कोई आधा कोस जाने के बाद बागीसिंह एक मोटी जड़ वाले पीपल के नीचे रुक जाता है। सावधानीवश वह इधर-उधर देखता है, उस समय बूढ़े गुरु उससे काफी दूर एक पेड़ के पीछे खड़े हैं। बागीसिंह पीपल की जड़ में बैठकर कुछ करता है । इसके बाद पीपल की जड़ के अन्दर समाते हुए बागीसिंह को देखकर गुरु की आंखें सन्देह से सिकुड़ जाती हैं।
उसके कुछ देर बाद बूढ़े गुरु भी पीपल की जड़ में पहुंच जाते हैं। वे टटोलकर देखते हैं एक छोटी-सी कील उनके हाथ में आ जाती है। वे कील को दाहिनी तरफ घुमाने का प्रयास करते हैं, कील नहीं घूमती । फिर बाईं तरफ घुमाते हैं—कील बाईं तरफ भी नहीं घूमती, किन्तु नीचे दबाते ही पीपल की मोटी जड़ में एक रास्ता बन जाता है — वे उसी के अन्दर समा जाते हैं। बटुए से एक मोमबत्ती निकालकर जलाते हैं, अन्धकार पर विजय पाता हुआ प्रकाश उन्हें मार्ग दिखाता रहा।
नीचे जाने के लिए एक लोहे की सीढ़ी बनी हुई है ।
बूढ़े गुरु नीचे उतर जाते हैं — वृक्ष का रास्ता स्वयं ही बन्द हो चुका है।
नीचे उतरने के बाद वे स्वयं को एक गुफा के अन्दर पाते हैं। खोज-बीन करने में उन्हें अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। सुरंग के दाहिनी ओर लगभग पच्चीस कदम आगे एक कमरे से किसी चिराग का प्रकाश झांक रहा है। अपनी मोमबत्ती बुझाकर वे धीरे से उस तरफ बढ़ जाते हैं। समीप पहुंचकर सावधानी के साथ कोठरी में झांककर देखते हैं।
यह देखकर वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि बागीसिंह जंजीरों में कैद पड़ा है और एक और बागीसिंह सामने खड़ा है। कैदी बागीसिंह का स्वर उनके कानों से टकराता है -"मेरा भी वक्त आएगा... मेरे पिता गिरधारीसिंह से तुम ऐयारी में मुकर्बला नहीं कर सकोगे। एक दिन वे मेरा पता लगा लेंगे और मुझे यहां से निकालकर ले जाएंगे। वह दिन तुम्हारा अन्तिम दिन होगा।”
—"आज मैं तुम्हें ये बताने आया हूं कि तुम्हारे पिता का जीवन मैं सुबह तक बर्बाद कर दूंगा ।
-"लेकिन तुम हमारे पीछे क्यों पड़े हो ?" कैदी बागीसिंह ने पूछा — "तुम्हारी हमसे दुश्मनी क्या है ?"
- "दुश्मनी !" व्यंग्य-भरे स्वर में बोला नकली बागीसिंह —"दुनिया में तुम दोनों बाप-बेटों से बढ़कर मेरा कोई दुश्मन हो ही नहीं सकता। तुम मुझे जानते नहीं हो, इसलिए दुश्मनी नहीं जानते... मेरी सूरत देखते ही तुम सबकुछ समझ जाओगे।"
-" तो मुझे बताते क्यों नहीं कि तुम कौन हो ?" कैदी बागीसिंह ने पूछा । - " तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि आज मैं तुम्हें भी ये बताने यहां आया हूं कि मैं कौन हूं।" नकली बागीसिंह ने कहा – “मेरे ख्याल से तुम शामासिंह को जानते ही होगे ?"
