इदरीस पाण्डे जी के पास से चल कर तहखाने का द्वार पार करता हुआ अपने साथियों से बोला-'आखिर पाण्डे जी ने मुझे हरा ही दिया। मैं उनके तेज से हार गया, दरवाजा खुला रहने दो। मैं अभी लौट कर आ रहा हूं।'

तहखाना पार करके वह ऊपर पहुंचा।

हवेली के अन्दरूनी भाग की ओर वह बढ़ा। कभी रहमत मिर्जा का जमाना था जब हवेली का यह अन्दरूनी भाग जनानखाना कहलाता था, खूब गुलजार जगह थी। इदरीस की मां के जमाने में वहां दसियों कनीज थीं। फिर सब कुछ बदल गया।

अब यह हवेली का भीतरी भाग उजाड़ था। ऐसा भी न लगता था कि सारे जनानखाने के कक्षों में दिये भी जलते हों!

शान्त इदरीस अन्धेरे में ही बढ़ा जा रहा था। एक कक्ष के दरवाजे पर पहुंच कर उसने दरवाजा खटखटाया।

एक बार...दो बार...दस बार...सौ बार।

बहुत देर लगी।

तब कहीं अन्दर से आवाज आई-'कौन...?'

एक मृदुल स्त्री कण्ठ की ध्वनि।

-'इदरीस हूं, दरवाजा खोलिये।'

-'इस वक्त?' अन्दर से फिर आवाज आई।

-'जी, जरूरी काम है।'

दरवाजा खुला। अन्दर शमादान में दो शमायें जला रहीं थीं। फलस्वरूप दरवाजा खोलने वाली स्त्री का चेहरा बिल्कुल अन्धकार में न था।

सुन्दर!

बहुत सुन्दर!!

आंखों में नींद का भारीपन। ओढ़नी अस्त-व्यस्त...बालों की लटें चेहरे को चूमती हुई।

इदरीस कमरे के अन्दर नहीं गया। बाहर से ही बोला-'बेवक्त तकलीफ के लिए माफी चाहता हूं।'

-'तशरीफ लाइये।'

-'जी नहीं। अन्दर नहीं आऊंगा। आपको मेरे साथ चलना होगा, तहखाने तक।'

-'क्यों?'

-'जी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है।'

-'हम भी तो जानें!'

-'वहीं चल कर जान लीजिएगा।बात कुछ बिगड़ गई है।'

-'आपकी आवाज में परेशानी है। खुदा के लिए बताइए न कि क्या बात है?'

-'बात तो वही है...लेकिन अब बात खुलेगी।'

-'ऐसा नहीं होगा।'

-'मैं कब चाहता हूं कि ऐसा हो! लेकिन अब ऐसा होकर रहेगा। एक ऐसा आदमी बीच में आ गया है जिसकी इज्जत मैं अपने मरहूम वालिद साहब जितनी करता हूं। मैंने सख्त बनने की कोशिश की, मैंने उन्हें तहखाने में कैद तक कर दिया। लेकिन मुझे उनके बड़प्पन के सामने झुकना पड़ा।'

वह मुस्कराई-'उनके सामने बात खुल ही जाए तो क्या हर्ज है...वह तो आपके खास हुए?'

-'हां...वह मेरे खास हैं, लेकिन वह नवाब साहब के भी खास हैं।'

चौंकी वह स्त्री-'तब क्या होगा?'

-'मैं कुछ नहीं कह सकता कि क्या होगा!'

-'कुछ भी नहीं कह सकते?'

-'कुछ कह भी सकता हूं...सुनेंगी?'

-'जरूर।'

-'सिर्फ इतना कह सकता हूं कि जो वादा मैंने किया है उस पर मैं तब तक कायम रहूंगा जब तक जिन्दा हूं।'

-'ओह।'

सुन कर स्त्री गदगद हुई। उसके दोनों रेशम जैसे मुलायम हाथ बढ़े और उन हाथों ने इदरीस का हाथ थाम लिया। वह झुकी, उसने इदरीस के हाथ पर अपने होठों का चुम्बन अंकित कर दिया।

फिर वह रुंधे गले से बोली-'यह तो मेरे सरताज आपने सभी कुछ कह दिया। जो देखा है जो समझा है...उसके मुताबिक वह रास्ता, जिस पर फूलों की सेज बिछी है मुझे पहुंचाता है लानत की तरफ। वह रास्ता जो आपने मुझे दिखाया है, कांटों से भरा है लेकिन मैं खुशी-खुशी उस रास्ते पर चलने के लिये इसलिये तैयार हूं कि जिन्दगी की असल मंजिल वही है। मैंने हाथ बढ़ाया और आपने हाथ थाम लिया। हमेशा हाथ थामें रहें...बस। यकीन रखिये, आपकी यह लौंडी आयशा किसी भी वक्त पर, कैसे भी वक्त पर आपका हाथ न छोड़ेगी। मैं अभी हाजिर हुई। अन्दर आ जाइए न...बाहर हवा में खड़े हैं!'

-'मैं ठीक खड़ा हूं, आ जाइये आप।'

यह आयशा थी!

आयशा इदरीस के पास?

आयशा इदरीस के पास है यह बात आश्चर्य की नहीं। आश्चर्य की बात यह है कि जिसे किसी ने घर से जबरदस्ती उठाया हो और जो अपने मां-बाप और भाई से दूर है...परेशान क्यों नहीं नजर आती?

खुश क्यों है?

एक स्पष्ट उलझन। एक अजीब स्थिति।

करीने से ओढ़नी ओढ़ कर, ओढ़नी के ऊपर शाल ओढ़ कर, पांवों में कामदार जूतियां पहन कर...एक शहजादी जैसी अभिजात चाल से चलती हुई आयशा बाहर आई।

-'आपसे हमें शिकायत है।' वह बोली।

-'जी जरुर होगी, हमने बहुत से शिकायत के काम किए हैं। अगर आपको शिकायत है तो ताज्जुब क्या?'

-'बनाने का इल्म आप खूब जानते हैं। लेकिन साहबे आलम, हमें आपसे शिकायत यह है कि आप आते हैं और बेगानों की तरह बाहर खड़े हो जाते हैं।'

-'मुनासिब तो यही है।'

-'लेकिन हम कहते हैं कि जो नामुनासिब है उसे मुनासिब बना दीजिये। हमसे अकेलापन नहीं सहा जाता। कहना हम यह चाहते हैं साहबे आलम कि क्या लखनऊ में कोई ऐसा मौलवी नहीं है जो हमारा निकाह करा दे...?'

चौंक कर मुड़ते हुए इदरीस ने आयशा की ओर देखा।

बात कहने को तो कह दी लेकिन फिर वह लाज से जैसे दोहरी हो गई।

-'आयशा!'

दृष्टि झुकाये बुत बनी खड़ी थी आयशा।

-'यूं आपने हमारी किस्मत का फैसला बहुत दिन पहले कर दिया था, लेकिन फैसले को इतनी जल्दी लागू भी कर देंगी यह जान कर बहुत खुशी हुई। शुक्रिया आपका...अब तो हालत यह है कि बाकी रात बड़ी मुश्किल से कटेगी हमारी।'

-'जाइए...बनाते हैं!' धीमी सी, फुसफुसाहट भरी आवाज।

-'नजर उठाइये न!'

-'कैसे उठायें हम नजर?'

-'आयशा बानो, अजीब है कुदरत का खेल। इन्सान करता कुछ है और होता कुछ अलग है। आखिर हमारी मंजिल एक हुई, और मंजिल के पहले पड़ाव पर हम आ ही पहुंचे।'

आयशा चुप।

वह फिर बोला-'अजीब हैं आप भी। अपने सवाल पर ही लजा रही हैं!'

-'अब यहीं बातें किए जायेंगे...?'

-'ओह...नहीं साहब नहीं। आइए चलें।'

दोनों फिर चल पड़े।

इदरीस बताता चल रहा था-'यह भी एक अजीब इत्तफाक हुआ है। चतुरी पाण्डे मेरे मरहूम वालिद के गहरे दोस्त और लखनऊ के नामी जासूस हैं, अंग्रेजों के खास दुश्मन भी हैं... बात ऐसी बनी कि एक बरस पहले रेजीडेन्ट ने दवाब डाल कर उन्हें सरकारी अमले से छुट्टी दिला कर गांव में भिजवा दिया था। अब नवाब साहब ने उन्हें फिर बुलवाया। रेजीडेन्ट से शर्त बदी है नवाब साहब की। पाण्डे जी आपकी तलाश कर रहे हैं।'

-'मुझे?'

-'जी हां।'

-'तब होगा क्या?'

-'जो भी हो। बहरहाल इतना कह सकता हूं कि पाण्डे जी कम से कम मेरा बुरा नहीं चाह सकते। यूं वह नवाब साहब के खास वफादारों में से हैं।'

उन दोनों ने यह ड्योढ़ी पार की जो जनानखाने और मदर्शन के बीच को सीमा थी।

यकायक वह दोनों ठिठक कर रुक गए।

दूर मुख्य ड्योढ़ी से कोई पुकारा-'चोर चोर...दौड़ो...पकड़ो।'

भाग दौड़ की आवाजें।

परन्तु उन्हीं आवाजों में से सन्नाटे को बेधती सी आवाज गूंजी-'जाग मछिन्दर गोरख आया।'

-'जाग मछिन्दर गोरख आया।'

-'जाग मछिन्दर गोरख आया।'

निरन्तर एक ही आवाज...सन्नाटे को बेधती हुई-'जाग मछिन्दर गोरख आया।'

परेशानी की सी हालत में इदरीस आयशा का हाथ थामे हुए आगे बढ़ा।

तभी एक उल्लू की आवाज भी गूंजी। कहीं आस-पास ही उल्लू की आवाज।

वह बढ़ा चला जा रहा था। बरामदे में दो शमायें जल रही थीं।

एक वर्दीधारी सैनिक उधर ही दौड़ता हुआ आ रहा था।

-'रुको सुलतान।' दौड़ते हुए व्यक्ति को इदरीस ने टोका।

-'जी...दरअसल चोर चोर की आवाज गूंजी, फिर आवाजें आई...जाग मछिन्दर गोरख आया। उस आवाज को सुनते ही पाण्डे जी दौड़ पड़े। वह...।'

-'पाण्डे जी की फिक्र मत करो।'

-'लेकिन...!'

