चांदनी दिल्ली की तरफ रवाना हुई थी। मैं और शगुन जिंदलपुरम की तरफ । मुझे नहीं पता आपको इस बात का अनुभव है या नहीं कि जिसे आपने युवावस्था में टूट-टूटकर चाहा हो, उसे एक लंबे अर्से बाद देखकर कैसा लगता है, मगर मुझे है और बहुत अच्छी तरह से है। दिल के जिस जख्म को वक्त अपने सुई-धागे से पूरी तरह 'सील' चुका होता है, उसके 'बंध' खुलते चले जाते । जख्म ताजा हो जाता है। वैसी ही टीस उठती है उससे जैसी तब उठी थी जब वह बना था । मुझे अच्छी तरह याद है, और मेरे नियमित पाठकों को भी जरूर याद होगा - - - - वह जख्म तब बना था जब मैं एल. एल. बी. में पढ़ता था । विभा भी साथ पढ़ती थी । पढ़ने को तो अनेक स्टूडेंट साथ पढ़ते थे परंतु विभा की तो बात ही अलग थी। उसकी बात अलग इसलिए थी क्योंकि फर्स्ट ईयर से ही वह मेरी आंखों के रास्ते से दिल में उतर गई थी । ‘ईयर’ भी शायद मैंने गलत लिखा है ! यह लिखना ज्यादा उचित होगा कि ठीक किताबी स्टाइल में, उससे मुझे 'पहली नजर में ही प्यार हो गया था ।'


वह विभा का जादुई और अद्भुत व्यक्तित्व ही था जिसके कारण मैं तीन साल तक उससे ढाई अक्षर का वाक्य नहीं कह पाया और मन ही मन, एक तरफा प्यार करता रहा ।


पहले साल तो उससे बात करने तक का साहस नहीं हुआ था । दूसरे साल दोस्ती हुई।


तीसरे साल हम कुछ वक्त अकेले भी गुजारने लगे


तब तक भी मैं अपने दिल की बात नहीं कह पाया था ।


***


दिल की बात उस दिन कही जिस दिन फाइनल ईयर का अंतिम पेपर हो चुका । अगले दिन हम अपने-अपने शहर लौट जाने वाले थे।


मेरी फीलिंग्स सुनने के बाद उसने कहा ---- 'वेद, मैं पहले दिन से जानती हूं कि तुम मुझसे प्यार करते हो । शुरु के साल मुझे लगा कि तुम उन लड़कों में से हो जो कालिज में पढ़ने नहीं, लड़कियों से फ्लर्ट करने आते हैं, इसलिए तुमसे बात तक नहीं की। मगर दूसरे साल तक पहुंचते-पहुंचते तुम्हारे बारे में मेरी धारणा बदल चुकी थी क्योंकि पहले साल में तुमने कोई भी हल्की हरकत नहीं की, इसलिए तुम्हें अपना दोस्त बना लिया। तीसरे साल में, जब तुमने मेरे साथ एकांत पाने के बावजूद दिल का हाल नहीं कहा तो मैं समझ गई कि तुम्हें सच्चा प्यार हो गया है क्योंकि लड़कियों में लड़कों की आंखें पढ़ने की अद्भुत क्षमता होती है। हकीकत ये है कि अब तो मैं भी तुम्हारे मुंह से अपने प्रति तुम्हारी फीलिंग्स सुनने के लिए बेसब्र हो गई थी । और आज, यदि तुम यह सब न कहते तो मुझे दुख होता । इसलिए, क्योंकि तुम अपने मन में एक गांठ लिए मुझसे हमेशा के लिए जुदा हो जाते और यह गांठ तुम्हें आगे नहीं बढ़ने देती ।'


उन्हीं दिनों मेरा पहला उपन्यास 'दहकते शहर' प्रकाशित हुआ था । उसकी एक प्रति उसे देने के साथ ही मैंने अपनी बात कही थी।


उस दिन उसने मुझे बड़े प्यार से समझाया था कि आज, कालिज लाइफ के अंतिम दिन हम अपने जीवन का एक अध्याय पूरा करके, नए जीवन की तरफ बढ़ रहे हैं । अपना भविष्य बनाने की तरफ । उसने 'दहकते शहर' की तरफ देखते हुए कहा था- -- तुमने अपना भविष्य चुन लिया है और मैं बहुत बड़ी लॉयर बनना चाहती हूं। अपने अपने लक्ष्य को हम तभी पा सकेंगे जब जिंदगी के इस सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव पर प्यार मुहब्बत जैसी वाहियात बातों में पड़कर भटकें नहीं ।


पूरे मनोयोग से ठीक उतना ही ध्यान केंद्रित करके अपने 'गोल' की तरफ देखें जितना ध्यान केंद्रित करके अर्जुन ने मछली की आंख बेंधी थी। मुझे अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ने दो और तुम इस देश के सबसे बड़े जासूसी लेखक बनो ---- यकीन मानना, अगर तुम मुझसे अपना ध्यान नहीं हटा सके तो यह देश एक बेहतरीन जासूसी उपन्यासकार खो देगा । हम दोनों के लिए अच्छा यही है कि अपने रिश्ते को दोस्ती के अलावा और कोई नाम न दें। विश्वास रखना दोस्त, दोस्ती के रिश्ते से पवित्र रिश्ता दुनिया में और कोई नहीं होता।'


और भी जाने क्या क्या कहा था उसने!


