दामोदर की हरकत से शांता का दिल कुछ टूट सा गया था। दिन भर छोटे लाल दूर-दूर कार चलाता गया। शांता पीछे वाली सीट पर बैठी रही। खामोश रही, छोटे लाल से कोई बात नहीं की। शांता का मूड देखकर छोटे लाल जरा भी नहीं बोला था। लंच के वक्त उसने अवश्य पूछा था।
“शांता बहन, लंच लेना हो तो किसी होटल पर कार रोकूं?"
"नहीं, खाना खाने का मन नहीं है।" शांता ने इतना ही कहा।
उसके बाद उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई ।
शांता की सोचें अपने परिवार के गिर्द ही थीं।
दामोदर ने शादी कर रखी थी और उसे नहीं मालूम। यह पहला झटका था उसके लिये। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि दामोदर ऐसी कोई हरकत कर सकता है। उसका बच्चा हो गया और उसे नहीं मालूम। खुद दामोदर ने ही बताया कि वह ऐसा कर चुका है और इस काम को छोड़कर वह अपनी बीवी-बच्चे के साथ रहना चाहता है।
विष्णु को इस काम में दिलचस्पी नहीं। हॉस्टल से आते ही वह डॉक्टर की लड़की के चक्कर में पड़ गया। मीना, जिसके बारे में उसके कमरे में आवाजें आ रही थीं कि उसके पेट में मुन्ना का बेटा है। मीना, मुन्ना से शादी करके, घर छोड़कर जाना चाहती है।
सबने अपनी-अपनी राह पकड़ ली।
उसने अपने बारे में बिलकुल भी न सोचा। हमेशा काम में ही व्यस्त रही और आज शांता को ऐसा लग रहा था जैसे बरसों बाद उसे छुट्टी मिली हो। सिर पर पड़ा भारी बोझ उतर गया हो। आज वह अपने बारे में सोच रही थी। अब तक जिन्दगी में क्या खोया क्या पाया?
दौलत पाई, बहुत कमाई, उसे खुद नहीं मालूम था कि पास में कितनी दौलत है, लेकिन और कुछ भी नहीं था उसके पास। कोई अपना नहीं, जिन्दगी खाली थी। एक भी इन्सान ऐसा नहीं था जिस पर वह आंख बंद करके विश्वास कर सके। जिन परिवार वालों को अपना समझा था, उन्होंने अपना रास्ता चुन लिया था और उसके पास कोई रास्ता नहीं था। हर तरफ अंधेरी बंद गली थी।
सीट की पुश्त से सिर टिकाये, आंखें बंद किए शांता बहन अपनी आगे की जिन्दगी का रास्ता तलाश करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि रास्ता कहां है?
"कितना वक्त हुआ है?" उसी मुद्रा में पड़ी शांता ने पूछा।
"तीन बजे हैं, शांता बहन ।" छोटे लाल बोला ।
"चार बजे गैराज पर पहुंचना है।"
"पहुंच जायेंगे।"
■■■
एम्बैसेडर कार पर बेदी और शुक्रा साढ़े तीन बजे ही गैराज पर पहुंच गये। छोकरे काम कर रहे थे। बेदी केबिन की तरफ बढ़ गया। शुक्रा दो कारों पर लगे छोकरों के पास पहुंचा।
"नमस्कार साहब, उस्ताद जी नहीं आये?" एक छोकरे ने पूछा।
“उदय शाम को आयेगा ।" शुक्रा बोला--- "सुबह कोई लड़की आई थी यहां?"
"हां, उस्ताद ने उनसे बात की थी। उनकी कोई रिश्तेदार थी।" छोकरे ने कहा।
"वो लड़की अभी फिर आयेगी। उसे केबिन में भेज देना।" शुक्रा ने कहा और केबिन की तरफ बढ़ गया।
शुक्रा ने केबिन में प्रवेश किया तो बेदी को कुर्सी पर पसरे पाया। हाथ में रिवॉल्वर पकड़ी थी। उसे घूरे जा रहा था। चेहरे पर गम्भीरता थी ।
"इसे जेब में डाल ले।" शुक्रा बैठते हुए बोला--- "जब वक्त आयेगा, तब इस्तेमाल करने का मौका भी नहीं मिलेगा।"
बेदी ने शुक्रा को देखा। फिर रिवॉल्वर जेब में डालते हुए कह उठा ।
"शांता वास्तव में उतनी खतरनाक हैं जितनी कि तू कह रहा था।"
"उससे भी ज्यादा।"
बेदी गहरी सांस लेकर रह गया।
"मुझे डर लग रहा है शुक्रा।"
"क्यों?"
"कहीं मेरे हाथों खून न हो जाये। गोली न चल जाये।" कहते हुए बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"अगर यह बात है तो डर मत।" शुक्रा का स्वर चिन्ता से भरा था--- "तेरे को गोली चलाने का मौका नहीं मिलेगा। पहले ही वो तेरी जान ले लेगी। शांता बहन का मुकाबला करना, असम्भव है, हमारे लिये।"
बेदी की निगाह शुक्रा पर जा टिकी।
"वो अकेली आयेगी या उसके साथ और लोग भी होंगे ?"
"मैं क्या कह सकता हूं।"
"जाने क्यों मुझे डर लग रहा है।"
"शांता बहन का सामना करने की सोचकर डर तो लगेगा ही। उसके भाई को तुमने गोली मारी है। इस बात को लेकर वह गुस्से में होगी। हवा का रुख देखकर बात करना। शायद मामला संभल जाये।"
"नहीं, शांता के साथ बात नहीं पटेगी।" बेदी ने बेचैन स्वर में कहा।
"क्यों ?"
"विष्णु को मैंने गोली मारी, मर भी सकता था। दूसरी बात वो वधावन की लड़की को मांग रही है। उसकी यह बात पूरी नहीं की जा सकती । जब उसकी बात नहीं मानी जायेगी तो उसे गुस्सा आयेगा। ऐसे में बात बिगड़ेगी। बनेगी नहीं।" बेदी ने दाँत से नीचे वाला होंठ काटते हुए कहा--- “मैं यहां कभी न आता। शांता से कभी न मिलता, अगर शांता ने उदय को धमकी न दी होती।”
“उसे।"
तभी केबिन का दरवाजा खुला और शांता ने भीतर प्रवेश किया।
"शांता बहन ।" शुक्रा के होंठों से बरबस ही निकला।
बेदी की सतर्क निगाह शांता पर जा टिकी।
उसने सिर से पांव तक शांता को देखा। इसमें कोई शक नहीं कि वह बेहद खूबसूरत थी। मन-ही-मन वह हैरान हुआ कि इतनी खूबसूरत युवती, इस कदर खतरनाक हो सकती है। वह तो जैसे किसी कॉलेज में पढ़ने वाली युवती लग रही थी। वैसे ही बैठा बेदी, देखता रह गया शांता को।
शांता ने दुपट्टा ठीक किया। आगे बढ़ी और कुर्सी पर बैठ गई। इस दौरान वह कई बार दोनों को देख चुकी थी। उसका चेहरा बिलकुल सपाट था।
"बैठ।" शांता ने शांत स्वर में शुक्रा से कहा।
शुक्रा फौरन बैठ गया ।
“तुम दोनों में से विजय और शुक्रा कौन है ?" शांता ने पूछा ।
"मैं शुक्रा हूं, यह विजय ।"
शांता की निगाह बेदी पर जा टिकी। बेदी तो एकटक उसे देखे जा रहा था।
"तूने मारी विष्णु को गोली ?" शांता ने बेदी से पूछा।
बेदी खामोश रहा।
"मुंह खोल, चुप नहीं रहने का।"
"हां, मैंने मारी।" बेदी का स्वर सख्त-सा हो गया था।
"क्यों ?"
"गोली नहीं मारनी थी मैंने उसे। विष्णु ने मेरे हाथ से रिवॉल्वर छीननी चाही। उस वक्त उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था। मैं घबरा गया और ट्रेगर दब गया।" बेदी ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा ।
"तू घबरा गया।"
"हां।"
"रिवॉल्वर तेरे हाथ में और वो खाली हाथ, फिर भी कहता है तू घबरा गया।" शांता का स्वर शांत था।
"हां घबरा गया, क्योंकि मैंने तो रिवॉल्वर डराने के लिये पकड़ी थी। चलाने के लिये नहीं, मैंने उस दिन से पहले कभी गोली नहीं चलाई। मैं शरीफ इन्सान हूं।" बेदी ने कहा।
शांता ने गहरी निगाहों से बेदी को देखा।
“तू शरीफ है ?”
"हां।"
"क्या करता है?"
"करता था, सेफ कम्पनी में सेल्समैन था। लोगों को सेफ खरीदने को राजी करता था। अब कुछ नहीं करता।"
"उदयवीर कहां है? वो लड़की की रखवाली कर रहा होगा ?" एकाएक शांता ने कहा।
बेदी और शुक्रा ने जवाब में कुछ नहीं कहा।
"बोल, तेरे जैसा शरीफ आदमी हाथ में रिवॉल्वर लेकर, डॉक्टर की लड़की का अपहरण करने क्यों चल पड़ा। क्या तकलीफ हुई तेरे को। ये जानते हुए भी विष्णु मेरा भाई है, तू डरा नहीं ।" शांता ने बेदी की आंखों में देखा ।
"मैं डरा था।"
“फिर भी किया?" शांता के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था।
"हां, करना पड़ा।"
"बता, क्यों?"
"मेरे को बारह लाख चाहिये। उसका इन्तजाम नहीं हो रहा था, तो यह सब...।"
"सोच-सोच के मत बता, पूरा बोल दे।"
"पन्द्रह दिन पहले एक बैंक में डकैती पड़ रही थी। बुरी किस्मत ऊपर से मैं पहुंच गया।" बेदी ने भारी स्वर में कहा--- "उनकी चलाई गोली मेरे सिर में आ लगी। बाद में पता चला कि वो गोली दोनों तरफ के दिमाग के ठीक बीच जा फंसी है। अगर दो महीनों में गोली को न निकाला गया तो मैं मर जाऊंगा। गोली निकालने के लिये ऑपरेशन तो कई डॉक्टर कर सकते हैं। लेकिन वो गारण्टी नहीं देते कि सफलता से दिमाग में फंसी गोली निकाल देंगे और मैं बचा रह जाऊंगा लेकिन डॉक्टर वधावन सफल ऑपरेशन करने की पूरी गारण्टी देता है परन्तु बतौर फीस बारह लाख मांगता है। जो मेरे पास है नहीं।"
"तो इसलिये तूने डॉक्टर की छोकरी को उठाया कि वो तेरे दिमाग का ऑपरेशन करके फंसी गोली निकाल दें।"
“हां।"
"छोकरी मेरे हवाले कर, बारह लाख तेरे को मैं देती हूं।" शांता ने शांत स्वर में कहा ।
बेदी और शुक्रा की आंखें मिलीं।
“तुम बारह लाख दोगी, शांता बहन?" शुक्रा के होंठों से निकला।
"तुम लोगों को बारह लाख की जरूरत है। मुझे डॉक्टर की लड़की की। आज मेरा मूड ठीक नहीं है। नहीं तो मैं बिना बारह लाख दिए उस छोकरी को तुम लोगों से ले लेती।" शांता ने भावहीन स्वर में कहा।
कोई कुछ नहीं बोला।
बेदी-शुक्रा, शांता को देखते रहे।
“मैं बारह लाख ले आती हूं। तुम लोग डॉक्टर की छोकरी को लेकर यहीं पहुंचो।” कहते हुए शांता उठी ।
"नहीं।" बेदी के होंठों से निकला।
शांता ठिठकी, उसकी आंखें सिकुड़ी, बेदी को देखा।
"क्या बोला तू?"
"मैं लड़की तुम्हारे हवाले नहीं करूंगा।" बेदी दृढ़ स्वर में बोला ।
“नहीं करेगा।"
"नहीं।"
"क्यों?"
