आठ बजने से कोई पांच मिनट पहले खूब सजा-धजा मैं ‘अब्बा’ पहुंचा।

‘अब्बा’ बहुत रंगीन जगह थी जिसकी आधी मालकिन और संचालक अभी पिछले महीने तक सिल्विया ग्रेको नाम की आधी ग्रीक आधी हिंदोस्तानी बला की हसीन महिला होती थी जो कि आपके खादिम की खास दोस्त थी । पिछले दिनों हालात कुछ ऐसे पैदा हो गये थे कि ‘अब्बा’ के साइलेंट पार्टनर नरेन्द्र कुमार ने और सिल्विया ने भी ‘अब्बा’ में अपना अपना हिस्सा जान पी. एलैग्जेंडर नामक एक लोकल गैंगस्टर को बेच दिया था जो कि अब ‘अब्बा’ का सोल प्रोपराइटर था । एलैग्जेंडर से मेरा कई बार टकराव हो चुका था लेकिन फिर भी वो मेरे पर मेहरबान था जिसकी वजह से मुझे वहां वैसे ही सब कुछ फ्री था जैसे सिल्विया की मिल्कियत के जमाने में होता था 

ठीक आठ बजे एक आटो पर सवार वैशाली वहां पहुंची 

अकेली ।

मैंने आगे बढकर उसे रिसीव किया ।

वो खूब सजधज कर आयी थी और अपनी शिफौन की महरून साड़ी में किसी फिल्म स्टार से कम नहीं लग रही थी ।

उसने मेरे से हाथ मिलाया और एक चमचम मुस्कराहट पेश की ।

“रजनी नहीं आयी ?” - मैं बोला ।

“नहीं आ सकी ।” - वो बोली - “मैं भी बहुत मुश्किल से आयी हूं । आपसे टेलीफोन पर सम्पर्क सम्भव होता तो अप्वायंटमेंट कैंसल ही करनी पड़ती ।”

“अरे ! ऐसा क्या हुआ ?”

“आप मोबाइल क्यों नहीं लेते ? आजकल तो हर किसी के पास है ।”

“अच्छा हुआ न कि मेरे पास न हुआ ।”

“जी !”

“वरना आपने अप्वायंटमेंट कैंसल कर दी होती ।”

“वो तो है । आपको खबर करना मुमकिन न हुआ, तभी तो आना पड़ा।”

“लेकिन हुआ क्या ?”

“मेरा बॉस वापिस आ गया । एकाएक बिना खबर किये आज शाम वापिस आ गया । उसके आ जाने पर तो मुझे कोठी में रजनी के साथ की जरुरत नहीं थी इसलिये वो ऑफिस से मेरे पास नहीं पहुंची थी जैसे कि रोज पहुंचती थी । वो तो क्योंकि मेरे पास ही होती तो आ सकती थी इसलिये...”

“आई अन्डरस्टैण्ड । आपकी क्या प्रॉब्लम थी ? दासानी आते ही गिरफ्तार कर लेता है ?”

“नहीं । उल्टे आजाद कर देता है ।”

“तो ?”

“वो क्या है कि...”

“क्या है ?”

“वो क्या है कि... आप बुरा मान जायेंगे ।”

“अरे नहीं ।”

“वादा करते हैं कि बुरा नहीं मानेंगे ?”

“हां ।”

“मैंने आपका इनवीटेशन ये सोच के कबूल किया था कि रजनी साथ होगी । उसका साथ आना नामुमकिन हो गया तो... तो...”

“ओह ! यानी कि मैं हौवा हूं, जिससे आपको अकेले मिलने से डर लगता है ?”

“ओह, नो । नैवर ।”

“तो ?”

“रात के वक्त मुझे किसी से भी अकेले मिलने से डर लगता है, भले ही वो हौवा हो या न हो ।”

“आई सी । फिर तो एक बात तो कहनी पड़ेगी ।”

“क्या ?”

“असली बहन हैं आप रजनी की ।”

वो हंसी ।

“अब क्या इरादा है ? उल्टे पांव लौट जायेंगी या...”

“अब जब आ ही गयी हूं तो रुकूंगी । मिस्टर कोहली, मैं दस बजे तक रुक सकती हूं ।”

“दैट्स ग्रेट न्यूज ।”

“दैट इज इफ यू बिहेव ।”

“क्या मतलब ?”

“मतलब आपको मालूम है । मैं आपसे मिली अब हूं लेकिन आप की बाबत बातें बहुत सुन चुकी हूं रजनी से ।”

“इसे कहते हैं बद भला बदनाम बुरा ।”

वो हंसी ।

“तो भीतर चलें ?”

उसने सहमति से गर्दन हिलाई 

मैंने उसकी तरफ अपनी कोहनी की ती उसने मेरी उस बांह में अपनी बांह पिरो दी । हम दोनों भीतर दाखिल हुए ।

‘अब्बा’ का मौजूदा मैनेजर थामस जो कि एलैग्जेंडर का भरोसे का आदमी था, मुझे देखते ही लपककर मेरे पास पहुंचा । अपने शानदार काले सूट और बो-टाई में वो खूब जंच रहा था ।

“वैलकम, मिस्टर कोहली ।” - वो हमारे सामने सिर नवाता बोला - “वैलकम, मैडम ।”

“थैंक्यू । दो जनों के लिये टेबल, थामस । मुमकिन होगा ?”

“मिस्टर कोहली, आपके लिये यहां सब मुमकिन है ।”

“थैंक्यू । आई एम ग्लैड ।”

वो खुद हमें बैंड स्टैण्ड के करीब की एक टेबल पर छोड़कर गया । फिर उसके इशारे पर एक स्टीवार्ड हमारे पास पहुंचा ।

“ड्रिंक्स, सर ?” - वो बोला ।

मैंने वैशाली की तरफ देखा 

“सिर्फ साफ्ट ड्रिंक ।” - वो धीरे से बोली - “पैप्सी विल डू ।”

“ड्रिंक सिर्फ मेरे लिये ।” - मैं बोला - “मैडम के लिये पैप्सी ।”

“यस, सर ।”

“कोई छोटा मोटा नॉनवैज ?” - मैंने वैशाली से पूछा 

“चलेगा ।” - वो बोली 

“फिश फिंगर्स विद चिप्स ।” - मैंने आर्डर किया ।

स्टीवार्ड सिर नवाकर चला गया 

दो मिनट में एक वेटर हमें ड्रिंक्स सर्व कर गया 

हमने चियर्स बोला ।

“कल बात क्या थी ?” - फिर वैशाली उत्सुक भाव से बोली - “क्यों आप ट्रांसपोर्ट कम्पनी के गोदाम में चोरों की तरह घुसे थे ?”

“वो एक लम्बी कहानी है ।” - मैं बोला ।

“तो क्या हुआ ? अभी हम बहुत देर यहां हैं ।”

“सच में जानना चाहती हो ?”

“हूं । रजनी ने कुछ नहीं बताया “

“वो क्या बताती ? उसे खुद ही कुछ नहीं मालूम था ।”

“कुछ तो मालूम था ।”

“बस इतना मालूम था, जो कि उसने मुझे बताया था, कि आपकी डिटेक्टिव एजेन्सी से ताल्लुक रखते किसी शख्स का कत्ल हो गया था और आप बड़ी शि‍द्दत से उसके कातिल की तलाश में थे ।”

“यही बात है ।”

“मिला कातिल ?”

“अभी नहीं लेकिन कोशि‍श जारी है ।”

“गोदाम में क्या हुआ ?”

“वैशाली, गोदाम की जो कहानी है उसका तुम्हारी मौजूदा एम्पलायमेंट से भी रिश्ता है ।”

“अच्छा !”

“बहुत मुमकिन है कि आइन्दा दिनों में तुम्हें कोई नयी नौकरी तलाश करनी पड़े ।”

“अरे ! ऐसा क्या हो गया है ?”

“कुछ हो गया है । कुछ होने वाला है ।”

“क्या होने वाला है ।”

“तुम्हारा एम्पलायर जेल जाने वाला है ।”

“ओह, माई गॉड !”

तभी वेटर आया और फिश एण्ड चिप्स सर्व कर गया 

“और हो क्या गया है ?” - वो उत्कण्ठापूर्ण स्वर में बोली ।

मैंने संक्षेप में पिछली रात के वाकयात बयान किये ।

केवल ये उसे मैंने न बताया कि मैंने शाफ्ट कहां छुपाया था ! उस बात की जानकारी किसी के लिये भी खतरनाक साबित हो सकती थी ।

“ओह माई गॉड !” - आखि‍र में मैं खामोश हुआ तो वो बोली - “आप का कारोबार तो बहुत खतरनाक है, मिस्टर कोहली !”

मैं मुस्कराया ।

“आपको डर नहीं लगता ?”

“लगता है लेकिन क्या करें ! रोजी रोटी तो कमानी ही पड़ती है ।”

“आप कोई और धन्धा अख्तियार क्यों नहीं करते ?”

“क्योंकि मुझे यही धन्धा पसन्द है ।”

“बावजूद इसके कि इसमें हर वक्त जान का खतरा बना करता है ?”

“हर वक्त नहीं ।”

“फिर भी ।”

“डर के जिन्दगी नहीं चलती, मैडम । खतरों से डरने वाले इंसान के लिये ता कदम-कदम पर खतरे हैं । दिल्ली शहर में जिन्दगी का क्या भरोसा है ! आदमी बाथरूम में साबुन से फिसल कर गर्दन तुड़ा बैठता है, एक मामूली खरोंच जानलेवा टिटनेस बन जाती है, बस कुचल जाती है, इमारत सिर पर आ गिरती है, डाकू घर में घुस के मार जाते हैं, कभी डेंगू तो कभी टाइफायड तो कभी मलेरिया धमका जाता है, ऊपर से आजकल एटामिक वार की धमकी तो है ही ।”

“आप ठीक कह रहे हैं ।”

तभी बैंड डांस म्यूजिक बजने लगा ।

“कभी डांस किया ?” - मैं बोला ।

“किया तो नहीं” - वो सकुचाती सी बोली - “लेकिन मन बहुत करता है ।”

“मैडम, मन की तो माननी चाहिये । तभी तो मनमानी होती है ।” - मैं उठकर खड़ा हुआ और उसकी तरफ हाथ बढाता हुआ बोला - “आइये ।”

झिझकती सी वो उठी । मैं उसे डांस फ्लोर पर ले आया जहां कि मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया । हम और जोड़ों के साथ डांस की लय पर थि‍रकने लगे ।

पांच मिनट वो सिलसिला चला 

फिर बैंड बजना बन्द हुआ । सबने तालिया बजायीं । मैं वैशाली के साथ अपनी टेबल की तरफ लौटा ।

तब मुझे पीपट दिखाई दिया 

वो डांस फ्लोर से काफी परे की टेबल पर बैठा हुआ था और जिस औरत से वो बतिया रहा था, मैंने उसे भी तत्काल पहचाना । मैंने उसे बडे़ असहिष्णुतापूर्ण माहौल में एक ही बार देखा था लेकिन फिर भी साफ पहचाना ।

कैसे न पहचानता ! आखि‍र मैंने उससे - एक औरत से - झांपड़ खाया था जो कि मेरे लिये डूब मरने का मुकाम था ।

वो वो औरत थी, पहाड़गंज में संतोख सिंह के हाथों लुटने या मरने से बचाये जाने के बाद जिसने किसी नामालूम इमारत में मेरे से जवाबतलबी की थी । वो तब भी टखनों तक आने वाला गाउन पहने थी अलबत्ता रंग महरून की जगह नीला था ।

वो दोनों बातों में इतने मग्न थे कि उनमें से किसी ने सिर उठाकर मेरी दिशा में नहीं देखा था 

मैंने तत्काल उधर से पीठ फेर ली ।

कैसी अजीब बात थी कि जो आदमी दिल्ली शहर में छुट्टा घूम रहा था, वो जयपुरिया एण्ड कम्पनी को ढूंढे नहीं मिल रहा था ।

हम दोनों वापिस अपनी टेबल पर आ बैंठे ।

उस बार मैं जानबूझकर यूं बैठा कि पीपट की टेबल की तरफ मेरी पीठ हो गयी ।

“क्या बात है ?” - वैशाली संशक भाव से बोली 

“कोई खास बात नहीं ।” - मैं दबे स्वर में बोला - “जरा मेरे पीछे देखो । हमारे से चौथी टेबल पर ।”

“क्या है वहां ?”

“उस आदमी को देखो जो नीले गाउन वाली विलायती मेम जैसी लगने वाली औरत के साथ बैठा है । देखा ?”

“हां ।”

“उसे पहचानती हो ?”

“किसे ? आदमी को या औरत को ?”

“मेरा सवाल तो आदमी की बाबत ही था लेकिन अब समझ लो कि उसमें औरत भी शामिल है ।”

“औरत को पहचानती हूं । बल्कि खूब जानती हूं ।”

“अच्छा ! कौन है ये ?”

“नताशा नाम है इसका । अभी कोई दो महीने पहले तक मेरे बॉस मिस्टर दासानी से इसके गहरे ताल्लुकात थे ।”

“कैसे ताल्लुकात ?”

“कहना मुहाल है । कभी लगता था महज एम्प्लाई थी, कभी लगता था दोस्ती थी, कभी लगता था कि उनके सिर पर सवार थी ।”

“बहरहाल करीबी तो थी ये नताशा दासानी की !”

“करीबी तो बराबर थी । खुद मेरे पर ही ऐसे हुक्म दनदनाती थी जैसे मेरी मालकिन हो ।”

“दासानी की गैरहाजिरी में ?”

“उसके सामने भी ।”

“वो एतराज नहीं करता था ?”

“न । इग्नोर करता था ऐसी बातों को । ऐसा कुछ होता था तो मुंह फेर लेता था । जाहिर करता था कि उसे नहीं पता चला था कि क्या हुआ था ।”

“तुम्हें बुरा नहीं लगता था ?”

“बहुत बुरा लगता था । लेकिन ऐसा कभी कभार ही होता था इसलिये बर्दाश्त कर लेती थी ?”

