शाम के चार बज गए थे।

इस कच्चे रास्ते के किनारे खाकी रंग के दो टैंट लग गए थे। ये काम जगमोहन और सोहनलाल ने ड्राइवर के साथ मिलकर किया था। ड्राइवर बीस किलोमीटर दूर कस्बे से सारा सामान वैन में लादकर ले आया था। उसके बाद एक टैंट में दो फोल्डिंग बेड और दूसरे में एक फोल्डिंग रखकर उस पर बिस्तरा बिछा दिया गया था। खुदाई के सामान के नाम पर फावड़ा-कुदाल-तसला व अन्य सामान भी आ गया था। इसके अलावा बैठने के लिए फोल्डिंग कुर्सी वगैरह भी थी।

विष्णु सहाय, देवराज चौहान के पास आकर बोला।

"मेरी जरूरत तो नहीं है देवराज चौहान ?"

"नहीं।"

"कोई बात नहीं, फिर भी मैं आज रात तो जमींदार के घर ही रहूंगा। शायद किसी चीज की जरूरत पड़े। जमींदार को बोल दूंगा कि तुम लोगों को किसी काम के लिए कार वगैरह की जरूरत पड़े तो वो दे देगा।" विष्णु सहाय कह उठा।

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

"फुरसत मिलने पर आज रात का खाना वहीं खाएंगे।" विष्णु सहाय खुश था कि उसकी जमीन अब ठीक हो जाएगी।

विष्णु सहाय ड्राइवर के साथ चला गया।

"चाय नहीं पी सुबह से।" सोहनलाल बोला--- "गांव जाकर चाय पीना मुसीबत का काम है।"

"मेरे खयाल से चाय के लिए गैस स्टोव का इंतजाम करना चाहिए।" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

"जमींदार के घर से पूछ लो, वहां कुछ तो होगा।" देवराज चौहान ने कहा ।

"ठीक है। मैं...!"

तभी छम छम छम... पायल की आवाज उनके कानों में पड़ी।

सबकी निगाहें गांव जाते रास्ते की तरफ उठीं।

उधर से प्रेमा आ रही थी।

देवराज चौहान देखता रहा उसे ।

"ये वो ही है ना, जिससे तुम सुबह यहां बातें कर रहे। थे।" जगमोहन के होंठों से निकला।

"हां।" देवराज चौहान ने कहा--- "खेतों पर अपने बापू के पास जा रही होगी।"

प्रेमा के हाथ में पुराना सा थर्मस और स्टील का गिलास था। पास आते-आते वो मुस्करा पड़ी।

"बाबू जी नमस्कार! आपने तो यहां तंबू लगा लिए। रात यहीं रहेंगे।" पास आकर वो रुकी।

"हां ।"

"गांव में रह लेते। हमारे घर का आंगन बहुत खुला है। वहां बिस्तरा लगा दूंगी।" प्रेमा ने गांव की तरफ हाथ करके कहा।

"हम यहीं ठीक हैं।"

"मरजी आपकी, मैं तो खेतों पर बापू को चाय देने जा रही थी। तुम पिओगे बाबूजी ?"

"हमें पिला दोगी तो अपने बापू को क्या दोगी ?" सोहनलाल कह उठा।

"बाप को तो चाय पीना पसंद ही कहां है, वो तो मैं ही जबरदस्ती चाय बनाकर शाम को खेतों में पहुंच जाती हूं कि मेरा वक्त भी बीत जाएगा। बापू को भी देख लूंगी। कई बार तो खेतों में बैठकर चाय मैं ही पी जाती हूं।" कहकर वो हंसी--- "लो तुम लोग पिओ।" कहने के साथ ही प्रेमा ने थर्मस खोला और स्टील के गिलास में चाय डालकर देवराज चौहान की तरफ बढ़ाया।

"इन्हें दो ।"

"तुम नहीं पिओगे ?" गिलास जगमोहन को थमाते हुए बोली।

"बाद में।"

प्रेमा ने थर्मस के कप में चाय डालकर सोहनलाल को वो कप थमा दिया।

"तुम्हारे लिए थर्मस में चाय पड़ी है बाबूजी।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया।

तभी वो करीब पहुंचकर धीमे स्वर में बोली।

"बाबूजी, रात को यहां रहने में खतरा है। रानी आ जाएगी--वो नहीं पसंद करती कि आस-पास कोई रहे और उसके आराम में खलल डाले। मार डालेगी वो आपको!"

देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी। कहा कुछ नहीं।

"मेरे को क्या ? समझाना मेरा काम था। कह दिया मैंने।" वो मुंह बनाकर कह उठी।

"कान में क्या कह रही हो?" जगमोहन बोला।

"मेरे से क्या पूछते हो।" प्रेमा ने जगमोहन को देखा--- "इससे पूछो।"

जगमोहन प्रेमा को देखता रहा। चाय उसने पी ली तो प्रेमा ने उसके गिलास में ही चाय डालकर देवराज चौहान को दी और हंसकर कह उठी ।

"यहां पानी तो है नहीं कि गिलास धोकर दूं। इस वक्त तो तुम्हें ऐसे ही चाय पीनी पडेगी। जल्दी करो, मुझे बाप के पास भी खेतों पर जाना है। नहीं तो चिंता करेगा कि आज प्रेमा क्यों नहीं आई। वो तो खेतों से काम छोड़कर गांव पहुंच जाएगा।"

देवराज चौहान ने चाय खत्म करके गिलास उसे थमाया।

उसके बाद प्रेमा तेजी से आगे बढ़ गई।

शाम हो रही थी। सूर्य पश्चिम की तरफ सरकता जा रहा था।

देवराज चौहान टैंट के पास कुर्सी पर बैठा, सामने वाले टीले को देख रहा था। दूर जमीन पर जहां भी नजर जाती, हर तरफ छोटे-बड़े मिट्टी के टीले ही नजर आ रहे थे। अब उन टीलों की चोटियां सूर्य की किरणों में स्पष्ट दिखने लगी थी।

"यहां काम कैसे शुरू करना है ?" जगमोहन ने पूछा।

"कल सुबह करेंगे।" देवराज चौहान ने कहा--- "आज यहां की जगह ठीक से देख लें।"

"मेरे खयाल में हमें कुछ मजदूर बुला लेने चाहिए, जो कि टीलों को बराबर...!"

"इस बारे में बाद में सोचेंगे।" कहने के साथ ही देवराज चौहान उठा और टीलों की तरफ बढ़ गया।

■■■

रुस्तम राव ने मोना चौधरी को ढूंढ निकाला था कि वो होटल ब्लैक बिशप में ठहरी हुई है। इस वक्त शाम के चार बज रहे थे और उसने बांकेलाल राठौर को भी बुला लिया था।

"तन्ने देखो हो इधरो मोन्नो चौधरी को ?"

"हां।" रुस्तम राव का चेहरा गंभीर था ।

बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ के किनारे पहुंचा। उसने होटल की इमारत पर नजर दौड़ाई। वो सड़क पर ही बना था। उसकी चारदीवारी दस फीट ऊंची थी। जिस पर लाल-पीले झंडे लगे लहरा रहे थे। विशाल गेट खुला था। दो वर्दीधारी गेट पर खड़े थे। तीसरा भीतरी तरफ केबिन के बाहर खड़ा था। लोगों का और कारों का आना-जाना जारी था।

"म्हारे को एको बात समझ न आयो हो।"

"क्या बाप ?"

"मोना चौधरी को लोकोनाथो से पता चल गयो कि देवराज चौहान काशीपुर गयो हो या जानो वालो हौवे । तबो ये होटलो में काये को जमो हो?" बांकेलाल राठौर ने सोच भरे स्वर में कहा।

"मोना चौधरी के दिमाग में कोई रगड़ा फंसे होएला।"

"म्हारे को तो कोई- यो न कोई यो गड़बड़ो लगो ही लगो।"

"क्या ?"

"वोई तो अम सोचो हो यो काशीपुरा गांव में ना पौंच के इधर का करो हो।"

रुस्तम राव ने कुछ नहीं कहा।

कई पलों तक दोनों में खामोशी रही।

"अब क्या करेला बाप ?"

"अम तो सोचो कि नजर रखो मोन्नो चौधरी परो। वो इधरो क्यों टिको हो और...!"

"क्यों टाइम वेस्ट करेला...!"

बांकेलाल राठौर ने रुस्तम राव को देखा।

"का मतलबो हो थारो।"

"मोना चौधरी पक्का कोई मुसीबत खड़ी करेला। अपुन तो उसकी गरदन काटने का है बाप।"

"छोरे!" बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ी--- "तम तो नागिन के मूं में उंगली फेरो हो।"

"अपुन ठीक कहेला बाप! मोना चौधरी देवराज चौहान के रास्ते में बार-बार आएला। झगड़ा होईला। अपुन लोगों से भी दुश्मनी करेला। रोज-रोज इन बातों में टाइम खराब होएला।"

दोनों की नजरें मिलीं।

"ठीक है छोरे! अम मोना चौधरी को अभ्भी 'वड' दयो।" बांकेलाल राठौर खतरनाक स्वर में कह उठा।

"बाप, तैश में नई आएला।"

"का मतलबो थारो ?"

"अपुन दोनों ही मोना चौधरी का गरदन काटेला बाप! वो खतरनाक होएला। वो आसानी से हाथों में नई आईला। मछली की भांति फिसेला बाप! पलटवार करेला तो बचना आसान नेई होएला।"

"तम म्हारो साथ चल्लो हो, मोन्नो चौधरी को खत्म करने वास्ते ?"

"हां बाप!"

"चल्लो ! वो होटल में ही हौवो का ?"

