मंगलवार : चौबीस दिसम्बर
उस रोज का अखबार ऐसी खबरों से भरा पड़ा था जो कि पुलिस कमिश्नर की राय के मुताबिक ओवरकोट ब्रिगेड की कार्यप्रणाली पर अमल का नतीजा थीं ।
मसलन:
माडल टाउन के इलाके में स्कूटर पर सवार वो बदमाश जब राहचलती एक युवती के गले की जंजीर झपटकर भागे तो युवती ने पर्स से रिवाल्वर निकालकर उन पर गोली चला दी । दोनों बदमाश गोलियों से घायल हो गये और फिर दोनों गिरफ्तार कर लिये गये ।
लालकिले और दरियागंज के इलाके में दो जेबकतरे रंगे हाथों पकड़े गये । दोनों ने अलग अलग वारदातों में जिन व्यक्तियों की जेबें काटने की कोशिश की थी वो दोनों सादे कपड़ों में पुलिसकर्मी निकले थे और उन्होंने ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया था ।
डी टी सी की बस नम्बर 851 में जब एक नौजवान ने बस में सवार एक युवती को छेड़ने की कोशिश की तो उसी युवती ने, जो कि सादे कपड़ों में पुलिस सब-इंस्पेक्टर थी, उसकी जमके धुनाई की और उसे गिरफ्तार कर लिया ।
मुनीरका के करीब एक कार ने स्कूटर पर जाते एक जोड़े को टक्कर मारकर गिरा दिया और फिर कार में सवार चार व्यक्तियों ने कार से उतरकर उन्हें लूटने की कोशिश की । स्कूटर पर सवार युवक और युवती दोनों पुलिसकर्मी थे और हथियार-बन्द थे । उन्होंने दो व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया लेकिन बाकी के दो घायल हो जाने के बावजूद कार पर सवार होकर मौकायवारदात से फरार हो जाने में कामयाब हो गये ।
सुन्दर नगर के एक आइसक्रीम पार्लर के सामने से चार सम्भ्रान्त और कुलीन नौजवान राहचलती लड़कियों पर फब्ती कसते और उन्हें छेड़ते हुए गिरफ्तार किये गये ।
बाद में उनके मुंह काले करके और उन्हें गधों पर बिठाकर सारे इलाके में घुमाया गया ।
मुखर्जी नगर के एक कैब्रे जायन्ट में पांच जने तब गिरफ्तार हुए जबकि वो एक डान्सर को जबरन उठाकर वहां से ले जाने की कोशिश कर रहे थे ।
एक ही रोज में पुलिस के हाथ लगी इतनी कामयाबियों के उसी अखबार के सम्पादकीय में कसीदे छपे जिसमें कि पिछले रोज पुलिस की वो भर्त्सना छपी थी जिसे पढकर पुलिस कमिश्नर तिलमिलाया था और उसने वो नयी स्ट्रेटेजी तैयार की थी ।
लेकिन पिछली रात एक वारदात ऐसी भी हुई थी जिसका पुलिस की नयी स्ट्रेटेजी से कुछ लेना-देना नहीं था और जो, बकौल समाचारपत्र, ओवरकोट ब्रिगेड के किसी सदस्य का काम मालूम होता था ।
पिछले रोज रात दस बजे कानपुर से बस द्वारा दिल्ली पहुंचा एक नौजवान जोड़ा अन्तर्राज्यीय बस अड्डे पर उतरा और वहां से लाजपतनगर जाने के लिए एक आटोरिक्शा पर सवार हुआ । आटोरिक्शा वाले के साथ ड्राइविंग सीट पर उसका एक साथी बैठा हुआ था । आटोरिक्शा वाले ने रिंग रोड के सीधे और रौशन रास्ते से लाजपतनगर जाने की जगह बहाना बनाकर लालकिले का रास्ता पकड़ा कि उसने आटोरिक्शा में पैट्रोल डलवाना था । लालकिले पहुंचकर नेताजी सुभाष मार्ग पकड़ने की जगह आटोरिक्शा वाले ने वो रास्ता पकड़ा जो कि लालकिले की दीवार के साथ-साथ होता दरियागंज की ओर जाता था और जो रात के उस वक्त उजाड़ पड़ा होता था । वहां आटोरिक्शा वाले ने बीच रास्ते में आटोरिक्शा रोक दी और फिर उसने और उसके साथी ने नौजवान जोड़े पर चाकू तान दिये । प्रत्यक्षत: उनका इरादा न सिर्फ उन्हें लूटने का था बल्कि लड़की के साथ जबरजिना करने का भी था लेकिन इससे पहले कि वो अपने किसी भी इरादे में कामयाब हो पाते एक काली एम्बैसेडर कार वहां पहुंची । आगे जो वारदात हुई वो यही बताती थी कि वो कार वाला वैसी ही किसी घटना की सम्भावना से आशंकित अन्तर्राज्यीय बस अड्डे से ही उस आटोरिक्शा के पीछे लगा हुआ था । उस कार में एक ओवरकोट और फैल्ट हैटधारी व्यक्ति सवार था जो कि रात के वक्त भी आंखों पर काला चश्मा लगाये था । उस व्यक्ति ने उन दोनों बदमाशों को ललकारा तो वो दोनों चाकू लेकर उस पर झपट पड़े । नतीजतन वही हुआ जो पिछले दो हफ्तों में पहले भी कई बार हो चुका था । उस ओवरकोट वाले ने उन दोनों को शूट कर दिया । फिर वो उस जोड़े को अपनी कार में बिठाकर दरियागंज तक लाया और इस हिदायत के साथ उन्हें वहां के थाने के सामने छोड़कर गया कि वो पुलिस को जाकर सारा वाकया सुनायें और फिर पुलिस को हिफाजत में लाजपतनगर पहुंचने का कोशिश करें ।
पुलिस के एक प्रवक्ता का कहना था कि उन दोनों युवक युवती में से कोई भी अपने को बचाने वाले के ओवरकोट, हैट और चश्मे के अलावा कुछ भी बयान नहीं कर सका था ।
यूं कथित खबरदार शहरियों द्वारा की गई वारदातों में एक वारदात और जुड़ गयी थी ।
***
दस बजे गोल मार्केट का सर्कल राशनिंग दफ्तर खुलते ही लूथरा वहां पहुंच गया ।
वहां के रिकार्ड का अध्ययन करने पर उसने पाया कि अरविन्द कौल का राशन कार्ड असली था ।
वहां रजिस्टर में उसके नाम की ऐन्ट्री के आगे उसकी उसी तसवीर की एक प्रतिलिपि लगी हुई थी जो कि उसने पिछले रोज बतौर कर्ता उसके राशन कार्ड पर लगी देखी थी ।
वो राशनिंग आफिस के उच्चाधिकारी से मिला और ‘पुलिस बिजनेस’ का हवाला देकर और दफ्तर बन्द होने से पहले वो तस्वीर लौटा देने के वादे के साथ उसने रजिस्टर पर से तसवीर उखाड़ ली ।
तसवीर लेकर वो फिर पहाड़गंज मोहन वाफना की शरण में पहुंचा जिसने उसकी दरख्वास्त पर तत्काल तसवीर की तसवीर खींचकर नैगेटिव बनाया और फिर यूं बने नैगेटिव से उसके लिए आठ गुणा दस के चार प्रिंट बनाये ।
वो प्रिंट लेकर लूथरा कमर्शियल आर्टिस्ट योगकुमार के स्टूडियो में पहुंचा । वहां उसने चारों तसवीरें योगकुमार को सौंप दीं ।
“एक तसवीर ऐसे ही रहने देना ।” - उसने हिदायत दी - “दूसरी में पगड़ी और फिफ्टी लगाना । तीसरी में पगड़ी और फिफ्टी के साथ-साथ दाढी भी बनाना और चौथी में पगड़ी, फिफ्टी और दाढी बना लेने के बाद आंखों पर चश्मा लगाना और पुतलियां नीली करना ।”
“सूरत में स्टैपवाइज ट्रांसफार्मेशन चाहते हो ?” - कलाकार बोला ।
“हां ।”
“ठीक है, ऐसा ही होगा ।”
“शाम तक ?”
“हां ।”
लूथरा वहां से विदा हुआ और उसने तसवीर लौटाने की नीयत से वापिस सर्कल राशनिय आफिस का रुख किया ।
***
दोपहर के ठीक बारह बजे अपने ‘धोबियों’ की पूरी दर्जन के साथ मुबारक अली देवनगर में स्थित स्टार चिट फंड कम्पनी के आफिस के सामने पहुंचा ।
बकौल चार्ली वो चिट फंड कम्पनी वास्तव में वैसा ही स्मैक और हेरोइन की थोक सप्लाई का अड्डा था जैसा कि कल तक उसका पीजा पार्लर था ।
कम्पनी का संचालक मन्ना लाल नाम का एक आदमी था ।
पिछले रोज चार्ली ने विमल को गुरबख्श लाल के वैसे तीन अड्डों के बारे में बताया था और कसम खाकर कहा था कि उन तीन के अलावा किसी और अड्डे की बाबत वो नहीं जानता था ।
मुबारक अली अपने दस आदमियों को बाहर एक मैटाडोर वैन में बैठा छोड़कर मांसपेशियां फड़फड़ाते केवल दो कड़ियल नौजवानों के साथ, जो कि अली मोहम्मद और वली मोहमद नाम दो जुड़वा भाई थे, चिट फंड कम्पनी के दफ्तर में दाखिल हुआ । उस घड़ी उसके हाथ में एक ब्रीफकेस था और चेहरे पर ऐसा रोब था जो कि देखते ही बनता था ।
रिसैप्शन पर एक सजावटी लड़की बैठी थी । उसने मुस्कराकर आगन्तुकों की तरफ देखा । प्रतिक्रियास्वरूप आगन्तुकों में से एक ने जो हरकत की, उसने उसके छक्के छुड़ा दिये ।
मुबारक अली के इशारे पर एक नौजवान एक ही छलांग में रिसैप्शन काउन्टर फांदकर युवती के सिर पर पहुंच गया और उसने युवती को यूं दबोच लिया कि उसके एक मजबूत हाथ ने उसका मुंह बन्द कर दिया ।
रिसैप्शन के पहलू में एक बन्द दरवाजा था जिसे मुबारक अली ने आगे बढकर खोला और भीतर कदम रखा ।
उसके पीछे-पीछे ही दूसरा नौजवान भी भीतर दाखिल हुआ ।
मन्नालाल, जो कि एक अधपके बालों वाला, अर्धगंजा चश्माधारी व्यक्ति था, उन्हें देखकर सकपकाया । किसी के आगमन की रिसैप्शनिस्ट हमेशा उसे खबर देती थी, वो दोनों यूं एकाएक कैसे भीतर घुसे चले आये थे !
“क-क” - उसने कहना चाहा - “क-क्या ?”
“अभी पता चलता है क-क्या ।” - मुबारक अली बड़े इतमीनान से बोला, अपनी बम्बइया जुबान को काबू में रखने में उसे तब बड़ी दिक्कत होती थी जबकि उसे उस घड़ी की तरह एक मुश्त ढेर सारा बोलना पड़ता था - “मैं तुम्हारा ज्यादा वक्त नहीं लूंगा । जो मैं कह रहा हूं उसे गौर से सुनो ताकि मुझे कोई बात दोहरानी न पड़े । तुम्हारा नाम मन्नालाल है, तुम ये वो क्या कहते हैं अंग... उधारखाता कम्पनी चलाते हो लेकिन असल में ये जगह स्मैक और हेरोइन जैसे नशों की थोक सप्लाई का अड्डा है...”
मन्नालाल चौंका लेकिन मुबारक अली ने उस प्रतिक्रिया की ओर कोई तवज्जो न दी ।
“ये काम” - वो आगे बढा - “तुम गुरबख्श लाल की शै पर और उसकी हिफाजत के आसरे करते हो, लेकिन अब गुरबख्श लाल तुम्हारी हिफाजत करने के काबिल नहीं रहा ।”
“क- कौन कहता है ?” - मन्ना लाल बोला ।
“मैं कहता हूं । और जो मैं कहता हूं, वो सच है । उसका यही काफी सबूत है कि इस घड़ी मैं तुम्हारे सिर पर सवार हूं ।”
“तुम मेरे सिर पर नहीं, चार भाइयों के कन्धों पर लदी अपनी अर्थी पर सवार हो ।”
“वो बहस की बातें है । ये बहस का वक्त नहीं ।” - मुबारक अली का स्वर कर्कश हो उठा - “अभी सिर्फ सुन । मेरे को आदर से बोलता देखकर पसर नहीं, सिर्फ सुन । नतीजे बाद में निकालना ।”
“क्या सुनूं ?”