-'मैं कह रहा हूं पाण्डे जी की फिक्र मत करो, वह कहीं नहीं जायेंगे। तुम इनके साथ रहो। मैं देखता हूं कि कौन है।'

इदरीस ने म्यान में से तलवार खींच ली और हवेली के बाहर की दिशा में दौड़ पड़ा।

वह हवेली के विस्तृत सहन में जा पहुंचा।

वहीं चांदनी के हल्के प्रकाश में उसने देखा कि कोई उसके सेवक से उलझा हुआ है।

-'कौन है?' इदरीस ने पुकार कहा।

यह था नजीर।

वह एक सैनिक जैसे बल वाले व्यक्ति से उलझा हुआ था। परन्तु जैसे ही उसने ललकार सुनी, उस व्यक्ति को पटकी देते हुए उसकी म्यान से तलवार खींच ली।

इदरीस अब नजीर के निकट पहुंच चुका था।

-'कौन है तू?' इदरीस ने पूछा।

नजीर चीखा-'जाग मछिन्दर गोरख आया।'

कहीं दूर से उल्लू जैसी बोली सुनाई पड़ी।

यह पाण्डे जी का स्वर था। यह जाग मछिन्दर गोरख आया का उत्तर था।

नजीर ने चाहा कि वह इदरीस से बच कर अन्दर उस ओर निकल जाये जिधर से पाण्डे जी के बोलने की आवाज आई थी।

परन्तु बच कर जाना सम्भव न हो सका। इदरीस की तलवार ने राह रोकी।

तलवार से तलवार टकराई, लोहे से लोहा बज उठा।

नजीर फिर चीखा-'भाग मछिन्दर गोरख आया।'

फिर हवेली के अन्दर से उल्लू की सी बोली सुनाई पड़ी। इधर दांव पेंच चल रहे थे।

तलवारबाजी में इदरीस ने विशेष शिक्षा प्राप्त की थी। परन्तु सामने वाले ने उसे चमत्कृत कर दिया।

यूं आरम्भ में नजीर बचाव की स्थिति में था, परन्तु शीघ्र ही उसकी तेज तलवारबाजी ने इदरीस को बचाव की स्थिति में ला दिया।

अन्धेरे में तलवारबाजी के दांव चल रहे थे।

इस बार इदरीस बाल-बाल बचा। फिर दूसरी बार तब जबकि वह बड़ी कठिनाई से नजीर के आड़े वार को रोक पाया था।

यकायक मशाल का प्रकाश हुआ।

दरवाजे से पाण्डे जी निकले...मशाल हाथ में लिए।

उनका स्वर गूंजा-'खबरदार...दोनों अलग हटो। बेवकूफो, आपस में खून के प्यासे बने हो? नजीर, यह मेरा भतीजा है इदरीस। इदरीस, यह मेरा शागिर्द है नजीर। दूसरी बातें बाद में होंगी। पहले दोनों तलवारें फेंक कर गले मिलो।'

संघर्ष समाप्त हो गया।

पाण्डे जी का आदेश पाते ही तुरन्त दोनों ने तलवारें फेंक दीं और बांह बढ़ा कर एक दूसरे से गले मिले।

इदरीस आदरपूर्वक नजीर और पाण्डे जी को अन्दर ले गया।

बैठकखाने में शमाएं जला कर खूब रोशनी की गई।

जब सब इत्मीनान से बैठे तो इदरीस ने कहा-'पाण्डे जी, वास्तव में बात यह है कि मैं आपसे युद्ध करके भी नहीं जीत सकता। इसकी एक वजह यह भी है कि मेरी तलवार आप पर नहीं उठ सकती। जब आप सामने होते हैं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे जन्नतनशीन वालिद साहब सामने खड़े हों। काश इस मामले से आपका सरोकार न होता तो यकीन कीजिये तस्वीर का रुख ही कुछ और होता। बहरहाल अब तो यही एक रास्ता है कि मैं अपनी किस्मत को आपके हाथों सौंप दूं और जो भी इन्साफ आप करें उसे सिर झुका कर तसलीम कर लूं। आयशा को मैंने ही नबी बख्श सौदागर के यहां से उठवाया था।'

पाण्डे जी ने टोका-'लेकिन क्यों...बेटा, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता कि मेरे स्वर्गवासी दोस्त की औलाद ऐसा काम कर सकती है?'

-'जहर को जहर मारता है पाण्डे जी।'

-'यही तो मैं समझना चाहता हूं। मैं समझना चाहता हूं कि तुम्हारी नबी बख्श सौदागर से क्या रंजिश है?'

-'अब तो सभी कुछ आपको बताऊंगा पाण्डे चाचा, सभी कुछ बताऊंगा। पहले...पहले यह यकीन कर लीजिए कि कहीं मैंने आपके दोस्त की और आपकी शान को बट्टा तो नहीं लगाया है! आयशा...आयशा...आ जाओ।'

आयशा!

वही युवती।

वही युवती जिसे इदरीस जनानखाने से ला रहा था बैठकखाने में प्रविष्ट हुई।

उसकी ओढ़नी का घूंघट उसके साभ्रान्त होने का परिचायक था।

और भले घर की स्त्री की तरह वह सिर झुकाये थी।

बैठे-बैठे ही इदरीस बोला-'आयशा बानो...घूंघट हटा दो। यहां कोई गैर नहीं है। यह जो बैठे हैं नजीर साहब...यह हैं पाण्डे जी के शागिर्द, इस रिश्ते से यह मेरे भाई हुए। पाण्डे जी...यह हैं मेरे चचा...घर के आदमी...बिल्कुल अपने।'

सहमी-सी आयशा ने घूंघट हटाया।

पाण्डे जी को, नजीर को आयशा ने झुक कर आदाब बजाया।

-'जीती रहो बेटी...जीती रहो। आओ आओ। यहां मेरे सामने बैठो।'

करीने से ओढ़नी सम्भाल कर आयशा बैठ गई।

इदरीस कह रहा था-'आयशा, पाण्डे चाचा मेरे बुजुर्ग हैं। अगर मुझसे कोई शिकायत है तो वह कहो। अगर तुम्हें इस घर में कोई तकलीफ है तो वह भी कहो, और...।'

-'चचा साहब!' आयशा बोली।

-'बोलो बेटी।'

-'यह फरमाते हैं कि आप घर के बड़े हैं।'

-'बेशक।' मुस्कराते हुए पाण्डे जी बोले-'घर का बड़ा तो हूं ही।'

-'छोटे बड़ों से ही मन की मुराद मांगा करते हैं।'

-'जानता हूं बेटी।'

-'इन्हें हुक्म दीजिये कि यह मेरे साथ निकाह कर लें। इन्हें हुक्म दीजिये कि देर न करें।'

पाण्डे जी तनिक चौंके। मुस्कराये भी।

-'इदरीस के साथ शादी करोगी बेटी?'

-'मुझे पूरी उम्मीद है कि हम दोनों को आपकी दुआयें भी मिलेंगी।'

-'तुम नबी बख्श सौदागर की बेटी हो?'

-'जी।'

-'वक्त-वक्त की बात है...आज लखनऊ में उसका सितारा बुलन्द है। आज तुम्हारे खानदान के मुकाबले इदरीस कंगाल है।'

-'यह आप कह रहे हैं चचा साहब?'

-'क्या मैंने झूठ कहा है?'

-'आपने शर्मनाक सच्चाई कही है। मुझे तकलीफ है इस बात की कि मेरा खानदान वतन बेच कर रईस हुआ है। एक ऐसी तिजारत से रईस हुआ है कि मैं नजर नहीं उठा सकती।'

-'सुनो...सुनो बेटी, इस बहस से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मैं तो हुजूर नवाब साहब का नमकख्वार हूं। मुझे नवाब साहब का हुक्म बजाना है और उनका हुक्म है कि मैं तुम्हें बरामद कर दूं। मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि एक बार तुम हुजूर नवाब साहब के सामने पेश होकर कह दो कि तुम इदरीस से निकाह करना चाहती हो। बात खत्म।'

-'मैं कह दूंगी, एक बार नहीं हजार बार कह दूंगी।'

-'बस। इसके बाद मेरी जिम्मेदारी खत्म।'

-'मुझे कुछ कहना है पाण्डे चाचा।' इदरीस बोला।

-'कहो बेटा।'

-'मुझे सिर्फ आपका इन्साफ चाहिये।'

-'क्या मैंने कोई बेइन्साफी की है?'

-'सारा लखनऊ जानता है कि आप इन्साफ पसन्द हैं। जब उस गोरे को सजा नहीं मिली तो आपने उसकी नाक काट ली। सजा उन लोगों को भी तो मिलनी चाहिए जिन्होंने मेरा भाई मुझसे छीन लिया, मेरी भाभी आज पागल हो गई।'

-'काश मेरे हाथ की बात होती! लेकिन बेटा, खुदा की खुदाई में मेरा क्या दखल?'

