वो अमरु ही था । जो कि पेड़ की छांव में बैठा सुस्ता रहा था कि उसने मैदान की तरफ से देवराज चौहान, मोना चौधरी और  रुस्तम राव को आते देखा ।

फौरन सतर्क होकर अमरू पेड़ के मोटे तने की ओट में छिपकर उन्हें देखने लगा । इस वक्त वो तना, मात्र दस कदम दूर था, जिसके पीछे अमरु छिपा था । उसने तीनों की बातें सुनी । उसका काम तो देवराज चौहान और मोना चौधरी की खबरों को गुलाबलाल तक पहुंचाना था । परंतु उसके शैतानी (दिमाग) में उल्टी हरकत पहले आई । वो जानता था कि देवराज चौहान (देवा) तिलस्मी हरकतों से नावाकिफ है।

जब मोना चौधरी बाग के तिलस्म को हटाने के लिए व्यस्त हुई तो अमरु ने नीचे से बेहद छोटा-सा पत्थर उठाया और जल्दी से होठों से कुछ बुदबुदाकर पत्थर देवराज चौहान पर फेंका ।

देवराज चौहान को पत्थर लगा तो वो फौरन पलटा ।

अमरु तने के पीछे से निकल आया था । दोनों की निगाहें मिलीं । अगले ही पल देवराज चौहान के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा । वो सब कुछ भूल गया । अपने बारे में हालातों के बारे में किसी भी बात के बारे में कुछ भी याद न रहा । दीवारों की तरह खड़ा रह गया ।

अमरू दबे पांव बे-आहट आगे बढ़ा और पहुंचकर देवराज चौहान का हाथ थामा और होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाया । दूसरे ही पल अमरू और देवराज चौहान जैसे हवा में गुम होते चले गये।

■■■

मोना चौधरी को एहसास न हो पाया कि उसके करीब ही क्या हुआ ?

मोना चौधरी ने ज्यों ही आंखें खोली तो बाग तिलस्म से मुक्त हो गया । उसने अपने हाथों से जमीन को छुआ और उठ खड़ी हुई । तभी कानों में रूस्तम राव की आवाज पड़ी।

"आय, अपुन इधर कैसे आएला । अपुन ने तेरे को बाग में आने के वास्ते बोला था । उसके बाद कुछ भी याद नेई आएला कि क्या होएला ।"

मोना चौधरी मुस्कुराई और बाग में प्रवेश कर गई ।

"मैंने पहले ही कहा था कि बाग में कदम रखते ही याददाश्त गुम हो जायेगी ।" मोना चौधरी बोली ।

"देवराज चौहान किधर होएला ?"

रुस्तम राव की बात सुनते ही मोना चौधरी ठिठकी । वो तो यही सोच रही थी कि देवराज चौहान उसके पीछे आ रहा है । वो फौरन पलटी।

देवराज चौहान अब वहां कहां था ।

रुस्तम राव पास आ पहुंचा ।

"सूं-सूं करने गएला क्या बाप ?"

"वो यहीं था ।" मोना चौधरी के होठों से निकला।

"यां पे कां ?"

एकाएक मोना चौधरी की आंखों से बेचैनी नाच उठी। होंठ भिंच गये। आंखें हर तरफ फिर चुकी थी । परंतु उसे मनचाहा कुछ भी नजर नहीं आया ।

"देवराज चौहान ।" मोना चौधरी पूरे स्वर में चिल्लाई ।

लेकिन कोई जवाब नहीं ।

"किधर को होएला देवराज चौहान ।" रूस्तम राव पुकार उठा ।

जवाब आने का मतलब ही नहीं था ।

मोना चौधरी बाग से बाहर निकली और पैरों के बीच जाकर इधर-उधर  निगाहें घुमाने लगी । परंतु देवराज चौहान पर तो अमरू काबू पाकर उसे गायब कर चुका था ।

"अपुन को पक्का लगेएला कि कोई गड़बड़ होएला है ।" रूस्तम राव चिंता भरे स्वर में कह उठा--- "देवराज चौहान इस मौके पर किधर को भी सरकने का ।"

मोना चौधरी के होंठ भिंचे हुए थे । निगाहें हर तरफ दौड़ रही थी।

"तुम क्या सोचेला ?"

मोना चौधरी ने सोच भरी सख्त निगाहों से रूस्तम राव को देखा ।

"बात बिगड़ चुकी है रूस्तम राव ।"

"अपुन नेई समझेला ।"

"हमारे यहां पहुंचने से पहले ऐसा कोई शख्स यहां मौजूद था, जो तिलस्मी विद्या के साथ-साथ दूसरी शक्तियों का भी मालिक था । वह अपनी शक्ति के बल का प्रयोग करते हुए, देवराज चौहान को चुपके से यहां से ले गया । चूंकि देवराज चौहान तिलस्म से वाकिफ नहीं है, इसलिए वो जो कोई भी है, देवराज चौहान को तिलस्म में कहीं छोड़ देगा ।" मोना चौधरी का स्वर कठोर हो गया था--- "देवराज चौहान को हमसे जुदा करके, हमें कमजोर करने की चेष्टा की गई है ।"

"लेकिन वो कौन होएला ?"

"दालू का आदमी होगा या गुलाब लाल का होगा । परंतु अपनी कोशिश में सफल नहीं हो सकेगा । मैं सारे तिलस्म तोड़ती जा रही हूं । ऐसे में देवराज चौहान का किसी भी तिलस्म में फसना संभव नहीं । अगर वो कहीं फंसा भी तो तिलस्म टूटते ही वो आजाद हो जायेगा।" मोना चौधरी का सोच से भरा स्वर, गुस्से और गंभीरता से भरा था--- "परंतु मेरे सामने अब कई परेशानियां आयेंगी ।"

"कैसे बाप ?"

"रास्ते में कुछ ऐसे तिलस्म भी हैं, जो सिर्फ देवा के या फिर देवा और मिन्नो के नाम से हैं । तिलस्म के उन तालों को देवराज चौहान की मौजूदगी के बिना नहीं तोड़ा जा सकता।"

"फिर क्या होएला बाप ?"

"ऐसे में हम ने दूसरे रास्ते से आगे बढ़ना होगा, जो कि लंबा होगा और तिलस्म से निकलकर महल तक पहुंचने में, एक आध दिन और ऊपर लग सकता है ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"ये तो गड़बड़ होएला ।" रुस्तम राव के होठों से निकला--- "दालू अनुष्ठान को पूरा करायएला और हाकिम नगरी में मौजूद हो जाएला।"

"तुम ठीक कहते हो । लेकिन अब मैं इस बारे में और कुछ नहीं कह सकती । तिलस्म में कई ऐसे रास्ते हैं, जिन्हें तभी पार किया जा सकता है, जब देवा साथ हो । और अब उन रास्तों को छोड़ कर कुछ लंबे रास्ते तय करने पड़ेंगे ।" मोना चौधरी की निगाह पुनः इधर-उधर गई ।

"अब क्या होएला बाप । तिलस्म तो अपुन के लिए पागल खाने से कम नेई होएला ।"

"तुम फिक्र मत करो । मैं सब संभाल लूंगी ।".मोना चौधरी के होंठ भिंच गये।

उसके बाद बाग में मौजूद पेड़ की छांव तले बैठकर दोनों ने खाना खाया। खाने के दौरान उनमें ज्यादा बातें न हुई । मोना चौधरी गहरी सोच में डूबी थी और रूस्तम राव देवराज चौहान के इस तरह गायब हो जाने की वजह से परेशान हो उठा था ।

"जिसने भी देवराज चौहान को गायब किया है ।" मोना चौधरी बोली--- "उसे तुम आसानी से देख सकते थे और मुझे आगाह कर सकते थे अगर तुम बाग में याददाश्त भूल कर उस वक्त भटक न रहे होते ।"

जवाब में रुस्तम राव सिर्फ सिर हिला कर रह गया ।

खाना समाप्त करके मोना चौधरी और रुस्तम राव पुनः आगे बढ़ गये ।

■■■

हरे-भरे जंगल जैसी जगह में अमरु, देवराज चौहान को लेकर पहुंचा । देवराज चौहान अभी भी सुध-बुध खोए हुए था ।

अमरु, देवराज चौहान को वहीं छोड़कर कुछ दूर पेड़ के तने के पीछे जा चुका और नीचे से छोटा-सा पत्थर उठाकर मन ही मन कोई मंत्र पढ़ा और फिर उस पत्थर को देवराज चौहान पर फेंककर तने की ओट में हो गया ।

वो छोटा-सा मंत्र वाला पत्थर देवराज चौहान को लगते ही मस्तिष्क में करंट-सा पैदा हुआ और उसकी सुध-बुध वापस आ गई । खुद को नई जगह पाकर उलझन में भर गया देवराज चौहान । वह समझ नहीं पाया कि यहां कैसे आ गया और मोना चौधरी रूस्तम राव कहां है ?