-"हां, उन्हें चचा कहता हूं मैं । " बागीसिंह ने जवाब दिया।
— “उनके लड़के बलदेवसिंह को भी अवश्य जानते होगे ?" नकली बागीसिंह ने कहा ।
– “हां । " बागीसिंह ने पुनः कहा – “उसे मैं छोटे भाई के बराबर मानता हूं।"
जवाब सुनकर नकली बागीसिंह मुस्कराया और अपने चेहरे पर हाथ फेरकर एक मांस की झिल्ली उतार ली और अब उसका वास्तविक चेहरा सामने आ गया। वास्तविक चेहरा देखते ही कैदी बागीसिंह बुरी तरह उछल पड़ा ।
— "तुम... बलदेवसिंह !" बागीसिंह बुरी तरह से चौंक पड़ा था ।
-"क्यों ?" जहरीली मुस्कान के साथ बोला बलदेव – "क्या मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूं...दुनिया में अगर मेरे सबसे बड़े दुश्मन हो तो तुम दोनों बाप-बेटे... | तुम्हारे पिता ने मेरी मां की अस्मत लूटी और इसके बाद उसकी हत्या कर दी। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जब तक तुम दोनों से बदला नहीं ले लूंगा, तब तक अपने पिता को अपनी सूरत नहीं दिखाऊंगा। आज छः माह से तुम मेरी कैद में सड़ रहे हो... मैं बागीसिंह बना हुआ हूं। लेकिन तुम्हारा वो गधा बाप, जिस पर तुम्हें आवश्यकता से अधिक घमण्ड है, यह भी नहीं पहचान सका कि मैं उसका बेटा नहीं, उसके दुश्मन का बेटा हूं। वह तुम्हें यहां से बचाकर ले जाएगा, ये ख्वाब देखना छोड़ दो। मैं तुमसे ऐसा बदला लूंगा कि तुम्हारी सात पूश्तें भी कांप जाएंगी।"
-“लेकिन मेरे पिता पर लगाया गया आरोप एकदम गलत है । ' -“हम सब जानते हैं । " बलदेवसिंह गरजा — "तुम्हारे पिता को भी मैंने मूर्ख बना दिया है। जिसे तुम बहुत बड़ा ऐयार समझते हो। वह समझता होगा कि अलफांसे को मैंने उसके पास छोड़ दिया है। दरबार में उसके साथ क्या सलूक होता है । वह दृश्य दर्शनीय होगा।"
- "तुम जो कुछ कर रहे हो, एक दिन पछताओगे बलदेवसिंह ।
बागीसिंह ने कहा – “तुम जो भी कुछ कर रहे हो, वह अधर्म है... पाप है...ईश्वर पापी को स्वयं सजा देते हैं। सजा भी ऐसी कि इन्सान जीते-जी मर जाता है । "
—" जिस तरह ईश्वर तुम्हें तुम्हारे पापों की सजा दे रहा है !" मुस्कराकर कहा बलदवेसिंह ने ।
बूढ़े गुरु सबकुछ सुन रहे थे । एकाएक उनके दिमाग में न जाने क्या आया कि वे आड़ में होकर बोले
"बलदेवसिंह...! पाप तुम कर रहे हो... तुमको सजा मिलेगी। " बूढ़े गुरु की आवाज सुनकर दोनों ही चौंक पड़े।
हमारे पाठक समझ गए होंगे कि शामासिंह बदला लेने के लिए गिरधारीसिंह बना हुआ है और शामासिंह का ही लड़का बलदेवसिंह बागीसिंह बना हुआ है। वे एक-दूसरे को असली समझते हैं, अतः बलदेवसिंह नहीं जानता कि गिरधारीसिंह असली नहीं, बल्कि उसी का पिता है और शामा ये नहीं जानता कि बागीसिंह असली नहीं, बल्कि उसी का लड़का है। ये पिता और पुत्र ही ऐयारी करके एक-दूसरे को ठगने के लिए प्रयत्नशील हैं ।
खैर... आगे कभी देखेंगे कि परिणाम क्या होता है !
