रंजन तिवारी को जब अमृतपाल अपने कमरे में नहीं मिला तो उसने मोबाईल फोन करके प्रीतम वर्मा को भी वहीँ बुला लिया था। ये शाम की बात थी।
“अब क्या बँगले की निगरनी की जरूरत नहीं रही क्या?” प्रीतम वर्मा ने वहाँ आते ही पूछा।
“नहीं।” रंजन तिवारी ने गम्भीर स्वर में कहा - “हमारी दिलचस्पी साढ़े चार अरब के हीरों में है कि वो मिल जायें और कम्पनी को साढ़े चार अरब का भुगतान, केटली ब्रदर्स को न देना पड़े।”
“लेकिन हीरे हैं कहाँ?” प्रीतम वर्मा के चेहरे पर उलझन उभरी।
“टैम्पो में। जगमोहन ने हीरे टैम्पो में छिपा दिए थे।”
“मैं, कुछ भी नहीं समझा।”
रंजन तिवारी ने टैम्पो के बारे में सारी जानकारी प्रीतम वर्मा को दी।
सुनकर प्रीतम वर्मा गम्भीर हो उठा।
“तो ये खबर पक्की है कि हीरे टैम्पो में ही हैं?”
“हाँ। पक्की है।” रंजन तिवारी बोला- “उसी टैम्पो के साथ पुलिस वालों ने जगमोहन को पकड़ा। तब उसके पास हीरे थे, परन्तु किसी को भी हीरे नहीं मिले। उसके बाद जगमोहन, पुलिस स्टेशन से फरार हुआ और काफी घायल हो गया। किसी ने उसकी जान लेने की चेष्टा की। अब कहीं पर उसका इलाज चल रहा है और उसके बाद देवराज चौहान उस टैम्पो को पाने के लिए भागदौड़ करने लगा। जबकि चोरी के उस टैम्पो की शक्ल देखने की जरूरत कहीं भी नहीं पड़नी चाहिये।
जरूरत पड़ी तो इसका मतलब, जगमोहन ने उसे बताया होगा कि पुलिस के हाथ पड़ने से पहले साढ़े चार अरब के हीरों को उसने टैम्पो में छिपा दिया है, और देवराज चौहान टैम्पो की छिपी जगह में से हीरे निकालने के लिए, टैम्पो की तलाश कर रहा है। ओमवीर के द्वारा उसे गलत पता देकर मैंने कुछ वक्त के लिए उसे भटका दिया है। लेकिन फायदा तभी है कि देवराज चौहान के यहाँ पहुँचने से पहले हमें टैम्पो मिल जाये। हम टैम्पो में से हीरे हासिल कर लें।”
प्रीतम वर्मा अब ठीक तरह से मामला समझ गया था।
“और टैम्पो नहीं मिल रहा?” प्रीतम वर्मा ने रंजन तिवारी के चेहरे पर निगाह मारी।
“नहीं।” रंजन तिवारी ने गली की तरफ नजर मारी- “जहाँ टैम्पो वाला अमृतपाल रहता है, उसके पड़ोसी से मालूम हुआ कि अमृतपाल सुबह ही टैम्पो लेकर निकल गया था और वो माल लादकर टैम्पो को एक शहर से दूसरे शहर ले जाता रहता है। कभी एक-दो दिन शहर से बाहर रहता है तो कभी पाँच-सात दिन भी।”
“ओह!”
“हो सकता है, वो टैम्पो में माल लादकर शहर से बाहर चला गया हो या फिर शहर में ही हो। अगर वो शहर में है तो रात तक वापस अवश्य लौटेगा।” रंजन तिवारी ने गम्भीर स्वर में कहा।
“और अगर शहर से बाहर निकल गया है तो, हमें उसकी वापसी का इंतजार करना होगा और यह इंतजार दो-चार दिन। पाँच-सात दिन लंबा भी हो सकता है।” प्रीतम वर्मा बोला।
“हाँ। क्योंकि हमें ये नहीं मालूम कि अमृतपाल किन-किन पार्टियों का माल टैम्पो में लादता है। उसके कारोबारी सम्पर्क कहाँ-कहाँ है। अगर मालूम होता तो उन लोगों से पूछताछ करके, टैम्पो ढूँढने की कोशिश करते।”
“हमसे पहले देवराज चौहान ने टैम्पो को पा लिया तो?”
रंजन तिवारी के दाँत भिंच गये।
“वर्मा! हमें पूरी कोशिश करनी है कि देवराज चौहान से पहले हम टैम्पो को हासिल कर ले। उसमें से हीरे पा लें।”
“ये कैसे हो सकता है?”
“क्यों?”
“देवराज चौहान को टैम्पो तक पहुँचने में, हम उसे कैसे रोक सकते हैं। हो सकता है, टैम्पो तक पहुँचने का उसने कोई रास्ता निकाल लिया हो।” प्रीतम वर्मा होंठ सिकोड़कर कह उठा - “उसका काम करने का अपना ढंग है और हमारा अपना। मत भूलिये तिवारी साहब, वो एक्सपर्ट डकैती मास्टर है। और मेरे ख्याल से ऐसे कामों में उसे, हमसे ज्यादा अनुभव है। कदम-कदम पर ऐसे कामों से उसका वास्ता पड़ता रहता है।”
रंजन तिवारी, सोच भरी निगाहों से प्रीतम वर्मा को देखता रहा।
“तुम्हारा कहना सही है।” रंजन तिवारी ने गम्भीरता से सिर हिलाया - “देवराज चौहान का मुकाबला शायद हम नहीं कर सकते। लेकिन वो भी इनसान है। सुपरमैन तो है नहीं। हर बार जीत ही तो उसे नहीं मिलती होगी। हारा भी होगा कभी। ऐसे में उसे डराने की हम भी कोशिश कर सकते हैं।”
“और अगर देवराज चौहान से आमना-सामना हो गया तो?” प्रीतम वर्मा व्याकुल सा हो उठा।
“ऐसा नहीं होना चाहिए वर्मा। पूरी कोशिश करनी है कि देवराज चौहान के सामने हमें न जाना पड़े। हम लोग चुपके से अपना काम निकालते हैं। जासूस हैं। रिवॉल्वर जेब में होने का ये मतलब तो नहीं कि पुलिस की तरह मुकाबले पर उतर आयें। रिवॉल्वर हमें अपनी सुरक्षा के लिए दी गई है। वैसे भी रिवॉल्वर हाथ में लेकर भी हम देवराज चौहान जैसे इनसान का मुकाबला नहीं कर सकते। इसलिए ये तो अपने दिमाग से निकाल ही देना चाहिए कि, किसी भी स्थिति में हम देवराज चौहान का मुकाबला करेंगे। अगर ऐसी कोई मजबूरी आ गई तो पुलिस को खबर कर देंगे।”
“समझ गया। लेकिन अब टैम्पो का क्या करें?”
“यहीं रहकर टैम्पो का इंतजार करेंगे।”
“मैंने तो सुबह से कुछ खाया भी नहीं।”
“यहीं रहो। खाने को, कहीं से कुछ ला देता हूँ - तुमने टैम्पो वाले अमृतपाल को देखा है?”
“नहीं। टैम्पो का नम्बर क्या है, मुझे तो ये भी नहीं मालूम।”
“कुछ देर पहले ही चूना भट्टी थाने में फोन करके मालूम किया है। टैम्पो का नंबर 2000 है।”
रंजन तिवारी उसके लिए खाना लाने वहाँ से जाने लगा तो वर्मा ने टोका।
“वहाँ, बँगले वालों का क्या कहना है कि केटली की बेटी जहाँ कैद हैं?”
“बँगले के हालात ख़ास ठीक नहीं है। कोई देवराज चौहान और उसके साथियों की जान लेने के फेर में पड़ा हुआ है। स्पष्ट है कि वो जो भी है, हीरों को पाना चाहता होगा।” रंजन तिवारी ने सोच भरे स्वर में कहा - “मेरे ख्याल में तो केटली की बेटी की जान लेने से किसी का भी मलतब हल नहीं होता। जिस वजह से देवराज चौहान के आदमी, जया केटली को साथ ले गये थे, वो वजह भी खत्म हो गई, वीडियो कैसेट के कारण कि, मालूम हो गया डकैती किसने की है। ऐसे में उन लोगों को चाहिये कि वो जया को छोड़ दें।”
“पुलिस में खबर कर दें कि जया वहाँ पर कैद है?”
“नहीं। अभी नहीं। कल सुबह तक देख लेते हैं कि वो लोग जया को कैद रखते हैं या छोड़ देते हैं।” रंजन तिवारी गम्भीर था - “पुलिस ने आनन-फानन बँगले पर घेराबंदी कर ली तो तब जया की जान को ज्यादा खतरा है। अभी कुछ वक्त और गुजरने दो।”
प्रीतम वर्मा ने सिर हिलाया।
“मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने को ले आता हूँ। गली के भीतर वो वाला मकान है, टैम्पो वाले का।”
“आप यहीं रहिये तिवारी साहब।” प्रीतम वर्मा कह उठा - “उस तरफ बाज़ार है। मैं वहाँ से ही कुछ खा आता हूँ।”
रंजन तिवारी ने सहमति से सिर हिला दिया। मस्तिष्क उलझा पड़ा था टैम्पो को लेकर।
☐☐☐
दिन बीत गया। रात हो गई। रात भी गुजरने लगी।
प्रीतम वर्मा कुछ दूर दीवार की ओट में खड़ी कार का पीछे वाली सीट पर नींद में था। रंजन तिवारी गली के मोड़ पर खड़ी एक कार की आड़ में दीवार के साथ नीचे बैठा था। इंतजार टैम्पो के आने का था। अमृतपाल के आने का था। क्या मालूम वो आता भी है या नहीं, रात ने यूँ ही बीत जाना था।
तब आधी रात से ज्यादा का वक्त हुआ था। जब गली के मोड़ के पास ही कार रुकते और देवराज चौहान, नानकचंद को बाहर निकलते देखकर, रंजन तिवारी सतर्क हो गया। तो देवराज चौहान टैम्पो वाले का ठीक पता पाकर, यहाँ पहुँच ही गया। रंजन तिवारी ने सबसे पहले अपनी पोजीशन देखी कि उन दोनों की नजरें उस पर पड़ सकती हैं? नहीं पड़ सकतीं? वो कार की ओट में दीवार के साथ अँधेरे में बैठा था। ऐसे उसे उसे देख पाना सम्भव नहीं था।
रंजन तिवारी की सतर्क निगाहें उन दोनों पर टिकी रहीं।
दोनों को कार छोड़कर गली में प्रवेश करते देखा। अमृतपाल वाले मकान के सामने ठिठकते देखा। चौकीदार के डंडे और सीटियाँ बजने की दूर से आती आवाजें, कानों में पड़ रही थीं। उसके देखते ही देखते दोनों ने सावधानी से दीवार फलांगी और भीतर प्रवेश कर गये।
रंजन तिवारी के होंठ भिंच गये।
ये तो मामला गड़बड़ हो गया। देवराज चौहान और नानकचंद टैम्पो वाले के घर ही बैठकर, उसकी वापसी का इंतजार करेंगे। मतलब कि टैम्पो पहले उनके हाथ लग सकता है और उस मौके पर सामने जाने का मतलब है, खून-खराबा। झगड़ा। जिसके हक में रंजन तिवारी नहीं था। लेकिन साढ़े चार अरब के हीरों को पाना भी जरूरी था। यानि कि अब कुछ नहीं मालूम कि, आने वाले वक्त में क्या होगा?