"हां बाप! दो घंटा होएला, वो भीतर होएला।"

दोनों की दृढ़ता भरी नजरें मिलीं और वे होटल के प्रवेश गेट की तरफ बढ़ गए। कुछ ही देर में दोनों होटल के रिसेप्शन हॉल में थे। बांकेलाल राठौर पता कर आया था कि वो किस कमरे में है।

"वो पहलो मंजिल पर हौवो। कमरो नंबर सत्रहो पर।"

"चलें बाप!"

"आगे को अम रईयो। तम पीछो...!"

"बाप!" तभी रुस्तम राव का दबा स्वर कानों में पड़ा--- "वो देखेला, उधर...!"

रुस्तम राव की निगाह तब तक उधर पड़ चुकी थी।

महाजन और पारसनाथ थे वो। दोनों ने छोटा एयरबैग अपने-अपने कंधे पर लटका रखा था। वे सीधा रिसेप्शन पर पहुंचे और बात करने लगे।

बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की नजरें मिलीं।

"छोरे, ये तो बचाव हो गयो।"

"कैसे बाप ?"

"अम मोना चौधरी के पास पहुंचो और ऊपरो से यो दोनों आ जातो तो घमासान छिड़ जायो तबो।"

"बाप, अब खतरा बढ़ेला।"

"किधरो से ?"

"मोना चौधरी महाजन और पारसनाथ को इधर बुलाइला । अपुन को लगेला कि वो इन दोनों के साथ काशीपुरो गांव पौंचेला पक्का।"

रुस्तम राव को देखने लगा, बांकेलाल राठौर ।

"गलत कहेला बाप।"

"तम ठीक कहो हो, मामलो गंभीर हो गयो। ईब का थारो इरादो हौवो?" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा।

"अब ईन पर नजर रखेला बाप! अपने को समझना होएला कि इनका इरादा क्या होएला।" रुस्तम राव की आंखों में कठोरता के भाव आ गए--- "देवराज चौहान को पक्का मोना चौधरी मुसीबत में डाएला।"

"अंम देखो कि मोन्नो चौधरी यो कामो कैसो करो हो ?" बांकेलाल राठौर के चेहरे पर खतरनाक भाव नाच उठे--- "अम सबो को, एको-एको को 'वड' दयो।"

■■■

पारसनाथ और महाजन के भीतर आते ही मोना चौधरी ने दरवाजा बंद कर लिया।

"देवराज चौहान कहां है बेबी ?" महाजन ने बैग रखा और कुर्सी पर बैठता कह उठा।

"मालूम नहीं। या तो वो काशीपुर गांव चला गया है या जाने वाला होगा।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा।

पारसनाथ भी बैग रखकर बैठ चुका था।

"पूरी बात बताओ कि मामला क्या है?" पारसनाथ ने अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरकर सपाट स्वर में कहा।

महाजन ने पैंट में फंसी छोटी सी बोतल निकाली और घूंट भरा।

मोना चौधरी ने सारी बात बताई।

सुनकर दोनों के चेहरे कठोर हो गए।

"तो देवराज चौहान ने पुलिस वालों के हाथों से, तुम्हें खत्म करवाना चाहा।" पारसनाथ के होंठों से कठोर स्वर निकला।

"हां।"

"बेबी।" महाजन ने जहरीले स्वर में कहा--- "देवराज चौहान जब तक जिंदा रहेगा। तुम्हारे-हमारे लिए खतरा पैदा करता ही रहेगा। मेरे खयाल में इसका झंझट हमेशा के लिए खत्म ही कर दें तो ज्यादा बढ़िया रहेगा।"

बारी-बारी तीनों की नजरें मिलीं।

फैसला हो गया।

"ठीक है।" मोना चौधरी ने सख्ती से सिर हिलाया--- "काशीपुर को उसके जीवन का अंतिम स्थान बना देते हैं।"

"कौन-कौन है देवराज चौहान के साथ ?" पारसनाथ ने पूछा।

"जगमोहन, सोहनलाल ! शायद बांकेलाल राठौर या रुस्तम राव भी।"

"इस बार देवराज चौहान को खत्म कर देंगे।" पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा।

"वहां...।" महाजन बोला--- "काशीपुर गांव में देवराज चौहान को ढूंढेंगे कैसे?"

"काशीपुर गांव यकीनन छोटी सी जगह है।" मोना चौधरी ने शब्दों को चबाकर कहा--- "हम उन्हें आसानी से ढूंढ लेंगे।"

"जाना कब है ?"

"आज ही शाम तक काशीपुर के लिए चल पड़ते हैं।" मोना चौधरी ने दोनों को देखा।

महाजन ने इनकार में सिर हिलाया।

"हम कल सुबह यहां से चलेंगे। रात में मैं हथियारों का इंतजाम कर लूंगा। रास्ते में चेकिंग न हो, इसलिए खाली हाथ ही हम आए हैं। काशीपुर में जाने कैसे हालातों का हमें सामना करना पड़ जाए।" महाजन का स्वर गंभीर था--- "यहां मेरी पुरानी पहचान वाले हैं, उनसे हथियार लेकर आता हूं।"

मोना चौधरी ने बिना किसी एतराज के सहमति में सिर हिला दिया।

■■■

आधी रात को दो बजे महाजन वापस लौटा।

उसके पीछे बांकेलाल राठौर गया था, जब रात को वो दस बजे होटल से गया था। रुस्तम राव मोना चौधरी और पारसनाथ पर नजर रखने के लिए होटल में ही रहा। वो दोनों बाहर नहीं निकले थे।

"छोरे !" बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव के पास पहुंचकर बोला--- "वो महाजनो तो बोत खतरनाक बदमाश के पास गयो हो।"

"काये को ?"

"मन्ने तो पतो न ही लागे। पर अम सोचो हो कि वो उसो से रिवॉल्वरो वगैहरा लायो हो। जब गयो तो खाली हाथो हौवे आए तो हाथों में पैकिटो पकड़ो हो।" बांकेलाल राठौर ने गंभीर स्वर में कहा।

"ये तैयारी करेला है। काशीपुर जाकर देवराज चौहान से टकराइला ।" रुस्तम राव के होंठों से निकला।

दोनों की नजरें मिलीं।

"बाप, इधर ठीक से नजर रखना मांगता।" रुस्तम राव के होंठ भिंच गए--- "अपुन को कभी भी उनके पीछे काशीपुर चलने का ?"

"अम सबो को वड दयो।" बांकेलाल राठौर के होंठों से दरिंदगी भरी मध्यम सी गुर्राहट निकली।

■■■

देवराज चौहान वो सारी जमीन देखकर तीन-चार घंटे बाद वापस आया। तब रात का अंधेरा फैलने जा रहा था। हवा में कुछ तेजी सी आ गई थी। बदन को कुछ ठण्डक सी लग रही थी। जमींदार के दो नौकर पानी की बाल्टियां और जरूरत का अन्य सामान रख गए थे।

जगमोहन तंबू के बाहर कुर्सी रखे बैठा था। आंखें बंद कर रखी थी। देवराज चौहान के वहां पहुंचने पर उसने आंखें खोलीं, उसे देखा।

"लगता है कहीं दूर निकल गए थे।" जगमोहन ने सीधा होते हुए कहा ।

"हाँ, सारी जमीन देखी। जहां-जहां टीले हैं।" देवराज चौहान ने कहा और बाल्टी में से पानी का मग निकालकर हाथ-मुंह धोया, फिर रूमाल से साफ करता हुआ कुर्सी पर आ बैठा।

"जमींदार का नौकर कह रहा था कि रात को खाना खाने आ जाएं।" जगमोहन बोला--- "लेकिन मैंने मना कर दिया कि खाना यहीं पहुंचा दे। हम नहीं आ सकेंगे।"

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली ।

"कोई नई बात ?" देवराज चौहान ने उसे देखा।

"कैसी नई बात ?" जगमोहन ने देवराज चौहान पर नजर मारी।

"मेरे पीछे से, कुछ खास तो नहीं हुआ ?"

"क्या कुछ होना था ?" जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं।

"नहीं, यूं ही पूछ रहा था।" गहरी सांस ली देवराज चौहान ने फिर कश लिया।

"तुमने आज का दिन क्यों खराब किया। हम आज भी काम शुरू कर सकते थे।" जगमोहन बोला।

देवराज चौहान ने कुर्सी पर बैठे-बैठे दूर तक देखा। अंधेरा घिरना शुरू हो गया था।

"मैं यहां की चीजों को पहले देख लेना चाहता था कि आसपास क्या है?" देवराज चौहान ने कहा।

जगमोहन, देवराज चौहान को देखता रहा।

तभी तंबू के भीतर से सोहनलाल कुर्सी उठाए निकला और उनके पास ही बैठता हुआ बोला।

"मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा कि तुम इन मिट्टी के टीलों को बराबर करने के लिए मजदूरों का इंतजाम क्यों नहीं कर रहे, खुद ही क्यों काम करने को कह रहे हो। हमें ये काम करने में परेशानी होगी।"

"बाहरी लोगों को यहां काम पर लगाना ठीक नहीं।" देवराज चौहान ने दोनों को देखा।

दोनों की निगाह देवराज चौहान के गंभीर चेहरे पर जा टिकी।

"हम समझे नहीं कि तुम कहना क्या चाहते हो?" सोहनलाल के होंठों से निकला।

देवराज चौहान ने कश लिया और कुछ पलों की सोचों के बाद कहा।

"विष्णु सहाय की इस जगह पर हमारे पूर्वजन्म की छाया है ।"

जगमोहन और सोहनलाल चिहुंक उठे।

"क्या मतलब ?" जगमोहन चौंका।

"ये जगह तुम्हारे पूर्वजन्म से संबंध रखती है ?" सोहनलाल की आंखें सिकुड़ीं।

"मैं यकीन से कुछ नहीं कह सकता। मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं।" देवराज चौहान ने मुस्कराकर बारी-बारी दोनों को देखा--- "मैं वही जानता हूं, जो मुझे रानी की आवाज ने बताया था।"

"रानी ?" जगमोहन ने उलझन भरी निगाहों से सोहनलाल को देखा--- "कौन है ये?"

