खड्डारा से प्रस्थान

रात भर हमारे दरवाजे पर पहरा देने वाला भोटिया कुत्ता भी पीछे पीछे चल दिया, मैंने अपने साथ कुछ एनर्जी बार रखे हुए थे तो एक उसे दे दी। 

हम कुछ ही दुरी की चढाई चढ़ पाए थे कि कुछ घर और दिखाई दिए, वहां की केयरटेकर कुछ महिलाए थीं उन्होंने खाने के लिए पूछा लेकिन हमने बता दिया कि हमने अभी अभी नाश्ता किया है।
"शायद वो लडकियां इन्ही कमरों में रुकी होंगी।" वसंत ने कहा।
"तुम्हारे दिमाग से अब तक वो निकली नहीं? उनके बारे में क्यों सोच रहे हो? रास्ते पर ध्यान दो और चलते रहो।" मैंने कहा और निकल पड़ा, खड्डारा से वाकई लम्बी लम्बी तीखी चढाईयां शुरू हो गयी थी, अब जंगल खत्म हो चुके थे। सीधे पहाड़ दिखाई दे रहे थे। हमारे एक तरफ खड़ा पहाड़ और दूसरी तरफ खाई के निचे बहती नदी साफ़ दिखाई दे रही थी। यहाँ से ग्लेशियर्स की श्रृंखला दिखाई देना शुरू हो चुकी थी। रास्ते के दाई तरफ वाले घने जंगल वाले पहाड़ों के पार कुछ बर्फीले पर्वत दिखाई दे रहे थे। मै इन पर्वतों में एक पर्वत कुछ जाना पहचाना लग रहा था, मैंने गौर से देखा।
"यह चन्द्रशिला की चोटी है, तुंगनाथ। मै वहां कई बार जा चुका हूँ।" उस पहाड़ को पहचानते ही मैंने मैंने उत्साहित होकर कहा।
चन्द्रशिला की चोटी और वह पर्वत इस तरफ काफी विशालकाय दिखाई दे रहा था, महेश और वसंत को मेरी बातों पर विश्वास ही नही हो रहा था कि मै यहाँ जा चुका हूँ, मुझे विश्वास दिलाना भी नही था। मै प्रकृतिक दृश्यों का आनन्द लेते हुए चला जा रहा था। यहाँ मैंने एक चीज नोटिस की कि यात्रा के आरम्भ में सैकड़ों की संख्या में दौड़ते भागते दिखाई देने वाली छिपकलियाँ अब यहाँ बिल्कुल ही गायव हो चुकी थी। रास्ते में एक भी छिपकली दिखाई नही दी, हमे चलते हुए कुछ ही देर हुयी थी लेकिन अब सांस फूलने लगी थी, जिसका सीधा मतलब था कि उंचाई काफी ज्यादा बढ़ चुकी है। मेरे चलने की गति तेज थी लेकिन वसंत और महेश काफी पीछे रह जा रहे थे। अभी तक सूर्यदेवता के दर्शन नही हुए थे, झाड़ियों में अजीब अजीब से कीड़ों की आवाजें सुनाई दे रही थी।
ठंडी हवाए बदन को सिहरा रही थी। जैकेट की वजह से उन हवाओं से राहत मिल रही थी, अब बस धुप निकलने की आस थी, धीरे धीरे सामने दिखाई देने वाले विशालकाय ग्लेशियर्स पर सूर्य की प्रथम किरने पड़नी शुरू हो गयी।
ग्लेशियर्स की चोटियाँ सुनहरे रंगों से दमकने लगी थी, महेश और वसंत अपनी अपनी तस्वीरें खिंचवाने में व्यस्त हो गए, दो चार तस्वीरें मैंने भी ली और चल पड़ा, मै जानता था कि अभी पूरा रास्ता इन्ही दृश्यों से भरा होगा। जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे तीखे मोड़ और कठिन होते जा रहे थे। रास्ते जिग जैग की तरह हो रहे थे।
मुझे समय नही गंवाना था, लेकिन उनकी गति देखकर मुझे प्रतीत हो रहा था कि ये आज भी पहुँचने में दोपहर कर देंगे जबकि मुझे दोपहर तक निचे आना था। दूर दूर तक रास्ते में कोई दिखाई नही दे रहा था, एकाध महिला जरुर घास का बड़ा सा गट्ठर पीठ पर लादे हुए दिखाई दे जाती थी जो शायद खड्डारा की ही रहने वाली थीं। वसंत और महेश उनके पीठ पर लदे हुए बोझ को देखकर हैरान हो जा रहे थे।
काफी देर से मैं देख रहा था कि एक महिला हंसिया लेकर हमारे पीछे पीछे चल रही थी। वसंत और महेश की घिग्घी बंध गयी थी, लेकिन मुझे पता था वो घास काटने आयी हुई हैं। उस महिला की गति काफी तेज थी, कुछ ही देर में वो हमेस आगे जा चुकी थी, मै वसंत और महेश से फिर भी आधे किलोमीटर की दुरी पर था। दोनों का हांफना फिर शुरू हो गया था। दोनों थोड़ी थोड़ी दुरी पर जाकर हांफने लगते थे, अभी मुश्किल से दो किलोमीटर भी नही हुए थे और उनके यह हाल थे। मेरे पास अब कोई चारा भी नही था तो चुपचाप खड़े रहकर उनका इन्तजार करता रहा।
दोनों रोते कलपते किसी तरह पहुंचे, उनके पहुँचते ही मै फिर निकल गया। उन्हें लगा शायद उन्हें देखकर मै आराम करूंगा, मन मारकर वो भी चल पड़े। अब उनका ध्यान प्राकृतिक दृश्यों के बजाय रास्तों पर था, तस्वीरें खींचना तो वो कबके भूल गए थे।

कुछ ही दुरी पर एक पत्थर पर स्थानों की अनुमानित दुरी लिखी हुयी थी। लेकिन मुझे उन्हें देखने में कोई दिलचस्पी नही थी और मै चाहता था वो दोनों भी ना देखे, क्योकि उनकी चलने की हिम्मत इससे और टूट जाती। अब हमारे सामने तीखे मोड़ पर पहाड़ के किनारे एक होम स्टे दिखाई दे रहा था, यह नानू चट्टी थी। मैंने इस घर को कई सारी तस्वीरों में देखा हुआ था, मुझे इसका स्थान, यहाँ की खूबसूरती और पहाड़ों के बिच स्थित यह एकमात्र घर बहुत समय आकर्षित कर रहा था।

प्राकृतिक वातावरण में हर छोटी सी छोटी चीज भी कितनी सुंदर दिखाई देती थी। वह कोई शानदार होटल नही था, बस चार कमरे बने हुए थे और एक दम्पत्ति उसे सम्भालते थे। इसके अलावा कुछ भी विशेष नही था उसमे। लेकिन विशेषता उस जगह की थी। होटल के सामने बना हुआ चबूतरा खत्म होते ही सीधा निचे खाई की तरफ जाने वाली ढलान शुरू होती थी। यहाँ पानी का बहता हुआ नल देखकर मैंने जी भर कर पानी पीया, अब धुप भी निकल चुकी थी। इस ठंड में धुप के स्पर्श से बेहतर अनुभव शायद ही कोई और होगा।
मै सबसे पहले वहां पहुंचा, लकड़ी को दो बेंच रखी हुयी थी, मै उसी पर बैठ गया और नाश्ते के लिए पूछा। जवाब आया चाय और मैगी मिलेगी, तो मैंने मैगी के लिए कह दिया। वसंत ने मैगी के लिए मना कर दिया। उसका वही बहाना कि उसे सूट नही करेगा, जबकि इन पहाड़ों में अभी खाई हुयी मैगी दस कदम चलते ही पचकर हवा हो जाती है, महसूस भी नही होती, लेकिन ये बात उस समझाना मतलब भैंस के आगे बीन बजाने जैसा था।
मुझे उस समय गर्माहट चाहिए थी तो मैंने नखरे नही दिखाए और मैगी मंगवा ली, साथ में बिस्किट भी। उसी समय भोटीया कुत्ता भी पहुँच गया तो वह बिस्किट मैंने उसे खिला दिए।  होटल वाले दम्पति का लड़का नंगे पाँव चबूतरे पर घूम रहा था।
"इतना छोटा बच्चा, इस ठंड में ऐसे घूम रहा है। हमारी तो हालत खराब हो गयी है कल से ठंड बर्दाश्त करते करते, अब गर्मी के लिए तरसने लगे हैं।" महेश ने कहा।
"ये पहाड़ी बच्चे है, जिस ठंड में तुम हम कांप रहे हैं वह तो अभी कायदे से शुरू भी नही हुयी है। असली ठंड से तुम्हारा पाला पड़ा कहां है, अभी भी एक डिग्री तापमान है।" मैंने कहा।
"अरे तो और कितनी ठंड पड़ेगी भाई।" वसंत ने कहा।
"अभी चोटी पर पहुँचने तो दो, फिर देखना।" मैंने कहा तब तक एक कमरे में से एक युवक बाहर आकर धुप सेंकने लगा। मैंने उसे पहचान लिया था।
"आप वही हैं ना जो कल उन लडकियों के ग्रुप के साथ चल रहे थे?" मैंने पूछा।
"नही मै उनके ग्रुप के साथ नही था। मै तो अकेला ही चला था, वो रास्ते में मिल गए थे। यही दुसरे कमरे में रुके थे वो सब, सुबह सुबह चले गए। मुझे कोई जल्दबाजी नहीं थी तो मै यही रह गया, आराम से उठकर अभी एकाध घंटे बाद जाउंगा धुप सेंकते हुए।" उस युवक ने बताया।
"सोलो ट्रेवलिंग करते हो?" मैंने पूछा।
"हां, लगता है आप भी सोलो ट्रेवलर हैं।" उसने कहा।
"हां वैसे तो अकेले ही जाना पसंद करता हूँ, यह दोनों मेरे ऑफिस के कलीग्स हैं। इस बार पीछे पीछे आ गए तो लाना पड़ा, वरना मै भी अकेले ही सफर करना पसंद करता हूँ। जैसे आप करते हैं, अपनी मर्जी के मालिक, जहाँ मन हुआ रुक गए, जहाँ मन किया चल दिए, किसी पर निर्भर नहीं और ना ही किसी की वजह से आपकी योजना बिगड़ने का डर रहेगा।" कहते हुए मैंने अपना परिचय दिया।
उन्होंने भी अपना परिचय दिया, उनका नाम प्रताप था वह बिहार से थे। मर्चेंट नेवी से थे, बताया कि साल में कुछ छुट्टियाँ मिलती है तो निकल जाता हूँ, इस बार केदारनाथ जाकर आया फिर यहाँ आ रहा हूँ, इसके बाद जाऊँगा बद्रीनाथ, फिर तुंगनाथ।" प्रताप ने अपनी लम्बी चौड़ी योजना बता दी।
“लेकिन इस समय तो तुंगनाथ के कपाट बंद हो चुके हैं।“ मैंने बताया।
“कोई बात नहीं आगे चला जाउंगा।“ प्रताप ने कहा।
