शनिवार : रात

शनिवार शाम को जगदीप बड़ी मुश्‍किल से डेजी के साथ ईवनिंग शो में पिक्चर देखने जाने का जुगाड़ कर पाया। उसकी बहुत जिद पर डेजी ने घर पर बहाना बनाया था कि उसने अपनी किसी सहेली की बर्थ-डे पार्टी पर जाना था। अभी परसों ही वह जगदीप के साथ ईवनिंग शो में ही पिक्चर देखने जाकर न हटी होती तो बर्थ-डे पार्टी वाले बहाने की शायद जरूरत न पड़ती। इतनी जल्दी-जल्दी रात को लेट आने का सिलसिला दो बार बन जाने की वजह से वैसा बहाना उसके लिए जरूरी हो गया था। जगदीप रिट्ज सिनेमा की बॉक्स की दो टिकटें पहले से लाया हुआ था। वहां ‘प्रेम रोग’ लगी हुई थी। जगदीप ने सुना था कि वह बड़ी ‘इश्‍किया’ फिल्म थी, इसलिए वह उसे डेजी के साथ ही देखना चाहता था। बॉक्स में फिल्म देखने का वैसे भी अपना अलग से मजा था। हाथापाई का खूब मौका जो मिल जाता था।
फिल्म अच्छी थी। दोनों का उसमें बहुत दिल लगा।
इण्टरवल में जब हाल की रोशनियां जलीं तो जगदीप को हाल में दामोदर दिखाई दिया। उसके साथ जामा मस्जिद के इलाके के कोई आधी दर्जन लड़के और थे जिनमें मदन भी था।
जगदीप का दिल किसी अज्ञात आशंका से डरने लगा। अगर वे लोग उसे शो शुरू होने से पहले सिनेमा के आसपास कहीं दिखाई दे गए होते तो वह डेजी के साथ हरगिज वहां कदम न रखता। अब पता नहीं हाल में से बॉक्स में बैठे लोगों की सूरतें दिखाई देती थीं या नहीं। देख तो साला उधर ही रहा था लेकिन उसके थोबड़े पर ऐसे कोई भाव तो नहीं थे जिससे लगता हो कि बॉक्स में उसने कोई परिचित सूरत देखी थी। जरूर हाल में से बॉक्स में बैठे लोगों की सूरतें पहचानी नहीं जा सकती होंगी।
तभी हाल की बत्तियां बुझ गयीं।
बाकी की फिल्म जगदीप ने पहले जैसे आनन्द के साथ न देखी। न ही अन्धेरे का फायदा उठाकर उसका हाथ डेजी के जिस्म पर कहीं रेंगा। डेजी ने उसकी उदासीनता की वजह भी पूछी लेकिन जगदीप ने किसी तरह उसे टाल दिया।
फिल्म अपने क्लाइमैक्स पर पहुंची तो एकाएक जगदीप डेजी के कान में बोला—“आओ, चलें।”
“अरे!”—वह हैरानी से बोली—“फिल्म खतम तो होने दो!”
“अब कुछ नहीं रखा फिल्म में। इसे खतम ही समझो। आओ, निकल ही चलते हैं।”
“खामखाह! दो मिनट और रुकने से क्या हो जाएगा? इतनी देर से नहीं बैठे हुए?”
“बाहर भीड़ हो जाएगी। सवारी नहीं मिलेगी।”
“मिल जाएगी।”
“लेकिन...”
“चुप करो।”
जगदीप कसमसाकर चुप हो गया।
डेजी को समझाना मुहाल था कि वह दामोदर और उसके साथियों के डर से वहां से उन लोगों से पहले निकल जाना चाहता था। दामोदर अभी परसों उससे मार खाकर और बेइज्जती करवाकर हटा था। उस वक्त वह अपने कई साथियों के साथ था। उस वक्त वह उसे वहां देखकर शेर हो सकता था और उससे अपनी बेइज्जती का बदला लेने की कोशिश कर सकता था।
फिल्म खत्म हुई।
“चलो।”—जगदीप उतावले स्वर में बोला।
“अभी ठहरो।”—डेजी स्क्रीन पर से निगाह हटाए बिना बोली।
“अब क्या है?”—वह झल्लाया—“फिल्म खत्म हो तो गई है!”
“जरा क्रेडिट्स पढ़ने दो।”
स्क्रीन पर फिल्म खतम हो जाने के बाद फिल्म की कास्ट और कैरेक्टर्स के नाम आ रहे थे।
“अरे, छोड़ो भी।”
“हद है तुम्हारी भी। पता नहीं एकाएक तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ गयी है?”
“अरे, दस बज गए हैं। फिर तुम्हीं कहोगी कि देर हो गई।”
दस बज गए सुनकर डेजी सकपकाई। उसने भी अपनी कलाई पर बंधी नन्ही-सी घड़ी पर निगाह डाली और फिर तत्काल उठकर खड़ी हो गई।
“जीसस!”—उसके मुंह से निकला—“दस बज गए।”
“और नहीं तो क्या?”—जगदीप उसके साथ बॉक्स से बाहर निकलता हुआ बोला—“इसीलिए तो कह रहा था, जल्दी चलो, जल्दी चलो।”
डेजी के साथ वह एक बगल के दरवाजे से बाहर निकला और पीछे पार्किंग की तरफ बढ़ा।
“इधर कहां जा रहे हो?”—डेजी बोली—“सड़क तो सामने है!”
जगदीप ने उत्तर न दिया। वह उसकी बांह थामे भीड़ में से रास्ता बनाता पिछवाड़े की तरफ बढ़ता रहा।
पीछे पार्किंग में से होकर सिनेमा की इमारत की एक तरह से परिक्रमा काट कर वे उसके दूसरे पहलू में पहुंचे। वहां से वह पिछवाड़े की सुनसान सड़क की तरफ बढ़ा।
“अब इधर कहां जा रहे हो?”—डेजी तनिक व्याकुल भाव से बोली।
“चुपचाप चली आओ।”—जगदीप बोला।
“बात क्या है?”
“कुछ नहीं। इधर से भी रास्ता है।”
“लेकिन इधर से बस कहां से मिलेगी?”
“रिक्शा मिल जाएगा।”
“लेकिन बताओ तो सही, बात क्या है?”
“बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी। कहना मानो। चुपचाप चलती रहो।”
“कमाल है!”
वह खिंचती सी उसके साथ चलती रही।
पिछवाड़े की सड़क उस वक्त बिल्कुल सुनसान पड़ी थी। जगदीप उस रास्ते से वाकिफ था। उधर से कश्‍मीरी गेट के बस स्टैंड पर या और आगे जीपीओ के बस स्टैंड पर या पीछे रिंग रोड पर जाया जा सकता था जहां कि थोड़ा ही आगे जमना बाजार के नुक्कड़ पर रिक्शा वालों का अड्डा था।
जगदीप का इरादा पिछवाड़े से चुपचाप जमना बाजार के नुक्कड़ तक पहुंचने का था।
दामोदर ने अगर उन्हें देख भी लिया था तो वह सिनेमा के सामने या बड़ी हद कश्‍मीरी गेट के स्टैंड तक ही उन्हें तलाश करने वाला था। जगदीप को पूरा भरोसा था कि उसे जमना बाजार का खयाल नहीं आने वाला था।
रह रह कर जगदीप की आंखों के सामने उसके साथियों के चेहरे उभर रहे थे। दामोदर और मदन को मिला कर वे कम से कम आठ जने थे—या शायद नौ थे। इतने लोगों से आमना-सामना होने के खयाल से ही उसका दम निकल रहा था।
ऊपर से उसे डेजी की फिक्र थी।
कहीं वे लोग उसके साथ भी कोई बद्तमीजी करने की कोशिश न करें।
डेजी की बांह पकड़े वह तेज कदमों से सुनसान रास्ते पर आगे बढ़ता रहा।
“जगदीप!”—डेजी ने कहना चाहा।
“चुप करो।”—जगदीप घुड़क कर बोला।
“मैं इतनी तेज नहीं चल सकती।”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“मैं गिर जाऊंगी।”
जगदीप ने अपनी रफ्तार तनिक घटा दी और आश्‍वासनपूर्ण स्वर में बोला—“बस, थोड़ा ही फासला और चलना है, फिर रिक्शा मिल जाएगा।”
“लेकिन बात क्या है? कुछ पता तो चले!”
“बताऊंगा। बात रिक्शा में बैठ कर बताऊंगा।”
वे इन्जीनियरिंग कालेज के बन्द दरवाजे के सामने पहुंचे। वहां वे बाएं मुड़ने ही लगे थे कि जगदीप को दाईं ओर स्थित चर्च की तरफ से आती सड़क पर आहट सुनाई दी। उसने घूम कर उधर देखा तो दामोदर का सारा गैंग उसे उस सड़क पर दिखाई दिया।
और उन्होंने उन्हें देख भी लिया था।
शायद वे समझ गए थे कि वे दोनों सिनेमा हाल से निकल कर सामने सड़क पर आने के स्थान पर पिछवाड़े के रास्ते से खिसक गए थे।
“डेजी!”—जगदीप दांत भींच कर बोला—“भागो!”
“क्यों?”—डेजी आतंकित भाव से बोली।
“उधर चर्च वाली गली में जो लड़के दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे पीछे पड़े हुए हैं। इन्हीं की वजह से मैं इधर से आया था। अगर हम भाग कर मेन रोड तक पहुंच जाए तो ये हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे।”
“ये मुझे... मुझे कुछ कहेंगे?”
“कह सकते हैं। मुझे अपनी नहीं, तुम्हारी ही फिक्र है। भागो, डेजी।”
जगदीप उसकी बांह पकड़ कर सड़क पर दौड़ने लगा।
डेजी उसके साथ लगभग घिसटती चली गई।
“मैं गिर पड़ूगी।”—वह लगभग रोती हुई बोली—“मैं सैंडलों में नहीं भाग सकती।”
“कोशिश करो। बस पास ही जाना है। अगर हम उन लोगों के हाथ में पड़ गए तो बहुत बुरा होगा।”
“मैं सैंडलें उतार लूं?”
“खबरदार! रुकना नहीं।”
लेकिन डेजी रुकने से बाज न आई।
वह रुकी तो जगदीप को मजबूरन रुकना पड़ा।
वह जोर जोर से हांफती हुई अपने एक पैर से सैंडल उतारने की कोशिश करने लगी।
जगदीप ने व्याकुल भाव से पीछे देखा।
यह देखकर उसके छक्के छूट गए कि उनमें से एक लम्बा-तगड़ा लड़का तो लगभग उनके सिर पर पहुंच ही चुका था।
जगदीप का जी चाहा कि वह डेजी को वहीं छोड़कर भाग खड़ा हो। वे लोग डेजी को क्या कहेंगे? उनकी अदावत तो उससे थी। लेकिन अगर वह उनके हाथ न आया तो उसका बदला वह डेजी से उतार सकते थे।
लम्बा लड़का उनके समीप आकर ठिठक गया। अपनी लंबी टांगों की वजह से वह अपने साथियों से पहले तो वहां पहुंच गया था, लेकिन अकेले कुछ करने की उसकी हिम्मत न पड़ी। वह ठिठका खड़ा अपने साथियों के वहां पहुंचने का इन्तजार करने लगा।
डेजी ने सैंडल उतारने की कोशिश छोड़ दी। वह सीधी हुई और जगदीप के कन्धे के साथ चिपक कर खड़ी हो गई। आतंकित नेत्रों से वह एक-एक, दो-दो करके वहां पहुंचते बाकी लड़कों को देखने लगी।
सब उनके सामने अर्द्धवृत बनाकर यूं खड़े हो गए, जैसे सोच रहे हों कि वे उन दोनों को फौरन ही जान से मार डालें या पहले उठा उठाकर पटकें।
सबसे पहले वहां पहुंचे लम्बे लड़के ने शायद यह सोचा कि क्योंकि उसने वहां पहुंचने में पहल की थी इसलिए अब उन लोगों की फजीहत की पहल भी उसे ही करनी चाहिए थी।
उसने आगे बढ़कर डेजी की बांह थाम ली और बड़े कुत्सित भाव से हंसते हुए उसे अपनी तरफ घसीटने की कोशिश की।
जगदीप का खून खौल गया। उसके दायें हाथ का एक प्रचंड घूंसा लम्बे लड़के के जबड़े पर पड़ा। डेजी की बांह पर से लम्बे लड़के की पकड़ छूट गई और वह भरभराकर अपने साथियों पर जाकर गिरा।
जगदीप दो कदम पीछे हटा। उसने डेजी को अपने पीछे कर लिया।
तभी अपने नथुनों से स्टीम इंजन की तरह सांस निकालता ड्रम की तरह लुढ़कता दामोदर वहां पहुंचा। वह अपने साथियों से आगे निकल आया और हांफता हुआ जगदीप से बोला—“अब क्या हाल है लमड़े यार?”
“अब भी अच्छा हाल है।”—जगदीप कठोर स्वर में बोला—“पहले भी अच्छा हाल था।”
“और आगे? आगे का क्या सोच रिया है?”
“आगे भी अच्छा ही हाल रहेगा।”
“और तेरी इस क्रिस्तान छोकरी का?”
“इसे यहां से जाने दे।”—जगदीप दांत पीस कर बोला—“फिर मैं तुझे भी देख लूंगा और तेरे हिमायतियों को भी।”
“हा... हा... हा।”—दामोदर गधे की तरह हिनहिनाया—“इसे जाने दे। इसे जाने दे कह रिया है अपना लमड़ा। अबे, हम तो तुझे मार कर भगा रिए हैं और इसे रख रिए हैं। क्यों बे, लम्बू? क्या कह रिया है?”
“खलीफा।”—लम्बा लड़का बोला—“लमड़िया थाम लो तो मैं अपनी बेइज्जती भूल जाऊंगा।”
“अगर”—जगदीप कहरभरे स्वर में बोला—“किसी ने इसको हाथ भी लगाने की कोशिश की तो मैं उसे जान से मार डालूंगा।”
“अबे, सुन रिए हो, पियारो।”—दामोदर ने फिर अट्हास किया—“अपना लमड़ा यार हमें जान से मार डालने की धमकी दे रिया है। यह अकेला हम सबको जान से मार डालेगा। हम तो आदमी न हुए, मुर्गी के चूजे हई गए।”
उसके साथी भी उसके साथ हंसे।
“मार के गेर दो स्साले को।”—दामोदर कहरभरे स्वर में बोला और फिर आगे बढ़ा।
उसके साथी भी आगे बढ़े।
तभी एकाएक जगदीप ने अपनी पतलून की जेब में मौजूद रिवॉल्वर निकाल ली और उसे अपनी तरफ बढ़ते लड़कों की तरफ तान दिया।
“खबरदार!”—वह फुंफकारा।
दामोदर ठिठका।
उसके साथी भी रुक गए।
“यह क्या है?”—दामोदर संदिग्ध भाव से बोला।
“तुझे क्या दिखाई देता, हरामजादे?”