एक ही रास्ता बचा था।
इससे पहले कि टैम्पो गली में प्रवेश करे, उस घर के आगे लगे, टैम्पो को गली के मोड़ पर ही रोक लिया जाये। तभी बात बन सकती है। और टैम्पो अभी भी आ सकता था और दो दिन बाद भी। बैचैन-सा रंजन तिवारी अपनी जगह से उठा और गली के मोड़ पर अँधेरे में खड़ा हो गया।
देवराज चौहान के यहाँ पहुँच जाने से उसे सफलता के चांस कम लगने लगे थे।
फिर रंजन तिवारी का ध्यान बँगले की तरफ गया। सोहनलाल, जगमोहन के पास वहीं हस्पताल या नर्सिंग होम में था। देवराज चौहान और नानकचंद यहाँ थे। नानकचंद का साथी केसरिया की लाश को वो बँगले में देख चुका था। यानि कि बँगले में इस वक्त कमरे में बंद जया केटली और वो पाँचवाँ था, जिसकी अभी पहचान नहीं हो सकी थीं।
यानि कि पुलिस आसानी से जया केटली को, बँगले से बरामद कर सकती है और मुठभेड़ का भी कोई खतरा नहीं है। तिवारी ने मोबाइल से पुलिस को कर खबर कर दी कि जया केटली कहाँ पर, किस बँगले पर मौजूद है। उसे जल्दी से छुड़ाया जाए। बँगले पर ख़ास लोग नहीं हैं। लेकिन रंजन तिवारी उस व्यक्ति को न देख सका था, जो देवराज चौहान की कार की डिग्गी से निकला था। क्योंकि तब उसका पूरा ध्यान देवराज चौहान और नानकचंद पर था।
अँधेरे में कुछ दूर मौजूद उसी व्यक्ति की चमकभरी निगाह, तिवारी पर टिक चुकी थी।
इधर रंजन तिवारी ने कई बार सोचा कि प्रीतम वर्मा को कार से जगाकर अपने साथ रख ले,परन्तु ये सोचकर, ऐसा नहीं किया कि वर्मा कुछ नींद ले ले तो ठीक रहेगा। दिन में अपना काम करने के लिए फ्रेश रहेगा। और वो तब कुछ आराम कर लेगा। टैम्पो का तो भरोसा नहीं कि वो कब लौटे।
☐☐☐
रंजन तिवारी की निगाह अँधेरे में भी पूरी तरह गली में थी। देवराज चौहान और नानकचंद ने उस मकान के भीतर प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकले थे। यानि कि उसका ख्याल ठीक था कि दोनों अमृतपाल के घर में रहकर ही उसके आने का इंतजार कर रहे हैं।
रंजन तिवारी ने घड़ी देखी। सुबह के चार बज रहे थे। कुछ ही देर में करीब घंटे भर में दिन का उजाला फैलना शुरू हो जाना था।
तभी उसे कुछ सरसराहट सी महसूस हुई। लगा जैसे आसपास कोई है। रंजन तिवारी फुर्ती के साथ हर तरफ नजरें घुमाता चला गया; परन्तु कोई नजर नहीं आया। अँधेरे में उसकी नजरें दौड़ती रहीं, परन्तु फिर कोई सरसराहट जैसी आवाज़ नहीं उभरी। वो ये भी नहीं सोच सकता था कि आवाज़ को सुनने में, उसके कानों ने धोखा खाया है।
उलझन में घिरे रंजन तिवारी ने पुनः गली की तरफ देखा।
सब ठीक था। हर तरफ शान्ति थी।
उसने सिगरेट निकाली। सुलगाने लगा कि एकाएक जड़ होकर रह गया। उसकी सारी हरकतें रुक गई। आँखों की पुतलियाँ वहीं टिकी रह गई। चार-पाँच क़दमों की दूरी पर, दीवार के पास ही वो उकडू-सा बैठा था। चेहरे पर रुमाल बंधा था। चन्द्रमा की मद्धम-सी रोशनी में भी उसकी वहशीपन लिए चमकती आँखें नजर आ रही थीं। हाथ में दबे लम्बे फलवाले चाकू का भी स्पष्ट आभास हुआ।
दोनों की निगाह मिली।
लगा जैसे वक्त, समय-पल ठहर गये थे।
अगले ही क्षण, वही ठहरा वक्त जैसे तीव्र रफ्तार के साथ आगे बढ़ा। चाकू हाथ में दबाए उकडू बैठे व्यक्ति ने फुर्ती के साथ छलाँग लगाई। रंजन तिवारी कुछ समझ पाता, वो उससे पहले आ टकराया। तिवारी के पाँव उखड़ गये। वो नीचे गिरा। संभलने की चेष्टा की, परन्तु उसी पल, चाकू हाथ में दबाये, उसकी छाती का निशाना लिए, वो उस पर झपटा।
रंजन तिवारी समझ चुका था कि ये उसे छोड़ने वाला नहीं।
इससे पहले चाकू उसकी छाती में धँसता। तिवारी ने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर उसकी कलाई पकड़ी और सड़क पर जा लगा और वो भी उसके करीब आ गया था। उसी पल तिवारी ने फुर्ती से दाईं टाँग ऊपर की और जूते की जोरदार ठोकर, उसके पेट में मारी तो वो लुढ़ककर सड़क पर जा गिरा।
तिवारी उसके चेहरे से रुमाल हटा कर, उसका चेहरा देखना चाहता था। इसी सोच के साथ वो जल्दी से उठा, परन्तु वो ज्यादा फुर्तीला निकला। उससे पहले उठकर वो दौड़ता हुआ अँधेरे में गुम होता चला गया। वो इतनी तेजी से भागा कि, तिवारी ने उसे पकड़ने के लिए भागने का विचार छोड़ दिया, परन्तु अभी तक वो हक्का-बक्का ही था।
कौन था उसकी जान लेने की चेष्टा करने वाला?
क्यों उसकी जान लेना चाहता था?
अगले ही क्षण उसके होंठ भिंचते चले गये। उस बँगले पर कोई देवराज चौहान और उसके साथियों की जान लेना चाहता था। बहरहाल बाद में देवराज चौहान और नानकचंद यहाँ आ गये तो, ये जो भी था, वहीं बँगले वाला हत्यारा था। ये भी पीछे-पीछे यहाँ आया, परन्तु उसे यहाँ कि निगरानी करते देखकर उसकी जान भी लेने पर उतर आया। क्यों?
रंजन तिवारी के पास इस 'क्यों' का जवाब नहीं था।
कई पलों तक अजीब सी हालत में खड़ा रहा। उधर ही अँधेरे में देखता रहा जहाँ वो चाकू वाला भागा था। अभी तक उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि खामाख्वाह किसी ने उसकी जान लेने की चेष्टा की है।
तिवारी कार में सोये प्रीतम वर्मा को जगा लाया।
सारी बात वर्मा को मालूम होते ही, वर्मा की हालत भी अजीब, सी हो गई।
“कमाल है तिवारी साहब!” प्रीतम वर्मा बोला - “माना कि वो वही हत्यारा था, जो देवराज चौहान और उसके साथियों की जान लेने के फेर में था तो उसने आपकी जान लेने की कोशिश क्यों की?”
“यही तो समझ में नहीं आ रहा।” तिवारी ने सिगरेट सुलगाई।
“एक बात और भी अजीब सी है।” वर्मा बोला।
“क्या?”
“देवराज चौहान ने अपने साथियों के हत्यारे को पकड़ने की चेष्टा नही की और यहाँ आ गया।”
“इस बात का जवाब तो देवराज चौहान ही दे सकता है।” रंजन तिवारी ने कश लिया।
“अब क्या किया जाये?”
“मैं कार में सोने जा रहा हूँ। सारे हालात तुम्हें बता दिये हैं। हर तरफ नजर रखो।” रंजन तिवारी ने गम्भीर स्वर में कहा- “इस बात की पूरी कोशिश करनी है कि 2000 नम्बर वाला टैम्पो आये तो उसे गली में नहीं जाने देना। पहले ही उस पर कब्जा कर लेना है।”
प्रीतम वर्मा ने सिर हिलाया।
“और ध्यान रखना। कहीं वो हत्यारा तुम्हारी जान लेने की कोशिश न करे। वो आसपास ही न हो।”
“मैं ध्यान रखूँगा।”
☐☐☐
दिन के बारह बज रहे थे।
सूर्य सिर पर चढ़ आया था। सीमापुर से वापस आकर, टैम्पो शहर में प्रवेश कर गया था। टैम्पो में माल लदा हुआ था। टैम्पो में माल लादने में देरी हो जाने की वजह से रात को सीमापुर में ही रुक गये थे। और दिन निकलने के बाद आराम से सीमापुर से चले थे।
“उस्ताद जी! पहुँच गये मुंबई।” बुझे सिंह कह उठा।
अमृतपाल ने सिर हिलाया।
“वैसे तो टैम पर ही पहुँचे हैं।” बुझे सिंह पेट पर हाथ मारते हुए कह उठा - “बारह बज रहे हैं। एक डेढ़ घंटे तक पार्टी के गोदाम में माल भी उतार देंगे। तब तक तो जम के, भूख लग जायेगी। भूख ज्यादा लगी हो तो, रोटी खाने का मजा कुछ और ही होता है। एक-दो रोटियाँ ज्यादा खाई जाती हैं।”
“तेरे को हर समय खाने की ही लगी रहती है।” अमृतपाल ने गहरी साँस ली।
“कि कहा उस्ताद जी! दो ही तो काम है मेरे। टैम्पो दा झाडू पौछा करना और पेट भर के रखना। हर वक्त दोनों कामो की तरफ पूरा ध्यान रहता है।”
अमृतपाल ने कुछ नहीं कहा।
“उस्ताद जी! दो-चार दिन की छुट्टी दे दो। साथ में तन्खवाह भी दे दो। अपनी बहन को दे आऊँ। उससे मिल भी आऊँ और हौसला भी दे आऊँ कि उसके लिए लड़का ढूँढ रहा हूँ।” बुझे सिंह कह उठा - “उसके पास पैसे खत्म हो गये हों, तो फिर दायें-बायें से उधार मांगकर उसे काम चलाना पड़ेगा।”
“आज देख ले कहीं से माल मिलता है तो ठीक। नहीं तो तू अपनी बहन के पास हो आना। दो दिन में आ जाना। मैं भी दो दिन आराम कर लूँगा। टैम्पो की धुलाई भी करवा लूँगा।” अमृतपाल ने कहा।
“ठीक वे, उस्ताद जी। पर वो तनख्वाह?”
“मिल जायेगी। फ़िक्र नहीं कर।”
“वो तो मुझे पता वे, तुसी गरीबा दां पैसा नेई दबाते।” बुझे सिंह दाँत दिखाकर कह उठा - “उस्ताद जी, एक काम कर दो।”
“क्या?”
“मेरी बहन वास्ते कोई चंगा सा लड़का ढूँढ दो। बेचारी दा ब्याह भी तो करना है।”
“मेरी नज़र में कोई लड़का नहीं है।”
“खैर, कोई बात नहीं। कभी राह चलदे मिल जाये तो मेरे को बता देना। देखने में जरा ठीक हो। कुछ तो लम्बा होना ही चाहिये। पूछ लेना थोड़ा-बहुत पैसा भी पास में है कि नहीं। ब्याह के बाद ऐसा न हो कि मैं अपनी बहन का हाल-चाल पूछने जाऊँ। महीना-पन्द्रह दिन वहाँ ठहरूं तो वो मुझे पेट भरके, खिला न सके। ये तो आपको समझ होगी ही कि लड़के में क्या क्या देखा जाता है? “
अमृतपाल ने कुछ ज्यादा ही लम्बी साँस ली।
“थक गये क्या उस्ताद जी?”
“हाँ। तेरी बाते सुन-सुनकर थक गया हूँ।”
“परवाह न करो जी।” बुझे सिंह होले से हँसा - “जब मेरी बहन का ब्याह हो जायेगा तो बुझया नूँ याद किया करोगे। क्योंकि तब तो मैंने नौकरी करनी नेई। बहन का हाल पूछने गये और महीने में पच्चीस दिन वहाँ बिता दिये। जीजे को मेरा वहाँ रहना चुभे नहीं, इसके लिए कभी उसके घर में झाडू-पौछा लगा दिया। इससे जीजा भी खुश रहेगा और मेरा काम भी चलता रहेगा। नौकरी में क्या रखा है। तब बुझया को याद करोगे।”
“बुझया!” अमृतपाल मुस्कराया।
“कहो उस्ताद! लेकिन बहन की शादी के बाद, मैं नौकरी नहीं करूँगा। नौकरी करने को मत कहना।”
“मैं तो कुछ और कह रहा था।”
“कहो उस्ताद जी! अभी तो आपकी नौकरी पर आपके नीचे हूँ और अभी माल उतारने के बाद लंच भी करना है। बुझया आपकी हर बात दिल पर पत्थर रखकर सुनेगा सहेगा।”
“मैं तो यह कह रहा था, तू भी कोई भूलनेवाली चीज है।”
“ये बात तो है उस्ताद जी। एक बार मैंने दो महीने एक दुकान पर नौकरी की थी। बोत पैले की बात है। दुकान के मालिक ने मुझे तीसरे महीने की तनख्वाह पहले ही देकर, नौकरी से निकाल दिया और अभी तक उसे मेरी याद है। कभी उसकी दुकान के सामने से निकलता हूँ तो वो दूर से ही सलाम मार देता है।”
“फ़िक्र न कर जब तू मेरे यहाँ से नौकरी छोड़ेगा तो उसके बाद मैं भी दूर से ही सलाम मारा करूँगा।”
“वो तो ठीक है। एक महीने की तनख्वाह भी फालतू दोगे ना, दुकानदार की तरह।”
“बिलकुल नहीं। एक पैसा भी फालतू नहीं।”
“फेर की फायदा उस्ताद जी, नौकरी छोड़ने का।” बुझे सिंह ने मुँह बनाकर कहा।
☐☐☐
“वा उस्ताद जी! मजा ई कुछ और है, इस ढाबे पे, मक्खन मार के दाल खाने का। दो-चार रोटियाँ भी ज्यादा खादी जाती हैं।” बुझे सिंह ने डकार मारा और पेट पर हाथ फेरकर कह उठा- “जब से टैम्पो मिला है, तब से आप खुश होकर, मुझे बहुत अच्छा खाना खिलाते हो।”
“पहले नहीं खिलाता था?”
“खिलाते तो थे।” बुझे सिंह मुस्कराया- “लेकिन तब आपकी भावना शुद्ध नहीं थी, खिलाने की। जितनी कि अब है। अगर भावना शुद्ध होती तो मुझे पहले भी इतना मजा आता। आता कि नहीं।”
“बुझया!” गहरी साँस ली अमृतपाल ने - “तेरा कुछ नहीं हो सकता।”
“सब हो जायेगा। वो ऊपर वाला सब ठीक करेगा। मुझे तो आपकी चिंता होने लगी है कि आपकी किस्मत में टैम्पो की बॉडी के अलावा कोई दूसरी बॉडी भी है, या नहीं -। मेरी गल मन्नो तो तोते वाले ज्योतिषी के पास चल्लो। ओ कोई उपाय-वगैरह कर देगा। दूसरी बॉडी भी आपकी किस्मत के साथ लग जायेगी।”
अमृतपाल मुस्कराकर खाने में व्यस्त रहा।
“उस्ताद जी, मैं ज़रा टैम्पो ने कपड़ा मार दां।” बुझे सिंह उठता हुआ बोला - “तुसी 'बिल' दे आना। मेरे सामने जब 'बिल' देते हो तो इतने नोट जाते देखकर मेरा 'दिल' जोरों से धडकता है।” कहने के साथ ही बुझे सिंह ढाबे से बाहर निकलता चला गया।
कुछ देर बाद अमृतपाल भी ढाबे से बाहर आ गया। बुझे सिंह कपड़ा मारकर टैम्पो को चमकाने लगा था। अमृतपाल को देखते ही कह उठा।
“उस्ताद जी! आज तो कहीं से माल मिला नहीं ले जाने वास्ते। मैं अपनी बहन नूँ मिल आता हूँ। दो दिन में वापस आ जाऊँगा। तुसी इजाजत देते हो तो जाऊँगा।”
“अब तो दोपहर हो रही है। कल सुबह-सुबह निकल जाना।” अमृतपाल ने सिगरेट सुलगाई।
“वो तो ठीक है जी। लेकिन तनख्वाह के बिना जा के की करांगा?”
“पैसे मिल जायेंगे।”
“तुसी बोत गुड हो जी। गरीबां दा पैसा कभी नहीं मारते।”
अमृतपाल स्टेयरिंग सीट पर बैठ गया।
बुझे सिंह भी जल्दी से अन्दर आ बैठा।
“उस्ताद जी! तोते वाले ज्योतिषी के पास चलने का प्रोग्राम हो तो एक साथ ही टैम्पो में गाँव-।”
“मुझे नहीं जाना।” अमृतपाल टैम्पो स्टार्ट करते हुए कह उठा।
“कहाँ पे, गाँव या तोते वाले ज्योतिषी के पास?”