“नहीं, कपाट भले बंद हो गए हैं लेकिन अब आ ही गए हो तो देखते हुए जा सकते हो, काफी खुबसुरत जगह है वह भी। कल उसकी चोटियों पर बर्फ भी गिरी है अब तो और सुन्दरता बढ़ गयी होगी।“ मैंने कहा।
“देखता हूँ, फिलहाल मदमहेश्वर पहुँच जाऊं वही बहुत है।“ प्रताप ने कहा, हमने मैगी चाय वगैरह निपटाई और आगे मिलने का वादा करके वापस चल पड़े। अब गुनगुनी धुप धीरे धीरे तेज धुप में बदलने लगी थी। कई बार तीखी चढ़ाइयों पर मुझे जैकेट में गर्मी लगने लगी थी। मैंने अपना कनटोप और ग्लव्स निकाल कर अपनी जैकेट की जेब में रख लिए। अब हालत यह थी कि सबकुछ हटाने के बाद जब तक हम धुप में चलते तब तक सब कुछ सही रहता और जैसे ही छाँव वाले हिस्से में पहुँचते वैसे कान सुन्न होने लगते थे। थोड़ी देर बाद जैकेट में भी गर्मी महसूस होने लगी तो मैंने आख़िरकार जैकेट उतार कर अपनी कमर पर बाँध ली। यहाँ से दूर दूर तक कोई छाँव नहीं दिखाई दे रही थी, बस सांप की तरह बलखाते हुए आड़े टेढ़े लम्बे रास्ते ही दिखाई दे रहे थे। ऐसे ही रास्ता एकदम सीधा पड़ गया, सीधा रास्ता मिलते ही सबने राहत की सांस ली, हमने तेजी से वह रास्ता पार किया लेकिन उसके अंत में सीधी खड़ी चढाई थी, रास्ते के किनारे की रेलिंग कई जगहों से टूटी हुयी थी, अगर जरा भी पैर फिसला तो निचे खाई में गिरना निश्चित था। हम पगडण्डी के बीचो बिच चल रहे थे, अचानक रास्ते के किनारे मैंने एक भूरे रंग का सांप देखा, जो घास में कुंडली मार कर बैठा था।  सांप देखते ही मैं सावधान हो गया, वह भी शायद धुप सेंक रहा था, मैंने वसंत और महेश को सावधान किया, वसंत को सांप दिखाई ही नहीं दे रहा था। अचानक वह हमारी आहट पाकर अपने स्थान से दौड़ पड़ा। तब जाकर वसंत की नजर उस पर पड़ी।
“यहाँ तो सांप भी है, छिपकलियाँ मकड़ियां और अब सांप?” वसंत ने कहा।
“शुक्र मनाओ भालू और तेंदुए नहीं दिख रहे हैं और इसी से काम चला रहे हो।“ मैंने कहा और फिर चलने लगा, लेकिन इस बार मैं रास्ते के किनारों पर सावधानी से नजर बनाये हुए था। मैंने उस उंचाई से पीछे मुड कर देखा, निचे वह खुबसुरत सा घर था जिसे हम कुछ देर पहले पीछे छोड़ आये थे। पहाड़ के उपरी हिस्से से उसका दृश्य अद्भुत दिखाई दे रहा था।, उसपर से नजरें हट ही नहीं रही। लग रहा था जैसे पहाड़ के कोने पर टिका हुआ कोई स्वप्नलोक धरातल पर उतर आया हो। वही दूर तक दिखाई देती पहाड़ियों का जाल दिखाई दे रहा था, उन्ही पहाड़ियों में से कोई एक पहाड़ी थी जहां से हमने यात्रा शुरू की थी, लेकिन अब उन्हें पहचाना नहीं जा सकता था। अभी सीधी चढाई बाकी थी, इस सीधी चढाई पर मुझे भी काफी थकान हो चुकी थी, दोनों मुझसे फिर आधा किलोमीटर दूर रह गए, जैसे ही चढाई खत्म की मेरे सामने एक अप्रतिम दृश्य था। पहाड़ की ढलान पर दूर तक फैले हुए बुग्याल ( घास के मैदान) दूर कहीं बहती नदी, ग्लेशियर्स अपने विशालकाय स्वरूप में, चौखम्बा का एक कोना दिखाई दे रहा था, और ग्लेशियर्स के बिच से निकलता नदी का उद्गम स्पष्ट देखा जा सकता था। यह दृश्य देखकर मै जैसे स्तब्ध रह गया था, सूर्य की किरणों से लहलहाती घास और ग्लेशियर्स के माथे पर चढ़ता सूर्य, बहती ठंडी हवा, नदी का शोर, बहती हवा का संगीत, वातावरण में फैली हुयी विभिन्न वनस्पतियों की सुगंध। बर्फ से ढंकी हुयी अनगिनत और विशालकाय पर्वत राशियाँ, लग रहा था मानों पर्वत के उस पार दुनिया है ही नही, यह पर्वत की दीवार ही इस पृथ्वी का अंत प्रतीत हो रही थी। जब तक वसंत और महेश नही आये थे तब तक मैंने इस दृश्य का भरपूर आनन्द उठाया। मेरी आँखे अपने आप भीगी चली जा रही थी, पहाड़ों के पीछे छिपा चौखम्बा का एक कोना अब भी ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह झाँक कर चुपके से मेरे मनोभावों का आनन्द ले रहा है। मै पूरी तल्लीनता से उस दृश्य को आत्मसात कर रहा था, लग रहा था मानों मै किसी सपनीली दुनिया में विचर रहा हूँ। कुछ देर बाद जब भावनाओं का आवेग थमा तब तक महेश और वसंत पहुँच चुके थे उनका भी वही हाल हुआ जो मेरा था, उस दृश्य को देखकर उनकी भी आँखे फटी की फटी रह गयी।
मैंने अपनी जैकेट में अपनी पुस्तक 'कण कण केदार' की एक प्रति रखी हुयी थी, मैंने उस किताब के साथ उस दृश्य की कुछ तस्वीरें खिंच ली, और फिर आगे बढ़ चला। मै जानता था प्रकृति ने हर पग पर कुछ और आश्चर्य हमारे लिए सजा रखे हैं। वसंत और महेश साँसों को स्थिर करने लगे और मै चल पड़ा, अबकी सीधी चढाई काफी लम्बी थी, आगे एक कोने में अकेला पेड़ खड़ा था। मै उसे पार करते हुए दो तीन बलखाते मोड़ो पर चढ़ते हुए उपर पहुँच गया और पलट कर अपने साथियों की तरफ देखा। वो उस पेड़ के पास पहुंचे थे, और वह पेड़ इतनी उंचाई से एकदम अलौकिक प्रतीत हो रहा था। पहाड़ के किनारे पर विशालकाय पर्वतों की चारदीवारी में सूर्य की सीधी किरणों में नहाया हुआ वह पेड़ देवलोक के पारिजात की भाँती प्रतीत हो रहा था। 
यहाँ का हर दृश्य थोड़े थोड़े अंतराल के पश्चात अलग रंग रूप में दिखाई देता था। आरम्भ में आप किसी दृश्य को देखकर सोचते हैं कि इससे अच्छा अब कुछ और नही हो सकता तो थोड़ी दूर जाने के बाद ही आप फिर उसी दृश्य को अलग नजरिये से देखते है तब आपको प्रतीत होता है कि उसकी सुन्दरता अब कई गुणा बढ़ चुकी है। आगे बढ़ते हुए मैंने देखा वसंत रास्ते में अजीबों गरीब तरीके से चलते हुए आगे बढ़ रहा था, वह कभी पगडंडी के इस कोने पर जाता तो कभी दुसरे कोने पर। जैसे वह क्रॉस मार्क करते हुए चल रहा था, मै उसकी यह अजीब सी हरकत देख रहा था, वह लगभग बीस पच्चीस मिनट बाद वह पहुंचा।
(प्रकृति कदम कदम पर इअसे दृश्यों से हमे चकित कर रही थी)
"भाई इस तरह क्रॉस बनाते हुए क्यों चल रहा हैं सीधे चल ना।" मैंने कहा।
"वो हमारे पीछे जो हंसिया लिए हुए लेडी थी वह ऐसे ही चल रही थी। मुझे पहाड़ पर चलने का फार्मूला समझ में आ गया, सीधी चढाई में तकलीफ हो रही है तो क्रिस क्रॉस करते हुए चलो, वह ऐसे ही चल रही थी।" वसंत ने कहा, अब मुझे समझ में नही आ रहा था कि मै उसकी बात पर हंसू या रोऊँ, मैंने फिलहाल उससे कुछ भी कहना सही नहीं समझा और आगे चला गया।
कुछ दुरी पर जाकर मै फिर उसे यह तमाशा करते हुए देखने लगा, वह दस मिनट के रास्ते को इस तरह से लगभग बीस मिनट में पार कर रहा था। थोड़ी ही देर में उसका दम निकलने लगा वह बुरी तरह पसीना पसीना होकर हांफने लगा तो फिर सीधे चलने लगा।
"अरे यार ऐसे तो बड़ा दम लग रहा है।" वसंत ने हांफते हुए कहा।
"भाई पहाड़ पर चलने का एक ही फार्मूला है, वह बस चलते रहो, छोटे छोटे कदम रखते हुए चलते रहो बस। वह महिला इस तरह चल रही थी उसके पीछे उसका कोई फार्मूला नही था, वह दरअसल पगडण्डी के दोनों तरफ घास देखते हुए चल रही थी जिसे वह वापसी में काटते हुए जायेगी।" मैंने हंसते हुए कहा तो वसंत की झेंप देखने लायक थी।
"अरे तो पहले बताना चाहिए था ना, बेवजह एक किलोमीटर इसी तरह चलता रहा।" वसंत खिसियानी हंसी हँसते हुए बोला।
"आदमी अनुभव से सीखता है। चलो अब आगे बोर्ड लगा हुआ है, हम मैखम्बा पहुँचने वाले हैं यानी हमने साढ़े चार किलोमीटर पार कर लिया है सुबह से, मैखम्बा से शायद तीन चार किलोमीटर और है मंदिर। और अभी बज रहे साढ़े नौ। बारह बजे तक तो हर हाल में पहुँच जायेंगे।" मैंने कहा। हम फिर थोड़ी सी गति बढाते हुए चलते रहे, बिच बिच में प्यास लग रही थी। रास्तों में नलों की कोई कमी नही थी, हर एकाध डेढ़ किलोमीटर पर बहता नल या झरना मिल जाता था, मैखम्बा में भी एक बहता नल मिला तो मैंने खून पानी पिया। वसंत ने थोडा सा ही पिया, अब धुप कड़ी होती जा रही थी, ठंड थी लेकिन हमारी त्वचा बुरी तरह सूखते जा रही थी, माथे की चमड़ी तो जैसे अपनी पूरी नमी खो चुकी थी, सबके होंठों पर पपड़ियाँ पड़ी हुयी थी, आँख के आसपास की त्वचा सिकुड़ने सी लगी थी। धुप की तीव्रता बढ़ रही थी लेकिन ठंड में कोई कमी नही आ रही थी। 