देवराज चौहान ने इधर-उधर घूम कर देखा । कोई नजर नहीं आया ।

"रूस्तम, मोना चौधरी ।" देवराज चौहान ने ऊंचे स्वर में पुकारा ।

परंतु जवाब कहां से मिलना था ।

अमरू सावधानी से पेड़ की ओट में रहा । देवराज चौहान को नजर नहीं आ सका ।

धीरे-धीरे देवराज चौहान को ध्यान आया कि जब मोना चौधरी बाग का तिलस्म तोड़ने जा रही थी तो पीठ पर कुछ लगने पर जब उसने पीछे देखा तो अमरू को खड़े पाया था और उससे निगाहें मिलने के पश्चात उसे कुछ भी याद नहीं रहा था ।

और अब खुद को यहां पाया ।

देवराज चौहान को समझते देर न लगी कि अमरू ने चालाकी से उसे मोना चौधरी और रुस्तम राव से अलग कर दिया है । पहले भी एक बार अमरू ने उसे गहरे तिलस्म में फंसा दिया था । यह जानने के लिए पढ़ें पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार'।  अब देवराज चौहान के पास आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता, कोई लक्ष्य नहीं था ,कोई मंजिल नहीं थी और यूं रुके रहने से भी कोई फायदा नहीं था, इसलिए सामने जो भी दिशा थी, देवराज चौहान उसी रास्ते पर आगे बढ़ गया।

पेड़ के तने के पीछे छिपा अमरु चेहरे पर जहरीली मुस्कान समेटे देवराज चौहान को दूर जाते देखता रहा । उसके बाद वो स्वयं अन्य दिशा की तरफ बढ़ गया ।

■■■

शुभसिंह प्रताप सिंह और कीरतलाल पर लंबे सफर के बाद थकान हावी हो गई तो वो तीनों छोटे से खंडहर में विश्राम के लिए ठहर गये । गर्मी अवश्य अभी भी थी । परंतु धूप से तो कम-से-कम उन्हें राहत मिली थी ।

"मेरे ख्याल में हम अपना वक्त खराब कर रहे हैं ।" कीरतलाल थके लहजे में कह उठा।

दोनों ने उसे देखा ।

"क्या मतलब ?"

"कुलदेवी से हमारी इस तरह मुलाकात नहीं होने वाली ।" कीरतलाल ने कहा--- "एक तो हमें यह नहीं मालूम कि देवी तिलस्म की कौन-सी परत में है । बेशक देवी इसी परत पर हो परंतु हमें उसकी मौजूदगी का कोई पता नहीं, हमारे पास कोई दिशा ज्ञान नहीं।"

"कीरतलाल की बात तो सही है ।" प्रताप सिंह ने कहा--- "इतने विशाल तिलस्म में हम देवी को कहां पा सकेंगे । जबकि हमें देवी के बारे में कोई खबर नहीं ।"

शुभसिंह ने सोच भरी निगाहों से दोनों को देखा ।

"तुम भी कुछ कहो शुभसिंह।"

"मैं मानता हूं कि इस तरह देवी को तलाश करना असंभव लग रहा है । लेकिन हम और कर भी क्या सकते हैं ।  देवी की तलाश छोड़ दें तो हाथ पर हाथ रखकर बैठ जायेंगे । यूं ही बैठने से तो ये बेकार की भागदौड़ कहीं बेहतर है । शायद कोई फायदा हो जाये ।"

प्रतापसिंह और कीरतलाल ने एक दूसरे को देखा ।

"शुभसिंह भी ठीक कहता है।" प्रताप सिंह ने सिर हिलाया--- "अगर हम इस तरह देवी की तलाशी छोड़ दें तो हमारे पास करने को कुछ भी नहीं रहेगा। बेकार बैठना तो हमें शोभा नहीं देगा।"

"देवी की तलाश करने की हमें कोई और राह ढूंढनी चाहिये ।" कीरतलाल ने कहा ।

"दूसरी कौन-सी राह ?" प्रताप सिंह ने पूछा ।

"यह अब सोचना पड़ेगा ।"

तभी प्रतापसिंह सतर्क-सा हुआ ।

"खंडहर के बाहर से कोई आहट आई है ।" प्रतापसिंह ने कहा ।

"आहट ?" कीरतलाल के होठों से निकला । उसने शुभसिंह को देखा--- "मैंने तो नहीं सुनी ।"

"प्रताप सिंह को शायद धोखा हुआ है ।" शुभसिंह का स्वर सामान्य था।

"धोखा भी हो सकता है ।" प्रतापसिंह उठते हुए बोला--- "मैं बाहर का फेरा लगा कर आता हूं ।" कहने के साथ ही वो पलटा और खंडहर के बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गया।

शुभसिंह और कीरतलाल बातों में व्यस्त हो गये ।

प्रतापसिंह खंडहर से निकला तो तीव्र धूप चेहरे पर पड़ी। एक पल के लिए तो आंखें बंद हो गई । अगले ही पल उसने आंखें खोली और हर तरफ का नजारा लिया । शांत और सुनसान माहौल था । कोई भी शक वाली बात नजर नहीं आई ।

प्रताप सिंह वापस पलटने को हुआ कि उसी पल कमर में खंजर आ लगा।

प्रतापसिंह चौंका ।

"आवाज़ धीमी रखना ।" प्रतापसिंह के कानों में पीछे से स्वर पड़ा--- "वरना बचोगे नहीं प्रतापसिंह ।"

"भैरो सिंह ।" प्रतापसिंह के होठों से निकला--- "मैं तेरी आवाज पहचान गया हूं ।"

"ठीक पहचाना । मुझे नहीं मालूम था कि तू भी तिलस्म में मौजूद है ।" भैरो सिंह का स्वर कानों में पड़ा ।

"तू यहां क्या कर रहा है ?"

"गुलाबलाल के आदेश का पालन कर रहा हूं। शुभसिंह कहां है ?"

"क्यों ?"

"उसने हरीसिंह और गीतलाल की जान ली है । गुलाबलाल का आदेश है कि शुभसिंह को खत्म कर दिया जाये।"

"कहां शुभसिंह और कहां तू ।" प्रतापसिंह का स्वर कठोर हो गया--- "मुकाबला नहीं कर सकेगा उसका ।"

"मेरे वारों को भूल गया क्या ?" भैरो सिंह की खतरनाक आवाज उसके कानों में पड़ी--- "बता शुभसिंह कहां है ?"

"जा ।" प्रतापसिंह जहरीले स्वर में कह उठा--- "खंडहर के भीतर है । मुकाबला कर ले।"

तभी भैरोसिंह ने खंजर की मुठ का वार प्रताप सिंह के सिर पर किया तो वो नीचे गिरता चला गया और अचेत हो गया ।

भैरोसिंह सवा छः फीट लंबा और देखने में शक्तिशाली लगता था । गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूंछें । बदन पर कुर्ता-पायजामा । गुलाबलाल के खास लड़ाकों में से था । भैरोसिंह कमर में चमकती दो धारी तलवार थी और हाथ में खंजर । उसने नीचे पड़े अचेत प्रतापसिंह को देखा पर खंजर को कमर में फंसाकर तलवार निकाली और पलटकर दबे पांव खंडहर के भीतर के तरफ बढ़ने लगा । उसके चेहरे पर कठोरता नजर आ रही थी ।

तलवार इस तरह पकड़ी थी कि फौरन हर तरह का वार किया जा सके।

शुभसिंह ने कीरतलाल से कहा ।

"एक ढंग है, जिससे हम अपनी समस्या हल कर सकते हैं ।"

"कैसा ढंग ?"

"हम तीनों तिलस्म की अलग-अलग परतों में प्रवेश कर जाते हैं । इस तरह देवी से जल्द ही किसी की मुलाकात हो जायेगी।  तीनों साथ रहे तो देवी से मिलने की संभावना कम ही रहेगी ।" शुभसिंह का स्वर सोच से भरा था ।

कीरतलाल ने फौरन सहमति में सिर हिलाया ।

"यह युक्ति मुझे पसंद आई । प्रतापसिंह से बात कर लेते हैं ।" कीरतलाल ने कहा ।

"प्रतापसिंह को भी ये बात पसंद आयेगी ।" शुभसिंह ने विश्वास भरे स्वर में कहा ।

"प्रतापसिंह आया नहीं अभी तक । मैं...।"

कीरतलाल अपने शब्द पूरे न कर सका और उसकी आंखें हैरानी से फैल गई । वो शुभसिंह के पीछे खंडहर हुए इस कमरे के प्रवेश द्वार को देख रहा था।

ये देख शुभसिंह चौंका। वो समझ गया कि कोई अनहोनी होने जा रही है । तभी तो कीरतलाल का पल भर में ये हाल हो गया । शुभसिंह के पीछे आ खड़े हुए भैरो सिंह ने तलवार वाला हाथ ऊपर उठाया । वो शुभसिंह के सिर पर वार करने जा रहा था ।

कीरतलाल इस कदर हड़बड़ाहट और दहशत से भर उठा था कि दो पल के लिए मुंह से आवाज नहीं निकली।  जबकि यही दो पल ही तो कीमती थे । परंतु कीरतलाल के बिना कुछ कहे ही शुभसिंह खतरा भांप चुका था और फुर्ती के साथ गेंद की भांति एक तरफ लुढ़कता चला गया ।

"टन्न !"