“कभी कभार क्यों होता था ?”

“क्योंकि वो हैडग्वार मार्ग वाली कोठी पर कभी कभार ही आती थी । वहां के अलावा और कहीं मेरा उससे आमना-सामना होने का इत्तफाक नहीं के बराबर होता था ।”

“ओह ! दासानी पर हावी तो नहीं थी ये औरत ?”

“हावी कैसे होते हैं ?”

“भई, कोई तू डोर मैं पतंग, तू दिया मैं बाती, तू फूल मैं खुशबू जैसे ताल्लुकात तो नहीं थे इस नताशा के और तुम्हारे एम्पलायर के ?”

“शायद हों । दरअसल इस तरफ मैंने कभी ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी ।”

“मैं बात को और तरीके से कहता हूं । क्या ये औरत दासानी के इतने करीब थी कि उसके तमाम राज, तमाम इन एण्ड आउट जानने की पोजीशन में हो ?”

“क्यों पूछते हो ?”

“ये औरत आजकल जिन लोगों की संगत में हैं उन्हें जयपुरिया-दासानी जुगलबन्दी के मुखालिफ ही कहा जा सकता है, इसलिये ।”

“ओह !” - वो कुछ क्षण खामोश रही और फिर बोली - “हां, ऐसा हो सकता है । ये औरत मेरे बॉस की लंका का विभीषण हो सकती है ।”

“वैरी वैल सैड । ताल्लुकात खत्म कैसे हुए ? अलहदगी क्योंकर हुई ?”

“मालूम नहीं । लेकिन मेरा ख्याल है कि उस औरत को ही मिस्टर दासानी से कोई रंजिश हो गई थी ।”

“इस ख्याल की वजह ?”

“एक दो बार मैंने दोनों में तकरार होती सुनी थी जिसमें शिकवे शिकायत का बाजार मैंने नताशा की तरफ से ही गर्म पाया था ।”

“आई सी । अब ये नताशा दासानी के टच में नहीं है ?”

“मेरे ख्याल से तो नहीं है । है तो मुझे खबर नहीं ।”

“हूं । अब उस आदमी पर आओ जिसके ये साथ बैठी है ।”

“मैं उसे नहीं पहचानती ।”

“जैसे नताशा को देखा, वैसे कभी इसे अपने एम्पलायर की सोहबत में नहीं देखा ?”

“न । कौन है ये ?”

“इसका नाम हरमेश पीपट है ।”

“पीपट ! वो आदमी जिसका अभी तुमने जिक्र किया था ! जो तुम्हारे पीछे पड़ा है ! जो क्या तुम्हारा घर, क्या तुम्हारा ऑफिस कहीं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता !'

“वही । इसीलिये मुझे लगता है कि ये यहां भी मेरे ही पीछे है ।”

“उसे क्या मालूम कि तुम यहां आने वाले थे ।”

“मालूम तो नहीं हो सकता था लेकिन...”

“तुम्हें वहम हो रहा है । जरूर इसकी यहां मौजूदगी महज इत्तफाक है ।”

“उसने अपना कोई आदमी मेरी निगरानी पर लगाया हो सकता है । मुझे सावधान रहना चाहिये था ।”

“मिस्टर कोहली, इस, भरे पूरे रेस्टोरेंट में ये तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा ?”

“वो तो है । लेकिन इसकी मनहूस सूरत यहां दिखाई देने से मुझे लग रहा है जैसे कोई अपशगुन हो गया हो ।”

“खामख्वाह बेचारे को बदनाम कर रहे हो । उसने तो हमारी दिशा में झांका तक नहीं ।” - वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “लेकिन...”

“क्या लेकिन ?”

“कोई और झांक रहा है ।”

“कौन ?”

“जो अभी यहां पहुंचा है । दरवाजे की तरफ देखो ।”

मैंने गर्दन घुमा कर 'अब्बा' के प्रवेश द्वार की ओर निगाह दौड़ाई ।

वहां गुड़िया सी सजी धजी लैला खड़ी थी ।

उसके साथ जो युवक था, वो भी सूट बूट में उसी की तरह सजा धजा था ।

“वो लड़की” - वैशाली बोली - “तुम्हें यूं देख रही है जैसे उसे तुम्हारे मेरे साथ बैठे होने से एतराज हो ।”

“ऐसा कैसे हो सकता है ? वो कौन होती है एतराज करने वाली ?”

“लगता है जानते हो उसे !'

“हां । क्लायंट है ।”

“ये लड़की ?”

“इसका बाप । बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी । इसका नाम लैला अल रशीदी है ।”

“सुन्दर है । इधर ही आ रही है ।”

वो करीब पहुंचे तो मैं उठ कर खड़ा हो गया 

अभिवादनों का और परिचय का आदान प्रदान हुआ ।

युवक का नाम लैला ने बोनो बताया ।

लैला उस पर यूं हावी मालूम होती थी जैसे वो उसका पालतू कुत्ता हो ।

मेरे निमन्त्रण पर वो वहीं हमारी टेबल पर बैठ गये 

ये बात वैशाली को साफ-साफ नापसन्द आयी लेकिन मुहं से वो कुछ न बोली ।

मैंने ड्रिंक्स का आर्डर दिया 

“तो” - फिर मैं लैला से सम्बोधित हुआ - “ये हैं बाशा के फ्रेंड के साहबजादे ?”

“हां ।” - लैला बोली 

“बोनो इनका प्यार का नाम होगा ?”

“नहीं । नाम ही बोनो है । गोवानी हैं ये ।”

“क्या हसीन गोवानी हैं ! ऐन 'टाइटेनिक' के हीरो जैसे लगते हैं ।”

बोनो सकपकाया ।

“गोवा पर विदेशी असर जगविदित है ।” - लैला लापरवाही से बोली - “आखिर को कभी पुर्तगाल का हिस्सा था ।”

“यू आर राइट ।” - फिर मैं युवक की ओर घूमा - “जनाब, आपका नाम शाहरुख खान होता तो कैसा रहता ?”

“अच्छा रहता ।” - उसने भी लैला जैसी लापरवाही दर्शायी - “नाम में क्या रखा है !”

तभी वेटर ड्रिंक्स सर्व कर गया ।

सबने चियर्स बोला ।

“मैं घर जाना चाहती हूं ।” - वैशाली मेरे कान में बोली ।

“ये अभी टल जायेंगे ।” - मैं भी उसके कान के पास मुंह ले जाकर बोला ।

“मैं फिर भी घर जाना चाहती हूं ।”

“क्यों ?”

“मेरा मन नहीं लग रहा । एकाएक कुछ अच्छा नहीं लग रहा ।”

“अभी अच्छा लगने लगेगा । ये अभी चले जायेंगे ।”

“फिर भी...”

“थोड़ी देर रुको । प्लीज ।”

“लेकिन...”

“मैं तुम्हें घर छोड़ के आऊंगा ।”

“उसकी जरुरत नहीं । मैं जैसे आयी थी, वैसे चली जाऊंगी ।”

“अरे, मेरा भी तो कोई फर्ज है ।”

“लेकिन...”

“भई, ये क्या खुसर-पुसर हो रही है ?” - लैला बोली ।

तत्काल हम दोनों सीधे होकर बैठे - “कुछ नहीं । यूं ही जरा...”

“ऐसा कोई यूं ही जरा इधर भी तो पेश करो ।”

मैं हंसा । खामख्वाह हंसा 

तभी मुझे बैंड स्टैण्ड के करीब थामस दिखाई दिया । मेरी उससे निगाह मिली तो उसने इशारे से मुझे अपने करीब बुलाया ।

“एक्सक्यूज मी ।” - मैं बोला और उठकर उसके करीब पंहुचा ।

उसने मुझे एक लिफाफा सौंपा और बोला - “अभी कोई दे कर गया । तुम्हारे लिये ।”

“कौन ?”

“किसी मैगनीज के दफ्तर से था कोई ।”

“ओह ! थैंक्यू ।”

मैं उससे अलग हुआ और टायलेट में पहुंचा । वहां मैंने लिफाफे का फिर से मुआयना किया जिस पर मेरा और ‘अब्बा’ का नाम लिखा था । इतना तो लिफाफे के आकार से ही जाहिर था कि उसमें मैगनीज का पूरा अंक नहीं हो सकता था । मैंने उसे खोला तो भीतर से मैगनीज के आमने-सामने छपे दो पृष्ठ बरामद हुए । उन दोनों पृष्ठों पर कई कतारों में एक ही आकार की पिचहत्तर रंगीन तस्वीरें छपी हुई थीं । तस्वीर की हर लड़की खूबसूरत थी, जवान थी, फैशनेबल थी । हर तस्वीर के नीचे एक नाम और पता दर्ज था ।

मैंने बड़ी बारीकी से बारी-बारी उन तस्वीरों पर निगाह दौड़ानी शुरु की ।

दूसरे पृष्ठ की चौथी कतार में बायें से तीसरी तस्वीर पर मेरी निगाह अटकी ।

गुड ।

मैंने दूसरे पृष्ठ को तह करके अपनी जेब में रख लिया और पहले पृष्ठ को और लिफाफे को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया ।

फिर मैं वापिस लौटा ।

“कहां चले गये थे ?” - लैला शिकायतभरे स्वर में बोली ।

जवाब में मैंने अपनी कनकी उंगली उठाई ।

“ओह !” - वो बोली 

तभी बैंड डांस म्यूजिक फिर बजाने लगा ।

“आई लव डांसिंग ।” - लैला अर्थपूण॔ स्वर में बोली 

“गुड ।” - मैं बोला 

“जबकि बोनो को ऐसा कोई शौक नहीं ।”

“कोई बड़ी बात नहीं । किसी को होता है, किसी को नहीं होता ।”

उसने मेज के नीचे से मुझे अपनी सैंडल की ठोकर मारी ।

मैंने पीड़ा से बिलबिला कर उसकी तरफ देखा ।

दांत भींचे निगाह से उसने डांस फ्लोर की तरफ इशारा किया ।

तत्काल मैं उठकर खड़ा हुआ और लैला के पहलू में पहुंच कर बोला - “मे आई हैव दिस डांस, मैडम !”

उसने मुस्कराकर अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया और उठ खड़ी हुई । मैं उसे डांस फ्लोर पर ले गया ।

हम डांस करने लगे ।

जल्दी ही मुझे अहसास हुआ कि उसका डांस भी उसके अभिसार जैसा ही था । जैसे उसके जिस्म की बोटी-बोटी होटल के बेडरूम में पलंग पर फड़की थी, वैसे ही अब डांस करते वक्त फड़क रही थी । वो नख से शिख तक यूं मेरे से लिपट कर डांस कर रही थी कि मुझे लग रहा था कि डांस फ्लोर को बस मेरे दो पांव ही छू रहे थे, वो तो पूरी कि पूरी मेरे जिस्म पर सवार थी । पता नहीं क्या कमाल जानती थी वो कि वो पूरी ढकी हुई थी फिर भी मुझे लग रहा था जैसे उसका नग्न शरीर लता की तरह मेरे से लिपटा हुआ था ।

“कैसा लग रहा है ?” - वो मेरे कान में बोली ।

“वैसा ही जैसा बहुत ज्यादा मीठा खा लेने के बाद लगता है ।”

“कैसा ?”

“कड़वा ।”

“क्या !”

“कुछ नहीं ।”

“मजाक कर रहे थे ?”

“हां ।”

“फिर ठीक है ।”

तब एकाएक लैला के कन्धे पर से मेरी निगाह पीपट की दिशा में उठी । प्रत्यक्षत: अब वो मेरी ‘अब्बा’ में मौजूदगी से बेखबर नहीं था । वो अपलक मेरी तरफ देख रहा था । मेरी उससे निगाह मिली तो मैंने पाया कि उसकी आंखों में ईर्ष्या और नफरत की ज्वाला धधक रही थी ।

बढ़िया । बढ़िया ।

लिहाजा जो बात उसकी जुबानी मुझे मालूम नहीं हो सकी थी, वो उसकी खामोशी ने मुझे बता दी थी ।

मैंने जानबूझ कर थोड़ा सा यूं पहलू बदला कि उसे दिखाई दे जाता कि लैला मेरे साथ नाच नहीं रही थी, कुछ और ही कर रही थी ।

पीपट के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वो जबरन मुझे लैला से अलग कर देने का तमन्नाई हो लेकिन असल में उसने ऐसा कुछ न किया । वो अंगारों पर लोटता अपने स्थान पर बैठा रहा ।

ईट युअर हार्ट आउट - मैं संतोषपुण॔ स्वर में होंठों में बुदबुदाया - यू सन ऑफ बिच ।

“क्या ?” - लैला मेरे कान की लौ चुभलाती हुई बोली ।

“कुछ नहीं ।” - मैं बोला ।

“तुम अभी क्या बुदबुदा रहे थे ?”

“कह रहा था मजा आ गया । जन्नत का नजारा हो गया ।”

“अभी कहां हुआ है ? अभी होगा ।”

तभी बैंड बजना बन्द हो गया ।

वो यूं मेरे से अलग हुई जैसे बहुत मुश्किल काम हो । जैसे फेवीकोल न उधड़ रहा हो ।

हमने रस्मी तालियां बजायीं और अपनी टेबल पर लौटे ।

तमाम रास्ते पीपट की निगाह मैंने अपने साथ चलती महसूस की ।

मैंने बोनो और वैशाली को यूं घुट घुट कर बातें करते पाया जैसे वो बरसों से एक-दूसरे से वाकिफ थे 

मुझे सख्त हैरानी हुई ।

अभी जो लड़की वहां के माहौल से बेजार होके दिखा के हटी थी, अब नहीं लगता था कि उसे वहां से जाने की कोई जल्दी थी ।

किसी ने ठीक ही कहा था कि लाइफ मेक्स स्ट्रेंज बेडफैलोज ।

मैंने नोट किया वैशाली बोनो से बतियाना बन्द करके अब अपलक मुझे देख रही थी 

“क्या है ?” - मैं नर्वस भाव से बोला ।

उसने हाथ के इशारे से मुझे करीब सरकने को कहा 

मैंने आदेश का पालन किया 

“कान पर लिपस्टिक लगी है ।” - वैशाली मेरी ओर झुककर फुसफुसाई ।

“क्या ?” - मैं हड़बड़ाया 

“लिपिस्टक ।” - वो फिर फुसफुसाई - “बायें कान की लौ पर । खूब सारी ।”

“ओह !”

