Chapter 4
गुरुवार : पच्चीस मई : दिल्ली मुम्बई
सुबह सात बजे से भी पहले भोगीलाल शालीमार बाग चन्द्रेश सिंह के घर पहुंच गया ।
उसने इस बात का फायदा उठाया कि मुम्बई जाने से पहले ब्रजवासी ने जब उसे अपने आदमी का मोबाइल नम्बर दिया था तो उसके घर का पता भी दिया था ।
कालबैल की आवाज में आंखें मलता चन्द्रेश सिंह दरवाजे पर पहुंचा ।
वो एक कोई चालीस साल का, औसत कद का लेकिन अच्छी तन्दुरुस्ती वाला आदमी था ।
भोगीलाल को सामने खड़ा देखकर उसके चेहरे पर सख्त हैरानी के भाव आये ।
“अरे !” - उसके मुंह से निकला - “लाला जी, आप !”
“शुक्र है ।” - भोगीलाल बोला - “पहचानता है मन्ने ।”
“बिलकुल पहचानता हूं, जी । मैं अपने साहब के जिगरी को नहीं पहचानूंगा ?”
“तू चन्द्रेश सिंह है न ?”
“हां, जी ।”
“बिरजवासी का खास ?”
“वही । लाला जी, आपने क्यों जहमत की ? मुझे बुला लिया होता !”
“एक ही बात है । कोई जहमत नहीं । इधर से गुजर रिया था । सोचा मिलता चलूं ।”
“तशरीफ लाइये ।”
चन्द्रेश सिंह ने उसे सादर भीतर लाकर बिठाया ।
“मैं आपके लिये चाय लाता हूं ।” - वो बोला ।
“बाद में । बाद में ।” - भोगीलाल बेसब्रेन से बोला - “पहले इधर मेरे सामने आ के बैठ और मतलब की बात कर ।”
“मतलब की बात ?”
“जो तू फोन पर नहीं कर रिया था । भूल भी गया ?”
“नहीं, भूला तो नहीं ।”
“बैठ ।”
चन्द्रेश सिंह उसके सामने बैठ गया ।
“अब बोल, कौन है जो धन्धे पर काबिज होने की कोशिश कर रिया है ?”
“बाहर का आदमी है । अपने आपको टाइगर मेमन के गैंग का बताता है ।”
“क्या बकता है ?”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“बताने से क्या होता है ? न ये धन्धा टाइगर की किस्म का है और न ये फील्ड टाइगर का है ।”
“फील्ड अपना बनाने के लिये ही तो हर किसी के हर काले धन्धे में दख्लअन्दाजी की जा रही है ।”
“के मतलब होया ?”
“लाला जी, जैसे मुम्बई अन्डरवर्ल्ड पर ‘भाई’ का कब्जा है, वैसे टाइगर दिल्ली पर अपना कब्जा बनाना चाहता है ।”
“है कौन वो बाहर का आदमी ?”
“सत्तार शोला ।”
“ये नाम है उसका ?”
“हां ।”
“कैसे मालूम ?”
“उसने खुद बताया । यमराज की तरह मेरे सिर पर आकर खड़ा हो गया । उसी ने सब... सब बताया ।”
“सब पर इतना घना जोर क्यों दे रिया है ?”
उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“सब का खुलासा कर ।”
“लाला जी, ऐसा खास कुछ नहीं है....”
“फिर भी कुछ है ? वही बोल ।”
“ठीक है, बोलता हूं । लाला जी, मेरे साहब को मुम्बई में किसने मारा ?”
“ये भी कोई पुच्छन की बात है ? सोहल ने मारा ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“के मतलब ?”
“ब्रजवासी मुम्बई के एक होटल में गोली खा कर मरे पड़े पाये गये । इतने से ये सोहल का काम कैसे हो गया ?”
“वो ही तो पीछे पड़ा होड़ बिरादरीभाइयों की जान के ।”
“किसी को मलेरिया हो तो ये गारन्टी होती है कि वो मलेरिया से ही मरेगा, हार्टअटैक से नहीं मरेगा ?”
“तेरा मतलब है बिरजबासी को सोहल ने नहीं मारा ?”
“नहीं मारा । सत्तार शोला ने मारा ।”
“कमाल है !”
“मुम्बई से ब्रजवासी जी की मौत की खबर आयी और आप कूद के इस नतीजे पर पहुंच गये कि सोहल ने मारा ।”
“इस सत्तार शोला ने मारा ? वो कहता है ऐसा ?”
“खम ठोक के ।”
“इसलिये क्योंकि वो दिल्ली में बिरजवासी के धन्धे पर काबू होना चाहवे है । मेरे पर किसलिये ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“तन्ने नहीं बेरा ? पर तू साफ तो कह रिया था कल टेलिफोन पर कि वो मेरे धन्धे पर भी काबिज होना चाहता था ।”
“मैंने अपना अन्दाजा जाहिर किया था ।”
“ओह ! अन्दाजा जाहिर किया था ।”
“मेरा खयाल है आपसे पंगा वो अपनी ताकत दिखाने के लिये ले रहा है ।”
“ताकत तो घनी दिखा दी उसने कल एक ही रात मां । पक्के गिराहक हड़का दिये, दस आदमी धुनवा दिये, दो सौ क्रेट से ज्यादा विस्की बहा दी । अभी आगे पता नहीं के करेगा ?”
चन्द्रेश सिंह ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“अभी कुल जमा छ: दिन तो हुए हैं बिरजवासी को स्वर्ग को सिधारे । इतनी जल्दी इस आदमी ने इधर इतनी ताकत कैसे बना ली ? इतनी जांबाज हिमायती कैसे जमा कर लिये ?”
“लाला जी, वो टाइगर का आदमी है और टाइगर की ताकत तो बनी बनायी है ।”
“फिर भी हर काम में टेम लगना होवे है । चुटकी बजाते भी कभी कहीं काम होवे है ? छ: दिन तो किसी नये माहौल का जायजा लेने के लिये काफी न होवें हैं ।”
“गुस्ताखी माफ लाला जी, आप ये मान के चल रहे हैं कि इधर जो हुआ ब्रजवासी जी की - भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे - मौत के बाद हुआ । असल में आपको क्या पता कब से क्या तैयारियां चल रही थीं !”
“ये भी ठीक है ।”
“मेरी राय में आपको सत्तार शोला से मिलना चाहिये ।”
“मैं भी यही सोच रिया था । वो शराब के धन्धे में आना ही चाहता है तो हम इलाके बांट लेगें । या माल की किस्म पर फैसला कर लेंगे जैसे कि मेरा बिरजवासी के साथ था । मैं स्काच का धन्धा नहीं करता था, तेरा साहब आई.एम.एफ.एल. का नहीं करता था, लिहाजा कभी टकराव नहीं होता था ।”
“ऐन सही सोचा आपने ।”
“बाकी रही मेरे दूसरे धन्धों की बात तो वो किसी बाहरी आदमी का बाप नहीं कर सके है । न ही वो धन्धे टाइगर मेमन और ‘भाई’ जैसे बड़े खलीफाओं की किस्म के हैं ।”
“जी !”
“मिसाल के तौर पर दिल्ली के झौंपड़पट्टे के वोट बैंक का बादशाह भोगीलाल है और रहेगा ।”
“लाख रुपये की बात कही ।”
“कित मिले है ये सत्तार शोला ?”
“मुलाकात के लिये पूछ रहे हैं ?”
“और किसलिये पुच्छूंगा, भई ?”
“मैं उसको खबर कर दूंगा आपकी मंशा की, वो खुद आप से मिल लेगा ।”
“नहीं ।”
“वजह ?”
“मैं उसे अपना पता नहीं बताना चाहता ।”
“लेकिन आपका दरियागंज का पता तो....”
“मैं वहां नहीं हूं आजकल । न अभी होने वाला हूं ।”
“ओह !”
“तू मुझे उसका पता बता ।”
“लाला जी, जैसे आपको अपना मौजूदा पता उसे बताना मंजूर नहीं, वैसे हो सकता है उसे भी अपना पता बताना मंजूर न हो ।”
“अबे, ये कौन सी जुबान बोल रिया है ? किस की तरफ है तू ?”
“लाला जी, मैं अपने मालिक का वफादार था इसलिये मैं तो सदा बिरादरीभाइयों की तरफ हूं और रहूंगा लेकिन...”
“क्या लेकिन ? अबे, वफाओं के बदले जफा कर लिया है ? मैं क्या कर रिया हूं और तू क्या कर रिया है ?”
“लाला जी, आप मुझे गलत समझ रहे हैं ।”
“पता मालूम तो है तेरे को उसका ?”
“नहीं ।”
“क्या बक रिया है ?”
“आप सुनिये तो सही ।”
“क्या सुनूं ?”
“सिर्फ मोबाइल नम्बर मालूम है लेकिन उसके लिये भी उसने सख्त ताकीद की है कि वो मैं किसी को न दूं ।”
“फिर क्या बात बनी ? फिर मुलाकात क्या खयालों मां होवेगी ?”
“लाला जी, मैं... मैं आपके लिये चाय लेकर आता हूं ।”
“साफ क्यों नहीं कह रिया कि छुप के फोन करने जाता हूं ।”
“सच पूछिये तो ये ही बात है ।”
“ठीक है, जा । लेकिन उल्टे पांव वापिस लौटना ।”
“मैं कहीं जा नहीं रहा । मैं घर में ही हूं ।
“उल्टे पांव लौटना ।”
“जी हां । जरुर ।”
वो भीतर गया ।
पीछे जेब में रखी रिवॉल्वर टटोलता भोगीलाल खामोश बैठा रहा ।
चन्द्रेश सिंह की जिस बात ने उसे सबसे ज्यादा सोचा में डाला था, वो यही थी कि उन्हें दिल्ली बैठे कैसे मालूम था कि मुम्बई में ब्रजवासी का कत्ल सोहल ने किया था ? वो सच में ही कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गये थे कि अगर ब्रजवासी का कत्ल हुआ था तो वो सोहल का करनामा था ! असल में इस बात की तसदीक का उनके पास कोई जरिया नहीं था ।
चाय की एक ट्रे सम्भाले चन्द्रेश सिंह वापिस लौटा । उसने चाय का एक कप भोगीलाल के सामने रखा और दूसरा खुद लेकर पूर्ववत् उसके सामने बैठ गया ।
“वो कहता है” - फिर वो बोला - “मीटिंग न्यूट्रल जगह पर होगी ।”
“कित होगी ?”
“किसी ऐसी जगह पर जो कि न आपकी हो, न उसकी हो ।”
“ओह !”
“और वो पब्लिक प्लेस होनी चाहिये ।”
“पब्लिक पिलेस ?”
“जैसे रेलवे स्टेशन ! बस टर्मिनल ! रेस्टोरेंट !”
“नहीं, नहीं । अबे पब्लिक पिलेस इतनी भी पब्लिक नहीं होनी चाहिये ।”
“तो फिर कोई होटल ?”
“चोखो ।”
“होटल वो चुनेगा ।”
“कमरा मैं चुनूंगा ।”
“मंजूर ।”
“अबे, मंजूर तूने थोड़े ही करना है !”
“म... मेरा मतलब है, ये अरेंजमेंट उसे मंजूर होगा ।”
“दोपहर तक मुझे फोन करना ।” - भोगीलाल एकाएक उठता हुआ बोला - “अभी मैं जा रिया हूं ।”
चन्द्रेश सिंह उसे उसकी होंडा अकार्ड तक छोड़ कर आया ।
***
डी.सी.पी. मनोहरलाल विवेक विहार पहुंचा ।
साधूराम मालवानी अपने आवास पर मौजूद था ।
“कैसे हैं, जनाब ?” - मनोहरलाल मीठे स्वर में बोला ।
“ठीक ।” - मालवानी अनमने भाव से बोला ।
“काम धन्धे से लगना शुरु कर दिया या अभी नहीं ?”
“अभी नहीं ।”
“लिहाजा अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए ?”
“ठीक हूं । बीवी की जिद है कि अभी और आराम करुं ।”
“ऐसे मामलों में निष्ठावान बीवियों की ऐसी जिद होती ही है ।”
“कैसे आये सुबह सवेरे ?”
“आपको मालूम होना चाहिये । और फिर सुबह सवेरा कहां है ? नौ बजने को हैं ।”
मालवानी खामोश रहा ।
“मिस्टर मालवानी, आई एम नॉट हैप्पी विद युअर एटीच्यूड ।”
“जी ! क्या फरमाया ?”
“मैंने अर्ज किया, मैं आपके रवैये से खुश नहीं हूं ।”
“क्या खराबी है मेरे रवैये में ?”
“झामनानी की तलाश में आप हमारी कोई खास मदद नहीं कर रहे हैं ?”
“मैं तो पूरी मदद कर रहा हूं ।”
“उतनी नहीं कर रहे जितनी की हमें आपसे उम्मीद थी ।”
“डी.सी.पी. साहब, ये बेजा इलजाम है मेरे ऊपर । मेरे से जो बन पड़ रहा है, मैं कर रहा हूं ।”
“दैट्स नॉट एनफ ।”
“अब मैं क्या कहूं ? मैंने आपको इतने ठिकाने बताये....”
“जिनमें से एक पर भी झामनानी न निकला ।”
“समझ में नहीं आता कि मैं इसे इत्तफाक कहूं या अपनी बदकिस्मती लेकिन....”
“लिहाज । लिहाज कहिये ।”
“किसका ?”
“जातभाई का । जिगरी दोस्त का ।”
“ऐसी बात नहीं है । आनेस्ट, ऐसी बात नहीं है । मैं आपको कैसे यकीन दिलाऊं कि आपके साथ अपने करार पर खरा उतरने की मेरी पूरी पूरी कोशिश है ।”
“और कोशिश कीजिये ।” - डी.सी.पी. सख्ती से बोला - “और सोचिये । और जोर दीजिये दिमाग पर । कुछ करेंगे तो कुछ होगा न ?”
मालवानी खामोश रहा ।
“अखबार पढते हैं न ?”
“हां ।”
“फिर तो झामनानी के दो बिरादरीभाइयों के मुम्बई में हुए अंजाम की खबर होगी ?”
“खबर है ।”
“उधर उन्नीस तारीख को ब्रजवासी का कत्ल हुआ, बाईस को पवित्तर सिंह का । आज पच्चीस है । आपके खयाल से आज किसकी बारी है ? झामनानी की या भोगीलाल की ?”
“डी.सी.पी. साहब, मौत कहीं कैलेंडर सैट करके आती है ?”
“बिरादरीभाइयों की तो ऐसे ही आती जान पड़ रही है । तीन तीन दिन के वक्फे से ।”
“ऐसा है तो इन्तजार कीजिये आज का दिन गुजरने का । आज का नहीं तो इतवार का दिन गुजरने का ।”
“फिर क्या होगा ?”
“आपको मालूम है क्या होगा ? फिर झामनानी की बाबत बाकी ही नहीं बचेगा कुछ करने को ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“मैं नहीं, आप मजाक कर रहे हैं ।”
“झामनानी कई गम्भीर अपराधों के लिये जिम्मेदार है । जिनमें से हमारे नौजवान ए.सी.पी. प्राण सक्सेना का कत्ल सर्वोपरि है । झामनानी की मौत की खबर से हमारी तसल्ली नहीं होने वाली । हम उसे खुदाई इंसाफ के हवाले नहीं देखना चाहते, हम उसे मुल्क के कायदे कानून के मुताबिक सख्त से सख्त सजा पाता देखना चाहते हैं । और ऐसा तभी होगा जबकि वो गिरफ्तार होगा । गिरफ्तार तब होगा जब हमें पता लगेगा कि वो कम्बख्त कहां गर्क है ? मिस्टर मालवानी, ऐसा होने की उम्मीद हम आप से लगाये बैठे हैं और आप हैं कि कुछ कर ही नहीं रहे ।”
“मैं हरचन्द कोशिश कर रहा हूं....”
“और कोशिश कीजिये । अपने दोस्त के लाइफ स्टाइल पर, उसके मेल मुलाकातियों पर उसके समाजी मुलाहजों पर और तीखी निगाह डालिये, इस नीयत से डालिये कि आपके इस बाबत कुछ न कुछ करके रहना है ।”
वो खामोश रहा ।
“आप सुन रहे हैं मैं क्या कह रहा हूं ?” - डी.सी.पी. कर्कश स्वर में बोला ।
“जी ! जी हां । जी हां ।”
“क्या जी हां ?”
“सुन रहा हूं ।”
“सुन ही रहे हैं या समझ भी रहे हैं ?”
“समझ भी रहा हूं ।”
“गुड ।” - डी.सी.पी उठ खड़ा हुआ और फिर यूं बोला जैसे धमका रहा हो - “आई विल बी बैक ।”
“नो प्राब्लम ।”
“कुछ पहले सूझ जाये तो फोन कीजियेगा ।”
“जरूर ।”
***
भारी अफरातफरी में हाशमी विमल के होटल के कमरे में पहुंचा ।
विमल ने एक क्षण को उसकी हलकान सूरत का मुआयना किया और फिर वाल क्लॉक पर निगाह डाली ।
साढे दस बजने को थे ।
“कोई चाय वाय पियोगे ?” - वो बोला ।
“नहीं, जनाब” - तत्काल हाशमी पुरजोर अंदाज से इंकार में सिर हिलाता हुआ बोला - “बिलकुल नहीं ।”
“नाश्ता करके आये ?”