-'मेरे भाई को क़त्ल किया गया था।'

-'अरे!' चौंके पाण्डे जी-'इल्यास का कत्ल हुआ...कैसे? क्यों? किसने कत्ल किया?'

-'बताऊंगा...आपसे कुछ न छुपाऊंगा पाण्डे चाचा। लेकिन मुझे आपका इन्साफ तो मिलेगा?'

जबान से निकल कर बात पराई हो जाती है। पाण्डे जी को उत्तर देने में हिचक हुई।

-'मेरे भाई का कत्ल हुआ और मेरी भाभी...आपने देखा है न उस पगली को? न मुर्दा है न जिन्दा।'

-'मुझे बताओ न, मुझे बताओ तो यह सब कैसे हुआ...किसने किया?'

-'बताऊंगा...बताने के लिए ही बैठा हूं। लेकिन सवाल यह है जिसने आपके दोस्त के जवान बेटे को मार दिया, जिसने आपके दोस्त के बेटे की दुल्हन को जिन्दा लाश बना दिया... क्या आप उससे बदला न लेंगे?'

पाण्डे जी सुन कर फिर मौन हो गये।

इदरीस उठ कर खड़ा हो गया-'शायद यह कहावत सही है कि जिसकी बिगड़ जाती है, उसका कोई साथी नहीं होता। जाने दीजिए...मैं आपसे कोई वादा न लूंगा, मैं आपको कुछ न बताऊंगा। सुबह होने दीजिये, मैं और आयशा दोनों आपके साथ नवाबी महल क्या जहन्नुम में भी जाने के लिये तैयार होंगे।'

-'मेरी बात सुनो बेटा।' धीमे स्वर में पाण्डे जी बोले।

-'कोई फायदा नहीं है। वक्त बरबाद करने से क्या होगा?'

-'मेरी बात सुनो।' पाण्डे जी उठे और इदरीस के निकट जा पहुंचे। उन्होंने स्नेहपूर्वक उसका कंधा थपथपाया।

इदरीस ने दृष्टि उठाई। उसकी आंखों में आंसू थे।

-'बेटा, मैं चाहता था कि हकीकत जाने बिना अपनी जबान से कोई वादा न करूं। परन्तु मैं तुम्हें बुझता हुआ नहीं देख सकता। मैं वादा करता हूं कि सिर्फ नवाब साहब को छोड़ कर... लखनऊ में या हिन्द में...जो भी तुम्हारा दुश्मन होगा उसके साथ मैं इन्साफ करूंगा। अब मुझे सब कुछ बताओ बेटा। मैं अपने मरहूम दोस्त की कसम खाकर कहता हूं कि चाहे तुम्हारा दुश्मन कोई नवाबजादा ही क्यों न हो, मैं तुम्हारे मुजरिम को सजा दूंगा।'

आवेश में इदरीस पांडे जी के गले लग गया।

इसके बाद...!

वह दोनों बैठ गए और इदरीस ने सुनाना आरम्भ किया...वह सब जो पांडे जी नहीं जानते थे।

मुर्गे ने बांग दी।

पक्षी चहचहाने लगे थे...भोर हो गई थी।

हवेली का दरवाजा खुला। पाण्डे जी, इदरीस और नजीर बाहर आये।

इदरीस का एक साथी पाण्डे जी के लिए घोड़ा बाहर ले आया।

-'तो इजाजत है गुरु जी?' नजीर ने पूछा।

इससे पूर्व कि पाण्डे जी कुछ कहें इदरीस बोला-'आप भाई जान को बेकार ही तकलीफ दे रहे हैं। मैंने दसियों हकीमों को दिखाया है, सभी ने लाइलाज बताया है।'

मुस्कराये पाण्डे जी-'हम लोग उसे बेवकूफ समझ सकते हैं। लेकिन हकीकत में वह बेवकूफ नहीं है। मुझे पक्का यकीन है कि वह इलाज कर सकता है...अगर ऐसा न भी हो तो भी मुझे उस शैतान की जरूरत है। नजीर तुम जा सकते हो, जल्दी लौटना। वक्त कम है और काम ज्यादा है।'

-'जो हुक्म गुरु जी।'

-'लेकिन कोई जाने नहीं।'

-'आप बेफिक्र रहिए।'

नजीर तुरन्त ही घोड़े पर सवार हो गया।

सबसे पहले वह कहारों के टोले में पहुंचा और वहां से एक डोली और आठ कहार लिए।

इसके बाद वह डोली और कहारों को लेकर उस साधू की झोपड़ी की ओर चल पड़ा जहां रात में बहरामशाह को छोड़ आया था।

बस्ती को पीछे छोड़ कर वह गोमती के कछार की ओर बढ़ रहा था।

दिन खूब हो गया था। हल्की-हल्की धूप फैली हुई थी।

नजीर ने दूर से ही देखा कि वह साधू और बहरामशाह झोंपड़ी के बाहर खड़े कुछ बातें कर रहे थे।

नजीर ठिठक गया, उसने डोली वालों को रुकने का संकेत किया।

उधर साधू फिर अपनी धूनी पर बैठ गया और बहरामशाह वहां से चल पड़ा। सम्भवतः अपने अड्डे शाह नसीर के मजार पर पहुंचने के लिए।

नजीर ने कहारों को वृक्षों की ओट में आगे बढ़ने का आदेश दिया।

वह तब तक कहारों के साथ ओट में चुपचाप चलता रहा, जब तक कि साधू की झोंपड़ी ओझल न हो गई। इसके बाद उसने कहारों से डोली रख कर वहीं इन्तजार करने के लिए कहा और घोड़ा दौड़ा दिया।

बहरामशाह चिन्ता में डूबा और अस्वस्थ-सा धीरे-धीरे जा रहा था। नजीर ने अपना घोड़ा ठीक उसके सम्मुख जाकर रोका।

-'मैंने कहा...आदाब अर्ज है शाह साहेब।'

-'तसलीमात!' नजीर को पहचानने का यत्न करते हुए शाह बोला-'बेटा तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी, मैं कुछ बीमार हूं...क्या मुझे शाह नसीर के मजार तक घोड़े पर छोड़ दोगे?'

-'लाहौल विला!' घोड़े से कूदते हुए नजीर ने कहा-'बेटा? मालूम होता है आपने अक्ल बेच खाई...मुझे बेटा कह रहे हैं?'

कुछ परेशान-सा, कुछ संदिग्ध-सा और कुछ भयभीत सा शाह कुछ पीछे हटा-'तुम, नौजवान...तुम मेरे बेटे के ही तो बराबर हो!'

-'फिर बकवास...मैं तुम्हारे बेटे के बराबर नहीं, तुम्हारे बाप के बराबर हूं। क्या भूल गये, लाल देव और काले देव को?'

शाह जो पहले ही अस्वस्थ था...पीला पड़ गया।

वह पीछे हट रहा था, एक-एक कदम पीछे। ऐसे जैसे सामने कोई जहरीला सांप हो जो निगाह बचते ही डसने के लिए तत्पर हो।

इधर मुस्कराते हुए नजीर ने घोड़े की जीन से बंधी रस्सी खोल कर उसमें फंदा डालना आरम्भ कर दिया था।

-'कान खोल कर सुन लो शाह साहब, रात में देख ही लिया होगा कि मैं भी अपने नाम का एक ही पलीत हूं। कहे देता हूं कि अगर भागने की कोशिश की तो इस बार टांगे ही तोड़ दूंगा।'

-'लेकिन...लेकिन नौजवान मेरा कसूर क्या है, तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हो? तुमने मेरी सारी दौलत लूट ली। तुमने तो मुझे जान से ही मार दिया था। लेकिन मैंने तुम्हारा बिगाड़ा क्या है? खुदा तुम्हारा भला करेगा...नौजवान, मुझे अपनी राह जाने दो...मैं...मैं...।'

-'आप पिल्ले की तरह मिमिया क्यों रहे हैं शाह साहब?'

-'मुझे मेरी राह जाने दो।'

-'यह बाद की बात है।'

-'मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?'

-'तुमने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा शाह साहब? यह जो दौलत मैंने लूटी...शायद बारिश के साथ बरसी थी और तुमने समेट ली? सैंकड़ों को लूटा है तुमने...हजारों को बर्बाद किया है। अब मेरी बारी है। मैं तुम्हें जीते जी शैतानी जहन्नुम में ले जाऊंगा, आगे आओ।'

-'रहम...अल्लाह के वास्ते।'

-'फिर बकवास! सांप पर रहम नहीं किया जाता, मैं कहता हूं आगे आओ।'

-'मैं...मैं...।'

दूर-दूर तक उजाड़। आस-पास कोई भी तो नहीं।

लेकिन जान से ज्यादा कोई चीज प्यारी नहीं होती। यकायक शाह मुड़ा और साधू की झोपड़ी में शरण पाने के लिए दौड़ा।

इधर नजीर एकदम तैयार था।

उसने शाह के पीछे दौड़ते हुए रस्सी का फंदा उसकी ओर फेंका।

रस्सी का फंदा ठीक शाह के गले में जाकर अटका। उसी क्षण वह पीठ के बल चित्त गिरा।

-'नौजवान नौजवान...मेरी बात सुनो नौजवान। मैं अब भी खाली नहीं हूं। मेरे पास ऐसे बेशकीमती हीरों का खजाना है कि तुम मालामाल हो जाओगे। मुझे बख्श दो, सिर्फ मेरी जान बख्श दो और मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें आज ही मालामाल कर दूंगा, मैं तुम्हें आज ही लखनऊ का रईस बना दूंगा।'

-'ठीक है, जो लूट का माल है उसका दर्द ही क्या! तुम्हारी कौन-सी पसीने की कमाई है? लेकिन शाह साहब, अब मैं आपको तन्दूरी मुर्ग ही बना कर छोडूंगा। बहुत दिन तुमने लखनऊ में घपला मचाए रखा है, अब मैंने वह कोल्हू लगा लिया है जिसमें तुम्हारा तेल निकाला जाएगा।'

नजीर झुका और बड़ी बेदर्दी से शाह को उल्टा करके उसके हाथ पीछे की तरफ बांध दिये।

-'छोड़ दो...मुझे छोड़ दो मेरे भाई...अल्लाह के वास्ते!'