***
प्यारे पाठको, आओ देखते हैं कि वहां क्या हो रहा है, जहां एक काला नकाबपोश नकली बलवंत की गठरी बांधे ले जा रहा था कि तभी एक आवाज वहां गूंजती है। आवाज का मालिक अपना नाम बख्तावरसिंह बताता है और उसी समय एक अन्य व्यक्ति की आवाज गूंजती है, जो अपना नाम गौरवसिंह बताता है। पाठकों को याद होगा कि काले नकाबपोश ने नकली बलवंतसिंह को चन्द्रप्रभा नाम से डराया था और रामरतन का नाम सुनकर तो नकली बलवन्त बेहोश हो गया था । काला नकाबपोश बख्तावरसिंह का नाम सुनकर घबरा जाता है और उधर गौरवसिंह के मुख से चन्द्रप्रभा का नाम सुनकर बख्तावर भी घबरा जाता है। आओ देखते हैं आगे क्या होता है ।
-"मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तुम गौरवसिंह नहीं हो । " इस बार बख्तावर का सन्तुलित स्वर गूंजता है। -
–“जब मैं सामने आऊंगा तो सब मालूम हो जाएगा।" जवाब में गौरवसिंह की आवाज गूंजती है— “मैं तो उसी दिन समझंगा, जिस दिन तुम अपनी चन्द्रप्रभा को प्राप्त कर लोगे। अपने आपको तुम सबसे बड़ा ऐयार कहते हो, लेकिन आजतक तुम छोटा-सा काम नहीं कर सके !” – “मैं सोचता हूं कि आपस में लड़ने से हमें कोई लाभ नहीं
होगा— क्यों न फैसला कर लें ?"
- "तुम्हें वह गठरी चाहिए न जो उस नकाबपोश की कमर पर है ?" गौरव का स्वर गूंजा — "तुम आराम से उसे ले जा सकते हो, लेकिन उस नकाबपोश को मैं अपने साथ ले जाऊंगा। बोलो, होता है - फैसला ?”
"मुझे मंजूर है । "
- "लेकिन मुझे मंजूर नहीं है । " एकाएक नकाबपोश अपनी म्यान से तलवार खींच लेता है— "मैं तुम्हारे बाप का नौकर नहीं जो तुम्हारे कहने पर चलूं। "
–“बख्तावरसिंह से जुबान लड़ाने की ताकत तुममें कब से आ गई ?”
“मैं जान चुका हूं कि ना तो तू बख्तावरसिंह है और न ही यह गौरवसिंह है जो खुद को गौरवसिंह कहता है । " बलवंतसिंह वाली गठरी उसी स्थान पर रखकर वह चारों ओर सतर्कता से देखता हुआ बोला – “अगर मर्द हो तो सामने आओ...।"
अभी उसका वाक्य समाप्त ही हुआ था कि उस पेड़ पर से, जिसके नीचे इस समय बख्तावर खड़ा था, एक आदमी उसके ऊपर कूदा । उसे ऐसी उम्मीद कदापित नहीं थीं । तलवार उसके हाथ से छूटकर अंधेरे में कहीं जा गिरी ।
-“अब तुम बख्तावर के नहीं, मेरे शिकार हो ।" गौरव की आवाज उसके कानों से टकराई, साथ ही उसके पेट में एक घूंसा पड़ा। कराहकर नकाबपोश धरती पर गिर गया । उसी पल एक आदमी की ठोकर उसके सिर पर पड़ी, उसे यह ठोकर मारने वाला बख्तावरसिंह था । बेचारा नकाबपोश गौरव और बख्तावरसिंह के बीच फंस गया । कुछ ही देर में वह बेहोश हो गया ।
बख्तावरसिंह का हाथ उसकी नकाब की ओर बढ़ा ।
–“खबरदार, बख्तावर ।" गौरव एकदम अपना पर्स निकालकर “फैसला ये हुआ था कि यह मेरा शिकार है। तुम्हें कोई हक नहीं है कि तुम इसकी सूरत देख सको। तुम बलवंत वाली गठरी उठाओ और अपना रास्ता नापो ।” गर्ज उठा — "
-"सत्य वचन ।" मुस्कराकर बोला बख्तावर | इसके पश्चात वह बलवंत वाली गठरी की तरफ बढ़ गया। उसने गठरी पीठ पर लादी और गौरव से विदा लेकर चल दिया।
गौरव तो यहीं खड़ा है।
आइए... हम बख्तावर के साथ चलते हैं ।
वह गठरी पीठ पर लादे बढ़ा चला जा रहा है। कोई तीन कोस चलते चलते वह बस्ती के एक कच्चे-से मकान में दाखिल हो जाता है। बख्तावरसिंह के हाव-भाव से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह मकान उसी का हो । मकान के दालान में ही तीन लौंडिया (दासी) बैठी आपस में गपशप कर रही हैं। बख्तावरसिंह को आते देखा तो तीनों सम्मान के साथ खड़ी हो जाती हैं ।
"गंगाशरण कहां है ?" बख्तावरसिंह उन लौंडियों से प्रश्न करता है।
—“बालादेवी को गया।" एक लौंडिया उत्तर देती है। (बालादेवी घूमने-फिरने अथवा टोह लेने को कहते हैं । ) —"लेकिन ये आप गठरी में किसको लिये चले आए हैं ?" एक लौंडिया बख्तावर से पूछती है।
-" उसमें गुलबदनसिंह है । " बख्तावरसिंह कहता है।
"क्या गुलबदनसिंह !" लौंडिया चौंकती है— “आपका
लड़का...?"