“करके नहीं आया लेकिन करने का टाइम नहीं है । मैं सीधा कोर्ट से आ रहा हूं जहां कि मैं सवेरे साढे आठ बजे ही पहुंच गया था ।”
“इतनी जल्दी ?”
“इस उम्मीद में कि कोर्ट का और रजिस्ट्रार स्टाफ जल्दी आ जाता होगा ।”
“उम्मीद पूरी हुई ?”
“कदरन । सवा नौ बजे तक मेरे मतलब के लोगबाग आ गये थे ।”
“बढिया । क्या जाना ?”
“ये जाना कि अपने नसीबसिंह का किरदार काफी गर्दिश के दौर से गुजर रहा है आजकल ।”
“प्लीज एक्सपलेन ।”
“जुम्मेराती की जगह पुलिस रिकार्ड में उसकी गिरफ्तारी जुम्मे के रोज दिखाई गयी थी । शनिवार को इधर दिल्ली में कोई सरकारी छुट्टी पड़ गयी थी, इतवार को छुट्टी होती ही है इसलिये सोमवार सुबह उसे चार्ज लगा कर रिमांड के लिये कोर्ट में पेश किया गया था ।”
“चार्ज क्या था ?”
“पुलिस से दुर्व्यवहार । आन ड्यूटी पुलिस वालों से मारपीट और तोड़फोड़ ।”
“तोड़फोड़ ।”
“पुलिस का वायरलैस टेलीफोन तोड़ दिया, जीप को चलने के काबिल न छोड़ा और एतराज करने वाले आन ड्यूटी स्टाफ से हाथापायी की ।”
“ये सब किया था उसने ?” - विमल हैरानी से बोला ।
“किया ही होगा ।”
“वजह ?”
“मालूम नहीं ।”
“नसीबसिंह खुद क्या कहता है ?”
“कुछ नहीं कहता । कहता है सब इलजाम झूठे हैं और उससे खुन्दक निकालने के लिये गढे गये हैं ।”
“खैर, फिर ?”
“उसने कोई बड़ा वकील किया बताते हैं । नतीजतन मैजिस्ट्रेट ने रिमांड देने से इनकार कर दिया था और जमानत पर रिहा कर दिया था ।”
“लिहाजा अब आजाद है वो ।”
“नहीं ।”
“वजह ?”
“उसके रिहा होते ही पुलिस ने उसे फिर गिरफ्तार कर लिया था । और परसों नया चार्ज लगा कर फिर अदालत में पेश किया था । इस बार जो नये चार्ज उस पर लगाये थे, वो संगीन थे और उनकी बुनियाद वो ड्रामा था जो पिछले से पिछले मंगलवार आपके झामनानी के फार्म से रुख्सत हो जाने के बाद उसने वहां स्टेज किया था और जो बिरादरीभाईयों की जानबख्शी की बुनियाद बना था । उस पर कई कत्लों का भी इलजाम है जिनमें उसके अपने ए.सी.पी. प्राण सक्सेना का कत्ल अहमतरीन है ।”
“कुछ साबित हो पाया ?”
“ये तो कहना मुहाल है क्योंकि परसों की पेशी में क्या हुआ, उसकी तफसील मुझे हासिल नहीं हो पायी अलबत्ता मैजिस्ट्रेट ने एक बार फिर सुनवाई के लिये और सफाई के वकील को अपने क्लायन्ट के लिये बोलने का पूरा मौका देने के लिये आज की तारीख मुकर्रर की है और आज ही जमानत पर भी वो अपना फैसला सुनायेगा । साढे ग्यारह बजे” - हाशमी की निगाह अपने आप वाल क्लॉक की ओर उठ गयी - “उसकी फिक्स्ड टाइम हियरिंग है ।”
“फिक्सड टाइम क्या मतलब ?”
“उसके केस को बारी का इन्तजार नहीं करना पड़ेगा । उसकी बारी आने पर आवाज नहीं लगेगी ।”
“अच्छा !”
“उसके बड़े वकील का जहूरा है । छोटी अदालतों में बड़े वकील अपनी मसरूफियात के हवाले से सुनवाई की तारीख और वक्त अपनी सहूलियत के हिसाब से मुकर्रर करा लेते हैं ।”
“आई सी । बहरहाल अब साढे ग्यारह बजे के बाद किसी वक्त पता लगेगा कि नसीबसिंह का पुलिस को रिमांड मिलेगा या वो जमानत पर छूटेगा ।”
“जी हां ।”
“तुम्हारा क्या खयाल है ? जमानत होगी या रिमांड मिलेगा ?”
“कहना मुहाल है अलबत्ता आपकी इजाजत के इस बाबत मैं अपनी एक राय पेश करना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“जहां तक वाकयात को मैं समझा हूं, किसी पुख्ता गवाही के बिना पुलिस का नये चार्जों के तहत नसीबसिंह के खिलाफ कुछ साबित करना नामुमकिन नहीं तो निहायत मुश्किल जरूर होगा और पुख्ता गवाह कोई बिरादरीभाई ही हो सकता है । चार बिरादरीभाईयों में से दो तो अल्लाह को प्यारे हो गये, बाकी जो दो बचे हैं मेरी राय में अब पुलिस उधार खाकर उनके पीछे पड़ेगी और कैसे भी उन्हें बतौर गवाह नसीबसिंह के खिलाफ खड़ा करेगी ।”
“वो खड़े हो जायेगे ?”
“क्या पता चलता है ? वो पकड़ में आ गये तो क्या पता पुलिस उनके साथ कैसे पेश आयेगी ?”
“कैसे पेश आयेगी ? ऐसे शातिर मुजरिमों को, जिनकी खुद की भी नसीबसिंह की करतूतों में बराबर की शिरकत थी, वादामाफ गवाह तो बना नहीं लेगी ?”
“कोई सौदेबाजी तो हो के रहेगी ?”
“पकड़ में आयेंगे तो ?”
“वो तो है । कोई अनहोनी न हो गयी तो भोगीलाल को तो आप अभी राइट ऑफ कर सकते हैं, बाकी बचा झामनानी, सो उसकी जब हमें परछाई नहीं मिल रही तो उम्मीद है कि पुलिस को भी नहीं मिलेगा ।”
“झामनानी का काम तमाम होना जरूरी है । बाकी बिरादरीभाई मर गये और वो न मरा तो वो फिर बिरादरी खड़ी कर लेगा । वो पुलिस के हत्थे चढ गया तो मेरा काम मुश्किल भी हो जायेगा और वक्तखाऊ भी । इसलिये ये जरूरी है कि पुलिस से पहले हमें उसका पता लगे ।”
“लगेगा इंशाअल्लाह बाजरिया मुकेश बजाज लगेगा ।”
“बहरहाल इस वक्त बात नसीबसिंह की हो रही थी ।”
“जी हां ।”
“अगर पुलिस को उसका रिमांड - जो कि लम्बा ही होगा - मिला तो मामला हमारी पहुंच से बाहर होगा । लेकिन फर्ज करो कि उसकी जमानत हो जाती है और वो आजाद हो जाता है तो कैसे हम इस सिचुएशन का फायदा उठा सकते हैं ?”
“कैसे... कैसे उठा सकते हैं ?”
“मेरे से पूछ रहे हो ?”
“आपने आलादिमाग पाया इसलिये....”
विमल ने घूर कर उसे देखा ।
हाशमी मुंह पर हाथ रख कर खांसने लगा ।
“मामू साथ नहीं आया, इसलिये मेरी क्लास लोगे ?”
“ओह नो, सर । नैवर ।”
“दैन कम टु दि प्वायंट ।”
“यस, सर । सर, वो क्या है कि....”
“जवाब ये सोच कर देना, मुझे टाइम का तोड़ा है । शाम तक हर हाल में मैंने मुम्बई के लिये रवाना हो जाना है ।”
“फिर तो प्राब्लम है । मैं तो यही जवाब देने लगा थआ कि जमानत पर छूट गया तो जब दांव लगेगा थाम लेंगे । लेकिन आपकी बातों से तो लगता कि लगने वाला दांव तो लगते लगते लगेगा, कारआमद दांव तो फौरन लगाना होगा ।”
“एग्जैकक्टली ।”
“मेरे दिमाग में एक स्कीम पनप तो रही है लेकिन उस पर अमल इस बात पर मुनहसर है कि उसके जमानत पर छूटते ही पुलिस पिछली बार की तरह फौरन ही उसे फिर न गिरफ्तार कर ले ।”
“खामखाह !”
“ऐसे मामलो में पुलिस के तकरीबन एक्शन खामखाह ही होते हैं ।”
“अब क्या चार्ज लगायेंगे ?”
“कहना मुहाल है ।”
“तुम ये मान के चलो कि वैसा नहीं होगा, पुलिस उसे फिर गिरफ्तार नहीं कर लेगी, वो जमानत पर छूट ही जायेगा । अब बोलो, तो क्या होगा ?”
“तो वो फिर गिरफ्तार हो जायेगा ।”
“क्या कर रहे हो ? अरे, सुना नहीं मैंने क्या कहा ? मैंने कहा है कि पुलिस उसे फिर गिरफ्तार नहीं कर लेगी ।”
“तभी तो हमारा काम बनेगा और वो फिर गिरफ्तार होगा ।”
“मियां, माथा घुमाये दे रहे हो तुम मेरा । खुदा के वास्ते बात का खुलासा करो ।”
“जनाब एक बात ऐसी है जिसे उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिसिये नहीं जानते लेकिन हम जानते हैं ।”
“क्या ?”
“जो छ: किलो हेरोइन आप पीछे झामनानी के फार्म पर बरामदी के लिये छोड़ के गये थे और जो वहां से बरामद होने की जगह महरौली महिपालपुर रोड पर सरेराह बिखरी पड़ी पायी गयी थी, उसके पीछे यकीनन उस करप्ट पुलिसिये नसीबसिंह का किरदार था । जैसे उसने बिरादरीभाईयों को छुट्टा छोड़ा था, वैसे ही जरूर उसने उनका माल भी उनके हवाले कर दिया होता तो किसी को उसका नामोनिशान न मिलता । यही बात ये साबित करने के लिये काफी है कि वो बेशकीमती माल नसीबसिंह ने खुद कब्जा लिया था ।”
“क्यों ?”
“जाहिर है बिरादरीभाईयों पर दबाव बनाने के लिये । बिरादरीभाईयों को गिरफ्तार करने की जगह उन्हें छुट्टा छोड़ने के लिये उसने उनसे कोई तो सौदेबाजी की ही होगी । वो टॉप के हरामी बाद में कौल-करार से मुकर न जाते इसके लिये उसने उनकी हेरोइन को उनके खिलाफ हथियार बनाया होगा ।”
“फिर हेरोइन का शीराजा सरेराह सड़क पर क्योंकर बिखर गया ?”
“तफ्तीश का मुद्दा है ।”
विमल ने फिर उसे घूरकर देखा ।
“जनाब” - हाशमी धीरज से बोला - वो बात अहम ये है कि उस हेरोइन की वजह से उसका रिश्ता हेरोइन के मौजुदा स्मगलरों से, यानी कि बिरादरीभाइयों से, जुड़ता है ।”
“खामखाह !”
“खामखाह ही सही । जनाब, पुलिस की तरह, सरकारी वकील की तरह हमने उसके खिलाफ कुछ साबित नहीं करके दिखाना, हमने महज उस पर एक इलजाम लगाना है और उस इलजाम को कैश करना है ।”
“कैसे ?”
“वो जमानत पर छूट गया - दुआ कीजिये कि छूट जाये - तो इस बार उसे उसके आला पुलिस अफसर नहीं, नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो वाले गिरफ्तार करेंगे ।”
“ओह ! ओह !”
“अब समझे आप ।”
“नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो वाले ! जो कि हम होंगे ।”
“बराबर होंगे और ये नयी गिरफ्तारी उसे हैरान भी नहीं करेगी क्योंकि चोर का दिल छोटा ।”
“गुड ।”
“यूं एक बार वो हमारे काबू में आ गया तो आपको अख्तियार होगा उससे पूछने का ।”
“क्या ?”
“मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाये ।”
“पागल हुए हो । छोड़ दिये जाने का क्या मतलब ?”
“बिलकुल, जनाब ।”
“लेकिन ये सब होगा कैसे ?”
“आपके खादिम ही करेंगे ।”
“आज ही ।”
“जाहिर है ।”
“ये तुम इस बात को मद्देनजर रख के कह रहे हो न कि हमने आज ही भोगीलील से भी निपटना है और शाम को मैंने मुम्बई वापिस लौटना है ?”
“जी हां । शिड्यूल काफी टाइट हो जायेगा लेकिन खातिर जमा रखिये, अगर नसीबसिंह जमानत पर छूट गया तो सब कुछ होगा, आज ही होगा और तसल्लीबख्श होगा ।”
“गुड ।”
“इस सिलसिले में अब एक काम करना निहायत जरूरी होगा ।”
“क्या ?”
“हमें सत्तार शोला और भोगीलाल की मुलाकात को ज्यादा से ज्यादा आगे सरकना होगा । अब ये फैसला आप कीजिये किस टाइम तक आप मुलाकात आगे सरकाई जाना अफोर्ड कर सकते हैं ।”
विमल कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “चार बजे तक ।”
“ठीक है ।” - हाशमी उठ खड़ा हुआ - “ठीक है । अब मैं चलता हूं । एन.सी.बी वालों का रोल अदा करने के लिये मेरे बिरादरान तैयारियां कर चुके होंगे लेकिन फिर भी काफी कुछ करना बाकी होगा । पीछे आप दुआ कीजियेगा कि वो जमानत पर छूट जाये और फिर आप उसका फातिहा पढ सकें ।”
“आमीन ।”
भोगीलाल का मोबाइल बजा । उसने कॉल रिसीव की ।
“ताज पैलेस ।” - चन्द्रेश सिंह बोला ।
“कितने बजे ?” - भोगालाल ने पूछा ।
“चार बजे ।”
“इतनी देर किसलिये ?”
“चार बजे ।”
“अरे, अभी तो ग्यारह भी नहीं बजे । इतनी देर...”
“चार बजे ।”
“अच्छा, भई । चार बजे ।”
“कमरा नम्बर जानने के लिये कब फोन करूं ?”
“जरूरत नहीं ।”
“क्या ? कमरा नम्बर की जरूरत नहीं ?”
“तेरा सत्तार शोला रिसैप्शन पर पहुंच कर अपना नाम ले और चाबी मांगे । वा पर कमरा नम्बर लिखा होगा, जिस कमरे की चाबी होवे, वा में पहुंच जाये ।”
“आप वहीं होंगे ?”
“और कित होऊंगा ?”
“ठीक है ।”
***
निर्धारित समय पर नसीबसिंह को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया ।
फिर उसके रिमांड को लेकर नसीबसिंह के नामी वकील में और सरकारी वकील में खूब गर्मागर्म बहस हुई जिससें सरकारी वकील अपने प्रतिद्वन्द्वी के सामने न टिक सका । नसीबसिंह का किसी कत्ल में हाथ होने का कोई अकाट्य सबूत वो न पेश कर सका, न ही वो उसकी झामनानी या वैसे ही किसी लोकल गैंगस्टर के साथ जुगलबन्दी साबित कर सका । जो कथित परिस्थितिजन्य सबूत उसने पेश किये, उनकी नसीबसिंह के वकील ने धज्जियां उड़ा दीं, उसने सरकारी वकील की इस हालदुहाई को कहीं न ठहरने दिया कि मुलजिम के खिलाफ पुख्ता सबूत जुटाने के लिये रिमांड लेकर उससे पूछताछ करने की जरूरत थी । क्यों, उसने गर्जते हुए सवाल किया, वो पूछताछ बिना रिमांड लिये नहीं हो सकती थी । जबकि ऐसी किसी पूछताछ के लिये उसका क्लायन्ट उन्हें सदा उपलब्ध था ।
मैजिस्ट्रेट पर क्योंकि बड़े वकील की जिरह का प्रभाव साफ दिखाई दे रहा था इसलिये जब उस बहस का समापन हुआ तो उसने यही फैसला सुनाया कि वो रिमांड को जरूरी नहीं समझता था और मुलजिम को पचास हजार की नगद जमानत पर इस शर्त के साथ रिहा कर दिये जाने का हुक्म देता था कि वो हर रोज, बिना नागा, पुलिस के पास हाजिरी भरेगा और अदालत की इजाजत के बिना शहर छोड़ कर नहीं जायेगा । लंच ब्रेक से पहले ही नसीबसिंह जमानत पर रिहा हो गया ।
इस बार भी पहले की तरह फिर गिरफ्तार किये जाने का उसे पूरा अन्देशा था इसलिये उसने अपने वकील को तब भी अपने साथ अटकाये रखा । अपने जमानती दोस्त और वकील के साथ वो अदालत के परिसर के बाहर तक पहुंच गया तो वकील ने उसे आश्वासन दिया कि अब ऐसा कुछ नहीं होने वाला था क्योंकि पुलिस के पास उस पर लगाने के लिये कोई नया चार्ज आसमान से टपकने वाला नहीं था । जवाब में झिझकते हुए नसीबसिंह ने सहमति में सिर हिलाया तो वकील अपनी शोफर ड्रिवन एस्टीम पर सवार होकर वहां से रुख्सत हो गया ।
उसने और उसके जमानती दोस्त ने सड़क पर ये आटो पकड़ा ।
वो दोनों आटो पर सवार होने ही लगे थे कि एक सफेद एम्बैसेडर कार तेज रफ्तार से चलती हुई उनके करीब पहुंची और ऑटो के ऐन सामने ब्रेकों की चरचराहट के साथ गति शून्य हुई । कार के तीन दरवाजे एक साथ खुले एक जैसी सफारी सूट पहने हाशमी, इमरोज और इकबाल कार से बाहर निकले ।
“यही है ।” - इकबाल बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला ।
जबड़े कसे हाशमी ने सहमती में सिर हिलाया ।
हकबकाये नसीबसिंह ने बारी बारी तीनों संजीदा सूरतों पर निगाह डाली और फिर जबरन अपने लहजे में अधिकार का पुट लाता हुआ बोला - “क्या है ?”
