रूपचन्द जगनानी दत्तानी की कोठी में ड्राइंगरूम के पिछवाड़े के बैडरूम में एक कुर्सी के साथ बंधा हुआ था ।
इकबाल सिंह उसकी बाबत एक बड़ा स्पष्ट निर्देश देकर वहां से जा चुका था । वह इस बात से बहुत खफा था कि जगनानी ने सोहल की बाबत उसे बेवकूफ बनाया था और खामखाह उसे चैम्बूर तक का चक्कर लगवा दिया था । इकबाल सिंह वहां यह कहकर गया था कि वह कफ परेड वाले ‘कम्पनी’ के आफिस में जा रहा था जहां वह दो-ढाई घण्टे टिकने वाला था । वापिसी में वह फिर वहां का चक्कर लगाकर जाने वाला था जबकि वह चाहता था कि रूपचन्द की इतनी खिदमत हो चुकी हो कि उन्हें दोबारा कोई चर्का देने का ख्याल से ही उसकी रूह कांपती हो ।
मूर्ति रूपचन्द को काफी यातनाएं दे चुका था, अन्त में जब वह बिजली की प्रैस गर्म करके उसके जिस्म को झुलसा रहा था तो रूपचन्द बेहोश हो गया था ।
“इसे होश में लाओ ।” - दत्तानी बेसब्रेपन से बोला ।
मूर्ति ने रूपचन्द के बाल पकड़कर उसका लहूलुहान चेहना ऊपर उठाया और उस पर ढेर सारा ठण्डा पानी फेंककर मारा ।
रूपचंद की आंखें फड़फड़ाई ।
“अब क्या मर्जी है, रूपचन्द ?” - दत्तानी उसके करीब जाकर बोला ।
“वही सोहल है ।” - रूपचन्द कराहकर बोला - “वही सोहल है ।”
“यह रट तू नहीं छोड़ेगा ?”
“वही सोहल है ।”
“मैं सच ही आदमी भेजूं तेरे पुटड़े की बीवी और बेटी को यहां पकड़ मंगवाने के लिए ?”
“नहीं, नहीं । ऐसा न करना ।”
“तो फिर सच बोला ।”
“मैं सच बोल रहा हूं । वही सोहल है ।”
“अच्छा ऐसा कर । शुरु से बता कि कैसे तू डकैतों के फेर में आ गया था ।”
रूपचन्द खामोश रहा ।
“मूर्ति !” - दत्तानी दहाड़ा ।
“बताता हूं ।” - रूपचन्द हांफता हुआ बोला - “बताता हूं ।”
“शाबाश ।”
“मुझे एक गिलास पानी...”
“बाद में । जितनी जल्दी तेरी कहानी खत्म होगी, उतनी ही जल्दी मूर्ति तुझे पानी पेश करेगा ।”
“फिर तुम मुझे छोड़ दोगे ?”
“हां । फौरन ।”
“और मेरी फैमिली को कुछ नहीं कहोगे ?”
“आंख भी नहीं उठाएंगे उस तरफ ।”
“साईं, अपने सिन्धी भाई के साथ ऐसा व्यवहार...”
“फिर लगा बकवास करने ।” - दत्तानी कड़ककर बोला ।
“नहीं, नहीं । सुनो । पांच तारीख शनिवार की रात को जब जेकब सर्कल के करीब तुम्हारे आदमियों ने मुझे पकड़ लिया था तो एकाएक वहां...”
***
ठीक पांच बजे जामवन्तराव कमाठीपुरे में न्यू बाम्बे रेस्टोरेन्ट के सामने पहुंचा ।
उस वक्त उसकी सूरत पर फटकार बरस रही थी । उसकी आंखें नशे की वजह से और बेतहाशा रोते रहने की वजह से सूज कर लाल हो चुकी थीं, उसके कपड़े अस्तव्यस्त थे और शेव बढी हुई थी ।
उसने एक सरसरी निगाह चारों तरफ डाली ।
सड़क लगभग खाली थी । रेस्टोरेन्ट के सामने सड़क के पार केवल एक बन्द स्टेशनवैगन खड़ी थी ।
उसने रेस्टोरेन्ट में कदम रखा ।
रेस्टोरेन्ट में भी कोई खास भीड़ नहीं थी । केवल कुछ ही मेजों पर लोग बैठे दिखाई दे रहे थे ।
एक मेज पर हजारा सिंह मौजूद था ।
दोनों की निगाहें मिलीं । हजारा सिंह ने रेस्टोरेन्ट के कोने में बने टेलीफोन बूथ की तरफ इशारा किया ।
जामवन्तराव का सिर हौले से सहमति में हिला ।
वेटर उसके करीब आया तो उसने चाय मंगाई ।
वेटर चला गया तो वह अपनी जेब से एक अठन्नी निकाल कर उसे हाथ में उछालता हुआ टेलीफोन बूथ की तरफ बढा । उसने बूथ में दाखिल होकर उसका दरवाजा अपने पीछे बन्द कर लिया । उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया, यूं ही एक नंबर घुमाया और फिर नीचे को झुककर उसने बूथ के लकड़ी के फर्श पर बिछे रबड़ के मैट का पहले एक कोना और फिर दूसरा कोना उठाया ।
दूसरे कोने के नीचे एक भूरा लिफाफा पड़ा था ।
उसने लिफाफा उठा लिया और उसे तनिक खोलकर भीतर झांका ।
भीतर भूरे कागज में लिपटी डोप की कई पुड़िया थीं ।
उसके चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव आये । उसने लिफाफे में से एक पुड़िया अलग कर ली और लिफाफा अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया । उसी जेब से उसने सौ-सौ के नोटों से भरकर विशेष रूप से हजारा सिंह के लिए तैयार किया लिफाफा निकाला और उसे मैट के नीचे वहां रख दिया जहां से कि उसने भूरा लिफाफा उठाया था ।
फिर उसने रिसीवर को अपने कन्धे और एक कान के नीचे दबाकर वहीं टेलीफोन बूथ में ही एक पुड़िया की हेरोइन अपने नथुनों में चढाई और फिर रिसीवर को हुक पर टांगकर बूथ से बाहर निकला ।
वह वापिस अपनी टेबल पर आ बैठा जहां कि वेटर चाय रख गया हुआ था ।
हजारा सिंह अंगड़ाई लेता, पान चबाता उठा और जाकर टेलीफोन बूथ में दाखिल हो गया ।
कुछ क्षण बाद वह वहां से बाहर निकला और वापिस अपनी टेबल का रुख करने की जगह रेस्टोरेन्ट से बाहर निकल गया । सड़क पर आकर वह बन्द स्टेशनवैगन के परले पहलू पर पहुंचा और उसकी बंद पैनल की ओर मुंह करके धीरे से बोला - “काली पैंट । नीला कोट । गले में मफलर । माल उसने उठा लिया है ।”
“ठीक है ।” - भीतर से इन्स्पेक्टर अशोक जगनानी की आवाज आई - “अब तू परे हट जा यहां से ।”
“हला ।”
“लेकिन फूट न जाना ।”
“मजाल ए मेरी, मालको । मैं तां ताबेदार...”
“बकवास बन्द ।”
हजारा सिंह वहां से हट गया ।
थोड़ी देर बाद नशे की नई तरंग में अपनी खोली में नोटों का कफन ओढे पड़ी अपनी मरी बीवी को भूलने की नाकाम कोशिश करता जामवन्तराव जब रेस्टोरेंट से बाहर निकला तो एकाएक उसे कई हाथों ने दबोच लिया ।
जामवन्तराव को कोई अफसोस न हुआ, कोई हैरानी न हुई । उलटे उसे लगा कि यूं वह एक भारी दुश्वारी से निजात पा रहा था ।
वह चुपचाप पुलिस के साथ हो लिया ।
***
मुबारक अली पर निगाह पड़ते ही हाना ने निसंकोच कह दिया कि वही वह शख्स था जो सुबह उसके पास सतीश आनन्द की मौत की खबर लाया था ।
ऊपर से सब-इन्स्पेक्टर ने उसके फ्लैट से बरामद लगभग छ: लाख रुपये के नोट ए.सी.पी. साहब के सामने पेश किए ।
उस पर सवालों की बौछार होने लगी ।
“नोट कहां से आए ?” - पूछा गया ।
“राह चलते पड़े मिले ।” - उसका जवाब था - “कूड़े के ढोल में बंडल पड़ा था । उठा कर खोला तो नोट निकले । देख लो, बाप, पैकेट में से अभी तक कचरे की बू आयेली है ।”
“उठाया क्यों पैकेट ?”
“यूं ही नवां पैकेट, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कचरे में पड़ा देख कर दिल कर आया ।”
“सुबह-सवेरे आनन्द की मौत की कैसे खबर लग गई ?”
“नहीं लग गई । मेरे कू अभी भी नहीं मालूम कि आनन्द मर गयेला है ।”
“उसके फ्लैट पर क्यों गया ?”
“उससे मिलने ! अपुन आनन्द को एक फिल्म में रोल दिलायेला था । वो शूटिंग पर नहीं आता था । डायरेक्टर मेरे कू बोला । मैं मालूम करने उधर गयेला था ।”
“आनन्द को पुराना जानता है ?”
“हां !”
“लड़की कहती है कि तू उधर आकर उसे बोला कि आनन्द जौहरी बाजार में पुलिस की गोली खाकर मर गया था ।”
“वो झूठ बोलती है ।”
“उसे क्या फायदा झूठ बोलने में ?”
“लड़की धन्धे वाली है । आनन्द के फ्लैट पर धन्धे की खातिर ही मौजूद थी । होयेंगा कोई फायदा ।”
“गैस के सिलेण्डर तूने चुराये ?”
“झूठ ।”
“फिर वहां तेरे जूते का निशान किधर से आया !”
“वो मेरे जूते का निशान नहीं । वैसा कोई जूता मेरे पास नहीं है ।”
“वो बारह नम्बर के जूते का निशान है ।”
“होयेंगा ।”
“वो तेरे जूते का निशान है ।”
ऐन उसी वक्त अशोक जगनानी और फाल्के ताजे-ताजे गिरफ्तार हुए जामवन्तराव को लेकर वहां पहुंचे ।
जामवन्तराव की सूरत पर निगाह पड़ते ही मुबारक अली का दिल बैठने लगा । उसकी सूरत से तो लगता था कि पूछते ही वह सब कुछ बक देने वाला था । या क्या पता बक भी चुका हो !
प्रत्यक्षत: मुबारक अली फिर भी दिलेर बना रहा ।
“इसे जानता है ?” - अशोक ने मुबारक अली की ओर संकेत करके जामवन्तराव से पूछा ।
जामवन्तराव का सिर सहमति में हिला ।
“कौन है ये ?”
“मु-मु-बारक अली ।”
“यह भी तुम लोगों के साथ डकैती में शामिल था ?”
मुबारक अली ने खा जाने वाली निगाहों से जामवन्तराव की तरफ देखा ।
उत्तर देने को तत्पर जामवन्तराव सहमकर चुप हो गया ।
“जवाब दो ।” - ए.सी.पी. देवड़ा बोला - “यह आदमी - मुबारक अली - डकैती में शामिल था ?”
“न - नहीं ।”
अशोक ने आगे बढकर ए.सी.पी. के कान में कुछ कहा ।
ए.सी.पी. ने सहमति में सिर हिलाया और फिर मुबारक अली को ले जाकर लाकअप में बन्द कर दिए जाने का हुक्म सुना दिया ।
मुबारक अली के वहां से चले जाने बाद जामवन्तराव पर सवालों की बौछार होने लगी ।
पहले से ही टूटा हुआ जामवन्तराव तब मुकम्मल तौर से टूट गया ।
***
आंटी के घर में केजरीवाल नामक खरीददार ने माल को परखने में तीन घन्टे लगाए । अन्त में उसने सारे जेवरात उस बैग में भर दिए जिसमें सोने के बिस्कुट पहले से ही मौजूद थे ।
“ठीक है ।” - केजरीवाल बोला - “माल खरा है । तुम्हारी मांगी कीमत मुझे मंजूर है लेकिन रकम बड़ी है इसलिए उसका इन्तजाम कल शाम तक हो पाएगा ।”
“कोई वान्दा नहीं ।” - आंटी बोली ।
“कल शाम को मैं रकम के साथ फिर आऊंगा ।”
“फोन करके आना ।”
“फोन तो तुम्हारा लगता नहीं ।”
“अभी खराब है । डैड पड़ा है लेकिन बीच-बीच में अपने आप चल भी पड़ता है । कम्पलेंट लिखवाई हुई है । कल तुम्हारे फोन करने का वक्त आने तक पक्का ठीक हो जाएगा ।”
“फिर ठीक है । मैं फोन करके आऊंगा ।”
“आओ मैं तुम्हें नीचे तक छोड़ आऊं ।”
“क्या जरूरत है । मैं चला जाऊंगा ।”
“नीचे सीढियों का दरवाजा भी तो बन्द करना होगा । विट्ठलराव तो एक बार टी.वी. के आगे बैठ जाए तो हिल कर नहीं देता ।”
“दरवाजा खोलने तो कोई नहीं आया था ।”
“दरवाजे पर बिजली से आपरेट होने वाला आटोमैटिक लाक है । वह खुलता अपने आप है लेकिन बन्द करने जाना पड़ता है ।”
“ओह !”
आंटी उसे नीचे तक विदा करने गई और फिर सीढियों के दोनों दहानों के दरवाजे बन्द करके ड्राइंग रूम में लौटी ।
“विट्ठलराव ।” - वह बोली - “बैग को स्क्रैपयार्ड में पहले वाली जगह छुपाकर आ ।”
“अभी जाता हूं, मां ।” - विट्ठलराव टी.वी. स्क्रीन पर से निगाह हटाये बिना बोला - “बस पांच-सात मिनट की फिल्म रह गई है ।”
“बेटा, माल का यहां यूं पड़े रहना ठीक नहीं ।”
“ओफ्फोह ! पांच मिनट में क्या हो जाएगा, मां !”
आंटी खामोश हो गई लेकिन उसके चेहरे से अपने बेटे की अवज्ञा के प्रति असहमति और असंतोष के भाव न गए ।
दो मिनट बाद एकाएक कालबैल बज उठी ।
आंटी ने अपने बेटे की तरफ देखा लेकिन उसे टी.वी. पर से निगाह तक न हटाते पाकर वह स्वयं उठी । उसने आगे बढकर बाल्कनी की ओर का एक दरवाजा खोला और बाल्कनी से नीचे झांका ।
सीढियों के दहाने पर उसे रूपचन्द जगनानी खड़ा दिखाई दिया ।
दरवाजे से उसी क्षण एक टैक्सी हटी मालूम होती थी जिस पर कि जगनानी शायद वहां तक पहुंचा था । परे एक काली एम्बेसेडर कार खड़ी थी । उसके अलावा सड़क सुनसान पड़ी थी ।
“जगनानी साहब !” - आंटी ने आवाज लगाई ।
सीढियों के दरवाजे के सामने अकेले खड़े जगनानी ने सिर उठाया । वह आंटी की तरफ देखकर मुस्कराया ।
“ठहरिए ।” - आंटी बोली - “खोलती हूं ।”
वह फिर भीतर आ गई । उसने बाल्कनी का दरवाजा बन्द कर दिया । फिर उसने वहां ड्राइंगरूम के स्विचबोर्ड पर लगे उस स्विच को आन किया जिससे नीचे सीढियों के दहाने पर लगे दरवाजे का आटोमैटिक लाक खुलता था ।
कुछ क्षण बाद उसे सीढियों पर पड़ते कदमों की आहट सुनाई दी फिर दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
आंटी ने आगे बढकर दरवाजा खोला ।
दरवाजा खोलते ही उसके मुंह से चीख निकली - “विट्ठलराव !”