“नकली तमंचा होगा।”—दामोदर बोला—“फिल्मों में काम आने वाला। मुम्बई से निशानी के तौर पर लाया होगा अपना अमिताभ बच्चन।”
“मोटे, भैंसे! अगर एक कदम भी और आगे बढ़ाया तो भेजा उड़ा दूंगा।”
अब जगदीप भयभीत नहीं था। रिवॉल्वर हाथ में आते ही जैसे उसमें नई शक्ति का संचार हो गया था। उसने रिवॉल्वर कभी चलाई नहीं थी लेकिन इतना वह खूब जानता था कि नाल का रुख दुश्‍मन की तरफ करके बस सिर्फ घोड़ा खींचना होता था, बाकी काम अपने आप हो जाता था। और दामोदर तो इतना मोटा था कि निशाना ठीक न भी बैठता तो भी उसे कहीं तो गोली लगती! उसे न लगती तो उसके आसपास खड़े उसके चमचों में से किसी को लगती। एक को गोली लगते ही, उसे मालूम था कि, बाकी सबने भीगी बिल्ली की तरह से वहां से भाग खड़ा होना था।
दामोदर बहुत दुविधा में था। जगदीप के हाथ में रिवॉल्वर देख कर उसका दिल उसके जूतों में उतरा जा रहा था। उसका दिल यही कह रहा था कि रिवॉल्वर नकली थी। आखिर असली रिवॉल्वर उस लुहार के लौंडे के पास कहां से आती? लेकिन अगर वह रिवॉल्वर असली हुई तो? उसके साथी तो सिनेमा के बाद सीधे घर जाना चाहते थे। उसी के उकसाने पर वे जगदीप के पीछे पड़े थे। अब अगर रिवॉल्वर से डरकर वही पीछे हट गया तो उसकी क्या इज्जत रह जाएगी? वह अभी परसों ही जगदीप के हाथों बेइज्जती कराकर हटा था। अब अपने इतने साथियों की मौजूदगी में भी उसका बढ़ा हुआ कदम पीछे हट गया तो उसकी हमेशा-हमेशा के लिए नाक कट जानी थी। किस सांसत में फंसा ली थी उसने अपनी जान? अब वह उस घड़ी को कोस रहा था जब उसने जगदीप के पीछे पड़ने का इरादा किया था और बजरंगबली से मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था कि कोई ऐसी सूरत निकल आए कि वह पीछे भी हट जाए और उसकी नाक भी कटने से बच जाए। और नहीं तो उस वक्त उधर कोई भूला भटका पुलिसिया ही निकल पड़े ताकि उन्हें वहां से भाग खड़े होने का एक न्यायोचित बहाना मिल जाए और उसकी इज्जत का जनाजा निकलने से रह जाए। पुलिसिया नहीं तो कोई राहगीर ही उधर आ निकले।
उसने अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाई।
रास्ते सुनसान पड़े थे। कहीं कोई नहीं था।
जिस इमारत की चारदीवरी के साथ पीठ लगाए जगदीप और डेजी खड़े थे, उसकी पहली मंजिल की एक खिड़की अभी एक क्षण पहले खुली थी और उस पर एक आदमी प्रकट हुआ था जो खिड़की से बाहर झांकता हुआ शायद समझने की कोशिश कर रहा था कि बाहर शोर-शार कैसा था! काश वही आदमी कोई शोर शार मचा दे।
लेकिन कुछ न हुआ।
वातावरण की स्तब्धता में कोई व्यवधान न आया।
“खलीफा!”—उसके कानों में एकाएक मदन की आवाज पड़ी—“ऐसा तमंचा कुतुब रोड पर साढ़े पांच रुपये में बिकता है।”
“मार के गेर दो स्साले को।”—लम्बा लड़का दांत पीसता हुआ बोला।
दामोदर को लगा जैसे उसके साथी उसे ललकार रहे हों।
बड़ी हिम्मत करके उसने एक कदम आगे बढ़ाया।
“खबरदार!”—जगदीप आतंकित भाव से बोला—“वहीं रुक जाओ वर्ना शूट कर दूंगा।”
दामोदर न रुका। अब उसे लगभग विश्‍वास आ गया था कि तमंचा वाकई नकली था। उसने बड़ी हिम्मत के साथ एक कदम और आगे बढ़ाया।
डेजी के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली।
जगदीप ने इतनी जोर से दांत भींचे कि उसके जबड़े दुखने लगे। रिवॉल्वर का ट्रीगर जैसे उसकी उंगली ने नहीं, डेजी की आतंकभरी चीख ने खींचा।
दो बार धांय-धांय की आवाज हुई।
दामोदर का उसकी तरफ बढ़ता अगला कदम हवा में ही जमकर रह गया। फिर वह एक भयंकर धड़ाम की आवाज के साथ मुंह के बल सड़क पर गिरा।
उसके गिरने की देर थी कि उसके साथियों के पैरों में जैसे पर लग गए। उनके जिधर सींग समाए, वे भाग निकले। अब किसी को खलीफा के अंजाम की फिक्र नहीं थी। अब हर किसी को अपनी जान की फिक्र थी।
अगले ही क्षण गली खाली हो गई और उसमें मरघट का-सा सन्नाटा छा गया।
डेजी उससे अलग हट गई। उसने एक निगाह नीचे गिरे पड़े दामोदर पर डाली और फिर यूं फटी-फटी आंखों से जगदीप की तरफ देखा जैसे एकाएक उसके सिर पर सींग निकल आए हों।
“तुमने इसे मार डाला!”—वह आतंकित भाव से बोली—“तुमने खून कर दिया!”
“मैंने जो किया है”—जगदीप बोला—“तुम्हारी इज्जत बचाने के लिए किया है।”
“तुम हत्यारे हो। तुम...”
“बकवास बन्द!”
वह फौरन चुप हो गई।
जगदीप को अपने पीछे इमारत की कोई खिड़की जोर से बन्द होने की आवाज आई।
“चलो!”—वह डेजी की बांह पकड़कर उसे जबरन घसीटता हुआ बोला।
डेजी उसके साथ खिंचती चली गई।
गोली की आवाज किसी ने गली में सुनी हो सकती थी और कोई अब पुलिस को उस घटना की सूचना दे भी चुका हो सकता था। उनका फौरन वहां से निकल चलना निहायत जरूरी था।
अब क्योंकि उसे दामोदर के साथियों से खतरा नहीं था इसलिए पीछे रिंग रोड पर जाने का खयाल छोड़कर वह चर्च के पहलू से लगकर गुजरती गली में आगे बढ़ा।
उधर मेन रोड करीब थी।
डेजी के व्यवहार ने उसके दिल को बहुत चोट पहुंचाई थी। उस घड़ी उसके प्यार पर से उसका विश्‍वास उठ गया था। उसने उसकी इज्जत बचाने के लिए इतना बड़ा कदम उठाया था और वह उसको नफरत और तिरस्कारभरी निगाहों से देख रही थी, उसे हत्यारा करार दे रही थी।
गली के दहाने पर पहुंचकर वह सड़क पर कदम रखने ही वाला था कि एकाएक उसे दूर से एक पुलिस की जीप आती दिखाई दी। वह घबराकर पीछे हट गया। डेजी को भी उसने वापिस गली के नीमअन्धेरे में खींच लिया।
जीप आगे गुजर गई।
उन्होंने फिर रोशनी से जगमगाती सड़क पर कदम रखा। पीछे कश्‍मीरी गेट के मेन बस स्टैण्ड पर न कोई बस थी और न आसपास कोई और सवारी थी।
वह डेजी का हाथ थामे लम्बे डग भरता सड़क पर लाल किला की दिशा में चलने लगा। उसका जी तो चाह रहा था कि वह वहां से सरपट भाग निकले लेकिन वह बड़ी कठिनाई से अपने-आप पर जब्त कर रहा था। भागने से हर किसी का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हो सकता था।
वे अभी कोई एक फलांग ही आगे बढ़े थे कि पुलिस की जीप उन्हें लौटती दिखाई दी। सामने ही एक पेड़ था। दोनों उसके पीछे दुबक गए। जीप उनके सामने से गुजरी और फिर उस गली में दाखिल हो गई जिसमें से वे अभी निकले थे। जीप के उनके पास से गुजरते समय उसने देखा कि उसमें कई पुलिसिये मौजूद थे।
वे पेड़ की ओट से निकले और फिर आगे बढ़े। डेजी को जगदीप लगभग घसीट रहा था। कभी डेजी पर वह बलिहार जाता था, उसके बारे में सोच लेने भर से उसका दिल बाग-बाग हो जाता था लेकिन एक बार अपनी आंखों के सामने अपने विश्‍वास की हत्या होती देख चुकने के बाद अब डेजी उसे एक फालतू बोझ लग रही थी, गले पड़ा ढोल मालूम हो रही थी।
किसी ने ठीक ही कहा था कि इन्सान की जात संकट की घड़ी में, दुश्‍वारी के आलम में ही सामने आती थी।
डेजी को वह पीछे छोड़कर भी नहीं जा सकता था। अगर पुलिस उसे भी पकड़ लेती तो भी वह उससे जगदीप के बारे में सब कुछ कुबुलवा सकती थी। और फिर पुलिस उससे पहले उसके घर पहुंची हुई हो सकती थी।
तभी उसे खयाल आया कि रिवॉल्वर अभी उसके हाथ में थी।
उसके छक्के छूट गये।
वह उसकी मूर्खता की इन्तहा थी।
अगर किसी राहगीर की ही निगाह उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर पर पड़ जाती तो क्या होता!
उसे आगे सड़क पर सीवर का एक मेनहोल खुला हुआ दिखाई दिया।
उसके समीप से गुजरते समय उसने रिवॉल्वर सीवर में फेंक दी।
टन्न की आवाज सुनकर डेजी ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा लेकिन मुंह से कुछ न बोली।
अब वह अपने कोट की भीतरी जेब में मौजूद शनील की थैली के बारे में सोच रहा था जिसमें कि उसके हिस्से के जवाहरात मौजूद थे।
रिवॉल्वर फेंकना आसान था लेकिन लाखों रुपये के माल से भरी वह थैली वह भला कैसे अपने से अलग कर सकता था? वैसे वह इस हकीकत से नावाकिफ नहीं था कि उसके पास जवाहरात की थैली की बरामदी भी उसे उतना ही फंसा सकती थी, जितना कि रिवॉल्वर की बरामदी।
अब वह भगवान से यही प्रार्थना कर रहा था कि वह पुलिस के हत्थे चढ़ने से बचा रहे और किसी तरह सुरक्षित अपने घर पहुंच जाए।
हांफते, कांखते, कराहते वे भर्ती दफ्तर के चौक में पहुंचे। वहां तीन-चार रिक्शा मौजूद थे, लेकिन जगदीप की खुली रिक्शा में बैठने की हिम्मत न हुई। मेन रोड पर अपनी मौजूदगी से वह बुरी तरह खौफ खाये था।
प्रेजेन्टेशन कान्वेंट स्कूल की ऊंची दीवार के साये में चलते हुए वे आगे बढ़े। जहां दीवार खत्म हुई वहां से सीधा आगे जाने के स्थान पर वे उस अन्धेरी गली में घुस गए जो कि लाजपतराय मार्केट के पीछे से होती मोती सिनेमा के पहलू से गुजरती चांदनी चौक में जाकर निकलती थी। वहां से वह सड़क पार करता तो एस्प्लेनेड रोड पर पहुंच जाता और फिर वहां से चारहाट का फासला मुश्‍किल से दो फलांग था।
“यह तुम मुझे कहां ले जा रहे हो?”—उनके अन्धेरी गली में कदम रखते ही डेजी त्रस्त भाव से बोली।
“चुपचाप चलती रहो।”—जगदीप बोला—“इसी में हमारी खैरियत है।”
“तुम्हारी खैरियत होगी। मैंने क्या किया है?”
“डेजी, मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। मैंने जो कुछ किया है, क्या तुम्हारी खातिर नहीं किया?”
“मैं कुछ नहीं जानती। मुझे घर पहुंचाओ। मुझे बहुत डर लग रहा है।”
“घर ही तो पहुंच रहे हैं!”
“यह कौन-सा रास्ता है?”
“शार्टकट है।”
“हम जीपीओ से रिक्शा पर बैठ सकते थे।”
“और पुलिस द्वारा पकड़े जा सकते थे।”
“पुलिस! पुलिस को क्या मालूम कि जो कुछ हुआ था वह हमने... तुमने किया था?”
“लगता है किसी ने गोली की आवाज सुनकर पुलिस को फोन कर दिया था। भगवान न करे पुलिस के वहां पहुंचने तक दामोदर अभी जिन्दा हो और वह पुलिस को मेरा नाम-पता बता चुका हो। भगवान न करे, दामोदर का कोई साथी पुलिस के हत्थे चढ़ गया हो।”
“जीसस!”—वह रोने लगी।
“हौसला रखो, डेजी, सब ठीक हो जायेगा।”
“यह तुमने मुझे किस मुसीबत में फंसा दिया?”
“मैंने फंसाया है?”
“और नहीं तो क्या? वे लड़के तुम्हारे ही पीछे तो लगे हुए थे!”
“मुझे क्या ख्वाब आना था कि वे भी सिनेमा देखने पहुंचे हुए होंगे?”
“मैं पहले ही कह रही थी , मैं ईवनिंग शो में नहीं जाऊंगी।”
“तो फिर गई क्यों थी?”
“तुम्हारी जिद पर गई थी।”
“जब मेरा तुम्हें इतना खयाल है तो अब क्यों मुझसे बाहर जा रही हो?”
“मैं क्या करूं? मेरे घर वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे?”
“अरे, क्या सुनेंगे?”—वह झल्लाया।
“यही कि जब तुमने एक लड़के का खून किया था तो मैं तुम्हारे साथ थी।”
“कैसे सुनेंगे? किससे सुनेंगे?”
“मुझे कुछ नहीं पता लेकिन अगर...”
“तुम्हें यह तो पता है कि अगर तुम उन लड़कों के काबू में आ जातीं तो वे तुम्हारी क्या गत बनाते?”
“तुम्हारी वजह से ही तो वे मेरे पीछे पड़ते! अगर तुम मुझे साथ न लाते तो...”
“बेवकूफ, अगर मैं तुझे न लाया होता तो मैं खुद क्यों आया होता? अगर तू साथ न होती तो मैं गोली चलाता ही क्यों? वे लोग बड़ी हद मुझे पीट लेते, और मेरा क्या बिगाड़ लेते?”
“तो फिर तुमने गोली क्यों चलाई?”
“तेरी खातिर चलाई!”—जगदीप कलप कर बोला—“हजार बार कह चुका हूं, तेरी इज्जत बचाने की खातिर चलाई।”
“मुझे कुछ नहीं पता...”
“नहीं पता तो चुप कर। इतना तो कर सकती है या यह भी बहुत मुश्‍किल काम है तेरे लिए?”
“मुझे नहीं पता था कि तुम इतने खराब आदमी हो।”
“अब तो पता लग गया?”
“हां, लग गया।”
जगदीप खामोश रहा।
थोड़ी देर दोनों चुपचाप चलते रहे। रास्ते में जगदीप ने एक बार उसका हाथ थामने की कोशिश की तो उसने उसका हाथ परे झटक दिया।
वे एस्प्लेनेड रोड पर दाखिल हुए।
“देखो”—जगदीप नम्र स्वर में बोला—“जो हुआ, उसे भूल जाओ। और दो मिनट में तुम घर पहुंच जाओगी। तुम समझ लो कि कुछ हुआ ही नहीं है। मैं तुमसे वादा करता हूं कि तुम्हारे ऊपर किसी तरह की कोई आंच नहीं आएगी। मैं अपनी जान दे दूंगा लेकिन तुम्हारी तरफ कोई गलत उंगली नहीं उठने दूंगा।”
वह खामोश रही।
“डेजी, क्या तुम्हें मुझ पर जरा भी विश्‍वास नहीं रहा?”
“मुझे तुम पर पूरा विश्‍वास है।”—वह धीरे से बोली।
“तो फिर कहना क्यों नहीं मानती हो?”
“मानती तो हूं!”
