी!’
‘कैसी ही क्यों न हों! हमें उनकी परवा न करनी चाहिए।’
‘और वे दोनों किस तरह मरे?।’
‘यह चीज़!’ जैकेट वाला कुछ सोचते हुए बोला, ‘अभी तक मेरी समझ में नहीं आ सकी। मरता वही है जो काम शुरू करता है। यह हम शुरू ही से देखते रहे हैं।’
‘फिर ऐसी सूरत में हमें क्या करना चाहिए।’ दूसरे आदमी ने कहा।
‘हमें आज यह मामला तय ही कर लेना है!’ जैकेट वाला बोला। ‘यह बड़ी बात है कि वहाँ पुलिस का पहरा नहीं है।’
‘लेकिन उस रात को हमारे अलावा और कोई भी वहाँ था। मुझे तो उसी आदमी पर शक है जो बाहर वाले कमरे में रहता है।’
‘अच्छा उठो! हमें वक़्त बर्बाद नहीं करना चाहिए।’
‘कुछ पी तो लें! मैं बहुत थक गया हूँ...क्या पियोगे...ह्विस्की या कुछ और।’
फिर वे दोनों पीते रहे और इमरान उठ कर क़रीब ही के एक पब्लिक टेलीफ़ोन बूथ में चला गया। दूसरे लम्हे में वह फ़ैयाज़ के निजी फ़ोन नम्बर डायल कर रहा था।
‘हैलो! सुपर....हाँ मैं ही हूँ! ख़ैरियत कहाँ...ज़ुकाम हो गया है। पूछना यह है कि मैं जोशान्दा पी लूँ? अरे, तो इसमें नाराज़ होने की क्या बात है...आगे हाल यह है कि एक घण्टे के अन्दर-अन्दर इस इमारत के गिर्द पहरा लग जाना चाहिए...बस...बस, आगे मत पूछो। अगर इसके ख़िलाफ़ हो तो आइन्दा शर्लाक होम्ज़ डाक्टर वॉटसन की मदद नहीं करेगा।’
टेलीफ़ोन बूथ से वापस आ कर इमरान ने फिर अपनी जगह सँभाल ली। जैकेट वाला दूसरे आदमी से कह रहा था—
‘बूढ़ा पागल नहीं है। उसके अन्दाज़े ग़लत नहीं होते।’
‘उँह होगा।’ दूसरा मेज़ पर ख़ाली गिलास पटकता हुआ बोला, ‘सही हो या ग़लत, सब जहन्नुम में जायें, लेकिन तुम अपनी कहो। अगर उस लड़की से फिर मुलाक़ात हो गयी तो क्या करोगे?’
‘ओह!’ जैकेट वाला हँसने लगा। ‘माफ़ कीजिएगा मैंने आपको पहचाना नहीं।’
‘ठीक! लेकिन अगर वह पुलिस तक पहुँच गयी तो?’
‘वह हरगिज़ ऐसा नहीं कर सकती...बयान देते वक़्त उसे यह भी बताना पड़ेगा कि वह एक रात मेरे साथ उस मकान में गुज़ार चुकी है। और फिर मेरा ख़याल है कि शायद उसका ज़ेहन कुंजी तक पहुँच ही न सके।’
इमरान काफ़ी का आर्डर दे कर दूसरी च्यूइंगम चबाने लगा। उसके चेहरे से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह सारे माहौल से क़तई बेताल्लुक़ हो। लेकिन हक़ीक़त यह थी कि दोनों की गुफ़्तगू का एक-एक लफ़्ज़ उसकी याददाश्त हज़्म करती जा रही थी।
‘तो क्या आज बूढ़ा आयेगा?’ दूसरे आदमी ने पूछा।
‘हाँ! आज फ़ैसला हो जाये।’ जैकेट वाले ने कहा।
दोनों उठ गये। इमरान ने अपने हलक़ में बची-खुची कॉफ़ी उँडेल ली। बिल वह पहले ही अदा कर चुका था। वे दोनों बाहर निकल कर फ़ुटपाथ पर खड़े हो गये और फिर उन्होंने एक टैक्सी रुकवायी। कुछ देर बाद उनकी टैक्सी के पीछे एक दूसरी टैक्सी भी जा रही थी जिसकी पिछली सीट पर इमरान उकड़ूँ बैठा हुआ सिर खुजा रहा था। बेवक़ूफ़ी-भरी हरकतें उससे अक्सर अकेले में भी हो जाती थीं।