शाह की बात सुन कर भी अनसुनी करते हुए नजीर ने उसके गले से फंदा निकाला और पहले पांव बांधे फिर उसे उकड़ू बैठा कर जकड़ दिया।

शाह बदहवास सा सिर हिला रहा था-'रहम...रहम...अल्लाह के वास्ते रहम!'

-'बके जा बेटा, तेरे साथ खोपड़ी मारने का वक्त मेरे पास नहीं है।'

नजीर ने शाह की कफनी में से एक लम्बी पट्टी फाड़ कर उसका मुंह खूब कस कर बांध दिया। ऊपर से एक और पट्टी भी मुंह से इस प्रकार लपेट दी कि कोई शक्ल न पहचान सके।

उसने गठरी के आकार में बंधे शाह को उठा कर कंधे पर रखा।

अब तो शाह बेचारा चाह कर भी न बोल सकता था। एक हाथ से उसने गठरी को सम्भाला और दूसरे हाथ से घोड़े की रास थामे वह वहां पहुंचा जहां डोली वाले कहारों को बैठा आया था।

मुखिया कहार चौंका। नजीर ने उनसे कहा था कि गोमती किनारे से ऐसे व्यक्ति को लाना है जो बूढ़ा है और चलने में असमर्थ है।

नजीर ने शाह को डोली में डाल कर चारों ओर के परदे गिराते हुए कहा-'चलो भाई चौधरी।'

संशय से चौधरी बोला-'सरकार आप फरमाय रहे कि इहां एक बूढ़ा है जो चल नाही सके। ई तो जबरदस्ती होय गया। ई गठरी की तरह बंधा बुजुर्ग हमार शिकायत कुतवाल साहेब से करे तो हमार ओ हन्टर पड़े...!'

-'चौधरी, साथ में हम जो हैं!'

-'हमार अक्ल में ई बात नाहीं आय रही सरकार...।'

-'हम समझाए देत हैं चौधरी। ई हमार ससुर है। हमार बदन सर्दी में ठिठुर-ठिठुर कर कलाबत्तू बन गवा...पर जालिम हमार मेहरारू को नाही भेजा। हमरा जी ठिकाने नाहीं, सो पंचायत बैठा ली है। बुढ़ऊ राजी से चले नहीं, सो हम इस तरह ले जात रहे। छ: महीना बीत गवा, हम महराउन का मुंह तक नहीं देखा!'

कहारों का चौधरी मुस्करा दिया। शंका का समाधान हो गया। कहारों ने डोली उठाई और चल पड़े।

जब डोली हवेली में घुसी तो कहारों में तनिक भी संशय न रहा।

जैसे ही कहारों ने डोली रखी नजीर शाह को बांहों में उठा कर बोला-'कैसी मजबूरी थी कि ससुर जी की यह हालत बना कर यहां लाना पड़ा! बहुत कहा कि पंचायत बुला रही है, परन्तु यह थे कि माने ही नहीं।'

इदरीस ने कहारों के चौधरी के हाथों में नगद चांदी का कलदार रखा और वह खुश होकर चले गये।

बहराम शाह को तहखाने में ले जाकर बैठाया गया।

रात की घटना के कारण उसे जुकाम भी था और कुछ ज्वर भी। बदन के कई हिस्सों पर चोट लगी हुई थी।

अब वह समझ गया था, इदरीस को देखने के बाद वह समझ गया था कि मामला क्या है!

-'हां तो शाह साहेब...!' पाण्डे जी ने इदरीस की कमर से बंधी तलवार खींच ली-'वक्त-वक्त की बात है। जिसके पास लाठी होती है वही भैंस को हांक कर ले जाता है। कहिए, बात सुलह की कीजियेगा या फजीते की?'

जानबूझ कर बनते हुए बहरामशाह बोला-'लेकिन भाई, मेरे आपके बीच कोई लड़ाई तो नहीं है?'

-'पगली को ठीक करना होगा।'

-'कौन पगली?'

यह सुन कर इदरीस आपे से बाहर हो गया-'कमीने आदमी, क्या तुझे यह भी बताना होगा कि पगली कौन है! दोजख के कुत्ते।'

आपे से बाहर इदरीस ने झपट कर शाह का गला दबा लिया।

-'इदरीस!' डपट कर पाण्डे जी ने कहा।

क्रोध से कांपते हुए इदरीस ने शाह का गला छोड़ दिया, किन्तु पाण्डे जी की ओर रोष से देखता हुआ वह बोला-'पाण्डे चाचा आप बालू में से तेल निकालना चाहते हैं।'

पाण्डे जी ने इदरीस की बांह पकड़ कर उसे एक और कर दिया।

अब भी पाण्डे जी के हाथ में नंगी तलवार थी।

-'तो शाह साहेब, आप नहीं जानते कि पगली कौन है?'

यूं होश ठिकाने अब शाह के भी आ गये थे, फिर भी वह बन रहा था। सोचने का उपक्रम करते हुए उसने कहा-'शायद आप मरहूम इल्यास बेग की बेवा के बारे में कह रहे हैं?'

-'तो आप समझ ही गये?'

-'ऐसा सुना तो था कि वह पागल हो गई है।'

-'वह पागल हुई नहीं शाह साहेब, उन्हें पागल बना दिया गया था। अब सीधी और खरी बात यह है कि आप उन्हें ठीक कर दीजिए और मैं आपकी जान बख्श दूंगा। वर्ना...!'

-'साहेब...मैं तो फकीर हूं। मैं क्या कर सकता हूं। किसी हकीम को दिखाइए।'

-'हां, अगर आप कुछ न करेंगे तो हकीम को दिखाऊंगा ही। लेकिन आपकी हकीमी मैं खुद करूंगा...बेटा नजीर।'

-'हुक्म गुरु जी।'

-'तहखाने के कुन्दे में रस्सी डालो और शाह साहब को उल्टा लटका दो। एक पहर लटका रहने देना, अगर फिर भी पगली के इलाज की हामी न भरें तो ठीक सिर के नीचे आग जला कर आग में मिर्च झोंक देना।'

भला नजीर की तरफ से क्या देर होती! तुरन्त ही कुन्दे में रस्सी लटका कर फंदा बनाया, फंदे को शाह के पांवों में डालते हुए कहा-'हां भई इदरीस...खींचो।'

-'ठहरो जरा...जरा ठहरो। मैं कोशिश कर सकता हूं, लेकिन मैं खुदा नहीं हूं। मैं कोई वादा नहीं कर सकता।'

-'लटका दो उल्टा।' चिल्ला कर पाण्डे जी बोले।

उधर इदरीस ने रस्सी खींचनी आरम्भ की।

-'खुदा के लिए...खुदा के लिये मेरी बात सुन लीजिये। मैं पगली का इलाज कर दूंगा। मैं उसे ठीक कर दूंगा।'

-'रुको इदरीस...रुक जाओ।'

पाण्डे जी की आज्ञा पाकर इदरीस रुक गया।

आशंका से हांफ रहा था शाह-'यकीन कीजिये, वादा करता है कि पगली को ठीक कर दूंगा, बिल्कुल ठीक कर दूंगा।'

-'अगर आप पगली को ठीक कर देंगे तो आपकी जान भी बच जाएगी।'

-'मेरे साथ चलिए।'

-'कहां?'

-'शाह नसीर के मजार पर। मैं पगली के लिए दवा दूंगा।'

पाण्डे जी ठहाका मार कर हंस पड़े-'मानता हूं शाह साहब कि बड़ी सफाई के साथ आपने लखनऊ वालों को और खास कर लखनऊ की औरतों को ठगा है। लेकिन मैं यानि चतुरी पाण्डे ने भी तबेले में बंध कर घास नहीं खाई है। जब तक नजर नहीं पड़ी थी, नहीं पड़ी। अब नजर पड़ गई है तो पूंछ काट कर लंडूरा ही बना कर दम लूंगा।'

-'लेकिन अब नाराजगी की क्या बात है? मैं वादा करता हूं कि इल्यास की बेगम को ठीक कर दूंगा।'

-'जमानत क्या है?'

-'कैसी जमानत?'