दरवाजे पर दो आदमी खड़े थे । उन दोनों के हाथों में रिवॉल्वरें थीं । उनके पीछे दो और सशस्त्र आदमी थे जिनमें से एक निहायत उम्दा सूट पहने था । उनके पीछे सहमा-सा रूपचन्द जगनानी दिखाई दे रहा था ।
“विट्ठलराव ।” - आंटी दरवाजा बन्द करने की कोशिश करती फिर चिल्लाई ।
अपने एक प्यादे के साथ आगे खड़े मूर्ति ने आंटी को जोर का धक्का दिया । वह भरभराकर पीछे ड्राइंगरूम के फर्श पर जाकर गिरी ।
आततायी भीतर घुस आए ! एक ने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
खांडेकर, जिसने अपनी मां की दूसरी चीख सुनकर टी.वी. पर से निगाह उठाई थी, सामने का नजारा देखकर सन्नाटे में आ गया । वह फौरन उस मेज की तरफ लपका किसकी दराज में एक रिवॉल्वर पड़ी थी ।
“खबरदार ।” - कोई कहरभरे स्वर में बोला ।
खांडेकर ठिठका, घूमा, उसने देखा सूट वाला सब से आगे बढ आया था, बाकी सब उसके आजू-बाजू खड़े थे । जगनानी आतंक की प्रतिमूर्ति बना दरवाजे के करीब खड़ा था, उसका शरीर रह-रहकर कांप उठता था ।
आंटी उठकर खड़ी हुई और लपककर अपने बेटे और आतताईयों के बीच में आ गई । उसने यूं अपनी बांहें पसारीं जैसे अकेले ही खाली हाथ अपनी औलाद पर आने वाली हर बला का मुंह मोड़ सकती थी ।
“विट्ठलराव ।” - वह चिल्लाई - “भाग जा । भाग जा ।”
लेकिन खांडेकर भागने की जगह फिर मेज के दराज की तरफ झपटा ।
सूट वाले ने, जोकि दत्तानी था, अपनी रिवॉल्वर को तनिक ऊंचा उठाया और घोड़ा खींचा ।
“नहीं !” - आंटी बांहें फैलाए फिर अपने बेटे के आगे आ गई । गोली आंटी के कन्धे में लगी । वह पछाड़ खाकर फर्श पर गिरी ।
तब तक रिवॉल्वर खांडेकर के हाथ में आ चुकी थी । रिवॉल्वर हथियाने में उसने बला की फुर्ती दिखाई थी । वह फिरकनी की तरह घूमा और उसने रिवाल्वर का घोड़ा खींचा ।
दो फायर एक साथ हुए । एक खांडेकर की रिवाल्वर से और दूसरा दत्तानी की रिवाल्वर से ।
दत्तानी की रिवाल्वर से निकली गोली खांडेकर के कान की लौ को हवा देती हुई गुजरी लेकिन खांडेकर की चलाई गोली दत्तानी के माथे में घुस गई । दत्तानी हाथी की तरह चिंघाड़ा, रिवाल्वर उसके हाथ से निकल गई और फिर उसकी टांगें उसके भार के नीचे दोहरी होने लगीं ।
उसके जिस्म के जमीन छूने से पहले ही उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे ।
खांडेकर दोबारा गोली न चला सका ।
मूर्ति और उसके दोनों प्यादों ने खांडेकर को गोलियों से भून कर रख दिया ।
खांडेकर औंधे मुंह अपनी मां के करीब गिरा ।
फिर जैसे एकाएक वहां हाहाकार मचा था, वैसे ही एकाएक सन्नाटा छा गया ।
मूर्ति ने आगे बढकर अपने बॉस का मुआयना किया तो पाया कि वो मर चुका था ।
टी.वी. पर फिल्म खत्म हो चुकी थी और अब टी.वी. में से कोई आवाज नहीं निकल रही थी ।
आंटी इंच-इंच करके अपने बेटे की तरफ सरक रही थी ।
मूर्ति ने उसकी तरफ रिवाल्वर तानी लेकिन फिर उसने इरादा बदल दिया । जब टी.वी. चल रहा था तो वहां गोलियां चलने की आवाज भी टी.वी. से ही आती मालूम हो रही थी लेकिन अब गोली चलने की आवाज बहुत दूर तक सुनाई दे सकती थी । ऊपर से बुढिया गम्भीर रूप से घायल थी और वैसे ही किसी भी क्षण मर जाने वाली थी ।
उसने रिवाल्वर जेब में रख ली और अपने प्यादे से बोला - “चलो ।”
वह घूमा तो उसकी निगाह मेज पर पड़े बैग पर पड़ी । बैग का मुंह खुला था जिसकी वजह से ऊपर तक भरे जेवहरात वगैरह उसे साफ दिखाई दिए । वह झपटकर मेज के करीब पहुंचा और उसने बैग के भीतर मौजूद माल का मुआयना किया ।
“हे भगवान !” - उसके मुंह से निकला - “इतना माल !”
उसने दोनों प्यादों और रूपचन्द की तरफ देखा ।
एकबारगी उसका जी चाहा कि वह तीनों को शूट कर दे ।
नहीं - फिर उसकी अक्ल ने जवाब दिया - प्यादों को शूट करना आसान था लेकिन रूपचन्द की खबर खुद इकबाल सिंह को थी । उसके मर जाने की उसे सफाई देनी पड़ सकती थी और उसको जिन्दा छोड़ने का मतलब था मेज पर पड़ा माल उसने हड़पा था, इस बात का एक गवाह छोड़ना । बड़ी कठिनाई से उसने अपने लालच पर काबू किया ।
उसकी अक्ल ने उसे यही सुझाया कि उस दुश्वारी की घड़ी में उसे ‘कम्पनी’ के वफादार मुलाजिम की तरह पेश आकर दिखाना चाहिए था । माल ‘कम्पनी’ तक पहुंचाने से उसकी तरक्की भी तो हो सकती थी । दत्तानी मर गया था, इकबाल सिंह उससे खुश होकर उसे दत्तानी की जगह भी तो दे सकता था ।
मूर्ति को वह बात पसन्द आई ।
उस घड़ी उसे लगा कि वह दत्तानी बन भी चुका था और अब उसने ‘कम्पनी’ के एक जिम्मेदार ओहदेदार की तरह व्यवहार करके दिखाना था ।
“बूढे को लेकर नीचे आओ” - वह दहाड़ा - “और गाड़ी दरवाजे पर लाओ ।”
रूपचन्द को अपने सामने धकेलते दोनों प्यादे फौरन नीचे को लपके । मूर्ति ने बैग को बन्द किया, फिर बड़ी मेहनत से उसने उसे मेज पर से उठाया ।
एक बार उसकी निगाह आंटी से मिली ।
बुढिया अभी जिन्दा थी और अभी भी अपने बेटे के करीब पहुंचने के लिए फर्श पर रेंग रही थी ।
मूर्ति ने बैग एम्बैसेडर को ऐन सीढियों के दहाने पर खड़ी पाया । एक प्यादा ड्राइविंग सीट पर बैठ चुका था, दूसरा रूपचन्द के पीछे बैठा हुआ था ।
“चलो ।” - मूर्ति ने गाड़ी में सवार होते हुए हुक्म दनदनाया ।
“कहां ?” - ड्राइवर बोला ।
“कोलाबा, और कहां ? बॉस के घर ।”
“लेकिन बॉस...”
“बॉस मर गया । लाश ढोने में कोई फायदा नहीं । चल । गाड़ी भगा । साले, बड़ा बॉस वहां पहुंचने वाला होगा ।”
काली ऐम्बैसेडर वहां से दौड़ चली ।
काली ऐम्बैसेडर अभी मोड़ तक भी नहीं पहुंची थी कि एक टैक्सी आंटी के स्क्रैप यार्ड की ऊपर को जाती सीढियों के सामने आकर रुकी और नशें की तरंग में डूबता-उतरता, झूमता-झामता जामवन्तराव बाहर निकला । तब तक टैक्सी के पीछे-पीछे आती पुलिस की सफेद एम्बैसेडर रेडियो कार, जिसमें तीन हवलदारों के साथ इन्स्पेक्टर अशोक जगनानी और फाल्के मौजूद थे, पीछे ही रह गई । तीनों हवलदार वर्दी पहने थे लेकिन दोनों इन्स्पेक्टर सादे कपड़ों में थे ।
टैक्सी वहां से विदा हो गई तो जामवन्तराव दरवाजे की तरफ आकर्षित हुआ । उसने घन्टी बजाने के लिए हाथ बढाया तो पाया कि दरवाजा तो खुला था ।
बड़ी मेहनत से सीढियों चढकर वह ऊपर पहुंचा ।
वहां ड्राइंगरूम का नजारा देखकर उसके छक्के छूट गए । वह तुरन्त वापिस भागा ।
जामवन्तराव को उलटे पांव दौड़ता हुआ नीचे आया पाकर अशोक जगनानी बौखलाया । उसने तुरन्त ड्राइवर को गाड़ी आगे बढाने का आदेश दिया ।
गाड़ी जामवन्तराव के करीब आकर रुकी ।
“ऊपर ! ऊपर !” - जामवन्तराव हांफता हुआ बोला ।
“क्या हुआ ऊपर ?” - अशोक बोला ।
“जाकर... जाकर देखो ।”
ड्राइवर को छोड़कर सारे पुलिसिए जामवन्तराव के साथ आनन-फानन ऊपर पहुंचे ।
वे ड्राइंगरूम में दाखिल हुए तो दरवाजे के करीब ही ठिठक गए ।
आंटी अपने मृत बेटे का सिर अपनी गोद में लेकर बैठी हुई थी और बड़े प्यार से उसके बाल संवार रही थी । उसके कन्धे से इतना खून बह चुका था कि उसका चेहरा कागज की तरह सफेद लग रहा था लेकिन वह अपनी हालत से कतई बेखबर मालूम होती थी ।
उनसे थोड़ा ही परे गोविन्द बोला ।
“यह कौन है ?” - अशोक बोला ।
“मुझे नहीं मालूम ।” - जामवन्तराव दत्तानी की सूरत पर निगाह डालने के बाद बोला ।
“इसे मैं पहचानता हूं, साहब ।” - एक हवलदार बोला - “इसका नाम दत्तानी है । पहले यह एक मामूली मवाली हुआ करता था लेकिन बाद में पता नहीं कैसे बहुत तरक्की कर गया था और रईसों की तरह रहने लगा था ।”
“कहां ?”
“पता तो मालूम नहीं, साहब ।”
“इसकी तलाशी लो ।”
हवलदार फौरन मृत दत्तानी की जेबें टटोलने लगा ।
“ये आंटी है ?” - अशोक फिर जामवन्तराव से सम्बोधित हुआ ।
“हां । लड़का इसका बेटा है । खांडेकर ।”
“इससे पूछा क्या हुआ था ?”
जामवंतराव झिझकता हुआ आंटी के करीब पहुंचा ।
“आंटी !” - वह बोला - “क्या हुआ ? क्या हुआ ? किसने किया ये सब ?”
आंटी ने अपनी आंसुओं से धुंधलाई आंखें ऊपर उठाई और दत्तानी को लाश की तरफ इशारा किया ।
“इसने किया ।” - वह कम्पित स्वर में बोली - “यह कुछ बदमाशों के साथ यहां आया था । बुजुर्गवार इनके कब्जे में थे । उन्होंने बुजुर्गवार को दरवाजा खुलवाने के लिए इस्तेमाल किया था । मैं धोखा खा गई । उन्होंने हमें शूट कर दिया और माल भी ले गए ।”
“ओह !”
“अब मैं इंतजार कर रही हूं ।”
“किस बात का ?”
“अपने प्राण निकलने का । मैं अपने बेटे के साथ ही जाऊंगी । बस थोड़ी देर और ।”
“इसे हस्पताल ले जाना होगा ।” - फाल्के बोला ।
“खबरदार !” - आंटी आंखें निकालकर बोली, उसके स्वर में ऐसा कहर था कि फाल्के हड़बड़ाकर एक कदम पीछे हट गया - “खबरदार जो किसी ने मुझे मेरे बेटे से अलग करने की जुर्रत की ।”
“सहब !” - तभी दत्तानी की तलाशी लेता हवलदार बोला - “इसकी जेब से इसका ड्राइविंग लाइसेंस निकला है । इस पर इसका कोलाबा का पता दर्ज है ।”
अशोक आंटी के करीब पहुंचा ।
“उन लोगों को यहां से गए कितनी देर हुई ?” - उसने पूछा ।
आंटी ने उत्तर न दिया । उसने उसकी तरफ झांका तका नहीं ।
“जवाब दे, माई ।” - अशोक सख्ती से बोला - “जिन लोगों ने तेरे बेटे का खून किया, क्या तू नहीं चाहती कि वो पकड़े जाएं और अपनी करतूतों की सजा पाएं ?”
“तुझे मेरे बेटे से क्या हमदर्दी है ?” - आंटी सांप की तरह फुंफकारी - “तू तो पुलिस वाला है । तेरा हमारे से क्या वास्ता ?”
अशोक हड़बड़ाकर चुप हो गया ।
फाल्के जमीन पर गिरी पड़ी एक रिवॉल्वर को टटोल रहा था ।
“यह अभी भी गर्म है ।” - वह बोला - “लगता है यहां जो कुछ हुआ है हमारे यहां पहुंचने से थोड़ी ही देर पहले हुआ है ।”
“आई सी ।” - अशोक बोला ।
“हमने मोड़ पर गायब होती एक काली एम्बैसेडर देखी थी । जरूर वे लोग उसी गाड़ी में थे ।”
“किसी ने उसका नम्बर देखा था ?”
किसी ने जवाब न दिया ।
“नैवर माइंड ।” - अशोक बोला - “एक हवलदार यहां ठहर जाए और एम्बूलेंस को खबर करे । एम्बूलेंस आने तक वो यहीं रहे । वही पुलिस हैडक्वार्टर भी फोन करे और ए.सी.पी. देवड़ा साहब को हालात की खबर करे ताकि हर काली एम्बैसेडर को चैक किए जाने का हुक्म जारी किया जा सके । देवड़ा साहब को दत्तानी का कोलाबा का पता बता दिया जाए और कह दिया जाए कि हम वहां के लिए रवाना हो रहे हैं और वहां हमें फोर्स की जरूरत पड़ सकती है ।”
एक हवलदार को उन तमाम हुक्मों की तामील करने के लिए पीछे छोड़कर वे फौरन वहां से नीचे भागे ।
***
वागले ने अपनी कार स्क्रैप यार्ड के सामने लाकर रोकी और कार से बाहर निकला । यह देखकर उसे बड़ी हैरानी हुई कि सीढियों का दरवाजा खुला था ।
उसने आसपास निगाह दौड़ाई । कहीं कोई नहीं था । चारों तरफ मरघट का-सा सन्नाटा छाया हुआ था ।
तनिक झिझकता हुआ वह सीढियां चढने लगा ।
वागले मार-काट और खून-खराबे के खेल का पुराना खिलाड़ी था । उसका दिल गवाही दे रहा था कि कहीं कोई गड़बड़ थी । उसे हवा भरी लग रही थी । उसे माहौल में मौत बसी महसूस हो रही थी ।
उसने सीढियों के ऊपरले सिरे वाला दरवाजा भी खुला पाया । उसने भीतर झांका तो पाया कि घर के मालिकान मां-बेटा ड्राइंगरूम के फर्श पर मरे पड़े थे - दोनों गोलियों के शिकार हुए थे - और उनसे थोड़ा परे एक वर्दीधारी वहलदार खड़ा टेलीफोन पर कोई नम्बर डायल कर रहा था ।
हवलदार की वागले पर निगाह पड़ी ।
“कौन हो ?” - वह डपटकर बोला ।
“पड़ोसी ।” - वागले बोला - “बाजू वाले मकान में रहता हूं ।”
“क्या है ?”
“फोन करने का है ।”
“कहीं और से जाकर करो । दिखाई नहीं दे रहा इधर कितना खून-खराबा हो गया है ।”
“कैसे हो गया, वहलदार साहब ?”
“डाकू घुस आए । चलो जाओ इधर से । कहीं और जाकर फोन करो ।”
“अच्छा ।”
वागले वापिस लौटा । वह सीढियों पर धम्म-धम्म पांव मारता कुछ सीढियां उतरा और फिर दबे पांव वापिस लौटा ।
दरवाजे की ओट में पहुंचकर वह ठिठक गया और कान लगाकर सुनने लगा ।
“साहब” - हवलदार टेलीफोन में कह रहा था - “इधर बहुत बड़ा केस हो गया है । गोविंद दत्तानी नाम के मवाली ने इधर दो आदमी मार दिया है और खुद भी मर गया है । उसके साथी एक काली एम्बैसेडर पर इधर से भागे हैं । इंस्पेक्टर जगनानी साहब मेरे को बोला है कि हर काली एम्बैसेडर को रोककर चैक किए जाने का हुक्म दिया जाए । इंस्पेक्टर जगनानी और इंस्पेक्टर फाल्के कोलाबा की तरफ गए हैं और बोले हैं कि उधर और फोर्स भेजी जाए । कोलाबा का पता लिख लीजिए ।”
वागले वह पता वहां सुनने को न रुका ।
गोविन्द दत्तानी का कोलाबा का पता उसे मालूम था ।
***
काली एम्बैसेडर दत्तानी की कोठी के कम्पाउंड में खड़ी थी ।
“वही है ।” - फाल्के बोला ।
अशोक जगनानी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“ड्राइविंग सीट पर कोई बैठा है ।”
अशोक ने फिर सहमति में सिर हिलाया और फिर ड्राइवर से बोला - “रोको नहीं । गाड़ी आगे निकाल ले चलो ।”
पुलिस की गाड़ी दत्तानी की कोठी पार कर गई ।
कोई एक फर्लांग आगे अशोक ने कार रुकवाई ।
“मैं जाकर ड्राइवर को काबू में करता हूं ।” - अशोक बोला - “तुम लोग जरा बाद में आना ।”
“तुम अकेले क्यों ?” - फाल्के बोला ।
“हम सब जाएंगे तो ड्राइवर सावधान हो जाएगा और भीतर मौजूद लोगों को सावधान करने की कोशिश करेगा । भीतर पता नहीं कितने आदमी हैं । उन्होंने हमारा मुकाबला करने की कोशिश की तो भी हमारा नुकसान है, उनमे भगदड़ मच गई तो भी हमारा नुकसान है । हम चार जने सबको यहां रोके नहीं रख सकेंगे ।”
“ओह !”
अशोक कार से निकलकर सड़क पर आगे बढा ।
वह दत्तानी की कोठी के फाटक पर पहुंचा ।
काली एम्बैसेडर का ड्राइवर कार की ड्राइविंग सीट का दरवाजा खोले, उसमें से टांगें बाहर लटकाए बैठा बीड़ी फूंक रहा था ।
अशोक ने लोहे के बंद फाटक को तनिक ठकठकाकर ड्राइवर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और बोला - “ये दत्तानी साहब की कोठी है ?”
“हां ।” - ड्राइवर बोला ।
“वो घर पर हैं ?”
“नहीं ।”
“तुम इधर आओ ।”
“क्यों ?”
“सुना नहीं ?” - अशोक कर्कश स्वर में बोला ।
ड्राइवर हड़बड़ाया । उस घड़ी अशोक के कोई पुलिसिया होने का तो उसे ख्याल तक न आया अलबत्ता उसे यह जरूर सूझा कि उस पर यूं रोब जमाने की कोशिश करता शख्स कोई ‘कम्पनी’ से आया आदमी हो सकता था । वह बीड़ी फेंककर फाटक की तरफ बढा ।
अशोक ने जेब से रिवॉल्वर निकाल ली और रिवॉल्वर वाला हाथ पीठ पीछे कर लिया ।
वह फाटक के पास पहुंचा तो अशोक ने रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दी । ड्राइवर के नेत्र फैले ।
“खबरदार !” - अशोक दबे स्वर में गुर्राया - “आवाज न निकले ।”
ड्राइवर बौखलाया ।
“फाटक खोल !”
ड्राइवर ने फाटक का कुंडा भीतर से खोला ।
फिर खुलते फाटक में से हाथ बढाकर अशोक ने उसका गिरहबान थामा और उसे बाहर घसीट लिया ।
“भीतर कितने आदमी हैं ?” - अशोक सांप की तरह फुंफकारा ।
“च-चा-चार” - ड्राइवर हकलाया - “बुढऊ को मिला के ।”
“बुढऊ कौन ?”
