देवराज चौहान दो दिन से गुस्से से भरा घूम रहा था। कठोर चेहरा आंखों में दरिंदगी। ना ठीक से खाया ना ठीक से नींद ले पाया था। उसे सबसे ज्यादा जगमोहन की चिंता थी कि भंडारे ने, उन लोगों ने जगमोहन के साथ क्या किया होगा। भंडारे के फोन पर बेल जा रही थी, परन्तु वो कॉल रिसीव नहीं कर रहा था। जबकि बाबू भाई ने अपना मोबाइल बंद कर रखा था।

भंडारे, मोहन्ती, पाण्डे और कैंडी के चेहरे आंखों के सामने घूम रहे थे।

सबने मिलकर उसे धोखा दिया।

ये सारा जाल उन्होंने पहले ही फैला रखा था, परन्तु वो कुछ ना भांप पाया।

सबसे बड़ा धोखा तो उसे ये दिया गया कि वागले रमाकांत के बदले उसे विक्रम मदावत का नाम बताया गया। कहा गया वागले रमाकांत का इस सारे मामले से कोई मतलब नहीं, जबकि अशोक गानोरकर 180 करोड़ की रकम वागले रमाकांत को दे रहा था। वहां वागले रमाकांत के आदमी मौजूद थे और वागले रमाकांत का खास आदमी उदय लोहरा वहां पर चक्कर लगा रहा था, परन्तु पूछने पर भंडारे और बाबू भाई ने उसे धोखे में रखा कि वागले रमाकांत का इस मामले से कोई वास्ता नहीं।

अब देवराज चौहान मालूम कर चुका था कि ये मामला वागले रमाकांत का था। 180 करोड़ वागले रमाकांत का था। ये बात देवराज चौहान का दिमाग खराब करने के लिए काफी थी। उसे धोखे पर धोखा दिया गया। वो वागले रमाकांत के मामले में दखल देने का इरादा नहीं रखता था, परन्तु धोखे में रहकर ऐसा हो गया।

देवराज चौहान को बाबूभाई, जगदीप भंडारे, मोहन्ती, कैंडी और पाण्डे की तलाश थी।

दो दिनों से इनकी तलाश में भागा फिर रहा था।

वो जानता था कि वागले रमाकांत को उसके बारे में पता चल गया होगा और उसे तलाश करवा रहा होगा। यही वजह थी कि वो अपने बंगले पर नहीं गया था। उसके बंगले के बारे में वागले रमाकांत जानता था। ऐसे में वो एक मध्यम दर्जे के होटल में टिका हुआ था और सुबह निकल जाता फिर रात गए वापस लौटता।

भंडारे के फ्लैट पर गया, परन्तु फ्लैट बंद था और भंडारे वहां नहीं था। ताला खोलकर भीतर जाकर भी देखा। आसपास के लोगों से पूछा तो पता चला वो कई दिनों से अपने फ्लैट में नहीं आया।

किसी-ना-किसी का हाथ लगना बहुत जरूरी था।

जगमोहन की जानकारी चाहिए थी उसे। 180 करोड़ के बारे में तो वो सोच ही नहीं रहा था।

वो जानता था कि बाबू भाई के फ्लैट पर कोई नहीं मिलेगा, परन्तु कोई और रास्ता ना पाकर वो बाबू भाई के फ्लैट पर आ पहुंचा था। उसने 'की-होल' में तार घुमाकर दरवाजे का ताला खोला और भीतर प्रवेश कर गया। दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। सामने ही वो ड्राइंगरूम था जहां बैठकर 180 करोड़ पर हाथ मारने की प्लानिंग की थी।

देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

पूरा फ्लैट घूमा, परन्तु वहां कोई भी नहीं था।

देवराज चौहान कमरों में रखे सामान, कागजों को चैक करने लगा। उसे ऐसा कुछ चाहिए था कि बाबू भाई या भंडारे के बारे में कोई खबर मिल सके। उन लोगों ने उसे धोखा देने का प्लान बना रखा था। दो प्लान एक साथ काम कर रहे थे। एक प्लान उसका था कि कब 180 करोड़ हाथ में आएं और दूसरा प्लान बाबू भाई और भंडारे का था कि जब उसका प्लान खत्म हो तो उसे धोखा देने के लिए अपना प्लान इस्तेमाल करें। ऐसा ही किया उन्होंने और वो पूरी तरह कामयाब रहे। लेकिन देवराज चौहान को जगमोहन की चिंता थी, नोटों की नहीं।

तभी फ्लैट में रखा फोन बज उठा।

देवराज चौहान ठिठका। होंठों में कसाव बढ़ गया। वो कमरे से निकलकर ड्राइंग रूम में पहुंचा, जहां फोन रखा था। फोन अभी भी बज रहा था। देवराज चौहान ने रिसीवर उठाया और धीमे स्वर में बोला---

"हैलो...।"

"बाबू भाई तुम हो...?" उधर से आवाज आई।

देवराज चौहान ने मोहन्ती की आवाज को पहचाना। चेहरे पर कठोरता आ गई।

"हूं।" इतना ही निकला देवराज चौहान के होंठों से।

"तुमने बहुत गलत पंगा ले लिया है बाबू भाई!" मोहन्ती का दांत किटकिटाता स्वर कानों में पड़ा--- "हमें धोखा देकर तुम बचने वाले नहीं। भंडारे भी नहीं बचेगा, चाहे वो जहां भी छिप जाए। सीधी तरह से हमें बारह-बारह करोड़ दे दो वरना तुम और भंडारे जिंदा नहीं बचोगे। कैंडी और पाण्डे मेरे साथ ही हैं। हमें हमारा पैसा ना मिला तो तुम दोनों को ढूंढकर खत्म कर देंगे। हमें धोखा देने से पहले सोच लेना चाहिए था कि हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। बोल हमारा पैसा देता है कि नहीं? अपना मोबाइल बंद करके तू बच नहीं सकता। हरामजादा भंडारे तो हमारा फोन ही नहीं उठा रहा। उठा लेता है तो काट देता है। हमसे दुश्मनी तुम लोगों को बहुत महंगी पड़ेगी। बारह-बारह करोड़ हमारे हवाले कर दे बाबू भाई! ऐसे धंधे में धोखा नहीं चलता।"

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी। माथे पर बल पड़े।

"चुप रहने से काम नहीं चलेगा। हमारा माल दे दे वरना जान से जाओगे तुम दोनों।" इस बार मोहन्ती की आवाज में गुर्राहट थी।

"मोहन्ती!" देवराज चौहान शांत स्वर में बोला।

दो पल तो मोहन्ती की आवाज नहीं आई, फिर अजीब-सा स्वर आया---

"क...कौन?"

"मैं देवराज चौहान हूं मोहन्ती।"

मोहन्ती के गहरी सांस लेने की आवाज आई।

"तुम... तुम वहां क्या कर रहे हो?" मोहन्ती का तेज स्वर कानों में पड़ा।

"बाबू भाई को ढूंढ रहा हूं।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा।

मोहन्ती की आवाज नहीं आई।

"तुम लोगों ने मुझे धोखा दिया।" देवराज चौहान बोला।

"हमने नहीं भंडारे ने। ये भंडारे की योजना थी। हम तो नौकर थे। उसने हमें दस करोड़ का बारह करोड़ देने को कहा तो हम तैयार हो गए। परन्तु भंडारे ने हमें भी धोखा दिया। वो सारे पैसे लेकर भाग गया। हमारा कोई कसूर नहीं है, हम...।"

"तुम तीनों ने भंडारे के साथ मिलकर मुझे धोखा दिया। जगमोहन कहां है?"

"जगमोहन? वो, उसे तो भंडारे ने रास्ते में अपने आदमियों के हवाले कर दिया था। भंडारे ने धोखा देने की सारी योजना बना रखी थी। तब जगमोहन बेहोश था, जब उसे भंडारे के आदमियों के हवाले किया गया।"

"रास्ते में?"

"हां, रास्ते में...।"

"वो कौन थे जो जगमोहन को ले गए?"

"भंडारे के आदमी थे।"

"तुम लोग उन्हें जानते...।"

"हम नहीं जानते। हमने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था।"

"उनकी गाड़ी की याद है वो कैसी थी?"

"पुरानी इण्डिका थी। वो कम-से-कम तीन तो थे ही। दो बाहर आकर जगमोहन को ले गए। एक भीतर बैठा दिख रहा था। हमारी इसमें कोई गलती नहीं थी। सब भंडारे का किया-धरा है। उसने हमें भी धोखा दिया। हमें हिस्सा देने के बहाने सामने की दुकान से सूटकेस लेने भेज दिया और खुद नोटों के साथ खिसक...।"

"जगमोहन को लेकर उसका क्या इरादा था?" देवराज चौहान ने दांत भींचकर पूछा।

"मेरे ख्याल में वो जगमोहन को कैद में रखे होगा। ऐसा ना करना होता तो वो एंबूलेंस में ही जगमोहन को खत्म कर देता।"

देवराज चौहान के दांत भिंचे रहे।

"भंडारे या बाबू भाई कहां हैं?"

"हम उन्हें ही ढूंढ रहे हैं। अभी तक तो उनकी कोई खबर नहीं मिली। मैं कुछ कहूं देवराज चौहान।"

"क्या?"

"तुम्हें भी उनकी तलाश है, हम तीनों को भी उनकी तलाश है, बेहतर होगा हम लोग मिलकर उन्हें ढूंढे। इस तरह...।"

"मुझे धोखा देने में तुम लोग भी शामिल थे। भंडारे के...।"

"भंडारे ने हमें भी तो धोखा...।"

"तुम लोगों ने भंडारे के साथ मिलकर पहले मुझे धोखा दिया। मेरे लिए तुम लोग भी उतने ही दोषी हो जितने कि भंडारे और बाबू भाई...।"

"ये बात है तो हम अलग ही ठीक हैं।" मोहन्ती ने उधर से कड़वे स्वर में कहा।

"अगर तुम मुझे जगमोहन के बारे में खबर दो तो मैं बीती बातें भूल सकता हूं।"

"हमें नहीं मालूम जगमोहन कहां है?"

"भंडारे और बाबू भाई की भी कोई खबर नहीं?"

"नहीं, हम तो खुद ही उन्हें ढूंढ...।"

देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया। इनके पास उसके काम की कोई बात नहीं थी। उसके बाद देवराज चौहान ने बाबू भाई के पूरे फ्लैट की तलाशी ली। एक-एक कागज को छाना।

दो घंटे लग गए।

अंत में एक ही कागज पर उसकी निगाह रुकी थी। वो कोई रसीद थी। जिस पर कई साल पहले की तारीख पड़ी थी। कॉटेज के किराए पर लेने की रसीद थी। मुंबई के समुद्र किनारे पर ही वो कॉटेज थी। रसीद पर बाबू भाई का नाम लिखा हुआ था। देवराज चौहान ने रसीद जेब में डाली और बाबू भाई के फ्लैट से बाहर निकल गया।

■■■

रत्ना की हालत दो दिन से अजीब-सी थी।

उसे तो पूरा यकीन था कि भंडारे इस काम में अपनी जान गंवा बैठेगा। परन्तु वो जिंदा था और सबको झटका देकर 180 करोड़ पर अपना कब्जा जमाए बैठा था, जबकि वो तो भंडारे के मारे जाने की खबर के बारे में इंतजार कर रही थी कि उसके मरने की खबर आए तो उसके चौबीस करोड़ पर अपना कब्जा जमाए और सदाशिव जैसे खूबसूरत युवक के साथ ऐश करे।

परन्तु अब तो सारा मामला ही उल्टा पड़ गया था।

परसों शाम उसका मोबाइल बजा तो सोचा कोई भंडारे की मौत की खबर देगा।

परन्तु फोन पर भंडारे की आवाज सुनकर ठगी-सी रह गई थी। ये सुनकर तो उसे और भी अजीब लगा कि भंडारे की हर योजना कामयाब रही थी और 180 करोड़ को सिर्फ वो ले उड़ा था।

अपनी खैर-खबर देकर भंडारे ने फोन बंद कर दिया था। परन्तु इतने में रत्ना का चैन छिन चुका था कि भंडारे जिंदा है। परसों शाम से लेकर अब तक बौखलाई-सी घूम रही थी। सदाशिव का फोन कई बार आया, परन्तु उसने ठीक से बात नहीं की थी। रत्ना की सारी प्लानिंग फेल हो गई थी। कल भी भंडारे का फोन आया था और उसका हालचाल पूछा था। रत्ना को अब भंडारे जहर जैसा लग रहा था। उसे तो भंडारे के 24 करोड़ और सदाशिव का साथ चाहिए था। इससे ज्यादा ना सोच रही थी रत्ना।

इस समय रत्ना बैड पर आंखें खोले लेटी थी कि उसका मोबाइल बजने लगा।

"हैलो।" रत्ना ने बात की।

"मैं हूं, तुम्हारा हीरो।" भंडारे की मुस्कुराती आवाज कानों में पड़ी।

"हीरो! तूने तो मेरी नींद ही उड़ा दी है।" रत्ना ने गहरी सांस ली।

"क्यों?"

"मुझे तो अभी तक यकीन नहीं आ रहा कि तूने सबकुछ कर डाला है।"

"भंडारे ने कभी हार नहीं मानी।"

"वो तो देख ही लिया है।" रत्ना ने फिर गहरी सांस ली--- "कितने दुश्मन बनाए तूने।"

उधर से भंडारे के हंसने की आवाज आई।

"बोल हीरो...।"

"देवराज चौहान, पाण्डे, कैंडी, मोहन्ती सबको झटका दे दिया।"

"वो अब तेरे को ढूंढ रहे होंगे।"

"मुझ तक कोई नहीं पहुंच सकता।"

"है कहां हीरो, उसी गैराज में?"

"हां। तूने तो वो जगह देख रखी है। सब नोट वहीं है एंबूलेंस में। देख-देखकर बहुत मजा आ रहा है।"

"मुझे तो विश्वास नहीं आता कि 180 करोड़ तेरे पास हैं।"

"180 नहीं, 160 करोड़। बीस करोड़ बाबू भाई को दे दिए। उससे मैं बेईमान नहीं कर सकता।"

"वो जानता है तू कहां है?"

"नहीं। तेरे अलावा किसी को नहीं पता।"

"तो अब क्या करना है?" रत्ना के चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।

"मौका देखकर मुंबई से निकल चलना है।"

"अकेले ही?"

"तेरे बिना नहीं जाने वाला मैं। हम दोनों चलेंगे। शादी करेंगे और जिंदगी भर नोटों से मजे करेंगे।"

"तेरे मुंह में घी-शक्कर।" रत्ना ने कहा।

"अभी कुछ दिन मुझे इसी तरह रहना होगा। वागले रमाकांत भी सबकी तलाश में होगा। खतरा तो है ही।"

"उसे तेरे बारे में पता चल गया होगा?"