“नशे का खोटा धन्धा बन्द कर ।”
“तेरे कहने पर ?” - मन्नालाल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । मेरे कहने पर ।”
“तू है कौन ?”
“मैं धोबी हूं । जो मेरा कहना नहीं मानता, उसे धो के रख देता हूं ।”
“मुझे तो तू कोई मसखरा मालूम होता है ।”
“आज जो मर्जी बोल ले, क्योंकि आज मैं तुझे सिर्फ खबरदार करने आया हूं ।”
“खबरदार करने आया है ! कर चुका या अभी करेगा ?”
“कुछ कर चुका हूं, कुछ करूंगा ।”
“करेगा क्या ?”
“ये ।”
मुबारक अली ने हाथ में थमा ब्रीफकेस मन्नालाल की मेज पर रखकर खोला । उसने उसमें से एक प्लास्टिक की बोतल निकाली और ब्रीफकेस बन्द करके अपने साथी को पकड़ा दिया । फिर उसने प्लास्टिक की बोतल का ढक्कन खोला ।
तत्काल मन्नालाल के नथुनों से पैट्रोल की गन्ध टकराई ।
उसने घबराकर मेज पर पड़े टेलीफोन की तरफ हाथ बढाया तो मुबारक अली के नौजवान साथी का हाथ हथौड़े की तरह उसकी कलाई पर पड़ा । मन्नालाल ने तत्काल अपना हाथ वापिस खींच लिया और अपने दूसरे हाथ से अपनी कलाई मसलने लगा ।
“तुम लोग पछताओगे ।” - फिर भी वो बोला - “गुरबख्श लाल को जब पता चलेगा तो...”
किसी को अपनी बात की ओर ध्यान देता न पाकर वो खामोश हो गया और विस्फारित नेत्रों से मुबारक अली को मेज पर पैट्रोल पलटता देखने लगा ।
बोतल खाली हो गयी तो मुबारक अली ने उसे आफिस के एक कोने में उछाल दिया । फिर उसने जेब से एक माचिस की डिबिया निकाली और उसमें से एक तीली निकालकर जलाई ।
मन्ना लाल के नेत्र फट पड़े ।
“नहीं ।” - वो आतंकित भाव से चिल्लाया ।
“आज वाकेई नहीं ।” - मुबारक अली बड़े इत्मीनान से बोला - “आज सोच ले । आज ये माचिस बुझा रहा हूं । कल नहीं बुझाऊंगा ।”
मुबारक अली ने दूसरे हाथ के अंगूठे और पहली उंगली से मसलकर माचिस की लौ बुझाई तो मन्नालाल की जान में जान आयी ।
“कल ।” - मुबारक अली बोला - “कल इसी वक्त मैं फिर आऊंगा । तेरा जवाब सुनने । क्या ?”
“क्या ?” - मन्नालाल के मुंह से स्वयंमव ही निकल गया ।
“नशे का धन्धा नहीं । गुरबख्श लाल की हिफाजत नहीं । धर्ना तेरा ये फैंसी दफ्तर नहीं । तू नहीं । क्या ?”
दोबारा मन्नालाल के मुंह से बोल न फूटा ।
***
सब- इंस्पेक्टर लूथरा अपने थाने में पहुंचा ।
वो अपनी मेज पर बैठ गया और बड़े विचारपूर्ण ढंग से मेज ठकठकाने लगा ।
लाल किले के करीब वाली पिछली रात की वारदात की भी उसे हमेशा की तरह ध्यानचन्द से खबर लगी थी । उसे मालूम था कि वैसी वारदातें एक से ज्यादा जने कर रहे थे लेकिन फिर भी आदत से मजबूर उसने कौल के घर का नम्बर डायल किया था । जवाब खुद कौल ने दिया था तो उसने बिना बोले लाइन काट दी थी ।
उस वारदात के वाक्त के आसपास कौल अपने घर पर मौजूद था ।
फिर उसने अपने सामने एक पैड घसीट लिया और पिछली रात के अपने और कौल के वार्तालाप के नोट्स बनाने लगा ।
वो सब कुछ लिख चुका तो उसने पैड पर से नोट्स वाले कागज फाड़ लिए और दराज का ताला खोलने के लिए जेब से अपना चाबियों का गुच्छा निकाला ।
यह जानकर उसे सख्त हैरानी हुई कि दराज का ताला पहले से खुला था ।
क्या कल रात वो वहां से रुख्सत होते वक्त ताला बन्द करना भूल गया था ?
या ताला उसकी गैरहाजिरी में किसी ने खोला था ?
उसे सहजपाल का खयाल आया जो पता नहीं उसके जाने के बाद भी कब तक वहां बैठा रहा था ।
लेकिन दराज खोलने से उसे क्या हासिल होने वाला था ?
उसकी निगाह स्वयंमेव ही सहजपाल की सीट की ओर उठ गयी ।
वो वहां मौजूद नहीं था ।
पता नहीं आया ही नहीं था या आ के कहीं चला गया था ।
फिर उसने ऊपरला दराज, जिसमें कि वो अरविन्द कौल की फाइल रखता था, बाहर खींचा ।
भीतर पड़ी फाइल पर निगाह पड़ते ही उसका हाथ ठिठका । फिर उसने दराज को इतना बाहर खींचा कि फाइल पूरी दिखाई देने लगी ।
फाइल वैसे नहीं पड़ी थी जैसे कि वो उसे रखता था । उस घड़ी दराज यूं फाइल में पड़ी थी कि उसका खुलने वाला हिस्सा बाईं तरफ था और सिर नीचे था । उसे खूब याद था कि हमेशा की तरह उसने फाइल को यूं दराज में रखा था कि उसका खुलने वाले हिस्से का रुख दाईं तरफ था ।
उसने दराज बन्द कर दिया और सोचने लगा । जरूर उसकी गैरहाजिरी में किसी ने वो फाइल निकाली थी, उसका मुआयना किया था और फिर जब वापिस रखी थी तो उलटी रख दी थी ।
उसने रावत को आवाज लगाई ।
“कल शाम कहां था ?” - रावत करीब आया तो उसने पूछा ।
“कहां था !” - रावत सकपकाया - “यहीं था ।”
“सात बजे मैं यहां आया था, तब तो नहीं था तू यहां ।”
“तब थोड़ी देर के लिए वहीं बाहर गया था ।”
“जब लौटा था तो सहजपाल यहां था ?”
“हां, था ।” - तत्काल रावत की आंखों में यूं चमक आयी जैसे कोई भूली बात याद आ गयी हो - “और साहब, वो यहां आपकी मेज के पीछे खड़ा था ।”
“यहां क्या कर रहा था वो ?”
“आपके कलमदान से कलम ले रहा था । कोई फोन नम्बर लिखना बता रहा था ।”
“वो तेरे सामने यहां मेरी सीट पर आया था या तूने यहां उसे पहले से मौजूद पाया था ?”
“पहले से ही था वो यहां ।”
“अब कहां है वो ?”
“पता वहीं । देखा नहीं सवेरे से ।”
“हूं ।”
“साहब, सब खैरियत है न ? कोई चीज तो गायब नहीं आपकी ?”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं । जा तू ।”
रावत वहां से चला गया ।
लूथरा कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठकर सहजपाल की सीट पर पहुंचा । उसकी मेज पर पड़ी चीजों में से उसने उसका गिलास उसके भीतर उंगली डालकर उठाया और अपना रूमाल खोलकर उसे उसमें लपेट लिया ।
वो वापिस अपनी सीट पर लौटा ।
उसने दराज खोलकर फाइल का सिर्फ एक कोना पकड़कर उसे दराज से बाहर निकाला और उसे एक दूसरी खाली फाइल में रख दिया । फाइल का गत्ता खूब मोटा था और उस पर उगलियों के निशान बनना लाजमी था ।
अब उसे फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट तिवारी की खिदमात दरकार थी जिसके लिए उसे झण्डेवालान जाना था ।
***
मैटाडोर वैन कमला नगर पहुंची ।
चार्ली का बताया दूसरा ठिकाना वहां का एक रेस्टोरेंट कम वीडियो पार्लर था जिसका मालिक वीरेन्द्र दुआ नाम का एक आदमी था वो ठिकाना दो मंजिलों में विभक्त था । नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रेस्टोरेंट था जिसमें से होकर ऊपर बाल्कनी तक सीढियां जाती थीं और बाल्कनी में वीडियो पार्लर था और वीरेन्द्र दुआ का आफिस था ।
देवनगर वाले स्टाइल से ही - अली मोहम्मद और वली मोहम्मद को साथ लेकर, बाकी को बाहर मैटाडोर वैन में बैठा छोड़कर - मुबारक अली रेस्टोरेंट कम वीडियो पार्लर में दाखिल हुआ ।
लंच का वक्त था इसलिए नीचे रेस्टोरेंट में खूब भीड़ थी ।
मुबारक अली और उसके नौजवान साथियों ने रेस्टोरेंट का हाल पार किया और आगे-पीछे बाल्कनी की सीढियां चढने लगे ।
मुबारक अली खाली हाथ था लेकिन दोनों नौजवानों के हाथों में कैनवस का एक एक झोला था जिसका मुंह बन्द था ।
वो ऊपर बाल्कनी में पहुंचे ।
वीडियो पार्लर उस घड़ी लगभग खाली थी ।
पार्लर में वीडियो मशीनों का कामधाम सम्भालता कर्मचारी उनकी ओर आकर्षित हुआ ।
“दुआ साहब से मिलने का है ।” - मुबारक अली बड़े मीठे स्वर में बोला ।
उस कर्मचारी ने एक बन्द दरवाजे की ओर इशारा कर दिया ।
वे दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल हुए ।
दुआ भीतर बैठा नोट गिन रहा था । आगन्तुकों को देखकर उसने नोटों की ट्रे तत्काल अपनी विशाल मेज के एक दराज में रख दी और फिर आगन्तुकों को देखकर मुस्कराता हुआ बोला - “फरमाइए ।”
“कुछ अर्ज करने आये हैं, जनाब ।” - मुबारक अली बोला ।
“बैठिए ।”
मुबारक अली एक कुर्सी पर बैठ गया । अली मोहम्मद वली मोहम्मद दुआ के दोबारा बैठने को कहने के बावजूद खड़े रहे ।
“क्या हुक्म है ?” - दुआ बोला ।
“गुजारिश है ।” - मुबारक अली बोला ।
“क्या ?”
“नशे-पानी का धन्धा बन्द कर दो ।”
दुआ के चेहरे पर शिकन न आयी ।
“कौन कहता है” - वो बोला - “मैं नशे-पानी का धन्धा करता हूं ?”
“और गुरबख्श लाल से अपना नाता तोड़ लो ।” - मुबारक अली कहता रहा - “ये धन्धा बन्द करने में तुम्हारी ही भलाई है । अब गुरबख्श लाल से तुम्हें वो क्या कहते हैं... कोई हिफाजत हासिल होने वाली नहीं है । वो खुद लूला-लंगड़ा हो जाने वाला है । फिर कोई अपाहिज आदमी किसी को क्या हिफाजत देगा । क्या ?”
“आप लोग पुलिस से हैं ? नारकाटिक्स विभाग से हैं ?”
“हम धोबी घाट से हैं ।”
“भई, मुझे आप लोगों की कोई बात समझ में नहीं आ रही है ।”
“बात मामूली है । यहां अपने इस ठीये की ओट में तुम स्मैक और हेरोइन जैसे नशों का धन्धा करते हो । वो धन्धा फौरन बन्द करो वर्ना...”
“वर्ना क्या ?” - दुआ तिलमिलाकर बोला ।
“वर्ना तेरा स्याह धन्धा खलास । तेरा सफेद धन्धा खलास । तू भी खलास ।”
दुआ उछलकर खड़ा हो गया ।
“सालो !” - वो कहरभरे स्वर में बोला - “धमकी देते हो ! दुआ को धमकी देते हो ?”
“हां ।” - मुबारक अली सहज भाव से बोला ।
“निकल जाओ यहां से वर्ना धक्के देकर दिकलवाऊंगा ।”
“निकल जाते हैं ।” - मुबारक अली उठ खड़ा हुआ - “अब जरा बाहर तक तो छोड़ आओ ।”
“क्या ?”