तत्काल मैंने जेब से रुमाल निकाल कर बायें कान पर फेरा और रुमाल का मुआयना किया ।

झक सफेद रुमाल पर मुझे होंठों के आकार का लिपस्टिक का दाग लगा दिखाई दिया 

खिसियाया सा मैं वैशाली को देखकर हंसा और फिर रुमाल मैंने वापस कोट की जेब में डाल दिया ।

वो तमाम नजारा लैला ने भी किया । वो कुटिल भाव से मेरी ओर देखकर मुस्कराई, फिर उसने अपना हैण्ड बैग खोला, उसमें से एक छोटा-सा शीशा और लिपस्टिक की ट्यूब निकाली और फिर बड़ी तन्मयता से अपने होंठों पर उस लिपस्टिक की नयी परत चढ़ाने लगी ।

आखिरकार उसने शीशा और लिपस्टिक वापिस अपने हैण्ड बैग के हवाले की ।

“कहीं और चलते हैं ।” - फिर एकाएक वो बोली 

हालांकि उसने ऐसा कुछ जाहिर नहीं किया लेकिन उसकी उस बात से मुझे लगा कि उसे पीपट की वहां मौजूदगी का अहसास हो चुका था 

“कहां ?” - मैं बोला 

“कहीं भी । यहां से निकलने के बाद सोचेंगे ।”

मैंने वैशाली की तरफ देखा । उसने अपनी नन्ही सी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और फिर सहमति में गर्दन हिला दी ।

“ठीक है ।” - मैं बोला ।

“आई विल पे दि बिल ।” - तब लैला बोली 

“नो बिल, माई डियर ।” - मैं बड़ी शान से बोला - “हेयर ऐवरीथिंग इज आन दि हाउस ।”

“कमाल है !”

“आओ ।”

हम चारों वहां से उठ कर चल दिये ।

वहां से बाहर कदम मैंने सबसे आखिर में रखा । तब बाहर निकलने से पहले मैंने घूमकर पीछे देखा तो पाया कि पीपट वाली टेबल खाली थी । मैंने हॉल में दायें-बायें निगाह दौड़ाई तो वो मुझे वहां भी कहीं दिखाई न दिया ।

मुझे वो बात चिन्ताजनक लगी 

क्यों वो हमारे से पहले वहां से बाहर निकल गया ?

हजार वजह हो सकती थीं लेकिन मुझे एक ही वजह साल रही थी । उसे लगा था कि हम उठ के जा रहे थे इसलिये वो पहले उठ गया था 

बाहर पहुंचकर मैंने जानबूझ कर अपनी कार का रुख न किया । कार की वहां मौजूदगी से समझा जाता कि मैं अभी भी आसपास ही कहीं था ।

हम एक टैक्सी पर सवार हुए ।

लैला, वैशाली और मैं पीछे और लैला का जमूरा आगे ड्राइवर के साथ ।

“कहां चलें ?” - मैं बोला ।

“हयात ।” - लैला उत्साह से बोली - “करीब भी है ।”

टैक्सी वहां से रवाना हुई 

लैला जानबूझकर टैक्सी में मेरे और वैशाली के बीच में बैठी थी । टैक्सी के रफ्तार पकड़ते ही उसने अपना एक स्तन मेरी बगल में घुसाने में कसर न छोड़ी । उसका मेरी तरफ वाला हाथ जबरन मेरी जांघ के नीचे सरक गया और पता नहीं कहां के लिये जगह बनाने लगा ।

मैंने चोर निगाहों से वैशाली की तरफ देखा तो पाया कि वो खिड़की से बाहर देख रही थी ।

यानी कि बड़े यत्न से जता रही थी कि वो कुछ नहीं देख रही थी 

रह रह कर मेरी निगाह पीछे सड़क पर उठ जाती थी । कई वाहन हमारे पीछे थे । कहना मुहाल था कि कौन सा सिर्फ पीछे था और कौन सा खास पीछे लगा हुआ था 

टैक्सी सड़क पर दौड़ती रही 

“नताशा को जानती हो ?” - एकाएक मैं बोला ।

वो सकपकाई, मेरी जांघ के नीचे सरका उसका हाथ भी जैसे सकपकाया ।

“कौन नताशा ?” - फिर वो बोली ।

“यानी कि नहीं जानतीं । जानती होती तो ये न पूछा होता कि कौन नताशा ?”

उसके माथे पर बल पड़े लेकिन वो मुंह से कुछ न बोली ।

“शायद तुम्हारा ब्वाय फ्रैंड जानता हो ?” - मैं बोला 

“ये ब्वाय है” - उसने जैसे बात को हंसी में उड़ाने की कोशिश की - “फ्रैन्ड है लेकिन ब्वाय फ्रैंड नहीं है ।”

“शायद जानता हो ?”

“ये कैसे जानेगा ? ये तो इस शहर में अजनबी है ?”

“मैंने ये कब कहा कि नताशा दिल्ली में पायी जाती है ।”

“नहीं कहा ?”

“नहीं कहा । और फिर वाकिफकार तो साउथ पोल पर मिल जाता है । पड़ोसी, जो पड़ोस में मुश्किल से कभी दिखाई देता है, विलायत में मिल जाता है ।”

“अरे, क्या बद्मजा किस्सा ले बैठे ! गोली मारो नताशा बताशा को ।”

“मार दी ।”

टैक्सी में खामोशी छा गयी तो मैंने फिर पीछे निगाह दौड़ाई ।

मेरी निगाह अपने पीछे आती एक काली सूमो पर‍ टिकी 

मैंने नोट किया किे उस वक्त हम रिंग रोड पर नौरोजी नगर के करीब थे 

सूमो ज्यादा देर हमारे पीछे न रही ।

वो टैक्सी से आगे निकलने का उपक्रम करने लगी ।

मैंने चैन की सांस ली 

यानी कि वो हमारे पीछे नहीं थी ।

चैन की सांस पूरी तरह से मेरे हलक से अभी निकली भी नहीं थी कि एकाएक सूमो ने बाएं को झोल खाया । हमारे ड्राइवर ने तत्काल टैक्सी को बायें न काटा होता तो निश्चय ही दोनों कारें भिड़ गयी होतीं ।

“ओये तेरी भैन दी ओये ।” - टैक्सी को काबू करने की कोशिश करता ड्राइवर चिल्लाया ।

भारी गाड़ी सूमो तब भी उसे दबा रही थी ।

नतीजन टैक्सी सड़क से नीचे उतर गयी और डगमगाती हुई भुरभुरी जमीन पर जाकर रुकी 

सूमो भी रुकी, उसके चारों दरवाजे एक साथ खुले और चार आदमी बाहर निकले । अगले ही क्षण टैक्सी की चार खिड़कियों से चार रिवॉल्वरें भीतर झांक रही थीं ।

“खबरदार !” - कोई गुर्राया 

खबरदार होने के अलावा उस घड़ी हम कर ही क्या सकते थे !

“क्या चाहते हो ?” - मैं हिम्मत करके बोला ।

“बाहर निकल ।” - जवाब मिला - “तू भी ।”

दूसरा निर्देश वैशाली के लिये था ।

“और कोई बाहर न निकले ।”

रिंग रोड पर हैवी ट्रैफिक था । टाइम भी अभी मुश्किल से नौ बजे का हुआ था, फिर भी सरेराह इतनी बड़ी वारदात हो रही थी ।

“जल्दी ! दोबारा न कहना पड़े !”

मैं और वैशाली टैक्सी से बाहर निकले ।

“कौन हो तुम लोग ?” - हिम्मत करके लैला बोली - “लूटना चाहते हो हमें ?”

“मैं वैसे ही सब हवाले कर देता हूं ।” - बोनो बोला - “ये लो बटुवा । ये लो घड़ी...”

“शट अप !” - कोई गुर्राया - “जो हम चाहते हैं, वो हमें मिल गया है ।”

फिर दो जने मुझे और वैशाली को सूमो की तरफ धकेलने लगे ।

“कोहली !” - लैला आतंकित भाव से बोली ।

“डोंट यू वरी, हनी ।” - मैं बोला - “मुझे कुछ नहीं होगा ।”

“लेकिन...”

“भीतर ।” - कोई फिर गुर्राया ।

मुझे और वैशाली को जबरन सूमो में धकेल दिया गया 

तत्काल सब जने सूमो में सवार हुए और वो वहां से दौड़ चली ।

रास्ते में मेरी बगल में बैठे बन्दे ने मेरा जिस्म टटोला तो उसे मेरी रिवॉल्वर की खबर लग गयी जो कि उसने अपने काबू में कर ली ।

आगे विनय मार्ग का क्रॉसिंग था जहां से सूमो ने यू टर्न लिया और रिंग रोड पर वापस उधर दौड़ चली जिधर से कि वो आयी थी ।

पिछली सीट पर क्योंकि चार जने थे इसलिये हम बहुत घिचपिच बैठे हुए थे ।

“एक जना आगे या पीछे बैठ जाओ, यार ।” - मैं बोला ।

“चुप” - मेरी बायीं ओर वाला मुझे कोहनी मारता हुआ बोला ।

“तुम लोग कौन हो ? क्या चाहते हो ?”

“चुप रहो ।”

“इतना तो बता दो कि हम कहां जा रहे हैं ?”

“मुंह में जूता ठूंस दूंगा ।”

तत्काल मैं चुप हुआ ।

सूमो आश्रम चौक से आगे निकली और पूर्ववत् रिंग रोड पर दौड़ती रही ।

फिर सराय काले खां गया, नेशनल हाइवे नम्बर चौबीस का चौराहा गया, आई.टी.ओ. का फ्लाईओवर गया, कश्मीरी गेट का बस अड्डा गया, फिर आगे सूमो ने आउटर रिंग रोड पकड़ी 

कहां जा रहे थे वो लोग ?

कहीं मुझे बुराड़ी तो नहीं ले जाया जा रहा था जहां कि मुझे बताने के लिये मजबूर किया जाता कि शाफ्ट मैंने कहां छुपाया था !

मजनूं का टीला के करीब सूमो मेन रोड से उतर कर एक कच्चे मैदान में उतर गयी । उसमें आगे एक कंटीली झाड़ की बाउन्ड्री थी जिसमें लकड़ी का झूलता सा फाटक था जो कि बन्द था ।

फाटक से पार उससे कोई पांच सौ गज पर पेड़ों से घिरा एक बंगला दिखाई दे रहा था ।

जरूर वो ही उन बदमाशों का गन्तव्य स्थल था ।

कार फाटक के सामने रुकी 

एक आदमी ने कार से निकल कर फाटक को खोला और उसके पहलू में खड़ा हो गया ताकि सूमो के गुजर जाने के बाद वो उसे पूर्ववत् बन्द करके सूमों में बैठ पाता ।

सूमो फाटक पार करके रुकी 

बाहर खड़े आदमी ने फाटक बन्द करने के लिये कदम बढ़ाया ही था कि एकाएक एक कड़कती आवाज स्तब्ध वातावरण में गूंजी ।

“खबरदार ! कोई न हिले । तुम लोग घिरे हुए हो ।”

वो आवाज मैंने साफ पहचानी । पाण्डेय की मौत के बाद से कितनी ही बार तो मैं वो आवाज सुन चुका था ।

वो नोरा की आवाज थी 

“हथियार ! गाड़ी के सामने फेंको ।”

चार रिवॉल्वरें, जिनमें से एक मेरी भी थी, सूमो के सामने जमीन पर आ कर गिरीं ।

“बाहर निकलो ।”

सूमो में मौजूद बाकी के तीन बदमाश बाहर निकले ।

पता नहीं मैं और वैशाली उस हुक्म में शामिल थे या नहीं, बहरहाल हम भीतर ही बैठे रहे ।

फिर चारों आदमियों पर पीछे से हमला हुआ । वो अचेत होकर गिर गये तो उन्हें घसीट कर झाड़ियों की ओट में डाल दिया गया । फिर जमीन पर से उठाकर रिवॉल्वरें भी उनके पीछे झाड़ियों में फेंक दी गयीं 

सूमो के सामने के दोनों दरवाजे खुले और आक्रमणकारियों में से दो आगे सवार हो गये । वैसा ही एक पीछे मेरी बगल में आ बैठा ।

किसी ने पीछे फाटक बन्द कर दिया ।

सूमो आगे बढ़ी और बंगले की पोर्टिको में जाकर रुकी 

सब बाहर निकले । हमें भी बाहर निकाला गया । सीढ़ियां चढ़कर हम बंगले में दाखिल हुए और एक लम्बे गलियारे से गुजरकर एक विशाल दरवाजे के सामने पहुंचे जो कि खुला था ।

वो दरवाजा एक विशाल हॉल का था जो कि भीतर से प्रकाशमान था ।

वहां एक कुर्सी पर हीरालाल जयपुरिया बैठा हुआ था । कुर्सी के सामने पीपट मौजूद था और पीछे जल्लाद जैसी शक्ल वाला एक आदमी खड़ा था ।

जयपुरिया का चेहरा यूं कागज की तरह सफेद दिखाई दे रहा था जैसे कि उसे मालूम था कि मौत बस उससे कुछ ही पल दूर थी ।

हम लोग भीतर दाखिल हुए तो पीपट ने किसी नामालूम जुबान में हमारे पीछे चलते आदमियों को कोई आदेश दिया जिसके फलस्वरूप वो लोग हमें हॉल की एक दीवार के साथ-साथ चलाते हुए उसके पिछवाड़े में ले आये जहां कि नीचे बेसमेंट को जाती सीढ़ियां थीं ।

नीचे अन्धेरा था लेकिन हमारे आखिरी सीढ़ी पार करते ही किसी ने दो-तीन स्विच ऑन किये तो वहां ऊपर हॉल जैसा ही कृत्रिम प्रकाश फैल गया ।

मैंने देखा कि वो जगह किसी रईस आदमी की तफरीहगाह की तरह सजी हुई थी जहां कि एक जिम के अलावा एक बिलियर्ड की और दो टेबल टेनिस की टेबल भी लगी हुई थीं ।

“आगे बढ़ो ।” - पीछे से हुक्म मिला ।

मैं और वैशाली आगे बढ़े तो हमारे पीछे दरवाजा बन्द कर दिया गया ।

मैंने वैशाली की तरफ देखा 

भय से उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी ली ।

“मैं शर्मिन्दा हूं ।” - मैं बोला - “जो हुआ मेरी वजह से हुआ ।”

“वजह कोई हो” - वो दबे स्वर में बोली - “जो होना होता है, वो तो हो के रहता है ।”

“फिर भी...”