“कहीं भी।”
“आपकी मर्जी। मैं तो आपके भले के लिए कह रहा था।” बुझे सिंह ने सिर हिलाया - “पिछली बार जब गाँव गया था तो सुना था तोते वाला ज्योतिषी नया काम भी शुरू कर रहा है।”
“नया काम?” अमृतपाल मुस्कराया।
“जी हाँ। तोते वाले ज्योतिषी ने गाँव के बाहर बोत सारी जगह घेर ली थी। और उसके दो-तीन श्रद्धालु चेले भी उसके साथ ही रहने लगे थे तो उसने अपना काम बढ़ाने की सोचकर, ब्याह शादियाँ करवाने का काम भी शुरू करने का फैसला किया था। अब तक उसका धंधा शुरू होकर चल भी निकला होगा। तुसी चलते तो शायद कोई रिश्ता मिल जाता और -।”
अमृतपाल ने टैम्पो आगे बढ़ा दिया।
“ठीक वे उस्ताद जी। अब आपको शादी के लिए नहीं कहूँगा। मैं तो आपका भला करना चाहता था कि आपका घर बस जाये। रब दी मर्जी।” बुझे सिंह बोला- “अब कहाँ चले उस्ताद जी?”
“कमरे पर -।”
“ठीक वे। आराम कर लांगे। कल गाँव जाना है। कपड़ों की धो-धुलाई भी कर लांगा। सफ़ेद कमीज-पायजामे को माया लगवा के पहनकर गाँव जाऊँगा। वा पे मेरी बोत इज्जत है। सब दूर से ही सलाम मारते हैं।”
अमृतपाल उसकी बात पर मुस्कराने लगा।
☐☐☐
लम्बे समय से बँगले की ओर अब गली की निगरानी करते-करते रंजन तिवारी और प्रीतम वर्मा बोर होने के साथ-साथ थक भी चुके थे। न तो ठीक तरह से लेटने को मिल रहा था न बैठने को।
देवराज चौहान और नानकचंद रात को, उस मकान में ऐसे गये थे कि अभी तक बाहर नहीं निकले थे। इस वक्त दोपहर के दो बज रहे थे।
“तिवारी साहब!” प्रीतम वर्मा थके स्वर में कहा उठा- “आखिर इस तरह हम कब तक, सड़कों पर वक्त बिताते रहेंगे।”
रंजन तिवारी ने गली में निगाह मारी और गहरी साँस लेकर कह उठा।
“ये हमारी नौकरी का हिस्सा है। बीमा कम्पनी को साढ़े चार अरब के हीरों की भरपाई न करनी पड़े, इसलिए वक्त रहते, हम उन हीरों को पा लेना चाहते हैं। नौकरी हमें तनख्वाह, आराम, हर चीज देती है तो हमें भी कम्पनी का ख्याल रखना है।” कहते हुए रंजन तिवारी मुस्करा उठा- “मैं मानता हूँ ये काम हमें परेशानी दे रहा है, क्योंकि हीरों के मामले में हम अभी तक हवा में ही हाथ-पाँव मार रहे हैं और -।”
“हम दोनों इतने थक चुके हैं कि, अब किसी भी मौके पर चूक सकते हैं। जब काम करने का वक्त आएगा तो तब शायद फुर्ती से काम न कर सकें।” प्रीतम वर्मा ने तिवारी को देखा।
तिवारी ने सहमति में सिर हिलाया।
“हाँ। इस बात का एहसास मुझे भी हो रहा है। मेरे ख्याल में मनचंदा को बुला लेते हैं। वो नज़र रखेगा और हम आराम करके कुछ हद तक फ्रेश भी हो सकेंगे।”
“मेरे ख्याल में सिर्फ मनचंदा से काम नहीं चलेगा। एक और को....।”
प्रीतम वर्मा के शब्द अधूरे रह गये।
इस वक्त वे दोनों गली के मोड़ से कुछ फासले पर पेड़ की छाया में खड़े थे। सड़क पर से वाहन और रिक्शा कभी-कभार निकल जाते थे। और इन्हीं बातों के दौरान उन्होंने देखा कि दूसरी तरफ से टैम्पो आया और एकाएक गली में प्रवेश करता चला गया।
रंजन तिवारी की निगाह टैम्पो के नम्बर पर गई। 2000 नम्बर लिखा देखकर, वो ठगा-सा रह गया। वर्मा भी नम्बर देख चुका था।
“वर्मा! हम चूक गये।” तिवारी के होंठ भिंच गये।
“हाँ। टैम्पो गली में चला गया है। और उस घर में देवराज चौहान और नानकचंद मौजूद हैं।”
दोनों की नजरें मिलीं।
“अब क्या करें?” वर्मा के होंठों से व्याकुल स्वर निकला- “हमारी सारी मेहनत बेकार गई। अगर टैम्पो को गली के बाहर ही रोक लेते तो, बाजी मार सकते थे।”
दोनों गली के मोड़ पर पहुँचे। गली में झाँका।
टैम्पो उस मकान के आगे रुक चुका था।
रंजन तिवारी के दाँत भिंचे हुए थे। वर्मा पस्त हाल लगने लगा था।
“वर्मा।” रंजन तिवारी सोच भरे कठोर स्वर में कह उठा - “अगर अब हम टैम्पो के पास गये तो देवराज चौहान का सामना हर हाल में करना पड़ेगा। और मैं उसके सामने नहीं पड़ना चाहता।”
“तो क्या करें? हीरे भी तो नहीं छोड़े जा सकते।” वर्मा ने कहा - “मेरे ख्याल में हमें जल्दी से टैम्पो के पास पहुँचकर, टैम्पो की तलाशी लेकर, हीरे पा सकते हैं।”
“नहीं। हीरे ऐसी जगह नहीं रखे कि नजर आ जाएँ। अगर ऐसा होता तो पुलिस वालों को हीरे मिल गये होते। जब उन्होंने टैम्पो पकड़ा था। जगमोहन ने हीरे सुरक्षित जगह टैम्पो में छिपाये होंगे।”
“तिवारी साहब! ये भी तो हो सकता है कि टैम्पो वाले को हीरे मिल गये हो। और -।”
“वर्मा!” रंजन तिवारी के चेहरे पर अजीब-से भाव नजर आने लगे - “हीरे टैम्पो में हो या टैम्पो वाले को मिल गये हों। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि देवराज चौहान ने टैम्पो से या टैम्पो वाले से हर हाल में हीरों को हासिल कर लेना है। यानि कि देर-सवेर में हमें देवराज चौहान के सामने पड़ना ही पड़ेगा, हीरे लेने के लिए। तब हमें कोई ऐसा रास्ता निकालना है कि देवराज चौहान से आसानी से हीरे ले सकें।”
“मेरे ख्याल से हमें पुलिस को खबर कर देनी चाहिये।” वर्मा गम्भीर स्वर में बोला।
“उससे क्या होगा?”
“पुलिस मामला संभाल लेगी। ढेर सारी पुलिस से मुकाबला करने की अपेक्षा देवराज चौहान निकल जाना पसंद करेगा। उसके बाद पुलिस टैम्पो से हीरों को बरामद कर लेगी। हमें तो हीरों से मतलब है कि वो मिल जायें और बीमा कम्पनी को साढ़े चार अरब की रकम केटली को न देनी पड़े।”
“तुम्हारा विचार बुरा नहीं है।” रंजन तिवारी की निगाह गली में खड़े टैम्पो पर थी - “लेकिन, अगर हीरे टैम्पो वाले को मिल चुके होंगे तो, वो किसी भी कीमत पर नहीं मानेगा कि टैम्पो में से उसे किसी तरह के हीरे मिले हैं। हमारे या पुलिस के पास ऐसा कोई सबूत भी नहीं है कि टैम्पो में हीरे रखे गये हैं। यानि कि टैम्पो वाले को छोड़ना पड़ेगा और फिर हीरे हाथ में नहीं आयेंगे। देवराज चौहान फिर टैम्पो वाले को पकड लेगा और उससे हीरे वसूल कर लेगा। यानि कि बीमा कम्पनी को साढ़े चार अरब रूपये का भुगतान केटली को देना पड़ेगा।”
प्रीतम वर्मा कुछ नहीं कर सका।
“यानि कि जो हो रहा है, होने दो। पुलिस बीच में आ गई तो, हीरे मिलने का जो थोड़ा-बहुत चांस है, वो भी खत्म हो जायेगा। पहले देवराज चौहान को देख लेने दो, वो क्या करता है।”
वर्मा के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।
“तुम कार तैयार रखो और मेरे इशारे का इंतजार करो। मैं यहाँ से गली में टैम्पो पर नजर रख रहा हूँ। जो भी हालात सामने आयेंगे , उन्ही के मुताबिक़ हमें हरकत में आना पड़ेगा।” रंजन तिवारी बोला।
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मकान की दीवार के पास अमृतपाल ने टैम्पो को रोका और इंजन बंद किया।
“लो जी पौंच गये -।” तुसी उतरो उस्ताद जी, मैं दरवाजे खिड़कियाँ बंद करके आता हूँ।
चाबी थामे अमृतपाल नीचे उतर आया।
टैम्पो की आवाज़ सुनकर पड़ोसी निकल आया। उसने बनियान-पायजामा पहन रखा था।
“ओ अमृतपाल, आ गया तू - !” गेट खोलकर वो बाहर निकलता हुआ बोला - “कल तेरे को दो बार कोई बड़े लोग पूछने आये थे। कौन थे वो?”
“बड़े लोग?” अमृतपाल ने उसे देखा- “क्या नाम था उनका?”
“मैंने नहीं पूछा। कह रहे थे, माल-वाल टैम्पो में ले जाना है।”
ये सुनकर बुझे सिंह पास आ पहुँचा।
“बुझया किसी ने आना था क्या?” अमृतपाल ने पूछा।
“उस्ताद जी! आना तो किसी ने नहीं था। लेकिन वो मुझसे ही मिलने आये होंगे।”
“तेरे से?”
“हाँ जी। किसी ने उन्हें बता दिया होगा कि मैं अपनी बहन के लिए अच्छा सा लड़का ढूँढ रहा हूँ। उन्हें खबर मिली तो आ गये होंगे, बातचीत करने के लिए। तोते वाले ज्योतिषी ने ठीक ही कहा था कि मेरी बहन की शादी अमीर आदमी के साथ होगी। तभी तो खाते-पीते लोग मुझे पूछने आये।”
“लेकिन वो तो अमृतपाल को पूछ रहे थे।” पड़ोसी बोला।
“तो क्या हो गया। मेरे में और उस्ताद जी में कोई फर्क है क्या? मैं इनकी नौकरी करता हूँ तो, पहले इन्हें ही तो पूछेंगे कि बुझया कैसा बन्दा है? शरीफ है कि नहीं? उसके बाद ही तो वो मेरी बहन से रिश्ता तय करेंगे। शरीफ लोग तो पहले पूछताछ करते ही हैं। क्यों उस्ताद जी? तो उन्होंने अपना पता दिया होगा?”
“पता तो नहीं दिया।” पडोसी बोला - “मैंने माँगा ही नहीं।”
“कोई बात नेई। मेरी शराफत की खुशबू तो दूर-दूर तक फैली है। वो फिर आ जायेंगे। अब तो समझो मेरी बहन का ब्याह हो ही गया।” कहने के साथ ही वो पुनः टैम्पो की तरफ बढ़ गया।
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ताले वगैरह खोलकर अमृतपाल और बुझे सिंह अपने कमरे में पहुँचे तो वहाँ देवराज चौहान और नानकचंद को पाकर हड़बड़ा से उठे।
“उस्ताद जी, ये क्या! ये तो बीच में घुसे बैठे हैं।” बुझे सिंह के होंठों से निकला।
“कौन हो तुम लोग?” अमृतपाल के माथे पर बल नज़र आने लगे - “चोरी करने आये हो तो यहाँ कुछ भी नहीं मिलेगा। देख भी लिया होगा। मैं टैम्पो चलाने वाला गरीब बन्दा-।”
“एक मिनट उस्ताद जी।” बुझे सिंह ने टोका - “यूँ ही किसी को चोर नहीं कह देते। देखने में तो शरीफ लोग लग रहे हैं। क्योंकि कल आप लोग ही, हमें पूछने आये थे। पड़ोसी बता रहा था।”
“हम ही आये थे बेटे।” नानकचंद अपनी मूँछ को बल देकर बोला।
देवराज चौहान उठा और आगे बढ़कर दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।
अमृतपाल समझ नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है।
नानकचंद के शब्द सुनते ही बुझे सिंह हाथ जोड़कर कह उठा।
“आपने मुझे बेटा कहा। मैं सब समझ गया। कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मैं ही बुझे सिंह हूँ जी और एकदम शरीफ बंदा हूँ। उस्ताद जी से पूछ लो। मुझसे ज्यादा तो मेरी बहन शरीफ है। आपके घर को महका कर रख देगी। गाँव में किसी से भी मेरे और मेरी बहन के चरित्र के बारे में पूछ लो। मैं तो कहता हूँ मेरी बहन को देखने की जरूरत भी नहीं है। बहुत खूबसूरत है वो। गरीबी की मार है मुझ पर। रुपया-पैसा नहीं है देने को। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं, रकम तय कर लेते हैं, मैं आपको तनख्वाह मिलते ही किश्तों में तय दे दिया करूँगा। वैसे आप लोग पैसे वाले लगते हैं। ऐसे में आपको रुपये पैसे से मोह कैसा। आपको तो सिर्फ सुन्दर और टिकाऊ लड़की की ही जरूरत होगी और ये गुण मेरी बहन में है जी।” इसके साथ ही उसने देवराज चौहान को देखा- “मुझे तो आपका लड़का एक ही नजर में पसंद।”
“बुझया!” अमृतपाल ने टोका।
“ठहरो उस्ताद जी। बड़ी मुश्किल से चांस मिला है। रिश्ता पक्का कर लेने दो। तो मैं कह रहा था, आपका लड़का एक ही नज़र में मुझे पसंद है। ब्याह का मुहूर्त तुरंत निकाल लो जी। तोते वाले ज्योतिषी ने कहा था कि मेरी बहन का ब्याह जब भी होगा, झटपट हो जायेगा। अब देर न करो।”
नानकचंद ने पुनः मूँछ मरोड़ी।
“तो तेरे को बहन के ब्याह के लिए बन्दा चाहिये?” नानकचंद बोला।
“हाँ जी।” बुझे सिंह ने हाथ जोड़ रखे थे।
“का उम्र होवे तेरी बहन की -।”
“पूरे बीस की हो जायेगी अगले महीने -।”
“हूँ। ठीक है। ब्याह पक्का। मैं भी शादी करने की सोच रिया था।” नानकचंद मुस्कराया।
“पिताजी! तुस्सी ब्याह करोगे, मेरी बहन से?” बुझे सिंह का मुँह खुला-का-खुला रह गया।
“क्यों, मैं शादी नहीं कर सकता? दिखाऊँ क्या कि....।”
“नेई-नेई पिताजी। दिखाने की जरूरत नहीं है।” हड़बड़ाये से बुझे सिंह ने अमृतपाल पर फीकी निगाह मारी- “मैं तो आपको लड़के का बाप समझ रहा था। मेरे को क्या पता जी, आप ही दूल्हा बनने की तैयारी में हो। पर मेरी इक बात और सुन लो पिताजी।”
“बोल बेटे।”
“मेरे गाँव में इक बोत बड़ा खू (कुआँ) है। मैं अपनी बहन नू खू के बीच में फेंक दूँगा, लेकिन उसका ब्याह आपके साथ नेई करूँगा। गरीब हूँ तो क्या हुआ। बाप की उम्र के बन्दे के साथ बहन का ब्याह करके, मैं उसे तिल-तिल करके नहीं मारूँगा। एक ही बार खू में फेंककर मार दूँगा। ये रिश्ता येई पे खत्म। दरवाज़ा खोलो और निकल जाओ। क्यों उस्ताद जी।”
नानकचंद हँसा।
“देखा।” वो देवराज चौहान से बोला- “मुझे बूढ़ा समझता है ये।”
“उस्ताद जी! ये अपने को जवान समझता है।” बुझे सिंह कड़वे स्वर में बोला- “ओ तूने मेरी बहन को देखा है। वो तेरे साथ चलेगी तो, तेरी पोती लगेगी।”
नानकचंद पुनः हँसा।
“चुप रहो।” देवराज चौहान ने नानकचंद को देखकर सख्त स्वर में कहा, तो नानकचंद लापरवाही से खामोश हो गया। देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर, अमृतपाल को देखा- “तुम्हारा टैम्पो चोरी हुआ था?”