“सिर्फ बाल्कनी तक । आगे हम खुद चले जायेंगे ।”
“क्या मतलब है तुम्हारा ?”
“बाल्कनी से तुम्हें अपने फलते-फूलते रेस्टोरेंट का आखिरी नजारा भी हो जायेगा ।”
“आ... खिरी नजारा ?”
“कल तो ये जगह श्मशान बनी होगी । बन्दा नहीं दिखाई देगा यहां ।”
“क्या बकते हो ?”
“बाहर तो निकलो, बिरादर ।”
मुबारक अली के स्वर में रहस्य का ऐसा पुट था कि दुआ यंत्रचालित-सा उठकर उनके साथ बाहर बाल्कनी में आ गया ।
मुबारक अली उसे बाल्कनी की रेलिंग के करीब ले आया । उसने नीचे खचाखच भरे रेस्टोरेंट पर एक निगाह डाली और फिर दोनों खास सहयोगियों को इशारा किया ।
अली मोहम्मद और वली मोहम्मद झोले सम्भाले रेलिंग के करीब पहुंचे । उन्होंने झोलों को रेलिंग से बाहर करके उन्हें उलटा किया और उनके मुंह खोल दिये ।
मोटे-मोटे, फुट-फुट के आकार के घबराये, बौखलाये, भूखे-प्यासे बेशुमार चूहे नीचे खाना खाते लोगों के बीच मेजों पर गिरे और तत्काल दांत किचकिचा-किचकिचाकर खाने पर और खाने वालों पर झपटने लगे ।
नीचे हाहाकार मच गया । कुर्सियां उलटने लगीं । क्राकरी टूटने लगी । जनाना चीखों से वातावरण गूंजने लगा । भगदड़ मचने लगी ।
दुआ के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसे दिल का दौरा पड़ने वाला हो । वो भौचक्का-सा नीचे देखता रहा ।
“कल बिच्छू ।” - मुबारक अली उसके कान में बोला - “परसों सांप । परसों के बाद भी ये ठीया आबाद रहा तो बाप, तू जीता मैं हारा ।”
“क-क्या चाहते हो ?”
“वही जो बोला । नशे का धन्धा बन्द कर । गुरबख्श लाल से नाता तोड़ । जवाब आज नहीं मांगता । कल तक सोच ले । मैं कल इसी वक्त फिर आऊंगा ।”
“तू है कौन, भाई ?”
“धोबी । धोबी हूं मैं । जो मेरा कहना नहीं मानता उसे धो के रख देता हूं । झक्क सफेद निकाल देता हूं । तेरे थोबड़े के इस वक्त के रंग की तरफ । क्या ?”
दुआ के मुंह से बोला न फूटा । वैसे हरकत, वैसा हौसला, वैसा नजारा, अब उसकी कल्पना से परे था ।
***
फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट तिवारी ने अपना मैग्नीफाइंग ग्लास एक तरफ रखा, अपने सामने के कागज परे सरकाये और लूथरा की ओर देखा ।
“फाइल पर” - वो बोला - “तुम्हारी उंगलियों के अलावा जो निशान हैं, वो उसी शख्स के हैं जिसके उंगलियों के निशान गिलास पर हैं ।”
“गिलास पर एक ही शख्स की उंगलियों के निशान हैं ?” - लूथरा ने पूछा ।
“हां ।”
“और वो ही निशान फाइल पर ?”
“भई, बोला न, हां ।”
“शुक्रिया ।” - लूथरा ने फाइल और बाकी कागजात मेज पर से बटोर लिए और गिलास भी उठा लिया ।
“आजकल तुम किस फिराक में हो ?” - तिवारी ने पूछा ।
“वो” - जवाब देने की जगह लूथरा ने सवाल किया - “हैल्मेट वाले निशानों की शिनाख्त का सिलसिला कुछ आगे बढा ?”
“काम जारी है । छोड़ नहीं दिया हुआ । वो बहुत वक्तखाऊ काम है ।”
“जारी ही रखना, यार ।”
“तुम बताते तो कुछ हो नहीं जो...”
“मैं फिर मिलूंगा । अभी मैंने कहीं पहुंचना है ।”
लूथरा तत्काल वहां से रुख्सत हुआ ।
***
मरकरी टूर्स एण्ड ट्रैवल्स का आफिस निजामुद्दीन के इलाके में था । वहां की कुछ टैक्सियां आफिस के सामने के यार्ड में खड़ी होती थीं और कुछ यार्ड से बाहर सड़क पर । आफिस एक तीन मंजिली इमारत की पहली मंजिल पर था । आफिस को जगतार सिंह नाम का जो आदमी चलाता था उसका उसी इमारत में, उसी मंजिल पर तीन कमरों का रिहायशी फ्लैट भी था ।
उस घड़ी जगतार सिंह अपने आफिस में बैठा था और मुबारक अली से सुन रहा था कि वो क्या चाहता था ।
मुबारक अली चुप हुआ तो जगतार सिंह ने एक जोर की जमहाई ली ।
“तू पागल है ।” - फिर वो बोला ।
“अच्छा !” - मुबारक अली सहज भाव से बोला ।
“तुम फुल पागल है और अभी पगलखाने से छूट के आया मालूम होता है ।”
“अच्छा !”
“पहली बात तो ये है कि जैसे धन्धे की तू बात कर रहा है, वो यहां नहीं होता ।”
“होता है । बाहर खड़ी टैक्सियां उस धन्धे की ओट हैं । इन टूरिस्ट टैक्सियों के सदके इधर से सारे हिन्दुस्तान में नशे-पानी के माल की आवाजाही होती है ।”
“दूसरी बात ये है कि गरबख्श लाल की प्रोटेक्शन के लिए यहां कोई फीस नहीं भरी जाती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इस बिजनेस का मालिक खुद गुरबख्श लाल है ।”
वो मुबारक अली के लिए नई बात थी ।
“और तू” - वो बोला - “तू क्या है ?”
“मैं सिर्फ मुलाजिम हूं गुरबख्श लाल का । मैनेजर हूं यहां का ।”
“तो तू छोड़ गुरबख्श लाल के लिए नशे-पानी का धन्धा करना । नहीं छोड़ सकता तो नौकरी छोड़ ।”
“तेरे कहने से ?”
“हां ।”
“तू गुरबख्श लाल को जानता है ?”
“मुझे जरुरत नहीं उसे जानने की ।”
“यानी कि नहीं जानता ।”
“नहीं जानता तो क्या हुआ ?”
“तभी तो तू उसकी ताकत को नहीं पहचानता ।”
“किसी की ताकत को पहचानने के लिए उसे जानना जरुरी होता है ?”
“हां ।”
“तू मुझे जानता है ?”
“नहीं ।”
“तभी तो तू मेरी” - मुबारक अली ने अंगूठे से अपनी छाती ठोकी - “ताकत को नहीं पहचानता ।”
“ऊंह ! क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा !”
“तुझे सबक देना होगा ।”
“क्या सबक देगा तू मुझे ?”
“मुझे दस मिनट का वक्त दे ।”
“दस मिनट में क्या होगा ?”
“देखना ।”
मुबारक अली उठ खड़ा हुआ ।
“तू है कौन ?” - जगतार सिंह उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“धोबी ।” - मुबारक अली मुबारक अली मुस्कराकर बोला - “धुलाई करने वाला ।”
“क्या ?”
“दस मिनट सिर्फ दस मिनट यहीं बैठना । कहीं चले न जाना ।”
मुबारक अली ने अपने दोनों नौजवान साथियों को इशारा किया और फिर उनके साथ वहां से बाहर निकल गया ।
जगतार सिंह ने घड़ी पर निगाह डाली और फिर चेहरे पर गहन उलझन के भाव लिए खामोश बैठा रहा ।
ठीक दस मिनट बाद उसके फोन की घन्टी बजी । उसने फोन उठाकर कान से लगाया तो आवाज आयी - “घड़ी देख ले । पूरे दस मिनट हुए हैं । इससे ज्यादा वक्त नहीं लगाया मैंने ।”
“क-कौन ?”
“धोबी । जो अभी तेरे पास से उठ के गया है ।”
“क्या है ?”
“खिड़की से बाहर देख ।”
“क्या देखूं खिड़की से बाहर ?”
“अपनी फिलीट की सबसे बढिया, सबसे नई जी एल जैड नम्बर वाली जापानी कार जो सड़क पर फुटपाथ पर चढी खड़ी है ।”
जगतार सिंह ने शीशे की विशाल खिड़की से बाहर देखा ।
यह देखकर वो सकपकाया कि दो नौजवान लड़के बाल्टी और झाड़न लिये कम्पनी की सबसे शानदार कार धो रहे थे ।
कौन थे वो ? उसने तो किसी को कार धोने को नहीं कहा था ।
उस घड़ी चारों तरफ खामोशी थी और वो सड़क, जो कि केवल इमारतों के सामने की राहदारी थी, उस घड़ी खाली थी ।
जगतार सिंह के देखते-देखते दोनों नौजवानों ने झाड़न कार की छत पर फेक दिये और फिर बाल्टियों को सिर से ऊंचा उठाकर उन्हें कार की छत पर पलट दिया ।
अन्त में बाल्टियां वहीं फेंककर वो तेजी से वहां से हट गए ।
अभी तक कुछ हुआ नहीं था लेकिन जगतार सिंह के नेत्र फटने लगे । जो आगे होने वाला था, उसका जैसे इलहाम होने लगा ।
एकाएक कार आसमान तक लपकते शोलों में लिपटी दिखाई दी और फिर एक गगनभेदी धमाका हुआ ।
जगतार सिंह ने आंखें बन्द कर लीं और खिड़की की तरफ से निगाह फेर ली । रिसीवर पर उसकी उंगलियां इस कदर कस गयी थीं कि उसमें खून निचुड़ गया था और वो एकदम सफेद हो गयी थीं ।
“कल सारी फिलीट ।” - उसके कान में आवाज पड़ रही थी - “परसों वो गाड़ी जिसमें तू बैठा होगा । सब ऐसे ही धुल जायेंगी ।”
फिर एकाएक लाइन कट गयी ।
***
लूथरा थाने पहुचा ।
उसने फाइल दराज में बन्द करके उसे ताला लगाया, सहजपाल का गिलास उसकी सीट पर पहुंचाया और फिल सहजपाल की बाबत दरयाफ्त किया ।
मालूम हुआ तब तक भी उसके थाने में कदम नहीं पड़े थे ।
वो थानाध्यक्ष रतनसिंह के पास पहुंचा ।
मालूम हुआ कि उसकी छुट्टी की दरख्वास्त आयी थी ।
वो आरामबाग में स्थित उसके घर पर पहुंचा ।
उसकी पत्नी ने बताया कि वो किसी शादी में जयपुर गया था और कल दोपहर से पहले लौटकर नहीं आने वाला था ।
वो पहाड़गंज योगकुमार के पास पहुंचा ।
कलाकार ने कुछ भी कर के नहीं रखा हुआ था ।
“क्या करुं ?” - उसने बताया - “सारा दिन बिजली गुल रही । अभी दस मिनट पहले आयी है ।”
“यार, कुछ करना था ।” - लूथरा बोला
“अन्धेरे में क्या करता ?”
“अब क्या करेगा ?”
“रात को बैठूंगा । सुबह आना ।”
“मैं ड्यूटी पर जाने से भी पहले यहां आऊंगा ?”
“ठीक है । आना ।”
सारे दिन की नाकामयाबियों पर भुनभुनाता लूथरा वहां से रुख्सत हुआ ।
***
अनमोल कुमार उर्फ ढक्कन सारे दिन की अपनी पड़ताल के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि अरविन्द कौल ऐन वही था जो कि वो दिखाई देता था ।
शरीफ सहरी ।
एकाउन्टैंट की नौकरी करने वाला सफेदपोश बाबू ।
उसके आफिस और उसके घर के इर्द-गिर्द उसने कई लोगों इस बाबत सवाल किए, हर किसी ने उसे एक भलामानस बताया और उसकी कुलीनता और सच्चरित्रता की तारीफ की ।
ऐसा मक्खी तक मारने में नाकाबिल शख्स सुन्दरलाल का कातिल भला कैसे हो सकता था ?