-'मैं तुम्हारा यकीन नहीं करता।'

-'लेकिन जब इलाज कराना है तो यकीन करना ही होगा।'

-'आप यकीन के काबिल नहीं हैं शाह साहब। इलाज के दौरान आप यहीं, इसी तहखाने में कैद रहेंगे...उस वक्त तक जब तक कि वह ठीक न हो जाये।'

-'तब मैं इलाज नहीं कर सकूँगा।'

-'ठीक है, इदरीस अपना काम करो।'

-'मेरी जान लेना चाहते हो...ले लो। खुदा सब देखता है, खुदा सब देख रहा है और उसके हुक्म के बिना कुछ नहीं होता। अगर खुदा को यही मन्जूर है कि मैं उसका नाम लेते-लेते शहीद होऊं तो मुझे ऐतराज नहीं है।'

मुस्कराये पाण्डे जी-'ठीक...बिल्कुल ठीक। फैसला खुदा पर ही छोड़ो, इदरीस खींचो। नजीर, उलट दो शैतान को।'

इस बार देर नहीं हुई। इदरीस ने रस्सी खींची और नजीर ने शाह को उलटा कर किया।

शाह पागलों की तरह चिल्लाया-'मेरे अल्लाह! मेरे अल्लाह अपने नेक बन्दे की मदद कर। भून दे शैतानों को...शैतानों को दोजख की आग में भून दे।'

सब मौन थे।

शाह कुछ ही देर बाद अल्लाह को भूल गया। वह कुन्दे के सहारे उल्टा लटका हुआ था। रस्सी खींच रहा था इदरीस, और शाह इस तरह हाथ फेंक रहा था जैसे तैर रहा हो।

कुछ देर बाद ही वह हाय तौबा करने लगा।

फिर कुछ देर और बीती तो उसके मिजाज एकदम ठीक हो गए-'छोड़ दो...छोड़ दो मेरे भाई...मुझे छोड़ दो। मैं इलाज करूंगा, मुझे तुम्हारी शर्त मन्जूर है।'

पाण्डे जी ने कहा-'पगली कितने दिन में ठीक होगी?'

-'मैं...मैं चार दिन में उसे ठीक कर दूंगा।'

-'बस एक शर्त और है, जब तक वह ठीक न हो जाएगी आप कैद रहेंगे और आपको खाना नहीं मिलेगा। नजीर, शाह को सीधा करो। इदरीस, रस्सी को ढील दो।'

सीधा होने के बाद शाह खड़ा न रह सका, वह फर्श पर कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा और पीने को पानी मांगा।

इसके बाद वह बोला-'कागज कलम लाइए। मैं नुस्खा बताता हूं, अर्क बनाना पड़ेगा। सिर्फ दो दिन में पगली ठीक हो जाएगी...सिर्फ दो दिन में...।'

इदरीस को ऐसा विश्वास न था। पाण्डे जी की इस सूझ को सफल देख कर वह चकित रह गया।

शाह ने जो नुस्खा बताया उसमें कीमती और दुर्लभ चीजें थी।

उन सब वस्तुओं को एकत्रित करके नजीर लखनऊ के मनफूल लाल अत्तार को दे आया। अत्तार ने अर्क की पहली खुराक आधे पहर बाद देने का वादा किया।

पहले उसने सोचा कि बाजार में ही कुछ नाश्ता कर लिया जाये। परन्तु अनायास ही वह घर की ओर बढ़ चला। जुबैदा याद आ गई उसे।

घर के दरवाजे पर दस्तक दी तो दरवाजा खोला जुबैदा ने।

जैसे रात-रात में ही कोई कली फूल बन गई हो!

जुबैदा के रूप पर एक विशेष छटा छा गई थी। सम्भवतः कुछ देर पहले उसने स्नान किया था। चेहरा निखर आया था। वह अम्मी के वो वस्त्र पहने थी जो अम्मी कभी-कभी त्यौहारों पर पहना करती थी। अम्मी के कपड़े कुछ तंग थे जुबैदा को। बदन से कसे हुये परिधान में जैसे रूप निखर-निखर गया था। चेहरा चांद की तरह चमक रहा या और खुले हुये बाल मानो घनघोर घटाओं की भांति चांद को ढके ले रही थी।

-'आदाब बजा लाती हूं।'

-'आदाब।' मन्त्र मुग्ध-सा नजीर एकदम जुबैदा की ओर देख रहा था।

-'हाय अल्लाह!' लजा कर अपने चेहरे को दोनों हाथों में ढांपते हुए वह बोली-'गजब हुआ।'

-'क्या हुआ?'

-'गुसल के बाद हम डिठौना लगाना भूल गये चेहरे पर। किसी की नजर लग गई तो?' इतना कह कर वह तेजी से अन्दर भाग गई।

दरवाजा बन्द करके नजीर अन्दर पहुंचा।

अम्मी कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी।

चूल्हे पर दूध चढ़ा हुआ था। सम्भवतः खीर की तैयारी थी। बादाम भीगे हुये थे।

जुबैदा चावल बीनने बैठी थी। अजीब बात थी कि अब उसने न केवल ओढ़नी से सिर ढांप लिया बल्कि आँखों तक घूंघट भी खींच लिया था।

-'अम्मी कहां हैं?' जुबैदा के निकट पहुंच कर नजीर ने पूछा।

दृष्टि झुकाये ही जुबैदा ने पूछा-'आपको मतलब?'

-'भई वाह! वल्लाह क्या अदा है...हम अपनी अम्मी को पूछ रहे हैं और यह बेतुका जवाब! जनाब हम अपनी अम्मी को पूछ रहे हैं?'

-'हम भी तो पूछ रहे हैं कि क्या कीजियेगा अम्मी का? इतने छोटे तो आप हैं नहीं कि अम्मी का दूध पियेंगे या अम्मी की गोद में चढ़ कर बैठेंगे। जाइये, अम्मी का हुक्म है कि वह तभी आपसे बात करेंगी जब आप अपने गुरु जी को बुला कर लायेंगे।'

-'क्या मतलब?'

-'मतलब भी आपको नहीं आपके गुरु जी को बताया जाएगा।'

-'अजीब बात है...या अल्लाह खैर! घर में आते ही मेहमानों का दिमाग चल गया?' मुंह बिचकाया नजीर ने।

जुबैदा नीची दृष्टि किये ही हंस पड़ी।

वह फिर बोला-'जरूर कोई गोलमाल है!'

-'जी गोलमाल तो है ही।'

-'लेकिन अम्मी कहां हैं?'

-'आप तो फिजूल की बहस कर रहे हैं। हमने आपको अम्मी का हुक्म सुना दिया कि नहीं?'

-'वाह! पूछा तुम कौन भई...जवाब मिला खामखा। कुछ पहर की मेहमान हमें हमारी अम्मी का हुक्म सुना रही हैं।'

वह फिर हंसी-'यही तो गजब हुआ सरकार।'

-'गजब?'

-'जी हां। मेहमान बन कर कोई फिरंगी की तरह घर में घुसा और घर का मालिक बन बैठा।'

-'आपने सुबह-सुबह कोई नशा तो नहीं किया है?'

-'खबरदार जनाब, घर की मालकिन से इस तरह बातें नहीं की जाती।'

-'ओह मेरे अल्लाह यह क्या सितम है? अम्मी...अम्मीजान...अम्मीजान आप कहां छुपी बैठी हैं?' नजीर ने पुकारा।

उत्तर में आवाज आई-'मैं ऊपर हूं बेटा, धूप में।'

नजीर एक सांस में ही ऊपर चढ़ गया। देखा अम्मी इत्मीनान से धूप सेक रही थीं।

-'तुम्हारे गुरु जी नहीं आए बेटा?'

-'नहीं, गुरु जी काम में लगे हैं।'

-'जरा देर को बुला लाओगे?'

-'कुछ खास बात है?'

-'खास बात ही तो है।'

-'क्या?'

-'उन्हें खुशखबरी देनी है।'

-'कैसी खुशखबरी?'

-'तेरी शादी की।'

-'शादी...किससे?'

-'जुबैदा से...और किससे!'

-'लाहौल विला...अम्मीजान, आप भी गजब करती हैं! न जान न पहचान, रात में मिली तो सोचा सहारा दे दिया जाए। लेकिन शादी का फैसला क्या ऐसे किया जाता है?'

-'अब तो बेटे फैसला कर ही लिया।'

-'लेकिन अम्मी इतनी जल्दी?'

-'हां बेटे...बस मैं जबान दे बैठी।'

-'लेकिन क्यों?'

-'मैंने उसकी कहानी सुनी...उसका मासूम चेहरा देखा। उसकी डबडबाई हुई आंखें देखीं और मेरा मन उमड़ पड़ा। मैंने उससे कह दिया...जा इसी वक्त से तू घर की दुल्हन हुई।'

नजीर ने जबान निकाल कर दांतों तले दबाई। ऐसे जैसे कोई आश्चर्यजनक बात सुनी हो। होठों में वह मुस्करा रहा था, परन्तु प्रगट में वह बोला-'अम्मीजान बड़ी गलती की आपने।'

-'क्यों?'

-'यह फैसला नहीं करना चाहिये आपको।'

-'लेकिन क्यों?'