“मालूम नहीं ।”
“वो तुम लोगों का साथी नहीं ।”
“नहीं ।”
“तो कौन है ?”
“वो-वो तो कैदी है ।”
“यानी कि तुम्हारे जोड़ीदार भीतर तीन हैं ?”
“हां ।”
“हथियारबंद कितने हैं ?”
“तीनों ।”
“हूं ।”
तभी पुलिस की कार फाटक से थोड़ा परे आकर रुकी ।
अशोक ड्राइवर को कवर किए-किए कार तक पहुंचा, उसके निर्देश पर एक पुलिसिये ने ड्राइवर की तलाशी ली । वह भी हथियारबंद निकला ।
“भीतर तीन आदमी हैं ।” - अशोक बोला - “हम उन्हें काबू में कर सकते हैं ।”
“क्यों न हम” - फाल्के धीरे से बोला - “फ्लाइंग स्कवायड के वहां पहुंचने तक इंतजार करें ?”
“फाल्के” - अशोक के स्वर में तिरस्कार का पुट था - “अगर हम दो पुलिस इंस्पेक्टर तीन मवालियों पर काबू नहीं पा सकते तो लानत है हमारे पुलिस इंस्पेक्टर होने पर ।”
“मैंने कब कहा हम नहीं काबू पा सकते !” - फाल्के हड़बड़ाया - “चलो ।”
“हां, चलो ।”
“इसका क्या करें ?” - फाल्के ड्राइवर की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“यह हमारे साथ जाएगा और हमारे लिए दरवाजा खुलवाएगा ।”
“गुड ।”
हाथों में रिवॉल्वर थामे ड्राइवर को आगे धकियाते हुए वे चुपचाप कोठी के कम्पाउंड में दाखिल हुए ।
***
वागले की कार दत्तानी की कोठी के करीब पहुंची । उसने फासले से कोठी के सामने खड़ी सफेद एम्बैसेडर को और फिर उसके पहलू से गुजरते समय दो हवलदारों के बीच बैठे जामवंतराव को देखा । वह समझ गया कि जामवंतराव गिरफ्तार था और उसी से हासिल जानकारी के दम पर पुलिस आंटी के घर पहुंची थी । दत्तानी वहां कैसे पहुंचा था, यह बात अभी उसकी समझ से परे थी ।
उसने कार को आगे मोड़ तक ले जाकर बाएं घुमाया और फिर उसे वहीं फुटपाथ के साथ लगाकर खड़ा कर दिया । वहां से वह पिछवाड़े की सर्विस लेन में पहुंचा और फिर उसमें चलता हुआ दत्तानी की कोठी की तरफ वापिस लौटा ।
कोठी के पिछवाड़े में सन्नाटा था । वह चुपचाप दीवार फांद गया और कोठी के पहलू से होता हुआ उस खुली खिड़की की तरफ बढा जिसके भीतर से कुछ आवाजें आ रही थीं ।
उसी क्षण दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वायड की आवाज गूंजी ।
वागले खुली खिड़की के करीब पहुंचा ।
“पुलिस !” - कोई हड़बड़ाए स्वर में भीतर से बोला ।
“साले !” - कोई गुर्राया - “सायरन बजने का मतलब यह थोड़े ही है कि पुलिस यहां आ रही है । हमारे वाले हादसे की तो अभी पुलिस को खबर भी नहीं लगी होगी । लगी भी होगी तो उन्हें क्या पता कि उन्होंने यहां आना है ।”
“लेकिन यह सायरन...”
“पुलिस वालों का यह बाजा तो बजता ही रहता है । साले अपने अफसर के लिए पान खरीदने भी जाते हैं तो सायरन बजा कर जाते हैं ।”
“अगर पुलिस यहां पहुंच गई तो ?”
“कैसे पहुंच जाएगी ? कोई मजाक है !”
“बाप” - एक नया स्वर सुनाई दिया - “हमेरा कहना मानो तो अभी भी माल लेकर फूट चलो ।”
“बूढे का क्या करें ?”
“इसे यहीं शूट कर देते हैं ।”
“चुप रहो, सालो । बोला न अभी इधर इंतजार करने का है ।”
खामोशी छा गई ।
वागले ने हिम्मत करके खिड़की की चौखट से तनिक ऊंचा सिर उठाया तो उसे एक कुर्सी के साथ बंधा रूपचंद जगनानी दिखाई दिया ।
वह सकपकाया । रूपचंद दत्तानी की कोठी में गिरफ्तार ! यह नजारा तो अपनी कहानी खुद कह रहा था । यानी कि जैसे रूपचंद ने पहले सोहल की फिराक में इकबाल सिंह को चैम्बूर में उनके यहां पहुंचाया था, वैसे ही अब रूपचंद की मदद से दौलत की फिराक में दत्तानी आंटी के घर पहुंच गया था । भीतर मौजूद दत्तानी के प्यादों का वार्तालाप साफ बता रहा था कि माल वे लोग आंटी के घर से खुद कब्जाने में कामयाब हो चुके थे ।
अब वागले को इस बात से बड़ी संतुष्टि का अनुभव हो रहा था कि वह और विमल अपना हिस्सा पहले ही काबू में कर चुके थे ।
तभी किसी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
वागले ने सिर नीचे कर लिया और कान खड़े करके भीतर से आती आवाजें सुनने लगा ।
ड्राइवर के साथ अशोक और फाल्के मुख्यद्वार पर पहुंचे ।
अशोक कुछ क्षण मुख्यद्वार के साथ कान लगाकर खड़ा रहा और फिर ड्राइवर के कान में बोला - “दरवाजा खुलवा ।”
ड्राइवर ने दरवाजे पर दस्तक दी और कालबैल भी बजाई ।
“कौन है ?” - तत्काल दरवाजे के पार से सवाल हुआ ।
“अपुन है, उस्ताद ।” - ड्राइवर बोला - “शेरू ।”
“क्या बात है ?”
ड्राइवर ने अशोक की तरफ देखा ।
अशोक ने अपनी कनकी उंगली उसे दिखाई ।
“टायलेट जाने का है ।” - ड्राइवर बोला ।
दरवाजा खुला ।
अशोक ने ड्राइवर को खुलते दरवाजे के भीतर धक्का दिया । ड्राइवर दरवाजा खोलते एक प्यादे की छाती से टकराया । दोनों एक दूसरे से उलझे, भरभराकर नीचे गिरे ।
पहले अशोक ने और फिर उसके पीछे फाल्के ने दरवाजे के भीतर छलांग लगा दी ।
दोनों तरफ से गोलियां बरसीं ।
एक मिनट को वहां हाहाकार मच गया । फिर जैसे सब कुछ शुरु हुआ था, वैसे ही सब कुछ खत्म हो गया । ड्राइवर समेत दोनों प्यादे मारे जा चुके थे और मूर्ति बड़ी शोचनीय अवस्था में बार को पीठ लगाए फर्श पर पड़ा था । उसकी छाती में दो जगह गोली लगी थी ।
तब कहीं जाकर अशोक को एक कोने में एक कुर्सी से बंधे पड़े रूपचंद जगनानी के दर्शन हुए ।
अशोक ने नेत्र आश्चर्य से फट पड़े । वह लपककर अपने पिता के पास पहुंचा ।
“पापा !” - वह आश्चर्य और आतंक मिश्रित स्वर में बोला - “आप यहां कैसे ? आपकी यह हालत...”
“तू” - रूपचंद बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “गोवा से आ गया, पुटड़े ।”
“हां । कल ही आया । लेकिन आप...”
“अरे, पहले इन्हें आजाद तो करो ।” - फाल्के बोला ।
अशोक ने जल्दी-जल्दी अपने पिता के बंधन खोले । उस क्रिया में उसे अपने पिता के शरीर पर कोड़ों से पीटे जाने के और प्रेस से जलाए जाने के कई निशान दिखाई दिए ।
“क्यों किया ?” - अशोक विक्षिप्तों की तरह बोला - “क्यों किया इन हरामजातों ने ऐसा ? कौन है आपकी इस हालत के लिए जिम्मेदार ? यह बार के पास घायल पड़ा मवाली ! मैं साले का खून पी जाऊंगा ।”
अशोक ने कहरभरी निगाहों से मूर्ति की तरफ देखा ।
मूर्ति पर उसके यूं देखने का रत्ती-भर भी असर नहीं हुआ ।
“ओहो !” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “तो यह बूढा इस पुलसिये का बाप है । कमाल है तेरी भी कुदरत का नीली छतरी वाले । क्या जोड़ी बनाई है बाप-बेटे की ! बाप मटका कलैक्टर ! वाल्ट डकैत ! और बेटा पुलसिया ! क्या हो, बाप ? थानेदार ! इंस्पेक्टर ! या इससे भी ऊपर !”
अशोक मूर्ति के करीब पहुंचा । उसने अपने जूते की ठोकर उसकी पसलियों में जमाई और बोला - “क्या बकता है !”
“पुलिस अफसर साहब” - मूर्ति विषभरे स्वर में बोला - “जरा अपने बाप से पूछो कि मटके की कमीशन से इसका पेट क्यों नहीं भरा जो यह डकैतों और सेंधमारों का साथी बन गया ! यह भी पूछो कि जौहरी बाजार की डकैती में से इसे कितना हिस्सा मिला ?”
“क्या बकता है, हरामजादे !”
“और अपने बाप से यह भी पूछो कि इसने अपने साथियों के साथ दगाबाजी क्यों की ?”
“मेरा बाप ऐसा नहीं ।”
“कैसा नहीं ? मटका कलैक्टर नहीं ! सेंधमार नहीं ! डकैत नहीं ! या दगाबाज नहीं !”
“साले ! मैं तेरा खून पी जाऊंगा ।”
“पी जा साले, पुलिसिये ! बहुतेरा बह रहा है । मेरे खून से अगर अपने बाप की करतूतें तुझे हज्म होती हो तो पी जा ।”
“कमीने ! कमीने !”
“उस बैग को देख, साले पुलसिये, जिसमें डकैती का माल भरा हुआ है । अगर इस माल की खबर तेरे बाप ने हमें न दी होती तो हमें कैसे मालूम होता कि माल कहां था ! इसने, तेरे बाप ने, तेरे दगाबाज बाप ने हमें बताया कि माल कहां था । न सिर्फ बताया बल्कि यह हमें अपने साथ वहां लेकर गया । पूछ इससे । मेरे से पूछने की जगह इससे पूछ कि जो कुछ मैंने कहा, उसमें से कौन-सी बात झूठ है । पूछ ! पूछ !”
अशोक अपने पिता की तरफ घूमा और गला फाड़कर चिल्लाया - “पापा, कहो कि यह आदमी झूठ बोल रहा है । कहो कि यह आदमी झूठ बोल रहा है ताकि मैं इसकी बोटी-बोटी सारे कमरे में छितरा दूं । बोलो, पापा, बोलो !”
रूपचंद का सिर उसकी छाती पर झुक गया ।
अशोक के मुंह से गहरी सांस निकली ।
“तो यह सब सच है ।” - अशोक हताश स्वर में बोला - “सच कह रहा है मवाली ! तू वही है जो यह मवाली बोला । साला मटका कलैक्टर ! सेंधमार ! डकैत ! तूने इतना जुल्म किया मेरे साथ ! मेरी वर्दी को दागदार किया तो मेरे बाप ने ! मेरी सारी आइंदा जिंदगी की तबाही का सामान किया तो मेरे सगे बाप ने ! यह क्या किया तूने ? क्यों किया ? क्यों किया ?”
अशोक का गला रुंध गया । आंसुओं से उसकी आंखें धुंधला गईं ।
रूपचंद ने जवाब न दिया । उस वक्त वह आत्मग्लानि और पश्चाताप की प्रतिमूर्ति बना हुआ था ।
“तेरे बाप की जुबान तेरे सामने नहीं खुलेगी ।” - मूर्ति बोला - “वो हकीकत अपनी जुबान से कबूल नहीं कर सकेगा । इधर आ मैं बताता हूं क्यों तेरे बाप ने ऐसा किया ।”
अशोक फिर मूर्ति की तरफ आकर्षित हुआ ।
“तेरे बाप ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि इसके सिर पर धमकी की तलवार लटक रही थी ।”
“कैसी धमकी ?” - अशोक खोखले स्वर में बोला ।
“तेरी बीवी और बच्ची के अगुवा की धमकी ! उन दोनों के साथ तेरे बूढे बाप की आंखों के सामने बलात्कार की धमकी !”
“किसने दी ?” - अशोक चिल्लाया ।
“हमने दी, साले ! हमने, जिनकी कि गिरफ्त में तेरा बाप था !”
“क्यों ?”
“क्योंकि हमारा आदमी होते हुए भी यह बताता नहीं था कि डकैती का माल कहां था ?”
“तुम्हारा आदमी ?”
“सालों से । मटका कलैक्टर के तौर पर ।”
“सालों से ?”
“तेरी खातिर ।”
“मेरी खातिर ?” - अशोक के स्वर में हाहाकार का पुट था ।
“ताकि तेरी मुनासिब परवरिश हो सके । ताकि तू बड़ा होकर पुलिसिया बन सके और अपने बाप को गिरफ्तार कर सके ।”
मूर्ति ने एकाएक एक हिचकी ली, हिचकी के साथ ढेर सारा झागदार खून उसके मुंह से निकला - “साले, पुलिसिये । साले, ईमानदार और अपने बूढे बाप के फरमाबरदार पुलिसिये, अपनी सारी उम्र जी कर दिखाना अपनी इस जिल्लत और रुसवाई के साथ जो तुझे तेरे बाप से हासिल हुई ।”
फिर मूर्ति की आंखें उलट गईं ।
अशोक पत्थर का बुत बना खड़ा रहा ।
फ्लाइंग स्क्वायड की आवाज इस बार बहुत करीब से आई । वह आवाज सुनकर जैसे वह सोते से जागा । उसने एक निगाह अभी भी अपनी छाती पर अपना सिर डाले कुर्सी पर बैठे अपने पिता पर डाली, फिर उसके होंठ भिंच गए और वह दृढ कदमों से चलता हुआ अपने पिता के करीब पहुंचा ।
“उठ ।” - वह अपने व्यवसायसुलभ कठोर स्वर में बोला ।
रूपचन्द बड़ी मेहनत से अपने पैरों पर उठ खड़ा हुआ ।
“रूपचन्द जगनानी ।” - अशोक दृढ स्वर में बोला - “मैं तुझे डकैती के इलजाम में गिरफ्तार करता हूं ।”
रूपचन्द ने अपने दोनों हाथ अपने पुलिस अधिकारी बेटे की तरफ बढाये । फिर गजब की फुर्ती के साथ उसका दायां हाथ अशोक के कोट की उस जेब की तरफ लपका जिसमें उसी घड़ी उसने अपनी रिवाल्वर रखी थी । उसने रिवाल्वर वहां से झपटी और उसकी नाल को अपने मुंह में डालकर उसका घोड़ा खींच दिया ।
फिर वह कटे वृक्ष की तरह अपने बेटे के कदमों में गिरा । उसका भेजा ड्राइंगरूम के कीमती कालीन पर छितरा गया ।
“पापा !” - आर्तनाद करता हुआ अशोक अपने पिता की लाश पर झपटा लेकिन फाल्के ने उसे पीछे से खींच लिया ।
“कन्ट्रोल युअरसैल्फ ।” - वह धीमे किन्तु कठोर स्वर में बोला - “उसने जो किया, ठीक किया । अपनी औलाद के भविष्य में रुचि रखने वाले बाप को यही करना चाहिए था । वो एक नालायक बाप नहीं, एक मजबूर बाप था । मजबूर, फिर भी जिम्मेदार । तुम्हारा, तुम्हारी बीवी, तुम्हारी औलाद का खैरख्वाह । देखा नहीं उसे किस बुरी तरह टार्चर किया गया था । अगर वो कोई गलत आदमी होता तो अपनी इतनी दुर्गति हरगिज नहीं कराता । अशोक, तेरा बाप तेरी वर्दी को दागदार नहीं, उसे अपने खून से और उजला करके गया है । तुझे ऐसे बाप की औलाद होने पर फख्र होना चाहिए । फख्र होना चाहिए तुझे ऐसे बाप की औलाद होने पर ।”
अशोक खामोश रहा । वह अपलक अपने मृत बाप की दिशा में देखता रहा । तभी कमरे में आनन-फानन कई पुलिसिये घुस आए ।
फ्लाइंग स्कवायड की गाड़ी कोठी के सामने रुकते ही वागले जिधर से कोठी में दाखिल हुआ था, उधर से ही वापस खिसक गया ।
अपनी कार में सवार होकर सीधा फोर्ट में मुबारक अली के घर पहुंचा । वहां अड़ोस-पड़ोस से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उसे तो पुलिस गिरफ्तार करके ले गई थी ।
सौ की रफ्तार से गाड़ी चलाता हुआ वह चैम्बूर पहुंचा ।
“बहुत घोटाला हो गया है ।” - वागले ने तुकाराम को बताया ।
“क्या हो गया ?” - तुकाराम बोला ।
वागले ने बताया ।
“ओह !” - तुकाराम चिन्तित भाव से बोला ।
“रूपचन्द ने तो मेरे सामने आत्महत्या कर ली थी” - वागले बोला - “लेकिन जामवन्तराव और मुबारक अली गिरफ्तार हैं । हो सकता है कि वो दोनों या उनमें कोई हमारे बारे में बक भी चुका हो । मौजूदा हालात में पुलिस किसी भी घड़ी यहां पहुंच सकती है ।”
“शायद वो हमारे बारे में जुबान न खोलें । उन्हें तो कुछ हासिल होगा नहीं हमारी पोल खोलने से ।”
“रिस्क लेने से क्या फायदा ? मेरे ख्याल से हमें फिलहाल यहां से कूच कर जाना चाहिए ।”
“कोलीवाड़े ? सलाउद्दीन के होटल में ?”