पचास हजार रुपये कमाने का अपना सपना उसे टूटता महसूस हुआ ।
जबकि रुपये की उन दिनों उसे सख्त जरुरत थी ।
वो लोटस क्लब की बारमेड मोनिका का दीवाना था और मोनिका दौलत की दीवानी थी । मोनिका को हासिल करने की दिशा में पचास हजार रुपये की रकम बड़ा अहम रोल अदा कर सकता था ।
मोनिका - उसने सोचा - एक तो वैसे ही बहुत फूं-फां वाली लड़की थी, ऊपर से जब से वो बॉस के मिन्टो रोड वाले फ्लैट का चक्कर लगा आयी थी, तब से उसके और भी नखरे हो गए थे ।
तो फिर क्या करे वो ?
वो तो मोनिका को उन पचास हजार रुपयों के सब्ज बाग दिखा भी चुका था ।
वो अनसारी रोड पहुंचा ।
मोनिका वहां एक कबूतर के दड़बे जैसे किराये के कमरे में अकेली रहती थी ।
उसने उसे क्लब जाने की तैयारी करते पाया ।
उसने मोनिका को अपनी बांहो में भर लिया । मोनिका ने एतराज न किया ।
“अब कितना फासला बाकी रह गया” - मोनिका बड़े प्यार से बोली - “तेरे में और तेरे आधे लाख में ?”
“मेरी जान !” - ढक्कन बोली - “अभी दिल्ली बहुत दूर है ।”
“क्या बात है, ठण्डी आहें भर रहा है ?”
“असल वजह बताऊंगा तो तू मेरे से लिपटी नहीं दिखाई देगी ।”
“ऐसी कोई बात नहीं । बोल, क्या बात है ?”
ढक्कन ने बात बताई ।
तब मोनिका ने उसे परे धकेल दिया ।
“देखा ।” - वो आहत भाव से बोला ।
“एक बात कहूं ?” - मोनिका बोली ।
“क्या ?”
“जिस किसी ने भी तेरा नाम ढक्कन रखा है, एकदम सही रखा है । तू है ही ढक्कन ।”
“क्या मतलब ?”
“अरे, बेवकूफ ! मुर्दे कहीं बोलते हैं ? तू उस बाबू का खून कर देगा तो उसकी रूह आयेगी गुरबख्श लाल को बताने कि उसके भांजे का कातिल वो नहीं था ?”
“मैं ऐसे कैसे उसका खून कर सकता हूं ! गुरबख्श लाल ने पहले उसकी पड़ताल करने को कहा है ।”
“जो कि तूने की ।”
“लेकिन मैंने पड़ताल से पाया है कि...”
“तूने पड़ताल से पाया है कि वो ही शख्स गुरबख्श लाल के भांजे का कातिल है । तूने सब-इंस्पेक्टर लूथरा के एक मातहत को शीशे में उतारकर ये जानकारी हासिल की है कि लूथरा को उसी शख्स पर कातिल होने का पूरा-पूरा शक है । अलबत्ता उस शख्स की सफेदपोशी में क्या राज है, यह न लूथरा समझ सका है और न तू ।”
ढक्कन ने सन्दिग्ध भाव से मोनिका की ओर देखा ।
“अरे, ये बात तो सच है न कि लूथरा को उस शख्स पर पूरा पूरा शक है कातिल होने का ?”
“हां । सहजपाल ने कहा ।”
“उस शक की कोई बिना भी जरूर होगी । कत्ल जैसे गम्भीर अपराध का वो लूथरा खामखाह किसी राहचलते पर तो शक करने नहीं लगा होगा !”
“जाहिर है ।”
“तो फिर बेजाहिर क्या है ! सिर्फ ये न कि तू ये नहीं जानता कि लूथरा की उस शख्स पर शक की बिना क्या है ?”
“हां ।”
“देख लेना, जब वो शख्स मर जायेगा तो लूथरा खुद ही सब कुछ बता देगा । तब इस बाबत कुछ छुपाकर रखना बेमानी होगा । अखबारों में छपेगा, देखना, सब कुछ । तब गुरबख्श लाल की आटोमैटिक तसल्ली हो जायेगी कि तूने सही आदमी को मारा । वही था उसके भांजे का कातिल ।”
ढक्कन को वो बात जंची ।
“कह तो तू ठीक रही है ।” - वो बोला ।
“शुक्र है, मालूम तो पड़ा तुझे ।”
ढक्कन ने फिर उसे अपनी बाहों मे लेने की कोशिश की ।
“अब यहां टाइम खोटा न कर ।” - वो उसे परे धकेलती हुई बोली - “मैं भागी नहीं जा रही । अब जा और जाके पचास हजार रूपये कमाने का जुगाड़ कर ।”
“जाता हूं लेकिन एक बात मेरी भी सुन ले ।”
“क्या ?”
“आज रात मैं यहां । तेरे पहलू में ।”
“कोई गुड न्यूज लाया तो ।”
“गुड न्यूज ही लाऊंगा । उस बाबू का ढक्कन तो समझ ले कि खुल गया ।”
“तो तू भी समझ ले कि आज रात तू मुझे रजाई की तरह ओढ के सोयेगा ।”
ढक्कन की तबीयत बाग-बाग हो गयी । जितने बुरे मूड में वो वहां पहुंचा था, उतने ही बढिया मूड में वो वहां से विदा हुआ ।
***
गुरबख्श लाल हमेशा की तरह दोपहर बाद सोकर उठा । वो नित्यकर्म से निवृत हुआ और फिर चाय पीने के लिए अपनी कोठी की पहली मंजिल पर स्थित अपने मास्टर बैडरूम की बॉल्कनी में आ बैठा ।
फरीदाबाद में स्थित उसकी वो विशाल चारमंजिली कोठी कई एकड़ के एक प्लाट के मध्य में बनी हुई थी । प्लाट के गिर्द ऊंची चार दीवारी थी जिसके ऊपर कंटीली तारे की बाड़ लगी हुई थी । चारदीवारी में एक विशाल फाटक था जो हर वक्त बन्द रहता था । भीतर खतरनाक कुत्तों से लैस सन्तरी हर वक्त पहरे पर मौजूद रहते थे ।
धूप में बैठा वो चाय की चुस्कियां लेता रहा ।
भीतर कहीं फोन की घन्टी बजी और फिर खामोश हो गयी ।
फिर उसकी अधेड़ हाउसकीपर मिसेज स्मिथ कार्डलैस फोन उठाये बाल्कनी में पहुंची ।
“मन्नालाल ।” - वो रिसीवर गुरबख्श लाल की थमाती बड़े अदब से बोली - “देवनगर से ।”
गुरबख्श लाल ने मन्नालाल से बात की ।
मिसेज स्मिथ ने बड़े सशंक भाव से धीरे-धीरे अपने एम्पलायर का मूड बिगड़ते देखा । आखिर में जब उसने फोन वापिस मिसेज स्मिथ को थमाया तो वो नाहक उस पर बरस पड़ा - “चाय ठण्डी है । नयी बना के ला ।”
मिसेज स्मिथ ने सहमति में सिर हिलाते हुए चाय की ट्रे उठाई और फिर जैसे अण्डों पर चलती हुई वहां से विदा हुई ।
गुरबख्श लाल दूसरी बार सर्व हुई चाय पी रहा था तो कमलानगर से दुआ का फोन आ गया ।
वो हत्थे से उखड़ गया ।
रही-सही कसर निजामुद्दीन से आये जगतार सिंह के फोन ने पूरी कर दी ।
“अरे, ये धोबी कौन से पैदा हो गये कुत्ते के पिल्ले !”
यूं ही कलपता वो लोटस क्लब पहुंचा । वहां अपने आफिस में पहुंचकर उसने कुशवाहा की बाबत पूछा तो मालूम हुआ कि वो सुबह से ही कहीं गया हुआ था । आदत से मजबूर वो उसकी मां बहन की एक करनी शुरु करने ही लगा था कि कुशवाहा वहां पहुंच गया ।
“कहां मर गया था ?” - गुरबख्श लाल दहाड़ा ।
“आप ही के बताये काम पर गया था, लाल साहब ।” - कुशवाहा सुसंयत स्वर में बोला ।
“मेरा बताया काम ?’
“कल रात आपने मुझे ये पता लगाने का हुक्म दिया था कि शहर में कौन आपकी मुखालफत में सिर उठाने की जुर्रत कर रहा था ।”
“ओह !” - गुरबख्श लाल तत्काल नरम पड़ा - “क्या पता लगा ?”
“ये पता लगा, लाल साहब, कि इस शहर में आपके खिलाफ सिर उठाने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता, कोई नहीं कर रहा । जिन चार-पांच जनों में ऐसा दिल-गुर्दा था, मैं उन सबसे मिलके आया हूं । लाल साहब, मेरा दावा है कि इस शहर में आज की तारीख में एक भी ऐसा अन्डरवर्ल्ड बास नहीं जो आपसे बाहर जाने का खयाल तक कर रहा हो ।”
“अपना सिन्धी खलीफा भी नहीं ?”
“झामनानी ?”
“हां ।”
“वो भी नहीं ।”
“तू ये सोच के कह रहा है न कि वो मेरे खौफ की वजह से मेरी दोस्ती का दम भरता है वर्ना जो लोग मेरी लाश लुढकाने के सपने देखते हैं, झामनानी उसमें सबसे आगे है ?”
“मै ये सोच के ही कह रहा हूं लेकिन आज की तारीख में वो भी आपसे बाहर नहीं है । आगे की भगवान जाने ।”
“तो फिर ये धोबी कौन हैं ? किसके आदमी हैं ? चार्ली के हो तो नहीं ?”
“चार्ली के ?”
“वो मेरी जगह लेने के सपने देख रहा हो ?”
“आप मजाक कर रहे हैं, लाल साहब ।”
“तुझे आज हमारे तीन ठीयों पर तीन और वारदात होने की खबर लगी ?”
“जी हां, लगी ।”
“ये धोबी कल रात सबसे पहले चार्ली के यहां नमूदार हुए थे । ये हो ही नहीं सकता कि उसे मालूम न हो कि वो कौन हैं ।”
“मैं चार्ली से बात करुंगा ।”
“उसे यहां पकड़ के ला । मैं बात करुंगा उस बहन... कुत्ते से ।”
“ठीक है । और, लाल साहब...”
“क्या है ?”
“मैं शफीक खबरी से मिला था । खुद । हस्पताल जाकर । वो कहता है कि चार्ली ने ही आपके भांजे को स्मैक दी थी ।”
“हूं । खैर नहीं इस चार्ली के बच्चे की । कच्चा चबा जाऊंगा मादर... को ।”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“और क्या कहती है तेरी आज की तफ्तीश ?”
“लाल साहब, मुझे लगता है कि बाहर, से कुछ लोग आ गये हैं जो यहां के अन्डरवर्ल्ड पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं ।”
“बाहर से कहां से ?”
“कहीं से भी ।”
“यूं कोई आता है तो पहले गुरबख्श लाल के पास आता है ।”
“क्योंकि उसकी नीयत आपसे सुलह-सफाई की, आपसे बना-कर रखने की होती है । इस बार जो लोग आये हैं, वो आपसे दोस्ती के ख्वाहिशमन्द नहीं मालूम होते ।”
गुरबख्श लाल सकपकाया ।
“अरे, मैं बीज नाश कर दूंगा ऐसे लोगों का ।” - फिर वो कड़ककर बोला ।
“मामूली काम है ये आपके लिए ।” - कुशवाहा बोला - “लेकिन बीज नाश के लिए पहले बीज की शिनाख्त जरुरी होती है ।”
“तू कर वो शिनाख्त । तू किस मर्ज की दवा है ?”
“मैं कर रहा हूं ।”
“साल-छः महीने में कर लेगा ये काम ?”
“लाल साहब” - कुशवाहा बोला - “आज सवेरे से ही तो मैंने इस काम की शुरुआत की है । कुछ वक्त तो लगेगा ही न...”
“ठीक है । ठीक है । अब तू ये बोल कि वो धोबी जो हमारे तीन ठीयों पर अपनी ताकत दिखा गये हैं और कल आने की धमकी दे गये हैं, तू उनका क्या करेगा ?”
“मैं सब इन्तजाम कर दूंगा । कल जो कोई भी जहां भी आयेगा जिन्दा बच के नहीं जाने पायेगा ।”
“गलती करेगा ।”
“जी !”