“इन्स्पेक्टर नसीबसिंह ?” - हाशमी उसे घूरता हुआ गम्भीर स्वर में बोला ।
“हां । क्या है ?”
“जमानत हो गयी जान पड़ती है ।”
“क्या है ?”
“शुक्र है हम वक्त पर पहुंच गये वरना कहां तलाश करते फिरते तुम्हें ?”
“अरे, क्या पहेलियां बुझा रहे हो ?” - नसीबसिंह झल्लाया - “क्या अनापशनाप बक रहे हो ? कौन हो तुम ? क्या चाहते हो ?”
“हम नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो से हैं । तुम्हें हमारे साथ चलना होगा ।”
“कहां ।”
“हैडक्वार्टर ।”
“क्यों ?”
“पूछताछ के लिये ।”
“कैसी पूछताछ ?”
“उस छ: किलो हेरोइन से ताल्लुक रखती पूछताछ जो पिछले हफ्ते तारीख अट्टारह मई को महरौली महिपालपुर रोड पर सड़क पर बिखरी पड़ी पायी गयी थी ।”
“मेरा उससे क्या वास्ता ?”
“तुम्हारे सवाल से ही जाहिर हो रहा है कि तुम्हें उस हेरोइन की खबर है ।”
“क्या बड़ी बात है ? अखबार में छपी थी । हर टी.वी. चैनल पर थी । लेकिन मेरा उससे क्या वास्ता ?”
“वास्ता है या नहीं, यही जानने के लिये पूछताछ जरूरी समझी गयी है ।”
“खामखाह !”
“खामखाह होता है कोई काम ? हमारे साहब लोगों को क्या सपना आया था कि इस बाबत तुम्हारे से पूछताछ मुफीद साबित हो सकती थी ?”
“तो फिर ?”
“फिर का जवाब सुनोगे तो हुज्जत करना भूल जाओगे ।”
नसीबसिंह का दिल लरजा ।
अब क्या हो गया था ?
“क्या है जवाब ?” - उसने संशक भाव से पूछा ।
“झामनानी गिरफ्तार है ।” - जवाब बम की तरह उसकी चेतना से टकराया - “भोगीलाल भी ।”
“क... क्या ?”
“हां । दोनों खलीफा बहुत कुछ कुबूल कर चुके हैं । हेरोइन की बाबत भी और... और कई बातों की बाबत भी ।”
“औ... और बातें ?”
“जिनमें अहमतरीन एक ए.सी.पी. का कत्ल है ।”
सत्यानाश !
“अब जल्दी फैसला करो । तुम राजी से हमारे साथ ब्यूरो हैडक्वार्टर चल रहे हो या....”
हाशमी ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“या क्या ?” - नसीबसिंह के मुंह से निकला ।
“तुम्हें मालूम है क्या ? आखिर पुलिस वाले हो ।”
“तुम्हारे पास वारन्ट है मेरी गिरफ्तारी का ?”
“नहीं । क्योंकि उसकी जरूरत नहीं । क्योंकि अभी तुम्हें सिर्फ पूछताछ के लिये ले जाया जा रहा है ।”
“मैं जाने से इनकार करूं तो ?”
“करके देखो ।”
नसीबसिंह की मजाल न हुई ।
“वो दोनों... वाकेई गिरफ्तार हैं ?”
“चल के देखो ।”
“क्या कहते हैं वो मेरे बारे में ?”
“अभी कुछ नहीं कहते ।”
“ओह ! अभी कुछ नहीं कहते ।”
“लेकिन बहुत जल्दी ही बहुत कुछ कहेंगे । फिर सबसे पहले तुम्हारी जमानत ही कैंसल होगी ।”
“क... क्या ?”
“हम क्या जानते नहीं कि जमानत क्यों हुई ? क्योंकि पुलिस अपना केस साबित न कर पायी । क्योंकि उन्हें बतौर गवाह झामनानी उपलब्ध नहीं था । अब जब ऐसा नहीं है तो क्या होगा तुम्हारी जमानत का !”
“मेरा झामनानी से कोई वास्ता नहीं ।”
“बढिया । फिर तो तुम जल्दी फारिग हो जाओगे ।”
“लेकिन...”
“ये ऐसे नहीं मानने वाला ।” - एकाएक इमरोज कहरभरे स्वर में बोला - “इसे घसीट कर ले जाना होगा ।”
“मुझे जाने से कोई एतराज नहीं” - नसीबसिंह घबरा कर बोला - “लेकिन....”
“फिर लेकिन ?” - हाशमी बोला ।
“साबित करो कि एन.सी.बी. से हो ।”
“वाजिब मांग है ।”
हाशमी ने जेब से निकाल कर एक आइडेन्टिटी कार्ड उसके सामने किया जिस पर नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, आर. के. पुरम, नई दिल्ली के नीचे उसकी तसवीर चस्पां थी, फर्जी नाम दर्ज था और पद की जगह सीनियर इनवैस्टिगेटर दर्ज था ।
नसीबसिंह का चेहरा उतर गया ।
“हो गयी तसल्ली ?” - हाशमी व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
मशीन की तरह नसीबसिंह का सिर सहमति में हिला ।
“तुम लोग भी दिखाओ, भई, अपने अपने आई कार्ड ।” - हाशमी अपने भाइयों से बोला - “आखिर पुलिस वाला है । शक करना इसकी घुट्टी में मिला है ।”
“जरूरत नहीं ।” - नसीबसिंह खोखले स्वर में बोला ।
हाशमी ने नसीबसिंह के दोस्त पर निगाह डाली और फिर बोला - “जोड़ीदार को भी साथ ले जाना चाहते हो तो हमें कोई एतराज नहीं है ।”
“नहीं, नहीं ।” - तत्काल जमानती दोस्त के मुंह से निकला - “मेरा क्या काम ! नसीबसिंह, मैं चलता हूं । फुरसत में फिर मिलना ।”
फिर नसीबसिंह के मुंह भी खोल पाने से पहले वो आटो में सवार हो गया ।
फिर आटो ये जा वो जा ।
“आओ ।” - पीछे हाशमी बोला ।
नसीबसिंह ने बेचैनी से पहलू बदला । जोड़ीदार के रुख्सत होते ही न जाने क्यों एकाएक उसे फिजा भारी लगने लगी थी ।
“रूटीन है, भाई ।” - हाशमी नम्र स्वर में बोला - “मामूली जहमत है । उन खलीफाओं से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं तो बड़ी हद एक घन्टे में फारिग हो जाओगे ।”
“मेरा कोई वास्ता नहीं ।” - नसीबसिंह बोला ।
“गुड । आओ ।”
नसीबसिंह को कार में आगे पैसेंजर सीट पर सवार कराया गया, इमरोज ड्राइविंग सीट पर बैठा और इकबाल के साथ हाशमी पीछे सवार हुआ । कार ने सड़क पर यू टर्न लिया और फिर उसकी रफ्तार बढने लगी ।
मुकम्मल खामोशी में सफर कटने लगा ।
नसीबसिंह के जेहन में कई सवाल दस्तक दे रहे थे लेकिन वो आपस में ही गड्डमड्ड हुए जा रहे थे । अभी वो एक सवाल का कोई माकूल जवाब तलाशने की कोशिश शुरू करता था तो दूसरा पहले ही उस पर हावी हो जाता था । उस तमाम हलचल का नतीजा ये था कि बार बार उसके दिल के किसी कोने से आवाज उठ रही थी कि एक छोटी मुसीबत से निजात पा चुकने के बाद वो एक बड़ी मुसीबत के मुंह का निवाला बनने जा रहा था । नतीजतन वो बार बार अपने सूखे होंठों पर जुबान फेर रहा था और पहलू बदल रहा था ।
इन्डिया गेट के राउन्डअबाउट से कार शाहजहां रोड पर पहुंची फिर पृथ्वीराज रोड होती हुई अरविन्दो मार्ग पर दौड़ने लगी । आगे रिंग रोड के क्रासिंग को पार करके वो सीधी दौड़ चली ।
जबकि आर. के. पुरम के लिये उसे रिंग रोड पर दायें मुड़ना चाहिये था ।
आगे से भी रास्ता था - उसने अपने आपको तसल्ली दी । लेकिन आगे भी दायें पालम रोड पकड़ने की जगह कार सीधी दौड़ती चली गयी ।
“आगे कहां जा रहे हो ?” - उसने तत्काल प्रतिवाद किया - “एन.सी.बी. का हैडक्वार्टर इधर थोड़े ही है ?”
“वहां भी चलेंगे ।” - पिछली सीट पर से हाशमी धीरे से बोला - “लेकिन पहले हम कहीं और चल रहे हैं ।”
“और कहां ?”
“झामनानी के फार्म पर ।”
“वहां किस लिये ?”
“अभी मालूम पड़ जायेगा । बस पहुंचे कि पहुंचे ।”
कार दायें घूमी और छतरपुर की ओर दौड़ चली ।
छतरपुर मंदिर पार करके वो उस उजाड़ सड़क पर पहुंची जिस पर या खंडहर थे या आगे फार्म थे ।
कार एकाएक बायें घूमी और पेड़ों के एक झुरमुट में जा खड़ी हुई ।
“क्या हुआ ?” - नसीबसिंह सशंक स्वर में बोला ।
जवाब में ड्राइविंग सीट पर बैठे इमरोज ने अपनी कनकी उंगली उठा दी ।
“ओह !”
इमरोज कार से बाहर निकल कर आगे झाड़ियों की तरफ बढा ।
“अब गाड़ी रुकी है तो” - हाशमी अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “मैं भी हल्का हो ही लूं ।”
“मैं भी ।” - इकबाल बोला ।
फिर वो दोनों भी कार से निकल कर इमरोज के पीछे झाड़ियों की ओर बढ चले ।
कार में अकेला नसीबसिंह बैठा रह गया ।
एकाएक उसके जेहन में एक शैतानी खयाल आया ।
भाग चलूं ! बाद में जो होगा, देखा जायेगा ।
वो हौले से ड्राइविंग सीट की तरफ सरका लेकिन फिर ठिठक गया ।
इग्नीशन में चाबी नहीं थी ।
चाबी ड्राइवर साथ ले गया था ।
कार में चुपचाप निकलूं और खंडहरों में घुस जाऊं ।
या जिधर से कार आयी थी, उधर ही सरपट दौड़ चलूं !
इससे पहले कि वो कोई फैसला कर पाता तेज रफ्तार चलती, धूल उड़ाती एक कार उसे उधर आती दिखाई दी । कार करीब पहुंची तो उसने देखा कि वो एक दोरंगी फियेट थी ।
दोरंगी फियेट !
तब उसे याद आने लगा कि वो दोरंगी फियेट कोर्ट से रवाना होने के बाद से उसने कई बार एम्बैसेडर के पीछे देखी थी ।
क्या वो उन्हीं के पीछे लगा हुई थी ?
अब तो ऐसा ही जान पड़ता था ।
कार एम्बैसेडर के पहलू में आकर रुकी । उसका पैसेंजर सीट की ओर का दरवाजा खुला और एक व्यक्ति ने बाहर कदम रखा ।
नसीबसिंह की निगाह उसकी सूरत पर पड़ी तो उसके प्राण कांप गये ।
कौल !
सोहल !
वहां । उस उजाड़ बियाबान जगह पर !
उस घड़ी नसीबसिंह को मौत अपने इतने करीब दिखाई दी कि यही करिश्मा था कि उसका हार्ट फेल न हो गया ।
हे भगवान ! कितने बड़े, कितने सुनियोजित षड्यन्त्र का शिकार हुआ था वो !
उसका हाथ दरवाजे के हैंडल पर पड़ा, उसने हौले से हैंडल को घुमा कर दरवाजे को खोला और वैसे ही हौले से उसे बाहर को धक्का दिया ।
“वहीं बैठे रहो, इन्स्पेक्टर साहब !” - विमल कहरभरे स्वर में बोला ।
नसीबसिंह का हाथ जैसे हैंडल पर फ्रीज हो गया ।
“दरवाजा वापिस बन्द करो और हाथ अपनी गोद में रखो ।”
उसने आदेश का पालन किया ।
विमल कार के समीप पहुंचा, वो आगे नसीबसिंह के पहलू में ड्राइविंग सीट पर बैठने की जगह पिछली सीट पर बैठ गया ।
नसीबसिंह की गर्दन घुमा कर उसकी तरफ देखने की मजाल न हुई ।
व्याकुल भाव से उसने सामने देखा, दायें दोरंगी फियेट की तरफ देखा ।
सामने झाड़ियों के आगे तीनों जने उसकी तरफ पीठ किये खड़े लघुशंका के जरूरी काम को अंजाम दे रहे थे, फियेट की ड्राइविंग सीट पर एक सख्त चेहरे वाला शख्स बैठा था जो प्रत्यक्षतः तमाम वाकयात से बेखबर जान पड़ता था ।
“बहुत उम्दा किरदार निभाया, इन्स्पेक्टर नसीबसिंह ।” - पीछे से सोहल की धीमी, सन्तुलित आवाज आयी - “मंगलवार, सोलह मर्ई को एक बहुत बड़े यश का भागी बनने का मौका छोड़ के गया था मैं तुम्हारे लिये । लेकिन जमीर और गैरत को उजला करने की जगह मुंह काला करना कुबूल हुआ तुम्हें । बिरादरीभाइयों को उनकी करतूतों की सजा दिलाने का अपना फर्ज निभाने की जगह उन्हीं में शामिल हो गये । अब तुम्हारा अंजाम भी उन्हीं जैसा हो तो गिला कैसा ?”
नसीबसिंह के मुंह से बोल न फूटा ।
“अब तुम्हें भी सजाये मौत मिले तो शिकवा कैसा ?”
