दसवां बयान

जब से हम यह संतति का दूसरा भाग लिखने बैठे हैं, तब से हम उसके नये, विचित्र एवम् दिलचस्प पात्रों में कुछ इस प्रकार उलझ गए हैं कि अपने पुराने और प्यारे पात्र अलफांसे को तो बिल्कुल ही भूल गए। संतति के पहले भाग में हम उसके विषय में जो कुछ भी लिख आए हैं, वह बड़ा आश्चर्यजनक है। अलफांसे के साथ घटी घटनाओं का जितना आश्चर्य हम सबको है, उससे कहीं अधिक खुद अलफांसे को है। अगर पाठकों को उसके साथ घटित आश्चर्यजनक घटनाएं याद न हों तो देवकांता संतति के पहले भाग में पढ़ सकते हैं। हम यहां इतना ही लिखेंगे कि बागीसिंह ने उसे धोखे में डालकर अपना कान सुधा दिया–बागीसिंह ने अपने कान में बेहोशी की दवा में भीगा फोया (रुई) लगा रखा था, जिसे सूंघते ही वह बेहोश हो गया।


इस समय हम अलफांसे को एक झरने के पास बैठा झरना एक ऊंची पहाड़ी के पत्थरों से टकराता नीचे मैदान में गिर रहा हुआ पाते हैं।


मैदान में झरने का पानी एक नहर का रूप धारण करके बह रहा है। झरने का जल अत्यन्त ही स्वच्छ है । जब अलफांसे होश में आया तो खुद को उसने इसी मैदान में पाया था, इस मैदान को मैदान कम और बाग कहना अधिक उचित होगा। क्योंकि इस मैदान में फल और मेवों के अनेक वृक्ष हैं। अलफांसे को जब होश आया तो सूरज की तेज किरणें उस पर पड़ रही थीं। वह उठकर बैठ गया और कुछ देर तक अपने चारों ओर की स्थिति का अध्ययन करता रहा ।


वह बाग काफी बड़ा था हुई हाड़ियों से घिरा हुआ था। – परन्तु चारों ओर गगन को स्पर्श करती चारों ओर की ऊंची पहाड़ियों के कटाव कुछ इस तरह बने हुए थे कि उन पर चढ़कर मैदान से बाहर निकलने के विषय में सोचना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं था ।


यूं कहना चाहिए कि अलफांसे ने काफी तलाश किया, मगर उसे इस बाग से निकलने का कोई मार्ग नहीं मिला । अतः वह समझ गया कि उसे इस अजीब से बाग में कैद किया गया है। उसने वृक्षों से फल और मेवे खाकर अपने पेट की भूख को शांत किया तथा नहर का स्वच्छ जल पिया — इन सब कामों से निवृत्त होकर वह नहर के किनारे बैठा अपनी स्थिति पर विचार कर रहा था । वह यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह इस कैद से किस प्रकार छुटकारा पाए ।


अभी तक वह यह भी नहीं समझ सका था कि वह किस विचित्र टापू में फंस गया है। यह निर्णय उसने यह महसूस करके ही लिया था कि यहां के लोग बड़े खतरनाक हैं। फिर भी अलफांसे के लिए यह बात आश्चर्यजनक थी कि यहां के लोग उसके नाम में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं ? अभी वह इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था — और किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पाया था कि !


-“मिस्टर अलफांसे !” किसी ने उसे पुकारा । अलफांसे एक झटके के साथ पत्थर से उठा और पीछे पलटा — उसने देखा – सामने एक बूढ़ा सा नजर आने वाला व्यक्ति खड़ा था। उसके चेहरे का अधिकांश भाग सफेद सन की भांति दाढ़ी और मूंछों से ढका था । दाढ़ी इतनी लम्बी थी कि नाभी को स्पर्श करती - सी नजर आती थी। उसके सारे जिस्म पर गेरुए रंग के कपड़े थे, चेहरा जितना भी चमक रहा था, वह कठोर व मजबूत था । चौड़े तथा बलदार मस्तक पर एक लाल तिलक लगा हुआ था। आंखें अंगारे की भांति सुर्ख थीं ।


अलफांसे ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा—किन्तु पहचान न सका कि वह कौन है ? जबकि पाठक उसे भली प्रकार पहचानते हैं। ये वे ही वंदना और गौरव के गुरु हैं, जिनके बारे में आप पहले भाग में पढ़ चुके हैं। अलफांसे ने उन्हें घूरते हुए प्रश्न किया— "कौन हैं आप ?"