“मानती हो तो सबसे पहले रोना बन्द करो।”
“अच्छा।”
“आंसू पोंछो। हुलिया सुधारो।”
उसने आंसू पोंछे और अपने बालों को व्यवस्थित किया।
“मुझ पर भरोसा रखो। तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा।”
“अच्छा।”
जगदीप उसके उत्तर से आश्‍वस्त न हुआ।
खामोशी से वे दरीबे के आगे से गुजरे।
“अब मेरे साथ-साथ चलना तो बन्द करो।”—डेजी तनिक तीखे स्वर में बोली—“कोई देख लेगा।”
“अच्छा।”—जगदीप बोला।
“तुम आगे बढ़ जाओ।”
“ठीक है।”
जगदीप ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी और उससे आगे निकल गया।
अब ऐसा नहीं लग रहा था जैसे वे दोनों एक साथ हों।
अपनी गली के दहाने से वह अभी कोई पचास गज दूर था कि वह एकाएक थमक कर खड़ा हो गया।
गली के दहाने पर एक पुलिसिया खड़ा था।
उससे थोड़ा परे गली के भीतर एक चबूतरे पर दो और पुलिसिये बैठे थे।
उसने घबरा कर सोचा क्या उनकी वहां मौजूदगी महज इत्तफाक थी या वे उसी के स्वागत के लिए वहां मौजूद थे।
उसने घूम कर पीछे देखा।
उसके यूं बीच रास्ते में ठिठक कर खड़े हो जाने से उलझन में पड़ी डेजी धीरे धीरे उसकी तरफ बढ़ रही थी।
उसने वापिस गली की तरफ देखा।
उसे लगा कि पुलिसियों का ध्यान उसकी तरफ नहीं था।
क्या वह भाग खड़ा हो?
लेकिन उसके ऐसी कोई कोशिश करते ही उनका ध्यान उसकी तरफ जा सकता था।
अपने कोट की भीतरी जेब में मौजूद शनील की थैली अब उसे अपने कलेजे पर बैठा सांप मालूम हो रही थी।
तभी डेजी उसके समीप पहुंची।
“सुनो।”—वह फुसफुसाया।
डेजी ठिठकी। उसने सशंक भाव से जगदीप की तरफ देखा।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर जगदीप ने अपनी जेब से शनील की थैली निकाली और उसे जबरन डेजी के हाथ में ठूंसता बोला—“इसे मेरी अमानत के तौर पर अपने पास रख लो।”
“यह क्या है?”
“बाद में बताऊंगा। डेजी, प्लीज मुझ पर इतनी मेहरबानी करो।”
“अच्छा!”
“इसे छुपा लो!”
डेजी ने थैली अपने पर्स में ठूंस ली।
“अब गली में इधर से दाखिल होने की जगह परली तरफ से चली जाओ।”
“वह क्यों?”
“सवाल मत करो।”
“लेकिन...”
तभी जगदीप को लगा कि तीनों पुलिसिये उन्हीं की तरफ देख रहे थे। चबूतरे पर बैठे दोनों पुलिसिये भी उठ कर अपने गली के दहाने पर खड़े साथी के पास आ खड़े हुए थे।
“जाओ।”—जगदीप फुंफकारा—“जल्दी करो। चलो।”
डेजी उससे अलग हटी और गली के दहाने की तरफ बढ़ने के स्थान पर उससे परे चलने लगी।
तभी तीनों पुलिसियों में से एक डेजी की दिशा में बढ़ा और दो दृढ़ कदमों से जगदीप की तरफ बढ़े। जगदीप ने देखा कि उन दोनों में से एक सशस्त्र सब-इन्स्पेक्टर था।
जगदीप को अपना गला सूखता महसूस हुआ। वह एक क्षण बुत बना वही खड़ा रहा, फिर एकाएक वह घूमा और बन्दूक से छूटी गोली की तरह वहां से भागा।
“खबरदार!”—उसे पीछे से चेतावनी मिली—“रुक जा वर्ना शूट कर दूंगा।”
जगदीप भागता हुआ दरीबे में दखिल हुआ और सीधा किसी की छाती से जाकर टकराया।
उस आदमी ने उसे जकड़ लिया।
तब पुलिसिये भी उसके सिर पर पहुंच गए।
जिस आदमी ने उसे पकड़ा था, वह इलाके का चौकीदार था जो पुलिसियों की पुकार सुनकर चौकन्ना हो गया था।
जगदीप को पुलिसियों ने पकड़ लिया।
जगदीप ने देखा, वे दो थे। तीसरा पता नहीं डेजी के पीछे गया था या यूं ही उधर बढ़ गया था जिधर कि डेजी जा रही थी।
अब वह इस सस्पेंस में भी मरा जा रहा था कि क्या पुलिसियों ने उसे डेजी को कुछ देते या उससे बात करते देखा था।
“कौन है तू?”—सब-इन्स्पेक्टर कड़क‍ कर बोला।
“मेरा नाम जगदीप है।”—जगदीप बोला।
“ऊंचा बोल। मिमिया नहीं।”
“मेरा नाम जगदीप है।”
“कहां रहता है?”
“चारहाट में।”
“अभी कहां जा रहा था?”
“घर जा रहा था।”
“तेरे साथ कौन था?”
“कोई भी नहीं।”
“एक लड़की नहीं थी तेरे साथ?”
“नहीं।”
“हमने देखी थी।”
“एक लड़की मेरे पास से गुजरी थी लेकिन वह मेरे साथ नहीं थी।”
“तू भागा क्यों था?”
“मैं डर गया था।”
“किस बात से?”
जगदीप को जवाब न सूझा।
“अबे, किस बात से डर गया था तू?”
“मैंने समझा था”—जगदीप कठिन स्वर में बोला—“कि आप लोग कोई गुण्डे बदमाश थे।”
“क्या कहने! हमारी वर्दी दिखाई नहीं दी थी तुझे?”
“अन्धेरे में नहीं दिखाई दी थी।”
“इतना अन्धेरा तो नहीं था!”
जगदीप चुप रहा।
“अभी कहां से आया है?”
“सिनेमा देख कर आया हूं।”
“कहां देखा सिनेमा?”
“कश्‍मीरी गेट।”
“कश्‍मीरी गेट पर कहां?”
“रिट्ज पर।”
“वहां कौन सी पिक्चर लगी है?”
“प्रेम रोग।”
“किसके साथ देखी?”
“किसी के साथ नहीं। अकेले देखी।”
“अभी सीधा वहीं से आ रहा है?”
“हां।”
“हवलदार, इसकी तलाशी लो।”
हवलदार आगे बढ़ा।
“चुपचाप खड़े रहना।”—सब-इन्स्पेक्टर घुड़क कर बोला—“वर्ना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”
जगदीप ने सहमति में सिर हिलाया।
ले लें तलाशी स्साले। अब उसकी जेब में क्या रखा था!
लेकिन एक चीज रखी थी।
हवलदार ने उसकेे कोट की बाहरी जेब में से रिट्ज की दो टिकटों के अधपन्ने बरामद किए।
उसने वे अधपन्ने सब-इन्स्पेक्टर को दिखाए।
“क्यों बे?”—सब-इन्स्पेक्टर घुड़क कर बोला—“तू तो कहता था कि तू अकेला सिनेमा गया था! फिर ये दो टिकटें कैसी हैं?”
जगदीप के मुंह से बोल न फूटा।
“जवाब दे।”
“गेटकीपर ने गलती से किसी और की दो टिकटें मुझे थमा दी होंगी।”
“क्या बकता है? तूने उसे एक टिकट दी। बदले में उसने तुझे दो अधपन्ने दे दिए?”
जगदीप खामोश रहा।
“और फिर तू भागा क्यों?”—सब-इन्स्पेक्टर उसे घूरता हुआ बोला।
जगदीप ने जवाब नहीं दिया, लेकिन अब उसे लगने लगा था कि वे लोग दामोदर के कत्ल के बारे में कुछ नहीं जानते थे। वे कोई गश्‍त के सिपाही थे, जो इत्तफाक से ही रात के उस वक्त गली के दहाने पर मौजूद थे।
फिर तो वह तीसरा पुलिसिया भी जरूर इत्तफाकिया ही डेजी की दिशा में बढ़ा था, वास्तव में उसका डेजी से कोई मतलब नहीं था।
बौखलाहट में भाग खड़े होकर उसने खामखाह मुसीबत मोल ले ली थी।
फिर भी इस बात से वह खुश था कि वक्त रहते उसने शनील की थैली डेजी का सौंप दी थी। वह थैली अगर उस वक्त उसकी जेब से बरामद होती तो उसका काम हो गया था।
“तू रहता वाकई चारहाट में है?”—सब-इन्स्पेक्टर ने उसे घूरते हुए पूछा।
“हां।”—जगदीप बोला।
“वहां तुझे कोई जानता है?”
“सब जानते है। हम चारहाट के पुराने रहने वाले हैं। मेरे बाप का नाम रामप्रसाद है। चावड़ी की नुक्कड़ पर उसकी दुकान है।”
“घर में और कौन कौन है?”
“बस हम दो जने हैं। मैं और मेरा बाप।”
वह जवाब देते समय तब पहली बार उसे गुलशन का खयाल आया जो उसके घर की बरसाती में छुपा हुआ था।
उसका दिल फिर बड़ी जोर से धड़का।
अगर पुलिसियों ने उसके घर की तलाशी लेने की जिद की तो?
एक नई चिन्ता उसे सताने लगी।
“चल, अपना घर दिखा।”—सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“चलो।”—जगदीप बोला।
दो पुलिसियों के बीच में चलता जगदीप आगे बढ़ा।
वे गली के समीप पहुंचे तो उसने देखा कि तीसरा पुलिसिया अपना डण्डा हिलाता वहां चबूतरे पर बैठा था।
जगदीप की जान में जान आई।
तो वह डेजी के पीछे नहीं गया था।
वह पहले से ज्यादा हौसले के साथ आगे बढ़ा।
वे गली में दाखिल हुए तो तीसरा सिपाही भी उनके साथ हो लिया।
तभी गली में एक और शख्स दाखिल हुआ।
जगदीप ने देखा वह उसके पड़ोसी का लड़का था। उम्र में वह जगदीप से कम से कम आठ साल छोटा था, लेकिन एक नम्बर का हरामी था।
सब-इन्स्पेक्टर ने उसे अपने पास बुलाया।
“तू इसी गली में रहता है?”—उसने पूछा।
“हां, दारोगाजी।”—वह बोला।
“क्या नाम है तेरा?”
“शंकर।”
“इसे जानता है?”—सब-इन्स्पेक्टर ने जगदीप की तरफ संकेत किया।
“जानता हूं, दारोगा जी।”—शंकर बड़े शरारती स्वर में बोला—“इसे कौन नहीं जानता!”
“कौन है यह?”
“अमिताभ बच्चन।”
“क्या बकता है?”
“मेरा मतलब है, साहब, कि बाल बाल बचा है अमिताभ बच्चन बनने से।”
जगदीप ने खा जाने वाली निगाहों से शंकर की तरफ देखा, लेकिन शंकर ने उसके देखने की रत्ती भर परवाह न की, दारोगा जी की शह जो थी उसे।
“मतलब?”—सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“साहब, यह मुम्बई गया था एक्टर बनने।”—शंकर बोला—“लेकिन...”
“बकवास नहीं। समझा?”
“समझा।”
“कौन है यह?”
“इसका नाम जगदीप है “
“इसके बाप का क्या नाम है?”
“रामप्रसाद।”
“काम क्या करता है इसका बाप?”
“ताले बेचता है और चाबियों में ताले लगाता है। चावड़ी की नुक्कड़ पर उसकी लोहे की दुकान है, जहां होली-दीवाली अपने ये अमिताभ बच्चन भी जाकर बैठते हैं।”
“फिर बकवास!”
“खता हुई, दारोगाजी।”—शंकर खींसें निपोरता बोला।
“इसका घर कौन सा है?”
“दारोगाजी, वो सामने वाला दो मंजिला पीला मकान इसका घर है और वो परे से इतनी रात गए पता नहीं कहां से चली आ रही जींस वाली क्रिस्तान मेम की छोकरी इसकी चैंट है।”
जगदीप का जी चाहा कि वह छोकरे का मुंह नोच ले, उसका कलेजा खा जाए, उसका खून पी जाए।
डेजी विपरीत दिशा से गली में दाखिल होकर तभी वहां पहुंची थी और अब उस संकरी गली में दाखिल होने ही वाली थी जिसमें कि उसका घर था कि शंकर ने उसे जगदीप की ‘चैंट’ बता दिया था। पुलिसियों का रत्ती भर भी उसकी तरफ ध्यान नहीं था लेकिन अब वे सब के सब गौर से उसकी तरफ देखने लगे।
“श्रीपत।”—सब-इन्स्पेक्टर एक हवलदार से बोला—“जरा बुलाना तो उस लड़की को।”
श्रीपत नाम का हवलदार फौरन डेजी की तरफ बढ़ गया।
जगदीप का दिल डूबने लगा।
“यह लड़की क्या है इसकी?”—सब-इन्स्पेक्टर ने पूछा।
“चैंट।”—शंकर पूर्ववत् धूर्त भाव से बोला।
“वो क्या होती है?”
“माशूक।”
“माशूक।”—सब-इन्स्पेक्टर ने दोहराया। वह जगदीप की तरफ घूमा और उसे घूरता हुआ बोला—“तेरी जेब से सिनेमा की दो टिकटें बरामद हुई थीं। लड़का कह रहा है यह तेरी माशूक है। यह भी तकरीबन उसी वक्त घर लौटी है जिस वक्त तू लौटा है। कहीं तू इसी के साथ तो सिनेमा नहीं गया था?”
“अपना अमिताभ बच्चन जरूर गया होगा।”—शंकर चहककर बोला—“अभी परसों मैंने गोलचा पर इसे क्रिस्तान मेम की इस छोकरी के साथ देखा था। बहुत फिल्में दिखाता है यह इसे। फिल्में अंधेरे में जो होती हैं। और अन्धेरे में...”
शंकर बड़ी कुत्सित हंसी हंसा।
जगदीप बड़ी मुश्‍किल से उस पर झपट पड़ने से अपने-आपको रोक सका।
“तूने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।”—सब-इन्स्पेक्टर निगाहों से भाले बछियां बरसाता जगदीप से बोला—“अबे लौंडे, मैंने तुझसे कुछ पूछा है। इसी को सिनेमा दिखाने ले गया था न कश्‍मीरी गेट?”
जगदीप खामोश रहा।
तभी श्रीपत बद्हवास, भयभीत डेजी को साथ लेकर वहां पहुंचा।
“तुम इसी गली में रहती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर नम्र स्वर में बोला।
डेजी ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“इतनी रात गए कहां से आई हो?”
“एक रिश्‍तेदार के यहां से।”—वह बोली।
शंकर बड़ी तिरस्कारभरी हंसी हंसा। उसने बोलने के लिए मुंह‍ खोला।
“खबरदार!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें तरेरकर बोला।
शंकर ने होंठ भींच लिए।
तभी आसपास के दो तीन दरवाजे खुले और कुछ लोग बाहर गली में आ गए। वे उत्सुक भाव से पुलिसियों को और बाकी लोगों को देखने लगे।
“तुम इसे जानती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर जगदीप की तरफ इशारा करता बोला।
डेजी हिचकिचाई।
“झूठ मत बोलना।”—सब-इन्स्पेक्टर ने चेतावनी दी।
डेजी ने सहमति में सिर हिलाया। वह जगदीप से निगाह मिलाने की ताब न ला सकी। अपना पर्स उसने यूं हाथों मे जकड़ा हुआ था कि उसकी उंगलियों में से खून निचुड़ गया था।
“अभी तुम इसके साथ रिट्ज सिनेमा, कश्‍मीरी गेट से प्रेम रोग फिल्म का इवनिंग शो देखकर लौटी हो? ठीक?”
यूं सीधा सवाल पूछे जाते ही डेजी के छक्के छूट गए। वह यही समझी कि पुलिस वाले पहले ही जगदीप से सब कुछ कुबूलवा चुके थे।
“मैंने कुछ नहीं किया।”—वह आर्तनाद करती हुई बोली—“मैंने तो किसी पर गोली नहीं चलाई। मैंने तो...”