“हाँ।”
“टैम्पो का नंबर 2000 है।” देवराज चौहान गम्भीर था।
“हाँ।” अमृतपाल का चेहरा उलझन से घिरा नज़र आने लगा।
“तुम्हारा टैम्पो मेरे दोस्त ने चोरी किया था।” देवराज चौहान का स्वर शांत था।
अमृतपाल के चेहरे पर और भी अजीब-से भाव गहरा गये।
“कमाल वे। दोस्त ने चोरी किया, तो ये बताने आप आये हो।” बुझे सिंह कह उठा - “मेरे खयाल में अपने दोस्त की गलती की माफ़ी माँगने आये हैं ये, उस्ताद जी। कोई गल नहीं। माफ़ कित्ता। बोत बड़ा दिल है हमारे उस्ताद जी का। जो हो गया, उस पर मिट्टी पाओ।”
देवराज चौहान ने कश लिया। नजरें अमृतपाल पर थीं।
आँखें सिकोड़े अमृतपाल, देवराज चौहान को ही देख रहा था।
“मेरे दोस्त को जब पुलिस ने टैम्पो के साथ पकड़ा तो उसका कुछ कीमती सामान टैम्पो में रह गया था और वो सामान तुम्हें मिल गया होगा। सामान क्या है, ये तुम भी जानते हो और हम भी जानते हैं।” देवराज चौहान एक-एक शब्द पर जोर देकर कह रहा था - “हमें वो सामान पूरा का पूरा चाहिये।”
“टैम्पो में कोई सामान नहीं था।” अमृतपाल ने कहा।
“झूठ मत बोलो। तुम।”
“मेरे उस्ताद जी कभी झूठ नहीं बोलते।” बुझे सिंह एकाएक उखड़े स्वर में कह उठा- “हम कोई चोर नहीं हैं। शरीफ बंदे हैं। मेहनत करते हैं और रोटी खाते हैं, मक्खन डाल के। टैम्पो में कोई सामान होता तो क्या मुझे पता न चलता। जाओ यहाँ से। मुझे कपड़े धोने हैं। कल गाँव जाना है। बहन से मिलने।”
“टैम्पो में पड़ा सामान तुम्हें मिला है।” अमृतपाल को देखते हुए देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।
“मुझे कोई सामान नहीं मिला।” अमृतलाल के चेहरे पर गुस्सा उभरा- “मैं -।”
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह कह उठा- “ये इस तरह नहीं मानेंगे। डंडा लाऊँ जो-।”
तभी नानकचंद ने रिवॉल्वर निकाल ली।
“तमंचा।” बुझे सिंह के चेहरे का रंग बदल गया- “गोली मत मारना। अभी मुझे बहन का ब्याह करना है। वो -।”
“उससे तो मैं ब्याह कर लूँगा बेटे।” नानकचंद जहरीले स्वर में बोला- “लेकिन तू अपनी जुबान बंद कर ले। नहीं तो मैं कर दूँगा। बहुत ज्यादा जुबान चला रहा है। बता, हीरे कहाँ हैं?”
“कौन से हीरे पिताजी?” बुझे सिंह ने घबराकर हाथ जोड़ दिए - “मैंने तो अपनी ज़िन्दगी में कभी हीरे देखे भी नहीं। फिल्मों में हीरों का नाम सुन लेता हूँ। कसम से दो महीने से तो फिल्म भी नहीं देखी।”
रिवॉल्वर देखकर अमृतपाल के चेहरे पर भी घबराहट नज़र आने लगी थी। बात उसे कुछ भी समझ नहीं आई थी। लेकिन इतना समझ गया था कि मामला गम्भीर है।
“हीरे कहाँ हैं?” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में अमृतपाल से पूछा।
“मैं - मैं नहीं जानता तुम किन हीरों की बात कर रहे हो।” अमृतपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा।
“मैं उन हीरों की बात कर रहा हूँ, जिन्हें मेरे दोस्त ने तुम्हारे टैम्पो में छिपा दिया था।”
“मैं नहीं जानता असल बात क्या है?” अमृतपाल घबराया-सा कह उठा- “हीरे टैम्पो में कहाँ छिपाये हैं और कहाँ नहीं। लेकिन मैंने टैम्पो में किन्हीं हीरों को नहीं देखा। मैं सच कह रहा हूँ।”
“उल्लू के पट्ठे।” नानकचंद गुर्रा उठा - “कल सुबह से टैम्पो लेकर गायब है। हीरों को कहीं ठिकाने लगा आया है और कहता है मैंने हीरों को नहीं देखा। चलाऊँ गोली या बताता है हीरों के।”
“मेरी बात का विश्वास करो। मैं हीरों के बारे में कुछ नहीं जानता।” अमृतपाल जल्दी से कह उठा।
“ये हरामी, इस तरह से नहीं बतायेगा।” नानकचंद दाँत पीसें कह उठा
“बतायें तो तब, जब हमें हीरों का पता -।” बुझे सिंह ने कहना चाहा।
“तू चुप रह।” नानकचंद ने खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा - “तेरे से तो अकेले में बात करूँगा।”
“अकेले में बात करने की कोई जरूरत नहीं है।” बुझे सिंह कह उठा- “मैं तेरी बात में नहीं फँसने वाला। एक बार कह दिया कि अपनी बहन की शादी, तेरे से नेई करूँगा तो नेई करूँगा। एकदम पक्की बात।”
देवराज चौहान, अमृतपाल को देखे जा रहा था।
अमृतपाल के चेहरे पर घबराहट और व्याकुलता नाच रही थी।
“दोनों में से पहले किसे गोली मारूँ।” नानकचंद खतरनाक स्वर में देवराज चौहान से बोला- “मुझे नहीं लगता कि ये हीरों के बारे में बतायेंगे। दोनों को इकट्ठे ही गोली मार देता हूँ।”
“देखो।” अमृतपाल फक्क चेहरे के साथ कह उठा- “हमारे पास कोई हीरे नहीं हैं। टैम्पो में से हमें कुछ भी नहीं मिला है। हम सच कह रहे हैं। हमारी बात का विश्वास करो। हम झूठे नहीं हैं।”
देवराज चौहान ने नानकचंद को देखा।
“इनसे बाद में बात की जायेगी। पहले टैम्पो चेक कर लेना चाहिये।” देवराज चौहान बोला।
“ठीक है।”
“टैम्पो और इन लोगों को यहाँ से ले जाना होगा। किसी खाली जगह पर आराम से टैम्पो चेक करेंगे। यहाँ पर ये शोर डाल कर, या कोई चालाकी करके मुसीबत खड़ी कर सकते हैं।” देवराज चौहान ने कहा।
नानकचंद ने सहमति से सिर हिलाया।
“तुम दोनों टैम्पो लेकर हमारे साथ चलोगे।” देवराज चौहान ने अमृतपाल और बुझे सिंह को देखा - “कमरे से बाहर निकलते ही कोई गड़बड़ करने की कोशिश मत करना। वरना।”
“हम कोई गड़बड़ नहीं करेंगे।” अमृतपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी- “लेकिन हमारी बात का विश्वास करो कि हमारे पास कोई हीरे नहीं है। टैम्पो में हमे कुछ भी नहीं मिला।”
“कल से टैम्पो लेकर कहाँ गये थे?” देवराज चौहान ने पूछा।
“टैम्पो में माल भरकर के सीमापुर गये थे और वहाँ से माल भर के लाये हैं। ये बात तो आप लोग भी पता कर सकते हैं। हम तो मेहनत मजदूरी करके पेट भरते हैं। विश्वास करो। हम सच कह रहे हैं कि हीरे हमने देखे भी नहीं।”
“मालूम हो जायेगा।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा - “यहाँ से बाहर निकलो।”
बुझे सिंह ने मुँह लटकाकर, अमृतपाल को देखा।
“उस्ताद जी! चल्लो। ये तो अच्छा हुआ कि रोटी पैले ही खा ली। नेई तो भूखे पेट जाने क्या हाल होता।”
☐☐☐
“तिवारी साहब!” प्रीतम वर्मा होंठ सिकोड़े कह उठा- “ये तो टैम्पो कहीं ले जा रहे हैं।”
“हाँ। साथ में टैम्पो वाला भी है। टैम्पो का क्लीनर भी है।” रंजन तिवारी सोच भरे स्वर में कह उठा - “अभी तक उन्होंने टैम्पो की तलाशी नहीं ली है, हीरे पाने के लिए। मेरे ख्याल में कहीं और ले जाकर ये आराम से टैम्पो में से हीरे बरामद करेंगे।”
रंजन तिवारी और वर्मा इस वक्त कार में बैठे थे। वर्मा ड्राइविंग सीट पर था।
“देवराज चौहान तो टैम्पो में बैठ गया है। लेकिन वो डाकू नानकचंद गली के बाहर की तरफ आ रहा है।”
“वर्मा!” तिवारी होंठ सिकोड़े बोला - “रात को दोनों कार पर आये थे। मेरे ख्याल में नानकचंद कार को टैम्पो के पीछे-पीछे ले जाएगा।”
वर्मा खामोश रहा।
दोनों की निगाहें गली में थी। सड़क पर से ट्रैफिक आ जा रहा था।
“रात जिसने आप पर जानलेवा हमला किया था, वो नज़र नहीं आ रहा।” वर्मा कह उठा।
तिवारी के होंठ भिंच गये। बोला कुछ नहीं।
तभी टैम्पो गली से बाहर निकला और एक तरफ बढ़ गया। टैम्पो को अमृतपाल ही चला रहा था। बगल में बुझे सिंह और फिर दरवाजे के पास, देवराज चौहान बैठा था।
उनके देखते ही देखते नानकचंद ने कार टैम्पो के पीछे लगा दी।
“वर्मा!” रंजन तिवारी गम्भीर स्वर में बोला- “फासला रखकर, इनका पीछा करना शुरू कर दे।”
वर्मा ने सावधानी से, कार आगे बढ़ा दी।
☐☐☐
सुनसान जगह पर देवराज चौहान ने टैम्पो रुकवाया।
“तुम दोनों नीचे उतरकर खड़े हो जाओ।” देवराज चौहान ने कहा - “हीरे टैम्पो में ही हैं। अगर तुम लोगों ने नहीं निकाले तो, मुझे ढूँढने दो।”
अमृतपाल और बुझे सिंह नीचे उतरे।
“ढूँढ लो जी।” बुझे सिंह बोला - “मिल जायेंगे। हम कोई चोर हैं जो दूसरों के माल पर बुरी नज़र डालेंगे। अपने टैम्पो में से भी कुछ मिलता तो हम उसे थाने जमा करा देते। जेब में नहीं रखते। गरीब हुए क्या हुआ, हेराफेरी वाले बंदे नहीं हैं। क्यों उस्ताद जी?”
अमृतपाल चेहरे पर गम्भीरता समेटे खामोश रहा।
तभी कार पर नानकचंद जा पहुँचा।
“उस्ताद जी। तमंचे वाला आ गया। ये बन्दा तो मुझे जेल से भागा हुआ डाकू-वाकू लगता है।”
“चुप कर बुझया।” अमृतपाल ने कड़वे स्वर में कहा - “कहीं वो पागल खाने से भागा हुआ निकला तो तेरी जान ले लेगा, तेरी बात सुनकर।”
“ठीक वे उस्ताद जी। मैं नेई बोलता।”
नानकचंद कार से उतरकर पास आया।
“हीरे मिले?”