— "हां, बहुत निकम्मा हो गया है – कमबख्त जरा-सा काम सौंपते हैं, वह भी नहीं होता।" बख्तावरसिंह गुस्से में बोला – “मेरे नाम पर भी कलंक लगा रखा है। खैर, कोई अन्दर न आने पाए, ध्यान रखना । ". इतना कहकर बख्तावरसिंह अन्दर जाता है। एक बड़े से कमरे में जाकर वह बलवंतसिंह वाली गठरी खोलता है और उसे चारपाई पर लिटाकर लखलखा सुंघाता है।
होश में आने के बाद वह बख्तावरसिंह को देखकर कहता है— “पिताजी, आप !"
– “उतार दे ये बलवंतसिंह के चेहरे की झिल्ली ।" झुंझलाता हुआ बख्तावरसिंह कहता है— “तुझे दलीपसिंह के महल में रहते इतने दिन हो गए, लेकिन अभी तक मुकरन्द का पता नहीं लगा पाया तू । क्या खाक ऐयारी करता है ?”
- "पिताजी, मुकरन्द बलवंत के किसी बहुत ही सुरक्षित स्थान पर रखा है।" गुलबनसिंह ने कहा । "
—“तू आज कैदखाने में बलवंत के पास क्यों गया था ?" डांटते हुए पूछा बख्तावरसिंह ने।
"मैंने गौरव को गिरफ्तार कर लिया है । "
झुंझलाकर बोला बख्तावरसिंह — "मैं अभी उससे मिलकर आ रहा हूं और मैं तो ये भी जानता हूं कि जिसे तूने गिरफ्तार किया, वह भी नकली गौरवसिंह था और जिसे मैंने देखा, वह भी नकली । असली गौरवसिंह तो राजनगर गया है— जहां उसका पिता 'देव' रहता है, अब उसका नाम विजय है । "
—“ये आप क्या कहते हैं— देव तो मर गया था ?"
—"तू बिलकुल नालायक है।" बख्तावरसिंह क्रोध में चीख पड़ता है। — "तुम ही कौन से ज्यादा लायक हो बख्तावरसिंह ?" कमरे में एक तीसरी आवाज़ गूंजती है— “तुम जैसे पापी का कभी उद्धार नहीं हो सकता।"
गुलबदन और बख्तावरसिंह देखते हैं— दरवाजे पर एक आदमी खड़ा है। हम नहीं कह सकते कि वह कौन है, क्योंकि सारा बदन और चेहरा काले लिबास में छुपा हुआ है।
-"तुम कौन हो और यहां तक कैसे आ गए ?"
– " तुम्हारी ख़बर लेने आया हूं।" नकाबपोश बोला, "गुलबदन अभी पूरी ऐयारी नहीं सीखा है, अतः उसे धोखा देना मर्दानगी नहीं है।" अभी बख्तावरसिंह कुछ कहना ही चाहता था कि उसके पांच सिपाही और तीन दासियां कमरे में प्रविष्ट हुईं, उन्हें देखते ही बख्तावरसिंह का हौसला बढ़ गया और उसने एक झटके के साथ म्यान से तलवार खींच ली, साथ ही अपने सिपाहियों को आदेश दिया --
‘" इस मर्द के बच्चे को गिरफ्तार कर लो । ”
मगर दासियां और सिपाहियों ने गर्दन झुका ली।
–“सुना नहीं तुमने ?” क्रोध में चीख पड़ा बख्तावर —“हम क्या कहते हैं ?"