भैरों सिंह के हाथ में दबी तलवार शुभसिंह के सिर पर न लगकर शुभसिंह के हटते ही नीचे के फर्श से टकराते हुए, तीव्र आवाज वहां पैदा कर दी। वार खाली जाता पाकर भैरो सिंह तिलमिला उठा । जब संभला तो मुकाबले पर शुभसिंह को खड़े पाया । उसके हाथ पर भी तलवार आ चुकी थी और चेहरे पर मौत के भाव नजर आने लगे थे ।

कीरतलाल जल्दी से उठकर एक तरफ खड़ा हुआ और कटार निकाल ली ।

"रहने दे कीरतलाल ।" शुभसिंह की काली निगाह भैरों सिंह पर थी--- "इसे मैं देखूंगा।"

कीरत लाल ने कटार वापस कमर में फंसा ली। चेहरे पर बेचैनी आ गई थी ।

"प्रतापसिंह के साथ तूने क्या किया भैरो सिंह ?" शुभसिंह गरज कर बोला।

"जिंदा है । बाहर बेहोश पड़ा है।" भैरों सिंह वार करने की मुद्रा में आ चुका था ।

"तो गुलाबलाल ने तुझे भेजा, मेरी जान लेने के लिए ?"

"मेरे जैसे और भी कई आ चुके हैं तिलस्म में, तेरी जान लेने के लिए शुभसिंह । तूने हरीसिंह और गीतलाल की जान लेकर अपनी मौत को बुलावा भेजा है ।" भैरो सिंह दांत भींचकर बोला ।

"अभी मालूम हो जायेगा किसकी मौत आई है ।" शुभसिंह ने पहले जैसे स्वर में कहा--- "कायरों जैसा काम किया है आज तूने। पीठ पीछे से वार करता है।"

"क्या फर्क पड़ता है । ये कोई दंगल तो नहीं, जो सामने से लड़ना है। तेरी जान लेना, मेरा फर्ज है। इसके लिए किसी भी तरह से वार कर दूं, कोई फर्क नहीं पड़ता ।" भैरों सिंह का स्वर वहशी हो उठा।

शुभ सिंह, भैरो सिंह के वार के प्रति सतर्क था ।

"कीरतलाल ।" शुभसिंह ने दरिंदगी से कहा--- "बाहर जा और इसका सिर दफन करने के लिए गड्ढा तैयार कर । इसे अपनी मौत नजर नहीं आ रही है ।"

कीरतलाल अपनी जगह पर खड़ा रहा ।

"जा कीरतलाल ।" भैरो सिंह उसे रास्ता देता कह उठा--- "तैयार कर गड्डा, लेकिन उस गड्ढे में आज शुभसिंह का सिर मैं अपने हाथों से डालूंगा।"

कीरतलाल फौरन बाहर निकल गया । चेहरे पर व्याकुलता नाच रही थी । जानता था कि भैरों सिंह जबरदस्त तलवारबाज है । उसका कोई भी वार शुभसिंह पर कामयाब हो सकता था ।

दोनों ने खूंखार निगाहों से एक-दूसरे को देखा ।

"ले शुभसिंह ।" कहने के साथ ही भैरो सिंह ने तलवार का खतरनाक वार उस पर किया ।

शुभसिंह ने अपने बचाव के साथ उसके वार को रोका ।

दोनों तलवारों के आपस में टकराने पर खंडहर में तीव्र आवाज गूंज उठी । दोनों के चेहरों पर ऐसे भाव थे, जैसे एक दूसरे को यूं ही चबा जायें।

भैरो सिंह ने फुर्ती के साथ दूसरा वार किया ।

इस बार वार इतना खतरनाक था कि शुभसिंह ने फुर्ती से खुद को पीछे हटते हुए, वार से बचाया कि तलवार की नोक चेहरे को हवा देती गुजर गई । कोई और होता तो इस वार से सिर से पांव तक खौफ में डूब जाता, जिसका फायदा भैरो सिंह ने तुरंत दूसरे वार से मार जाता । परंतु वो शुभसिंह था । हाथों-हाथ भैरो सिंह ने जब दूसरा वार किया तो शुभसिंह ने फौरन उसकी तलवार से रोका और पांव की ठोकर भैरो सिंह के पेट पर दे मारी ।

हल्की-सी चीख के साथ भैरो सिंह पीछे हुआ और लड़खड़ाकर नीचे जा गिरा । भैरो सिंह फुर्ती से आगे बढ़ा और तलवार का वार उसके पेट पर किया । परंतु तब तक भैरो सिंह ने लुढकनी ले ली थी । शुभसिंह की तलवार तेज आवाज के साथ खंडहर के टूटे फर्श से जा टकराई।

लुढकनी लेते ही भैरो सिंह ने अपनी टांग तेजी से घुमा दी जो कि शुभसिंह की टांग से वेग के साथ जा टकराई । शुभसिंह लड़खड़ाया । खुद को संभाल न पाने के कारण नीचे जा गिरा और कोहनी फर्श से टकराने पर तेज झटके से तलवार हाथ से निकल गई । परंतु तलवार दोबारा उठाने पर भैरो सिंह ने उसे वक्त नहीं दिया। नीचे पड़े ही पड़े भैरो सिंह ने उस पर तलवार का वार किया तो उस वार से बचने के लिए शुभसिंह को फौरन अपनी जगह छोड़नी पड़ी ।

अगले ही पल दोनों फुर्ती के साथ खड़े हो गये ।

लेकिन शुभसिंह के हाथ में तलवार निकल चुकी थी । वो निहत्था हो चुका था ।

भैरो सिंह का चेहरा क्रूरता से भर उठा था ।

"अब तेरी मौत का वक्त आ चुका है शुभसिंह ।"

"शुभसिंह पर ऐसे मौत के वक्त बहुत बार आये हैं, भैरो सिंह । यह सब मेरे लिए नया नहीं है।"

"इसका मतलब तू अभी भी मुझसे बच सकता है ।"

"हां ।" कहने के साथ ही शुभसिंह ने कमर में फंसी कटार निकाल ली ।

"तलवार का मुकाबला कटार से ।" भैरो सिंह खतरनाक स्वर में बोला--- "खुद को बचाने के लिए अब तो यूं ही हाथ-पैर मार रहा है ।"

तभी कीरतलाल ने भीतर प्रवेश किया । यहां के हालात देखते ही चौंका और फुर्ती के साथ नीचे गिरी शुभसिंह की तलवार उठा ली ।

"बीच में मत आना कीरतलाल ।" शुभसिंह दांत भींचे कठोर स्वर में कहा उठा--- "यह सिर्फ मेरा और भैरो सिंह का मुकाबला है ।"

"तलवार ले ले।" कीरतलाल इस स्थिति में था कि तलवार शुभसिंह के हवाले कर सकता था ।

"नहीं, तलवार लेना मुकाबले में हेराफेरी होगी । गड्ढा तैयार हो गया ?" शुभ सिंह की आंखों में मौत नाच रही थी । चेहरा कठोर हो चुका था ।

"प्रतापसिंह को होश आ गया है । वो गड्ढा तैयार कर रहा है ।" कीरतलाल व्याकुल स्वर में बोला ।

"तू जा मैं अभी इसका सिर लेकर आ रहा हूं ।" शुभसिंह के होठों से गुर्राहट निकली ।

न चाहते हुए भी कीरतलाल तलवार सहित बाहर निकल गया ।

भैरो सिंह मौत से भरे अंदाज में मुस्कुराया ।

"मैं जानता हूं तू बहुत बहादुर है शुभसिंह ।"

"तो फिर तू यह भी जानता होगा कि शुभसिंह अपने दुश्मन का सिर काट कर रहता है ।"

"जानता हूं । परन्तु इस बार ऐसा नहीं होगा ।" भैरो सिंह कहने के साथ ही संभले अंदाज में तलवार थामें धीरे-धीरे शुभसिंह की तरफ बढ़ने लगा ।

शुभसिंह कटार संभाले सावधान हो गया ।

यह निर्णायक क्षण थे ।

तलवार लंबी थी ।  दूर रहकर भी वार किया  जा सकता था । परंतु कटार छोटी थी । उसका वार तभी कामयाब हो सकता था जब सामने वाला करीब हो ।

तभी भैरो सिंह ने तलवार को तेजी से, दायें से बायें घुमाया । अगर वार कामयाब हो जाता तो शुभसिंह का पेट, पीठ तक कट जाता । परंतु शुभसिंह की आंखें भैरो सिंह की आंखों पर लगी थी और उसकी आंखों से ही वो जान गया था कि वो क्या वार करने जा रहा है । वार होते ही शुभसिंह खड़े-ही-खड़े तेजी से कमान की तरह आगे को झुका । कूल्हे पीछे हो गये।  हवा की तरह सनसनाती तलवार, उसके पेट को हवा देखी गुजर गई । परंतु भैरो सिंह को फिर इतना वक्त नहीं मिल सका कि तलवार वाला हाथ वापस ला पाता । तलवार पेट के करीब से गुजरते ही, शुभसिंह ने चीते की तरह भैरो सिंह पर छलांग लगाई और कटार का वार उसकी गर्दन पर कर दिया।