“सब मर गये तो मुमकिन है उनकी जगह लेने के लिए और निकल आयें । तू एकाध को जिन्दा पकड़ने का जुगाड़ कर ताकि हमें पता लग सके कि वो लोग कौन हैं और किसके इशारे पर काम कर रहें हैं ।”
“ठीक है । ऐसा ही होगा, लाल साहब ।”
“शाबाश ।”
***
आफिस से छुट्टी करने के बाद विमल सुजान सिंह पार्क पहुंचा और मुबारक अली से मिला ।
“क्या खबर है ?” - उसने पूछा ।
“फिट खबर है, बाप ।” - मुबारक अली दांत निकालकर बोला - “चार्ली जो उस लाल-पीले साहब के तीन अड्डे बतायेला था, अपुन ऐन फिट कर दिया आज उन तीनों अड्डों को कल फिर जाने का है ।”
“कल तीनों जगह तेरे स्वागत का तगड़ा इन्तजाम होगा ।”
“मेरे कू मालूम । अपुन भी उदर तगड़ा इन्तजाम ले के जाना मांगता है ।”
“पिट के तो नहीं लौटेगा ?”
मुबारक अली ने यूं विमल की ओर देखा जैसे कोई असम्भव बात सुन ली हो ।
“ठीक है । ठीक है । अब बता पिपलोनिया का क्या पता लगा ?”
“कुछ भी नेईं ।”
“क्यों ? मिले नहीं हुसैन साहब ?”
“वो तो मिले लेकिन कुछ बताने को तैयार नहीं हुए ।”
“फिर कैसे बात बनेगी ?”
“बनेगी । कल अपुन अपने उस जात भाई को साथ ले के जायेंगा जो मेरा हुसैन साहब से, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तआरुफ करवा के आया था । कल तक रुक, बाप ।”
“ठीक । अब क्या कर रहा है ?”
“कुछ नहीं । खाली बैठेला है डिरेवर भाइयों के बीच ।”
“मेरे को पंडारा रोड छोड़ के आ ।”
“जरुर । उदर क्या है, बाप ?”
“क्रिसमिस ईव की पार्टी है मेरे बास के घर में ।”
“किशमिश क्या ?”
“क्रिसमिस । कल अंग्रेजी का बड़ा दिन है । उसका जश्न वो लोग बड़े दिन से पहले की रात को मनाते हैं ।”
“बाप, तेरा वो... वो क्या बोला अंग्रेजी में...”
“बास ।”
“वो अंग्रेज है ?”
“नहीं, हिन्दोस्तानी है मेरी तरह । शिवशंकर शुक्ला नाम है ।”
“पण किशमिश की ईव मनाता है ?”
“हां ।”
“होली-दीवाली की ईव नेईं मनाता ?”
“ईव नहीं मनाता । होली-दीवाली मनाता है ।”
“अल्लाह !”
“क्या हुआ ? अल्लाह क्यों याद आने लगा ?”
“तू नेईं समझा, बाप ?”
“नहीं ।”
“देख ये फिरंगी लोग कितना सयाना है ! त्योहार नेईं बनाता, उसकी ईव मनाता है । ताकि अगले रोज फुल आराम कर सके । ताकि तरोताजा होने के लिए त्योहार की छुट्टी का फुल फायदा उठा सकें । पण इदर अपुन का काला साब त्योहार मनाता है और फिर अगले रोज उठके पैरों पर खड़ा होने का टेम आता है तो हाय-हाय करता है । क्या ?”
विमल जोर से हंसा, उसने मुबारक अली के कन्धे पर एक धौल जमायी और बोला - “तू तो बहुत ही सयाना हो गया है, मियां !”
“सब” - मुबारक अलो ने खोसे निपोरीं - “तेरी सोहबत का असर है, बाप ।”
“अब चल ।”
***
शिव शंकर शुक्ला की पार्टी में कोई बीस लोग आमन्त्रित थे जिनमें उसकी गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन के विमल के अलावा केवल दी और व्यक्ति आमन्त्रित थे । उनमें एक कम्पनी का मैनेजर चान्दवादी था और दूसरा चीफ डिजाइनर आप्टे था । बाकी लोगों में कुछ शुक्ला के हमपेशा लोग थे, जिनमें से अधिकतर को विमल पहचानता था, कुछ उसके ग्राहक थे, जिनमें से अधिकतर को विमल जानता था और कुछ उसके मित्र थे ।
मित्रों में से दो का परिचय उसने विमल से खासतौर से कराया ।
“कौल !” - शुक्ला बोला - “ये मेरे नामराशि शिव नारायण जी हैं । मेरे बचपन के यार हैं ।”
विमल ने बड़े अदब से उससे हाथ मिलाया ।
“ये भी मेरे नामराशि हैं ।” - उसने दूसरे व्याक्ति से परिचय कराया - “और ये भी मेरे बचपन के दोस्त हैं । जगत नारायण । पत्रकार हैं । हिन्दुस्तान टाइम्स में सीनियर एडीटर हैं ।”
विमल ने जगत नारायण से भी हाथ मिलाया ।
“और मेरे नारायण भाइयो !” - शुक्ला बोला - “ये कौल है, मेरा एकाउन्ट्स आफिसर । बड़ा ही जहीन नौजवान है ।”
“वो तो सूरत से ही जाहिर हो रहा है ।” - शिव नारायण बोला ।
“जर्रानवाजी का शुक्रिया, जनाब ।” - विमल बोला ।
एक वेटर उन्हें ड्रिंक सर्व कर गया ।
“तुम लोग बातें करो” - शुक्ला बोला - “मैं अभी आया ।”
तोनों ने सहमति में सिर हिलाया ।
विमल ने नोट किया कि शिव नारायण पचास से ऊपर उम्र का आम कद-काठ का और आम तन्दरुस्ती वाला शख्स था ।
कद-काठ, उम्र वगैरह में दूसरा नारायण भी उसका डुप्लीकेट ही लग रहा था ।
“शादीशुदा हो ?” - शिव नारायण ने पूछा ।
“जी हां ।” - विमल बोला ।
“बाल-बच्चे ?”
“अभी नहीं हैं लेकिन होने वाला है । अगले महीने ।”
“क्या चाहते हो ? बेटा या बेटी ?”
“कुछ भी । इस बारे में मेरी कोई चायस नहीं ।”
“यानी कि अहम मिशन बाप बनना है ?”
“यही समझ लीजिये ।”
“लड़का हो तो उसे फौज में भरती कराना ।”
“इस सलाह की कोई खास वजह, जनाब ?”
“है तो सही ।”
“क्या ?”
“फौजी जंग में मरने से बच जाये, इस बात की ज्यादा सम्भावनायें हैं, बनिस्बत उसके दिल्ली जैसे शहर में रहकर सलामत बचने के ।”
“जी !”
“बस के नीचे नहीं आयेगा तो कोई बटुआ और घड़ी छीनने के लिए चाकू मार देगा । घर में घुस आये डाकुओं का शिकार नहीं होगा तो पोल्यूशन से मर जायेगा ।”
“बड़ी भयानक बातें कर रहे हैं जनाब आप ?”
“लेकिन सच्ची बातें कर रहे हैं ।” - पत्रकार जगत नारायण बोला - “कितना खून-खराबा है यार इस शहर में । क्राइम का कितना बोलबाला हो गया है ? पिछले दो हफ्तों में तो हद ही हो गयी है । आठ दिन में सतरह खून हो गये शहर में ।”
“लेकिन गुण्डे-बादमाशों के । हिस्ट्रीशीटर्स के ।” - विमल बोला ।
“भई, इनसानी जान तो गयी ।”
“ऐसी इनसानी जान चली ही जानी चाहिये जो अपने ही निर्दोष भाई-बन्दों की जान लेने पर आमादा हो ।”
तब तक करीब खड़े आप्टे और चान्दवानी भी उनकी ओर घूम पड़े थे वार्तालाम में रुचि लेते दिखाई देने लगे थे । वो दोनों अपने अम्पलायर के दोनों लंगोटिया यारों से पहले से परिचित मालूम होते थे ।
“यार, आप्टे !” - चान्दवानी उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “अपना अकाउन्ट्स आफिसर तो ओवरकाट ब्रिगेड के हक में मालूम होता है ।”
“कहीं शामिल हो तो नहीं उसमें ?” - आप्टे हंसता हुआ बोला - “ओवरकोट तो पहनता है ये भी वैसा ही । आज भी साथ लाया हुआ है ।”
“यहां से वापिसी का पता नहीं ।” - विमल हंसता हुआ बोला - “और रात को ठण्ड हो जाती है । इसीलिए ओवरकोट लेकर आया ।”
“पहन के सड़क पर मत घूमना ।” - शिव नारायण बोला - “पुलिस पकड़कर ले जायेगी ।”
सब हंसे ।
“आप लोगों का क्या खयाल है ?” - फिर चान्दवानी बोला - “ये ओवरकोट ब्रिगेड़ वाकई किन्हीं खबरदार शहरियों की जमात हैं ?”
“मेरे से पूछो” - आप्टे बोला - “तो ऐसी कोई ब्रिगेड़ है ही नहीं ।”
“क्या ?” - शिव नारायण बोला ।
“मेरे खयाल से तो ये पुलिस वालों की खुद की मशहूर की हुई एक कहानी है जिसकी आड़ में वो लोग खुद कत्ल कर डालते हैं और काम किन्हीं खबरदार शहरियों का बता देते हैं ।”
“उन्हें इससे क्या फायदा ?”
“क्यों नहीं फायदा ? यूं उनका काम घटता है । उन्हें कोर्ट-कचहरी की लम्बी कार्यवाहियों में नहीं उलझना पड़ता । उन्हें ये फिक्र नहीं करनी पड़ती कि ट्रायल के दौरान कहीं कैदी भाग न जाये । फिर सबसे बड़ा फायदा ये है कि यूं शहर के जरायमपेशा लोगों में आतंक फैलता है और नतीजतन क्राइम रेट घटता है ।”
“घटा भी है ?” - चान्दवानी बोला ।
“घटा है ।” - जवाब पत्रकार जगत नारायण ने दिया - “एक हफ्ते में क्राइम रेट बीस-बाईस प्रतिशत नीचे आ गया है ।”
“दैट्स गुड न्यूज ।” - आप्टे बोला ।
“पुलिस तो ऐसा नहीं मानती ।” - विमल बोला ।
“पुलिस इसलिये नहीं मानती” - जगत नारायण बोला - “क्योंकि ऐसा मानने से उनकी नाक कटती है । ऐसा मानना ये कबूल करना होगा कि जो काम पुलिस नहीं कर पा रही, उसे खबरदार शहरियों ने खुद कर दिखाया है ।”
“ओह !”
“ओवरकोट ब्रिगेड की परिकल्पना को” - आप्टे बोला - “हवा देने का पुलिस को एक दूसरा फायदा ये भी हो सकता है कि जो केस पुलिस का हल होता न दिखाई दे उसे ओवरकोट ब्रिगेड पर थोप दो ।”
“ठीक फरमाया आपने ।” - पत्रकार बोला ।
“लेकिन” - विमल बोला - “अखबार में छपी खबरों से तो ये सब एक ही शख्स का काम मालूम होता है ।”
“ये बात तुम इसलिए कह रहे हो” - आप्टे बोला - “क्योंकि पुलिस कहती हैं कि ये तमाम कत्ल एक ही हथियार से हुए हैं, क्योंकि तमाम गोलियां .44 कैलीबर की एफ-14 मार्का एक ही जर्मन रिवाल्वर से चलाई गयी थीं ?”
“हां ।”
“क्या सबूत है कि ये बात सच है ?”
“जी ।”
“पुलिस ने कह दिया और हमने मान लिया । हकीकतन कई पुलसियों ने कई हथियार इस्तेमाल किये हो सकते हैं । एक ही हथियार पर जोर वो इसलिए देते हो सकते हैं ताकि खबरदार शहरा वाली मिथ बनी रहे ।”
“ऐसा” - चान्दवानी बोला - “हो तो सकता है ।”
पत्रकार का सिर भी सहमति में हिला ।
“कानून के रक्षक ही” - विमल बोला - “यूं कैसे कानून अपने हाथ में ले सकते हैं ?”
“वैसे ही जैसे हमेशा लेते हैं ।” - शिव नारायण बोला - “जैसी उनकी ट्रेडीशन है । जैसा उनका स्टाइल है फंक्शनिंग का । इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि आज की तारीख में एक आम शहरी गुण्डे-बदमाशों से उतना खौफजदा नहीं जितना कि पुलिस से है ! नकली गिरफ्तारियों की, नकली मुठभेड़ों में बेकसूरों को मार दिये जाने की, पुलिस कस्टडी में मौतों की वारदातें कितनी आम हो गयी हैं आजकल !”