स्वर में वास्तव में तुम्हारा अपराधी - "हमारा परिचय तो तुम्हें मिल ही जाएगा बेटे ।" गुरुजी शांत बोले – "लेकिन पहले जरा इस बात का जवाब दो कि क्या नाम अलफांसे है ? अगर तुम वही अन्तर्राष्ट्रीय अलफांसे हो तो सच मानो, हमारे भाग्य खुल गए हैं। हां, मैं तुमसे यह प्रश्न अवश्य पूछूंगा कि तुम यहां इस टापू पर किस तरह आए, यहां तुम्हें कौन लाया ?”


"यहां मुझे कोई भी नहीं लाया !" अलफांसे ने जवाब दिया—“बल्कि एक प्रकार से प्रकृति ने ही मुझे यहां भेज दिया है।" 


–"क्या तुम किसी विमान दुर्घटना में तो नहीं फंस गए थे ?" गुरु ने व्यग्रता से पूछा । 


- " जी हां...!" अलफांसे बोला – "लेकिन ये बात आपको कैसे मालूम ?"


- "फिर तो हमें यकीन हो गया कि तुम वही अलफांसे हो, जिसकी हमें खोज़ थी । " गुरुजी खुश होकर बोले —"सचमुच ही हमारे भाग्य खुल गए हैं। अब वह तिलिस्म टूटकर रहेगा। हमने गौरवसिंह और वंदना को विजय के पास भेजा है। आज-कल में वे अपने पिता को लेकर आते ही होंगे।"


बूढ़े गुरुजी के मुंह से विजय का नाम सुनते ही अलफांसे की खोपड़ी भिन्ना गई – वह अनजान - सा बनकर बोला— "कौन विजय ?"


-"क्या तुम विजय को नहीं जानते ?" बेहद आश्चर्य के साथ गुरुजी ने प्रश्न किया ।


—" मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आप कौन-से विजय की बात कर रहे हैं ?" अलफांसे अपने हवा में तैरते मस्तिष्क पर नियन्त्रण करके बोला— "मैं कई विजयों को जानता हूं, यानी कई विजय मेरे दोस्त हैं —— समझ में नहीं आता कि आप कौन-से विजय की बात कर रहे हैं?"


- "वही विजय, जो राजनगर नामक शहर में रहता है हमारी जानकारी के अनुसार वह तुम्हारा दोस्त है, और भारत का सबसे बड़ा ऐयार ( जासूस ) भी। "


——“लेकिन आप मेरे और उसके विषय में कब से जानते हैं ?" अलफांसे ने आश्चर्य से पूछा – "हमने तो आपको कभी भी नहीं देखा ?” — "हम तो तुम दोनों को उस समय से जानते हैं बेटे, जब से तुम दोनों को अलफांसे और विजय के रूपों में जन्म भी नहीं मिला था।" 


गुरुजी ने एक दर्द-भरी मुस्कान के साथ कहा – “जब तुम दोनों मरे थे, हम उसी समय जान गए थे कि विजय और अलफांसे नाम के दो आदमी दुनिया में जन्म लेंगे —— उनमें से एक अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी होगा और दूसरा अपने देश भारत का माना हुआ ऐयार ( जासूस)। वे दोनों आपस में दोस्त भी होंगे ओर दुश्मन भी ।


-"चाहे किसी भी रिश्ते में सही —– किन्तु वे एक-दूसरे को जानेंगे अवश्य | तुम दोनों की अनुपस्थिति के कारण यहां एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काम रुका पड़ा है बेटे— आज करीब बयालीस साल हो गए, जब से हम तुम लोगों की तलाश में हैं, किन्तु अब जाकर हमारे भाग्य का उदय हुआ है। अब वह महत्त्वपूर्ण काम अधिक दिनों तक रुका नहीं रह सकेगा। अब तुम आ गये हो बेटे, सब ठीक हो जाएगा ।'


गुरुजी की बात सुनकर अलफांसे का दिमाग और भी बुरी तरह घूम गया। बोला—“लेकिन मैं आपकी बातों का मतलब नहीं समझ पा रहा ।"