दूसरे ही पल खून के छींटे उसके चेहरे पर आ पड़े।

पैनी धार वाली कटार से पलक झपकते ही भैरो सिंह की आधी गर्दन कट गई थी । वो चीख भी न सका और पीठ के बल नीचे गिरा । तड़पने लगा । नीचे की जगह खून से गीली होने लगी । गला कटा होने की वजह से वो ठीक से चीख भी नहीं पा रहा था।

चेहरे पर मौत समेटे शुभसिंह आगे बढ़ा और नीचे तड़पते भैरो सिंह की गर्दन पर पूरी शक्ति से कटार का वार किया तो तीव्र आवाज के साथ गर्दन धड़ से जुदा हो गई । भैरो सिंह का शरीर जोरों से तड़पा । कुछ उछला, फिर वक्त बीतने के साथ-साथ धड़ की तड़पन कम होने लगी ।

शुभसिंह का चेहरा बेहद भयानक लग रहा था । भिंचे दांत, कठोर चेहरा, जिस पर सुर्ख खून के छींटे चमक रहे थे । आंखों में मौत की चमक भरी पड़ी थी । हाथ में खून से सनी कटार । उसने भैरो सिंह के शरीर से नजर हटाई और आगे बढ़कर भैरो सिंह की कटी गर्दन बालों से पकड़ी और तेज-तेज कदमों से खंडहर के बाहर की तरफ बढ़ता चला गया।

कीरतलाल और प्रतापसिंह चिन्ता की स्थिति में गड्ढा खोदे खड़े थे । दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे । परंतु कुछ कह नहीं पा रहे थे । किंतु जब शुभसिंह को भैरो सिंह का कटा सिर थामें खंडहर से बाहर निकलते देखा तो दोनों के चेहरे चैन से भर उठे । वहां खुशी नजर आने लगी ।

शुभसिंह ने गड्ढे के पास जाकर सिर उसमें डाल दिया और फिर एक तरफ हटकर हाथ जोड़कर होठों-ही-होठों में बुदबुदाया तो ठीक उसके सामने पानी का भरा जग आ गया । शुभसिंह ने हाथ बढ़ाकर जग पकड़ा और खून से सनी कटर साफ करने के पश्चात छींटों से भरा चेहरा साफ करने लगा ।

प्रतापसिंह आगे बढ़ा और छोटे से गड्ढे को पुनः मिट्टी से भरने लगा ।

कामों से फारिग होकर तीनों पुनः इकट्ठे हुए। 

"मैंने सोचा था कि हम अलग होकर तिलस्म की अलग-अलग परतों में प्रवेश करके, देवी की तलाश करेंगे । ऐसे में वो किसी को तो मिलेगी ।" शुभसिंह ने गंभीर स्वर में कहा--- "परंतु अब ये विचार छोड़ दिया है ।"

"क्यों ?" कीरतलाल के होठों से निकला ।

"इसलिए कि हमारी हरकतों की खबर दालू और गुलाबलाल तक पहुंच चुकी है और उन्होंने हमें समाप्त करने के लिए अपने लड़ाके तिलस्म में भेज दिए हैं । जिसमें से एक भैरो सिंह है । दूसरों से भी हमारे शीघ्र ही मुलाकात होगी । इसलिए हमें इकठ्ठे रहकर सावधान रहना होगा।"

"गुलाबलाल को यह नहीं मालूम कि हम दोनों भी तुम्हारे साथ हैं ।" प्रतापसिंह ने कहा ।

"ये बात तुम कैसे कह सकते हो ।"

"इसलिए कि अगर गुलाबलाल को हमारे बारे में मालूम होता तो उसने हमें मारने के आदेश भी दे दिए होते । परंतु भैरो सिंह ने मुझे या कीरत लाल को कुछ नहीं कहा । वो सिर्फ तुम्हारी ही जान लेना चाहता था ।"

"तुम्हारी बात सच हो सकती है प्रतापसिंह ।" शुभसिंह ने कहा ।

"लेकिन हमारी खबर भी कब तक छिपेगी।  हमारे बारे में मालूम होते ही, गुलाबलाल अपने और लड़ाके भेज देगा ।" कीरत लाल बोला ।

"स्पष्ट है कि अब हमारी लड़ाई खुलकर सामने आ गई है ।"  शुभसिंह का स्वर कठोर था ।

"मेरे ख्याल में नगरी से हमें अपने साथियों को इकट्ठा कर लेना चाहिये ।"  प्रतापसिंह बोला ।

"ऐसा भी करेंगे । परंतु पहले मैं हर हाल में देवी को ढूंढना चाहता हूं जो तिलस्म में भटक रही है । पहले जन्म की बातों से अनजान होने की वजह से देवी को मेरी सख्त सहायता की जरूरत है, क्योंकि दालू, देवी की जान के पीछे पड़ा है । मैं नही चाहता कि देवी का कोई अहित हो ।" शुभसिंह के चेहरे पर कठोरता नाच रही थी ।

■■■

देवराज चौहान को चलते-चलते शाम हो गई । कोई भी नजर नहीं आया था । हर तरफ रास्ते और जंगल या फिर बंजर मैदान थे । एक घंटा भर पहले ही बेला के दिए तिलस्मी लकड़ी के छोटे से टुकड़े से खाने का इंतजाम कराकर खाना खाया था । बेला और तिलस्मी लकड़ी के टुकड़े के बारे में जानने के लिए पढ़ें पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज' ।

देवराज चौहान एक बार फिर तिलस्म में फंस कर परेशान हो उठा था । दालू अनुष्ठान कर रहा था हाकिम को बुलाने के लिए । हाकिम कभी भी आ सकता था । उसने मोना चौधरी और उसे खत्म करना था। हाकिम से टक्कर लेने की तैयारी में उसका, मोना चौधरी के पास होना जरूरी था । लेकिन अमरु ने चाल चलकर, उसे मोना चौधरी और रुस्तम राव से अलग कर दिया था। ऐसे में देवराज चौहान समझ नहीं पा रहा था कि मोना चौधरी को कैसे तलाश करे ? उस तक कैसे पहुंचे ?

सूर्य पश्चिम की तरफ झुक चुका था ।

देवराज चौहान कहीं रुकने की सोच ही रहा था कि सामने से उसे एक व्यक्ति पास आता दिखाई दिया । जो कि स्वस्थ था । शक्तिशाली था और कमर में लड़ाई के हथियार लटक रहे थे । देवराज चौहान, उसे अपनी तरफ आते पाकर ठिठक गया । कुछ ही पलों में वो पास आ पहुंचा ।

देवराज चौहान उसे देखते ही पहचान गया । वो पहले जन्म में मोना चौधरी का ही लड़ाका हुआ करता था । परंतु मोना चौधरी यानी कि मिन्नो की मौत के बाद किसी और के पास काम करने लगा होगा।  उसका नाम रामलाल था ।

देवराज चौहान को देखते ही वो चौंका, फिर चेहरा जहरीले भावों से भर उठा ।

"देवा, तू...।"  रामलाल के होठों से निकला ।

"हां रामलाल ।" देवराज चौहान ने उसके चेहरे के भावों से महसूस कर लिया कि उसके इरादे ठीक नहीं है ।

"ओह ! इसका मतलब, तेरे को पहले जन्म की याद आ गई है।  मैंने तो सुना था बीता जन्म तुम भूले हुए हो।"

"अवश्य भूला हुआ था । लेकिन अब सब कुछ याद आ चुका है ।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला ।

"फिर तो तेरे को ये भी याद होगा कि मैं तेरा दुश्मन था ।" रामलाल खतरनाक स्वर में कह उठा ।

"कुछ भी नहीं भूला हूं । लेकिन तू कहना क्या चाहता है ?"