"कह नहीं सकता। वैसे वागले रमाकांत की निगाहों से कुछ बच पाना कठिन है।"

रत्ना के चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।

"मैं बताऊं हीरो कि तेरे को अब क्या करना चाहिए...।"

"बता...।"

"गैराज में एक और बड़ी गाड़ी ले आ। नोटों को उस गाड़ी में रखना शुरु कर दे। ताकि जब मुंबई से निकलना हो तो आसानी से निकल सके। उस एंबूलेंस के बारे में तो वागले रमाकांत को भी जानकारी मिल सकती है।"

"दिमाग चलता है तेरा...।"

"दस सालों से तेरे साथ हूं तो ऐसी बातों को क्यों ना समझूंगी।" रत्ना बोली।

"वैसे ये बात मैंने भी सोच रखी है। शिंदे को फोन करके ऐसी बड़ी गाड़ी का इंतजाम करने को कहा है।"

"तेरे को शिंदे से बात नहीं करनी चाहिए थी। खुद ही चुपचाप सारा इंतजाम करता।"

"मेरा खुले में घूमना खतरे से खाली नहीं। शिंदे को पांच करोड़ का लालच दिया है। वो आसानी से बड़ी वैन का इंतजाम कर देगा और ठीक वक्त देखकर वैन को मैं गैराज पर ले आऊंगा। ये काम धीमे-धीमे और संभलकर करना पड़ेगा।"

"अपना ख्याल रखना हीरो। तेरे सिवाय मेरा कोई नहीं है दुनिया में।" रत्ना ने प्यार से कहा।

"हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं।"

बातें खत्म हो गईं। फोन कट गया।

रत्ना ने सदाशिव को फोन किया। उसकी आवाज सुनते ही सदाशिव ने नाराजगी से कहा---

"तू दो दिन से मेरे से ठीक बात नहीं कर...।"

"नाराज क्यों होता है हीरो।" रत्ना ने प्यार से कहा--- "मैं कुछ परेशान थी।"

"मुझे बता क्या परेशानी...।"

"भंडारे अपनी कोशिश में कामयाब हो गया है।"

"ओह। वो मरा नहीं।"

"जिंदा है कमीना। जानता है, इस वक्त उसके पास कितना पैसा है?"

"कितना?"

"एक सौ साठ करोड़...।"

"क...क्या, एक सौ साठ करोड़...?" उधर से सदाशिव हक्का-बक्का रह गया।

"यकीन नहीं आया?"

"न...हीं...।"

"मैंने सच कहा है, यकीन कर ले...।"

"वो जिंदा है तो फिर हमारा क्या होगा। हम तो उसके चौबीस करोड़ लेकर...।"

"जानता है वो एक सौ साठ करोड़ किसका है? तेरा-मेरा है वो। ऊपर वाले ने भंडारे को हमारी सेवा करने को बनाया है।"

"हमारा...? हमारा है वो एक सौ साठ करोड़...।"

"पूरा हमारा है। अगर तू हिम्मत लगा कर मेरा साथ दे तो...।"

"म... मैं तो तेरे साथ हूं रत्ना। एक सौ साठ करोड़ से तो कई फिल्में बन...।"

"मेरे सामने फिल्मों की बात मत किया कर। ये धंधा मेरी समझ से बाहर है। करोड़ों रुपया खर्च हो जाता है और हाथ में 'रील' की डिब्बे ही लगते हैं। खाने को रोटी नहीं बचती और...।"

"एक फिल्म भी हिट हो गई तो...।"

"अपने पैसे से फिल्म नहीं बनाएंगे हम।" रत्ना ने तीखे स्वर में कहा--- "जिंदगी भर मौज-मस्ती करेंगे हम।"

सदाशिव के गहरी सांस लेने की आवाज आई।

"हीरो...!" एकाएक रत्ना प्यार से कह उठी--- "तू तो किस्मत वाला है कि इतने नोटों के साथ मैं तेरी गोद में बैठने को तैयार हूं। सारी उम्र तेरे को खिलाऊंगी। तेरी किस्मत में फिल्में नहीं, मैं हूं, नोट हैं, मजे हैं। ऐश है, मस्ती है, समझा क्या?"

"समझ गया। ये भी बुरा नहीं। तेरे लिए तो मैं पागल हूं। तू क्या कह रही थी कि सारा पैसा हमारा है। मैं समझा नहीं।"

"भंडारे इस वक्त अकेला है। उसने अपने सब साथियों से दुश्मनी मोल ले ली है।"

"तो?"

"वो मुझ पर पूरा भरोसा करता है। सब बताता है मुझे, तू तो जानता ही है। मुझे ये भी पता है कि इस वक्त वो 160 करोड़ के नोटों के साथ कहां छुपा हुआ है। वो जगह मैंने और भंडारे ने मिलकर ही साफ की थी। इन सब बातों में खास बात सिर्फ ये है कि भंडारे अकेला है। बिल्कुल अकेला और उसे मुझ पर भरोसा है। जबकि मुझे तुम पर भरोसा है हीरो! समझा क्या?"

"समझाती रह...।"

"हम सारे पैसे पर कब्जा कर सकते हैं। अगर तू हिम्मत से मेरा साथ दे।"

"क्या करना होगा मुझे...?"

"इस बारे में तुझे सोचकर बताऊंगी।" रत्ना ने होंठ सिकोड़कर कहा--- "तू मेरा साथ देने को तैयार है ना?"

"तैयार हूं। तू कहे और मैं कैसे ना तैयार होऊं? हमें मिलकर बात करनी चाहिए। मैं तेरे पास आता हूं, वो काम भी हो जाएगा।"

"अभी मेरे पास मत आना।"

"क्यों?"

"भंडारे को तेरी जरा भी हवा लग गई तो सबकुछ गड़बड़ हो जाएगा।"

"भंडारे यहां किधर है। वो तो नोटों के पास हिल भी नहीं रहा होगा।"

"उसका कुछ पता नहीं चलता, कब आ जाए मेरे पास मत आना। मैं तुमसे मिलने का जल्दी प्रोग्राम बनाऊंगी।"

"पक्का?"

"सच मान ले।" रत्ना ने बड़े प्यार से कहा।

■■■

वागले रमाकांत ने सिगरेट सुलगाई और सामने खड़े उदय लोहरा को देखा।

उदय लोहरा कह उठा---

"वागले साहब। रिसेप्शन के पीछे सी•सी•टी•वी• कैमरा लगा था। पहले अम्बेलाल को इस बारे में बताना याद नहीं रहा था। आज सुबह उसने फोन करके बताया तो वो सी•सी•टी•वी• की कैसेट उसने मेरे पास पहुंचा दी। मैंने वो देखी। छः लोगों ने इस काम को किया है। तीन लोगों को मेरे आदमियों ने पहचाना है। एक जगदीप भंडारे है, दूसरा मोहन्ती और तीसरा नाम आपके बहुत काम का है क्योंकि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। वही देवराज चौहान जो कुछ दिन पहले...।"

"देवराज चौहान, इस मामले में?" वागले रमाकांत की आंखें सिकुड़ गईं--- "ये नहीं हो सकता। वो इतना बेवकूफ नहीं है कि मेरे मामले में हाथ डाले, जबकि कुछ दिन पहले उसकी मेरी बात हुई थी।"

"मैंने सही कहा है वागले साहब...!" उदय लोहरा ने संभले स्वर में कहा।

"मैं सी•सी•टी•वी• कैमरे की फिल्म देखना चाहूंगा।"

"मैं यहीं मंगवा लेता हूं उस फिल्म को।"

"बलबीर सैनी मिला?"

"उसकी तलाश जारी है। वो पदम गोसावी से खबर लेकर, देवराज चौहान तक पहुंचा रहा था। पदम गोसावी को तो हमने उसके किए की सजा दे दी। सी•सी•टी•वी• कैमरे की फिल्म में ये बात स्पष्ट हो रही है कि ये मामला देवराज चौहान ही संभाले हुए था।"

"हैरानी हो रही है मुझे...।" रमाकांत वागले ने कठोर स्वर में कहा--- "देवराज चौहान ने इतनी हिम्मत कैसे दिखा दी। यकीन नहीं आता।"

"दाऊद मैनशन में एंबूलेंस में वो सारे रुपए डालकर ले जाए गए हैं। गत्ते के बक्सों को एंबूलेंस में डालते वहां कई लोगों ने देखा। परन्तु हमें अभी तक उस तरह की एंबूलेंस के देखे जाने की कोई खबर नहीं मिली। वो इस वक्त किसी सुरक्षित जगह छिपा रखी है। हमारे आदमी मुंबई का एक-एक कोना छान रहे हैं एंबूलेंस के लिए।"

"देवराज चौहान के अलावा जगदीप भंडारे और मोहन्ती की पहचान हुई।"

"जी वागले साहब। देवराज चौहान का बंगला खाली है, वहां कोई भी नहीं मिला। हमारे आदमी बंगले पर नजर रखे हुए हैं, परन्तु लगता नहीं कि देवराज चौहान वहां आएगा। वो जानता है कि हम उसका बंगला जानते हैं।"

"बाकी दोनों कौन हैं?"

"जगदीप भंडारे लूट और छोटी-छोटी डकैतियां करता है। मोहन्ती भी ऐसे ही काम करता है। स्पष्ट है कि देवराज चौहान ने इस काम के लिए इन लोगों को अपने साथ मिलाया। सारा काम प्लानिंग के साथ किया गया है।"

"मैंने तुम्हें कहा था लोहरा के पैसों पर सुरक्षा बिठा दो। परन्तु तुमने मना कर दिया कि...।"

"मैं सोच भी नहीं सकता था कि कोई हमारे पैसे पर हाथ डालने की हिम्मत कर सकता...।"

उदय लोहरा का फोन बज उठा।

"हैलो।" उसने बात की।

"लोहरा साहब! बलवीर सैनी की लाश मिली है आधा घंटा पहले।" उधर से आवाज आई।

"ओह...!"

"एक गली में उसे चाकू से मारा गया है।"

उदय लोहरा ने गहरी सांस ली।

"जगदीप भंडारे के बारे में खबर लगी कि वो बाबू भाई के साथ मिलकर काम करता था। बाबू भाई प्लान करता था और वो फील्ड में काम करता था। बाबू भाई के फ्लैट का पता चल गया है। मैंने आदमी वहां भेजे हैं।"

"ठीक किया। अगर वहां कोई ना मिले तो तो दो आदमी वहीं छोड़ देना।" उदय लोहरा ने कहकर फोन बंद किया और वागले रमाकांत से कहा--- "उन लोगों ने बलबीर सैनी को मार दिया है। ताकि वो हमारे हाथ लगकर हमें सबकुछ ना बता दे। देवराज चौहान बहुत ही सोच-समझकर सारे काम कर रहा है। ये उसकी हिम्मत थी कि उसने हमारे पैसों पर हाथ डाला। कोई और इतनी बड़ी हिम्मत नहीं कर पाता। मेरे ख्याल में देवराज चौहान ने जानबूझकर हमारे पैसों पर हाथ डाला है। वो आपको बताना चाहता था कि वो किसी से नहीं डरता। आपको तब ही उसे खत्म कर देना चाहिए था, जब वो कुछ दिन पहले हाथ लगा था।"

वागले रमाकांत की गम्भीर निगाह उदय लोहरा के चेहरे पर थी।

"ये बहुत बड़ी रकम का मामला है। एक सौ अस्सी करोड़ की रकम। एक सौ अस्सी करोड़ ले उड़ा है देवराज चौहान।" उदय लोहरा के दांत भिंच गए--- "हद कर ली देवराज चौहान ने। हमसे टक्कर लेता है।"

"देवराज चौहान को ढूंढो...।" वागले रमाकांत शांत था।

"हमारे आदमी हर जगह उसे ढूंढ रहे हैं। वो बच नहीं सकता, जल्द ही...।"

उसी पल मोबाइल पुनः बज उठा।

"कहो...।" उदय लोहरा ने बात की।

"लोहरा साहब। बाकी लोगों की भी पहचान हो गई है।" दूसरी तरफ बंसल था--- "उनमें से एक देवराज चौहान का ही साथी जगमोहन है। एक जैकब कैंडी है, एक कृष्णा पाण्डे है। जैकब कैंडी, कृष्णा पाण्डे और मोहन्ती लूट चोरी का काम करते हैं।"

"इन्हें ढूंढो...।"

"आदमी भेजे हैं। देवराज चौहान का बंगला तो खाली है। वहां वो नहीं आया।"

"नजर रखते रहो।" कहकर लोहरा ने फोन बंद किया और वागले रमाकांत को सब कुछ बताया।

"देवराज चौहान को ढूंढो लोहरा।" वागले रमाकांत ने कठोर स्वर में कहा--- "मुझे अपना सारा पैसा वापस चाहिए और देवराज चौहान चाहिए। जिंदा या मुर्दा। उसे अब भुगतना पड़ेगा। पुलिस इस मामले में आई क्या?"

"नहीं। मैंने खबर बाहर नहीं जाने दी कि क्या हुआ है।"

"ये ठीक रहा।" वागले रमाकांत ने सिर हिलाया--- "सारे काम छोड़ दो। पैसा और देवराज चौहान को ढूंढो। हो सके तो देवराज चौहान को मारने से पहले मेरी उससे एक मुलाकात करा देना।" उसकी आंखों में क्रोध आ गया था।

"जरूर। मैं अभी बंसल को ये बात कह देता हूं।" उदय लोहरा ने सिर हिलाया।

"इन सब लोगों को तलाश करो। इन्हें खत्म करने से पहले ये जान लो कि ये मामला कैसे शुरू हुआ था। मुझे सब कुछ जान लेना है।" वागले रमाकांत एक-एक शब्द चबाकर बोला--- "देवराज चौहान से मैं एक बार जरूर मिलना चाहूंगा। मुझे नहीं मालूम था कि इतना बड़ा डकैती मास्टर इतना बेवकूफ है कि मेरे पैसे पर हाथ डाल देगा। एक ही तालाब में रहकर पंगा खड़ा कर दिया। उसे ढूंढ लोहरा।"

■■■

देवराज चौहान समुद्र किनारे बनी उस कॉटेजों के पास पहुंचा, जहां की स्लिप उस बाबू भाई के फ्लैट से मिली थी। स्लिप पर कई साल पहले की तारीख थी। उस पर बाबू भाई का नाम लिखा था और जितनी पेमेंट दी गई, वो लिखा था। देवराज चौहान चैक करने यहां आ गया था कि बाबू भाई यहां की किसी कॉलेज में तो नहीं?

देवराज चौहान को बाबू भाई या भंडारे की तलाश थी।

ऐसे में इनकी तलाश में कहीं भी जाने को से परहेज नहीं था। वो कहीं भी मिल सकते थे या फिर कहीं नहीं मिलते। मुंबई से बाहर खिसक गए भी हो सकते थे। वो कहीं भी हो, देवराज चौहान को चैन नहीं था, जब तक कि ये दोनों मिल नहीं मिल जाते। सबसे पहले वो जगमोहन को सही-सलामत वापस चाहता था। जगमोहन मिल गया तो फिर बाबू भाई और भंडारे को सबक सिखाना जरूरी था। वो धोखेबाजी नहीं पसंद करता था। कोई ऐसा कर दे दो उसे छोड़ता नहीं था।

देवराज चौहान कॉटेजों के ऑफिस में पहुंचा जो कि एक तरफ बनी एक मंजिला इमारत थी।

पुराना-सा रिसेप्शन रूम था। ऊपर लटकता पंखा मध्यम गति से चल रहा था। 55-60 बरस का एक बूढ़ा-सा लगने वाला व्यक्ति बैठा था उसकी शेव बढ़ी हुई थी, आंखों पर चश्मा था।

"कहिए साहब।" देवराज चौहान के पास पहुंचते ही वो बोला--- "कॉटेज चाहिए?"