“ये लोग क्या करेंगे ? हमें मार डालेंगे ?”

“इतनी आसानी से तो नहीं मार डालेंगे । ये बात तो निश्चित है कि जो कुछ हो रहा है, अभी भी हेरोइन के कब्जे के लिये ही हो रहा है । हेरोइन का कोई अता-पता जाने बिना तो वो मुझे मारना अफोर्ड नहीं कर सकते ।”

“वो जबरदस्ती कर सकते हैं ।”

“तुम्हारा इशारा टार्चर की तरफ है तो मैं झेल लूंगा । तुम्हारी खातिर झेल लूंगा ।”

“वो मुझे टार्चर कर सकते हैं ।”

“क्या !”

“तुम भूल रहे हो कि मैं किसकी एम्पलाई हूं । मैं उस शख्स की एम्पलाई हूं जो कि ट्रांसपोर्ट के धन्धे में जयपुरिया का पार्टनार है । जयपुरिया ऊपर बेबसी की किस हालत में मौजूद था, वो तुमने देखा ही था । मुझे तुम्हारे साथ पाकर ये लोग कूद कर इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि तुम जयपुरिया और दासानी की तरफ हो गये हो । फिर इन्हें ये खामख्याली भी हो सकती है कि मेरे जरिये तुम्हारी जुबान खुलवाई जा सकती है ।”

“हे भगवान ! बड़ी दूर की कड़ी मिलाई तुमने ।”

वो खामोश रही ।

“कहीं ऊपर जयपुरिया को भी जुबान खुलवाने वाला ट्रीटमेंट ही तो नहीं दिया जा रहा ?”

“हो सकता है ।” - वो बोली ।

“फिर तो तुम्हारे बॉस की भी शामत आ सकती है ।”

“क्या पता आ ही चुकी हो ! क्या पता वो भी इन्हीं लोगों के कब्जे में हो और यहीं कहीं बन्द हो !”

“ओह !”

“हम कुछ कर नहीं सकते ?”

“किस बाबत ?”

“यहां से आजाद होने की बाबत ।”

मैंने चारों तरफ निगाह दौड़ाई और फिर बड़े अवसादपूर्ण ढंग से इन्कार में सिर हिलाया 

“ओह !” - उसके मुंह से निकला ।

“ये जगह क्या है ?”

“एक उजाड़ बंगला है जो कि दासानी साहब की प्रापर्टी है ।”

“पक्का पता है ?”

“हां ।”

“दूसरे पाले के लोगों को खबर कैसे लग गयी कि हमें पकड़ कर यहां लाया जा रहा था ?”

“दूसरे पाले के लोग कौन ?”

“वो जिनका प्रतिनिधि पीपट है ।”

“तुम्हारा मतलब है हमारे पहले हमलावर पीपट के आदमी नहीं थे ?”

“अब तो यही मालूम होता है कि नहीं थे । हालांकि वहां सोचा मैंने यही था ।”

“ओह !”

“यहां सब कुछ पीपट की कमांड में दिखाई देता है इसालिये जाहिर है कि बाद वाले आदमी, जो कि हमें यहां लाये, पीपट के थे ।”

“पीपट यहां पहले से मौजूद है, वो जयपुरिया पर हावी है, वो ‘अब्बा’ में हमारे साथ मौजूद था जहां से कि वो हमारे आगे आगे ही यहां आया होगा । इसे कैसे मालूम था कि हमें यहां लाया जाने वाला था ?”

“भई, यही सवाल तो अभी मेरी जुबान पर भी आया था । लेकिन जवाब कहां है इसका !”

“हमें कुछ करना चाहिये ।”

“क्या करना चाहिये ?”

“आजाद होने की कोई कोशिश करनी चाहिये ।”

“कैसे ? यहां हम पूरी तरह से लाचार हैं ।”

“सोचो ।”

ऊपर कहीं से एक फायर होने की आवाज आयी ।

“कुछ सोचो । कुछ करो । प्लीज । प्लीज ।”

मैंने‍ फिर चारों तरफ निगाह दौड़ाई । इस बार मैंने महसूस किया कि रोशनी उस विशाल बेसमेंट के पिछले सिरे तक नहीं पहुंच रही थी । मैं लम्बे डग भरता हुआ वहां पहुंचा तो पाया कि वहां एक दीवार के साथ एक छोटा सा बार बना हुआ था जिसके करीब एक चालू रेफ्रीजरेटर तक मौजूद था ।

उसी दीवार के एक दूसरे कोने मैं एक बन्द दरवाजा था जिसे मैंने खोला तो पाया कि वो तेल की परली दीवार में एक बड़ा सा रोशनदान था जिसमें से गैस के सप्लाई पाइप निकल कर बाहर जा रहे थे । पाइपों के सहारे भट्टी पर चढ़कर मैंने रोशनदान से बाहर झांका तो मुझे बंगले का ड्राइव-वे दिखाई दिया ।

रोशनदान में मोटी मोटी सलाखें लगी हुई थीं जो कि वहां से हिलने वाली नहीं थीं और जिनकी मौजूदगी में रोशनदान से बाहर निकल पाना नामुमकिन था ।

तभी बाहर वैशाली जोर से खांसी ।

मैं जल्दी से वहां से निकला और झपट कर वैशाली के पास पहुंचा ।

सीढ़ियों की तरफ से नीचे उतरते कदमों की आवाज आ रही थी ।

अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाने की कोशिश करता मैं खामोश खड़ा रहा ।

दरवाजा खुला । चौखट पर एक रिवॉल्वरधारी व्यक्ति प्रकट हुआ । उसने रिवॉल्वर की नाल के इशारे से हमें आगे बढ़ने को कहा ।

हम आगे बढ़े और उसके इशारे पर सीढ़ियां चढ़ने लगे । तत्काल वो हमारे पीछे हो लिया ।

हम वापस हॉल में पहुंचे 

पीपट हमारी तरफ आकर्षित हुआ । उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला ही था कि बाहर से एक कार के करीब पहुंचने की आवाज आयी । उसने नोरा को हमारे पर निगाह रखने का इशारा किया और स्वयं बाहर की ओर बढ़ चला ।

मैंने नोरा की तरफ देखा 

वो शैतानी अन्दाज से मुस्कराया 

“एक सिगरेट सुलगा सकता हूं ?” - मैंने पूछा ।

वो एक क्षण हिचकिचाया, फिर उसने सहमति में सिर हिला दिया ।

मैंने जेब से अपना डनहिल का पैकेट और लाइटर निकाला और एक सिगरेट सुलगाया ।

पीपट वापस लौटा । वो लम्बे डग भरता मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।

“खेल तमाशा बहुत हो चुका ।” - वो क्रूर भाव से बोला - “मैं आखिरी बार पूछ रहा हूं । शाफ्ट कहां है ?”

“यानी कि जो नजराना तुम मुझे कल देने वाले थे, वो मुझे अभी मिलने वाला है ?”

“नजराना !”

“इन्सेन्टिव । दस लाख ।”

“भाव, ताव की स्टेज अब गयी, मिस्टर । अब तो आर या पार का खेल है । शाफ्ट आराम से हमारे हाथ आ जाने दोगे तो हो सकता है तुम्हारा कोई लिहाज हो जाये वरना...”

उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।

मैं खामोश रहा ।

“अब जो फैसला करना है, एक मिनट में करो ।”

मैंने वैशाली पर निगाह डाली 

उसने कातर भाव से मेरी तरफ देखा ।

“इसे जाने दो ।” - मैं धीरे से बोला ।

“क्या ?”

“इसे जाने दो । अपने घर पहुंचकर ये फोन पर मेरे से बात करेगी । जब ये इस बात की तसदीक कर देगी कि ये सुरक्षित घर पहुंच गयी थी तो मैं तुम्हारे मतलब की बात तुम्हें बता दूंगा ।”

“तुम पागल हो, या समझते हो कि मैं पागल हूं । मैं फोन पर इससे जबरदस्ती कहलवा सकता हूं कि ये सुरक्षित घर पहुंच गयी है जबकि ये तब भी मेरे कब्जे में ही होगी ।”

“यानी कि तुम इसे नहीं छोड़ोगे ?”

“अब नहीं । अब इसे छोड़ना अपने खिलाफ, हेरोइन के वजूद के खिलाफ, एक गवाह छोड़ना होगा ।”

“तुम जबरदस्ती मेरा मुंह नहीं खुलवा सकोगे ।”

“देखेंगे । पहले मुंह खोलने से इनकार तो करो ।”

“मैं मुंह खोलने को तैयार हूं...”

“गुड ।”

“...लेकिन किसी बिचौलिये के सामने नहीं ।”

“बिचौलिया ! बिचौलिया कौन ?”

“तुम । मेरी जुबान खुलवाना चाहते हो तो मुझे अपने बॉस के पास लेकर चलो ।”

“फिर वही तोतारटंत शुरु कर दी ! कितनी बार कहना होगा कि मेरा कोई बॉस नहीं ? फिर यही बकवास की तो प्राण खींचने से पहले जुबान खींच लूंगा ।”

“लेकिन...”

“अभी भी लेकिन !” - वो हत्थे से उखड़ गया - “नोरा !”

नोरा तत्काल आगे बढ़ा ।

“एक मिनट । एक मिनट ।” - मैं जल्दी से बोला - “जल्दबाजी में कोई कदम उठाओगे तो पछताओगे । मेरी एक आखिरी बात सुन लो ।”

“बको ।”

“तुम्हारे बॉस का नाम इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव के नाम लिखी मेरी एक चिट्ठी में दर्ज है । मैं हर चौबीस घन्टे में यादव के पास अपनी हाजिरी लगवाता हूं । एक भी हाजिरी मिस हो गयी तो वो चिट्ठी फौरन इंस्पेक्टर यादव को डिलीवर हो जायेगी ।”

पीपट के नेत्र सिकुड़े । उसने अपलक मेरी तरफ देखा । मन ही मन कांपते-थर्राते मैंने बड़ी दिलेरी से उससे निगाह मिलाई ।

वातावरण ब्लेड की धार की तरह पैना हो उठा ।

फिर उसकी निगाह भटकी । फिर वो मुझे साफ-साफ नर्वस दिखाई दिया ।

मन ही मन मैंने चैन की सांस ली ।

मेरा ब्लफ चल गया था 

“तुम ब्लफ मार रहे हो ।” - फिर वो बोला - “और ये साबित करना कोई मुश्किल काम नहीं कि तुम ब्लफ मार रहे हो ।”

“अच्छा !”

“तुम ये कहना चाहते हो कि अगर मेरा कोई बॉस है तो तुम जानते हो कि वो कौन है ?”

“हां ।”

“नाम लो उसका । मुझे बताओ वो नाम जो तुम उस चिट्ठी में लिखा बताते हो । बल्कि” - उसने मेरे सामने एक कागज का पुर्जा और बॉलपैन रखा - “इस कागज पर लिखो वो नाम ।”

मैं हिचकिचाया ।

उसने जोर का अट्टहास किया 

“शट अप !”

उसकी हंसी को ब्रेक लगी । उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।

मैंने तेजी से कागज पर कुछ अक्षर घसीटे और कागज की गोली बनाकर उसकी तरफ फेंकी जो कि उसने हवा में लपकी ।

“ये लो अपना नाम ।” - मैं नाटकीय स्वर में बोला - “और जाकर उसी से पास करा लो ।”

“क... क्या ?”

“क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि अभी जो गाड़ी यहां पहुंची थी, उस पर तुम्हारा बॉस ही आया था । तभी तो किसी को बाहर भेजने की जगह खुद कुत्ते की तरह दुम हिलाते बाहर भागे थे ।”

पीपट के होंठ भिंच गये । उसने कागज के बल निकाल कर उसे सीधा किया और उस पर लिखा नाम पढ़ा । तत्काल उसके चेहरे के भाव बदले, फिर वो भारी कदमों से चलता मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।

“कोहली !” - वो धीरे से बोला - “अब तो तुझे भगवान भी नहीं बचा सकता ।”

फिर वो घूमा और लम्बे डग भरता वहां से बाहर निकल गया ।

पीछे वो मरघट का सा सन्नाटा छोड़ गया ।

मैंने कांपते हाथों से नया सिगरेट सुलगाया ।

मैं उसका आखिरी कश लगा रहा था जबकि वो वापस लौटा ।

“मेरे साथ आओ ।” - वो आदेशपूर्ण स्वर में बोला 

मैं आगे बढ़ा । तत्काल वैशाली ने भी मेरे साथ कदम बढ़ाया । किसी ने एतराज न किया । हमारे पीछे हाथ में रिवॉल्वर थामे नोरा चलने लगा । हम गलियारे में पहुचे, उसके सिरे पर मौजूद सीढ़ियों के दहाने पर पहुंचे और फिर उन्हें तय करके पहली मंजिल के एक कमरे के बन्द दरवाजे पर पहुंचे । पीपट ने पहले दरवाजे पर दस्तक दी और फिर उसे धक्का दिया । उसने एक कदम भीतर डाला और मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया ।

मैं और वैशाली कमरे में दाखिल हुए ।

“बाशा को मेरा सलाम पहुंचे ।” - मैं सिर नवा कर बोला - “शहजादी लैला को भी ।”

वो आबनूस की एक विशाल मेज के पीछे बैठा हुआ था । उसका चेहरा गम्भीर था ।

उसके करीब ही पड़ी एक कुर्सी पर लैला विराजमान थी लेकिन उसके होंठों पर एक विषभरी मुस्कराहट थी ।

“हल्लो शागिर्द !” - वो बोली ।

“लैला !” - बाशा ने उसे घुड़का ।

वो तत्काल खामोश हो गयी 

उस कमरे में नीचे वाले हॉल या बेसमेंट जितनी रोशनी नहीं थी । वहां की रोशनी में कमरे को नीमअन्धेरा ही कहा जा सकता था । अलबत्ता बाशा की नाक पर उसका सुर्मई शीशों वाला चश्मा वहां भी विद्यमान था और तुर्की टोपी भी सिर पर बदस्तूर मौजूद थी ।

“इधर मेरी तरफ देखो ।” - वो कर्कश स्वर में बोला ।

“जरूर ।” - मैं बोला - “लेकिन जरा पहले उस्ताद को ताड़ने से तो निपट लूं ।”

लैला की मुस्कराहट और मुखर हुई ।

“मिस्टर कोहली !” - बाशा भड़का ।

“सर !”

