वानखेड़े और सी.बी.आई. के अधिकारियों के जाने के बाद जगमोहन बोला।

“वानखेड़े की असलियत है क्या?”

“मुझे तो लगता है जैसे कोई बहुत बड़ा ओहदा है इसका।” सोहनलाल ने कहा।

“हां।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा –“इस बात का शक मुझे पहले भी हो चुका है। लेकिन यह कभी महसूस नहीं हुआ कि इसका ओहदा क्या हो सकता है?”

“तो फिर ये पुलिस इं. की वर्दी में क्यों रहता है?” सोहनलाल ने सोच भरे स्वर में कहा।

“कोई तो वजह होगी ही।” जगमोहन ने होंठ सिकोड़े।

देवराज चौहान कुछ नहीं बोला।

“तुम जिस तरह मुझे वॉल्ट में जाने को कह रहे हो।” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा –“उस हिसाब से तो मुझे वापस भी जल्दी आना होगा।”

“हां।” देवराज चौहान ने भी उसे देखा।

“फिर तो दूसरे लॉकरों पर हाथ फेरने का वक्त ही नहीं मिलेगा।”

“नहीं। तुम्हें सिर्फ चार सौ दो नम्बर लॉकर खोलना है। उसके भीतर माइक्रोफिल्म होगी। वह लेकर फौरन बाहर आ जाना है। जरा भी ज्यादा वक्त नहीं लगना चाहिये। क्योंकि यह वक्त भी उस छापे के शोर-शराबे के बीच कठिनता से निकाला जा रहा है।”

“यह तो गलत बात हुई।” जगमोहन कह उठा –“वोल्गा वॉल्ट में प्रवेश करके भी, खाली हाथ लौटा जाये।”

“यह काम हम दौलत के लिए नहीं, माइक्रोफिल्म के लिए कर रहे हैं। जिसे कि वानखेड़े के हवाले करना है। क्योंकि पकड़ने के बाद वह हमें गिरफ्तार नहीं कर रहा। जुबान के सौदे किसी भी कीमत पर कच्चे नहीं होने चाहिये।” देवराज चौहान ने दोनों को देखा –“हमें इस काम को हर हाल में सफलतापूर्वक करना है।”

“हो सकता है किसी वजह से यह काम हम पूरा न कर सकें।” सोहनलाल ने कहा।

“ऐसा हुआ तो, वह वजह हमारी तरफ से नहीं उठनी चाहिये।” देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया।

“अजीब मुसीबत है।” जगमोहन बड़बड़ा उठा।

“तुम –।” सोहनलाल बोला –“पांच में से सिर्फ एक लाख मुझे दे रहे हो।”

“तो क्या हो गया । जो लेना है। वह भी तो छोड़ रहा हूं।” जगमोहन तीखे स्वर में कह उठा।

“पुराना मामला बाद में देखा जायेगा। मुझे कम से कम दो लाख तो दो।”

देवराज चौहान उनकी बातों के बीच में से उठ खड़ा हुआ और सोच भरे अन्दाज में टहलने लगा।

☐☐☐

वह चीनी थी।

परन्तु देखने पर वह चीनी न लगकर, नेपाली या बर्मी लगती थी।

उम्र अट्ठाईस बरस । नाम लियू । कद, साढ़े पांच फीट। गोरा रंग। काली आंखें। शरीर की बनावट किसी को भी पागल कर देने के लिए काफी। खूबसूरती के मामले में फिल्मी हीरोइनों से कहीं आगे। उसके बातचीत करने का लहजा इतना मधुर और कशिश भरा कि, जुदा होने का मन न करे। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह चीन की खतरनाक जासूस हो सकती है।

मस्तिष्क में भरी चालाकियां। जिसका मुकाबला करना आम इंसान के बाहर की बात थी। फुर्ती ऐसी कि हिरणी की याद आ जाये। मुकाबले के लिए, लड़ाई की हर विद्या में माहिर। अचूक निशानेबाज। आज तक जिस मिशन में हाथ डाला। हर हाल में पूरा किया। चीन का खुफिया विभाग लियू को वही काम सौंपता जो खतरनाक होता और जिसे पूरा करना, जरूरी होता। ऐसा कोई काम, जो लियू को लगता कि उसमें खतरा या मेहनत खास नहीं है। हाथ में लेने से इंकार कर देती। मिशन को पूरा करने के लिए जान की और शरीर की बाजी लगाने में कोई हिचक नहीं। अपने देश चीन के लिए, सब कुछ हाजिर। ऐसी है लियू।

इस वक्त शाम के चार बज रहे थे।

चीनी दूतावास के एक कमरे में लियू गहरी नींद में थी। बदन पर पैंट कमीज थी और सोने के अन्दाज से ऐसा लग रहा था जैसे अभी उठ खड़ी होगी। तभी पास ही मौजूद फोन की घंटी बजी। इससे पहले कि दूसरी बार बैल होती, लियू की आंख फौरन खुली, हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठाया।

“हैलो।” लेटे-लेटे लियू की खूबसूरत आंखें कमरे की छत पर जा टिकी।

“मैडम लियू?”

“यस।” लियू की आंखों में एकाएक सतर्कता सी नजर आने लगी।

“मैं।”

“पहचान लिया।” लियू बोली।

“तुम्हारे लिए खास खबर है। मुझे क्या मिलेगा?” आवाज कानों में पड़ी।

“यह तो खबर पर है कि वह कितनी भारी है। उसके हिसाब से ही रकम तय होगी।”

“मेरे ख्याल में, पहले की तरह तुम अब भी खबर की कीमत ठीक लगाओगी।”

“निश्चिंत रहो। तुम बताओ खबर क्या है?”

“वानखेड़े आज रात को वोल्गा वॉल्ट में डकैती डलवाने जा रहा है। इस डकैती में सिर्फ चार सौ दो नम्बर का लॉकर खुलेगा और उसमें रखी माइक्रोफिल्म उठा ली जायेगी।”

लियू की मुद्रा में कोई बदलाव नहीं आया। सिर्फ होंठ सिकुड़े।

“हैलो।” आवाज आई।

“लाइन पर ही हूं।” लियू ने शांत स्वर में कहा –“मैंने तुम्हें कहा था कि वानखेड़े के बारे में मालूम करो कि वह क्या स्थिति रखता है। एक मामूली सा इं. इस हद तक बढ़कर, काम नहीं कर सकता।”

“सॉरी। उसके बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका। खबर कीमती रहीं मेरी?”

“हां। तुम वहीं पर जाना। मैं बोल दूंगी। वहां से तुम्हें इस खबर की कीमत मिल जायेगी।” लियू बोली।

“थैंक्यू।”

“अब यह बताओ कि वानखेड़े की योजना क्या है? डकैती कैसे होगी?” लियू ने पूछा।

“देवराज चौहान को जानती हो?”

“देवराज चौहान?”

“मतलब कि नहीं जानती।”

“नहीं। मैंने कभी यह नाम नहीं सुना। कौन से ओहदे पर है?”

“मैडम लियू, यह देवराज चौहान किसी सरकारी ओहदे पर नहीं है। देवराज चौहान हिन्दुस्तान के अण्डरवर्ल्ड में हस्ती रखता है और एक्सपर्ट डकैती मास्टर है। डकैती करने में।”

“तुम्हारा मतलब कि रॉबरी किंग।” लियू ने टोका।

“हां।”

“वैरी गुड। तो वानखेड़े, देवराज चौहान से वॉल्ट में डकैती डलवा रहा है। सुनने में दिलचस्प लगा।”

“देवराज चौहान बहुत खतरनाक इन्सान है।”

लियू की आंखों में तीव्र चमक उभरी।

“यकीनन होगा। जो रॉबरी किंग हो। वह शरीफ तो होने से रहा। वानखेड़े का देवराज चौहान से क्या वास्ता?”

“सिर्फ इतना कि वह कानून का रखवाला है और देवराज चौहान कानून तोड़ने वाला। देवराज चौहान को घेरकर वानखेड़े ने अपनी गिरफ्त में लिया है और गिरफ्तारी का डर दिखाकर, उससे डकैती करवा रहा है।”

“ऐसे में तो देवराज चौहान, मौका पाकर भाग सकता है।” लियू ने कहा।

“हां। लेकिन देवराज चौहान, उन लोगों में से नहीं है, जो जुबान से फिर जाते हैं। वह भागेगा नहीं। डकैती करेगा।”

“दिलचस्प।” लियू के होंठों पर अजीब सी मुस्कान उभरी –“मुझे डकैती की योजना बताओ कि आज रात क्या कैसे होगा?”

दूसरी तरफ वाले व्यक्ति ने लियू को योजना का एक-एक शब्द बताया।

जब लियू को लगा कि अब बात करने को कुछ नहीं है तो वह बोली।

“ओ.के.। वहीं से खबर की कीमत ले लेना।”

“ठीक है। लेकिन तुम अब क्या करोगी।”

“मालूम नहीं। कोई खास बात हो तो फिर फोन करना।” कहने के साथ ही लियू ने रिसीवर रखा और सोच भरे स्वर में बड़बड़ा उठी –“देवराज चौहान।”

“वह लोग रात को डकैती करेंगे।” चीनी दूतावास का उच्चाधिकारी बोला –“तुम उससे पहले ही वॉल्ट से, माइक्रोफिल्म निकाल कर, यहां से जाने की योजना बनाओ लियू। अगर माइक्रोफिल्म उन लोगों के हाथ लग गई तो तुम्हारा हिन्दुस्तान आना बेकार हो जायेगा। सारी मेहनत मिट्टी में मिल जायेगी।”

“मैं जानती हूं।” लियू ने शांत स्वर में कहा।

“तो फिर देर क्यों कर रही हो। वक्त बीता –।”

“उन लोगों ने वाल्ट पर पहरा बिठा रखा है।”

“इतना रिस्क तो तुम्हें लेना ही होगा।” चीनी उच्चाधिकारी ने कहा।

“खतरा सामने देखकर मैं कभी पीछे नहीं हटती।” लियू की आवाज में दृढ़ता आती चली गई –“लेकिन इस तरह माइक्रोफिल्म ले भागना भी आसान नहीं। इस वक्त उनका पूरा ध्यान वॉल्ट की तरफ होगा कि कहीं हम में से कोई आकर, उस लॉकर में से माइक्रोफिल्म न ले जाये।”

“तुम–तुम कहना क्या चाहती हो?”

“यह काम रात को करना ज्यादा आसान रहेगा।”

“रात को?” वह चौंका –“रात को तो वह लोग।”

“रात को जब वह लोग काम कर रहे होंगे तो कम से कम इस बात से तो निश्चिंत होंगे कि सफलता मिलने पर कोई उनके हाथों से माइक्रोफिल्म छीन ले जायेगा।”

“तुम बहुत खतरनाक बात सोच रही हो लियू।”

“दूसरों के लिए यह काम खतरनाक हो सकती है। लेकिन मेरे लिये नहीं। क्योंकि मेरा काम करने का ढंग ही ऐसा है। वह सोच भी नहीं सकते कि ऐसा भी हो सकता है।” लियू मुस्कराई।

वह लियू को देखता रहा।

“इसके साथ ही मैं उस डकैती मास्टर से मुलाकात करना चाहती हूं। देवराज चौहान है उसका नाम । सुना है वह यहां के अण्डरवर्ल्ड में हस्ती रखता है।” कहते हुए लियू के होंठ सिकुड़ गये।

“मैं समझा नहीं।”

“देवराज चौहान जैसे लोग ही, चीन के काम आ सकते हैं।”

लियू ने सोच भरे स्वर में कहा –“उसे जितनी दौलत की जरूरत होगी। चीन देगा। और बदले में वह चीन के लिए हिन्दुस्तान में काम करेगा। वह डकैती में एक्सपर्ट है। हिन्दुस्तान की कई जगहों पर ऐसी चीजें पड़ी हैं, जो चीन के काम आ सकती हैं। परन्तु वहां पहुंचा नहीं जा सकता। हो सकता है यह रॉबरी किंग देवराज चौहान वहां पहुंच सके।”

“ओह। तुम बहुत दूर की सोचती हो लियू।”

“जिस दिन दूर का सोचना छोड़ दिया, उस दिन मुझ जैसे जासूसों की जिन्दगी खत्म हो जाती है। जरा सी चूक और सब कुछ खत्म।”

☐☐☐

वानखेड़े को तो जैसे एक पल भी सांस लेने की फुर्सत नहीं मिली।

रात की डकैतियों की तैयारी में ही, शाम हो गई। कुछ ही घंटों में उसने सारे इन्तजाम किए। सी.बी.आई के अधिकारियों को उनके चीफ से, हर बात की तसल्ली करवाई।

करीब बारह पुलिस वालों का इन्तजाम किया गया। जिन्होंने शोरूम के बाहर ही घेरा डालना था। हीरा भाई-करीम भाई के शोरूम में छापा और तलाशी का वारंट जारी करवाया।

कम वक्त में उसने और भी बहुत काम किए।

जब उसी फैक्ट्री में वापस पहुंचा तो छः बज रहे थे।

कुछ वक्त पहले ही देवराज चौहान रस्सी का इन्तजाम करके लाया था। और रस्सी को अब जगमोहन और सोहनलाल हर सवा फीट पर गांठें मार रहे थे ताकि रस्से पर चढ़ने-उतरने में ज्यादा परेशानी का सामना न करना पड़े। रस्सा बेहद मजबूत था और दो-तीन लोगों का बोझ बर्दाश्त कर सकता था।

वानखेड़े ने रस्से को देखा फिर देवराज चौहान से कहा।

“और क्या-क्या लाये?”