"मेरा दोस्त इन कॉटेजों में से किसी में ठहरा है। मैं उसकी कॉटेज का नंबर भूल गया हूं।"

"तो परेशानी क्या। आजकल मोबाइल का जमाना है। फोन करो और पूछ लो।"

"उसका फोन नहीं मिल रहा। चार्जिंग खत्म हो गई लगती है।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "रजिस्टर देखकर आप उसके बारे में बता दीजिए। दो दिन पहले ही वो यहां आया है।"

"कुछ नाम-वाम भी तो होगा उसका?" उसने चश्मा ठीक करते हुए कहा।

"बाबू भाई...।"

उसने इस तरह रजिस्टर अपनी तरफ सरकाकर खोला जैसे ये काम करने में बहुत परेशानी हो रही हो। फिर पन्ने पलटने लगा। एक पन्ने पर वो रुका और फिर सिर हिलाकर बोला---

"परसों दोपहर बाद आया था मिस्टर बाबू भाई! उनतीस नंबर कॉटेज में ठहरा है।"

देवराज चौहान का दिल जोरों से धड़का।

आंखों में चमक आ गई।

परन्तु चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं आया। वो सिर्फ मुस्कुराया। बोला---

"शुक्रिया...।"

उसने रजिस्टर बंद करके एक तरफ धकेल दिया।

देवराज चौहान उस ऑफिस से बाहर आ गया। तीखी धूप पड़ रही थी। परन्तु देवराज चौहान को सर्दी-गर्मी का एहसास नहीं था। उसकी आंखों के सामने बाबू भाई का चेहरा घूम रहा था।

शायद भंडारे भी वहां हो।

इस सोच के साथ उसके शरीर में अजीब-सी अंगड़ाई उठी।

देवराज चौहान कॉटेजों की तरफ बढ़ चुका था। कॉटेजों के पास पहुंचकर उस पर लिखे नंबरों को पढ़ते वो आगे बढ़ता रहा। उनतीस नंबर कॉटेज की तलाश थी उसे, जो कि जल्दी ही मिल गई। कॉटेजों की कतार के बीच में वो कॉटेज थी। इस गर्म दोपहरी में वहां शांति छाई हुई थी। कुछ कॉटेजों के बाहर कारें खड़ी थीं।

उनतीस नंबर की कॉटेज के बाहर खड़ी कार को देवराज चौहान पहचान गया।

वो बाबू भाई की कार थी।

देवराज चौहान की आंखों में खतरनाक भाव मचल उठे। वो कॉटेज के दरवाजे के करीब पहुंचा और कॉलबेल बजाई।

भीतर बजती बेल का स्वर बाहर तक सुनाई दिया।

देवराज चौहान ने दायां हाथ जेब में डाला और उंगलियां वहां मौजूद रिवाल्वर के गिर्द कस गईं।

भीतर से कोई आहट नहीं उभरी। शांति रही।

मिनट भर के इंतजार के बाद देवराज चौहान ने पुनः बेल बजाई।

भीतर से बेल बजने का स्वर पुनः बाहर तक आया।

तभी भीतर से, दरवाजे के पास से बाबू भाई का स्वर उभरा---

"कौन?"

देवराज चौहान ने बाबू भाई की आवाज को स्पष्ट पहचाना। चेहरे पर कसाव आ गया।

"देवराज चौहान।" देवराज चौहान ने बेहद शांत स्वर में कहा।

इसके बाद गहरी खामोशी छा गई।

भीतर से कोई आवाज नहीं आई। पल सरकने लगे।

"मैं दरवाजा तोड़ने जा रहा हूं।" देवराज चौहान ने कुछ ऊंचे स्वर में कहा।

अगले ही पल भीतर से दरवाजा खोले जाने की आहट मिली।

दरवाजा जरा-सा खुला।

रिवाल्वर पर सख्ती से उंगलियां लपेटे देवराज चौहान ने दरवाजे के पल्ले को दूसरे हाथ से धकेला तो वो खुल गया। चार कदमों के फासले पर बाबू भाई खड़ा था। हाथ में रिवाल्वर थी, परन्तु रिवाल्वर वाला हाथ नीचे लटका हुआ था। वो एकटक देवराज चौहान को देख रहा था। चेहरे पर किसी भी तरह की रौनक नहीं थी।

दोनों की नजरें मिलीं।

अजीब-सी मुस्कान देवराज चौहान के चेहरे पर आ ठहरी।

"कैसे हो बाबू भाई?" देवराज चौहान वहीं खड़े बोला।

बाबू भाई खामोश-सा उसे देखता रहा।

"भंडारे भी अंदर है?"

बाबू भाई की गर्दन इंकार में हिली।

देवराज चौहान ने कदम उठाया और रिवाल्वर निकालते हुए सावधानी से भीतर आया। नजरें हर तरफ घूमीं, परन्तु बाबू भाई के अलावा उस कमरे में कोई नहीं दिखा।

वैसे ही खड़ा बाबू भाई उसे देखे जा रहा था।

"सच में यहां तुम्हारे अलावा कोई नहीं है?" देवराज चौहान ने पूछा।

बाबू भाई की गर्दन इंकार में हिली।

देवराज चौहान ने पलटकर दरवाजा बंद किया और बाबू भाई को देखा। उसके हाथ में पकड़ी रिवाल्वर को देखा।

"तुमने तो सोचा भी नहीं होगा कि मैं यहां पहुंच जाऊंगा। तुम्हें ढूंढ लूंगा।"

"मुझ तक कैसे पहुंचे?" बाबू भाई ने फीके स्वर में पूछा।

देवराज चौहान ने जेब से कॉटेजों की पुरानी स्लिप निकाली और उसे थमाकर कहा---

"ये तुम्हारे फ्लैट से मिला तो महज चांस लेने की खातिर यहां आ गया।"

बाबू भाई ने स्लिप देखने के बाद नीचे गिरा दी। फिर पलटा और बेजान-सी हो रही टांगों से आगे बढ़ा और रिवाल्वर को टी•वी• के पास टेबल पर रख दिया और कुर्सी पर जा बैठा। देवराज चौहान ने रिवाल्वर जेब में डाली।

"तुम्हें यहां अपने नाम से नहीं ठहरना चाहिए था। तब शायद मैं तुम तक ना पहुंच पाता।" देवराज चौहान ने कहा और सिगरेट सुलगा ली।

बाबू भाई के चेहरे पर बेचैनी घर करने लगी थी।

देवराज चौहान कुर्सी पर बैठता कह उठा---

"भंडारे कहां है?"

"मैं नहीं जानता।"

तभी देवराज चौहान उठा और सूटकेसों और बैग की तरफ बढ़ गया।

उन्हें खोलकर देखा। भीतर पड़ी नोटों की गड्डियां चमक रही थीं। देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीरता आ गई। वो वापस कुर्सी पर आ बैठा और कश लिया। बाबू भाई उसे ही देख रहा था।

"भंडारे से मुलाकात हुई बाबू भाई?" देवराज चौहान ने पूछा।

"वो आया था कुछ घंटे पहले। ये रुपया दे गया।" बाबू भाई को अपने स्वर में खोखलापन महसूस हो रहा था।

"तो उसे पता है कि तुम यहां हो?"

"मैंने तो यही सोचा था कि उसे नहीं पता। पर उसे पता था कि मैं यहां हो सकता हूं।"

"वो कहां है तुम्हें नहीं मालूम?"

"सच में नहीं मालूम। मैंने पूछा नहीं। उसने बताया नहीं। वो मुंबई से बाहर जाने का मौका देख रहा है।"

"नोटों के साथ?"

"हां।"

"मुझसे धोखेबाजी करने का प्लान तुमने बनाया?" देवराज चौहान शांत लहजे में बोला।

"नहीं, मैंने नहीं, भंडारे ने बनाया। ये सारा प्लान उसी का था। मेरे को तो एक रात पहले पता चला।"

"एक रात पहले?"

"हां। काम के दिन से एक रात पहले वो रात बारह बजे के करीब मुझे यही बताने आया था कि वो देवराज चौहान को अस्सी करोड़ का हिस्सा नहीं देना चाहता। इसलिए देवराज चौहान को कल काम होने पर झटका देगा। उसने ये भी कहा कि पाण्डे कैंडी और मोहन्ती को भी झटका देगा। वो सारा पैसा खुद ले लेना चाहता था।"

"तो तुम्हें एक रात पहले पता चल गया था?"

बाबू भाई ने सिर हिलाया।

"मुझे क्यों नहीं बताया कि भंडारे मुझे धोखा देने की फेर में है।"

बाबू भाई चुप रहा।

"भंडारे के प्लान में तुम्हारी भी सहमति थी?"

"नहीं, मैंने तो उसे मना किया था कि वो ऐसा ना करे। परन्तु मेरी बात नहीं मानी उसने।"

"तुमने मुझे नहीं बताया कि भंडारे मुझे धोखा देने की फेर में है। ऐसे में मैं यही समझूंगा कि तुम उसके साथ थे।"

"मैं उसके साथ नहीं था।" बाबू भाई ने कमजोर स्वर में कहा।

"वो तुम्हारा हिस्सा देने आया था।"

"हां। बीस करोड़ दे गया है।"

"मेरी निगाहों में तुम भंडारे के बराबर के गुनहगार हो। भंडारे का धोखेबाजी करने का प्लान तुम कई घंटों पहले ही जान गए थे, लेकिन तुमने मुझे नहीं बताया कि उसका इरादा क्या है। स्पष्ट है कि तुम उससे सहमत थे।"

"मैं सहमत नहीं था। वो मेरा पुराना साथी था इस कारण चुप रहा।" बाबू भाई ने सुर्ख होंठों पर जीभ फेरी।

"तुम्हें पहले ही पता चल गया था कि भंडारे क्या करने जा रहा है। फिर भी तुमने मुंह बंद रखा तो इस काम में तुम्हें उसका हिस्सेदार नहीं माना जाएगा। उसने सब को धोखा दिया और तुम्हें बीस करोड़ दे गया।" देवराज चौहान के चेहरे पर जहरीली मुस्कान नाच उठी--- "तुम्हारे चुप रहने की कीमत वो तुम्हें दे गया।"

"वो मेरा पुराना साथी था इस लिहाज से उसने पैसा दिया है।"

"भंडारे है कहां?"

"मैं सच में नहीं जानता।"

"जगमोहन कहां है?"

"नहीं पता। बाबू भाई ने इंकार में सिर हिलाया।

देवराज चौहान के चेहरे पर दरिंदगी नाच उठी।

"बाबू भाई मुझे जगमोहन सही सलामत चाहिए...।"

"इस धोखे में मेरा कोई हाथ नहीं। मैं नहीं जानता भंडारे क्या करता फिर रहा है और जगमोहन कहां है।"

"तुम्हें पता है उसने जगमोहन को रास्ते में ही अपने लोगों के हवाले कर दिया था।"

"ये तुमसे पता लगा।"

"जगमोहन को मुंबई में ही कहीं कैद कर रखा है। तुम्हें पता होना चाहिए कि वो...।"

"बार-बार मत कहो। मैं नहीं जानता जगमोहन कहां पर है। भंडारी ने जगमोहन को इसलिए कैद रखा है कि अगर तुम उस तक पहुंच भी जाओ तो जगमोहन की सलामती की खातिर उसे कुछ ना कह सको।"

"ये भंडारे ने कहा या तुम सोचते हो?"

"भंडारे ने कहा।"

"उसने ये नहीं बताया कि जगमोहन को कहां पर रखा है उसने?"

"नहीं बताया। हममें ऐसी कोई बात नहीं हुई कि बात यहां तक पहुंच पाती।"

देवराज चौहान की आंखों में दरिंदगी भरी थी। वो बाबू भाई को देखता कह उठा।

"विक्रम मदावत कौन है?"

बाबू भाई ने देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता नाच रही थी।

"जवाब नहीं दिया तुमने कि विक्रम मदावत कौन है?"

बाबू भाई चुप रहा।

"विक्रम मदादावत तो तुम्हारी ही पैदाइश है, इसमें तो भंडारे का कोई हाथ नहीं। वो 180 करोड़ किसका था?"

बाबू भाई ने बेचैनी से पहलू बदला। उसका बूढ़ा चेहरा सफेद-सा हो गया था।

"मैं सब कुछ जान चुका हूं। पर तेरे से सुनना चाहता हूं कि सच क्या है।"

"विक्रम मदादावत कोई भी नहीं है। पैसा वागले रमाकांत का था।" बाबू भाई धीमे स्वर में बोला।

"सो मुझे गलत क्यों कहा?"

"मैं तुम्हें इस काम में लेना चाहता था और सोचा कि कहीं वागले रमाकांत का मामला देखकर तुम पीछे ना हट जाओ।"

"मैं जरूर पीछे हटता, क्योंकि मैं अंडरवर्ल्ड डॉन की दौलत पर कभी हाथ नहीं डालता हूं। किसी भी डॉन के मामले में दखल नहीं देता। जगह-जगह पैसा पड़ा है, कहीं भी हाथ डाल दो, लेकिन तुमने मुझे शुरु से ही धोखे में रखा। जिस डकैती की बुनियाद ही धोखे पर रखी गई हो, उसका अंजाम बुरा होता है। मुझे धोखा पसंद नहीं बाबू भाई। ना तो देता हूं ना लेता हूं। अगर कोई दे दे तो उसे छोड़ता नहीं। जैसे कि अब तुमने धोखा दिया। भंडारे ने धोखा दिया।"

बाबू भाई ने उसे देखा कहां कुछ नहीं।

"तुमने क्या सोचा कि विक्रम मदादावत की दौलत कहकर तुमने मामला संभाल लिया।"

"मुझे पता था कि ये वक्त आएगा, परन्तु सब ठीक हो जाने की स्थिति में मैं मामला संभाल लेता।" बाबू भाई ने गहरी सांस ली।

"सब ठीक हो जाने की स्थिति में?"

"अगर भंडारे ने धोखेबाजी के खेल को अंजाम ना दिया होता तो तुम इतने क्रोध में ना होते।"

देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"मुझे जगमोहन वापस चाहिए बाबू भाई...।"

बाबू भाई खामोश रहा।

"तुम्हें जगमोहन का नहीं पता तो भंडारे को फोन करके इस बारे में जानकारी लो।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"ये संभव नहीं।"

"क्यों?"

"मैं उससे जगमोहन के बारे में पूछूंगा तो वो समझ जाएगा कि कोई गड़बड़ है।"

"जैसे भी हो तुम उससे पूछो। अगर मुझे जगमोहन वापस मिल गया तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं।"

बाबू भाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"भंडारे को फोन करो।"

"कोई फायदा नहीं होगा, तुम...।"

"जगमोहन के बारे में पता करके मुझे बताओ कि उसे कहां रखा हुआ है। इसी में तुम्हारा बचाव है बाबू भाई!"

बाबू भाई परेशान दिखने लगा।

"फोन करो...।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली।

बाबू भाई ने हाथ बढ़ाकर पास ही रखे छोटे से टेबल पर से मोबाइल उठाया।

"तुम मुझे डकैती मैं शामिल करने को उतावले क्यों थे? मुझे क्यों लिया इस काम में?"

"ये बड़ी डकैती थी। 180 करोड़ की डकैती...।"

"और भी कोई वजह थी?"

बाबू भाई चुप-सा उसे देखता रहा।

"कह दो, कुछ भी छिपाने का अब कोई फायदा नहीं।" देवराज चौहान ने दांत भींचे कहा।

"तुम्हारा इस काम में होने का मतलब था कि सब यही समझें कि ये काम तुमने किया है।"

"मतलब की वागले रमाकांत समझे और सबको भूलकर वो मेरे पीछे पड़ जाए।"

"हां।" बाबू भाई ने थके स्वर में कहा।

"और ये विचार तो आया ही नहीं होगा कि तुम्हारे धोखे का मुझे पता चल गया तो तब क्या होगा। या यूं कहो कि भंडारे ने बड़ा धोखा देकर तुम्हारे धोखे का सत्यानाश कर दिया और सब कुछ खुलकर मेरे सामने आ गया।"

बाबू भाई का बूढ़ा चेहरा फक्क पड़ा था।

"भंडारे का फोन मिला। जगमोहन के बारे में पूछ...।"

बाबू भाई कांपते हाथों से नंबर दबाने लगा।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर पकड़ रखी थी और चेहरे पर खतरनाक भाव छाए हुए थे।

नंबर लग गया। बाबू भाई ने फोन कान से लगा लिया। दूसरी तरफ बेल जा रही थी।

"कहो बाबू भाई...!" एकाएक भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

रिवाल्वर थामें देवराज चौहान की खतरनाक निगाह बाबू भाई पर थी।

बाबू भाई का चेहरा फक्क था।

"कैसा है तू?"