“ढूँढना शुरू कर रहा हूँ।” देवराज चौहान ने कहा और टैम्पो के भीतर से हीरे तलाश करने लगा।
नानकचंद ने सिगरेट सुलगा ली। बाहर ही खड़ा रहा।
“पूरा का पूरा डाकू लगता है।” बुझे सिंह बड़बड़ा उठा।
“क्या बोला रे?” नानकचंद ने उसे घूरा।
“मैं कुछ नेई बोलया।”बुझे सिंह ने जल्दी से कहा - “मैं तो भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि आपको हीरे मिल जायें। क्यों उस्ताद जी! आपने मेरी प्रार्थना सुनी थी ना?”
अमृतपाल सूखे होंठों पर जीभ फेरकर रह गया।
सिगरेट समाप्त होने पर नानकचंद, देवराज चौहान से कह उठा।
“ओ, अभी हीरे नहीं मिले?”
“नहीं।” टैम्पो के भीतर से देवराज चौहान की आवाज़ आई।
नानकचंद बेचैन-सा नज़र आने लगा।
“बुझया।” अमृतपाल धीमे स्वर में बोला।
“हाँ, उस्ताद जी!”
“हम बहुत बड़े खतरे में हैं। अगर इन लोगों को हीरे न मिले तो ये हमारी जान ले लेंगे।”
“ये कैसे हो सकता है!” बुझे सिंह उखड़ा- “मैंने अभी अपनी बहन की शादी करनी है। मुझे कुछ हो गया तो उसे रोटी-पानी कौन देगा। उसका ब्याह करने से पहले मैं नहीं मरूँगा।”
“गम्भीरता से सोच। ये कुछ भी कर सकते हैं अगर इन्हें हीरे नहीं मिले तो?”
बुझे सिंह का चेहरा उतर गया।
“उस्ताद जी! गल तो तुसी ठीक कहते हो। ये तो हमें मार देंगे।”
देवराज चौहान टैम्पो से नीचे उतर आया।
नानकचंद ने माथे पर बल डाले, उसे देखा।
“नहीं मिले?”
“नहीं।” देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे - “वो कोई एक हीरा नहीं था, जिसे कि बारीकी से कहीं छिपा दिया हो। ज्यादा मात्रा में हीरे थे जो कहीं नहीं मिले। सीटों के कवर को भी फाड़कर देख लिया है। कोई फायदा नहीं हुआ।”
नानकचंद की कठोर निगाह अमृतपाल और बुझे सिंह पर जा टिकी।
“उस्ताद जी! वो हमें घूर रहा है। अब तो खैर नहीं हमारी। देखना तमंचा निकालेगा।”
“बताओ हरामजादों।” नानकचंद गुर्राया - “हीरे टैम्पो से निकालकर, कहाँ रखे हैं?”
“हमें क्या पता जी। हमने तो हीरे देखे ही नहीं। उस्ताद जी से पूछ लो।”
नानकचंद कुछ कहने लगा कि देवराज चौहान ने टोका।
“मेरी बात सुनो।”
नानकचंद ने देवराज चौहान को देखा।
“इनसे बाद में भी बात की जा सकती है।”
“लेकिन हीरे....।” नानकचंद ने कहना चाहा।
“वही बात कर रहा हूँ।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई - “जगमोहन ने किसी ऐसी जगह हीरे रखे नहीं होंगे कि आसानी से वो नज़र आ जाएँ।”
“तो?”
“टैम्पो को आहिस्ता से एक तरफ लुढ़का दो। नीचे की जगह चेक करनी होगी।” देवराज चौहान ने कहा।
“समझा।” नानकचंद ने सिर हिलाया- फिर दोनों को देखा - “इधर आओ। टैम्पो को एक साइड करके लिटाना है। लगाओ हाथ। अगर हीरे न मिले तो तुम दोनों को जान से खत्म कर दूँगा।”
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह घबराकर बोला - “ये तो बात बात पर जान से मारने की धमकी देता है। अब आप का टैम्पो उलटाने को कह रहा है।”
“ये जो कहते हैं। करते रहो।” अमृतपाल इसके अलावा कह भी क्या सकता था।
उसके बाद चारों ने मिलकर टैम्पो को टेड़ा करके लिटा दिया और नीचे की कोई ऐसी जगह तलाश करने लगे, जहाँ हीरे छिपाये हो सकते हैं। देवराज चौहान और नानकचंद हीरे तलाशने की पूरी कोशिश करते रहे। टैम्पो को टेड़ा करने की वजह से अपनी जगह पर फँसी स्टेपनी सामने थी।
बोनट खोलकर भी देखा।
हर वो जगह देखी। जहाँ हीरे रखे हो सकते थे।
परन्तु हीरे कहीं नहीं मिले।
“हीरे नहीं हैं टैम्पो में।” नानकचंद दाँत भींचकर खतरनाक लहजे में कह उठा।
“हीरे टैम्पो में ही है।” देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।
“हैं तो मिले क्यों नहीं।”
“जगमोहन ने हीरों को किसी ख़ास जगह रखा है कि -।”
“टैम्पो में ख़ास जगह होती ही नहीं।” नानकचंद भड़कर कह उठा और अमृतपाल - बुझे सिंह को वहशी नज़रों से देखकर कह उठा - “इन दोनों हरामजादों को हीरे मिल गये हैं और सालों ने हीरों को कहीं छिपा दिया है। मानों मेरी बात, मैं सही कह रहा हूँ।”
“हीरे इनके पास नहीं हैं।” देवराज चौहान बोला- “इन्हें हीरे नहीं मिले।”
“तुम ये बात कैसे यह सकते...?”
“इतना तो समझ ही लेता हूँ कि कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच।” देवराज चौहान ने नानकचंद के गुस्से में भरे चेहरे को देखते हुए चुभते स्वर में कहा- “ये दोनों सच कह रहे हैं।”
“मैं नहीं मानता।”
देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।
“नहीं मानते तो क्या करोगे?”
“इन कुत्तों से मालूम करूँगा कि इन्होने हीरे कहाँ छिपाये हैं। नही बतायेंगे तो मार दूँगा सालों को।”
देवराज चौहान एकाएक ही मुस्करा पड़ा।
“नानकचंद! काम कोई भी हो। उसमें ताकत से ज्यादा दिमाग लगाया जाता है। हम हीरे चाहते हैं। किसी की जान लेकर हमें हीरे नहीं मिल सकते। वैसे भी मेरा काम करने का अपना ढंग है। किसी निर्दोष की जान की कीमत पर मैं हीरों को पाना पसंद नहीं करूँगा। दौलत चली गई तो फिर आ सकती है। किसी की जान हमारे हाथों चली गई तो उसे हम वापस नहीं ला सकते।”
“तेरा मतलब कि हीरे नहीं मिलते तो न मिलें।”
“हाँ। न मिलें। लेकिन बिना मुनासिब वजह के किसी की जान नहीं लेनी है। हीरे नहीं मिलने का गुस्सा किसी की जान लेकर उतारना ठीक नहीं। अपने दिमाग पर काबू रखकर, हीरों की तरफ ध्यान दो कि वो कहाँ हो सकते हैं। हमें कैसे मिल सकते हैं।”
नानकचंद, देवराज चौहान को देखता रहा।
“उस्ताद जी।” बुझे सिंह, अमृतपाल के कान में बोला- “ये बन्दा तो मेरे को पहुँचा हुआ लगता है। कितनी अच्छी बात करता है। इसकी संगत में रहकर, मेरा जीवन धन्य हो जायेगा।”
अमृतपाल ने होंठ भींचकर उसे देखा।
“उस्ताद जी, मैंने कुछ गलत कह दिया वे -।”
“चुप कर।” अमृतपाल ने भिंचे स्वर में कहा - “ज्यादा बोलकर क्यों मुसीबत मोल लेता है।”
“ठीक है। अब कहोगे, तो भी नेई बोलूँगा -।”
देवराज चौहान ने कश लिया।
नानकचंद ने गहरी साँस ली और हल्की-सी मुस्कान के साथ कह उठा।
“हैरानी है तुम्हें देखकर। तुम्हारी बातें सुनकर कौन कह सकता है कि तुम वो देवराज चौहान हो, जिसके किस्सों से अखबारें भरी रहती हैं। पुलिस जिसे पकड़ नहीं पा रही। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि देवराज चौहान अपने उसूलों का इतना पक्का होगा। तुमने कभी किसी की जान ली है?”
“बहुतों की।” देवराज चौहान ने उसकी आँखों में झाँका - “अब तो गिनती भी भूल चुका हूँ।”
“विश्वास नहीं आता।”
“भ्रम को कायम ही रहने दो तो ठीक रहेगा।” देवराज चौहान ने कश लिया।
“अब क्या करना है?” नानकचंद काफी हद तक सामान्य हो चुका था।
“मैं देखकर आता हूँ कि जगमोहन का क्या हाल है। शायद वो होश में हो तो उससे हीरों के बारे में पक्के तौर पर मालूम कर सकूँ। तुम यहीं रहना। इन दोनों के साथ लगकर, टैम्पो सीधा करो। ये इनकी रोजी-रोटी का जरिया है। और इन्हें कुछ नहीं कहना है।”
नानकचंद ने दोनों पर नज़र मारी।
“इन्होने भागने या कोई गड़बड़ करने की कोशिश की तो?”
“ये दोनों ऐसा कुछ नहीं करेंगे। करें तो फिर जो मन में आये करना।”
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह हड़बड़ाकर बोला- “कोई गड़बड़ मत करना। नहीं तो अपने साथ-साथ मेरी भी जान ले डूबोगे। सीधे-सीधे खड़े रहना।”
अमृतपाल उसे घूरकर रह गया।
☐☐☐
दूर, काफी दूर कार में बैठे रंजन तिवारी और वर्मा टैम्पो के हालात देख रहे थे। जब उन्होंने देवराज चौहान को टैम्पो से हटकर कार की तरफ बढ़ते देखा तो वर्मा बोला।
“देवराज चौहान कहाँ चला?”
“जगमोहन के पास।” रंजन तिवारी होंठ सिकोड़कर बोला- “टैम्पो में हीरे नहीं मिले। देवराज चौहान, जगमोहन के पास पक्के तौर पर पूछने जा रहा होगा कि हीरों को टैम्पो में कहाँ रखा है।”
“मेरे ख्याल में हीरे टैम्पो में नहीं है।” प्रीतम वर्मा बोला- “टैम्पो कोई ऐसी जगह नहीं है कि उसमें कुछ भी छिपाया जाए और वो चीज न मिले। जगमोहन ने अगर हीरे टैम्पो में छिपाये है तो वो निकाल लिए गये हैं।”
“किसने निकाले?” रंजन तिवारी के चेहरे पर सोच के भाव गहराने लगे।
“टैम्पो वाले ने।”
“मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ। अगर हीरे निकाले गये हैं तो, ये काम टैम्पो वाले ने नहीं, पुलिसवालों ने ही किया होगा। हवलदार सुच्चा राम और कांस्टेबल ओमवीर ने टैम्पो पकड़ा था। ओमवीर नम्बरी हरामी है और हर वक्त इस ताक में रहता है कि कहाँ से माल मिले। हो सकता है टैम्पो में से हीरे उसके हाथ लग गये हो। कुछ घंटे टैम्पो पुलिस स्टेशन में खड़ा रहा था। वहाँ हीरों को गायब करने का काम आसानी से हो सकता है।”
प्रतीम वर्मा सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।
“वर्मा!”
“हाँ।”
“तुम नीचे उतरो और छिपकर टैम्पो कर नज़र रखो। मैं देवराज चौहान के पीछे जा रहा हूँ। कम से कम ये तो मालूम हो कि जगमोहन का ईलाज कहाँ पर चल रहा है।” देवराज चौहान को कार में बैठते देखकर रंजन तिवारी ने कहा।
“आपका यहाँ से कार ले जाना ठीक नहीं।” वर्मा कह उठा।
“क्यों?”
“हो सकता है, ये लोग टैम्पो लेकर यहाँ से चले जाये तो मैं इनके पीछे कैसे जा पाऊँगा। वो देखिये, तीनों टैम्पो को सीधा खड़ा करने के फेर में लग रहे हैं।” प्रीतम वर्मा की निगाह, टैम्पो पर थी।
देखते ही देखते देवराज चौहान कार पर, वहाँ से चला गया।
रंजन तिवारी गहरी साँस लेकर रह गया।
दूर कार में बैठे दोनों की निगाहें, टैम्पो की ही तरफ थीं।
☐☐☐
“उल्लो के पट्ठों! सारा दम-खम मेरा ही लगवाओगे क्या।” नानकचंद सख्त स्वर में कह उठा - “जोर लगाओ। चम्बल होता तो मेरे निगाह ने सेकंडों में टैम्पो को सीधा खड़ा कर देना था।”
और फिर देखते ही देखते टैम्पो सीधा खड़ा कर दिया गया।
बुझे सिंह फौरन नानकचंद के पास पहुँचा।
“तुसी अभी चम्बल के बारे में कुछ कह रह थे।”
“तू जानता है चम्बल को?” नानकचंद ने हँसकर उसे देखा।
“बस इतना ही जानता हूँ, जितना कि तुसी जानते हो।”बुझे सिंह ने कहा।
“क्या मतलब?”
“ये ई कि चम्बल का नाम सुन रखा है। तुसी ने भी सुना होगा।”
“ओ मैं तो चम्बल का राजा हूँ राजा। नानू। नाम सुना है कभी डाकू नानकचंद का।” नानकचंद सीना फुलाकर छाती ठोककर बोला - “मैं ही हूँ वो डाकू नानू।”
“मैंने तो ये नाम नेई सुना जी।”
उसी पल चाँटे का तीव्र स्वर गूँज उठा। नानकचंद का भारी हाथ बुझे सिंह के गाल से जा टकराया था। बुझे सिंह लड़खड़ाकर पीछे जा गिरा।
“बकवास करता है साले। डाकू नानकचंद की बेइज्जती करता है। चम्बल का नाम सुना है और चम्बल के शेर, नानकचंद का नाम नहीं सुना। गोली मार दूँगा। मेरे नाम से तो बच्चा बच्चा काँपता है।”
चाँटा पड़ते ही बुझे सिंह का सिर झनझना उठा था। गाल लाल हो गया।
“वो बात ये है जी!” बुझे सिंह जल्दी से कह उठा - “मुंबई से चम्बल कुछ दूर पड़ता है। चम्बल की आवाज मुंबई में कुछ कम पहुँचती है। शायद इसलिए आप जैसे मशहूर डाकू का नाम नहीं सुन पाया।”
नानकचंद ने लाल सुर्ख गुस्से से भरी आँखों से अमृतपाल को देखा।
“क्यों रे! तूने सुना है डाकू नानकचंद का नाम?”