"लड़की तुम्हें दे दी तो तुम्हारा दिया बारह लाख मेरे लिये बेकार हो जायेगा। डॉक्टर वधावन जानता है कि उसकी लड़की हमारे पास है। इस वक्त तो वह अपनी लड़की की खातिर मेरा ऑपरेशन करेगा। अब वो फीस में बारह लाख नहीं, अपनी लड़की लेगा।" बेदी ने स्पष्ट तौर पर अपनी मजबूरी बताई।
"तू मेरे को इन्कार करता है।" शांता ने उसे घूरा।
"यह इन्कार नहीं, मेरी जिन्दगी का सवाल ... ।”
"तेरी जिन्दगी का सवाल तो मैं ही खत्म कर देती अगर मेरा मूड ठीक होता ।" शांता का स्वर सख्त हो गया--- "बहुत हो गया, अब और किसी की जान लेने का मन नहीं है। तूने मेरे भाई को गोली मारी, वह मर भी सकता था। इस पर भी मैं तेरे से आराम से बात कर रही हूं। अगर मेरा मूड ठीक होता तो तेरे हाथ-पांव तोड़कर तेरे से पूछा जा रहा होता कि डॉक्टर की लड़की को तुमने कहां छिपा रखा है? मेरी बात मान। वो लड़की मेरे को दे दे। तू मेरे हाथों बच जायेगा।"
बेदी उसकी आंखों में झांकता रहा।
शांता उसे देखती रही।
शुक्रा बेचैन-सा बैठा था। हर पल उसे लग रहा था कि अब कुछ हुआ तो अब कुछ हुआ। बेदी के इन्कार पर उसका दिल धक-धक कर रहा था कि शांता बहन कभी भी कोई भी कैसा भी कदम उठा सकती थी।
"तू बार-बार चुप क्यों होता है। मेरी बातों को सुनकर बोलता रह।" शांता का स्वर कठोर था।
"डॉक्टर की लड़की को मैं तेरे हवाले नहीं कर सकता।"
"मरेगा क्या?" शांता की आंखें सिकुड़ीं--- "शांता को जानता नहीं क्या?"
"वो लड़की मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर नहीं दूंगा।” बेदी की आवाज में घबराहट थी, परन्तु स्वर दृढ़ था।
शांता ने अपने कपड़ों में छिपी रिवॉल्वर निकाली और बेदी की तरफ कर दी।
“अब बोल देगा ।" शांता का स्वर ठण्डा था।
बेदी ने शांता के हाथ में दबी रिवॉल्वर को देखा। आंखों में खौफ नाच उठा था। सूखे होंठों पर जीभ फेरी। अपनी जेब में रिवॉल्वर के मौजूद होने का एहसास था। परन्तु उसे निकालने की हिम्मत नहीं हुई।
"वो लड़की मेरे हाथ से निकल गई तो मैं खुद को बचाने का मौका भी खो बैठूंगा।" बेदी की आवाज में हल्का-सा कम्पन था--- "लड़की को मैं तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।”
शांता का चेहरा कठोर हुआ। उसका रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा हुआ, दूसरे ही पल उसकी हरकत में ढीलापन आ गया। चेहरे का तनाव एकाएक गायब हो गया। वो बेदी को देखती रही। अजीब-सी सनसनी वहां पैदा हो गई थी। शांता के चेहरे पर न समझ में आने वाले अजीब से भाव आ गये थे।
“मूड ठीक नहीं है। ठीक नहीं है मेरा मूड। आज कुछ नहीं हो सकता।” शांता सिर हिलाते हुए बड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई, फिर रिवॉल्वर वापस कपड़ों में रखती बेदी से कह उठी--- “आज मुझसे बात नहीं हो रही। तू कल मिलना, यहीं पर मिलना मुझे, बोल कितने बजे मिलेगा, बता?"
बेदी को समझ नहीं आया कि शांता को अचानक क्या हो गया ।
शुक्रा हड़बड़ाकर शांता को देख रहा था।
"ठीक है, सुबह दस बजे यहीं मिलना तू, सुना क्या?"
सूखे होंठों पर जीभ फेरते बेदी ने हौले से सिर हिला दिया।
शांता पलटी और केबिन से बाहर निकलती चली गई।
बेदी और शुक्रा हक्के-बक्के से दरवाजे को देखते रहे। उन्हें शांता का इस तरह बात अधूरी छोड़कर चला जाना समझ में नहीं आया था। ना ही उन्हें विश्वास आ रहा था कि शांता सुख-शान्ति से चली गई है।
"क्या हुआ है शांता बहन को। यह तो मरने-मारने के अलावा और कोई भाषा नहीं जानती। फिर यह इस तरह चली गई। मुझे तो विश्वास नहीं आ रहा।" शुक्रा के होंठों से निकला।
बेदी का भी यही हाल था। उसने किसी तरह सिगरेट सुलगाई।
"मुझे लगता है, शांता अपनी किसी परेशानी में थी।" बेदी धीमें स्वर में कह उठा।
"हां।" शुक्रा ने कहा--- "शायद वह परेशान ही थी। वरना उसका रंग तो बहुत ख़तरनाक है। यही सुना है। मुझे तो बहुत हैरानी हो रही है कि तूने उसके भाई को गोली मारी। वो तेरे को बिना कुछ कहे चली गई। उसे वधावन की लड़की चाहिये थी। उसका अता-पता पूछते-पूछते बीच में ही उठकर चली गई। तेरे को कुछ भी नहीं कहा।"
“कल मिलने को कहा है उसने।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा ।
"हां, सुबह दस बजे यहीं पर ।" शुक्रा ने बेचैनी से कहा--- “कल जाने क्या करे?"
बेदी उठ खड़ा हुआ।
"चल, निकल ले यहां से, कहीं वह फिर न पलट आये।"
बेदी और शुक्रा बाहर निकले। छोकरे काम में व्यस्त थे। वो बाहर खड़ी एम्बैसेडर में बैठे और वहां से चल पड़े। कुछ देर बाद बेदी ने खामोशी तोड़ी।
"शुक्रा, वधावन को फोन करें ?"
"वधावन को?"
"क्या हर्ज है?"
"कोई हर्ज नहीं, हो सकता है वह तेरे फोन के इन्तजार में हो । आखिर उसे बेटी की चिन्ता तो होगी ही।" शुक्रा ने कहा--- “जहां भी फोन नजर आये। रोक लेना, वधावन से बात करके देख। शायद उसने ऑपरेशन की तैयारी कर ली हो।"
कुछ देर बाद बेदी ने सड़क पर बने फोन बूथ के पास कार रोकी।
"आ।" बेदी ईंजन बंद करता हुआ बोला ।
"यही बैठा हूँ मैं, तू बात कर ले।"
बेदी ने पब्लिक फोन बूथ से वधावन से बात की।
"डॉक्टर।" बात होते ही बेदी बोला--- “पहचान लिया मुझे ?"
"हां।" वधावन का शांत स्वर उसके कानों में पड़ा--- "मेरी बेटी कैसी है?"
"जैसी पहले थी, एकदम ठीक।"
"उससे बात कराओ।"
"इस वक्त नहीं हो सकती, तुम...।"
"क्यों नहीं हो...।"
"टोका-टाकी मत करो। मैंने तुम्हें इसलिये फोन नहीं किया कि बाप-बेटी की बात कराता रहूं।" बेदी की आवाज में उखड़ापन आ गया--- “तूने क्या सोचा, मेरा ऑपरेशन कर रहा है, कब करेगा?"
"अभी नहीं कर सकता।"
"मतलब कि तेरे को अपनी बेटी से प्यार नहीं। उसकी लाश भेजूं तेरे पास ।" बेदी गुर्रा उठा ।
"ऐसा मत करना।" वधावन की तेज आवाज उसके कानों में पड़ी ।
"तेरा जवाब तो यही कहता है कि मैं ऐसा ही करूं।"
"नहीं, मेरी बात का गलत मतलब मत निकालो। मुझे पांच-सात दिन का वक्त दो। उसके बाद... ।"
“पांच-सात दिन ? पागल तो नहीं हो गये तुम?" बेदी हड़बड़ा कर क्रोध से कह उठा--- "मैं चाहता हूं अभी इसी वक्त तुम ऑपरेशन कर दो। मुझे अपने ऑपरेशन की चिन्ता है। तुम्हें अपनी बेटी की नहीं, जो मेरे कब्जे में है?"
“मेरी बात को तुम समझ नहीं रहे। दरअसल मेरे हाथ में चोट लगी है। उसे ठीक होने में पांच-सात दिन लग जाएंगे। तभी मैं ऑपरेशन कर पाऊंगा। कहो तो अपने किसी असिस्टेंट से तुम्हारा ऑपरेशन ।"
"नहीं डॉक्टर।" बेदी उसकी बात काटकर दांत भींचकर कह उठा--- "मेरा ऑपरेशन तुम करोगे, दिमाग में फंसी गोली तुम निकालोगे। इस बात को अच्छी तरह अपने दिमाग में बिठा लो ।"
"मैं कब मना कर रहा हूं कि नहीं करूंगा, लेकिन मेरे हाथ की चोट... ।"
"अपने हाथ चोट जल्दी ठीक करो, मैं तुम्हारी बेटी को ज्यादा देर संभाल कर नहीं रख सकता।" बेदी ने दांत भींचकर कहा--- "वह भी तकलीफ में है और मैं भी।"
"मैं तुम दोनों से ज्यादा तकलीफ में हैं, आखिर मेरी बेटी का सवाल है, जिसे....।"
"पुलिस को तो खबर नहीं की?"
"पुलिस, नहीं। मैंने किसी को खबर नहीं की पागल हूं क्या?"
"अपना हाथ ठीक करो डॉक्टर। मैं एक-दो दिन में फोन करूंगा। ऑपरेशन की तैयारी शुरू कर दो।” बेदी ने अपने स्वर को खतरनाक बनाकर कहा और रिसीवर बूथ से बाहर आ गया।
कार में बैठते ही शुक्रा ने पूछा।
"क्या बात हुई?"
“कुछ समझ में नहीं आ रहा।" बेदी ने कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।
"क्यों ?”
“अब वो कहता है कि उसके हाथ में चोट लगी है। ठीक होने में पांच-सात दिन लगेंगे।" बेदी की आवाज में गुस्सा था।
"जानबूझकर तो नहीं लटका रहा?"
“उसकी बेटी हमारे कब्जे में है। ऐसा वह क्यों करेगा?" बेदी बोला--- “लेकिन ऐसी हालत में उसे जल्द-से-जल्द मेरा ऑपरेशन करना चाहिये। समझ में नहीं आता कि वह देर क्यों कर रहा है, क्या गड़बड़ हो सकती है?"
"मेरे ख्याल में तो कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिये। वह इस स्थिति में नहीं है कि गड़बड़ कर सके।" शुक्रा बोला।
“एक-दो दिन बाद फोन करके सीधे-सीधे बात करनी पड़ेगी उससे। मेरा दिल कहता है कि उसके हाथ में कोई चोट नहीं लगी।" बेदी ने होंठ भींचकर कहा--- “अब डॉक्टर से डण्डा घुमाकर बात करनी पड़ेगी।"
शुक्रा कुछ नहीं बोला।
"शांता, कल दस बजे मिलेगी। कहीं वो नई मुसीबत न खड़ी कर दे।" एकाएक बेदी का ध्यान शांता की तरफ चला गया--- "दिल तो करता है कि उससे न मिलूं। मैंने ऐसा किया तो वो उदयवीर या उसकी मां-बहन को नुकसान पहुंचा देगी।"
शुक्रा ने बेचैनी से पहलू बदला । बोला कुछ नहीं ।
■■■
एक्सचेंज से फोन काल टेप की गई कि बेदी ने कहां से फोन किया। फौरन जय नारायण को खबर की गई। जय नारायण ने पूरी कोशिश की कि उस फोन बूथ पर जल्द-से-जल्द पहुंचे । लेकिन वहां पहुंचने में उसे पौन घंटा लग गया। बेदी तो वहां से कब का जा चुका था।
बेदी को पकड़ने की, सब-इंस्पेक्टर जय नारायण की पहली कोशिश बेकार गई।
■■■
शांता अपने घर पहुंची तो शाम के छः बज रहे थे। हमेशा की तरह सत्या ने ग्रिल खोली।
वह भीतर आई तो ग्रिल को पुनः बंद कर दिया।
तब तक शांता ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ चुकी थी।
“पैग बना दे।” शांता ने थके स्वर में कहा।
सत्या ने आगे बढ़कर लाइट ऑन की फिर पैग बना लाई।
शांता ने गिलास लेकर घूंट भरा।
"दामोदर चला गया।" सत्या बोली।
शांता की निगाह फौरन सत्या के चेहरे पर जा टिकी।
"चला गया, कहां?"
"अपनी पत्नी और बच्चे के पास।" सत्या का स्वर भावहीन था।
शांता की आंखों में अविश्वास के भाव उभरे फिर गायब हो गये।
"कब गया ?"
“सोया उठा, तैयार होकर बिना नाश्ता किए ही चला गया।" सत्या की आवाज में भारीपन आ गया।
"मेरे से मिल के जाने को नहीं बोला वो ?" शांता का स्वर शांत था।
"नहीं।"
एकाएक शांता थकी-थकी सी लगने लगी। उसने एक ही बार में गिलास खाली किया।
सत्या ने उसके हाथ से खाली गिलास ले लिया।
"पापा ने, दामोदर से बात नहीं की?" शांता पास ही पड़ा सिगरेट का पैकिट उठाते हुए बोली।
“की।" सत्या की आवाज में उखड़ापन था--- "लेकिन वह कोई बात सुनने को राजी नहीं था, चला गया।"
"पैसा नहीं ले गया ?"