"मजे में। सैनी का काम कर दिया।" उधर से भंडारे के हंसने की आवाज आई--- "साला बहुत तड़प रहा था। हाथ-पैर जोड़ रहा था कि उसे एक करोड़ अस्सी लाख नहीं चाहिए। जान बख्श दो। निपटा दिया कमीने को...।"

"अच्छा किया। अब किधर है तू?"

"सुरक्षित जगह पर हूं।"

"मुझे नहीं बताएगा?"

"ना बताना ही ठीक है। बात कभी कभी मुंह से निकल जाती है।" भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"मुझ पर भरोसा नहीं रहा तेरे को।"

"तुझ पर तो भरोसा है। पर अपना ठिकाना मैं नहीं बताऊंगा।"

बाबू भाई ने देवराज चौहान पर नजर मारते कहा।

"जगमोहन को कहां रखा है?"

भंडारे की आवाज नहीं आई।

"तू किधर गया?" भंडारे?" बाबू भाई बोला।

"बात क्या है बाबू भाई?"

"कैसी बात?"

"मैं तेरे पास आया तो तब तूने मेरे से कुछ ना पूछा और अब तू मेरा ठिकाना पूछ रहा है। ये पूछ रहा है कि जगमोहन को कहां रखा है। तू इन बातों को जानने की कोशिश में क्यों है। इनसे तेरा वास्ता क्या है? बीस करोड़ तेरे को पहुंचा दिया। ये तेरा आखिरी काम था। तू अपने मजे कर। बेकार की बातें क्यों पूछता है।"

बाबू भाई के होंठ भिंच गए। फिर बोला---

"यूं ही जगमोहन का ध्यान आ गया तो पूछा। बता दे उसे कहां रखा है?"

"सच बता, क्या बात है?" इस बार भंडारे की आवाज में सतर्कता आ गई थी।

"मेरे सामने देवराज चौहान खड़ा है।" बाबू भाई ने थके स्वर में कहा।

भंडारे की आवाज नहीं आई।

देवराज चौहान दांत पीसकर आगे बढ़ा और बाबू भाई के हाथों से फोन लेकर बात की।

"भंडारे!" दरिंदगी भरी थी आवाज में--- "जगमोहन को मेरे हवाले कर दे, वरना...।"

तब तक भंडारे उधर से फोन बंद कर चुका था।

देवराज चौहान ने फोन कान से हटाकर बाबू भाई की गोद में उछाल दिया।

"तूने फिर गड़बड़ की भंडारे को मेरे बारे में बताकर कि मैं यहां पर हूं।"

"वो समझ गया था कि कोई बात है।" बाबू भाई ने फीके स्वर में कहा--- "वो मेरा पुराना साथी है। मैं उसे अंधेरे में नहीं रख सकता।"

"अगर उससे जगमोहन के बारे में जान लेते तो तुम अपने को बचा लेते।"

बाबू भाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान ने हाथ में पकड़ी रिवाल्वर जेब में रख ली।

"वागले रमाकांत का फोन नंबर है?" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में पूछा।

"नहीं।" बाबू भाई ने सिर हिलाया--- "उदय लोहरा का है।"

"मिला, नंबर मिला के मुझे दे।"

बाबू भाई कुछ पल देवराज चौहान को देखता रहा फिर गोद में फोन उठाकर नंबर मिलाने लगा।

"क्या बात करोगे उससे?" बाबू भाई ने पूछा।

"मैंने अपने को इस मामले से बचाकर चलना है। वागले रमाकांत को पता चल जाना चाहिए कि जब मैंने पैसे पर हाथ डाला तो तब मुझे पता नहीं था कि वो पैसा उसका है। तुमने मुझे धोखे में रखा।" देवराज चौहान ने कहा।

"मेरा क्या होगा?"

"मैं नहीं जानता...।"

बाबू भाई ले टूटे अंदाज में फोन देवराज चौहान की तरह बढ़ाया।

देवराज चौहान ने फोन कान से लगाया तो दूसरी तरफ जाती बेल सुनी।

"हैलो।" तभी कानों में उदय लोहरा का स्वर पड़ा।

"उदय लोहरा?" देवराज चौहान का गम्भीर स्वर सख्त था।

"हां। तुम कौन हो?"

"देवराज चौहान...।"

उदय लोहरा की फौरन कोई आवाज नहीं आई।

"वागले रमाकांत से मेरी बात कराओ।" देवराज चौहान ने कहा।

"तुम...तुम डकैती मास्टर देवराज चौहान।" उदय लोहरा का अजीब-सा स्वर कानों में पड़ा--- "तुमने...।"

"वागले रमाकांत से मेरी बात...।"

"क्या बात करनी है। मुझसे करो।" उदय लोहरा के आने वाले स्वर में सख्ती आ गई--- "तुम बच नहीं सकते देवराज चौहान। वागले साहब को बहुत परेशानी हुई ये जानकर कि तुमने उनके 180 करोड़ पर हाथ डाल...।"

"परेशानी दूर हो जाएगी। मेरी बात कराओ वागले से।"

"क्या तुम रकम वापस देने वाले हो?"

"नहीं...।"

"तो फिर क्या बात करनी...।"

"लोहरा! वागले रमाकांत से बात करा, नहीं तो मैं फोन बंद कर दूंगा।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

कुछ चुप्पी के बाद उदय लोहरा का स्वर कानों में पड़ा।

"नंबर नोट कर।" कहकर लोहरा ने मोबाइल नंबर बताकर कहा--- "तू बचेगा नहीं देवराज चौहान!"

देवराज चौहान ने फोन काटा और लोहरा का बताया नंबर मिलाने लगा।

नंबर मिल गया। बात हो गई। वागले रमाकांत का स्वर कानों में पड़ा---

"हैलो...।"

"वागले!" देवराज चौहान उसकी आवाज पहचानकर कह उठा--- "मैं तेरे से मिलना चाहता हूं।"

"देवराज चौहान?"

"हां। मेरी आवाज तो तुमने अच्छी तरह पहचान ली होगी।"

"मिलना चाहता है?"

"हां...।"

"क्यों?"

"ये तेरे को मिलने पर पता चल जाएगा। मुझसे मिलकर नुकसान नहीं होगा।"

"क्या मेरे पैसे वापस देने का इरादा है?" वागले रमाकांत का स्वर कानों में पड़ा।

"मिलकर बात करेंगे वागले...!"

"मेरे पास आ जा...मैं...।"

"मैं तेरे पास नहीं आ सकता। मेरे पास कोई है उसे लेकर मैं जगह-जगह नहीं घूम सकता। तुझे मेरे पास आना होगा।"

"ये तू कोई नया खेल खेलने जा रहा है मेरे साथ?"

"नहीं, बल्कि खेले जा चुके खेल की तस्वीर दिखाना चाहता हूं।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

"तूने मेरे पैसे पर हाथ साफ किया। 180 करोड़ पर...।"

"मुझसे मिलने आ रहा है वागले...?"

"जरूर आऊंगा। अगर मुझे बुलाकर तू कोई नया खेल खेलना चाहता है तो वो भी खेलूंगा। कहां है तू?"

देवराज चौहान ने बताया कि वो कहां है।

"दो घंटे में मैं तेरे पास आऊंगा। तू वहीं होगा ना?"

"हां। मैं पूरा दिन इंतजार करूंगा।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।

बाबू भाई का चेहरा निचुड़ चुका था।

देवराज चौहान ने फोन बाबू भाई को थमा दिया।

"बात बढ़ाने का क्या फायदा। सबकुछ खत्म कर दे। ये बीस करोड़ ले जा।" बाबू भाई ने गहरी सांस ली।

"मुझे जगमोहन चाहिए। जगमोहन के बारे में बता और तू ये बीस करोड़ लेकर चला जा।"

"मैं नहीं जानता, भंडारे ने उसे कहां रखा है।"

"तो फिर तू भी नहीं बच सकता।"

"मेरा क्या करेगा तू?"

जवाब में देवराज चौहान होंठ भींचकर रह गया।

"मुझे मारेगा क्या?"

"तुमने जो मेरे साथ किया है, वो तो तुम्हें भुगतना ही पड़ेगा।" देवराज चौहान ने मौत से भरे स्वर में कहा।

■■■

ढाई घंटे बाद कॉटेज की कॉलबेल बजी।

बाबू भाई ने फीकी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान उसके सामने कुर्सी पर जमा बैठा था। ढाई घंटे से उनके बीच खास बातचीत नहीं हो रही थी। बाबू भाई को बार-बार बेचैनी भरी निगाहों से पहलू बदलते देख रहा था।

कॉलबेल बजते ही देवराज चौहान भिंचे स्वर में कह उठा---

"वागले रमाकांत आ पहुंचा है। अगर तुम मुझे भंडारे के ठिकाने के बारे में बता दो तो मैं शायद तुम्हें बचा लूं।"

"मैं सच में नहीं जानता।" बाबू भाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा--- "लेकिन रत्ना जानती हो सकती है।"

"कौन रत्ना?"

"भंडारे की प्रेमिका। भंडारे उससे कुछ नहीं छिपाता।"

"कहां रहती है वो?"

"क्या पता इस वक्त वो भी भंडारे के साथ हो।" बाबू भाई ने गहरी सांस ली।

तभी कॉलबेल पुनः बजी।

"रत्ना का पता बताओ।"

बाबू भाई ने रत्ना का पता बता दिया।

"तुमने ये कोई खास काम की बात नहीं बताई।" कहते हुए देवराज चौहान उठा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

देवराज चौहान ने दरवाजा खोला।

पहचाना कि सामने उदय लोहरा खड़ा है। इसे सफेद कमीज पहने उस दिन दाऊद मैनशन में देखा था। उसके साथ चार खतरनाक दिखने वाले दादा खड़े थे। सबका हाथ पैंट की जेबों में था।

उनमें वागले रमाकांत नहीं था।

"वागले रमाकांत कहां है?" देवराज चौहान ने कहा।

उदय लोहरा ने उसी पल जेब से रिवाल्वर निकाली और देवराज चौहान के पेट से लगा दी। उसने देवराज चौहान की आवाज पहचान ली थी कि इसी से फोन पर उसकी बात हुई थी।

देवराज चौहान ने शांत भाव से उदय लोहरा को देखा।

"तुम देवराज चौहान हो?"

"हां...।"

"भीतर चलो...। इसी तरह, उल्टे पांव। कोई चालाकी मत करना। ये जगह हमने घेर रखी है। समझे तुम...।"

"यहां पर कोई चालाकी नहीं हो रही।" देवराज चौहान पीछे हटने लगा।

वो लोग कॉटेज के भीतर आ गए।

एक ने दरवाजा बंद किया और वहीं पर रिवॉल्वर निकालकर खड़ा हो गया।

"कितने लोग हैं यहां?" उदय लोहरा ने अभी भी उसके पेट से रिवाल्वर की नाल सटा रखी थी।

"मैं और ये...।" देवराज चौहान ने कुर्सी पर बैठे बाबू भाई की तरफ इशारा किया।

"ये कौन है?"

"बाबू भाई...।"

लोहरा अपने पास खड़े आदमी से बोला---

"इसकी तलाशी लो।"

तलाशी में देवराज चौहान की रिवाल्वर निकाल ली गई।

"पूरी कॉटेज की तलाशी लो।" देवराज चौहान पर नजरें टिकाए लोहरा ने अपने आदमियों से कहा।

वो तुरन्त कॉटेज में फैलते चले गए।

"मुझे वागले रमाकांत से बात करनी है।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुमसे नहीं।"

"चिंता मत करो। वागले साहब तुमसे मिलने के बहुत ख्वाइशमंद हैं। वो अपने कई काम छोड़कर आए हैं यहां...।"

देवराज चौहान ने हौले से सिर हिलाया फिर बोला---

"रिवाल्वर हटा लो। मैं कहीं जाने वाला नहीं। मैंने ही वागले को यहां बुलाया है।" देवराज चौहान ने कहा।

"ढाई घंटे तुमने हमारा इंतजार किया?"

"हां।"

"तो पांच मिनट और सब्र रखो। शांत खड़े रहो।" उदय लोहरा कठोर स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान चुप रहा।

पूरी कॉटेज देखकर उसके आदमी वहां पहुंचे।

"इन दोनों के अलावा यहां कोई नहीं है।" एक ने कहा।

"संभालो इसे।" कहते हुए उदय लोहरा देवराज चौहान के पीछे हो गया।

दो ने देवराज चौहान को रिवाल्वर पर रख लिया।

उदय लोहरा ने फोन करके कहा---

"आ जाइए वागले साहब! यहां सब ठीक है।" कहकर उसने मोबाइल जेब में रखा।

"तुम लोगों ने आने में देर लगा दी।" देवराज चौहान बोला।

"हम एक घंटे से यहां हैं और समझने की चेष्टा कर रहे थे कि तुमने क्या जाल बिछा रखा है।"

"ये कोई जाल नहीं है।"

उदय लोहरा ने कड़वी नजरों से देवराज चौहान को देखा।

"तुमने तो बहुत हिम्मत का काम कर दिया देवराज चौहान। हमारे पैसों पर हाथ...।"

"मुझे सिर्फ वागले रमाकांत से बात करनी है। तुमसे नहीं।" देवराज चौहान ने कहा।

"पांच मिनट इंतजार करो। वागले साहब से मिल लोगे।" उदय लोहरा की नजर बाबू भाई पर गई--- "तू बाबू भाई है भंडारे का साथी? पता चला कि तू कामों को प्लान करता है।"

बाबू भाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"ये तुम तक पहुंचा या तुम इस तक पहुंचे।" लोहरा ने देवराज चौहान से पूछा।

"मैंने इसे ढूंढा...।"

"मुझे मालूम है तुम लोगों में कुछ गड़बड़ चल रही है।" लोहरा ने कड़वे स्वर में कहा।

"कैसे पता चला? क्या कोई तुम्हारे हाथ लगा?"