-'वह भैंगी है, एक आंख की पुतली पूरब में होती है तो दूसरी पश्चिम में।'

-'झूठ।'

-'अब मैं क्या कहूं अम्मी आपसे! उम्र हुई आपकी, आपको ठीक से दिखाई तो देता नहीं।'

-'झूठा कहीं का, जा भाग यहां से।'

नजीर तो स्वयं ही भाग जाना चाहता था। जब वह वापिस जीने के निकट पहुंचा तो उसे लगा कोई तेजी से नीचे उतरा है। सम्भवतः जुबैदा ही थी जो सीढ़ियों पर खड़ी मां बेटे की बात-चीत सुन रही थी।

नजीर को लौटना भी था।

उसने जल्दी-जल्दी तैयारियां आरम्भ की। घर के कोने में बन्द दरवाजे का कुंआ था, वह नहाया, वस्त्र बदले। फिर जुबैदा के पास पहुंच कर बोला-'हमें जाना है, कुछ खाने को हो तो दीजिये।'

चुपचाप जुबैदा ने खीर परोस दी। अभी-अभी उसने दो ताजे परांठे पकाये थे, वह रख दिये।

वह अब भी आंखों तक घूंघट काढ़े थी।

-'खीर वाकई अच्छी बनी है। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि खाना बढ़िया पकाना जानती हो।'

वह चुप रही, नहीं बोली।

नजीर खाना खाता रहा।

नजीर खाना खाकर उठा। बोला-'शुक्रिया। खीर बढ़िया थी और परांठों में तो मजा ही आ गया।'

जुबैदा फिर चुप।

मुस्कराया नजीर-'अभी से चुप्पी मत साधिये। लोग समझेंगे कि दुल्हन गूंगी भी है।'

जुबैदा ने घूंघट और भी नीचे कर लिया, वह उठी और रसोई छोड़ कर दूसरे कमरे में चली गई।

-'भाई वाह!' नजीर मुस्कराते हुये बोला-'दुल्हन तो रूठना भी जानती है।'

वह पीछे-पीछे गया।

क्या अदा थी जुबैदा की भी।

जब उसने नजीर की पदचाप सुनी तो वह एक कोने में धंस कर दीवार में मुंह छिपा कर खड़ी हो गई।

निकट पहुंच कर नजीर बोला-'कैसी खराब किस्मत है हमारी भी! दुल्हन मिली भी तो नखरेबाज। रूठना, मटकना और कोने में छुपना खूब जानती है।'

कुछ क्षण कमरे में मौन रहा।

रो रही थी जुबैदा।

नजीर को सिसकता-सा स्वर सुनाई पड़ा-'हम आज चले जायेंगे।'

-'कहां?'

-'जहां हमें हमारी तकदीर ले जायेगी।'

-'जरा मुड़ कर हमारी तरफ देखिये...आपको कसम है हमारी।'

कसम न टाल सकी जुबैदा। वह मुड़ी...आँसुओं से कपोल भीगे हुए थे।

मुस्कराते से नजीर ने उसी की ओढ़नी से उसके कपोल पोंछे।'

-'कम से कम हम यह तो जानें कि नाराजगी की वजह क्या है? दुल्हन साहिबा घर में अन्धेरा करके क्यों जाना चाहती हैं?'

-'हम भैंगे जो हैं! हमारी एक आंख पूरब को जाती है और दूसरी पश्चिम को।'

-'लाहौल विला! तो क्या मैं अम्मी से कहता कि दुल्हन की आँखें हिरनी जैसी हैं। नजर न लग जाती मेरी दुल्हन को?'

-'जाइये...मैं नहीं बोलती।' और दौड़ कर सीधी रसोई में चली गई।

-'जा ही तो रहा हूं, लेकिन खुदा के लिए घर पर ही रहियेगा। कहीं ऐसा न हो कि हम लौटें तो घर में अन्धेरा मिले।'

भला स्त्री मन का क्या? घड़ी में माशा और घड़ी में तोला।

प्यार पाकर मचल-सी गई जुबैदा।

-'भैंगी दुल्हन को पसन्द कर सकेंगे?' शरारत भरे स्वर में जुबैदा बोली।

-'अब तो पसन्द कर ही लिया है।'

-'देख लीजिये मेरी आंखें। एक आंख पूरब को और दूसरी पश्चिम को...!'

-'हां हां हमें मन्जूर है। भैंगी आंख घर के हर कोने को देख सकती है, घर की रखवाली रहेगी।'

-'हूं।' जुबैदा के चेहरे पर शरारत ही शरारत थी-'एक और भी बात है सो जान लीजिये। दुल्हन लंगड़ी भी है।'

-'अल्लाह रे, क्या सचमुच?'

-'देख लीजिये।'

जुबैदा बढ़ी। जानबूझ कर लंगड़ाते हुए वह कमरे के दूसरे छोर तक जा पहुंची और फिर मुड़ कर बोली-'देखा?'

-'जी नहीं, अच्छी तरह नहीं देख पाया। जरा फिर दिखलाइये तो?'

इस बार फिर शोख अदा में लंगड़ी चाल चलती हुई वह बढ़ी, हंसी रोकने के यत्न में वह निचले होंठ का कोर दांतों में दबाये थी।

शरारत का उत्तर शरारत से दिया नजीर ने। जैसे ही वह लंगड़ाती हुई नजीर के निकट पहुंची उसने उसे बांहों से खींच कर वक्ष से लगाते हुए कहा-'मन्जूर है साहब, हमें लंगड़ी दुल्हन भी मन्जूर है।'

बांहों के बन्धन में फंस कर तो लाज और संकोच से जुबैदा मछली की तरह तड़प उठी     -'हाय अल्लाह...छोड़िये। खुदा के लिए हमें छोड़ दीजिए। हमें गुनहगार मत बनाइये...उफ्, निकाह से पहले यह मुनासिब नहीं है...छोड़ दीजिये। आपको हमारी कसम...छोड़ दीजिए।'

नजीर ने जैसे ही उसे बन्धन मुक्त किया वह कमरे से दौड़ कर रसोई में चली गई।

हर पहर के बाद आध पाव अर्क।

यही था पगली का इलाज।

पहली ही खुराक ने असर किया। किसी प्रकार जबरन जब पगली को पहली खुराक दे दी गई तो वह कुछ ही देर बाद सो गई।

कई महीने के बाद वह सोई। परन्तु कुछ ही देर वह सो पाई।

शाम को उसे दूसरी खुराक दी गई, और रात में तीसरी। वह फिर सोई और इतनी गहरी नींद सोई कि सुबह जगाने पर उठी।

उसका अगला दिन लगभग सोते हुये ही गुजरा।

शाम को जब उसे फिर जगाया गया तो उसने इदरीस को पहचाना, ओढ़नी से सिर ढांपा और पानी मांगा।

अब पगली...पगली न रही।

बोली-'इदरीस मियां, अजीब-सी बात है कि आज आप इस तरह अचरज से मुझे देख रहे हैं। क्या अपनी भाभी बेगम को नहीं पहचानते?'

-'खूब पहचानता हूं। आप बीमार हो गई थीं न!'

-'बीमार...ओह! याद आया, मैं पागल हो गई थी। खूब, मैं तो भूल ही गई थी कि मैं पागल हो गई थी। हर वक्त मेरा सिर चकराता था। जाने क्या-क्या बकती थी! मैं कैसे ठीक हुई? मुझे याद है कि मैं कैसे पागल हुई...लेकिन मैं ठीक कैसे हुई?'

-'यह मैं कल बताऊंगा। फिलहाल आपको थोड़ा दूध पीना है। इसके बाद फिर आराम। सुबह तक आप बिल्कुल ठीक हो जाएंगी।'

-'लेकिन मियां मैं ऐसे कैसे दूध पी सकती हूं? गुसल करना जरूरी है...बदन के कपड़े कैसे हो रहे हैं! धुला हुआ जोड़ा बदलना है...इसके बाद नमाज अदा करूंगी और फिर कुछ लूंगी।'               बेगम भाभी ने दासी की ओर देखते हुये कहा-'मरी निगोड़ी कुलसुम...देख क्या रही है? मैं गुसल करूंगी। हमाम में चल कर तैयारी कर...मैं आ रही हूं।'

भाभी बेगम नहाई, कपड़े बदले। नमाज अदा की और फिर दूध पिया।

दवा का असर जारी था। फिर सारी रात आराम से बीती।

सुबह फिर भाभी बेगम जगाने से जगी।

इस समय इदरीस के साथ नजीर और पाण्डे जी भी थे।

जाग कर वह तुरन्त ही उठी-'इदरीस मियां, यह दोनों कौन हैं?'

-'यह हैं नजीर, समझ लो कि मेरे भाई हैं।'

-'यह बुजुर्ग...?'

-'यह हैं पाण्डे चाचा। मरहूम वालिद साहेब के दोस्त। इन्हीं की बदौलत आप अच्छी हो सकी हैं भाभी बेगम।'

तुरन्त ही वह पलंग से उठी। ओढ़नी ठीक करके ओढ़ी और बोली-'चचा साहेब आदाब बजा लाती हूं...नजीर भाई आदाब। उफ...इदरीस मियां भी कैसे हैं। बेअदब-सी बैठी रही थी कि...!'

मुस्कराते हुए पाण्डे जी बढ़े-'जीती रहो बेटी। क्या बेअदब और क्या अदब...तुम मेरी औलाद जैसी हो। जिन्दा रहो...खुश रहो।'

भाभी बेगम ने दृष्टि उठा कर पाण्डे जी को देखा-'चचा साहेब, अगर खुदा को जिन्दा रखना मन्जूर है तो मेरा क्या बस! लेकिन खुश न रह सकूंगी, इसलिए कि खुदा ने सारी खुशियां मुझसे छीन ली हैं। मुझ जैसी बदनसीबी खुदा किसी को न बख्शे। ओह...अब तो मैं रो भी नहीं सकती। मैं इतनी रोई हूं चचा जान कि मेरे आंसू सूख गए हैं।'

-'बेटी, मेरी बात सुनो...तुम्हारा बुजुर्ग हूं। मेरी बात सुनो...बैठो, अदब का कोई सवाल नहीं है। तुम बीमार रही हो, बैठ जाओ...मेरा हुक्म है।'

दृष्टि झुकाये भाभी बेगम बैठ गई।

-'बेटी क्या यह सच है कि तुम्हारा दिमाग बहरामशाह ने खराब किया, कुछ खिला या पिला कर?'

चौंकी भाभी बेगम। आश्चर्य से पाण्डे जी को निहारते हुई बोली-'आपने कैसे जाना? यह बात तो कोई न जान सकता था...आप?'

इदरीस ने बताया-'भाभी बेगम, पाण्डे चाचा पुराने नवाबी जासूस हैं, कुछ मेरा खयाल भी ऐसा ही था।'

-'कहते जबान कटती है चचा जान। मुझे तबाह करने वाला है बहरामशाह।'

-'उसने ऐसा नबी बख्श के कहने पर किया न...?'