“और किसी चीज की जरूरत नहीं।” देवराज चौहान बोला।

“तुम्हारे औजार कहां हैं?” वानखेड़े ने सोहनलाल को देखा।

“मेरे पास हैं।” सोहनलाल ने रस्से की गांठ लगाते हुए कहा –“लेकिन मेरा दो लाख कहां है? जो तुम्हारे उस कर्मवीर यादव ने मुझसे झाड़े थे। वह मुझे वापस दो।”

“मिल जायेंगे।”

“मिल जायेंगे।” सोहनलाल ने उखड़े स्वर में कहा –“कब?”

“अभी तो वक्त नहीं है। कल तुम्हें दो लाख मिल जायेंगे।” वानखेड़े ने बेचैनी से देवराज चौहान से कहा –“तुमने योजना पर अच्छी तरह गौर कर लिया है कि।”

“यह एक मामूली सी योजना है। इस पर बार-बार गौर करने की कोई जरूरत नहीं है।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा –“इस योजना का सबसे अहम हिस्सा इमारत की छत पर पहुंचना है।”

वानखेड़े ने हाथ में थाम रखा बड़ा-सा लिफाफा जगमोहन की तरफ बढ़ाया।

“इसमें हवलदार की वर्दी है। पहन लेना।”

जगमोहन ने लिफाफा लेकर एक तरफ रख दिया और रस्से में गांठ लगाने में व्यस्त हो गया।

“तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई?”

“हाँ।” वानखेड़े बेचैन था।

“कहीं कोई शक-शुबह की गुंजाइश?”

“नहीं। सब ठीक है।” वानखेड़े ने कहा –“सात बजे शोरूम बंद होता है। पौने सात बजे शोरूम में प्रवेश किया जायेगा। वैसे तुम्हारा क्या ख्याल है कि कब तक काम पूरा हो जायेगा?”

“आठ बजे हम काम शुरू करेंगे। तब तक हर तरफ अच्छी तरह अंधेरा छा चुका होगा।” देवराज चौहान ने कहा –“कुल मिलाकर इस काम में दो घंटे तो लग ही जायेंगे।”

“मतलब कि शोरुम वालों को दस-साढ़े दस बजे तक उलझाये रखना होगा।” वानखेड़े ने सोच भरे स्वर में कहा।

देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिलाया।

चंद एक और जरूरी बातें उनके बीच हुई।

“तुम लोगों को हमारे साथ वहां प्रवेश करना है, ताकि देखने वाले एक ही बार में जान जायें कि, तुम लोग हमारे ही हो। इससे यह फायदा होगा कि बाद में तुम्हें कहीं आने-जाने में रोक-टोक नहीं होगी।”

“यह भी सुन लो कि वहां पहुंचते ही तुम लोगों ने क्या कहना है।” देवराज चौहान ने कहा और बताने लगा।

☐☐☐

शाम के सात बजने जा रहे थे। हीरा भाई-करीम भाई का डायमंड–ज्वैलरी शोरूम बंद होने जा रहा था। सेल्सगर्ल और अन्य व्यक्ति, यानी कि आधे से ज्यादा स्टाफ पिछले दस मिनटों में गया था। गनमैनों की शिफ्टें अभी-अभी बदली थी। दिन वाले गनमैन, अपने हथियार, नये आये गनमैनों को सौंप कर, मालिकों को सलाम ठोककर चले गये थे। गनमैनों ने अपनी-अपनी ड्यूटी संभाल ली थी।

शोरूम में करीम भाई चंद कर्मचारियों के साथ मौजूद था और अपनी देख-रेख में शोरूम बंद करवाने जा रहा था कि तभी मेन गेट के पास दो सी.बी.आई. की कारें और दो पुलिस जिप्सी आकर रुकीं। कारों के दरवाजे आनन-फानन खुले और उसमें से वानखेड़े –श्याम सुन्दर, नम्बरदार, दीपसिंह, मदनलाल, कर्मवीर यादव, रामचरण, देवराज चौहान और सोहनलाल उतरे और तेजी से शोरूम की तरफ बढ़े।

वहां खड़े गनमैनों ने उन्हें रोकना चाहा।

वानखेड़े ने अपना कार्ड आगे करते हुए कहा।

“सी.बी.आई.। जैसे हो, वैसे ही खड़े रहो। यह छापा है। अब कोई बाहरी आदमी भीतर आया या भीतर वाला बाहर गया तो तुम लोगों को गिरफ्तार कर लिया जायेगा। बेहतर होगा, कानून को सहयोग दो।”

गनमैन वहीं के वहीं खड़े रह गये।

तब तक पुलिस वाले भी पास आ चुके थे। उनमें हवलदार की वर्दी में जगमोहन भी था।

“तुम सब –।” वानखेड़े ने पुलिस वालों से कहा –“इमारत के भीतरी आहते में हर तरफ फैल जाओ।” साथ ही वानखेड़े ने देवराज चौहान, नम्बरदार और सोहनलाल की तरफ इशारा किया –“एक कांस्टेबल के साथ इस इमारत की छत पर पहुंच जाओ। ऊपर से हर तरफ नजर रखना।”

“मैं इनके साथ छत पर जाता हूं।” हवलदार की वर्दी पहने जगमोहन ने आगे बढ़कर कहा।

“जाओ।”

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल और नम्बरदार इमारत के दाईं तरफ वाले रास्ते पर बढ़ गये। जहां गनमैन मौजूद थे और जहां से छत की तरफ सीढ़ियां जाती थीं।

साथ आये पुलिस वालों को सिर्फ इतना मालूम था कि सी.बी.आई. वाले कहीं छापा मार रहे हैं। बीच की बात की उन्हें हवा तक नहीं थी। देखते ही देखते पुलिस वाले घेरे के रूप में फैलते चले गये। छापे की बाबत सब गनमैनों को मालूम हो चुका था। वह सिर्फ मूक दर्शक बनकर रह गये थे।

वानखेड़े ने सी.बी.आई. के अधिकारियों के साथ शोरूम में धड़ाधड़ प्रवेश किया। उस वक्त करीम भाई शोरूम के चंद कर्मचारियों के साथ बाहर निकलने ही वाले थे कि यह सब देखकर चौंके।

“क्या है?” पचपन वर्षीय करीम भाई हड़बड़ाये से कह उठे, “कौन हो तुम लोग? इस तरह भीतर किसने आने दिया?”

वानखेड़े ने तलाशी का वारंट आगे किया साथ ही अपना कार्ड।

“यह सी.बी.आई. का छापा है। वारंट आप देख सकते हैं।”

“छापा? वारंट?” करीम भाई हक्के-बक्के रह गये।

वानखेड़े ने जबरदस्ती उनके हाथ में वारंट थमा दिया।

“लेकिन यह कैसे हो सकता है?” करीम भाई के होंठों से निकला।

“वारंट पढ़ लीजिये। समझ में आ जायेगा।”

“लेकिन हमारे यहां कोई गलत काम नहीं।”

“मैं कुछ नहीं जानता।” वानखेड़े ने कठोर स्वर में कहा –“जानकारी के मुताबिक हमें कार्यवाही करनी पड़ रही है।”

“क...कैसी जानकारी?” करीम भाई के होंठों से निकला।

“कल एक जगह से दस करोड़ के हीरे चोरी किए गये हैं।” वानखेड़े ने अपनी आवाज को सख्त बना रखा था –“चोर पकड़ा गया और उसने कहा कि आज सुबह उसने सारे हीरे आपके यहां बेचे हैं।”

“यह कैसे हो सकता है।” करीम भाई की आवाज में गुस्सा आ गया –“हमारे यहां चोरी के काम का धंधा नहीं होता। वह चोर झूठ बोलता है। तुम हमारी हैसियत नहीं जानते। मैं अभी फोन करके, तुम्हें –।”

“आपकी जो हैसियत है, वह बाद में दिखा लीजिये।” वानखेड़े ने उसके हाथ से वारंट वापस लेते हुए, खा जाने वाले स्वर में कहा –“हमारे काम में मत आइये। अपने कर्मचारियों को लेकर, उस तरफ बैठ जाइये।

“मैं एक फोन –।”

“कोई फोन नहीं किया जायेगा। हमें सख्ती करने पर मजबूर मत कीजिये।”

“ठीक है। मैं अपने पार्टनर हीरा भाई को तो फोन।”

“इस वक्त किसी को फोन नहीं किया जायेगा। बाद में देखा जायेगा। दीपसिंह इन्हें एक तरफ ले जाकर बिठा दो।” कहने के साथ ही वानखेड़े दूसरों की तरफ पलटा –“चलो तलाशी लो।”

“ऐसे तलाशी कैसे हो सकती है।” करीम भाई कह उठा – “पास मजिस्ट्रेट और दो-चार लोग होने चाहिये।”

“क्यों?” वानखेड़े जानता था कि वह ठीक कह रहा है।

“हो सकता है किसी के कहने में आकर तुम लोग ही, चोरी के उन हीरों को, या उनमें कुछ हीरे यहां रखकर, हमें फंसवा दो। या मेरे यहां से तुम लोग ही सामान चोरी कर लो।” करीम भाई उखड़े स्वर में कह उठा –“तलाशी लेने से पहले तुम लोगों को अपनी तलाशी देनी चाहिये, फिर –।”

“हम यहां आपको फंसाने के लिए नहीं आये। रही बात हमारे चोरी करने की तो जाते वक्त हम अपने कपड़े झाड़कर आपको अच्छी तरह दिखाकर, कच्छे में बाहर निकलेंगे।”

करीम भाई दांत भींचकर रह गया।

उसके बाद वह सब उस विशाल शोरूम की तलाशी में लग गये। उन दस करोड़ के हीरों की तलाश में, जिनके बारे में वह जानते थे कि, उनका वजूद ही नहीं है। उन्हें तो सिर्फ तीन घंटे यहां बिताकर बाहर के गनमैनों को व्यस्त रखना था कि, देवराज चौहान अपना काम कर सके।

दीपसिंह ने करीम भाई और अन्य कर्मचारियों को एक तरफ बिठा दिया था। खुद पास ही में पहरेदार के तौर पर खड़ा हो गया। करीम भाई ‘देख लेने’ वाले अन्दाज में बड़बड़ाये जा रहा था।

☐☐☐

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल और नम्बरदार, वहां फैले गार्डों के बीच में गुजरते उन सीढ़ियों तक पहुंचे, जहां से उन्हें ऊपर जाना था। परन्तु सीढ़ियों पर खड़े वोल्गा वॉल्ट के गनमैन ने उन्हें टोका।

“क्या हुआ?” उसकी निगाह हवलदार की वर्दी में जगमोहन पर जा ठहरी।

जगमोहन ने पुलिसिया अन्दाज में डण्डा घुमाते हुए उसे घूरा।

“तेरे को नहीं मालूम नहीं?”