“तुमने पीपट से एक चिट्ठी का जिक्र किया था । क्या है उस चिट्ठी में ?”

“बूझना क्या मुश्किल है !”

“जवाब दो ।”

“आप ही लोगों का कच्चा चिट्ठा है ।”

“मसलन ?”

“मसलन उसमें मेरे आदमी हरीश पाण्डेय के कत्ल का जिक्र है ।”

“बस कत्ल का ?”

“कातिल का भी ।”

“तुम जानते हो कातिल कौन है ?”

“पहले नहीं जानता था । चिट्ठी लिखने के वक्त तक जान गया था ।”

“क्या जान गये थे ? कौन है कातिल ?”

“ये है कातिल ।” - मैंने पीपट की तरफ इशारा किया - “जो तुम्हारा पालतू कुत्ता है और जो बिचौलिया बनकर जयपुरिया दासानी की जोड़ी के लिये हेरोइन का जुगाड़ करता है । ये वो शख्स है जिसने पाण्डेय के पीछे पहुंचकर तब उसकी पीठ में खंजर भौंका था जबकि ये लड़की” - मैंने लैला की तरफ इशारा किया - “जो कि तुम्हारी बेटी नहीं है, उसे अपनी बांहों में भरे उसे अपने जहरीले चुम्बन से नवाज रही थी ।”

“बेटी नहीं है ?”

“नहीं है । क्योंकि तुम्हीं वो नहीं हो जो कि तुम कहते हो कि हो ।”

“मैं कौन हूं ?”

“तुम जामा मस्जिद के इलाके के नामचीन दादा सलीम खान हो जो जाली पासपोर्टों के और अरब देशों के बूढ़े शेखों को नौजवान लड़कियां सप्लाई करने के अपने असल धन्धे से डाइवर्ट होकर नारकॉटिक्स ट्रेड में कदम रख रहे हो । तुम्हारी दाढ़ी नकली है । तुम्हारी मूंछ नकली है । तुम्हारी तुर्की टोपी और तुम्हारा चश्मा तुम्हारे मौजूदा बहुरूप का एक हिस्सा है जिस को छुपाये रखने के लिये तुम जब भी मेरे से मिले नीम-अन्धेरे में मिले या नहीं ही मिले । तुम्हारी कथित बेटी का नाम लैला नहीं, रोशनी है । मैंने इसे देर से पहचाना लेकिन पहचाना, तब पहचाना जबकि इसके ‘अब्बा’ में कदम पड़े । इसको वहां देखकर ही मेरे जहन में ये घन्टी बजी कि ये कभी ‘अब्बा’ की भूतपूर्व संचालक सिल्विया ग्रेको के डांस ग्रुप की रौनक हाती थी और जो सिल्विया की गैरहाजिरी में ‘अब्बा’ के खास मेहमानों को ‘अब्बा’ की पहली मंजिल के एक प्राइवेट रूम में नंगा नाच दिखाती थी जो कि सिल्विया के बैली डांस जितना उत्तेजक तो नहीं होता था लेकिन फिर भी वहां के खास क्लायन्ट्स में काफी हिट था ।”

कोई कुछ न बोला ।

“स्वीटहार्ट” - मैं लैला से मुखातिब हुआ - “कपड़ों की वजह से मैं तुम्हें न पहचान सका क्योंकि कपड़ों में मैंने तुम्हें कभी देखा नहीं था । नंगी देखता तो झट पहचान लेता, उस पहली बार ही पहचान लेता जबकि तुम अपने इस कथित बाशा के हुक्म पर हालीडे इन के सुइट में मेरे सामने बिछ बिछ गयी थीं । तब तुमने अपना पहला सबक मुझे अपने बर्थ डे सूट में दिया होता तो मैं तभी जान जाता कि तुम दुबई से आयी कोई लैला अल रशीदी वल्द बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी नहीं हो बल्कि दिल्ली की एक मामूली कैब्रे डांसर हो । ऐसी कैब्रे डांसर जो खुद ड्रग एडिक्ट भी है, जो खुद हेरोइन का नशा करती है । तुम तब भी नसवार चढ़ाये थी जबकि तुमने पाण्डेय को कत्ल के लिये सैट करने के लिये अपनी बांहों में भरा था और उसके मुंह पर मौत का चुम्बन अंकिया किया था । तुमहारी लिपस्टिक पाण्डेय के मुंह पर लग गयी थी जिसमें कि हेरोइन के एक-दो कण भी पैवस्त पाये गये थे । जिस लिपस्टिक के निशान पाण्डेय के मुंह पर पाये गये थे वो तुम इस वक्त भी लगाये हुए हो ।”

तत्काल उसका एक हाथ अपने होंठों की तरफ उठा ।

“एस यू फाइव सी-स्प्रे शेड की लोरियल ब्रांड की फ्रेंच लिपस्टिक जो कि तुम्हारी फेवरेट है और जिसकी ट्यूब इस वक्त भी तुम्हारे पर्स में है । दुबई से आयी प्रिंसेस लैला अल रशीदी, माई फुट ! पता नहीं तुमने कभी दिल्ली से बाहर भी कदम रखा है या नहीं, दुबई तो बहुत दूर है ।”

लैला ने बेचैनी से पहलू बदला ।

“तुम्हारा इतना गुणगान काफी है” - मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “या अभी और करूं ?”

“औ... और क्या ?” - उसके मुंह से निकला ।

“पिछले साल नवम्बर के महीने

उसने फिर बेचैनी से पहलू बदला तो वो कागज उसकी गोद से उड़कर फड़फड़ाता हुआ उसके पैरों में जा गिरा । फिर पनाह मांगती निगाहों से उसने बाशा की तरफ देखा ।

“उधर क्या देखती हो !” - मैं बोला - “बड़े मियां को तो इस वक्त खुद पनाह की जरूरत है । दाढ़ी उतार लो, मियां, गर्मी लग रही होगी ।”

उसने सच में ही चेहरे पर से दाढ़ी-मूंछ और चश्मा और सिर पर से तुर्की टोपी उतार कर मेज पर डाल दी ।

तब मुझे उस लोकल कांग्रेसी नेता जी के दर्शन हुए जिनको - यानी कि सलीम खान को - मैंने उनके उर्दू बाजार वाले दफ्तर के रिसैप्शन पर टंगी तस्वीर में राजीव गान्धी को हार पहनाते देखा था ।

“गुड ।” - मैं बोला 

“हमें अपने बहुरूप पर बड़ा नाज था ।” - सलीम खान बोला - “निगाह काफी पैनी पायी है तुमने ।”

“वो तो मैंने यकीनन पायी है । खाकसार की पैनी निगाह तुम्हारे ऑफिस में दगा दे गयी थी लेकिन ‘अब्बा’ में इसकी धार फिर लौट आयी थी ।”

“क्या मतलब ?”

“तुम्हारे ऑफिस से रिसैप्शन पर बैठा जो नौजवान मुझे मिला था, जिसने कि मेरी टेलीफोन पर तुम्हारे से बात कराई थी, उसकी सूरत मुझे पहचानी हुई लगी थी लेकिन याद नहीं आया था कि उसे मैंने पहले कहां देखा था । बाद में सूट-बूट से सजा धजा वही लड़का मुझे लैला के एस्कार्ट के तौर पर ‘अब्बा’ में मिला था - जिसे कि इसने बोनो नाम का कोई गोवानी बताया था - तो न सिर्फ मैंने उसे तुम्हारे ऑफिस के रिसेप्शनिस्ट के तौर पर पहचान लिया था, बल्कि मुझे ये भी याद आ गया था कि सबसे पहले मैंने उसे कहां देखा था ?”

“कहां देखा था ?”

“स्टेटस बार में देखा था जहां कि वो जीन जैकेट और गोल्फ कैप पहने था और जिसके साथ वहां एक खूबसूरत लड़की थी । बाद में उन्हीं दोनों ने किसी नामालूम जगह पर मुझे नताशा मैडम के हुजूर में पेश किया था ।”

वो चौंका ।

“तुम नताशा को भी जानते हो ?” - वो बोला 

“जब टॉप बॉस को जान लिया तो चेले-चांटों को जानना क्या मुश्किल काम था ! हाथी के पांव के नीचे सब का पांव होता है, मियां ।”

वो सोचने लगा ।

“जरूर तुम लोगों को ये खामख्याली है कि पोशाक और माहौल बदल जाने से शख्सियत बदल जाती है । तभी तुम्हारे एक जमूरे को ट्रिपल रोल अदा करना पड़ा जो कि मेरे लिये अच्छा ही हुआ ।”

उसकी भवें उठीं ।

“वो लड़का तुम्हारा रिसेप्शनिस्ट था जो कि पहले स्टेटस बार के बार से एक तरह से मेरा अगवा करके मुझे तुम्हारी मैडम नताशा के पास लाया था । बाद में वही लड़का डिनर सूट में सजा धजा मुझे लैला के साथ ‘अब्बा’ में मिला क्योंकि उसका कथित बॉस बाशा के साथ किसी कॉन्फ्रैंस में बिजी था । क्या ये अपने आप में ही इशारा नहीं था कि उसका उर्दू बाजार वाला बॉस ही असल में बाशा था ।”

“था तो नहीं लेकिन... खैर, तुम कहते हो तो मान लेते हैं ।”

“शुक्रिया ।”

“नताशा की बाबत जरूर तुमने” - उसने वैशाली की तरफ इशारा किया - “इस लड़की से जाना । ...जवाब देने की जरूरत नहीं । ये बात हम तुमसे पूछ नहीं रहे, तुम्हें बता रहे हैं ।”

“इजाजत हो तो बदले में मैं भी कुछ बताऊं ?”

“मसलन क्या ?”

“मसलन यही कि ये बाशा वाला बहुरूप तुमने क्यों भरा ?”

“क्यों भरा ?”

“इसलिए भरा क्योंकि खुले तौर पर लोकल ड्रग ट्रेड में कदम रखने का तुम्हारे में हौसला नहीं है । वो हौसला न तुम में है, न तुम्हारी गुंडा बिरादरी के झामनानी, पवित्तर सिंह, भोगी लाल और ब्रजवासी नाम के बाकी चार चार्टड मेम्बर्स में है । तुम सब जने उस बिरादरी से ताल्लुक रखते हो जिसका टॉप बॉस कभी गुरबख्शलाल होता था । गुरबख्शलाल इकलौता शख्स था जो कि अपनी जिन्दगी में लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड पर काबिज था और जिसके तार मुम्बई की ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाने वाले ऑर्गेनाइजेशन से जुड़े हुए थे । गुरबख्शलाल की मौत के बाद तुम सब लोगों को धमकी मिली थी कि कोई ड्रग्स के धन्धे पर काबिज होने की कोशिश न करे ।”

“किससे ? किससे धमकी मिली थी ?”

“मैं उसका नाम नहीं जानता लेकिन इतना जानता हूं कि उसी ने गुरबख्शलाल का काम तमाम किया था और उसी के खौफ से तुम इतने बड़े दादा लोग भीगी बिल्ली बन के बैठ गये थे । गुरबख्शलाल की मौत के बाद उसके नारकॉटिक्स के एम्पायर पर काबिज होने का सबसे ज्यादा तमन्नाई झामनानी था जो कि वैसे भी दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड में गुरबख्शलाल के बाद नम्बर दो पोजीशन पर माना जाता था । लेकिन मुझे मालूम है कि उसने फिलहाल इस ओर कोई कदम नहीं उठाया था ।”

“कैसे मालूम है ?”

“मैं खुद उससे मिला था, ऐसे मालूम है ।”

“ऐसी बात की कोई खुद अपनी जुबान से तसदीक करता है ?”

“मैं अब... अब दावे के साथ कह सकता हूं कि उसने झूठ नहीं बोला था क्योंकि जो काम उसने करना था, उसको पहले ही कर चुका शख्स मेरे सामने बैठा है ।”

“दो जने नहीं कर सकते ?”

“नहीं कर सकते । दो जने कर सकते होते तो फिर तीन जने करते, चार जने करते, पांच जने करते, दस जने करते । नतीजतन ऐसी बन्दरबांट मचती कि लोकल अन्डरवर्ल्ड में गैंगवार छिड़े बिना न रहती ।”

“हूं । लेकिन अभी तुमने खुद कहा कि ये कदम उठाने का हौसला हमारे में भी नहीं था ।”

“खुले तौर पर कदम उठाने का हौसला नहीं था । इसलिये तुमने दूसरा तरीका अपनाया ।”

“दूसरा तरीका क्या ?”