“और कहां ? एक ही तो सेफ ठिकाना है हमारे पास जिसकी सोहल को भी खबर है ।”
“ठीक है ।”
आनन-फानन वे दोनों चैम्बूर वाले मकान से कूच कर गए ।
***
सोमवार सुबह जामवन्तराव पुलिस हैडक्वार्टर के लाकअप में मरा पड़ा पाया गया । पुलिस के डॉक्टर ने उसका मुआयना किया तो पता लगा कि जामवन्तराव हेरोइन के ओवरडोज से मरा था । आंटी के स्क्रैपयार्ड पर हल्ला बोलने की हड़बड़ी में किसी को यह सूझा ही नहीं था कि जामवन्तराव ने पिछले रोज न्यू बाम्बे रेस्टोरेन्ट में हजारा सिंह से जो हेरोइन की नई खुराकें हासिल की थीं, वो तब भी उसके पास थीं जबकि अन्त में उसे लाकअप में लाकर बन्द किया गया था ।
अब पुलिस के पास केवल मुबारक अली ही बाकी था जोकि यह बता सकता था कि डकैती में और कौन-कौन शामिल थे और वे कहां पाए जाते थे ।
जामवन्तराव की मौत की खबर सुनकर मुबारक अली शेर हो गया । उसने फिर पुरानी रट पकड़ ली कि उसे निर्दोष फंसाया जा रहा था । अगले दिन वह चिल्ला-चिल्लाकर मांग करने लगा कि उसे अपने वकील से मिलने दिया जाए ।
दोपहर के करीब पुलिस ने उसे रिमांड हासिल करने के लिए कोर्ट में पेश किया जहां कि मुबारक अली को अपना वकील बुलाने की भी इजाजत मिल गई ।
ताजा हालात की सूंघ में लगा वागले भी तब कोर्ट में मौजूद था ।
मुबारक अली ने उसे देखा तो उसने अपने वकील से एक कागज-पैंसिल हासिल किया और जो टूटी-फूटी हिन्दी उसे आती थी, वह उसने उस कागज पर घसीट दी । फिर आगे वागले को सौंपने के लिए उसने कागज वकील को थमा दिया ।
मुबारक अली को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया ।
मैजिस्ट्रेट ने उसकी जमानत की दरख्वास्त नामंजूर कर दी और पुलिस को दस दिन का रिमांड दे दिया । दस दिन बाद मुबारक अली को फिर अदालत में पेश किए जाने के हुक्म के साथ मैजिस्ट्रेट ने केस दाखिल दफ्तर कर दिया ।
मुबारक अली को पुलिस ले गई तो उसका वकील वागले के पास पहुंचा । उसने मुबारक अली की चिट्ठी वागले को थमा दी ।
वागले ने कोर्ट से बाहर जाकर अपनी कार में बैठ कर वह चिट्ठी पढी । लिखा था:
तुकाराम, पुलिस मेरे कू तोड़ के मानेगी । मैं ज्यादा देर पुलिस की खिलाफत नहीं करता रह सकता । मेरे कू छुड़वा । किसी भी तरह छुड़वा । नहीं तो पुलिस की नवाजिश हासिल करने के वास्ते मेरे कू तेरे शागिर्द वागले का नाम लेना पड़ेगा । मेरे कू जल्दी छुड़वाने का कोई इन्तजाम कर । मेरे कू मालूम तू ऐसा कर सकता है । नहीं करेगा तो मैं समझेंगा कि तूने कोशिश नहीं की । फिर तुम दोनों भी अपुन के साथी ही जेल में चक्की पीसेंगा ।
बकलम मुबारक अली
वागले ने चिट्ठी को तह करके जेब में रख लिया और चैम्बूर की तरफ रवाना हो गया ।
***
सोमवार नर्ई लिस्ट में से सोलंकी ने आठ चन्दानी और चैक किए ।
कोई उसका लक्ष्य न निकला ।
उस रात उसने एक बड़ा डरावना सपना देखा । सपने में डॉक्टर स्लेटर उसके चेहरे पर से गोश्त की परतें उतार रहा था और हर परत उतारने पर उससे शिकवा कर रहा था कि वह अभी तक उस शख्स से उसका नया चेहरा नहीं छीन सका था जिसने उसका कत्ल किया था ।
पसीने से नहाया हुआ सोलंकी जागा तो दोबारा सो न सका ।
सारी रात जागते रहने पर उसे एक बात याद आई ।
उसने आपरेशन के बाद चन्दानी को डॉक्टर स्लेटर को कहते सुना था कि अहमदाबाद से सत्तर किलोमीटर बाहर जल सरोवर के करीब उसका एक फार्म हाउस था जोकि उसके फरार हो जाने के बाद सरकार ने जब्त करके नीलाम कर दिया था । चन्दानी ने कहा था कि वापिस अहमदाबाद जाकर वह किसी भी कीमत पर उस फार्म हाउस को वापिस खरीदने वाला था । क्या पता वह फार्म हाउस चन्दानी खरीद चुका हो और अब उसी में रहता हो ।
***
सोमवार दस बजे ट्रेन राजनगर पहुंची जहां से टैक्सी करके विमल सोनपुर पहुंचा ।
डॉक्टर स्लेटर को मरे अभी सोलह दिन ही हुए थे लेकिन उसका क्लीनिक उजड़ी हालत में पहुंच भी चुका था । क्लीनिक की दोमंजिली इमारत के सामने की देखभाल कतई बन्द हो चुकी मालूम होती थी ।
कम्पाउन्ड का विशाल फाटक बन्द था ।
वह सड़क पर ही टैक्सी से उतर गया और फिर पैदल चलकर फाटक तक पहुंचा । उसने फाटक खोला और भीतर दाखिल हुआ । उसे उम्मीद थी कि तुरंत कुत्ता भौंकने लगेगा लेकिन ऐसा न हुआ । वहां के बाकी स्टाफ की तरह शायद कुत्ता भी वहां से विदा किया जा चुका था ।
वह आगे बढा । एक लम्बी राहदारी से गुजरता हुआ वह इमारत के सामने पहुंचा । उसने इमारत का मुख्यद्वार खटखटाने का अभी इरादा ही किया था कि द्वार खुला और चौखट पर एक विशालकाय आदमी प्रकट हुआ ।
“कौन हो ?” - वह कर्कश स्वर में बोला - “क्या चाहते हो ?”
“तुम कौन हो ?” - विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“जैक । तुम...”
“हेल्गा कहां है ?”
“यहीं है । क्यों ?”
“मैंने उससे बात करनी है ।”
“किस बारे में ?”
“सोलंकी के बारे में ।”
“क्या बात करनी है ?”
“उसे कुछ बताना है ।”
“क्या ?”
विमल ने एक गहरी सांस ली और बोला - “यह कि क्यों मैंने सोलंकी की जान नहीं ली ।”
वह हड़बड़ाया और यूं एक कदम पीछे हटा जैसे किसी संभावित खतरे से दरवाजे की ओट लेकर बचना चाहता हो ।
“तुम हो कौन ?” - वह बोला ।
“हेल्गा को बुलाओ । फिर वही तुम्हें बताएगी कि मैं कौन हूं ।”
तभी इमारत के भीतर कहीं एक जनाना स्वर गूंजा - “जैक ! कौन है ?”
“कोई आदमी” - जैक उच्च स्वर में बोला - “तुम्हें पूछ रहा है ।”
“नाम पूछो ।”
“नाम बोलो ।” - जैक बोला ।
“उसे बाहर बुलाओ ।” - विमल बोला ।
“नाम नहीं बता रहा ।” - जैक पूर्ववत् उच्च स्वर में बोला - “तुम्हें बुला रहा है ।”
कुछ क्षण खामोशी रही । फिर हेल्गा का ड्रम के आकार का शरीर जैक के पीछे प्रकट हुआ । तब भी वह तम्बू जैसे मोटे कपड़े की वह फ्राक पहने थी जिसमें विमल ने उसे हमेशा देखा था । फ्राक में से उसकी खम्बों जैसी टांगें और बांहें बाहर झलक रही थीं । हेल्गा उम्र में ज्यादा नहीं थी और कदरन खूबसूरत भी थी लेकिन उसके असाधारण डीलडौल की वजह से शायद ही किसी का ध्यान उसकी कमउम्र और खूबसूरती की तरफ जाता था ।
“यह सोहल है ।” - विमल पर निगाह पड़ते ही वह चिल्लाई - “यह आखिरी वाला है ।”
“यह सोलंकी के बारे में कुछ कह रहा था ।” - जैक बोला ।
“उसे जाने न देना ।” - उसकी बात की ओर ध्यान दिए बिना हेल्गा चिल्लाई ।
“चला कैसे जाएगा ?” - जैक अकड़कर बोला । उसने दरवाजे से बाहर निकलकर विमल को दबोचने की कोशिश की तो विमल ने उसके पेट में एक प्रचंड घूंसा रसीद किया । वह दोहरा हुआ तो विमल का घुटना आकर उसकी ठोड़ी से टकराया । वह फिर सीधा हुआ तो विमल ने ताबड़तोड़ तीन-चार और घूंसे उसके पेट में जड़ दिए ।
“इसे कहो, अक्ल करे ।” - वह बोला ।
लेकिन हेल्गा ने उसकी बात न सुनी । वह इमारत के भीतर की ओर मुंह करके गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगी - “रिची ! रिची !”
विमल जानता था कि वह एक साथ दो आदमियों का मुकाबला नहीं कर सकता था । दूसरे आदमी के वहां पहुंचने से पहले जैक का धराशायी होना जरूरी था । विमल ने अपने दाएं हाथ का एक वज्र प्रहार जैक के गले की घन्टी पर किया । जैक के मुंह से यूं सिसकारी निकली जैसे एकाएक गुब्बारे में से हवा निकली हो । विमल ने एक और प्रहार उसकी कनपटी पर किया । जैक के पहले से मुड़ते घुटने अब उसका भार न संभाल सके और वह दरवाजे के पास फर्श पर लुढक गया ।
तभी दूसरा आदमी वहां प्रकट हुआ ।
वह भी जैक जितना ही लम्बा-चौड़ा निकला । वह जूडो के पोज में अपने दोनों हाथ अपने सामने फैलाए विमल की तरफ बढा ।
दरवाजे के दाएं-बाएं कई गमले पड़े थे । विमल ने फुर्ती से एक गमला उठाया और पूरी शक्ति से दूसरे व्यक्ति के सिर पर पटक दिया । तुरंत दूसरे व्यक्ति की आंखें उलटीं और वह भी फर्श पर ढेर हो गया ।
हेल्गा ने आंतकित भाव से अपने दोनों मुहाफिजों की तरफ देखा और फिर एकाएक घूमकर भीतर को भागी ।
विमल अचेत शरीरों पर से आगे कूदा और उसके पीछे भागा ।
हेल्गा डॉक्टर स्लेटर के आफिस में दाखिल होने की कोशिश कर रही थी जबकि विमल ने उसे पीछे से पकड़कर वापिस घसीट लिया ।
उसने विमल का मुंह नोचने की कोशिश की तो विमल ने उसे फर्श पर पटक दिया ।
“मैं औरत पर हाथ नहीं उठाना चाहता ।” - विमल बोला - “मुझे मजबूर न करो और मेरी बात सुनो ।”
“रिची !” - हेल्गा ने कराहते हुए आवाज लगाई ।
“फिलहाल तुम्हारे दोनों पहलवानों में से कोई नहीं उठने का ।”
“क्या चाहते हो ?” - वह मरे स्वर में बोली ।
“तुमसे बात करना चाहता हूं । तुम्हारे मतलब की ।”
“क्या ?”
“उठकर खड़ी होवो ।”
बड़ी मुश्किल से हेल्गा उठकर अपने पैरों पर खड़ी हुई ।
“रिची को होश आने दो” - वह हांफती हुई बोली - “वो तुम्हारी हड्डी-पसली एक कर देगा ।”
“वो ऐसी कोई कोशिश करेगा तो पछताएगा । अपनी जान से हाथ भी धो बैठे तो कोई बड़ी बात नहीं ।”
“रिची को मारना इतना आसान नहीं ।”
“देखेंगे ।”
“तुम यहां क्या लेने आए हो ?”
“बताता हूं । पहले अपने पहलवानों को समझाओ कि वो फिर मेरे पर हमला करने की कोशिश न करें ।”
हेल्गा के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आए । फिर एकाएक उसने सहमति में सिर हिलाया और गलियारे में उधर बढी जिधर जैक और रिची उठकर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहे थे ।
विमल सावधान की मुद्रा में डॉक्टर स्लेटर के ऑफिस के दरवाजे पर खड़ा रहा ।
हेल्गा उन दोनों के करीब जाकर जल्दी-जल्दी उन्हें कुछ कहने लगी । दोनों ने आग्नेय नेत्रों से विमल की तरफ देखा और फिर सहमति में सिर हिलाने लगे ।
फिर वो दोनों गलियारे में चलते हुए विमल के करीब पहुंचे ।
“जो कहना है” - हेल्गा बोली - “हम तीनों को कहो ।”
“ठीक है ।” - विमल बोला, वह दरवाजा ठेलकर डॉक्टर स्लेटर के आफिस में दाखिल हुआ । आफिस ऐन उसी हालत में था जिसमें वह उसे पहले देख चुका था, कोई कमी थी तो यह थी कि खुद डॉक्टर स्लेटर वहां नहीं था ।
विमल डॉक्टर स्लेटर की विशाल मेज के साथ सहारा लेकर खड़ा हो गया और जेब से अपना पाइप निकालकर सुलगाने लगा ।
“अब कुछ कहो भी ।” - हेल्गा बेसब्रेपन से बोली ।
“सोलंकी मुझे बम्बई में मिला था” - विमल बोला - “वहां वह मझे काबू में करना चाहता था लेकिन पहले मैंने उसे काबू में कर लिया था । फिर उसने मुझे डॉक्टर स्लेटर के कत्ल की खबर सुनाई थी और कहा था कि जिन तीन जनों पर उसे डॉक्टर स्लेटर का कातिल होने का शक था, उनमें से एक मैं भी था । मैंने उसे साबित करके दिखाया था कि जिस वक्त वह डॉक्टर स्लेटरका कत्ल हुआ बताता था, ऐन उस वक्त मैं यहां से सैंकड़ों मील दूर बम्बई में था । सोलंकी को मेरी बात पर विश्वास हो गया था । वो फौरन ही बाकी दो जनों के पीछे जाना चाहता था । यह बात मुझे मंजूर नहीं थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि जैसे मैंने उसे पकड़कर अपने अधिकार में कर लिया था, वैसे ही यह काम तुम्हारा दूसरा या तीसरा सस्पैक्ट भी कर सकता था । मैंने तो उसे समझा-बुझाकर ही बात खत्म कर दी थी, दूसरा शायद उसका कत्ल कर देने में ही अपनी भलाई मानता ।”
“उसकी मौत से तुम्हें क्या ?”
“मुझे है । तुमने उसकी वापिसी की एक टाइम लिमिट फिक्स की हुई थी । वह कहता था कि अगर उस निश्चित समय में वह वापिस न लौटा तो तुम तीनों नए चेहरों की पोल खोल दोगी । इसमें मेरा नुकसान था । इसीलिए मैंने सोलंकी को पकड़ के रखा था ताकि वह खामखाह अपनी जान से हाथ न धो बैठे ।”
“सोलंकी को मारना इतना आसान नहीं ।”
“ये सब कहने की बातें हैं ।”
“तुम आगे बोलो ।”
“मेरा इरादा सोलंकी के साथ यहां आने का था ताकि वो मेरे सामने तुम्हें यह विश्वास दिला पाता कि मैं डॉक्टर स्लेटर का कातिल नहीं था । लेकिन सोलंकी किसी तरह से मेरी कैद से भागने में कामयाब हो गया ।”
“तुमने सोलंकी को कैद किया हुआ था ?”
“मजबूरन । वजह मैंने बताई ही है ।”
“कमीने !”
“ताव मत खाओ । सोलंकी की अपनी भलाई के लिए उसके साथ ऐसा व्यवहार करना जरूरी था । वह कमअक्ल आदमी खामखाह अपनी जान से जाता और अपनी मौत के साथ इतनी मुश्किल से मुझ हासिल हुआ नया चेहरा मेरे से छिन जाने का सामान कर जाता । इसलिए...”
“मैं और जैक” - रिची बोला - “अब बड़े आराम से इसे काबू में कर सकते हैं ।”
“अभी ठहरो ।” - हेल्गा बोली - “अभी इसकी बात खत्म नहीं हुई । अभी यह और भी कुछ कहना चाहता है । क्यों ?”
विमल ने सहमति से सिर हिलाया । हेल्गा में कम से कम अपने पहलवानों से ज्यादा अक्ल थी ।
“सोलंकी” - वह बोला - “अभी भी खामखाह मारा जा सकता है । मैं चाहता हूं कि तुम मुझे बताओ कि मेरे जैसे और दो सस्पैक्ट कौन हैं और वो इन दोनों में से पहले किसके पीछे पड़ेगा ।”
“जानकर तुम क्या करोगे ?”
“फिर मैं सोलंकी के पीछे जाऊंगा और तब तक वो मर न चुका हुआ तो उसे यहां लेकर आऊंगा ताकि वह तुम लोगों को यकीन दिला सके कि मैं डॉक्टर स्लेटर का कातिल नहीं ।”
“वो यकीन तुम ही क्यों नहीं दिलाते हमें ? जैसे तुमने सोलंकी को साबित कर दिखाया कि तुम डॉक्टर स्लेटर के कातिल नहीं हो सकते थे, वैसे ही हमें साबित कर दिखाओ ।”
“यह सोलंकी के बिना मुमकिन नहीं ।”
“क्यों मुमकिन नहीं ? जो सबूत तुमने सोलंकी को दिया था, वो हमें क्यों मुमकिन नहीं ? दे सकते तुम ?”
“वो सबूत बम्बई में है ।”
“है क्या वो सबूत !”
“मैने सोलंकी की किसी ऐसी औरत से बात कराई थी जिसके साथ मैं डॉक्टर स्लेटर के कत्ल के वक्त था ।”
“उस औरत से हमारी बात करा दो ।”
“कैसे ?”