“स... स... सजा देना अदालत का काम है, का... कानून का काम है ।”
“जैसे मुजरिम को पकड़ना पुलिस का काम है । लेकिन पुलिस ने अपना काम कैसे किया ? जिन्हें पकड़ के रखना था, उन्हें रिहा कर दिया, गवाहों को गोली मार दी, अपने आला अफसर को शहीद कर दिया । तू मुल्क के कायदे कानून से सजा नहीं पाने वाला नसीबसिंह । देर सवेर सजा पा भी गया तो वो सजा नहीं पाने वाला जिसका कि तू हकदार है । तेरा इंसाफ मुझे ही करना होगा । अभी करना होगा । मुजरिम नसीबसिंह, मैं तुझे मौत देता हूं ।”
एक फायर हुआ ।
गोली नसीबसिंह को खोपड़ी में पीछे से दाखिल हुई और माथा फाड़ कर बाहर निकली । विंड स्क्रीन उसके खून के छींटों से सराबोर हो गयी । उसका सिर उसकी छाती पर लटक गया ।
लघुशंका का नाटक करते तीनों भाई वापिस लौटे और दोरंगी फियेट की पिछली सीट पर सवार हो गये ।
विमल ने रिवॉल्वर वहीं फेंक दी, वो एम्बैसेडर से बाहर निकला और जाकर फियेट में आगे ड्राइविंग सीट पर बैठे इरफान की बगल में जा बैठा ।
तत्काल इरफान ने कार वापिस दौड़ा दी ।
एम्बैसेडर चोरी की थी जो कि वहां से जल्दी बरामद नहीं होने वाली थी ।
***
चार बजे इरफान ताज पैलेस के रिसैप्शन पर पहुंचा ।
वो झक सफेद शेरवानी, वैसी ही सफेद शलवार पहने था ।
उसके पैरों में पेशावरी जूती थी और सिर पर तुर्की टोपी थी, चेहरे पर घनी दाढी थी लेकिन मूंछ साफ थीं, आंखों पर बड़ा स्टाइलिश रंगीन चश्मा था और दांये गाल पर आंख के नीचे मोटा मस्सा था । उसकी दायीं जूती बायीं से थोड़ी ऊंची थी जिसकी वजह से उसकी चाल में हल्की सी लंगड़ाहट थी ।
“यस सर ?” - रिसैप्शन क्लर्क बोला ।
“सत्तार शोला ।” - इरफान धीरे से बोला - “चाबी ।”
“यस, सर । इन ए मिनट, सर ।”
वो की-बोर्ड से चाबी लेकर लौटा । वापिसी में उसने परे लिफ्टों के पास खड़े तलवार को इशारा किया जो कि इरफान की पैनी निगाह से छुपा न रहा ।
इरफान ने चाबी ली, रिसैप्शन पर से हटा और दो कदम चल कर ठिठक गया ।
उसने जेब से सिगरेट का पैकेट और लाइटर निकाला और एक सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया ।
तलवार ने मोबाइल पर एक नम्बर पंच किया और फिर उसमें फुसफुसाया - “पहुंच गया । सफेद शेरवानी और शलवार, तुर्की टोपी, धूप का चश्मा, घनी दाढी, गाल पर मस्सा, चाल जरा लंगड़ी ।”
उसने फोन बन्द करके जेब में रख लिया ।
इरफान अपने स्थान से हिला, सिगरेट के कश लगाता वो लिफ्टों के सामने जा खड़ा हुआ । वो जानबूझ कर पांच लिफ्टों में से बीच की उस लिफ्ट के सामने जाकर खड़ा हुआ जिसके सामने तलवार खड़ा था ।
लिफ्ट नीचे पहुंची ।
दो पैसेंजर बाहर निकले ।
चार भीतर दाखिल हुए जिनमें इरफान और तलवार भी थे ।
लिफ्ट का स्वचालित दरवाजा बन्द होने लगा तो इरफान ने यूं जाहिर किया जैसे लिफ्ट में मौजूद विलायती मेम के घूरने से ही उसे खयाल आया था कि उसके हाथ में जलता सिगरेट था ।
“सॉरी ।” - वो होंठो में बुदबुदाया और तत्काल उसने बन्द होते दरवाजे से बाहर कदम रखा ।
एकाएक बौखला उठे तलवार ने वो ही कोशिश की तो दरवाजा उसके मुंह पर बन्द हो गया ।
उसी क्षण बगल की लिफ्ट नीचे पहुंची थी जिसमें सवार होने वाला कोई नहीं था ।
इरफान उस लिफ्ट में सवार हो गया, उसने तीसरी मंजिल का बटन दबाया ।
उसके हाथ में जो चाबी थी, वो सात सौ सात नम्बर की थी ।
तीसरी मंजिल पर लिफ्ट रुकी तो वो उसमें से बाहर निकला ।
गलियारे में ऐन उसी जैसी पोशाक पहने और मेकअप किये विमल मौजूद था । उसकी बगल से गुजरते इरफान ने चाबी उसे थाम दी । विमल लिफ्ट में सवार हो गया । उसने चाबी के साथ लगी मैटल प्लेट पर लिखा कमरे का नम्बर पढा और फिर सातवीं मंजिल का बटन दबा दिया ।
इरफान गलियारे में आगे उस कमरे की तरफ बढ गया जो मुम्बई से आये विमल खन्ना और उसके भाई के नाम बुक था ।
विमल के साथ लिफ्ट सातवीं मंजिल पर पहुंची ।
वहां लिफ्टों के करीब तलवार पहले से मौजूद था ।
उसने लिफ्ट से निकलते तुर्की टोपी वाले को देखा तो उसकी जान में जान आयी ।
खामखाह हलकान हो रहा था मैं - उसने मन ही मन सोचा - फौरन ही तो आ गया दूसरी लिफ्ट से । अहमक को इतना भी नहीं पता था कि लिफ्ट में जलती सिगरेट के साथ सवार नहीं होते थे ।
विमल सात सौ सात नम्बर कमरे के सामने पहुंचा, उसने चाबी लगा कर उसका ताला खोला, चाबी को ताले में ही रहने दिया और दरवाजे को धक्का दिया । सावधानी से उसने भीतर झांका ।
कमरा खाली था ।
उसने भीतर कदम डाला और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया । फिर उसने बाथरूम का दरवाजा खोलकर भीतर झांका तो पाया कि वो भी खाली था ।
वो कमरे में आगे बढा । टी.वी. के करीब पहुंच कर उसने उसे आन किया, वाल्यूम बढाया और फिर जाकर उस सोफे पर बैठ गया जिसका मुंह प्रवेश द्वार की तरफ था । उसने शेरवानी की जेब से रिवॉल्वर निकाली और उसे जांघ के नीचे रख कर शेरवानी पहलू से परे तक फैला दी ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह - वो होंठों में बुदबुदाया - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
शेरवानी की दूसरी जेब से उसने अपना पाइप बरामद किया और उसे सुलगा कर उसके छोटे छोटे कश लगाने लगा ।
धूम्रपान उसके बहुरूप का मेजर हिस्सा था जो कि दुश्मन को गुमराह करने में हमेशा कारगर साबित हुआ था ।
दरवाजे का हैंडल धीरे से घूमा ।
विमल का हाथ शेरवानी के नीचे सरक गया और रिवॉल्वर की मूठ पर जाकर पड़ा । वो अपलक खुलते दरवाजे की तरफ देखने लगा ।
दरवाजा खोल कर भोगीलाल ने भीतर कदम रखा ।
“खुशामदीद !” - विमल खरखराती आवाज में बोला ।
भोगीलाल मुस्कराया, उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया ।
“माफी की दरख्वास्त के साथ अर्ज है” - विमल बोला - “कि इस्तकबाल के लिये उठ कर नहीं खड़ा हो सकता । टांग में तकलीफ है । कार से रिसैप्शन तक, रिसैप्शन से लिफ्ट तक और लिफ्ट से यहां तक चलने में ही सारा पैट्रोल चुक गया ।”
“कोई बात नहीं ।” - भोगीलाल करीब आता बोला - “मन्ने भी सतावे है गठिया कभी कभी ।”
“बिराजिये ।”
भोगीलाल उसके सामने बैठ गया ।
उसे ये बात बेचैन कर रही थी कि वो शख्स उससे यूं पेश आ रहा था जैसे वो वहां का मालिक था और खुद वो उसका मेहमान था मिलना कुबूल करके वो जिस पर अहसान कर रहा था ।
“अब बोलिये, क्यों मिलना चाहते थे ?”
“टी.वी. बन्द न कर दें ?”
“नहीं । चलने दीजिये ।”
“बहुत ऊंचा बज रिया है ।”
“कोई वान्दा नहीं । अब बोलिये, क्या कहना चाहते हैं ?”
“अरे, भाई, मन्ने तो एक ही बात कहनी है ।”
“क्या ?”
“क्यों मेरे धन्धे के पीछे पड़ा है ?”
“इस सवाल के दो जवाब हैं । एक लम्बा है, एक मुख्तसर है । कौन सा जवाब पसन्द करेंगे ?”
“जो काम झट निपटे, वही अच्छा होवे है ।”
“यानी कि मुख्तसर जवाब पसन्द करेंगे ?”
“हां ।”
“बाहर एक आदमी था, जिसके दायें कान की ड्रैसिंग हुई हुई है । वो आपका आदमी है ?”
पूछने का अन्दाज ऐसा दो टूक था कि भोगीलाल चाह कर भी इनकार न कर सका ।
“हां ।” - वो बोला ।
“क्या नाम है उसका ?”
“तलवार ।”
“आप चाहें तो उसे अन्दर बुला सकते हैं ।”
“काहे को ?”
“तलवार है ।” - विमल ने बड़े नाटकीय अन्दाज से उसके मुंह के आगे तलवार घुमाने का अभिनय किया ।
“क्यों, भई ? मजाक कर रिया है ? घिस रिया है मन्ने ?”
“वैसे ही कोई कटारिया, बन्दूकवाला हो तो आप उसे भी बुला सकते हैं ।”
“अब छोड़ भी वो किस्सा । क्यों कलपा रिया है ।”
“नकली शराब । कान्ट्रैक्ट किलिंग । अगवा-फिरौती । झौंपड़ पट्टे की वोटों की दलाली । कितने धन्धे हैं आपके जिनसे चान्दी काट रहे हैं । फिर भी एक ड्रग्स के धन्धे का लालच न छूटा ।”
भोगीलाल सकपकाया ।
चेहरे पर स्थित मुस्कराहट लिये विमल ने अपलक उसकी तरफ देखा ।
भोगीलाल ने नोट किया कि उसके होंठ ही मुस्करा रहे थे, उसकी स्थिर आंखों में बर्फ जैसा सर्द भाव था ।
एकाएक वो अजीब सी बेचैनी अनुभव करने लगा ।
“क्या ?” - विमल बोला ।
“अरे सत्तार भाई, तू नाम का शोला है या मिजाज का भी ! आपसदारी में कहीं शोला बन के बात की जावे है ! जरा शबनम बन के बोल ।”
“लाला, क्या शोला क्या शबनम ! अब जब तेरी पसन्द मुख्तसर जवाब है तो जरा सा ही तो बोलना होगा ।”
उसकी आवाज में एकाएक आयी तब्दीली से भोगीलाल चौंका ।
विमल ने पाइप सामने मेज पर रखा, जांघ के नीचे से रिवॉल्वर निकाली और बड़े निर्विकार भाव से उसकी तरफ तान दी ।
भोगीलाल का गला रुंधने लगा और कनपटियों में खून बजने लगा । अब उसका दिल पुकार पुकार कर कह रहा था कि वो एक बड़े-बड़े और व्यापक, जिसमें हर कोई उसके खिलाफ था - षड्यन्त्र का शिकार हो गया था । अब उसे बताये जाने की जरूरत नहीं थी कि उसके सामने बैठा शख्स कौन था ।
“सोहल !” - फिर भी वो फुसफुसाता सा बोला ।
“दि सेम ।” - विमल मुस्कराया - “इन पर्सन । ऐट युअर सर्विस ।”
“इ... इधर पहुंच गया !”
“क्या बड़ी बात है ? फार्म में तूने मुझे मायावी मानस की उपाधि दी थी । समझ ले माया दिखाई ।”
भोगीलाल ने जोर से थूक निगली ।
“जिस भगवान को मानता है, उसको याद कर ले अपनी अन्तिम घड़ी में ।”
“बा... बाहर मेरा आदमी मौजूद है । वो गोली की आवाज सुनेगा । फिर तू इधर से नहीं निकल पायेगा ।”
“तजुर्बा करके देखते हैं ।”
“त... तजुर्बा ! कैसा तजुर्बा ?”
“गोली चलने की आवाज बाहर सुनायी देती है या नहीं । ऐसा तजुर्बा । हेयर वुई गो ।”
भोगीलाल के नेत्र फट पड़े । एकाएक उसका हाथ अपनी जेब की तरफ लपका ।
विमल ने फायर किया ।
गोली भोगीलाल के माथे में घुस गयी ।
तत्काल उसकी आंखें पथरा गयीं ।
विमल ने रिवॉल्वर जेब में रख ली और मेज पर से पाइप उठा कर फिर मुंह में लगा लिया । फिर वो अपने स्थान से उठा, उसने टी.वी. ऑफ किया और दरवाजे पर पहुंचा । दरवाजा खोल कर उसने बाहर झांका ।
कनकटा गलियारे में मौजूद था ।
“तलवार !” - विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “इधर आ ।”
तलवार बेझिझक उसकी तरफ बढा ।
आखिर उसके साहब का मुलाकाती उसे नाम लेकर पुकार रहा था ।
वो विमल के करीब पहुंचा ।
“भोगीलाल भीतर बुला रहा है तुझे ।” - विमल दरवाजे से एक ओर हटता हुआ बोला - “जा के उसकी सुन, मैं अभी आता हूं ।”
सहमति में सिर हिलाते हुए बड़ी तत्परता से तलवार ने भीतर कदम रखा ।
विमल ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया और उसमें लटकती चाबी ताले में घुमा दी ।
लपक कर वो वहीं खड़ी खाली लिफ्ट में सवार हुआ । लिफ्ट का दरवाजा बन्द हुआ तो उसने सिर पर से टोपी उतारी और चेहरे पर से नकली दाढी, मस्सा और चश्मा उतार कर टोपी में डाल दिया । टोपी उसने वहीं फर्श पर फेंक दी ।
चौथी मंजिल पर वो लिफ्ट से बाहर निकला, एक मंजिल नीचे तक सीढियों के रास्ते उतरा और ‘विमल खन्ना’ के कमरे में पहुंचा ।
वहां इरफान के साथ मुबारक अली और हाशमी भी मौजूद थे ।
तीनों की सवाल करती निगाह विमल की तरफ उठी ।
“फतह !” - विमल बोला ।
“बाकी बचा एक ।” - मुबारक अली बोला - “बड़ा खलीफा । झामनानी ।”
“चैक आउट हो चुका है ।” - हाशमी बोला ।
“बस, पांच मिनट ।” - विमल बोला ।
उसने आननफानन शेरवानी शलवार की जगह सूट पहना और पेशावरी चप्पल की जगह बूट पहने ।
इरफान ने वो सब सामान उस बैग में भर दिया जिसमें वो अपना वैसा ही सामान पहले ही डाल चुका था ।
विमल ने रिवॉल्वर भी बैग में डाल दी ।
हाशमी ने बैग अपने कब्जे में किया और मुबारक अली के साथ वहां से बाहर निकल गया ।
रूम नम्बर सात सौ सात की टेलीफोन कॉल जब तक रिसैप्शन पर पहुंची और होटल का सिक्योरिटी स्टाफ ऊपर पहुंचा, तब तक शानदार सूटों में सजे धजे विमल और इरफान एक टैक्सी में सवार एयरपोर्ट की ओर उड़े जा रहे थे ।
***
बारबोसा चिन्तित था ।
दोपहर से दो आदमी उसे अपने पीछे लगे दिखाई दे रहे थे, ये तो चिन्ता का विषय था ही, और भी ज्यादा चिन्ता का विषय ये था कि उन्हें अब मुम्बई में उसके खुफिया ठिकाने की भी खबर थी । उनका वहां भी दिखाई देना उसके लिये खतरे की घन्टी थी ।
वो दो आदमी कौन थे - दो ही थे या आसपास और भी थे - वो नहीं जान सका था । एक बार उसे ऐसा लगा था कि उनमें से एक अलैक्स पिंटो था लेकिन जल्दी ही वो खयाल उसने अपने जेहन से निकाल दिया था । पिंटो का उसके पीछे होने का क्या मतलब ?
तो फिर कौन थे वो लोग ?
‘भाई’ के आदमी तो वो हो नहीं सकते थे और उसके शिकार को तो उसके वजूद की भी खबर नहीं थी ।
उसका खुफिया ठिकाना लोअर परेल के इलाके में स्थित एक दोमंजिला मकान था जो एक मुद्दत से खाली पड़ा था । उसकी निचली मंजिल को उन दिनों उसने अपना आवास बनाया हुआ था और उसे पूरा यकीन था कि वहां उस तक किसी की पहुंच नहीं हो सकती थी ।
फिर उसने जेहन पर अपने पीछे लगे आदमियों का अक्स उभरा ।
वो उन दोनों को बड़ी आसानी से खलास कर सकता था लेकिन दो वजह से वो ऐसा नहीं करना चाहता था:
कोई गारन्टी नहीं थी कि उनके खत्म हो जाने से उसकी निगाहबीनी का सिलसिला खत्म हो जाता, उन दो की जगह कोई और दो ले सकते थे ।
वो मकान उसका बड़ा सेफ ठीया था, नाहक खूनखराबा करने का मतलब उस ठीये से किनारा करना होता जो कि वो नहीं चाहता था ।
वो ओरियन्टल के चेयरमैन रणदीवे की बेटी की शादी का दिन था और उस घड़ी शादी का फंक्शन आरम्भ होने में बस थोड़ा ही वक्त बाकी था । शादी की बाबत उसे इसलिये मालूम था क्योंकि उससे सम्बन्धित समाचार टाइम्स ऑफ इन्डिया के मुम्बई परिशिष्ट के सोसायटी कॉलम में छपा था । अपने शिकार राजा साहब के ओरियन्टल से ताल्लुकात की दास्तान से वो पहले से वाकिफ था, इस लिहाज से वो राजा साहब के भी उस फंक्शन में आमन्त्रित होने की अपेक्षा कर रहा था । वो एक दूर की कौड़ी थी लेकिन मौजूदा हालात में, जबिक राजा साहब पर हाथ डालने का कोई भी दूसरा जरिया उसे नहीं सूझ रहा था, वो कौड़ी खेलने में उसे कोई हर्ज नहीं दिखाई दे रहा था ।
रविवार सुबह चैम्बूर वाला वार खाली जाने के बाद से अपने शिकार की बाबत जो नयी रिसर्च उसने की थी वो ये थी कि होटल में पहुंचने का एक खुफिया रास्ता एक करीबी गोदाम से भी था जो कि हमेशा बन्द रहता था । अभी पिछली ही रात वो गोदाम के बड़े रोलिंग शटर और उसके बाजू में बने छोटे दरवाजे का मुआयना करने पहुंचा था । ये देख कर उसे बड़ी नाउम्मीदी हुई थी कि फाटक का शटर और छोटा दरवाजा दोनों भीतर की तरफ से बन्द थे । उनमें से किसी पर बाहर से ताला पड़ा होता तो वो ताला जबरन खोल कर चुपचाप भीतर दाखिल होने की, और फिर आगे राजा साहब के प्राइवेट चैम्बर्स तक तक पहुंचने की, कोई जुगत कर सकता था । लेकिन उन हालात में ऐसी कांटे की जानकारी, कि उस गोदाम के बन्द दरवाजों के पीछे होटल तक पहुंचने का खुफिया रास्ता था, उसके लिये बेकार साबित हो रही थी ।
अब सारा दारोमदार इस बात पर था कि राजा साहब रणदीवे की बेटी की शादी के फंक्शन में पहुंचता और वो वहां उस तक पहुंच बनाने में कामयाब होता ।
लेकिन वो बाद की बात थी, पहले तो उसने अपने पीछे लगे दो आदमियों से पीछा छुड़ाना था ।
उनसे चुपचाप, बिना कोई पंगा-गलाटा किये, पीछा छुड़ाने की एक तरकीब वो सोच चुका था जिस पर अमल करने के लिये अब बस उसे अपने एक शागिर्द का सिग्नल मिलने का इन्तजार था ।
शागिर्द का नाम आल्डो था, वो उम्र में बारबोसा से कोई बीस साल छोटा था लेकिन उस्ताद का ऐसा मुरीद था कि उसकी हर बात की नकल करता था । कद काठ उसका कुदरतन बारबोसा जैसा था, बाल उसने जानबूझ कर बारबोसा जैसे लम्बे किये हुए थे, क्लीनशेव्ड रहता था और कपड़े पहनने का स्टाइल भी बारबोसा का ही नकल करता था ।
आखिरकार मोबाइल पर उसे आल्डो का वो सिग्नल मिला जिसका उसे इन्तजार था ।
उस खड़ी वो बोरीवली में था जहां से अपनी वैगन-आर पर सवार होकर तत्काल उसने अन्धेरी का रुख किया ।
दोनों आदमी तब भी उसके पीछे लगे हुए थे लेकिन अब उसे उनकी परवाह नहीं थी ।
अन्धेरी में उसने कार को अवधूत गैरेज के भीतर ले जाकर रोका ।
एक मैकेनिक कार के करीब पहुंचा ।
“अवधूत को बुला ।” - बारबोसा बोला ।
सहमति में सिर हिलाता मैकेनिक हॉल में दाखिल हो गया ।
दो मिनट बाद बारबोसा को अवधूत अपनी कार की ओर बढता दिखाई दिया । वो कार से बाहर निकल आया ।
“गुड र्ईवनिंग ।” - वो मुस्कराता हुआ बोला ।
अवधूत के चेहरे पर भी मुस्कराहट आयी, उसने गर्मजोशी से बारबोसा से हाथ मिलाया ।
“कैसा आया ?” - वो बोला ।
“ये सोच के आया कि बहुत टेम हो गया बॉस को सलाम बोले ।”
अवधूत हंसा और फिर उसके कन्धे पर एक धौल जमाता हुआ बोला - “क्या मांगता है ?”