-‘‘समझ जाओगे बेटे ! आओ— मैं तुम्हें एक ऐसे अनूठे स्थान पर ले चलू, जहा तुम सब समझ जाओगे।" गुरुजी ने कहा। अलफांसे ने सोचा कि कहीं बूढ़ा भी उसे किसी नए एवं विचित्र जाल में न उलझा दे। वह देख चुका था कि इस टापू के आदमी काफी बुद्धिमान और खतरनाक किस्म के लोग हैं । जबसे उसने इस टापू पर कदम रखा था, तभी से एक-से-एक विचित्र आश्चर्यजनक घटनाओं से उसे गुजरना पड़ रहा था। बागीसिंह नामक आदमी ने उसे एक बेहद आश्चर्यजनक कहानी सुनाई थी। उसी कहानी से प्रभावित होकर वह बागीसिंह के साथ चलने के लिए तैयार हो गया था, मगर बागीसिंह ने उसे काफी खूबसूरत धोखे दिए थे।


अब यह उसके सामने खड़ा हुआ बूढ़ा बागीसिंह से भी अधिक दिलचस्प एवं रोचक बातें कर रहा था । इस बूढ़े के मुंह से अपना और विजय का नाम सुनकर अलफांसे को कम आश्चर्य नहीं था । बूढ़े द्वारा कहा गया एक-एक शब्द बड़ा विचित्र था । वह बूढ़े के उन शब्दों का अर्थ जानने के लिए बेचैन था, मगर बूढ़ा उसे किसी अनूठे स्थान पर ले चलने के लिए कह रहा था । बस... इस चलने पर ही अलफांसे अटक रहा था। बिना उसके बारे में कुछ जाने वह उसके साथ जाना नहीं चाहता था । अतः बोला – “आपको जो कुछ कहना है यहीं कहिए। आपके बारे में जाने बिना मैं आपके साथ कहीं जाने के लिए तैयार नहीं हूं।"


- "हमारे बारे में तुम क्या जानना चाहते हो, बेटे ?" गुरुजी ने कहा ।


“जो भी आप अपने बारे में जानते हैं।" अलफांसे ने कहा—‘‘आप कौन हैं ? आपका नाम क्या है ? मुझसे क्या सम्बन्ध है ? क्या चाहते हैं ?"


-"हमारा नाम गुरुवचनसिंह है।" गुरु ने परिचय दिया—“हम एक प्रकार से तुम्हारे गुलाम हैं। हमारा परिचय तुम तभी अच्छी तरह जान सकते हो जब हम तुम्हें तुम्हारा वह परिचय दें, जिसके बारे में तुम अभी जानते नहीं हो। हम जानते हैं कि तुम्हें यहां बागीसिंह लाया होगा। मगर असलियत ये है कि वह बागीसिंह नहीं था। असली बागीसिंह तो उसकी कैद में था, जिस आदमी ने तुम्हें अपना नाम बागीसिंह बताया...उसका असली नाम बलदेवसिंह था । यह बलवदेसिंह यहां के राजा दलीपसिंह का ऐयार है । यह स्थान, जहां हम इस समय खड़े हैं, बलदेवसिंह का ही है और इस समय तुम बलदेवसिंह की कैद में हो। बलदेवसिंह तुम्हें दलीपसिंह के दरबार में ले जाना चाहेगा।" - "यह तो वह मुझसे भी कह चुका है।" अलफांसे ने कहा — "उसने कहा कि यहाँ दलीपसिंह मेरा सबसे बड़ा दोस्त है । "


— "हम जानते हैं कि बलदेवसिंह ने तुम्हें एक झूठी कहानी सुनाई है।” गुरुवचनसिंह बोले—‘‘यह कहानी उसने तुम्हें जंगल के बीच बनी उस हवेली में सुनाई थी, जहां उसने तीन सैनिकों को एक मिट्टी का बना हुआ बन्दर दिखाकर बेहोश कर दिया था। उसने तुमसे कहा कि-


गुरुवचनसिंह ने यहां जो भी कुछ कहा है, पहले भाग के बयानों में लिखा जा चुका है। हम व्यर्थ ही उसे यहां लिखना नहीं चाहते, जो महाशय गुरुवचनसिंह की बातों का पूरा लुत्फ लेना चाहें वे पहले भाग के पेज पुनः पढ़ जाएं। 


- "हां !" गुरुवचनसिंह की पूरी बात सुनने के उपरांत अलफांसे बोला – "उसने मुझसे यही सबकुछ कहा था । 