-'ओह! आप तो सभी कुछ जानते हैं चचा साहेब।'

-'हां, तकरीबन सभी कुछ जानता हूं। मेरी एक ख्वाहिश है बेटी। तुम्हारे साथ जो कुछ बीती है...मैं चाहता हूं कि तुम हुजूर नवाब साहब को बता दो। वह इन्साफ कर सकेंगे ऐसा यकीन तो मैं नहीं दिला सकता। फिर भी वह हमारे नवाब हैं। वह तुम्हारे हक में न सोचें और तुम्हारी बात सुन कर कुछ अपने ही बुरे में सोचें तो यह भी अच्छा होगा।'

उत्तर देने की बजाय भाभी बेगम ने इदरीस की ओर देखा।

-'आपको कोई ऐतराज है भाभी बेगम?' इदरीस ने पूछा।

-'नहीं।'

-'तब बेटी तुम तैयारी शुरू करो। नवाब साहब से मैंने दोपहर का वक्त ले लिया है।'

-'जो हुक्म चचा जान।'

वह तीनों ही लौटने लगे।

भाभी बेगम ने टोका-'इदरीस मियां, जरा सुनिएगा।'

नजीर और पाण्डे जी चले गये। इदरीस रुका।

-'क्या आप समझते हैं कि नवाब साहब हमारे साथ इन्साफ कर सकेंगे?'

-'ऐसा तो मैंने नहीं समझा।'

-'फिर आपने क्यों मान लिया कि मैं नवाब साहब के हुजूर में हाजिर हों?'

-'ऐसी मजबूरी आन पड़ी है भाभी बेगम कि वहां चलना तो पड़ेगा ही।'

रोष भरे स्वर में भाभी बेगम ने कहा-'इदरीस मियां, जब आप अपने भाई को दफना कर लौटे थे तो आपने कुछ कसमें खाई थीं। क्या उन कसमों को भूल गये...क्या वह खून जो उबल रहा था...ठण्डा हो गया?'

-'आपको गलतफहमी हुई है भाभी बेगम।'

-'हम अपनी गलतफहमी दूर करना चाहते हैं।'

-'सुनिए, मैंने जो कसमें खाई थीं मैं उन पर कायम हूं। मैंने सरे-आम नबी बख्श की बेटी को हवेली से उठवा लिया। आज वह मुझसे निकाह करके बाप के गुनाहों के खिलाफ सिर उठाने को तैयार है। बहरामशाह हवेली में बंद है। पाण्डे जी ने मजबूर कर दिया उसे कि वह आपका पागलपन दूर करे। अब आप अच्छी हो गई हैं। मैंने भाई को दफनाने के बाद यह भी कहा था कि अब आप ही मेरी भाई हैं और आप ही मेरी मां हैं। आपका हुक्म मैं कभी नहीं टालूंगा...जो आपने हुक्म दिया था मैं उसे पूरा करने की तैयारी कर रहा हूं, और जब तक जिन्दा रहूंगा आपके हुक्म के मुताबिक बागी ही रहूंगा।'

-'ओह! खुदा तुम्हें लम्बी उम्र दे।'

-'खुदा सदा आपको मेरे सिर पर साये की तरह सलामत रखे।'

-'ना ना इदरीस मियां...हमें यह बद्दुआ मत दो। हम तो चाहते हैं कि हमें भी बस अपने भाई जान के पास दफना दो। जल्दी...जितना जल्दी हो सके। उफ मौत भी कितनी बेरहम है, बुलाने पर भी नहीं आती।'

रुआंसा इदरीस बोला-'भाभी बेगम!'

वह जैसे नींद से जागी। तत्परता से उठते हुए बोली-'जब नवाब साहब के हुजूर में पेश होना है तो तैयारी भी करनी होगी। कितना काम है...गुसल करना है, नमाज अदा करनी है। आज अगर हमें एक चपाती खाने को मिल सके तो इनायत होगी इदरीस मियां।'

सचमुच भाभी बेगम के आंसू सूख गये थे। वह व्यस्तता का बहाना करके कमरे से बाहर चली गई।

अभी-अभी नवाब वाजिद अली शाह शाही बैठक में तशरीफ लाये थे।

रेजीडेन्ट स्लीमन और वजीर अली नकी खां उनकी प्रतीक्षा में थे।

मसनद पर बैठते ही उन्होंने कहा-'अजीब मजाक रहा, वही मसल हुई कि मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। चतुरी पाण्डे कहां हैं?'

उनके मुख से यह शब्द निकले ही थे कि तभी दरवाजे पर पाण्डे जी ने कोरनीस करते हुए कहा-'मैं हाजिर हूं आलमपनाह।'

मुस्करा दिये नवाब साहब-'तुम तो हाजिर हो, लेकिन वजीर साहब और रेजीडेन्ट साहब को बुलाने का मकसद...हम तो समझ रहे थे कि शायद तुमने नबी बख्श की लड़की को ढूंढ निकाला होगा।'

इतना कह कर नवाब ने हाथ बढ़ाया। खूबसूरत अफगानी लौंडी ने बेशकीमती शीशे की प्याली में अंगूरी शराब ढाल कर दे दी।

और रेजीडेन्ट स्लीमन गर्व से मुस्करा दिया।

-'आपने बिल्कुल ठीक समझा था जहांपनाह। मैं नबी बख्श की लड़की को साथ लेकर ही हाजिर हुआ हूं।'

-'सच...?' प्याला होठों तक पहुंच चुका था, परन्तु हाथ रुक गया।

वजीर अली नकी खां की आंखों में चमक आ गई।

और रेजिडेन्ट स्लीमन ऐसे चौंका जैसे आसमान से गिरा हो।

पाण्डे जी चल कर नवाब साहब के निकट पहुंचे और पुनः कोरनीस करते हुए बोले        -'आलीजहां का इकबाल बुलन्द रहे, नबी बख्श की लड़की आयशा हाजिर है। आयशा...!'

बुर्के में ढकी आयशा ने दरवाजे पर प्रवेश किया। उसने झुक कर कोरनिस की।

फिर वह बढ़ी और पाण्डे जी के निकट आकर पुनः आदाब बजाया।

शीशे की प्याली में अंगूरी शराब अब भी नवाब साहब के हाथों में थी। वह बोले-'पर्दा उठा दो बेटी।'

आयशा ने मुंह खोल दिया।

गर्व से नवाब साहब ने रेजिडेन्ट की ओर देखा-'क्यों रेजिडेन्ट साहब, हम शर्त जीत गये न?'

-'बेशक...बेशक आप शर्त जीत गये नवाब साहब बहादुर। पाण्डे साहब मुझे दिलचस्पी है, बताइए यह काम किन बदमाशों ने किया था? क्या आपने उन्हें पकड़वा दिया?'

-'अगर मैं भूलता नहीं हूं साहब बहादुर, तो बात सिर्फ नबी बख्श की बेटी को जिन्दा या मुर्दा बरामद करने की थी...वह हाजिर है।'

नवाब साहब ने टोका-'लेकिन पाण्डे जी, जब आपने लड़की को ढूंढ निकाला तो क्या आपको उन बदमाशों का पता न चला होगा?'

-'जरूर पता चला हुजूर।'

-'तब क्या आपका यह फर्ज नहीं था कि आप उन बदमाशों को शहर कोतवाल के सुपुर्द करते?'

कुछ क्षण पाण्डे जी मौन रहे। फिर झुके और नवाब साहब को आदाब बजाया-'जान बख्शी हो तो कुछ अर्ज करूं?'

-'आप हमें शमिन्दा कर रहे हैं पाण्डे जी। खुदा झूठ न बुलवाए, हम आपकी एक बुजुर्ग की तरह इज्जत करते हैं। आप ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण के लिए हमारी हिन्दू रियाया में इबादत का जज्बा है। हम भी उसी जज्बे के कायल हैं। हमारी नजर में आप इबादत के काबिल हैं...जान बख्शी की बात कह कर आपने हमें शर्मिन्दा किया है। जो कुछ आप कहना चाहते हैं...बेखौफ कहिए। कल की बात हम नहीं जानते। आज हम इस तख्त पर हैं, कोई आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता।'

-'हुजूर की जर्रानवाजी है। वैसे हुजूर यह मेरी ख्वाहिश थी कि बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो अच्छा था। मैं तख्ते लखनऊ का नमकख्वार हूं। ऐसी बातें मैं जबान पर नहीं लाना चाहता जिनसे आप पर कोई हरुफ आये!'

शीशे की प्याली जिसमें अंगूरी शराब छलक रही थी होठों तक पहुंची थी कि नवाब साहब का हाथ फिर रुक गया-'क्या कहते हैं आप? क्या नबी बख्श की बेटी को उठा कर ले जाने के मुजरिम हम हैं?'

-'ऐसा तो मैंने नहीं कहा आलीजहां।'

-'तब कहिए कि आप क्या कहना चाहते हैं?'

-'हुजूर मैं यह कहना चाहता कि लोगों का यकीन नवाबी इन्साफ पर से उठ गया है। लखनऊ शहर में, लखनऊ सल्तनत में वह होता है जो रेजिडेन्ट साहब बहादुर चाहते हैं। जिसने आयशा को उठाया उसे खुद आयशा मुजरिम नहीं मानती। यह उससे निकाह कर रही है, बिना किसी दबाव के। जिसने आयशा को उड़ाया, लखनऊ की सल्तनत में उस पर...उसके खानदान पर बहुत जुल्म हुए हैं। कहावत है कि हिसाब पाई-पाई का और बख्शीश लाखों की। अगर हुजूर इन्साफ कर सकें तो मैं मुजरिम को अभी पेश कर सकता हूं।'

-'आपको हमारे इन्साफ पर शक है?'