वे सारी बातें प्रेरणा देने वाली थीं ।


भले ही आज मैं यह सोचता होऊं कि उसने जो कहा था अक्षरशः सच था लेकिन उस दिन तो जैसे मेरे समूचे अस्तित्व पर बहुत बुरी तरह गड़गड़ाकर आकाशीय बिजली गिरी थी ।


लगा था कि वह खुद को बहुत बड़ी समझ रही है और मुझे बच्चा समझकर शब्दों के खिलौनों से बहला रही है ।


उस दिन हॉस्टल के कमरे में आकर मैं बहुत रोया था ।


फूट-फूटकर ।


जार-जार ।


समझ जो चुका था कि उसने बहुत ही मीठे शब्दों में मेरी मुहब्बत ठुकरा दी है। उस दिन लगा था कि जो जख्म उस संगदिल ने दिया है वह कभी नहीं भर पाएगा। इस सदमे से मैं जिंदगी भर नहीं उबर पाऊंगा मगर कितना सच कहा था उसने, वक्त के सुईं-धागे मेरे जख्म को सींते चले गए। उसी के शब्दों से प्रेरणा पाकर मैं लिखता चला गया और पाठकों ने कदमों से उठाकर अपनी पलकों पर बैठा लिया।


मधु से शादी भी हो गई |


वक्त की गर्दिश में दबकर विभा के साथ गुजारे गए क्षण इतने महत्वहीन से हो गए कि मधु से कभी जिक्र तक नहीं किया ।


मगर विधी के विधान के मुताबिक मेरी और विभा की कहानी का अभी अंत नहीं हुआ था ।


अपनी मेरिज-ऐनीवर्सरी मनाने मैं और मधु जिंदलपुरम गए ।


उस वक्त मैंने ख्वाब तक में नहीं सोचा था कि मेरी वही विभा जिंदलपुरम बसाने वाले जिंदल परिवार की बहू होगी।


मैं तो उस छोटे-से औद्योगिक शहर को देखने केवल यह सुनकर गया था कि वह पूरा शहर केवल एक आदमी ने अपनी मेहनत, लगन बुद्धि और परिश्रम से बसाया है।


उस वक्त मैं भौंचक्का-सा रह गया जब अचानक ही वहां विभा से मुलाकात हुई और उस वक्त की अपने दिल की हालत तो मैं आज भी, अपने पाठकों की नजरों में शब्दों का खिलाड़ी बन जाने के बावजूद बयान नहीं कर सकता जब पता लगा कि विभा शर्मा जिंदलपुरम के वर्तमान मालिक से शादी के बाद विभा जिंदल बन चुकी है।


उसके पति का नाम अनूप था ---- अनूप जिंदल ।


एक बेहद स्मार्ट, खूबसूरत, हंसमुख और जिंदादिल लड़का |


वह मेरा फैन भी था ।


हम मिले तो विभा जैसे अनूप को भूल गई, मैं मधु को ।


दोनों कालिज के जमाने की बातों में डूब गए।


लंच साथ लिया ।


डिनर के लिए उन्होंने अपने 'मंदिर' पर इन्वाइट किया ।


ठीक ही कहा था विभा ने ---- लड़कियों में लड़कों की आंखों की भाषा को पढ़ने की अद्भुत क्षमता होती है ।


मधु 'ताड़' चुकी थी कि स्टूडेंट लाइफ के दरम्यान मेरे और विभा के बीच 'कुछ' था। इस बारे में उसने होटल के कमरे में पहुंचते ही बात शुरु कर दी और तब मैंने उसे सबकुछ सच-सच बताया ।


यह कि मैं विभा से प्यार करता था। आज भी ऐसा दावा नहीं कर सकता कि मेरे दिल में उसके लिए कुछ नहीं है जबकि ऐसा सोचना भी पाप है मगर, विभा के दिल में मेरे लिए ऐसी कोई भावना नहीं थी और आज होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।


हां, उसकी नजर में मैं उसका बहुत अच्छा दोस्त जरूर हूं।


विभा द्वारा मुझसे कही गई सारी बातें सुनने के बाद मधु की नजर में उसका कद बहुत ऊंचा हो गया ।


उसने साफ-साफ कहा ---- 'वेद, आज मुझे यकीन हो गया कि हर सफल आदमी के पीछे एक लड़की होती है। आज यदि तुम हिंदी के सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक हो तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ विभा है और एक तुम हो कि उसे इतना महत्व भी नहीं दिया कि कभी मुझसे उसका जिक्र करते । इतना स्वार्थी तो नहीं समझती थी मैं तुम्हें ।'