"और तुमने विश्वास कर लिया।" गुरु वचनसिंह  बोले – "तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि उसका एक-एक शब्द झूठ है। अपनी कहानी में उसने जिसको तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन कहा, यानी देवसिंह,. वह तुम्हारा अपना भाई है। देवसिंह की सन्तान यानी गौरवसिंह और वंदना तुम्हारे दुश्मन नहीं, बल्कि वे तुम्हारे भतीजे और भतीजी है। वे दोनों तुम्हारे भाई देवसिंह की सन्तान हैं। जिसको उसने तुम्हारा सबसे बड़ा हमदर्द बताया है —–— यानी दलीपसिंह, वह तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है और हमारे खून का प्यासा है। बलदेवसिंह तुम्हें बहुत बड़े खतरे में फंसाना चाहता था। अगर वह तुम्हें अभी तक दलीपसिंह के दरबार में ले जाता तो तुम किसी भी तरह जीवित नहीं बचते। यह तुम्हारा भाग्य है कि तुम अभी तक जीते हो ।”


उनकी बातें सुनकर अलफांसे विचित्र ढंग से मुस्कराया और बोला – "मुझे लगता है कि उससे अधिक धोखेबाज आप हैं। सबसे पहली बात तो ये है कि मेरा कोई भाई भी नहीं है। मैं देवसिंह नाम के किसी आदमी को जानता भी नहीं फिर वह मेरा भाई कैसे हो सकता है ?"


— “ मैं तुम्हारे इस जन्म की बात नहीं कर रहा हूं।" गुरुवचनसिंह ने कहा । 


“क्या ?" अलफांसे के मस्तिष्क में एक जोरदार धमाका - सा हुआ—‘‘पूर्वजन्म !” 


—"हां बेटे !" गुरुवचनसिंह बोला – “ये तुम्हारे पूर्वजन्म की बात है, उस समय तुम्हारा नाम अलफांसे नहीं, बल्कि शेरसिंह था। देवसिंह तुमसे बड़ा भाई था। यह किस्सा आज से लगभग साठ वर्ष पहले का है। उस समय यहां सुरेंद्रसिंह नामक एक राजा था। तुम यानी शेरसिंह उसी राजा सुरेंद्रसिंह के सबसे बड़े ऐयार थे। तुम्हारा एक बड़ा भाई था, देवसिंह । तुम्हारा बड़ा भाई एक विचित्र चित्रकार था। हालांकि यह किस्सा काफी लम्बा है, किन्तु इस समय उस किस्से को मुख्तसर में बयान करने का मेरे पास समय नहीं है। तुम्हें केवल इतना ही बता सकता हूं कि सुरेंद्रसिंह की लड़की कांता और तुम्हारे बड़े भाई देवसिंह में प्रेम हो  गया था और वह प्रेम ही तुम्हारी और सुरेंद्रसिंह की दुश्मनी का मुख्य कारण बनी। सुरेंद्रसिंह किसी भी कीमत पर देव और कांता का विवाह, करने के लिए तैयार नहीं थे। तुमने अपने भाई का साथ दिया था जीत-हार के अनेक पारो पलटे और अन्त में ये हुआ कि कांता को एक तिलिस्म में कैद कर लिया गया। सुरेंद्रसिंह के ऐयार एक स्थान पर तुम्हें घेरकर पहले ही मार चुके थे। मैं यानी गुरु वचनसिंह तुम्हारा राज ज्योतिषी था । तुम्हारी मृत्यु होते ही मैंने भविष्यवाणी कर दी थी कि यही शेरसिंह प्रभा और जेम्स गारनर का पुत्र अलफांसे बनेगा और चालीस वर्ष की आयु में प्रकृति इसे किसी भी ढंग से इस टापू पर भेजेगी और उसी दिन हमारे भाग्य उदय होंगे।"


गुरुवचनसिंह द्वारा कहा गया एक-एक शब्द ऐसा विचित्र या कि अलफांसे की समस्त नसें हिल उठीं। उसे गुरुवचनसिंह की बातें बेसिर-पैर की लग रही थीं। वह अजीब ढंग से मुस्कराया और बोला- "अगर आप ठीक कह रहे हैं तो मैं आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि या तो आपके द्वारा की गई वह भविष्यवाणी झूठी हो गई है, जो आपने शेरसिंह की मृत्यु पर की थी अथवा मैं वह अलफांसे नहीं हूं, जिसकी आपको तलाश है। 


—"हम समझे नहीं कि तुम क्या कहना चाहते हो ?" गुरुवचनसिंह ने कहा ।


-“मैं समझ चुका हूं कि बागीसिंह (बलदेवसिंह) भी मुझे धोखा दे रहा था, आप भी धोखा दे रहे हैं।" अलफांसे ने कहा—"क्योंकि मैं आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मेरे माता-पिता का नाम प्रभा और जेम्स नहीं था बल्कि मां का नाम ईला और पिता का नाम जोहन हैरिसन था।"