“आज एक फैंसी पार्टी में जाने का है । एक हाई क्लास लेडी का साथ । मैं सोचा इस उम्र में मैं खुद को तो चमका नहीं सकता, अवधूत को बोलेंगा तो कार को तो वो चमका ही देंगा ।”
“वाशिंग पॉलिशिंग मांगता है ?”
“अर्जेंट ।”
“एक घन्टा । एक घन्टा बाद आना । या इधरीच बैठ मेरे पास ।”
बारबोसा ने इनकार में सिर हिलाया ।
अवधूत की भवें उठीं ।
“मेरे को अभीच इधर से जाने का है । बहुत अर्जेंट काम । लौट के आने का नहीं है ।”
“तो गाड़ी...”
“डिलीवर करना मांगता है ।”
“किधर ?”
“चर्चगेट स्टेशन की पार्किंग में ।”
“ठीक है । एक घन्टा काम का आधा घन्टा उधर पहुंचने का । अभी टेम है” - उसने कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “साढे छ: । आठ बजे उधर पार्किंग में मिलना ।”
बारबोसा ने फिर इनकार में सिर हिलाया ।
“अब क्या हुआ ?”
“गाड़ी को पार्किंग में छोड़ कर पार्किंग का कूपन और चाबी अन्दर मैट के नीचे ।”
“अरे, नवां गाड़ी है । चोरी हो जायेंगा ।”
“कुछ नहीं होता । गाड़ी लॉक होगी तो कैसे चोरी हो जायेंगा ।”
“खुद कैसे खोलेंगा ?”
“दूसरी चाबी है न !”
“ओह !”
“क्या वान्दा है ?”
“कोई नहीं । ठीक है, ऐसीच होगा । गाड़ी पहुंच जायेगी ।”
“थैंक्यू ।” - बारबोसा ने जेब से निकाल कर एक पांच सौ का नोट उसकी तरफ बढाया और बोला - “बिल का पैसा और तेरे भीड़ू का चर्चगेट से इधर वापिस लौटने का टैक्सी का भाड़ा ।”
“ज्यास्ती है ।”
“उसी को देना ज्यास्ती भी । बोलना मुगाम्बो खुश हुआ ।”
अवधूत हंसा ।
बारबोसा ने उससे हाथ मिलाया और वहां से बाहर निकला ।
एक टैक्सी पर सवार होकर वो लोअर परेल के लिये रवाना हुआ ।
तमाम रास्ते उसने एक बार भी गर्दन घुमा कर अपने पीछे झांकने की कोशिश न की ।
लोअर परेल पहुंच कर वो टैक्सी से ऐन अपने मकान के सामने उतरा ।
वो लोअर मिडल क्लास वर्ग के लोगों का इलाका था और उधर का रहन-सहन झोंपड़पट्टे से जरा ही बेहतर था ।
टैक्सी का भाड़ा चुका कर वो भीतर दाखिल हुआ ।
मकान के सामने के छोटे से कम्पाउन्ड में एक मोटरसाइकल खड़ी थी जिसका उसकी स्कीम में अहम रोल था ।
उसने मोटरसाइकल को स्टार्ट किया और जोर से एक्सीलेटर देकर उसके चौकस होने की तसदीक की । फिर उसने बन्द कर दिया और मकान के भीतर दाखिल हुआ ।
मकान के पीछे एक संकरी सी गली थी जो आवाजाही के लिये कम और कूड़ा डालने के लिये ज्यादा इस्तेमाल होती थी । उस गली में उसके मकान का कोई दरवाजा नहीं खुलता था, उसे यकीन था उसके पीछे लगे भीड़ू तब तक उस बात की तसदीक जरूर कर चुके थे, अलबत्ता मकान के पृष्ठभाग में नीचे ऊपर बने दो बाथरूमों के रोशनदान उस गली में खुलते थे ।
वो बाथरूम में पहुंचा ।
मामूली मेहनत से उसने रोशनदान के ढक्कन जैसे पल्ले को चौखट से अलग कर दिया और जरा अतिरिक्त मेहनत से उसके बीचोंबीच लगी लोहे की दो सलाखें एक तरफ से काट कर दूसरी तरफ उमेठ दीं । यूं जो खाली जगह सामने आयी, वो बहुत कम थी लेकिन बारबोसा को यकीन था कि कोई दुबला पतला जिस्म बड़े आराम से नहीं तो मामूली दिक्कत से उसके आरपार हो सकता था ।
जैसे खुद उसका या आल्डो का ।
उसने रोशनदान में से बाहर झांका ।
बाहर अन्धेरे में उसे कुछ दिखाई न दिया ।
उसने हौले से, एक विशिष्ट अन्दाज से, सीटी बजायी ।
तत्काल वैसी ही सीटी बाहर कहीं बजी ।
आल्डो पहुंच चुका था ।
गुड ।
वो बाथरूम से निकला और बैडरूम में पहुंचा । वहां उसे जिस्म से अपने मौजूद कपड़े उतारे और उनकी जगह एक जींस, टीशर्ट और चमड़े की जैकेट पहन ली । एक साइड टेबल पर से उसने पूरा मुंह ढकने वाली हैल्मेट उठायी और वहां से बाहर निकला । उसने प्रवेश द्वार को ताला लगाया और मोटर साइकल के करीब पहुंचा । उसने हैल्मेट पहनी, इंजन स्टार्ट किया, उस पर सवार हुआ और उसे चलाता बाहर सड़क पर लाया । थोड़ा आगे पहुंच कर उसने मोटरसाइकल रोकी, उसे यू टर्न दिया और वापिस मकान के सामने लाकर रोका ।
उस वक्त कोई उसकी निगाहबीनी कर रहा होता तो यही समझता कि वो पीछे कुछ भूल गया था जिसे लेने वो वापिस लौटा था ।
फिर से ताला खोल कर उसने भीतर कदम रखा और हैल्मेट सिर से उतारता बैडरूम में पहुंचा ।
वहां आल्डो मौजूद था ।
उसने हैल्मेट एक तरफ रखी और फुर्ती से अपने कपड़े उतार उतार कर आल्डो की तरफ फेंकने लगा जिसे कि उतनी ही फुर्ती से लपक कर आल्डो पहनने लगा ।
पलक झपकते बारबोसा वहां अन्डरवियर बनियान में खड़ा था और आल्डो जींस, टीशर्ट और जैकेट पहने खड़ा था । आल्डो ने हैल्मेट उठा कर अपने सिर पर जमायी और बाहर को चल दिया ।
अब उसने मकान को बाहर से ताला लगाना था, मोटरसाइकल पर सवार होना था और वहां से रुख्सत हो जाना था ।
पीछे बारबोसा ने बड़े इत्मीनान से अपने आपको एक शानदार सूट में सुसज्जित किया और रोशनदान के रास्ते मकान से बाहर निकल गया । अपने पीछे उसने रोशनदान की दोनों छड़ों को फिर उमेठ कर यथास्थान किया और खामोशी से चलता हुआ गली में आगे बढ गया ।
गली के दहाने पर पहुंच कर उसने पूरी सावधानी से दायें बायें निगाह डाली ।
कोई ऐसा शख्स उसकी निगाह में न आया जिसकी कि तवज्जो गली की तरफ होती ।
यानी कि, जैसा कि अपेक्षित था, उसकी निगरानी करते भीड़ू आल्डो को बारबोसा समझ कर उसी के पीछे लगे थे ।
सो फार सो गुड ।
वो गली से बाहर निकला, तत्काल उसे टैक्सी मिल गयी जिस पर सवार होकर वो चर्चगेट पहुंचा ।
स्टेशन की पार्किंग में उसकी वैगन-आर खड़ी थी ।
उसने दूसरी चाबी से उसे खोला और सामने ड्राइविंग सीट के मैट के नीचे से चाबी और पार्किंग का कूपन बरामद किया ।
और एक मिनट बाद वो नरीमन प्वायंट की ओर उड़ा जा रहा था ।
***
एक नयी नकोर बी एम डब्ल्यू कार, जिसके बोनट पर होटल सी-व्यू की झंडी लगी हुई थी, नरीमन प्वायंट पर स्थित होटल एशली क्राउन प्लाजा की जगमग जगमग मारकी में आकर रुकी ।
कार को झक सफेद वर्दी पहने विक्टर चला रहा था, उसके पहलू में काला सूट पहने इरफान मौजूद था और पीछे अपनी पूरी आन बान शान के साथ राजा गजेन्द्र सिंह विराजमान थे ।
काली फिफ्टी के साथ लाल पगड़ी । पगड़ी में पुखराज जड़ा ब्रोच । आंखों पर सुरमई रंगत के लैसों वाला सोने के फ्रेम का चश्मा । इस्साभाई विगवाला का कमाल भव्य दाढी मूंछ । झक सफेद कमीज पर काली बो टाई, सफेद टक्सेडो, काली पतलून, काले जूते । बायीं कलाई पर रौलेक्स की गोल्ड वाच, दायीं में सोने का कड़ा । बायें हाथ की तीन और दायें हाथ की दो उंगलियों में हीरे जवाहरात से जड़ी भारी अंगूठियां । हाथ में सोने की मूठ वाला आबनूस की लकड़ी का वैसा डण्डा जैसा कि फौजी जनरल बगल में दबा कर रखते हैं ।
इरफान ने कार से निकल कर बड़ी तत्परता से उसका पिछला दरवाजा खोला ।
विमल बाहर निकला ।
उसकी शान बान से होटल स्टाफ थी प्रभावित हुए बिना न रह सका, किसी ने सैल्यूट मारा तो किसी ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया ।
इरफान ने कार में से एक गिफ्टपैक्ड पैकेट निकाला और उसे उठाये राजा साहब के पीछे चलने लगा ।
लॉबी में रिसैप्शन के करीब एक काला साइन बोर्ड रखा था जिस पर प्लास्टिक के सफेद अक्षरों में अंकित था:
वैशाली वैड्स शशांक
पच्चीस मर्ई, गुरुवार
नौ बजे सायं
सम्राट हॉल
बेसमेंट को जाती सीढियों के दहाने पर एक तीर बना हुआ था, जिस पर सम्राट हॉल लिखा था ।
वो नीचे पहुंचे ।
सम्राट हॉल खूब सजा हुआ था और वहां मेहमानों का जो जमघट लगा हुआ था, उसमें अधिकतर स्त्रियां थीं जिसकी वजह जल्दी ही सामने आयी ।
बगल में एक और हॉल था जहां बार आयोजित था । बार में महिलायें भी थीं लेकिन अधिकतर पुरुष थे ।
गुलाबी पगड़ी में सजे रणदीवे ने आगे बढ कर राजा साहब का स्वागत किया ।
“वैलकम ! वैलकम !” - रणदीवे बोला - “आमद का बहुत बहुत शुक्रिया ।”
“आना ही था ।” - आसपास वालों को सुनाने की गरज से विमल दबंज आवाज में बोला - “अपनी बेटी का मंगल कारज है । कैसे रुक सकते थे ?”
“जी हां । जी हां । आइये, मैं आपको बार में ले के चलूं ।”
“पहले हम वैशाली से मिलना चाहेंगे ।”
“जरूर । जरूर । तशरीफ लाइये ।”
रणदीवे घूम कर हॉल के भीतर की तरफ बढा ।
विमल और इरफान उसके पीछे हो लिये ।
“बाप” - इरफान फुसफुसाता सा बोला - “कहीं पंगा तो नहीं ले लिया ?”
“क्यों ?”
“मुझे अभी दूसरे हॉल की ओर जाता पुलिस कमिश्नर दिखाई दिया था ।”
“तो क्या हुआ ? इतनी बड़ी कम्पनी के चेयरमैन की बेटी की शादी है, पुलिस कमिश्नर क्या, चीफ मिनिस्टर भी इनवाइटिड हो सकता है ।”
“फिर भी....”
“फिर भी ये कि चोर का दिल छोटा ।”
“धीरे । धीरे । बाप, उससे दूर दूर ही रहना - वैसा कोई और भीड़ू दिखाई दे तो उससे भी - और यहां से जल्दी हिलने की कोशिश करना ।”
“ठीक है ।”
हॉल के पिछले कोने में एक ऊंचे प्लेटफार्म पर रखी राजसिंहासन जैसी दो कुर्सियों पर वर और वधू मौजूद थे ।
रणदीवे ने परिचय कराया ।
विमल ने वर से हाथ मिलाया और इरफान से लेकर वधू को तोहफा सौंपा ।
वीडियो और स्टिल कैमरों के लिये विमल कुछ देर वहां रुका, फिर वधू को आशीर्वाद देकर वो नीचे उतर आया ।
“मुझे गेट पर जाना होगा ।” - उसके साथ चलता रणदीवे बोला ।
“कोई मुजायका नहीं ।” - विमल बोला ।
“लेकिन उससे पहले मैं तुम्हें राजेश जठार और मोहसिन खान से मिलवाता हूं ।”
“ठीक है ।”
मोहसिन खान को उतनी भीड़ में तत्काल न ढूंढा जा सका, अलबत्ता जठार जल्दी ही मिल गया जिसके हवाले विमल को करके रणदीवे ने रुख्सत ली ।
जठार ने उसकी बांह में बांह डाली और उसे बार वाले हॉल की ओर ले चला ।
इशारे से विमल को समझा कर, कि वो बाहर दरवाजे पर था, इरफान उससे अलग हो गया ।
“यू आर लुकिंग टैरीफिक ।” - जठार बोला ।
“अच्छा !” - विमल की भवें उठीं ।
“सब की निगाहें तुम्हारे पर हैं । खासतौर से औरतों की ।”
“क्यों ? पहले कभी सरदार नहीं देखा ?”
“इतना सजीला, इतना रौबीला सरदार नहीं देखा ।”
“असलियत पता चल जाये तो चीख मार के दौड़ेगे सब ।” - फिर उसने जठार के स्वर की नकल की - “खासतौर से औरतें ।”
“मजाक मत करो ।”
“ओके ।”
“इस वक्त अमिताभ यहां आ जाये, शाहरूख यहां आ जाये तो वो भी शर्मिदा हो जाये ।”
“आने वाले हैं ?”
“आ जायें । नहीं ठहर पायेंगे तुम्हारे मुकाबले में ।”
“जित्थे पहुंच गये कलगियां वाले धरती नूं भाग लग गये ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तुम्हारी ही बात को अपनी मादरी जुबान में कहा ।”
“ओह ।”
वो दूसरे हॉल में पहुंचे । उन्होंने ड्रिंक्स हासिल किये ।
“चियर्स ! - जठार बोला ।”
“चिसर्स !” - विमल बोला ।
“हल्लो, फैलो डायरेक्टर ।”
“क्या ?”
“बधाई हो ।”
“अरे, भई, किस बात की ?”
“ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्टस के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल होने की ।”
“क्या ?”
“अब तुम भी मेरी तरह ओरियन्टल के डायरेक्टरों में से एक हो ।”
“ऐसा कैसे हुआ ?”
“बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स पर दिवंगत महेश दाण्डेकर की जगह खाली थी, वो जगह भरने के लिये मैंने तुम्हारा नाम प्रोपोज किया, मोहसिन खान ने सैकेंड किया, किसी भी डायरेक्टर ने प्रस्ताव का विरोध न किया, लिहाजा चेयरमैन रणदीवे ने तुम्हें कम्पनी का डायरेक्टर घोषित कर दिया ।”
“ओह !”
“अभी मैनेजिंग डायरेक्टर की - जो कि दाण्डेकर था - पोस्ट खाली है । तुम चाहो तो एम.डी. के लिये कन्टैस्ट कर सकते हो ।”
“पागल हुए हो ! मैं तो डायरेक्टर भी नहीं बनना चाहता ।”
“वो तो अब तुम बन गये । इसी बात पर गिलास खाली करो ।”
विमल ने किया ।
दोंनों ने मेहमानों में घूमते वेटर से नये ड्रिंक्स हासिल किये ।
“वो नीले सूट वाला !” - एकाएक विमल बोला - “सफेद बालों वाला, शख्स कौन है जिस पर दो नौजवान लड़कियां ढेर हुई जा रही हैं ?”