मधु के विचार सुनकर मुझे उस पर बहुत प्यार आया।


उसी शाम डिनर हेतु 'मंदिर' पहुंचे ।


मधु ने बड़ी श्रद्धा से विभा के पैर छुए थे जबकि विभा उसकी इस हरकत पर बौखला सी गई ।


मैंने विभा से उसके लॉयर बनने के सपने के बारे में पूछा तो हंस पड़ी । कहा ---- 'वैसी नौबत आने से पहले ही शादी हो गई । लेकिन सच्चाई ये है कि मैं अपने जीवन में आए इस मोड़ से बहुत खुश हूं। सच मानना, लॉयर न बन पाने का कोई मलाल नहीं है मुझे । होता, तो तुम्हें जरूर बता देती क्योंकि तुम मेरे दोस्त हो और दिल की बात दोस्त से ही की जा सकती है । अनूप तो मुझसे कहते भी रहते हैं कि प्रेक्टिस शुरु कर दूं लेकिन अब किसी और दुनिया में रमकर उनसे दूर होने का मन नहीं करता। बहुत भाग्यवान हूं मैं कि अनूप मुझसे बेइंताह प्यार करते हैं।'


पता नहीं क्यों----उसका अंतिम वाक्य मुझे चुभा । 


बेवजह |


खामोखां ।


कम से कम उस स्टेज पर वह एक बहुत अवैध बात थी ।


विभा के लिए भी, मधु के लिए भी और खुद मेरे लिए भी, लेकिन जो हुआ था, सो हुआ था और उसे मैं पूरी साफगोई के साथ लिख रहा हूं। शायद इसीलिए किसी ने कहा है कि दिल पर किसी का जोर नहीं चलता । दिमाग का तो हरगिज नहीं ।


दिमाग भले ही यह चीखता रहे कि नहीं, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए लेकिन दिल है कि बाज नहीं आता।


खैर, अपने मनोभावों को छुपाने के लिए मैंने पूछा कि अनूप कहां है क्योंकि वह कहीं नजर नहीं आ रहा था ।


और तब शुरु हुई एक सनसनीखेज कहानी।


वह कहानी जो 'साढ़े तीन घंटे' के नाम से कलमबद्ध हुई है ।


जिसमें मुझे विभा को विधवा वाले सफेद लिबास में देखना पड़ा।


बड़ी ही रहस्यमय परिस्थितियों में अनूप ने आत्महत्या कर ली थी । विभा को उस लिबास में देखकर मेरा दिल हाहाकार कर उठा।


उसके बाद ।


मैंने विभा का नया रूप देखा। नया अवतार ।


ऐसा रूप जिसकी कल्पना मैंने ख्वाब तक में नहीं की थी।


विधवा वाले सफेद लिबास में लिपटी मेरी विभा ने अपने पति के मर्डर की इन्वेस्टीगेशन खुद की और ऐसी की कि मुझ सहित सभी को चमत्कृत करती चली गई ।


मैं और मधु कदम-कदम पर उसके साथ थे ।


इस बात को तो खैर मैं स्टूडेंट लाइफ से ही मानता था कि विभा नाम एक एक्सट्रा ब्रिलियेंट लड़की का है लेकिन वह इतने सुलझे हुए और शार्प माइंड की होगी, ऐसा तो मैंने सोचा भी नहीं था ।


उन्हीं दिनों मुझे यह भी पता लगा था कि विभा के गर्भ में अनूप का अंश पल रहा है। मुझे खुशी हुई थी लेकिन वह अपनी उस अवस्था की जरा भी परवाह किए बगैर हत्यारे को ढूंढने में जुटी रही और चैन की सांस तभी ली जब अपने मकसद में कामयाब हो गई ।


मैं एक बार फिर उसी विभा से मिलने जा रहा था ।


शगुन ड्राइविंग सीट पर था, मैं बगल वाली सीट पर ।


मैं तो मधु को भी साथ लाना चाहता था लेकिन कुछ पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण वहीं नहीं आ सकी थी।


रास्ते में शगुन ने पूछा कि मैंने चांदनी को अशोक से मेरठ आने की बात छुपाने के लिए क्यों कहा?


जवाब मैंने साफ लफ्जों में दिया ---- 'मुझे अशोक पर शक है ।'


“अशोक पर ?” शगुन चौंका----“कैसा शक?”


“मुझे लगता है कि सारा ड्रामा वही कर रहा है ।”


“पापा, यह आप क्या कह रहे हैं?”