एकाएक वह खामोश हो गई और अपने दांतों से अपने होंठ काटने लगी।
“गोली!”—सब-इन्स्पेक्टर के कान खड़े हो गए।
डेजी खामोश रही।
तभी सब-इन्स्पेक्टर की तजुर्बेकार निगाह डेजी के हाथों में थमे पर्स पर पड़ी जिसे वह एक नवजात शिशु की तरह अपनी छाती से लगाए खड़ी थी।
“पर्स में क्या है?”—उसने कठोर स्वर में कहा।
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी घबराकर बोली।
“नहीं मालूम क्या मतलब? तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“वह तो मालूम है लेकिन...”
उसने भयभीत भाव से जगदीप की तरफ देखा।
“तुम इससे बिलकुल मत डरो।”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी निगाह का मन्तव्य समझकर बोला—“साफ-साफ बोलो तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“फिर वही बात!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें निकालता बोला।
“सर, बाई जीसस, मैंने थैली को खोल कर नहीं देखा।”—डेजी ने फरियाद की—“थैली जैसी इसने मुझे दी थी, वैसी ही मैंने अपने पर्स में रख ली थी।”
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”
“हां।”
“हरामजादी!”—एकाएक जगदीप दांत किटकिटाता हुआ डेजी पर झपटा—“कमीनी! कुतिया!”
डेजी चीख मारकर पीछे हट गई।
दो पुलिसियों ने जगदीप को रास्ते में ही पकड़ लिया।
“अब”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी नाक के सामने घूंसा लहराता हुआ बोला—“अपनी जगह से हिला भी तो मार-मार कर कचूमर निकाल दूंगा।”
जगदीप खामोश रहा। वह खा जाने वाली निगाहों से डेजी को घूरने लगा।
“परे देखो।”—सब-इन्स्पेक्टर गरजा।
जगदीप ने डेजी की तरफ से गरदन फिरा ली।
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”—सब-इन्स्पेक्टर नर्मी से डेजी से सम्बोधित हुआ।
“हां।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“कब?”
“अभी थोड़ी देर पहले।”
“जब तुम दोनों आगे-पीछे चलते गली के दहाने पर पहुंचे थे?”
“हां।”
“थैली निकालो।”
डेजी ने पर्स को और जोर से जकड़ लिया।
“थैली निकालो।”—सब-इन्स्पेक्टर कठोर स्वर में बोला।
डेजी ने भयभीत भाव से जगदीप की तरफ देखा।
“तुम इसकी फिक्र मत करो।”—सब-इन्स्पेक्टर आश्‍वासनपूर्ण स्वर में बोला—“यह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”
डेजी ने पर्स से थैली निकालकर सब-इन्स्पेक्टर को सौंप दी।
सब-इन्स्पेक्टर ने शनील की थैली को पहले बाहर से उलटा-पलटा फिर उसने उसका मुंह खोलकर उसके भीतर झांका। भीतर निगाह पड़ते ही उसके नेत्र चमक उठे। उसने थैली को अपने एक खुले हाथ पर उलटा।
उसके हाथ पर बेशकीमती हीरे-जवाहरात जगमगाने लगे।
मोतियों की एक लड़ी देखकर तो उसकी खुशी का पारावार न रहा।
राजेश्‍वरी देवी के यहां से चोरी गए जवाहरात में लड़ीदार मोतियों का विशेष जिक्र था।
उसका आंखों के सामाने अपनी वर्दी पर जड़े तीन सितारे लहराने लगे।
अनायास ही वह इतना बड़ा केस पकड़ बैठा था।
उसने एक नये सम्मान के साथ जगदीप की तरफ देखा।
तो वह मामूली सा लगने वाला छोकरा इतना छुपा रुस्तम था।
वह राजेश्‍वरी देवी का खून और उसके यहां चोरी करने वाले बदमाशों में से एक था।
और अभी तो गोली वाली बात बाकी थी। लड़की की बातों से लगता था कि उस छोकरे ने किसी पर गोली भी चलाई थी।
उसने जवाहरात वापिस थैली में डाल दिए और उसका मुंह बन्द कर दिया।
“इसने”—सब-इन्स्पेक्टर फिर बड़ी नर्मी से डेजी से सम्बोधित हुआ—“यह थैली तुम्हें क्या कह कर दी थी?”
“यही कि मैं”—डेजी सिर झुकाए बोली—“इसे इसकी अमानत के तौर पर अपने पास रख लूं। मैं इसे छुपा लूं।”
“यह नहीं बताया था कि इसमें क्या था?”
“नहीं।”
“तुमने पूछा भी नहीं था?”
“पूछा था लेकिन इसने बताया नहीं था।”
“हूं! वह गोली वाली क्या बात थी? गोली इसने किस पर चलाई थी, कब चलाई थी?”
डेजी ने फिर आतंकित भाव से जगदीप की तरफ देखा।
“तुम इसकी बिल्कुल फिक्र मत करो”—सब-इन्स्पेक्टर बोला—“यह तुम्हारा कतई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”
वह खामोश रही।
“लेकिन तुम्हारे खामोश रहने से”—सब-इन्स्पेक्टर के स्वर में चेतावनी का पुट आया—“हम तुम्हारा बहुत कुछ बिगाड़ सकते हैं। यह चोरी का माल है, लाखों की चोरी का माल है जो तुम्हारे पास से बरामद हुआ है। तुम्हारे खामोश रहने से तुम्हें चोरी में इसका सहयोगी माना जा सकता है और ऐसा मान लिए जाने का नतीजा जानती हो क्या होगा? तुम जेल तक जा सकती हो।”
“नहीं!”—वह आतंकित भाव से बोली।
“तो फिर बोलो, गोली का क्या किस्सा है?”
डेजी ने टेपरिकार्डर की तरह सबकुछ दोहरा दिया।
सब-इन्स्पेक्टर की बांछें खिल गईं।
अब तो वह तीन सितारों वाला इंस्पेक्टर बने ही बने।
उसने यूं जगदीप की तरफ देखा जैसे वह उसकी बीवी के लड़का होने की खबर लाया हो।
वाह! कत्ल अभी होकर नहीं हटा था कि कातिल उसकी गिरफ्त में था।
“तुम्हें चौकी चलना होगा।”—वह डेजी से बोला।
“चौकी?”—डेजी के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगीं।
“घबराओ नहीं। सिर्फ अपना बयान दर्ज कराने के लिए। ज्यादा से ज्यादा एक घण्टे में मैं तुम्हें घर वापिस भेज दूंगा। चाहो तो अपने मां-बाप को बुला लो।”
डेजी खामोश रही। अपने मां-बाप को सबकुछ मालूम होने के खयाल से वह थर-थर कांपने लगी थी।
गली का एक आदमी उसके मां-बाप को बुलाने चला गया।
“इसके बाप को भी बुलाकर लाओ।”—सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“इसका बाप घर नहीं है।”—गली के ही एक आदमी ने बताया—“दरवाजे पर ताला लगा है।”
“रामप्रसाद अफीम खाता है।”—शंकर ने बताया—“कई बार पिनक में दुकान पर ही पड़ा रहता है। शायद वहीं हो।”
“मालूम कर लेंगे। श्रीपत, तुम इसके घर के दरवाजे पर बैठ जाओ। इसका बाप लौट आए तो उसे भीतर मत घुसने देना। इसके घर की तलाशी होगी। शायद वहां से चोरी का और भी माल बरामद हो। मैं सर्च वारन्ट और ज्यादा आदमी लेकर वापिस लौटता हूं।”
श्रीपत ने सहमति में सिर हिलाया। वह पीले मकान के बन्द दरवाजे के सामने डट गया।
तभी डेजी के मां-बाप वहां पहुंच गए।
सब-इन्स्पेक्टर सबको नजदीकी पुलिस चौकी ले चला।
पुलिस चौकी पहुंच कर सब-इन्स्पेक्टर ने पहला जो काम किया, वह था सैण्ट्रल कण्ट्रोल रूम में टेलीफोन काल। उसने डिस्पैचर को जल्दी-जल्दी सबकुछ समझाया और उसे कहा कि एसीपी भजनलाल जहां कहीं भी हों, उन्हें तलाश करके हालात की खबर की जाए।
ऐसा ही उनको निर्देश था।
नीचे गली में से आती आवाजों का शोर सुनकर गुलशन बरसाती में से निकला था और मुंडेर पर आ गया था। उसने नीचे झांककर देखा था तो उसे तीन पुलिसियों से घिरा जगदीप दिखाई दिया था।
उसका दिल धड़कने लगा था।
क्या जगदीप पकड़ा गया था?
घर के दरवाजे को बाहर से ताला लगा हुआ था। जगदीप का बाप नौ बजे के करीब घर आया था लेकिन उलटे पांव ही वापिस चला गया था। उसे खबर थी कि गुलशन उसके घर की बरसाती में छुपा हुआ था। जगदीप ने उसे सब समझा दिया था और उसे इस बात के लिए मना लिया था कि वह गुलशन का जिक्र किसी से न करे। हर वक्त नर्वस और परेशान लगने वाला बूढ़ा वक्ती तौर पर अपनी जुबान बन्द रखने के लिए मान तो गया था, लेकिन गुलशन का उस पर विश्‍वास नहीं बन पाया था। वो रात उसने किसी तरह वहां काटनी थी, उसके बाद उसने हर हाल में अपना कोई दूसरा इन्तजाम करना था।
लेकिन अब उसे वो रात भी चैन से कटती दिखाई नहीं दे रही थी।
नीचे पुलिसिये मौजूद थे, जगदीप उनकी गिरफ्त में मालूम होता था और वे किसी भी क्षण उसे मकान का ताला खोलने के लिए मजबूर कर सकते थे।
फिर मकान की तलाशी।
फिर गुलशन की गिरफ्तारी।
उसने अपने कपड़े उतारकर बरसाती की एक खूंटी पर टांग दिए थे। उस वक्त वह जगदीप का एक कुर्ता पायजामा पहने था। वह झपटकर वापिस बरसाती में पहुंचा। उसने कुर्ता पायजामा उतारकर अपने कपड़े पहन लिए।
जब वह मुंडेर पर वापिस लौटा तो उसने देखा कि नीचे गली के कुछ लोग भी जमा हो गए थे और उस भीड़ में एक जींसधारी नौजवान लड़की भी दिखाई दे रही थी। उतनी ऊंचाई से उसे लड़की ठीक से दिखाई नहीं दे रही थी, उसकी मुंडेर की तरफ पीठ थी, लेकिन फिर भी गुलशन को लगा कि वह जगदीप की वही सहेली थी जिसे उसने परसों ‘गोलचा’ में जगदीप के साथ देखा था।
क्या माजरा था?
जगदीप घर से जाती बार केवल इतना कहकर गया था कि वह रात को लेट वापिस लौटने वाला था, उसने यह नहीं कहा था कि वह कहां जा रहा था और किसके साथ जा रहा था।
क्या वह उस लड़की के साथ ही कहीं तफरीह के लिए गया था और वापसी में पुलिस द्वारा धर लिया गया था?
लेकिन क्यों?
अब क्या कर दिया था उसने?
सस्पेंस से गुलशन के दिल की धड़कन तेज होने लगी थी।
नीचे से लोगों के बोलने की आवाजें तो उस तक पहुंच रही थी लेकिन आवाजें इतनी धीमी थीं कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
“मैंने कुछ नहीं किया।”—एकाएक लड़की की चीखती सी आवाज उसके कानों में पड़ी—“मैंने तो किसी पर गोली नहीं चलाई। मैंने तो...”
गोली!
गुलशन की सांस सूखने लगी।
उसे मालूम था, बहुत बाद में मालूम हुआ था लेकिन मालूम था कि सोमवार रात को जगदीप राजेश्‍वरी देवी के फ्लैट से उसकी रिवॉल्वर उठा लाया था।
क्या उस रिवॉल्वर से जगदीप ने किसी पर गोली चला दी थी?
फिर नीचे लड़की ने पहले की तरह आर्तनाद करती आवाज में किसी थैली का जिक्र किया जो कि जगदीप ने उसे दी थी।
फिर गुलशन ने जगदीप को गालियां बकते लड़की पर झपटने की कोशिश करते देखा।
फिर शनील की थैली एक पुलिसिये के हाथ में।
फिर उसकी हथेली पर जगमग जगमग करते हुए जवाहरात। जवाहरात की जगमग गुलशन को दो मंजिल ऊपर से भी दिखाई दी।
सत्यानाश!—गुलशन के मुंह से अपने आप ही निकल गया।
एकदम सुरक्षित और चाक चौबन्द लगने वाले काम का मुकम्मल बेड़ा गर्क हो जाने में अब क्या कसर रह गई थी!
पहलवान गायब था।
जगदीप उसे अपनी आंखों के सामने माल समेत पुलिस की गिरफ्त में दिखाई दे रहा था।
वह खुद पुलिस के हाथों में पड़ने से बाल बाल बचा था और उनके खौफ से दुम दबाकर भागा था।
तभी गुलशन ने लड़की समेत नीचे मौजूद सब लोगों को वहां से विदा होते देखा।
केवल एक पुलिसिया पीछे रह गया।
गली खाली हो गई।
पीछे रह गया पुलिसिया मकान के बन्द दरवाजे के सामने चबूतरे पर जमकर बैठ गया।
गुलशन को उस प्रत्यक्षत: खाली और बन्द मकान के सामने उसकी मौजूदगी का मतलब समझते देर न लगी।
शर्तिया मकान की तलाशी होने वाली थी।
और वह मकान के भीतर फंसा हुआ था।
मकान की बैठक की दो खिड़कियां गली में खुलती थीं और उनमें सींखचे या ग्रिल नहीं थी लेकिन पुलिसिये की मौजूदगी में वह उन खिड़कियों के रास्ते कैसे गली में कदम रख सकता था!
और वहां से निकासी का कोई रास्ता नहीं था।
क्या वह पुलिसिये पर हमला कर दे?
हथियारबन्द तो वह‍ था नहीं, ऊपर से वह उम्रदराज आदमी दिखाई दे रहा था, उसे वह काबू में तो बड़ी सहूलियत से कर सकता था लेकिन उसको काबू करने के लिए उसके सिर पर पहुंचना जरूरी था। खिड़की के भीतर से खुलने की आहट पाकर या उसे खुलती देखकर वह सावधान हो सकता था और चीख चिल्लाकर सारी गली इकट्ठी कर सकता था।
नहीं! उधर से बाहर निकलने का खयाल भी करना मूर्खता थी।
तो?
क्या करे वह?
मकान की तलाशी की नीयत से किसी भी क्षण भारी तादाद में पुलिसिये वहां पहुंच सकते थे। फिर वह चूहे की तरह वहां फंस जाता।
नहीं! उसने वहां से भाग निकलने की हर हालत में कोशिश करनी थी, फौरन कोशिश करनी थी।
उसने छत का चक्कर लगाया।
उस मकान के दायें बायें उतने ही ऊंचे दोमंजिला मकान थे लेकिन पिछवाड़े का मकान एकमंजिला था। पिछवाड़े के मकान की पीठ जगदीप के मकान की पीठ से जुड़ी हुई थी और उसके सामने इधर की ही तरह गली थी।
गुलशन ने उधर की गली तक पहुंचने का फैसला किया।
मुंडेर फांदकर दाएं बाए के मकानों तक वह सहूलियत से पहुंच सकता था लेकिन वहां से अगर वह नीचे पहुंचता भी तो गली में ही पहुंचता और गली में मौजूद हवलदार उसे ललकार सकता था।
उसने पिछवाड़े की एकमंजिला छत पर निगाह डाली।
छत सुनसान पड़ी थी। उसके एक भाग तक गली की मद्धिम सी रोशनी पहुंच रही थी, बाकी छत अन्धेरे में डूबी हुई थी।
वह बरसाती में पहुंचा।
दो चादरें फाड़कर उसने उनकी रस्सी सी बनाई। उसने रस्सी का एक सिरा मुंडेर के साथ बांध दिया और दूसरे को पिछवाड़े की नीची छत की तरफ लटका दिया।
उस रस्सी के सहारे वह निर्विघ्न पिछले मकान की एकमंजिला छत पर पहुंच गया।
दबे पांव वह उसकी गली की तरफ की मुंडेर तक पहुंचा। उसने गली में नीचे झांका।
गली सुनसान थी।
और उससे मुश्‍किल से बारह तेरह फुट दूर थी।
उसने देखा कि दीवार के साथ लगा एक परनाला ऐन गली के पर्श तक पहुंच रहा था।
उसने एक सावधान निगाह गली के दोनों तरफ डाली और फिर मुंडेर फांदकर उसकी परली तरफ लटक गया। उसने परनाले को हिला-डुलाकर देखा।
परनाला मजबूत था।
बन्दर की सी फुर्ती से परनाला पकड़कर वह नीचे गली में उतर गया।
तभी गली के बाहरले सिरे पर उसे एक आदमी दिखाई दिया।
वह सकपकाया।
क्या उस आदमी ने उसे परनाले से नीचे उतरता देखा हो सकता था?