"नहीं, इस बारे में दामोदर ने कोई बात नहीं की।"
"वो जब पैसा लेने आये तो दे देना। जितना ले जाना चाहे ले जाने देना।" शांता का स्वर धीमा था।
सत्या ने धीमे से सिर हिला दिया।
"दामोदर के जाने के बाद मीना, मुन्ना के पास गई थी। मुन्ना शादी को राजी है। आकर मीना बोली कि कल वो मुन्ना के साथ शादी कर रही है। मन्दिर में शादी करेगी। बोली पन्द्रह-बीस लाख दे देना।"
"दे देना, पैग और बना दे।"
सत्या ने नया पैग बनाकर शांता को दिया।
"मैंने कहा था मां, सब बिखरने वाला है। ख़त्म हो गया ना मां।" शांता ने थके स्वर में कहा।
सत्या कुछ नहीं बोली।
"विष्णु भी जायेगा, अब कैसा है विष्णु?"
"ठीक है, चल फिर लेता है। पांच-चार दिन में बिल्कुल ठीक महसूस करेगा।"
शांता ने घूंट भरकर सत्या को देखा।
"अब मैं भी थक गई हूं मां। अपने ही परिवार के लोगों की हरकतें देखकर दिल बुझ गया। कुछ करने को मन नहीं करता।"
तभी केदारनाथ ने ड्राइंगरूम में कदम रखा। उसका चेहरा बुझा-सा था। वह सोफे पर बैठ गया।
"पापा।" शांता ने घूंट भरा--- "तुमने पच्चीस साल धंधा संभाला। सब ठीक रहा। मैंने कुछ ही साल संभाला और सब कुछ खराब हो गया। मैं काबिल नहीं थी, गलती की तुम्हारे हाथों से धंधा लेकर।"
"तुम्हारी कोई गलती नहीं । तुम काबिल हो। मुझसे कहीं ज्यादा काबिल हो ।” केदारनाथ ने अफसोस भरे स्वर में कहा--- "मैंने जब पच्चीस साल धंधा संभाला तो मेरे साथ तुम्हारी मां थी। इसने बराबर मेरा साथ दिया। बच्चे छोटे थे। मेरे काम के बीच दखल देने वाला कोई नहीं था। अब बच्चे बड़े हो चुके हैं। अपनी मनमानी करने लायक हो गये हैं। इसलिये वह अपने-अपने रास्ते पर जाने लगे हैं। जिस काम के बीच वह पल कर बड़े हुए उनकी दिलचस्पी अब उस काम में नहीं रही। मैंने तो चलता धंधा बच्चों के हवाले किया था। संभालों या बिगाड़ो मेरी और तेरी मां की तो गुजर गई।"
तीनों के चेहरों पर थकान और उदासी के भाव थे।
“दामोदर गया, मीना कल चली जायेगी। विष्णु जाने की तैयारी में है। सब खत्म हो गया पापा।"
"कुछ खत्म नहीं हुआ।" केदारनाथ दांत भींचकर कह उठा--- "मैं हूँ तेरे साथ। हमारा धंधा वैसे ही चलेगा, जैसे चल रहा था। हम कहीं भी कमजोर नहीं होंगे। हम... ।"
"तुम संभालो, अब मैं धंधा नहीं संभाल पाऊंगी।" शांता ने केदारनाथ को देखा।
"दूसरों की वजह से दिल छोटा मत करो शांता । हम...।"
"पापा, जरूरत नहीं है अब यह धंधा चलाये रखने की।" शांता ने घूंट भरा--- "बहुत पैसा है हमारे पास। धंधा करके पैसा और इकट्ठा करके क्या करूंगी। नहीं, अब मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है। दामोदर और मीना, मुझसे ज्यादा समझदार निकले और मैं खुद को समझदार समझती रही। उन दोनों ने अपनी जिन्दगी किनारे लगा ली और मैं-मैं किसी भी किनारे को नहीं छू पाई। बहती ही जा रही हूं।"
केदारनाथ ने गहरी निगाहों से शांता को देखा।
"तू दो-चार दिन आराम कर, उसके बाद बात करूंगा। अभी तेरा मन खराब है।"
"मुझे बहलाओ मत। अब धंधे के बारे में कोई बात नहीं करूंगी।"
"तो क्या करेगी तू?"
"मेरे को नहीं मालूम।"
"धंधे में हमारे कितने दुश्मन हैं?" केदारनाथ ने उसे घूरा--- "वो "हमारी जान ले लेंगे।"
"हां, यह तो होगा ही। यह बात फैलते ही हमारा परिवार अलग हो गया है। उनके सिर उठने लगेंगे।" शांता ने सत्या और केदारनाथ को देखा--- "तुम दोनों के सामने एक ही रास्ता है। पैसे लेकर इस शहर को छोड़कर कहीं दूर चले जाओ। बच जाओगे, नहीं तो देर-सबेर में मारे जाओगे।"
सत्या और केदारनाथ की आंखें मिलीं।
"यह इतना आसान नहीं है।" सत्या ने कहा--- "शहर भर में हमारी प्रापर्टी बिखरी पड़ी है। कई करोड़ों की है। उसे छोड़कर नहीं जाया जा सकता। दूसरे लोग उस पर कब्जा कर लेंगे।"
"जाना तो पड़ेगा, शहर से या फिर दुनिया से ।" शांता ने घूंट भरा।
कई पलों तक वहां खामोशी रही।
"शांता ठीक बोलती है।" केदारनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा--- "प्रापर्टी का लालच हमें छोड़ना होगा। यहां रहे तो हमारे दुश्मन कभी-न-कभी हमें खत्म कर ही देंगे। पैसा इतना ज्यादा हैं हमारे पास कि हम कहीं भी जा सकते हैं, क्यों शांता ?"
"हां, तुम दोनों कहीं भी आराम से जिन्दगी बिता सकते हो । विष्णु को लेना, वह साथ जाना चाहे तो उसे भी ले जाना।" कहने के साथ ही शांता ने एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया।
सत्या ने आकर उसके हाथ से खाली गिलास लिया।
"तू भी तो साथ चलेगी।” केदारनाथ बोला ।
"नहीं।"
"क्यों ?"
"अब मैं अकेले रहना चाहती हूं। दुनिया को छोड़ देना चाहती हूं।" शांता ने भारी स्वर में कहा।
"पागल मत बन, अकेले रहेगी तो तेरे को कोई-न-कोई मार देगा।"
“मेरी फिक्र मत करो।” शांता ने सिगरेट सुलगाई।
सत्या और केदारनाथ की आंखें मिलीं।
“शांता, तू भी हमारे साथ चलेगी।” सत्या बोली।
"नहीं मां। यह बात फिर मत कहना।"
"नहीं मानेगी।" केदारनाथ ने सिर हिलाया--- "जिद्दी है, बचपन से ही जिद्दी है।"
शांता ने कश लिया।
"कल मीना शादी कर रही है।" शांता ने गम्भीर स्वर में कहा— “मीना की शादी की खबर फैलते ही हमारे दुश्मन समझ जायेंगे कि परिवार में गड़बड़ है। जल्दी ही दामोदर के जाने की बात खुल जायेगी। उसके बाद हर कोई जान जायेगा कि हमारे परिवार में फूट पड़ चुकी है। हो सकता है मीना ने मुन्ना को बता दिया हो कि दामोदर परिवार छोड़कर चला गया है। मुन्ना ने बात आगे कहीं कर दी हो। मतलब कि कभी भी बात खुल सकती है। कि हम लोग एक नहीं रहे। मेरी मानो तो आज की रात सबसे सुरक्षित रात है। निकल जाओ। कल क्या हो मालूम नहीं।"
कई पलों के लिये वहां खामोशी छा गई। तकलीफदेह चुप्पी ।
"शांता ठीक कहती है।" केदारनाथ ने सत्या से कहा--- "हम लोग अपने धंधे से पीछे हट रहे हैं। यह जानते ही चूहा भी शेर बनकर हमें खत्म करने की कोशिश करेगा। जाने कौन-कौन लोग, जिन्हें अब हम जानते भी नहीं, अपना बदला लेने में लग जाएंगे। ऐसे में हम ज्यादा देर जिन्दा नहीं रह पायेंगे। हमारा चले जाना ही ठीक है ! विष्णु से बात कर ले।"
सत्या ने शांता को देखा।
शांता ने आंखें बंद कर ली थी, कश ले रही थी।
सत्या विष्णु के कमरे की तरफ बढ़ गई।
“शांता ।” केदारनाथ अफसोस भरे स्वर में बोला।
"हां पापा।" आंखें नहीं खोली शांता ने ।
"बाद में तेरे को फोन करके, अपना पता दे देंगे। बता देंगे किस शहर में हैं हम, कहां हैं, आ जाना तू...।"
“पता दे देना पापा।" शांता उसी मुद्रा में बोली।
“तू साथ चलती तो मुझे अच्छा लगता।"
"नहीं, मुझे सोचना है अपने बारे में।" शांता थके स्वर में कह उठी--- "मैं नहीं साथ चल सकती।”
तभी सत्या वहां आई।
"विष्णु चलने को तैयार है।" वह बोली।
शांता ने आंखें खोली।
"मैं जानती थी, वह साथ ही चला जायेगा।" शांता की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
केदारनाथ उठा और सत्या से बोला ।
"सत्या, चलने की तैयारी कर ।"
सत्या ने शांता को देखा, पास आई, सिर पर हाथ फेरा।
“खाना दूं शांता ।”
"नहीं मां, तू तैयारी कर । जा यहां से। बहुत हो गया। अकेला छोड़ दो मुझे।" शांता की आवाज में टूटन थी--- "बीस लाख छोड़ जाना। बाकी सब कुछ ले जाना। विष्णु को कोई अच्छा-सा काम करवा देना। यहां से दूर जाना। बहुत दूर जहां तुम लोगों को कोई पहचान न सके। सब कुछ ठीक रहे।"
सत्या की आंखों में पानी चमका।
"जा मां। बोतल ला दे मुझे। तुझे तो तैयारी करनी है जाने की। एक-एक पैग कहां देती रहेगी मुझे।"
सत्या ने बोतल और गिलास लाकर शांता को दे दिया।
“तेरे को फोन पर पता बता देंगे। बाद में तू आ जाना।"
शांता कुछ नहीं बोली । बोतल का ढक्कन खोलकर एक तरफ उछाल दिया और गिलास भरने लगी। इसी तरह पीती रही। बोतल खाली होती रही। आंखें-चेहरा सब कुछ नशे में डूब चुका था । होशो-हवास भी नींद की गर्त में डूबते जा रहे थे। कुछ-कुछ याद था उसे कि केदारनाथ, सत्या, विष्णु उसके पास यह कहने के लिये आये थे कि वे जा रहे हैं। मालूम नहीं उसने क्या कहा ।
फिर सत्या उसे सहारा देकर उसके बेडरूम में ले गई। बैड पर लिटाया। उसके बाद उसे कुछ होश नहीं रहा। अगले दिन सुबह सात बजे मीना ने जोर-जोर से हिलाया तो किसी तरह उसकी नशें से भरी आंख खुली।
■■■
रात का नशा अभी भी उसके सिर और दिमाग पर हावी था। भारी हो रहे पोपटे किसी तरह खोले। मीना को देखा। पीठ पीछे तकिये पर रखकर सीधी होकर बैठी।
"चाय पी ले।” मीना ने हाथ में थाम रखा चाय का गिलास, शांता को थमाया।
"मां-पापा-विष्णु गये?" शांता के होंठ खुले।
"हां, रात को ही वे चले गये थे।" मीना ने कहा।
शांता ने चाय का घूंट भरा।
"आज शादी कर रही है तू ?"
"हां।” मीना धीमे स्वर में कह उठी--- "मुन्ना के साथ मन्दिर में?"
"तूने जितने पैसे मांगे थे, मां तेरे को दे गई?" शांता की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
“दे गई, तूने बीस लाख छोड़ने को कहा था, वो तेरे लिये रख गई है।"
शांता ने निगाहें उठाकर मीना को देखा। वह सजी-संवरी तैयार खड़ी थी। आज वह पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत लग रही थी। चेहरे पर अजीब-सी चमक भी नाच रही थी।
“लाल जोड़ा नहीं पहना तूने?" शांता ने शांत स्वर में कहा।
“वो मन्दिर में पहनूंगी, तैयार हो जा, तू भी चल।”
“तू जा, मैं नहीं आ सकूंगी।" शांता ने चाय का घूंट भरा।
"तेरे बिना शादी करूंगी क्या ?"
“मेरे बिना शादी रुकती होती तो मैं तेरे साथ चलती। यूं ही जाने में मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही।"
“मन्दिर में दामोदर भी आयेगा। अपनी बीवी और बच्चे के साथ, सबसे मिल लेना।” मीना बोली।
“अब मुझे रिश्ते अच्छे नहीं लगते।" शांता का स्वर भावहीन था--- "जा, तू भी अपनी तैयारी कर ।"
"सच में तू नहीं चलेगी ?"