"बहुत अच्छे !" एकदम खुशी से उछल पड़े गुरुवचनसिंह — "अब मुझे कोई शक नहीं रह गया कि तुम वही अलफांसे हो, जिसकी हमें तलाश थी। निश्चित रूप से तुम शेरसिंह का पूर्वजन्म हो। अभी तक मुझे शक था, मगर अब विश्वास हो गया है कि तुम ही शेरसिंह हो ।"


कई क्षण तक तो आश्चर्य में डूबा अलफांसे बूढ़े गुरुवचनसिंह को देखता ही रहा, फिर बोला— "आप मुझे अधिक मूर्ख नहीं बना सकते। आप मेरे माता-पिता का नाम प्रभा और जेम्स बता रहे थे और जब मैंने आपकी भविष्यवाणी को गलत साबित किया तो आप बड़ा खूबसूरत अभिनय करके बात बदल रहे हैं। मैं आपके धोखे में भी नहीं आऊंगा, आप मुझे किसी गहरे जाल में उलझाना चाहते हैं।" 


- "नहीं, बेटे नहीं !" अपनी खुशी पर काबू पाने का प्रयास करते हुए बोले गुरुवचनसिंह—“यकीन मानो, हम तुमसे कोई भी बात झूठी नहीं कहेंगे। आज हम तुम्हें तुम्हारे जीवन का ऐसा रहस्य बताएंगे, जिसे आज तक तुम भी नहीं जानते होंगे। तुम ये भी नहीं जानते होंगे कि तुम्हारा नाम अलफांसे ही क्यों पड़ा ? तुम्हारा नान अलफांसे ही रखा गया, इसके पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य है। सुनो मैं तुम्हें तुम्हारे पैदा होने की कहानी सुनाता हूं। अगर तुम बीच में बोले नहीं, सबकुछ सुनते जाओगे तो तुम्हें हमारी बात पर विश्वास आ जाएगा। आज हम तुम्हें तुम्हारे पैदा होने की वे प्रारम्भिक घटनाएं बताएंगे, जिनसे तुम स्वयं भी अनभिज्ञ हो, सुनो... तुम्हारे असली पिता का नाम जेम्स गारनर ही है। जेम्स अंग्रेज सेना के लेफ्टीनेंट पद पर नियुक्त हुआ था। उसकी नियुक्ति झांसी में हुई थी, इंग्लैंड में जेम्स गारनर के परिवार की बेहद प्रतिष्ठा थी। उसे एक भारतीय लड़की प्रभा से प्रेम हो गया । प्रभा एक मालिन थी । जेम्स गारनर प्रभा से शादी करना चाहता था । गारनर की यह घोषणा पूरे गोरे समाज में एक विस्फोट के समान बन गई। उसके मित्रों ने उसे बहुत समझाया, किन्तु वह नहीं माना और एक भारतीय पादरी की मदद से उसने चर्च में प्रभा से शादी कर ली । जेम्स गारनर प्रभा से असीमित प्रेम करता था। मई अड़तालीस में प्रभा ने एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु इसे जेम्स गारनर का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस प्रसव के तुरन्त बाद ही प्रभा मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस घटना से जेम्स गारनर के दिमाग में यह बात घर कर गई कि उसका नवजात शिशु ही अभाग्यशाली है । जेम्स प्रभा से इतना प्यार करता था कि वह अपने पुत्र को ही प्रभा की मौत का कारण समझने लगा और इस नवजात शिशु से जेम्स को घृणा होने लगी। उसने अपने पुत्र का मुंह तक नहीं देखा और यह बच्चा उसने अपने चाचा और चाची को सौंपा। क्योंकि उसका चाचा पचास की आयु होने के उपरान्त भी निःसंतान था – अतः जेम्स और प्रभा के बच्चे को उसके चाचा-चाची ने पाला । जेम्स के चाचा और चाची का नाम जोहन हैरिस और ईला था। जिन्हें अब तुम अपने माता-पिता समझते हो। तुम्हारा असली पिता जेम्स द्वितीय महायुद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से लड़ता हुआ एशिया के एक जंगल में मारा गया । अब ईला और जोहन हैरिस ने निश्चय किया के वे बच्चे को कभी नहीं बताएंगे कि वह उनका बच्चा नहीं है। बच्चे का नाम ईला ने गारनर परिवार से सम्बन्धित इसलिए नहीं रखा, क्योंकि उसे डर था कि बच्चा बड़ा होने पर समझ जाएगा कि वह उनका नहीं, बल्कि गारनर खानदान का चिराग है । ईला ने इस बच्चे का नाम अलफांसे रखा और आज तुम वही अलफांसे हो, तुम सोच भी नहीं सकते कि तुम गारनर परिवार से सम्बन्धित हो । "


अलफांसे इस अजीब कहानी को बड़े ध्यान से सुनता रहा। अलफांसे निश्चय नहीं कर पाया कि यह कहानी सच्ची है अथवा उसे खूबसूरत ढंग से बेवकूफ बनाया जा रहा है, गुरुवचनसिंह के चुप होने पर अलफांसे बोला— “लेकिन आपको यह सब कैसे पता ?"