“मैं पहले ही उन्हें अपनी सूरत दिखा चुका हूं विक्रमसिंह... वे अब तुम्हारा नहीं, मेरा आदेश मानेंगे।" कहने के साथ ही नकाबपोश ने अपने चेहरे से नकाब उतार दी । सूरत देखते ही बख्तावरसिंह चौंककर दो कदम पीछे हट गया—
- "तुम...! बख्तावरसिंह ! "
—“क्यों ?" वह जो वास्तव में बख्तावर था, बोला—“और क्या तुम हो बख्तावरसिंह ? "
- "लेकिन विक्रमसिंह तुमसे डरता नहीं है । " कहते हुए विक्रमसिंह म्यान से तलवार खींच लेता है— "मेरा नाम भी विक्रमसिंह है । "
– “चलो, आज तुमने मर्दानगी तो दिखाई।" मुस्करांकर कहते हुए बख्तावरसिंह ने भी तलवार खींच ली, साथ ही अपने साथियों और लड़के गुलबदन से बोला – “कोई बीच में न आए। आज हम उमादत के खास ऐयार विक्रमसिंह की मर्दानगी देखेंगे।"
दोनों ने एक-दूसरे के आमने-सामने पैंतरा बदला ।
"मैं उमादत्त का तुम जैसा कोई गद्दार ऐयार नहीं हूं... तुम्हारा तो कोई ईमान-धर्म नहीं है, एक अदने से ऐयार होकर तुम उमादत्त जैसे महान सम्राट को धोखा देकर उससे टकराना चाहते हो । " विक्रमसिंह ने तलवार तानकर कहा ।
' – “उमादत्त महान होगा तुम्हारे लिए | " बख्तावरसिंह गम्भीरता के साथ बोला – "मेरी नजर में तो खुद उमादत्त का ही कोई ईमान-धर्म नहीं है और पापी के साथ पाप करना कोई पाप नहीं है। " कहते हुए उसने झपटकर फुर्ती के साथ विक्रमसिंह पर तलवार का वार किया। विक्रमसिंह सतर्क था, अतः उसने अपनी तलवार सुरक्षित ढंग से बख्तावर की तलवार से अड़ा दी ।
इसके बाद... बख्तावरसिंह और विक्रमसिंह के बीच जमकर काफी देर तक तलवारबाजी हुई। किन्तु यह कहने में हमें कोई संकोच नहीं है कि विक्रमसिंह बख्तावरसिंह के मुकाबले का लड़ाका नहीं था। हालांकि विक्रमसिंह उस पर कातिलाना वार कर रहा था, परन्तु बख्तावरसिंह उसके इन वारों को बचाकर ऐसे वार कर रहा था कि विक्रमसिंह केवल घायल हो सके, मृत्यु को प्राप्त न हो सके । या यूं कहना अधिक उचित जान पड़ता है कि बख्तावरसिंह विक्रमसिंह के साथ खेल-सा कर रहा था । विक्रमसिंह का बदन कई स्थानों से जख्मी हो चुका था, जबकि बख्तावरसिंह के जिस्म पर हल्की-सी खरोंच भी नहीं आई थी।
अन्त में बख्तावरसिंह ने इतना जोरदार वार किया कि विक्रमसिंह की तलवार टूटकर दो भागों में विभाजित हो गई। उसका एक भाग टूटकर कमरे की जमीन पर गिर गया । बख्तावर ने इस बार मारने हेतु तलवार उठाई तो-
“ठहरो बख्तावर ।" विक्रमसिंह एकदम बोला ।
—“बोलो क्या कहते हो ?" बख्तावरसिंह रुक गया ।
— "तुम अगर चन्द्रप्रभा को जीवित देखना चाहते हो तो मुझ पर वार मत करो।"
चन्द्रप्रभा का नाम सुनते ही बख्तावरसिंह और गुलबदन चौंक पड़े। ( "क्यों... क्या तुम जानते हो कि चन्द्रप्रभा कहां है ?" बख्तावरसिंह ने पूछा ।
-“हां जानते हैं...।" विक्रमसिंह ने कहा – “जानते नहीं हैं बल्कि तुम्हारी चन्द्रप्रभा अभी तक हमारी ही मेहरबानी पर जीती है, अगर मैं संध्या से पहले वहां नहीं पहुंचा तो वे लोग तुम्हारी चन्द्रप्रभा को मार देंगे और रामरतन भी जीता न बचेगा । "
–“तो बताओ कि चन्द्रप्रभा और रामरतन कहां हैं ?" बख्तावरसिंह ने पूछा ।