"नहीं।"
“तू चलती तो मुझे अच्छा लगता।”
"मैंने दूसरों के काम करने बंद कर दिए हैं।" शांता ने मीना को देखा---- "आज पहली बार तो मौका मिला है मुझे अपने बारे में सोचने का। सोचने दे। तू जा, अपनी शादी करा।"
“शांता, तू मेरी शादी से नाराज तो नहीं।"
“नहीं, आज मैं सिर्फ अपने से नाराज हूं। मुझे अपनी भी नाराजगी दूर करनी है।" शांता के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे---- “जा पैकिट ला दे। उधर पड़ा होगा।"
मीना ने ड्राइंग रूम से लाकर उसे पैकिट दिया। शांता ने सिगरेट सुलगाई।
"अपना पैसा लेते जाना। अब यहां रखवाली के लिये कोई पहरेदार नहीं रहा।" शांता ने कश लिया--- “और भी किसी चीज की जरूरत हो, जो इस घर में मौजूद हो तो बेशक वो भी ले जाना।"
“मां, सोने के कुछ हार दे गई है मुझे।” मीना बोली--- "तू देख ले। कोई तेरे को पसन्द हो तो...।"
"सब ले जा तू। मुझे जरूरत पड़ेगी, यह सोचकर कोई चीज यहां मत छोड़ जाना।" शांता ने शांत स्वर में कहा।
"तू अकेली यहां रहेगी ?" शांता ने मीना को देखा।
"ससुराल जाते वक्त पीछे नहीं देखते। मायका भूल जाते हैं कि वहां क्या हो रहा है। तभी घर बसता है। यहां क्या हो रहा है। मैं क्या करती हूं। कहां रहती हूं। यह बातें अब तेरे काम की नहीं रही।" शांता ने कहा और उठकर बाथरूम की तरफ बढ़ गई।
मीना जा चुकी थी।
शांता तैयार हुई। कमीज-सलवार पहना। दुपट्टा सीने पर रखकर ठीक किया। आज पहली बार वह अपने घर को खाली देख रही थी। खामोशी उसे अजीब-सी लग रही थी। कई पलों तक वह खाली-खाली ड्राइंग रूम को देखती रही फिर विष्णु, दामोदर, मीना, सत्या और केदारनाथ के कमरों में गई।
सब कमरे खाली थे।
जो कभी भरे रहते थे। कोई आया, कोई गया, मां चौबिसों घंटे घर में मौजूद रहती थी।
लेकिन अब कोई नहीं था।
चौबिसों घंटे वह अपने परिवार के बारे में सोचती थी। सबका भला चाहती थी। उनकी खैरखाह थी। उनमें से कोई भी आज उसके पास नहीं था। दामोदर ने अपना घर बसा लिया था। मीना ब्याह करने गई थी। मां-पापा और विष्णु आने वाले खतरे को देखकर यहां से कहीं दूर चले गये थे।
वह अकेली हो गई।
अपने बारे में कभी कुछ नहीं सोचा। तभी तो अकेली रह गई । भारी मन से वह शीशे के सामने जा खड़ी हुई और खुद को सिर से पांव तक देखा। देखती तो वह खुद को पहले भी थी। परन्तु आज खुद को औरत की निगाहों से देख रही थी। कई क्षण देखती रही खुद को ।
"अभी भी देर नहीं हुई।" शांता बड़बड़ा उठी--- "वक्त पर होश आ गया है तुझे। छब्बीस की तो है। पांच-छः साल इसी तरह गुजर जाते तो शायद देर हो जाती। सब ठीक हो जायेगा।"
शीशे के सामने से हटी और ग्रिल के पास पहुंचकर उसे खोला। बाहर निकलकर ग्रिल को ताला लगाया और सीढ़ियां उतरते हुए सोच रही थी कि रिश्ते कितने कच्चे होते हैं। जन्म के, बचपन के रिश्ते पलों में टूट जाते हैं। अपने इतने दूर हो जाते हैं कि फिर कभी उनसे मिलने की इच्छा भी नहीं होती।
■■■
शांता, उदयवीर के गैराज पर पहुंची तो साढ़े दस बज रहे थे। आज छोटे लाल साथ नहीं था। वह अकेले ही कार चलाकर आई थी। गैराज खुला था।
केबिन के भीतर बेदी और शुक्रा उसे मिले।
उसके भीतर प्रवेश करते ही दोनों उठकर खड़े हो गये थे।
शांता की निगाह शुक्रा पर जा टिकी।
"तू जा, तेरी जरूरत नहीं है।" शांता ने शुक्रा से कहा।
"मैं नहीं जाऊंगा।" शुक्रा बोला--- “विजय को मेरी जरूरत है ।"
"क्यों जरूरत है?" शांता का स्वर शांत था।
“मैं-मैं... ।”
"जा तू, जरूरत नहीं है तेरी ।" शांता ने हाथ हिलाया।
शुक्रा ने बेदी को देखा। फिर शांता को देखने लगा।
बेदी शांत-सा शांता को देख रहा था।
"विजय के साथ तू इसलिये है कि मैं इसे कोई नुकसान न पहुंचा दूं।” शांता बोली— “फिक्र न कर, इसे कुछ नहीं होगा। वैसे भी तेरे साथ होने का कोई फायदा नहीं। मैंने कुछ करना हुआ तो तू इसे या अपने को नहीं बचा पायेगा। जा तू ।”
शुक्रा ने उलझन भरी निगाहों से, बेदी को देखा।
“बोल दे इसे, चला जाये, हम दोनों की बात है निपट लेंगे।" शांता बोली।
बेदी खुद उलझन में था। शांता का व्यवहार उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
"शुक्रा।" बेदी ने आखिरकार कहा--- "तू जा, मैं बात कर लूंगा।"
"लेकिन...!" शुक्रा ने कहना चाहा।
"तेरे यार ने बोला तेरे को जा। तो जा।" शांता ने शांत स्वर में कहा--- "मेरा मूड ठीक नहीं है। ठीक होता तो तू मेरे एक बार बोलने से ही चला गया होता।"
शुक्रा ने बेदी को देखा तो बेदी ने सहमति से सिर हिला दिया।
शांता पर निगाह मारते हुए शुक्रा बाहर निकलता चला गया।
शांता ने बेदी को देखा। बेदी उसे ही देख रहा था।
"चल ।" शांता की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
"कहां?" बेदी के होंठों से निकला।
"बाहर।"
"बाहर कहां?"
"कार में, तू कार चलायेगा। मैं तेरे पास बैठूंगी।" कहने के साथ ही शांता पलटी और केबिन से बाहर निकल गई।
बेदी कई पलों तक अनिश्चिंत-सा खड़ा रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे या क्या न करे। शांता का व्यवहार उसकी समझ से बाहर था। वह खतरनाक है। परन्तु जब भी उसे गुस्सा आना चाहिये यह कहकर टाल देती है उसका मूड ठीक नहीं है। पीछे हट जाती ।
कार पर उसे कहां ले जाना चाहती है?
बेदी इन्कार करने की स्थिति में नहीं था।
वह केबिन से बाहर निकला और गैराज पार करके, सोचों में डूबा बाहर आ गया। एम्बैसेडर वहां नहीं थी। शुक्रा ले गया होगा। बेदी ने दूसरी तरफ निगाह घुमाई।
वो नई कार थी, जिसकी ड्राइविंग सीट की बगल में शांता बैठी उसे देख रही थी। बेदी के कदम उसकी तरफ बढ़ गये। उसने कार का ड्राइविंग डोर खोला और स्टेयरिंग सीट पर बैठ गया।
“कार चलानी आती है ?” शांता ने दुपट्टा ठीक करते हुए पूछा ।
"हां।"
"कार है तेरे पास?"
"मैं गरीब आदमी हूं। छोटी-सी नौकरी करता था और बस में सफर करता था।" बेदी ने सपाट स्वर में कहा।
“तू इतना खफा होकर क्यों बोलता है।" शांता का स्वर भावहीन था।
"तो कैसे बोलूं?"
"आराम से, गुस्से से मत बात कर, आराम से जवाब दे ।”
"मैं ऐसे ही बोलता हूं।" बेदी ने कहा ।
"मेरे को देख।"
बेदी ने गर्दन घुमाकर उसके चेहरे पर निगाह टिका दी ।
"मेरे को देखकर जवाब दे। मैं इधर बैठी हूं। तू उधर देखकर जवाब देता है। मुझे अच्छा नहीं लगता।"
बेदी ने उस पर से निगाहें हटा ली ।
"तेरे आगे-पीछे कौन है ?"
"कोई नहीं।"
"कोई तो होगा?"
"नहीं।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- “मां-बाप नहीं रहे, भाई-बहन है नहीं।"
"हूं।" शांता ने उसे देखकर सिर हिलाया--- “फिर किसके लिये कमाता है ?"
"अपने लिये।"
"बचाता किसके लिये है?"
"बचाने को कुछ नहीं होता।" बेदी ने उसे देखा--- "इन बातों को पूछने का मतलब?”
“कुछ नहीं कार चला।"
"जाना कहां है?" बेदी ने कार स्टार्ट करते हुए कहा।
"जहां तेरा जाने का मन करे।"
"मेरा कहीं भी जाने का मन नहीं है।"
"तो फिर ऐसी जगह चल जहां भीड़ न हो। शोर न हो। शान्ति हो। कोई मिलने वाला न हो।" शांता ने धीमे स्वर में कहा।"
बेदी ने शांता को गहरी निगाहों से देखा फिर कार आगे बढ़ा दी ।
कुछ दूर खड़ी सफेद एम्बैसेडर उनकी कार के पीछे लग गई। ड्राइविंग सीट पर शुक्रा था ।
■■■
दस मिनट उनके बीच कोई बात नहीं हुई। बेदी कार ड्राइव करता रहा। इसी खामोशी के दौरान बेदी ने यूँ ही शांता पर निगाह मारी तो उसकी आंखें सिकुड़ीं ।
आंखें बंद किए शांता सीट की पुश्त से सिर टिकाये हुए थी। उसकी बंद आंखों से आंसू बहकर गालों से होते हुए ठोड़ी तक आ रहे थे।
बेदी समझ नहीं पाया कि शांता जैसी खतरनाक शह को क्या हो गया है? इसका असल रूप क्या है? जैसा इसके बारे में सुना था। वैसी तो उसे लगी नहीं। अब रो रही है, लेकिन क्यों? कार ड्राइव करने के दौरान बेदी ने कई बार शांता पर निगाह मारी। शांता की मुद्रा में कोई फर्क न आया। ऐसा लगता था जैसे इस तरह पड़े रहने में शांता को बेहद आनन्द आ रहा हो। जैसे मुद्दत बाद शान्ति मिली हो उसे ।
आखिरकार बेदी ने ही कार में छाई चुप्पी को तोड़ा।
"तुम रो रही हो या तुम्हारी आंखें खराब हैं।"
बेदी की आवाज सुनकर शांता की मुद्रा में बदलाव आया। वह हिली, आंखें खोली, दुपट्टे के कोने से उसने आंखें और गाल साफ किए। खुद को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगी।
“तुम्हारे बारे में जो सुना था।" बेदी ने उस पर निगाह मारते हुए कहा--- "तुम्हें वैसा नहीं पाया।"
"मैं वैसी ही हूं।" शांता की आवाज में भारीपन था--- "मेरा मूड ठीक नहीं है। इसलिये तुम मुझे वैसा नहीं देख पाये।”
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
"विजय-विजय नाम है ना तुम्हारा?" शांता बोली ।
"हां।"
"एक बात बताओगे ?"
"क्या?"
"इन्सान जिस पर ज्यादा विश्वास करता है, उसी से धोखा क्यों मिलता है?" शांता का स्वर शांत था।
बेदी की आंखों के सामने अंजना और राघव के चेहरे नाच उठे ।
"विश्वासघात वही करता है जिस पर विश्वास किया जाये। जो दूर हो वह धोखा कैसे दे सकता है।"
"तुम ठीक कहते हो, अब मैं किसी पर विश्वास नहीं करूंगी।" शांता की आवाज में थकान थी।
“तुमने किस पर विश्वास किया?" बेदी ने उस पर निगाह मारी।
"अपने मां-बाप पर। वह अपनी जान जाने के डर से मुझे छोड़कर, कहीं दूर चले गये। साथ में भाई भी चला गया। एक भाई ने शादी कर रखी थी, वह मुझे छोड़कर अपनी पत्नी और बच्चे के पास चला गया। बहन ने आज शादी कर ली। वह भी चली गई। मैं अकेली रह गई। कोई नहीं मेरे पास। शांता बहन बनकर मैं अपने परिवार को बचाती रही। कमाती रही, उनके लिये सब कुछ करती रही। लेकिन सबने मुझे धोखा दिया। अपना-अपना मतलब निकाला और चले गये। किसी ने भी न सोचा कि उनके जाने के बाद अकेली शांता क्या करेगी। सब चले गये।"
बेदी ने गर्दन घुमाकर शांता को गहरी निगाहों से देखा ।
"वो घर जो कभी भरा रहता था। आज खाली है। जहां मेरा कहा चलता था। आज मेरे शब्दों को भी सुनने वाला कोई नहीं है। जहां हर कोई मेरे मुंह से शब्द सुनने को बेताब रहता था। वहां आज कोई मौजूद नहीं।" शांता का स्वर भावहीन था।
"इस दुनिया में जो हो जाये वही कम है।" बेदी कह उठा--- "जिस तरह आज तुम थक हार कर बैठ गई हो ऐसा मेरे साथ भी हुआ था।"
“क्या?"
