“मुंह नोंच लूंगी मैं तुम्हारा ! कच्चा चबा जाऊंगी !” दिव्या घायल शेरनी की तरह देवांश पर झपट पड़ी --- "काहे का प्यार करते हो मुझसे ? उसका इशारा हुआ और मुझ ही को मारने पर आमादा हो गये ?”
“दिव्या! दिव्या ! बात तो सुनो मेरी ।” उससे बचने का लगभग असफल प्रयास करता देवांश चीखा --- “मैंने तुम्हें नहीं, उसे मारने का फैसला किया था ।”
मगर । दिव्या को भला होश
कहां? कहा ?
कुछ सुनने को तैयार नहीं थी वह ।
उसका बस चलता तो उस क्षण देवांश को जान से मार डालती ।
यह ड्रामा आफताब, दीनू काका, तीसरे नौकर और भागवंती के वहां से जाते ही शुरू हो गया था। उनकी मौजूदगी में जाने किस तरह खुद को नियंत्रित किये थी दिव्या । गोली की आवाज सुनकर वे सभी वहां आ गये थे। ठकरियाल ने समझा-बुझाकर वापस सर्वेन्ट्स क्वार्टर में भेजा । विला का मुख्य द्वार बंद किया।
दरवाजे का बंद होना था कि दिव्या देवांश पर झपट पड़ी ।
ठकरियाल ने उसे बड़ी मुश्किल से पकड़कर अलग किया।
वह अब भी चीख रही थी । चिल्ला रही थी ।
“समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहीं तुम ?” दिव्या की चीख-चिल्लाहट के जवाब में अंततः देवांश उससे ज्यादा जोर से चीख पड़ा --- “एक पल और ठकरियाल मुझ पर गोली नहीं चलाता तो राजदान की तरफ घूमने वाला था मेरा रिवाल्वर वाला हाथ ।”
“बक रहे हो तुम ठकरियाल के बंधनों में जकड़ी दिव्या चिल्लाई --- “झूठ बोल रहे हो। अगर ऐन समय पर ठकरियाल न पहुंच जाता तो तुम मुझे मार चुके थे । खुश कर चुके थे अपने भाई को । माफी की उम्मीद क्या बंधी कि तुम मुझ ही को मारने पर तुल गये । ”
“दोनों बेवकूफ हो तुम !.... दोनों ।” अंततः ठकरियाल को उन दोनों से ज्यादा जोर से चीखना पड़ा--- "वह राजदान था ही नहीं। कितना समझाया तुम्हें । कितने कॉन्फीडेंस के साथ कहा था मैंने कि राजदान मर चुका है। वह उसका क्लोन है। इसके बावजूद तुम बेवकूफ बन गये।”
“उसने कहा था --- - मोर्चरी में उसने लाश के चेहरे से प्लास्टिक के सभी रेशे हटा दिये थे ।”
“उसने कहा और तुमने मान लिया ? क्या राजदान मुझसे इस तरह फाइटिंग कर सकता था ? क्या थी उसमें इतनी ताकत कि मुझे उठाकर तुम्हारे ऊपर फैंक देता? हम दोनों के बीच से फरार हो जाता ?”
“वह चाहे जो था मगर इसने उसे राजदान ही समझा था।" दिव्या पुनः चिल्ला उठी --- “मैं बस इतना जानती हूं कि खुद को बचाने के लिए यह मेरी जान लेने को तैयार हो गया था।"
“दिव्या ! .... अब मैं कैसे समझाऊं तुम्हें । यह गलत है। मैं चाल चल रहा था।"
“तुम दोनों समझ क्यों नहीं रहे?” ठकरियाल ने कहा--- "वह यहां आया ही तुम्हारे बीच वह दरार डालने था जो मुझे साफ-साफ नजर आ रही है। मेरे आ जाने की वजह से वह पूरी तरह कामयाब भले ही न हो सका हो मगर आंशिक रूप से जरूर कामयाब हो गया । "
“क्या मतलब ?”
" सबसे पहले यह रिवाल्वर उठाओ।" ठकरियाल ने डायनिंग टेबल के नीचे पड़े रिवाल्वर की तरफ इशारा किया ।
देवांश ने आगे बढ़कर साइलेंसरयुक्त रिवाल्वर उठा लिया।
“ चैम्बर खोलो इसका । मेरा दावा है यह खाली है । एक भी गोली नहीं है इसमें ।”
देवांश ने चेम्बर खोला ।
वह सचमुच खाली था।
“अब सोचो ।” ठकरियाल ने कहा --- “अगर तुम पलटकर उस पर गोली चलाते भी तो क्या होता?”
देवांश ने मूर्खों की तरह कहा ---- “क्या होता ?”