"हम मैखम्बा पहुँच चुके है, यहाँ कुछ दो चार घर दिखाई दे रहें है, मेरे खयाल से यहाँ होटल होंगे। किसी को खाना वगैरह खाना हो तो बोल दो, आगे का मुझे नही पता कुछ मिलेगा भी या नही।" मैंने कहा। वसंत और महेश ने फिलहाल कुछ भी खाने पिने के लिए मना कर दिया। वहां कुछ गाय भैंसे भी चर रही थी, उनके सींगो से बचकर निकलना पड़ रहा था, एक तो पतली पगडण्डी दुसरे तेज ढलान और सीधी खाई। अगर यहाँ किसी भैंसे ने दौड़ा लिया तो भाग भी नही पायेंगे, यही सोचकर मै बिना किसी विशेष हरकतों के चुपचाप आगे बढ़ता रहा, भैंसे हमारे एकदम करीब खड़ी जुगाली कर रही थी। हमारे आगे भोटिया कुत्ता चल रहा था,
उसे देखकर मुझे डर लगने लगा कि यही भौंक भाक कर कोई गडबड ना खड़ी कर दें, लेकिन वह पहाड़ी कुत्ता था। खतरे को देखकर ही भौंकता था, बिना वजह अपनी उर्जा व्यर्थ करना उसके लिए जैसे हराम था। मै तो आगे बढ़ गया लेकिन वसंत सबसे पीछे रह गया, दो भैंसे वसंत को ही घूर रही थीं। वसंत घबरा गया और उसने पगडंडी छोड़ कर सीधी चढाई चढनी शुरू कर दी।
"अरे ऐसा मत कर, तेरी हालत खराब है ऐसे में ये सीधी चढाई वाली हरकत मत कर। वो भैंसे कुछ नही करेंगी बस शान्ति से चला आ।" मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो वह वहीं खड़ा होकर सोचते रह गया। मैंने उसका हौंसला बढाया तो वह घबराते हुए भैंसों के पास से डरते कांपते किसी तरह निकलने में कामयाब हुआ।
"भैंसों को अगर किसी को मारने की इच्छा ना भी हो ना तो तुझे देखकर उन्हें मारने का मन जरुर हो जायेगा। अपने आप को गाँव वाला आदमी कहता है और गाय भैंसों से डरता है।" मैंने उसकी खिल्ली उड़ाई तो वह हंसते हुए चल पड़ा। अब हमारे बाई तरफ एक सीधी दीवार जैसा पहाड़ था और हमारी पगडंडी आगे बढ़ रही थी, मैंने एक नजर पहाड़ को देखा, उसकी उंचाई पर मुझे एक रेलिंग नजर आई।

"अब यह आगे वाला रास्ता मुड कर इस पहाड पर ना जाता हो बस।" वसंत बडबडा रहा था, लेकिन उसके जुबान पर उस समय सरस्वती विराज रहीं थी। उसका डर सही निकला और रेलिंग्स को देखकर मेरा लगाया हुआ अंदाजा भी। पगडण्डी आगे जाकर एक तीखी चढाई में बदल कर मुड कर पहाड़ी पर जाती थी, और उस मोड़ पर पहुँचने के बाद हमने देखा उस पहाड़ी पर वह रास्ता सीधी चढाई में लगभग पांच छह बार पुरे पहाड़ के राउंड लगा कर घूम रहा था। यह दृश्य उन दोनों की हिम्मत को तोड़ने के लिए काफी था। दोनों थक कर बैठ गए।
"अरे कुछ नही,बस देखने में मुश्किल लग रहा है। चलना शुरू करोगे तो कुछ नही है, देखो आगे बोर्ड लगा हुआ है, मंदिर तीन किलोमीटर है। जिसमे से लास्ट के डेढ़ दो किलोमीटर तो घना जंगल है। मेरे खयाल से यही पहाड़ हमारी आखिरी कठिन चढाई है।" मैंने उन्हें उम्मीद दिलाते हुए कहा, लेकिन सीधी खड़ी चढाई मेरे कहे शब्दों पर भारी पड़ रही थी। खैर रुकने से काम होने वाला नहीं था और ना ही रास्ता कटने वाला था, मुझे लगा मुझे आराम करता देखकर यह लोग भी रुके रहेंगे इसलिए मुझे आगे बढना चाहिए यह सोचकर मै आगे बढ़ गया।
"आपको थकान नही होती क्या?" महेश ने फिर वही सवाल किया।
"मेरे थकान होने या ना होने से रास्ते छोटे नही हो जाते। रास्ते लम्बे ही रहेंगे, इसलिए इन्हें अगर पार करना है तो थकान को दूर धकेलना होगा, थोड़ी हिम्मत बढाओ और रुकने के बजाय धीमे धीमे चलते रहो। बस पहुँच ही गए हैं।" मैंने कहा और चल पड़ा, अब मेरे दाहिनी तरफ सीधी ढलान और सूखी हुयी घास दिखाई दे रही थी जो हवा के झोंको से लहरा रही थी। थोड़ी दुरी पर कुछ घोड़े खड़े दिखाई दिए, वे खुले हुए थे, वहां पानी का एक हौद बना हुआ था, घोड़े वहीं घास चर रहे थे। मैंने दूर दूर तक देखा लेकिन घोड़ो के मालिक कहीं नजर नहीं आ रहे थे। आगे ही एक और बहता नल दिखा तो मैंने अपने चेहरे को जी भर के धोया और उसके बाद खूब पानी पिया और उन दोनों का इंतजार करने लगा। दोनों मुझे आगे बढ़ता देखकर चलने लगे।
"पानी पिते रहो, वरना डीहाईड्रेशन हो जाएगा। तुम दोनों बहुत कम पानी पि रहे हो, शायद इसी वजह से पसीना आने की वजह से कमजोरी आ रही है दोनों पर।" मैंने कहा।
"ज्यादा पानी पियूंगा तो तकलीफ हो जायेगा।" वसंत ने कहा, अब उसकी यह बात मेरा पारा गरम कर रही थी, मैंने जिन्दगी में पहला आदमी देखा था जिसे हर चीज से तकलीफ थी, उसे कोई चीज सूट नहीं करती थी यहाँ तक कि पानी भी नहीं। भगवान जाने वह ऑक्सीजन कैसे ले रहा है।
"भाई मेरी बात सुन, तू कितना भी पानी पि ले लेकिन दो सौ मीटर की चढाई चढ़ते ही सब पानी भांप बन कर उड़ जायेगा, तो इसकी फ़िक्र मत कर कि ज्यादा पानी पिने से पेट फूल जायेगा।" मैंने कहा और आगे बढ़ गया। संयोग से मुझे याद आया कि मेरी जेब में हरड का एक पैकेट पड़ा था। मै जानता था कि सीधी खड़ी चढ़ाइयों और अधिक ऊँचाइयों पर कुछ ना कुछ चूसते चबाते रहने से सांस फूलना, चक्कर आना, जी मिचलाना गला सूखने से थोड़ी राहत मिलती है। तो मैंने हरड चुसनी शूरु कर दी, मैंने वसंत की तरफ बढाई।
"नही मुझे हरड नुकसान करेगा।" उसने जवाब दिया, मुझे मन तो किया कि उसे इन्ही घोड़ो के पास फेंक दू लेकिन फिर खुद को नियंत्रित करते हुए मै आगे बढ़ गया। और कोई रास्ता भी तो नही था, अब यहाँ से छाँव शुरू हो गयी थी, पेड़ घने हो रहे थे। जैसे ही हम छाया में पहुंचे ठंडक फिर अकस्मात रूप से बढ़ गयी, अब जैकेट वापस पहननी पड़ी। जंगल इतना घना हो गया कि सूरज की किरणें तक निचे नहीं पहुँच रही थी। लग रहा था जैसे हम पेड़ों से बनी किसी कभी ना खत्म होने वाली गुफा में चल रहे हैं। उसमे भी मोड़ खत्म होने का नही ले रहे थे और न चढ़ाई कम हो रही थी।
अब यहाँ से कुछ लोग वापस आते हुए दिखाई दे रहे थे, एक्का दुक्का लोग दिखने लगे तो थोडा सुकून सा मिला। वरना इतने समय से हम तीनों एकदुसरे की शक्ल देखकर ही उब चुके थे। मैंने आते जाते लोगो से दुरी के बारे में पूछा, एक ने बता दिया कि अभी बहुत चढाई है। मैंने उसकी बात पर ध्यान नही दिया, बस मुझे डर था कि पीछे वसंत और महेश को भी वह यही बात ना बता दे। एक तो पहले ही उनकी हिम्मत टूटी हुई थी और वही हुआ जिसका डर था, उन्होंने उससे पूछा और उसने वही बात दोहराई, उनके चेहरे उतर चुके थे। उन्होंने जैसे अब हथियार डाल दिए थे।
"भाई वह बोल रहा है अभी और चढाई है। बहुत मुश्किल होती जा रही है अब तो।" वसंत ने कहा, हालांकि महेश ने कुछ नही कहा लेकिन वह अपनी कमर पकड कर हांफ रहा था, उसके चेहरे से लग रहा था कि वह भी त्रस्त हो चुका है इन कभी ना खत्म होने वाले रास्तों से।
ऐसे में एक बूढ़े अंकल जी आते दिखाई दिए, उनके साथ उनके नौजवान रिश्तेदार वगैरह भी थे। रास्ते में एकदुसरे को देखते ही जय भोले बम भोले के जयघोष अलिखित कानून जैसा था, सभी यात्री एकदूसरे का अभिवादन इन्ही शब्दों से करते हैं। बस यही दो शब्द दो अनजानों को जोड़ देते हैं, ना किसी का नाम पता ना किसी का स्वभाव, बस बम भोले, जय भोले, हर हर महादेव।
हो गया परिचय, ना लोभ, मोह, इर्ष्या ना अहंकार सब फिर अपने अपने रास्तों पर चल देते हैं। अंकल जी ने मुझे देखा और मुस्कुराए, मैंने भी अभिवादन में हर हर महादेव कहा।
"टॉफी लोगे बेटा? आगे काम आयेगी चढाई में।" अंकल जी ने पूछा, मुझे कोई हैरत नही हुयी, यात्राओं में अक्सर ऐसे लोग मिलते हैं जो बिना बात के एकदुसरे का हौसला बढाते हैं और साथ ही साथ कोई छोटी सी छोटी मदद भी कर देते हैं, आम तौर पर टॉफी कोई बहुत बड़ी मदद या कीमती चीज नही है लेकिन ऐसी ऊंचाई वाली कठिन चढाई वाली यात्राओं में साधारण सी टॉफी भी काफी सहायक होती है, जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि टॉफी या कैंडी चूसते हुए चलते रहने बेचैनी, जी मिचलाना, गला सुखना, हांफना वगैरह में काफी मदद मिलती है, और काफी हद तक थकान से भी आपका ध्यान थोडा विमुख हो जाता है।