नहीं।—उसकी अक्ल ने जवाब दिया—नहीं देखा हो सकता था। अगर देखा होता तो वह अभी तक शोर न मचाने लगा होता!
फिर भी किसी भी क्षण वहां से बगूले की तरह भाग निकलने को तत्पर वह सावधानी से आगे बढ़ा।
वह आदमी उसकी बगल से गुजरा तो उसने पाया कि उसके कदम लड़खड़ा रहे थे और उसके मुंह से ठर्रे के भभूके छूट रहे थे। गुलशन की तरफ तो उसने तब भी न झांका, जबकि वह उसकी बगल से गुजरा।
गुलशन ने चैन की सांस ली।
वह गली से बाहर निकला।
बाजार में पहला कदम पड़ते ही वह ठिठक गया।
अब कहां जाऊं?—उसने अपने आपसे सवाल किया।
समझदारी की बात तो यही थी कि वह शहर से निकल जाता, लेकिन वह काम मुमकिन कहां था। उसकी तलाश में पुलिस ने शहर से निकासी का हर रास्ता ब्लॉक किया हुआ होगा। पुलिस के पास उसकी तसवीर भी थी। हर रेलवे स्टेशन पर, बस अड्डे पर—एयरपोर्ट पर शायद नहीं, क्योंकि एयर ट्रैवल की उसकी औकात पुलिस को नहीं दिखाई दी होगी—उसकी निगरानी हो रही होगी। इतनी रात हो गई थी। सड़कों पर अकेले भटकना भी खतरनाक था। नाइट पेट्रोल वाले पुलिसिये भी उसे रोक कर उससे सवाल कर सकते थे और फिर कोई उसे पहचान भी सकता था।
तो फिर वह कहां जाए?
सबसे बड़ी समस्या उसके सामने रात गुजारने की थी।
दिन में वह शौकत अली के पास भी जा सकता था। दिन में कम से कम अपने आपको उसके मत्थे मंढ़ने की वह कोशिश तो कर सकता था, रात में तो वह मुमकिन ही नहीं था। मौलाना ने खासतौर से हिदायत दी थी कि उन तीनों में से कोई उसके पास न फटके। गुलशन को इतनी रात गए आया पाकर वह हरगिज दरवाजा न खोलता। गुलशन के बाज न आने पर शायद वह उसको पकड़वा देने से भी गुरेज न करता।
और अफसोस की बात यह थी कि चारहाट की जिस गली के दहाने पर वह उस वक्त खड़ा था, वहां से शौकत अली के घर का मुश्‍किल से दो मिनट का रास्ता था।
क्या वह किसी होटल में चला जाए?
पहाड़गंज का पूरा इलाका होटलों से भरा हुआ था। वहां के किसी घटिया होटल में वह रात गुजार सकता था।
लेकिन वहां उसे पुलिस से ज्यादा दारा के आदमियों से खतरा हो सकता था।
अजीब मुसीबत थी।
वह घर से बेघर हो गया था। अपनी बेवफा बीवी से उसका साथ छूट गया था। पुलिस उसे तलाश कर रही थी और इतनी मुसीबतें जिस दौलत की खातिर उस पर टूटी थीं, उसका आनन्द अभी उससे कोसों दूर था, महीनों दूर था।
चोरी का एक मामूली सा लगने वाला काम इतनी विनाशकारी सूरत अख्तियार कर लेगा, उसने कभी सोचा तक नहीं था।
भारी कदमों से वह आगे बढ़ा, यह सोच कर आगे बढ़ा कि आखिर उसने वहां तो खड़े रहना नहीं था, उसने कहीं तो जाना ही था।
दरीबे के आगे से गुजर कर वह बायीं तरफ एस्प्लेनेड रोड पर मुड़ गया।
वहां कारों की लम्बी कतारें लगी हुई थीं। गुलशन को मालूम था कि दरीबे और किनारी बाजार की तंग गलियों में रहने वाले पैसे वाले लोग वहां अपनी कारें पार्क करते थे।
क्या वह वहां से कोई कार चुरा सकता था?
कैसे चुरा सकता था? गैरेज की सुविधा और सुरक्षा से वंचित जो लोग यूं कारें खड़ी करते थे, वे छ: छ: तरह के तो ताले लगाते थे अपनी कारों में। कोई ताला क्लच के पैडल के साथ तो कोई स्टियरिंग के साथ। कोई इग्नीशन के साथ तो कोई गियर के साथ।
तभी मोती सिनेमा की तरफ से एक एम्बैसेडर कार वहां पहुंची। कार ही हैडलाइट्स बहुत तेज थीं और उसकी चौंधिया देने वाली रोशनी की वजह से वह केवल कार का आकार ही देख पाया।
वह कतार में खड़ी कारों में से एक की ओट में हो गया।
पुलिस का महकमा भी एम्बैसेडर कारें ही इस्तेमाल करता था। वह पुलिस की कोई गश्‍ती गाड़ी भी तो ही सकती थी। उसके गुजर जाने तक उसने रास्ते से हट जाना ही मुनासिब समझा।
लेकिन वह कार वहां से न गुजरी।
गुलशन से थोड़ा परे पहुंच कर वह रुकी, उसकी हैडलाइट बुझ गयी और पार्किंग लाइट जल उठी।
तब गुलशन को दिखाई दिया कि वह पुलिस की गाड़ी नहीं थी। उसके भीतर केवल एक ही आदमी मौजूद था जो अब कार को दो कारों के बीच मौजूद जगह में बड़ी दक्षता से बैक कर रहा था।
गुलशन ने मन ही मन एक फैसला किया और दबे पांव आगे बढ़ा।
कार वाले ने कार को पार्क किया, उसके दरवाजों के भीतर से लॉक चैक किए और उसकी बत्तियां वगैरह बुझा कर कार से बाहर निकला।
तभी गुलशन उसके सिर पर पहुंच गया।
वह कोई पचपन साल का निहायत कृशकाय बूढ़ा था जो उसका एक घूंसा बर्दाश्‍त न कर सका। गुलशन का प्रचण्ड घूंसा उसकी छाती पर ऐन उसके दिल पर पड़ा। उसके मुंह से एक कराह भी न निकली और उसका शरीर कार की बॉडी के साथ फिसलता सड़क पर ढेर हो गया।
गुलशन ने अभी भी उसकी उंगलियों में मौजूद चाबी का गुच्छा निकाल लिया। उसने जानने की कोशिश नहीं की कि वह बेहोश हो गया था या मर गया था।
वह फौरन कार में सवार हुआ। उसने कार का इग्नीशन ऑन किया और बिना हैडलाइट्स जलाए उसे आगे बढ़ाया।
सड़क के पार कुछ रिक्शा वाले एक अलाव के इर्द गिर्द बैठे थे। किसी ने भी कार की दिशा में निगाह न उठायी।
वह कार को सड़क पर ले आया।
अब वह तनिक आश्‍वस्त था कि स्थाई नहीं तो एक चलती फिरती छत का साया उसके सिर पर था।
मोड़ से उसने कार को बाएं मोड़ा और उसे रामलीला मैदान के साथ साथ दौड़ा दिया। आगे मेन रोड पर कार के पहुंचते पहुंचते उसने हैडलाइट्स जला लीं।
उसका दिमाग अभी भी यह सोच रहा था कि वह कहां जाए!
आगे लाल किले के विशाल चौराहे की सिग्नल लाइट्स बन्द हो चुकी थीं और उस वक्त केवल ब्लिंकर चल रहा था। उसने निर्विघ्न चौराहा पार किया।
जमना पार झील के इलाके में उसका एक दोस्त रहता था जिसके पास जाने का इरादा उसके मन में आया था लेकिन अगले चौराहे पर, जहां से कि जमना पार के इलाके के लिए सड़क मुड़ती थी, पहुंचने तक उसने वह इरादा अपने मन से निकाल दिया।
नहीं, किसी नए आदमी की शरण लेने का माहौल तब नहीं था।
जीपीओ के पास से आगे बढ़ने के स्थान पर उसने कार को पीछे हाईवे को जाती सड़क पर दौड़ा दिया।
हाईवे पर आकर उसने कार के पैट्रोल वाले मीटर पर निगाह डाली। कार की टंकी तीन चौथाई भरी हुई थी। यानी कि अभी वह बहुत देर यूं ही कार चलाता रह सकता था और सोचता रह सकता था कि वह कहां जाए।
रास्ता सुनसान पड़ा था।
कभी कभार कोई इक्का दुक्का वाहन ही होता था, जो सर्र से खाली सड़क पर उसकी बगल से गुजर जाता था। उससे काफी आगे एक विलायती कार जा रही थी, जिसके ड्राइवर को उसकी तरह कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं मालूम होती थी।
तभी एकाएक ब्रेकों की भीषण चरचराहट के साथ वह कार रुकी। कार लेफ्टहैंड ड्राइव थी। उसका दाईं तरफ का दरवाजा एकाएक खुला और कोई चीज सड़क पर धप्प से आकर गिरी। तुरन्त कार का दरवाजा बन्द हुआ और कार यह जा वह जा।
उसी क्षण गुलशन ने अपनी कार को दाईं तरफ गहरा झोल न दिया होता तो कार से गिरी, या गिराई गई, चीज जरूर उसकी कार के बाएं पहियों के नीचे आ जाती। उसकी कार उस चीज की बगल से गुजरी तो उसने उसमें हरकत नोट की। कार को आगे ले जाकर उसने रोका और पीछे झांका।
सड़क पर एक लड़की उठ कर खड़ी हो रही थी।
गुलशन को बड़ी हैरानी हुई।
उसने कार को रिवर्स करना आरम्भ किया।
लड़की जींस और हाईनैक का पुलोवर पहने थी। उसके बाल कटे हुए थे जो उस वक्त उसके सारे चेहरे पर इस कदर बिखरे पड़ रहे थे कि गुलशन को उसकी सूरत दिखाई न दी। जिस्म उसका खूब नौजवान था और पके फल की तरह तैयार लग रहा था। गुलशन जानता था कि वैसे खूबसूरत जिस्म के साथ थोबड़ा खूबसूरत न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता था।
उसने कार को लड़की के समीप लाकर खड़ा किया।
तब उसे मालूम हुआ कि लड़की विदेशी थी। वह अपने कपड़े झाड़ रही थी और बार-बार अपने बालों को अपने चेहरे से परे कर रही थी जो कि वापिस फिर वहीं आ जाते थे।
गुलशन ने हाथ बढ़ा कर लड़की की तरफ की खिड़की का शीशा नीचे गिराया और फिर बोला—“क्या हुआ?”
लड़की ने सवाल को पता नहीं क्या समझा, उसने कार का उधर का दरवाजा खोला और भीतर आ बैठी।
“दि फिल्दी सन ऑफ ए बिच!”—वह मुट्ठियां भीचें, नथुने फुलाये सांप की तरह फुंफकारती बोली—“दि लाउजी बास्टर्ड! फर्स्ट ही लेड मी, दैन ही लेड मी अगेन, दैन अगेन, दैन अगेन, दैन अगेन, दैन ही किक्ड मी आउट ऑफ हिज कार।”
गुलशन को उसकी फैंसी अंग्रेजी समझ न आई। वह इतना ही समझा कि वह विलायती कार वाले को गलियां दे रही थी।
“मिस्टर, कैन यू फालो दैट कार?”
“लिसन।”—गुलशन कठिन स्वर में अंग्रेजी में बोला—“मुझे अंग्रेजी खूब अच्छी तरह नहीं आती। इसलिए धीरे-धीरे बोलो और साफ-साफ बोलो।”
“तुम उस कार वाले को पकड़ सकते हो जो मुझे यहां धक्का देकर गया?”
“तुम्हें मालूम है वह कहां गया होगा?”
“नहीं।”
“तो फिर कैसे पकड़ सकता हूं?”
“यह सड़क तो काफी दूर तक सीधी जाती लगती है!”
“सीधी तो यह अमृतसर तक जाती है लेकिन इस पर दाएं-बाएं मुड़ जाने पर कोई पाबन्दी तो नहीं है।”
“ओह!”
“था कौन वो कार वाला?”
“था कोई हरामी का पिल्ला।”
“वह तो वह सरासर था वर्ना तुम्हारी जैसी खूबसूरत लड़की को यूं सड़क पर न फेंक गया होता!”
“स्वाइन! डर्टी डबल क्रासर! मदर लवर...”
“कौन था वो?”
“मेरा कोई सगे वाला नहीं था।”
“वाकिफकार होगा।”
“वह भी नहीं।”
“तो?”
“मिस्टर, आई एम इन ट्रबल।”
“सो एम आई।”
“फिर तो शायद हम एक-दूसरे के काम आ सकें।”
“शायद।”
“तुम्हारा क्या प्राब्लम है?”
“पहले तुम बताओ।”
“मैं एक टूरिस्ट हूं। कैनेडा से आठ जनों के एक ग्रुप के साथ घर से निकली हुई हूं। यहां हम इन्टरस्टेट बस टर्मिनस के सामने स्थित टूरिस्ट कैम्प में ठहेर हुए थे। आजकल शहर में डेंगू बुखार फैला हुआ है, वह बद्किस्मती से मुझे हो गया। मेरे साथी इतने हरामजादे निकले कि मुझे पीछे यहां छोड़कर पाकिस्तान चले गए और मुझे कह गए कि मैं दस दिन के अन्दर-अन्दर लाहौर पहुंच जाऊं। कुत्ते के पिल्ले कहते थे कि उनके मेरे साथ ठहरने से वह वायरल फीवर उन सबको हो सकता था इसलिए कमीनों ने मुझे डिच कर दिया।”
“लेकिन वह कार वाला...”
“सुनते रहो। बीच में मत बोलो।”
“ओके।”
“टूरिस्ट कैम्प में से मेरा सारा नकद रुपया चोरी चला गया। जो कीमती सामान मेरी मिल्कियत था, वह मेरे साथी अपने साथ ले गए। अब मेरे पास लाहौर पहुंचने के लिए किराया तक नहीं है। जो कार वाला अभी मुझे यहां फेंक कर गया था, वो कोई हिन्दोस्तानी था जो टूरिस्ट कैम्प में ठहरे किसी फ्रांसीसी टूरिस्ट से मिलने आया था। वह मेरे पास भी आया था।”
“तुम्हारे पास क्यों?”