जठार ने उसकी दृष्टि का अनुसरण किया ।
“कुमुदभाई देसाई ।” - फिर वो बोला - “बहुत बड़ा फिल्म फाइनांसर है । कोई घन्टी बजी ?”
“नहीं ।”
“इसी के प्राइवेट याट सी-हाक पर चलती पार्टी में लोहिया समुद्र में गिर कर डूब मरा बताया जाता था ।”
“ओह !”
“राजा साहब !”
विमल ने सकपका कर आवाज की दिशा में देखा ।
उसके पहलू में पाकेट साइज चन्दन जाधव खड़ा मुस्करा रहा था ।
“फैंसी मीटिंग यू हेयर, सर ।” - वो अपनी मुस्कराहट और मुखर करता हुआ बोला ।
“हल्लो ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“जनाब, आप तो वादा करके भी न आये । मैं तो आज भी आपका इन्तजार ही कर रहा हूं” - वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “पटियाला पैग के साथ । हा हा हा ।”
“मिस्टर जाधव, हम जरा एक जरूरी बातचीत में मशगूल हैं इसलिये....”
विमल ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“जी हां । जी हां ।” - वो हड़बड़ा कर बोला - “मैं अभी रुख्सत होता हूं । मैं तो बस जरा हल्लो कहने के लिये....”
“अब हो गयी न हल्लो !”
“जी हां । मैं चला । उधर सी-राक एस्टेट पर बहरामजी की पार्टी में तो बहुत हंगामा....”
विमल ने कहरभरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
“सी यू, सर ।”
फुदकता सा, वो वहां से परे हटा ।
“कौन था ?” - जठार उत्सुक भाव से बोला ।
“चन्दन जाधव नाम है । जोगेश्वरी में स्टड फार्म चलाता है । किसी काम से एक बार इसके स्टड फार्म पर गया था, कम्बख्त कहीं भी मिल जाता है ।”
“ओह !”
“मेरा यहां ज्यादा रुकना ठीक नहीं ।”
“क्यों ?”
“कई पोलें खुलने लगेंगी । ऐसा एक और शख्स भी मुझे वहां दिखाई दे रहा है ।”
“और कौन ?”
“बहरामजी कान्ट्रैक्टर ।”
“वो नेता, जो पहले स्मगलर और कालाबाजारिया होता था ?”
“वही ।”
“तुम उसे भी जानते हो ?”
“जानता नहीं हूं लेकिन दो महीने हुए किसी और वजह से इसकी पोती की शादी की रिसैप्शन की पार्टी में शिरकत करनी पड़ी थी । वहीं आमना सामना हुआ था । जाधव भी उसी पार्टी का जिक्र करने जा रहा था । यहां का महौल मुझे अपने लिये माकूल नहीं दिखाई देता । मुलाहजा मरवा न दे कहीं । जठार साहब, मैं चलता हूं ।”
“मैं तुम्हें एक आदमी से मिलाना चाहता हूं जो कि मुझे अभी दिखाई दिया है । जरा उससे मिल लो, फिर चले जाना ।”
“कौन आदमी ?”
“आओ ।”
दोनों मेहमानों के बीच से गुजरते हॉल के परले कोने पर पहुंचे ।
***
मोटरसाइकल असाधारण रफ्तार से अम्बेडकर रोड पर दौड़ी जा रही थी ।
उसके पीछे एक सफेद मारुति-800 में अलैक्स पिंटो मौजूद था । कार का ड्राइविंग सीट पर उसका ‘कम्पनी’ के सुनहरे दिनों का साथी तान्या था ।
“ये तो रफ्तार बढाये जा रहा है ।” - तान्या चिन्तित भाव से बोला - “ऐसे तो ये हमारे हाथ से निकल जायेगा ।”
“हरगिज नहीं ।” - पिंटो व्याकुल भाव से बोला - “तान्या, ये हाथ से निकल गया तो तू नैक्सट टाइम मेरे को ताबूत में देखेगा ।”
“जल्दी क्या है इसे ? क्यों इतनी तेज दौड़ा रहा है मोटरसाइकल ?”
“आजकल लोगबाग मोटरसाइकल पर सवार हों तो उसे तेज ही दौड़ाते हैं ।”
“क्यों भला ?”
“थ्रिल के लिये । एडवेंचर के लिये ।”
“वो तो तब होता है जब पीछे छोकरी बैठेली हो; छिपकली का माफिक पीठ से चिपक कर ।”
“आदत हो जाती है ।”
“नवीं कार थी भीड़ू के पास । क्यों गैरेज में छोड़ी ?”
“आजकल नवीं कारों में भी डिफेक्ट आ जाते हैं ।”
“ठीक हो जाते हैं ।”
“मेजर डिफेक्ट आ जाते हैं ।”
“वो भी ठीक हो जाते हैं । पण ये अन्धेरी की तरफ तो जा नहीं रहा जिधर कि इसने गाड़ी छोड़ी थी, ये तो अन्धेरी से ऐन उल्टी तरफ जा रहा है ।”
“इधर कहीं काम होगा । वो ट्वन्टी फोर आवर्स गैरेज था, देख लेना आखिर में उधर ही पहुंचेगा ।”
“देखते हैं ।”
“तू ड्राइविंग की तरफ ध्यान दे । वो डाज न दे जाये ।”
“खामखाह ! उसे क्या मालूम हम उसके पीछे लगेले हैं । इतना ट्रैफिक है । क्या पता चलता है ?”
“रफ्तार बढा ।”
“पिंटो, मैं उसके ज्यादा करीब पहुंचा तो नहीं भी लगनी होगी तो उसे हमारी खबर लग जायेगी ।”
“यार, तू जो मर्जी कर पण वो गायब नहीं हो जाना चाहिये ।”
“नहीं होगा । वैसे हो भी जायेगा तो क्या वान्दा है ?”
“क्या बकता है ?”
“अरे, उसकी वैगन-आर खड़ी है अन्धेरी के अवधूत गैरेज में । घर भले ही न पहुंचे, गाड़ी लेने अन्धेरी तो पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा ?”
“वो बाद की बात है, अभी तू पक्की कर कि मोटरसाइकल निगाह से दूर न होने पाये ।”
“अच्छा !”
मोटरसाइकल उस घड़ी फोर्ट के इलाके में दौड़ रही थी और कोलाबा की तरफ बढ रही थी ।
“फिर रफ्तार बढा रहा है ।” - एकाएक तान्या बोला ।
“एक्सीलेटर दे तू भी ।”
“उसे हमारी खबर लग गयी जान पड़ती है ।”
“छोड़ना नहीं है उसका पीछा । क्या ?”
तान्या ने जवाब न दिया, उसने पूरी तवज्जो ड्राइविंग में लगा दी ।
***
जठार हॉल के कोने में जहां जाकर ठिठका, वहां एक बड़ा रौबदार, सख्त चेहरे वाला व्यक्ति धोती कुर्ता और गोल टोपी वाले एक बुजुर्ग से बातें कर रहा था ।
“गुड ईवनिंग, मिस्टर जुआरी ।” - जठार सख्त चेहरे वाले व्यक्ति से सम्बोधित हुआ ।
“जठार साहब !” - जुआरी के नाम से सम्बोधित किया जाने वाला वो व्यक्ति बोला - “कैसे हैं, जनाब ?”
“बढिया । मैं आपको राजा साहब से मिलवाना चाहता था ।”
जुआरी ने एक सतर्क निगाह विमल की तरफ डाली । उसकी भवें उठीं ।
“राजा गजेन्द्र सिंह फ्रॉम रायल फैमिली ऑफ पटियाला, नाओ एन.आर.आई. फ्रॉम नैरोबी ।”
“ओह ! ओह !”
“ओरियन्टल के डायरेक्टर ।”
“डायरेक्टर ।”
“हाल ही में चुने गये । दाण्डेकर की जगह ।”
“आई सी ।”
“प्रेजेन्ट डायरेक्टर एण्ड फ्यूचर मैनेजिंग डायरेक्टर ।”
“ग्रेट ।”
“एण्ड प्रेजेन्ट ओनर ऑफ होटल सी-व्यू ।”
“ग्रेट, सर । देयर आर सो मैनी ऑफ यू एण्ड देयर आर सो फ्यू ऑफ अस ।”
विमल शिष्ट भाव से हंसा ।
कैसी विडम्बना थी ? जिस शख्स से दूर रहने की इरफान उसे खास हिदायत देकर गया था, उसी से जठार उस घड़ी उसे मिलवाने को आमादा था ।
पता नहीं यूं ही या किसी खास वजह से ।
मुम्बई के पुलिस कमिश्नर से विमल पहले से ही बाखूबी परिचित था । वो दिन उसे भूला नहीं था जब एण्टीटैरेरिस्ट स्कवायड का डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय मलाड के एक फ्लैट में से उसे - इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल को - गिरफ्तार करके पुलिस हैडक्वार्टर ले गया था और उसे उसी पुलिस कमिश्नर के सामने पेश किया गया था जो उस घड़ी उसके सामने खड़ा था । तब उसकी दुहाई थी कि वो कोई सोहल नहीं, पेस्टनजी नोशेरवानजी घड़ीवाला नाम का गृहस्थ था जिसकी बीवी का नाम फिरोजा था, जिसके बेटे का नाम आदिल था और जिसकी बेटी का नाम यासमीन था । तब उसकी खुशकिस्मती से और पाण्डेय की बदकिस्मती से ये साबित नहीं हो पाया था कि वो सोहल था और कमिश्नर जुआरी ने खुद उसे वाइज्जत बरी किया था ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह, तू मेरा राखा सबनी थांहीं ।
“मिस्टर कापड़िया” - वो गोल टोपी वाले से कह रहा था - “यूं काइन्डली गैट अलांग । आई विल सी यू लेटर ।”
सहमति में सिर हिलाता गोल टोपी वाला तत्काल वहां से हट गया ।
“और राजा साहब” - जठार बोला - “ये मुम्बई के पुलिस कमिश्नर मिस्टर जुआरी हैं ।”
बड़ी गर्मजोशी का इजहार करते हुए विमल ने कमिश्नर से हाथ मिलाया ।
हाथ मिलाने में कमिश्नर ने भी वैसी ही गर्मजोशी दिखाई ।
विमल को उसकी पकड़ में फौलाद जैसी मजबूती महसूस हुई ।
“आप जरा बातें कीजिये” - जठार बोला - “मैं अभी आया ।”
कमिश्नर ने जठार के वहां से चले जाने तक प्रतीक्षा की, फिर उसने विमल की बांह थामी और उसके साथ भीड़ से जरा परे सरक आया ।
“आई एम वैरी ग्लैड टु मीट यू, राजा साहब ।” - कमिश्नर बोला - “बड़ा अच्छा इत्तफाक हुआ जो यहां आज आपसे मुलाकात हो गयी । सच पूछिये तो मैं खुद आप से मिलना चाहता था ।”
“अच्छा, जी !”
“पिछले दिनों कई सन्दर्भ में आपका नाम बार बार मेरे सामने आया ।”
“अच्छे ही सन्दर्भ में आया न ? किसी ने ये तो नहीं कह दिया कि हम नैरोबी से फरार हुए कोई मुजरिम हैं और आजकल इधर आपके शहर में पनाह पाये हैं ?”
“आप मजाक कर रहे हैं । आप ऐसे शख्स होते तो मिस्टर जठार के दोस्त न होते । तो ओरियन्टल के डायरेक्टर न होते । तो मिस्टर रणदीवे की बेटी की शादी में शरीक न होते । तो मेरे गुफ्तगू न कर रहे होते ।”
“मे बी यू आर राइट लेकिन....”
“सी-व्यू होटल का नाम मैंने नहीं लिया क्योंकि उसकी मिल्कियत पैसे का खेल है जो कोई भी पैसे वाला खेल सकता है ।”
“जनाब, हम आदत से मजबूर हैं ।” - विमल बड़ी निश्छल और बेबाक हंसी हंसता हुआ बोला - “इसलिये मजाक का - बल्कि टुचकर का - कोई मौका नहीं छोड़ते । सरदार जो ठहरे ।”
कमिश्नर भी हंसा ।
“इसलिये छोड़िये वो किस्सा ।” - विमल बोला ।
“और सुनाइये, होटल कैसा चल रहा है आपके जेरेसाया ?”
“ठीक चल रहा है । अभी जुम्मा जुम्मा आठ रोज तो हुए हैं हमें होटल को टेकओवर किये हुए । इतने मुख्तसर अरसे में जैसा चल सकता है, चल रहा है ।”
“आगे क्या उम्मीदें हैं ?”
“उम्मीदें तो बहुत हैं । बाकी वाहेगुरु भली करेगा ।”
“कपिल उदैनिया क्या कहता है ?”
“वो तो बहुत आशावान है । ऐट पार तो उसने होटल की रनिंग को अभी पहुंचा दिया हुआ है, कहता है बहुत जल्द होटल मुनाफा भी कमाने लगेगा ।”
“खुदा न खास्ता, ऐसा न हो पाया तो ?”
“तो छ: महीने की लीज है जनाबेआली, जो नुकसान होगा उसे झेल कर वापिस नैरोबी चले जायेंगे ।”
“असल में क्या इरादे हैं, क्या उम्मीदें हैं ?”
“असल में तो इरादा मुम्बई में सैटल होने का है और उम्मीदें बढिया बिजनेस की हैं लेकिन, गुस्ताखी माफ, आप क्यों इतने सवाल पूछ रहे हैं ।”
“सी-व्यू को टेकओवर करते वक्त आप उसकी बैकग्राउन्ड से, केस हिस्ट्री से, वाकिफ थे ?”
“हां ।”
“जानते थे कि वो गैगस्टर्स का, स्मगलर्स का, आर्गेनाइज्ड क्राइम के बड़े डांज का हैडक्वार्टर था ?”
“हां ।”
“लिहाजा आपको पहले से ही अपने आप पर पूरा एतबार था कि आप एक बदनाम होटल की साख सुधार सकते थे ?”
“हां ।”
“क्यों था ? जबकि होटल की साख पर लगे इन्हीं बद्नुमा दागों की वजह से होटल पर ताला पड़ा हुआ था और ओरियन्टल वाले उसे औने पौने में बेचने का जुगाड़ कर रहे थे ।”
“ये एक मुश्किल सवाल है ।”
“फिर भी जवाब दीजिये । मैं सुनना चाहता हूं । प्लीज ।”
“कमिश्नर साहब, इस मुश्किल सवाल का आसान जवाब तो ये है कि हमारे वाहेगुरु ने हमें प्रेरणा दी, हमें हौसला दिया इस रिस्की बिजनेस में हाथ डालने का ।”
“और मुश्किल जवाब ?”
“वो देना मुश्किल है । उसके लिये हम माफी चाहेंगे ।”
“क्या ये कि पाप के घड़े ने कभी तो फूटना ही था जो कि आखिरकार फूट गया था ? बखिया का चलाया मुगलिया खानदान गजरे पर आकर आखिरकार खत्म हो गया था ?”
“जी ।”
“कहते हैं आर्गेनाइज्ड क्राइम के तमाम बड़े महन्त सोहल नाम के एक इकलौते शख्स ने जहन्नुमरसीद किये । रोग्ज गैलरी में कैसे कैसे ऊंचे नामों का शुमार था । महान राजनारायण बखिया, जान रोडरीगुएज, मुहम्मद सुलेमान, अमीरजादा आफताब खान, पालकीवाला, कान्ति देसाई, शान्तिलाल, मोटलानी, रतनलाल जोशी, इकबालसिंह, मैक्सवैल परेरा, दण्डवते, गोविन्द दत्तानी, व्यासशंकर गजरे, श्याम डोंगरे, कावस विलीमोरिया, रशीद पावले, भाई सावन्त, किशोर पिंगले, दशरथ किलेकर । सब बड़े गैंगस्टर । सब नोन क्रिमिनल्स । इनमें से एक को भी पुलिस हाथ न लगा सकी । लेकिन एक आदमी ने सब को मार गिराया । कितनी बड़ी खिदमत की उसने सोसायटी की ? क्या कहते हैं आप ?”
“हम इतनी बातों से, इतने नामों से वाकिफ नहीं । हम सिर्फ इतना जानते हैं कि हमारे से पहले होटल किन्हीं गलत हाथों में था ।”
“बहुत गलत हाथों में था । इसीलिये ऐसे होटल को टेकओवर करने का आपका हौसला काबिलेतारीफ है । मैं आपकी हौसलाअफजाई के लिये आपसे मिलना चाहता था, आपको ये कहने के लिये मिलना चाहता था कि अपने अभियान में आपको पुलिस की किसी मदद की जरूरत हो तो आप निसंकोच मेरे पास आयें ।”
“मदद के लिये ?”
“जी हां ।”
“जो कि हमें हासिल होती ?”
“यकीनन ।”
“लेकिन आपके मातहत तो हमारे लिये दुश्वारियां पैदा कर रहे हैं ।”
“आपका इशारा डी.सी.पी. डिडोलकर की तरफ जान पड़ता है ।”
“है तो उसी की तरफ ।”
“डिडोलकर बदकिस्मती से अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन इन्स्पेक्टर दामोदर राव से मुझे सब खबर लगी थी ।”
“अच्छा !”
“पुलिस के पास आयी शिकायत भले ही गुमनाम हो, तफ्तीश करनी पड़ती है ।”
“भले ही हासिल कुछ न हो ?”