“टेलीफोन पर । टेलीफोन तो है न उसके पास ?”
“है लेकिन इस ढाई बाशिन्दों के गांव में से बम्बई ट्रंककाल लगने में पता नहीं कितना टाइम लगे ।”
“कोई टाइम नहीं लगेगा । यहां हमारे पास एक टेलीफोन लाइन ऐसी है जो राजनगर से यहां तक खास डॉक्टर स्लेटर के लिए खींची गई थी । उस लाइन पर बम्बई सीधा डायल किया जा सकता है ।”
“गुड ।”
“उस औरत का नाम और टेलीफोन नम्बर बोलो ।”
विमल ने बोला ।
हेल्गा एक फोन पर वह नम्बर डायल करने लगी । पहली ही कोशिश में नम्बर लग गया ।
“घन्टी जा रही है ।” - वह बोली ।
सब खामोश रहे ।
“हल्लो !” - फिर हेल्गा माउथपीस में बोली - “कौन ? मुझे मिसेज खांडेकर से बात करनी है ।”
“आंटी बोलो ।” - विमल बोला ।
“आंटी ! आंटी से बात करनी है ।” - हेल्गा बोली - “मैं राजनगर से उसकी बहन बोल रही हूं । क्या ? आंटी का कत्ल हो गया । उसके बेटे का भी !.. डाकू घुस आए !... आप कौन हैं ? ... पुलिस ! ... ओह ! जी हां । जी हां मैं फौरन पहुंचती हूं बम्बई ।”
उसने रिसीवर रख दिया ।
“वहां पुलिस पहुंची हुई है” - वह बोली - “और कह रही है कि कल शाम आंटी और उसके बेटे दोनों का कत्ल हो गया है ।”
“ओह !” - विमल निराश स्वर में बोला ।
“अब कहां गया तुम्हारा सबूत ?”
विमल खामोश रहा ।
“मुझे तो लगता है कि तुम्हें पहले ही अपनी इसी आंटी के कत्ल की खबर थी ।”
“अब मेरे लिए सोलंकी को तलाश करना और भी जरूरी हो गया है ।”
“क्यों ? ताकि तुम उसे तलाश करके उसका कत्ल कर सको ?”
“वो किसलिए ?”
“क्योंकि वो जानता है कि डॉक्टर स्लेटर के कातिल तुम हो ।”
“अगर वो जानता है कि कातिल मैं हूं तो फिर वो अभी भी बाकी दो जनों के पीछे क्यों पड़ा हुआ है ?”
हेल्गा ने जवाब न दिया ।
“अगर मैं सोलंकी का कत्ल करने का ख्वाहिशमन्द होता तो ऐसा मैं तभी क्यों न कर डालता जबकि वो मेरे कब्जे में था ?”
“हमें क्या पता वो तुम्हारे कब्जे में था ? क्या पता यह भी तुम्हारा कोई झूठ हो ।”
“मूर्ख औरत ! अगर सोलंकी मेरे कब्जे में न होता तो मुझे कैसे मालूम पड़ता कि डॉक्टर स्लेटर के कत्ल का बदला उतारने के लिए तुम लोगों ने क्या बेहूदा स्कीम बनाई थी ? मुझे यही कैसे मालूम होता कि यहां तुम्हारे साथ दो आदमी थे जिनमें से एक तुम्हारा भाई था और दूसरा तुम्हारा यार था ।”
“हम तुमसे बहस नहीं करना चाहते ।” - हेल्गा झुंझलाकर बोली - “सोलंकी को आने दो । वही हकीकत बताएगा । वही तुमसे निपटेगा । “
“वो न आया तो ?”
“तो निर्धारित वक्त के बाद हम नये चेहरों की पोल खोल देंगे ।”
“दाता !” - विमल आह भरकर बोला - “मेरी खता बख्शना ।”
“क्या ?” - हेल्गा बोली ।
“इन दोनों में से तुम्हारा भाई कौन है ?” - विमल ने पूछा ।
“जैक । क्यों ?”
“ज्यादा प्यारा कौन है तुम्हें ? भाई या यार ? जैक या रिची ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह” - विमल ने जेब से रिवाल्वर निकाली - “कि मैं इन दोनों में से एक को शूट करने जा रहा हूं । बोलो किसे करूं ?”
रिवाल्वर देखते ही तीनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“जवाब दो !” - विमल कहरभरे स्वर में बोला ।
कोई जवाब न मिला ।
विमल ने जैक के पांव में गोली मार दी ।
जैक जोर से चीखा, वह कुछ क्षण अपने घायल पांव को हाथों में थामे दूसरे पांव पर नाचता रहा और फिर फर्श पर बैठ गया । उसका चेहरा पीड़ा से विकृत हो उठा ।
“कमीने !” - हेल्गा दांत पीसती हुई उसकी तरफ झपटी ।
“खबरदार !” - विमल रिवाल्वर उसकी तरफ तानता हुआ बोला ।
हेल्गा रास्ते में ही ठिठक गई ।
“इसकी जान तो मैं नहीं लूंगा लेकिन अगली बार मैं इसका घुटना फोडूंगा ताकि जिन्दगी-भर यह लंगड़ाए बिना चल ना सके ।”
कोई कुछ न बोला । हेल्गा और रिची मुंह बाए कभी विमल को, कभी उसके हाथ में थमी रिवाल्वर को तो कभी दर्द से कराहते हुए जैक को देखते रहे ।
“मेरे लिए आसान काम तो यह होगा” - विमल विषभरे स्वर में बोला - “कि मैं अभी तुम तीनों को शूट कर दूं और उम्मीद करूं कि अपनी मूर्खता की वजह से सोलंकी पहले ही मारा जा चुका होगा । यानी कि मेरी समस्याएं खत्म ।”
और उसने अपना रिवाल्वर वाला हाथ ऊंचा किया ।
“ठहरो !” - हेल्गा तुरन्त आतंकित भाव से बोली - “ठहरो ।”
“क्या फायदा !” - विमल बड़े उदासीन भाव से बोला ।
“जो तुम जानना चाहते हो, मैं बताती हूं ।”
“गुड ।”
“नम्बर दो का नाम चन्दानी है और तीसरे का नाम मिराजकर है ।”
“पते ?”
“नहीं मालूम । सिर्फ इतना मालूम है कि चन्दानी अहमदाबाद में रहता है और मिराजकर बंगलौर में ।”
“तुम्हारे रिकार्ड में इनके पते नहीं हैं ?”
“हैं । लेकिन वो झूठे निकले हैं । हमने चैक किए हैं ।”
“फिर तो शहर भी गलत हो सकते हैं ।”
“शहर गलत नहीं हैं । अनजाने में उन लोगों के मुंह से कुछ ऐसी बातें निकली थीं जो बताती हैं कि शहर गलत नहीं हैं ।”
“वो पुरानी बातें हैं । ये लोग अब शहर छोड़ चुके हो सकते हैं ।”
“यूं तो कुछ भी हो सकता हैं । यूं तो यह भी हो सकता है कि इन दोनों में से किसी का घातक एक्सीडेंट हो गया हो या हार्ट अटैक हो गया हो या कैंसर से मर गया हो ।”
“इनके नए चेहरों की तस्वीरें दिखा सकती हो ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?” - विमल उसे घूरता हुआ बोला ।
“क्योंकि फिर हो सकता है कि तुम हमारे रिकार्ड को नष्ट करने की कोशिश करो । तुम्हारा काम तो रिकार्ड नष्ट हो जाने से ही बन सकता है । इसलिए रिकार्ड को मैंने पहले ही एक ऐसी महफूज जगह पहुंचा दिया हुआ है जहां से वो किसी को ढूंढे नहीं मिल सकता ।”
“यह देख रही हो न मेरे हाथ में क्या है ?”
“देख रही हूं । लेकिन तुम जितना मर्जी धमका लो, यह में हरगिज नहीं बताऊंगी कि रिकार्ड कहां है ।”
“वो इस इमारत में ही कहीं होगा । मैं यहां आग लगा देता हूं, फिर रिकार्ड खुद ही इमारत के साथ जलकर खाक हो जाएगा ।”
हेल्गा मुस्कराई ।
“यानी कि रिकार्ड यहां नहीं है ।”
उसने उत्तर न दिया।
विमल विचारपूर्ण मुद्रा बनाए कई क्षण खामोश रहा ।
“ठीक है ।” - अन्त में वह बोला - “बकौल सोलंकी अट्ठाइस तारीख तक तुमने उसका इन्तजार करना है । अब इस तारीख तक तुम तीनों सब्र से बैठना । इस तारीख तक अगर मेरे और सोलंकी में से कोई भी यहां वापिस न लौटा तो फिर जो जी में आए करना । ठीक ?”
“ठीक ।” - हेल्गा बोली ।
***
मंगलवार सोलंकी कोर्ट में पहुंचा । वहां कई जनों को रिश्वत देने के बाद उसे नल सरोवर के करीब के उस फार्म हाउस की जानकारी मिली जोकि कभी किसी हरीश जेठामल मूलवन्दानी की प्रापर्टी हुआ करता था और जिसे कुर्की के बाद होने वाली सरकारी नीलामी में हीरालाल पटेल नाम के एक आदमी ने खरीदा था जोकि अम्बावाड़ी में रहता था ।
उसने अम्बावाड़ी जाने का फैसला किया ।
वहां से उसे अगर यह मालूम होता कि उस फार्म हाउस का मालिक अभी भी हीरालाल पटेल था तो फिर नगर से इतनी दूर नल सरोवर जाना बेकार था लेकिन अगर हीरालाल पटेल हाल ही में वही फार्म हाउस बेच चुका था तो फिर सोलंकी का शिकार निश्वय ही अब उस फर्म हाउस में रहता था । कोर्ट की इमारत से निकलकर वह पार्किंग की तरफ बढा तो एकाएक थमककर खड़ा हो गया । उसने सोहल को टैक्सी में से उतरते देखा । तभी टैक्सी के आगे एक बस आ गई । बस आगे से हटी तो सड़क पर उसे न वो टैक्सी दिखाई दी और न सोहल ।
वह सोचने लगा - उसने वाकई सोहल को देखा था या उसे वहम हुआ था । सोहल था या उसका वहम था ।
इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अपनी स्टेशनवैगन पर सवार हुआ और अम्बावाड़ी की ओर रवाना हो गया ।
***
मुबारक अली का वकील बड़ी मुश्किल से अपने क्लायन्ट से मुलाकात का जुगाड़ कर पाया ।
“मेरा ईश्वर जानता है” - वकील बोला - “कि इस मुलाकात के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़े हैं । आइन्दा दिनों में जब तक तुम रिमांड पर हो तब तक तुम्हारे से मेरी फिर मुलाकात होनी मुमकिन नहीं ।”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं तुम्हारे लिए तुकाराम का संदेश लाया हूं । जो कुछ मैं कहने जा रहा हूं, उसे गौर से सुनना । कोई बात दोहरानी न पड़े । ठीक ?”
“ठीक ।”
फिर धीरे-धीरे मुबारक अली का वकील वो बातें मुबारक अली को सुनाने लगा जो वह तुकाराम और वागले से सुनकर आया था ।
***
अहमदाबाद आकर विमल जिस होटल में ठहरा वह कोर्ट के करीब था । नित्यकर्म से निवृत होकर उसने डायरेक्ट्री खोली ।
एक घन्टे की मेहनत के बाद उसने कोई चालीस नाम पते और टेलीफोन नम्बर नोट कर लिए जोकि डॉक्टर स्लेटर का पेशेंट नंबर दो हो सकते थे । फिर उसने टेलीफोन अपनी तरफ घसीट लिया ।
सबसे पहले उसका वो नम्बर डायल करने का इरादा था जोकि शहर की घनी आबादी में नहीं पड़ते थे । आखिर एक फरार अपराधी सूरत तब्दील हो चुकने के बाद भी भीड़-भाड़ से परहेज रखने की नीयत रखता हो सकता था ।
उसने बारी-बारी वे नम्बर डायल करने आरम्भ किए और उत्तर मिलने पर एक ही प्रकार के सवाल पुछने आरम्भ किए ।
बाइसवीं काल पर वार्तालाप भिन्न हुआ ।
काफी देर घन्टी बजती रहने के बाद फोन उठाया गया और फिर विमल को एक मर्दाना आवाज सुनाई दी ।
“हरीश एम. चन्दानी साहब हैं ?” - विमल बोला ।
“बोल रहा हूं । तुम कौन हो ?”
“हरीश जेठामल मूलचन्दानी ।”
उस बात का गलत आदमी के लिए कोई मतलब नहीं था, वह केवल उलझन में पड़ सकता था लेकिन सही आदमी वह नाम - अपना पूरा भूतपूर्व नाम - सुनकर बौखला सकता था ।
इस बार वह नाम सुनने वाला बौखलाया, कुछ क्षण खामोशी रही और फिर बड़े धीमे, सावधान स्वर में पूछा गया - “क्या नाम बताया तुमने अपना ?”
“डॉक्टर अर्ल स्लेटर ।” - विमल बड़े इत्मीनान से बोला ।
फिर जैसे श्रोता को सांप सूंघ गया । विमल को उसकी आवाज सुनाई देनी बन्द हो गई ।
“हल्लो !” - वह बोला ।
“कौन हो तुम ?” - इस बार फोन सुनने वाला सांप की तरह फुंफकरा - “क्या चाहते हो ?”
विमल ने लाइन काट दी ।
उसने अपनी लिस्ट में उस नम्बर के साथ लिखा पता देखा ।
पता था: स्प्रिंगडेल फार्म्स, नल सरोवर ।
अगर वही सही चन्दानी था तो जाहिर था कि वह जिन्दा था ।
आगे तीन सम्भावनाएं थीं:
सोलंकी अभी तक उसे तलाश नहीं कर सका था ।
सोलंकी उसे तलाश कर चुका था और वह वैसे ही सोलंकी को अपनी बेगुनाही का विश्वास दिला चुका था जैसे विमल ने दिलाया था ।
सोलंकी उसे तलाश कर चुका था लेकिन उसे मारने की जगह खुद मारा जा चुका था ।
वह कमरे से बाहर निकला । अब उसने यहा मालूम करना था कि नल सरोवर कहां था और वहां स्प्रिंगडेल फार्म कहां था ।
***
मुबारक अली इन्स्पेक्टर फाल्के के सामने पेश था । दो घन्टे से उसकी डण्डा परेड चल रही थी लेकिन फिलहाल वह चुप था ।
“मैंने बड़ों-बड़ों की जुबान खुलवाई है, साले ।” - फाल्के कहर-भरे स्वर में बोला ।
“तेरी मां की...”
फाल्के का एक झन्नाटेदार थप्पड़ मुबारक अली के चेहरे पर पड़ा ।
“मार साले, जितना मर्जी मार ।”
तभी दरवाजा खुला और ए.सी.पी. देवड़ा ने भीतर कदम रखा ।
फाल्के और उसके साथ वहां मौजूद दो हवलदार अदब से तन गए ।
देवड़ा ने प्रश्नसूचक नेत्रों से फाल्के की तरफ देखा ।
फाल्के ने इन्कार में सिर हिलाया ।
देवड़ा मुबारक अली के करीब पहुंचा ।
मुबारक अली ने एक बार आग्नेय नेत्रों से देवड़ा की तरफ देखा और फिर सिर नीचे झुका लिया ।
“इसे खोल दो ।” - देवड़ा बोला ।
तुरन्त उसके आदेश का पालन हुआ ।
“पानी पियोगे ?”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया ।
तुरन्त एक हवलदार ने उसे पानी पिलाया ।
“देखो, मुबारक अली ।” - देवड़ा मीठे स्वर में उसे समझाने लगा - “दिलेर और हौसलामन्द होना अलग बात होती है और मूर्ख और अक्ल का अन्धा होना अलग बात होती है । डकैती में तुम्हारी दिलेरी काबिलेतारीफ थी लेकिन यहां अपनी जुबान बन्द रख के जो दिलेरी तुम दिखा रहे हो, वो दिलेरी नहीं, मूर्खता है । ये लोग तो तुम्हारा कीमा कूट डालेंगे दस दिन के रिमांड में और तुम्हारे जैसे अपराधी का रिमांड बढवा लेना मामूली बात है ।”
मुबारक अली खामोश रहा ।
“और फिर अब कोई फायदा भी तो हो जुबान बन्द रखने का ! माल पकड़ा जा चुका है, तुम्हारे साथी मारे जा चुके हैं और जो कुछ तुम हमें बताओगे उसमें से तकरीबन की हमें जानकारी है ।”
“है तो पूछते क्यों हो ?” - मुबारक अली बोला ।
“क्योंकि हमारी तफ्तीश बताती है कि अभी तुम्हारे दो और साथी आजाद हैं ।”
मुबारक अली चौंका ।
“चौंक गए न ?” - देवड़ा मुस्कराया - “मुबारक अली, ऐसी बातों की भापने की पुलिस को ट्रेनिंग होती है ।”
मुबारक अली खामोश रहा ।
“डकैती की पहली कोशिश के दौरान तुमने सीवर में जो सामान छोड़ा था, उसकी पड़ताल बताती है कि सीवर में सुरंग खोदने के काम में तुम छ: जने शामिल थे । वहां से बरामद हुई कई चीजें गिनती में छ:-छ: जो थीं । तुम्हारा एक आदमी बाहर भी था ।”
“वो कैसे ?”
“एक तो अब हम वैसे ही जानते हैं कि रूपचन्द जगनानी डकैती में तुम लोगों का साथी था और वो बाहर था । दूसरे वायरलैस टेलीफोन भी इसी ओर संकेत करता है । एक वायरलैस टेलीफोन सीवर में से बरामद हुआ था, दूसरा बाहर बाजार में पड़ा मिला था । क्या इतना ही यह साबित करने के लिए काफी नहीं कि तुम्हारा एक साथी सीवर में बाहर भी था ? ठीक ?”