“एक लड़की थी। अंजना।" बेदी ने कार ड्राइव करते हुए कहा--- "बहुत अच्छी दोस्त थी मेरी। हम शादी करने जा रहे थे। हर वक्त वह मेरे पर जान देने की बात कहा करती थी। मेरे बच्चों की मां बनना चाहती थी। ऐसी बातें करती थी जैसे वह मेरे लिये ही बनी हो। तभी मेरे दिमाग के बीच गोली आ फंसी। किसी तरह मैंने ऑपरेशन के लिये बड़ी रकम का इन्तजाम किया तो वो मेरे ही दोस्त के साथ उस पैसे को लेकर भाग गई। अगर मैं उस पर विश्वास न करता तो उसे विश्वासघात करने का मौका ही नहीं मिलना था। बेवकूफी मेरी थी और उसने समझदारी दिखा दी ।"
शांता गहरी सांस लेकर रह गई।
जाने क्यों अब बेदी के मन से शांता का डर दूर होता जा रहा था। उसे लग रहा था कि शांता भी उसके जैसी आम इन्सान है। वह इतनी खतरनाक नहीं, जैसा कि सुना था।
"जाना कहां है?" बेदी ने पूछा।
"तू कहीं भी ले चल, भीड़ वाली जगह पर नहीं चलना ।"
दो क्षणों तक बेदी खामोश रहकर कह उठा।
"तुमने मुझे क्यों बुलाया ?”
"अभी मत पूछ।"
कुछ देर बाद बेदी ने शहर के शांत इलाके में स्थित पार्क के पार्किंग में कार रोक दी।
"यह जगह ठीक है।"
"हां, आज शांता को शान्ति नहीं मिल रही। मालूम नहीं, यहां भी मिलती है कि नहीं।"
दोनों कार से बाहर निकले। सामने ही पार्क का रेस्टोरेंट नजर आ रहा था।
"तूने कुछ खाया?"
"हां।"
"मैंने नहीं खाया ।" शांता ने उसे देखा--- "चल, आज तू मुझे खिला ।"
"मैं...?" बेदी ने उसे देखा ।
“शांता ने कभी किसी का नहीं खाया। पहली बार तेरे को बोला है, भूख लगी है। खिला मुझे। नहीं खिलायेगा ?"
“मैंने मना नहीं किया।"
"तो चल ।"
दोनों रेस्टोरेंट में पहुंचे। वहां से दूर-दूर तक पार्क का खूबसूरत नजारा नजर आ रहा था।
अधिकतर वहां जोड़े ही नजर आ रहे थे। कुछ जोड़े रेस्टोरेंट में भी बैठे थे।
दोनों ने टेबल संभाली। वेटर आया। पानी के गिलास रखे। आर्डर के लिये पूछा।
बेदी ने शांता को देखा।
“मुझे क्या देखता है। इसे बोल, क्या खाने को लाना है।" शांता ने शांत स्वर में कहा।
“मुझे नहीं मालूम तुम क्या खाना पसन्द करती...।"
“तू अपनी पसन्द का मंगवा ले, मैं खा लूंगी।"
बेदी ने शांता को गहरी निगाहों से देखा फिर वेटर को आर्डर दिया। वेटर चला गया।
"तू पहले भी आया है यहां ?"
"हां।"
"उसी छोकरी अंजना के साथ। जो तुझे धोखा देकर, तेरे दोस्त के साथ भाग गई।"
"हां।" बेदी ने भारी मन से लम्बी सांस ली।
"उसको यहां जो खिलाता था। वो ही चीजों का आर्डर दिया है ?" शांता ने पूछा।
बेदी ने हौले से सहमति से सिर हिला दिया।
“वो मेरे से ज्यादा खूबसूरत थी?"
बेदी खामोश ही रहा।
“बता, मैं बुरा नहीं मानूंगी।"
"नहीं।" बेदी का स्वर धीमा था--- "तुम उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत हो, वह भी अच्छी थी।"
"कैसे मिली वो तेरे को?"
“मिल गई, अब तो याद नहीं कि वो कब, कहां, कैसे मिली थी, यही याद है कि वो क्या कर गई मेरे साथ।" बेदी उखड़े स्वर में कह उठा--- "अब तो उसे याद करने का भी मन नहीं करता।"
"ऐसा ही होता है। जब किसी से बहुत नफरत हो जाती है।" शांता की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
बेदी कुछ नहीं बोला।
"डॉक्टर की लड़की की पहरेदारी कौन कर रहा है?" शांता ने पूछा।
"मेरा दोस्त ।"
"वो, जिसका गैराज है?"
बेदी ने जवाब नहीं दिया।
"मत बता, मैंने तो यूं ही पूछा।"
वेटर आर्डर का सामान सर्व कर गया।
शांता ने एक पीस उठाया और बेदी की तरफ बढ़ाया।
"मुंह खोल ।"
"मैं खा चुका हूं, मेरा मन नहीं...।"
"मेरे हाथ से खा।" शांता का स्वर शांत था।
बेदी की समझ में न आया कि क्या करे। शांता का हाथ आगे बढ़ा, उसके मुंह तक पहुंचा हुआ था। न चाहते हुए भी बेदी ने मुंह खोला तो शांता ने पीस उसके मुंह में ठूंस दिया।
बेदी का मुंह धीरे-धीरे चलने लगा ।
शांता उसे एकटक देखे जा रही थी।
"क्या है?" बेदी ने उसे देखा।
"कुछ नहीं। मैंने पहली बार अपने हाथ से किसी को खिलाया है।" कहने के साथ ही शांता खाने में व्यस्त हो गई।
शांता का व्यवहार बेदी की समझ में नहीं आ रहा था। खाने के दौरान शांता कुछ नहीं बोली।
बेदी खामोश सा बैठा रहा।
जब शांता ने खाने से फुर्सत पाई तो बेदी ने वेटर को बुलाकर 'बिल' पे किया। दोनों उठे।
"वहां बैठेंगे। जहां तू उस छोकरी अंजना के साथ बैठता था। बोल, उसके साथ कहां बैठता था।"
बेदी ने शांता को देखा।
"कहां बैठता था तू उसके साथ? पार्क के किस कोने में, चल ।" कहने के साथ ही शांता आगे बढ़ गई।
बेदी खड़ा उसे देखता रहा। फिर सोचों में डूबा आगे बढ़ा। आंखों में सिकुड़न आ गई थी।
दोनों रैस्टोरेंट से बाहर निकले। हरी घास पर आ गये जो मखमल जैसी लग रही थी। बारह बजने जा रहे थे। सूर्य सिर पर चढ़ता जा रहा था।
दोनों में कोई बात नहीं हुई। बेदी शांता को लेकर एकांत जगह पर घने पेड़ की छाया के नीचे जा पहुंचा। ठण्डी हवा उनको राहत पहुंचा रही थी। उस लम्बे-चौड़े पार्क में कई जगह जोड़े बैठे नजर आ रहे थे। बहुत ही शांत और खुशनुमा लग रहा था, वहां का मौसम ।
“यहां बैठता था तू उस छोकरी के साथ?" शांता ने बेदी को देखा--- "जो तेरे दोस्त के साथ भाग गई?"
बेदी ने आहिस्ता से सिर हिला दिया।
"पागल थी वो।” शांता नीचे बैठती हुई बोली--- "बैठ।"
"कौन- अंजना ?" बेदी के होंठों से निकला। वह भी नीचे बैठ गया।
"हां, जो तेरे जैसे शरीफ बंदे को छोड़ गई। बच्ची होगी वो। अभी उसे जिन्दगी की समझ नहीं होगी।" शांता ने कहा।
बेदी मुंह घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा।
"तेरे को मालूम है तू बोत अच्छा है ?"
बेदी ने उसे देखा, कहा कुछ नहीं ।
"मेरे को आज तक कोई अच्छा नहीं लगा, लेकिन तू अच्छा लगा है।" शांता का स्वर सपाट था।
बेदी ने मुंह घुमा लिया और सिगरेट निकालकर सुलगा ली।
शांता की निगाह एकटक उस पर टिकी थी।
"सुन।"
बेदी ने शांता को देखा।
"मैं तेरे से शादी करूंगी।"
"क्या?" बेदी के होंठों से निकला, हक्का-बक्का रह गया वह।
"कम सुनता है क्या? मैं बोली, तेरे से शादी करूंगी। तू मुझे एकदम फिट लगा है। तू हैंडसम है। मैं भी खूबसूरत हू। तूने खुद बोला मैं उस छोकरी से खूबसूरत हूं। वो तेरे को धोखा दे गई। लेकिन शांता तेरे को कभी धोखा नहीं देगी। शांता की जुबान कभी झूठी नहीं जाती। मैं तेरे बच्चों की मां बनूंगी। मैं तेरे को कोई काम-धंधा खुलवा दूंगी। तू कमाकर लाना। मैं खाना बनाऊंगी। तेरे को मेरे से शिकायत नहीं होगी।" शांता का स्वर शांत था और भावहीन निगाह, बेदी के चेहरे पर स्थिर थी।
बेदी जैसे समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ, शांता क्या कह रही है।
"बोल, कल का दिन ठीक रहेगा शादी के लिये ?" शांता का स्वर बेहद शांत था ।
"दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा।" बेदी के होंठों से निकला।
"क्यों, क्या गलत बोला ।”
"तुम्हें फालतू की बातों की पड़ी है। मैं हर दिन मौत की तरफ बढ़ रहा हूं।" बेदी ने दांत भींचकर कहा--- “दिमाग में गोली लेकर मैं ज्यादा-से-ज्यादा दो महीने जिन्दा रह सकता हूं। उन दो महीनों में सिर्फ ब्यालीस दिन बाकी बचे हैं। तुम हो कि शादी-शादी बोले जा रही हो।"
"मेरे होते फिक्र मत कर। तेरे को मरने नहीं दूंगी।" शांता के स्वर में विश्वास था।
"तुम क्या करोगी?" बेदी की आवाज में गुस्सा था।
"तेरे को डॉक्टर वधावन से ऑपरेशन कराना है, बोल।"
"हां।"
"वो तेरा ऑपरेशन करेगा, तेरे दिमाग में फंसी गोली निकालेगा। मैं बोल दूंगी उसे ।" शांता ने कहा।
"मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत नहीं।" बेदी ने उसे घूरा--- "ये काम अब मैं भी कर सकता हूं।"
"डॉक्टर की छोकरी को अपने पास रखकर ।"
"हां, पांच-सात दिन में वह मेरा ऑपरेशन करेगा।” बेदी ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।
“ये काम इतने आसान नहीं हैं, जैसा कि तू सोचता है। डॉक्टर की छोकरी का अपहरण करके, उससे काम करवाना मजाक मत मान। वो पुलिस को भी खबर...।"
"पुलिस को नहीं खबर की उसने।" बेदी ने उसकी बात काटकर कहा।
"समझदार होगा तो जरूर की होगी।" शांता ने उसकी आंखों में झांका--- "क्योंकि वो जानता है उसकी बेटी को किसी दमदार हस्ती ने नहीं, तुम जैसे शरीफ इन्सान ने उठाया है। वो जरूर बोलेगा पुलिस को ।"
"नहीं बोलेगा ।"
शांता घूरती रही बेदी को।
"मैं तेरा ऑपरेशन करा देती हूं। तू क्यों पचड़े में पड़ता है ?"
"तुम्हारी सहायता नहीं चाहिये मुझे।" बेदी ने होंठ भींचकर कहा।
"क्यों ?"
"तेरे कहने पर डॉक्टर वधावन ने मेरा ऑपरेशन किया तो बाद में तू मेरे को शादी के लिये कहेगी।"
शांता की आंखें सिकुड़ीं।
"तो क्या तू मेरे से शादी नहीं करेगा?"
"नहीं।"
"क्यों, क्या कमी नजर आई तेरे को मेरे में। मैं पहली वाली छोकरी से खूबसूरत हूं। पैसा है मेरे पास। मैं उससे ज्यादा तेरे को खुश रख सकती हूं। क्यों नहीं करेगा तू मेरे से शादी ?" शांता का स्वर सख्त हो गया।
बेदी खामोश रहा।
"मैं तेरे को अच्छी नहीं लगती क्या ?"