–“यह हम तुम्हें उस समय तक नहीं बता सकते, जब तक कि तुम राजा उमादत्त के दरबार में जाकर क्षमायाचना न करोगे ।” "बख्तावरसिंह किसी पापी से क्षमा नहीं मांग सकता।" उसने गर्व के साथ कहा |
-"तब तो तुम चन्द्रप्रभा और रामरतन को भी नहीं पा सकते । ” विक्रमसिंह दृढ़ शब्दों में बोला – "बेशक तुम हमें मार दो, किन्तु यह समझ रखना कि रामरतन और चन्द्रप्रभा भी आज रात का चन्द्रमा नहीं देख सकेंगे।"
-“तुम मुझे धमका रहे हो ?" बख्तावर ने कहा।
धमका नहीं रहे हैं, असलियत बताते हैं।"
-“विक्रमसिंह को बख्तावरसिंह ने बटुए में से एक तह किया हुआ कागज निकालकर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा- "जरा इसे पढ़ लो और कि तुम मेरा कहना नहीं मानोगे ? "
फिर कहो विक्रमसिंह ने उसके हाथ से वह कागज ले लिया। उसकी तह खोलकर पढ़ा...पढ़ते-पढ़ते विक्रमसिंह के चेहरे की रंगत हल्दी की भांति पीली पड़ गई। घबराहट उभर आई... सारा बदन पसीने में तर हो गया। पढ़ने के बाद वह बख्तावर की ओर देखकर घबराए स्वर में बोला-
- - "नहीं... नहीं... ये नहीं हो सकता... मैं... मैं...तुम्हें... चन्द्रप्रभा...!" बस इससे आगे कुछ कह नहीं सका विक्रम... बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा।
***
बख्तावरसिंह के चले जाने के कुछ देर बाद तक गौरव अपने स्थान पर यूं ही खड़ा रहा। उसके चारों ओर अभी तक अंधकार था। उसने नकाबपोश का चेहरा देखने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उसकी गठरी बांधकर पीठ पर लटकाई और एक तरफ को चल दिया। सुबह उस समय सूरज गगन पर काफी ऊपर उभर आया था, जब वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया— जहां दूर-दूर तक पहाड़ियां फैली हुई थीं। अभी वह कदाचित अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचा था कि सामने से आते हुए बूढ़े गुरु दिखाई दिए ।
ये बूढ़े गुरु वही गौरव और वन्दना के गुरु थे।
उन्हें देखते ही गौरव उनकी ओर लपका तथा पैरों में झुक गया। गुरु ने उसे पैरों से उठाकर गले से लगा लिया और बोले—‘‘ये क्या ! गठरी में बलवन्तसिंह को बांध लाए हो ?”
—“जी नहीं।" गौरव ने कहा – “ये तो माधोसिंह है, बेगम बेनजूर का खास ऐयार !” -
" शायद आप अभी तक मुझे केवलसिंह ही समझ रहे हैं ?" गौरव ने कहा ।
- "ये तुम्हारे हाथ कहां से लगा ?" गुरु ने चौंककर पूछा ।
—"तो — तो तुम कौन हो ?" हल्के-से चौंककर कहा गुरुजी ने।
-"जी, मैं गणेशदत्त हूं।" गौरव बने हुए व्यक्ति ने कहा— "आपने मुझे और केवलसिंह को गौरव बनाया था ना–आपने कहा था कि मैं गुप्त ढंग से गौरवसिंह बने हुए केवलसिंह के पीछे रहूं— मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया । मैं उसी के पीछे था, आपकी आज्ञानुसार केवलसिंह प्राप्त करने दलीपसिंह के महल में गया, लेकिन वहां बलवंतसिंह ने उसे गौरव समझकर गिरफ्तार कर लिया। केवलसिंह को महल की एक कैद में डालकर