"मुझे क्या पता?" सोहनलाल के होंठों से निकला।

देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीर मुस्कान थी।

सोहनलाल और जगमोहन उसे देखने लगे थे।

"तुम कहना क्या चाहते हो ?" जगमोहन कह उठा--- "तुम्हारी बातें हमारी समझ में जरा भी नहीं आ रहीं।"

कुछ पलों की खामोशी के बाद देवराज चौहान उन्हें रानी की आवाज से हुई मुलाकात और प्रेमा ने जो रानी के बारे में बताया था, वो सब जगमोहन और सोहनलाल को बताया ।

दोनों ठगे से देवराज चौहान की बातों को सुनते रहे।

देवराज चौहान के चुप होते ही सोहनलाल के होंठों से गंभीर स्वर निकला।

"अगर तुम्हारी बात सच है तो हम किसी बड़ी मुसीबत में फंसने जा रहे हैं।"

जगमोहन के होंठ भिंच गए।

"कैसी मुसीबत ?" देवराज चौहान ने उसे देखा।

"ये तुम्हारे पूर्वजन्मों की कोई जगह हो सकती है। अगर हम रानी की बात को सच मानें तो यानी कि मेरे और जगमोहन के पूर्वजन्मों का भी संबंध यहां से हो सकता है।" सोहनलाल कहता जा रहा था--- "जैसा कि पहले हो चुका है। (पहले के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित उपन्यास- 1. जीत का ताज, 2. ताज के दावेदार, 3. कौन लेगा ताज, 4. पहली चोट, 5. दूसरी चोट, 6. तीसरी चोट, 7. महामाया की माया)--- अगर ये मामला भी पूर्वजन्मों से संबंध रखता हुआ तो अवश्य हम परेशानियों में फंसने जा रहे हैं।"

जगमोहन गरदन घुमाकर उधर देख रहा था, जहां से रानी ने खुदाई करने को कहा था। एकाएक वो उठा और आगे बढ़ता हुआ वहां जा पहुंचा, जहां से देवराज चौहान ने दोनों हाथों से मिट्टी उठाकर रानी के कहने पर निशान लगाया था कि खुदाई यहां से करनी है।

सोहनलाल उसके पीछे ही वहां आ पहुंचा था।

दोनों की नजरें मिलीं।

"तुम्हारा क्या खयाल है।" सोहनलाल जमीन को देखता उठा--- "क्या इसके नीचे कुछ होगा ?"

"पता नहीं।" जगमोहन की आवाज में गंभीरता थी।

अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था।

"रानी की आवाज ने देवराज चौहान को ये जगह खोदने को कहा है तो कुछ तो नीचे होगा ही।"

जगमोहन ने सोहनलाल की बात का जवाब नहीं दिया।

दोनों ही उत्सुकता भरी, उलझन भरी नजरों से जमीन को देखे जा रहे थे !

"ये वायुलाल कौन हो सकता है ? जिसने रानी को कील दिया है।" जगमोहन बड़बड़ा उठा--- "और वो जाने कब से यहीं बंधी पड़ी है।"

"ये बातें शायद हम आने वाले वक्त में जान सकें।" सोहनलाल का स्वर गंभीर था।

"मैं ये सोच रहा हूं कि इस जमीन के नीचे क्या हो सकता है जो...!"

"क्या पागलों की तरह बार-बार एक ही सवाल किए जा...!"

जगमोहन उसी पल पलटा और देवराज चौहान की तरफ बढ़ता हुआ बोला।

"हम क्या आज रात खुदाई नहीं कर सकते ?"

देवराज चौहान ने उसे देखा और कश लेकर सिग्रेट एक तरफ उछालता हुआ कह उठा।

"अंधेरे में काम ठीक से नहीं हो सकता। कल सुबह इस काम को शुरू करेंगे।"

"ये भी तो हो सकता है कि जमीन के नीचे कुछ न हो और हम यूं ही वक्त बरबाद कर रहे हों।"

देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी।

"देखते हैं।"

"अगर...।" सोहनलाल उनकी तरफ बढ़ता हुआ बोला--- "काम सुबह शुरू करना था तो रात हम जमींदार के यहां ही नींद ले लेते। इन टैंटों में रात बिताने की क्या जरूरत है?"

"मैं इस जगह के करीब रहना चाहता हूं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

"इसलिए कि रानी की आवाज से तुम्हारी बातें हो सके।" जगमोहन के होंठों से निकला।

"कह नहीं सकता क्या वजह है?" देवराज चौहान की गंभीर आवाज धीमी हो गई--- "इस जगह से दूर जाने का मन नहीं कर रहा।"

जगमोहन कुर्सी पर आ बैठा ।

सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाई और कश लेते हुए अंधेरे में नजरें दौड़ाने लगा। कुछ दूर गांव में रोशन बल्ब जगमगा रहे थे। सन्नाटा और चुप्पी अपने पांव पसारती जा रही। थी।

तब साढ़े आठ बज रहे थे, जब उनके कानों में पायल की छम-छम की आवाज पड़ी। सोहनलाल और जगमोहन कुर्सियों पर बैठे थे। देवराज चौहान सोचों में डूबा पास ही चहल-कदमी कर रहा था।

"ये लड़की इतने अंधेरे में कहां घूम रही है।" सोहनलाल सीधा होकर बैठते हुए कह उठा ।

जगमोहन और देवराज चौहान ने भी उस तरफ देखा ।

गांव की तरफ से आते कच्चे रास्ते पर चलती वो आ रही थी। चंद्रमा की मध्यम रोशनी में उसकी काया हिलती स्पष्ट नजर आ रही थी। देखते ही देखते वो पास आ पहुंची थी।

"नमस्कार बाबूजी।" अपनी सांसों को ठीक करते हुए, हाथ में पकड़े थैले को देवराज चौहान की तरफ बढ़ाकर बोली--- "ये लो खाना। मैं खेतों पर जा रही थी ट्यूबवेल बंद करने तो जमींदार कहने लगा कि इधर मेरे मेहमान हैं, उन्हें खाना भी दे देना। थैले में बरतनों में बंद है खाना। गरम-गरम है, खा लीजिए ठण्डा हो जाएगा। मैं तो चली ट्यूबवेल बंद करने।" उसने थैला देवराज चौहान को थमाया और छम-छम करती वो आगे बढ़ गई।

"अंधेरा है।" जगमोहन ऊंचे स्वर में बोला--- "मैं तुम्हारे साथ चलता हूं।"

"रहने दो बाबूजी।" आगे बढ़ती हुई प्रेमा ने ऊंचे स्वर में कहा--- "मेरा तो रोज का काम है। आप कहां तक मेरे साथ चलोगे।"

प्रेमा की छम-छम कानों में पड़नी बंद हो गई।

"ये लड़की मेरी समझ से बाहर है। हर समय अकेले ही घूमती रहती है।" सोहनलाल गहरी सांस लेकर बोला।

उसके बाद तीनों खाना खाने लगे।

खाना वास्तव में स्वादिष्ट था।

करीब एक घंटे बाद प्रेमा वापस लौटी। छम-छम की आवाज से उसके आने का पहले ही एहसास हो गया था।

"बहुत देर से वापस आई ?" जगमोहन बोला।

"क्या करूं? खेत में मिट्टी टूट गई थी। एक जगह का पानी दूसरी जगह जा रहा था। अब क्या बापू को बुलाकर लाती। वो तो दिन भर का थका-हारा है। सो मैंने ही वो मिट्टी ठीक कर दी। गीली मिट्टी थी, कठिनता से काबू में आई।" प्रेमा ने हाथ नचाकर कहा, फिर कुर्सी के पास पड़े थैले को देखकर बोली--- "अरे, अभी तक खाना नहीं खाया। बरतन भीतर ही...!"

"खाली है, ले जाओ।" देवराज चौहान कह उठा।

प्रेमा ने सिर हिलाया और आगे बढ़कर बरतनों वाला थैला उठा लिया, फिर पास आकर बोली।

"बाबूजी, रात को यहाँ नींद लोगे ?"

देवराज चौहान ने सहमति में सिर हिला दिया।

"आज भी चांदनी रात है। देख लो, आसमान में चंद्रमा खिल रहा है।" प्रेमा धीमे स्वर में कह उठी--- "ऐसी रातों में वो अवश्य घूमने निकलती है। उसे अच्छा नहीं लगेगा कि उसकी जगह के आस-पास दूसरे लोग रहें।"

"हम यहाँ रहेंगे।"

"सोच लो बाबूजी। चाहो तो मेरे घर पर...!"

"नहीं।"

"ठीक है।" प्रेमा ने कंधे उचकाए--- "सुबह चाय तो ले आऊं?"

"ले आना।" जगमोहन ने कहा।

"मैंने तुमसे नहीं पूछा। इन बाबूजी से पूछा है।" प्रेमा ने मुंह बनाकर उसे देखा।

"इन बाबूजी ने मुझे पहले ही कह दिया था कि प्रेमा चाय लाने को कहे तो मैं हां कह दूं।"

प्रेमा ने जगमोहन को देखते हुए मुंह बनाया और पलटते हुए कह उठी।

"मैं तो चली बाबूजी! इनसे कह देना कि जरा-जरा सी बात के लिए मेरे मुंह न लगें।"

छम-छम-छम-छम-।

प्रेमा के पायल की आवाज गूंजने लगी। वो दूर होती जा रही थी।

"अजीब लड़की है।" सोहनलाल गहरी सांस लेकर बड़बड़ा उठा।

आधा घंटा ही बीता होगा कि उनके पास जमींदार एक आदमी के साथ पहुंचा। उस आदमी ने खाने का बड़ा सा टीफिन थाम रखा था। तब तक सोहनलाल और जगमोहन तंबू में बिछे फोल्डिंग पर जा लेटे थे। जबकि देवराज चौहान उस जमीन का चक्कर लगाकर अभी-अभी लौटा था।

उनके आने पर सोहनलाल और जगमोहन बाहर आए।

"क्या बात है बाबूजी।" जमींदार हाथ जोड़कर बोला--- "खाने पर नहीं पहुंचे ?"