अरखेम लेन में पहुँच कर अगली टैक्सी रुक गयी! वह दोनों उतरे और एक गली में घुस गये। यहाँ इमरान ज़रा-सा चूक गया! उसने उन्हें गली में घुसते ज़रूर देखा था। लेकिन जितनी देर में वह टैक्सी का किराया चुकाता, वे आँखों से ओझल हो चुके थे।
गली सुनसान पड़ी थी। आगे बढ़ा तो दाहिनी तरफ़ एक दूसरी गली दिखाई दी। अब इस दूसरी गली को तय करते वक़्त उसे एहसास हुआ कि वहाँ तो गलियों का जाल बिछा हुआ था। लिहाज़ा सिर मारना फ़िज़ूल समझ कर वह फिर सड़क पर आ गया। वह उस गली के सिरे से थोड़े ही फ़ासले पर रुक कर एक बुक स्टॉल के शोकेस में लगी हुई किताबों के रंगारंग कवर देखने लगा। शायद पाँच ही मिनट बाद एक टैक्सी ठीक उसी गली के सामने रुकी और एक बूढ़ा आदमी उतर कर किराया चुकाने लगा। उसके चेहरे पर भूरे रंग की दाढ़ी थी। लेकिन इमरान उसके माथे की बनावट देख कर चौंका। आँखें भी जानी-पहचानी मालूम हो रही थीं।
जैसे ही वह गली में घुसा, इमरान ने भी अपने क़दम बढ़ाये। कई गलियों से गुज़रने के बाद बूढ़ा एक दरवाज़े पर रुक कर दस्तक देने लगा। इमरान काफ़ी फ़ासले पर था। और अँधेरा होने की वजह से उसे देख लिये जाने का भी डर नहीं था। वह एक दीवार से चिपक कर खड़ा हो गया। इधर दरवाज़ा खुला और बूढ़ा कुछ बड़बड़ाता हुआ अन्दर चला गया। दरवाज़ा फिर बन्द हो गया था। इमारत दो-मंज़िला थी। इमरान सिर खुजा कर रह गया। लेकिन वह आसानी से पीछा नहीं छोड़ सकता था। अन्दर दाख़िल होने की सम्भावनाओं पर ग़ौर करता हुआ दरवाज़े तक पहुँच गया। फिर उसने कुछ सोचे-समझे बग़ैर दरवाज़े से कान लगा कर आहट लेनी शुरू कर दी, लेकिन शायद उसका सितारा ही गर्दिश में आ गया था। दूसरे ही लम्हे में दरवाज़े के दोनों पट खुले और दोनों आदमी उसके सामने खड़े थे। अन्दर मध्यम-सी रोशनी में उनके चेहरे तो न दिखाई दिये, लेकिन वह काफ़ी मज़बूत हाथ-पैर के मालूम होते थे।
‘कौन है?’ उनमें से एक हुक्म देने वाले लहजे में बोला।
‘मुझे देर तो नहीं हुई,’ इमरान तड़ से बोला।
दूसरी तरफ़ से फ़ौरन ही जवाब नहीं मिला। शायद ख़ामोशी हिचकिचाहट की वजह से थी।
‘तुम कौन हो?’ दूसरी तरफ़ से सवाल फिर दुहराया गया?
‘तीन सौ तेरह,’ इमरान ने अहमक़ों की तरह बक दिया। लेकिन दूसरे लम्हे उसे होश नहीं था! अचानक उसे गरेबान से पकड़ कर अन्दर खींच लिया गया। इमरान ने विरोध नहीं किया।
‘अब बताओ तुम कौन हो?’ एक ने उसे धक्का दे कर कहा?
‘अन्दर ले चलो।’ दूसरा बोला।
वे दोनों उसे धक्के देते हुए कमरे में ले आये। यहाँ सात आदमी एक बड़ी मेज़ के गिर्द बैठे हुए थे और वह बूढ़ा जिस का पीछा करता हुआ इमरान यहाँ तक पहुँचा था। शायद वह मुखिया की हैसियत रखता था, क्योंकि वह मेज़ के आख़िरी सिरे पर था।
वह सब इमरान को हैरान नज़रों से देखने लगे। लेकिन इमरान दोनों आदमियों के दरमियान में खड़ा चमड़े की जैकेट वाले को घूर रहा था।
‘आहा!’ यकायक इमरान ने क़हक़हा लगाया और अपनी गोल गोल आँखें फिरा कर फिर उससे कहने लगा, ‘मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगा। तुमने मेरी महबूबा की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी!’