रामलाल ने उसी पल तलवार निकाल ली ।

"देवा, भेजा तो मुझे गया है, शुभसिंह का शिकार करने के लिए, लेकिन...।"

"शुभसिंह तो तेरा साथी होता था रामलाल ।"

"वो तब की बात है, जब तूने देवी की जान नहीं ली थी । देवी की मौत के बाद मैं गुलाब लाल की सेवा में चला गया और शुभसिंह को दालूबाबा ने कैद में डाल दिया था।" रामलाल बोला--- "अब मैं सिर्फ गुलाबलाल का ही हुक्म मानता हूं । उसने मुझे शुभसिंह की हत्या करने के लिए भेजा था।  लेकिन तू भी गुलाब लाल और दालू का दुश्मन तो है ही।  तेरी मौत की खबर सुनकर भी गुलाबलाल खुश ही होगा ।"

देवराज चौहान के दांत भिंच गये ।

रामलाल हंस पड़ा। यूं ही हवा में तलवार लहराई ।

"अब तो तू फंस गया देवा।  तेरे पास कटार ही नहीं कि जिससे डरकर मैं तेरे से टक्कर लेने का ख्याल छोड़ दूं ।"

देवराज चौहान की आंखों में मौत की चमकती लहर उठी ।

"डर लग रहा है ना देवा, मौत से ।"

"हां ।" देवराज चौहान दरिंदगी भरे स्वर में कह उठा--- "बहुत डर रहा हूं मैं मौत के बारे में सोचकर ।"

"मैं नहीं चाहता कि तू ज्यादा डरे ।" रामलाल तलवार लिए एक कदम आगे बढ़ आया--- "तेरे को खत्म करके ये डर भी मैं हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दूंगा ।" कहने के साथ रामलाल ने तलवार का वार किया।

देवराज चौहान ने फुर्ती के साथ हटकर खुद को बचाया ।

रामलाल जहरीले ढंग से हंसा ।

"कब तक बचेगा देवा, मरना तो अब तेरे को पड़ेगा ही ।"

देवराज चौहान की सुलगती निगाह उस पर टिकी रही ।

रामलाल ने तलवार का वार सीधा उसके पेट में किया, घोंपने के लिए ।

उसी पल देवराज चौहान तेजी से उसके ऊपर की तरफ और दोनों पैरों की फ्लाइंग किक उसकी छाती पर मारी । रामलाल के पांव उखड़ गये । तलवार हाथ से छूट गई और वो उछलकर दूर लुढ़कता चला गया । देवराज चौहान अपने पैरों पर वापस खड़ा हो चुका था ।

रामलाल संभल कर खड़ा हुआ । उसकी आंखों में हैरानी भरी हुई थी ।

"ये-ये वार तो गुरुवर ने नहीं सिखाया था । ये...ये तुमने कहां से सीखा ?" रामलाल अजीब से लहजे में कहा उठा--- "मेरी तरह, तुमने भी तो गुरुवर से युद्ध कला की विद्या ग्रहण की थी ।"

"तुम भूल रहे हो रामलाल । मैं मृत्यु को प्राप्त होकर, दोबारा जन्म लेकर लौटा हूं । पृथ्वी से आया हूं । लड़ाई का ये तरीका पृथ्वी पर चलता है।" कहने के साथ ही दांत भींचे देवराज चौहान आगे बढ़ा और रामलाल को संभालने से पूर्व ही, हाथ को कैरेट चाप की शेप देकर उसकी गर्दन पर मारा।

'कड़ाक' की तीव्र आवाज उभरी और रामलाल की गर्दन एक तरफ झूल गई । वो कटे पेड़ की तरह नीचे जा गिरा । एक ही बार में खत्म हो चुका था । देवराज चौहान के चेहरे पर अभी भी दरिंदगी नाच रही थी । वो नीचे झुका । रामलाल के कमर में फंसी कटार निकाली और आगे बढ़ता चला गया ।

■■■

रात का गहरा अंधेरा सिर पर सवार होने वाला था।  दिन का उजाला और रात का अंधेरा मिल रहा था । ठीक इसी समय देवराज चौहान चलते-चलते ठिठका । चेहरे पर सावधानी आ गई । दूसरे ही पल कमर में फंसी कटार हाथों में फंसी नजर आने लगी।

हर तरफ गहरी खामोशी छाई हुई थी, परंतु उसके कान धोखा नहीं खा सकते थे । उसने आहट सुनी थी । एक बार दाईं तरफ से तो दूसरी बार बाईं तरफ से । परंतु वो समझ नहीं पाया कि दोनों तरफ कोई है, या दाईं तरफ वाला ही बाईं तरफ आया है ।

कटार थामे देवराज चौहान उसी मुद्रा में खड़ा रहा । एक बार भी उसने दायें-बायें या फिर पीछे देखने की चेष्टा नहीं की थी।  वह  देवराज चौहान था तो देवा भी था । उससे बड़ा कटार का खिलाड़ी पूरी नगरी में नहीं था । कटार हाथ में होती थी तो कोई उसे छू भी नहीं सकता था और उससे पहले ही उसकी जान चली जाती थी ।

तभी पीछे से आहट उभरी, जैसे कोई दबे पांव उसके करीब आने की चेष्टा कर रहा हो ।

देवराज चौहान ने अपनी सांसें रोक ली, ताकि पीछे से आती बे-आवाज, आवाज को महसूस कर सके । आंखें सामने देख रही थी परंतु मस्तिष्क, कान, सारी इंद्रियां जैसे पीछे ही देख-सुन रही हों । पीछे से अपनी तरफ बढ़ती  खामोश आवाज को वह बखूबी महसूस कर रहा था ।

एक पल बीता ।

दूसरा भी बीता ।

न सुनाई देने वाली आहट को देवराज चौहान अपने बेहद करीब महसूस कर रहा था । ठीक तभी उसे पीछे से दबी-सी गहरी सांस लेने की आवाज आई । स्पष्ट था कि उस पर वार किया जा रहा है ।

बिजली की-सी तेजी से देवराज चौहान का कटार वाला हाथ सिर के ऊपर उठा और फिरकी की भांति, तीव्र गति से घूमा । उसी पल ही लोहे के टकराने की तेज आवाज आई।

हाथ में दबी कटार में तलवार फंसी थी, जो कि उसकी गर्दन को काटने जा रही थी । देवराज चौहान ने कटार को खास अंदाज में झटका दिया तो वो तलवार चंद कदम दूर जा गिरी । इसके साथ ही चेहरे पर दरिंदगी समेटे देवराज चौहान पलटा ।

तो सामने प्रतापसिंह को हक्के-बक्के खड़े पाया ।

देवराज चौहान की आंखें सुर्ख-सी हो रही थी ।

"क...कौन हो तुम । इस तरह कटार चलाने में तो देवा ही मास्टर था । तुम-तुम देवा ही हो । तुम...।"

मौत के लम्हों में डूबा देवराज चौहान उसका पेट फाड़ने के लिए कटार, वाला हाथ उठाने ही जा रहा था कि उसके कानों में तीव्र आवाज पड़ी ।

"देवा, रुक जाओ देवा ।"

देवराज चौहान के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा । दो पल के लिए उसे लगा जैसे वो कहीं और चला गया था और अब वापस लौट आया हो । कटार वाला हाथ वहीं थम गया । मौत के भाव चेहरे पर से कम नहीं हुए थे । प्रताप सिंह अभी तक ठगा-सा खड़ा था ।

देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर आवाज की तरफ देखा ।

कुछ फासले पर शुभसिंह और कीरतलाल नजर आये, जो तेजी से उसकी तरफ बढ़ रहे थे ।

देवराज चौहान आंखें सिकोड़े उन्हें देखता रहा ।

"तुमने हमें पहचाना, देवा ?" शुभसिंह के चेहरे पर खुशी के भाव थे ।

"शुभसिंह, कीरतलाल, प्रतापसिंह ।" देवराज चौहान ने भिंचे होठों से कहा ।

"हां देवा, हां । हम वही हैं जो और क्षमा चाहते हैं कि हमसे तुम्हारी जान लेने की भूल हुई । हमारे मन में तुम्हारे प्रति कोई द्वेष भावना नहीं है ।" शुभ सिंह ने नरम स्वर में कहा ।

"तो फिर मेरी जान लेने की कोशिश क्यों की गई ?" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा ।

"भूलवश ऐसा हुआ । हमने समझा तुम गुलाबलाल के कोई आदमी हो । चेहरा हम तुम्हारा देख नहीं पाये थे और मैंने प्रतापसिंह को तुम्हारी गर्दन उड़ाने के लिए भेज दिया ।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया ।

"मैं भी इसे गुलाबलाल का आदमी समझ कर मारने जा रहा था ।" देवराज चौहान बोला ।

"क्या मतलब ?" शुभसिंह के होठों से निकला ।

"गुलाबलाल का आदमी रामलाल मुझे मिला था, जो कभी तुम लोगों का ही साथी हुआ करता था । उसी ने बताया कि अब वो गुलाबलाल की सेवा में है । ये कटार उसी की है ।"

"ओह, इसका मतलब तुमने...तुमने रामलाल को खत्म कर दिया ।"

"हां, क्योंकि वो मुझे खत्म करने जा रहा था ।" देवराज चौहान के चेहरे पर छाई कठोरता कम होने लगी ।

"दालू और गुलाबलाल ने मिलकर नगरी को तबाह कर रखा है ।"

"ये दोनों ही मिन्नो की देन थे शुभसिंह । उसका किया ही सामने आ रहा है ।" देवराज चौहान ने कहा और कटार वापस कमर में फंसा ली ।

"हां, देवा से गलती तो कुछ हुई ।" शुभसिंह ने गहरी सांस ली--- "सच पूछो तो तब जो देवी के खास बनते थे उन्होंने ही देवी की मृत्यु के पश्चात हर चीज पर अपना अधिकार...।"

"तुम लोग तिलस्म में क्या कर रहे हो ?" देवराज चौहान ने उसकी बात काटकर पूछा ।

दो पल के लिए शुभसिंह चुप हो गया ।

प्रतापसिंह अब तक खुद को संभाल चुका था ।

"देवा, तुम्हें पूर्व जन्म की सब बातें कैसे याद आई और अब तुम्हारे मन में देवी के प्रति क्या भावना है ?"