"नहीं।" बेदी ने मुंह घुमा लिया।
"क्यों ?”
"तुम गलत काम करती हो। मैं शरीफ आदमी हूं। पूरे शहर में बदनाम तुम। तुम्हारे साथ अपना नाम जोड़कर...।"
"येई बात है तो फिक्र नेई कर। सब ठीक हो जायेगा। यहां से बहुत दूर, किसी दूसरे शहर में चले जायेंगे। जहां मुझे कोई नहीं जानता होगा। फिर मैं भी तेरी तरह शरीफ बन जाऊंगी।"
"लेकिन तेरे से शादी करने को मेरा दिल नहीं मानता।"
"कपड़े उतारकर दिखाऊं, मैं कितनी खूबसूरत हूं। मुझ जैसी तूने कभी नहीं देखी होगी।" शांता का स्वर सपाट था।
“खूबसूरत या बदसूरत की बात नहीं है। तेरे साथ मैं शादी नहीं कर सकता।" बेदी ने उखड़े स्वर में कहा।
"किस्मत वाला है तू, जब से तेरे को मिली हूं, तब से ही मेरा मूड ठीक नहीं, वरना शांता को कोई इन्कार नहीं करता। शांता जो कहती है वो ही होता है।" शांता ने उसकी आंखों में देखा--- "पहली बार शांता को कोई अच्छा लगा है। पहली बार अपने हाथ से शांता ने किसी को खिलाया है। क्योंकि मैंने फैसला कर लिया कि तेरे से शादी करूंगी। सारी उम्र तेरे को अपने हाथों से खिलाऊंगी, अब तू मना करता है।"
बेदी खामोश रहा।
"मैं तेरे पर सख्ती भी नहीं कर सकती। इसका फायदा मत उठा।" शांता ने धीमे स्वर में कहा।
"तुम जो भी कहो। मैं तुम्हारे साथ शादी नहीं कर सकता।" बेदी ने स्पष्ट कहा।
"तू करेगा, शांता को तू अच्छा लगा है तो शांता तेरे से ही शादी करेगी।" शांता की आवाज़ में किसी तरह का भाव नहीं था।
"यह कभी नहीं होगा।” कहते हुए बेदी उठ खड़ा हुआ।
"होगा।” शांता भी उठी, आगे बढ़ी और दोनों हाथों से बेदी का सिर थामते हुए पंजों के बल उठी और उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए।
बेदी ने बचना चाहा, लेकिन बच न सका।
शांता ने उसे छोड़ा तो बेदी अपने होंठ साफ करने लगा।
शांता की सपाट निगाह बेदी पर थी।
"उस छोकरी के होंठों में भी इतनी गर्मी थी या इससे कम।" शांता ने कहा।
बेदी उसे देखता रहा, चेहरे पर इन्कार के भाव ही नजर आ रहे थे।
"मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वो इतनी गर्मी वाली नहीं हो सकती। क्योंकि शांता अपने को हर तरफ से जानती है कि वो क्या है। मेरे से शादी करके तू हर तरफ से फायदे में रहेगा।” शांता ने सपाट स्वर में कहा।
"इस वक्त मुझे दुनिया की कोई गर्मी नहीं पिघला सकती।” बेदी ने शब्दों को चबाकर कहा--- “वधावन ऑपरेशन करके मेरे दिमाग में फंसी गोली निकालेगा। तब मैं तनाव के समन्दर से बाहर आ जाऊंगा। लोगों की तरह सामान्य जिन्दगी बिताऊंगा। उसके बाद सोचूंगा कि मुझे शादी करनी है कि नहीं। शादी की तो वो शादी तेरे साथ नहीं होगी।"
"इतना बड़ा मत बोल। बाद में तेरे को अच्छा नहीं लगेगा कि तू ऐसा बोला।" शांता ने अपना दुपट्टा ठीक किया--- "मैं अकेली हो चुकी हूं और मुझे किसी के साथ की जरूरत है। ऐसे में तेरे से अच्छा साथ मुझे दूसरा नहीं मिल सकता। समझा क्या। तू मेरे से ही शादी करेगा। शांता कभी झूठ नहीं बोलती।”
“मैं यहां से जाना चाहता हूं।” बेदी उसे घूरता हुआ बोला।
"चल, तुझे कभी भी रोकूंगी नहीं जाने को। लेकिन तू खुद मेरे पास आयेगा, आ ।" कहने के साथ ही शांता आगे बढ़ गई।
आंखों में कशमकश के भाव समेटे बेदी उसके पीछे चल पड़ा।
दोनों पार्किंग में खड़ी कार के पास पहुंचे। शांता स्टेयरिंग के बगल वाली सीट पर बैठते हुए बोली।
"अभी तू चल, जहां ठीक समझे रोककर उतर जाना ।"
बेदी ने कुछ नहीं कहा। ड्राइविंग सीट पर बैठा और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी।
"मुझे अपनी बना ले।" शांता ने सपाट स्वर में कहा--- "वक्त आया तो तेरे पर जान भी दे दूंगी।"
बेदी के चेहरे पर व्यंग्य से भरी कड़वी मुस्कान उभरी।
“वो भी ऐसे ही कहती थी।" बेदी के होंठों से नफरत भरा स्वर निकला ।
"वो छोकरी, जो तेरे यार के साथ भाग गई?"
"हां।"
“मैं वो नहीं, शांता हूं।"
"अंजना हो या शांता, मेरे लिये एक ही बात है।" बेदी ने मुंह बनाकर कहा।
"बहुत फर्क है। तू समझ नहीं रहा फर्क को।" कहते हुए शांता खिड़की से बाहर देखने लगी ।
पन्द्रह मिनट बाद बेदी ने सड़क के किनारे कार रोकी और उतरने लगा ।
“जा रहा है।" शांता ने उसे देखा। बेदी ने शांता को देखा--- "जा तेरे को नहीं रोकूंगी।"
बेदी कार से बाहर निकला।
शांता भी बाहर निकली और कार के साथ घूमकर स्टेयरिंग की तरफ आ गई।
बेदी दो कदम पीछे हटा, नजरें शांता पर थी।
"जा, खड़ा क्यों है?" शांता शांत स्वर में बोली।
बेदी फौरन पलटा और सड़क पर तेज-तेज कदमों से वापस चल पड़ा।
शांता ने उसे जाते देखा। फिर कार में बैठने को हुई कि ठिठक गई। काफी पीछे सफेद एम्बैसेडर खड़ी नजर आई। उसकी आंखें धोखा नहीं खा सकती थी। यह वही एम्बैसेडर थी जो उसने दोनों बार गैराज के बाहर खड़ी देखी थी। इसका मतलब विजय के दोस्त शुक्रा को जाने को कहा तो वो गया नहीं, पीछे ही रहा।
शांता कार में बैठी। स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। बैक मिरर से वो बेदी को जाते और उससे भी पीछे सफेद एम्बैसेडर को देखा। आगे मोड़ था। उसने मोड़ पर कार रोकी और छोटा-सा चक्कर काटकर वापस उसी सड़क पर आ गई। जहां बेदी ने कार को रोका था। अब फर्क यह था कि पहले एम्बैसेडर उसके पीछे थी अब शांता एम्बेसेडर कार के पीछे थी। काफी पीछे। वो देख रही थी बेदी आगे बढ़ता एम्बैसेडर तक पहुंचने वाला था।
■■■
सोचों में डूबे चलते-चलते बेदी की निगाह सामने की तरफ उठी तो पल भर के लिये ठिठका। वो उदय की ही कार थी, जो उसने स्पष्ट तौर पर पहचाना। स्टेयरिंग सीट पर बैठे शुक्रा को भी देखा। बेदी आगे बढ़ा।
शुक्रा ने हाथ बढ़ाकर दूसरी तरफ का दरवाजा खोल दिया।
बेदी भीतर बैठा और दरवाजा बंद कर लिया।
शुक्रा गम्भीर निगाहों से बेदी को देख रहा था।
"तू गया नहीं था?" बेदी कुछ चुप-चुप सा था।
"तेरे को शांता जैसी खतरनाक शह के पास अकेला छोड़कर कैसे जा सकता था?" शुक्रा बोला।
"तू कार में ही था या कार से बाहर निकलकर पीछे भी आया?" बेदी ने पूछा।
"पीछे भी था। तू हर वक्त मेरी निगाहों में था।" शुक्रा बेदी को देखे जा रहा था--- "शांता ने जब तेरे को अपने हाथ से खिलाया, तो मैंने देखा। तब भी मैंने देखा जब उसने 'किस' की।"
बेदी सिर हिलाकर रह गया।
"क्या बात हुई शांता बहन के साथ।"
"कुछ भी नहीं।" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा।
"क्या मतलब ?"
"उसने न तो वधावन की लड़की के बारे में बात की, ना ही लड़की को मांगा।" बेदी ने कहा।
"और तू उसे पार्क में ले गया।"
"उसने ही कहा, वो और भी बहुत कुछ कह रही थी।" बेदी ने गहरी सांस ली।
"क्या?"
"शांता प्यार करने का आर्डर दे रही थी। मेरे से शादी कर रही थी।" बेदी ने कहा।
“क्या?” शुक्रा चौंका---- “शांता शादी, तेरे से ?"
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
"क्या कहा शांता ने ?"
“उसने कहा कि वह अकेली है। उसके परिवार वाले सब उसे छोड़ गये हैं। उसे सहारे की जरूरत है। अंजना की तरह शादी करके वह भी बच्चे पैदा करना चाहती है। अंजना की तरह वह भी मेरे लिये अपनी जान देने को तैयार है।"
शुक्रा अजीब-सी निगाहों से बेदी को देखे जा रहा था।
"शांता ने कहा कि वह वधावन से मेरा ऑपरेशन करा देगी।"
"तूने क्या कहा ?"
“मैंने इन्कार कर दिया।"
"क्यों?"
"वधावन की लड़की हमारे पास है। ऑपरेशन तो उसे करना ही पड़ेगा। शांता जैसी शह का मैं क्यों एहसान लूं।"
“और वो जो उसने शादी के लिये कहा?"
"मैंने मना कर दिया।"
"क्या मना कर दिया?" शुक्रा के मुंह से निकला।
"कि उससे तो कभी भी शादी नहीं करूंगा।" बेदी का स्वर गम्भीर था।
“तूने ऐसा कहा और वो मान गई, वो...।"
“नहीं मानी, बोली वो मेरे से ही शादी करेगी।"
शुक्रा ने बेचैनी से पहलू बदला।
“उसके बाद ?"
"और कुछ नहीं।"
शुक्रा खामोशी से सामने देखता रहा, सोचता रहा।
"कार स्टार्ट कर, आगे बढ़ा, चलना नहीं है क्या?"
शुक्रा ने कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।
अपनी सोचों-बातों में उलझे नहीं देख पाये कि शांता कार में उनका पीछा कर रही है।
"विजय!"
"हूं।"
"शांता बहन ने तेरे से शादी करने को कहा हैं तो इतनी आसानी से तेरा पीछा नहीं छोड़ेगी। तेरा इन्कार सुनकर वह चुप नहीं बैठगी । तू उसे ठीक से नहीं जानता। मैं उसके बारे में बहुत कुछ सुन चुका हूं।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा।
"यह तो उसकी बात से जाहिर है।"
"कैसे?"
"उसने कहा कि एक दिन मैं उसके पास आऊंगा।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शुक्रा के चेहरे पर चिन्ता नजर आने लगी।
“शांता बहन ने ऐसा कहा तो समझ ले, एक दिन वास्तव में तू उसके पास जायेगा।"
“शुक्रा।" बेदी ने उसे देखा--- "तेरा क्या ख्याल है, शांता क्या कर सकती है कि... ।"
"मुझे नहीं मालूम कि वह क्या कर सकती है।" शुक्रा ने उसकी बात काटकर कहा--- "लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूँ। कि वह सब कुछ कर सकती है। उसके हाथों से कोई काम दूर नहीं।"
बेदी के होंठ भिंच गये।
"एक सलाह दूं।" शुक्रा ने सोच भरे स्वर में कहा।
"क्या?"
"शांता की बात मान ले। वो वधावन से तेरा ऑपरेशन भी करा देगी। तेरे से शादी भी करेगी। हो सकता है सब बुरे काम छोड़ दे।"
"बुरे काम छोड़ने को तो वो कह रही है। उसने कहा यहां से कहीं दूर चले जायेंगे। अंजना भी यही कहती थी।"
"तो मान जा उसका कहा, शादी कर ले।"
"नहीं।" बेदी का शांत स्वर, पक्कापन लिए था।
"क्यों ?"