"कोई हाथ नहीं लगा। बलबीर सैनी की लाश मिलने पर मुझे ऐसा आभास हुआ।"

"बलबीर सैनी कौन?" देवराज चौहान ने पूछा।

"तुम जानते हो उसे। नाटक मत करो।"

"मैं किसी बलबीर सैनी को नहीं जानता।" देवराज चौहान ने कहा।

"तुम्हारा झूठ नहीं चलने वाला। सैनी ने हमारे एक आदमी से पैसों के लेन-देन के बारे में जाना और तुम्हें बता दिया।"

"मुझे नहीं, बाबू भाई को।" देवराजचौहान ने बाबू भाई को देखा--- "मुझे बाबू भाई ने खबर दी।"

उदय लोहरा की निगाह दो सूटकेसों और बैग पर पड़ी।

"इनमें नोट हैं?" लोहरा ने पूछा।

"हां। बीस करोड़ हैं।"

"बाकी?" लोहरा की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।

"वागले को आने दो, पता चल जाएगा।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

"तुम जानते हो कि हम तुम्हें ढूंढ रहे हैं, फिर भी तुमने फोन करके हमें यहां बुला लिया। ये बात समझ में नहीं...।"

तभी कॉलबेल बज उठी।

दरवाजे के पास खड़े व्यक्ति ने फौरन दरवाजा खोला।

देखते-ही-देखते वागले रमाकांत ने भीतर प्रवेश किया। बाहर कुछ आदमी और दिखे परन्तु वे बाहर ही रहे। दरवाजा बंद कर दिया गया। सिटकनी नहीं लगाई गई दरवाजे की।

वागले रमाकांत को सामने पाकर बाबू भाई का खून सूखने लगा।

वागले रमाकांत ने हर तरफ नजर मारी फिर देवराज चौहान पर नजरें जा टिकीं।

देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती थी।

वागले रमाकांत ने शांत भाव से सिगरेट सुलगा ली और कश लेकर बोला---

"मुझे आशा नहीं थी देवराज चौहान कि हम इतनी जल्दी फिर मिलेंगे।"

"मैंने तुम्हें ये बताने के लिए बुलाया है कि तुम्हारे पैसे को ले जाने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं। इसका ये मतलब नहीं कि मैं तुमसे डर रहा हूं। मैं तुम्हें सच दिखाना चाहता हूं।" देवराज चौहान ने कहा--- "ताकि तुम गलतफहमी में मत रहो।"

"क्या तुमने 180 करोड़ पर हाथ नहीं डाला?" वागले रमाकांत ने देवराज चौहान की आंखों में झांका।

"डाला।"

"मेरा पैसा तुम ले गए और कहते हो कि इसमें तुम्हारा हाथ नहीं।"

"यही सच है।"

"मेरे पैसे को ले जाने की प्लानिंग तुमने की थी देवराज चौहान?"

"हां...।"

"खूब।" वागले रमाकांत के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी--- "इस पर भी कहते हो कि तुम्हारी कोई गलती नहीं।"

"तुम्हें आराम से मेरी बात सुननी चाहिए, जिसके लिए मैंने तुम्हें बुलाया है।"

"कहो-कहो।" वागले रमाकांत कड़वे स्वर में कह उठा--- "पहले तुम कह लो फिर मैं कहूंगा।"

"मैं नहीं जानता था कि वो पैसा तुम्हारा है।" देवराज चौहान ने कहा।

"बकवास मत करो।"

"मुझे बताया गया कि वो पैसा किसी विक्रम मदादावत का है। बनती प्लानिंग के बीच मैं इस काम में आया और इस बाबू भाई ने मुझे इस काम में धोखे में रखकर खींचा कि विक्रम मदावत के पैसे पर हाथ डालना है। बलबीर सैनी जिसके बारे में अभी मुझे लोहरा से पता चला है, वो बाबू भाई को खबरें दे रहा था और बाबू भाई मुझे। बाबू भाई ने तुम्हारा नाम छिपाकर मुझे विक्रम मदावत का नाम बताया और अंत तक मैं इस बात से अंजान रहा कि पैसा तुम्हारा है। यही बात बताने, दिखाने और समझाने के लिए तुम्हें यहां बुलाया है। मैं तुमसे डरता नहीं हूं परन्तु मेरा उसूल है कि अंडरवर्ल्ड के किसी आदमी की दौलत पर हाथ मत डालो। ऐसे में झगड़ा खड़ा होता है और इस तरह के झगड़े मुझे पसंद नहीं हैं। मैं तुम्हें सच दिखाना चाहता था कि प्लानिंग बेशक मेरी थी परन्तु मुझसे तुम्हारा नाम छिपाया गया। बाबू भाई ने जानकारी देते वक्त मुझसे तुम्हारे बारे में पूरी तरह छिपा लिया।"

वागले रमाकांत ने बाबू भाई को देखा।

बाबू भाई की सिट्टी-पिट्टी गुम थी।

"ये सही कह रहा है?" वागले रमाकांत ने बाबू भाई से पूछा।

"ह...हां...।" बाबू भाई ने फौरन सिर हिलाया।

"तुमने ऐसा क्यों किया?"

जवाब में बाबू भाई के होंठ हिलकर रह गए।

उदय लोहरा उसी पल बाबू भाई के पास पहुंचकर बोला---

"जवाब दे...।"

"म...मुझे शक था कि वागले रमाकांत का मामला देखकर कहीं देवराज चौहान पीछे ना हट जाए।" बाबू भाई बोला।

"जब वहां से पैसा ले जाने की फिराक में थे तो उदय लोहरा वहां आया। मुझे जब पता चला कि वो उदय लोहरा वहां आया है तो मैंने इसे फोन करके पूछा कि लोहरा का इस मामले से क्या वास्ता है। वो यहां क्यों आया, तो इसने मुझे कहा कि वो अपने किसी काम से आया होगा। इस मामले से उदय लोहरा या वागले रमाकांत का कोई वास्ता नहीं है।" देवराज चौहान बोला।

वागले रमाकांत ने लोहरा को इशारा किया।

"बोल।"लोहरा ने बाबू भाई का सिर हिलाया।

"ये ठीक कहता है। ऐसा ही हुआ था।" बाबू भाई कमजोर आवाज में कह उठा।

"सारा काम निपट जाने के बाद मुझे पता चला कि पैसा तुम्हारा है, तो मैं समझ गया कि बाबू भाई ने मुझसे धोखा किया है। तुम्हारा नाम मुझसे छिपाकर रखा है। ये है सच्चाई।" देवराज चौहान के होंठ भिंचे हुए थे।

"इसकी सारी बातें सच हैं?" वागले रमाकांत ने बाबू भाई से पूछा।

"ह...हां।" बाबू भाई के होंठों से सरसराती आवाज निकली।

"सैनी को किसने मारा?" वागले रमाकांत ने कश लिया।

"भंडारे ने।" बाबू भाई की आवाज में कंपन था।

तभी उदय लोहरा कह उठा---

"वागले साहब, इन दोनों सूटकेसों में और बैग में बीस करोड़ भरा हुआ है हमारा।"

"बाकी का एक सौ साठ करोड़...?"

"उसके बारे में तो ये ही बताएंगे।"

वागले रमाकांत की नजरें देवराज चौहान के चेहरे पर जा टिकीं।

देवराज चौहान अजीब से अंदाज में मुस्कुराकर कह उठा---

"वागले! तेरे को लग रहा होगा सब कुछ जानकर कि मामला खत्म हो गया। परन्तु यहां से मामला शुरू होता है खत्म नहीं होता। जब तुम्हारा पैसा एंबूलेंस में भर लिया गया तो मुझे एक बार फिर धोखा दिया गया और जिन लोगों के साथ मैं काम कर रहा था वो मुझे छोड़कर पैसों के साथ भाग निकले।"

"ओह, ये तो नई बात पता चली।" वागले रमाकांत की आंखें सिकुड़ी--- "फिर क्या हुआ?"

"मैं उन्हें अभी नहीं ढूंढ पाया। बाबू भाई तक ही पहुंचा हूं। एक सौ साठ करोड़ जगदीप भंडारे के पास है। मुझे पता चला है कि भंडारे ने अपने साथियों को भी धोखा दे दिया है। सारा पैसा खुद ले भागा...।"

"हूं।" वागले रमाकांत मुस्कुराया--- "कौन-कौन लोग थे सब?"

"जगदीप भंडारे, मोहन्ती, कृष्णा पाण्डे और जैकब कैंडी के अलावा मेरा साथी जगमोहन।"

"जगमोहन कहां है?" वागले रमाकांत की निगाह देवराज चौहान पर थी।

देवराज चौहान ने वागले रमाकांत को सारी बात बताई।

वागले रमाकांत ने शांत भाव से सब कुछ सुना फिर बाबू भाई से पूछा---

"ये ठीक कहता है क्या। ऐसा ही हुआ?"

"हां...।" बाबू भाई की हालत बुरी हो रही थी।

"फिर तो तेरे को ये भी पता होगा कि भंडारे पैसे के साथ कहां पर छिपा हुआ है?"

"ये मुझे नहीं मालूम...।"

"तेरे को कैसे नहीं मालूम। लोहरा पूछ इससे भंडारे कहां है?"

लोहरा का हाथ घूमा और बाबू भाई के सिर पर जा पड़ा।

बाबू भाई कुर्सी से लुढ़ककर नीचे जा गिरा।

लोहरा ने आगे बढ़कर उसे उठाया और वापस कुर्सी पर बिठाया। इतने से ही उसका पूरा शरीर कांपने लगा था। चेहरा भय से जर्द हो गया था। लोहरा उसके सिर के बाल पकड़कर गुर्राया।

"बोल भंडारे किधर छिपा है?"

"मैं नहीं जानता। मुझे नहीं...।"

"ये भंडारे से फोन पर बात करा सकता है।" देवराज चौहान ने कहा।

वागले रमाकांत उसकी तरफ बढ़ता बोला---

"बात करा उससे फोन पर।"

लोहरा है उसके सिर के बाल छोड़ दिए।

बाबू भाई ने कांपते हाथों में टेबल पर से फोन उठाया और भंडारे का नंबर मिला दिया।

वागले रमाकांत ने फोन कान से लगा लिया।

"कहो बाबू भाई! देवराज चौहान है कि गया?"

"मैं वागले रमाकांत हूं।" वागले रमाकांत ने ठोस स्वर में कहा--- "सुना तूने मैं...।"

उधर से भंडारे ने फोन बंद कर दिया।

वागले ने गुस्से से फोन दीवार पर दे मारा और लोहरा से बोला---

"उसने फोन काट दिया। वो बात करने को तैयार नहीं...।"

"बता।" लोहरा ने बाबू भाई के सिर के बाल पुनः मुट्ठी में जकड़े--- "भंडारे किधर छिपा है। तेरे को पता है, वो तेरे को बीस करोड़...।"

"मैं नहीं जानता वो कहां छिपा है। मुझे कुछ नहीं पता...।"

"इसे ले जा लोहरा!" वागले रमाकांत ने कठोर स्वर में कहा--- "मुंह ना खोले तो खत्म कर देना।"

"मैं जाऊं वागले साहब...?" लोहरा ने पूछा।

"जा, इसे ले जा। दस आदमी यहीं छोड़ देना। देवराज चौहान से अभी लंबी बात करनी है मुझे।" कहते हुए वागले रमाकांत ने तीखी नजरों से देवराज चौहान को देखा--- "अपनी सफाई देकर ये बच नहीं सकता।"

जवाब में देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।

उदय लोहरा, बाबू भाई को लेकर चला गया।

वागले रमाकांत कुर्सी पर जा बैठा और बोला---

"बैठ देवराज चौहान! हम भी कुछ बात कर लें।"

"बातें हो चुकी हैं। अब यहां मेरा कोई काम नहीं...।" देवराज चौहान ने कहा।

"अब तक तेरी बातें मैंने सुनी। तू अब मेरी सुनेगा। बैठ...।" वागले रमाकांत ने कुर्सी की तरफ इशारा किया।

देवराज चौहान ने वहां खड़े आदमियों पर निगाह मारी और आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठा।

वागले रमाकांत ने नई सिगरेट सुलगा ली।

"तुम लोगे सिगरेट?" वागले रमाकांत ने मुस्कुराकर पूछा।

"तुम्हारी सिगरेट मैं नहीं लूंगा।"

"क्यों?"

"तुम हथियारों का बिजनेस करते हो और पाकिस्तान के आतंकी गुटों के साथ संपर्क में हो तुम। ऐसे में तुम्हारा पैसा जहर जैसा है मेरे लिए।"

"और तुम जो डकैतियां करते हो?"

"मैं अपने देश में रहकर डकैतियां करता हूं। परन्तु उससे देश की जड़ें खोखली नहीं होतीं।"

"ये तुम्हारा सोचना है।"

"मेरा सोचना सही है। मेरी और तुम्हारे काम में जमीन-आसमान का अंतर है। तुम बहुत ही गलत काम कर रहे हो।"

"तुम तो मेरे बाप की तरह बातें कर रहे हो। वो ऐसी ही बातें करता था, जब जिंदा था।"

"तुम्हारा बाप सही कहता होगा।" देवराज चौहान गम्भीर दिख रहा था।

"हमें अब काम की बात करनी चाहिए।" वागले रमाकांत बोला--- "तुम कहते हो कि तुमने धोखे में आकर मेरा पैसा लूटा परन्तु ये कहकर तुम बच नहीं सकते, क्योंकि मेरे पैसे पर तुमने हाथ डाला है, बेशक अंजाने में ही सही।"

"मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया है कि पैसा किसके पास है। बाबू भाई तो तुम्हारे हाथों में पहुंचा दिया जो तुम्हारा गुनहगार है और भंडारे को तुम आसानी से ढूंढ लोगे। देर-सवेर में वो मिल जाएगा।"

"और तुम्हारा क्या करूं?"

"तुम्हारी निगाहों में मैंने अपनी पोजीशन साफ कर...।"

"इस तरह पोजीशन साफ नहीं होती।" वागले रमाकांत ने इंकार में सिर हिलाया--- "मेरी निगाहों में तुम दूसरों के बराबर गुनेहगार हो। तुमने योजना बनाकर मेरा पैसा लूटा। परन्तु मैंने तुम्हारी बात का भरोसा कर लिया कि बाबू भाई ने तुम्हें ये नहीं बताया कि वो पैसा मेरा था तुमने विक्रम मदावत का पैसा समझकर लूटा।"

"क्या कहना चाहते हो वागले?" देवराज चौहान ने वागले रमाकांत की आंखों में झांका।

"मेरे पैसे पर हाथ डालकर तुमने जो अंजाने में भी भूल की है, उसकी कीमत तुम्हें चुकानी पड़ेगी।"

"क्या कीमत सोची है तुमने?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।

"तुम्हारे लिए ज्यादा नहीं है।"

"बोलो...।"

"भंडारे को ढूंढकर एक करोड़ साठ लाख और भंडारे को मेरे हवाले करोगे।"

"ये काम मेरा नहीं है।"

"तुमने जो भूल की है उसे इसी तरह...।"

"मुझे बाबू भाई और भंडारे ने धोखे में रखा था। वरना तुम्हारे पैसे को मैं देखता भी नहीं...।"

"मैंने जो कहा है वो तुम्हें करना होगा।"

"मेरे पास इससे भी जरूरी काम है जो मुझे करना...।"

"मेरा काम सबसे जरूरी है।" वागले रमाकांत की आवाज में सख्ती आ गई।

"मेरे लिए सबसे जरूरी काम जगमोहन को ढूंढना है। उसे भंडारे में कहीं कैद में रखा है कि अगर मैं तलाश करके उस तक पहुंच जाता हूं तो वो जगमोहन के नाम मुझे ब्लैकमेल करके मेरे बढ़ते कदमों को रोक देगा। अगर मैं भंडारे तक पहुंच भी गया तो रुकने को मजबूर हो जाऊंगा। क्योंकि जगमोहन उसकी कैद में है।"

"बहुत प्यार है जगमोहन से...?"

"वो मेरा सब कुछ है वागले! भाई, दोस्त, बाप, बेटा सब कुछ है वो मेरा।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए--- "अगर तुम इस स्थिति में मुझे मजबूर करोगे तो एक सौ साठ करोड़ तुम्हें अपने पास से दे दूंगा। परन्तु तलाश जगमोहन की ही करूंगा। उससे जरूरी दुनिया में मेरे लिए दूसरा कोई नहीं है।"

वागले रमाकांत ने कश लिया और बोला----

"तुम्हारे लिए मैं जगमोहन को ढूंढ लूंगा।"

"तुम?"