"मुद्रानाथ ने सब कुछ याद दिलाया और मिन्नो के लिए मेरे मन में कुछ भी नहीं है । अपनी शंका दूर कर दो । पहले जन्म की बातें, पहले जन्म के साथ खत्म हो गई थी ।" देवराज चौहान शांत भाव में मुस्कुरा पड़ा ।

शुभसिंह भी मुस्कुराया।

"देवा ने अपने मुंह से इतना कह दिया । मेरे लिए यही बहुत है ।" कहने के पश्चात शुभसिंह गंभीर हो गया--- "सच बात तो यह है देवा कि वो तिलस्म में भटक रही है । एक बार वो मुझे मिली थी । उसे कुछ भी याद नहीं । जबकि देवी की जान खतरे में है । दालू और गुलाबलाल देवी को कुछ याद आने से पहले ही खत्म कर देना चाहता है ताकि नगरी वालों के सामने न जा सके या फिर...।"

"तुम्हें इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं शुभसिंह । मिन्नो को सब कुछ याद आ चुका है ।"

"सच ?" शुभसिंह, प्रतापसिंह और कीरतलाल के चेहरे खिल उठे ।

"हां, मैं मिन्नो के साथ ही था, दोपहर तक ।" देवराज चौहान ने कहा--- "त्रिवेणी भी हमारे साथ था। उसे भी सब कुछ याद आ चुका है । परंतु मौका पाकर अमरू ने चुपके से मुझ पर कब्जा करके मिन्नो और त्रिवेणी से अलग करके, यहां छोड़ दिया । इस तरह मैं उनसे बिछड़ गया ।"

"ओह ! अमरु तो अपनी शातिर चालें चलने में माहिर है।"  शुभसिंह के होठों से निकला--- "देवी तिलस्म की किस तह में है । हम देवी को ही तलाश कर रहे हैं ।"

दो पल की सोच के बाद देवराज चौहान ने कहा ।

"लगता है शुभसिंह तुम लोगों को ताजा हालातों की खबर नहीं है । दालू अनुष्ठान शुरू कर चुका है, हाकिम को बुलाने के लिए और...।"

"हाकिम ?" कीरतलाल चौंका ।

शुभसिंह के माथे पर बल पड़ गये।

"दालू, हकीम को बुला रहा है ।" प्रतापसिंह के होठों से निकला--- "क्यों ?"

"क्योंकि दालू हर हाल में मिन्नो और मेरे को खत्म कर देना चाहता है । उसके आदमियों को तिलस्म में  ठीक तरह से कामयाबी नहीं मिल रही, हमें खत्म करने की । इसलिए वो हाकिम को बुलाकर पक्के तौर पर अपनी जीत दर्ज करा लेना चाहता है । जबकि मिन्नो तिलस्म की जिस राह से गुजर रही है, उस जगह पर मौजूद तिलस्म को खत्म करती जा रही है और दालू कभी भी पसंद नहीं करेगा कि तिलस्म तबाह हो। उसे तिलस्म बनाने में दोबारा मेहनत करनी पड़ेगी ।"

'यह तो बहुत बुरी खबर है कि दालू हाकिम को बुला रहा है ।" शुभसिंह चिंतित स्वर में कह उठा--- "सब जानते हैं कि हाकिम को अमरत्व प्राप्त है । उसे मारा नहीं जा सकता और...।"

"हाकिम को खत्म करने की तरकीब, मिन्नो के पास मौजूद एक किताब में दर्ज है । जो किताब उसके महल में कहीं है। मिन्नो उसी किताब को लेने के लिए, तिलस्म से महल की तरफ बढ़ रही है । वो किताब हाथ में आ जाए तो हाकिम का मुकाबला किया जा सकता है।"

"देवी, अपने महल की तरफ जा रही है ।" शुभसिंह के होठों से निकला ।

"हां ।"

"फिर तो हमें तुरंत महल पर पहुंचना चाहिये, शुभसिंह ।" कीरतलाल ने कहा--- "इस तरह तो आसानी से, देवी से मेल हो जायेगा ।"

"तुम ठीक कहते हो ।" शुभसिंह सोच भरे स्वर में सिर हिलाया ।

"महल यहां से कितनी दूर है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

क्षणिक सोच के बाद शुभसिंह ने कहा ।

"पश्चिम दिशा की तरफ मात्र तीन घंटे बढ़ना होगा कि हम तिलस्म से निकलकर, देवी के महल के करीब पहुंच जायेंगे । यानी कि कुल मिलाकर हम चार घंटों में देवी के महल में होंगे।"

"रात के अंधेरे में सफर करने में कोई परेशानी तो नहीं ?" देवराज चौहान ने पूछा।

"मैं तिलस्म के जर्रे-जर्रे से वाकिफ हूं । इसलिए किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी ।" शुभसिंह ने कहा--- "दालू को अनुष्ठान आरंभ की कितनी देर हो चुकी है देवा ?"

"कह नहीं सकता । लेकिन जो खबर मुझ तक पहुंची है । उसे सामने रख कर सोचूं तो दो दिन हो गये होंगे ।"

"ओह !" शुभसिंह ने चिंता से सिर हिलाया--- "सुन रखा है कि हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान का अधिकतम पूर्ण समय तीन दिन का है । मतलब कि हाकिम के प्रकट होने में मात्र एक दिन बचा है । अब अंधेरा हो चुका है । यानी कि कल इस वक्त हाकिम इस नगरी में मौजूद होगा ।"

"ये तो बुरा बहुत बुरा हुआ।" प्रतापसिंह कह उठा--- "हाकिम के जुल्मों का अंत नहीं । नगरी वाले एक बार फिर खौफ के साये में जीने को मजबूर हो जायेंगे ।"

"हमें जल्दी से महल की तरफ रवाना हो जाना चाहिये । जहां देवी से मेल हो सके ।"

"अवश्य ।" कहने के साथ ही शुभसिंह ने देवा को देखा--- "खाने-पीने के लिए किसी चीज की जरूरत हो तो...।"

"अभी नहीं ।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैं महल में पहुंचकर ही आराम करूंगा ।"

"तो चलो, हम आधी रात तक देवी के महल में पहुंच जायेंगे ।"

उसके बाद देवराज चौहान, शुभसिंह, कीरतलाल, प्रतापसिंह तेजी से पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ गये।  हर तरफ रात का गहरा अंधकार छा चुका था । शुभसिंह सबसे आगे बढ़ रहा था । इसलिए उसके पीछे चल रहे तीनों को आगे बढ़ने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी ।

■■■

अग्निकुंड में से आग की तेज लपटें आसमान की तरफ उठ रही थी।

वातावरण में मन को लुभाने वाली सुगंध मौजूद थी।  चंदन की लकड़ी जलने की महक । सामग्री के और लोबान के अलावा, शुद्ध घी की महक ।

और इन सब के साथ दालूबाबा के किताब पढ़ने का मध्यम स्वर गूंज रहा था । केसर सिंह बड़े से थाल से अग्निकुंड में वक्त-वक्त पर सामग्री और प्यालों में मौजूद लहू के छींटे डाल रहा था।  पास में बैठा सेवक पीपों से भरा शुद्ध घी, अग्निकुंड में बाकायदा डाल रहा था ।

ये सिलसिला दो दिन से बदस्तूर जारी था परंतु किसी के चेहरे पर थकान नहीं थी । दालूबाबा जिस किताब को पढ़ रहा था, वो दो तिहाई समाप्त हो चुकी थी।  अनुष्ठान पूरा होने में तीसरा और आखिरी दिन बचा था । सारा काम सिलसिलेवार हो रहा था ।

महाजन, जगमोहन, पारसनाथ, सोहनलाल, कर्मपाल सिंह और बांकेलाल राठौर की स्थिति में कोई फर्क नहीं आया था।  महाजन पिंजरे में कैद विवशता और गुस्से में डूबा हुआ था।  रह-रह कर वो दालू को गालियां देने लगता, थक जाता तो नीचे बैठ जाता ।

उसके चिल्लाने से, गालियां देने से अनुष्ठान पर कोई। असर नहीं पड़ा था ।

बाकी सब उसी तरह नीचे बंधे पड़े थे ।

समय-समय पर सेवक आते और उन्हें खाना-पीना दे देते । यह काम इस कदर खामोशी से होता कि दालू के अनुष्ठान पर कोई असर नहीं पड़ता । खुद को इतनी लंबी स्थिति में बांधे पाकर वो सब हद तक परेशान हो चुके थे, परन्तु चाह कर भी कुछ कर पाने में असमर्थ थे ।

"हरामजादे दालू ।" एकाएक महाजन चीख उठा--- "साले एक बार मुझे पिंजरे से निकाल । उसके बाद देख तेरा क्या हाल करता हूं । कुत्ते से भी बुरी मौत मारूंगा तुझे। तेरी लाश पूरी नगरी में घुमाऊंगा।  घसीटकर ताकि तेरे जैसे हरामजादे का बुरा अंत हर कोई देख सके ।"