‘कौन हो तुम, मैं तुम्हें नहीं पहचानता।’ उसने हैरान लहजे में कहा।
‘लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ! तुमने मेरी महबूबा पर डोरे डाले हैं। मैं कुछ नहीं बोला! तुमने एक रात उसके साथ गुज़ारी है। मैं फिर भी ख़ामोश रहा। लेकिन मैं यह किसी तरह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम उससे मिलना जुलना छोड़ दो।’
‘तुम यहाँ क्यों आये हो?’ अचानक अब बूढ़े ने सवाल किया और उन दोनों को घूरने लगा जो इमरान को लाये थे। उन्होंने सब कुछ बता दिया। इस दौरान में इमरान बराबर अपने मुख़ातिब को घूरता रहा। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे दूसरे लोगों से उसे वाक़ई कोई सरोकार न हो।
फिर अचानक किसी का घूँसा इमरान के जबड़े पर पड़ा और वह लड़खड़ाता हुआ कई क़दम पीछे खिसक गया। उसने झुक कर अपनी फ़ेल्ट हैट उठायी और उसे इस तरह झाड़ने लगा जैसे वह यूँही उसके सिर से गिर गयी हो। वह अब भी जैकेट वाले को घूरे जा रहा था।
‘मैं किसी इश्क़िया नॉवल के आज्ञाकारी रक़ीब की तरह तुम्हारे हक़ में अपनी दावेदारी छोड़ सकता हूँ!’ इमरान ने कहा।
‘बकवास मत करो।’ बूढ़ा चीख़ा। ‘मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ! क्या उस रात को तुम ही वहाँ थे?’
इमरान ने उसकी तरफ़ देखने का भी कष्ट नहीं किया।
‘ये ज़िन्दा बच कर न जाने पाये।’ बूढ़ा खड़ा होता हुआ बोला।
‘मगर शर्त यह है,’ इमरान मुस्कुरा कर बोला। ‘मैयत की बेइज़्ज़ती न होने पाये।’
उसके बेवक़ूफ़ी-भरे इत्मीनान में ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ न होने पाया था...तीन-चार आदमी उसकी तरफ़ लपके। इमरान दूसरे ही लम्हे डपट कर बोला। हैंडज़ अप’ साथ ही उसका हाथ जेब से निकला। उसकी तरफ़ झपटने वाले पहले तो ठिठके लेकिन फिर उन्होंने बेतहाशा हँसना शुरू कर दिया। इमरान के हाथ में रिवॉल्वर की बजाय रबड़ की एक गुड़िया थी। फिर बूढ़े की गरजदार आवाज़ ने उन्हें ख़ामोश कर दिया और वह फिर इमरान की तरफ़ बढ़े। जैसे ही उसके क़रीब पहुँचे इमरान ने गुड़िया का पेट दबा दिया। उसका मुँह खुला और पीले रंग का गहरा ग़ुबार उसमें से निकल कर तीन-चार फ़ुट के दायरे में फैल गया। वह चारों बेतहाशा खाँसते हुए वहीं ढेर हो गये।
‘जाने न पाये!’ बूढ़ा फिर चीख़ा।
दूसरे लम्हे इमरान ने काफ़ी भारी चीज़ इलेक्ट्रिक लैम्प पर खींच मारी। एक ज़ोरदार आवाज़ के साथ बल्ब फटा और कमरे में अँधेरा फैल गया।
इमरान अपने नाक पर रूमाल रखे हुए दीवार के सहारे मेज़ के सिरे की तरफ़ खिसक रहा था। कमरे में अच्छा-ख़ासा हंगामा बरपा हो गया था। शायद वह सब अँधेरे में एक-दूसरे पर घूँसेबाज़ी की मश्क़ करने लगे थे। इमरान का हाथ आहिस्ता से मेज़ के सिरे पर रेंग गया और उसे नाकामी नहीं हुई। जिस चीज़ पर शुरू ही से उसकी नज़र रही थी। उसके हाथ आ चुकी थी। यह बूढ़े का चमड़े का हैंड बैग था।
वापसी में किसी ने कमरे के दरवाज़े पर उसकी राह में आने की कोशिश की, लेकिन अपने सामने के दो-तीन दाँतों को रोता हुआ ढेर हो गया। इमरान जल्द-से-जल्द कमरे से निकल जाना चाहता था, क्योंकि उसके हलक़ में भी जलन होने लगी थी। गुड़िया के मुँह से निकला हुआ ग़ुबार अब पूरे कमरे में फैल गया था।
खाँसी और गालियों का शोर पीछे छोड़ता हुआ वह बाहरी दरवाज़े तक पहुँच गया। गली में निकलते ही वह क़रीब की दूसरी गली में घुस गया। फ़िलहाल सड़क पर निकलना ख़तरनाक था। काफ़ी देर तक गलियों में चकराता हुआ अन्दर -ही-अन्दर दूसरी सड़क पर आ गया। थोड़ी देर बाद वह टैक्सी में बैठा हुआ इस तरह अपने होंट रगड़ रहा था जैसे सचमुच अपनी किसी महबूबा से मिलने के बाद लिपिस्टक के धब्बे छुड़ा रहा हो।
***
0 Comments