"खाने पर ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

देवराज चौहान की निगाह भी जमींदार पर जा टिकी।

"खाने का नाम आते ही आप हैरान क्यों हो गए ?" जमींदार बोला--- "अब साथ लेकर आए हैं। आप लोग खा लीजिए।"

सोहनलाल और जगमोहन की नजरें मिलीं फिर उन्होंने देवराज चौहान को देखा।

"खाना अभी तुमने भेजा था।" देवराज चौहान बोला--- "प्रेमा लाई थी।"

"प्रेमा!" जमींदार अजीब से स्वर में बोला--- "कौन प्रेमा ?"

"तुम्हारे गांव में रहने वाली युवती का नाम है। उस तरफ, आगे जाकर उसके बापू के खेत हैं।" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।

अंधेरे में वे सब चंद्रमा की रोशनी में एक-दूसरे को स्पष्ट देख पा रहे थे।

"बाबूजी, आप तो बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं! उधर कोई खेत नहीं है। खाली जगह है। ये रास्ता चार किलोमीटर दूर दूसरे गांव से जा लगता है। प्रेमा नाम की कोई भी युवती हमारे गांव में नहीं रहती। मैंने तो किसी के हाथ खाना भेजा ही नहीं। अभी-अभी खाना तैयार हुआ है। सेठजी कहने लगे कि पहले आप लोगों को दे आऊं, फिर वे खाएंगे।"

उन तीनों की नजरें बारी-बारी एक-दूसरे को देखने लगीं।

“तुम्हें धोखा हुआ है।" सोहनलाल के होंठों से निकला--- "प्रेमा ने कहा था कि तुमने खाना भिजवाया था।"

"झूठ कहा था। मैं नहीं जानता वो कौन है ? किसी ने आपके साथ मजाक किया होगा।"

"हमारे साथ कोई मजाक नहीं करेगा। यहां हम किसी को नहीं जानते।" जगमोहन ने सख्त स्वर में कहा।

देवराज चौहान माथे पर बल पड़े हुए थे।

"मैंने तो किसी को नहीं भेजा। खाना तो मैं खुद लेकर आया साबजी।"

जमींदार की आवाज में विश्वास भरा था। वो झूठा नहीं लग रहा था।

"तो फिर वो कौन थी जो खाना लेकर आई थी ?" सोहनलाल कह उठा--- "अपने को प्रेमा कह रही थी!"

"गांव में तो इस नाम की लड़की कोई नहीं रहती।"

देवराज चौहान के होंठ अजीब से ढंग से सिकुड़े पड़े थे। उसने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।

वे खाना खा चुके हैं। ये जानकर जमींदार खाने के साथ वापस चला गया।

"वो कौन थी ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"जमींदार झूठ नहीं बोलेगा कि उसने हमें खाना नहीं भिजवाया।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला--- “और प्रेमा नाम की लड़की गांव में नहीं रहती।"

"यही तो हम सोच रहे हैं कि खाना जमींदार ने नहीं भिजवाया और वो बोली थी कि जमींदार ने भेजा है।"

"मेरे खयाल में, खाना वो अपने घर से बनाकर लाई होगी।" जगमोहन कह उठा--- "वो हमें अपने घर से बनाकर खाना खिलाना चाहती होगी। लेकिन किस तरह कहती। हमारे लिए तो वो अनजान थी, इसलिए उसने जमींदार का नाम ले लिया।"

"जमींदार का कहना है कि प्रेमा नाम की लड़की गांव में नहीं...!"

"इस बारे में जमींदार से गलती हुई होगी कि...!" जगमोहन कहते-कहते ठिठका--- "लेकिन जमींदार ये भी कह रहा था कि आगे खेत नहीं है। ये रास्ता चार किलोमीटर आगे दूसरे गांव से जा लगता है।"

जगमोहन और सोहनलाल परेशान से एक-दूसरे को देखने लगे।

देवराज चौहान ने कश लिया और कह उठा।

"हमने प्रेमा को तो इस तरफ जाते देखा कि वो खेत में अपने बापू के पास जा रही है लेकिन उसके बापू को आते कभी नहीं देखा।"

दोनों देवराज चौहान को देखने लगे।

"इसका मतलब?" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा--- "प्रेमा हमसे हर बात झूठ बोल रही थी।"

"लेकिन क्यों ?"

इसका जवाब किसी के पास नहीं था।

"आखिर कौन है प्रेमा ?" सोहनलाल उलझन भरे स्वर में कह उठा।

वे अंधेरे में खड़े एक-दूसरे को देखते रहे।

■■■

रात का जाने कौन-सा वक्त बीत रहा था कि मध्यम सी आहटों की वजह से देवराज चौहान की आंख खुली। उसने कलाई पर बंधी रेडियम वाले डायल पर निगाह मारी तो रात के दो बजते देखे।

आहट पुनः कानों में पड़ी।

देवराज चौहान के माथे पर बल उभरे। वो फुर्ती से उठा और टैंट का परदा जरा सा हटाकर बाहर देखा। कोई न दिखा। परंतु आवाजें रुक-रुककर कानों में पड़ रही थीं।

देवराज चौहान सावधानी से बाहर निकला।

अंधेरे में घूमती उसकी निगाह मिट्टी के टीले के नीचे जा रुकी। वहां अंधेरे में दो आकृतियां नजर आ रही थीं। दूसरे ही पल उसे महसूस हो गया कि वो जगमोहन और सोहनलाल हैं। वो उस तरफ बढ़ा।

"क्या हो रहा है?" पास पहुंचते हुए देवराज चौहान ने पूछा।

दोनों पलटे और देवराज चौहान को देखने लगे।

देवराज चौहान पास पहुंच गया। उसकी निगाह जमीन पर पड़ी तो गहरी सांस लेकर रह गया। वे दोनों उस जगह को कुदाल और फावड़े से खोद रहे थे, जहां उसने हाथों से निशान लगाया था। पास ही फावड़ा और कुदाल रखे थे। वहां पर करीब छ: फीट गहरा और लगभग इतना ही चौड़ा गड्ढा हो चुका था।

सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगा ली।

देवराज चौहान ने वहां से नजरें हटाकर उन्हें देखा।

"मैंने कहा था कि सुबह खुदाई शुरू करेंगे।" देवराज चौहान का स्वर सपाट था।

"मैं खुद को रोक नहीं पाया।" जगमोहन ने कहा--- "मन उत्सुकता थी कि देखूं, जमीन के नीचे क्या है ?"

देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।

"मु-झे...!" सोहनलाल सकपकाकर नजरें चुराता हुआ बोला--- "ये जबरदस्ती ले आया था। मैंने तो मना किया कि सुबह... !"

"तूने खुद ही कहा था कि साथ चलता हूँ। नींद नहीं आ रही।" जगमोहन कह उठा।

सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।

"इस तरह से सब करने से तुम लोगों को कोई अनजाना खतरा भी घेर सकता है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

जगमोहन और सोहनलाल जानते थे कि देवराज चौहान ठीक कह रहा है।

देवराज चौहान ने आसपास देखा। हर तरफ अंधेरा था। चंद्रमा बादलों की ओट में था। उसकी रोशनी जमीन पर पर्याप्त नहीं आ रही थी।

"रात बहुत हो गई है।" देवराज चौहान ने कहा ।

"कुछ देर और थोड़ी सी खुदाई कर लेते हैं।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और पलटकर अपने टैंट की तरफ बढ़ गया।

अंधेरे में सोहनलाल और जगमोहन की नजरें मिलीं।

"अब तू खुदाई कर।" जगमोहन गहरी सांस लेकर कह उठा--- "मुझे थकान होने लगी है।"

सोहनलाल ने फावड़ा उठाया और खुदाई आगे बढ़ा दी।

फावड़े और कुदाल की मध्यम सी आवाजें अंधेरे से भरे वातावरण में पुनः गूंजने लगी।

■■■

सुबह देवराज चौहान की आंख खुली। बाहर फैली दिन के उजाले की रोशनी का आभास स्पष्ट हो रहा था। तभी उसके कानों में छम-छम पायल की आवाज पड़ने लगी।

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।

आवाज दूर थी। पास आती जा रही थी।

देवराज चौहान उठा और टैंट से बाहर निकला। अगले ही पल ठिठक गया।

सामने से प्रेमा आ रही थी। एक हाथ में कल वाला थर्मस उठा रखा था। पीले रंग का चोली-घाघरा पहन रखा था। बाल संवार रखे थे। वो खूबसूरत लग रही थी। देवराज चौहान को देखते ही वो खुलकर मुस्करा पड़ी।

देवराज चौहान उसे देखे जा रहा था।

वो पास आई और खिलखिलाकर बोली।

"रात जमींदार भी खाना लेकर आया था। मैंने देखा था उसे इस तरफ आते।"

"कौन हो तुम?" देवराज चौहान गंभीर था।

"प्रेमा।" उसने सरल स्वर में कहा।

"रात तुमने खाना दिया—ये कहकर कि जमींदार ने भेजा है।" देवराज चौहान ने उसकी आंखों में देखा।

"बाबूजी, आप तो बेकार के सवाल करने लगे। खाना जमींदार दे या मैं दूं, क्या फर्क पड़ता है ? मेरे खाने में जहर तो नहीं था। माना कि आप लोग जमींदार के यहां मेहमान हैं लेकिन खाना कहीं से भी खा लिया, क्या फर्क पड़ता है।"

कुछ पलों तक देवराज चौहान उसे देखता रहा, फिर बोला।

"उधर तुम्हारे बापू के खेत पड़ते हैं।"

"समझ गई।" प्रेमा हंसी--- "जमींदार ने बता दिया होगा कि उधर कोई भी खेत नहीं है।"

"ठीक कहा।" देवराज चौहान ने शब्दों पर जोर दिया--- "तुमने झूठ कहकर खाना दिया। ये भी झूठ बोला कि उधर खेत हैं। बापू के लिए उधर जाती हो। क्या चाहती हो तुम ?"