मुबाकर अली ने कुछ न कहा ।
“अब देखो, एक तो तुम हुए । दूसरा हुआ जार्ज सैबेस्टियन जिसकी जैकेट बमय उसके लाइसेंस सुरंग में पाई गई थी । तीसरा हुआ सतीश आनन्द जोकि बाजार में हमारे एक बहादुर ए.एस.आई. की गोली खाकर मरा था, चौथा हुआ रूपचन्द जगनानी जिसने कि दत्तानी की कोठी में आत्महत्या कर ली, पांचवां हुआ जामवन्तराव जो हमारी लापरवाही से लाकअप में मर गया । बाकी बचे दो । हो सकता है उनमें से एक खांडेकर हो । एक फिर भी बचता है और वही तुम लोगों का सरगना था और सारी योजना का दिमाग था । मुबारक अली हमें शक है कि वो सोहल था ।”
“कौन सोहल ?”
“सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल ।”
“अपुन इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता ।”
“यह तुम्हारी ढिठाई है । जरायमपेशा वर्ग का तो बच्चा-बच्चा इस नाम से वाकिफ है तो फिर तुम क्यों कर नहीं वाकिफ इस नाम से ?”
मुबारक अली ने उत्तर नहीं दिया ।
“जवाब दो ।”
“पहले आप मेरी एक बात का जवाब दो ।”
“पूछो ।”
“पुलिस की मदद करने में मेरा क्या फायदा ! मुझे क्या, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, हासिल होएगा पुलिस की मदद कर के ?”
“हां ।” - देवड़ा प्रशांसात्मक स्वर में बोला - “यह समझदारी का सवाल है । देखो, मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें वादामाफ गवाह बनाकर छुड़वा ही दूंगा । तुम्हारा अपराध बहुत गम्भीर है । सशस्त्र डकैती के बड़ी लम्बी सजा होती है लेकिन एक वादा मैं तुमसे कर सकता हूं ।”
“क्या ?”
“अगर तुम तमाम हकीकत सच-सच बयान कर दो, अगर तुम्हारी मदद से हम सोहल को पकड़ने में कामयाब हो गए तो मैं इस बात के लिए जान लड़ा दूंगा कि तुम्हें कम से कम सजा हो ।”
“कितनी ?”
“एक या दो साल की, जबकि मौजूदा हालात में तुम कम से कम दस साल के लिए नपोगे । फांसी भी हो सकती है ।”
मुबारक अली सोचने लगा ।
“और” - देवड़ा बोला - “मैं तुमसे वादा करता हूं कि जेल में अपनी सजा के दिन तुम एक बादशाह की तरह काटोगे ।”
मुबारक अली चुप रहा ।
“ठीक है । सोच लो । अच्छी तरह से सोच लो ।”
देवड़ा बड़े सब्र से उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“यह साला टाइम वेस्ट कर रहा है ।” - फाल्के बोला ।
“इस इन्स्पेक्टर को दफा करो ।” - एकाएक मुबारक अली बोला ।
“क्या !” - फाल्के आंखें निकालकर बोला । उसने मुबारक अली की तरफ कदम बढाया ।
देवड़ा ने फाल्के को रोका और उसे वहां से बाहर जाने का आदेश दिया । फाल्के निगाहों से मुबारक अली पर भाले-बर्छियां बरसाता वहां से विदा हुआ ।
देवड़ा फिर मुबारक अली की तरफ आकर्षित हुआ ।
“बड़े साहब” - मुबारक अली धीरे से बोला - “अपने वादे से फिर तो नहीं जाओगे ?”
“हरगिज नहीं !” - देवड़ा दृढ स्वर में बोला ।
“तो फिर मेरा कहना मानो, बाप ।”
“क्या ?”
“मुझे मारना-पीटना, हलकान करना बन्द कराओ ।”
“समझ लो हो गया ।”
“मुझे इन्सान के बच्चे के खाने लायक खाना खिलाओ ।”
“अभी । फौरन ।”
“उस इन्स्पेक्टर को मेरे से दूर करो ।”
“वो तो गया । वो अब तुम्हारे करीब नहीं फटकेगा ।”
“और मुझे एक कापी-पेंसिल दो ।”
“क्या ?”
“एक कापी या खुले कागज और एक कोई पेंसिल कलम ।”
“वो किसलिए ?”
“अपुन तुम्हेरे को, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तरतीबवार सब कुछ बताना मांगता है । अपुन तुम्हेरे को सब कुछ लिखकर देंगा कि क्या कुछ हुआ, कैसे हुआ, किसने किया ? अपुन को कल सुबह तक कापी पेंसिल के साथ रहना मांगता है । कल सुबह जब अपुन तुम्हेरे को कापी लौटाएंगा तो कुछ पूछने के वास्ते बाकी नहीं बचा होएंगा ।”
“अजीब बात है !” - देवड़ा उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “तुम अपना बयान लिखकर देना चाहते हो ?”
मुबारक अली खामोश रहा ।
“चलो, मंजूर की तुम्हारी बात लेकिन सोहल का पता तो अभी बोलो ।”
मुबारक अली ने इन्कार में सिर हिलाया ।
“कल तक अगर वो फरार हो गया तो ?”
“नहीं होएंगा ।”
“लेकिन फिर भी...”
“बाप, यह न भूलो कि तुम मेरे दस दिन का रिमांड लिएला है और अभी खुद बोला है कि रिमांड और बढवाने की जरूरत हो सकती है । इतने दिन इन्तजार कर सकते हो, कल तक नहीं ?”
“ठीक है ।” - देवड़ा हथियार डालता हुआ बोला - “मैं तुम्हारी तमाम जरूरतें पूरी करवाता हूं ।”
तब कहीं जाकर मुबारक अली के होंठों पर क्षीण-सी मुस्कराहट आई । तुकाराम के बताए कई निर्देशों में से एक तो पूरा हो गया था ।
***
रास्ते में कई जगह रुककर रास्ते की तसदीक करता सोलंकी नल सरोवर पहुंचा । वहां सड़क पर एक ढाबा था जिसमें कुछ देहाती मौजूद थे । वहां भीतर घुसते ही सोलंकी को महसूस हुआ कि ढाबा तो दिखावे का था, असल में वहां कच्ची शराब की भट्टी चलती थी ।
उसने वहां से चन्दानी के फार्म की बाबत सवाल किया ।
चन्दानी के फार्म को जानने वाला तो वहां कोई न निकला लेकिन उसे बताया गया कि अगर वो बस वाली सड़क पर कोई आधा मील सीधा जाकर दाएं घूमता, फिर बाएं घूमता, फिर दोबारा थोड़ा-सा बाएं घूमकर दाएं घूमता, तो ठण्डी सड़क नाम की एक लम्बी सड़क आ जाती जिसके दोनों तरफ दूर-दूर तक फार्म ही फार्म थे । वहां पहुंचकर वह उस फार्म के बारे में पूछ सकता था जिसकी कि उसे तलाश थी ।
सोलंकी सब का शुक्रगुजार हुआ और स्टेशनवैगन में जा बैठा ।
वह ठण्डी सड़क पर पहुंचा । वहां हर फार्म के बाहर फाटक पर लेटर बक्स टंगा हुआ था जिस पर फार्म के मालिक का नाम लिखा हुआ था ।
वह आगे बढ़ता रहा । सड़क खत्म होने को आ गई लेकिन उसे कहीं चन्दानी का नाम लिखा न दिखाई दिया ।
उसके मन में निराशा घर करने लगी ।
नाम न दिखाई देने पर उसे नए सिरे से यह पूछताछ करनी पड़नी थी कि वहां कोई ऐसा फार्म तो नहीं था जिस पर नाम तो किसी और का चलता हो लेकिन जिसमें रहता चन्दानी हो ।
फिर तभी उसे दाईं ओर के आखिरी फार्म के लैटरबक्स पर हरीश एम. चन्दानी लिखा दिखाई दिया । सोलंकी ने चैन की सांस ली ।
वह स्टेशनवैगन को फार्म से आगे निकालकर ले गया । आगे से वह उसे घुमाकर लाया और फिर फाटक के सामने से गुजरा ।
फाटक पर कोई चौकीदार वगैरह नहीं था ।
उसने कार को आगे ले जाकर रोका और अपनी दाई जेब में पड़ी रिवाल्वर को टटोलता हुआ वापिस लौटा ।
वह कम से कम पचास एकड़ का फार्म था । फाटक से फार्म के भीतर की तरफ जो राहदारी जा रही थी, उसके दोनों तरफ सफेद के दरख्त उगे हुए थे । तब तक सूरज डूबने को था जिसकी वजह से वातावरण में अन्धेरा फैलने लगा था ।
उसने फाटक को ठेला तो उसे भीतर से बन्द पाया । उसने एक बार दाएं-बाएं देखा और फिर फाटक पर चढकर उसकी परली तरफ कूद गया । फिर पेड़ों की बाईं कतार की ओट लेता हुआ वह आगे बढा ।
काफी आगे जाकर जब राहदारी अर्धवृत्ताकार में घूम गई तो आगे उसे एक दोमंजिली इमारत दिखाई दी । इमारत से अलग हटकर एक अपेक्षाकृत आधुनिक इमारत थी जिसके आगे लगे तीन विशाल फाटक उसके गैरेज होने की चुगली कर रहे थे । गैरेज की तरफ एक पथरीली सड़क अलग से जाती थी । गैरेज के ऊपर जो कमरे थे वो शायद नौकरों के क्वार्टर थे लेकिन उस वक्त किसी में भी रोशनी नहीं थी ।
मुख्य इमारत को भारी परदों से ढंकी एक खिड़की के पीछे रोशनी का आभास मिल रहा था । उसके अलावा केवल इमारत की पार्टिकों में एक बत्ती जल रही थी ।
पेड़ों की पीछे से होता हुआ वह उस स्थान पर पहुंचा जो इमारत के सबसे करीब पड़ता था । वहां से वह चुपचाप गैरेज तक पहुंच सकता था और फिर उसके पहलू से होता हुआ इमारत के पिछवाड़े में पहुंच सकता था । उसकी अक्ल उसे यही राय दे रही थी कि उसे इमारत के पिछवाड़े से भीतर दाखिल होने की कोशिश करनी चाहिए थी । वह अभी भूला नहीं था कि बम्बई में किस सहूलियत से सोहल ने उसे काबू में कर लिया था । वह नहीं चाहता था कि इस बार वैसा ही कुछ वहां चन्दानी कर दिखाने में कामयाब हो जाता । अब फिर पकड़े जाने पर जरूरी नहीं था कि इस बार भी वह जिन्दा ही छोड़ दिया जाता । अगर चन्दानी डॉक्टर स्लेटर का कातिल नहीं था तब तो कोई बात नहीं थी, तब तो उसे अपने तीसरे और आखिरी शिकार मिराजकर तक पहुंचने का मौका मिल सकता था लेकिन अगर वही कातिल था तो उसके हाथों में पड़ जाने से सारी कहानी वहीं खत्म हो सकती थी ।
वह कई क्षण आहट लेता रहा और फिर सावधानी की प्रतिमूर्ति बना पेड़ों की ओट से निकलकर गैरेज की तरफ बढा ।
उसने अभी दो ही कदम बढाये थे कि एकाएक पीछे से आवाज आई - “खबरदार ! जहां हो वहीं रुक जाओ ।”
अपने आपको कोसता हुआ वह रुका । कितनी शर्म की बात थी कि इतना सावधान होने के बावजूद उसे अपने पीछे किसी की उपस्थिति का भान नहीं हुआ था ।
“बिना घूमे जेब से रिवाल्वर समेत हाथ निकालो और रिवाल्वर नीचे जमीन पर गिरा दो ।” - दूसरा आदेश मिला ।
“मेरे पास रिवाल्वर नहीं है ।” - सोलंकी दबे स्वर में बोला ।
“है । जैसा कहा गया है, वैसा करो वर्ना अभी शूट कर दिए जाओगे ।”
उसने रिवाल्वर समेत जेब से हाथ निकाला और रिवाल्वर अपनी उंगलियों में से निकल जाने दी ।
“मेरी तरफ घूमो । धीरे से ।”
वह घूमा । उसने सामने चन्दानी को खड़ा पाया ।
पता नहीं कब से वह उसके पीछे था और कैसे चल रहा था जो उसे अपने पीछे पत्ता तक खड़कता नहीं सुनाई दिया था ।
सोलंकी ने देखा कि उसके एक हाथ में रिवाल्वर थी और दूसरे में टार्च थी । वातावरण में अभी रात का अन्धेरा मुकम्मल तौर पर नहीं छाया था लेकिन फिर भी चन्दानी ने एकबारगी टार्च की रोशनी उसके चेहरे पर डाली ।
“ओहो !” - वह बोला - “तुम्हें तो मैं भूल ही गया था ।”
सोलंकी ने अपने एकाएक सूख आए होठों पर जुबान फेरी । डॉक्टर स्लेटर का कातिल होने की बाबत जो सवाल वह चन्दानी से पूछना चाहता था, वह उसके होंठों से नहीं निकल रहा था लेकिन उसका जवाब उसे बिना पूछे ही मिल चुका था ।
यकीनन वही आदमी डॉक्टर स्लेटर का कातिल था ।
“सोलंकी नाम है न तुम्हारा ?”
भय और आतंक से जड़ सोलंकी हामी भी न भर सका ।
“तुम्हें यहां फोन नहीं करना चाहिए था । तुम्हारी फोन काल से मैं सावधान हुआ था और तुम्हारे यहां पहुंचने का इन्तजार करने लगा था ।”
“म-म- मैंने” - सोलंकी बड़ी कठिनाई से जुबान चला पाया - “फ-फ- फोन नहीं- कि- किया-था ।”
“क्या कहने ! तुम समझते हो ऐसा झूठ बोलने से तुम्हारी जान बच जाएगी ।”
“लेकिन - म - मैं - स - सच - ।”
चन्दानी ने उसे शूट कर दिया ।
सोलंकी को यूं लगा कि जैसे किसी ने जोर से उसे धक्का दिया हो । उसके दोनों हाथ अपने आप ही उसकी छाती पर दिल के ऊपर जाकर पड़े । उसके घुटने मुड़ने लगे । फिर उसकी बुझती आंखों ने आखिरी बार चन्दानी का चेहरा देखा । चन्दानी उस घड़ी उसकी पीठ के पीछे कहीं देख रहा था और उसके चेहरे पर हैरानी और आतंक के भाव थे ।
मरते वक्त सोलंकी यही सोच रहा था कि चन्दानी एकाएक हैरान और आतंकित क्यों दिखाई देने लगा था !
***
टूरिस्ट बस द्वारा विमल नल सरोवर पहुंचा । वही बस दो घन्टे बाद वहां से वापिस जानी थी और विमल के ख्याल से उसे वहां दो घन्टे से ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला था ।
वहां वह सड़क पर मौजूद एक इकलौते ढाबे में पहुंचा और चाय की मांग की जोकि बनी बनाई चाय की केतली में से उसे तुरन्त पेश की गई । विमल ने चाय का एक घूंट दवा के तौर पर हलक से उतारा और फिर बिना किसी व्यक्ति विशेष से संबोधित हुए तनिक उच्च स्वर में बोला - “यहां स्प्रिंगडेल फार्म कहां है ?”
किसी ने उत्तर न दिया ।
“यहां स्प्रिंगडेल फार्म कहां है ?”
“सारे फार्म” - इस बार कोई बोला - “ठण्डी सड़क पर ही हैं ।”
“ठण्डी सड़क कहां है ?”
“मुखिया जी, इन्हें भी ठण्डी सड़क पर ही जाना है । इन्हें भी बताओ ठण्डी सड़क का रास्ता ।”
“भी क्या मतलब ?”
“अभी यहां” - इस बार ढाबे का मालिक बोला - “एक और आदमी भी किसी चन्दानी साहब के फार्म का रास्ता पूछता आया था ।”
“यानी कि” - विमल सहज भाव से बोला - “मेरा भाई यहां मेरे से पहले पहुंच गया !”
“तुम्हारा भाई ?”
“हां । उम्र में मेरे से बड़ा । गठीला जिस्म । टूटी हुई नाक । स्टेशनवैगन पर ।”
“यही था ।”
“कितनी देर हुई उसे यहां से गए हुए ?”
“यही कोई दस-पन्द्रह मिनट ।”
“और मेरा ख्याल था मैं पहले पहुंचूंगा । खैर, कहां हुई यह ठन्डी सड़क ?”