“सुना तो है।” गनमैन बोला –“लेकिन आपके मुंह से सुनना चाहता।”

“बहुत बड़ा छापा पड़ा है। नीचे। चोरी के हीरे खरीदे हैं, हीरा भाई-करीम भाई ने।” जगमोहन ने ऐसे कहा, जैसे बहुत बड़ी बात हो।

“अच्छा-अच्छा। लेकिन आप लोग कहां जा रहे हो। ऊपर तो वॉल्ट या बैंक है।”

“होगा, होगा।” जगमोहन ने व्यस्तता दर्शाते हुए कहा –“हम छत पर निगरानी के लिए जा रहे हैं। वहां से नीचे नजर रखेंगे। दस करोड़ के हीरों का मामला है। कोई गड़बड़ भी हो सकती है। रात के वक्त शोरूम भी खुला है। भीतर डायमंड और हीरे हैं। ऐसे में चोर लुटेरे आ गये तो? ऊपर से हर तरफ नजर रखी जा रही है। साहब का आर्डर है कि छत पर से नजर रखी जाये। यह साहब लोग हैं। सी. बी. आई. के बड़े ऑफिसर। सलाम ठोक।”

गनमैन ने जल्दी से देवराज चौहान, सोहनलाल और नम्बरदार को सलाम मारा।

“ठीक है। ठीक है।” जगमोहन डण्डा घुमाकर बोला –“रास्ते से हट। और सुन –कोई भी पुलिस वाला या सी.बी.आई. के साहब ऊपर नीचे आये तो तू रोक-टोक या पूछताछ नहीं करेगा। हमारा वक्त खराब होता है। समझा।”

“हाँ।”

“पीछे हो, हमें जाने दे।”

वह गनमैन फौरन एक तरफ हुआ।

जगमोहन सीढ़ियों पर डण्डा ठोकते हुए ऊपर चढ़ने लगा। बाकी उसके पीछे। सीढ़ियों के ऊपर खड़े गनमैन ने नीचे हो रही बातचीत सुन ली थी। इसलिए उसने भी कुछ न पूछा।

चारों बिना किसी दिक्कत के इमारत की छत पर पहुंच गये।

“तुम।” छत पर पहुंचते ही देवराज चौहान ने नम्बरदार से कहा –“इन्हीं सीढ़ियों के पास रहोगे। तुम्हारी नजरें नीचे की तरफ रहनी चाहिये कि कोई ऐसा इन्सान न आये जो, हमारे काम में रुकावट बने।”

नम्बरदार ने सिर हिला दिया।

छत के बीचों-बीच पहुंचकर तीनों ने अपनी-अपनी कमीजें उतारी और वहां छाती से पेट तक रस्सी लिपटी नजर आने लगी। तीनों का यही हाल था। वह नीचे लिपटी रस्सी को खोलने लगे। नम्बरदार का ध्यान सीढ़ियों की तरफ भी था और उनकी तरफ भी।

अब अंधेरा घिरना आरम्भ हो चुका था। बहुत वक्त था उनके पास। इसलिए बिना किसी जल्दी से, वह तसल्ली से काम कर रहे थे। रस्सियां खोलकर, उन्होंने अपनी कमीजें पुनः पहनीं। उसके बाद तीनों रस्सियों को वह आपस में बांधने लगे। फिर वह रस्सी एक होकर, काफी लम्बी हो गई। जिसके हर सवा फीट पर गांठें लगी हुई थी।

सोहनलाल के पेट पर ही बंधी बेल्ट में कई तरह के औजार फंसे नजर आ रहे थे।

“अभी कुछ देर हमें रुकना होगा।” देवराज चौहान ने कहा।

“क्यों?” जगमोहन ने उसे देखा।

“अंधेरा अच्छी तरह घिर लेने दो। नहीं तो नीचे लटकते सोहनलाल पर किसी की भी नजर पड़ सकती है।”

“किस तरफ से नीचे जाना है।”

“उधर।” देवराज चौहान ने उस तरफ इशारा किया –“उधर से।”

सोहनलाल उस दीवार के पास पहुंचा। नीचे झांक कर देखा। फिर पचास फीट के फासले पर बगल वाली इमारत को देखा। जो पूरी तरह अंधेरे में डूबी हुई थी। देखने में ऐसा लगता था जैसे उस इमारत का इस्तेमाल न होता हो।

जगमोहन पास आया।

“सामने वाली इमारत में क्या है?” जगमोहन ने पूछा।

“खाली लगती है।” सोहनलाल की निगाह पुनः उस इमारत की तरफ उठी।

जगमोहन कुछ नहीं बोला।

“काम शुरू क्यों नहीं कर रहे?” नम्बरदार की आवाज आई।

“बता कर आ साले को।” जगमोहन तीखे स्वर में बोला –“यह भी समझा देना कि ऊंची मत बोले।”

सोहनलाल, नम्बरदार की तरफ बढ़ गया।

जगमोहन ने सोहनलाल की कमर में पक्के ढंग से रस्सी बांधी।

देवराज चौहान ने रस्सी को चेक किया।

“ध्यान से।” जगमोहन बोला –“नीचे गिर तो, लाश नहीं पहचानी जायेगी।”

“तेरे को तो अच्छा होगा। मुझे नोट नहीं देने पड़ेंगे।”

“नोट तो तभी मिलेंगे, जब काम पूरा होगा।” जगमोहन हंसा।

रात का अंधेरा पूरी तरह फैल चुका था।

“चलो।” देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला –“नीचे उतरो। मैं और जगमोहन रस्सी पकड़ेंगे।”

सोहनलाल आगे बढ़ा और दीवार की मुंडेर पर चढ़ कर नीचे लटका। रस्सी का सिरा उन-दोनों के हाथ में था। वह धीरे-धीरे रस्सी छोड़ने लगे। सोहनलाल नीचे जाने लगा।

देवराज चौहान रस्सी थामे, दीवार के पास आ गया था और सोहनलाल को आहिस्ता-आहिस्ता नीचे जाते देखता रहा। इस तरफ नीचे कोई भी नजर नहीं आ रहा था। सब दूसरी तरफ या सामने की तरफ थे।

धीरे-धीरे सोहनलाल बीस फीट नीचे पहुंच गया।

देवराज चौहान ने देखा सोहनलाल ऊपर देखते हुए, इशारे से, दाईं तरफ को इशारा कर रहा है। यानी कि रोशनदान उस तरफ है। देवराज चौहान रस्सी थामे छत पर, उसी तरफ हुआ तो सोहनलाल की दिशा भी बदल गई। देवराज चौहान के होंठ भिंचे थे और निगाह सोहनलाल पर थी।

करीब पच्चीस फीट नीचे जाने पर, सोहनलाल ने हाथ के इशारे से रुकने को कहा। देवराज चौहान ने रस्सी को ढीला छोड़ना बंद कर दिया। छत पर खड़े जगमोहन ने रस्सी का सिरा मजबूती से थाम रखा था।

रात के अंधेरे में सोहनलाल, रस्सी के दम पर लटक रहा था। कमर पर रस्सा बंधा हुआ था। दोनों हाथों से रस्से को थाम रखा था। नीचे लटकता हुआ इस समय वह, वॉल्ट के लॉकर रूम वाले हॉल की दीवार के बाहर पहुंच चुका था।

सामने ही छोटा सा रोशनदान नजर आ रहा था। जोकि कठिनता से सवा फीट चौड़ा और लगभग इतना ही लम्बा था। उस पर जाली लगी हुई थी। सोहनलाल ने हाथ बढ़ाकर, रोशनदान की छोटी सी चौखट थामी और बिल्कुल पास जा पहुंचा।

भीतर से आने वाली रोशनी में सोहनलाल का चेहरा चमक उठा।

सोहनलाल ने उस रोशनदान से भीतर झांका।

वोल्गा वॉल्ट के लॉकर हॉल का नजारा उसके सामने था। इन लॉकरों में जाने कितनी दौलत मौजूद थी। होंठ भिंचे, आंखें सिकोड़े सोहनलाल कई पलों तक भीतर देखता रहा। फिर कमीज के भीतर हाथ डालकर, पेट पर बंधी बेल्ट में फंसा कटर निकाला और उससे रोशनदान पर लगी जाली काट कर जाली को भीतर ही फेंक दिया। अब छोटा सा रास्ता तैयार था भीतर जाने के लिए। सोहनलाल का पतला सा शरीर, थोड़ी सी कोशिश के बाद आसानी से, उस जगह से भीतर गुजर सकता था।

सोहनलाल ने रस्सी को खास अन्दाज से झटका दिया। जिससे ऊपर रस्सी थामे देवराज चौहान को इशारा मिल गया कि वह भीतर प्रवेश करने जा रहा है। सोहनलाल ने चौखट छोड़ी और दीवार पर पांव लगाकर झूलने वाले अन्दाज में पीछे हुआ और दोनों टांगे जोड़ ली। फिर रस्से के सहारे उसने शरीर को झुलाकर सीधा किया और दोनों टांगें रोशनदान में प्रवेश करती चली गई। सोहनलाल ने अपने शरीर को सिकोड़ लिया। दोनों बांहें सिर के ऊपर जा रहे रस्से को थाम लिया। जिससे शरीर और सिकुड़ गया।

रोशनदान से भीतर जाता शरीर कई जगह अटका। लेकिन जैसे-तैसे सोहनलाल शरीर को भीतर लेता गया। मुंह भी भीतर आ गया। दोनों हाथ सिर से ऊपर जा रहे रस्से को पकड़े थे। उसका पूरा शरीर भीतर आ गया। जरूरत के मुताबिक मिला खिंचाव रस्से पर पड़ता, रस्से को उतनी ढील- और मिल जाती।

वोल्गा वॉल्ट के फर्श पर सोहनलाल के पांव पड़े। जहां कीमती कालीन बिछा हुआ था। वह वहां पहुंच चुका था, जहां प्रवेश करना बेहद कठिन था। इस हॉल के बाहर, वॉल्ट के गनमैन पहरे पर थे। वॉल्ट के हॉल की दीवारों के साथ-साथ बड़े-बड़े बॉक्स रखे हुए थे। वह आठ फीट ऊंचे और बारह फीट चौड़े थे। जिनके बीच लॉकर थे और उन पर लॉकर नम्बर भी लिखे हुए थे। हॉल के बीच में भी वैसे ही आठ बाई बारह के बॉक्स खड़े किए हुए थे। वह जगह तेज रोशनी से जगमगा रही थी।

कमर पर बंधी रस्सी खोलते हुए सोहनलाल की निगाह, वीडियो कैमरों पर पड़ी। जिन्हें दीवार में इस तरह फिट किया हुआ था कि उनके लैंस का हिस्सा ही नजर आ रहा था। लेकिन सोहनलाल यह भी जानता था कि इस वक्त कैमरे बंद हैं। यह तभी चालू होते हैं, जब वॉल्ट का दरवाजा खोलकर कोई भीतर आये या फिर दरवाजे के साथ छेड़छाड़ करे।

सोहनलाल ने कमर पर बंधी रस्सी खोली और चार सौ दो नम्बर लॉकर की तलाश में आगे बढ़ने लगा। फिर चार सौ दो नम्बर लॉकर भी उसकी निगाहों में आ गया।

☐☐☐

लगभग इसी समय ही, इमारत के बाहर मेन गेट से कुछ पहले, करीब सौ गज ही पहले, एक कार रुकी। उसमें से एक कांस्टेबल निकला और मेन गेट की तरफ बढ़ गया।

कार वहीं खड़ी रही। उसका इंजन और हैडलाइट बंद हो गई।

बाहरी गेट पर दो गनमैन खड़े थे। उन्होंने डण्डा थामे हवलदार को आते देखा। अपने सामने से गुजर कर आहते में जाते देखा। उसे रोकने का तो सवाल ही नहीं था। भीतर प्रवेश करके कांस्टेबल इस तरह इमारत के साइड वाले रास्ते की तरफ बढ़ गया, जैसे वह वहीं से होकर गया हो। उसका कद साढ़े पांच फीट था। सिर पर वर्दी के साथ की टोपी पहन रखी थी। होंठों पर बड़ी-बड़ी मूंछे थी। दाएं हाथ में डण्डा पकड़ा हुआ था। बिना कहीं रुके, किसी से बात किये, वह गनमैनों में से गुजरता हुआ, सीढ़ियों के पास मौजूद गनमैन के पास पहुंचकर, पलभर के लिए ठिठका।