“यह पाठ मुझे विभा ने पढ़ाया है।” मैंने कहा---- “यह कि जब कोई पेचीदा मामला सामने आए तो अंत होने से पहले किसी को भी शक के दायरे से बाहर मत रखो और... अशोक तो शक के दायरे में आने वाला सबसे पहला शख्स है । "


“कोई आधार भी तो होना चाहिए।”


“ आधार एक ऐसी हकीकत है जिसे दुनिया की कोई ताकत झुठला नहीं सकती। इंसान झूठ बोल सकता है शगुन, ए. टी. एम. मशीन झूठ नहीं बोल सकती और उस मशीन ने बताया है कि चांदनी के कार्ड से पचास हजार रुपाए निकले ।”


“इससे अशोक शक के दायरे में कैसे आ गया ?”


“उस कार्ड से पैसे निकालना चांदनी के बाद सबसे आसान उसी के लिए हो सकता है।" मैं कहता चला गया ---- “उसके अलावा और कोई नहीं हो सकता जिसे स्वाभाविक रूप से चांदनी के कार्ड का कोड पता हो और कोड के बगैर पैसे नहीं निकलते ।”


मेरी इस बात ने जैसे शगुन के दिमाग की सारी नसें खोलकर रख दीं। विरोध करने के स्थान पर अब उसने पूछा ---- “कोई और बेस?”


“कोरियर से अंगूठी भेजना भी सबसे आसान उसी के लिए है । "


“ओह! ये बातें तो मेरे दिमाग में ही नहीं आईं। भगवान न करे कि यह हकीकत हो। अगर ऐसा हुआ तो..


“तो चांदनी बेचारी जीते-जी मर जाएगी ।” मैंने कहा---- “मैं इस बात को समझ गया था कि वह अशोक के लिए अपने दिल में कितना ऊंचा स्थान रखती है। इसीलिए तो उसके सामने यह सब नहीं कहा ।”


उसके बाद शगुन खामोश हो गया... खामोश भी ऐसा कि जिंदल पुरम की सीमा में दाखिल होने तक कुछ नहीं बोला जबकि मेरा दिल 'धाड़-धाड़' करके बजने लगा था । यह सोचकर कि अब... इतने लंबे अर्से बाद मेरी विभा कैसी लगती होगी?


उसे देखने की कल्पना मात्र से मैं इतना ज्यादा रोमांचित था कि अपने दिल को असामान्य गति से धड़कने से नहीं रोक पा रहा था।


हैरानियों की शुरुआत 'मंदिर' के ब्रास वाले गेट से ही हो गई थी । ब्रास वाला गेट... यानी बड़े-बड़े बंगलों का वह गेट जो आमतौर पर आयरन का बना होता है, मंदिर का गेट ब्रास का बना था । वह भव्य गेट उस वक्त बंद था जिसके बाहर गाड़ी रोकने पर मेरे निर्देश पर शगुन ने हार्न बजाया। गार्डरूम से करीब छः फुटा, एक ऐसा शख्स दौड़ता हुआ गाड़ी


के समीप आया जिसके जिस्म पर आर्मी के अफसर जैसी वर्दी थी । मेरी विंडो के नजदीक ठिठककर उसने जोरदार सल्यूट मारा । अभी मैं उससे यह कहने ही वाला था कि हमें 'बहूरानी' से


मिलना है कि उसने कहा ---- “मंदिर में आपका स्वागत है सर ।” “मेरा नाम...।” मैं अभी इतना ही कह पाया था कि----


करीब-करीब वैसी ही हालत थी उसकी जैसी पहली बार वहां कदम रखने पर मेरी और मधु की हुई थी ।


'मंदिर' नाम की वह इमारत किसी भी तरह ताजमहल से कम खूबसूरत नहीं थी। ऊंची और संगेमरमरी बाऊंड्री-वॉल ने कम से कम दो हजार गज के भू-भाग को घेर रखा था।


बाऊंड्री से घिरे भू-भाग के बीचों-बीच खालिस सफेद रंग के संगेमरमरी पत्थरों से बनी पांच मंजिला इमारत सीना ताने खड़ी थी।


इमारत के चारों तरफ लॉन था ।


लॉन में देवदार, अशोक, जामुन और शहतूत आदि के अनेक वृक्ष थे । घास ऐसी थी जैसे हरे रंग का मखमली कालीन बिछा हो । क्यारियों में खिले सैंकड़ों किस्म के फूल वातावरण को महकाए हुए थे।


मुख्यद्वार किसी किले के द्वार की तरह विशाल एवं भव्य था ।


'मंदिर' । द्वार के मस्तक पर लिखा था-


बगुले के-से सफेद रंग की बेदाग वर्दी पहने मंदिर के चार सेवकों ने हमारी अगवानी की।


वे हमें इमारत के अंदर ले गए।


इमारत के भीतरी भाग में लगे सभी पत्थरों पर रामायण की चौपाइयां लिखी थीं, सिर्फ फर्श पर चौपाइयां नहीं लिखी थीं ।


तो खैर उनके बारे में पहले ही से मालूम था लेकिन शगुन उस नजारे को हैरान नजरों से देख रहा था ।


हमारी अगवानी करते सेवक हमें कई गैलरियों, हालों और दालानों से गुजारते हुए ले जा रहे थे ।