"और तुम भंडारे की तलाश करोगे। वादा रहा कि तुम्हारे भंडारे तक पहुंचने से पहले ही मैं जगमोहनपुर ढूंढ लूंगा।" वागले  रमाकांत की आवाज में दृढ़ता थी--- "भरोसा करोगे मेरी बात का।"

देवराज चौहान ने फौरन कुछ नहीं कहा।

मिनट भर तक दोनों के बीच खामोशी रही।

"तुम खुद भी तो भंडारे को तलाश कर सकते हो।" देवराज चौहान ने बोला।

"इसके लिए मुझे कई कामों को छोड़ना पड़ेगा। फिर तुमने जो भूल की है, उसकी सजा भी तो तुम्हें देनी है।"

"मैं तुम्हें एक सौ साठ करोड़ अपने पास से दे देता हूं...।" देवराज चौहान कह उठा।

"तो तुम्हें मेरी जुबान पर भरोसा नहीं कि मैं वक्त रहते जगमोहन को तलाश कर लूंगा।"

"कैसे कर लोगे?"

"आसानी से।" वागले रमाकांत मुस्कुराया--- "बारह घंटों में ये खबर अंडरवर्ल्ड की दुनिया में फैल जाएगी कि वागले रमाकांत को देवराज चौहान के साथी जगमोहन की जरूरत है, जिसे भंडारे के आदमियों ने कैद में रखा हुआ है। जो भी जगमोहन की खबर देगा या जगमोहन को वागले रमाकांत के हवाले करेगा, उसे एक करोड़ रुपया इनाम में मिलेगा और वागले रमाकांत खुद उसकी पीठ थपथपाकर उसे शाबाशी देगा। चौबीस घंटों में जगमोहन मेरे पास होगा।"

"ऐसा ना हुआ तो?"

"तुम अभी वागले रमाकांत को ठीक से जानते नहीं। यूं ही मैं मुंबई अंडरवर्ल्ड का डॉन नहीं बना। यूं ही लोग मेरा नाम सुनकर पीछे नहीं हटते। मेरे सामने पुलिस और नेता भी खामोश रहते हैं। वो सब मेरी मुट्ठी में हैं और आज की तारीख में अंडरवर्ल्ड का छोटा-बड़ा आदमी वागले रमाकांत से रिश्तेदारी करने की ताक में है। क्योंकि उन्हें मालूम है कि मेरा हाथ उसकी पीठ पर टिक गया वो रातों-रात दौलत का पहाड़ खड़ा कर लेगा।"

देवराज चौहान चुप रहा।

"मैं तुम्हें ज्यादा सख्त सजा नहीं देना चाहता, क्योंकि तुमने धोखे में रहकर मेरे पैसे पर हाथ डाला। इसलिए तुम्हें मेरी बात मान लेनी चाहिए और भंडारे को ढूंढना चाहिए।" वागले रमाकांत ने कहा।

"क्या तुम इस वक्त ये सोच रहे हो कि मैं तुम्हारी मुट्ठी में हूं?" देवराज चौहान बोला।

"मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रहा। मैं तुमसे दोस्तों की तरह बात कर रहा हूं क्योंकि मैंने तुम्हारे हालातों को बखूबी समझा है कि तुमने कैसे मेरे पैसे पर हाथ डाला। फिर भी कुछ तो तुम्हें भुगतना ही होगा। गलती तो तुमने की ही है। मैं तुम्हें ये सलाह नहीं दूंगा कि तुम एक सौ साठ करोड़ अपने पास से मुझे दो और भंडारे को भूलकर जगमोहन की तलाश में लग जाओ। ठीक है। एक बात और पक्की करते हैं।"

"क्या?"

"अगर मैं चौबीस घंटे में जगमोहन को ना ढूंढ सका तो तुम कुछ भी करने को मेरी तरफ से आजाद होगे।"

"ये बात मुझे पसंद आई...।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

"अभी से तुम भंडारे की तलाश शुरू कर दो।" वागले रमाकांत कह उठा।

"तुम्हें अपने एक सौ साठ करोड़ में दिलचस्पी है ना?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां...।"

"तो भंडारे को मेरे लिए रहने दो। उसने मुझे डबल धोखा दिया है। विक्रम मदावत के नाम पर धोखा दिया है और काम होते ही पैसा ले उड़ा और जगमोहन को कैद करके मुझे धोखा दिया। भंडारे पर मेरा हक ज्यादा बनता है।"

"हक तो मेरा ही बनता है देवराज चौहान! परन्तु मैं तुम्हारी हालत समझ रहा हूं। भंडारे को तुम अपने हिस्से में लेना चाहो तो बेशक ले लो। परन्तु वो जिंदा नहीं बचना चाहिए...।" वागले रमाकांत ने कहा।

"उसने ऐसा कोई काम नहीं किया कि वो जिंदा रहे।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

वागले रमाकांत ने जेब से एक कार्ड निकालकर देवराज चौहान को दिया।

"इस पर मेरा प्राइवेट नंबर है। कल इस वक्त फोन करके जगमोहन की खैर-खबर पूछ लेना।"

देवराज चौहान ने कार्ड जेब में रखा और उठते हुए बोला---

"इन दोनों सूटकेस और बैग में बीस करोड़ पड़ा है तुम्हारा।"

वागले रमाकांत ने देवराज चौहान को देखते हुए सिर हिला दिया।

देवराज चौहान पलटा और वहां खड़े एक आदमी के हाथ से रिवॉल्वर लेकर जेब में डाली और दरवाजे की तरफ बढ़कर दरवाजा खोला और बाहर निकलता चला गया।

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सदाशिव!

छब्बीस की उम्र का था। रत्ना से साल भर छोटा था। चूंकि वो आकर्षक व्यक्तित्व का था। लंबा था, चौड़ी छाती थी। फिल्मी हीरो की तरह दिखता था, इसलिए दोस्तों ने हवा देकर उसे मुंबई का रास्ता दिखा रहा था कि वो हीरो बन सकता था। इक्कीस साल का था जब वो कानपुर से मुंबई हीरो बनने आ गया था।

मुंबई पहुंचकर महीने भर में ही पता चल गया कि हीरो बनने के लिए शक्ल की कम और किस्मत की ज्यादा जरूरत है। जान-पहचान की ज्यादा जरूरत है। फिर भी वो लगा रहा कि फिल्मों में चांस मिल जाए। हीरो तो क्या चपरासी या नौकर का काम भी मिल जाए। परन्तु कुछ भी ना मिला। पहले दो साल तो घर से थोड़ा-बहुत पैसा आता रहा कि जैसे-तैसे उसका काम चल जाता है। वो घर वालों को झूठ ही कहता रहा कि उसने दो फिल्में साइन कर ली हैं। एक फिल्म फ्लोर पर पहुंच गई है। आजकल वो शूटिंग कर रहा है।

परन्तु दो साल बाद घर वालों ने पैसे भेजने बंद कर दिए कि और गुंजाइश नहीं है। तेरी बहन की शादी करनी है। यहां से सदाशिव की समस्याएं शुरू हो गईं। फिल्मों का भूत उतर गया और रोटी-पानी के जुगाड़ में लग गया। जब वक्त मिलता तो फिल्मों में काम पाने की तलाश में निकल जाता। आखिरकार तंग आकर वो वापस कानपुर घर पहुंच गया कि कहीं कोई काम या नौकरी कर लेगा। परन्तु मोहल्ले वाले उसका ऐसा स्वागत करने लगे कि जैसे फिल्मों का सुपरस्टार आ गया हो। हर कोई उससे ही पूछता फिर रहा था। सदाशिव समझ गया कि अब कानपुर में रहना संभव नहीं। मुंबई ही उसका घर है। जो करना होगा, वहीं पर करना होगा। वो मुंबई वापस आ गया।

वक्त बीता, वो छब्बीस का हो गया।

ना ठीक से खाना, ना सोना, सेहत भी ढीली पड़ने लगी थी। परन्तु फिल्मों का भूत अभी भी सिर पर सवार था। बहरहाल खर्चा-पानी निकालने के लिए पिज्जा हट के नाम के रेस्टोरेंट में पिज़्ज़ा लोगों के घरों में सप्लाई करने का काम कर रहा था। जब आर्डर नहीं होते तो रेस्टोरेंट में वेटर का काम करता।

इसी दौरान उसकी मुलाकात रत्ना से हुई थी।

सदाशिव खुश था कि कंगाली की हालत में लड़की पट गई।

रत्ना को वो अच्छा लगा तो वो उसे हीरो कहकर बुलाने लगी।

दोनों में जीवन भर साथ रहने की बात भी हुई, परन्तु पैसा पास ना होने की वजह से ये बात ज्यादा आगे ना बढ़ सकी। उसके बाद अब रत्ना और सदाशिव के बीच क्या चल रहा है, आप लोग जान ही चुके हैं।

रत्ना, सदाशिव को करोड़ों के ख्वाब दिखा चुकी है।

सदाशिव उन करोड़ों से फिल्म बनाकर खुद हीरो आना चाहता है, परन्तु रत्ना को पसंद नहीं कि पैसा फिल्मों में लगाकर बर्बाद किया जाए और अब रत्ना की सदाशिव से मिलने की बात तय हुई।

सदाशिव तयशुदा जगह पर घंटा भर पहले ही पहुंचकर बेचैनी से इंतजार करने लगा रत्ना का।

रत्ना आई। कार से उतरी। आंखों पर काला चश्मा चढ़ा रखा था। बाल संवरे हुए पीछे को बांध रखे थे। जींस की पैंट और टॉप पहन रखा था। उसकी खूबसूरती देखते ही बनती थी। सदाशिव ने मन-ही-मन भगवान से कहा कि ये सारी उम्र के लिए उसकी बन जाए तो कितना अच्छा है। मन-ही-मन उसने तय किया कि इसे हमेशा सेट करके रखेगा। परन्तु आजकल रत्ना ने करोड़ों की बात करके उसका दिमाग खराब कर रखा था। वो सोचता था कि रत्ना के साथ पैसा भी हाथ लग जाए तो मजा आ जाएगा। परन्तु जबसे उसने 180 करोड़ की बात सुनी थी, तब से वो गम्भीर हो गया था।

रत्ना पास पहुंची और मुस्कुराकर बोली---

"आज तो जंच रहा है हीरो...।"

"बम तो तू लग रही है।" सदाशिव ने कहा--- "पता नहीं मेरे हाथ कैसे लग गई...।"

"मेरी नजरों से अपने को देख, समझ जाएगा।"

"उधर रेस्टोरेंट में चल। तेरे से बहुत बात करनी है।" सदाशिव बोला।

दोनों कुछ दूर नजर आ रहे हैं रेस्टोरेंट में पहुंचे और कोने वाली सीट संभाल ली। शाम के चार बज रहे थे। रेस्टोरेंट में ज्यादा भीड़ नहीं थी। रत्ना ने कोल्ड ड्रिंक और दूसरे का ऑर्डर दे दिया।

"तू महीने भर से मुझे परेशान कर रही है।" सदाशिव ने नाराजगी से कहा।

"क्यों?"

"मिलने का मौका नहीं देती। प्यार किए कितनी देर हो...।"

"होश से काम ले हीरो। हमारी जिंदगी बनने जा रही है। बहुत पैसा हाथ लगने वाला है।" रत्ना ने धीमे स्वर में कहा।

"पहले तू 24 करोड़ की बात कर रही थी अब 180 करोड़ की बात करने लगी...।"

"भंडारे अगर उस डकैती में मर जाता तो 24 करोड़ हम ले उड़ते। लेकिन वो बच गया।"

"पर तेरे को तो पता है कि 24 करोड़ किधर है उसका...।"

"अब 24 करोड़ से पेट नहीं भरेगा। उसके पास 180 करोड़ की दौलत है।"

"हमें 24 करोड़ ही बहुत है।"

"बच्चों की तरह बातें मत कर। जिंदगी में हर कदम पर पैसे की ही जरूरत पड़ती है। जितना भी ज्यादा हो, वो कम होता है।"

सदाशिव ने रत्ना की खूबसूरत चेहरे पर निगाह मारी।

"तू साफ बोल कि इरादा क्या है तेरा...।" सदाशिव ने गम्भीर स्वर में कहा।

"मेरे से शादी करेगा?"

"कितनी बार तो तेरे इस सवाल पर हां कही है।"

"बाद में ये तो नहीं कहेगा कि मैं भंडारे के साथ सोती थी।"

"जब तेरे से शादी कर ली तो ऐसी बात करने का क्या फायदा। तू मुझे पसंद है रत्ना!"

"सारी जिंदगी मेरे साथ रहने का वादा करता है ना?"

"हां। पर तेरे को भी वादा करना होगा कि तू जीवन भर सिर्फ मेरी ही रहेगी। किसी के साथ नहीं सोएगी।"

"मैं बहुत वफादार हूं...।"

"पर अब भंडारे को धोखा देकर मेरा हाथ पकड़ लिया तूने। मेरे साथ ऐसा मत करना।"

"इसकी वजह है।" रत्ना गंभीर स्वर में कह उठी--- "भंडारे के साथ मैं मजबूरी में रही। परन्तु अब मुझे एहसास होने लगा है कि भंडारे जैसी आदतों का मालिक है, उसके साथ जीवन भर रहना कठिन है। लेकिन पहले मेरे पास कोई सहारा नहीं था जिसे थाम पाती। फिर तू मिला। धीरे-धीरे तूने मेरा विश्वास जीता तो मन में हौसला बढ़ा कि अब मैं भंडारे का साथ छोड़ सकती हूं। परन्तु तेरे पास पैसा नहीं है। भंडारे के पास पैसा है तो सोचा किसी तरह भंडारे का पैसा हासिल कर लूं तो हमारी जिंदगी मजे से चलेगी। तभी 180 करोड़ की डकैती वाले मामले में पड़ गया भंडारे और मैं अपनी योजना पर काम करने लगी। मेरे को तो पूरा विश्वास था कि भंडारे इस काम में असफल होगा और मारा जाएगा। परन्तु वो कामयाब हो गया। ये ठीक है कि मैं जानती हूं उसका 24 करोड़ कहां रखा है। हम अभी उसे उठा सकते हैं। परन्तु ऐसा करना बेवकूफी होगी क्योंकि भंडारे के पास 180 करोड़ जैसी बड़ी रकम है। पर मुझे पता है कि वो अब भी नहीं बचने वाला। उसने देवराज चौहान, कैंडी, मोहन्ती और पाण्डे को धोखा दिया है। वो उसे ढूंढ रहे होंगे। छोड़ने वाले नहीं भंडारे को और 180 करोड़ वागले रमाकांत जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का है। वो भी अपने पैसे को ढूंढ रहा होगा। भंडारे तब तक ही बना हुआ है जब तक वो उस खास जगह पर छिपा हुआ है। वहां से निकलते ही...।"

"इस मामले में बहुत खतरनाक लोग हैं रत्ना...।"

"इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा हीरो...।" रत्ना मुस्कुराई।

"क्यों?"

"क्योंकि हमें कोई नहीं जानता। सब भंडारे को जानते हैं। भंडारे ने ये बात भी कभी नहीं खोली कि मैं उसकी प्रेमिका हूं। ऐसा होता तो बहुतों का ध्यान मेरी तरफ जाता।" रत्ना गम्भीर स्वर में कह रही थी--- "हम वो दौलत लेकर खिसक सकते हैं और किसी को हमारी हवा भी नहीं लगेगी।" रत्ना ने होंठ सिकोड़कर कहा।

"कैसे?"