“हाँ- हाँ।” घबराया सा अमृतपाल बदहवास-सा कह उठा - “मैंने तो सुन रखा है। बहुत पहले से सुन रखा है।”
“हूँ। ठीक है।” नानकचंद की छाती कुछ और फूली - “बड़े लोगों का नाम सुना होना चाहिये।” इसके बाद नानकचंद ने इधर-उधर देखा फिर बोला- “भागने की कोशिश मत करना।”
“आपके होते हुए तो हम ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकते।”
“मैं दस कदम आगे पेड़ों के पीछे, एक मिनट लगाकर आता हूँ। समझे?” नानकचंद ने दोनों को घूरा।
“समझ गये जी। पूरी तरह समझ गये। हम आपको यहीं मिलेंगे आप हमें पहले बता देते कि आप चम्बल से आये हैं। तो आपको थोड़ी बहुत आव-भगत भी कर देते। तुसी ते मौका गवाँ दिया -।”
“यहीं खड़े रहना।”
“जो आर्डर जी।”
नानकचंद आगे बढ़ा और दस-बारह कदम दूर मोटे तने के पेड़ की ओट में हो गया। वो पास ही था। दोनों चाह कर भी भाग नहीं सकते थे।
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह मुँह लटकाकर बोला- “ये हम पर कौन से बुरे ग्रहों की छाया आ गई। मैंने तो सुबह गाँव जाना था बहन के पास। तोते वाले ज्योतिषी से पूछूँगा ये बुरा वक्त कैसे आया?”
“बुझया।” अमृतपाल धीमे से व्याकुल स्वर में बोला - “इन लोगों के सामने कम बोल। क्या मालूम इन्हें तेरी किस बात पर गुस्सा आ जाये और तेरे को गोली मार दें। ज़ुबान बंद रखनी सीख।”
“ठीक वे उस्ताद जी। तुसी कहते हो तो चुप रहूँगा। पर इक वायदा करो मेरे से।”
“क्या?”
“मेरे को कुछ हो गया तो तुसी मेरी बहन से ब्याह ...।”
बुझे सिंह की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि नानकचंद की तेज चीख उनके कानों में पड़ी।
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह हड़बड़ाकर बोला- “कुछ हो गया।” दोनों न समझने वाले ढंग से उसके पास जा पहुँचे। अगले ही पल दोनों चिंहुक उठे। नानकचंद की गर्दन पर आर-पार चाकू का हुआ वार नजर आ रहा था और दूसरा वार छाती पर हुआ पड़ा था।
तभी उन्हें दौड़ते क़दमों की आवाज़ आई।
उनकी निगाह उधर गई।
सिर्फ एक पल के लिए दौड़ते इनसान की झलक मिली। उसके हाथ में चाकू दबा था और चेहरे पर रुमाल बँधा था। उसके बाद, जंगल जैसी जगह में पेड़ों के तने के पीछे गुम होता चला गया।
अमृतपाल और बुझे सिंह हक्के-बक्के खड़े रह गये। नीचे पड़े नानकचंद को देखा तो उनका हाल और भी बुरा हो गया। नानकचंद का शरीर शांत पड़ चुका था। वो मर चुका था। आँखें फटी सी एक तरफ हुई पड़ी थी। कम से कम ये दृश्य उन दोनों के होश उड़ा देने के लिए पर्याप्त था।
☐☐☐
नानकचंद के साथ क्या हुआ, ये तो रंजन तिवारी और प्रतीम वर्मा नहीं जान सके, परन्तु उन्होंने अमृतपाल और बुझे सिंह को अचानक भागते देखा। उसके बाद, पेड़ों के बीच में से कोई भागता नजर आया जिसके चेहरे पर रुमाल बँधा देखा तो रंजन तिवारी जोरों से चौंका।
“वर्मा,गड़बड़ है। कार को टैम्पो के पास ले चल।” तिवारी तेज स्वर में कह उठा।
“प्रतीम वर्मा कार स्टार्ट करते हुए बोला।”
“कैसी गड़बड़?”
“मैंने दूर चेहरे पर रूमाल बांध का किसी को भागते देखा है। उसने वहीं कपडे़ पहन रखे हैं, जो कल रात को मुझ पर हमला करते वक्त पहने थे। ये वही है, जो सबकी जान ले लेना चाहता है।”
प्रीतम वर्मा ने कार आगे बढ़ा दी।
“अब उसने किसकी जान ली होगी? किस पर वार किया होगा?”
“शायद, नानकचंद पर।”
कुछ ही पलो में कार टैम्पो के पास जा पहुंची।
“ये क्या हो गया बुझया - ?” अमृतपाल फीके स्वर में बोला।
“ये तो मर गया उस्ताद जी! कोई इसे मारकर भाग गया। अपनी बहन का ब्याह इसके साथ न करके मैंने अच्छा ही किया। नेई तो वो अब तक विधवा होकर, घर बैठ गई होती।” बुझे सिंह बोला।
“सामने लाश पड़ी है। होश से काम ले।” अमृतपाल ने सूखे होंठो पर जीभ फेरी - “पुलिस आ गई तो हमें खून के जुर्म में पकड़ लेगी। सारी उम्र जेल में -।”
“देखो उस्ताद जी। मेरे होते हुए तुसी फिक्र न करो।” बुझे सिंह गर्दन हिलाकर कह उठा - “हमने किसी को नेई मारा। किसी की जान नहीं ली। अदालत में कसम लेकर बोल देगे। हम झूठ नेई बोलते। अदालत सब समझ जायेगी। हम कोई शक्ल से खूनी लगते है। गरीब हुए तो क्या हुआ। खूनी तो नहीं है। और...”
“बुझया अक्ल से काम ले। अदालत तक पहुंचने से पहले ही पुलिस हमसे लिखा लेगी कि ये खून हमने किया है। नहीं लिखा तो बहुत मारेगी पुलिस। फिर तो-।”
“उस्ताद जी! ये तो अपने को चम्बल का मशहूर डाकू नानू-नानकचंद कह रहा था। अगर इस पर पुलिस ने ईनाम रखा हो तो, वो भी हमें मिलेगा। तब तो मैं टैम्पो खरीद।”
“और अगर ये डाकू न हुआ तो? इसने हमें डराने के लिए खुद को डाकू कहा हो तो क्या होगा?” अमृतपाल वास्तव में घबराया हुआ था - “ये सब चक्कर छोड़ और भाग चलते है यहां से । इसका साथी आ गया तो फिर हम बच नहीं सकेंगे। वो यही सोचेगा कि हमने इसे मारा है और वो हमें मार देगा।”
“हूं।” बुझे सिंह ने सोच भरे स्वर में कहा - “बात तो ठीक है। भाग जाना ही ठीक रहेगा। लेकिन वो हत्यारा जानता है कि हम कहां रहते है। हमें फिर पकड़ लेगा। तब -।”
“कमरे में जाने की जरूरत ही क्या है। वहां हमारा पड़ा ही क्या है। दो कपड़े हैं। चारपाइयां हैं। भूल जा कमरे को। तू अपने गांव जा और मैं अपने। महीने बाद मेरे गांव आ जाना। आगे का प्रोग्राम बना लेंगे।”
“ठीक वे। तुसी मेरी तनख्वाह दे दो। में अभी गांव -।”
तभी कार रूकने की आवाज आई।
दोनों के चेहरों पर घबराहट अभरी।
“वो आ गया उस्ताद जी। इसका साथी । अब हमारा क्या होगा।”
दोनो ने टैम्पो की तरफ देखा तो कार से तिवारी और वर्मा को निकलते देखा।
“बुझाया! ये तो कोई और ही है ।”
“हां! उस्ताद जी। ये तो इधर ही आ रहे है। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है।”
रंजन तिवारी और प्रीतम वर्मा पास आ पहुंचें। लाश देखी।
“मेरा ख्याल ठीक निकला वर्मा। अब उसने नानकचंद को मार दिया।” रंजन तिवारी बोलां
“तुसी जानते हो मारने वाले को?” बुझे सिंह कह उठा।
“किसने मारा इसे?” तिवारी ने दोनों को देखा।
“हमें क्या पता जी, किसने मारा। ये तो यां पे, पेड़ के पीछे कुछ करने आया था। हम तो चीख सुनकर यहां पहुचे और किसी को चाकू पकड़कर भागते देखा। मुंह पे रूमाल बांध रखा था। बस। क्यों उस्ताद जी?”
रंजन तिवारी और प्रीतम वर्मा की नजरें मिलीं।
“तुम लोग टैम्पो के साथ यहां क्या कर रहे हो?”
“बुरे वक्त का फेर है। ये मरने वाला और इसका साथी हमें यहां ले आये और कहने लगे कि टैम्पो में हीरे छिपे हैं। हीरों को ढूंढना है। हमने कहा ढूंढ लो। हीरे नहीं मिले तो, इसका साथी आता हूं कहकर चता गया और ये यही था। इसके अलावा हमने और यां पे क्या करता है। क्यों उस्ताद जी?”
अमृतपाल की तो हिम्मत नहीं बन पा रही थी कुछ बोलने की।
“टैम्पो के पास चलो।”
“चल्लो जी। आओ उस्ताद जी। घबराने की जरूरत नहीं है। ये शरीफ बंदे लग रहे हैं।”
चारों टैम्पो के पास पहुंचे।
“ये भी तो हो सकता है, हीरे तुम लोगों को मिल गये हों और -।” रंजन तिवारी ने कहना चाहा।
“सुन लो उस्ताद जी। हीरों का भूत इन पर भी सवार है।” बुझे सिंह मुंह बनाकर कह उठा - “मेरे को तो समझ नहीं आती कि सारे बेवकूफ हमारे आसपास ही क्यों फेरा मार रहे हैं?”
“वर्मा! “ तिवारी बोला - “टैम्पो की तलाशी ले।”
वर्मा फौरन टैम्पो की तरफ बढ़ गया।
“अब टैम्पो की तलाश में क्या-क्या करोगे। पैले वालों ने तो सीटें भी फाड़ दीं। आप क्या फाड़ोगे पा जी? कुछ तो सबूता रहने दो। उस्ताद जी, ये लोग टैम्पो को ढांचा बना देंगे।”
अमृतपाल ने रंजन तिवारी को देखा। कहा कुछ नहीं।
“अगर हीरे टैम्पो में नहीं हैं तो तुम लोगो ने उन्हें कहीं छिपा दिया है।” तिवारी ने कहा।
“मुझे समझ नहीं आ रहा कि ये हीरे कहां से आ गये।” अमृतपाल हिम्मत करके कह उठा - “हमारे पास कुछ नहीं है। टैम्पो में हीरे भी नहीं है। क्यों हमारे पीछे पड़े हो। टैम्पो चलाकर, आराम से पेट भर रहे हैं। किसी नई मुसीबत में क्यों फंसा रहे हो तुम लोग हमें।”
“हीरे मुझे दे दो। सारी मुसीबतों को दूर भगा दूंगा।” तिवारी ने अपनेपन से कहा।
“ओ, मुझे नहीं मालूम हीरों के बारे में।” अमृतपाल चीख उठा।
“उस्ताद जी धीरे। गला खराब हो जायेगा। यहां कोई दुकान भी नहीं हैं, जहां से विक्स की गोली मिल सकें।”
रंजन तिवारी भी आगे बढ़कर टैम्पो को चैक करने लगा।
“क्यों वर्मा।” रंजन तिवारी ने पूछा - “टैम्पो में हीरे कहां हो सकते हैं।”
“ढूंढ रहा हूं।” वर्मा अपने काम में व्यस्त बोला - “लेकिन जब देवराज चौहान को नहीं मिले तो हमें हीरे मिल जायेंगें। इसमें शक है। क्या मालूम टैम्पों में हीरे हों ही नहीं।”
“टैम्पो में ही है।” रंजन तिवारी सोच भरे स्वर में बोला - “हीरे न मिलने पर, देवराज चौहान को भी यह शक हुआ होगा। तभी तो वो जगमोहन के पास दोबारा पूछने गया है।”
बीस मिनट दोनों टैम्पो से उलझे रहे।
“टैम्पो में हीरे नहीं हैं।” वर्मा हाथ झाड़ते हुए पीछे हट गया। रंजन तिवारी को भी लग रहा था कि हीरे टैम्पो में नहीं हैं।
“मेरे ख्याल में देवराज चौहान अब जगमोहन से पक्की खबर लायेगा कि हीरे टैम्पो में कहां हैं।
“देवराज चौहान कभी भी आ सकता है। पहले यहां से चलो।”
दोनो कार की तरफ बढ़े।
तभी अमृतपाल उसके सामने आ गया।
“मुझे ये तो बता दो कि हीरों का मामला क्या है? तुम सब क्यों मेरे टैम्पो के पीछे पड़े हो?” अमृतपाल बोला।
रंजन तिवारी ने उसे घूरा।
“तुम सिर्फ ये जान लो कि अगर टैम्पो में से हीरे निकालकर तुमने कहीं छिपा दिए हैं तो तुम्हारे साथ बहुत बुरा - ।”
“मैंने तो हीरों को देखा भी नहीं।”
अमृतपाल को कंधे से पकड़कर एक तरफ किया और दोनों कार की तरफ बढ़ गये। देखते ही देखते कार उनकी निगाहों से ओझल हो गई। वापस फिर वहीं पर काफी दूर खड़ी करके वे दोनों टैम्पो पर नजर रखने लगे।
“तिवारी साहब? मेरे ख्याल में ये दोनों टैम्पो लेकर भाग जायेंगे।” वर्मा बोला।
“ख्याल तो मेरा भी यही है।” तिवारी होंठ सिकोड़कर बोला - “लेकिन बच नहीं सकेंगे। देवराज चौहान फिर इन्हें किसी न किसी तरह ढूंढ ही लेगा।”
“लेकिन हीरे, टैम्पो में नहीं हैं तो कहां गये?”
रंजन तिवारी खुद इस सवाल में उलझ पड़ा था।
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह रंजन तिवारी वाली कार को आते देखता हुआ बोला - “ये क्या घोटाला है?”