पहले कोई भी नहीं बोल रहा था, तब कई लोगों ने एक साथ उसे रास्ता समझाने की कोशिश की ।
पहले दाएं, फिर बाएं, दोबारा बाएं, फिर दाएं - विमल मन ही मन रास्ता याद करने लगा । फिर उसने चाय की कीमत अदा की और वहां से विदा हुआ । वह ठण्डी सड़क पर पहुंचा । उसने पहले फार्म के भीतर टहलते एक आदमी को आवाज लगाकर तसदीक भी कर ली कि वही ठन्डी सड़क थी । वह आगे बढा ।
सड़क के परले सिरे के करीब पहुंचने पर उसे एक और सोलंकी की स्टेशनवैगन खड़ी दिखाई दी । यानी कि वह सही राह पर था ।
फिर एक फार्म की चारदीवारी के करीब उसे एक बड़ा-सा बोर्ड लगा दिखाई दिया जिस पर स्प्रिंगडेल फार्म्स लिखा था ।
वह उस फार्म के फाटक पर पहुंचा तो उसे उसके लैटर बक्स पर हरीश एम. चन्दानी लिखा दिखाई दिया ।
विमल ने फांदकर फाटक पार किया और उससे आगे भीतर जाती राहदारी पर कदम रखने की जगह सफेदे के जंगल में घुस गया । जंगल में बहुत गहरा पैठ कर चलता हुआ वह इमारत के करीब पहुंचा लेकिन वहां से इमारत का रुख करने के स्थान पर वह पहले ही रास्ते पर आगे बढता हुआ इमारत से पार निकल गया । काफी आगे जाकर जब वह वापस घूमा तो उसने स्वयं को तीन फाटकों वाले गैरेज के पहलू में पाया ।
गैरेज की ओर से वह इमारत की तरफ बढने ही वाला था कि उसे गोली चलने की आवाज सुनाई दी ।
पेड़ों की ओट लेता वह गोली की आवाज की दिशा में लपका ।
वह थोड़ा ही आगे बढा था कि थमककर खड़ा हो गया ।
ऐन उसके सामने उसकी तरफ पीठ किए सोलंकी धराशायी हो रहा था और उसके सामने एक स्याह काले बालों वाला और बालों के बीच में मांग निकालने वाला रोबदार आदमी खड़ा था । उसके हाथ में रिवाल्वर थी जिसके नाल में से तब भी धुआं निकल रहा था । उसकी निगाह विमल पर पड़ी तो उसके नेत्र फट पड़े । उसने तुरन्त रिवाल्वर वाला हाथ फिर सीधा किया ।
विमल ने गोली चलाई । गोली चन्दानी की दाईं टांग में लगी ! तत्काल उसके हाथ से रिवाल्वर निकल गई और वह पछाड़ खाकर नीचे गिरा ।
विमल ने उसके हाथ से निकली रिवाल्वर उठाई और उसकी गोलियां निकालकर पहले गोलियां और फिर रिवाल्वर दरख्तों में उछाल दी । फिर उसने झुककर सोलंकी का मुआयना किया ।
सोलंकी मर चुका था ।
वह चन्दानी की तरफ आकर्षित हुआ । गोली चन्दानी की दाईं टांग में घुटने से नीचे लगी थी और जख्म में से भल-भल खून बह रहा था ।
चन्दानी गले में एक रेशमी मफलर बांधे था, विमल ने वह मफलर खींच लिया और उसे कसकर चन्दानी की टांग पर जख्म से थोड़ा ऊपर बांधा । खून बहना फौरन बन्द हुआ । अब वह हौले-हौले रिसने लगा, विमल जानता था कि जख्म के ऊपर खून का थक्का जमते ही वह रिसना भी बन्द हो जाने वाला था ।
रिवाल्वर हाथ में थामे वह इमारत की तरफ बढा । सारी इमारत की बत्तियां जलाता हुआ वह दोनों मंजिलों पर घूम गया । उसने गैरेज के ऊपर बने नौकरों के क्वाटरों में भी झांका । कहीं कोई नहीं था । वह वापस लौटा तब तक बाहर रात पड़ चुकी थी लेकिन अब क्योंकि वह इमारत की सारी बत्तियां जला चुका था, इसलिए बाहर भी रोशनी थी ।
चन्दानी को उसने उस दिशा में सरकता पाया जिधर विमल ने उसकी रिवाल्वर और गोलियां फेंकी थीं ।
विमल ने उसे इतनी जोर से बांहें झटककर उठाया कि उसकी चीख निकल गई । विमल उसे सहारा देकर ग्राउन्ड फ्लोर के उस कमरे में लाया जोकि ड्राइंगरूम की तरह सजा हुआ था । विमल ने उसे एक सोफाचेयर पर धकेल दिया ।
“घर में तुम्हारे सिवाय और कोई क्यों नहीं है ?” - विमल बोला - “नौकर-चाकर नहीं यहां कोई ?”
“मेरी टांग !” - वह कराहकर बोला - “हाय ! मेरी टांग !”
“जवाब दो ।”
“डॉक्टर को बुलाओ ।”
“पहले जवाब ।”
“आज शाम को मैंने नौकरों और मालियों की छुट्टी कर दी थी ।”
“क्यों ? ताकि कत्ल का कोई गवाह न रहे ?”
“कत्ल !”
“जो तुम अभी कर के हटे हो । सोलंकी का । उससे पहले सोनपुर में डॉक्टर स्लेटर का कत्ल भी तुमने ही किया था ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“जवाब दो ।”
“मेरी टांग ! मैं दर्द से मर जाऊंगा । डॉक्टर...”
“पहले जवाब दो ।”
“हां ।”
“क्या हां ?”
“मैंने डॉक्टर स्लेटर का कत्ल किया था । मालूम तो है तुम्हें ।”
“अब तुम्हारी जुबानी सुनकर ज्यादा अच्छी तरह से मालूम है ।”
विमल बाहर को बढा ।
“कहां जा रहे हो ?” - तुरन्त चन्दानी ने आर्तनाद किया - “मेरे लिए डॉक्टर...”
विमल ने उसकी तरफ ध्यान न दिया । बगल में उसने एक बैडरूम देखा था जिसके एक कोने में राइटिंग डैस्क लगा हुआ था । विमल ने वहां से एक बालप्वायन्ट पैन और एक कागज बरामद किया और वापिस लौटा । ड्राइंगरूम की सैन्टर टेबल के नीचे पड़ी एक पत्रिका उठाई, पत्रिका को कागज के नीचे लगाकर कागज और पैन चन्दानी की तरफ बढाया ।
“तुमने डॉक्टर को फोन कर दिया ?” - वह आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“अभी नहीं ।” - विमल बोला ।
“मैं मर जाऊंगा ।”
“नहीं मरोगे । मरोगे तो इतनी आसानी से नहीं मरोगे ।”
“यह क्या है ?”
“कागज है । पैन है ।”
“मैं क्या करूं इसका ?”
“अपनी करतूत अपने हैण्डराइटिंग में इस पर दर्ज करो ।”
“हरगिज नहीं ।”
विमल ने आह भरी । उसने कागज-पैन उसकी गोद में डाल दिए और नीचे झुककर उसकी टांग पर मजबूती से बंधा मफलर खोल दिया ।
“अब देखना ।” - वह भावहीन स्वर में बोला ।
चन्दानी ने दशहतनाक निगाहों से जख्म की तरफ देखा जहां से खून एकाएक फिर बहने लगा था । मफलर बंधा होने की वजह से जख्म पर जो खून का थक्का जमा था वह खून के नए प्रवाह के आगे न टिक सका ।
“अब क्या ख्याल है ?” - विमल बोला ।
“खून बन्द करो ।” - चन्दानी आतंकित भाव से बोला ।
“खुद कर लो ।”
“मैं मफलर नहीं बांध सकता । मैं जोर नहीं लगा सकता ।”
“कोशिश कर देखो ।”
“मैं नहीं कर सकता । प्लीज, खून बन्द करो । भगवान के लिए खून बन्द करो ।”
“तुम लिख रहे हो ?”
“हां । हां । जो तुम कहो, लिखता हूं ।”
“जो मैं कहूं नहीं, जो हकीकत है ।”
“हां । हां ।”
विमल ने मफलर फिर बांध दिया ।
“मैं मर जाऊंगा ।” - वह कराहा ।
“ऐसा हो सकता है लेकिन मफलर बंधा होने की वजह से ऐसा होने में वक्त लगेगा । तुम जितनी जल्दी लिखकर खत्म करोगे, उतनी ही जल्दी मैं डॉक्टर को फोन करूंगा ।”
“लेकिन...”
“मुझे कोई एतराज नहीं तुम जितनी मर्जी लेकिन लगाओ । मुझे कोई जल्दी भी नहीं । लेकिन देखना और थोड़ी देर बाद तुम्हारे में कलम पकड़ने जितनी भी ताकत नहीं रहेगी । और फिर...”
“मैं लिखता हूं ।” - कांपते हाथों से उसने कागज-पैन संभाला और बोला - “क्या लिखूं ?”
“तुम्हें पता है ।”
“मैंने सोनपुर जाकर” - चन्दानी ने बोल-बोलकर लिखना शुरू किया - “डॉक्टर स्लेटर का खून किया ताकि मेरे नये चेहरे का राज न खुलने की मुझे गारन्टी हो जाती । डॉक्टर स्लेटर अपने आफिस में बैठा था जिसकी एक खुली खिड़की में से मैंने उसे शूट कर दिया था । फिर आज आई एक टेलीफोन काल से मुझे लगा कि कोई मेरा राज जानता था । मुझे उसके यहां आने की उम्मीद थी इसलिए मैं नौकरों-चाकरों को छुट्टी देकर उसका यहां आने का इन्तजार करने बैठा गया था । वो.. क्या नाम था उसका ?”
“सोलंकी ।”
“सोलंकी यहां पहुंचा था तो मैंने उसे शूट कर दिया था । और ?”
“काफी है । नीचे साइन करो ।”
उसने इबारत के नीचे एज.जे.एन. चन्दानी लिखा ।
“दूसरा नाम भी लिखो । प्लास्टिक सर्जरी से पहले वाला ।”
उसने हरीश जेठामल मूलचन्दानी लिखा ।
“गुड ।” - विमल बोला और उसके हाथ से कागज ले लिया । उसने कागज को दो बार तह किया और उसे अपनी जैकेट की भीतरी जेब में रख लिया ।
“अब तुम मुझे डॉक्टर बुलाके दोगे ।” - वह आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं ।”
“नहीं !” - वह फिर आतंकित हो उठा - “क्यों ?”
“क्योंकि मैं तुम्हें डॉक्टर के पास भेजने का इंतजाम करने लगा हूं ।”
“मैं इस हालत में कैसे डॉक्टर के पास जा सकूंगा ?”
“जा सकोगे । जो डॉक्टर मेरे जेहन में है, उसके पास जा सकोगे ?”
“किसके पास ?”
“डॉक्टर अर्ल स्लेटर के पास ।”
विमल ने हाथ बढाकर उसकी टांग पर बंधा मफलर खोल दिया ।
***
बुधवार सुबह ग्यारह बजे के करीब मुबारक अली को ए.सी.पी देवड़ा के पुलिस हैडक्वार्टर की पांचवीं मंजिल पर स्थित आफिस में पेश किया गया ।
“तुमने जो लिखना था, लिख लिया ?” - देवड़ा ने पूछा ।
“हां ।” - मुबारक अली कठिन स्वर में बोला । उसने देवड़ा को कापी में तह किए पांच-छ: कागज दिखाए - “अपुन ने अपना मुकम्मल बयान लिखकर ये कागज कापी में से फाड़ लिए हैं ।”
“लाओ ।” - देवड़ा ने हाथ बढाया ।
मुबारक अली ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?”
“अपना यह बयान अपुन कमिश्नर साहब को देना मांगता है ।”
“क्यों ?” - देवड़ा के माथे पर बल पड़ गए ।
“बाप, सोहल की गिरफ्तारी पर दो लाख का इनाम भी तो है ।”
“तो ?”
“मेरे कू जेल करा के इनाम आप लोग खा गए तो ?”
“क्या बकता है ?”
“अपुन ये बयान पुलिस के, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में फुल बड़े साहब के सिवाय किसी को नहीं देने का है ।”
“फाल्के” - देवड़ा गर्जे पड़ा - “इसके हाथ से कागज छीन लो ।”
“किसी ने” - मुबारक अली गला फाड़कर चिल्लाया - “मेरी तरफ एक कदम भी बढाया तो मैं सारे कागज खा जाऊंगा ।”
उसकी तरफ बढने को तत्पर फाल्के और दो हवलदार ठिठके । फाल्के ने प्रश्नसूचक नेत्रों से देवड़ा की तरफ देखा ।
“इस स्टण्टबाजी का कोई फायदा है, मुबारक अली ?”
“वो मेरे कू नहीं मालूम ! लेकिन अपुन जो बोल दिया, बोल दिया । और अपुन कमिश्नर से मुलाकात को बोला, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, प्रधान मन्त्री से नहीं ।”
“कमिश्नर साहब बहुत बिजी हैं, वो...”
“बाप, सारे फैसले खुद ही किए जा रहे हो, जरा कमिश्नर साहब से भी बात करो । क्या पता वो इतने बिजी न हों ।”
“तुम्हारी जिद बेहूदा है...”
“बेहूदा आदमी जो ठहरा मैं ।”
“...और मेरी समझ से बाहर है ।”
मुबारक अली खामोश रहा ।
फिर देवड़ा ने हिचकिचाते हुए फोन की तरफ हाथ बढाया ।
कमिश्नर का आफिस इमारत की पहली मंजिल पर था । देवड़ा, फाल्के और दो सशस्त्र हवलदारों की निगरानी में मुबारक अली को कमिश्नर के आफिस में ले जाया गया ।
“सुना है” - कमिश्नर उसे सिर से पांव तक देखता हुआ बोला - “तुम अपना कोई हल्फिया बयान सिर्फ मुझे सौंपना चाहते हो ?”
“जी हां ।” - मुबारक अली बड़े अदब से बोला ।
“क्या है उस बयान में ?”
“उसमें पूरा बयान है कि कैसे जौहरी बाजार में दो बार डकैती की कोशिश हुई और उसमें कौन-कौन शामिल थे । उसमें सोहल का आज का पता भी है । अपुन सोहल तक पहुंचने को बाकायदा नक्शा बनाएला है ।”
“ऐसा ?” - कमिश्नर के नेत्र चमक उठे ।
“जी हां ।”
“वो बयान कहां है ?”
“मेरे पास है ।”
“मुझे दो ।”
“देता है, बाप । तुम्हेरे ही लिए लाया है लेकिन पहले एक बात पक्की करो ।”
“क्या ?”
“कि अपुन को सजा भी होएंगा तो छूटने के बाद सोहल को पकड़वाने पर लगे इनाम की रकम अपुन को मिलेंगा ।”
“जरूर मिलेगी ।”
“यह बात अपुन तुम्हेरे मुंह से सुनना चाहता था, बाप ।”
“अब सुन लिया ?”
“हां । और यकीन भी आ गया ।”
“तो फिर कागजात लाओ ।”
“फौरन, बाप । अब्बी का अब्बी ।” - मुबारक अली कमिश्नर की विशाल मेज का घेरा काटकर उसके पहलू में पहुंचा । उसने हाथ लम्बा करके कागज कमिश्नर को सौंप दिए ।
कमिश्नर ने कागजों को उलटा-पलटा, मुबारक अली की हिन्दी पढने में उसने दिक्कत महसूस की तो उसने नक्शे वाला पृष्ठ निकाला । नक्शे पर कई जगहों के नाम लिखे थे और कई गलियां और सड़कें दर्शाती आड़ी-तिरछी लकीरें खिचीं हुई थीं ।
“यह क्या है ?” - फिर कमिश्नर उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ रहा । कहां है यह शोलापुर हाल जिसके बाजू के होटल में इस वक्त सोहल मौजूद है ?”
“ऐरियन रोड पर ।”
“वो कहां है ? मैंने तो कभी नाम भी नहीं सुना इस रोड का ।”
“मैं समझाता हूं ।” - मुबारक अली एकाएक आगे बढकर कमिश्नर की कुर्सी के पहलू में पहुंच गया - “बाप, यह वैस्ट्रन एक्सप्रैस हाइवे हुआ ? और ये बाजू में...”
उस घड़ी कमिश्नर की निगाह कागज पर बने नक्शे पर थी और कमरे में मौजूद पुलसियों की निगाह कमिश्नर पर थी ।
एकाएक मुबारक अली ने झपट्टा मारकर कमिश्नर की कुर्सी के पीछे मौजूद बन्द खिड़की के शीशे के पल्ले खोले और बाहर छलांग लगा दी ।
आफिस में हाहाकार मच गया । पहले सबने यही समझा कि मुबारक अली ने आत्महत्या करने की नीयत से बाहर छलांग लगाई थी, लेकिन जब वे एक-दूसरे से उलझते खिड़की के करीब पहुंचे तो उन्होंने पाया कि मुबारक अली खिड़की की चौखट से नीचे प्रोजेक्शन पर, प्रोजेक्शन से नीचे पार्किंग में खड़ी एक मारुति वैन की छत पर - जोकि बुरी तरह से पिचक गई - और वहां से एक पहले से ही स्टार्ट खड़ी उस मोटर साइकिल की पिछली सीट पर कूद चुका था जिसका ड्राइवर एक ऐसी हेल्मेट पहने था जिससे उसका मुकम्मल चेहरा ढंका हुआ था ।
किसी के मुंह से ‘पकड़ो !’ की आवाज भी निकलने से पहले मोटरसाइकिल वहां से दूर भागी जा रही थी ।
जब तक नीचे कम्पाउन्ड में मौजूद पुलसियों को ‘पकड़ो, पकड़ो’ की दुहाई सुनाई दी तब तक वहां पकड़ने को कुछ भी नहीं रखा था ।
फिर कमिश्नर खुद कई टेलीफोन ठकठकाने लगा, देवड़ा कन्ट्रोलरूम की तरफ भागा और फाल्के नीचे को दौड़ा ।
पुलिस की पहली जीप हैडक्वार्टर से निकलने से पहले ही मोटरसाइकिल सड़क पर कहीं दिखाई भी नहीं दे रही थी ।
तब तक वायरलैस पर रोड ब्लाक्स के आदेश दनदनाए जा चुके थे ।
मोटरसाइकल क्राफोर्ड मार्केट की पार्किंग में जाकर रुकी । तत्काल ड्राइवर ने हैल्मेट उतारकर मोटरसाइकल के हैंडल पर टांग दी ।
ड्राइवर वागले था । उसने मुबारक अली की बांह पकड़ी और उसे करीब ही खड़ी एक डिलीवरी वैन तक लाया जिसके पृष्ठभाग का दरवाजा खोले इरफान अली खड़ा था । उनके वैन के भीतर दाखिल होते ही इरफान अली ने दरवाजे के पट बन्द कर दिए और स्वयं वहां से हट गया ।
वैन के भीतर वागले ने मुबारक अली को टैक्सी ड्राइवरों द्वारा पहने जाने वाली खाकी वर्दी, बमय चपरास और टोपी, दी जोकि मुबारक अली ने पहन ली । खुद वागले ने अपनी चमड़े की जैकेट और पैंट उतारकर एक शानदार सूट पहन लिया ।
उसने वैन का पिछला दरवाजा खोला । ऐन उसी घड़ी वहां एक टैक्सी आकर रुकी । इरफान अली टैक्सी की ड्राइविंग सीट से हटा और पीछे बैठ गया । वागले और मुबारक अली वैन से बाहर निकले । मुबारक अली ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और वागले पीछे इरफान अली के साथ बैठ गया । मुबारक अली टैक्सी वहां से निकालकर सड़क पर ले आया ।
मोटरसाइकल और डिलीवरी वैन दोनों चोरी की थीं जोकि पीछे पार्किंग में खड़ी रह गई ।
धारावी तक उन्हें तीन जगह रोड ब्लाक मिला लेकिन वे निर्विघ्न तीनों जगह से पार हो गए । एक तो पुलिसियों का प्रमुख निशाना मोटरसाइकल सवार थे और दूसरे हर पुलिसिये ने तवज्जो टैक्सी की सवारियों की तरफ दी न कि टैक्सी के ड्राइवर की तरफ ।
“अब हमें उतार दो ।” - धारावी पहुंचने पर वागले बोला - “अब आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने ।”
“मंजूर ।” - मुबारक अली बोला - “छुड़वाने का शुक्रिया ।”
“शुक्रिया ऊपर वाले का करो । तुम्हारी कमिश्नर के सामने पेशी की बात कबूल न की जाती तो स्कीम फेल थी ।”
“हां ।” - मुबारक अली के चेहरे पर पहली बार हंसी आई - “पांचवीं मंजिल की खिड़की से कूदने पर तो अपुन का उधर ही काम हो जाता ।”
“ये कुछ रुपए रख लो ।” - वागले ने नोटों की एक मोटी गड्डी उसे दी - “तुकाराम ने भेजे हैं । तुम्हारे काम आएंगे ।”
“तुकाराम को मेरा सलाम बोलना ।” - मुबारक अली कृतज्ञ भाव से बोला - “और बोलना अगर मुबारक अली जिन्दा रहा तो कभी उसके किसी काम आके दिखाएगा ।”
“बोल दूंगा ।” - टैक्सी और मुबारक अली को वहां छोड़कर वागले और इरफान अली वहां से विदा हो गए ।
***
बृहस्पतिवार की दोपहर से पहले विमल फिर सोनपुर में था ।
नल सरोवर से अहमदाबाद तक वह सोलंकी की स्टेशनवैगन में आया था लेकिन फिर भी वह उसी रात को राजनगर की ट्रेन नहीं पकड़ सका था । बुधवार को दोपहरबाद चलने वाली गाड़ी पर वह अहमदाबाद से सवार हुआ था जिसने उसे अगली सुबह राजनगर पहुंचाया था जहां से कि बस द्वारा वह सोनपुर पहुंचा था ।
उसके आगमन की आहट पाकर जैक और रिची इमारत से बाहर निकले । जैक एक बैसाखी का सहारा लिए था और उसका चेहरा बदरंग था । दोनों की सूरतों से साफ जाहिर हो रहा था कि उसे लौटा देखकर वे सख्त हैरान हुए थे ।
“हमें” - रिची बोला - “उमीद नहीं थी कि तुम लौटकर...”