"तुझे पूरी तरह मेरा साथ देना होगा।"

"मैं तो तेरे साथ ही हूं...।"

तभी वेटर डोसे सर्व कर गया।

वे खाते हुए बातें करने लगे।

"सिर्फ मैं ही हूं जो ये जानती हूं कि भंडारे 180 करोड़ के साथ कहां छिपा हुआ है।"

सदा शिव ने खाते-खाते सिर हिलाया।

"जानता है हीरो कि भंडारे अब किस कोशिश में है।"

"बता...।"

तभी देवराज चौहान ने रेस्टोरेंट में प्रवेश किया और दूर एक ऐसी टेबल संभाल ली जहां से वो इन दोनों को आसानी से देख सके। वेटर आया तो उसे ऑर्डर दे दिया। देवराज चौहान तब से ही रत्ना के पीछे था जब से वो अपने घर से निकली थी। तब वो रत्ना से मिलने आया था। बाबू भाई ने रत्ना के बारे में बताया जो था कि वो भंडारे की खास है और उसे भंडारे सारी बातें बताता है। परन्तु जब उसे, उसी नंबर के फ्लैट से निकलते देखा, दरवाजे पर ताला लगाते देखा तो समझ गया कि यही रत्ना है। सोचा कि हो सकता है ये भंडारे के पास जा रही हो। ऐसे में वो पीछे लग गया। परन्तु यहां उसने किसी और ही युवक से मिलते और रेस्टोरेंट के भीतर जाते देखा तो कुछ देर बाद वो भी भीतर आ गया।

खाते-खाते रत्ना कह उठी---

"भंडारे किसी बड़ी वैन का इंतजाम कर रहा है कि नोट उसमें डालकर मुंबई से बाहर निकल जाए।"

"वो तो अब भी जा सकता है। नोट अब भी तो गाड़ी में...।"

"समझा कर हीरो। जिसमें अब नोट पड़े हैं वो एंबूलेंस जैसी है। जिसके बारे में सब जानते हैं। उसे लेकर सड़क पर आया तो उसी वक्त सबकी नजरों में आ जाएगा। वागले रमाकांत को तू जानता नहीं अभी...।"

"बहुत खतरनाक लोग हैं इस मामले में...।"

"उसकी तू फिक्र मत कर। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें कोई नहीं जानता। तू डर तो नहीं रहा?"

"जब तू नहीं डर रही तो मैं क्यों डरूंगा?"

जवाब में रत्ना ने प्यारी मुस्कान के साथ उसे देखा।

"भंडारे अकेला ही मुंबई से भागना चाहता है। तुझे साथ क्यों नहीं ले...।"

"मुझे भी साथ ले जाएगा। मेरे बिना उसका दिल कहां लगेगा।"

"तू जाएगी...?"

"इसकी नौबत ही नहीं आएगी। हम पहले ही कुछ कर देंगे।"

"क्या?"

"वो मैं सोच रही हूं। जल्दी ही सोच लूंगी।"

सदाशिव ने सोच भरे ढंग में सिर हिलाया फिर बोला---

"नई गाड़ी का इंतजाम कर लिया उसने?"

"कर रहा है। मुझे पता है उसने इंतजाम करने को किसी से कहा है। एक-दो दिन में इंतजाम हो जाएगा।"

"जहां वो छुपा हुआ है, वहां तेरे को क्यों नहीं बुला रहा?"

"सावधानी के नाते वो अकेला रह रहा है। जब उसे ठीक लगेगा, बुला लेगा।"

"अब तू करना क्या चाहती है?"

"मैं तेरे को वो जगह बताती हूं जहां पर भंडारे 180 करोड़ की दौलत के साथ छुपा हुआ है। तू उस जगह पर नजर रखना। इस तरह कि उसे पता ना चले। तब तक मैं सोचती हूं कि क्या करना है।"

"वो जगह क्या है जहां वो...।"

"वो उसके बाप का गैराज है, जो कि कब का मर चुका है। उसके बारे में कोई नहीं जानता। उस जगह को उसने कभी इस्तेमाल भी नहीं किया कि कोई जान पाता। वहां पर वो पैसे के साथ छिपा...।"

"तेरे मन में है क्या? तू क्या सोचती है कि हम कैसे पैसा लेंगे?"

"बोला तो अभी मैं कुछ सोच नहीं सकी। सोच रही हूं।" रत्ना ने कहा।

"भंडारे के जिंदा रहते हम उस दौलत को नहीं ले सकते।" सदाशिव ने गम्भीर स्वर में कहा।

रत्ना, सदाशिव को देखने लगी।

"क्या कहना चाहता है तू?"

"भंडारे को मारना भी आसान नहीं, वो खतरनाक इंसान है। हथियार भी रखता है।"

रत्ना उसे देखती रही।

"इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है दौलत ले लेने का।"

"मैंने ये सब नहीं सोचा हीरो...।" रत्ना की सांसे तेजी से चलने लगीं।

"सोचना चाहिए। हममें हिम्मत नहीं कि हम भंडारे की जान ले सकें। मेरी बात मानेगी तू...।"

"बोल...।"

"वो 24 करोड़ ही बहुत हैं हमारे लिए। उसे ले चलते हैं।" सदाशिव ने गम्भीर स्वर में कहा।

"वो अब मुझे बहुत कम लगने लगा है।"

"लालच मत कर।"

"ये लालच नहीं समझदारी है। असली औरत पैसा कभी नहीं छोड़ती और मैं असली औरत हूं।" रत्ना गम्भीर थी--- "मेरे पर तू भरोसा रख मैं जो सोचूंगी, ठीक ही सोचूंगी। वो वक्त को याद कर जब हमारे पास 180 करोड़ होगा।"

सदाशिव ने पहलू बदला।

"तू डर मत, मैं तेरे साथ हूं...।"

"मैं डरने वाला नहीं। मेरी अक्ल कहती है कि 24 करोड़ लेकर खिसक जाते हैं।"

"ताकि सारी उम्र अफसोस रहे कि हमने 180 करोड़ खो दिया।" रत्ना की निगाह सदाशिव पर थी।

सदाशिव ने कुछ नहीं कहा।

"उस गैराज का पता सुन ले जहां भंडारे, दौलत के साथ मौजूद है।" रत्ना ने उस गैराज का पता बताया--- "तू यहां पर समझदारी से नजर रखना। वो बाहर भी झांकता रहता होगा। तू उसकी नजरों में नहीं आना।"

"मैं उधर नजर रखकर क्या करूंगा?"

"हमारी मंजिल तो वही है। हमें वहीं जाना है अंत में। वहीं से पैसा उठाना है और...।"

"भंडारे के होते हम ये काम कैसे कर सकते हैं।"

"भंडारे को शायद मैं संभाल लूं।"

"तू...?"

"हां हीरो! मैं उस पर दबाव बनाऊंगी कि वो मुझे अपने पास बुला ले।"

"फिर?"

"मैं उसके खाने-पीने में बेहोशी की दवा डालूंगी या कोई और रास्ता निकालूंगी। इस तरह भंडारे को संभाल लेना मेरे लिए मामूली काम है। कुछ-ना-कुछ इंतजाम हो जाएगा।" रत्ना ने विश्वास भरे स्वर में कहा।

"तू फंस गई तो...।"

"नहीं फसूंगी। भंडारे मुझ पर पूरा भरोसा करता है।"

सदाशिव रत्ना को देखता रहा। चेहरे पर बहुत कुछ चल रहा था।

"क्या सोच रहा है?" रत्ना उसे खामोश पाकर बोली।

"सोच रहा हूं कि अगर 180 करोड़ हाथ में आ गया तो 50 करोड़ लगाकर बढ़िया फिल्म बनाकर खुद ही हीरो बन...।"

"ये नहीं होगा। तू सिर्फ मेरा हीरो बनकर रहेगा। हम उस पैसे से कोई फिल्म नहीं बनाएंगे।"

"रत्ना तुम...।"

"चुप हीरो! फिल्म की बात मत कर। हम जिंदगी भर इकट्ठे रहकर उस पैसे से मौज करेंगे।"

"फिल्म के नाम पर तू चिढ़ती क्यों है?"

"हीरो बनकर भी तो तूने पैसा ही कमाना है और हमें पैसे की जरूरत नहीं होगी। बहुत पैसा होगा हमारे...।"

"मैं चाहता हूं दुनिया मुझे जाने। मैं मशहूर हो जाऊं...।"

"तूने मेरे साथ रहना है कि नहीं?" रत्ना नाराजगी से कह उठी।

"तेरे साथ ही रहना है रत्ना! मैं तुझे प्यार करने लगा हूं।" सदाशिव फौरन संभलकर बोला।

"तो फिल्म की बात मत किया कर मेरे से। कितनी बार तुझे मना किया है। अब तू जाकर उस गैराज पर नजर रख, जहां का पता मैंने तुझे बताया है। अपनी पिज्जा सप्लाई भी बंद कर दे। इस काम पर लग जा। भंडारे से मेरी जो भी बात होगी वो तेरे को बताती रहूंगी। अभी मैंने बहुत कुछ सोचना है।"

देवराज चौहान इन दोनों की बातें ना सुन पा रहा था, परन्तु दोनों को लगातार बातचीत में व्यस्त पाकर इतना तो समझ गया था कि वो किसी खास बात में व्यस्त हैं।

फिर रत्ना और सदाशिव बाहर निकले।

सदाशिव दूसरी तरफ चला गया। रत्ना अपनी कार की तरफ बढ़ गई।

■■■

देवराज चौहान, रत्ना के पीछे था और रत्ना को इस बात का जरा भी पता नहीं चला कि कोई उसके पीछे है। वो अपने फ्लैट पर पहुंची दरवाजा बंद किया। ए•सी• ऑन किया और फ्रिज से पानी निकालकर पिया। चेहरे पर सोचें ठहरी हुई थीं। एक ही बात दिमाग में थी कि भंडारे से रुपया छीनकर सदाशिव के साथ भाग निकलना। परन्तु वो ये बात भी जानती थी कि ये काम आसान नहीं है। भंडारे से निपटना बहुत बड़ी बात थी।

लेकिन रत्ना मन में ठान चुकी थी कि ये काम करके ही रहना है। सदाशिव से मिलने के बाद उसे भंडारे जरा भी अच्छा नहीं लगता था। परन्तु वो ये भी जानती थी कि भंडारे को सीधे-सीधे छोड़ भी नहीं सकती। खतरनाक है भंडारे। अगर उसे पता चल गया कि सदाशिव के साथ उसका कोई चक्कर है तो वो सदाशिव को खत्म कर देगा। शायद उसे भी खत्म कर दे। भंडारे कुछ भी कर सकता था। अब सोचती थी कि उसने दस साल भंडारे के साथ कैसे बिता दिए?

तभी कॉलबेल बजी।

रत्ना की सोचें टूटीं और दरवाजे की तरफ बढ़ गई। उसका कोई मिलने वाला नहीं था। भंडारे ने कह रखा था कि पहचान बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है। उसने भंडारे की बात मानी थी। कौन आ सकता है? कहीं भंडारे तो नहीं आया?

रत्ना ने जल्दी से दरवाजा खोला।

सामने देवराज चौहान खड़ा था।

रत्ना ने पहले कभी देवराज चौहान को नहीं देखा था। रेस्टोरेंट में भी बातों में इतनी व्यस्त थी कि देवराज चौहान पर उसकी नजर नहीं पड़ी थी। उसने प्रश्नभरी निगाहों से रत्ना को देखा।

"रत्ना हो तुम?" देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा।

"हां, तुम कौन हो? मेरा नाम कैसे जानते...।"

इसी पल देवराज चौहान तेजी से आगे बढ़ा और रत्ना को धकेलता भीतर ले गया और पलटकर दरवाजा बंद करके सिटकनी लगा दी। ऐसा होते पाकर रत्ना ठगी-सी रह गई।

"कौन हो तुम?" रत्ना एकाएक होश में आई--- "बाहर निकलो यहां से, वरना मैं पुलिस को बुला लूंगी।"

"बुला लो पुलिस को। देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"मैंने कहा बाहर निकल...।"

"मैं देवराज चौहान हूं...।"

रत्ना के मस्तिष्क को झटका लगा। वो देवराज चौहान को देखती रह गई। मस्तिष्क में धमाके से फूटे। चेहरे पर से कई रंग आकर निकल गए। जल्दी से उसने खुद को संभाला।

"क...कौन?" उसके होंठों से निकला।

"देवराज चौहान...।"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान?"

देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिला दिया।

रत्ना का दिमाग तेजी से चलने लगा था।

देवराज चौहान यहां, उसके पास?"

"वो कौन था जिससे तुम रेस्टोरेंट में मिली?" देवराज चौहान ने पूछा।

"तुम्हें कैसे पता?"

"मैं तुम्हारे पीछे था।" बेहद शांत था देवराज चौहान।

"तुम मुझ पर नजर रखे हुए थे।" रत्ना के होंठों से निकला।

देवराज चौहान ने वहां नजरें घुमाईं फिर कह उठा---

"कौन था वो?"

"मेरा दोस्त था।"

"भंडारे को तो तुम्हारे उस दोस्त के बारे में नहीं पता होगा?"

रत्ना ठिठकी-सी देवराज चौहान को देखती रह गई। कह कुछ ना सकी। परन्तु इतना समझ गई कि सामने जो इंसान खड़ा है वो सच में खतरनाक है। डकैती मास्टर देवराज चौहान खतरनाक तो होगा ही।

"मेरा नाम सुनते ही तुम संभल गई। इसका मतलब मुझे तुम बखूबी जानती हो।"

रत्ना अब तक अपने को संभाल चुकी थी।

"बैठ जाओ।" रत्ना खुद भी कुर्सी की तरफ बढ़ी--- "कब तक खड़े रहोगे।"

देवराज चौहान आगे बढ़ा और कुर्सी पर जा बैठा।

रत्ना भी बैठ चुकी थी।

"मुझे कैसे जानती हो?" देवराज चौहान बोला।

"भंडारे ने बताया था।"

"क्या?"

"तुम्हें साथ लेकर वागले रमाकांत का पैसा लूटने जा रहा है।" रत्ना ने कहा।

"और क्या बताया?"

"उसका इरादा बाद में सारा पैसा ले जाने का था।"

"बहुत कुछ बता रखा है भंडारे ने तुम्हें। काफी भरोसा करता है तुम पर।" देवराज चौहान बोला।

"तुम्हें मेरे बारे में कैसे पता चला?"

"बाबू भाई ने बताया।"

"वो तुम्हें कहां मिला?"

"मैंने उसे ढूंढ निकाला।"

रत्ना आंखें सिकोड़कर देवराज चौहान को देखने लगी।

"क्या हुआ?" देवराज चौहान ने पूछा।

"अब बाबू भाई कहां है? मार दिया तुमने उसे?"

"तुमने क्यों सोचा कि मैंने उसे मार दिया।"

"क्योंकि मैं जानती हूं क्या हुआ। भंडारे पैसा लूटकर सबको धोखा देकर भाग निकला। बाबू भाई ने तुम्हें ये नहीं बताया था कि पैसा वागले रमाकांत का है। ऐसे में तुमने बाबू भाई को...।"

"नहीं मारा, जिंदा छोड़ दिया उसे।"

"ओह...!"

"तुम समझदार हो और काफी जानकारी रखती हो। तुम्हें कैसे पता चला कि भंडारे ने सबको धोखा दिया?"

"भंडारे ने बताया था कि वो ऐसा करेगा। मैंने सोचा कि भंडारे खुद ही मारा जाएगा। परन्तु वो सफल रहा। भंडारे ने मुझे फोन करके बताया था कि अपने प्लान में वो सफल हो गया है।" रत्ना गम्भीर स्वर में बोली।

"बहुत भरोसा करता है भंडारे तुम्हारा।"

"हां...।"

"क्या रिश्ता है तुम्हारा उसके साथ?"

"वो मेरे खर्चे उठाता है।"

"कब से हो उसके साथ?"

"दस सालों से...।"

"कहां छिपा है भंडारे पैसे के साथ?"