“बुझया।” अमृतपाल गम्भीर स्वर में कह उठा - “मुझे बहुत बड़ी गड़बड़ लग रही है। जो आता है हमसे हीरे मांग रहा है। या तो ये सारे पागल है, या फिर बीच में कुछ हैं।”
“ये सारे तो पागल होने से रहे।” बुझे सिंह ने फौरन अपना फैसला सुनाया।
“तो फिर समझ ले, हीरो का मामला वास्तव में है।” अमृतपाल के चेहरे पर सोच के भाव थे।
“मतलब कि हीरे है?”
“हां।”
बुझे सिंह मुंह फाड़े, अमृतपाल को देखता रहा।
“उस्ताद जी! हीरे तों बहुत हैं दुनियां में। वो तो मैं भी मानता हूं। लेकिन ये सब हमारे टैम्पो में ही क्यों हीरों को ढूंढ रहे है। सोचने वाली बात तो ये है जी। टैम्पो की सीटें भी फाड़ दीं।”
अमृतपाल ने बुझे सिंह को देखा।
“हीरे टैम्पो में ही हैं बुझया।”
“क्या?” बुझे सिंह का मुंह खुला-का-खुला रह गया - “टैम्पो में!”
“हां। टैम्पो में कैसे आये, मै नहीं जानता। किसने छिपाये? मालूम नहीं। लेकिन हीरे टैम्पो में ही हैं। तभी तो सब टैम्पो में से हीरे ढूंढ रहे है।” अमृतपाल के स्वर में ट्टढ़ता आती जा रही थी - “तू ठीक कहता है कि इतने सारे लोग एकदम पागल नहीं हो सकते। हीरे टैम्पो में ही हैं।”
“लेकिन हीरे टैम्पो में छिपाये कब होंगे?”
“जब टैम्पो चोरी हुआ था।”
“तो फिर हमें मिले क्यों नही। ये लोग जा ढूंढ रहे थे। उन्हे भी क्यों नहीं मिले?”
“ये सोचने वाली बात है। मेरे ख्याल में हीरे कहीं खास जगह पर छिपाये गये हैं।” अमृतपाल की निगाह टैम्पो पर फिरने लगी - “और हीरे बहुत ज्यादा कीमत के है तभी तो सब हीरों को पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।”
“इतने के हीरे तो होंगे कि नया टैम्पो आ जाये।”
“बेवाकूफ! मुझे तो लगता है लाखों के हीरे होंगे।”
“लाखो के।” बुझे सिंह का मुंह खुला-का-खुला रह गया फिर एकाएक चीखा - “जीजाजी-?”
“क्या?” अमृतपाल हड़बड़ाया।
“तुसी मेरे जीजाजी। तोते वाले ज्योतिषी ने कहा था कि मेरी बहन की शादी उसके साथ होगी, जिसके पास बहुत बड़ी दौलत एक बार आयेगी और वो आ गई। तुसी मेरे जीजाजी बन गये। उसने ये भी कहा था कि पता नहीं वो दौलत को संभाल पायेगा या नहीं। तुसी फिक्र न करो। हम दोनों मिल कर संभाल लागे।”
“चुप कर।”
“गलत बोल दिया क्या?”
“मैने तेरी बहन से शादी नहीं करनी। समझा।” अमृतपाल झल्लाकर कह उठा।
“आपके कहने से क्या होता है उस्ताद जी! ग्रह सब कुछ करा देते हैं। मैं सब संभाल लूंगा। आप पहले देखो टैम्पो में हीरे कहां हैं।” बुझे सिंह ने खुशी से दोनों हाथ मलते हुए कहा।
अमृतपाल के शब्द अधूरे रह गये।
एक तरफ से देवराज चौहान वाली कार आती दिखाई दी।
“बुझया!” अमृतपाल के चेहरे पर घबराहट नाच उठी - “वो आ गया। डाकू का साथी।”
☐☐☐
देवराज भीतर प्रवेश कर गया। डॉक्टर को नोटों की गड्डियां देकर, जगमोहन के ईलाज के लिए तैयार किया था, ये भी कि वो इस बात की खबर पुलिस को नहीं करेगा। नोटों की गड्डियां देखकर डॉक्टर ने शराफत से सारी बात मानी।
देवराज चौहान जगमोहन के कमरे में पहुंचा।
ये देखकर उसने राहत की सांस ली कि जगमोहन होश में था और सोहनलाल से बातें कर रहा था।
“अब कैसी तबियत है?” देवराज चौहान ने मुस्कराकर पूछा।
“ठीक है।” सोहनलाल बोला – “जख्म ठीक होने में अभी कुछ दिन लगेंगे। दो दिन बाद यहां से छुट्टी मिल जायेगी।”
“हीरे मिल गये?” जगमोहन ने पूछा।
“नहीं। पूरा टैम्पो देख लिया।”
देवराज चौहान की बात पूरे होने से पहले ही जगमोहन जल्दी से बोला!
“टैम्पो कहां है?”
“अभी है। नानकचंद को टैम्पो के पास छोड़कर तुम्हारे पास आया हूं।”
“हीरे टैम्पो की स्टेप्नी में हैं।” जगमोहन व्याकुल स्वर में कह उठा।
“स्टेप्नी में!”
“हां। टायर के बीच में ट्यूब नहीं है। हीरों के वही पांच थैले (लिफाफे) ठूंसे हुए है।”
देवराज चौहान ने मुस्कराकर सिर हिलाया।
“ठीक है। कुछ ही देर में हीरे हमारे पास होंगे।” कहने के साथ ही देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता आ गई - “जिसने तुम पर हमला किया, उसे तो देखा होगा।”
“नहीं।” जगमोहन ने गहरी सांस ली - “मैं उसे देख नहीं पाया। तब अंधेरा था और हमला भी उसने पीछे से किया था। वार भी ऐसे किया कि मैं कुछ सोचने-समझने के काबिल नहीं रहा।”
देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया।
“ठीक है। तुम आराम करो। मैं टैम्पो के पास जा रहा हूं।”
“मैं भी साथ चलूं।” सोहनलाल कह उठा।
“तुम?” कहने के साथ ही देवराज चौहान की प्रश्न-भरी नजर जगमोहन पर गई।
“मै ठीक हूं। मुझे सोहनलाल की जरूरत नहीं।” उसकी निगाहों का मतलब समझकर जगमोहन कह उठा।
देवराज चौहान ने सिर हिलाया तो सोहनलाल तुरन्त उठ खड़ा हुआ।
“मुझे जल्दी खबर देना कि हीरे मिल गये हैं।” जगमोहन बेसब्री से कह उठा।
देवराज चौहान सोहनलाल के साथ बाहर निकल गया। और देवराज चौहान ठीक वक्त पर टैम्पो तक पहुंचा था क्योंकि अमृतपाल और बुझे सिंह तो चलने की तैयारी कर चुके थे।
☐☐☐
“उस्ताद जी! ये सूखा-सा साथ में कौन है? ये भी कोई डाकू-वाकू होगा।”
“सूखे-गीले को छोड़। ये सोच कि जब इसको पता चलेगा कि अपने जिस आदमी को यहां छोड़ गया था, वो मर चुका है। तब क्या होगा।” अमृतपाल के चेहरे पर परेशानी थी।
“जो मर्जी होता रहे। हमें क्या? हमने तो मारा नहीं उसे। मेरे होते हुए आप डरते क्यों हो?”
देवराज चौहान और सोहनलाल कार से निकलकर उनके पास आये।
“नानकचंद कहां है?” देवराज चौहान इधर-उधर देखता हुआ बोला।
“उधर मरा पड़ा है।” बुझे सिंह ने इशारा करके कहा।
देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।
सोहनलाल के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।
“क्या कहा?”
“मैने कहा है - आपका साथी उधर मरा पड़ा है। वो देखो, उसकी टांगें यहां से नजर आ रही हैं।”
देवराज चौहान और सोहनलाल जल्दी से नानकचंद की लाश के पास पहुंचे। लाश को देखने के बाद दोनों की निगाहें मिलीं। चेहरे पर कठोरता आ गई थी, देवराज चौहान के।
“इसे भी चाकू से मारा गया है।” सोहनलाल के होंठो से निकला – “वैसे ही घातक वार। एक बात तो स्पष्ट हो गई कि वो जो कोई भी है, चाकू को इस्तेमाल करना जानता है।”
“मुझे आशा नहीं थी कि वो यहां तक भी पहुंच जायेगा।” देवराज चौहान खतरनाक स्वर में कह उठा – “लेकिन अब पूरी आशा है कि, वो साये की तरह आने वाले वक्त में भी हमारे पीछे रहेगा और किसी भी मौके पर हमारे हाथ अवश्य आयेगा।”
“उसने छिपकर, धोखे से वार किया होगा। नानकचंद आसानी से काबू आने वाला नहीं था।
देवराज चौहान ने कुछ दूर खड़े अमृतपाल और बुझे सिंह को देखा।
“इधर आओ।”
दोनों इस तरफ बढ़ आये। पास आता बुझे सिंह कह उठा, “देखो जी! अब ये मत कह देना कि हमने मारा है इसे। पहले हमें हीरो का चोर बनाया, अब कहीं खूनी भी बनाने लगो। हम बहुत शरीफ लोग हैं। गलत काम तो करते नहीं। लोग खासतौर से मुझे दूर से ही सलाम मार देते है। इतनी इज्जत है मेरी। हमारी शराफत के बारे में तो लिखकर भी दे देंगे। क्यों उस्ताद जी?”
दोनों पास पहुंचकर रूके।
“किसने मारा इसे?” देवराज चौहान ने उन्हें देखा।
“कोई आदमी था। हाथ में चाकू था। मुंह पे रूमाल बांध रखा था। जरा सी नजर पड़ी थी उस पर। और वो भागता हुआ पेड़ो के पीछे गुम हो गया। क्यों उस्ताद जी?” बुझे सिंह बोला- “ये इधर पेड़ के पीछे कुछ प्राइवेट काम करने आया था। ये हमें नहीं बताया कि क्या काम करने आया था। चीख सुनकर हम तो इधर आये थे। उस्ताद जी से पूछ लो।”
“मुंह पर रूमाल!” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा- “भटनागर पर जब पहली बार हमला हुआ तो भटनागर ने बताया था कि, चाकू मारने वाले ने मुंह पर रूमाल लपेट रखा था। इसे मरने वाला भी वही है। समझ में नहीं आता कि वो हम लोगों को मारने पर क्यों तुला है। कोई तो ठोस वजह होनी चाहिये।”
“हमें खत्म करके साढे़ चार अरब के हीरों को पाना चाहता है।” देवराज चौहान दरिन्दगी से कह उठा- “उसके लिए इतनी लाशों को बिछाने के लिए, इससे ज्यादा ठोस वजह और क्या होगी।”
अमृतपाल और बुझे सिंह की नजरें मिलीं।
“उस्ताद जी! ये साढे़ चार अरब कितना होता है?”
“मालूम नहीं। मुझे तो दो-चार हजार से ऊपर की गिनती नहीं आती।” अमृतपाल ने सूखे होठों पर जीभ फेरी।
देवराज चौहान ने दोनों को देखकर कहा।
“टैम्पो की स्टेप्नी निकालो।”
“स्टेप्नी।” बुझे सिंह ने देवराज चौहान को देखा - “ अपनी कार में लगानी है क्या?”
“जो कहा है, वो करो।” देवराज चौहान सख्त स्वर में कह उठा।
“बुझया। तेरे को समझाया था कि -।”
“ठीक है। ज्यादा नहीं बोलता।” कहने के साथ ही वो टैम्पो की तरफ बढ़ गया।
सब टैम्पो के पास खड़े थे।
बुझे सिंह ने नट-बोल्ट खोलने के पश्चात्, स्टेप्नी को निकालकर जमीन पर गिराया।
“खोलो इसे?”
“खोलो?” बुझे सिंह के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे- “क्या खोलो?”
“स्टेप्नी खोलो। रिम और टायर अलग-अलग करो।”
“कर देते है। ये कौन-सी बड़ी बात है।” बुझे सिंह टूल बाक्स की तरफ बढ़ता हुआ बोला- “जो कहोगे वो तो करना ही पड़ेगा। पर एक बात तो है कि आपका वो दोस्त जो, टैम्पो चोरी करके ले गया था, बोत शरीफ है। स्टेप्नी पैंचर थी। बेचारे ने पैंचर लगवा दिया। टैट हवा भर दी। नेई तो पैंचर लगवाने की सारी मेहनत मेरे को ही करनी पड़ती। पैंचर के पैसे भी उसने पल्ले से खर्च किए।” कहने के साथ ही बुझे सिंह स्टेप्नी की हवा निकालने लगा, बॉल को ढीला करके।
हवा निकलती पाकर देवराज चौहान और सोहनलाल की आंखें सिकुड़ी।
“इसमें तो हवा है।” सोहनलाल बोला- “जगमोहन ने तो कहा था, स्टेप्नी में ट्यूब नहीं है।”
कुछ कहने की अपेक्षा देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।
“वा-जी-वा! टो जब स्टेप्नी है तो ट्यूब भी होगी। ट्यूब है तो हवा भी निकलेगी। एैसी भी कोई स्टेप्नी होती है क्या, जिसमें ट्यूब न हो। हवा न हो। क्यों उस्ताद जी?”
देवराज चौहान और सोहनलाल की मुद्रा में फर्क नहीं आया था।
अमृतपाल मन ही मन हैरान था कि अचानक इनके रंग-ढंग क्यों बदल गये हैं?
देखते ही देखते बुझे सिंह के दक्ष हाथों ने, हवा निकालकर टायर और रिम को अलग कर दिया। सोहनलाल जल्दी से आगे बढ़ा उसने टावर के बीच में हाथ डालकर अच्छी तरह देखा। ट्यूब भी बाहर निकाल ली। हीरे तो क्या, एक तिनका भी नहीं मिला।
कुछ पलों के लिए हक्की-बक्की सी हालत हो गई सोहनलाल की कठोर निगाहों से टायर-ट्यूब और रिम को देखते हुए देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।
“इसमें-इसमें तो कुछ भी नहीं?” सोहनलाल कह उठा।
“जगमोहन ने कहा था कि इसमें ट्यूब नहीं। हीरों के थैले हैं।”
देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर कह उठा- “ट्यूब निकलने का मतलब है किसी ने इसमें से हीरे निकाल लिए हैं।”
“लेकिन किसे मालूम हुआ कि स्टेप्नी में हीरे हैं?”