“ठहाके लगा- लगाकर हंसता वह तुम्हारी बेवकूफी पर ।”
“नहीं इंस्पैक्टर |” दिव्या ने कहा--- "यह उस पर नहीं, मुझ पर गोली चलाने वाला था । तुमने तो खुद अपनी आंखों से देखा था ।”
“तब भी क्या होता?"
“मतलब?”
“मर तो जातीं नहीं तुम । क्योंकि यह खाली था।”
“फ-फिर?”
“वही तो समझाने की कोशिश कर रहा हूं मैं तुम्हें । उसका इरादा देवांश के हाथों तुम्हें खत्म करा देने का नहीं - -- बल्कि केवल यह सिद्ध करना था कि अपनी जान बचाने के लिए यह तुम्हें मार सकता है । यह वह इसलिए सिद्ध करना चाहता था ताकि तुम्हारे बीच दरार पड़ जाये, जो कि मैं देख रहा हूं कि पड़ चुकी है।”
दिव्या अविश्वसनीय नजरों से ठकरियाल की तरफ देखती रह गयी ।
हैरान देवांश ने पूछा--- “मगर तुमने यह अनुमान कैसे लगाया रिवाल्वर खाली होगा ?”
“भरा हुआ होता तो इसे तुम्हारे हाथ में देने की बेवकूफी कभी नहीं करता वह । वह पहले ही कल्पना कर चुका होगा --- तुम्हारे हाथ में पहुंचने के बाद इसका रुख खुद उसकी तरफ भी घूम सकता है। उस अवस्था में उसे पता लग जाता---माफी मांगना तुम्हारा एक पैंतरा था ।”
“म - मगर... उस पर तो तुम्हारी गोली का भी असर नहीं हुआ।”
" अर्थात् वह बुलेट प्रूफ जैकेट पहने हुए था ।” ठकरियाल कहता चला गया --- "इससे सिद्ध होता है --- कितनी पुख्ता तैयारियों के साथ आया था वह यहां । तुम्हारे हाथ में जो रिवाल्वर दिया, उसमें गोली नहीं, इसके बावजूद जिस्म पर बुलेट प्रूफ जैकेट। मतलब साफ है --- आने से पहले वह यह भी सोच चुका था तुम इसके अलावा किसी और रिवाल्वर से भी उस पर गोली चला सकते हो। अपनी इसी सतर्कता के कारण वह मेरी गोली से बच गया ।”
दिव्या ने अब भी कहा --- "मैं नहीं मान सकती देवांश के रिवाल्वर का रुख उसकी तरफ घूमने वाला था।"
“तुम्हारे न मानने से कोई समस्या हल होने वाली नहीं है दिव्या ।” ठकरियाल ने उसे समझाने वाले लहजे में कहा - - - " बल्कि समस्या बढ़ेगी। वही होगा जो वह चाहता है । तुम दोनों और अंततः हम तीनों के बीच वह अविश्वास की खाई खोदनी चाहता है ताकि आपस में लड़-झगड़कर उसके गर्त में जा गिरें । हमारी कोशिश उसकी चाल को नाकाम करने की होनी चाहिए, न कि कामयाब करने की ओर.. यदि देवांश पर तुम इसी तरह शक करती रहीं तो कामयाब ही समझो उसे । देवांश की बात पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।"
दिव्या को चुप रह जाना पड़ा।
“इसके बावजूद जो हुआ, बहुत अच्छा हुआ। खासतौर पर यह अच्छा हुआ कि ऐन टाइम पर मैं आ गया ।” कहते वक्त ठकरियाल के होटों पर रहस्यमय मुस्कान थी--- "मेरे ख्याल से राजदान के क्लोन की ये ड्रामेबाजियां अब ज्यादा लम्बी नहीं चलनी चाहिएं।”
देवांश ने पहली बार ठकरियाल के होठों पर आत्मविश्वास से लबरेज मुस्कान देखी ।
***
“रामभाई, तेरहवीं निपटने दो । उसके बाद मुझे केवल पन्द्रह दिन चाहिए ।” अगले दिन, दोपहर के करीब एक बजे देवांश के लहजे में गिड़गिड़ाहट थी --- “ पन्द्रह दिन के अंदर मैं ब्याज सहित तुम्हारा पैसा चुकता कर दूंगा।”
“और हमारा?” रामभाई शाह के नजदीक बैठे अधेड़ आयु के एक अन्य शख्स ने कहा ।
देवांश के सामने ये दो ही नहीं उनके अलावा चार और व्यक्ति बैठे थे | देवांश ने उन छओं को देखा। चेहरे पर याचना के भाव लिए बोला --- “अब आप ही लोग सोचिए, भला इतने कम समय में सभी का चुकता पेमेंट कैसे कर सकता हूं मैं? ऐसा तो अगर भैया खुद होते तो शायद वे भी न कर पाते । परन्तु वादा करता हूं, धीरे-धीरे सभी के पेमेंट कर दूंगा । बहरहाल, बिजनेस करना है। भागना तो है नहीं मुंबई से ।”
एक अन्य व्यक्ति ने गुर्राकर पूछा--- "आखिर कब तक इंतजार करें हम ?”