“ये कि कोई बाहर से आकर लोकल ड्रग ट्रेड पर काबिज हो रहा था । और वो बाहर से आया शख्स बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी था जो कि दुबई से आपरेट करता था । चन्द रोज हालीडे इन में अपनी कथित बेटी के साथ रह कर तुमने इस आदमी के अस्तित्व को स्थापित किया और यूं उस धमकी का तोड़ निकाला जिसकी तलवार अपने बिरादरी भाइयों की तरह तुम्हारे सिर पर लटक रही थी कि कोई गुरबख्शलाल के छोड़े ड्रग एम्पायर पर काबिज होने की कोशिश न करे ।”

“उस तलवार की तुम्हें कैसे खबर है ? वो तो बहुत अन्दरूनी बात है ।”

“बस, है किसी तरह से ।”

“झामनानी ने बताया ?”

“नहीं ।”

“तो फिर यकीनन तुम कुशवाहा से मिले हो ।”

“कौन कुशवाहा ?”

“तुम्हें मालूम है कौन कुशवाहा ! गुरबख्शलाल की जिन्दगी में उसका लेफ्टीनेंट कुशवाहा ।”

मैं चुप रहा ।

“और क्या है तुम्हारी चिट्ठी में ?”

“तुम्हारा मतलब है जो कुछ मैंने अभी कहा, उसके अलावा ?”

“हां । हमारा यही मतलब है ।”

“और जयपुरिया-दासानी की युगल जोड़ी का जिक्र है । वो जोड़ी जो पहले से यू.पी. में नारकॉटिक्स ट्रेड का जाल फैलाये है और जो अब दिल्ली का मैदान खाली देखकर यहां के ट्रेड को भी अपने कब्जे में लेने की स्कीम बना रही है । अपनी ट्रांसपोर्ट कम्पनी की ओट में वो लोग मुम्बई से दिल्ली निर्विघ्न हेरोइन पहुंचवा सकते थे । ऐसी एक खेप पेपर मिल की मशीनरी के एक पुर्जे ड्राइव शाफ्ट में छुपी कल शाम यहां पहुंची थी । कल रात बुराड़ी के इलाके में उस खेप को तुम्हारे आदमियों ने लूटने की कोशिश की थी लेकिन बावजूद काफी खून खराबे के कामयाब नहीं हो सके थे क्योंकि शाफ्ट वाले ट्रक में मैं छुपा बैठा था और ऐन मौके पर ट्रक मैं ले भागा था ।”

“चिट्ठी में उस जगह का भी जिक्र है जहां कि तुमने शाफ्ट छुपाया था ?”

“हां ।”

“कहां छुपाया ?”

मैं हंसा ।

“कोई बात नहीं ।” - सलीम खान बड़े सब्र से बोला - “बाद में पूछ लेंगे । अभी अपनी कहानी मुकम्मल करो । चिट्ठी में हमारा भी जिक्र है ?”

“बिल्कुल है । वैसे ही है जैसे अभी बताया । उसमें साफ जिक्र है कि तुम उस शख्स के, यानी कि पीपट के बॉस हो, जिसने कि लैला उर्फ रोशनी के साथ मिलकर पाण्डेय का कत्ल किया था । मियां, कत्ल करने वाला भी कत्ल के लिये उतना ही जिम्मेदार होता है जितना कि कराने वाला । सो देयर ।”

“आगे ?”

“तुम ऐसे टॉप के हरामी हो कि ड्रग्स के ट्रेड में अपना पहला कदम दूसरे के माल पर हाथ साफ करके रखना चाहते थे । तुम्हारे आदमी पीपट ने बिचौलिया बनकर खुद ही मुम्बई में जयपुरिया को माल मुहैया कराया और फिर खुद ही उसे दिल्ली में लूट लेने का सामान कर लिया । माल मुहैया कराने वाला शख्स खुद ये था, इसी वजह से इसे माल के दर्शन किये बिना भी उसकी क्वालिटी और सही मिकदार की खबर थी । इस खबर थी कि हेरोइन प्योर थी, अनकट थी और पचास किलो थी । और कैसे इतनी खास, इतनी अन्दरूनी खबर इसे हो सकती थी ?”

“आगे बढ़ो ।”

“इस वक्त दिल्ली में हेरोइन की शार्टेज चल रही है । इसलिये चल रही है क्योंकि ड्रग लार्ड गुरबख्शलाल मर गया और उसके पीछे उसका धन्धा कब्जाने की किसी की जुर्रत न हुई । ऐसे माहौल में दिल्ली में ड्रग्स की कमी जयपुरिया पूरी करने में कामयाब हो जाता तो फिर तुम्हारी पेश न चलती । चलती तो खामोशी से न चलती और अपने नापाक इरादों को पब्लिसिटी मिलना तुम अफोर्ड नहीं कर सकते थे । लिहाजा तुमने एक तीर से दो शिकार करने की तैयारी की । बुराड़ी में तुम्हारी पेश चल जाती, शाफ्ट तुम्हारे कब्जे में आ जाता तो एक तो तुम्हारे कम्पीटीटर के कस बल निकल जाते और दूसरे लोकल मार्केट की ड्रग्स की कमी पूरी करने के लिये हेरोइन तुम्हारे और सिर्फ तुम्हारे पास उपलब्ध होती ।”

“ये सब कुछ उस चिट्ठी में दर्ज है ?”

“हां ।”

“लेकिन इसमें से किसी बात को तुम साबित नहीं कर सकते ।”

“मरने वाले का इकबालिया बयान सबूत ही होता है ।”

“जरूरी नहीं । तुम्हारे कह देने भर से हम बाशा नहीं बन जायेंगे । बाशा का वजूद तो समझो अभी खत्म हो गया ।”

“पीपट जानता है कि सलीम खान ही बाशा था । जब शाफ्ट पुलिस के कब्जे में आ जायेगा तो जयपुरिया-दासानी रोडलिंकर्स से उसका सम्बन्ध अपने आप ही स्थापित हो जायेगा । फिर दासानी क्या इस बात से मुकर सकेगा कि वो पुर्जा उसकी पेपर मिल में काम आने के हवाले से दिल्ली पहुंचा था ? नहीं मुकर सकेगा तो उसमें मौजूद हेरोइन का उसके पास क्या कोई जवाब होगा ? जब वो लोग फंसेंगे तो क्या पीपट बचा रह सकेगा ? क्या वो दोनों पार्टनर हेरोइन स्मगलिंग में पीपट के रोल को गा गा के बयान नहीं करेंगे ? तब जरा सोचो कि पीपट आगे क्या राग अलापेगा !”

“मिस्टर कोहली, तुम्हारी जानकारी के लिये जयपुरिया कोई गाना नहीं गा सकेगा ।”

“अच्छा !”

“हां ।”

“वो यहीं था । मैंने उसे यहां मौजूद देखा था । लगता है वो अपनी जान से हाथ धो चुका है ।”

“अभी भी धो रहा है । मुहावरे के तौर पर नहीं, असल में । उसकी लाश इस घड़ी जमना में डूब-उतरा रही है ।”

“ओह !”

“बहुत अच्छा हुआ कि ऐन हमारी जरूरत के वक्त उसका पार्टनर दासानी भी दिल्ली लौट आया ।”

“हे भगवान ! कहीं तुम लोगों ने उसे भी तो नहीं मार डाला ?”

“वो भी दरिया के हवाले है ।”

वैशाली के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली ।

किसी ने उसकी तरफ तवज्जो न दी ।

“इस वक्त दोनों पार्टनर जमना में वाटर पोलो खेल रहे हैं । उन्हें एक रैफरी की जरूरत होगी । तुम होशियार आदमी हो, तुम्हें भी उनके पास भेजा जा सकता है ।”

“तुम मेरा भी कत्ल करोगे ?”

“शाफ्ट की बाबत नहीं बताओगे, अपनी खामोशी को अपना हथियार बनाओगे तो करना ही पड़ेगा ।”

“हूं ।”

“लैला तुम्हारे पर मर मिटी है इसलिये बचाव का एक रास्ते ये तुम्हें सुझा सकती है ।”

“क्या ?”

“बता, भई !”

“हेरोइन का पता बोलो ।” - लैला बोली - “और अपना प्राइवेट डिटेक्टिव का धन्धा हमेशा के लिये छोड़ कर हमारी ऑर्गेनाइजेशन में शामिल हो जाओ ।”

“फिर देखना” - सलीम खान बोला - “बहुत जल्द दौलत के अम्बार पर बैठे दिखाई दोगे, मिस्टर कोहली ।”

“ये संजीदा ऑफर है” - मैं बोला - “या इसमें भी कोई भेद है ?”

“संजीदा ऑफर है ।” - सलीम खान बोला ।

“मैं गारन्टी करती हूं ।” - लैला बोली - “ऑफर कबूल करो, शागिर्द । क्या रखा है प्राइवेट डिटेक्टिव के धन्धे में ! जिन्दगी में कब तक चवन्नियां-अठन्नियां ही बटोरते रहोगे ! दौलत के पहाड़ की चोटी पर पहुंचने का मौका तुम्हारे सामने है ! क्यों उसकी पहली सीढ़ी पर ही टिके रहना चाहते हो !”

मैंने यूं सिर हिलाया जैसे मुझे उसकी बात से इत्तफाक था ।

“समझदार आदमी हो ।” - मैं वैशाली की तरफ संकेत करता हुआ बोला ।

“इसका क्या होगा ?” - मैं वैशाली की तरफ संकेत करता हुआ बोला ।

“इसे तो कुर्बान होना पड़ेगा ।”

तत्काल वैशाली का चेहरा फक पड़ गया । वो सिर से पांव तक जोर से कांपी ।

“तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा ?” - लैला बोली - “ये कौन सी तुम्हारी कोई सगेवाली है !”

“लेकिन...”

“तुम भूल रहे हो कि ये कोई आम लड़की नहीं ।” - सलीम खान सख्ती से बोला - “ये उन दोनों पार्टनरों में से एक की मुलाजिम थी । ये बहुत कुछ जानती हो सकती है ।”

“मैं कुछ नहीं जानती ।” - वैशाली के मुंह से निकला ।

“क्या पता चलता है !”

“मैं सिर्फ हाउसकीपर थी दासानी साहब की ।”

“पहले नहीं तो अब तो बहुत कुछ जानती हो । और कुछ नहीं तो ये तो जानतो हो कि तुम्हारे एम्पलायर और उसके पार्टनर का खून हो चुका है और उस खून से किनके हाथ रंगे हैं !”

वैशाली चुप हो गयी । उसने कातर भाव से मेरी तरफ देखा ।

मैंने आंखों ही आंखों में उसे आश्वासन दिया ।

“मिस्टर कोहली” - सलीम खान बोला - “एक ही स्ट्रोक में जर और जन एक साथ किसी किस्मत वाले को ही मुहैया होते हैं ।”

“जन के बारे में मैं आश्वस्त नहीं ।”

“क्या मतलब ?”

“पीपट लैला पर दिल रखता है...”

“कौन कहता है ?” - लैला तत्काल प्रतिवादपूर्ण स्वर में बोली ।

“मैं कहता हूं । ‘अब्बा’ में जब तुम मेरे साथ डांस कर रही थीं तो ये हमें देख देखकर अंगारों पर लोट रहा था, इसका बस चलता तो उस घड़ी ये निगाहों से ही मुझे भस्म कर देता ।”

“नॉनसेंस !”

“मेरी तुम्हारे से कोई कन्टीन्यूटी बनी तो ये मेरा खून कर देगा ।”

“इसकी मजाल नहीं हो सकती ।”

“पक्की बात ?”

“हां ।”

“हम गारन्टी करते हैं ।” - सलीम खान बोला ।

“फिर क्या बात है !”

“गुड । अब बोलो शाफ्ट कहां है ?”

“बताता हूं । पहले वैशाली को यहां से जाने दो ।”

“ये नहीं हो सकता ।”

“फिर तो वो भी नहीं हो सकता ।”

सलीम खान के चेहरे पर क्रोध के भाव आये ।

“बास” - पीपट हिंसक भाव से बोला - “ये आदमी हमें उल्लू बना रहा है । टालमटोल की जुबान बोल कर ये वक्त हासिल करने की कोशिश कर रहा है...”

“जैसे हासिल वक्त इसके किसी काम आ जायेगा ।”

“...आप मुझे पांच मिनट, सिर्फ पांच मिनट की मोहलत दीजिये, मैं अभी इसकी जुबान खुलवा कर दिखाता हूं ।”

“पांच मिनट में तुम क्या करोगे ?”

“जो करूंगा, आपके सामने करूंगा । मैंने पांच मिनट की मोहलत मांगी है लेकिन मुझे यकीन है कि मैं एक मिनट में कामयाब हो जाऊंगा ।”

“ऐसा !”

“हां ।”

“ठीक है । दी मोहलत ।”

पीपट के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे उसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो । चेहरे एक एक क्रूर मुस्कराहट लिये वो आगे बढ़ा । एक-एक कदम ठोक कर फर्श पर रखता वो मेरे सामने आ खड़ा हुआ । फिर उसने ड्रामेटिक अन्दाज से अपनी पतलून में से अपनी चौड़ी बैल्ट खींची । उसने बैल्ट को हवा में फटकारा और नफरत से धधकती निगाहों से मेरी तरफ देखा ।

“तैयार !” - वो बोला 

मैंने आंखें मींच लीं ।

बैल्ट की कोड़े जैसी फटकार हवा में गूंजी, साथ ही एक तीखी चीख मेरे कानों में पड़ी ।

मैंने घबराकर आंखें खोलीं ।

तत्काल मेरी समझ में आया कि क्या हुआ था ।

उसने बैल्ट का वार मेरे पर नहीं, वैशाली पर किया था । उसके एक ही राक्षसी वार ने जैसे वैशाली को अधमरा कर दिया था 

“इसे रोको ।” - मैं चिल्लाया - “मैं बताता हूं ।”

“क्या जल्दी है !” - पीपट ने अट्टहास किया और फिर वैशाली पर वार किया 

उसकी दर्दभरी चीख फिर मेरे कानों के पर्दे भेद गयी 

“खान साहब, इसे रोको ।” - मैंने फरियाद की - “खुदा के वास्ते इसे रोको । मैं बताता हूं शाफ्ट कहां है !”