देवराज चौहान की निगाह अमृतपाल और बुझे सिंह पर जा टिकीं।
“तुम दोनों टैम्पो लेकर सीमापुर गये थे।” देवराज चौहान का स्वर सख्त था।
“हां।” अमृतपाल ने धबराहट से भरा चेहरा हिलाया।
“रास्ते में जब पैंचर हुआ तो, स्टेप्नी लगाते वक्त तुम लोगों को मालूम हुआ कि स्टेप्नी में ट्यूब नहीं है-बल्कि हीरों से भरें लैदर के छोटे-छोटे लिफाफे हैं और-।”
“लो कर लो बात।” बुझे सिंह कह उठा - “ जब पैंचर ही नहीं हुआ, स्टेप्नी की जरूरत ही नहीं पड़ी, तो हमें क्या मालूम होगा कि स्टेप्नी में क्या है और क्या नहीं। क्यों उस्ताद जी? देखों जी, हम पहले भी कह चुके हैं कि हम चोर नहीं है। गरीब। बहुत हो गया। घंटो से हमें लटकाये जा रहे हो। अगर हम चोर की नजर आते हैं तो ले चलो थाने। वहां कम से कम बैठने की तो जगह है। पीने को कोई दो घूंट पानी तो दे देगा। कमरे में पंखा लगा हुआ तो - ।”
“बुझया।”
“चुप रहो उस्ताद जी, मुझे भी तो गुस्सा आ सकता ।”
“बुझया!” अमृतपाल ने पुनः टोका- “ट्यूब देख। बिल्कुल नई है। हमारी ट्यूब में तो दो-तीन पैंचर लगे थे और ये टायर भी हमारा नहीं है। हमारा टायर एक तरफ से थोड़ा-सा कटा हुआ था। और घिसा हुआ भी ज्यादा ही था और ये रिम, ये भी हमारा नहीं है। रिम का रंग थोड़ा-सा टैम्पो से मिलता है। लेकिन ये हमारा नहीं है। देख बुझया। ध्यान से देख।”
बुझे सिंह ने देखा। चेहरे पर अजीब-से भाव आ गये।
“उस्ताद जी! ये तो स्टेप्नी ही हमारी नहीं है। कुछ भी हमारा नहीं है। ये तो कमाल हो गया।”
“किसी ने स्टेप्नी बदल दी है।” अमृतपाल पक्के स्वर में कह उठा। बुझे सिंह बार-बार टायर-ट्यूब और रिम को देखे जा रहा था। “उस्ताद जी! ये काम इनके दोस्त ने किया होगा। जिसने टैम्पो चोरी किया था।” कहकर बुझे सिंह ने देवराज चौहान और साहनलाल को देखा - “स्टेप्नी बदलने का मामला क्या है? क्यों बदली स्टेप्नी?”
“ये ड्रामा कर रहा है।” सोहनलाल का सूखा चेहरा सख्त हो गया। “नहीं। इन लोगों का, इस सारे मामले में, सिर्फ इतना ही वास्ता है। हीरों के बारे में ये नहीं जानते।” देवराज चौहान कश लेते हुए सख्त स्वर में कह उठा – “असल बात कुछ और ही है।”
“क्या?” स्टेप्नी में हीरे न मिलने पर सोहनलाल अजीब तरह की उलझन में फंसा था।
“किसी को हमारी योजना के बारे में मालूम था, या फिर बाद में मालूम हो गया। वो यहां तक जान गया कि हीरे स्टेप्नी में है। उसने स्टेप्नी बदल दी।” देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर कह उठा- “इस काम में हमें दो आदमियों की तलाश करनी है।”
“कौन, दो आदमी?”
“एक तो वो जो हमें सब की जान के पीछे पड़ा है। हम लोगों को खत्म करके हीरों को पाने की चेष्टा में हैं, और दूसरा वो जिसने स्टेप्नी बदलकर हीरों को हासिल कर लिया हैं।”
सोहनलाल के माथे पर बल नजर आ रहे थे।
“ये दोनों बातें मुझे अजीब-सी लग रही हैं।” सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।
“वो कैसे?” देवराज चौहान के होंठ भिंचे हुए थे।
“पहली बात तो ये है कि किसी बाहरी व्यक्ति को हमारी योजना का कैसे पता चला? किसी ने किसी को कुछ नहीं बताया। फिर कोई हमें ख़त्म करके हीरों को पाने के फेर में कैसे पड़ गया? दूसरी बात ये है कि जगमोहन ने जब स्टैपनी में हीरे छिपाये होंगे तो जाहिर है, पास में कोई भी नहीं होगा। तब किसी को कैसे पता चल गया कि हीरे स्टैपनी में रखे गये हैं और उसने चुपचाप स्टैपनी ही बदल दी। उसे स्टैपनी बदलने का मौका कब और कहाँ मिला होगा। मिल भी गया होगा तो -।”
तभी बुझे सिंह ने हाथ जोड़कर टोका।
“पाईयों! अब अगर हमारी जरूरत न हो तो हमें जाने दो। बोत काम है हमारे पास। मुझे कल सुबह बहन के घर जाना है। वक्त कम है। कपड़े वगैरह धोने हैं। नहाना-धोना भी है। शेव भी करनी है। सुबह-सुबह ये काम करने में सुस्ती आ जाती है तो हमें इजाजत है। अब आपको ये भी मालूम हो गया होगा कि हम बोत शरीफ बंदे हैं। चोर नहीं हैं। खूनी नहीं हैं। गरीब हैं तो क्या हुआ, हमारी भी इज्जत है। क्यों उस्ताद जी?”
देवराज चौहान ने सोच भरी निगाहों से दोनों को देखा।
“हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँचे हैं।” सोहनलाल कह उठा - “इन्हें या टैम्पो को जाने देना ठीक नहीं। हो सकता है, सारा किया धरा इन्हीं का हो और -।”
“हम शरीफ बंदे हैं जी।” बुझे सिंह कह उठा - “हमारी शराफत पर ऊँगली मत उठाना जी। गाँव चलकर तोते वाले ज्योतिषी से पूछ लो। वो तो माथा देखकर बता देते हैं कौन चोर हैं और कौन नहीं।”
“तुम दोनों कौन से गाँव रहते हो?” देवराज चौहान ने पूछा।
बुझे सिंह ने अपना गाँव बताया।
अमृतपाल ने अपना गाँव बताया।
“तो फैसला हो गया उस्ताद जी! हम यहाँ से चलते हैं।” बुझे सिंह कह उठा।
देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट एक तरफ उछाल दी।
“एक शर्त पर तुम लोग जा सकते हो।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“वो भी बता दो। क्यों उस्ताद जी! सुन लेने में क्या हर्ज है?”
“हमें कभी भी तुम लोगों की जरूरत पड़ सकती है। और मैं नहीं चाहता कि किसी पार्टी का माल टैम्पो में लादकर, कुछ दिनों के लिए फिर किसी दूसरे शहर चले जाओ। यहाँ से जाना है तो, वहीं अपने कमरे में रहना होगा। जब तक हम चाहें।” देवराज चौहान ने दोनों को देखा।
“सुना उस्ताद जी!” बुझे सिंह मुँह बनाकर कह उठा - “ये तो हमें भूखा मारेंगे। कहते हैं काम-धंधा छोड़कर बैठ जाओ। अब पूछो इनसे काम नहीं करेंगे तो पेट कैसे भरेंगे। खायेंगे कहाँ से?”
“बुझया ठीक कहता है।” अमृतपाल कह उठा - “हम गरीब बंदे हैं। कमाते हैं और खाते हैं, हमारे लिए काम करना बहुत जरूरी है। हाथ पर हाथ रखकर, खाली हाथ हम नहीं बैठ सकते।”
“खर्चे की फ़िक्र न करो।” देवराज चौहान ने दस हजार की गड्डी निकालकर उनकी तरफ बढ़ाई - “बैठकर आराम से खाओ। जब ये खत्म हो जायेंगे तो और मिल जायेंगे। टैम्पो की सीटें जो हमने फाड़ी है, वो भी नई बनवा लेना। लेकिन तुम दोनों को टैम्पो के साथ हर वक्त उसी किराये के कमरे में मौजूद रहना है।”
बुझे सिंह ने फौरन गड्डी थाम ली।
“उस्ताद जी, ये तो कमाल हो गया। बैठे-बैठे हम मालामाल हो गये। भगवान करे इनको हीरे कभी न मिले और ये हमें इसी तरह बिठाकर खिलाते रहे।” बुझे सिंह आँखें फाड़े हाथ में पकड़ी गड्डी को देख रहा था - “वैसे मैंने सुना है कि सौ के नोटों की गड्डी हो तो उसमें पूरे दस हज़ार रूपये होते हैं।”
“उड़ती-उड़ती खबर मैंने भी सुनी है कि सौ के नोटों की गड्डी में दस हजार होते हैं।” सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा- “गिनती आती है या मैं गिन दूँ कि ये पूरे हैं कि नहीं?”
“अजी तुसी क्यों गिनने की तकलीफ करते हो। मैं एक-एक जमा करके गिन लूँगा। उस्ताद जी भी गिनने में कुछ तो हेल्प करा ही देंगे।” बुझे सिंह गड्डी को जेब में डालता हुआ बोला- “वैसे तो ये रूपये टैम्पो की सीट कवर लगवाने में ही खर्च हो जायेंगे। कुछ रोटी-पानी मक्खन के लिए भी दे देते तो बोत मजा आ जाता।”
“टैम्पो की सीट कवर लगवाने में दस हजार खर्च हो जाएंगे।” सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा।
“हाँ जी। जमाना बोत महँगा हो गया है।”
“मैं तेरे को हजार रूपये में टैम्पो के सीट कवर लगवा देता हूँ। चल।”
“रब दा नाम लो।” बुझे सिंह हड़बड़ाकर कह उठा - “हम खुद लगवा लेंगे। क्यों उस्ताद जी? वो शामलाल के पास ले चलेंगे टैम्पो को। अपने गाँव का है। रियायत कर देता है। काम चला लेंगे।”
देवराज चौहान ने दोनों को घूरा।
“एक बात अच्छी तरह सुन लो कि, कोई चालाकी करने की कोशिश मत करना।” देवराज चौहान के स्वर में एकाएक खतरनाक भाव झलक उठे - “तुम लोगों को हर वक्त,अपने कमरे में ही मिलना है। टैम्पो घर के बाहर गली में ही खड़ा कर देना। वरना-”
“साहब जी? तुसी फ़िक्र न करो। तुसी नोट दित्ते ने। जो कहोगे वही करेंगे, क्यों उस्ताद जी?”
“हाँ। “ अमृतपाल ने सिर हिलाया।
“जब ये खत्म हो जायेंगे तो और ले लेंगे। आते-जाते रहना। नेई ते नोट खत्म होने पर हम तो टैम्पो लेकर फिर काम पर लग जायेंगे। आखिर दाल में मक्खन डाल के, पेट तो भरना ही है।”
“जाओ यहाँ से। “ देवराज चौहान का स्वर सख्त था- “हर वक्त अपने कमरे पर ही मिलना। अगर वहाँ से गायब हो गये तो। “
“क्या बात करते हो। हम पागल हैं, जो बैठे-बिठाते मिल रही रोटी को लात मारेंगे। क्यों उस्ताद जी। हम वहीं मिलेंगे जी रात को भी, दिन में भी। आओ उस्ताद जी?” बुझे सिंह ने फौरन बिखरी स्टैपनी को समेटा।
“दोनों वहाँ से हिले और टैम्पो में जा बैठे। देखते ही देखते टैम्पो स्टार्ट हुआ और आगे बढ़ गया। और धीरे धीरे वो निगाहों से ओझल होता चला गया।”
“ये टैम्पो के साथ कहीं खिसक गये तो?” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
“तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हीरे न तो इनके पास है और न ही टैम्पो में। “ देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा- “सवाल ये उठता है कि हीरों वाली स्टैपनी कौन ले गया और किसने उसकी जगह दूसरी स्टैपनी रख दी कि, स्टैपनी के चोरी होने का शोर शराबा न हो। किसी का ध्यान स्टैपनी की तरफ न जाये। “
सोहनलाल ने सोच भरे अंदाज में कश लिया।
“एक है जिसे हम लोगों की हरकतों की खबर हो सकती है। “ सोहनलाल कह उठा।
“कौन?”
“वो इनसान जिससे भटनागर ने वो बंगला लिया था।”
“कम से कम वो इनसान स्टैपनी में मौजूद हीरों के बारे में नहीं जा सकता। क्योंकि तब हम डकैती कर चुके थे। हीरे जगमोहन के पास थे, जिन्हें वो दिन में ही स्टैपनी में छिपा चुका था और भटनागर ने जब बंगले का इंतजाम किया तो तब तक जगमोहन पुलिस स्टेशन में था। “
सोहनलाल गहरी साँस लेकर रह गया।
“आखिर डकैती और हीरों की बात बाहर कैसे निकली। समझ में नहीं आता कि किसी को कैसे पता चला कि जगमोहन ने स्टैपनी में हीरे छिपाये हैं।”
देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा - “जगमोहन से एक बार फिर खुलकर बात करनी पड़ेगी कि किन हालातों में उसने स्टैपनी में हीरे छिपाये।”
सोहनलाल कुछ कहने लगा कि एकाएक खामोश हो गया। उसकी निगाह रंजन तिवारी पर जा टिकी जो चंद क़दमों की दूरी पर मौजूद पेड़ के तने के पीछे से निकलकर उनकी तरफ बढ़ने लगा था।
“ये कौन है?” सोहनलाल के होंठों से निकला। वो सतर्क हो उठा था।
देवराज चौहान ने फौरन उधर देखा। अगले ही पल उसकी आँखें सिकुड़ गई। कांस्टेबल ओमवीर के बताये हुलिये के दम पर वो फौरन समझ गया था ये बीमा कम्पनी का जासूस रंजन तिवारी है।
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