"आप लोगों को जरूरत होगी, हम तो लगता है पहुँचने वाले हैं। आपके पास तो पूरा सफर है वापसी का।" मैंने कहा तो अंकल जी ने मुट्ठी भर टॉफी मेरे हाथों में थमा दी।
"रख लो, हमारी यात्रा हो गयी। अब आप लोग करो, जय भोले, हर हर महादेव।" कहते हुए अंकल जी अपने लाव लश्कर के साथ आगे बढ़ गए। मैंने टॉफीयों को देखा, मैंगो कैंडीज थी, यह वाकई मेरे लिए काम की चीज थी। मैंने एक फौरन मुंह में डाल ली, फिर दूर से दिखाई देते वसंत और महेश की तरफ देखा। वो उस भोटिया कुत्ते के साथ चले आ रहे थे, उनके चेहरे बुरी तरह पस्त नजर आ रहे थे। यहाँ जंगल इतना घना था कि पेड़ की छाल पर भी काई जमी हुयी थी। मैंने उन्हें आवाज दी, वो लगभग हर आते जाते दिखाई देते व्यक्ति से दुरी के बारे में पूछ रहे थे।
"अरे सबसे मत पूछते रहो, बस ढाई किलोमीटर रह गया है। वह सामने देखो एक छोटा सा होटल दिख रहा है। चलो वहां चलकर रुक जाओ और कुछ खा पि लो, एनर्जी बन जायेगी। और टॉफी ले लो चूसते रहो और खबरदार जो वसंत अब तूने कहा कि तुझे यह सूट नही करती, अपच होगी या एसिडिटी होगी।" मैंने वसंत को पहले ही डपट दिया, उसने बिन कुछ कहे कुछ कैंडीज ले ली।
अब इस जगह का नाम था शायद कून चट्टी। यहाँ एक कच्चा पक्का होटल जैसा कमरा बना हुआ था। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति उस होटल का संचालन कर रहे थे, उनके सामने ही लोहे की एक बेंच बनी हुयी थी जो शायद यात्रियों के लिए ही बनाई हुयी थी।
"हर हर महादेव भाई साहब। कुछ खाने की व्यवस्था हो जाएगी?" मैंने उनसे पूछा। वे बेंच पर बैठ कर किसी तरह की कोई सब्जी काट रहे थे।
"चाय, मैगी, बिस्किट वगैरह मिल जायेगी।" उन्होंने कहा, अब आम तौर पर हम मैगी नही पसंद करते लेकिन यहाँ पहाडो में जो मिल जाए चलाना पड़ता है, अभी हमारे शरीरों को एनर्जी की जरूरत थी। मैंने वसंत की तरफ देखा, उसने मैगी के लिए मना कर दिया। वह चाय भी नही पीना चाहता था, एसिडिटी की समस्या बता दी। महेश को कोई दिक्कत नही थी, वह मैगी के लिए तैयार था। मैंने सबसे पहले दो चाय मंगवा ली और बिस्किट लेकर भोटिया कुत्ते के पास बैठ कर उसे खिलाने लगा। वहां एक और सफ़ेद कुत्ता बैठा हुआ था, उस रास्ते के बाद काला भोटिया कहाँ रह गया हमे पता ही नही चला। लेकिन सफ़ेद कुत्ते के रूप में नया साथी जुड़ गया।
रास्ते भर में यह तीसरा कुत्ता था जो हमारे साथ चल रहा था, हर किसी ने जैसे निर्धारित पडाव तक साथ देने की ठान रखी थी और जिस पडाव से वो गायब हो जाते थे उस पडाव के बाद कोई और साथ जुड़ जाता था।
मैंने खुले नल से पानी पिया, चेहरा धोया और बेंच पर बैठ गया।
"ये किस चीज की सब्जी है भाई साहब?" मैंने पूछा।
"यह तो मूली की है, बड़ी स्वादिष्ट होती है, पहाड़ों में बनती है। यह देखो सामने ही क्यारियों में लगा रखी है।" उन्होंने दिखाया, बेंच के पिछले हिस्से वाली जमीन के छोटे से हिस्से में सब्जियां बोई हुयी थी। एकदम शुद्ध सब्जियां, खाने का बड़ा मन था, लेकिन फिर यह हुआ कि बनने में समय लग जायेगा और उतना समय हमारे पास नही था, पौने ग्यारह बजने को थे।
"लेकिन यह मूली तो कहीं से भी नही लग रही।" मैंने सब्जी को देखकर शंका व्यक्त की।
"ये वो लम्बी वाली मूली नही है, यह अलग सब्जी है, लेकिन इसे भी वही कहते हैं।" उन्होंने समझाया। उसी समय वसंत यहाँ वहां बेचैनी से देखने लगा।
"अंकल यहाँ टॉयलेट वगैरह कहाँ जाते हैं?" वसंत ने पूछा, अब जाकर उसकी बेचैनी का राज मुझे समझ में आया।
"अरे यार इस आदमी को हमेशा गलत टाइम पर ही लगती है।" महेश ने मुंह बनाते हुए कहा और अपने फटे होंठो पर वैसलीन चुपड़ने लगा।
"यहाँ टॉयलेट नही है, खुला जंगल है। चले जाओ कहीं भी।" उन्होंने कहा, तो वसंत ने एक खाली पानी की बोतल उठाई और नल से भर कर होटल के पीछे वाले जंगल की तरफ चल दिया।
"भाई बैठने से पहले थोडा उपर निचे आगे पीछे देख लेना। सांप बहुत हैं यहाँ।" मैंने हंसते हुए कहा, वह जवाब देने के लिए मुडा तक नहीं, दबाव कुछ ज्यादा ही था।
अंकल जी जाकर मैगी वगैरह चढाने लगे, हम दोनों ने अपनी चाय खत्म की। तभी प्रताप आते दिखाई दिया, उसने हाथ हिलाकर मुस्कुराहट दिखाई।
"आप लोग यहाँ बैठे हैं? थक गए क्या?" प्रताप ने पूछा।
"नहीं, मेरे दोस्त का पेट खराब है और सोचा कुछ खा पि लेते है हल्का फुल्का, दोनों का थकान से बुरा हाल है तो इसी बहाने दोनों आराम कर लेंगे, आप भी रुकिए हमारे साथ चाय नाश्ता कर लीजिये।" मैंने कहा।
"नहीं, मै करके ही निकला हूँ, चलिए चलता हूँ आगे भेंट होगी। जय भोले।" कहकर वह अपनी पैडेड जैकेट् को कान तक खींचते हुए चल पड़ा।
हमारी मैगी बन कर तैयार हो चुकी थी, हम दोनों ने खानी शुरू कर दी तब तक वसंत भी वापस आया गया। हाथ पैर धोंकर वह हमारे पास आया और उसने भी एक मैगी ऑर्डर कर दी।
"अरे अजीब आदमी हो यार, जब कह रहा था तब नही कहा और अब आकर मैगी का ऑर्डर दे रहा है। अब पेट सही हो गया क्या?" मैंने कहा।
"नही, अब सब खाली हो गया है, तो सोचा खा ही लेता हूँ। मुझे वैसे भी यहाँ की मैगी बहुत पसंद आ रही है।" कहते हुए वसंत बेंच पर बैठ गया। महेश ने मैगी खत्म कर ली और उठ खड़ा हुआ।
"तू कहां गया था? किस दिशा में?" महेश ने वसंत से पूछा। वसंत ने उसे दिशा बता दी, मै उसकी हरकतें देख रहा था, वह भी बोतल उठा कर चल पड़ा।
"सोचता हूँ मै भी निपट आता हूँ।" महेश ने कहा।
"यार अजीब कार्टून लोग हो तुम दोनों, अरे जब जाना ही था तो पहले चला जाता। खाने के बाद कौन जाता है।" मैंने कहा।
"वो वसंत को हल्का होकर आते देखकर मुझे भी तलब लग गयी।" कहकर महेश भी जंगल की तरफ भाग लिया।
"तलब लग गयी? भाई टॉयलेट जाने के लिए तलब लग गयी कौन बोलता है यार? कुछ भी है तुम दोनों का।" मैंने कहा फिर वसंत की भी मैगी आ गयी। उसके खत्म करने तक महेश भी लौट आया, हमने कून चट्टी पर कुल मिलाकर आधा घंटा बिताया। सवा ग्यारह बज रहे थे, दुकान की बगल में ही पथप्रदर्शक लगा हुआ था जिसके अनुसार मदमहेश्वर मंदिर अभी ढाई किलोमीटर दूर था।
"तो भाई यह बिल भी मै दे रहा हूँ, खड्डारा वाले होटल का हिसाब किताब भी मै दे दूंगा, मदमहेश्वर में भी कर देता हूँ, फिर वापसी में उकिमठ पहुँच कर हिसाब कर लेना।" कहकर मैंने हिसाब नोट कर लिया और बिल चुका दिया। अब दोनों तरोताजा नजर आ रहे थे। लेकिन फिर यहाँ से चढाई शुरू हो रही थी, चढाई शूरु होते ही कुछ ही मिनटों बाद दोनों वापस अपनी पहली वाली अवस्था में पहुँच गए, कुछ दुरी तक सीधी चढाई थी, यहाँ पेड़ पौधे नही थे, लगभग आधा किलोमीटर की सीधी चढाई चढने के बाद पेड़ पौधे दिखाई देने लगे। अब यहाँ से चन्द्रशिला और तुंगनाथ की चोटियों को मै साफ़ साफ़ पहचान सकता था। सामने खड़े ग्लेशियर्स का स्वरूप और विशालकाय एवं विस्तृत होते जा रहा था। अब मुझे लग रहा था कि ये लोग इसी तरह चलते रहे तो फिर मंदिर तक पहुँचने में ही दोपहर के तीन बजा देंगे।
मै चलता रहा, उनसे आधा किलोमीटर दूर पहुँच गया, यहाँ से अत्यंत घना जंगल था। सूरज की किरणें नहीं पड रही थी, लगभग सभी पेड़ों पर काई जमी हुयी थी, हवा में नमी साफ़ दिखाई दे रही थी, पगडण्डी ओस से भीगी हुयी थी, जगह जगह उपर चट्टानों से आती पानी की धारों की वजह से पगडंडी भीगी हुयी थी। यहाँ एकाध दो व्यक्ति और आते दिखाई दिए लेकिन उनकी हालत खस्ता थी तो वो कुछ बोले नही। 

मै एक मोड़ पर आकर उन दोनों की प्रतीक्षा करने लगा, दरअसल अब रास्ता हद से ज्यादा जंगली और सुनसान होते जा रहा था तो थोड़ा सा डर भी लग रहा था। विशालकाय पेड़ों ने सूरज की रोशनी को पूरी तरह से ढंक रखा था, चारों तरफ ऊँचे लम्बे पेड़ और घनी झाड़ियाँ दिखाई दे रही थी। मै वही इन्तजार करते रहा, कुछ देर बाद महेश पहुँच गया और हांफने लगा।
"वसंत बोल रहा है तुम दोनों आगे चले जाओ वह आ जाएगा।" महेश ने कहा।