“वह अपने आपको विलायती माल अच्छे दामों पर बिकवाने में स्पेशलिस्ट बता रहा था। वह मुझसे भी पूछ रहा था कि मैं कोई कैमरा, कोई टू-इन-वन या ऐसी कोई चीज बेचना चाहती थी। मैंने उसे बताया कि मेरे पास ऐसी कोई चीज नहीं थी लेकिन मुझे पैसे की सख्त जरूरत थी और यह कि क्या वह कहीं से मुझे कुछ रुपया उधार दिलवा सकता था? वह बोला छोटी मोटी रकम तो वही मुझे दे सकता था। मैंने उससे लाहौर तक के प्लेन फेयर की मांग की। बदले में उसने पूरी बेशर्मी से मेरी मांग की। मैंने हामी भर दी। मैं उसके साथ उसकी कार पर चली गयी। दिन भर हरामजादे ने मुझे खूब यूज किया। फिर जब पैसे की बात आई तो बोला टूरिस्ट कैम्प में चल कर देता हूं। लेकिन अपनी मां का यार कैम्प पहुंचने से पहले ही मुझे अपनी कार में से सड़क पर धक्का देकर भाग गया।”
“बड़ा कमीना निकला वह आदमी!”—वह हमदर्दीभरे स्वर में बोला।
“हां। और मै हरामजादे के साथ एक्सट्रा डीसेन्सी से पेश आई थी। कमीने को कोई कद्र ही न हुई। ही वाज ओनली आप्टर ए ले।”
गुलशन ने हमदर्दी में जुबान चटकाई। उस लड़की में उसे अपनी मौजूदा दुश्‍वारी का हल दिखाई दे रहा था।
“मिस्टर”—लड़की आशापूर्ण स्वर में बोली—“तुम मेरी मदद करोगे? मुझे प्लेन फेयर दे दोगे? आई डोंट माइन्ड इफ यू ले मी।”
“तुम्हाना नाम क्या है?”—गुलशन ने पूछा।
“गर्टी।”
“टूरिस्ट कैम्प में जो जगह तुम लोगों ने ली हुई है, उसका किराया वगैरह पेड अप है?”
“हां। मेरे साथी मेरा यहां हर तरह का मुनासिब इन्तजाम करके गए थे। वे तो डेंगू के डर से मुझे यहां छो़ड़ कर भागे थे।”
“तुम मुझे अपने साथ पाकिस्तान ले जा सकती हो?”
“पासपोर्ट है तुम्हारे पास?”
“पासपोर्ट?”
“और वैलिड वीसा भी?”
“है।”—गुलशन ने यूं ही कह दिया।
“तो फिर क्या प्रॉब्लम है? फिर मैंने क्या ले जाना है तुम्हें? टिकट खरीदो और पहुंचो।”
“लेकिन मैं तुम्हारे साथ जाना चाहता हूं।”
“क्यों?”
“तुम इतनी खूबसूरत जो हो।”
“नॉनसैंस।”
“पाकिस्तान तक हम दोनों का साथ रहे तो क्या हर्ज है?”
“कोई हर्ज नहीं। लेकिन मिस्टर....”
“क्या?”
“पहले मुझे प्लेन फेयर दे दो।”
“दे दू्ंगा।”
“पहले दो। ऐसा न हो कि तुम भी मुझे उस आदमी की तरह कहीं ले जाओ और फिर...”
“मैं तुम्हें कहीं नहीं ले जाऊंगा।”
“मतलब?”
“तुम मुझे लेकर जाओ।”
“कहां?”
“अपने टूरिस्ट कैम्प में। तुम्हारी तो वहां ग्रुप बुकिंग होगी?”
“हां।”
“इ‍सलिए जाहिर है कि किसी को मेरे वहां तुम्हारे साथ रहने के कोई एतराज नहीं होगा।”
“नहीं होगा। एतराज का सवाल ही नहीं।”
“और तुम्हें? तुम्हें एतराज होगा?”
“कतई नहीं। मैं तो अकेले बोर हो जाती हूं। अच्छा है, कम्पनी रहेगी।”
“गुड।”
“लेकिन प्लेन फेयर...”
“मैं दूंगा। मेरा विश्‍वास करो।”
“वह आदमी भी यही कहता था। और वह तुमसे ज्यादा मीठा बोलता था।”
गुलशन ने अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकाले और उसे थमा दिए।
“यह सिक्योरिटी समझकर रखो।”—वह बोला—“तुमने दो टिकट खरीदने होंगे। एक अपना और एक मेरा। बाकी पैसे भी दे दूंगा।”
नोट देख कर गर्टी की बांछे खिल गईं। एकाएक वह छलांग मार कर गुलशन के ऊपर चढ़ गई और उसके चेहरे पर चुम्बनों की बरसात करने लगी।
गुलशन ने एतराज न किया।
थोड़ी देर बाद उसने लड़की को परे धकेला।
“तुम्हें कार चलानी आती है?”—उसने पूछा।
“यह भी कोई पूछने की बात है?”—वह हैरानी से बोली।
“क्यों पूछने की बात नहीं?”
“हमारे यहां तो ड्राइविंग स्कूल में पढ़ाई के साथ सिखाई जाती है।”
“ओह! यह कार चला लोगी? यह राइट हैण्ड ड्राइव है, इसलिए पूछ रहा हूं।”
“चला लूंगी।”
“तो फिर कार तुम चलाओ।”
“क्यों?”
“मुझे टूरिस्ट कैम्प का रास्ता नहीं आता। खामखाह बार-बार तुमसे पूछना पड़ेगा।”
“सीधा तो रास्ता है...”
“कार तुम चलाओ।”
“ओके।”
दोनों ने कार में बैठे-बैठे ही जगहें बदल लीं।
अपनी उस विषम स्थिति में भी गुलशन को उसके शरीर का स्पर्श बड़ा अच्छा लगा।
गर्टी ने कार आगे बढ़ाई।
टूरिस्ट कैम्प वहां से मुश्‍किल से एक मील दूर था।
पलक झपकते कार वहां पहुंच गई।
उसने हॉर्न बजाया तो दरबान ने दरवाजा खोल दिया।
कैम्प में लगे कई तम्बुओं में से एक के सामने ले जाकर गर्टी ने कार रोक दी।
“दिस इज दि प्लेस।”—वह बोली—“पेड-अप फॉर अनदर फाइव डेज।”
गुलशन खामोश रहा।
“आओ।”
दोनों कार से निकले।
गर्टी उसे तम्बू में ले आई।
तम्बू बहुत विशाल था, लेकिन एक स्लीपिंग बैग और चन्द कपड़ों के अलावा खाली था। स्लीपिंग बैग फर्श पर बिछा हुआ था और उसके समीप एक जॉनीवाकर रैड लेबल की आधी भरी बोतल पड़ी थी।
गुलशन ने होंठों पर जुबान फेरी।
“पियोगे?”—वह उसकी निगाह का अनुसरण करती बोली।
“तुम पियोगी?”—गुलशन ने पूछा।
“पी सकती हूं।”
“सकती हूं क्या मतलब?”
“अगर पहले कुछ खाने का सिलसिला बन जाए। दोपहर से मैंने कुछ नहीं खाया।”
“क्या खाओगी?”
“कुछ भी।”
“चिकन?”
“शौक से।”
“लेने कौन जाएगा?”
“यहां का आदमी ला देगा।”
गुलशन ने उसे एक सौ का नोट दिया।
गर्टी चिकन का इन्तजाम करने बाहर चली गई।
गुलशन भी बाहर निकला।
उसने देखा, एक तरफ दीवर के साथ पानी का एक नल लगा हुआ था जो कि लीक कर रहा था। उससे बहते पानी ने नल के आसपास की कच्ची जमीन पर कीचड़ सा किया हुआ था।
गुलशन आगे बढ़ा, उसने दोनों हाथों में वह कीचड़ काफी सारा समेटा और उसे कार की आगे और पीछे, दोनों तरफ की नम्बर प्लेटों पर इस प्रकार थोप दिया कि नम्बर ठीक से पढ़ा न जा सके।
फिर उसने हाथ धोये और तम्बू में वापिस लौट आया।
आधे घण्टे बाद उनके पास दो चिकन पहुंच गए।
दोनों खाने और पीने में जुट गये।
“लिसन।”—एकाएक वह बोली।
“हां।”—गुलशन बोला।
“तुमने मुझे अपना नाम नहीं बताया।”
“शौकत अली।”—गुलशन तनिक हड़बड़ाये स्वर में बोला—“शौकत अली नाम है मेरा।”
“मैं तुम्हें अली कहकर पुकारूंगी।”
“ठीक है।”
“तुम इसी शहर में रहते हो?”
“पहले रहता था, अब नहीं रहता। मेरा मतलब है अब नहीं रहूंगा।”
“क्यों?”
“बीवी से झगड़ा हो गया है। मैं हमेशा के लिए घर छोड़ आया हूं।”
“बच्चे भी हैं?”
“नहीं?”
“झगड़ा क्यों हो गया?”
“वह बेवफा निकली। किसी और आदमी से प्यार करती थी।”
“पकड़कर मारा होता उस आदमी को?”
“वह कभी मेरी पकड़ाई में नहीं आया।”
“कभी तो पकड़ाई में आएगा ही!”
“अब क्या फायदा! अब तो मैंने घर छोड़ दिया!”
“ओह! अगर मैं न मिलती तो इतनी रात गए कहां जाते?”
“फिलहाल तो किसी होटल में ही जाता। आगे की देखी जाती।”
“तुम पाकिस्तान क्यों जाना चाहते हो?”
“यूं ही सैर के लिए। तुम्हारे साथ के लिए। तुम साथ ले जाओगी तो तुम्हारे साथ आगे भी जहां कहोगी चला चलूंगा।”
“चले चलना। मुझे क्या एतराज होगा!”
“शुक्रिया।”
“माल पानी काफी लगता है तुम्हारे पास।”
“है गुजारे लायक। कुछ गुजारे से फालतू भी है लेकिन उसके बारे में मैं फिर बताऊंगा। मेरा साथ दोगी तो तुम्हें उसमें हिस्सेदार भी बना लूंगा।”
“सच!”
“हां।”
“हाउ स्वीट!”
“मिसाल के तौर पर यह देखो।”
गुलशन ने उसे एक हीरा दिखाया।
“डायमंड!”—गर्टी मुंह से किलकारी सी निकालती बोली।
“पसन्द है?”—गुलशन बोला।
“आई लव डायमंड्स।”
“यह मेरी तरफ से अपने लिए भेंट समझे।”
“भेंट?”
“प्रेजेन्ट।”
“तुम मजाक कर रहे हो?”
“नहीं।”
“यह हीरा तुम मुझे दे रहे हो?”
“हां।”
“क्यों?”
“क्योंकि तुम मुझे अच्छी लगी हो।”
“ओह!”
उसने झिझकते हुए हीरा ले लिया। कुछ क्षण वह उसे अपनी उंगलियों में उलटती-पलटती रही, फिर गुलशन की तरफ सिर उठा कर बड़ी अदा से बोली—“थैंक्यू।”
“मैंशन नॉट।”—गुलशन बड़ी शान से बोला।
“अब बदले में देखो तुम्हें मैं क्या देती हूं!”
“क्या?”
“मिस्टर, आई विल गिव यू दि टाइम आफ दि डे दैट यू विल नैवर फॉरगैट।”
“थैंक्यू।”
“तैयार हो जाओ।”
“मैं तैयार हूं।”
गर्टी बाज की तरह उस पर टूट पड़ी और उसकी बोटी-बोटी झिंझोड़ने लगी।
वक्ती तौर पर गुलशन को कतई भूल गया कि वह पुलिस से दुम दबा कर भागा हुआ फरार अपराधी था।
अगले दिन जब गुलशन की नींद खुली तो उसने तम्बू की एक झिरी में से भीतर दाखिल होती तीखी धूप को अपने चेहरे पर खिलवाड़ करती पाया। उसने आंखें पूरी खोलीं और सबसे पहले अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टिपात किया।
नौ बज चुके थे।
उसने तम्बू में चारों तरफ निगाह दौड़ाई।
गर्टी उसे कहीं दिखाई न दी।
वह उठ कर बैठ गया।
अपने कपड़ों को उसने पिछली रात लपेट कर तकिए की सूरत में सिर के नीचे रख लिया था। कपड़े पहनने से पहले उसने अपना कोट चैक किया।
जवाहरात की थैली यथास्थान मौजूद थी।
नोटों का पुलन्दा भी सही सलामत था।
तभी गर्टी ने भीतर कदम रखा।
“गुड मार्निंग।”—गुलशन को उठ गया पाकर वह बोली।
“गुड मार्निंग।”—गुलशन बोला।
“मैं कैंप की कैन्टीन में ब्रेकफास्ट का ऑर्डर करने गई थी। ब्रेकफास्ट आने में अभी वक्त लगेगा। तब तक शायद तुम टायलेट वगैरह जाना पसन्द करो।”
“टायलेट कहां है?”
गर्टी ने बताया।
गुलशन ने गर्टी का एक तौलिया अपने काबू में किया और वहां से निकल गया।
बीस मिनट बाद नहा धोकर जब वह वापिस लौटा तो उसने ब्रेकफास्ट तम्बू में पहुंच चुका पाया।
कॉफी, आमलेट और स्लाइस।
दोनों खामोशी से ब्रेकफास्ट करने लगे।
“एक बात बताओ।”—एकाएक गर्टी बोली।
“क्या?”—गुलशन तनिक सकपकाए स्वर में बोला।
“यह कार तुम्हारी है?”
“क्यों पूछ रही हो?”—गुलशन और भी सकपकाया।
“कोई खास वजह नहीं। मेरा मतलब है अगर यह कार तुम्हारी है तो क्यों न हम कार पर ही इन्डिया पाकिस्तान बार्डर तक चलें। पैसे भी बचेंगे और ड्राइव का भी मजा आ जाएगा।”
“ओह!”
“क्या खयाल है?”
“खयाल बुरा नहीं।”
“अब प्रोग्राम क्या है?”
“पहला प्रोग्राम तो यही है कि एक बार मुझे अपना पासपोर्ट लाने के लिए अपने घर जाना होगा। उसके बाद सोचेंगे कि कार पर आगे चलें या प्लेन टिकट का इन्तजाम करें।”
“ठीक है।”
गुलशन वहां स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस कर रहा था। पुलिस उस जैसे मामूली आदमी की विदेशी पर्यटकों के लिए बने टूरिस्ट कैम्प में मौजूदगी की उम्मीद नहीं कर सकती थी।
लड़की का साथ, जो कि उसे अनायास ही हासिल हो गया था, अब उसे बहुत रास आ रहा था। अब वह तब तक जरूर उससे चिपका रहना चाहता था, जब तक कि वह सुरक्षित उस शहर से बाहर नहीं पहुंच जाता था।
कार का नम्बर उसे चिन्ता में डाल रहा था। उसका नंबर उस रोज के अखबार में भी छपा हो सकता था। नम्बर प्लेट पर मिट्टी थुपी होने के बावजूद नम्बर ही की वजह से वह कार पहचानी जा सकती थी। वहां का कोई खुराफाती कर्मचारी सोच सकता था कि बाकी साफ सुथरी पड़ी कार की नम्बर प्लेटों पर मिट्टी क्यों थुपी हुई थी। और तो और वह टिप हासिल करने की खातिर उसे साफ करने बैठ सकता था।
और कार को अभी वह अपने काबू से छोड़ना नहीं चाहता था।
उसने ब्रेकफास्ट समाप्त किया।
फिर गर्टी से विदा लेकर वह वहां से निकल पड़ा।
गर्टी उसे कार न ले जाता देखकर हैरान तो हुई लेकिन फिर यह सोचकर खामोश रही कि शायद उसने कहीं पास ही जाना था।
गुलशन टूरिस्ट कैम्प से बाहर निकला।
सड़क पर पहुंचते ही सबसे पहले उसने एक अखबार खरीदा। अखबार लेकर वह टूरिस्ट कैम्प के पीछे ही मौजूद कुदसिया बाग में घुस गया। रविवार का दिन होने की वजह से कई धूप सेंकते लोग वहां मौजूद थे।
वह एक कोने के एक खाली बैंच पर बैठ गया।
अखबार खोलते ही उसके छक्के छूट गए।
मुखपृष्ठ पर से उसकी अपनी तसवीर उसकी तरफ झांक रही थी।
वह वही तसवीर थी जो उसके घर की एक दीवार पर लगी हुई थी और जिसके बारे में चन्द्रा ने उसे बताया था कि उसे पुलिस उतारकर ले गई थी।
उसने जल्दी जल्दी तसवीर के साथ छपी खबर को भी पढ़ा।
खबर में उसे साफ साफ राजेश्‍वरी देवी की हत्या और उसके फ्लैट पर हुई चोरी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। सूरजसिंह डबराल और जगदीप कुमार नामक दो अन्य व्यक्तियों को उसका सहयोगी बताया गया था। उन दोनों में से जगदीप पिछली रात चोरी के माल में अपने हिस्से समेत गिरफ्तार हो चुका था और कबूल कर चुका था कि वह अपने गुलशन और सूरज नामक दो साथियों के साथ उस चोरी में शामिल था जिसमें कि किसी की कत्ल की मर्जी न होते हुए भी राजेश्‍वरी देवी की जान गई थी। उसने यह भी स्वीकार किया था कि पिछली रात कश्‍मीरी गेट के इलाके में उसने दामोदर नामक एक युवक की उस पर गोली चलाकर हत्या कर दी थी।
गुलशन अखबार पढ़ता पढ़ता ठिठका।
तो जगदीप पिछली रात खून करके लौटा था!