प्रेमा ने गहरी सांस ली। वो एकाएक गंभीर दिखी।

"ये सुनकर कि प्रेमा ने झूठ बोला है, गुस्सा तो आया होगा लेकिन इसके पीछे मेरी नीयत बुरी नहीं थी।"

देवराज चौहान उसे देखता रहा।

"बाबूजी, मेरा बापू, मेरे ब्याह के लिए लड़का देख रहा है। एक पसंद भी कर लिया है। दूसरे गांव का है। गांव के बाहर ही, सड़क किनारे साइकिलों के पंचर लगाता है।" प्रेमा ने लंबी सांस ली।

देवराज चौहान की नजरें प्रेमा पर ही थीं।

"लेकिन मैं तो शहर के लड़के से ब्याह करना चाहती हूं।" प्रेमा ने दुखी स्वर में कहा।

"शहर के लड़के से ?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"हां, मैंने टेलीविजन पर बहुत फिल्में देखी हैं। उसमें शहर देखा है। आह ! कितना सुंदर होता है शहर । मैं वहां रहना तुम चाहती हूं। वहां रहकर फिल्मों वाले कपड़े पहनना चाहती हूं।" प्रेमा के चेहरे पर प्रसन्नता उभरी--- "इसलिए मैं तुम लोगों के करीब आ रही थी। झूठ बोला, खाना दिया, चाय पिलाई, दो-तीन चक्कर काटे--वो क्या है कि एक फिल्म में सुंदर सा हीरो गांव आता है तो गांव की लड़की उसके साथ ऐसा ही करती है। मैंने भी कर दिया। फिल्म में तो वो लड़का उसे ब्याहकर शहर ले जाता है। वहां वो बहुत बड़ी गायिका बन जाती है।"

देवराज चौहान ने उस पर से नजरें हटाई और सिग्रेट सुलगा ली।

"बाबूजी, तुम मेरे से ब्याह करके मुझे शहर ले चलो। मैं खुश हो जाऊंगी।"

"मेरे से ऐसी बातें मत करो।"

"ठीक है, नहीं करती। मेरी शादी अपने दोस्त से करा दो। इसी वास्ते तो मैं तुम लोगों के पास आती हूं बार-बार। सोचा था तुममें से कोई मेरे से ब्याह करेगा और मुझे शहर ले चलेगा। ये देखो, अब मैं सबके लिए भरकर चाय लाई हूं।"

देवराज चौहान के चेहरे पर शांत मुस्कान उभरी।

"जो दो लोग मेरे साथ हैं। ये बात उनसे पूछ लेना।" देवराज चौहान ने कश लिया।

"वो... वो मेरे से शादी कर लेंगे ?"

"मालूम नहीं। अपनी बात का जवाब वे ही देंगे।"

"वो किधर हैं ?"

"उस टैंट में होंगे।"

"लो बाबू तुम चाय पिओ।" कहते हुए प्रेमा ने थर्मस थमाया--- "मैं उनसे बात करके आती हूं।"

उसे थर्मस थमाकर प्रेमा दूसरे टैंट की तरफ बढ़ी।

देवराज चौहान ने टीले की तरफ नजर मारी, जहां खुदाई हुई स्पष्ट नजर आ रही थी। खुदी मिट्टी का ढेर एक तरफ पड़ा दिखा। देवराज चौहान ने थर्मस के कप में चाय डाली। बाकी का थर्मस नीचे रखा और घूंट भरता उस तरफ बढ़ गया। अभी चंद कदम ही चला होगा कि छम-छम-छम की आवाज उसके कानों में पड़ी।

"बाबूजी!" पीछे से प्रेमा दौड़ती हुई आई--- "वो दोनों तो गहरी नींद में हैं।"

देवराज चौहान समझ गया कि जगमोहन-सोहनलाल देर रात तक जमीन खोदने में लगे रहे होंगे।

प्रेमा पास पहुंचकर गहरी-गहरी सांसें लेते कह उठी।

"वो उठेंगे तो उनसे बात कर लूंगी। दोनों में से एक का तो मेरे से ब्याह हो जाएगा। देखने में मैं सुंदर हूं ना बाबूजी ?"

देवराज चौहान चाय के घूंट भरते आगे बढ़ रहा था। प्रेमा की बात का जवाब न दिया।

प्रेमा की निगाह आगे पड़ी तो उसके होंठों से निकला।

"ओह! आपने तो जमीन खोद दी। रानी ने कुछ नहीं कहा।"

देवराज चौहान खुदाई में निकले मिट्टी के ढेर के पास जा पहुंचा था।

प्रेमा भी हड़बड़ाई सी ये सब देख रही थी। चेहरे पर अजीब से भाव थे।

"रानी तो बहुत गुस्सा करती है कि उसकी जमीन पर कोई छेड़छाड़...!"

देवराज चौहान प्रेमा की बात न सुनकर वहां पड़े सामान को देख रहा था। कुदाल फावड़ा के अलावा मोटा लंबा रस्सा भी वहां गोल-गोल हुआ पड़ा दिखा। देवराज चौहान ने सिर आगे करके खुदे गड्ढे में देखा। वो दस फीट गहरा और करीब आठ फीट चौड़ा था।

प्रेमा ने एक बार भी गड्ढे में देखने की कोशिश नहीं की।

"तुम सुन रहे हो मुझे कि नहीं।" प्रेमा ने टोका।

"क्या कहा तुमने ?" देवराज चौहान ने प्रेमा को देखा।

"जब तुम जमीन खोदने लगे तो रानी ने आकर तुम्हें रोका नहीं।"

"मैं नींद में था। ये काम मेरे साथियों ने किया। वो इस वक्त टैंट में सो रहे हैं तो ठीक ही हैं वो...!"

"कमाल है! रानी तो उसे छोड़ती नहीं, जो उसकी जमीन को खराब करे। मुझे क्या ? तुम बाकी की चाय भी पी लो। मैं थर्मस ले जाती हूं।"

देवराज चौहान ने थर्मस के कप को खाली किया।

"मैंने चाय पी ली है। मेरे साथी सोए पड़े हैं। तुम थर्मस ले जाओ। बाकी चाय की जरूरत नहीं।"

प्रेमा ने थर्मस का कप थाम लिया।

देवराज चौहान की निगाह गड्ढे के भीतर और आसपास थी।

"बाबूजी, दोपहर का खाना मैं ही लाऊंगी। तुम उस जमींदार को मत कह देना लाने को।"

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

"और तुम जरा उन दोनों से मेरी सिफारिश कर देना। बोलना प्रेमा बहुत अच्छी है, खूबसूरत है। मतलब कि ऐसी-ऐसी बातें कहना कि उनमें से मेरे से कोई शादी कर ले। मुझे शहर ले जाए।"

"शादी-ब्याह करवाने का काम मैं नहीं करता।"

"ये क्या कहते हो बाबूजी! तुमको खाना खिला रही हूँ, चाय पिला रही हूं---तुम मेरी सिफारिश भी नहीं कर सकते!" प्रेमा ने प्यार से शिकायती लहजे में कहा।

देवराज चौहान सोच रहा था कि गड्ढे के पास पड़े रस्से का क्या काम ? लेकिन जल्द ही समझ गया कि रस्सा गड्ढे से बाहर आने के लिए, बाहर वाला भीतर लटकाता होगा। मिट्टी को बाहर निकालने का काम भी परेशानी भरा था, दस फीट नीचे से। देवराज चौहान तय कर रहा था कि गड्ढे के ऊपरी किनारे से नीचे जाने के लिए पैदल रास्ता होना जरूरी था। ऐसे में खुदाई भी तेज होती और मिट्टी भी आसानी से बाहर निकाली जा सकती थी।

"मैं जाऊं बाबूजी ?"

"हां।" नीचे देखते हुए देवराज चौहान ने कहा।

"दोपहर का खाना लाऊंगी।"

"ले आना।"

प्रेमा छम-छम करती वहां से चली गई।

देवराज चौहान इस वक्त एक ही उलझन में था कि गड्ढे को कितना गहरा खोदना है। रानी की आवाज ने उसे ये तो बता दिया था कि यहां से खुदाई करो लेकिन ये नहीं बताया था कि खुदाई कितनी गहरी करनी है। ये भी नहीं बताया था कि खुदाई करके होगा क्या ?

देवराज चौहान नहा-धो चुका था। दिन के नौ बज रहे थे। सूर्य निकला अवश्य था, परंतु उसकी धूप मध्यम थी। वो गड्ढे के किनारे खड़ा था कि पीछे से आवाजें सुनकर गरदन घमाई तो विष्णु सहाय और जमींदार के साथ नौकर को आते देखा। नौकर ने टीफिन उठा रखा था।

वे सीधा उसके पास पहुंचे।

"रात कैसी बीती देवराज चौहान ?" विष्णु सहाय मुस्कराकर कह उठा।

"अच्छी।"

"नाश्ता कर लो। तुम्हारे दोनों आदमी कहां...!"