“हमारी ऐसी पुलिस ने” - आप्टे बोला - “ओवरकोट ब्रिगेड की ओट में खुद कत्लेआम शुरू कर दिया हो तो क्या बड़ी बात है ? वैसे तो अपराधियों को सजा मिलती नहीं । आज पकड़े जाते हैं तो कल जमानत पर छूट जाते हैं, परसों बरी हो जाते हैं ।”
“बिलकुल ठीक कहा आपने ।” - शिव नारायण बोला - “एक बैड कैरेक्टर को मैंने खुद ये कहते सुना था कि ‘अव्वल तो पकड़ा नहीं जाऊंगा, पकड़ा जाऊंगा तो केस नहीं चल पायेगा, केस चल पायेगा तो साबित कुछ नहीं होगा, कुछ साबित हो गया तो सजा नहीं मिलेगी, सजा मिली तो सख्त सजा नहीं मिलेगी ।”
“आप ठीक कह रहे हैं ।” - विमल बोला ।
“ये बात तो” - पत्रकार जगत नारायण भी अनुमोदन में सिर हिलाता हुआ बोला - “आंकड़ों के लिहाज से भी सच है कि अधिकार अपराधी अपने किये की सजा पाने से बच जाते हैं । आंकड़े ये कहते हैं कुल जमा जितने अपराध होते हैं उनका दस या बारह प्रतिशत ही पुलिस के रोजनामचे में दर्ज होता है । और जो क्राइम यूं दर्ज होकर रिकार्ड में आ पाते हैं, उनमें से बीस से पच्चीस प्रतिशत तक ही हल हो पाते हैं ।”
“जेब कटने जैसी” - शिव नारायण बोला - “या स्कूटर की स्टैपनी चोरी हो जाने जैसी छोटी-मोटी घटनाओं की तो बात ही क्या है, जहां लोगबाग कत्ल जैसा जघन्य अपराध छुपा लेते हों वहां तो आंकड़े यही कुछ बोलेगे ।”
“इसीलिये तो” - विमल बोला - “आज के हालात पर ये पुरानी कहावत फिट नहीं बैठती कि ‘क्राइम डज नाट पे’ ।”
“ऐग्जैक्टली ।” - शिव नारायण बोला - “क्राइम डज पे’ अब तो ये बात स्थापित हो चुकी है । नाट ओनली इट डज पे, इट पेज बैटर दैन दि आनेस्ट लेबर । नतीजन अब ये बात भी गलत साबित ही गयी है कि अपराध अन्याय, अशिक्षा या अभाव का परिणाम होता है । मेरी निगाह में आज के जमाने में अपराध का मूल जरूरत नहीं, लालच है । और हमारी जेलों में ग्रैजुएट पोस्ट ग्रैजुएट कैदियों का बहुतायत में पाया जाना इस बात का सबूत है कि अशिक्षा ही अपराध की जन्मदात्री नहीं ।”
सबके सिर सहमति में हिले ।
“दरअसल हमारे समाज की ट्रेजेडी ही ये है कि इतना ही नहीं कि क्राइम पे करने लगा है, वो फायदे का धन्धा होता जा रहा है, बल्कि उसके हासिल में भी इजाफा होता जा रहा है और उसे अंजाम देने पर आने वाली लागत घटती जा रही है ।”
“वो कैसे ?” - विमल बोला ।
“भई, हर क्राइम के लिए ए के-47 राइफल दरकार थोड़े ही होती है ! एक कमानीदार चाकू या एक देसी कट्टे पर लागत हो कितनी आती है ।”
“ओह !”
“कहने का मतलब ये है कि क्राइम थोड़ी इनवैस्टमेंट से ज्यादा प्राफिट का धन्धा बन गया है । ऊपर से पकड़े जाने की सम्भावनाये घटती जा रही हैं । इसी वजह से गुण्डे-बदमाशों के हौसले बढते जा रहे हैं । यही कारण है कि आजकल चोरी-छिपे होने वाले अपराधों से कहीं ज्यादा दीदादिलेरी वाले अपराध होते हैं । मैं दिन दहाड़े बैंकों में डाके डालने वाले बड़े डकैतों की बात नहीं करता, छोटे-मोटे चोर-उचक्कों की भी दिलेरी और हौसलामन्दी का ये आलम है कि बस में एक गुण्डे ने एक औरत को इसलिए चाकू मार दिया क्योंकि औरत के जिस हैण्ड बैग को वो झपटने की कोशिश कर रहा था वो उसका स्ट्रैप नहीं छोड़ रही थी । और उस बैग में आप जानते हैं, कितनी रकम थी ?”
“कितनी रकम थी ?”
“कुल जमा साढे नौ रुपए ।”
“वो... वो झपट्टामार... वो पकड़ा गया था ?”
“पकड़ा तो गया लेकिन, जैसा कि अभी जगत नारायण ने कहा, जो एक पकड़ा जाता है, उसके पीछे दस ऐसे होते हैं जो नहीं पकड़े जाते ।”
“यू आर राइट, सर ।” - आप्टे बोला ।
“यानी कि” - चान्दवानी बोला - “हम सफेदपोश लोग तो पागल हुए जो अपनी इनकरीमैंट के लिए ही मरे जाते हैं, असल फायदा तो क्राइम का रास्ता अख्तियार करने में है ।”
सबने जोर का अट्टहास किया ।
“मिस्टर चान्दवानी” - फिर पत्रकार जगत नारायण बोला - “मे आई कोट यूं आन दिस इन माई पेपर ?”
“न, भाई न ।” - चान्दवानी तत्काल बोला - “शुक्ला साहब को आपका अखबार पढकर मेरे ख्यालात की खबर लग गयी तो वो कल से अपने आफिस में मेरी पोस्ट वेकेन्ट समझ लेंगे और अपने लिए नया मैनेजर तलाश करने लगेंगे ।”
फिर अट्टहास हुआ ।
“आप कुछ कह रहे थे ।” - विमल शिव नारायण से बोला ।
“हां ।” - शिव नारायण वार्तालाम का सूत्र फिर अपने हाथ में लेता हुआ बोला - “दरअसल हमारी प्राब्लम ये है कि क्राइम के मामले में आम शहरी की मानसिकता नपुंसकों जैसी होती जा रही है हर कोई इनवाल्वमैंट से बचना चाहता है । लोगबाग वारदात की जगह से रास्ता बदल लेते हैं । किसी के साथ कोई ज्यादती ही रही हो तो निगाह फिर लेते है और ये सोचकर खुश होते हैं कि जो कुछ हो रहा था, वो उनके साथ नहीं हो रहा था । जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की जगह लोगों की आदत गम खाने वाली और नुकसान झेल लेने वाली, उसे एडजस्ट कर लेने वाली बनती जा रही है । मसलन किसी की जेब कट जाये तो वो ये सोचकर खुश हो कि सिर्फ पचास रुपये का नुकसान हुआ, जेब कल न कटी जबकि उसकी जेब में पांच सौ रुपये थे । कोई बुजुर्गवार ये सोच के संतोष महसूस करें कि उनके घर में सिर्फ तीन बार चोरी हुई । कोई इसे अपनी खुशकिस्मती माने कि डी☐ टी ☐सी☐ की बस के ड्राइवर के एकाएक बस चला देने की वजह से वो सिर्फ पांच बार बस से गिरा और कोई हड्डी एक बार भी नहीं टूटी । कोई इसलिए अपने मुकद्दर के सदके जाये कि भी भीड़ में चलते वक्त उसके कन्धे का धक्का एक पुलसिये को लग गया तो उसने उसे सिर्फ दो झांपड़ मारकर छोड़ दिया । यूं अन्डरस्टैण्ड माई प्वायन्ट ?”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
“रात के अन्धेरे में पार्क में एक लड़की के साथ बलात्कार हुआ ।” - शिव नारायण आगे बढा - “अपनी दुरगत की दास्तान सुनाते वक्त जो पहली बात उस लड़की की जुबान में निकली वो ये थी कि उस रात के वक्त पार्क में अकेले नहीं जाना चाहिए था । यानी कि उसके साथ जो बीती उसमें खुद उसी की गलती थी । वो अकेले वहां न जाती तो बलात्कार की शिकार न होती । ये बात सुनने में यूं लगती है जैसे लड़की ने तो पार्क में अकेले जाकर मूल्क के कायदे-कानून की को धारा भंग कर दी हो और बलात्कारियों ने केवल अपने हक का इस्तेमाल किया हो । कैसा मुल्क है ये जहां इन्सान के बच्चे को स्वछन्द फिरने तक की इजाजत नहीं । जहां उसने जो कदम उठाना है, खौफ के जेरेसाया उठाना है । जहां उसने बलात्कार को अपनी गलती, अपनी नियति मानकर झेलना है !”
“आपको” - विमल बोला - “ऐसा कोई बलात्कारी दिखाई दे जाये तो आप उसके साथ कैसे पेश आयेंगे ?”
“मैं उसका पुर्जा-पुर्जा उड़ा दूंगा ।” - शिव नारायण बड़े हिसक भाव से बोला ।
“भले ही बलात्कार की शिकार” - आप्टे बोला - “आपकी कोई सगेवाली न हो ।”
“भले ही बलात्कार की शिकार” - शिव नारायण दृढ स्वर में बोला - “मेरी कोई सगेवाली न हो ।”
“और भले ही बलात्कारी का पुर्जा पुर्जा उड़ने की कोशिश में आपका पुर्जा-पुर्जा उड़ जाये ?”
“जी हां ।” - शिव नारायण पूरे जोश के साथ बोला ।
आप्टे हड़बड़ाया ।
“शिव नारायण” - पत्रकार बोला - “तुम तो मेरे यार हो । तुम्हारे से तो मैं इजाजत भी नहीं लूंगा । तुम्हारे ये खयाल तो मैं अपने अखबार में जरूर छापूंगा ।”
“जरूर-जरूर छापना ।” - शिव नारायण बोला - “मैं घर की छत पर चढकर गला फाड़-फाड़कर अपने ख्यालात का इजहार करने की जहमत से बच जाऊंगा ।”
“कनसिडर इट इन ।”
“थैक्यू ।”
“मिस्टर शिव नारायण” - आप्टे बोला - “आप कुछ ज्यादा ही सिविल-माइन्डिड आदमी मालूम होते हैं ।”
“मेरी राय में” - चन्दवानी बोला - “फिट केस हैं ये ओवरकोट ब्रिगेड में भरती होने लिए ।”
सबने, शिव नारायण ने भी जोर का अट्टाहास किया ।
“जनाब” - विमल बोला - “आपका इस समाजी नारे से कुछ लेना देना नहीं लगता कि अपराधियों का सुधार होना चाहिये ।”
“ठीक कहा आपने ।” - शिव नारायण बोला - “कुछ लेना देना नहीं है मेरा इस वाहियात समाजी नारे से । कितने अपराधी सजा से सुधरते हैं ? कोई नहीं सुधरता, जनाब मैं ऐसे अपराधियों की मिसाल दे सकता हूं जो सुबह जेल से छूटे तो अपनी गुनाहभरी जिन्दगी में दोबारा कदम रखने में उनसे दोपहर तक का सब्र न हुआ ।”
“मनोवैज्ञानिक और अपराध विशेषज्ञ कहते हैं कि अपराध एक बीमारी है जिसका इलाज मुमकिन है ।”
“आप मानते हैं ये बात ?”
“नहीं । लेकिन मेरे न मानने से क्या होता है ! जिनका ये फील्ड है, वो तो यही कहते हैं ।”
“गलत कहते हैं । वो क्या समझते हैं कि अपराधी की कोई छोटी मोटी सर्जरी की जाए तो वो शरीफ बन जाता है ! अपराध खांसी जैसा मर्ज है जो कैप्सूल खाने से ठीक हो जायेगा !”
“जेल को रिफार्मेटरी स्कूल कहा जाता है ।”
“रिफार्मेटरी स्कूल, माई फुट । मैं बिल्कुल नहीं मानता कि किसी अपराधी को रिफार्म या रिहैबिलिटेट किया जा सकता है, उसे सुधार कर सोसायटी में पुर्नस्थापित किया जा सकता है । माई डियर ब्बाय, यू कैननाट फोर्स पीपुल टु बिहेव दैमसैल्व्स, यू कैन ओनली ट्राई टु फोर्स दैम नाट टु मिसबिहेव । लोगों से जबरन सद्व्यवहार नहीं कराया जा सकता लेकिन उन्हें बुरा व्यवहार करने से जबरन रोका जा सकता है । और यही वो काम है जिसको अंजाम देने के लिए कायदा कानून बना है, पुलिस जैसी आर्गेनाइजेशन बनी है ।”
“जनाब ।” - चान्दवानी बोला - “पुलिस की भी तो कुछ दुश्वारिया होती हैं ।”
“मसलन क्या ?”