"वो ठीक नहीं है। खतरनाक गैंग की लीडर है। ऐसी के साथ मैं जिन्दगी नहीं बिता सकता ।"
"उसके परिवार वाले उसका साथ छोड़ गये। तूने बताया, तो वह गैंग लीडर कहां रही। मेरे ख्याल में अब वो बाकी की जिन्दगी आराम से बिताना चाहती है। शांता बहन ने दुनिया देखी है। ऐसे लोग जब सीधे होते हैं तो इनसे अच्छा कोई नहीं होता। सच बात तो यह है कि मुझे अभी भी विश्वास नहीं आ रहा है कि उसने कहा वो तेरे से शादी करना चाहती है। तेरे बच्चों की मां बनना चाहती है।" शुक्रा के चेहरे पर अजीब से भाव थे।
"शांता ने तो ये भी कहा कि जब मैं कमाकर लाऊंगा तो मुझे अपने हाथों से खिलायेगी।" बेदी मुस्करा पड़ा।
शुक्रा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"बेदी मुझे ठीक नहीं लग रहा।"
"क्यों ?"
"शांता जैसे लोग किसी से प्यार नहीं करते और जब करते हैं तो फिर पीछे नहीं हटते।"
“शांता हटेगी। मेरी तरफ से उसे इशारा नहीं मिलेगा। कोशिश कर-करके जब थक-हार जायेगी तो पीछे हटेगी।"
"भूल है तेरी, यह सड़क छाप प्यार का नहीं, शांता बहन जैसी खतरनाक शह का मामला है। ऐसी शह पीछे नहीं हटती। ऐसे लोग जब डूबते हैं तो दस को साथ लेकर डूबते हैं। वह तेरे को नहीं छोड़ेगी।" शुक्रा सोचता-सोचता कह रहा था--- "अगर तू बचना चाहता है तो तेरे पास एक ही रास्ता है और उस रास्ते पर तू चलेगा नहीं।"
"क्या?"
“इस शहर से निकल जा ।"
"यह नहीं हो सकता।" बेदी की आवाज एकाएक सख्त हो गई--- "वधावन से मैंने ऑपरेशन कराना है। नहीं तो गोली मेरी जान ले लेगी। मेरी जिन्दगी के सिर्फ ब्यालीस दिन पड़े हैं। मैं...।"
"सुन, पैसे का इन्तजाम किसी दूसरे शहर से करके, वधावन के पास आकर, ऑपरेशन ... ।”
“अब ऐसी भागदौड़ की जरूरत नहीं। वधावन की लड़की हमारे पास है । वह ऑपरेशन हर हाल में करेगा।"
चेहरे पर व्याकुलता के भाव समेटे, शुक्रा खामोश हो गया।
बेदी ने भी कोई बात नहीं की। चेहरे पर गम्भीरता अवश्य मौजूद थी। इस बात का तो उसे भी स्पष्ट एहसास था कि उसके इन्कार पर शांता खामोश नहीं बैठेगी। कुछ तो करेगी, जबकि बेदी का ख्याल था कि वह किसी कोशिश में कामयाब नहीं होगी। कुछ ही दिन में वधावन उसका ऑपरेशन कर देगा और सब ठीक हो जायेगा।
“उदय से इस बारे में बात करना।" शुक्रा ने इतना ही कहा ।
उनकी कार खाली फ्लैटों में पहुंच चुकी थी, जहां आस्था को कैद कर रखा था।
शांता ने देखा कि उनकी कार कहां, किस जगह खाली फ्लैटों के सामने रुकी है। दोनों उतरकर फ्लैटों में प्रवेश कर गये। शांता ने अपनी कार दूर ही छोड़ी और छिपते हुए सावधानी से आगे बढ़ी।
करीब एक घंटा वह वहीं मंडराती रही।
जब उसे इस बात का एहसास हो गया। विश्वास हो गया कि वधावन की बेटी का अपहरण करके उसे यहीं रखा हुआ है तो वह वहां से हटकर अपनी कार तक पहुंची। भीतर बैठी और सिगरेट सुलगा कर सोच भरे ढंग से कश लेने लगी। तब तक वह ऐसे ही बैठी रही। जब तक सिगरेट खत्म नहीं हो गई। फिर हाथ बढ़ाकर डैशबोर्ड खोला और उसमें से मोबाइल फोन निकालकर बटन पुश करने लगी।
लाइन मिली, छोटे लाल से बात हुई।
“दो घंटे बाद मेरे घर पर मिलना।" शांता ने कहा।
"पहुंच जाऊंगा शांता बहन ।"
शांता ने फोन बंद करके वापस रखा। फिर कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी।
■■■
डॉक्टर वधावन और सब इंस्पेक्टर जय नारायण तयशुदा जगह पर मिले। वधावन ने उसे बुलाया था।
"इंस्पेक्टर।" वधावन ने तीखे स्वर में कहा--- "मुझे लगता है कि मैंने तुम पर विश्वास करके गलती की।"
"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं डॉक्टर।" जय नारायण बोला--- "मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा...।"
"कोशिश ही कर रहे हो। कुछ किया तो नहीं। मेरी बेटी को तलाशा, विजय बेदी को ढूंढ निकाला। कुछ भी नहीं किया और तुम कहते हो कि मैं कोशिश कर रहा हूं। कोशिश का भी तो कोई नतीजा होता है कि नहीं।"
जय नारायण की समझ में नहीं आया कि क्या कहे।
"विजय बेदी ने मुझे फोन किया। तुमने कॉल ट्रेस करने का इन्तजाम कर रखा था। फिर भी कुछ नहीं हुआ, वह...।"
"उसने पब्लिक बूथ से आपको फोन किया था। मैं वहां पहुंचा भी। लेकिन देर हो चुकी थी। अगर उसने किसी घर से या दूसरी किसी जगह से फोन किया होता तो अब तक शायद मैं उसके पास पहुंच चुका होता।"
डॉक्टर वधावन ने गम्भीर स्वर में कहा।
"इंस्पेक्टर, कहीं बाद में तुम यह न कहो कि मुझे पहुंचने में थोड़ी-सी देर हो गई। नहीं तो आपकी बेटी बच गई होती।"
"कैसी बातें कर रहे हैं डॉक्टर, मैं...।"
"मैं ठीक कह रहा हूं। तुम बहुत धीमें चल रहे हो। इस तरह तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकूंगा।"
"डॉक्टर, सिर्फ दो बार विजय बेदी का फोन आपको और आ जाये, मैं विश्वास दिलाता हूं कि उसे पकड़ लूंगा। वह ज्यादा देर कानून के हाथों से दूर नहीं रह सकता। वह...।"
"सच बात तो यह है कि मुझे इस बात की परवाह नहीं कि विजय बेदी के साथ कानून क्या करता है या कुछ नहीं कर पाता। मैं अपनी बेटी को सही-सलामत चाहता हूं।" डॉक्टर वधावन ने जय नारायण को देखा।
“मुझ पर विश्वास कीजिये। आपकी बेटी आपको ठीक-ठाक मिलेगी, उसे...।"
"इस बात का विश्वास मुझे मत दो। खुद को दो। मैं तुम्हें पांच दिन का वक्त देता हूं।"
"किस बात के लिये ?"
"मेरी बेटी आस्था को ढूंढकर मेरे पास ला दो, नहीं तो मैं विजय बेदी का ऑपरेशन करके उसके दिमाग में फंसी गोली निकालकर अपनी बेटी को वापस पा लूंगा।" वधावन का स्वर सख्त हो गया।
“आप ऐसा नहीं कर सकते, मैं...।"
"ऐसा करना मेरे लिये बहुत आसान है। मेरा दिल नहीं चाहता कि विजय बेदी की दादागिरी से दबकर अपने उसूल तोड़कर उसका ऑपरेशन करूं लेकिन अपनी बेटी के लिये उसूल तोड़ने भी पड़े तो अवश्य ऐसा करूंगा।"
"डॉक्टर आप?"
"पांच दिन इंस्पेक्टर, मेरी बेटी को तलाश कर सकते हो तो पांच दिन में ढूंढ लो उसे।" डॉक्टर वधावन का स्वर बेहद सख्त था--- "नहीं तो उसके बाद मैं विजय बेदी का ऑपरेशन कर दूंगा। तब सारी गलती मेरी नहीं, तुम्हारी होगी।"
जय दांत भींचकर रह गया। वह जानता था कि डॉक्टर वधावन की बेचैनी अपनी जगह बिलकुल ठीक है और वह भी बिलकुल ठीक था कि विजय बेदी तक पहुँचने के लिये उसने पूरा जोर लगा रखा था। विजय बेदी तक पहुंचे बिना, डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था को नहीं पा सकता, क्योंकि आस्था उसके पास ही तो थी।
■■■
बेदी, शुक्रा और उदयवीर के बीच खामोशी छाई हुई थी। आस्था एक तरफ चादर पर बैठी दीवार से टेक लगाये हुए, उनकी बातें सुन रही थी।
बेदी-शुक्रा ने उदयवीर को सारी बात बता दी थी।
"शांता जैसी युवती का बेदी से शादी के लिये कहना समझ में नहीं आता।" उदयवीर ने लम्बी सोच के बाद कहा।
"कोशिश की जाये तो समझने वाली कोई खास बात नहीं है।" शुक्रा ने कहा--- “शांता बहन ने इसे स्पष्ट कहा कि वह अकेली रह गई है। ऐसे में उसे भी साथ और विजय उसे पसन्द आ गया। वो अपराधों को छोड़ रही है। आराम से बाकी की जिन्दगी बिताना चाहती है। उसके पास पैसा बहुत है। वह विजय का ऑपरेशन भी करा देगी और सारी जिन्दगी दोनों मजे से रहेंगे। लेकिन वह हां नहीं करता। मेरे समझाने पर भी नहीं समझा कि शांता बहन से इसे शादी कर लेनी चाहिये।"
उदयवीर ने शुक्रा को देखा।
“तूने इसको यह समझाया।"
"हां, गलत कहा है तो बता दे।"
"कह नहीं सकता।" उदयवीर ने गम्भीर स्वर में कहा--- "शांता से शादी करना ठीक भी है और गलत भी।"
"ठीक-गलत कैसे ।"
"ठीक इसलिये कि शांता आसानी से डॉक्टर वधावन से इसके दिमाग का ऑपरेशन कराकर वहां फंसी गोली निकलवा सकती है। जिसके लिये हम भाग-दौड़ कर रहे हैं।" उदयवीर बोला--- "गलत इसलिये कि विजय और शांता की जोड़ी नहीं जम सकती।"
तभी आस्था बोली।
"मैं कुछ कहूं, इस बारे में?"
तीनों की निगाह उस पर गई।
"शांता जैसी औरत के बारे में तुम लोगों के मुंह से अब तक जो सुना है, वह सही है तो औरत होने के नाते मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि वह कभी भी अच्छी बीवी, अच्छी मां नहीं बन सकती।"
“तुमने आज तक कितनी शादियां की हैं?" शुक्रा ने तीखे स्वर में कहा--- "कितने बच्चों की मां हो तुम?"
"क्या मतलब ?"
"मतलब यह कि वो सलाह दो, वो बात कहो, जिन हालातों से तुम गुजरी हो। शादी का क-ख-ग नहीं आता। बच्चे पैदा करने का स्वाद नहीं देखा और बात कर रही हो, दादी मां की।"
"मैंने यह बात शांता का कैरेक्टर देखकर-सुनकर कही है।" आस्था ने भी तीखे स्वर में कहा।
"कैरेक्टर बनते और बिगड़ते मैंने पलों में देखे हैं।" शुक्रा खा जाने वाले स्वर में कह उठा--- "ये देखो, अपना विजय क्या था। शरीफों का शरीफ था। कभी राह चलते कुत्ते को भी लात नहीं मारी होगी। कम्पनी में सेल्समैन था। जैसे-तैसे अपना गुजारा चला रहा था और जिन्दगी से बहुत खुश था। दिमाग के ठीक बीचों-बीच गोली आ फंसी। ऑपरेशन करवाकर गोली निकलवाने के लिये पैसे नहीं थे तो पैसों का इन्तजाम करने के लिये कुछ भी करने पर राजी हो गया। वो अलग बात है कि इसमें कुछ भी करने की खास हिम्मत नहीं है।"
आस्था, शुक्रा को देखती रही।
"और यह उदयवीर कारें ठीक करने वाला। चोरी-चकारी से जिसका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं। अपने दोस्त की खोपड़ी में फंसी गोली निकलवाने के लिये, गलत काम करने में विजय की, सहायता में लग गया।'
विजय बेदी गहरी सांस लेकर, दूसरी तरफ देखने लगा ।
“और मैं ड्राइविंग कॉलेज में लोगों को कार सिखाता था। चार हजार तो कमा ही लेता था। खाता-पीता आराम से दिन बिता रहा था। लेकिन अब विजय की जिन्दगी बचाने के लिये हर गुनाह करने को तैयार हूं।" शुक्रा की निगाह आस्था पर थी--- "क्या था हमारा कॅरेक्टर और अब क्या हो गया। हम अच्छे से बुरे बन सकते हैं तो शांता बुरी से अच्छी क्यों नहीं बन सकती। जब कि वह जिन्दगी से थक चुकी है और विजय का सहारा चाहती है ।"
आस्था, शुक्रा को देखती रही। कुछ कह न सकी।
"तुम अभी बच्ची हो। हमेशा अच्छा-अच्छा ही देखा है। शायद अब पहली बार हमारी कैद में रहकर तकलीफ भोग रही हो। दुनिया के रंगों से बहुत दूर हो तुम। अगर तुम में जरा भी अकल होती तो कभी भी विष्णु को अपना जीवन साथी बनाने की न सोचती। सबसे पहले उसके बारे में जानने की कोशिश करती। इन सब बातों से मेरा मतलब सिर्फ इतना ही है कि अभी तुम्हें सलाह की जरूरत है। बेहतर होगा तुम दूसरों को सलाह मत दिया करो।"
आस्था ने शुक्रा के चेहरे पर से निगाह हटा ली।
तीनों ने एक-दूसरे को देखा ।
“मैं फिर कहूंगा कि शांता के साथ शादी कर ले।" शुक्रा ने बेदी से कहा--- "नुकसान का सौदा नहीं रहेगा।"
"इसकी जरूरत नहीं समझता मैं।" बेदी ने कहा।
"क्यों?"