तो यह वजह थी उसकी पुलिस के साथ झैं झैं की।
अब उसे लग रहा था कि पिछली रात वह बहुत ही बाल बाल बचा था।
उसने अखबार आगे पढ़ना शुरू किया।
अखबार में छपी अपनी तसवीर से भी ज्यादा छक्के उसके इस खबर ने छुड़ाए कि सूरज मर चुका था।
उसकी नृशंस मौत का हौलनाक विवरण पढ़कर उसकी आखें नम हुए बिना न रह सकीं। पहलवान ने मरते दम तक अपनी जुबान नहीं खोली थी, तभी तो उसकी इतनी दुर्गति हुई थी। वह अपनी जुबान खोल देता तो भी उसके जिन्दा बचने की कोई गारण्टी तो नहीं थी लेकिन अपनी जुबान बन्द रखकर उसने अपना फर्ज निभाया था, अपने दोस्तों के साथ किया अपना वादा पूरा किया था और, गुलशन को नहीं मालूम था कि, एक बार जो विश्‍वास की हत्या वह कर चुका था, उसका प्रायश्‍चित किया था।
जगदीप न पकड़ा जाता तो सूरज की कुर्बानी का उन दोनों को बहुत लाभ पहुंचता। वे पुलिस और दारा के आदमियों के प्रकोप से बचे रहते। लेकिन जगदीप की गिरफ्तारी ने तो भाण्डा ही फोड़कर रख दिया था। गुलशन को न सिर्फ पुलिस से बचना था बल्कि दारा के आदमियों से भी बचना था।
उसने जल्दी जल्दी बाकी की खबर भी पढ़ी।
अखबार में श्रीकान्त के बारे में भी छपा था। उसका जिक्र पुलिस के एक प्रवक्ता के बयान में था जिसने प्रेस को बताया था कि पुलिस को गुलशन की तथा उसके पास आसिफ अली रोड की चोरी के जवाहरात की मौजूदगी की खबर श्रीकान्त के ही माध्यम से लगी थी जो कि गुलशन की बीवी का प्रेमी था और जो ईनाम के लालच में अपनी प्रेमिका से दगाबाजी करके बीमा कम्पनी वालों के पास पहुंच गया था जहां पर कि पुलिस पहले से ही उसकी घात में मौजूद थी।
उसने बाकी का अखबार भी इस उम्मीद में टटोला कि शायद किसी और हैडलाइन के अन्तर्गत उसी केस से ताल्लुक रखती कोई और बात छपी हो।
ऐसा नहीं था।
गुलशन को बड़ी हैरानी हुई।
शौकत अली का कहीं जिक्र नहीं था।
जगदीप, जो गुलशन और सूरज के बारे में सब कुछ बक चुका था, शौकत अली के बारे में कैसे खामोश रह पाया?
या शायद वह खामोश नहीं रह पाया था।
शायद पुलिस ने ही वह खबर दबवा दी थी।
शायद उन्हें गुलशन के शौकत अली के पास पहुंचने की उम्मीद थी।
लेकिन अखबार तो शौकत अली ने भी जरूर पढ़ा होगा। जो कुछ अखबार में छपा था, वह बाखूबी उसके छक्के छुड़ा सकता था। जिन लोगों के साथ उसने जवाहरात बांटे थे, उनमें से एक मर चुका था, एक गिरफ्तार हो चुका था और एक फरार था, लेकिन किसी भी क्षण गिरफ्तार हो सकता था। ऐसे हालात तो मौलाना को जुलाब लगा सकते थे और जो इरादा गुलशन अब किए हुए था, वह फेल हो सकता था।
लेकिन यह उसका खयाल ही तो था—फिर उसने अपने-आपको तसल्ली दी—कि पुलिस शौकत अली से सम्बन्धित जानकारी दबाए हुए थी। हो सकता था कि पुलिस को सूझा ही न हो कि उनका कोई चौथा साथी भी हो सकता था और जगदीप ने खुद शौकत अली का नाम न लिया हो।
उसका दिल कहने लगा कि उसे मालूम होना ही चाहिए था कि शौकत अली पुलिस की निगाह में था या नहीं था। अगर नहीं था तो अखबार में छपी खबर पढ़कर वह आगे क्या करने का इरादा रखता था।
उसने अखबार को लपेटकर वहीं बैंच के नीचे फेंक दिया और उठ खड़ा हुआ।
पैदल चलता वह कश्‍मीरी गेट पहुंचा।
वहां से उसने पीतल के नम्बरों वाली दो नम्बर प्लेटें खरीदीं। नम्बर उसने ऐसा बनवाया कि कार पंजाब स्टेट में रजिस्टर्ड लगे।
नम्बर प्लेटों के साथ वह टूरिस्ट कैम्प वापिस लौटा।
वहां एक पेचकस की सहायता से उसने चोरी की कार की दोनों नम्बर प्लेटें उतारीं और उनकी जगह नई प्लेटें लगा दीं।
कार की चोरी की खबर उसे अखबार में नहीं दिखाई दी थी। शायद वह खबर वक्त रहते अखबार के दफ्तर तक नहीं पहुंच पाई थी।
कार से उतारी प्लेटों को वह समीप ही बहते एक गंदे नाले में फेंक आया।
उस सारे अभियान के दौरान इस बात का उसने खास खयाल रखा था कि किसी का ध्यान उसकी तरफ न जाता।
फिर वह कार पर सवार हुआ और बिना गर्टी के तम्बू के भीतर निगाह डाले वहां से विदा हो गया।
कैम्प के दरवाजे पर तैनात दरबान ने उसे ठोककर सलाम किया।
वह इस बात का सबूत था कि वह पहचाना नहीं गया था। सलाम का हकदार इज्जतदार टूरिस्ट होता था, न कि इश्‍तिहारी मुजरिम।
रविवार को दरीबा और किनारी बाजार दोनों बन्द होते थे, इसलिए वहां कोई खास भीड़ नहीं थी।
किनारी बाजार वह एक रिक्शा पर सवार होकर पहुंचा था।
अपनी चोरी की कार वह लाल किला के प्रवेश द्वार के सामने खड़ी करके आया था। जिस इलाके से उसने कार चोरी की थी, उसमें कार समेत फटकना उसे मुनासिब नहीं लगा था।
वह शौकत अली की गली में दाखिल हुआ।
शौकत अली के मकान पर ताला झूल रहा था।
कहां गया होगा?
रविवार को तो वह कभी कहीं नहीं जाता था।
और वह भी इतने सवेरे!
एक पब्लिक टेलीफोन तलाश करके उसने वहां से उस नम्बर पर टेलीफोन किया जो कि मौलाना ने उसे इमरजेंसी के लिए दिया था।
कोई उत्तर न मिला।
उसने किनारी बाजार के नयी सड़क वाले सिरे तक दो चक्कर लगाकर वक्तगुजारी की और फिर वापिस शौकत अली के दरवाजे पर लौटा।
दरवाजा बदस्तूर बन्द था।
कहां मर गया कम्बख्त?—उसने झुंझलाकर सोचा।
तभी एकाएक उसके मन में एक खयाल आया।
शौकत अली कहीं घर के भीतर ही तो नहीं था!
दरवाजे के साथ ही एक खिड़की थी, जिसमें सीखचे नहीं थे। वह दरवाजे को ताला लगाकर उस खिड़की के रास्ते मकान के भीतर दाखिल हो सकता था और खिड़की को भीतर से बन्द कर सकता था।
शौकत अली इस तरीके से भीतर दुबका बैठा हो सकता था।
यानी वह उस रोज का अखबार वह पढ़ चुका था और उसमें छपी गुलशन की तसवीर देख चुका था।
यानी अब गुलशन उसके लिए छूत की बीमारी की तरह परहेज के काबिल हो गया था।
वह गली से बाहर निकल गया, ताकि अगर शौकत अली उसे कहीं से छुपकर देख रहा था तो वह यही समझता कि गुलशन वहां से चला गया था।
पांच मिनट बाद गुलशन फिर गली में दाखिल हुआ। इस बार वह शौकत अली के मकान के सामने तक न पहुंचा।
शौकत अली के मकान और उसकी बगल के मकान के बीच में एक कोई डेढ़ फुट चौड़ी गली-सी थी जिसमें से होकर दोनों घरों के पानी के परनाले बहते थे। कोई दस फुट गहरी वह गली सिर्फ उसी काम आती थी। गुलशन आंखों-आंखों में यह जायजा ले चुका था कि वह उस गली के रास्ते दोनों दीवारों का और परनालों का सहारा लेकर छत तक चढ़ सकता था। गली क्योंकि किसी प्रकार की राहगुजर नहीं थी इसलिए उसके भीतर कोई नहीं झांकता था।
लेकिन फिर भी अगर कोई उसे यूं दिन दहाड़े ऊपर चढ़ता देख लेता तो उसकी कम्बख्ती आ सकती थी।
लेकिन उस वक्त वह उस खतरे को खातिर में न लाया।
उस वक्त उसकी निगाह में सबसे अहम काम शौकत अली के मकान के भीतर पहुंचना था।
राहदारी ज्यों ही खाली हुई, गुलशन उस दरार जैसी संकरी गली में घुस गया। कुछ क्षण वह यूं ही गली में खड़ा रहा। उस क्षण उसे कोई वहां देख लेता तो वह कह सकता था कि वह पेशाब कर रहा था।
दो-तीन मिनट तक जब किसी ने उसमें न झांका तो गुलशन पाइप के सहारे बन्दर जैसी फुर्ती से ऊपर चढ़ने लगा। पाइप बहुत कमजोर था लेकिन गली इतनी संकरी थी कि ऊपर चढ़ते समय दूसरे मकान की दीवार के साथ उसकी पीठ लग जाती थी, इसलिए उसके शरीर का सारा भार पाइप पर नहीं पड़ता था।
वह निर्विघ्न शौकत अली के मकान की छत पर पहुंच गया।
छत पर वह कुछ क्षण सुस्ताता रहा और अपने कपड़े झाड़ता रहा।
फिर उसका ध्यान नीचे जाती सीढ़ियों के दरवाजे की तरफ आकर्षित हुआ।
वह दरवाजा भीतर की तरफ से बन्द था।
उस दरवाजे की झिरियों में से उसने भीतर झांकने की कोशिश की तो नीमअन्धेरी सीढ़ियों के अलावा उसे कुछ न दिखाई दिया।
वह कान लगाकर आहट लेने की कोशिश करने लगा।
नीचे से उसे दो-तीन बार हल्की-सी आवाजें आयीं तो सही लेकिन उन आवाजों की वह शिनाख्त न कर सका। नीचे शौकत अली भी हो सकता था और वह चूहों वगैरह द्वारा मचाई खटपट भी हो सकती थी।
वह अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश में दरवाजे के सामने ठिठका खड़ा रहा।
मकान की मुंडेर काफी ऊंची थी और दरवाजे के ऊपर शेड पड़ा हुआ था, जिसकी वजह से आसपास के ऊंचे मकानों में सर्दियों की धूप सेंकते लोगों की निगाहों से वह बच सकता था।
उसने दरवाजे को धक्का देकर देखा।
उसका कुण्डा भीतर से बहुत मजबूती से लगा हुआ था लेकिन लकड़ी कमजोर थी।
उसने आसपास निगाह डाली।
एक तरफ फर्श पर एक डेढ़ फुट लम्बी लोहे की सलाख पड़ी थी। उसने वह सलाख उठा ली। सलाख जंग खाई हुई थी लेकिन मजबूत थी।
उसकी सहायता से वह दरवाजे के तख्तों को उमेठ-उमेठ कर दरवाजे को इतना तोड़ सकता था कि टूटे भाग में से हाथ डालकर वह भीतर से दरवाजे को लगी सांकल खोल सकता।
वह बड़ी खामोशी से उस काम में जुट गया।
पन्द्रह मिनट में वह अपने अभियान में कामयाब हो गया।
दरवाजा खोलकर उसने सीढ़ियों में कदम रखा।
दबे पांव वह पहली मंजिल पर पहुंचा।
शौकत अली वहां नहीं था।
वह सारे मकान में फिर गया।
शौकत अली कहीं नहीं था।
तो क्या उसने गलत सोचा था कि शौकत अली मकान के भीतर था?
वह उसकी वर्कशॉप में पहुंचा।
उसने बत्ती जलाई और एक स्टूल पर बैठ गया।
स्टूल पर औजारों के सामने एक चाय का गिलास पड़ा था जिसमें दो-तीन घूंट चाय अभी बाकी थी। अनायास ही उसका हाथ गिलास को छू गया।
गिलास गर्म था।
गुलशन को बड़ी हैरानी हुई।
उसने नथुने उठाकर लम्बी-लम्बी सांस लीं तो उसे अनुभव हुआ कि वातावरण में बीड़ी के धुएं की गंध बसी थी।
उन दोनों बातों का जो सामूहिक मतलब गुलशन की समझ में आया, उसने उसका खून खौला दिया।
शौकत अली वहीं था।
जिस वक्त वह छत पर सीढ़ियों का दरवाजा खोलने की कोशिश में लगा हुआ था, उस वक्त वह नीचे खिसकने की तैयारी कर रहा था।
उस रोज का अखबार वर्कशॉप की टेबल पर चाय के गिलास के पास पड़ा था। वह इस प्रकार मुड़ा हुआ था कि गुलशन की तसवीर सामने झांक रही थी।
जाहिर था कि मौलाना उसकी परछाई से भी बचने की कोशिश कर रहा था।
उसने नये सिरे से तलाशी लेनी आरम्भ की। इस बार की तलाशी का मन्तव्य शौकत अली को तलाश करना नहीं था इसलिए हर जगह को उसने बड़ी बारीकी से टटोला।
उसे कहीं कोई नया कपड़ा दिखाई न दिया।
शेविंग का सामान न दिखाई दिया।
फेथ डायमंड या उसके भग्नावषेश न दिखाई दिए।
कैसे भी कोई जवाहरात न दिखाई दिए।
उसका दिल गवाही देने लगा कि शौकत अली वहां से खिसक गया था, न सिर्फ खिसक गया था, हमेशा के लिए खिसक गया था। ऊपर छत की तरफ से क्योंकि गुलशन भीतर घुसने की कोशिश कर रहा था, इसलिए वह सिर्फ अपना इन्तहाई जरूरी सामान ही वहां से समेट पाया था।
मिसाल के तौर पर हीरे तराशने में काम आने वाले उसके कीमती औजार वहीं पड़े थे।
मिसाल के तौर पर वर्कशॉप की बैंच की एक दराज में एक भरी हुई पिस्तौल पड़ी थी।
उसका पिस्तौल भी वहां छोड़कर जाना गुलशन को वह सोचने पर मजबूर कर रहा था कि मौलाना दिल्ली ही नहीं छोड़ रहा था, हिन्दोस्तान ही छोड़ रहा था।
उसने पिस्तौल की गोलियां निकाल कर एक अलग दराज में डाल दीं और पिस्तौल को वापिस वहीं रख दिया जहां से उसने उसे उठाया था।
अब वह अपने आपको शौकत अली की जगह रखकर सोचने लगा कि अगर उसने फौरन मुल्क छोड़कर भागना हो तो उसे कहां जाना चाहिए था?