"अरे यार देख रहे हो कितना घना जंगल है, एक तो वैसे ही उसकी हालत खराब है और तुम उसे छोडकर चले आये। कहीं गिर पड़ गया तो किसी को पता भी नही चलेगा तो उसके साथ तुम रहो। मै अकेला आगे जाता हूँ।" मैंने कह दिया, कुछ देर बाद रोते कलपते वसंत पहुँच गया। वह पगडण्डी के किनारे ही एक पत्थर पर बैठने जा रहा था कि मेरी नजर एक सांप पर पड़ गयी जो उसी पत्थर के पीछे बैठा था।

"बैठना मत तुम्हारे पीछे सांप है।" मैंने कहा तो दोनों चिंहुक पड़े और वहां से हट गए। हमने गौर से देखा, वह सांप भी भूरे रंग का था और इस तरह कुंडली मार कर सूखे पत्तों में बैठा हुआ था कि एक नजर में देखने से उसे पहचाना भी नही जा सकता था।
"यहाँ तो बैठने के भी लाले पड़े है।" वसंत ने कहा।
"सुनो अब तुम दोनों एकदुसरे को सम्भालो, थक जाओ तो रुकना मत स्पीड धीमी कर लेना। छोटे छोटे कदम रखना और चलते रहना। मेरे खयाल से हमने एक किलोमीटर पार कर लिया है, और ख़ुशी की बात यह है कि आखिरी एक किलोमीटर का रास्ता सीधा है, वहां कोई चढाई नही है।" मैंने कहा, लेकिन वसंत अब सीधी खड़ी चढाई की मोहमाया से विरक्त हो चुका था, उसके लिए एक कदम भी पहाड़ चढने जैसा था। मै आगे निकल तो गया लेकिन उसके बाद रास्ता भयंकर रूप से सुनसान हो गया, ना केवल सुनसान हो गया बल्कि बादलों की एक भयानक भीड़ सी उन पहाड़ियों की तरफ बढने लगी। मेरे सिर के उपर तक बादल मंडराने लगे थे, इतनी उंचाई पर ऐसे घने जंगल के बिच बादलों का अचानक घिर आना वाकई काफी डरावना था। मुझे लग रहा था कि अब बरसात होने वाली है, तापमान फौरन काफी निचे आ गया, ठंड अप्रत्यक्ष रूप से एकदम से बढ़ गयी, जंगल में कोहरा छाने लगा था। मुंह से ठंडी भांप निकलने लगी।
"भाई बारिश होने वाली है, मौसम खराब हो जाएगा इसलिए चलते रहो जल्दी जल्दी।" मैंने चीख कर कहा, पता नही उन्होंने सुना भी या नही। मै महादेव जी मनाता रहा कि हमारे मंदिर पहुँचने तक बरसात ना हो बस। बादलों का झुण्ड मंदिर की तरफ बढ़ते जा रहा था, पहाड़ी पूरी तरह से बादलों के मध्य अदृश्य हो चुकी थी। पेड़ों की चोटियाँ तक बादलों के कारण दिखाई नहीं पड़ रही थी। यहाँ से पुरे रास्ते में कीचड़ और गीलापन था, पहाड़ के किनारों से झरने और दुसरा पानी रिस रहा था। मै चलते रहा, जंगली कीड़ों और विभिन्न पशु पक्षियों की आवाजें सुनाई देने लगी थी। 
ऐसा लग रहा था जैसे पुरे विश्व में अकेला मै ही एक इंसान बचा हूँ जो बस जंगलों में भटक रहा है, दूर दूर तक किसी इंसान का नामोनिशान तक नही था जो ऐसे परिवेश में थोड़ी देर तक अच्छा लग रहा था लेकिन फिर धीरे धीरे एक अजीब सी अनुभूति होने लगती थी, मै अब हवा में नमी महसूस कर सकता था, हम जिस पहाड़ पर थे उस पहाड़ पर पहले ही घने पेड़ों की वजह से धुप नही पहुँचती थी अब बादलों के कारण और भी घना अन्धेरा हो रहा था। मै तेज तेज क़दमों से चलता रहा, उस पहाड़ के सामने दिखाई देने वाले ग्लेशियर्स पर अभी भी हल्की धुप दिखाई दे रही थी। मै पहाड़ों को देख रहा था लेकिन मेरी नजर चौखम्बा को खोज रही थी, एक इसी पहाड़ को मै जानता था जो ऐसे माहौल में भी मुझे प्रेरित करता था।

किन्तु उस घने जंगल और बादलों की अठखेलियों के बिच कुछ भी दिखाई देना मुश्किल हो चुका था। एक मोड़ के बाद रास्ता पूरी तरह से सीधा हो चुका था, मै उस रास्ते को आगे जाकर एक बड़े झरने के पास से सीधे ही मुड़ता हुआ देख सकता था। वहीं से आता हुआ एक यात्री दिखाई दिया, उसने मेरी तरफ देखा, मुस्कुराया।
"अरे कोई नही भाई, पहुँच गए हो। खत्म हो गयी चढाई हर हर महादेव।" कहते हुए वह तेजी से निकल भी गया।
"खत्म हो गयी चढाई सुनकर हिम्मत जैसे दुगुनी हो गयी, मै तेज क़दमों से चलने लगा, थोड़ी ही देर में मै झरने के पास पहुँच गया। झरने के सामने पत्थरों की एक दीवार बनाई हुयी थी और उसके आगे एक पुलिया थी जिसके निचे से झरना बहते हुए जा रहा था। वहां चारों तरफ बस झरने का ही शोर सुनाई दे रहा था। मै वहाँ पहुंचा, अपने हाथों के दस्ताने उतारे और पानी पिने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो पानी की तासीर एकदम बर्फीली थी, लेकिन मुझे प्यास लगी थी तो मैंने वही पानी पिया और उसी से अपना मुंह सिर सब धो लिया।


एकदम से तरोताजा महसूस होने लगा, लेकिन इस दौरान यह हुआ कि मेरे जूतों में पानी चला गया, लेकिन अब अफ़सोस की कोई बात नही थी क्योकि मुझे कुछ घर दिखाई देने लगे थे। मै समझ गया था कि यह आखिरी गाँव है जहां मदमहेश्वर जी विराजमान हैं। मैंने प्रभु को धन्यवाद दिया, सोचा कि आगे बढ़ जाऊं लेकिन फिर मुझे वसंत और महेश का खयाल आया, मंदिर मुश्किल से आधा किलोमीटर भी नही था लेकिन अकेले आगे बढने की इच्छा नही हुयी।
मैने वही बैठ कर उनका इन्तजार करने का निर्णय लिया, कुछ ही देर बाद महेश दिखाई दिया। वसंत काफी पीछे था, महेश की हालत खराब हो चुकी थी। उसकी खराब हालत देखकर मै वसंत की हालत का अंदाजा ही लगा सकता था।
"वह कहाँ रह गया?" मैंने महेश से पूछा।
"उसने कहा तुम आगे चलो मै आता हूँ।" महेश ने कहा। उसकी बात सुनकर मेरा दिमाग खराब हो गया, वह उसे ऐसी हालत में कैसे छोड़ सकता था।
"अरे यार वह पहले ही चलने की हालत में नही है, उसे इस तरह उस सुनसान जंगल में क्यों छोड़ कर चला आया? जानता है इस उंचाई का दिमाग पर भी असर पड़ता है, वैसे ही उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही है, कल आधे रास्ते में उसे मतिभ्रम हो रहे थे और आज उससे दुगुनी उंचाई पर उसे छोड़ कर चला आया। रुक मै उसे लेकर आता हूँ।" मैंने वापस जाने का मन बना लिया, हालाँकि अब चलने की बिल्कुल भी इच्छा नही थी, लेकिन फिर मै चल दिया। मुश्किल से दो सौ मीटर ही बढा था कि आखिरी मोड़ पर वसंत लाठी टेककर आते हुए दिखाई दे गया। अब उसके साथ कुत्ता भी नही था, शायद वह किसी पडाव पर लौट गया था या समझ गया होगा कि अब आगे इन्हें कोई खतरा नही है।
"आजा भाई, वह देख मंदिर वहाँ है। हम पहुँच गए, हम पहुँच गए।" मै ख़ुशी से चिल्लाया इस बार मै केवल उसका उत्साह बढाने के लिए नही चिल्ला रहा था, मेरी चीख में प्रसन्नता थी। वसंत पर इन शब्दों ने और मेरे हाव भाव ने असर किया और वह कुछ ही मिनटों में मेरे पास पहुँच गया।
"प्यास लगी है पहले पानी पि लूँ।" कहते हुए वसंत झरने के पास बढ़ा, महेश भी पानी पिने चला गया। झरने के पानी में हाथ डालते ही दोनों चीख पड़े। मुझे उनकी हालत देख कर हंसी आ रही थी।
"उंगलियाँ सुन्न हो गयी, यह वाला पानी तो अब तक का सबसे ठंडा पानी है।" वसंत ने कहा, उसने फिर भी थोड़ा पानी किसी तरह पीया। पानी पिने के बाद उसे कंपकंपी छूट गयी। उसने आगे बढकर अपनी उंगलियाँ दिखाई, उसकी उंगलियाँ वाकई ठंड से लाल हो गयी थी।
"तो हम पहुँच गए हैं तो एक बार लगाओ जयकारा बोलो हर हर महादेव।" मैंने पुरे उत्साह के साथ कहा।
"हर हर महादेव।" दोनों ने साथ दिया और हमने आख़िरकार अंतिम मोड़ पर कदम रखा और हमारे सामने कुछ कैम्प दिखाई देने लगे, एक पक्का रास्ता मंदिर तक जा रहा था। मंदिर के उपर बादल छाये हुए थे। वह पूरा गाँव पहाड़ की चोटी पर एक समतल स्थान पर बसा हुआ था, बमुश्किल तीस चालीस घर दिखाई दे रहे थे और वो सभी होटल, टेंट वगैरह ही थे। उस गाँव के एक तरफ इस पर्वत की दूसरी चोटी थी जिसे बुढा मदमहेश्वर कहा जाता है। और दाहिनी तरफ पहाड़ का अंत होता था, जिसके बाद सैकड़ों फूट गहरी सीधी खाई और घने जंगल थे। और उनके आसपास चार दिवारी की तरह किलाबंदी किये हुए विशालकाय पर्वत श्रृंखलाए, जिनका आकार इतना बड़ा था कि उन्हें देखने में ही दिल की धडकने तेज हो जाती थी। बादल यहाँ तक पहुँच चुके थे, और बादलों के साथ ही मै चिंता में पड़ गया।
"अगर बादल ऐसे ही रहेंगे तो बुढा मदमहेश्वर नहीं जा पाउँगा, वहां से चौखम्बा के दर्शन नही हो पाएंगे।" मैंने बादलों की घनी चादर के बिच छिपी हुयी पर्वत की चोटियों को देखकर कहा।