“सबके पैसे देने में करीब छः महीने तो लग ही जायेंगे।”
“हम इतने दिन इंतजार नहीं कर सकते।” चौथे ने कहा ।
“प्लीज... समझने की कोशिश कीजिए मनचंदा साहव ।” गिड़गिड़ाते-गिड़गिड़ाते देवांश का बुरा हाल हो गया था --- "यं अगर एक साथ बैंक के लेनदार भी इकट्ठे होकर अपना पैसा मांगने लगें तो शायद बैंक भी दिवालिया हो जायें। बहरहाल, बिजनेस से पैसा निकालूंगा तो तभी, जब सीट पर जाकर बैठूंगा । "
“ देखा जाये तो लड़का ठीक ही कह रहा है।" उसने कहा जो उम्र में उन सबसे बड़ा था--- "जितना पैसा हम सवका है, उतना बिजनेस से निकालने में छः महीने तो लग ही जायेंगे।”
“लेकिन ये क्या बात हुई कि रामभाई शाह का पैसा पन्द्रह दिन में निकल आये और हमारा छः महीने फंसा रहे?”
“बात ठीक है मिस्टर चावला।" रामभाई शाह ने कहा --- “आपस में झगड़ने की मैं कोई वजह नहीं समझता । सबको इसी धंधे में रहना है। मेरा पैसा इसने तेरहवीं के पन्द्रहवें दिन देने के लिए कहा है। उस पैसे को हम लोग अपने कर्जे के अनुपात के हिसाब से छः हिस्सों में बांट लेंगे। छः महीने तक हर महीने मिलने वाला पैसा इसी तरह बंटेगा । इस तरह छः महीने में सबका पैसा एक साथ निकल आयेगा।”
“बशर्ते यह हर महीने किश्त देता रहे ।” छठे ने कहा ।
देवांश बोला--- "मैं हर महीने पैसा देने का वादा करता हूं। ”
“ओ. के. ।” रामभाई शाह ने कहा ।
उसके बाद ।
वे छऔं बार-बार हर महीने पैसा देने की चेतावनी देते विदा हुए।
देवांश को लगा --- सर पर 'थप्प' से लाकर पटक दिया गया बहुत बड़ा बोझ हटा है।
***
बैठक कक्ष से सारा फर्नीचर हटाकर फर्श पर दरी - चांदनी बिछा दी गई थी ।
उसी पर, देवांश एक दीवार पर पीठ टिकाये बैठा था ।
अफसोस जाहिर करने वाले आ-जा रहे थे।
महापंडित के मुताबिक तेरह दिन तक सबको अटेन्ड करना ही उसका काम था।
अपने भन्ना रहे दिमांग को काबू में करने का प्रयत्न कर रहा था जब उस दरवाजे पर दिव्या प्रकट हुई जो बैठक को विला के अंदरूनी हिस्से से जोड़ता था । उसके जिस्म पर इस वक्त सफेद सूती धोती थी । फुल बाजू वाला सफेद ब्लाउज। उस वक्त वह माथा
चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था ।
बाल खुले हुए ।
उसके अंदर आने की आहट पाकर देवांश ने आंखें खोल दीं।
नजरें मिलीं मगर बोला कोई कुछ नहीं ।
रात से अब तक --- देवांश के लाख स्पष्टीकरण के बावजूद दिव्या इस बात का विश्वास नहीं कर सकी थी कि ऐन वक्त पर ठकरियाल न आ जाता तो वह रिवाल्वर का रुख राजदान की तरफ घुमाने वाला था । केवल एक ही बात पर समझौता किया था दिव्या ने । यह कि कम से कम वर्तमान मुसीबत से निपटने तक वे आपस में झगड़ा नहीं करेंगे ।
“क्या कह रहे थे ?” दिव्या ने उसके बायीं तरफ बैठते हुए पूछा।
“कह क्या रहे थे! भेजा चाट रहे थे मेरा !” भन्नाया हुआ देवांश फट पड़ा --- “जी चाहता है, सिर दीवारों से टकरा - टकराकर फोड़ डालूं । साला एक मुसीबत में डाल गया हो तो कुछ कहूं भी । रात होती है तो रहस्यमय घटनायें घेर लेती हैं। दिन निकला है तो कर्जमंदों ने आ घेरा । इनका कर्ज नहीं चुकाया गया तो गिद्धों की तरह गोश्त नोंच-नोंच कर खा जायेंगे मेरा । किसी तरह एक महीने के लिए टाला है। नहीं मालूम तेहरावनी से पन्द्रहवें दिन क्या होगा । और एक तुम हो। तुम भी मुझ पर विश्वास करने को तैयार...