“पक्की बात ?” - सलीम खान बोला ।

“हां । प्लीज ।”

“पीपट ! रुक जा ।”

पीपट का नये वार को तैयार हाथ हवा में ही रुक गया । उसने विजेता के से भाव से मेरी तरफ देखा और फिर हाथ झुका लिया ।

“शाबाश !” - सलीम खान बोला - “अच्छी नस पकड़ी इसकी ।”

“शुक्रिया, बॉस ।”

“कैसे सूझा ?”

“उस तसल्ली से सूझा जो ये अभी आंखों आंखों में इस लड़की को दे रहा था ।”

“बढ़िया ।”

“आज दिन में इसके ऑफिस में मैं इसकी बातों में आ गया था जिसका कि मुझे अफसोस है । यही पैंतरा मैंने इसकी सैक्रेट्री पर आजमाया होता तो ये पहले ही सब बक चुका होता ।”

“हूं ।” - फिर सलीम खान मेरी तरफ घूमा - “अब बोलो, बिरादर, कहां छुपाया हमारा माल ?”

मैंने बोला ।

***

हम दोनों फिर बेसमेंट में बन्द थे ।

शाफ्ट की बरामदी के लिये एक टीम हमारी ऊपर मौजूदगी के दौरान ही बुराड़ी रवाना कर दी गयी थी ।

अब ये बात निश्चित थी कि हम तब तक ही जिन्दा थे जब तक कि शाफ्ट उनके कब्जे में नहीं आ जाता था । हमारा तत्काल काम तमाम जरूर इसलिये नहीं किया गया था कि कहीं मैंने उनसे झूठ न बोल दिया होता ।

वैशाली तब भी थर-थर कांप रही थी ।

“धीरज रखो ।” - मैं उसकी पीठ थपथपाता हुआ बोला - “मेरी मौत के बाद के वाकयात पर मेरा काबू नहीं लेकिन जब तक मैं जिन्दा हूं, तब तक तुम्हें कुछ नहीं होने वाला ।”

उसके मुंह से एक घुटी हुई सुबकी निकली ।

“मेरी आंखों के आगे तुम्हें कुछ हो गया तो मैं अपनी मौत से पहले मर जाऊंगा । मैं अपनी आखिरी सांस तक तुम्हारी हिफाजत करूंगा ।”

“तुम क्या करोगे ?” - वो फंसे कण्ठ से बोली - “क्या कर सकते हो ?”

“कुछ तो करूंगा ही ।”

“क्या फायदा होगा ?”

“होगा । हिम्मतेमर्दा मददेखुदा ।”

“मुझे नहीं लगता कि हमारा खुदा भी इस वक्त हमारी कोई मदद कर सकेगा ।”

“अभी हम जिन्दा हैं न ?”

“हां लेकिन...”

“ये क्या छोटी बात है ?”

“लेकिन...”

“जब तक सांस तब तक आस ।”

वो खामोश हो गयी ।

“ये न भूलो कि जो हो रहा है इससे बुरा हो सकता था ।”

“इ... इससे भी बुरा हो सकता था ?”

“हां । रजनी हमारे साथ हो सकती थी । याद करो शाम का हमारा ओरीजिनल प्रोग्राम क्या था !”

“ओह ! ओह !”

“अब तुम अपने आप को काबू में करो ताकि मैं इस चूहेदान से निपटने की कोई जुगत कर सकूं ।”

“कर सकोगे ?”

“शायद कर सकूं । वैसे सुधीर कोहली की फेमस लक बिल्कुल ही उससे रूठ गयी हो तो बात दूसरी है ।”

वो फिर न बोली ।

मैं भट्टी वाले कमरे में पहुंचा ।

तख्त या तख्ता जैसी एक खतरनाक स्कीम मेरे जेहन में थी लेकिन पता नहीं उस पर अमल कर पाना मुमकिन होने वाला था या नहीं 

मैं सबसे पहले बार पर पहुंचा जहां से एक उम्दा स्कॉच विस्की की बोतल उठा कर मैंने उसके दो पैग हलक में उतारे । फिर मैं भट्टी वाले कमरे में पहुंचा । मैंने भट्टी के फ्यूल टैंक का ढक्कन खोला तो पाया कि वो मिट्टी के तेल से ज्यादा भरा हुआ था । वहीं भट्टी की सफाई करने और झाड़-पोंछ करने के लिये कुछ पुरानी धोतियां पड़ी थीं जो वैसे ही और कामों के लिये भी इस्तेमाल होती थीं । उन धोतियों को फाड़-फाड़ कर मैंने एक लम्बी रस्सी बनायी और फिर उसे मिट्ठी के तेल में डुबो कर खूब गीला कर लिया । उस रस्सी का एक सिरा मैंने टैंक में ही घुसा रहने दिया और रस्सी को फर्श पर बिछाते हुए उसका दूसरा सिरा मैं बाहर बेसमेंट के मध्य तक ले आया ।

भट्टी वाले कमरे का दरवाजा मैंने मजबूती से बाहर से बन्द कर दिया ।

अब फर्श पर बिछी तेल से भीगी रस्सी दरवाजे के नीचे से होकर टैंक तक पहुंच रही थी ।

फिर मैंने टेबल टेनिस की दोनों मेजों के दो-दो हिस्से नैट के पास से अलग किये और बारी बारी उन्हें बेसमेंट के सीढ़ियों के करीब के सब से दूर दराज कोने पर पहुंचाया । वैसे ही किसी तरह मैंने और वैशाली ने मिलकर, बिलियर्ड की टेबल और कोई और मेज, कुर्सी, स्टूल जैसी जो भी भारी चीज दिखाई दी, वहां उस कोने में पहुंचाई । उन तमाम चीजों को मैंने वहां यूं व्यवस्थिति किया कि हम उनके पीछे दुबक कर बैठ पाते ।

“क्या कर रहे हो ?” - वैशाली सस्पेंसभरे भाव से फुसफुसाई - “क्या होगा ?”

“पता नहीं ।”

“क्या मतलब ?”

“ये निश्चित नहीं है कि जो मैं करना चाहता हूं, वो होगा या नहीं होगा ।”

“करना क्या चाहते हो ?”

“फर्श पर पड़ी वो रस्सी देख रही हो ?”

“हां ।”

“वो मिट्टी के तेल से भीगी हुई है और उसका दूसरा सिरा भीतर भट्टी के फ्यूल टैंक में है । शाफ्ट लेने गयी टीम के लौट आने के बाद मेरा इरादा इस रस्सी को आग दिखा देने का है । रस्सी जलने लगेगी तो वो काम करेगी जो बम में पलीता करता है । जलती रस्सी के जरिये आग फ्यूल टैंक तक पहुंचेगी तो टैंक भक्क से उड़ जायेगा ।”

आतंक से उसके नेत्र फैले 

“वो सिलसिला कितना स्ट्रांग होगा, उसका कोई अन्दाजा लगा पाना मुहाल है ।” - मैं बोला - “हो सकता है कि वो सिर्फ उस कमरे की छत और एकाध दीवार उड़ाने में ही कामयाब हो । हो सकता है वो इस सारे बंगले को ही उड़ा दे ।”

“फिर हम कैसे बचेंगे ?”

“सारा बंगला उड़ गया तो शायद ही बचेंगे । लेकिन इन कमीनों के हाथों मरने से तो वो मौत अच्छी ही होगी । तब साथ में दुश्मनों को ले‍कर तो मरेंगे ।”

“ओह !”

“उनके हाथों हमारे बचाव की सम्भावना तो जीरो है जबकि यहां फिर भी कोई दूर दराज की सम्भावना है ।”

“है ?”

“इतने सारे फर्नीचर की ओट हमने इसीलिये बनाई है । विस्फोट के वक्त हम यूं बनी शैल्टर के पीछे दुबके होंगे । शायद विस्फोट इतना भीषण न हो । शायद इधर का हिस्सा बच जाये ।”

“शायद ।” - वो अनिश्चित भाव से बोली ।

“तभी तो बोला कि जब तक सांस तब तक आस ।”

“कोई पहले ही यहां आ गया तो ?”

“पहले ?”

“शाफ्ट के लौटने से पहले ? मसलन अभी ?”

“किसलिये ?”

“किसी भी वजह से । शायद कैदियों को चैक करने । शायद उस बिग बॉस को तुमसे कोई नयी बात पूछना याद आ जाये । शायद तुम्हारी मुरीद वो लड़की तुमसे आखिरी मुलाकात की ख्वाहिशमन्द हो उठे ।”

“ओह !”

उसने बहुत पते की बात कही थी । ऐसी बात कही थी जो मुझे सूझनी चाहिये थी । कोई उस घड़ी एकाएक वहां पहुंचता और बेसमेंट का सारा भारी सामान एक कोने में जमा देखता तो असल बात भले ही न समझ पाता, हमारी नीयत पर कोई फौरी शक जरूर करता ।

इस सन्दर्भ में मैं एक सावधानी बरत सकता था जो कि मैंने बरती ।

मैंने सीढ़ियों के दरवाजे को अपनी तरफ से कुंडी और चिटकनी लगा दी ।

अब कोई एकाएक हमारे सिर पर नहीं पहुंच सकता था । अब दरवाजा तोड़कर ही ऐसा किया जा सकता था 

दरवाजे पर पहली चोट पड़ते ही मैं पलीते को आग लगा सकता था ।

यूं हेरोइन और उसको लाने गयी टीम बच जाती लेकिन हमारी रिहाई का सामान पीछे फिर भी हो सकता था 

मैं वैशाली के पास वापस लौटा ।

“अब ?” - वो बोली 

“अब इन्तजार ।”

इन्तजार की घड़ियां शुरु हुई 

मेरे कान बाहर से आती छोटी से छोटी आवाज को पकड़ने के‍ लिये खड़े थे 

“तुमने” - एकाएक वो बोली - “कागज पर क्या नाम लिखा था ?”

मैंने बताया ।

“सूझा कैसे ?”

“तुक्का मारा ।” - मैं हंसता हुआ बोला ।

“तुक्का !”

“वैसे नाम सुझाने वाली भी कई बातें थीं ।”

“मसलन क्या ?”

“एक तो जयपुरिया का ही कहना था कि पीपट टॉप बॉस नहीं था । दूसरे हर काम के लिये उसका खुद भागा फिरना भी यही जाहिर करता था ।”

“इससे तो ये सूझा न कि वो टॉप बॉस नहीं था ! ये कैसे सूझा कि टॉप बॉस वो शख्स था जिसे तुमने ऊपर सलीम खान के नाम से पुकारा था ?”

“किसी ने तो होना ही था । वो एक ऐसा रहस्यभरा किरदार था जिसकी हाजिरी बराबर लगी हुई थी लेकिन वो तस्वीर में कहीं फिट होता दिखाई नहीं देता था । दूसरे, मुझे उसके विदेशी होने पर शक था । तीसरे; इस बात की तरफ पुलिस का भी और गुरबख्शलाल के भूतपूर्व लेफ्टीनेंट कुशवाहा का भी साफ इशारा था कि अन्डरवर्ल्ड बिरादरी का ही कोई मेम्बर लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड पर काबिज होने की कोशिश कर रहा था । चौथे, वो कथित बाशा मुझे जब भी मिला या तो नीमअन्धेरे में मिला और या कह कर भी न मिला । जैसे वो हमेशा मुझे लैला उर्फ रोशनी के हवाले करता रहा, उससे भी मुझे शक हुआ कि वो दोनों बाप बेटी नहीं थे । फिर ‘अब्बा’ में पीपट की मौजूदगी ने भी मेरा काफी मार्ग निर्देशन किया ।”

“वो कैसे ?”

“उसे वहां मौजूद पा कर मैं समझा था कि वो मेरी वजह से वहां था लेकिन अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वो लैला की वजह से वहां था । वहां जब मैं लैला के साथ डांस कर रहा था तो वो हमें देख देख कर अंगारों पर लोट रहा था । उसकी आंखों में ईर्ष्या की ज्वाला धधक रही थी । इसका साफ मतलब था कि वो लैला से वाकिफ था । अब जब वो लैला से वाकिफ था तो उसके कथित बाप से नावाकिफ कैसे हो सकता था ! ऊपर से पाण्डेय हालीडे इन से उसके पीछे लगा था । उसका हालीडे इन में क्या काम ! वो तो पार्क होटल में ठहरा हुआ था । लिहाजा जरूर वो वहां बाशा उर्फ सलीम खान का हुक्का भरने गया था ।”

“दूर की कौड़ी है ।”

“वो तो है । तभी तो मैंने बोला कि तुक्का मारा था ।”

“ब्लफ खेलने में काफी उस्ताद हो ।”

“पी.डी. को होना पड़ता है । ब्लफ खेले बिना पी.डी. का काम नहीं चलता ।”

“ब्लफ न चले तो ?”

“तो बेड़ागर्क । जैसे अभी ऊपर होता । कागज पर मेरा लिखा नाम गलत होता तो पीपट जरूर वहीं मुझे गोली मार देता ।”

“ओह !”

“हर जानकारी प्लेट में सजी हुई ही पेश नहीं होती पी.डी. को । कुछ बातें यूं भी जानी जाती हैं ।”

“बड़े खतरनाक प्रोफेशन में हो, मिस्टर सुधीर कोहली ।”

“वो तो है लेकिन जैसा इस वक्त हो रहा है, वैसा मेरी गुजश्ता जिन्दगी में पहले कभी नहीं हुआ । आज जानबख्शी हो गयी तो आइन्दा मेरी पूरी कोशिश होगी कि ऐसी क्रॉस फायर में मैं दोबारा कभी न फंसूं ।”

“उम्मीद है जानबख्शी की ?”

“बराबर है । उम्मीद पर तो दुनिया कायम है । और...”