चौपाइयां दीवारों, थंबों और छतों में जड़े हर पत्थर पर लिखी थीं।


शगुन के चेहरे पर उभर आए तरदुद को दूर करने की मंशा से मैंने बताया कि इस इमारत का नाम 'मंदिर' रखा ही इसलिए गया है क्योंकि पूरी इमारत में मिलाकर सम्पूर्ण रामायण लिखी गई


उसके चेहरे पर इस आइडिये की तारीफ करने वाले भाव उभर आए । सेवकों ने हमें एक बहुत बड़े हॉल में पहुंचा दिया।


यदि मैं उस हॉल की खूबसूरती का वर्णन करने बैटूं तो शायद कई पेज भरता चला जाऊंगा इसलिए संक्षेप में केवल इतना ही लिख रहा हूं कि हॉल इंद्र की मधुशाला जैसा लग रहा था ।


ईरानी कालीन के बीचों-बीच चांदी के पायों पर टिकी कांच की इतनी शानदार सेंटर टेबल रखी थी जिसे देखने के बाद बस देखते ही रहने को मन करता था। उसके चारों तरफ थे----चमचमाते हुए सफेद कांच के सोफे। सेवकों ने जब हमें उन पर बैठने के लिए कहा तो हमें लगा कि वे कहीं टूट न जाएं लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ।


दो सेवक दरवाजे पर तैनात हो गए ।


बाकी हमारी सेवा में भाग-दौड़ करने लगे।


मैंने उनमें से कई से कहा कि विभा को हमारे आगमन की सूचना दे दे, हरेक का जवाब एक ही था - - - - यह कि उन्हें मालूम है ।


वे आने वाली हैं ।


मगर दस मिनट गुजर गए, विभा नहीं आई।


खासतौर पर शगुन की मौजूदगी के कारण विभा का इतनी देर तक न आना मुझे अपना अपमान-सा लग रहा था ।


उम्मीद तो मैंने यह की थी कि दरवाजे पर हमारा स्वागत ही वह करेगी। मैं यह सोचता रह गया कि शगुन यह सोच रहा होगा कि मैं तो विभा की इतनी तारीफ करता हूं और वह हमें इस तरह इंतजार करा रही है जैसे मैं दोस्त से नहीं प्रधानमंत्री से मिलने आया होऊं ।


उस वक्त हमें इंतजार करते पंद्रहवां मिनट गुजर रहा था जब कमरे के बाहर वाली लॉबी से पदचापें सुनाई दीं और चारों तरफ से फुसफसाहटें-सी उभरीं - -- “बहूरानी आ गईं... बहूरानी आ गईं ।”


हम दोनों सोफों से उठकर खड़े हो गए ।


कारण था ---- विभा का आगमन ।


दूध से गोरे और पूर्णिमा के चांद से गोल मुखड़े वाली विभा ।


इंद्र के दरबार की मेनका-सी विभा ।


गुलाब की पंखुड़ियों से होंठ, सुतवां नाक, कंठ ऐसा जैसे कांच का बना हो । घने और लंबे बोलों को उसने हमेशा की तरह अपने चौड़े मस्तक के आस-पास से पूरी सख्ती के साथ खींचकर एक जूड़ा बनाया हुआ था मगर इसके बावजूद बालों की एक मोटी लट उसके दाएं कपोल पर अटखेलियां कर रही थी ।


दोनों तरफ की कनपटियों के नजदीक के कुछ बाल सफेद पड़ गए थे। उनके अलावा सभी बाल अभी तक भी उतने ही काले थे जितने स्टूडेंट लाइफ में हुआ करते थे ।


चंद सफेद बालों के अलावा ऐसा कुछ भी तो नहीं था जो उसकी बढ़ी हुई उम्र की चुगली कर सकता ।


झुर्री के नाम पर मुखड़े पर एक रेखा तक नहीं।


कमान - सी भवों के नीचे उसकी आंखें थीं।


शीप की मानिंद |


उसे मृगनयनी कहा जा सकता था ।


उन आंखों में चमक थी, ऐसी दिव्य चमक कि अगर वह एकटक आपकी तरफ देखने लगे तो मेरी गारंटी है कि दो सेकिंड से ज्यादा आप उससे आंखें नहीं मिला पाएंगे।


अपनी पलकें झुकानी पड़ेंगी आपको।


दिल में घबराहट-सी होने लगेगी 1


भगवान ही जाने कि विभा के व्यक्तित्व में उसने ऐसा क्या जादू भरा था कि उसकी तरफ देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति की आंखों उसके लिए सिर्फ और सिर्फ श्रद्धा का भाव उभरता है।