जब बलवंतसिंह बाहर आया तो पहले मैंने सोचा कि किसी तरह केवलसिंह को छुड़ाने की युक्ति करूं, क्योंकि आपने कहा था कि किसी भी तरह किसी को यह पता न लगने पाए कि वह गौरवसिंह नहीं, बल्कि केवलसिंह है। परन्तु जब हमने ये देखा कि बलवंत अकेला ही तेज कदमों के साथ जंगल की ओर बढ़ रहा है, तब मुझे उसका व्यक्तित्व कुछ रहस्यमय-सा लगा, मैंने सोचा क्यों न पहले इसी का पता लगा लूं। मैं उसके पीछे लग गया। कुछ ही देर बाद वह सोनिया के खण्डहर में पहुंचा। वह जो खाली कोठरी है— छत के रास्ते से उससे गया । उसने छत पर ही लगी एक गुड़िया को घुमाकर छत में रास्ता बनाया था। वहां मैंने भेद जाना कि दलीपसिंह का ऐयार बलवंतसिंह तो वहां कैद में पड़ा है और कोई दूसरा ही आदमी बलवंत बना हुआ है। उस वार्तालाप से मुझे ये भी पता लग गया कि वह नकली बलवंत अभी तक केवलसिंह को गौरव ही समझे हुए था, जब नकली बलवंत वहां से बाहर निकल आया तो सोचा कि असली बलवंत को मैं कैद से बाहर निकालकर आपके कदमों में ले आऊं, उसी समय नकली बलवंत को उस नकाबपोश ने रोक लिया—मेरा ध्यान भी उस तरफ हो गया । इस नकाबपोश ने उसे चन्द्रप्रभा और रामरतन का नाम लेकर डराया था— मैं समझ गया था कि नकली बलवंत या तो बख्तावरसिंह अथवा उसका लड़का गुलबदनसिंह है। अभी वह नकाबपोश नकली बलवंत को पीठ पर लादकर चला ही कि था बख्तावरसिंह प्रकट हो गया । वह इस नकाबपोश यानी माधोसिंह पर अपने नाम का सिक्का जमा रहा था । उसी समय मैंने प्रकट होकर बख्तावरसिंह को ललकारा ।
इसके बाद गणेशदत्त ने सारा किस्सा संक्षेप में बता दिया ।
- "तुमने जब इसका चेहरा नहीं देखा तो यह कैसे जाना कि यह माधोसिंह है ?" गुरुजी ने सबकुछ सुनने के बाद प्रश्न किया ।
“आप जानते हैं कि मैंने और माधोसिंह ने एक साथ ही एक ही गुरु से ऐयारी सीखी है और इसके साथ ही लगातार एक बरस मैंने खुद बेगम बेनजूर के यहां नौकरी की है— उन दिनों यह मेरा लंगोटिया यार था, हम दोनों साथ-साथ ही रहते तथा खाते-पीते थे । मैं इसकी आवाज सुनते ही पहचान गया कि असलियत में यह माधोसिंह है।"
–" लेकिन तुम इसे ही क्यों लाए ?" गुरुजी ने पूछा–“तुम गुलबदन, बख्तावरसिंह या असली बलवंत को भी तो ला सकते थे ?"
" मैंने सोचा कि गुलबदन और बख्तावरसिंह से तो हमारी दुश्मनी ही क्या है। यह मैं समझ चुका था कि गुलबदन केवल मुकरन्द प्राप्त करने के लालच में बलवंतसिंह बना हुआ था, जो अभी तक उसे प्राप्त नहीं हो सका है। बेगम बेनजूर से हमारी दुश्मनी भी है, अतः मैंने इसे ही लाना उचित जाना और ये भी सोचा कि शायद हम इसके जरिए बेगम बेनजूर से बदला ले सकें । "
__" और बलवंतसिंह को क्या समझकर छोड़ आए ?" गुरुजी ने "क्योंकि मैं एक साथ दो गठरियां नहीं ला सकता था।" गणेशदत्त ने कहा। "
– "तुम आधे मूर्ख हो । " गुरुजी इस प्रकार बोले मानो उन्हें गणेशदत्त के जवाब पर गुस्सा आ गया हो— "बलवंतसिंह इतने काम का आदमी है, तुम उसी को छोड़ आए – एक वही तो ऐसा आदमी है जो मुकरन्द का पता बता सकता है और उसी को छोड़ आए ?” गणेशदत्त ने अपराधी की भांति गरदन झुका ली।
– “चलो – पहले जरा इसे होश में लाओ।" गुरुजी ने आदेश दिया।
गणेशदत्त ने तुरन्त अपने ऐयारी के बटुए में से लखलखा निकालकर उसे सुंघाया। उसका नकाब उतार लिया गया था। निस्सन्देह वह माधोसिंह ही था । होश में आते ही वह उठ बैठा और गणेशदत्त को देखते ही बोला—“गणेशदत्त ! तुम ?”