"कहा है बुढा मदमहेश्वर?" महेश ने पूछा, मैंने उस पहाड़ की चोटी की तरफ इशारा कर दिया जिसे देखकर दोनों घबरा गए।

"मतलब वहाँ भी जाना है?" वसंत ने पूछा।
"नही! वहाँ सिर्फ मै जाउंगा, इतने मुश्किलों बाद यहाँ तक पहुंचा हूँ तो मै वहां जरुर जाऊँगा चाहे बादल रहें या ना रहें, चौखम्बा दिखे या ना दिखे। कम से कम जाने के बाद अफ़सोस नही रहेगा कि मै इतने पास होकर भी बिना प्रयास किये लौट आया।" मैंने कहा, हम अब पक्की सडक पर चल रहे थे, कैम्प के बिच शान से खड़ा मदमहेश्वर मंदिर अब स्पष्ट दिखाई देने लगा था, मैंने वहीं से पूर्ण भक्ति भाव से दोनों हाथ जोड़ कर मंदिर के दर्शन किये और इसी के साथ जो भी मंत्रोच्चार स्मरण थे उनका स्मरण करते हुए चल पड़ा।
कर्पुरगौरम करुणावतारम संसारसारम भुजगेंद्रहारम सदा वसंतमहृदयारविन्दे भवमभवानी सहितं नमामि
फिर महामृत्युंजय मन्त्र, लिंगाष्टकम की कुछ पंक्तिया और शिव तांडव स्त्रोतं गाते हुए भाव विव्हल होकर मंदिर की तरफ चल पड़ा। मैंने कब उन दोनों पीछे छोड़ दिया मुझे पता ही नही चला, अब मेरे दोनों तरफ कुछ घर दिखाई दे रहे थे, एक ऊँचे चबूतरे पर कुछ कमरे बने हुए थे, वहां मुझे प्रताप दिखाई दिया।
"आखिरकार पहुँच ही गए आप लोग।" प्रताप ने मुस्कुराते हुए कहा।
"मंदिर के कपाट खुले हैं ना?" मैंने पूछा क्योकि दोपहर हो चुकी थी।

"बंद होने वाले हैं जल्दी जाइए।" प्रताप ने कहा, तो मैंने दोनों को चीखकर आवाजें दी, दोनों ने अपनी गति बढ़ा ली और मेरे पास पहुँच गए, अब यहाँ से भव्य और अप्रतिम मंदिर हमारे समक्ष खड़ा था, मंदिर केदारनाथ मंदिर की ही छोटी प्रतिकृति प्रतीत हो रहा था। और मेरे सामने ही मंदिर के कपाट बंद हो गए, यह देखकर मेरा चेहरा उतर गया। कपाट बंद होने का अर्थ था कि अब सायंकालीन आरती में ही खुलेंगे और हमारे पास अब शाम तक रुकने का समय भी नही था। हमे आज ही उकीमठ पहुंचना जरूरी था।
मै पूरी तरह से निराश हो गया, मैंने अपने जूते मोज़े उतारे और मंदिर प्रांगण में कदम रख दिए, मंदिर का प्रांगण पत्थरों से बनाया हुआ था, मंदिर सामान्य भूमि की अपेक्षा थोड़े निचले हिस्से पर बना था, उसके चारों तरफ लगभग तीन चार फीट की पत्थरों से बनी हुयी चार दिवारी थी, मंदिर के पीछे ही गणेश, पार्वती इत्यादि की छोटे छोटे मंदिर विराजमान थे, मंदिर के द्वार के सम्मुख ही कुछ घंटिया टंगी हुयी थी। इस मंदिर का सौन्दर्य उसका सौम्य और सरल होना ही था। बादलों का एक गुच्छा अभी भी मंदिर के कलश पर जैसे छत्र की भाँती विराजमान था।
मैने द्वार पर आकर पूरी श्रद्धा से महादेव को नमन किया। मन भारी था, अंतत दो दिन की निरंतर चढाई के पश्चात मै अपने प्रिय के समक्ष खड़ा था किन्तु उनके द्वार बंद थे। मुझे कोई रास्ता नही सूझ रहा था कि अब क्या करूं? यहाँ रुकना सम्भव ही नही था, हमने अपना सारा सामान निचे खड्डारा में ही छोड़ दिया था।
तभी पुजारी जी और मंदिर के सेवादारों की नजर मुझ पर पड़ी।
"आप दर्शन करने आये हैं?" उन्होंने पूछा।
"जी हाँ।" मैंने उत्तर दिया।
"आज आप रुकने वाले हैं या लौटने वाले हैं?" उन्होंने प्रश्न किया।
"जी लौटने वाला हूँ।" मैंने दुखी मन से कहा, तब तक वसंत और महेश भी पहुँच गए थे, पत्थरों के ठंडे पन से उन्हें चलने में परेशानी आ रही थी।
"ठीक है, पांच मिनट के लिए कपाट खोल देते हैं।" कहकर पुजारी जी ने कपाट खुलवा दिए, मुझे सहसा अपने कानों पर विश्वास ही नही हुआ, यह सम्भवत मेरे द्वारा देखा गया पहला मंदिर था जहां किसी एक व्यक्ति के लिए बंद हुए कपाट को बिना किसी विशेष उपक्रम के खोल दिया गया था। मेरी आँखे भर आई स्वर कम्पित होने लगे,मेरी मेहनत सफल हुयी, मेरी प्रतीक्षा समाप्त हुयी, भावनाओं का आवेग जैसे फट पड़ने को उतारू था, मैंने हाथ जोड़े और महादेव की छवि को मन में बसाए मंदिर में प्रवेश किया।
मंदिर में प्रथम कदम रखने के पश्चात जो दैवी एवं आत्मिक अनुभव हुआ उसका शब्दों में वर्णन असम्भव है, मै भावनाओं के आवेग से कांप रहा था, ना चाहते हुए भी पलकों के किनारों से अश्रु की बुँदे बाहर आ गयी। मैंने महादेव को नमन किया, उन पर छत्र चढाया हुआ था, नंदी को स्पर्श करके मैंने मंदिर के गर्भगृह के समक्ष हाथ जोडकर खड़ा हुआ और महादेव की छवि को अपलक निहारता रहा, उनकी स्तुति करता रहा, मेरे स्वर कांप रहे थे।
मन भर कर दर्शन करके उनकी उस अद्भुत छवि को अपने मन में बसा कर मैंने जयघोष किया, पुजारी जी ने माथे पर तिलक लगा कर प्रसाद और एक चुनरी भी दी। मैंने दक्षिणा में कुछ रूपये रख दिए और उनके चरण स्पर्श करके महादेव को पुन: एक बार देखा और उनकी तरफ पीठ किये बगैर मंदिर से बाहर निकल गया, बाहर निकल कर भी मेरा ध्यान उनसे नही हट रहा था, जब तक कपाट बंद होते हैं तब तक उन्हें निहार लूँ। फिर कुछ मिनटों पश्चात् मंदिर के कपाट बंद कर दिए गए। वसंत और महेश दोनों थक कर चूर हो गए थे, मै मंदिर की परिक्रमा कर रहा था, वह मंदिर प्राचीन बनावट का था, यहाँ कुछ बातें बताता चलूं यह मंदिर 3497 ( 11473 फीट) मीटर की उंचाई पर है, यहाँ पर महादेव की नाभि रूप में पूजा होती है, उनका शिवलिंग नाभिस्वरूप जैसा प्रतीत होता है, जिसे छत्र एवं श्रृंगार द्वारा सजाया जाता है, जैसा कि पंचकेदार के प्रत्येक मंदिर में अलग अलग भागों के रूप में उनकी पूजा की जाती है।  
मंदिर में ही माता पार्वती एवं अर्धनारीश्वर की प्राचीन प्रतिमा है, मंदिर का निर्माण पांडवकालीन भी बताया जाता है और एक कथा के अनुसार यहाँ माता पार्वती एवं महादेव जी मधुचंद्र की अवधि में ठहरे थे। इसके अलावा यहाँ मंदिर के समक्ष दो छोटे मंदिर हैं, दाहिनी तरफ एक छोटा सा कुंड हैं जिसके वृषभ रूपी मुख से सदैव पानी की धार बहती है, जिसे शिव गंगा कहते हैं। सरस्वती माता का एक छोटा सा मंदिर भी है। मंदिर की बाई तरफ वाली पहाड़ी ही बुढा मदमहेश्वर की तरफ जाती है। और यहाँ के पुजारी भी बद्री केदार के पुजारियों की भाँती दक्षिण भारतीय हैं।
जिनकी अनेक भाषाओं पर धाराप्रवाह पकड है। मैंने मंदिर के सामने स्थित मैदान पर बैठ कर कुछ पल ध्यान लगाया, मैं उस दिव्य एवं अद्भुत वातावरण को महसूस करना चाहता था, मैं काफी देर तक बैठा रहा और मंदी की मनोहारी छवि को निहारता रहा। फिर मैंने एक नजर उस पहाड़ी की तरफ देखा जहाँ मुझे जाना था, दोपहर के एक बज रहे थे, डेढ़ किलोमीटर की पहाड़ी थी अगर मैं अभी भी जाउंगा तो भी मुझे जाने आने में दो तीन घंटे लग जाने थे। उपर से बादल भी बढ़ते जा रहे थे, मौसम तेजी से खराब होते जा रहा था, हमे जल्दी से जल्दी निर्णय लेना था। हालांकि उस चोटी पर वसंत और महेश नहीं आने वाले थे, किन्तु मेरा मन था, लेकिन वातावरण को देखकर यह सम्भव प्रतित नहीं हो रहा था। आखिरकार उठ कर सबसे पहले कुछ खाने पिने का जुगाड़ करना था, दोनों की हालत बेहद खराब लग रही थी, तो मैंने मंदिर को पुन: एक बार जी भर कर प्रणाम किया और वहाँ गया जहां प्रताप कुर्सी डाल कर बैठा हुआ था।
“हो गए दर्शन?” प्रताप ने पूछा।
“हां अच्छे से। बस लगता नहीं कि बुढा मदमहेश्वर जा पाउँगा।“ मैंने कहा।
“आज तो सोचिये भी मत, जायेंगे तो उपर बादलों में रास्ता भी भटक जायेंगे और पहुँच भी गए तो चौखम्बा की छवि दिखाई नहीं देगी। आज बादलों का हटने का कोई मूड नहीं दिखाई दे रहा है।“ प्रताप ने कहा।
“तो आप आज यहीं रुक रहे हैं?” मैंने पूछा।
“हां, मैं कल निकलूंगा आराम से। यहीं कमरा लिया है, दो सौ रूपये में, एक बिस्तर और रजाई मिल जाती है, एक कमरे में चार पांच बिस्तर हैं।“ प्रताप ने जानकारी दी।
“हम भी रुक जाते है, मौसम खराब हो रहा है। अगर बारिश हो गयी तो फंस जायेंगे।“ वसंत ने कहा।
“मौसम सिर्फ यहाँ दो किलोमीटर तक खराब है, उसके बाद निचे की तरफ धुप है, मौसम साफ़ है और यहाँ हम रुक ही नहीं सकते भाई, हमारा सारा सामान निचे है, हम इन्ही सिंगल कपड़ों में उपर आये हैं जो हमने कल से पहन रखे हैं।“ मैंने कहा।