- " हमें यह उसी दिन से पता है, जब शेरसिंह के रूप में तुम्हारी मृत्यु हुई । ” गुरुवचनसिंह ने बताया – “अगर तुम्हें विश्वास न हो तो हमारे साथ आओ, हम तुम्हें अपने हाथ द्वारा लिखा हुआ दिखाएंगे । आज से लगभग चालीस वर्ष पूर्व ही हमने यह सब अपने ग्रन्थ में लिख दिया था। हमारा ज्ञान बता रहा था कि यही सबकुछ होगा और आज हमारी भविष्यवाणी की सत्यता हमारे सामने है । "


— " तो आप अपने ज्ञान के आधार पर मेरे अलफांसे वाले जीवन की कोई ऐसी घटना बताइए, जो मुझे भी याद हो !” अलफांसे ने कहा—"संभव है कि आप सही बता दें और मुझे आपकी बातों पर विश्वास हो जाए। क्योंकि अभी तक आपने मुझे जो भी कुछ बताया है, उसके बारे में स्वयं मुझे कोई जानकारी नहीं है । ""


-"हम अपने ज्ञान के आधार पर कह सकते हैं कि तुम्हारे जीवन में आर्थर नामक एक आदमी आया होगा, जो तुम्हें बहादुरी के कारनामे सिखाता होगा और इस मामले में वही तुम्हारा गुरु भी होगा। तुम्हें उस समय की घटना याद होगी, जब तुम सात साल के थे । तुम एक बार सांप पकड़कर लाए होंगे । जोहन हैरिस को वोंगो नामक एक आदिवासी सरदार ने कत्ल कर दिया होगा । उसी रात तुम अपने घोड़े 'ब्लैक स्टोन' पर सवार होकर वोंगो का खून कर आए होंगे। इसके बाद तुम्हारे जीवन में साइमन नामक एक टीचर आया होगा, उसने तुम्हें आठ वर्ष के अन्दर बॉक्सिंग का गुरु बना दिया होगा। अखबारों ने तुम्हें बेबी टाइगर का उपनाम दिया होगा।"


–“बस–बस...!" आश्चर्य में डूबा अलफांसे एकदम बोला – “मुझे सबकुछ याद है... तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सबकुछ ठीक है।' 


-“मैं तुम्हें एक ऐसे स्थान पर ले जाना चाहता हूं, जहां तुम्हें अपने पूर्वजन्म, यानी उस समय की याद आ जाएगी जब तुम शेरसिंह थे।” गुरुवचनसिंह भी खुश होता हुआ बोला— “उस अनूठे स्थान पर आ जाएगी।


पहुंचते ही तुम्हें पूर्वजन्म की याद अलफांसे का दिमाग बड़ी तेजी से घूम रहा था । जैसी परिस्थितियों में वह आज फंसा था, ऐसी परिस्थिति उसके जीवन में पहले कभी नहीं आई थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि गुरुवचन की बातों पर विश्वास करे अथवा नहीं । गुरुवचन की बातें सत्य थीं, यह वह जानता था । किन्तु फिर भी वह किसी प्रकार का निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या करे ? अपने मस्तिष्क का खोया सन्तुलन समेटकर वह बोला—“क्या आप ज्योतिष-ज्ञान के आधार पर बता सकते हैं कि मेरे पूर्वजन्म का बड़ा भाई यानी देवसिंह इस समय कहां है ?"


- "तुम्हारे बाद कांता को एक तिलिस्म में कैद कर लिया गया था।" गुरुवचनसिंह ने कहा – “तुम्हारा भाई देवसिंह उसे तिलिस्म से मुक्त कराने के प्रयास में मारा गया । मगर हम जानते हैं कि... उसी देवसिंह का पुनर्जन्म विजय के रूप में हुआ है।"


–“क्या ?” बुरी तरह उछल पड़ा अलफांसे—“विजय मेरे पूर्वजन्म का भाई देवसिंह !" 