मैं खामोश हो गया । मेरे पहले से खड़े कान और खड़े हो गये ।

बाहर से ट्रक के भारी इंजन की आवाज आ रही थी । आवाज मुतवातर करीब होती जा रही थी ।

मैंने उसका कन्धा थपथपा कर उसे आश्वासन दिया और उठकर भट्टी वाले कमरे में पहुंचा । मैंने भट्टी पर चढ़कर सावधानी से रोशनदान से बाहर झांका । मैंने देखा कि ड्राइव वे में एक ट्रक आन खड़ा हुआ था । मेरे सामने उसका इन्जन शान्त हुआ और पोर्टिको की एक लाइट जली । फिर बंगले से निकलते कुछ कदमों की आहट हुई और नोरा समेत ट्रक में से कई जने बाहर निकले ।

शाफ्ट वहां पहुंच चुका था 

“वहीं था ?” - मुझे सलीम खान की आवाज सुनायी दी, अलबत्ता वो मुझे दिखाई न दिया ।

“हां ।” - नोरा बोला - “स्क्रैप के नीचे बड़ी उस्तादी से छुपाया हुआ ।”

“वो उस्तादी अभी भी जारी हो सकती है ।”

“जी !”

“उस कमीने ने हेरोइन निकाल कर कहीं और छुपा दी हो सकती है ।”

“ओह !”

“शाफ्ट को भीतर लाओ । चैक करना होगा ।”

कई लोगों ने मिलकर शाफ्ट को ट्रक से उतारा और फिर उसे भीतर ले चले । फिर एक दरवाजा बन्द होने की आवाज आयी और पोर्टिको में अन्धेरा छा गया 

मैं भट्टी पर से उतरा । मैं कमरे से बाहर निकला और अपने पलीते को एक बार फिर चैक किया कि वो अपनी जगह से हिला नहीं था और वो तब भी मिट्टी के तेल से भीगा हुआ था । फिर मैंने भट्टी वाले कमरे का दरवाजा मजबूती से बाहर से बन्द कर दिया ।

ऊपर कहीं से हथौड़ा चलने की आवाज आ रही थी 

जरूर वो शाफ्ट को पूरे का पूरा ही खोल देने की फिराक में थे ।

“तैयार !” - मैं बोला 

वैशाली ने सहमति में सिर हिलाया ।

मैंने लाइटर निकाल कर पलीते के सिरे को आग लगायी और फर्नीचर के ढेर के पीछे वैशाली के पहलू में जा दुबका ।

पलीते ने आग पकड़ ली जो कि रस्सी के जरिये तेजी से भट्टी वाले कमरे की ओर बढ़ने लगी ।

वैशाली ने आंखें बन्द कर लीं और होंठों में बुदबुदाती हनुमान चालीसा का पाठ करने लगी ।

“मेरे लिये भी दुआ करना ।” - मैं बोला ।

उसने उत्तर न दिया ।

आग की लपट बन्द दरवाजे को पार कर गयी और दिखाई देनी बन्द हो गयी 

मैंने वैशाली का‍ सिर पकड़कर जबरन उसकी गोद में धकेल दिया और खुद भी कानों पर हाथ रखके अपना सिर अपने घटनों के बीच दबा लिया ।

एक सैकेंड में एक हजार मौत मरता मैं प्रतीक्षा करने लगा ।

एक गगनभेदी धमाका हुआ ।

मैंने सिर उठाया ।

मैं सिर उठा सकता था, यही इस बात का सबूत था कि मैं जिन्दा था 

मैंने जबरन वैशाली को झिंझोड़ा 

वो भी सलामत थी ।

सामने बेसमेंट की छत ढह गयी थी और उधर की दीवारें गायब थीं ।

दो बातों ने हमारी रक्षा की थी ।

एक तो इस बात ने कि हमारे वाले कोने की छत ढहने से रह गयी थी वरना हम वहीं अपनी पनाहगाह में ही जिन्दा दफन हो जाते ।

और दूसरे फर्नीचर की ओट ने, खास तौर से भारी बिलियर्ड टेबल ने, बहुत मार्के का काम किया था । बेशुमार ईंट-पत्थर उससे आकर टकराये थे लेकिन वो अपनी जगह से नहीं हिली थी ।

अब वातावरण में कसैला धुंआ फैला हुआ था जिसमें सांस लेना दूभर हो रहा था और वो गहरता जा रहा था ।

मैंने उसे बांह पकड़ कर फर्नीचर के पीछे से निकाला और फिर हम खांसते कराहते सामने की तरफ बढ़े । ढेरों मलबे को पार करके हम बाहर खुले में पहुंच गये तो हमारी जान में जान आयी ।

तभी एक और गगनभेदी धमाका हुआ और वो बंगला रहा सही भी ढेर हो गया 

हम बाल बाल बचे थे 

हमारे देखते देखते ढह कर खंडहर बन चुका बंगला मुकम्मल तौर से शोलों के हवाले हो गया ।

बंगला भीतर मौजूद तमाम लोगों की सामूहिक चिता बन गया 

वन-वे स्ट्रीट के झण्डाबरदारों का उनके प्राइड पोजेशन हेरोइन के समेत समूल नाश हो गया 

उनका भी और उनके प्रतिद्वन्द्वियों का भी ।

पाण्डेय के हत्यारे उस नरकीय मौत के हवाले हो गये 

आप के खादिम के मन ने चैन पाया ।

तभी वातावरण में पुलिस के सायरन की आवाज गूंजी ।

***

बाकी की सारी रात और अगला आधा दिन पुलिस हैडक्वार्टर में बीता ।

डी.सी.पी के रैंक तक के जिन पुलिस के अधिकारियों ने हमारी जवाबतलबी की, उनमें इंस्पेक्टर सबसे जूनियर था ।

पहले दौर में किसी को मेरी कहानी पर विश्वास न आया ।

मुझे अपनी कहानी कई बार दोहरानी पड़ी । उस दौरान कई बार मुझे लॉकअप में बन्द किया गया, कई बार निकाला गया ।

पुलिस अ‍धिकारी मुझसे सबसे ज्यादा खफा इस बात पर थे कि मैंने न सिर्फ हेरोइन की खेप को हाईजैक किया बल्कि उसे पुलिस को सौंपने की जगह अपने कब्जे में रखा ।

जो कि मेरा गम्भीर अपराध था ।

भोर भये तक पता चला कि जयपुरिया और दासानी की लाशें जमुना में से निकाली जा चुकी थीं और दोनों की हालत से साफ जाहिर होता था कि मौत से पहले उन्हें बुरी तरह से टार्चर किया गया था ?

प्रिया सिब्बल की लाश पहले ही बरामद हो चुकी थी लेकिन उसकी शिनाख्त करने वाला कोई नहीं था । लाश मुझे दिखाई गयी तो मैंने उसकी शिनाख्त की । ये पहले ही स्थापित हो चुका था कि वो भी टार्चर से मरी थी ।

शुक्र था कि दिनेश वालिया की आत्महत्या पुलिस को पहले ही हज्म नहीं हो रही थी । ऊपर से बाद में मेरी दरख्वास्त पर विपाशा की तलाश और उससे पूछताछ करने पर पता चला कि पीपट और नोरा जब वालिया के स्टूडियो में पहुंचे थे, तब विपाशा वहां मौजूद थी । उसने ऐसी बारीकी से उन दोनों का हुलिया बयान किया कि पुलिस को ये कबूल करने पर मजबूर होना पड़ा कि अपनी मौत से पहले वालिया उन दोनों के कब्जे में था । लिहाजा उसकी आत्महत्या की कहानी झूठी हो सकती थी और मेरी तसलली के लिये, मेरी शर्त पूरी करने के लिये, गढ़ी गयी हो सकती थी ।

उन तमाम बातों ने मेरी कहानी को काफी बल दिया और मेरे हक में काफी काम किया लेकिन मेरी असल जान वैशाली के बयान ने बचायी जो कि पीछे बंगले में जो बीती थी, उसकी चश्मदीद गवाह थी ।

इंस्पेक्टर यादव ने मेरे पर दो मेहरबानियां कीं ।

एक तो उसने आनन फानन बोनो को खोज निकाला जिसके लिये कि उसने ऐन सही जगह से शुरुआत की । अगर उन सबका बॉस जामा मस्जिद के इलाके का नामचीन दादा था और उसी इलाके में रहता भी था तो उसके दायें बायें वालों को भी वहीं कहीं होना चाहिये था । लिहाजा बोनो बड़ी आसानी से यादव के हाथ में आ गया जिसके बारे में पता लगा कि वो बन्ने नाम का इलाके का एक मामूली बदमाश था, इत्तफाक से खुदा ने जिसे अच्छी सूरत शक्ल बख्शी थी ।

उसने इस बात की तसदीक की कि लैला असल में रोशनी नाम की एक भूतपूर्व कैब्रे डांसर थी और हॉलीडे इन में ठहरा बाशा अब्दुल रहीम अल रशीदी असल में सलीम खान था ।

मेरे हक में दूसरा काम यादव ने ये किया कि उसने उस टैक्सी ड्राइवर को खोज निकाला जिसकी टैक्सी पर सवार होकर हम लोग ‘अब्बा’ से हयात के लिये रवाना हुए थे । उस टैक्सी ड्राइवर ने इस बात की तसदीक तो की ही कि मेरा और वैशाली का पिछली रात जबरन अगवा किया गया था बल्कि अपनी चार सवारियों में से एक की सूरत में बन्ने को भी साफ पहचाना ।

हमारे अपहर्त्ता बंगले के बाहर के फाटक की झाड़ियों में तब भी बेहोश पड़े पाये गये थे जब कि आगजनी के बाद पुलिस वहां पहुंची थी । पुलिस ने उन्हें और उनके हथियारों को, उन्हीं के पास मौजूद मेरी रिवॉल्वर को भी, अपने कब्जे में कर लिया था । थोड़ी हील हुज्जत के बाद उन सबने कबूल किया कि वो सब जयपुरिया के आदमी थे और उन्होंने जो कुछ किया था, जयपुरिया के आदेश पर किया था ।

पुलिस ने दासानी की गाजियाबाद स्थित पेपर मिल पर रेड की तो ड्राइव शाफ्ट बिगड़ा होने की कहानी झूठी साबित हुई । पेपर मिल की मशीनरी में ड्राइव शाफ्ट अपनी जगह पर मौजूद था । यानी कि जो ड्राइव शाफ्ट बिगड़ा हुआ बता कर मुम्बई अरसाल किया गया था, वो एकस्ट्रा था जिसे कि मरम्मत का बहाना बनाकर भेजा और वापिस मंगाया गया था । वहां से पुलिस को ऐसे भी सबूत मिले कि वो पेपर मिल असल में यू.पी. में हेरोइन के व्यापार के लिये ओट का काम करती थी ।

पेपर मिल जैसा ही छापा जयपुरिया की कोठी पर और ट्रांसपोर्ट कम्पनी के गोदाम पर भी पड़ा । दोनों जगह से हेरोइन या कोई दूसरी गैरकानूनी आइटम तो न बरामद हुई अलबत्ता ढेरों ब्लैक मनी पुलिस के हत्थे चढ़ी जो कि उन दोनों जगहों पर छुपा कर रखी गयी थी 

पुलिस अपनी ढिठाई को बरकरार रखती मानती या न मानती लेकिन असल में वो बातें भी मेरे हक में जाती थीं ।

आखिरकार दोपहरबाद दो बजे के करीब गम्भीर से गम्भीर वार्निंग के साथ आप के खादिम की और वैशाली की पुलिस हैडक्वार्टर से वापसी हुई ।

बाद में रजनी ने इस बात के लिये मेरी बहुत तारीफ की कि मैंने संकट की घड़ी में अपनी जान से ज्यादा अजीज उसकी कजन की जान को माना था । न सिर्फ तारीफ की बल्कि बार-बार मेरी शुक्रगुजार हुई 

लेकिन हुई अपने पुत्री पाठशाला से सीखे दकियानूसी तरीके से ही ।

वो नहीं जानती थी कि ऐसे मौकों पर एम्पलायर की गोद में बैठकर उसे हाई वोल्टेज पप्पी देकर शुक्रगुजार हुआ जाता था ।

कम्बख्त को एक तो कुछ आता नहीं था, ऊपर से कुछ सीखना भी नहीं चाहती थी ।

पैसे के जैसे बड़े-बड़े प्रलोभन मुझे उस केस में मिले थे, वैसे मुझे पहले कभी न मिले हों, ऐसा नहीं था - आप का खादिम इससे पहले मलिका के ताज वाले केस में ही साढ़े बासठ लाख रुपये की रकम से पीठ फेर कर दिखा चुका था । कमला ओबराय जैसी चिकनी औरत को और उसके हत्प्राण पति से विरसे में मिली उस की दौलत को नकार चुका था वगैरह, वगैरह और वगैरह - लेकिन प्रलोभनों ने मुझे विचलित न किया हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था । इस बार भी इसलिये हुआ था कि मरहूम पाण्डेय की याद में मेरी कमिटमेंट थी कि मैं उसकी मौत का बदला लेकर रहूंगा । बहरहाल बतौर ईजी मनी बीस हजार रुपये मेरे हाथ फिर भी लगे थे जो कि मुझे ‘बाशा’ की तरफ से ‘लैला’ ने दिये थे, जिसके लिये कि मुझे कुछ करना धरना नहीं पड़ा था ।

जो दस हजार रुपये बतौर एडवांस फीस मुझे प्रिया से मिले थे, वो तो मैंने पूरी तरह से सिर धड़ की बाजी लगाकर कमाये थे 

बहरहाल उस केस की कोई यादगार बात थी तो ये थी कि हमेशा के लिये नहीं तो कम से कम वक्ती तौर पर तो लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड की कमर टूट ही गयी थी, वक्ती तौर पर तो वन-वे स्ट्रीट पर नो ऐन्ट्री का साइन बोर्ड लग ही गया था ।

और यूअर्स ट्रूली निश्चित मौत का निवाला बनने से बाल बाल बचा था ।

 

समाप्त