“भई, वह सख्ती करती है तो लोग पुलिस ब्रूटलिटी की दुहाई देने लगते हैं, नहीं करती तो लोग कहते हैं रिश्वत खा ली ।”
“ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पुलिस दस में से नौ बार गलत जगह सख्ती करती है और दस में से नौ बार गलत जगह नर्मी दिखाती है । और बार-बार ये रवैया अख्तियार करती है कि हमें क्या ? इसकी मैं आपको भुक्तभोगी के तौर पर एक छोटी-सी मिसाल देता हूं । दो साल पहले की बात है कि मुझे आटोरिक्शा पर ब्लाक से जमुना पार कृष्णा नगर जाने का इत्तफाक हुआ । पहले तो कोई आटो वाला जाने को तैयार न हुआ, जो तैयार हुआ वो बोला मीटर से दस रुपये ज्यादा किराया लूंगा । मैंने कबूल कर लिया तो थोड़ा रास्ता चलने पर ही पाया कि उसका मीटर तेज भागता था । जाना जरूरी था इसलिए वो भी बर्दाश्त किया लेकिन शकरपुर पहुंचकर उसने आटो ही रोक दिया और बोला आगे की रिक्शा कर लो, मुझे आगे ले जाना है तो मीटर के अलावा पांच रुपये अभी भी और दो । तब मेरे सब्र का पैमाना छलक गया । पास ही पुलिस चौकी थी । मैंने उसे वहां चलने को कहां तो सुनकर कोई खौफ खाना तो दूर, शिकन तक न आयी उसके माथे पर । फिर जैसे मैं उसे नहीं, वो मुझे चौकी ले के गया । वहां पहुंचकर उसने मेरे से आगे चलकर मुझे चौकी के इंचार्ज सब-इंस्पेक्टर साहब के कमरे का रास्ता दिखाया कि शायद मुझे न मालूम हो कि रिपोर्ट करनी हो तो चौकी पर कहां जाया जाता था, किसके पास जाया जाता था ! वहां जनेऊधारी देवतास्वरूप सब-इंस्पेक्टर साहब नंगे बदन कुर्सी पर बैठे थे और उनकी वर्दी सामने खूंटी पर टंगी हुई थी । मैंने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई तो, साहबान, जानते हैं उन्होंने क्या इनसाफ किया ?”
सबकी प्रश्नसूचक निगाहें शिव नारायण के चेहरे पर टिक गयीं ।
“उन्होंने अपने हवलदार को आवाज दी जिसने की उनके आदेश पर खूंटी पर टंगी उनकी वर्दी में से उनका बटुआ निकालकर उन्हें सौंपा और उन्होंने बटुवे में से पांच रुपये निकालकर आटो वाले को दिए और उसे कहा कि वो साहब को, मुझे, वहीं छोड़ के आए जहां कि वो जाना चाहते थे ।”
“तौबा !”
“यानी कि उस पुलसिये की निगाह में नाइंसाफी ये नहीं थी कि उस आटो वाले का मीटर तेज भागता था । नाइंसाफी ये भी नहीं थी कि वो किसी ब्लैकमेलर की तरह पहले ही मीटर से दस रुपए ज्यादा भाड़ा मांग रहा था, नाइंसाफी ये थी कि सवारी वाहियात सवारी, लीचड़ सवारी, पांच रुपल्ली के लिए हुज्जत कर रही थी और चौकी में आके पुलिस वालों के कान खा रही थी ।”
“वो पांच रुपए” - आप्टे उत्सुक भाव से बोला - “आटो वाले ने ले लिए दरोगा साहब से ?”
“नहीं लिए । जो कि उन दोनों का मेरे पर अहसान था ।”
“आटो वाला आपको घर छोड़ के आया ?”
“मैं ही नहीं गया । आगे के लिए रिक्शा ही पकड़ी मैंने ।”
“खौफ खा गए आप आटो वाले का ?”
“यही समझ लीजिए ।”
“यानी कि” - विमल हंसता हुआ बोला - “नाइंसाफी के मामले में आपके खयाल पहले वैसे इंकलाबी नहीं थे, जैसे कि आज हैं ।”
शिव नारायण हंसा ।
“नाइंसाफी की परिभाषा भी तो बहुत बदल गयी है आज के जमाने में ।” - वो बोला - “विद्यार्थी को इम्तहान में नकल करते रोका जाए तो वो कहता है उसके साथ नाइंसाफी हुई है और सारे विद्यार्थी एग्जामीनेशन हाल से वाक आउट कर जाते हैं । मोटर गलत होने का चालान होने लगे तो आटो, टैक्सी वाले कहते हैं उन्हें तंग किया जा रहा है और वो इस नाइंसाफी के खिलाफ हड़ताल करेंगे । डाक्टर को किसी नर्स या मरीज के साथ छेड़खानी या बद्तमीजी करने से रोका जाए तो उसके साथ नाइंसाफी हुई है, अमानवीय व्यवहार हुआ है इसलिए सारे डाक्टर हड़ताल करेंगे । ये तो गनीमत है कि अभी चोर डाकुओं की गुण्डे-बदमाशों की विद्यार्थियों जैसी, आटो वालों जैसी, डाक्टर जैसी कोई अधिकाररिक यूनियन नहीं वर्ना वो भी घरों और दुकानों के दरवाजों पर ताला लगाने के या पुलिस की गश्त के खिलाफ आन्दोलन की चेतावनी दे सकते हैं । अखबार के दफ्तरों के सामने ये कहते हुए धरना दे सकते हैं कि उनके कारनामों की खबरें अखबारों में छपने से उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है और उनके मानवाधिकारों का हनन होता है । फिर गुण्डे-बदमाश संगठित होके जुलूस निकालेंगे, नारे लगायेंगे कि अपराध करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम अपराध करके रहेंगे ।”
“बड़ी भयानक बातें कर रहें हैं आप जनाब ?” - विमल बोला ।
“लेकिन सच्ची ।” - आप्टे बोला - “मैं अपनी आपबीती सुनाता हूं आपको । कालका जी में, जहां कि मैं रहता हूं, मैंने एक एक कैमिस्ट की दुकान के सामने अपनी कार खड़ी की और उतरकर दवाई लेने लगा । तभी मोटरसाइकिल पर सवार तीन छोकरे कार के पीछे प्रकट हुए और उन्होंने मोटरसाइकिल पीछे से कार में दे मारी । मैं आवाज सुनकर उनकी तरफ आकर्षित हुआ लेकिन इससे पहले कि मैं अपनी जुबान भी खोल पाता, उनमें से एक छोकरा, जो कि मोटर साइकिल ड्राइव कर रहा था, मेरे ऊपर बरसने लगा कि मैंने बीच सड़क पर कार खड़ी की हुई थी और उनका रास्ता रोका हुआ था । मैंने कहा कि कार तो किनारे पर थी और खड़ी थी लेकिन उसकी यही जिद थी कि गलती मेरी थी । मैंने उसको फटकार लगाने की कोशिश की तो वो छोकरा जो कि हैल्मेट नहीं पहने था, जो कि माइनर था, और इसलिए जिसके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं था, और उसके साथी तीनों मरने मारने पर उतारू हो गए । उस घड़ी वहां से सिर्फ दस गज दूर बीट का एक सिपाही खड़ा था और अपनी जगह से हिले भी बिना तमाम नजारा तितर-बितर देख रहा था । मैंने उसे बुलाकर कहा कि वो छोकरे मुझे मारने पर आमादा थे इसलिए उसे कुछ करना चाहिए था । जनाब, तब जानते हैं कानून के उस रखवाले ने क्या रखवाली की कानून की ?”
“क्या किया उसने ?” - विमल उत्सुक भाव से बोला ।
“वो मेरे से बोला झगड़ा न कीजिए और गाड़ी कहीं और ले जा के खड़ी कीजिए, रास्ता ब्लाक हो रहा था । यानी कि ये सरकारी फरमान जारी करने से पहले उसने मेरे से कुछ पूछने तक की कोशिश नहीं की थी, ये जानने तक की कोशिश नहीं की थी कि असल में हुआ क्या था ।”
“वो तो देख ही रहा होगा कि असल में क्या हुआ था ?”
“ऐग्जैक्टली । लेकिन उसका इंसाफ ये ही कहता था कि मैं खामखाह बच्चों के गले पड़ रहा था और तमाशाई इकट्ठे करके ट्रैफिक ब्लाक कर रहा था । उसका वास्ता सिर्फ इस बात से था कि ट्रैफिक ब्लाक हो रहा था, इस बात से नहीं कि एक सीनियर सिटिजन को ऐसे छोकरे हैरेस कर रहे थे जिन्हें मोटरसाइकिल चलाते नहीं होना चाहिये था लेकिन फिर भी जो चला रहे थे । हैल्मेट के बिना । ड्राइविंग लाइसेंस के बिना । ट्रिपल राइडिंग करते हुए ।”
“फिर आपने क्या किया ?” - शिब नारायण बोला ।
“मैंने क्या किया ?” - आप्टे बोला - “मैं ठण्डे-ठण्डे वहां से चला आया ।”
“इससे क्या साबित हुआ ? इससे ये साबित हुआ कि बुराई की जीत तो इतने से ही हो जाती है कि भलाई दुबक के बैठ जाती है ।”
“मशहूर कोटेशन है ये ।” - जगत नारायण बोला - “दि ओनली थिंग नैसेसरी फार दि ट्रायम्फ आफ इवील इज दैट गुड मैन डू नथिंग ।”
“ऐग्जैक्टली ।” - शिव नारायण बोला - “मिस्टर आप्टे अब मैं आपसे लाख रुपए का सवाल करता हूं । उस हालत में आप करना क्या चाहते थे ?”
“मैं उन तीनों नाबालिग छोकरों को थाने ले जाना चाहता था और मोटरसाइकिल जब्त करवाना चाहता था । तभी उनके मां-बाप को सबक मिलता ।”
“मां-बाप को ? उन्हें नहीं ?”
“मां-बाप को । क्योंकि मेरी निगाह में गुनहगार मां-बाप थे । क्यों दी उन्होंने माइनर औलाद के हाथ में मोटरसाइकिल ? ऐसा लाड दिखाने से पहले क्यों उन्होंने औलाद के बालिग और लाइसेंसधारी होने का इन्तजार नहीं किया ? क्यों उनकी औलाद ट्रिपल राइडिंग करते हुए बिना हैलमेट पहने मोटरसाइकिल चलाकर ट्रैफिक के नियमों का उलंघन कर रही थी और मुल्क के कायदे कानून का मुंह चिड़ा रही थी । जैसे मैं हैरेस हुआ, वैसे उनके मां-बाप को होना चाहिए था । औलाद को पुलिस कस्टडी से छुड़ाकर लाने में । जब्त मोटर साइकल का गम खाने में ।”
“आपकी ये कहानी” - शिव नारायण बोला - “मेरी इस धारण को और भी बल देती है कि हमारी मानसिकता नपुंसकों जैसी होती जा रही है और हम जुल्म सहने के आदी बनते जा रहे हैं ।”
“आई एग्री ।” - पत्रकार जगत नारायण बोला ।
“और जुल्म भी दोतरफा !” - आप्टे बोला - “कायदे-कानून के दुश्मनों का भी और कायदे-कानून के रखवालों का भी । दादा लोगों का भी और पुलिस का भी । बीट का सिपाही डण्डा हिलाता हुआ बाजार से गुजरता है, फलों की रेहड़ी में से एक सेब उठाता है और उसे खाता हुआ चल देता है । क्या ये जुल्म नहीं ! उसका अफसर फैमिली के साथ होटल में जाता है, उम्दा खाना खाता है और बिना बिल चुकाये मूंछ पर हाथ फेरता हुआ वहां से रुख्सत हो जाता है । क्या ये जुल्म नहीं ! जनरल स्टोर पर बावर्दी हवलदार साहब पहुंचते हैं । सौ रुपए का सामान खरीदते हैं और दुकानदार को पचास रुपया थमा देते हैं । दुकानदार एतराज करता है तो दस रुपये और दे देते हैं । वो और एतराज करता है तो वो दिये हुए पैसे भी वापिस छीन लेते हैं और ये कह कर चलते बनते हैं कि सामान एस एच ओ साहब ने मंगवाया था...”