-"हां बेटे !" गुरुवचनसिंह ने कहा – "विजय ही पूर्वजन्म का देवसिंह है और तुम पूर्व जन्म के शेरसिंह हो। तुम दोनों उस जन्म में भाई थे और वह तिलिस्म, जिसमें तुम्हारे पूर्वजन्म की भाभी और विजय यानी देवसिंह की पत्ना कांता कैद है, उस तिलिस्म को केवल तुम दोनों भाई ही मिलकर खोल सकते हो। विधाता ने तुम्हारे भाग्य में पहले ही लिख दिया था कि जब तुम दोनों विजय और अलफांसे के रूप में चालीस-चालीस वर्ष के हो जाओगे तो तुम स्वयं आकर वह तिलिस्म तोड़ोगे। विधाता ने यह भी लिख दिया है कि चालीस वर्ष की आयु में तुम दोनों को अपने पूर्वजन्म का स्वप्न चमका होगा। किन्तु अभी अड़तीस साल के हो, अतः वह स्वप्न दो साल बाद ही चमकेगा। किन्तु मैं तुम्हें एक ऐसे अनूठे स्थान पर ले जा सकता हूं...जहां जाते ही तुम्हें अपने पूर्व जन्म की याद ताजा हो उठेगी। अगर तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास हो बेटे तो जल्दी से मेरे साथ चलो... मैं तुम्हें तुम्हारा पूर्व जन्म दिखाता हूं।"


अलफांसे की बुद्धि बुरी तरह चकरा रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि जो कुछ उसके सामने आ रहा है... वह गलत है अथवा ठीक ।


अलफांसे के मस्तिष्क की एक नस कहती थी कि जो कुछ गुरुवचनसिंह कह रहे हैं, वह ठीक है, किन्तु दूसरी नस कहती थी कि यह किसी सुलझे हुए दिमाग द्वारा बिछाया गया एक खूबसूरत जाल है ——जिसमें वह फंसता जा रहा है ।

ग्यारहवां बयान


आज हमें मायादेवी के साथ-साथ उस आदमी की याद बहुत सता रही है, जिसने एक स्थान पर छुपकर मायादेवी की सारी हरकतें देखी थीं। यानी जब मायादेवी ने गुरुवचनसिंह के भेष में गौरवसिंह बने गणेशदत्त को धोखा दिया, माधोसिंह के कान में कुछ कहकर उसे वहां से विदा किया और स्वयं अपने वास्तविक रूप में उस खण्डहर की ओर चल दी, जहां गुलबदन ने असली बलवंत को कैद कर लिया था। इस समय हम मायादेवी पर इतना ध्यान नहीं देते, जितना कि उस आदमी पर देते हैं, जो उस स्थान पर छुपकर मायादेवी की सारी हरकतें देख रहा था। 


उस जैसे ही माधोसिंह को विदा करके मायादेवी एक तरफ को बढ़ीं, आदमी ने अन्दाजा लगा लिया कि वह कहां जाएगी, माया के दूर जाने पर वह एक चट्टान के पीछे से निकला, हम नहीं कह सकते कि वह आदमी कौन है, क्योंकि उसका पूरा जिस्म और चेहरा काले नकाब से ढका हुआ है। मायादेवी का पीछा छोड़कर वह एक अन्य रास्ते पर तेज कदमों के साथ बढ़ गया। उसकी चाल में ऐसी तेजी थी, मानो वह अपना लक्ष्य निर्धारित कर चुका हो । वह ऐसे रास्ते से आगे बढ़ा था कि मायादेवी से पहले उस खण्डहर में पहुंच गया था, जहां बलवंत कैद था। हम इस स्थान की भौगोलिक स्थिति पाठकों को पहले ही समझा आए हैं, अतः व्यर्थ ही समय बर्बाद न करके हम केवल यह लिखते हैं कि कमन्द लगाकर वह उस कोठरी की छत पर पहुंचा और छत के दाहिने कोने में खड़ी लोहे की गुड़िया को घुमाकर रास्ता बनाया —– उसने नीचे झांककर देखा— नीचे कोई चिराग जल रहा था, जिससे सबसे नीचे का सारा दृश्य स्पष्ट चमक रहा था। बलवंत उसी प्रकार कैद में पड़ा हुआ था । हम इस समय जिस नकाबपोश के साथ-साथ हैं, वह नीचे कूद गया ।


आहट सुनकर कैदी बलवंत ने गर्दन ऊपर उठाई और बोला — "कौन हो तुम ?" 