अगाध श्रद्धा का ।


सुगठित शरीर पर हमेशा की तरह इस वक्त भी सफेद साड़ी थी ।


रेशमी ।


हंस के जिस्म जैसी बेदाग |


उसी से मैच करता, गोल गले का ब्लाऊज


ब्लाऊज हाफ बाजू का था ।


गोरी और गोल कलाईयों में कोहनियों से ऊपर कसा हुआ।


हम मंत्रमुग्ध से उसे देखते रह गए ।


मैं ही नहीं, शगुन भी ।


अभी हम उसके जादू-भरे व्यक्तित्व से बाहर नहीं निकल पाए थे कि हाल में मंदिर की घंटियों की सी पवित्र और खनखनाहट लिए - एक आवाज गूंजी---- "हैलो वेद ।”


“ह... हैलो ।” मैं सकपकाया ।


दिल था कि पसलियों पर सिर पटकने लगा ।


वह हमारी तरफ बढ़ी।


श्रीकांत, अभिक और वीणा बॉडीगार्डों की तरह उसके साथ थे ।


आप जानते हैं कि वे तीनों विभा के सहयोगी हैं।


'साढ़े तीन घंटे' में उन्होंने विभा द्वारा सौंपे गए छोटे-मोटे कामों को बड़ी खूबसूरती से अंजाम दिया था ।


मेरे बेहद नजदीक पहुंचकर विभा ने पूछा---- "कैसे हो वेद?”


“ठ... ठीक हूं विभा, तुम सुनाओ।" मैं मुश्किल से कह पाया ।


विभा हमेशा मुझसे इसी तरह बेतकल्लुफी के साथ मिलती है। परंतु मैं जाने क्यों हड़बड़ाने लगता हूं। अपनी उसी हड़बड़ाहट को छुपाने के लिए जल्दी से बोला- “इ... इससे मिलो विभा, ये..


“तुम !” उसने मेरी बात काटी- “तुम मिलाओगे मुझे इससे ! तुम भूलने वाली चीज हो सकते हो प्यारे, तुम्हारा ये शैतान बेटा नहीं।” कहने के बाद उसने शगुन की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा -"हैलो लिटिल मास्टर, कुछ जासूसी - वासूसी सीखी या नहीं?”


“जासूसी?” शगुन सकपकाया ।


“भूल गए!” विभा ने मेरी तरफ व्यंग से देखते हुए कहा था- -“मैं जब 'मिस्टर चैलेंज' को ढूंढने निकली थी तो यह कहते हुए तुम भी साथ चिपक गए थे कि ---- 'आंटी, मैं भी जासूसी सीखूंगा' ।”


“ओह !” शगुन कह उठा ---- “आपको वो बात याद है आंटी ?”


“तेरे पप्पू पप्पा ने बताया नहीं, आंटी कुछ नहीं भूला करती !”


“मैं भी कुछ नहीं भूलता ।” कहने के साथ शगुन अपनी तरफ बढ़े विभा के हाथ को नजरअंदाज करके उसके चरणों में झुका ।


“गुड... वैरीगुड बेटे ।” कहने के साथ भाव-विहल - सी हुई विभा ने थोड़ा झुककर शगुन के दोनों कंधे पकड़े और उसे ऊपर उठाती हुई बोली- - - - “तेरी तरफ हाथ बढ़ाया ही यह जानने के लिए था कि देखूं तो सही, मेरे इस नालायक दोस्त ने तुझे कुछ संस्कार भी दिए हैं या अपनी तरह ढूंठ बना रखा है। अगर तू मेरे पैर छूने की जगह हाथ मिलाता तो पिटाई आज तेरे इस पप्पा की होती ।”


“मेरी मम्मी तक जिनके पैर छूती हैं उनसे भला मैं हाथ कैसे मिला सकता हूं?” शगुन ने जब यह कहा तो विभा ने उसे बांहों में भरकर गले से लगा लिया था और कहा था“मुझे पूरा यकीन है, ये संस्कार तुझमें इस नालायक ने तो नहीं भरे हो सकते। इन सबके पीछे केवल मधु बहन है। वो क्यों नहीं आई ?”


जवाब मैंने दिया ---- “किसी पारिवारिक काम के कारण।”


“और हम एक जरूरी काम से आए हैं।” शगुन ने कहा ।


“ये है बाप वाली आदत । आते ही काम की बात ।” विभा ने तुरंत कटाक्ष किया----“मगर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। लंबे सफर से आए हो, पहले नहाना-धोना, फिर खाना-पीना, उसके बाद काम की बातें ।”


“टाइम कम है आंटी, असल में..


“मेरी दोस्त बहुत बड़े संकट में है।" उसकी बात काटकर विभा ने पूरी की ---- “ उसे रतन बिड़ला के मर्डर में फंसा दिया गया है।"


हम दोनों हकबका-से गए ।


हकबकाकर विभा का चेहरा देखा ।


देखा तो बस... उसे ही देखते रह गए ।


कहने के लिए कुछ सूझा ही नहीं । वे शब्द ही जुबां पर नहीं आ पाए थे जो कहना चाहते थे । विभा ने ही कहा ---- “अब तुम यह पूछोगे कि मुझे उस सबके बारे में कैसे मालूम ?”