"नींद में हैं, रात भर जागते रहे।"

"काम शुरू कर दिया।" विष्णु सहाय ने गड्ढे में देखा--- "खुद ही कर रहे हो। मजदूरों को नहीं...!" कहते-कहते विष्णु सहाय ठिठका फिर उलझन भरे स्वर में बोला--- "ये क्या कर रहे हो ?"

"तुम्हारे सामने है।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।

"मैंने तो तुम्हें कहा था कि इस जमीन पर नजर आने वाले असंख्य टीलों को तोड़कर समतल करना है। लेकिन ये तो गड्ढा खोद रहे हो। ऐसा क्यों कर रहे हो। करने की क्या जरूरत...!"

"मेरा अपना काम करने का ढंग है।" देवराज चौहान मुस्कराया।

"काम करने का ढंग। ये क्या ढंग हुआ कि जमीन बराबर करनी हो तो गड्ढा खोदने लग जाओ।"

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई।

"पहले जिन लोगों ने इस जमीन पर काम करने की कोशिश की, उन्होंने गड्ढा नहीं खोदा। वो इसलिए जिन्दा न रहे।" देवराज चौहान ने लापरवाही से टालने वाले स्वर में कहा।

"ये क्या हुआ ?" विष्णु सहाय अचकचाकर बोला।

तभी जमींदार कह उठा।

"बाबू साहब को समझ हौवे की ये जमीन ठीक नहीं है। इसलिए किसी से पूछकर काम कर रहे हैं कि काम की शुरुआत पहले इस तरह करो तो बुरे असर से बचा जा सकता है।"

देवराज चौहान ने कश लिया।

"ऐसा भी होता है?" विष्णु सहाय ने जमींदार को देखा।

"मैंने तो सुना है कि ऐसा भी होता...!"

"तुम...!" देवराज चौहान ने नौकर से कहा--- "मेरे साथ चलो। नाश्ता निकालो।"

देवराज चौहान नौकर के साथ टैंट की तरफ बढ़ गया।

"जमीन खोदना तो मेरी समझ से बाहर है।" विष्णु सहाय ने धीमे स्वर में कहा।

"सेठ जी आप चुप रहिए।"

"क्यों ?"

"वो जानता है कि उसे जमीन बराबर करनी है, खोदनी नहीं। ऐसे में वो खोद रहा है तो सोच-समझकर ही कर रहा होगा। वो बेवकूफ तो है नहीं कि मेहनत और वक्त बरबाद करे।" जमींदार समझाने वाले स्वर में कह उठा था--- "आप अपने काम को देखिए। उसे करने दीजिए। आज आप शहर जाने को कह रहे थे।"

"हां, वहां भी बहुत काम पड़ा है। वापस लौटना है।"

"ठीक कहते हो। ये काम देवराज चौहान करता रहेगा। कुछ तो करेगा काम। चलो, देवराज चौहान को बोल दूं कि मैं वापस जा रहा हूं। वो नाश्ता करता रहे। तुम इनका ध्यान रखना---ये...!"

"आप फिक्र न करो सेठ जी। फूलों की तरह रखूंगा इन्हें ।"

देवराज चौहान से मिलकर विष्णु सहाय चला गया। जाते-जाते कह गया कि कुछ दिन बाद आएगा।

शाम के चार बज रहे थे।

सूर्य सुबह से ही आधा-आधा निकला था और इस वक्त बादलों में जा छिपा था।

देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल की हालत इस वक्त बुरी हो रही थी। गड्ढे की साइड से उन्होंने मिट्टी इस तरह काट दी थी कि ढलान बन गई थी। अब आसानी से नीचे उतरा जा सकता था। देवराज चौहान जमीन खोदे जा रहा था। गड्ढा गहरा किए जा रहा था और सोहनलाल, जगमोहन मिट्टी को बाहर निकाल रहे थे। इस वक्त तीनों मिट्टी में सने हुए थे ।

कई घंटों से उनका काम बिना रुके चल रहा था। गड्ढा काफी गहरा हो चुका था, इतना कि नीचे अंधेरा सा हो रहा था। खुदाई में देवराज चौहान को रोशनी की जरूरत पड़ने लगी थी।

तभी छम-छम-छम पायल की आवाज उनके कानों में पड़ी।

देवराज चौहान उन्हें बता चुका था कि प्रेमा आई थी और उससे क्या बात हुई। सोहनलाल और जगमोहन ने सुबह से ही कुछ खाया नहीं था। वे ग्यारह बजे नींद से उठे थे। तब देवराज चौहान अकेला ही काम कर रहा था। जल्दी ही वे दोनों साथ लग गए थे काम में।

'ठक'

देवराज चौहान की कुदाल किसी चीज से टकराकर रुक गई। कुदाल के साथ देवराज चौहान के दोनों हाथों को तीव्र झटका लगा। वो समझ गया कि नीचे कोई ठोस चीज से कुदाल टकराई है।

जगमोहन और सोहनलाल अपना काम छोड़कर देवराज चौहान को देखने लगे।

"क्या हुआ?" ऊपर खड़े सोहनलाल ने पूछा।

"नीचे कोई मजबूत चीज है।" देवराज चौहान ने कहा और पुनः कुदाल उठाकर जमीन पर मारी ।

इस बार किसी चीज से कुदाल नहीं टकराई।

देवराज चौहान ने पुनः कुदाल नीचे मारी तो वो पहले की तरह किसी चीज से टकराकर तेज आवाज के साथ रुक गई। देवराज चौहान ने कुदाल छोड़ी और सीधा खड़े होते हुए कमीज से हाथ साफ करने लगा।

"नीचे पत्थर होगा।" जगमोहन ने कहा।

"शायद।" तभी पायल की छम-छम उनके पास आ पहुंची।

"नमस्कार बाबूजी! माफ करना देर हो गई। भूख तो सबको लग रही होगी लेकिन मैं भी क्या करती। चूल्हे के लिए लकड़ियां खत्म हो गई थीं। कल ध्यान नहीं रहा कि लकड़ियां ले आऊं। फिर मैं भागी-भागी गई। लकड़ियां लाई, उसके बाद जल्दी से गरम-गरम खाना बनाया और सीधा ले आई। सांस भी, यूं समझो यहां आकर ली है।" कहते हुए प्रेमा ने गहरी लंबी सांस ली और बारी-बारी उनके चेहरों को देखा।

"क्या हुआ ?"

"खाना ले आई ?"

"हां-हां। सरसों का साग है। मक्की की रोटी है। खाओगे तो प्रेमा के गुणगान करोगे।"

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

"मुझे भूख लगी है। पहले खाना खा लिया जाए। सोहनलाल ने भी कुछ नहीं खाया।"

वे गड्ढे से बाहर आ गए।

एक तरफ रखे पानी से उन्होंने हाथ धोए। जमींदार के आदमी उन्हें पीने और नहाने का पानी ड्रमों में डालकर दे गए थे। ड्रमों को वे ट्रैक्टर में लाए थे।

जगमोहन और सोहनलाल खाने का थैला लेकर टैंट में चले गए थे।

"तुम नहीं खाओगे बाबूजी ?" प्रेमा ने देवराज चौहान से पूछा।

"खाऊंगा। तब तक तुम रोशनी का इंतजाम कर दो। गड्डे में अंधेरा है। बेशक जमींदार के यहां से रोशनी के लिए कुछ...!"

"फिक्र न करो बाबूजी। मैं सब इंतजाम कर देती हूं।" फिर प्रेमा धीमे स्वर में बोली--- "उन दोनों के सामने मेरी तारीफ कर दी थी।"

"नहीं।" देवराज चौहान ने उसे देखते हुए शांत स्वर में कहा।

"क्यों-मैंने तो कहा था कि... ?"

"इस बारे में तुमने जो बात करनी हो खुद करो। ये तुम्हारा और इनका मामला है।"

"ठीक है, मैं बात कर लूंगी। ये भी कौन सी बड़ी बात है।" कहकर वो टैंट की तरफ बढ़ने लगी।

"सुनो।" देवराज चौहान ने टोका।

वो ठिठकी। उसे देखने लगी।

"उन्हें खाना खा लेने दो, फिर बात करना। तब तक तुम रोशनी के लिए गांव से कुछ ले आओ।"

"ठीक है, तुम भी खा लो। अगर मैं जाने से पहले बात कर लेती और हां होती उनकी तो मैं गांव से लगे हाथ मुंह मीठा करने के लिए गुड़ ले आती। इसलिए...!"

"अभी उनसे शादी की बात की तो सरसों का साग और मक्की की रोटी बाहर आ जाएगी।"

"ऐसा क्यों ?"

"शादी के नाम पर वो दोनों ही शरमाते हैं।"

"समझी-समझी। मैं आकर बात करती हूँ।" कहने के साथ ही वो कच्चे रास्ते पर गांव की तरफ भागती चली गई।

पायल की छम छम उसे देर तक सुनाई देती रही।

देवराज चौहान टैंट में आकर उनके साथ खाने लगा।

"पत्थर को वहां से बाहर निकालने में कठिनाई होगी।" सोहनलाल खाते-खाते बोला--- "वो बड़ा और भारी पत्थर होगा।"

"वो पत्थर नहीं है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

"क्या ?" जगमोहन भी देवराज चौहान को देखने लगा।

"हम अट्ठारह-उन्नीस फीट नीचे तक जमीन खोद चुके हैं। अब तक कोई पत्थर नहीं आया है तो अब भी नहीं आ सकता। रानी की आवाज ने मुझे वहां पर नीचे खुदाई करने को कहा था और मैंने उसकी बात मानकर ऐसा किया। वो मुझे वहां पर अवश्य कुछ दिखाना चाहती होगी और जहां कुदाल अटक रही है, वहां कुछ खास ही होना चाहिए।"

जगमोहन और सोहनलाल की नजरें मिलीं।

"शायद तुम ठीक कहते हो।" जगमोहन के होंठों से निकला।

"हो सकता है, मेरी सोचें गलत भी हो लेकिन मेरे खयाल में रानी ने जिस वजह से वहां खुदाई करने को कहा है, वो वजह हमारे करीब आ गई है। हम उसके पास पहुंच गए हैं।"

देवराज चौहान ने धीमे, सोच भरे स्वर में कहा।

"क्या हो सकती है वो चीज ?"