—“हां, हम ही हैं । " गणेशदत्त ने कहा – “बलवन्तसिंह को गिरफ्तार करके कहां ले जाना चाहते थे... और तुम्हारा उद्देश्य क्या था ?”
- "मैं तुम्हारी बातों का जवाब क्यों दूं ?" माधोसिंह गणेशदत्त को घूरता हुआ बोला ।
- "जवाब तुम्हें देना होगा।" गुरुजी कड़े स्वर में बोले – हम तुम्हें यातना देंगे । " – “अगर किसी ने भी मुझे हाथ लगाया तो वन्दना जीती नहीं बचेगी।" माधोसिंह ने कहा ।
"क्या मतलब ?" गणेशदत्त और गुरुजी चौंके ।
–“वन्दना हमारी महारानी की कैद में है। " माधोसिंह ने कहा – “उनका कोई न कोई ऐयार यहां आसपास ही कहीं छिपा होगा । अतः उन्हें मालूम हो जाएगा कि आप लोगों ने मुझे किसी तरह की हानि पहुंचाई है और महारानी वन्दना को मार डालेंगी।"
माधोसिंह की बात सुनकर गुरुजी और गणेशदत्त दोनों ही उलझन में पड़ गए। जब गुरुजी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने गणेशदत्त को एक गुप्त संकेत दिया, संकेत पाते ही गणेशदत्त ने धोखे से माधोसिंह की गुद्दी पर एक धौल जमा दी ।
माधोसिंह तुरन्त बेहोश होकर लुढ़क गया।
— " ये तो बड़ी उलझन की बात हो गई, गणेशदत्त ।" उसके बेहोश होते ही गुरुजी ने कहा—“गौरव बना हुआ केवलसिंह दलीपसिंह की कैद में पहुंच गया है और वन्दना बेगम बेनजूर की कैद में, सारा भेद खुल सकता है । "
हल्के-से चौंका गणेशदत्त, किन्तु अपने भाव प्रकट न करके बोला--- "मेरे लिए क्या आज्ञा है, गुरुजी ?"
- "नकली बलवंतसिंह बने हुए गुलबदन को तो उसका पिता बख्तावर ले ही गया । " गुरुजी ने कहा – “और असली बलवंत उस मकान में कैद है। सबसे पहले तुम ये काम करो कि नकली बलवंतसिंह बनकर दलीपसिंह के महल में जाओ और किसी भी तरह केवलसिंह को उस कैद से मुक्त करा लाओ, मैं खुद माधोसिंह बनकर बेगम बेनजूर की कैद से उसे लाता हूं। हमारे लिए सबसे पहले यही काम है — अगर भेद खुल गया तो सब गड़बड़ हो जाएगा । "
— " जैसी आज्ञा, गुरुदेव ।" कहने के साथ ही गणेशदत्त ने गुरुजी के चरण स्पर्श किए और एक तरफ को चला गया |
प्रिय पाठको, अगर वह चला गया तो उसे जाने दें – हम इसी जगह पर रुककरं जरा गुरुजी के करिश्मे देखते हैं।
गणेशदत्त के आंखों से ओझल हो जाने के एकदम बाद गुरुजी का रंग-ढंग ही बदल जाता है। वे एकदम अपनी नकली सफेद-लम्बी दाढ़ी और बाल चेहरे व सिर से अलग कर लेते हैं । अब हम गुरुजी के पर एक नाजुक, कमसिन और कम उम्र की औरत को देखते हैं। हम इस औरत की खूबसूरती का वर्णन करके आपका समय बरबाद नहीं करेंगे । बस यूं समझ लीजिए कि अगर वह औरत चन्द्रमा के सामने खड़ी हो जाए तो चन्द्रमा भी जल-भुनकर अपना मुखड़ा गगन के आंचल में छुपा लेगा ।
उसने अपने बटुए से लखलखा निकाला और माधोसिंह को सुंघाने लगी।
हम आपको ये क्यों बताएं कि हमारे और आपके अतिरिक्त इस उपन्यास का एक और पात्र भी छुपकर इस सारी कार्यवाही को देख रहा है ?
0 Comments