“पूछना तो पड़ेगा ही आंटी ।” शगुन ने खुद को संयत किया ।


“तुम्हारे पप्पा जान ने बताया नहीं कि मैं हाथ में जादू की ऐसी छड़ी लिए घूमा करती हूं जो किसी को नजर नहीं आती?” कहने के साथ उसने मेरे हैरान चेहरे की तरफ देखा था ।


“ बताया ।” शगुन बोला---- “कई बार बताया और जब आप मिस्टर चैलेंज को ढूंढती फिर रही थीं तब खुद मैंने भी आपके हाथ में उस छड़ी को महसूस किया था लेकिन..


“लेकिन?” उसके गुलाबी होठों पर मोहक मुस्कान थी |


“मेरे ख्याल से चांदनी की कहानी जादू की किसी भी छड़ी से आपको पता नहीं लगनी चाहिए।”


“फिर भी लग गई । ”


“वही तो जानना चाहता हूं-कैसे?”


“वह मैं केवल तुम्हारी मेहमाननवाजी करने के बाद बताऊंगी ।” यह सेंटेंस उसने जिस लहजे में कहा उसे सुनते ही मैं समझ गया कि अब दुनिया की कोई ताकत उसे उसके फैसले से नहीं डिगा सकती ।


हुआ भी वही ।


हमें एक शानदार कक्ष में भेज दिया गया ।


स्नानादि के बाद डायनिंग टेबल पर |


वहां विभा पहले ही से हमारा इंतजार कर रही थी ।


उसके इशारे पर हम अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे ही थे कि एक झटके से वापस उठ जाना पड़ा।


बुरी तरह चौंका था मैं ।


चौंकने का कारण था ---- अनूप ।


अनूप जिंदल । विभा का पति ।


और शायद मुझसे भी बुरी तरह चौंके हुए शगुन के मुंह से चीख सी निकली थी “व... विराट ? तू यहां?”


उसके गुलाबी होठों पर मुस्कान रेंग आई जो मेरे हिसाब से अनूप जिंदल था । लंबे-लंबे कदमों के साथ नजदीक आकर वह मेरे कदमों में झुका और उस वक्त मैं बौखलाकर 'अरे...अरे... ये क्या कर रहे हो' ही कहता रह गया जब उसने मेरे चरणस्पर्श किए।


“आशीर्वाद दो वेद ।” विभा ने कहा ---- “यह अनूप नहीं, उनका बेटा है। विराट | विराट जिंदल । जिंदलपुरम का वारिस ।”


मैं उसे देखता ही रह गया ।


जरा भी तो फर्क नहीं था उसमें और अनूप में ।


वही खिलते हुए गुलाब जैसा रंग | वही कद-काठी । वही लंबाई और वही नाक-नक्श | जैसे अनूप वापस धरती पर उतर आया हो।


“त... तू आंटी का?” शगुन का आश्चर्य कम होने का नाम नहीं ले रहा था ---- “विभा आंटी का बेटा है?”


“कोई और सबूत देने की जरूरत है ?” कहने के साथ विराट ने शगुन को खींचकर अपने सीने से लगा लिया था।


“ल... लेकिन तूने कभी बताया नहीं !”


“ इजाजत नहीं थी दोस्त ।" विराट ने कहा ।


मैंने हैरत से पूछा----“तुम दोनों एक-दूसरे को जानते हो ?”


तब पता लगा कि शगुन और विराट ने 'ईग्नू' में साथ ही पायलट की ट्रेनिंग ली थी । लंच के दरम्यान विभा ने बताया कि विराट उसे बहुत पहले बता चुका था कि उसके दोस्त यानी मेरा बेटा भी 'ईग्नू' में उसके साथ पढ़ता है लेकिन विभा ने उससे कहा था कि किसी अन्य की तरह शगुन को भी पता नहीं लगना चाहिए कि वह जिंदलपुरम का वारिस यानी विभा का बेटा है । विराट ने इस हिदायत का पालन किया था ।


मैं जानता था, विभा मुझे तभी यह बात बता चुकी थी कि विराट अपनी पहचान छुपाए रखकर पढ़ाई पूरी कर रहा है जब मैं संजय भारद्वाज को लेकर उसके पास आया था ।


सारी दुनिया से विराट की पहचान इसलिए छुपाई जा रही थी क्योंकि औद्योगिक जगत में जिंदलपुरम के ऐसे बहुत से दुश्मन खड़े हो गए थे जो जिंदलपुरम के चिराग के लिए खतरा बने हुए थे।


लंच के दरम्यान चांदनी की बात भी चली और उसके बारे में की जा रहीं शगुन तथा विराट की बातों से मुझे यह इल्म भी हुआ कि ‘ईग्नू’ में पढ़ाई के दौरान चांदनी विराट के काफी नजदीक थी।