“जी हां ।”
“शिकायत की तफ्तीश से हासिल कुछ न हुआ, इस बाबत आप जरूर अखबार में इश्तिहार छपवाते होंगे ?”
“जी !”
“और कौन सा तरीका है गुमनाम शख्स को ये खबर पहुंचाने का कि उसकी शिकायत बेबुनियाद पायी गयी थी ?”
कमिश्नर हड़बड़ाया ।
“तफ्तीश पर आया आपका इन्स्पेक्टर भी यही कहता था कि तफ्तीश इसलिये करनी पड़ती है क्योंकि न किये जाने पर गुमनाम शिकायतकर्ता फिर शिकायत कर देता है, ऊपर शिकायत कर देता है, और ऊपर शिकायत कर देता है । हमारा सवाल ये है कि उसे पता कैसे लगता है कि उसकी शिकायत को नजरअन्दाज किया गया और तफ्तीश नहीं की गयी ?”
“भई, कुछ सामने आता है तो उसकी रिपोर्टिंग होती है, प्रैस रिलीज में जिक्र होता है, एफ. आई. आर. दर्ज होती है और गुनहगार पाये गये शख्स पर उचित कार्यवाही की जाती है । जब इतना कुछ होता है तो शिकायतकर्ता तक खबर पहुंचकर रहती है ।”
“कुबूल लेकिन जब तफ्तीश का निशाना शख्स गुनहगार नहीं पाया जाता, जब शिकायत झूठी और बेबुनियाद पायी जाती है तो क्या होता है ? तो इनवैस्टिगेशन रिपोर्ट शिकायत के साथ नत्थी करके दाखिलदफ्तर कर दी जाती है और हमेशा के लिये भुला दी जाती है । गलत कहा हमने ?”
“गलत तो नहीं कहा लेकिन....”
“ऐसी रिपोर्ट की बाबत शिकायतकर्ता को कैसे पता चल सकता है ? आपके पूरी संजीदगी से सब कुछ किये होने के बावजूद वो समझ सकता है कि कुछ न किया गया लिहाजा वो फिर शिकायत कर सकता है, फिर भी होना कुछ नहीं है इसलिये फिर शिकायत कर सकता है । आप कहेंगे जब शिकायत ऊपर होगी, एक्शन टेकन की रिपोर्ट ऊपर पेश कर देंगे लेकिन गुमनाम शिकायतकर्ता को इस बात का भी कैसे पता चलेगा ?”
“आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसी शिकायतों पर गौर नहीं किया जाना चाहिये ?”
“हम कहना नहीं चाहते, हम पूछना चाहते हैं । पूछना चाहते हैं कि क्या शिकायत का गुमनाम होना ही उसकी क्रेडिबलिटी को काम नहीं कर देता ?”
“लोग डरते हैं, खुल कर सामने आने का हौसला नहीं कर पाते इसलिये गुमनाम शिकायत भेजते हैं ।”
“तमाम लोग तो ऐसे न होंगे ?”
“और कैसे होंगे ?”
“शरारती । खुन्दकी । पब्लिसिटी मोंगर्स । रिवेंजफुल । किसी से पंगा लेना हो, उसकी शिकायत कर दो । किसी से खुन्दक निकालनी हो, उसकी शिकायत कर दो । प्रैस में, टी.वी. में अपना नाम चमकाना हो, शिकायत कर दो । किसी से बदला लेना हो, शिकायत कर दो ।”
“दिस इस आकूपेशनल हैजर्ड ।”
“विच कैन नॉट बी ओवरकम ?”
“ऐसा तो नहीं है ।”
“जायज शिकायत पर कार्यवाही होती नहीं, नाजायज को सिर माथे लिया जाता है । जायज शिकायत की एफ.आई.आर. दर्ज कराने को लोगबाग धक्के खाते फिरते हैं, नाजायज में खुद डी.सी.पी. रुचि लेता है और शिकायत हाथ में आते ही वार फुटिंग पर अपने इन्स्पेक्टर को तफ्तीश के लिये रवाना करता है ।”
“मैं समझ रहा हूं कि आपका इशारा किस तरफ है लेकिन जब मास स्केल पर काम होना होता है तो कहीं न कहीं कोई न कोई ऊंच नीच हो ही जाती है । दाल को जितनी मर्जी सावधानी से चुन कर हांडी में डाला जाये, सारे कंकड़ फिर भी हांडी से बाहर नहीं हो पाते । ऐन इसी तरह किसी किसी शिकायत पर कोई कोई एक्शन मोटीवेटिड हो सकता है, या कोई डिसीजन गलत हो सकता है लेकिन अमूमन जो होता है ठीक होता है, जायज होता है, माकूल होता है । दूसरे, गुमनाम शिकायत का दर्जा मुखबिरी का भी होता है और पुलिस का महकमा मुखबिरों के बिना नहीं चल सकता । पुलिस जितना मर्जी ‘आपके साथ - आपके लिये - हमेशा’ का नारा बुलन्द कर ले, वो हमेशा हर जगह मौजूद नहीं हो सकती । दिस इज ह्यूमनली इम्पासिबल । पुलिस पर अक्सर इलजाम लगाया जाता है कि वो हमेशा वारदात हो चुकने के बाद पहुंचती है । आप बताइये, पुलिस को क्या इलहाम होना होता है कि कहीं कत्ल होने वाला है, कहीं घातक एक्सीडेंट होने वाला है, कहीं आगजनी होने वाली है या कहीं दंगा होने वाला है ? नहीं होता । लेकिन फिर होता भी है । कैसे होता है ? मुखबिरी से होता है । और, जैसा कि मैंने पहले कहा, गुमनाम शिकायत भी मुखबिरी की एक किस्म है ।”
“आपके पास गुमनाम शिकायत आये कि दाउद इब्राहीम मुख्यमन्त्री निवास में छुपा हुआ है तो आपकी मजाल होगी जाकर मुख्यमन्त्री के घर के तलाशी लेने की ?”
“नहीं । उल्टे हम उस शिकायतकर्ता को तलाश करके गिरफ्तार करने की कोशिश करेंगे जिसने ऐसी शरारती अफवाह उड़ाने की कोशिश की ।”
“ये फैसला कौन करेगा कि कौन सी बात शरारती है, कौन सी संजीदा है ?”
“पुलिस के आला अफसर ।”
“और उनका फैसला हमेशा सही होता है ?”
“नहीं होता । हो ही नहीं सकता । तमाम सतर्कता और सूझबूझ बरतने के बावजूद कुछ फैसले गलत हो जाते हैं । हम इंसान हैं, कम्प्यूटर तो नहीं हैं ।”
“गलती तो कम्प्यूटर भी कर सकता है ।”
“यू सैड इट, सर ।”
विमल खामोश रहा ।
“मैं आपको एक मिसाल और देता हूं । कितने बम होक्स हैं जिनसे पुलिस को दो चार होना पड़ता है ! आये दिन कन्ट्रोल रूम में खबर आती है कि फलां इमारत में, फलां पार्किंग में, फलां प्लेन में बम लगा हुआ है । पुलिस तफ्तीश के लिये पहुंचती है । कुछ भी नहीं मिलता । अब आप बताइये, क्या पुलिस ऐसी खबरों को नजरअन्दाज करना अफोर्ड कर सकती है ?”
“नहीं ।”
“सो देयर यू आर ।” - कमिश्नर एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “राजा साहब, मैं हैरान हूं कि हमारी मामूली बातचीत बहस मुबाहसे तक कैसे पहुंच गयी ? कब आपने हमें कठघरे में खड़ा कर दिया और खुद इनटैरोगेटर बन गये ?”
विमल हंसा ।
“बहरहाल जो मैं कहना चाहता था वो ये था कि सी-व्यू के टेकओवर और उसकी क्लीन फंक्शनिंग से मैं बहुत खुश हूं । इसके लिये मैं आपको मुबारकबाद देता हूं और अपनी आफर फिर दोहराता हूं कि आपको कभी भी किसी मदद की जरूरत हो तो आप निसंकोच सीधे मेरे पास आयें, मैं आपकी हर मुमकिन खिदमत करूंगा ।”
“थैंक्यू ।”
“रूटीन के तौर पर आपके पासपोर्ट वगैरह के बारे में जो इंक्वायरीज डी.सी.पी. डिडोलकर द्वारा रेज की गयी थीं, उनका जवाब इत्तफाक से मेरे पास आ गया था । मैं खुश हूं कि इस सन्दर्भ में कोई विपरीत परिणाम सामने नहीं आया ।”
“हम आपसे ज्यादा खुश हैं ।”
“सो कनसिडर दैट मैटर क्लोज्ड ।”
“थैंक्यू । आप ड्रिंक नहीं करते ?”
“करता हूं जनाब लेकिन आपकी तरह हाथ में गिलास थाम कर नहीं विचर सकता । कोई तसवीर निकाल लेगा और फिर वो अखबार में छप जायेगी ।”
“ओह ! फिर तो ड्रिंक्स के लिये होटल में आया कीजिये, वहां ऐसा कोई अन्देशा नहीं होगा, हम गारन्टी करते हैं ।”
“थैंक्यू । मैं किसी दिन ये फख्र हासिल करूंगा ।”
“ये हमारे लिये फख्र की बात होगी । हम इसे अपने लिये भारी इज्जतअफजाई समझेंगे ।”
“देखेंगे । एक बात और ।”
“क्या ?”
“होटल सी-व्यू पर आपका कब्जा है, गैंगस्टर्स का हैडक्वार्टर रहा होने की वजह से जो कि हमेशा सोहल का सीधा निशाना रहा था । पता नहीं सोहल को वहां के बदले निजाम और सुधरे माहौल की खबर होगी या नहीं होगी इसलिये हो सकता है कि कभी फिर उसकी नजरेइनायत होटल पर हो और उसे आपसे दो चार होना पड़े । कभी ऐसा हो तो उसे एक पैगाम मेरा भी दीजियेगा ।”
“क्या ?”
“उसे बोलियेगा कि ‘कम्पनी’ के समूल नाश का करिश्माई काम कर दिखाने के लिये पुलिस उसकी अहसानमन्द है । हम खुश हैं कि हमने कान्टे से कान्टा निकलने वाली कहावत चरितार्थ होते देखी ।”
विमल हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
***
मोटरसाइकल एकाएक कोलाबा का रास्ता छोड़ कर बन्दरगाह के इलाके में घुस गयी । बड़े बड़े गोदामों के बीच से गुजरती सड़क पर होती वो फैरी स्टेशन पर पहुंची ।
“आगे तो समुद्र है ।” - तान्या बोला ।
“रुकेगा । या लौटेगा ।”
“पायर की तरफ जा रहा है । मोटरसाइकल समेत किसी स्टीमर पर चढने की फिराक में तो नहीं ?”
“ऐसा हुआ तो मैं तो गया काम से ।”
“मेरे को लगता है उसे हमारी पहले से खबर है ।”
“क्या ? क्या बोला ?”
“हमें कैसे मालूम है कि वो वैगन-आर उसकी अपनी है जिसे उसने गैरेज में छोड़ा और वो उसे लेने अन्धेरी जायेगा ?”
“और किस की होगी ?” - पिंटो घबरा कर बोला ।
“काले चोर की । उसके पास उधार । टैम्परेरी यूज का वास्ते । मालिक गाड़ी अन्धेरी के उस गैराज में छोड़ने को बोला, वो छोड़ा ।”
“वो उधर नहीं लौटेगा ?”
“काहे को लौटेगा ? बाप, तू खुद सोच, जिसके पास कार हो, वो इतना लम्बा लम्बा फासला मोटरसाइकल चलायेगा ?”
“बात तो ठीक है ।”
“अभी वो मोटरसाइकल समेत स्टीमर पर सवार होयेंगा, स्टीमर पायर छोड़ के चल देंगा तो हम क्या करेंगा ?”
“मैं... मैं उस स्टीमर में सवार होऊंगा ।”
“कोई न होने दिया तो ?”
“कम से कम ये तो पता लगेगा कि वो कौन से स्टीमर में सवार हुआ था, फिर उसकी बाबत आगे बॉस लोगों को खबर करेंगे ।”
“पिंटो, ये खबर हमें तभी करनी चाहिये थी जब वो हमें पहली बार दिखाई दिया था ।”
“कोई फायदा न होता । खबर करने का तभी फायदा है जब ये कहीं टिकता दिखाई दे, इतनी देर टिकता दिखाई दे कि कोई सी-व्यू से आकर इसे थाम सके । पण ये तो भटक रहा है । और हमें भटका रहा है ।”
“पायर पर पहुंच गया । आगे डैडएण्ड है ।”
“कोई स्टीमर तो आगे पायर से लगा दिखाई नहीं दे रहा ।”
“होगा । शायद अन्धेरे की वजह से...”
तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी ।
पूरी रफ्तार से पायर पर भागती मोटरसाइकल उसके सिरे पर पहुंची, उसने वहां से यू टर्न लेने की कोशिश की तो वो ड्राइवर के कन्ट्रोल से निकल गयी और पायर का किनारा छोड़ गयी ।
दोनों भौचक्के से वो नजारा देखते रहे ।
एक धड़ाम की आवाज के साथ मोटरसाइकल समुद्र में जाकर गिरी ।
तब तक कार भी पायर के सिरे पर पहुंच गयी थी ।
पिंटो झपट कर कार में से निकला और उसने नीचे समुद्र में झांका ।
जहां मोटरसाइकल गिरी थी, वहां पानी में गोल गोल लहरें उठ रही थीं और उनमें से झाग निकल रही थी ।
“सान्ता मारिया !” - पिंटो के मुंह से निकला - “सान्ता मारिया !”
तब तक तान्या भी कार से निकल कर उसके पहलू में आ खड़ा हुआ था ।
धीरे धीरे लहरें शान्त होने लगीं ।
“वॉट एन एण्ड !” - पिंटो बोला ।
“शेखी में मारा गया ।” - तान्या बोला ।
“मेरी जान बच गयी ।”
“क्या बोला ?”
“क्योंकि ये मर गया । बॉस लोग इसका पता क्यों मांगता था ? इसको खलास करने का वास्ते । खुदीच खलास हो गया । अब मैं ये गुड न्यूज उधर जा के देंगा तो मेरे को पार्डन का रिवार्ड मिलेंगा ।”
“ओह !”
“ऐवरीथिंग हैपंस फार दि बैस्ट । जो हुआ, अच्छा हुआ । चल वापिस ।”
मोटरसाइकल की वजह से समुद्र में उठा लहरों का चक्रवात शान्त हो गया तो आल्डो ने पानी से बाहर सिर निकाला । उसने गहरी सांस ली और फिर डुबकी लगा ली । पानी के नीचे नीचे तैरता वो पायर के उस खम्बे के करीब पहुंचा जिसके साथ पायर से नीचे लकड़ी के डण्डों को रस्सियों में फंसा कर बनायी गयी सीढी लटक रही थी ।
खामोशी से सीढी चढता वो ऊपर पायर पर पहुंचा ।
उसने सावधानी से सिर उठा कर पायर पर झांका तो अपने पीछे लगी मारुति-800 के उसे दूर दूर तक दर्शन न हुए ।
वो पायर पर चढ गया । हैल्मेट और चमड़े की जैकेट उतार कर उसने समुद्र में फेंक दी और आगे बढा ।
पायर के खुश्की वाले सिरे पर एक मारुति वैन खड़ी थी जो कि उसका लक्ष्य था ।
मारुति वैन में उसके पहनने लायक सूखे कपड़े और तौलिया मौजूद था ।
उसने वैन में बैठ कर गीले कपड़े उतारे, तौलिये से अपना जिस्म और बाल सुखाये, बालों में कंघी फिराई और सूखे कपड़े पहने ।
सूखे कपड़े होटल ऐशली क्राउन प्लाजा के स्टीवार्ड की वर्दी थे ।
जहां कि वो सच में ही स्टीवार्ड की नौकरी करता था ।
जहां आजकल उसकी ड्यूटी रात नौ बजे से शुरू होती थी ।
उसने अपनी वाटरप्रूफ घड़ी पर निगाह डाली और फिर होंठों में बुदबुदाया - प्लेन्टी ऑफ टाइम ।
वो वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठा और फिर उसने उसे नरीमन प्वायंट की दिशा में दौड़ा दिया ।
***
“अक्खाह ! ये तो कमिश्नर साहब हैं ।”
दोनों ने घूम कर आवाज की दिशा में देखा ।
एक हाथ में गिलास और दूसरे में सिगरेट थामे बहरामजी कान्ट्रैक्टर उनके सामने खड़ा मुस्करा रहा था ।
“हल्लो !” - कमिश्नर बोला - “कैसे हैं, जनाब ?”
“बढिया ।” - अपना सिगरेट वाला हाथ खाली करके उससे मिलाता बहरामजी बोला ।
“नेतागिरी कैसी चल रही है ?”
“बढिया । कांग्रेस के आठ एम.एल.ए. फोड़ लेने के बाद अब हमारे पास तादाद अड़तीस की हो गयी है ।”
“बधाई ।”
बहरामजी ने विमल की तरफ देखा ।
“इनसे मिलिये ।” - कमिश्नर बोला - “राजा गजेन्द्र सिंह । एन.आर.आई. हैं । नैरोबी से आजकल होटल सी-व्यू ये चला रहे हैं और ओरियन्टल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स पर हैं । बहुत जल्द मुम्बई पर छा जाने वाले हैं ।”
“पालिटिक्स में कदम रखने का इरादा तो नहीं, राजा साहब ?” - बहरामजी बोला ।
“जी नहीं ।” - विमल बोला - “कतई नहीं ।”
“फिर हमें आपके छा जाने से क्या खतरा है ?”