“साहब लोग ऊपर हैं क्या?” उसने कड़क मर्दाने स्वर में पूछा।

“हां।”

कांस्टेबल ने नीचे डण्डा मारा फिर सीढ़ियां चढ़ता चला गया।

☐☐☐

करीब घंटे भर बाद देवराज चौहान के हाथ में थमी रस्सी को तीव्र झटका लगा। यह सोहनलाल की तरफ से सिगनल था कि, वह ऊपर आने की तैयारी में है। देवराज चौहान ने आहिस्ता से रस्सा खींचा तो, रस्सा रुक गया। स्पष्ट था कि सोहनलाल अपनी कमर पर रस्सा बांध चुका है।

देवरारज चौहान ने नीचे झांका। सोहनलाल नजर नहीं आया।

मतलब कि अभी वह वॉल्ट में ही था।

देवराज चौहान ने जगमोहन को इशारा किया और रस्सा खींचने लंगा। पीछे से जगमोहन भी खींचने लगा। करीब दो मिनट बाद देवराज चौहान को रस्से पर झूलता सोहनलाल नजर आया। सोहनलाल अगले ही पल रस्सी पर लगी गांठों के दम पर, रस्से से ऊपर चढ़ने लगा।

देवराज चौहान और जगमोहन ने कस कर रस्सा धाम रखा था।

ऊपर आने में सोहनलाल को ज्यादा देर न लगी। जब वह दीवार की मुंडेर पर पहुंचा तो देवराज चौहान ने उसकी बांह पकड़कर ऊपर खींचा तो, सोहनलाल छत पर था।

देवराज चौहान ने लटकती रस्सी को छत पर वापस खींच लिया।

सोहनलाल गहरी-गहरी सांसें ले रहा था।

“क्या हुआ?” जगमोहन पास पहुंचते हुए बोला –“माइक्रोफिल्म मिली?”

“हाँ।” सोहनलाल गहरी सांस लेता कह उठा –“मिली। उस लॉकर में सिर्फ छोटी माइक्रोफिल्म ही पड़ी थी। और कुछ भी वहां नहीं था।” कहने के साथ ही सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगाई और कश लिया।

देवराज चौहान उसके पास पहुंचा।

“कोई दिक्कत तो नहीं आई?”

“नहीं।” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखकर सिर हिलाया –“सारा काम आराम से हो गया।” कहने के साथ ही उसने जेब में हाथ डाला और माचिस से भी जरा से छोटे साइज की माइक्रोफिल्म निकाली। इससे पहले कि उस फिल्म को देवराज चौहान के हवाले कर पाता, सख्त आवाज सुनकर, उनकी हरकतें रुक गई।

“जो जहां है, वैसा ही, वहीं रहे।” करारी मर्दाना आवाज उनके कानों में पड़ी।

“तीनों की निगाह छत के दरवाजे की तरफ घूमी। दरवाजे के पास ही नम्बरदार बेहोशी की हालत में नीचे पड़ा था और पास में वह कांस्टेबल रिवॉल्वर ताने खड़ा था। उसके बीच सिर्फ दस कदमों का फासला था। चन्द्रमा की रोशनी में वह स्पष्ट नजर आ रहे थे।

देवराज चौहान की आंखें सिंकुड़ी।

“कौन हो तुम?” जगमोहन के होंठों से अजीब सा स्वर निकला। क्योंकि वह जानता था कि यहां पर कोई बाहरी इन्सान नहीं आ सकता। और भीतर का इंसान ऐसी हरकत कर नहीं सकता। जगमोहन दो कदम आगे आया।

“आजकल तो कानून तोड़ने वाले भी, पुलिस में शामिल होने लगे।”

“क्या मतलब?” जगमोहन के चेहरे पर कई तरह के भाव आकर निकल गये।

“तुम लोगों की योजना के मुताबिक तो हवलदार की वर्दी में जगमोहन को होना चाहिये।” मर्दानी आवाज में वही पैनापन था –“योजना बहुत अच्छी बनाई कि हर किसी का ध्यान छापे में लग जाये और तुम लोग ऊपर आकर आसानी से वॉल्ट में प्रवेश करके, माइक्रोफिल्म उड़ा सको।”

देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।

जगमोहन का हाथ आहिस्ता से जेब की तरफ बढ़ा।

“कोई हरकत नहीं। हथियारों को जेब में ही रहने दो। मेरी निगाहें एक साथ तुम तीनों पर हैं। इस वक्त मेरे पास इतना समय नहीं कि मैं तुम लोगों को वार्निंग देता रहूं। मेरे रिवॉल्वर पर साईलेंसर है अगर गोली चली तो आवाज भी नहीं होगी।”

जगमोहन का हाथ रुक गया।

दो पल के लिए वहां गहरी खामोशी छा गई। चन्द्रमा की रोशनी में यह सब बहुत खतरनाक लग रहा था। ऐसे में उनके चेहरे एक- दूसरे को स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे।

“तुम हो कौन?” आखिरकार देवराज चौहान ने पूछा।

“मालूम हो जायेगा। पहले माइक्रोफिल्म मेरे हवाले करो।”

तीनों में से किसी ने भी अपनी जगह से हिलने की कोशिश नहीं की।

“मैं पहले ही कह चुका हूं कि वक्त कम है। तुम लोगों पर मैं गोली नहीं चलाना चाहता। माइक्रोफिल्म देने में इसी तरह की देरी करते रहे तो, मैं खड़े पांव तुम तीनों को अभी शूट कर दूंगा।”

देवराज चौहान इस बात को साफ तौर पर महसूस कर रहा था कि सामने जो कोई भी है। बहुत सतर्क है। एक पल के लिए भी वह असावधान नहीं हुआ। और वक्ती हालात इस तरफ स्पष्ट इशारा कर रहे थे कि वह वास्तव में गोली चला सकता है। क्योंकि वह माइक्रोफिल्म लेने आया है। ऐसे में उसे माइक्रोफिल्म के साथ जाने में जल्दी होगी। ज्यादा देर यहां बिताकर, खुद को मुसीबत में नहीं फंसाना चाहेगा।

“लास्ट वार्निंग।” इस बार उसकी आवाज में दरिन्दगी के भाव आ गये थे।

“माइक्रोफिल्म उसे दे दो।” देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा।

“लेकिन –।” सोहनलाल ने कहना चाहा।

“जो मैं कह रहा हूं। वही करो।” देवराज चौहान की शांत आवाज में मौत की ठण्डक थी –“वह गोली चला देगा। हमारे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं। माइक्रोफिल्म उसे दे दो।”

सोहनलाल के दांत भिंच गये।

देवराज चौहान और जगमोहन का भी यही हाल था।

“ले लो माइक्रोफिल्म।” देवराज चौहान ने कहा।

“फिल्म जिसके पास है, वह दोनों हाथ ऊपर करके मेरी तरफ बढ़े और बाकी के दो किसी भी तरह की चालाकी न दिखाए। जल्दी करो।” वही कड़क सख्त आवाज।

सोहनलाल दोनों बाँहें ऊपर की तरफ करके आगे बढ़ा।

देवराज चौहान और जगमोहन ने कोई हरकत करने की चेष्टा नहीं की। क्योंकि इस बात का उन्हें पूरी तरह एहसास था कि उनकी जरा सी हरकत, उनकी जानें ले सकती है।

सोहनलाल दो कदम पहले ठिठका। उसकी बांहें अभी भी ऊपर थी। नजरें सामने वाले चेहरे को पहचानने की चेष्टा कर रही थी। उसके सिर पर पड़ी कैप की वजह से, चन्द्रमा की रोशनी, उसके चेहरे पर न पड़कर, चेहरे को और भी स्याह सा बना रही थी।

“माइक्रोफिल्म कहां है?”

“मेरे हाथ की मुट्ठी में।” दांत भींचे सोहनलाल बोला।

“माइक्रोफिल्म वाला हाथ नीचे करो।”

सोहनलाल ने बांह नीचे की।

“मुट्ठी खोलो।”

सोहनलाल ने हाथ की मुट्ठी खोली।

उस इंसान ने सोहनलाल की हथेली से माइक्रोफिल्म उठाकर, अपने कपड़ों की जेब में रखी–

“हाथ ऊपर करके, उलटे पांव ही पीछे होते चले जाओ।”

सोहनलाल ने पुनः हाथ ऊपर किया और उसे घूरते। हुए पीछे हटता चला गया। ठीक उसी पल वातावरण में मधुर, खनकती हंसी गूंजी।

तीनों चौंके।

क्योंकि हंसी उसी के मुंह से निकली थी, जिसने माइक्रोफिल्म ली थी।

“लियू?” बरबस ही देवराज चौहान के होंठों से निकला –“चीनी जासूस लियू।”

जवाब में पुनः हंसी गूंज उठी।

“तुमने ठीक पहचाना देवराज चौहान। मैं लियू ही हूं। मैं कैसी हूँ। यह तुम देख ही चुके हो। मेरी आस्तीन से कोई चीज निकाल ले जाना असम्भव है। इसका एहसास भी तुम लोगों को हो गया होगा। लियू के कदमों को कोई नहीं रोक सकता। देख लो कितनी आसानी से मैं यहां पहुंच गई।”

देवराज चौहान सर्द निगाहों से उसे देखता रहा।

“खामोश क्यों हो गये देवराज चौहान।”

“जवाब देने की मैं जरूरत नहीं समझता।”

“जवाब बचा ही कहां है जो तुम दोगे।” लियू की हंसी से भरी आवाज उन सबके कानों में पड़ी –“लेकिन तुम बहुत अक्लमंद आदमी हो। हर जगह पहुंच जाने का रास्ता निकाल ही लेते हो। चलती हूं। लेकिन तुमसे बहुत जल्द मुलाकात करूंगी।” कहने के साथ ही वह पलटी और सीढ़ियों का दरवाजा बंद करती चली गई।

जगमोहन दरवाजे की तरफ दौड़ा।

“कोई फायदा नहीं।” देवराज चौहान सामने की दीवार की तरफ बढ़ते हुए बोला और दीवार के पास पहुंचकर नीचे देखने लगा। जहां गनमैन और पुलिस वाले नजर आ रहे थे।

देवराज चौहान ऊपर से चिल्लाकर उन लोगों से यह भी नहीं कह सकता था कि वह लियू को रोक लो। क्योंकि ऐसा करते ही यह बात खुल जानी थी कि हीरा भाई-करीम भाई के यहां छापा नकली है। सी.बी.आई. ने यह सब वोल्गा वॉल्ट में प्रवेश करने के लिए किया है। और तब हीरा भाई-करीम भाई और वोल्गा वॉल्ट के मालिकों ने सी.बी.आई. और पुलिस वालों का वो हाल करना था कि किसी से जवाब देते न बन पाना था। वानखेड़े के लिए ढेरों मुसीबतें खड़ी हो जानी थी।

तभी लियू नजर आई। उसी कांस्टेबल की वर्दी में हाथ में डण्डा। सब के बीच में से गुजरती हुई बाहर निकली। देवराज चौहान की निगाह उस पर टिकी थी। देखते ही देखते लियू सौ गज दूर खड़ी कार में बैठी तो कार आगे बढ़ गई। कार की हैडलाइट ऑन नहीं हुई थी। जोकि कुछ आगे जाने पर ऑन हो गई थी। ठीक तभी देवराज चौहान ने देखा कि एक तरफ अंधेरे में खड़ी कार धीमे से आगे सरकी। और लियू की कार के पीछे लग गई। उस कार की हैडलाइट बंद थी।

देवराज चौहान होंठ सिकोड़े यह सब देखता रहा।

तभी जगमोहन पास पहुंचा।

“यह तो बहुत बुरा हुआ।” जगमोहन के होंठों से निकला –“मामला मालूम होते ही वानखेड़े पागल हो जायेगा।”

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और सिगरेट सुलगा ली।

सोहनलाल भी पास आ गया।

“नम्बरदार को क्या हुआ?”