शायद दोस्ती के दायरे से कुछ आगे बढ़कर ।


जाने क्या बात थी कि विभा ने शगुन और विराट के बीच चल रही चांदनी से संबंधित बातों को काटते हुए हमें बताया कि विराट अपनी आगे की ट्रेनिंग हेतु आज शाम की फ्लाइट से कनाडा जा रहा है।


लंच के बाद वह अपनी तैयारियों में जुट गया । विभा हमें लिए उस कक्ष में पहुंची जिसे उसने अपने आफिस की ‘शेप' दे रखी थी।


चमचमाती हुई विशाल मेज के उस तरफ पड़ी रिवाल्विंग चेयर पर बैठती हुई विभा ने कहा ---- “अब हम काम की बातें करेंगे । ”


मौका मिलते ही मैंने कहा---- "सबसे पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि हमारे आने से पहले ही तुम्हारे स्टाफ को ..


“वो कोई खास बात नहीं है वेद ।” उसने मेरी बात पूरी नहीं होने दी----“क्लोज-सर्किट टी. वी. का जमाना है । सिक्योरिटी के लिए वे मंदिर में भी लगे हैं। मैंने जैसे ही ब्रास के गेट के बाहर खड़ी गाड़ी में तुम्हें देखा, फौरन गार्ड्स को संक्षेप में तुम लोगों का परिचय देने के साथ निर्देश दिए कि तुम्हें स-सम्मान अंदर ले आएं।”


“लेकिन यह जान लेना तो खास बात है आंटी कि हम आए क्यों हैं ?” शगुन ने कहा---- “चांदनी की स्टोरी आपको कैसे पता लग गई?”


“उसमें मधु बहन ने मेरी मदद की ।”


“मधु ने ?” मैं उछल पड़ा।


“वे यहां नहीं हैं दोस्त, फोन पर बात की थी मैंने उनसे।” विभा कहती चली गई----“तभी तो तुम्हारे सामने पंद्रह मिनट लेट पहुंची । तुम्हें देखते ही मैं समझ गई थी कि किसी खास वजह से आए हो । मधु बहन के साथ न होने के कारण यह सोचकर थोड़ा ।


घबरा गई कि कहीं उन्हीं के साथ तो कोई प्राब्लम नहीं है सो, फौरन तुम्हारे रेजीडेंस पर फोन लगाया। उन्हें महफूज पाकर राहत की सांस ली। उसके बाद तो वे खुद ही सारी बातें बताती चली गईं।”


“विभा, तुम्हारे काम करने का तरीका वाकई लाजवाब है।"


“आपने अच्छा ही किया आंटी जो मम्मी से बात कर ली। अब हमें अलग से पूरा किस्सा नहीं बताना पड़ेगा ।"


“तुम्हारे पापा ने ठीक कहा था ।” विभा ने मेरी तरफ देखते हुए शगुन से कहा ---- “आम मर्डर केसिज में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं होती। लेकिन इस मामले में पैदा हो गई है । "


“शुक्रिया आंटी ।”


“वो किसलिए?”


“मम्मी ने आपको यह भी बता दिया होगा कि पापा इसलिए यहां आने में हिचक रहे थे कि मामला आपके स्तर का नहीं है, मैं ही जिद करके आया हूं और मन में यह विश्वास लेकर आया हूं कि जब मैं जिद करूंगा तो आप मेरी बात टाल नहीं सकेंगी ।”


“नहीं शगुन ।” अपनी आदत के मुताबिक विभा ने साफ शब्दों में कहा ---- “मैं तुम्हारे या तुम्हारे विश्वास के कारण इस मामले में दिलचस्पी लेने के लिए तैयार नहीं हुई हूं।”


शगुन के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए ।


“फिर?” मैंने कहा----“फिर इस मामले में ऐसा क्या है जिसके कारण तुम्हारी दिलचस्पी हुई ?”


“वो लड़की झूठ बोल रही है ।”


“कौन लड़की ?” मैं और शगुन एकसाथ उछल पड़े ।


“चांदनी ।"


“च...चांदनी? चांदनी झूठ बोल रही है ?” मेरी हैरत की कोई सीमा न रही, पलटकर शगुन की तरफ देखा ।


वह भी उन्हीं नजरों से विभा की तरफ देख रहा था ।


“ इसी कारण मेरी दिलचस्पी इस मामले में हुई । ” हमारी हैरत पर ध्यान दिए बगैर वह कहती चली गई - -“केस जो है, सो है। वह तो अपनी जगह रहा लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि उस लड़की ने रात के दो बजे तुम्हारे घर आकर इतना बड़ा झूठ क्यों बोला ?”


“क्या झूठ बोला उसने ?” शगुन के लहजे में झूठ के बारे में जानने की जिज्ञासा कम, रोष ज्यादा था।


“पता लग जाएगा।” उसने बस इतना ही कहा ---- “कल मैं तुम्हारे साथ दिल्ली चलूंगी और इसलिए चलूंगी क्योंकि विभा जिंदल बनी ही ऐसे मामलों के लिए है ।”