“देखो अगर आज रुक जाते हो तो कल सुबह सुबह बुढा मदमहेश्वर जाकर चौखम्बा के दर्शन कर आओगे।“ प्रताप ने कहा, अब उनकी बातें सुनकर मेरा मन विचलित होने लगा, अब बादल इतने हो चुके थे कि घर के छतों के उपर तक दिखाई देने लगे थे, लग रहा था कि अगर छलांग लगाऊंगा तो बादलों को छू लूंगा। ऐसे माहौल में इस तरह बादलों का इतने करीब होना थोडा डरावना अनुभव भी था, अगर यही बरसात का रूप ले लेते हैं तो वाकई दिक्कत हो जानी थी।  
“नहीं, हम आज ही वापस चलेंगे, अगर आगे चलने का मन ना भी हो तो भी खड्डारा तक चलते हैं, वहां जाकर रुक जायेंगे चाहे तो फिर कल सुबह निकल जायेंगे।“ मैं उनकी हालत समझ चुका था, वो चाहे तो भी आज किसी भी हाल में उकिमठ तक का रास्ता पार नहीं कर सकते थे। लेकिन मैं चाहता था कि किसी तरह आधा रास्ता पार कर लें, फिर भी हम कल सुबह पांच बजे निकल कर आराम से बारह बजे के पहले सोनप्रयाग पहुँच कर केदारनाथ यात्रा पर जा सकते हैं।
सामने एक व्यक्ति था जो चुल्ह्वा वगैरह जला रहा था, वहां कोई दुकान वगैरह नहीं थी। मैंने उन्ही से खाने पिने के बारे में पूछा था उन्होंने कह दिया कि खाना तो शाम को ही बनेगा फिलहाल नहीं हो पायेगा। कुछ जगहों पर और पूछा लेकिन वही जवाब। फिर प्रताप जिस कमरे में ठहरा था उसने उस लड़के को बुलाया और उससे बात की, वह चाय वगैरह बनाने के लिए मान गया तो हमने चाय बिस्किट ही मंगवा लिए। अब वसंत और महेश की हिम्मत पूरी तरह से टूट चुकी थी, वो कुर्सियों पर बैठ गए तो बैठे ही रह गए, बादलों के छाने से तापमान गिरने लगा था। ठंड एकदम से तीन गुणा बढ़ गयी थी, दोनों बुरी तरह कांप रहे थे, अब लगा कि वाकई रुकना पड़ेगा। भले मज़बूरी में सही। लड़का चाय वगैरह लेकर आया तो मैंने कमरे के बारे में बात की तो उसने तीनों के छ सौ बता दिए और शाम के खाने के लिए डेढ़ सौ रूपये अलग से, गर्म पानी चाहिए हो तो पचास रूपये प्रति बाल्टी। मैंने हां कह दिया, कमरा कौन सा है तो उसने कह दिया कि हम जिस चबूतरे पर खड़े हैं उसके पीछे वाले ही है। बस इतना कहना था कि चाय वगैरह पि कर थोड़ी यहाँ वहाँ की बातें करके वसंत और महेश दोनों कमरे में घुस गए, मोटी मोटी रजाइयां पाकर दोनों उसमे दुबक कर लेट गए, मैं उनकी हालत समझ सकता था, दोनों एक कदम भी चलने की हालत में नहीं थे। मैंने उन्हें छेड़ना सही नहीं समझा और कमरे से बाहर निकल आया। अब जब रुक ही गया था तो उस पुरे नजारे का मजा लेना चाहता था, बाहर प्रताप बैठा हुआ। वह हमारे बगल वाले कमरे में रुका हुआ था, उस आदमी को जैसे किसी चीज की कोई जल्दी नहीं थी। मैंने अपने गिले हो चुके मोज़े उतार कर उन्हें अच्छी तरह से निचोड़ लिया और कमरे की छत पर रख दिया। उम्मीद थी कि शायद कल तक सूख जायेंगे।
प्रताप भी अब आराम करने के मूड में दिखाई दे रहा था, मैंने थोड़ा टहलने का सोचा और मंदिर तक चला गया। इस समय मंदिर के पास केवल मैं ही अकेला था, सभी लोग अपने कमरों में दुबके हुए थे, कोहरा बढ़ रहा था, ठंड से मेरे भी रोंगटे खड़े हो रहे थे, मैंने अपनी ऊनि टोपी को कान तक खिंच लिया, और मंदिर के सामने बैठ कर फिर से उसके दिव्य स्वरूप के अवलोकन करने लगा। उसकी उस भव्य छवि में ना जाने ऐसा क्या था कि मन भर ही नहीं रहा था, एक विचित्र सा आकर्षण था उसमे जो मुझे खिंच रहा था। काफी देर तक मैं उस सम्मोहक दृश्य में खोया हुआ था, कुछ कौव्वो ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा, उनका स्वर सुनकर मेरी तन्द्रा भंग हुयी। मैं वहां से उठा, अब ठंड और बढ़ गयी थी तो मुझे भी कमरे में जाना उचित लगा, उस पुरे क्षेत्र में मैं ही अकेला व्यक्ति दिखाई दे रहा था जो उस घने कोहरे और ठंड में घूम रहा था। बादल अब दूर दूर तक फैलने लगे थे, आसपास की पहाड़ियां पूरी तरह से गायब हो चुकी थी।
मै भी कमरे में आकर एक मोटे कम्बल को ओढकर पड़ गया, मुझे नींद नहीं आ रही थी। वसंत और महेश भी केवल लेटे हुए थे, नींद उन्हें भी नही आ रही थी।
"यार मैंने वाकई इस माहौल के बारे में कल्पना भी नही की थी, सोचा भी नही था इतना चलना पड़ेगा और इतना कुछ देखूंगा। ऐसी ठंड से मेरा आज तक सामना नही हुआ औ यह मंदिर वाकई इसके जैसा सुंदर स्थान आज तक नही देखा।" वसंत कह रहा था, महेश अपनी नाक और सीने पर बाम मलने में व्यस्त था। उसकी नाक फिर बंद हो चुकी थी।
"हमारे पास कपडे भी नही हैं, हमने मनसूना से निकलते वक्त जो कपडे पहने थे उन्ही कपड़ों में दो दिन से चल रहे हैं। मुझे बेचैनी सी हो रही है इनमे।" मैंने कहा।
"कोई बात नही कल जाकर निचे खड्डारा में नहा लेंगे।" वसंत ने कहा, तभी कमरे वाला लडका आया और उसने कहा कि ये हमारा कमरा नही है, हमे बगल वाले कमरे में सोना है। अब दोनों कमरे आसपास होने की वजह से समझने में गडबड हो गयी थी तो हम चुपचाप उठ कर वहा पहुँच गए, उस कमरे में प्रताप रजाई ओढ़ कर पड़ा हुआ था।
"अरे तुम भी यहाँ हो? बढिया है फिर तो, हमे लगा कि वो बगल वाला कमरा हमारा है।" मैंने कहा, वसंत और महेश ने फौरन ठंडी हवा से बचने के लिए दरवाजा बंद कर दिया और बिस्तर में घुस गए। उसी कमरे में एक अटेच्ड टॉयलेट भी था जिसे काम चलाऊ कह सकते हैं। मै भी जाकर एक रजाई में घुस गया। फिर मेरी और प्रताप की काफी देर तक बातें होती रही, बातों बातों में उसे पता चला कि मै लेखक हूँ, मेरे पास कण कण केदार की कॉपी रखी हुयी थी तो मैंने निकाल कर उसे थमा दी।
वह पढने में व्यस्त हो गया, वसंत और महेश आपस में बातें कर रहे थे और मै बस आँखे मूंदे लेटा पड़ा था। मै किसी अलग ही दुनिया में पहुँच चुका था।
"यहाँ जब बादल आते हैं तो बर्फबारी होती है, अभी पारा माइनस जाने वाला है अगर बादल रह गए तो शाम तक स्नो फॉल होगी।" प्रताप ने कहा।
"बढ़िया है, इन दोनों को स्नो फॉल देखने की इच्छा थी, आज देख लेंगे। मुझे तो कल की फ़िक्र है कि ये दोनों कैसे केदारनाथ जायेंगे। इनकी अभी से हालत खराब है।" मैंने कहा।
"हम जायेंगे, हम कर लेंगे। आज आराम मिल गया है ना तो हम कर लेंगे।" वसंत ने कहा।
"यार तू तो चुप ही रह, सबसे पहले तुझे ही आईसीयू और एम्बुलेंस दिखाई देती है।" मैंने हंसते हुए कह तो दिया लेकिन मै समझ गया था कि केदारनाथ में दोनों की हालत खराब होने वाली है और उनके चक्कर में वापस मै ही फंसने वाला हूँ।
ऐसे ही बातों ही बातों में शाम हो गयी, हमने टॉयलेट वगैरह देखकर अपने आप को जरूरी कामों से हल्का कर लिया। बर्फ की तरह ठंडे पानी से ही हाथ मुंह धो लिया, मुंह पर पानी डालते ही चरचराने की आवाज आती थी, मुझे लगता था जैसे पानी बर्फ की पपड़ी में तो नही बदल गया। लेकिन वह हमारी रुखी हो चुकी त्वचा की आवाज थी।
शाम को मंदिर में घंटियां बजने लगी, यह आरती का सन्देश था। मुझे आरती में सम्मिलित होना ही था, वसंत और महेश रजाई की गर्माहट को छोड़ना नही चाहते थे, उन्हें ठंड लग रही थी। लेकिन मै बाहर निकल गया, प्रताप भी मेरे पीछे पीछे चला आया। उसके बाद दोनों ने भी ना जाने क्या सोचा और वो भी आ गए।
उस समय मैंने पहली बार इतने दिनों में एक साथ बीस तीस आदमी देखे थे, इतने लोगों को देखना ही दुर्लभ हो गया था यहाँ। जाने कहाँ कहाँ किन किन कमरों से निकल कर लोग मंदिर की तरफ आ रहे थें। उस समय मुझे पता चला कि यहाँ होटलों में यात्रियों को बारी बारी से ठहराने का सिस्टम है, जैसे अगर पहले यात्री आये तो वो मंदिर के आरम्भ वाले होटल में रुकेंगे, उसके बाद वाला यात्री आया तो उसके पीछे वाले होटल में, उसके बाद वाले आये तो उसके बाद वाले में। इस तरह बारी बारी से सबके होटलों में यात्री रुकते हैं जिससे सभी समान रूप से कमाई कर सके। ये सारे यात्री ऐसे ही थे जो हमारे बाद आये थे, हमसे पहले आये हुए यात्री मंदिर के बगल वाले नीले रंग के निवास में रुके थे, जहां पुजारी जी का वास था। वहां कुछ दक्षिण भारतीय परिवार रुके थे, जिनमे महिलाए, लडकियां और पुरुष थें। मंदिर प्रांगण में हमारे अलावा दस बारह युवक थे। मंदिर के सेवादारों ने हमे मंदिर के भीतर बैठने के लिए कहा।