“गहरी बेहोशी में है।”

जगमोहन बोला –“लगता है; उसकी गर्दन की नस दबाकर, उसे बेहोश किया गया है। सब कुछ इतनी फुर्ती के साथ हुआ होगा कि नम्बरदार को भी मालूम नहीं होगा कि क्या हो रहा है। और इतनी खामोशी के साथ हुआ कि, हमें भी कोई आहट या किसी तरह का आभास नहीं मिल पाया कि नम्बरदार के साथ कुछ हो रहा है।

तब रात के पौने ग्यारह बज रहे थे, जब श्याम सुन्दर ऊपर आया और उसने दरवाजा खोला। वह तो यह मालूम करने आया था कि काम पूरा होने में अभी कितना वक्त बाकी है।

☐☐☐

वानखेड़े वास्तव में पागल हो रहा था। चेहरा क्रोध में धधक कर लाल सुर्ख हो रहा था। मुट्टियां बार-बार भिंच रही थी। आंखों में भरा गुस्सा स्पष्ट नजर आ रहा था।

उसी फैक्ट्री के ऑफिस में वह लोग मौजूद थे।

आधी रात का वक्त हो रहा था।

वानखेड़े, देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल और सी.बी.आई. के वही छः एजेंट।

“मुझे विश्वास नहीं आ रहा देवराज चौहान कि तुम मात खा गये।” वानखेड़े दांत भींचकर बोला।

“हमारे काम में हार-जीत तो लगी रहती है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा –“लेकिन जो कुछ भी हुआ, वह तुम्हारी गलती की वजह से हुआ। इसे तुम मेरी गलती नहीं कह सकते।”

“मेरी गलती?”

देवराज चौहान ने सहमति में सिर हिलाया।

“वो कैसे?” वानखेड़े ने खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा।

“मेरा काम छत का था। माइक्रोफिल्म निकाल लाने का था। मैंने वह काम पूरा किया। तुम्हारा काम नीचे का मामला संभालने का था। मुझे यह बताओ कि चीनी जासूस, हवलदार बनकर छत पर कैसे पहुंच गई? वह नीचे से ऊपर कैसे आ गई? नीचे कितने पुलिस वाले थे। उसे किसी ने रोका क्यों नहीं।” देवराज चौहान ने शांत निगाहों से, वानखेड़े को देखा।

वानखेड़े खा जाने वाली निगाहों से देवराज चौहान को देखता रहा।

“उसके बाद गलती तुम्हारे आदमी, नम्बरदार की रही।” देवराज चौहान ने नम्बरदार को देखा –“इसे सीढ़ियों पर पहरेदारी के लिए खड़ा किया गया था। और इसने नीचे से आते किसी को नहीं देखा। हवलदार की वर्दी में, मूंछे लगाये वह आराम से इसके पास पहुंची और इस तरह इसे बेहोश किया कि, चंद कदमों की दूरी पर मौजूद, हमें कोई आहट भी न मिल पाई। तब दिन की रोशनी होती तो लियू की इस हरकत को हम अवश्य देख लेते। लेकिन वह अंधेरे का फायदा उठा ले गई।

वानखेड़े ने दांत पीसते हुए नम्बरदार को देखा।

“तुम। अपनी ड्यूटी ठीक तरह से नहीं कर सके।” वानखेड़े कठोर स्वर में बोला –“मेरे ख्याल में यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि इस मिशन में हम जीत के पास पहुंचकर भी, हार गये और वह भी सिर्फ तुम्हारी वजह से।”

“मुझे नहीं मालूम गलती मेरी थी या नहीं।” नम्बरदार गम्भीर स्वर में बोला –“मैं पूरी सतर्कता के साथ अपनी ड्यूटी पूरी कर रहा था। मेरी निगाह हर पल सीढ़ियों की तरफ ही थी। तब-जब सोहनलाल माइक्रोफिल्म लेकर छत पर पहुंचा तो, चंद पलों के लिए मेरा ध्यान उस तरफ हो गया। इन्हीं पलों के बीच पीछे से किसी ने मेरे मुंह पर हथेली जमाते हुए मेरी कनपटी की नस दबा दी। तीन-चार सेकेंड के बाद ही मैं होश खो बैठा। उसके बाद क्या हुआ मैं नहीं जानता।”

वानखेड़े दांत पीसकर रह गया।

“जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ।” दीपसिंह कह उठा –“माइक्रोफिल्म को पाने के लिए हमने क्या कुछ नहीं किया। पहले देवराज चौहान को कब्जे में करने के लिए भाग-दौड़ की। फिर हीरा भाई-करीम भाई के यहां नकली छापा मारा। देवराज चौहान की मेहनत के पश्चात फिल्म हाथ में आई और निकल गई।”

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर, वानखेड़े को देखा।

“मेरा तो पांच लाख डूब गया।” जगमोहन कह उठा।

“मेरा नहीं डूबा क्या?” सोहनलाल उखड़े स्वर में बोला –“इससे तो अच्छा होता कि वॉल्ट के किसी एक भी लॉकर में हाथ मार आता। सारी कसर पूरी हो जाती।”

“तो मारा क्यों नहीं।” जगमोहन हंसा।

“दिमाग खराब हो गया था, जो शराफत दिखा दी।” सोहनलाल भी हंस पड़ा।

“वानखेड़े।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा –“उस चीनी जासूस लियू को कैसे मालूम हुआ कि हम आज रात वॉल्ट में माइक्रोफिल्म निकालने की कोशिश करने जा रहे हैं।”

वानखेड़े ने आंखें सिकोड़कर देवराज चौहान को देखा।

“क्या मतलब?”

“लियू बिल्कुल ठीक समय पर पहुंची। वैसे पहुंची?”

वानखेड़े, देवराज चौहान को देखता रहा।

“चंद घंटे पहले हमने वॉल्ट में प्रवेश करने की योजना बनाई और वह योजना के हर पहलू से वाकिफ थी।”

“यह तुम कैसे कह सकते हो?”

“क्योंकि छत पर, जब उसने अपनी रिवॉल्वर का रुख हमारी तरफ कर रखा था तो उसके मुंह से यह शब्द निकले थे कि हवलदार की वर्दी में तो जगमोहन ही होगा।” देवराज चौहान की आवाज सख्त हो गई।

वानखेड़े के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।

“योजना यहीं बनी थी। हम लोगों के बीच बनी थी। किसी और को, यहां होने वाली बातों की भनक तक नहीं थी। फिर यहां होने वाली बात लियू तक कैसे पहुंच गई? वह यह कैसे जान गई कि हम रात को वॉल्ट में से माइक्रोफिल्म निकालने वाले हैं। वह ठीक वक्त पर कैसे पहुंची। कांस्टेबल की वर्दी में इसलिए आई कि वह जान चुकी थी कि, उस वक्त भीतर का माहौल कैसा होगा? इस वर्दी को पहनने के बाद उस पर कोई रोक-टोक नहीं होगी। मैंने उसे, इमारत की छत से जाते देखा था। वह पूरे विश्वास के साथ ऐसे चल रही थी कि कोई उस पर शक नहीं कर सकता था कि वह हम लोगों में से नहीं है। वह बाहर से आई और सीधे छत पर आ गई। और सीधे बाहर निकल गई, यानी कि वह हमारी हर हरकत से वाकिफ थी।”

वानखेड़े कई पलों तक देवराज चौहान को देखता रहा।

“उसे हमारी योजना के बारे में कैसे मालूम हुआ?” देवराज चौहान का लहजा अभी भी सख्त था।

“कैसे मालूम हुआ?”

देवराज चौहान की निगाह वहां मौजूद सब पर फिरी।

“तुम्हारा मतलब कि खबर यहां से, हमारे यहां से निकली है?” एकाएक वानखेड़े के होंठ से निकला।

“हां।”

वानखेड़े की गर्दन सख्त अन्दाज में, हौले से हिली। फिर उसकी निगाह श्याम सुन्दर, नम्बरदार, दीपसिंह, मदन लाल, कर्मवीर यादव और रामचरण पर बारी-बारी गई।

वह सब वानखेड़े को ही देख रहे थे।

“देवराज चौहान!” वानखेड़े की आवाज में सुलगन थी –“कोई और वक्त और हालात होते तो तुम्हारी बात पर शायद मैं कभी भी यकीन नहीं करता। लेकिन इस वक्त तुम्हारी यह बात पूरी की पूरी मानता हूं कि इनमें से ही किसी ने लियू तक हमारी योजना पहुंचाई। क्योंकि और किसी को हमारी हरकतों की जानकारी नहीं थी।”

देवराज चौहान कुछ नहीं बोला।

“कौन है तुम में से, जो लियू को खबरें बेच रहा है।” वानखेड़े गुर्राया।

सी.बी.आई. के सब एजेंट एकाएक सतर्क नजर आने लगे थे।

“बोलो।” वानखेड़े गला फाड़कर चिल्लाया –“बोलते क्यों नहीं। कौन है वह हरामजादा।”

सब चुप।

“यह बात ऐसे मालूम नहीं होगी।” देवराज चौहान ने कहा।

“तो कैसे होगी?” वानखेड़े दांत भींचकर, देवराज चौहान की तरफ पलटा।

“वक्त आने पर मालूम हो जायेगी।” देवराज चौहान ने सबके चेहरों पर निगाह मारी –“इस वक्त इन सबके चेहरों पर लिखा है कि मैं गद्दार हूं और सबके चेहरों पर लिखा है कि यह काम मैंने नहीं किया।”

“मत भूलो देवराज चौहान तुम कानून तोड़ने वाले अपराधी हो।” श्याम सुन्दर ने सख्त स्वर में कहा।

“तो?”

“तुम्हें हमारी तरफ उंगली उठाने का कोई अधिकार नहीं है।” श्याम सुन्दर पूर्ववत स्वर में कह रहा था –“मैं कहता हूं कि तुमने पैसों के लालच में लियू को खबर बेची कि, हम कैसे क्या करने जा रहे हैं।”

“तेरी तो –।” सोहनलाल ने गुस्से से उठना चाहा।

जगमोहन ने उसकी बांह पकड़कर कुर्सी पर बिठा लिया।

“मैं साले के दांत तोड़ दूंगा।” सोहनलाल ने गुस्से से कहा –“यह।”

“चुपचाप बैठा रह। इनमें से चोर की शक्ल पहचान।” जगमोहन जहरीले स्वर में कह उठा।

श्याम सुन्दर की बात पर, देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी।

वानखेड़े, श्याम सुन्दर को कठोर निगाहों से देखे जा रहा था।

“देवराज चौहान ऐसा नहीं कर सकता।” आखिरकार वानखेड़े कह उठा।

“कमाल है।” दीपसिंह ने तीखे स्वर में कहा –“तुम हम लोगों पर इल्जाम लगा रहे हो। इतना बड़ा इल्जाम लगा रहे हो। हमें गद्दार कहने की कोशिश कर रहे हो और एक अपराधी की तरफदारी कर रहे हो।”

“मैं तुम सबको नहीं। उस एक को कह रहा हूं। जिसने लियू तक यहां की बातें पहुंचाई।”

“श्याम सुन्दर ठीक कह रहा है वानखेड़े। यह काम, पैसे के लालच में हम भी तो कर सकते हैं। कोई जरूरी तो नहीं, इन सफेद कपड़े पहनने वालों ने लियू तक यहां की खबरें पहुंचाई हो।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा –“मेरे ख्याल में इन बातों को फिर कभी के लिए रख लेते हैं। तुम देखते रहना कि इनमें से कौन गद्दार हो सकता है।”

वानखेड़े की निगाह, देवराज चौहान पर जा टिकी।

“मैं चलता हूं।” देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।

“तुम कहीं नहीं जाओगे।” वानखेड़े शब्दों को चबाकर बोला।

देवराज चौहान ने वानखेड़े की आंखों में झांका।

“तुमने जो काम मेरे से लेना था, वह ले चुके। मुझे रोकने को कहना, तुम्हारा हक नहीं बनता।” देवराज चौहान ने कहा।

वानखेड़े ने होंठ भींचकर सिर हिलाया और कह उठा।

“तुमने एक बार मुझे कहा था कि कानून वाले एक हद तक ही देख सकते हैं। कानून वालों की आंखें वहां तक नहीं पहुंच सकती, जहां तक अण्डरवर्ल्ड के लोगों की पहुंच जाती है। अपराधियों से वास्ता रखने वाले किसी भी मामले में, वहां कानून बाद में पहुंचता है, लेकिन अपराधी पहले पहुंच जाता है। क्योंकि अपराधी को अपराधी की दिमागी स्थिति ज्यादा मालूम होती है।”