सूरज ने उसे बताया था कि शौकत अली के तकरीबन रिश्‍तेदार लाहौर रहते थे।
क्या वह हवाई जहाज से लाहौर के लिए रवाना हुआ हो सकता था?
नहीं।
वह तो गुलशन के एकाएक वहां पहुंच जाने की वजह से आनन-फानन भागा था। वैसे ही आनन-फानन उसे लाहौर का प्लेन टिकट कैसे हासिल हो सकता था?
लेकिन वह रेल से अमृतसर जा सकता था।
एक बजे के करीब फ्लाइंग मेल नामक एक गाड़ी अमृतसर जाती भी थी। उससे आगे बॉर्डर मुश्‍किल से तीस किलोमीटर था। अगर शौकत अली पासपोर्ट का इन्तजाम कर चुका था तो यूं वह बड़ी सहूलियत से पाकिस्तान पहुंच सकता था।
उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली।
बारह बजने को थे।
वह फुर्ती से सीढ़ियां उतरकर नीचे पहुंचा।
उसने खिड़की को भीतर की तरफ से खोला और बाहर झांका।
ज्यों ही बाहर गली खाली हुई, वह खिड़की में से निकल कर चबूतरे पर आ गया। उसने खिड़की के पल्ले आपस में मिलाकर खिड़की वापिस बन्द कर दी और चबूतरे से उतरा। फिर वह लम्बे डग भरता गली से बाहर निकला। बाहर निकलते ही उसे एक रिक्शा मिल गया। उस पर सवार होकर वह लाल किला के मुख्यद्वार पर पहुंचा। वहां से वह अपनी चोरी की कार में सवार हुआ और नयी दिल्ली स्टेशन की तरफ उड़ चला।
उसके दिल के किसी कोने में एक शंका सिर उठा रही थी।
क्या उसका रेलवे स्टेशन पर कदम रखना मुनासिब होगा?
शौकत अली की तलाश में वह खुद भी तो वहां फंस सकता था।
लेकिन उसने यह सोच कर अपने आपको तसल्ली दी कि उसके स्टेशन के भीतर घुसने की नौबत नहीं आने वाली थी।
शौकत अली उससे कुछ ही मिनट पहले अपने मकान में से खिसका था, उसके पास थोड़ा बहुत सामान भी जरूर था, इस लिहाज से मुमकिन था कि वह शौकत अली से पहले स्टेशन पहुंच जाता। फिर वह उसे स्टेशन के बाहर ही पकड़ सकता था। स्टेशन के भीतर कदम रखना तो वाकई उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता था।
बहरहाल शौकत अली को थामने की कोशिश उसने जरूर करनी थी। और कई बातों के अलावा एक बात यह भी तो थी कि वह फेथ डायमण्ड अकेला ही डकारे जा रहा था।
दिल्ली गेट के चौराहे से वह दाएं घूमा। उसके साथ साथ ही एक डबल डैकर बस मोड़ काट रही थी। उसने बस को तनिक आगे निकल जाने देने के लिए अपनी कार की रफ्तार कम की। बस तिरछी होकर उसके सामने से गुजरी तो गुलशन की निगाह उसके ऊपरले डैक की खिड़कियों पर पड़ी।
एक खिड़की में उसे शौकत अली का चेहरा दिखाई दिया।
तभी बस सीधी हो गई और गुलशन को खिड़कियां दिखाई देनी बन्द हो गई।
गुलशन ने फौरन कार की रफ्तार बढ़ाई और उसे बस से आगे निकाल ले गया।
इर्विन हस्पताल के बस स्टैण्ड से आगे उसने अपनी कार रोक दी। वह फुर्ती से कार से निकला और वापिस बस स्टैण्ड पर आकर खड़ा हो गया।
तभी वही डबल-डैकर बस स्टैण्ड पर आकर रुकी जिसकी खिड़की में से उसे शौकत अली की झलक दिखाई दी थी।
वह बस में सवार हो गया।
बस पर करोलबाग टर्मिनस का बोर्ड लगा हुआ था। गुलशन ने कन्डक्टर से टर्मिनस का टिकट लिया और सीढ़ियां चढ़ कर ऊपरले डैक पर पहुंचा।
ऊपर केवल तीन चार सीटों पर ही मुसाफिर बैठे थे।
शौकत अली आगे एक खिड़की के पास अकेला बैठा था और शायद दिल्ली शहर का आखिरी नजारा कर रहा था।
शौकत अली ने सहज भाव से उसकी तरफ देखा।
गुलशन पर निगाह पड़ते ही उसका चेहरा कागज की तरह सफेद हो गया। उसका शरीर एक बार बड़ी जोर से कांपा। अपनी गोद में रखे अपने सूटकेस को उसने बड़ी मजबूती से अपनी छाती के साथ जकड़ लिया।
“आदाब अर्ज करता हूं, मौलाना।”—गुलशन अपनी आवाज को मिठास का पुट देता बोला।
“तु... तु... तुम!”—उसके मुंह से निकला।
“हां, मैं। मेरा प्रेत नहीं। क्या बात है, मियां? इतने घबरा क्यों रहे हो?”
“म-मैं तो न-नहीं घबरा रहा।”
“जान कर खुशी हुई। अब बताओ तुम्हें खुशी हुई?”
“किस बात की?”
“मुझसे मुलाकात होने की?”
वह खामोश रहा।
“लगता है नहीं हुई।”
“तुम बस में कहां से टपक पड़े?”
“आसमान से। अपना सूटकेस संभाल लो”—एकाएक गुलशन कर्कश स्वर में बोला—“अगले स्टैण्ड पर हमने उतरना है।”
“नहीं।”—शौकत अली जोर से इनकार में गर्दन हिलाता बोला।
“क्या नहीं?”
“अब मैं वापिस नहीं जा सकता। मेरे लिए पीछे कुछ नहीं रखा। मैं अपनी पिछली जिन्दगी से हमेशा के लिए किनारा कर आया हूं।”
“फेथ डायमण्ड अकेले हड़प जाना चाहते हो, मौलाना?”
“वह मैं तुम्हें दे देता हूं। तुम अकेले हड़प लो उसे।”
“बातें मत बनाओ।”
“मैं बातें कहां बना रहा हूं। अगर बात फेथ डायमण्ड की है तो...”
“बात फेथ डायमण्ड की ही नहीं है।”
“तो?”
“तुम कहां जा रहे हो?”
“पाकिस्तान। हमेशा के लिए।”
“कैसे जाओगे? तुम्हारा पासपार्ट तो सरकार ने जब्त किया हुआ है!”
वह खामोश रहा।
“लगता है जाली पासपोर्ट का इन्तजाम हो गया है।”
वह परे देखने लगा।
“अपना पासपोर्ट मुझे दिखाओ।”
“नहीं।”—वह तीखे स्वर में बोला।
“मौलाना, बेवकूफ मत बनो। अभी तुम फेथ डायमण्ड के टुकड़े मुझे सौंप रहे थे यानी वह भी और चोरी का और भी ढेर सारा माल इस वक्त तुम्हारे कब्जे में है। ऊपर से तुम्हारे पास जाली पासपोर्ट है जो कि जरूरी नहीं कि शौकत अली के ही नाम से हो। ऐसे में गिरफ्तार हो गए तो बड़े लम्बे नपोगे, मौलाना।”
“तुम...तुम मुझे गिरफ्तार करवाओंगे?”
“हां।”
“और खुद बच जाओगे?”
“मुझे अपनी परवाह नहीं।”
“बिरादर।”—वह गिड़गिड़ाया—“तुम क्यों एक गरीब आदमी के पीछे पड़े हुए हो?”
“मौलाना, इस वक्त हम दोनों एक ही राह के राही हैं इसलिए शराफत इसी बात में है कि तुम मेरी पीठ खुजाओ और मैं तुम्हारी पीठ खुजाऊं।”
“मैं क्या करूं?”
“सबसे पहले तो बस से उतरो और वापिस अपने घर चलो।”
“मैं अब लौट कर वहां नहीं जाना चाहता।”
“वहां नहीं जाओगे तो जेल जाओगे। सोच लो।”
“बिरादर, कुछ तो खयाल करो। तुम इश्‍तिहारी मुजरिम बन चुके हो। पुलिस को तुम्हारी तलाश है। क्यों मुझे भी गेहूं के साथ घुन की तरह पीसना चाहते हो?”
“तुम्हें कुछ नहीं होगा। मुझे भी कुछ नहीं होगा।”
“लेकिन फिर भी...”
“बातों में वक्त जाया मत करो, मौलाना।”
“मेरे घर जाने से क्या होगा?”
“तुम्हारा घर आज की तारीख में मेरे लिए इन्तहाई महफूज जगह है।”
“वहम है तुम्हारा। तुम्हारा दोस्त जगदीप गिरफ्तार है। वह कभी भी मेरे बारे में पुलिस के सामने बक सकता है।”
“अगर उसने तुम्हारे बारे में कुछ बकना होता तो अब तक बक चुका होता। तुमने अखबार पढ़ा ही होगा। उसमें हर बात छपी है लेकिन तुम्हारा जिक्र नहीं छपा।”
“नहीं छपा तो छप जाएगा।”
“नहीं छपेगा।”
“अगर मैं बस से उतरने से इनकार कर दूं तो तुम क्या करोगे?”
“मैं तुम्हें गिरफ्तार करवा दूंगा।”
“चाहे साथ में खुद भी गिरफ्तार हो जाओ?”
“हां।”
“यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?”
“हां।”
“अच्छी बात है। मैं चलता हूं तुम्हारे साथ।”
“शाबाश!”
दोनों अजमेरी गेट के स्टैण्ड पर उतर गए।
एक थ्री-व्हीलर पर सवार होकर वे वापिस लौटे।
शौकत अली ने चाबी लगा कर अपने घर का दरवाजा खोला।
दोनों भीतर दाखिल हुए।
शौकत अली ने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया।
दोनों पहली मंजिल पर स्थित उसकी वर्कशॉप में पहुंचे।
शौकत अली ने सूटकेस अपने पैरों के पास रख लिया और स्वयं बैंच के सामने एक स्टूल पर बैठ गया।
“अब बोलो क्या कहते हो?”—वह बोला।
“तुम्हारे पास जो पासपोर्ट है”—गुलशन ने सवाल किया—“वह जाली है?”
“हां।”
“कहां से हासिल हुआ?”
“नबी करीम में एक मुसलमान एंग्रेवर है। वही कुछ भरोसे के लोगों के लिए ऐसे काम करता है।”
“मेरे लिए वह एक जाली पासपोर्ट बना देगा?”
“बना देगा। मेरे कहने पर बना देगा।”
“तुम कह दो उसे।”
“मैं उसके नाम तुम्हें चिट्ठी लिख देता हूं।”
उसने एक दराज खोला और उसमें से एक कागज और एक बाल प्वाइन्ट पेन निकाला। कुछ देर वह कागज पर उर्दू में कुछ लिखता रहा। उसने कागज को दो बार तह करके एक लिफाफे में रखा और लिफाफे पर इंगलिश में एक नाम और पता लिख दिया। फिर उसने लिफाफा गुलशन की तरफ बढ़ा दिया।
“यह आदमी”—गुलशन लिफाफा लेता बोला—“पैसे कितने लेगा इस काम के?”
“बीस हजार रुपये।”
“क्या!”
“कम हैं, बिरादर। कम हैं। उसका बनाया पासपोर्ट आज तक पकड़ा नहीं गया है।”
“जरा अपना पासपोर्ट दिखाओ।”
शौकत अली ने हिचकिचाते हुए अपना पासपोर्ट गुलशन को थमा दिया।
गुलशन ने बड़ी बारीकी से पासपोर्ट का मुआयना करना आरम्भ किया।
उसकी समझ में न आया कि पासपोर्ट अगर नकली था तो किधर से नकली था।
“इसको तैयार करने में वह वक्त कितना लगाता है?”
“एक महीना।”
“एक महीना!”
“हां! यह बड़े सब्र और इतमीनान से होने वाला काम है।”
“मैं एक महीना इन्तजार नहीं कर सकता।”
“तो मत करो।”
वह खामोश हो गया और फिर पासपोर्ट का मुआयना करने लगा। उसने बड़े गौर से पासपोर्ट की एक-एक एन्ट्री पढ़ी।
उसने अनुभव किया कि केवल दो तब्दीलियों से वही पासपोर्ट उसके काम आ सकता था।
एक जन्म की तारीख।
शौकत अली की उम्र चालीस साल के करीब थी, जबकि वह खुद अट्ठाइस साल का था। बारह साल का झूठ चलाना मुश्‍किल था।
और दूसरी पासपोर्ट पर लगी तसवीर।
उन दोनों तब्दीलियों में महीना नहीं लग सकता था। वे दोनों तब्दीलियां फौरन की जा सकती थीं।
“मौलाना”—गुलशन निर्णयात्मक स्वर में बोला—“यह पासपोर्ट मुझे चाहिए।”
“यह मेरा पासपोर्ट है।”—वह सकपकाया—“तुम्हारे किस काम का?”
“यह मेरा पासपोर्ट बन सकता है।”
“तुम पागल तो नहीं हो गए हो?”
“नहीं, मैं पागल नहीं हो गया हूं। देखो, मेरे पीछे पुलिस पड़ी हुई है। लेकिन तुम अभी एकदम सेफ हो। इस वक्त पासपोर्ट की तुम्हारी जरूरत से मेरी जरूरत बड़ी है। तुम मुल्क से अपना भागना एक महीने के लिए मुल्तवी कर सकते हो, मैं नहीं कर सकता। इसलिए तुम्हारा पासपोर्ट मैं ले रहा हूं। मैं इसमें दो तब्दीलियां करवाऊंगा और...”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी।”—शौकत अली ने एकाएक दराज में हाथ डालकर पिस्तौल निकाल ली—“इधर लाओ पासपोर्ट वर्ना शूट कर दूंगा।”
“मौलाना!”
“सुना नहीं। जल्दी करो। पासपोर्ट इधर फेंको वर्ना मैं गोली चालाता हूं।”
गुलशन ने पासपोर्ट अपनी जेब में रख लिया और आंखें तरेरकर बोला—“तू गोली ही चला ले, साले।”
शौकत अली ने घोड़ा खींचा।
खाली पिस्तौल केवल एक क्लिक की आवाज करके रह गई।
शौकत अली की आंखों में आतंक की छाया तैर गई। वह घबराकर उठ खड़ा हुआ। विक्षिप्तों की तरह उसने गोलियों की तलाश में दराज में हाथ डाला।
गुलशन उस पर झपटा।
बैंच पर एक भारी हथौड़ा पड़ा था जो कि उसके हाथ में आ गया।
गोलियों के साथ शौकत अली का हाथ दराज से बाहर निकला। उसने पिस्तौल को खोलने का उपक्रम किया।
तभी गुलशन उसके सिर पर पहुंच गया। गन्दी गालियां बकते हुए हथौड़े का एक भरपूर प्रहार उसने शौकत अली की खोपड़ी पर किया।
शौकत अली की खोपड़ी तरबूज की तरह फट गई और उसमें से खून का फव्वारा फूट निकला।
फिर वह कटे वृक्ष की तरह धड़ाम से फर्श पर गिरा।
गुलशन ने झुककर उसकी नब्ज टटोली।
नब्ज गायब थी।
शौकत अली अंसारी, उम्र चालीस साल, साकिन लाहौर पाकिस्तान, की इहलीला समाप्त हो चुकी थी। पाकिस्तान पहुंचने के स्थान पर वह परलोक पहुंच चुका था।