-'गुस्ताखी माफ...अब इन्साफ न कर सकना आपकी मजबूरी है आलीजहां। अगर आप मेरी बात पर यकीन न कर पा रहे हों तो मैं साफ बात कहने के लिए मजबूर हूं। लखनऊ सल्तनत में नम्बर एक मुजरिम जनाब रेजीडेन्ट साहब बहादुर हैं।'

एकदम सभी चौंक पड़े।

क्रोध से रेजीडेन्ट की आंखें लाल हो गईं। आवेश में अली नकी खां का चेहरा सुर्ख हो गया।

और नवाब वाजिद अली शाह पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया।

-'पाण्डे जी?' नवाब ने निश्वास ली।

-'हुजूरे आला।'

-'शायद आप ठीक कहते हैं।'

-'हुजूर यह बात मैं जबान पर नहीं लाना चाहता था। अगर आपका हुक्म न होता तो...!'

-'फिर भी पाण्डे जी, हम यह चाहते हैं कि आप हमें बतायें कि हकीकत क्या है। शायद हम इन्साफ न कर सकें...लेकिन इतना वादा जरूर करते हैं कि आपका या आपके किसी अजीज का उस वक्त तक बाल बांका न होगा जब तक हम हैं। क्या आप मेहरबानी करके हमें बतायेंगे कि हकीकत क्या है?'

-'जरूर बताऊंगा आलीजहां, हुक्म कैसे टाल सकता हूं? चौबदार...चौबदार।'

बाहर से चौबदार ने आकर कोरनिस की।

पाण्डे जी ने उसे आदेश दिया-'सभी मेरे साथ आने वालों को पेश करो।'

दूसरे क्षण ही सर्वप्रथम दरवाजे पर नजीर ने आकर कोरनिस की।

-'आलीजहां, यह मेरा शागिर्द है नजीर।'

-'खुशआमदीद। उम्र दराज हो।' नवाब ने आशीष दी।

दरवाजे पर दूसरा आने वाला था बहराम शाह। बीमार सा, घबराया हुआ।

-'हुजूरे आली यह है सूफी के चोगे में ठग...बहरामशाह।'

-'अरे!' बहरामशाह की कोरनिस के उत्तर में नवाब चौंके।

तीसरी बारी थी इदरीस की।

-'हुजूरे आली, यह हैं इदरीस बेग। गोमती पार के ताल्लुकेदार मिर्जा रहमत बेग के छोटे साहबजादे।'

-'खुश रहो, उम्र दराज हो। पाण्डे जी, मिर्जा साहब तो आपके दोस्त भी थे?'

-'वह मेरे बड़े भाई जैसे थे। इदरीस बेग ने ही आयशा को नबी बख्श के घर से उठवाया था। लेकिन मेरा दावा है कि यह मुजरिम नहीं है, और हुजूर यह है मिर्जा रहमत बेग के बड़े बेटे इल्यास की विधवा।'

-'ओह जीती रहो।'

भाभी बेगम...वह पगली बुर्के में अपने शरीर को छुपाए शाही बैठक खाने में प्रविष्ट हुई।

पांडे जी ने कहा-'आलीजहां, मेरी सिर्फ इतनी अर्ज है कि अब आप इदरीस से और इल्यास की विधवा से इनकी आप-बीती सुन लें। बहरामशाह से इसके गुनाहों को कुबूलवा लें।'

-'हम सुनेंगे।'

-'इदरीस...पहले तुम शुरू करो।'

-'जो हुक्म।'

इदरीस का बयान।

हुजूर नवाब साहब, जब तक वालिद साहब जिन्दा थे मैं नहीं जानता कि उनके रेजीडेन्ट साहब जनाब स्लीमन बहादुर से कैसे ताल्लुकात थे? लेकिन जब बालिद साहब खुदा को प्यारे हो चुके तो एक दिन सौदागर नबी बख्श हवेली में आये और उन्होंने मेरे बड़े भाई इल्यास के सामने गोगती पार की ताल्लुकेदारी खरीदने का प्रस्ताव रखा। बड़े भाई जान ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इसके बाद तकरीबन दो महीने के अरसे में हम दोनों भाईओं को जाहिरा तौर पर कई बार धमकी दी गई कि हम अगर अपने ताल्लुके को नहीं बेचेंगे तो वह ताल्लुका हमसे जबरदस्ती छीन लिया जाएगा।

भाई जान ने कितनी ही बार आपसे मिलने की कोशिश की लेकिन मुलाकात न हो सकी। वह वजीर साहब से मिले, और वजीर साहब ने उन्हें धमकियों से बेफिक्र रहने की सलाह दी। उन्होंने कोतवाल साहब के नाम एक सिफारिशी खत भी दिया।

एक दिन हम दोनों भाईओं को रेजीडेन्ट साहब बहादुर ने भी बुलवाया। जब हम दोनों भाई रेजीडेन्सी में पहुंचे तो वहां नबी बख्श भी मौजूद थे। रेजीडेन्ट साहब यहां मौजूद हैं और इन्हीं के मुंह पर मैं कह रहा हूं कि इन्होंने मुझसे और मरहूम भाई जान से कहा कि या तो हम मालगुजारी वसूली का काम फिरंगी सेना के सुपुर्द करें या ताल्लुका बेच दें। जब हमने इन्कार किया तो इन रेजीडेन्ट साहब ने सौदागर नबी बख्श से हंस कर कहा था...नहीं बेचते तो जाने दीजिए। सौदागर साहब, आप फिक्र मत कीजिए...खुदा बहुत इन्साफ पसन्द है। जब रहमत बेग की औलादें ही न रहेंगी तो ताल्लुका लावारिस हो जाएगा और हम उसे मुफ्त में ही आपके नाम करा देंगे।

हुजूर, हमने तब भी आपसे मिलने की कोशिश की लेकिन आपसे मुलाकात न हो सकी। हम दोनों जानते थे कि रेजीडेन्ट साहब हमारे दुश्मन बन चुके हैं। अब हमने अपनी हिफाजत का इन्तजाम अपने आप करना शुरू किया और यह तय किया कि फिरंगिओं के खिलाफ बगावत करने वालों से ताल्लुकात पैदा किए जायें और लखनऊ में भी एक बागी फौज बनाई जाये।

इसी दौर में कुछ अंग्रेजों के बागिओं से यह खबरें हमें मिली कि नबी बख्श की सौदागरी क्या है? पटना शरीफ से, कलकत्ता से और पास की रियासतों से हमें यह खबरें मिलीं...सबूत मिले कि पिछले दस सालों से वह देसी राजा और नवाबों के खिलाफ फिरंगिओं के लिये जासूसी करता है। उसने हर महल में, हर फौजी रिसाले में अपने तनखाहदार नौकर रख रखे हैं जो खबरें देते हैं। इसका सारा खर्च मय मुनाफे के नबी बख्श को कलकत्ता के विलियम फोर्ट और लखनऊ रेजीडेन्सी से मिलता है। मेरे पास ऐसे सबूत हैं और मैं सबूत पेश कर सकता हूं। मेरा दावा है कि लखनऊ की अमलदारी में नाम आपका है लेकिन हुक्म रेजीडेन्ट साहब का चलता है।

बहरहाल हम दोनों भाईयों ने और कुछ साथियों ने यह कसम उठाई थी कि हम जिन्दगी भर फिरंगिओं के खिलाफ लड़ेंगे। अब मैं आपको यह बताऊंगा कि किस तरह नबी बख्श ने हमें तबाह किया और जवाबी हमले के रूप में मैंने क्यों नबी बख्श की बेटी को उठवा मंगाया?

औरतों की एक कमजोर नस है औलाद।

भाभी बेगम के कोई औलाद न थी और जासूसी में माहिर नबी बख्श ने इस बात को ताड़ लिया।

उसने हवेली में एक बुढ़िया कुटनी को भिखमंगी के रूप में भेजा। भिखमंगी ने भाभी जान को उकसाया कि अगर बहरामशाह से ताबीज लाया जाए तो औलाद फौरन हो सकती है।

अब लगातार उस कुटनी ने अनुरोध किया तो एक रात भाभीजान चुपचाप बहरामशाह के पास गई। ताबीज के अतिरिक्त बहरामशाह ने कुछ चूरन भाभी जान को दिया और कहा कि यह चूरन दूध में मिला कर वह अपने शौहर को पिला दे। भाभी जान को क्या पता था...उन्होंने वैसा ही किया। हकीकत में वह चूरन नहीं जहर था। वह रात में भाई जान को दिया गया और सिर्फ एक पहर के बाद भाई जान ने तड़प-तड़प कर जान दे दी। इधर भाई जान की लाश घर में पड़ी थी और भाभी जान ने बहुत ही संक्षेप में यह सब बातें नौकरानी को बतायीं और वह तलवार लेकर बहरामशाह से निपटने शाह नसीर के मजार अकेली चली गयीं। सुबह जब भाभी बेगम लौटीं तो वह पागल हो चुकी थीं। यह कैसे हुआ...खुद भाभी जान बतायेंगी। लेकिन यह सही है कि मैंने आयशा को सिर्फ बदला लेने की गरज से उठवाया था। यह बात जुदा है कि इनकी शराफत ने मुझे कायल कर दिया, आज यह भी मेरी तरह फिरंगिओं के खिलाफ बगावत की कसम खा चुकी हैं और मुझसे निकाह करने को तैयार हैं।