देवराज चौहान, वानखेड़े को देखता रहा।

“लियू भी हिन्दुस्तान में अपराधी है। मैं उस माइक्रोफिल्म को हर हाल में पाना चाहता हूं।”

“तुम्हारा मतलब कि लियू को तलाश करके, मैं वह फिल्म हासिल करूं।” देवराज चौहान बोला।

“हां।”

“नहीं वानखेड़े। हममें जहां-तक बात थी, वह खत्म हो चुकी है। अब –।”

“लियू को तो हम भी तलाश कर सकते हैं। इसकी क्या जरूरत है।” नम्बरदार बोला।

वानखेड़े ने खा जाने वाली निगाहों से नम्बरदार को देखा।

“तुम क्या तलाश करोगे उसे। वह तुम्हारे पास पहुंची। उसने तुम्हें बेहोश किया और तुम मुंह से एक आवाज भी न निकाल सके। ताकि यह लोग सावधान हो पाते।” वानखेड़े ने कड़वे स्वर में कहा।

“उसने मेरे मुंह पर हाथ रख।”

“तो यह काम वह दोबारा भी कर सकती है।”

“लेकिन जो काम तुम देवराज चौहान को करने को कह रहे हो, वह तो हम भी कर सकते हैं।” रामचरण कह उठा –“सरकारी काम में किसी बाहरी आदमी की क्या जरूरत है।”

“देवराज चौहान हमसे जल्दी लियू तक पहुंच सकता है। हमें उस पर हाथ डालने में देर लग सकती है। क्योंकि हमारे हाथ कानून की डोर से बंधे हैं।” वानखेड़े एक-एक शब्द चबाकर कह उठा।

“यह भी तो हो सकता है कि लियू का खबरी देवराज चौहान ही हो।” मदनलाल कह उठा –“हमें कहता रहे कि लियू को तलाश कर रहा है और उधर लियू के साथ बैठा, जाम टकराता रहे। या फिर लियू से माइक्रोफिल्म हासिल करके, तगड़ा पैसा लेकर, फिल्म किसी और को बेच दे। देवराज चौहान पर इतना विश्वास नहीं किया जा सकता।”

“लेकिन मुझे देवराज चौहान पर विश्वास है।” वानखेड़े सख्त आवाज में कह उठा –“इस मिशन का इंचार्ज मैं हूं और वही होगा, जो मैं चाहूंगा। लियू फिल्म के साथ अब हिन्दुस्तान से निकलने की कोशिश करेगी। रोक सकते हो उसे। उससे फिल्म वापस ले सकते हो।”

“लियू चीनी दूतावास में हो सकती है।”

“बेवकूफों वाली बातें मत करो।” वानखेड़े कड़े स्वर में बोला –“अब वह चीनी दूतावास में नहीं जायेगी। वह यह बात अवश्य सोचेगी कि हम फिर उसके लिए कोई मुसीबत खड़ी न कर दें। और अब वह कोई भी रिस्क लेना पसन्द नहीं करेगी। उसका चीन चले जाना ही सुरक्षित है।”

“तो देवराज चौहान कैसे तलाश कर लेगा –जान लेगा कि लियू कहां पर है?” श्याम सुन्दर बोला।

वानखेड़े की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।

“तुम लियू से वह माइक्रोफिल्म हासिल करो देवराज चौहान।” वानखेड़े बोला।

“लेकिन हममें जो बात तय हुई थी। वह सिर्फ डकैती तक ही।”

“जानता हूं। जहां तक बात तय हुई थी, वह तुमने पूरी की। लेकिन लियू से उस फिल्म को वापस पाना हर हाल में जरूरी है। हमारे वैज्ञानिकों की बरसों की मेहनत है उस फिल्म में । उसका फायदा चीन को नहीं मिलना चाहिये। इस काम के लिए तुम जो भी पैसा कहोगे। वह मिलेगा। इस काम की पूरी कीमत मिलेगी।”

यह सुनते ही जगमोहन उठ खड़ा हुआ।

“ठीक है। हम लियू को तलाश करके उससे फिल्म पाने की कोशिश करेंगे।” जगमोहन कह उठा –“लेकिन इस काम के बदले हमें मिलेगा क्या? कितनी रकम दे सकते हो?”

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा फिर गहरी सांस लेकर मुंह घुमा लिया।

“तुम कितनी लगाते हो?”

“दस करोड़।”

वानखेड़े ने उखड़ी निगाहों से जगमोहन को देखा।

“हराम का पैसा नहीं है। सरकार का पैसा है। ठीक बोलो।”

“नौ करोड़ दे देना।”

“इतना नहीं दिया जा सकता।” वानखेड़े ने स्पष्ट कहा –“पचास लाख ठीक है।”

“सिर्फ पचास लाख?” जगमोहन के होंठों से निकला।

“तो तुम क्या सोच रहे थे?”

“इतना अहम फार्मूला उससे वापस लेना है। वह वास्तव में खतरनाक है। गोलियां तो चलेगी ही। जान हथेली पर रखकर हम काम करें और तुम, सिर्फ पचास लाख की बात कर रहे हो। यह नहीं चलने वाला । खैर, तुम्हारे लिए रियायत कर देता हूं। पांच करोड़ दे देना। एक पैसा भी कम नहीं।”

“मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा एक करोड़ दे सकता हूं।” वानखेड़े जगमोहन ने पुनः वानखेड़े को देखा।

“कम है। बहुत कम है। तुम्हारा क्या जाता है। सरकारी पैसा है। दिल खोल कर दो।”

“मैं पहले ही कह चुका हूं कि सरकारी पैसा हराम का नहीं होता।” वानखेड़े बोला।

“जगमोहन, मैं राय दूं।” सोहनलाल बोला।

“दे।”

“चार करोड़ ठीक है।” सोहनलाल ने जल्दी से कहा।

“चल, तू भी क्या याद करेगा। तेरी बात मानी।” कहने के साथ ही जगमोहन ने वानखेड़े को देखा।

“एक करोड़।” वानखेड़े ने शांत स्वर में कहा।

“लगता नहीं सौदा पटेगा।” सोहनलाल बोला –“तीन करोड़ पर आखिरी बार ट्राई करके देख ले।”

जगमोहन ने वानखेड़े को देखा।

“सवा करोड़।” वानखेड़े का स्वर सपाट था।

“सरकारी कामों की तरह यह भी धीरे-धीरे आगे सरक रहा है।” सोहनलाल बोला –“दो करोड़ में निपटा।”

जगमोहन ने पुन: वानखेड़े को देखा।

“डेढ़ करोड़। इससे एक पैसा भी ज्यादा नहीं। मैं इससे ज्यादा की हामी नहीं भर सकता।” वानखेड़े ने कहा।

“चल मान ले। सरकारी काम है। रियायती दरों पर कर देते हैं।” सोहनलाल ने कहा।

“पैसा मिलेगा कब?” जगमोहन ने वानखेड़े से पूछा।

“जब फिल्म मेरे हवाले करोगे।”

“तब पैसा सामने होना चाहिये।”

“सामने ही होगा।”

नोटों की बात निपटाकर जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

“बोलो देवराज चौहान।” वानखेड़े ने कहा –“लियू से माइक्रोफिल्म कब तक पा लोगे?”

“यह तो उसके मिलने पर है।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा –“हो सकता है लियू मिले ही नहीं।”

यह सुनते ही वानखेड़े बेचैन हो उठा।

“तुम अभी से उसकी तलाश शुरू कर दो।” वानखेड़े जल्दी से कह उठा।

“चिन्ता मत करो।” जगमोहन ने कहा –“काम शुरू ही समझो।”

“हम अपने तौर पर लियू को ढूंढने की कोशिश करेंगे।” वानखेड़े ने देवराज चौहान से कहा –“हमारे कारण तुम्हारे काम में किसी तरह की दिक्कत नहीं आयेगी। ऐसा कुछ हुआ तो हम पीछे हट जायेंगे।”

“अच्छी बात है।” देवराज चौहान बोला –“हम चलते हैं और –।”

तभी वानखेड़े की कलाई पर बंधी घड़ी में से पीं-पीं की मध्यम सी आवाज आने लगी। वानखेड़े ने जल्दी से घड़ी को ट्रांसमीटर का रूप दिया और बात की।

☐☐☐

“हैलो–हैलो।” दूसरी तरफ से आती महीन सी आवाज घड़ी में से निकल रही थी –“राजकुमार दिस साइड। राजकुमार।”

“बोलो।” वानखेड़े घड़ी को मुंह के पास ले जाकर बोला –“इस वक्त कहां हो? तुम क्या कर रहे हो?”

“मैं वॉल्ट की निगरानी पर था। जब आप लोग छापा मारने गये तो मैं तब भी वहीं था। कुछ देर बाद एक कार उस इमारत के बाहर आकर रुकी और उसमें से एक हवलदार बाहर निकल कर इमारत में प्रवेश कर गया। इस तरह हवलदार का आना मुझे खटका। मैंने कार का नम्बर देखा तो, आगे-पीछे की नम्बर प्लेट गायब थी। मेरा शक और भी पक्का हो गया। कार को वहीं खड़ा पाकर मैं समझ गया कि जो हवलदार भीतर गया है वह किसी भी वक्त वापस आ सकता है।

यह सुनकर वानखेड़े सतर्क हो उठा।

“फिर?”

“मेरे पास इतना वक्त नहीं था कि आपको खबर कर सकता। करीब आधे घंटे बाद वह हवलदार बाहर आया और कार में बैठकर, आगे बढ़ गया। तब मैंने अपनी कार उसके पीछे लगा दी।”

वानखेड़े की आंखों में तीव्र चमक नजर आने लगी।

“पन्द्रह मिनट बाद वह कार एक इमारत के पार्किंग में रुकी और उसमें से वही चीनी जासूस लियू निकली। जोकि अकेली ही पार्किंग में मौजूद अन्य कार में बैठकर वहां से रवाना हो गई। मैंने उसका पीछा किया। वह होटल पैलेस पहुंची। जहां उसका रूम पहले से ही बुक था। इस वक्त वह होटल पैलेस के रूम नम्बर बारह में मौजूद है। और मैं होटल में रहकर छानबीन करने जा रहा हूं कि, वह वहां पर क्यों है।”

“गुड। राजकुमार, वैरी गुड।” वानखेड़े होंठ भींचकर कह उठा –“हम वहीं पहुंच रहे हैं। तुम उस पर नजर रखो। अगर वह वहां से निकले तो तुमने खामोशी से उसका पीछा करना है और इसी तरह मुझे खबर देते रहना।”

“ओ.के.।”

वानखेड़े ने ट्रांसमीटर ऑफ करके उसे घड़ी का रूप देते हुए वहां मौजूद सबको देखा।

“लियू इस वक्त होटल पैलेस के रूम नम्बर बारह में मौजूद है।” वानखेड़े बोला।

“पक्का?” श्याम सुन्दर के होंठों से निकला।

“हां। राजकुमार उसकी निगरानी पर है। तब से ही है, जब वह वॉल्ट वाली इमारत की छत से माइक्रोफिल्म लेकर वहां से निकली थी। राजकुमार ने बहुत समझदारी से काम किया।” वानखेड़े तेज स्वर में कह रहा था –“हमारे पास बहुत ही खूबसूरत मौका है लियू पर हाथ डालने का। यकीनन उसके पास माइक्रोफिल्म होगी।”

“हमें फौरन उसे होटल पैलेस पहुंचकर, उसे घेर लेना चाहिये।” रामचरण कह उठा।

वानखेड़े ने देवराज चौहान को देखा।

“अगर हम लोग लियू को पकड़कर, उसकी तलाशी लें और माइक्रोफिल्म पाने की कोशिश करें तो इससे उस सौदे पर तो असर नहीं पड़ेगा। जो हमारे बीच अभी तय हुआ है।” वानखेड़े ने पूछा।