“दिख रहा है मुझे ।” - विमल बेसब्रेपन से बोला - “हेल्गा कहां है ?”
“सोलंकी कहां है ?” - जैक बड़े झगड़ालू स्वर में बोला ।
“लगता है” - विमल का स्वर हिंसक हो उठा - “अभी तेरे दूसरे पांव को भी गोली के सेक की जरूरत है । मैंने पूछा है हेल्गा कहां है ।”
“मैं यहां हूं ।”
विमल को दोनों आदमियों के पीछे दरवाजे से जरा भीतर खड़ी हेल्गा दिखाई दी । वह बड़ी मजबूती से अपने दोनों हाथों में एक रायफल थाने थी जिसकी नाल का रुख विमल की छाती की तरफ था ।
“पहले कभी रायफल थामी है ?” - विमल बोला ।
“खबरदार !”
“जरूरत तुम्हारे खबरदार होने की है । जैसे रायफल थामे हो, वैसे ही घोड़ा खींचोगी तो गोली आसमान की तरफ जाएगी, तुम्हारी कलाई में मोच आ जाएगी - टूट भी जाए तो कोई बड़ी बात नहीं - और तुम ड्रम की तरह, जोकि तुम हो, पीछे फर्श पर लुढकी पड़ी होगी ।”
“मेरी फिक्र मत करो ।” - हेल्गा सख्ती से बोली - “यह बताओ कि वापिस कैसे आ गए ?”
“कैसे आ गए, क्या मतलब ? मैंने कहा था, मैं वापिस लौटूंगा ।”
“सोलंकी कहां है ?”
“मर गया । चन्दानी ने उसका खून कर दिया ।”
“चन्दानी ने या तुमने ?”
“चन्दानी ने ।” - विमल बड़े सब्र से बोला । वह आगे बढा । हेल्गा कुछ क्षण रायफल ताने रही लेकिन फिर विमल को रुकता न पाकर, उसे अपने सिर पर आन खड़ा पाकर, उसने रायफल झुका ली ।
“अन्दर चलो ।” - विमल उनसे पहले भीतर दाखिल होता हुआ बोला - “तुम लोगों को कुछ दिखाना है ।”
विमल उस गलियारे में आगे बढा जिसमें डॉक्टर स्लेटर का आफिस था तो पीछे तीनों सिर जोड़कर आपस में खुसर-पुसर करने लगे । तीनों में से सिर्फ हेल्गा की आवाज रह-रहकर ऊंची हो जाती थी ।
आफिस में पहुंचकर विमल डॉक्टर स्लेटर की विशाल टेबल से पीठ लगाकर खड़ा हो गया । तीनों पिछली बार की ही तरह उसके सामने आन खड़े हुए - हेल्गा आगे और जैक और रिची उसके तनिक पीछे उसके दाएं-बाएं । हेल्गा ने रायफल फिर उसकी तरफ तान दी । विमल हंसा ।
“मैं इसे जरूर चलाऊंगी ।” - हेल्गा दांत पीसती हुई बोली - “बिना इस बात की परवाह किए कि यह मुझे चलानी नहीं आती । बिना इस बात की परवाह किए कि इसमें से निकली गोली किधर जाएगी, उससे तुम मरोगे या कोई और ।”
“तुम चलाना क्यों चाहती हो इसे ?”
“क्योंकि मुझे दाल में काला नजर आ रहा है । क्योंकि तुम्हारा लौटना मुझे हैरान कर रहा है ।”
“मैंने कहा था, मैं लौटूंगा ।”
“हां । कहा था ।”
“यानी कि तुम्हें उम्मीद नहीं थी मेरे लौट के आने की !”
“क्यों लौटे हो ?”
जवाब में विमल ने अपनी जेब की तरफ हाथ बढाया ।
“खबरदार !” - हेल्गा चिल्लाई ।
“मेरी जेब में एक कागज है जिसे निकालकर मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं ।”
“कागज ही निकले ।” - वह चेतावनी भरे स्वर में बोली ।
विमल ने जेब में हाथ डालकर चन्दानी का लिखा कागज निकालकर उसे खोलकर सीधा किया और आगे बढकर हेल्गा की तरफ बढाया ।
हेल्गा हिचकिचाई । कागज थामने के लिए रायफल से एक हाथ हटाना जरूरी था और एक हाथ से रायफल चल नहीं सकती थी । अन्त में उसने रायफल रिची को सौंप दी और बोली - “निगाह रखना इस पर ।”
रिची ने सहमति में सिर हिलाया और रायफल लेकर विमल की तरफ तान दी । हेल्गा ने कागज लेकर उसे अपने सामने यूं करके पढना आरम्भ किया कि जैक और रिची भी पढ सकें ।
विमल मेज के साथ टेक लगाए प्रतीक्षा करता रहा ।
फिर सबसे पहले हेल्गा ने कागज पर से सिर उठाया ।
“यह कागज” - वह बोली - “जाली भी हो सकता है ।”
“कैसे हो सकता है ?” - विमल झुंझलाया - “देख नहीं रही हो कि नीचे चन्दानी का असली नाम भी लिखा है । हरीश जेठामल मूलचन्दानी ।”
“तो क्या हुआ ?”
“तो यह हुआ, मूढ औरत, कि तुमने मुझे सिर्फ चन्दानी नाम बताया था । अगर यह कागज मैंने जाली बनाया है तो मुझे कैसे मालूम हुआ कि चन्दानी का असली और पूरा नाम हरीश जेठामल मूलचन्दानी था ।”
“यह ठीक कह रहा है ।” - रिची बोला ।
“चन्दानी तुम्हें यह लिखकर देने को तैयार कैसे हो गया ?” - हेल्गा पूरी ढिठाई के साथ बोली ।
“वो मेरी गोली से घायल हुआ था और डॉक्टरी इमदाद के लिए पुकार रहा था । ऐसी हालत में वो मेरा कहा मानने से इन्कार नहीं कर सकता था ।”
“फिर तो यह जबरदस्ती हासिल किया हुआ बयान हुआ । ऐसा बयान तो झूठा भी हो सकता है ।”
“ऐसा खुद को फंसाने वाला झूठ बोलने से उसे क्या फायदा ?”
“उसे नहीं, तुम्हें तो फायदा है ऐसे झूठ से ।”
“मुझे क्या फायदा है ?”
“इस तरह तुम हमें यह यकीन दिला सकते हो कि डॉक्टर स्लेटर और सोलंकी को तुमने नहीं मारा ।”
“मुझे क्या जरूरत पड़ी थी डॉक्टर स्लेटर और सोलंकी को मारने की ?”
“ताकि तुम्हारे नए चेहरे का राज न खुले ।”
“तो फिर मैंने पिछली ही बार तुम तीनों को भी क्यों नहीं मार डाला ?”
हेल्गा को जवाब न सूझा ।
“यह ठीक कह रहा है ।” - रिची बोला ।
“यह हमें बातों में उलझा रहा है ।” - हेल्गा भुनभुनाई ।
“हेल्गा, यह ठीक कह रहा है । अगर इसने डॉक्टर का और सोलंकी का कत्ल किया होता तो इसने हमें भी जिन्दा न छोड़ा होता । इसे क्या जरूरत है हमें बातों में उलझाने की ?”
“होगी कोई जरूरत ।” - हेल्गा जिदभरे स्वर में बोली - “मुझे इस आदमी का भरोसा नहीं ।”
“मुझे खुद तुम्हारा भरोसा नहीं ।” - विमल चिढ़कर बोला - “मुझे तो तुम तीनों ही एक नम्बर के अक्ल के अन्धे लग रहे हो और...”
“खबरदार ।” - हेल्गा ने रिची के हाथ से रायफल झपटकर विमल की तरफ तान दी - “खबरदार जो..”
“हेल्गा” - रिची विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “जरा सब्र से काम लो । जब यह आदमी हमारे साथ ठीक पेश आ रहा है तो हमें भी इसके साथ ठीक पेश आना चाहिए । जो यह कह रहा है, ठीक कह रहा है । यह इतनी शिद्दत से यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि इसने डॉक्टर स्लेटर और सोलंकी का कत्ल नहीं किया जब कि आसाम काम इसके लिए यही था कि पिछली बार ही यह हम तीनों को मार डालता । मैं इसकी जगह होता और मैंने डॉक्टर का कत्ल किया होता तो मैं यकीनन यही करता ।”
“लेकिन...”
“और फिर खुद अपना कहा याद करो । इसके यहां से जाने के बाद तुमने कहा था कि यह लौटकर नहीं आएगा और यही इसके कातिल होने का सबूत होगा । लेकिन यह तो लौटकर आ गया है ।”
हेल्गा के चेहरे पर गहन अप्रसन्नता के भाव उभरे । प्रत्यक्षत: उसे यूं जिच हो जाना पसन्द नहीं आ रहा था फिर उसने कन्धे झटकाए और बोली - “ठीक है । ऐसे है तो ऐसे ही सही ।”
“कैसे है ?” - विमल बोला - “कैसे ही सही ? तुम मंजूर करती हो कि चन्दानी ने डॉक्टर स्लेटर का कत्ल किया था ।”
“हां ।” - वह यूं बोली जैसे कबूल करते हुए उसका कलेजा फटा जा रहा हो । फिर उसने यूं रिची की तरफ देखा जैसे उससे किसी मदद की गुहार कर रही हो ।
“हेल्गा” - रिची धीरे से बोला - “इस आदमी ने बहुत जहमत उठाई है अपने आपको बेगुनाह साबित करने के लिए । मेरे ख्याल से अब हमें इससे हकीकत छुपाकर नहीं रखनी चाहिए ।”
हेल्गा ने जोर से थूक निगली । उसकी उंगलियां एकाएक रायफल पर कस गईं ।
“हकीकत !” - विमल तीखे स्वर में बोला - “कैसी हकीकत ?”
हेल्गा ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“कहीं मेरे नए चेहरे का पर्दाफाश तुम लोग कर ही तो नहीं चुके हो ?”
“खबरदार !” - जवाब देने की जगह हेल्गा उसकी ओर रायफल तानती हुई बोली - “वहां से हिलना नहीं ।”
“बेवकूफ औरत !” - विमल असहाय भाव से बोला - “इन्तजार नहीं हुआ तेरे से । इतना भी इन्तजार न हुआ जितने का तेरा वादा था ।”
“वो क्या है कि” - रिची खेदपूर्ण स्वर में बोला - “हममें से किसी को भी यकीन नहीं आया था कि तुम सच ही अपने आपको बेगुनाह साबित करने के ख्वाहिशमन्द थे । हम समझे थे कि अहमदाबाद भी तुम चन्दानी की नहीं, सोलंकी की फिराक में गए थे जोकि एक बार तुम्हारे चंगुल से बच निकला था और तुम उसे दोबारा पकड़कर उसका काम तमाम करना चाहते थे । हेल्गा का तो दावा था कि तुम वापिस नहीं आने वाले थे इसलिए उसे अट्ठाइस तारीख तक इन्तजार करना बेमानी लग रहा था और हेल्गा कहती थी...”
“अरे भाड़ में झोंको इसको और इसके कहने को । मुझे यह बताओ तुमने किया क्या है ?”
“मैंने नहीं, हेल्गा ने...”
“इसी ने सही । किया क्या ? मेरी खबर पुलिस को कर दी ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“इकबालसिंह को ।”
“क्या !”
“तुम्हारी फाइल तो यहां थी ही । सोलंकी ने उसे अपटूडेट भी किया हुआ था । वो फाइल यह बताती थी कि तुम्हारे नए चेहरे की जानकारी पुलिस से ज्यादा कारआमद इकबाल सिंह के लिए हो सकती थी ।”
“तो ?”
“हमने इकबाल सिंह को फोन किया और फिर इकबाल सिंह के निर्देश पर रजिस्टर्ड डाक से फाइल को बम्बई भेज दिया ।”
“शाबाश !”
कोई कुछ न बोला ।
“यह कब की बात है ?”
“सोमवार की ।”
“यानी कि मेरे पीठ फेरते ही तुम लोगों ने मेरा कल्याण कर दिया ।”
तीनों उससे निगाहें चुराने लगे ।
“अपनी इस करतूत के बाद भी तुम लोग यहां क्यों मौजूद हो ?”
“यहां इकबाल सिंह का एक आदमी आने वाला है ।” - इस बार भी रिची ने ही उत्तर दिया ।
“काहे को ?”
“हमें रुपया देने । इकबाल सिंह ने कहा था कि अगर फाइल उसके मतलब की हुई तो वह हमें उसकी करारी कीमत देगा ।”
“कितनी ?”
“दस लाख ।”
“अपनी काली जुबान की कीमत” - विमल ने आग्नेय नेत्रों से अब भी उसकी तरफ रायफल ताने खड़ी हेल्गा की तरफ देखा - “तूने दस लाख रुपए लगाई ।”
“मैंने तो” - रिची बोला - “हेल्गा को कहा था कि...”
“भारी गलती की मैंने तुम लोगों को भरोसे के काबिल लोग समझ कर । कितना अच्छा होता मेरे लिए अगर मैंने पहली बार यहां आते ही तुम तीनों को शूट कर दिया होता ।” - उसने आगे बढ़कर हेल्गा के हाथों से रायफल नोच ली - “अभी भी मैं यही करूं तो क्या हर्ज है ।”
“तुम समर्थ आदमी हो ।” - तब जैक पहली बार बोला, उसके स्वर में आतंक का स्पष्ट पुट था, आखिर विमल की गोली का मजा तो सिर्फ उसी ने चखा था - “तुम फिर नया चेहरा हासिल कर सकते हो ।”
“नहीं कर सकता ।” - विमल बोला - “डॉक्टर स्लेटर ने कहा था कि ऐसा आपरेशन जिन्दगी में एक ही बार मुमकिन था ।”
“ओह !”
“जो हुआ” - रिची बोला - “हमें उसका अफसोस है ।”
“मुझे दिखाई दे रहा है अफसोस ।”
“अब” - जैक गिड़गिड़ाया - “अगर तुम हमारी जानबख्शी करो तो...”
“वो तो मैंने कर दी ।” - विमल गहरी सांस लेकर बोला - “तुम मेरा जितना नुकसान कर सकते थे, कर चुके हो । अब तुम्हारी जान लेने से मुझे क्या फायदा । मूर्ख को मारने की मूर्खता करने से मुझे क्या हासिल ।”
तीनों के सिर झुक गए । विमल ने रायफल एक ओर फेंक दी और भारी कदमों से बाहर की तरफ बढ़ा ।
सिर्फ कुछ दिन पहले अपनी जिन्दगी की अहमतरीन मुराद पूरी करके, जो नया चेहरा हासिल करके, वह वहां से विदा हुआ था, वह आज उससे छिन चुका था । सोलंकी की आखिरी हिदायत जैसे उसके लिए श्राप बन गई थी । उसने ठीक कहा था कि अगर वह जिन्दगी में दोबारा कभी वहां लौटकर आया तो उससे उसका नया चेहरा छिन जाएगा । नया चेहरा चाहे सोलंकी ने खुद नहीं छीना था लेकिन छिन वो उससे चुका था । पता नहीं अभी उसके कितने इम्तहान और बाकी थे । पता नहीं एक आवारागर्द कुत्ते की तरह दुर-दुर करती उसकी जिन्दगी ने अभी कितनी देर और यूं ही आगे घिसटना था ।
दाता ! तू कर्त्ता करण मैं नाहि, जा हऊ करी न होई ।
वह इमारत से बाहर निकला । उसने अपने सामने निगाह दौड़ाई ।
अब -
जाना कहां ।
समाप्त
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