"वो इतना भी मेरा भरोसा नहीं करता कि मुझे ये बताए।" रत्ना बोली।

देवराज चौहान उसे देखता रहा, फिर बोला---

"भंडारे ने तुम्हें हर वो बात बताई जो नहीं बतानी चाहिए थी। ऐसे में उसने तुम्हें ये भी बताया होगा कि वो कहां पर है।"

"ये नहीं बताया।"

"मैं नहीं मान सकता।"

"वो तुम्हारी मर्जी, परन्तु जो सच है, वो मैंने तुम्हें बता दिया।"

"अगर तुम भंडारे का ठिकाना बता दो तो मैं तुम्हें अभी दस करोड़ दूंगा। पहले ले लो दस करोड़...।"

"मैं मुफ्त में बता देती देवराज चौहान, क्योंकि मैं उसे खास पसंद नहीं करती। पर मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती।"

"तुम जानती हो।"

रत्ना एकाएक मुस्कुराई और बोली----

"अगर भंडारे को मुझ पर इतना ज्यादा भरोसा होता तो इस वक्त मैं उसके साथ होती। यहां ना होती। ये मत भूलो कि उसके पास 180 करोड़ की दौलत है। इस हाल में वो किसी पर भी भरोसा नहीं करेगा। फिर मैं उसकी लगती ही क्या हूं। वो मुझे खर्चा-पानी देता है और मैं बेड पर उसके साथ सोती हूं। ये ठीक है कि उसने मुझे अपनी योजना बता दी थी। वो एक जुदा बात है, वैसे भी उस दिन वो पिए हुए था और सब कुछ कहे जा रहा...।"

"तब तो उसने ये भी बता दिया होगा कि अपने प्लान में कामयाब होने के बाद वो कहां पर छिपेगा?"

"ऐसी कोई बात उसने नहीं की।"

"लेकिन मुझे भरोसा है कि तुम सबकुछ जानती हो कि भंडारे कहां छिपा है।"

"मैं नहीं जानती।"

"जगमोहन को कहां कैद कर रखा है?"

"कौन जगमोहन?"

"मेरा साथी। धोखा देने के साथ वो जगमोहन को साथ ले गया था और कहीं पर कैद करके रख लिया।"

"ये खबर मेरे लिए नई है। इस बारे में मैं कुछ नहीं जानती।" रत्ना ने कहा।

"अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं तुम्हें दस करोड़ दे सकता हूं।"

"तुम ऐसी बातें जानना चाहते हो, जिसके बारे में मैं नहीं जानती।"

"वागले रमाकांत को तुम्हारी खबर दे दूं...।"

"ऐसा नहीं करोगे तुम। क्योंकि वागले रमाकांत तुम्हारी गर्दन पकड़ लेगा। रत्ना कह उठी--- "तुमने उसका पैसा लूटा है।"

"वागले रमाकांत से मेरी दोस्ती हो गई है।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "वो समझ चुका है कि मुझे धोखे में रखकर मेरे से काम लिया गया है। मैं बाबू भाई तक पहुंच गया। परन्तु बाबूभाई भंडारे के बारे में नहीं जानता था कि वो कहां है तो मैंने उसे वागले रमाकांत के हवाले कर दिया। समझी तुम...।"

रत्ना परेशान-सी हो उठी।

"अब तुम भंडारे के बारे में नहीं बता रही तो तुम्हें भी वागले रमाकांत के हवाले करना पड़ेगा।"

"तुम पागलों वाली बातें कर रहे हो। मैं सच में नहीं जानती कि भंडारे कहां पर है।"

"तुम जानती हो।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा--- "भंडारे को तो पता है कि मैंने बाबू भाई को ढूंढ निकाला है।"

"कैसे पता कि...।"

"मेरी मौजूदगी में बाबू भाई ने भंडारे को फोन करके ये बात बताई...।"

"तुमने उसे बताने दी। रोका नहीं...।"

"इस बात से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने बाबू भाई को ढूंढ निकाला। तुम्हें ढूंढ लिया। भंडारे भी मिल जाएगा।"

"तुम गलती पर हो, अगर ये सोचते हो कि मैं भंडारे के छुपे होने की जगह के बारे में जानती हूं। अगर ऐसा होता तो भंडारे मुझे इस तरह खुले में ना रहने देता। अपने पास बुला लेता।" रत्ना ने गम्भीर स्वर में कहा।

देवराज चौहान मोबाइल निकालता कह उठा---

"ये बात तुम वागले रमाकांत को बताना। मैं उसे फोन करके बुलाता हूं।"

रत्ना सकपका उठी।

"तुम मेरा यकीन क्यों नहीं करते कि...।"

"वागले को यकीन दिलाना।" देवराज चौहान फोन के नंबर दबाने लगा।

"रुक जाओ। ऐसा मत करो।" रत्ना का स्वर तेज हो गया। चेहरे पर परेशानी दिखने लगी थी।

देवराज चौहान ने ठिठककर रत्ना को देखा।

"तुम...तुम वागले रमाकांत को बीच में क्यों लाते...।"

"मुझे भंडारे के बारे में बता दो तो वागले रमाकांत तुम्हारे बारे में कभी नहीं जान पाएगा।" देवराज चौहान बोला।

"भगवान के लिए मेरा विश्वास करो कि मैं भंडारे के छिपे होने की जगह नहीं...।"

"मैं वागले रमाकांत को तुम्हारी खबर...।"

"वागले रमाकांत कबसे तुम्हारा सगा बन गया। वो भंडारे तक पहुंच गया तो सारा पैसा ले लेगा। तुम्हें क्या मिलेगा।"

"भंडारे कहां है?" देवराज चौहान ने रत्ना की आंखों में झांका।

"मैं पता लगा सकती हूं कि वो कहां हो सकता है।" रत्ना सोच भरे स्वर में कह उठी।

"कैसे पता लगाओगी?"

"ये तुम्हारे जानने की बात नहीं है। मुझे कल तक का वक्त दो।"

"ताकि तुम भाग जाओ यहां से...।"

"ये बात नहीं मैं...।"

"मैं तुम्हें कल तक का वक्त देता हूं। परन्तु मैं तब तक यहीं रहूंगा। इसी फ्लैट पर...।"

"ये कैसे हो सकता है?" रत्ना बेचैन हो उठी।

"मेरे ख्याल में तो तुम्हें परेशानी नहीं होनी चाहिए, इस बात पर कि मैं यहां रहता हूं।" देवराज चौहान बोला--- "ये मंजूर नहीं तो मैं वागले रमाकांत को बुला...।"

"उसका नाम मत लो।" रत्ना ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा।

कई पलों तक उनके बीच चुप्पी रही।

"मैं जानता हूं कि तुम्हें पता है भंडारे कहां पर छिपा हुआ है।" देवराज चौहान बोला।

"वहम है तुम्हारा।" रत्ना ने मुंह बनाकर कहा--- "लेकिन मैं कोशिश करूंगी पता करने की।"

"कोशिश तुम क्यों करोगी?"

"मैं वागले रमाकांत से दूर रहना चाहती हूं। वो मुंबई अंडरवर्ल्ड का बड़ा है। मुझे उससे डर लगता है।"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान से डर नहीं लगता।"

"नहीं, तुमसे इतना डर नहीं लग रहा...।"

"भंडारे से फोन पर बात तो होती होगी?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां।"

"क्या प्रोग्राम है उसका आगे का?"

"मुझे इस बारे में कुछ नहीं बताया। मैंने पूछा भी था उससे।" रत्ना बोली।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

"चाय पियोगे?"

"नहीं...।"

"व्हिस्की भी है। भंडारे की बोतलें यहां पड़ी रहती हैं।"

देवराज चौहान ने कश लिया और उठते हुए कह उठा---

"मैं कल आऊंगा।"

"क्या?" रत्ना चौंकी--- "जा रहे हो?"

"हां। कल आऊंगा।"

"अभी तो तुम यहीं रहने को कह रहे थे अब...।"

"तुम भंडारे का पता करके रखना।" देवराज चौहान ने कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

रत्ना वहीं बैठी देवराज चौहान को देखती रही।

देवराज चौहान ने दरवाजे की सिटकनी खोली रत्ना को देखकर बोला---

"मैं भंडारे को उस लड़के के बारे में नहीं बताऊंगा, जिससे तुम आज मिली थी।"

रत्ना कुछ नहीं बोली।

"अगर तुमने कल भंडारे का पता ना बताया तो वागले रमाकांत तुमसे बात करेगा।"

रत्ना उठ खड़ी हुई...। देवराज चौहान को देखी जा रही थी।

"यहां से भागने की कोशिश मत करना। मेरा आदमी यहां नजर रखेगा।" देवराज चौहान ने कहा और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

रत्ना कई पलों तक वहीं खड़ी रही, फिर आगे बढ़कर दरवाजा बंद कर लिया। उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि देवराज चौहान चला गया है। देवराज चौहान के उस तक आ पहुंचने को लेकर अभी तक हक्की-बक्की थी। बाबू भाई ने उसके बारे में बताया था, जो भी हो वो अपने को मुसीबत में महसूस कर रही थी।

देवराज चौहान ने उसे सदाशिव के साथ देख लिया है। अगर ये बात उसने भंडारे को बता दी तो भंडारे उसका बुरा हाल कर देगा। देवराज चौहान भंडारे तक ही न पहुंचे तो अच्छा है।

अब क्या करें वो?

सदाशिव के साथ बन रहे प्लान पर वो अब भी कायम थी।

देवराज चौहान और वागले रमाकांत से बचने का एक ही तरीका था कि यहां से भागकर वो भंडारे के पास पहुंच जाए। परन्तु बाहर देवराज चौहान का आदमी नजर रख रहा होगा। उसे भंडारे से बात करनी चाहिए।

रत्ना ने पैंट की जेब से मोबाइल निकाला और नंबर मिलाकर फोन कान से लगा लिया।

दूसरी तरफ बेल जाने लगी फिर भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"कैसी है तू?"

"अपनी सुना हीरो!" रत्ना का स्वर गम्भीर था--- "तू ठीक है ना?"

"मैं बिल्कुल सुरक्षित हूं। एकदम ठीक, कोई नई खबर?" उधर से भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"नई खबर भी है, थोड़ी-सी बुरी खबर भी है।" रत्ना शांत-गम्भीर स्वर में बोली।

"क्या?"

"देवराज चौहान अभी मेरे पास से गया है।"

जवाब में कुछ पल तो भंडारे की आवाज नहीं आई।

"क्या कह रहा था वो?"

"तेरा पता पूछ रहा था। बहुत गुस्से में था।" रत्ना बोली--- "उसने बताया कि वो बाबू भाई के पास भी पहुंच गया था।"

"हां, मुझे हैरानी है अभी तक कि वो बाबू भाई के पास कैसे पहुंचा।"

"उसने बाबू भाई को वागले रमाकांत के हवाले कर दिया है।" रत्ना बोली।

"ये कैसे हो सकता है। वागले रमाकांत तो उसे छोड़ेगा नहीं कि...।"

"दोनों में पट गई है। देवराज चौहान ने ही बताया। अब ऐसा कुछ नहीं है उनमें...।"

"ये गलत हुआ। वागले रमाकांत का ध्यान तो देवराज चौहान की तरफ होना चाहिए था।"

"देवराज चौहान तेरे को पूछ रहा था। जगमोहन के बारे में भी पूछ रहा था।"

"तूने क्या कहा?"

"मैंने कह दिया कि मुझे तेरे बारे में कुछ नहीं पता। पर उसे शक है कि मुझे पता है। ये कहकर मैंने उसे वापस भेजा कि कोशिश करूंगी, कल तक तेरे बारे में कुछ पता लगा सकूं। पर जाते-जाते वो कह गया है कि मैं भागने की कोशिश ना करूं, उसके आदमी बाहर नजर रख रहे हैं।" रत्ना ने गम्भीर स्वर में कहा।

"ये गलत हुआ।"

"क्या गलत?"

"वो जरूर तेरे पर नजर रखेगा कि अगर तू मेरी तरफ आए तो पीछा करके ठिकाना देख सके।"

"अब मैं क्या करूं, सलाह दे।"

"तूने उसे कुछ बताया तो नहीं?"

"पागल है क्या। उसे कुछ बताने का मतलब ही क्या है।" रत्ना ने कहा।

"लेकिन देवराज चौहान को तेरा पता कैसे चला?" भंडारे की उखड़ी आवाज कानों में पड़ी।

"बाबू भाई से पता चला।"

"कमीना साला। मुंह फाड़ गया।"

"जहां तू है, वहां का पता बाबू भाई को है कि नहीं?"

"नहीं पता किसी को। ये जगह मैंने कभी इस्तेमाल नहीं की। जरूरत ही नहीं पड़ी।"

"अब बता मैं क्या करूं? देवराज चौहान कल फिर तेरे बारे में पूछने आ जाएगा। वो मुझे धमकी दे रहा था कि अगर मैंने उसे तेरे बारे में नहीं बताया तो वो मेरी खबर वागले रमाकांत को दे देगा।"

"मैंने तुझे अपने से दूर रखकर गलती की।"

"अब आगे की सोच...।"

"मैं कुछ करता हूं तू फिक्र मत कर। बाहर के देवराज चौहान  या उसका आदमी तेरे पर नजर रख रहा होगा। ऐसे में तू मेरे पास पहुंची तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी। मैं कुछ और सोचता हूं। तू घर पर ही रह...।"

"क्या करेगा, बता तो...।"

"अभी पता नहीं। तेरे को बाद में फोन करता हूं। सोचने दे।" कहकर उधर से भंडारे ने फोन बंद कर दिया।

रत्ना मोबाइल हाथ में थामे सोचों में डूबी रही।

वो जानती थी कि देवराज चौहान ने उसके पास पहुंचकर मुसीबत खड़ी कर दी थी और तो और देवराज चौहान सदाशिव के बारे में जान गया था। वो भंडारे को सदाशिव के बारे में बता सकता था, तब भंडारे ने नई मुसीबत खड़ी कर देनी थी।

सोचों में डूबी रहने के बाद रत्ना ने सदाशिव को फोन किया। उसे देवराज चौहान के आ पहुंचने के बारे में बताकर, उसे डराने का इरादा नहीं था। वो सदाशिव को झंझट की बातों से दूर रखना चाहती थी।

सदाशिव से बात हो गई।

"मैं अभी-अभी तेरे बताए उस गैराज से बाहर पहुंचा हूं। ये तो भरी आबादी के बीच है। मैं नजर रखने को कोई जगह ढूंढ लूंगा। लेकिन मैं भंडारे को पहचान लूंगा। मैंने उसे कभी देखा नहीं।"

रत्ना ने सदाशिव को भंडारे का हुलिया बारीकी से समझाया।

"ठीक है। अब उसे पहचान लूंगा।"

"तेरे को वहां नजर रखनी है। वो कहीं जाए तो उसके पीछे जाना है। देखना है कि वो कहां जाता है। इस बात का भी ध्यान रखना कि कोई और तो गैराज पर नजर नहीं रख रहा। ये सब कुछ सावधानी के नाते हम कर रहे हैं।"

"तूने कोई प्लान बनाया या नहीं?"

"वो भी बन जाएगा। तू सतर्क रहकर नजर रखना। एकदम चौकस।" कहकर रत्ना ने फोन बंद कर दिया और आगे बढ़कर खिड़की के पास पहुंची और थोड़ा-सा पर्दा हटाकर बाहर नजरें घुमाने लगी। सामने छोटी सड़क थी। लोग आ-जा रहे थे। दो-चार कारें भी खड़ी थीं, परन्तु ऐसा कोई ना दिखा जो उस पर नजर रख रहा हो।

■■■