“क्यों हमारे डेढ़ करोड़ पर लात मारते हो।” जगमोहन जल्दी से कह उठा।

वानखेड़े की निगाह देवराज चौहान पर टिकी रही।

“नहीं। तुम अपनी कोशिश कर सकते हो।” देवराज चौहान बोला –“हमें कोई एतराज नहीं।”

“हम भी होटल पैलेस चलते हैं।” जगमोहन बोला –“शायद डेढ़ करोड़ के हकदार बन जायें।”

“तुम जाओ।” देवराज चौहान बोला –“हम पीछे आ रहे हैं। लेकिन जहां तक मेरा ख्याल है। माइक्रोफिल्म लियू से नहीं मिल पायेगी। उससे एक ही मुलाकात हुई है और इस बात को आसानी से जाना जा सकता है कि वह समझदार है। वहां से वह सीधी होटल पहुंची है। इतना तो वह भी सोच सकती है कि शायद कोई उसके पीछे हो।”

“मतलब कि उसके पास फिल्म नहीं होगी।”

“इस वक्त नहीं होगी।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा –“अगर हुई तो वह बहुत बड़ी बेवकूफ होगी।”

वानखेड़े ने होंठ भींचकर सिर हिलाया और दरवाजे की तरफ बढ़ता, सबसे कह उठा।

“आओ।”

वानखेड़े के पीछे-पीछे ही सी.बी.आई. के सारे एजेंट बाहर निकलते चले गये।

“हम होटल जाकर क्या करेंगे?” सोहनलाल कह उठा।

“उस पर नजर रखेंगे।” देवराज चौहान ने कहा –“इस बात की पूरी आशा है कि वह खिसकने की कोशिश करे।”

देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल होटल पैलेस पहुंचे। सोहनलाल ने पोर्च में कार रोकी। दोनों नीचे उतरे और देवराज चौहान सोहनलाल से बोला।

“तुम कार के साथ पार्किंग में हर वक्त तैयार रहना।”

सोहनलाल ने सहमति से सिर हिलाते हुए कार आगे बढ़ा दी।

देवराज चौहान और जगमोहन होटल के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े, जो चंद कदमों के फासले पर था।

“तुम रूम नम्बर बारह देखो कहां है। अगर उसके पीछे कोई खिड़की हो तो, वहां पर नजर रखना।” देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा –“वह खुद को घिरा पाकर वहां से निकलने की कोशिश कर सकती है।”

उनको आता पाकर दरबान ने फौरन शीशे का दरवाजा धकेल कर खोल दिया।

दोनों भीतर प्रवेश कर गये।

“वह ऐसा कुछ करे तो उसे पकड़ने की कोशिश करूं।” जगमोहन बोला।

“तब जैसा ठीक समझो, वैसा ही करना।” देवराज चौहान ने कहा।

होटल की खूबसूरत लॉबी से गुजरते देवराज चौहान और जगमोहन अलग-अलग हो गये।

☐☐☐

रात के बारह के ऊपर का वक्त हो चुका था।

लियू कुछ देर पहले ही ‘डिनर’ लेकर हटी थी और अब कॉफी के छोटे-छोटे घूंट ले रही थी। चेहरे पर सोच के भाव थे। मस्तिष्क में एक बात तो रह-रह कर आ रही थी कि दो-तीन घंटे उसे आराम कर लेना चाहिये। फिर शायद ठीक तरह से आराम करने का वक्त न मिले।

सुबह पांच बजे की फ्लाइट से उसने दिल्ली पहुंचना था। उसकी फ्लाइट की टिकट तो शाम को ही बुक हो चुकी थी। मन ही मन इस बात की तसल्ली थी कि हिन्दुस्तान आकर कुछ हासिल ही किया है। भारत आना खामख्वाह नहीं रहा। बहुत कीमती चीज हासिल कर ली।

तभी ‘डोर बेल’ बजी।

वेटर होगा? यह सोच कर लियू ने चाय का प्याला रखा और आगे बढ़कर बिलकुल ही लापरवाह सी दरवाजा खोल दिया।

दरवाजे के बाहर नजर पड़ते ही वह सकते की सी हालात में खड़ी रह गई।

सामने वानखेड़े था। उसके पीछे बाकी सब।

लियू के चेहरे पर छाये भावों से स्पष्ट तौर पर यह झलक रहा था कि वह सोच भी नहीं सकती थी कि किसी को उसके ठिकाने का पता होगा। अब कोई उस तक पहुंच सकता है।

लियू को संभलने का मौका ही नहीं मिला।

वानखेड़े उसे धकेलते हुए भीतर ले गया। इसके साथ ही बाकी सबने भीतर प्रवेश किया और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया गया। श्याम सुन्दर, नम्बरदार, मदन लाल, रामचरण, दीपसिंह और कर्मवीर यादव उसे घेर कर खड़े हो गये। वानखेड़े की आंखों में खतरनाक भाव चमक रहे थे।

लियू ने जल्दी से अपने पर काबू पाया और खुद को संभालने लगी।

“तुम हम सबको अच्छी तरह जानती हो कि हम कब से तुम्हारे पीछे हैं।” वानखेड़े कठोर स्वर में बोला –“लेकिन तुम्हारी गर्दन तक हमारे हाथ नहीं पहुंच पा रहे थे। अब पहुंच गये।”

“कैसे पहुंच गये?” लियू वानखेड़े को घूर रही थी।

“जिस फार्मूले को तुमने फिल्म में उतार कर असली पेपर्स जला दिए, वह माइक्रोफिल्म इस वक्त तुम्हारे पास है और अभी हमारे हाथ लगने जा रही है।” वानखेड़े ने दांत भींचकर कहा।

“मुझे नहीं मालूम तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो।” लियू ने माथे पर बल डालकर कहा –“मैं और मेरा दूतावास तुम लोगों से कितनी बार कह चुका है कि तुम लोग गलतफहमी में हो। मैं दूतावास की मामूली सी क्लर्क हूं। तुम लोग जाने क्यों मुझे जासूस समझ रहे हो।”

“सफाई देने की जरूरत नहीं। अभी मालूम हो जायेगा। तलाशी लो इसकी।”

लियू एक कदम पीछे हटती हुई बोली।

“कोई मुझे हाथ नहीं लगायेगा। मैं अपने दूतावास फोन करना चाहती –।”

“यह ठीक है कि हम सरकारी लोग हैं।” वानखेड़े ने शब्दों को चबाकर कहा –“लेकिन इस वक्त किसी को खबर नहीं कि हम, तुम्हारे पास हैं। इसलिए अपने दूतावास को दूर ही रखो। जो हम कह रहे हैं, वह मानती रहो। इस वक्त हम सिर्फ तुम्हारी तलाशी लेना चाहते।”

“लेकिन मेरे पास कोई माइक्रोफिल्म नहीं है। इस बारे में मैं कुछ नहीं जानती।”

“यह तो और भी अच्छी बात है। फिर तलाशी देने में क्या दिक्कत है।”

लियू ने विवशता भरी निगाह सब पर मारी।

“ले लो तलाशी। लेकिन कोई औरत तो हो जो मेरी तलाशी।”

“कोई औरत नहीं है। और ना ही कोई औरत बुलाई जायेगी तुम्हारी तलाशी हम में से ही कोई लेगा और अच्छी तरह लेगा। माइक्रोफिल्म को तुम कहीं भी छिपा सकती हो।” वानखेड़े ने दृढ़ स्वर में कहा।

लियू समझ गई कि बहाने बाजी से नहीं बच सकेगी।

“ले लो तलाशी।” लियू हथियार डालने वाले अन्दाज में कह उठी।

“श्याम सुन्दर तलाशी लो इसकी।”

श्याम सुन्दर आगे बढ़कर उसकी तलाशी लेने लगा।

सबसे पहले तो ब्रा के बीच फंसी पिस्टल मिली।

“इसका लाइसेंस है मेरे पास।” लियू ने फौरन कहा।

“जरूर होगा।” वानखेड़े खा जाने वाले स्वर में कह उठा –“तुम्हारे पास तो तोप का लाइसेंस भी हो सकता है।”

लियू मुस्करा पड़ी।

श्याम सुन्दर माइक्रोफिल्म की तलाश में अच्छी तरह तलाशी ले रहा था।

“देवराज चौहान के हाथों से माइक्रोफिल्म छीनकर, तीर मारने वाला काम किया है।”

“कौन देवराज चौहान?”

“ओह! मैं तो भूल ही गया था कि तुम कुछ नहीं जानतीं।” वानखेड़े ने व्यंग्य से कहा –“लेकिन एक बात तो याद होगी ही।”

“क्या?” लियू शांत थी।

श्याम सुन्दर तलाशी लेने में व्यस्त था।

“तुम्हें डकैती की खबर, पूरी योजना हम में से किसने बताई।” वानखेड़े ने उसकी आंखों में झांका।

“कौन सी डकैती। कैसी योजना?”

“मैं तो भूल ही गया था कि तुम देवराज चौहान को नहीं जानती तो डकैती के बारे में कैसे पता होगा।” वानखेड़े ने दांत भींचकर कहा फिर श्याम सुन्दर को देखा –“कोई जगह बिना तलाशी लिए नहीं छूटनी चाहिए।”

तलाशी में व्यस्त श्याम सुन्दर ने सिर हिला दिया।

“दिल तो करता है तुम्हें अभी गोली मार दूं।”

“तुम मुझे गोली नहीं मार सकते।” लियू विश्वास भरे स्वर में कह उठी –“तुम लोग सरकारी आदमी हो। किसी का खून कैसे कर सकते हो। मेरे खिलाफ तुम्हें किसी ने भड़का दिया है कि मैं जासूस हूं। जबकि मैं तो दूतावास में मामूली सी क्लर्क हूं। तुम्हारी हरकत की शिकायत मैं दूतावास में करूंगी।”

वानखेड़े की निगाह श्याम सुन्दर पर जा टिकी थी। जिसके चेहरे पर मायूसियत सी नजर आने लगी थी। देखते ही देखते वह उठा और गहरी सांस लेकर बोला।

“इसके पास माइक्रोफिल्म नहीं है।”

“यह कैसे हो सकता है।”

“मैं तो पहले से ही कह रही हूं कि तुम लोगों को गलतफहमी हुई है।” लियू बोली –“एक क्लर्क से!”

“शटअप।” वानखेड़े ने गुस्से से उसे देखा।

जवाब में लियू मुस्करा दी।

“तुमने अच्छी तरह तलाशी ली है?”

“हां।”

“गलती होने की कोई गुंजाइश नहीं।”

वानखेड़े ने सुर्ख आंखों से लियू को देखा।

“कहां है माइक्रोफिल्म?”