वाक्य खुद अधूरा छोड़ दिया उसने ।
नजर दरवाजे पर जा अटकी थी ।
दिव्या की आंखों ने उसकी नजरों का पीछा किया ।
दरवाजे पर खड़े शख्स का हुलिया बड़ा अजीब था ।
जगह-जगह से घिसी हुई एक जींस पहन रखी थी उसने ।
ढीली-ढाली शर्ट । दायें कंधे से थोड़ी फटी हुई थी ।
बायें जूते से पैर का अंगूठा झांक रहा था ।
बाल लम्बे, रूखे गुलाबी । नाक-नक्शशखर हुए थे। चेहरा क्लीन शेव्ड | रंग तीखे । मगर ऐसा लगता था जैसे कई दिन से नहाया नहीं है। कुल मिलाकर वह बदसूरत नहीं बल्कि स्मार्ट और खूबसूरत ही था परन्तु लिबास आदि से फटीचर नजर आता था।
देवांश ने सोचा --- होगा कोई राजदान का परिचित ।
अतः कुछ बोला नहीं ।
आगन्तुक ने अपने फटे हुए जूते उतारे और उसके सामने आकर चांदनी पर बैठ गया ।
“कैसे हो गया ये?” उसने गमगीन स्वर में पूछा।
देवांश ने रटा रटाया जवाब दिया--- "बस क्या बतायें। हमारी किस्मत खराब थी।”
“ये भाभी जी हैं ?” पूछने के साथ उसने दिव्या की तरफ देखा । देखा... तो देखता ही रह गया ।
यदि आप किसी लड़की या औरत की तरफ तीन सेकण्ड तक लगातार देखते रहें तो वह समझ जाती है कि आप उसमें खास दिलचस्पी ले रहे हैं और... उस अजनबी ने तो दिव्या के चेहरे से पांच सेकेण्ड तक नजरें ही नहीं हटाईं । यदि तब भी देवांश ने यह न कहा होता कि --- 'मैंने आपको पहचाना नहीं, तो जाने कब तक एकटक देखता रहता । देवांश की बात का जवाब देने के लिए उसने उसकी तरफ देखा । धीरे से कहा--- "मेरा नाम अवतार है।"
“अ - अवतार ?” दोनों एक साथ चौंक पड़े।
उसने पुनः अपनी आंखें दिव्या के चेहरे पर गड़ाते हुए कहा --- “लगता है आप लोग मुझ जानते हैं।”
“नाम सुना है।" दिव्या ने कहा ।
“राजदान के मुंह से सुना होगा। मैं उसके बचपन का दोस्त हूँ।"
उसकी आंखें ब्राउन कलर की थीं ।
चमकदार ।
दिव्या को लगा --- वे आंखें उससे कुछ कहना चाहती हैं ।
उसकी आंखों में झांकता सा वह कहता चला गया --- "पांच दोस्त थे हम। मैं, राजदान, भट्टाचार्य, वकीलचंद और अखिलेश ।”
“अब तक कहां थे आप ?” देवांश ने पूछा ।
“कलकत्ता में था। अखबार में राजदान के मर्डर की खबर पढ़कर आया हूं।”
देवांश ने राहत की सांस ली। वरना नाम सुनकर तो उसे यही लगा था---एक और मुसीबत आ टपकी है। इसे भी राजदान ही ने बुलाया होगा। किसी खास काम पर नियुक्ति की होगी उसकी भी ।
“अखबार के मुताबिक सोलह साल के लड़के ने किया उसका कत्ल ।” वह कहता चला गया --- "चंद जेवरात की खातिर । राजदान के पास अक्सर आता रहता था । और कहीं पास ही में रहता है ।”
“एक मिनट। मैं अभी आया ।” कहने के साथ देवांश अपने दायें हाथ की सबसे छोटी अंगुली दिखाता हुआ खड़ा हो गया । अगले पल दरवाजा क्रास करके वह विला के भीतरी भाग में पहुंच चुका था ।
फोन पर झपट सा पड़ा ।
अचानक उसकी चाल में थोड़ी तेजी आ गयी । लगभग दौड़ता सा लॉबी में पहुंचा।
ठकरियाल से कांटेक्ट करने के बाद बोला--- "राजदान के बचपन का चौथा दोस्त भी आ टपका है।"
“अवतार ?” ठकरियाल की आवाज उभरी --- “कहां है?”
“बैठक में बैठा है।" कहने के बाद देवांश सब कुछ बताता चला गया।
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