"असल मुद्दा वधावन के ऑपरेशन करने का है। अपनी लड़की को पाने के लिये वह मेरा ऑपरेशन कर देगा। शांता की इस मामले में कहीं कोई गुंजाइश नहीं। दूर-दूर तक मुझे उसकी सहायता की जरूरत नहीं।" बेदी ने लापरवाही भरे स्वर में कहा।
शुक्रा ने उदयवीर को देखा।
"क्यों उदय, तेरे को मेरी बात ठीक लगती है या विजय की?" शुक्रा ने पूछा।
"इन बातों को छोड़कर हमें अपने लक्ष्य की तरफ ध्यान देना चाहिये।" उदयवीर ने गम्भीर स्वर में कहा--- “शांता और विजय के बीच जो हो रहा है, वो इन दोनों का मामला है। विजय और डॉक्टर वधावन के बीच का मामला हम सबका मामला है। इस वक्त हमें वधावन की तरफ ध्यान देना चाहिये कोशिश करनी चाहिये कि वो जल्दी ऑपरेशन कर दे।"
"ठीक है।" शुक्रा ने सिर हिलाया--- "वधावन से कल सुबह मैं फोन पर बात करूंगा, देखता हूं वह...।"
तभी बेदी के सिर में भयंकर दर्द हुआ। वह तड़प उठा। दोनों हाथों से सिर को जकड़ लिया। बैठे-बैठे ही वह फर्श पर लुढ़कता चला गया। पीड़ा की अधिकता की वजह से चेहरा सुर्ख हो उठा।
"विजय।"
"विजय ।"
आस्था की एकटक निगाह बेदी पर थी।
"विजय, विजय।"
उदयवीर ने विजय को संभालने की कोशिश की।
धीरे-धीरे सिर में उठने वाली पीड़ा कम होने लगी। आधे मिनट में ही पीड़ा कम हो गई। सिर को जकड़े दोनों हाथ ढीले होते चले गये। चेहरा अभी भी लाल सुर्ख था। वह गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। वैसे ही नीचे पड़ा रहा। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे आधे मिनट में ही मीलों की दौड़ लगा आया हो।
शुक्रा और उदयवीर गम्भीर और चिन्ता भरी निगाहों से बेदी को देखे जा रहे थे।
अपनी बिगड़ी हालत पर काबू पाते, बेदी ने फीकी निगाहों से दोनों को देखा।
"मैं बच जाऊंगा ना। मरूंगा तो नहीं ?" बेदी की आवाज में दम नहीं था।
“फिर वही बात ।” शुक्रा बोला--- “पांच-सात दिन में सब ठीक हो जायेगा। तेरे को कुछ नहीं होगा।"
तभी आस्था कह उठी ।
"फोन पर एक बार पापा से मेरी बात करा दो। मैं उन्हें ऑपरेशन के लिये तैयार कर लूंगी। वह... ।"
"कोई जरूरत नहीं।" शुक्रा ने सख्त निगाहों से उसे देखा--- "कल मैं खुद बात करूंगा वधावन से देखता हूं कैसे ऑपरेशन नहीं करता। उसके सारे बहाने दूर न कर दिए तो मैं शुक्रा नहीं ।"
आस्था कुछ न कह सकी।
उदयवीर ने कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा, शाम के चार बज रहे थे।
"मैं चलता हूं।" उदयवीर ने कहा--- “गैराज पर घंटा बिताकर शाम के सात बजे तक खाना ले लाऊंगा। किसी और चीज की जरूरत हो तो बता दो, ले आऊंगा।"
"नहीं, तू जा। रात का खाना ले आना।"
उदयवीर चला गया।
बेदी की हालत अब पहले से बहुत ठीक थी।
■■■
खाली घर में शांता सोफे पर बैठी थी। सोच रही थी, दिमाग बहुत तेजी से दौड़ रहा था। देखने में वह बिलकुल शांत लग रही थी। घर में छाई शान्ति जाने क्यों उसे बहुत अच्छी लग रही थी। तभी वह उठी और घर के सारे कमरों में झांक-झांक कर देखने लगी। कभी सत्या के कमरे में तो कभी केदारनाथ के। कभी दामोदर, विष्णु और मीना के कमरों में। जाने क्यों कभी-कभी उसे विश्वास नहीं आता था कि जो कमरे हर वक्त भरे रहते थे, जिस घर में हमेशा उसने चहल-पहल देखी थी। वह खाली हो चुका है। वहां अब उसके अलावा कोई नहीं रहता।
तभी फोन की बैल बजी। वह वापस ड्राइंगरूम में पहुंची। आगे बढ़कर रिसीवर उठाया।
“हैलो।"
"शांता बहन।" खान की आवाज कानों में पड़ी।
“कहो खान।" शांता का स्वर सपाट था।
"कुछ सुना था, सोचा तुमसे पूछ लूं।" खान की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
"तुमने जो सुना है, ठीक सुना है।"
"फिर भी पूछना चाहता हूँ ।"
"पूछ।"
“दामोदर ने खुद को परिवार से अलग कर लिया है। ब्याह कर रखा था, अब बच्चा भी हो गया है।"
"हां।"
“मीना ने आज मुन्ना से शादी कर ली?"
"हां।" शांता के होंठ हिले।
"तुम्हारी मां और केदारनाथ यह शहर छोड़कर जा चुके हैं।"
"हां।"
"तुम अकेली रह गई।"
"हां।"
दो पल के लिये खान की आवाज नहीं आई।
"अब असल बात कर खान, आगे बोल क्या बोलता है।"
"होटल मून लाइट की शायद अब तुम्हें जरूरत नहीं ।" खान की आवाज आई।
“नहीं, वो तू संभाल ले। शांता को अब किसी चीज की जरूरत नहीं।" शांता का स्वर शांत था।
"धंधे से पीछे हट रही हो?"
"हट गई हूं। अब मैं किसी दौड़ में शामिल नहीं हूं।" शांता के लहजे में कोई भाव नहीं था।
"ऐसा क्यों हुआ। यह तुम्हारे परिवार का भीतरी मामला है। मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि जो दुश्मन तुमने बना रखे हैं, उनसे बचकर रहना। वें सिर उठायेंगे। शायद अब पुलिस भी तुम पर हाथ डालने की कोशिश...।"
"मैंने धंधा छोड़ा है दम नहीं। वो इतना आसान नहीं है जो तुमने कह दिया।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद किया और रखने के साथ ही बोली--- "मां, पैग दे।"
अगले ही पल शांता ठिठकी, नजरें इधर-उधर घूमी। फिर सिर को झटका दिया। दूसरे कमरे में गई और बोतल ले आई। किचन से गिलास उठा लिया, तभी कॉलबेल बजी।
बोतल गिलास थामे शांता ग्रिल के पास पहुंची तो बाहर छोटेलाल को देखकर ग्रिल खोली। छोटेलाल भीतर आया तो शांता ने कहा।
"ताला लगा दे।" कहने के साथ ही शांता ड्राइंगरूम में पहुंची। बैठी, गिलास तैयार किया।
तब तक छोटे लाल वहां आ पहुंचा था।
"बैठ ।" छोटे लाल बैठा, उसकी गम्भीर निगाह शांता पर थी।
"अब यहां कोई नहीं रहता शांता बहन ?"
"मैं रहती हूं।" शांता ने घूंट भरा।
छोटे लाल ने फिर कुछ नहीं पूछा।
शांता घूंट भरती रही आधा गिलास खाली हो गया।
छोटे लाल खामोश, संभला सा बैठा रहा।
"क्या बजा है?" शांता ने पूछा।
"पांच बज चुके हैं।" छोटे लाल ने फौरन कहा।
“आज रात एक काम करना है।” शांता ने घूंट भरकर उसे देखा--- "साथ में दो-तीन को और ले ले।"
"ठीक है शांता बहन ।" छोटे लाल ने सिर हिलाया।
"बाई पास के पास फ्लैटों का जाल बिछा है। वो सारे खाली फ्लैट हैं। हर तरफ वीरान है।" शांता बोली।
"देखा है, उस जगह को ।"
"वहां विजय और शुक्रा साथ में उदयवीर भी है। उन्होंने वहीं डॉक्टर की छोकरी को कैद कर रखा है। लड़की को उड़ाना है।"
"समझा, हो जायेगा काम ।"
"समझा दूंगी तेरे को छोकरी को उन्होंने किस फ्लैट में रखा है। लेकिन एक बात याद रख। लड़की को लाते हुए न तो लड़की को और उन तीनों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिये।" शांता ने घूंट भरा।
"नहीं होगी।"
"रात को वहां अंधेरा होगा। पूरी तैयारी के साथ वहां जाना । छोकरी को यहां नहीं लाना। तेरे पास जगह है उसे रखने को ।"
"बहुत है।"
"तो वहीं रख, तेरी कैद से छोकरी निकले नहीं। उसके साथ कोई हरकत भी मत करना। समझा क्या?"
"समझ गया।"
"रात को कब करेगा काम ?"
"बारह के आस-पास ठीक रहेगा शांता बहन।"
"काम पूरा होते ही मुझे फोन मारना।”
“ठीक है।"
“अब समझ ले। उस छोकरी को पकड़कर वो किस फ्लैट में छिपे हैं।" शांता ने कहा और समझाने लगी।
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मोमबत्ती की रोशनी में बेदी, शुक्रा और आस्था ने खाना खाया। तब नौ बज रहे थे। उदयवीर कुछ देर पहले ही गया था। खाना खाने के बाद शुक्रा ने दरवाजा भीतर से बंद किया। मोमबत्ती की रोशनी में तीनों के मध्यम से चेहरे नजर आ रहे थे।
"मैं इतनी देर इस तरह बंध कर नहीं रह सकती।” आस्था कह उठी--- “अब मुझे तकलीफ होने लगी है।"
"चुपकर, तेरे को खुशी से अपने पास नहीं रखा। तकलीफ हमें होती है। तेरे को खाना-चाय-पानी देना पड़ता है।"
आस्था ने शुक्रा को घूरा।
“तुम जब भी मुझसे बात करते हो, जलते हुए करते हो। कभी तो आराम से बात किया करो।"
"हमारी बातों के बीच तुम दखल मत दो।” शुक्रा बोला--- “तब मैं तुमसे मुस्कराकर बात किया करूंगा और एक बात तो अपने दिमाग में बैठा लो कि जब तक तुम्हारा बाप, विजय का ऑपरेशन नहीं कर देता। तुम यहीं इसी तरह हमारी कैद में रहोगी। विजय को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारे बंधन खोल रखे हैं।"
तभी विजय ने कहा ।
"कल हम दोनों वधावन से बात करेंगे।"
"हां।" शुक्रा के दांत भिंच गये--- “कल वो कहेगा कि आज ऑपरेशन की पूरी तैयारी कर लेगा। बहुत हो गई प्यार के साथ बात । चार दिन से उसकी बेटी हमारे पास है। उसे अपनी बेटी की परवाह नहीं तो, फिर हम क्यों देखभाल करें।"
“तुम मेरे साथ कुछ बुरा करोगे ।" आस्था के होंठों से निकला ।
“मालूम नहीं।" शुक्रा की आवाज में गुस्सा था।
"तुम्हें, कुछ नहीं होगा।" बेदी कह उठा--- "तुम्हारा इस्तेमाल हम दबाव के लिये कर रहे हैं।"
"शो केस में सजाकर रख, साली को ।" शुक्रा भुनभुना उठा ।
बेदी ने सिगरेट सुलगा ली।
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