"अभी तो उस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। देखते हैं कुदाल किस चीज से टकराकर रुक रही है। वहां जो कुछ भी है, यकीनन खास ही है।"

■■■

देवराज चौहान नीचे गड्ढे में हाथ से ही मिट्टी हटाने लगा था। कुदाल चलाने पर बार-बार वो किसी चीज से टकरा जाती थी। कभी नहीं भी टकराती थी।

जगमोहन और सोहनलाल पास ही थे।

देवराज चौहान के हाथ पहले किसी नुकीली चीज को लगे । वो लोहे जैसी कोई चीज लग रही थी। उसने आस-पास की मिट्टी साफ की तो वो चीज भाले जैसी लगने लगी।

"समझ नहीं आ रहा कि ये क्या है ?" देवराज चौहान कह उठा।

जगमोहन और सोहनलाल ने भी उस भाले जैसी चीज को बार-बार हाथ लगाकर देखा, परंतु वो भी कोई अनुमान नहीं लगा पाए। अंधेरे की वजह से उस चीज को वे देख नहीं पा रहे थे।

"प्रेमा तो रोशनी का इंतजाम करके नहीं आई।" जगमोहन उठते हुए बोला--- "मैं गांव जाकर...।"

छम-छम-छम-छम-!

"आ गई प्रेमा।" जगमोहन के होंठों से निकला--- "देखना सोहनलाल।"

सोहनलाल तेज-तेज कदमों से उस रास्ते की तरफ बढ़ गया, जो कि ऊपर जा रहा था।

शाम के पांच बज रहे थे। सूर्य नहीं निकलने की वजह से दिन तेजी से रात की तरफ खिसक रहा था।

सोहनलाल गड्ढे से निकला तो प्रेमा को करीब ही पाया। वो चंद कदमों की दूरी पर थी। परंतु उसकी हालत देखकर वो चिहुंक उठा। उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ गए। आंखें फैल गई थीं।

प्रेमा ने उसके देखते ही देखते लालटेन जमीन पर रखी और खुद भी घुटनों के बल बैठ गई। उसके जिस्म पर जगह-जगह काटने के निशान थे। सिर से लेकर पांव तक यही हालत थी। वहां से खून बह रहा था। उसके कपड़े भी जगह-जगह से फटे हुए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने खंजर से जगह-जगह चीरा लगाया हो। गालों पर, गले पर, कोई भी जगह नहीं बची थी सलामत। यहां तक कि हथेलियों पर भी इसी तरह काटे के निशान थे और वहां से भी खून बह रहा था।

"क्या हुआ ?" सोहनलाल के होंठों से निकला--- "ये सब किसने किया?"

प्रेमा ने पीड़ा भरे भावों से दोनों हथेलियां जमीन पर टिका ली।

"गुलचंद !" प्रेमा के होंठों से कराहती आवाज निकली--- "मैं...!"

"गुलचंद !" सोहनलाल चौंका---"ये तो मेरे पहले जन्म का नाम है।"

"मैं भी तो तेरे पहले जन्म के समय की ही हूँ।"

"क्या ?" सोहनलाल उसे देखता रह गया।

तभी प्रेमा के होंठों से दर्द भरी कराह निकली। जैसे किसी ने उस पर वार किया हो।

"तुम पहले जन्म के समय की कैसे हो ?" सोहनलाल के चेहरे के भाव देखने के लायक थे।

"मैं...मैं, अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा गुलचंद ! वायुलाल ने असरदार मंत्रों को हवा में छोड़ रखा है कि जब भी हम दायरे से बाहर निकलें तो मंत्रों का प्रभाव हम पर हो। मैं बहुत घायल हो चुकी हूं। बार-बार अपने दायरे से बाहर आती रही तो अब मंत्रों ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। रानी के पास तो ताकत है, वो खुद को वायुलाल के मंत्रों से खुद को बचाए हुए हैं लेकिन मैं खुद नहीं बच सकी। आह! अब मुझे वापस जाना होगा।"

"वापस--कहां ?"

"मंदिर में वो ही मेरी जगह... !"

"मैं समझ नहीं पा रहा कि तुम क्या कह रही...!"

"सब समझ जाओगे। बहुत जल्द हमारी मुलाकात होगी। तुम लोगों के लिए इससे ज्यादा नहीं कर सकती। लालटेन तब तक नहीं बुझेगी, जब तक कि इसे खुद नहीं बुझाओगे । आह! मैं अब और नहीं रुक सकती।" प्रेमा के स्वर में तड़प थी--- "वरना, हवा में मौजूद मंत्रों का असर मेरी जान ले लेगा।"

"तुम कहां जा रही हो?" सोहनलाल उलझन से भरा गंभीर नजर आ रहा था।

उसी पल प्रेमा का शरीर सोहनलाल को धुंधला नजर आया और देखते ही देखते वो नजरों से इस तरह ओझल हो गई, जैसे जमीन में घुल गई हो।

सोहनलाल ठगा-सा खड़ा जमीन को देखता रह गया।

"प्रेमा!" सोहनलाल के होंठों से निकला।

इस वक्त ऐसा लग रहा था जैसे प्रेमा वहां कभी रही ही न हो।

सोहनलाल ने लालटेन उठाई और आगे बढ़ते हुए तेजी से गड्ढे में उतरता चला गया। लालटेन के प्रकाश से गड्डे में पर्याप्त रोशनी फैल गई।

"अब ठीक है।" जगमोहन कह उठा।

"अजीब सी बात हुई।" सोहनलाल गहरी सांस लेकर कह उठा— “प्रेमा खुद को पहले जन्म की बता रही है और...!"

"पहले जन्म की ?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

सोहनलाल जवाब में सब कुछ बताता चला गया।

देवराज चौहान और जगमोहन सोहनलाल को देखे जा रहे थे ।

सोहनलाल के खामोश होते ही देवराज चौहान कह उठा।

"वो किस मंदिर की बात कर रही थी ?"

"मालूम नहीं।" सोहनलाल ने इनकार में सिर हिलाया--- "वो मंदिर को ही अपनी जगह कह रही थी।"

"ये वायुलाल कौन है?" जगमोहन बोला।

"पता नहीं... वो !"

"ये वायुलाल कोई हरामी बंदा लगता है।" जगमोहन होंठ सिकोड़कर कह उठा--- "साले को ढूंढना पड़ेगा।"

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई और कह उठा।

"उसने कहा कि जल्द ही हमारी मुलाकात होने वाली है। कहां-किससे मुला...!" कहते-कहते देवराज चौहान ठिठका। लालटेन के प्रकाश में उसने दोनों के चेहरों को देखा, फिर जमीन को देखा--- "यहां नीचे कुछ है, हम खुदाई कर रहे हैं।"

"इस जगह का प्रेमा से संबंध है।" सोहनलाल बोला।

"प्रेमा रानी की भी बात कर रही थी।" देवराज चौहान बोला--- "रानी एक बार मुझसे मिल चुकी है। कुछ नहीं समझ आ रहा कि ये सब क्या है? वो तुम्हें पहले जन्म के गुलचंद नाम से पुकार रही थी। वो पहले जन्म की है।" देवराज चौहान का चेहरा अजीब भावों में फंसने लगा--- "कहीं हम पूर्वजन्म के फेर में पहले की ही तरह तो नहीं फंसने जा रहे।"

सोहनलाल और जगमोहन देवराज चौहान को ही देखे जा रहे थे।

"मुझे लगता है हम मुसीबत में पड़ने जा रहे हैं।"

देवराज चौहान की निगाह नीचे जमीन पर गई, फिर वो झुका और जमीन से निकली चीज को देखने लगा। लालटेन के प्रकाश में वो काफी हद तक स्पष्ट नजर आ रही थी। करीब आधा फीट वो जमीन से ऊपर था। वो चार इंच मोटा भाले की तरह नुकीला आसमान की तरफ उठा, लोहे का हिस्सा था।

जगमोहन और सोहनलाल ने भी उसे चैक किया।

"क्या हो सकता है ?"

"इस बारे में हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते।" देवराज चौहान ने कहा--- "इस जगह को हमें और गहराई एक खोदना होगा। तब पता चलेगा कि ये क्या है ?"