महाजन का इस प्रकार चिल्लाना, गालियां देना अब सामान्य बात हो चुकी थी, दालू के लिए शुरू-शुरू में दालूबाबा को महाजन की बातों से कुछ परेशानी अवश्य हुई थी । परंतु उसने अपना ध्यान किताब पढ़ने में ही लगाये रखा । अनुष्ठान में वो किसी भी तरह की बाधा डालना नहीं चाहता था।

तभी सोहनलाल कह उठा ।

"चिल्लाकर क्यों अपना गला खराब करता है । दालू पर तेरी बात का कोई असर नहीं होने वाला ।"

महाजन पिंजरे में बंद गुर्राकर रह गया ।

"म्हारे हाथ-पांव नहीं खुल रहे ।" बांकेलाल राठौर गुस्से से कह उठा--- "मूंछ पर बल देने की बोत मन करे हो ।"

"ये तुमने मुझे यहां कहां ला फंसाया ?" कर्मपाल सिंह ने जगमोहन से कहा ।

"तुम्हें तुम्हारे लालच ने फंसाया है ।" जगमोहन बोला--- "यहां लाने से पहले फकीर बाबा ने पूछा भी था कि जो वापस जाना चाहता है, जा सकता है । लेकिन तुम नहीं गये। यह जानने के लिए पढ़ें 'जीत का ताज' ।

"तब मुझे क्या मालूम था कि यहां ऐसी मुसीबतें होंगी ।" कर्मपाल सिंह भरे स्वर में बोला।

सोहनलाल ने पारसनाथ को देखा ।

"तुम हम सबसे ताकतवर हो । अपने बंधन नहीं तोड़ सकते क्या ?"

सोहनलाल की बात पर पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभरी ।

"बंधन इस तरह बांधे गये हैं कि करवट लेना भी कठिन हो जाता है ।" पारसनाथ ने कहा--- "फिर भी मैं हर तरह से कोशिश कर चुका हूं । ये बंधन नहीं खोले जा सकते।"

महाजन ने फकीर बाबा के दिए सिक्के के द्वारा व्हिस्की की बोतल हासिल की और एक ही सांस में आधी खाली कर दी । वो सिर से पांव तक गुस्से में सुलगा हुआ था क्योंकि पूर्वजन्म की बातें उसे पूरी तरह याद आ चुकी थी। दालू के सारे कर्म उसके मस्तिष्क में आ चुके थे । दालू के प्रति वो नफरत और गुस्से से भरा पड़ा था ।

"इसो का मतलब, यां से बचने का कोई रास्ता भी न हौवे ।" बांकेलाल राठौर कह उठा ।

"इन हालातों में तो यही नजर आता है ।" जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा ।

"म्हारे को एक मौका मिल्ले तो इसो हरामी को वड के, इसो अग्निकुंडों में डाल दयो।"

"अब वही एक मौका ही तो नहीं मिलने वाला बांके ।"  सोहनलाल गहरी सांस लेकर बोला ।

तभी महाजन गला फाड़कर चिल्ला उठा।

"दालू...दालू...दालू ...।" महाजन के चिल्लाने में बेबसी झलक रही थी ।

तभी सब चौंके ।

उधार दालू, केसरसिंह और सेवक ने भी देखा तो उनके चेहरे पर अजीब से भाव प्रकट हो गये।  परंतु दालूबाबा ने किताब की पाठन क्रिया को जारी रखा । केसर सिंह और सेवक को भी इशारा कर दिया कि किसी भी हालत में वे अपनी क्रिया को न रोके और दोहराते रहे । दालू नहीं चाहता था कि किसी भी कीमत पर अनुष्ठान में बांधा पड़े और दो दिन की मेहनत बेकार हो जाये।  परंतु दालू के चेहरे पर आवेश और क्रोध की रेखाएं स्पष्ट नजर आने लगी थी। किताब पढ़ने का लहजा भी तल्ख हो गया था।

वो फकीर बाबा ही था जो अचानक वहां प्रकट हो गया था । उसके वहां आने की आशा कोई भी नहीं कर सकता था । खासतौर से दालू तो सोच भी नहीं सकता था । परंतु उसे इस तरह वहां प्रकट होते पाकर उसको समझने में देर नहीं लगी थी कि पेशी ही गद्दार है, जिसके बारे में जानने की चेष्टा वो कर रहा था कि इन लोगों को पाताल नगरी में कौन लाया ?

फकीर बाबा को देखते ही महाजन पागलों की तरह चीख उठा।

"पेशीराम। देख इस कुत्ते की करतूत । ये दगाबाज कमीना ही नहीं, हर दर्जे तक गिरा हुआ भी है । इसने मिन्नो की अमानत पर अपना अधिकार जमा लिया । अमानत वापस न देनी पड़े, इसके लिए हाकिम को बुला रहा है कि मिन्नो और देवा को खत्म करके सारे झंझट ही डाल दे ।" महाजन के शब्दों में आग थी--- "देख पेशीराम, इसी ने मिन्नो के कानों में नफरत का घी डाला था । उसी की वजह से तबाही मची थी । झगड़ा बढ़ा था । तू तो गवाह है इन सब बातों का । तेरी बातों ने भी तो लड़ाई को बढ़ावा दिया था । परंतु तू पछतावे पर आ गया तो तेरी सारी गलतियां माफ हो गई । लेकिन ये हरामजादा तो अब पहले से भी चार कदम आगे बढ़ चुका है । देख ले पेशीराम । दालू ने कोई कसर नहीं छोड़ी और भी तबाही पैदा करने के लिए । कुत्ता, अब हाकिम को बुला रहा है ।" गुस्से में कहने के साथ ही महाजन चुप हुआ और गहरी-गहरी सांसे लेने लगा ।

पेशीराम के चेहरे पर गंभीरता थी और आंखों में व्याकुलता नजर आ रही थी ।

दालूबाबा जाने कैसे ये सब बर्दाश्त करते हुए अनुष्ठान को जारी रखने के लिए पाठन क्रिया में व्यस्त था ।

फकीर बाबा आगे बढ़ा और उनके पास पहुंचकर ठिठका।

"बाबा, ये कां ला फसायो तन्ने म्हारे को कि मूंछ पर बल भी न दयो जा सको ।"

बाबा ने आंखें बंद की और पल भर के लिए कुछ बड़बड़ाया तो उसी पल सब के बंधन खुल गये ।

टूटे-थके शरीर के साथ वो धीरे-धीरे उठने लगे । दो दिन में उनके बुरे हाल हो गये थे ।

फकीर बाबा ने आंखें खोली । महाजन को देखा जो अभी तक पिंजरे में बंद था ।

ये सब देखकर किताब पढ़ते दालूबाबा की आंखें और सुर्ख हो उठी।

खड़े होने के पश्चात पारसनाथ ने खुद को संभाला फिर अनुष्ठान में व्यस्त दालूबाबा की तरफ बढ़ने लगा तो फकीर बाबा ने उसे रोक दिया ।

"नहीं परसू, मेरे से पूछे बिना कुछ नहीं करना ।"

"लेकिन...।" पारसनाथ ने कठोर स्वर में कहना चाहा ।

"इस वक्त मैं जो कह रहा हूं, वही करो ।"

पारसनाथ ने आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दिया ।

फकीर बाबा ने सबको देखा ।

"कोई भी दालू की तरफ नहीं जायेगा ।" कहने के साथ ही बाबा आगे बढ़ा और पिंजरे में बंद महाजन के पास जा पहुंचा--- "मेरा हाथ पकड़ नीलसिंह ।"

महाजन ने एक हाथ सलाखों वाले पहरे से बाहर निकाला और फकीर बाबा का हाथ थाम लिया । दूसरे हाथ में आधी खाली बोतल थी । वो गुस्से से भरा पड़ा था ।

"तुम सब मेरे पास आओ और मुझे छूकर खड़े हो जाओ।"

बाकी सब करीब आये और फकीर बाबा को छूकर खड़े हो गये ।

फकीर बाबा ने आंखें बंद की और अगले ही पल होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाया । अगले ही पल, पलक झपकते ही फकीर बाबा सहित वो सब वहां से अदृश्य हो गये । महाजन भी अब पिंजरे में नहीं था । बाबा उन सबको वहां से ले गये थे । दालूबाबा की कैद से छुड़ाकर ।

दालूबाबा किताब पढ़ते हुए सब कुछ देख/महसूस कर रहा था । परंतु उसने अनुष्ठान में बाधा नहीं आने दी, किताब पढ़ना छोड़ कर, चेहरा अवश्य गुस्से से तप रहा था । गुस्से की अधिकता की वजह से, किताब का पढ़ना तेज हो गया था । पढ़ते हुए बार-बार होंठ भिंच रहे थे।

■■■

उन सबने खुद को खंडहर हो चुके महल के सामने पाया । फकीर बाबा एकाएक उन सबको दालू की कैद से छुड़ाकर कहां ले आया था, वे समझ नहीं पाये । तब शाम होने जा रही थी ।

फकीर बाबा ने गंभीर निगाहों से सबको देखा ।

सब उलझन में नजर आये । परंतु महाजन गुस्से से तड़प रहा था ।

"पेशीराम ।" महाजन दांत भींचकर कह उठा--- "तूने एक बार फिर अपना कमीनापन दिखा दिया ।"

फकीर बाबा की निगाह महाजन पर जा टिकी ।

"मैंने कुछ गलत नहीं किया नीलसिंह ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा।

"किया है, गलत किया है ।" महाजन तेज स्वर में कह उठा--- "वहां से आने से पहले दालू के अनुष्ठान को बेकार किया जा सकता था । दालू को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता था । लेकिन तूने ऐसा नहीं करने दिया और न ही खुद कुछ किया । वहां से आने की तेरे को जल्दी लगी थी और दालू को सही सलामत छोड़ दिया गया ।"

फकीर बाबा ने हौले से सिर हिलाया।

"तू ठीक कहता है नीलसिंह । मुझे वहां से चले आने की जल्दी थी ।" फकीर बाबा का स्वर पहले की ही तरह गंभीर था--- "दालू अनुष्ठान पर बैठा है, इसी का तो फायदा उठाकर मैंने तुम लोगों को कैद से छुड़ाया ।"

"क्या मतलब ?"