मंदिर के भीतर इतने लोगों के लिए बैठने की पर्याप्त व्यवस्था थी, यहाँ मोबाइल रिकार्डिंग वर्जित थी। मंदिर के फर्श पर दरियां बिछाई हुयी थी, भीतर आते ही बाहर की भयंकर ठंड से राहत सी मिली। आगे वाली कतार में महिलाए और पिछली कतार में पुरुष बैठे हुए थे, पुजारी और मंदिर के सेवक सबसे आगे गर्भगृह के सामने बैठे थे। हम सभी ने अपने हाथ जोड़ लिए और इसी के साथ मंत्रोच्चार और शंख, घंटी की ध्वनियाँ आरम्भ हो गयी।
पुजारी जी द्वारा गाई आरती इतनी प्रभावशाली थी कि सब के सब मंत्रमुग्ध हो गए, हमे पता ही नही चला कि उस आरती में बैठे हुए हमे कब बीस मिनट गुजर गए और दूसरी आरती आरम्भ भी हो गयी। मंदिर अद्भुत मंत्रोच्चारों से गूँज रहा था, मेरी दृष्टि बस शिवलिंग पर टिकी हुयी थी। और इसी के साथ पता नही कैसे मेरी भावनाओं का बाँध टूट गया और आंखो से झर झर अश्रु धाराए बहने लगी।
मै पूरी तरह तल्लीन हो चुका था और पुजारी जी के मन्त्रों को दोहराने का प्रयास कर रहा था, वहां उपस्थित लगभग सभी श्रद्धालु भाव विव्हल हो चुके थे, सबकी आँखों में आनंदाश्रु दिखाई दे रहे थे। उस मंदिर का वातावरण उस समय इतना दिव्य और अद्भुत प्रतीत हो रहा था कि लग रहा था सम्पूर्ण शरीर एकदम से भारहीन होकर एक दिव्य अनुभूति के मध्य कहीं विचर रहा हैं, जहां वह सुख दुख से एकदम परेन हो चुका है। आँखे बंद करते नेत्रों के मध्यभाग एक प्रकाश पुंज दिखाई देने की सी अनुभूति होने लगी थी। मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे, शायद श्रद्धा और भक्ति के उच्चतम स्तर को हम आज महसूस कर रहे थे,भावुकता से जन्मी हमारी निर्बोध कल्पना थी या वास्तविकता, किन्तु मै उस प्रकाशपुंज को बंद नेत्रों से देख रहा था। प्रतीत हो रहा था जैसे साक्षात शिव ऊर्जा के समक्ष खड़ा हूँ और उस ऊर्जा में मेरा रोम रोम नहाया है, इस श्रृष्टि का कण कण नहाया हुआ है। आरती की स्वर लहरियां अब मेरे कानों में नहीं मेरी आत्मा में गूंजती प्रतीत हो रही थी।
मैंने एक बार नेत्र बंद किये तो मै खोल नही पाया, वह दृश्य जो मै देख रहा था, वह दिव्य अनुभूति जो मुझे हो रही थी मै केवल उसमे जीना चाहता था। प्रतीत हो रहा था जैसे आज मैंने साक्षात परमात्मा का आभास पा लिया था, महादेव का सानिध्य प्राप्त कर लिया था। कितनी भावनाए, कितना प्रेम, कितनी शान्ति, इतना शांत मैंने स्वयं को कभी महसूस नही किया। अश्रु अभी भी थमने का नाम नही ले रहे थें।
मन्त्र की स्वर लहरियां बढती जा रही थी, जैसे जैसे वह बढ़ रही थी अंग प्रत्यंग में एक विचित्र से कम्पन और रोमांच की अनुभूति हो रही थी। आँखों के समक्ष दिखाई देता तेज प्रखर होते जा रहा था, इतना प्रखर की मेरी बंद आँखे तक चौंधिया गयी और मैंने एक झटके में नेत्र खोल दिए। मैंने क्या देखा था, क्या अनुभूति की थी यह शब्दों से परे था, मै उसे व्यक्त नही कर सकता था। मै शिवलिंग को देखता रहा, बस एकटक देखता रहा। फिर शिव तांडव स्त्रोतम आरम्भ हुआ और मंदिर में उपस्थित हर व्यक्ति अपना सुध बुध खोकर स्त्रोतम गाने लगा। झुमने लगा।
जिसे आता था वह भी और जिसे नही पता था वह भी, उस समय भावनाओं का आवेग मंत्रो की सटीकता पर हावी हो चुका था। श्री गणेश आरती, शिव स्तुति, रुद्राष्टकम, शिव तांडव स्त्रोतम, माता गौरी आरती, महामृत्युंजय मन्त्र एवं श्री हनुमान चालीसा के पश्चात एक उत्स्फूर्त जयघोष से उस दिव्य एवं अद्भुत आरती का समापन हुआ।
उसके पश्चात मैंने अपने आस पास देखा, शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति था जिसकी आँखों में नमी नही थी। आज सभी महादेव के भाव में बह चुके थे। प्रसाद एवं दक्षिणा के पश्चात हमने पुन: एक बार शिवलिंग के दर्शन किये, पुजारी जी के चरण छूकर उनके आशीर्वाद लिए और बाहर निकल आये। इसी के साथ मंदिर के कपाट बंद हो गए। रात हो चुकी थी, अन्धेरा हो गया था और इसी के साथ बादल भी एकदम से अदृश्य हो चुके थे। दिन भर जहां बादल थे वहीं अब आकाश तारों से भरा हुआ था, इतने तारे मैंने अपनी जीवन में कभी नही देखे थे। अत्यंत ही अद्भुत दृश्य था वह। मुझे प्रतीत हो रहा था जैसे मै धरती पर जीते जागते स्वर्ग में पहुँच चुका हूँ।
ओह्ह कितना अद्भुत था यह सब, अच्छा हुआ जो आज मै वापस नही जा पाया, यदि चला जाता तो इस दिव्य अनुभूति से वंचित रह जाता। महादेव की ही कृपा थी जो उन्होंने मुझे रोक लिया। यही सोचकर मै मन ही मन मुस्कुराया। 

हमने पुजारी जी को बाहर खड़े देखा, मै वसंत और महेश से मराठी में बातें कर रहा था तो उन्होंने सुन लिया और हमे बुला कर हमारे बारे में पूछा। उनकी मराठीं भी काफी शानदार थी। पता चला वे कुछ साल नांदेड में रह चुके हैं, जहाँ जाते है वहां की भाषा सीख लेते है। फिर उन्होंने पञ्च केदार की कहानी सुनाई जो मैंने पहले ही बता दी है और इस जगह से जुडी और भी कई बातें बताई जैसे कि एक महीने पश्चात कपाट बंद हो जायेंगे, सर्दियों में मंदिर के आसपास छह फीट तक बर्फ हो जाती है। और भी यहाँ वहाँ की बातें, दोनों उनसे बातें करने में व्यस्त थे और मै अवसर पाकर फिर मंदिर के सामने जाकर बैठ गया। 
मैंने उस मनोहारी छवि की कुछ तस्वीरें उतारी। अब काफी देर यहाँ बैठ चुका था, हमारे कमरे वाले लडके ने खाना खाने के लिए बुला लिया। मै, वसंत, महेश और प्रताप वापस उनकी रसोई में बैठ गए, रसोई की गर्माहट के सुख के समक्ष इस समय सारे सुख गौण थे। दिन भर की ठंड के बाद चूल्हे की गर्मी वाकई राहत की बात थी। हमने गर्मागर्म खाने का आनन्द लिया और अपने कमरे की तरफ चल दिए। तीनो लोग रजाइयों में दुबक गए थे। हम सोने की कोशिश कर रहे थे लेकिन नींद नही आ रही थी, बातों का सिलसिला शुरू हो गया, सुबह बुढा मदमहेश्वर जाने की बात हुयी तो महेश तैयार हो गया। उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि अगर यह मेरे साथ आया तो मुझे फिर फंसा देगा और मै अब कल भी यहाँ नही रह सकता था, मुझे केदारनाथ के दर्शन करने थे, छह तारीख को कपाट बंद होने वाले थे, मुझे उससे पहले ही पहुंचना था।
मैंने हां हूँ कह दिया, थोड़ी देर बातें करने के बाद मैंने बत्ती बुझा दी। पिने के लिए गर्म पानी का मग रखा हुआ था जो अब ठंडा हो चुका था।
मुझे नींद नही आ रही थी। सोने की कोशिश कर रहा था लेकिन नही हो पा रहा था, एक अजीब सी बेचैनी छाई हुयी थी। ऐसे ही करते करते कब नींद आ गयी पता ही नही चला। महेश और वसंत एकदूसरे से फुसफुसा कर बातें कर रहे थे तब मेरी नींद खुली।
"अरे यार यह कोई समय है बातें करने का? शरीर से थके हुए हो आराम दो ना उसे। सो जाओ थोड़ा यार, प्रताप भी सो रहा है तुम लोग उसे भी डिस्टर्ब कर दोगे।" मैंने तंग आकर कहा, मैंने अपनी आवाज धीमी रखने की भरसक कोशिश की क्योकि प्रताप मेरे बगल में ही सो रहा था, मै उसकी नींद में खलल नही डालना चाहता था।
"अरे यार नींद पूरी हो गयी है, हम सोकर ही उठे हैं।" महेश ने कहा, उनकी बात पर मै चौंक पड़ा, हालांकि अब मुझे भी नींद नही आ रही थी। मैंने मोबाइल में देखा तो एक बज रहे थे।
"अभी तो एक ही बज रहे हैं, मुझे भी नींद नही आ रही है अब।" मै बेचैन हो गया, मै आँखों ही आँखों में पूरी रात नही काट सकता था।
"प्रताप तो सो रहा है आराम से, हम शायद सात ही बजे सो गए इसलिए हमारी नींद पूरी हो गयी।" वसंत ने कहा, उसका कहना सही था यहाँ और मुम्बई के दिन रात मे काफी फर्क था।
"तुम तीनों अकेले नही हो भाई, मै भी जाग रहा हूँ।" प्रताप की तरफ से आवाज आई, वह भी रजाई में मुंह ढांप कर बिना नींद के लेटा हुआ था।