विमल बड़े शिष्ट भाव से हंसा ।
“एक बात है, जनाब ।”
“क्या ?”
“आपका नाम और सूरत दोनों हमें जाने पहचाने लग रहे हैं ।”
“अच्छा !”
“कोई दो महीने पहले एक राजा गजेन्द्र सिंह हमारी पोती की शादी की रिसैप्शन पर मौजूद थे ।”
“जरूर आपके करीबी होंगे ?”
“जी नहीं । हम तो न उन्हें जानते थे, न सूरत से पहचानते थे ।”
“फिर वो आपके फंक्शन में कैसे शिरकत कर पाये ?”
“हैरान है । आज तक हैरान है ।”
“हम वो शख्स नहीं है, न हो सकते हैं ।”
“वो तो जाहिर है । वैसे वो भी एन.आर.आई. थे और नैरोबी से थे ।”
“कैसे मालूम ?”
“बताया था किसी ने । शायद उसी ने जिसने हमारा उनसे तआरुफ कराया था ।”
“किसने ?”
“ये तो याद नहीं । बहुत बड़ी गैदरिंग थी वो । तीन हजार से ऊपर मेहमान जमा थे । ऐसे मैं कहां कुछ याद रहता है ?”
“फिर भी वो शख्स आपको याद रहा ?”
“उसने एकाएक हरकत ही ऐसी की थी कि....”
“हम वो राजा गजेन्द्र सिंह नहीं । नैरोबी में बहुत सिख बसे हुए हैं और गजेन्द्र सिंह सिखों में एक आम नाम है । हम आपको यकीन दिलाते हैं कि इस घड़ी से पहले हमने आपकी कभी सूरत नहीं देखी । वैसे भी हम बहुत करीबी लोगों के शादी ब्याह के फंक्शन में शरीक होते हैं ।”
“लेकिन राजा....”
“हम इसलिये कहलाते हैं क्योंकि हम पटियाले के शाही खानदान से हैं । हमारे पुरखे महाराजा थे ।”
“लेकिन....”
“आप अपना तआरुफ सुलतान बहरामजी कान्ट्रैक्टर कह कर दें तो कोई आपका मुंह पकड़ लेगा ?”
“नहीं, लेकिन....”
“किसी ने उस गजेन्द्र सिंह का भी न पकड़ा जिसने अपना तआरुफ राजा कह कर दिया ।”
“तो आप वो, राजा गजेन्द्र सिंह नहीं ?”
पीछा छोड़, साले ।
“अब क्या लिख कर दें ?”
“आप नाराज हो रहे हैं ?”
“नाराज नहीं हो रहे, खीज रहे हैं । मुश्किल से दो महीने हमें इस शहर में कदम रखे हुए हैं, इतना ही अरसा पहले आप अपनी पार्टी हुई बता रहे हैं । मुम्बई में कदम रखते ही कैसे हम एक ऐसी पार्टी में शिरकत करने पहुंच सकते हैं जिसके मेजबान को न हम जानते हैं, न पहचानते हैं । फिर मेजबान और मेहमान में कोई कायदा, कोई दस्तूर मुकर्रर होता है । मेजबान मेहमान को न्योता देता है । कैसे आप ऐसे शख्स को न्योता दे पाये जिसे आप खुद कहते हैं कि न जानते थे, न पहचानते थे । कैसे हम ऐसे शख्स का न्योता कुबूल कर पाये जिसे न हम जानते हैं, न पहचानते हैं ?”
“वो... वो गेटक्रैशर था ।”
“जी ।”
“सिक्योरिटी के भारी बन्दोबस्त के बावजूद बिन बुलाया पार्टी में घुस आया था ।”
“बहरामजी” - कमिश्नर तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “तुम्हें ये ऐसी हरकत करने वाले शख्स जान पड़ते हैं ?”
“जरूर आप यहां भी हमें गेटक्रैशर ही समझ रहे हैं ।” - विमल बोला - “हम अभी मिस्टर रणदीवे को यहां बुला कर लाते हैं ताकि वो बतौर अपने मेहमान हमारी शिनाख्त कर सकें ।”
“अरे, जनाब, ऐसा हरगिज न कीजियेगा ।” - बहरामजी बौखलाया सा बोला - “हम शर्मिन्दा हैं कि हमारे से आपकी शान में गुस्ताखी हुई । वो जरूर कोई जुदा शख्स था जो इत्तफाक से आपका हमनाम था । लेकिन हम भी क्या करें, उसने हरकत ही ऐसी की थी कि हम को वो आज भी याद आती है तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।
“क्या किया था ?” - कमिश्नर उत्सुक भाव से बोला ।
तभी एक वर्दीधारी स्टीवार्ड उनके करीब पहुंचा ।
“एक्सक्यूज मी, सर ।” - वो अदब से विमल से बोला - “आपका फोन है ।”
“हमारा !” - विमल की भवें उठीं - “राजा गजेन्द्र सिंह का ?”
“जी हां ।”
विमल ने जेब से मोबाइल निकाल कर उस पर निगाह डाली ।
“सर, बेसमेंट है, मोबाइल सिग्नल नहीं पकड़ रहा होगा ।”
“ओह !” - उसने मोबाइल वापिस जेब में डाल लिया - “कहां है फोन ?”
“मेरे साथ आइये, सर ।”
“एक्सक्यूज मी, जन्टलमैन ।” - विमल कमिश्नर और बहराम जी से बोला ।
दोनों के सिर सहमति में हिले ।
वो स्टीवार्ड के साथ हो लिया ।
स्टीवार्ड के पीछे उसने बार वाला हॉल पार किया ।
वो जानता था कि फोन जरूर होटल से शोहाब का था या बाहर से इरफान का था क्योंकि उन दोनों के अलावा किसी को उसकी वहां मौजूदगी की खबर नहीं थी ।
उस हॉल के पृष्ठभाग में एक दरवाजा था जो जिस विशाल कमरे में खुलता था, वो चौड़ाई में हॉल जितना ही था लेकिन लम्बाई में उससे एक बटा चार था और उस घड़ी पैन्ट्री की तरह इस्तेमाल होता जान पड़ता था । वहां अपने अपने काम में मशगूल पांच छ: आदमी मौजूद थे जिनमें से किसी ने विमल की तरफ तवज्जो न दी ।
उस कमरे के पृष्ठभाग में बायें कोने में एक और दरवाजा था जिस स्टीवार्ड ने विमल से पहले उस पर पहुंच कर बड़ी मुस्तैदी से खोला ।
कितने लम्बे बाल रखता था छोकरा ! - विमल मन ही मन बोला - हैरानी थी कि इतने टॉप क्लास होटल में उसको इस बात के लिये कोई टोकता नहीं था ।
उसकी निगाह सामने उठी तो उसको बाहर से ही दिखाई दे गया कि वो दरवाजा एक ऑफिसनुमा कमरे का था । उसने उसके भीतर कदम डाला तो स्टीवार्ड ने हौले से उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
तत्काल पार्टी का शोरगुल वहां सुनाई देना बन्द हो गया ।
सामने ऑफिस टेबल थी जिस पर पड़े टेलीफोन के पहलू में उसका रिसीवर पड़ा था । टेबल पर पहुंच कर उसने रिसीवर उठाया और उसे कान से लगाता बोला - “हल्लो ।”
जवाब मे उसे डायल - टोन सुनाई दी ।
“हल्लो इधर है, डियर ब्रदर ।”
विमल सकपकाया, उसने हौले से रिसीवर क्रेडल पर रखा और वापिस घूमा ।
बन्द दरवाजे के पहलू में एक कुर्सी पर बारबोसा बैठा मुस्करा रहा था । उसके हाथ में एक आटोमैटिक पिस्तौल थी जिसकी नाल का रुख विमल की तरफ था ।
“ओह !” - विमल सहज भाव से बोला - “बारबोसा ।”
बारबोसा के चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“पहचानता है, बाप” - वो बोला - “या अन्दाजा लगाया ?”
“पहचानता हूं ।”
“कैसे ?”
“हमपेशा लोगों को पहचान कर रखना पड़ता है ।”
“हमपेशा !”
“जैसे चोर का गिरहकट ।”
“बाप, जो जुबान बोल रहा है, उससे कुबूल करता लग रहा है कि सोहल है ।”
विमल मुस्कराया ।
बिना विमल पर से निगाह हटाये बारबोसा अपने स्थान से उठा, उसने दरवाजा भीतर से बन्द किया, फिर चार कदमों में उसने अपने और विमल के बीच का आधा रास्ता पार किया और फिर बोला - “पीछे कुर्सी है । बैठ ।”
विमल बैठ गया ।
“दोनों हाथ मेज पर ।”
विमल ने आदेश का पालन किया ।
“सुपारी ली ?” - वो बोला ।
“ये भी कोई पूछने की बात है ?” - बारबोसा बोला ।
“कितनी कीमत लगी मेरी ।”
“मैंने बीस लगाई थी, ‘भाई’ के नाम पर बारह में सैटल किया, फिर पता चला कि राजा साहब तो सोहल है, तो फिर बीस की डिमांड बना ली ।”
“‘भाई’ ने लगाई सुपारी ?”
“हां । नथिंग पर्सनल, ब्रदर । ओनली बिजनेस ।”
“इधर गोली चलायेगा तो निकल पाना मुहाल होगा ।”
“क्यों ?”
“गोली की आवाज बाहर जरूर सुनाई देगी ।”
“मेरा ऐसा खयाल नहीं है ।”
“मेरा ऐसा ही खयाल है । बल्कि यकीन है मुझे ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“मेरे से ज्यादा तजुर्बेकार है, बाप, इसलिये ठीक ही बोलता होगा । मैं अभी इन्तजाम करता है ।”
“क्या ?”
“ये ।”
उसने अपने कोट की जेब में से साइलेंसर निकाला और उसे पिस्तौल की नाल पर चढाने लगा ।
“पूरी तरह से तैयार हो के आया जान पड़ता है ।”
“ऐसीच है, बाप । आखिर बीस लाख का मामला है । अब तेरे को एक मिनट खामोश बैठने का है ।”
उसने जेब से एक तसवीर बरामद की । कई क्षण वो तसवीर पर अंकित सूरत से विमल की सूरत का मिलान करता रहा ।
“कमाल है !” - उसके मुंह से निकला - “ये तो तेरी शक्ल नहीं जान पड़ती ।”
“क्या है ?” - विमल बोला ।
“कैमरे का फोटू है जो मैंने टेलीलैंस से निकाला । राजा साहब का । पण अब तो ये फोटू राजा साहब का नहीं जान पड़ता ।” - उसने तसवीर विमल के सामने मेज पर रखी - “ये कौन है ?”
“मेरे को नहीं मालूम ।”
“पोशाक सेम टु सेम है, ज्वैलरी सेम टु सेम है, दाढी मूंछ भी सेम टु सेम है पण फर्क है । फर्क है ।”
विमल चुप रहा ।
बारबोसा ने जेब से एक दोहरा किया हुआ कागज निकाल कर सीधा किया । उसने उसे तसवीर की बगल में मेज पर रखा ।
“ये इसी सिख भीड़ू की कम्प्यूटर से बनाई क्लीनशेव्ड फोटू है ।” - वो बोला - “इसको पहचानता है, बाप ?”
विमल ने एक सरसरी निगाह शोहाब की शक्ल पर डाली और फिर इंकार में सिर हिलाया ।
“श्योर ?” - बारबोसा बोला ।
“श्योर ।”
“दैट्स टू बैड । बाप, मैं तेरा बिना दाढी मूंछ का चौखटा देखना मांगता है ।”
“क्यों ? दाढी मूंछ पर गोली नहीं चलती ?”
“कहना मान, बाप । मेरे को बहुत सस्पेंस, जो कि मैं दूर होना मांगता है । तू हुज्जत करेंगा तो मेरे को तेरा दाढी मूंछ तेरी लाश पर से नोच कर उतारना पड़ेंगा । इसलिये कहना मान, बाप ।”
“बारबोसा, कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता ।”
वो सकपकाया ।
“और चोरों में भी ईमानदारी का रिश्ता स्थापित होता है ।”
“आनेस्टी अमंग थीव्स !”
“करैक्ट ।”
“बाई लार्ड, ये डॉयलाग मेरे को कोई और भी बोला ।”
“और कौन ?”
“याद करता है । तू दाढी उतार । प्लीज बोलता है, बाप । उतार वरना मेरे को लाश की नाकद्री का नापाक काम करना पड़ेंगा । प्लीज, प्लीज डू इट ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
धीरे धीरे उसने अपना मेकअप उतारा ।
उसका असली चेहरा - प्लास्टिक सर्जरी के बाद का - सामने आया ।
“तू !” - बारबोसा भौचक्का सा बोला - “तू है राजा गजेन्द्र सिंह ?”
“पहचान लिया ?”
“डॉयलाग से घन्टी तो बजी थी भेजे में । पण अब तो सब कुछ ही क्लियर हो गया । चौदह फरवरी । सोमवार । दपोली । होटल मालाबार । बापट और शिन्दे का खास दोस्त ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
“जो मेरे होटल के कमरे में मेरे को बताने आया की बापट की स्कीम बैकफायर कर गयी थी इसलिये मेरा उधर कोई काम नहीं था । मेरा काम, जो कि डिस्टिलरी के एकाउन्टेंट मोघे को खलास करना था । मेरे को लौट जाने का टैन थाउजेंड रूपीज देने का आया । मैं गोद में रिवॉल्वर रख के बैठेला था पण तू बिजली का माफिक अपना गन जेब से निकाला, मैं हाथ भी न हिला पाया कि तेरा गन का नाल मेरा माथे पर । साला क्या बिजली का माफिक रियेक्ट किया ! गन साला दिखाईच तब दिया जब नाल माथे से आ जुड़ा । बाप, तू ? तू सोहल है ?”
विमल हंसा ।
“तू सोहल है या नहीं है, मैं तेरे को नहीं मार सकता ।”
“अच्छा !”
“उधर दपोली में मैं तेरा एडमायरर बना, तेरे को बोला किसी को सुपारी लगाना हो तो बारबोसा को बोलना । अपुन तेरा काम बिना पेटी उठाये फ्री में करेंगा । जिसको इतना बड़ा बोल बोला, उसी को मैं कैसे मार सकता है ?”
“कैसे मार सकता है ?”
“नहीं मार सकता ।”
“ये मेरे लिये अच्छी खबर है लेकिन फिर तेरा क्या होगा, बारबोसा ?”
“मैं सोहल का नाम सुना, बहुत कारनामे सुना, पण उसकी सूरत से वाकिफ नहीं । तू कुबूल करे तू सोहल है तो मैं बोलता है मेरा क्या होगा ?”
“ठीक है । किया कुबूल ।”
“तो मेरा कुछ नहीं होगा । तो मेरे को थोड़ा टेम मुम्बई से गायब होना होगा । बाप, मेरे को मालूम कि ‘भाई’ क्यों तेरे को लुढकाना मांगता है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि तू उसको लुढकाना मांगता है । और मेरे को इधर से” - उसने अपने दिल को छुआ - “आवाज, लार्ड आलमाइटी का, कि तूहीच कामयाब होगा । नाओ आई एम श्योर हिज डेज आर नम्बर्ड ।”
विमल खामोश रहा ।
बारबोसा ने नाल पर से साइलेंसर उतारा और पिस्तौल और नाल को कोट की दो मुख्तलिफ जेबों में डाल दिया ।
विमल की जान में जान आयी ।
“जो मैं अभीच किया” - वो धीरे से बोला - “वो मैं कभी सपने में न सोचा कि मैं करने का था । सुपारी लेकर मुकरना सुपारी किलर का काम नहीं । मेरा ये मूव मेरा धन्धा खलास करेंगा, मेरे को खलास करेंगा पण परवाह नक्को । तू जो आनेस्टी अमंग थीव्स बोला, वो मैं फालो किया । तू उधर दपोली में मेरे को नहीं मारा मैं इधर तेरे को नहीं मार सकता । जो भीड़ू उधर मेरे माथे से गन सटा कर भी मेरा जानबख्शी किया, मैं उसकी जान नहीं ले सकता । मैं अभी जाता है । सेंट फ्रांसिस का विश होयेंगा तो कभी फिर मुलाकात होगी । तेरे को पांच मिनट इधरीच रुकने का है ।”
“दस मिनट रुकना पड़ेगा । मेकअप वापिस चेहरे पर पहुंचाने के लिये ।”
“एक आखिरी बात और । मेर इधर पहुंचने से पहले कुछ भीड़ू मेरे पीछे लगेला था । उनसे पीछा छुड़ाने का वास्ते मैं एक ड्रामा स्टेज किया ।”
“ड्रामा !”
“हां । अब तेरे को रिपोर्ट मिलेंगा कि बारबोसा समुद्र में डूब कर मर गया । पण बारबोसा तो तेरे सामने खड़ेला है । अब तू क्या करेंगा, फिर उनको मेरे पीछू लगायेंगा ?”
“अब क्या जरूरत है ?”
“यहीच बोला मैं । कोई जरूरत नहीं । नो ?”
“यस ।”
“और बारबोसा समुद्र में डूब कर खलास ?”
“यस ।”
“इसीच बात पर जोर रखना है ।”
“ओके ।”
“गुड नाइट ।”
वो वहां से रुख्सत हो गया ।
वाहेगुरु, तेरी कुदरति तू ही जाणहि अऊर न दूजा जाणै ।
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