"दालू के पास मेरे से ज्यादा शक्ति है । मैं उसका मुकाबला नहीं कर सकता और मैं ये भी जानता था कि उसे हाकिम की सख्त जरूरत है, ऐसे में वो अनुष्ठान को भंग कर के बीच में नहीं उठेगा, जबकि अनुष्ठान पूरा होने में मात्र एक दिन का समय बाकी बचा है। यही वजह थी कि दालू ने मेरे को मनमानी करने दी और यही वजह थी कि मैंने दालू को कुछ नहीं कहा । क्योंकि मेरे लिए सबसे अहम काम था, तुम लोगों को आजाद करवाना। दालू हम सब को खत्म कर सकता था, अगर वह अनुष्ठान न कर रहा होता या फिर अनुष्ठान को भंग करके उठ जाता और मैं जानता था कि वो अनुष्ठान को अंतिम समय में अधूरा नहीं छोड़ेगा ।"

महाजन दांत पीसकर रह गया।

"लेकिन वो हाकिम को बुला लेगा तो उसका मुकाबला कैसे होगा । उसे तो अमरत्व हासिल है ।" जगमोहन बोला ।

"उसका मुकाबला कैसे होगा, ये तुम लोग सोचो ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं तो इतना जानता था कि हाकिम के प्रकट होते ही सबसे पहले उसने तुममें से किसी का लहू पीना था और मैं नहीं चाहता था कि इस तरह तुममें से कोई मरे।"

"मैं दालू को नहीं छोडूंगा पेशीराम ।" महाजन पागल-सा हो उठा था ।

"तुम नहीं जानते दालू, ये जानने का बेहद ज्यादा प्रयत्न कर रहा था कि तुम लोगों को नगरी में कौन लाया । लाख कोशिशों के बाद भी वो नहीं जान पाया और तुम लोगों को बचाने के फेर में मुझे खुद ही उसके सामने जाना पड़ा ।" फकीर बाबा का स्वर शांत और गंभीर था--- "अब मुझे सबसे बड़ा दुश्मन मानेगा । अनुष्ठान के पूर्ण होते ही मुझे बुरी मौत मारना चाहेगा। जबकि गुरुवर के श्राप की वजह से मेरी जान नहीं निकल सकेगी। ऐसे में सोचो मेरी क्या हालत होगी।"

"चिंता मत करो पेशीराम ।" महाजन कठोर स्वर में कह उठा--- "मेरे होते हुए दालू तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता । मैं उसे खत्म करूंगा, अपने हाथों से ।"

फकीर बाबा के चेहरे पर शांत-सी मुस्कान उभरी ।

"नीलसिंह, भूल में है तू । ये दालू वो दालू नहीं है, पहले वाला । तिलस्मी ताज की वजह से अथाह शक्तियां हर पल उसके पास रहती हैं । वो पलक झपकते ही सामने वाले को कुछ भी कर सकता है । उसका मुकाबला नगरी में कोई नहीं कर सकता।"

नीलसिंह का चेहरा गुस्से से और भी धधक उठा।

"गुरुवर, दालू को ।"

"नहीं ।" फकीर बाबा ने टोका--- "गुरुवर से मेरी बात हो चुकी है । वो दालू को कोई सजा नहीं दे सकते ।"

"क्यों ?" महाजन के माथे पर बल पड़े ।

"गुरुवर के मुताबिक जो उनसे विद्या ग्रहण कर लेते हैं, वे उसके खिलाफ नहीं जा सकते ।"

महाजन मुठ्ठियां भींचकर रह गया ।

"तो ईब म्हारे को क्या करनी हौवे ?  म्हारे वड़ने को तो कुछ बचा ही न हौवे ?"

फकीर बाबा के चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी ।

"इस वक्त हम कहां हैं ?" महाजन अब जैसे हालातों को समझने लगा था ।

"पहचानो इस जगह को ।"

महाजन ने आसपास देखा । दूसरे ही पल गहरी सांस लेकर रह गया।

"सामने तो मिन्नो का महल है । जो खंडहर हो चुका है ।" महाजन के होठों से निकला है ।

"हां, यह वही महल है । इस वक्त तुम सब तिलस्म से बाहर आ चुके हो ।" फकीर बाबा ने सोच भरी निगाहों से सबको देखा--- "यहां अनजाने खतरों से तुम लोगों का सामना नहीं होगा ।"

"लेकिन हम यहां करेंगे क्या ?" पारसनाथ ने पूछा--- "यहां तो हम सब लाचार हैं कुछ भी करने को ।"

"बात तो तेरी ठीक है परसू ।" फकीर बाबा ने कहा--- "लेकिन आगे की राह यहीं से तुम लोगों को मिलेगी ।"

"वो कैसे ?" जगमोहन के होठों से निकला।

"बहुत जल्द, इसी महल में देवा, मिन्नो और त्रिवेणी पहुंचेंगे । उसके बाद...।"

"त्रिवेणी ?" जगमोहन के चेहरे पर उलझन उभरी ।

जवाब दिया महाजन ने ।

"रुस्तम राव पहले जन्म में त्रिवेणी था।"

"ओह !"

"देवा-मिन्नो और त्रिवेणी को पहले जन्म की याद आ चुकी हैं । वो हाकिम का मुकाबला करने के लिए, अपनी तैयारी शुरू कर चुके हैं । उनकी तैयारी की शुरुआत यहीं से होगी । तुम सब का मेल होगा। उसके बाद क्या होगा, मैं नहीं जानता ।" फकीर बाबा का स्वर गंभीर था--- "हाकिम के बीच में आ जाने की वजह से इस बात की संभावना है कि नगरी में तबाही की शुरुआत हो जाये ।"

"अमरत्व प्राप्त हाकिम को खत्म नहीं किया जा सकता ।" जगमोहन कह उठा--- "ऐसे में हाकिम का मुकाबला करना असंभव है । वो हम सब को खत्म करके रहेगा।"

"इस बात का जवाब मिन्नो के पास है ।" फकीर बाबा ने कहा ।

"क्या मतलब ?"

"मिन्नो जानती है कि अमरत्व पा चुके हाकिम को किस तरह मौत दी जा सकती है । हकीम से मुकाबला करने में तुम लोग कहां तक सफल होते हो, ये मैं नहीं कह सकता । अब महल में ही रहकर देवा और मिन्नो के आने का इंतजार करो । अपनी सुरक्षा का इंतजाम करने के लिए मुझे जाना होगा। अनुष्ठान समाप्त होने पर दालू मेरी तलाश आरंभ करा देगा ।"

"बाबा ।" सोहनलाल कह उठा--  "हमारे खाने-पीने का इंतजाम तो करते जाइये ।"

"महल के भीतर पहुंचो ।" फकीर बाबा ने कहा--- "सब कुछ हो जायेगा ।"

तभी महाजन कह उठा ।

"लाडो कैसी है पेशीराम ?"

"अच्छी है ।" पेशीराम के होठों पर मध्यम-सी मुस्कान उभरी ।

"त्रिवेणी से मिली वो ?"

"हां, मिली।" पेशीराम की आवाज में उदासी थी--- "आने वाला वक्त जाने क्या रंग दिखाता है । जाओ तुम अब महल में जाओ । तुम लोग महल में हो, ये बात कोई न जान पाये तो बेहतर होगा ।"

बिना कुछ कहे वे सब सामने नजर आ रहे, खंडहर हो रहे महल की तरफ बढ़ गये । महाजन को छोड़कर सबके चेहरों पर उलझन और सोच थी। जबकि महाजन बेहद गुस्से और कशमकश के दौर से गुजर रहा था । उसका क्रोध कम होने का नाम नहीं ले रहा था।

महल के भीतर प्रवेश करते ही टेबल-कुर्सियां और उन पर मौजूद तरह-तरह का गरम खाना पड़ा नजर आया । जिसकी महक उनकी सांसो में टकराने लगी थी ।