उसके बाद तीनों खुदाई में लग गए।

लालटेन के प्रकाश में उन्हें ढलते दिन और अंधेरे से कोई परेशानी नहीं हो रही थी।

जमीन को खोदना और मिट्टी निकालना जारी रहा।

रात के दो बज रहे थे।

गड्ढे में लालटेन का पर्याप्त प्रकाश फैला था। सब कुछ नजर आ रहा था।

देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल ने अब तक चार फीट गहरी और चौदह फीट चौड़ी नीचे के हिस्से की खुदाई कर दी थी। नीचे की खुदाई वे चौड़ाई में गड्ढे के भीतरी तरफ कर रहे थे। क्योंकि नीचे से लोहे का विशाल गेट निकला था। जिसका एक पल्ला आठ फीट चौड़ा था। दूसरा पल्ला अभी छः फीट ही नजर आया था। अभी तक वे गेट को चार फीट तक ही खोद पाए थे। कितना गहरा यानी कि कितना ऊंचा होगा, इसका अंदाजा वे नहीं लगा पाए थे। खुदाई में लोहे का भारी गेट निकलते देखकर वे चौंके थे।

गेट बंद था। दोनों पल्ले भिड़े हुए थे।

चार फीट तक गेट स्पष्ट था। वहां से वे भीतर देख सकते थे। परंतु भीतर कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। घुप्प अंधेरा था । जमींदार का आदमी शाम आठ बजे ही खाना दे गया था, परंतु वे काम में इतने व्यस्त थे कि खाना नहीं खा पाए थे। अब वे थक भी चुके थे और भूख भी लग रही थी।

"बस।" जगमोहन ने कहा--- "अब काम करने की हिम्मत नहीं रही।"

"भूख लग रही है। खाना खा लेते हैं।" सोहनलाल ने दोनों को देखा।

देवराज चौहान भी खाने की और नींद की जरूरत महसूस कर रहा था।

वे तीनों ऊपर पहुंचे और हाथ-मुंह धोकर खाना निकाल कर बैठ गए। वो चुप-चुप से थे।

"ये गेट कैसा -किस जगह का हो सकता है ?" सोहनलाल ने कहा।

“मेरे खयाल में ये उस मंदिर का गेट हो सकता है, जिसका प्रेमा ने जिक्र किया था।" खाना खाते हुए देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- “रानी ने भी कहा था कि उसे गेट पर वायुलाल ने 'कील' रखा है मंत्रों से।"

"ये साला वायुलाल है कौन ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"तुम्हारा मतलब कि हम किसी मंदिर की खुदाई कर रहे हैं।" सोहनलाल ने उसे देखा।

"हां, ये रानी और प्रेमा के मुताबिक मंदिर हो सकता है।" देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा--- "क्यों नहीं हो सकता। जो बातें अब तक हमारे सामने आई हैं, उसे देखते हुए हम ये बात कह सकते हैं-ये कोई पुराना मंदिर हो सकता है, जो कि वक्त के साथ-साथ धूल-मिट्टी में दबता चला गया। ये बात तो समझ में आती है, परंतु रानी और प्रेमा की बातें समझ में नहीं आती कि वो कौन से वक्त की बात कर रहे हैं।

"प्रेमा ने तुम्हें गुलचंद के नाम से पुकारा।"

"हां।" सोहनलाल ने सिर हिलाया।

"जबकि तुम्हारा ये नाम पहले जन्म के लोग ही जानते हैं।” (ये बातें जानने के लिए देवराज चौहान और मोना चौधरी एक साथ वाले पूर्व प्रकाशित उपन्यास अवश्य पढ़ें) – “यानी कि प्रेमा का संबंध हमारे पहले जन्म से है।"

"ऐसा ही होगा।"

"रानी की आवाज ने मुझे देवा कहकर पुकारा था।" देवराज चौहान दोनों को देखते बोला--- "इसका मतलब कि हमारे कदम धीरे-धीरे पूर्वजन्म की तरफ बढ़ रहे हैं!"

"फकीर बाबा यानी कि पेशीराम ने मुझे पहले ही सतर्क कर दिया था कि मेरा टकराव मोना चौधरी से हो सकता है लेकिन उस वक्त मैंने पेशीराम की बात नहीं मानी।" देवराज चौहान की आवाज में गंभीरता थी--- "इसका मतलब हम पूर्वजन्म के वक्त में प्रवेश करने जा रहे हैं।"

जगमोहन और सोहनलाल उसे देखते रहे।

"लेकिन वहां मोना चौधरी से टकराव कैसे हो सकता है ? वो तो कहीं और है!" देवराज चौहान कह उठा।

"वहां...।" जगमोहन धीमे स्वर में बोला--- "वहाँ मोना चौधरी से इतना खतरा नहीं होगा, जितना कि वहां के खतरनाक हादसों से। पहले भी हम कई बार मौत के मुंह में जाते-जाते बचे थे।"

खाना खाते हुए वे एक-दूसरे को देखने लगे।

"जो भी होगा सामने आ जाएगा।" देवराज चौहान सोचों में डूबे कह उठा।

उन्होंने खाना समाप्त किया।

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली।

वो चुप-चुप से थे।

"अब काम करने की और हिम्मत नहीं बची।" सोहनलाल ने कहा--- "हमें नींद ले लेनी चाहिए।"

"मैं सोच रहा हूं कि इस तरह मिट्टी हटाकर दबा हुआ गेट निकालने में हमें बहुत वक्त लगेगा।" देवराज चौहान ने कहा--- "चार फीट का गेट हम निकाल चुके हैं। जो कि गेट का ऊपरी हिस्सा है। वो गेट दस-पंद्रह-बीस-पच्चीस फीट जितना ऊंचा हो सकता है। भीतर जाने के लिए हम सलाखों को काट सकते हैं या फिर दूसरी तरफ से खुदाई कर सकते हैं। कि भीतर जाने में हमें आसानी हो। ऐसा करने से हमारा वक्त बरबाद होने से बच जाएगा।"

"लेकिन हम भीतर जाना क्यों चाहते हैं ?" जगमोहन ने गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

दोनों की निगाह जगमोहन की तरफ उठी ।

"हमें इस बात का एहसास है कि वहां हमारे लिए पूर्वजन्म की मुसीबतें हैं।" जगमोहन ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "तो ऐसे में हमें यहां से वापस चले जाना चाहिए।"

"क्या तुम यहीं से पलटकर वापस जा सकोगे ?" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

अंधेरे में दोनों ने एक-दूसरे को देखा।

"नहीं जा सकोगे, क्योंकि तुम जानना चाहते हो कि रानी कौन है ? प्रेमा कौन है? मंदिर का क्या किस्सा है? वायुलाल ने किस तरह और क्यों रानी को मंदिर के गेट पर कील रखा । क्या हुआ था हम लोगों के साथ पहले जन्म में? अगर अब तुम इन बातों को जाने बिना वापस चलने को तैयार हो तो हम भी तुम्हारे साथ चलते हैं।"

जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।

"ये ही उत्सुकता से भरी बेचैनी थी तुम्हारे मन में कि कल रात को ही तुमने नींद लेने की अपेक्षा खुदाई करना जरूरी समझा।" देवराज चौहान की आवाज में गंभीरता थी।

जगमोहन कुछ न कह सका।

"पेशीराम को पहले ही पता होगा कि ये सब होने वाला है। तभी उसने तुम्हें रोका कि...!"

"उसे यह पता था कि आने वाले वक्त में ऐसा हो सकता है अगर मेरे कदम न रोके गए तो।" देवराज चौहान कह उठा--- "मैंने उसकी बात नहीं मानी और अब जो हो रहा है, वो सामने ही है।"

"इसका मतलब मोना चौधरी भी हमें मिलेगी। वो भी तो पूर्वजन्म की...!"

"पक्का वो भी हमें मिलेगी।" देवराज चौहान ने कश लिया--- "वो कैसे हमारे रास्ते पर आएगी, ये हम नहीं जानते।"

"तुम सलाखों के बारे में कुछ कह रहे थे?" जगमोहन ने टोका।

"हां, गेट की पूरी तरह मिट्टी हटाकर गेट खोलकर भीतर जाने में हमें बहुत वक्त लगेगा। बेहतर होगा कि हम सलाखें काटकर भीतर चले जाएं। अगर गेट ज्यादा ऊंचा होगा तो हम उसके ऊपर से थोड़ी सी मिट्टी हटाकर वहां से रस्से से लटककर भीतर उतर सकते हैं। इस तरह हम उसके भीतर के हिस्से में पहुंच सकते हैं या फिर गेट की ऊपरी सलाखें काटकर उस गेट के पार जा सकते हैं।"

"आइडिया अच्छा है।" सोहनलाल ने कहा--- "वक्त बचेगा।"

"लेकिन इतने मोटे सरिए--लोहे की ठोस सलाखें कैसे काटेंगे ?" जगमोहन बोला।

"इसके लिए हमें गैस वैल्डिंग और आरी के अलावा भारी हथौड़े और छेनी का इस्तेमाल करना होगा।" सोहनलाल कह उठा--- "इस सारे सामान के होते हुए हम चंद घंटों में ही गेट की सलाखों को काट लेंगे।"

"ये सारा सामान तो मैं कल सुबह ही ले आऊंगा।" जगमोहन कह उठा ।

"सुबह जमींदार से बात करना। वो तुम्हें कहीं से ये सामान दिला देगा।"

जगमोहन सिर हिलाकर उसे देखने लगा।

सोहनलाल बोला।

"प्रेमा ने तुम्हें क्या कहा था कि देवा नाम का आदमी आकर रानी को कीलने की स्थिति से आजादी दिलाएगा।"

"हां।" देवराज चौहान ने उसे देखा--- "यही कहा था प्रेमा ने!"

"तो मुझे पूरा यकीन है कि हम फिर पूर्वजन्म के विचित्र खतरों का सामना करने जा रहे हैं।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली--- "इससे पहले हमें सात आसमान पार जाना पड़ा था शैतान से टकराने के लिए--तब तुम्हारी गरदन कट गई थी।"

देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा। कहा कुछ नहीं ।

"उससे पहले तिलस्म की खतरनाक दुनिया में जा फंसे थे। हाकिम जैसे राक्षस और दालू बाबा जैसी खतरनाक हस्ती से वास्ता पड़ा था।" जगमोहन बोला--- "ये तो पक्का है कि इस बार भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। हमारी जान भी जा सकती है।"

"क्या तुम्हें कुछ याद नहीं आया कि रानी कौन है और...!"

"नहीं, मुझे कुछ याद नहीं।"

"मेरे खयाल में कुछ घंटे नींद ले लेना बेहतर होगा।" जगमोहन कह उठा--- "सुबह उठना भी है।"

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