“यहां मैं” - विमल बोला - “राजा रणजीतसिंह की जिन्दगी का एक वाकया आपको सुनाना चाहता हूं । कहते हैं कि राजा रणजीतसिंह अपनी फौज के साथ एक बार जब एक शहर से बाहर पड़ाव डाले हुए थे तो खाने के वक्त उन्हें खाने में नमक की कमी महसूस हुई । उन्होंने अपने एक सिपाही को शहर से नमक लाने के लिए इस खास हिदायत के साथ भेजा कि वो कीमत अदा करके ही नमक लाये । तब सेनापति ने फरमाया कि नमक जैसी मामूली चीज बादशाह कीमत अदा करके हासिल करे, ये क्या शोभनीय काम था ! राजा रणजीतसिंह का जो जवाब था वो ये था कि अगर बादशाह के लिए दुकान से नमक बिना उसकी कीमत अदा किये आयेगा तो उसकी फौज शर्तिया वो सारी दुकान लूट के खा जायेगी ।”
“ऐग्जैक्टली ।” - आप्टे बोला - “हाकिम इमानदार हो, हाकिम करप्ट न हो, हाकिम सख्त हो तो उसके मातहत की मजाल नहीं हो सकती बेईमानी करने की । यहां एक तो बेईमानी साफ साफ लूट खसोट और बटमारी, ऊपर से जुल्म । वो दुकानदार ऐतराज करता तो हवलदार साहब अपने चार हिमायती बुलाकर या तो दुकान पर धुन देते या थाने पकड़ मंगवाते और वहां उसे करारा सबक देते ।”
“आप लोगों ने आम देखा होगा” - शिव नारायण बोला - “कि सड़क पर दो पार्टियों में लड़ाई झगड़ा बन्द कराने की कोशिश नहीं करते । वो तटस्थ दर्शकों की तरह तमाशा देखते हैं और तब हरकत में आते हैं जब दोनों तरफ दो चार सिर फूट चुके हों, दो चार हड्डियां टूट चुकी हों । फिर वो दोनों पार्टियों को पकड़कर हवालात में बन्द कर देते हैं और दोनों पार्टियों के आगे बारी बारी ये हौवा खड़ा करते हैं कि दूसरी पार्टी को ज्यादा चोटें आयी हैं और मामला गम्भीर है । नतीजतन दोनों ही पार्टियों को रिहाई को मोटी फीस अदा करती पड़ती है । अब आप सोचिये कि अगर पुलिस वाले झगड़ा शुरू होते ही खून खराबे, सिर फुटौवल की नौबत आने से पहले ही, उसे बन्द करा देते तो उनके हाथ क्या लगता ?”
“यानी कि” - पत्रकार बोला - “ऐसे मामलों में पुलिस का रोल उस बन्दर जैसा हुआ जो रोटी के लिए लड़ती दो बिल्लियों में चौधरी बनता है ।”
“यू सैड इट, सर ।” - आप्टे बोला ।
“साहबान” - चान्दवानी एकाएक बोला - “बात तो ओवरकोट ब्रिगेड की हो रही थी, खबरदार शहरियों की हो रही थी ।”
“इसी सन्दर्भ में” - शिव नारायण बोला - “मेरी आपसे एक दरख्वास्त है कि आप खबरदार शहरी के हालिया कारनामों पर एक निगाह डालें । ये निगाह आप मेरी निगाह से डालेंगे तो आप पायेंगे कि वो सिर्फ कत्ल नहीं कर रहा, वो हम जैसे डरपोक जुल्म बर्दाश्त कर लेने के आदी होते चले जा रहे शहरियों को एक पैगाम दे रहा है कि गलत है दुश्वारी की घड़ी में हाथ खड़े करके समर्पण कर देना और ये सोच लेना कि अपराध का जो घिनौना नाच चारों तरफ हो रहा है, उसकी बाबत कुछ नहीं किया जा सकता । वो हमें करके दिखा रहा है कि क्या किया जा सकता है । वो हमें उस खतरे से आगाह कर रहा है जो आइन्दा दिनों में इतना व्यापक और इतना विकराल रुख अख्तियार कर सकता है कि फिर इस शहर में उसी आदमी के जिन्दा बचने की गारंटी होगी जो कि घर से निकलते वक्त साथ में सशस्त्र बाडी गार्ड और खतरनाक कुत्ता रखने की हैसियत रखता होगा ।”
आखिरी शब्द कहते कहते शिव नारायण का चेहरा तमतमा उठा ।
“अपराध होता क्यों है !” - चान्दवानी बोला - “अपराध की तरफ जो पहला कदम उठताहै, उसके लिये क्या हमारी सरकार जिम्मेदार नहीं जो कि अपने नागरिकों की रोटी कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जैसी बुनियादी जरूरियात पूरी नहीं कर सकती ?”
“ये मुद्दा समाजशास्त्रियों के लिए है” - शिव नारायण तनिक झुंझलाकर बोला - “नेता लोगों के लिए है । अपराध विज्ञान विशेषज्ञों के लिए है । समाज सुधारकों के लिए है । अपराध क्यों होता है इसकी सौ वजह हो सकती हैं । कंगाली, भुखमरी, लालच, फिरकापरस्ती, धर्म में अनास्था या धार्मिक उन्माद, ड्रग्स, वायलेंस को बढावा देने वाली फिल्में, सैक्स, एडवेन्चर, पैसे की कमी या पैसे की बहुतायत, धांधली, पोर्नोग्राफी जैसी हजार वजह हो सकती हैं । मेरा मुद्दा अपराध करने वालों से नहीं अपराध झेलने वालों से ताल्लुक रखता है । आपका लड़का स्मैक पीता है तो ये आपकी व्यक्तिगत समस्या है लेकिन अगर वही लड़का अपनी तलब पूरी करने लिए मेरा सिर फोड़ के मेरा बटुवा निकाल लेता है तो ये सिर्फ मेरी नहीं सारी सोसायटी की प्राब्लम है क्योंकि आज जो मेरे साथ हुआ है, वो कल किसी के साथ भी हो सकता है । साहबान, कोई पड़ोसी देश हमारे ऊपर हमला कर दे तो उस वक्त हम ये नहीं सोचेंगे कि उस हमले के पीछे उस बेचारे देश को कोई मजबूरी होगी, उसकी कोई जरूरत होगी वो हमला, बल्कि हम हमले का मुंहतोड़ जवाब देंगे और डटकर उसका मुकाबला करेंगे । साहबान, ऐसा ही हमला अपराधियों की निरन्तर बड़ी होती जा रही एक जमात हमारे हकूक पर, हमारी आजादी पर करती है, इसलिए उसका भी हमने मुंहतोड़ जवाब देना है और डट के मुकाबला करना है, बिना इस बात से हमदर्दी दिखाये कि हमलावर की कोई मजबूरी थी या उसे हमलावर बनाने में हमारे निजाम की किन्हीं कमियों का कोई हाथ था ।”
“हर कोई ऐसा मुकाबला कैसे कर सकता है ?” - आप्टे दबे स्वर में बोला ।
“नहीं कर सकता । हर कोई फौज में भी भरती नहीं हो जाता । जैसे चन्द लोग फौज में भरती होते हैं और सारे मुल्क के मुहाफिज बनते हैं, जैसे ही मैं चाहता हूं कि चन्द लोग तो आगे आयें जो कथित खबरदार शहरी के सबक लेकर जुल्म की मुखालफत कर सकें । चन्द लोग तो ऐसे नमूदार हों जो ‘मुझे क्या, मेरे साथ तो नहीं बीती’ वाली नीयत रखने की जगह इस बात से ताव खायें कि जुल्म हुआ है, जुल्म उनकी आंखों के सामने हुआ है । वे आंखें बन्द रखे नहीं रह सकते । वो मजलूम का पक्ष लिए बिना नहीं रह सकते । तटस्थता दमनकर्ता की सहायता करती है, दमन के शिकार की नहीं । खामोशी अत्याचारी को प्रोत्साहित करती है पीड़ित को नहीं । ऐसी तटस्थता, ऐसी खामोशी पहले से ही जुल्म के शिकार हुए शख्स के साथ और जुल्म है । आयें ऐसे लोग सामने जो दलित और मजलूम का पक्ष लें ।”
“यही हल है आप की निगाह में” - विमल बोला - “बढती हुई क्राइम वेव को रोकने का ?”
“यही या इससे मिलता-जुलता कोई तरीका । लेकिन एक बात अपनी जगह हर हालत में कायम है । अपराधी एक ही जुबान समझता है । सख्ती की । डन्डे को अब ये जुबान चाहे पुलिस बोले, चाहे कोई खबरदार शहरी बोले या चाहे कोई काला चोर बोले ।”
“नारायण साहब अगर आपके सामने दावतनामा हो ओवरकोट ब्रिगेड में शरीक होने का तो आप उसे कबूल फरमायेंगे ?”
शिव नारायण हड़बड़ाया ।
“भई, मैं बूढा आदमी हूं ।” - फिर वो बोला - “ऐसे कामों को तो आप जैसे नौजवान बेहतर अंजाम दे सकते हैं ।”
“जनाब” - विमल तनिक हंसा - “जिस रास्ते की आप पैरवी कर रहे हैं, उस पर आप खुद चलने से कतरा रहे हैं ।”
“माई डियर ब्वाय, जितना अहम काम सही रास्ते पर चलना होता है, उतना ही अहम काम सही रास्ता दिखाना भी होता है । जहाज चलाने में नेवीगेटर का काम जहाज के कप्तान से कम अहम नहीं होता । नेवीगेटर का काम जहाज चलाना नहीं सही रास्ता दिखाना होता है लेकिन जब तक वो अपने काम ठीक से अंजाम नहीं देगा, जहाज ठीक से नहीं चलने वाला ।”
“ये एक फैंसी मिसाल है, जिससे मैं सहमत नहीं । इस वक्त हमारे बीच जो बहस का मुद्दा है, पता नहीं ये उस पर लागू भी होती है या नहीं ।”
“राह दिखाने वाले बहुत मिल जाते हैं” - आप्टे बोला - “लेकिन दिखाई गयी राह पर कोई चलने वाला भी तो होना चाहिये ।”
“ऐग्जैक्टली ।” - विमल बोला - “महात्मा गान्धी ने कौम को आजादी दिलाई तो उसने सिर्फ इतना नहीं कहा था कि वो सामने आजादी की राह है, देशवासियो चल पड़ो उस पर । वो उस राह पर देशवासियों के साथ चला था, उनकी रहनुमाई करता हुआ । उनके साथ लाठी गोली खाता हुआ । हमारे गुरुओं ने... आई मीन सिख गुरुओं ने पहले कुरबानी की मिसाल खुद पेश की थी और फिर ललकारा था अपने अनुयायियों को कुरबानी देने के लिये । गुरु गोविन्द सिंह ने कहा था कि चिड़ियां तों मैं बाज लड़ावां, तां गोविन्द सिंह नां कहांवां । नेलसन मन्डेला सत्ताइस साल जेल में रहने के बाद अपनी कौम का नूरेनजर और इन्टरनेशनल हीरो बना था । नारायण साहब, जैसा आप कह रहे हैं, वो तो किनारे पर बैठकर तूफानी लहरों का नजारा करने जैसा हुआ !”
शिव नारायण बगलें झांकने लगा ।
तभी शुक्ला वहां पहुंचा ।
“भई ये क्या है !” - वो बोला - “यहां अभी तक पहला ही ड्रिंक चल रहा है ।”
“सर” - विमल बोला - “वुई आर एनजाईंग अवरसैल्वस ।”
“आई एम ग्लैड । नाओ, कम आन, बाट्म्स अप । लैट्स हैव ए ड्रिंक टुगैदर ।”
पार्टी आधी रात से भी बाद तक चलने वाली थी लेकिन विमल ‘बीवी बीमार है’ कहकर दस बजे वहां से रुख्सत हो गया ।
किसी सवारी की तलाश में वो पैदल आगे बढा ।
ठण्ड बहुत बढ गयी थी और उस वक्त ओवरकोट में वो बहुत सकून महसूस कर रहा था । अपना लाल चमड़े वाला ब्रीफकेस वो लाया नहीं था और जो ब्रीफकेस वो लाया था उसे वो उस रोज आफिस में छोड़ आया था । उस घड़ी वो खाली हाथ था और ओवरकोट की जेबों में हाथ धंसाये तनहा, नीमअन्धेरी सड़क पर अकेला चला जा रहा था ।
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