“पागल हो तुम। पूरे पागल हो।” लियू एकाएक गुस्से से कह उठी –“पचास बार कह चुकी हूं कि मैं एक मामूली सी क्लर्क हूँ। जासूस नहीं। कई बार अपनी तसल्ली कर चुके हो और मुझसे कुछ नहीं पा सके। अब तो तुम्हें विश्वास कर लेना चाहिये कि।”

“तलाशी लो कमरे की।” वानखेड़े दांत भींचकर कह उठा –“माइक्रोफिल्म यहीं-कहीं होनी चाहिये। एक-एक चीज को उधेड़ डालो। माइक्रोफिल्म अवश्य मिलेगी।”

लियू मस्कराई।

“नुकसान का ‘बिल’ होटल वाले तुमसे वसूलेंगे।”

वानखेड़े ने खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा।

सी.बी.आई. के सारे एजेंट कमरे की तलाशी में व्यस्त हो गये।

“तुम बच नहीं सकती।” वानखेड़े ने एक-एक शब्द चबाकर कहा –“हमारे लिए जरूरी नहीं है कि तुम्हें कानूनी तौर पर गिरफ्तार किया जाये। तुम्हें यूं ही पकड़कर बिठा लेंगे और किसी को मालूम भी नहीं होगा कि तुम कहां हो। बचोगी तभी, जब फिल्म के बारे में बता दोगी।”

“हिन्दुस्तान की पुलिस बहुत घटिया है।” लियू ने मुंह बनाया।

“चीन की पुलिस के हाथ में इस तरह हिन्दुस्तानी लड़की लगती तो अब तक जाने क्या कर दिया होता, उन कुत्तों ने। किस्मत वाली हो कि शरीफ बंदो से पाला पड़ा है। लेकिन अपना फर्ज पूरा करने के लिए मैं शरीफ बना नहीं रह सकता। तुम्हारे शरीर की एक-एक हड्डी तोड़ी जायेगी।”

लियू कुछ नहीं बोली। वानखेड़े को देखती रही।

वानखेड़े ने तलाशी में जुटे अपने साथियों को देखा।

“कोई चीज छूटनी नहीं चाहिए। माइक्रोफिल्म तलाश करके मुझे दिखाओ।” वानखेड़े का लहजा आर्डर भरा था।

लियू की निगाह टेबल पर पड़ी अपनी पिस्टल को बार-बार देख रही थी। श्याम सुन्दर ने उसके कपड़ों से निकालने के बाद पिस्टल को टेबल पर रख दिया था और किसी ने भी, पिस्टल की तरफ ध्यान नहीं दिया था। वह टेबल उसके चार कदमों के फासले पर था।

वानखेड़े की बेचैन निगाह तलाशी लेते उन सब पर थी। वह तो सोच भी नहीं सकता था कि इस तरह घिर जाने के बाद लियू कुछ कर पाने की हिम्मत कर सकती है। लियू दो कदम आगे बढ़ी।

वानखेड़े ने फौरन उसे देखा।

“मैं दूतावास फोन करना चाहती हूं।” लियू बोली। अब टेबल दो कदमों की दूरी पर था।

“खामोशी से खड़ी रहो।” वानखेड़े गुर्राया।

लियू ने ऐसा दिखावा किया, जैसे मजबूर हो गई हो।

वानखेड़े की निगाह पुनः हरकत में नजर आ रहे अपने साथियों पर जा टिकी।

उसी पल लियू बाज की तरह सिर्फ दो कदमों की दूरी पर टेबल पर मौजूद रिवॉल्वर पर झपटी। वानखेड़े को स्पष्ट तौर पर इस बात का आभास हुआ कि लियू कुछ करने जा रही है। वानखेड़े के मस्तिष्क में उसी पल खतरे की घंटी बजी। उसने लियू को संभालना चाहा और वानखेड़े की निगाह लियू पर ठीक तरह से टिक भी नहीं सकी थी कि, लियू ने टेबल से पिस्टल उठाकर, वानखेड़े के पेट से सटा दी।

जगमोहन लियू के कमरे के पिछवाड़े मौजूद था। वहां छोटा सा पार्क बना रखा था होटल वालों ने और खिड़की के नीचे ही छ: फीट हटकर, चार फीट चौड़ा रास्ता बना रखा था आने-जाने के लिए। पिछले आधे घंटे में, वहां से होटल के स्टाफ के ही तीन-चार लोग वहां से गुजरे थे।

अब तो आधी रात का वक्त हो चुका था।

इस वक्त हलचल न के बराबर हो रही थी। हर तरफ सुनसानी सी महसूस हो रही थी। कभी कभार होटल में से कोई उभरती आवाज कानों में पड़ जाती थी।

जगमोहन होटल के पार्क के पेड़ की ओट में खड़ा लियू के कमरे की खिड़की पर नजरें टिकाये हुए था। खिड़की खुली हुई थी। रोशनी भीतर फैली हुई थी। कभी-कभार खिड़की में से किसी के सिर की झलक मिल जाती थी। यानी कि वानखेड़े अपने आदमियों के साथ भीतर पहुंच चुका था। लियू को घेर चुका था।

भीतर क्या स्थिति है, जगमोहन यह जानना चाहता था। परन्तु यहां से हट भी नहीं सकता था कि कहीं लियू मौका पाकर, खिड़की से निकलने की कोशिश न करे। जगमोहन ने नीचे से खिड़की तक देखा। जमीन से चौदह-पन्द्रह फीट ऊंची खिड़की।

लियू खुद को फंसी पाकर, पन्द्रह फीट से आसानी से छलांग लगा सकती थी।

तभी जगमोहन की निगाह खिड़की के साथ होती, एक पाइप पर पड़ी। वह पाइप शायद रेनवाटर पाइप थी। जगमोहन के होंठ सिकुड़े। यहां खड़े-खड़े उसे बोरियत होने लगी थी और मन में इस बात की उत्सुकता थी कि भीतर क्या हो रहा है? आखिरकार, जगमोहन ने खिड़की के भीतर देखने का फैसला किया कि पाइप के सहारे एक बार ऊपर चढ़कर देख लेने में क्या हर्ज है। बाद में वैसे ही नीचे उतर आयेगा।

जगमोहन ने सतर्क निगाहों से आस पास देखा। वह चार फीट का रास्ता दाएं और बाएं दोनों तरफ खाली था। कोई आ-जा नहीं रहा था। उस रास्ते पर होटल वालों की लाइटें लगी थी।

पूरी तसल्ली करने के बाद जगमोहन पेड़ के तने की ओट से निकला और सावधानी से आगे बढ़ता हुआ खिड़की के नीचे तक पहुंच गया।

रात के इस वक्त कहीं कोई नहीं था। यह जुदा बात थी कि जब वह पाइप के ऊपर चढ़ा हो तब कोई नीचे से गुजरे और उस पर निगाह पड़ जाये। जो हो, अब सोचने का वक्त नहीं था। जगमोहन ने पाइप को थामा और फिर उसमें जूते फंसाता हुआ, ऊपर चढ़ने लगा। एक डेढ़ मिनट में ही वह खिड़की के पास पहुंच चुका था। तभी खिड़की से आती वानखेड़े की आवाज भी उसके कानों में पड़ी।

जगमोहन ने एक हाथ से सख्ती से पाइप को थामा। दोनों जूतों फंसाया फिर एक हाथ आगे करके खिड़की की चौखट को थामा और अपना शरीर भी आगे किया।

कमरे के भीतर का सारा नजारा उसकी आंखों के सामने स्पष्ट हो गया।

और यह वही वक्त था, जब लियू रिवॉल्वर पर झपटी थी।

जगमोहन की निगाह अभी कमरे में ठीक तरह से टिक भी नहीं पाई थी कि उसने लियू को टेबल पर पड़ी पिस्टल पर झपटते और फिर पिस्टल वानखेड़े के पेट से लगाते देखा । दो पल के लिए तो जगमोहन सकपका उठा। कमरे में यह सब देखेगा, ऐसा तो उसने सोचा नहीं था। लियू इतने लोगों के सामने कोई हिम्मत वाला काम कर सकती है, यह बात भी उसकी सोच से परे थी।

जगमोहन ने लियू के चेहरे को ध्यान से देखा। उस वक्त छत पर अंधेरे की वजह से वह चेहरा नहीं देख पाया था। सिर्फ आवाज ही सुन सका था। जगमोहन को लगा वक्त कम है। लियू किसी भी वक्त कमरे से निकल सकती है। जगमोहन ने चौखट छोड़ी और जल्दी से पाइप से नीचे उतरने लगा।

वानखेड़े हक्का-बक्का रह गया।

लियू चेहरे पर खतरनाक भाव लिये ठीक उसके सामने खड़ी थी और उसके हाथ में दबी पिस्टल उसके पेट से सटी हुई थी। इसके साथ ही लियू कुछ इस तरह वानखेड़े की ओट में हो गई थी कि कोई उस पर गोली चलाए तो वह उसे न लगकर वानखेड़े को लगे।

धीरे-धीरे सबकी निगाह इस तरफ हो गई।

उनका तलाशी लेना बंद हो गया। मदनलाल और श्याम सुन्दर का हाथ जेबों की तरफ बढ़ा।

“कोई हरकत नहीं करेगा। लियू की निगाह जैसे वानखेड़े पर न होकर, सब पर थी –“किसी ने रिवॉल्वर निकालने या उसे इस्तेमाल करने की कोशिश की तो, खून-खराबा हो जायेगा। मैं सिर्फ एक हूँ। जबकि तुम लोग सात हो। जाहिर है, मरते-मरते दो-तीन को तो मार ही जाऊंगी।”

वानखेड़े के दांत भिंचते चले गये।

“तुम बच नहीं सकती।” वानखेड़े दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा।

लियू मुस्कराई। कड़वी मौत से भरी मुस्कान।

“और तुम मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते।”

“तुम अभी कानून के हाथों से वाकिफ नहीं हो।” वानखेड़े पहले जैसे स्वर में बोला–“मैं–।”

“कानून के हाथों की सीमा में अच्छी तरह जानती हूं मिस्टर वानखेड़े।“ लियू एक–एक शब्द चबाकर कह उठी –“बंद कमरे में तुम मेरे साथ कुछ भी कर सकते हो। लेकिन इस कमरे से बाहर निकलने के बाद तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मुझे उंगली भी लगाने का मतलब है, तुम्हारे देश को, महान चीन को जवाब देना पड़ेगा कि तुमने ऐसा क्यों किया। क्योंकि मैं दूतावास में क्लर्क हूं। लाख कोशिश करके भी तुम यह साबित नहीं कर सकते कि मैं जासूस हूँ।”

“बहुत जल्द यह भी साबित हो जायेगा।” वानखेड़े ने दांत भींचकर कहा।

“कुछ साबित नहीं होगा। मेरे बिछाये जाल में तुम लोगों के फिट होने की कोई गुंजाइश नहीं है। लियू का जाल ही ऐसा होता है कि कोई उसमें प्रवेश कर मुझ तक नहीं पहुंच सकता। तुम शुरू से ही मेरे पीछे पड़कर बेकार की कोशिश कर रहे हो। लियू आज तक किसी के हाथ में नहीं आ सकी । तुम क्या लियू का गिरेबान पकड़ोगे। अगर हिम्मत है तो पकड़ लो मुझे। मैं नीचे होटल की लॉबी में हूं। मुझे उंगली लगाकर भी दिखा दो।” लियू की आवाज में बेहद खतरनाक भाव थे। इसके साथ ही वह वानखेड़े के साथ कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी।

स्थिति ऐसी थी कि देखने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था।

लियू की सतर्क निगाह ने जैसे सबको बांध रखा था।

“हम तुम्हें उंगली नहीं लगा सकते तो कहीं से गोली आकर तो तुम्हें लग सकती है।” वानखेड़े गुर्राया।

“नहीं। तुम लोग मेरी जान लेने का हौसला तब तक नहीं कर सकते, जब तक माइक्रोफिल्म तुम लोगों के हाथ नहीं लग जाती और भूल जाओ फिल्म को। वह तुम लोगों के हाथ नहीं लग सकती।”

लियू, वानखेड़े को लिए दरवाजे तक पहुंच चुकी थी।

गुस्से से वानखेड़े का चेहरा स्याह हो रहा था।

तभी लियू ने वानखेड़े को जोरों से भीतर की तरफ धक्का दिया। वानखेड़े तेजी से लड़खड़ाता हुआ तीन-चार कदम कमरे में चला, जाता गया। इससे पहले कि वह या बाकी संभलते, लियू दरवाजे से बाहर निकली और पलटते हुए सिटकनी लगा दी। उसी वक्त भीतर से दरवाजा खोलने की कोशिश की गई। लेकिन सिटकनी लगी होने की वजह से दरवाजा नहीं खुल सका। लियू ने पिस्टल वापस डाली और शांत भाव से लिफ्ट की तरफ बढ़ गई।

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जगमोहन ने तेज-तेज कदमों से लॉबी में प्रवेश किया। नजरें हर तरफ घूमती चली गईं। दूसरे ही पल उसकी निगाह लॉबी के सोफों पर बैठे देवराज चौहान पर पड़ी। वह, देवराज चौहान के पास पहुंचा। देवराज चौहान ऐसी जगह बैठा था, जहां से हर आने-जाने वाले पर निगाह रखी जा सके।

वह, जगमोहन को पास आते देख चुका था।

जगमोहन उसकी बगल में आ बैठा और जल्दी से कम शब्दों में सारे हालात बता दिए।

“पार्किंग में कार के साथ सोहनलाल है।” देवराज चौहान उठते हुए बोला –“जो खबर हो, वहीं देना।”

जगमोहन उठा और तेजी से बाहर की तरफ बढ़ता चला गया।

देवराज चौहान के कदम एक तरफ नजर आ रही, लिफ्ट की तरफ बढ़ते चले गये।

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