मगर नकाबपोश ने उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और उसे बेहोशी की बुकनी सुंघाकर बेहोश कर दिया। बटवे से कलम-दवात और कागज निकालकर जल्दी जल्दी उस पर कुछ लिखने लगा — पूरा कागज लिखकर उसने तह किया और वहीं डाल दिया, हम यहां केवल इतना ही लिख सकते हैं कि नकाबपोश ने पत्र के अन्त में अपना नाम लिखने के स्थान पर 'काला चोर' शब्द लिख दिया। उसने आराम से बलवंत की गठरी बांधी और कन्धे पर डालकर कोठरी में जलता हुआ चिराग बुझा दिया—खण्डहर में गठरी के साथ एक दूसरे स्थान पर छुपकर वह मायादेवी की राह देखने लगा । कुछ ही देर बाद वहां मायादेवी आई और उसने वहां क्या किया, पाठकों को यह भली प्रकार याद होगा – नकाबपोश द्वारा लिखा गया पत्र उसे कोठरी में मिल गया था । थोड़ी देर बाद निराश मायादेवी कोठरी से बाहर खण्डहर में आई। उसकी दृष्टि हमारे नकाबपोश पर नहीं पड़ी और वह खण्डहर से बाहर निकल गई। उसके जाते ही नकाबपोश ने जोर से जाफिल बजाई । एक साथ तीन नकाबपोश उसके पास आ गए।


"इसे ठिकाने पर ले जाओ।" गठरी उनकी ओर बढ़ाता काला चोर बोला – “सम्भालकर रखना, हम जरा इस दुष्टध को देखते हैं । " इस तरह – बलवंत को उन्हें सौंपकर काला चोर मायादेवी के पीछे लग गया। उसने मायादेवी की एक-एक हरकत नोट की। एक व्यापारी का भेष बनाकर उसके सामने ही मायादेवी दलीपसिंह के दरबार में पहुंची। वहां उसने दलीपसिंह के कान कैसे भरे, यह आप पहले भाग में पढ़ चुके हैं। आपको याद होगा कि अन्त में वहां एक नकाबपोश पहुंचा — वह यही काला चोर था ।


काले चोर का नाम सुनते ही मायादेवी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।


— "तुम कौन हो और हमारे दरबार में होने वाले कौन-से अनर्थ की बात करते हो ?” दलीपसिंह ने काले चोर को घूरते हुए कहा । 


-"हम बता चुके हैं कि हमारा नाम काला चोर है।" नकाबपोश बोला- “और दलीपसिंह के दरबार में अनर्थ ये हो रहा है कि दुश्मन के एक ऐयार के सिखाए में आकर महाराज अपने ऐयार बलवंतसिंह का चेहरा धुलवाने से पहले क्यों न इस व्यापारी का चेहरा धुलवाया जाए — जो अपना नाम बनारसीदास बताता है ?" - पहले हम ये जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो ?” दलीपसिंह ने कहा ।


-“अगर हमें ही जानना चाहते हो तो सुनो।” काला चोर बोला – "हम तुम्हारे ऐयार नजारासिंह हैं । " कहते हुए काले चोर ने अपना नकाब उतार दिया। दलीपसिंह के साथ-साथ सभी चौंक पड़े, क्योंकि वह वास्तव में दलीपसिंह का ऐयार नजारासिंह ही था । कोई कुछ बोल भी नहीं पाया था कि अचानक दरबार में बलवंतसिंह ने प्रवेश किया और बोला—‘‘ठहरिए महाराज ! "


सबने घूमकर देखा तो बलवंतसिंह को देखकर चौंक पड़े।


"तुम ?" चौंककर दलीपसिंह बोले – वे कभी नये आने वाले बलवंतसिंह को देखते तो कभी उस बलवंतसिंह को, जो पहले से ही दरबार में मौजूद था । अभी कोई कुछ निर्णय नहीं कर पाया था कि नया आने वाला बलवंतसिंह बोला— “मैं असली बलवंतसिंह हूं महाराज | " –“लेकिन...?"


-"यह समय बातों में खोने का नहीं है महाराज | " नया बलवंतसिंह बोला—‘"इस समय दरबार में काफी तगड़ी ऐयारी चल रही है। दरबार में पहले से मौजूद बलवंत, यह व्यापारी और खुद को नजारासिंह कहने वाला ये आदमी, सभी दुश्मन के ऐयार है। इन सबों को गिरफ्तार कर लिया जाए। ये सब अपने-अपने उद्देश्य से यहां दरबार में आए हैं। "

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