ग्रेटर कैलाश में मैंने कार अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने खड़ी की तो मेरे मकान मालिक की बैठक की बत्ती जली ।
मैं कंपाउंड में दाखिल हुआ तो वह दरवाजा खोल कर बाहर बरामदे में प्रकट हुआ ।
“एक औरत तुम से मिलने आई हुई है” - उसने बताया - “बेचारी गली में चक्कर काट रही थी । मैंने उसे तुम्हारे फ्लैट में बैठा दिया है ।”
किन्हीं खास जरूरियात को मद्देनजर रख कर अपने फ्लैट की एक चाबी मैंने अपने मकान मालिक को दी हुई थी ।
“कौन है वो ?” - मैं बोला ।
“पता नहीं । जाकर देख लो । छुई मुई सी औरत है बेचारी । सड़क पर चक्कर काटती रहती तो काम हो जाता उसका ।”
“ओह ! ठीक है । शुक्रिया ।”
चेहरे पर असमंजस के भाव लिए मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा ।
वह बैठक में एक सोफाचेयर पर गठड़ी सी बनी सोई पड़ी थी । उसके सिर के बाल सफेद थे और वह उम्र में किसी कद्र भी पचपन से कम नहीं थी । उसकी नाक की फुनगी पर एक नाजुक सा चश्मा टिका हुआ था जो वह जब सांस लेती थी तो बड़े अजीब अंदाज से हिलता था ।
मैं उसके करीब पहुंच कर हौले से खांसा ।
उसने हड़बड़ा कर आंखें खोलीं । फिर वह सीधी हुई और उसने सोफाचेयर पर से उठने का उपक्रम किया ।
“नहीं, नहीं” - मैं जल्दी से बोला - “बैठिए, बैठिए ।”
उसके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव आए ।
मैं उसके सामने बैठ गया ।
“तुम सुधीर हो न” - अपने चश्मे में से मुझे अपलक देखती हुई वह बोली - “सुधीर कोहली ! प्राइवेट पुलिस !”
“वही” - मैं तनिक सिर नवा कर बोला - “आप...”
“बेटा, मेरा नाम विद्यावती है । मैं श्रीलेखा की बुआ हूं ।”
“ओह ! तो आपको उसकी मौत की खबर लग गई ।”
“हां ।”
“मुझे उसकी मौत का अफसोस है ।”
“बेचारी । अनाथ लड़की । अजनबी शहर में जान से हाथ धो बैठी ।”
“अनाथ लड़की ?”
“हां ! छः साल की थी जब मां बाप मर गए थे । श्रीलेखा को और उसके उससे एक साल छोटे भाई हरीश को बचपन से ही मैंने पाला था । रामनगर के रहने वाले हैं हम । वहीं रहते तो दोनों बच्चे सलामत होते । तुम्हारा दिल्ली शहर दोनों को लील गया । पहले हरीश दिल्ली आया । कहता था बड़े शहर में तरक्की की ज्यादा गुंजायश होती थी । क्या तरक्की की ? मर गया ।”
“कैसे ?”
“कैंसर था उसे ।”
“ओह ।”
“और श्रीलेखा ? वो भी कैरियर की खातिर दिल्ली आयी थी ?”
“नहीं । वो और वजह से यहां आई थी ।”
“किस वजह से ?”
“वो यह जानने की कोशिश में आई थी कि हरीश के उपन्यास का क्या हुआ ?”
“उपन्यास ! हरीश लेखक था ?”
“हां ।”
“उपन्यास लिखता था ?”
“हां ! बहुत बढ़िया । रामनगर में हर कोई उसकी तारीफ करता था । कितने अफसोस की बात है कि उसकी जिंदगी में उसके लेखन की कद्र नहीं हुई ।”
“यहां वह उपन्यास के प्रकाशन के चक्कर में आया था ?”
“हां ।”
“छपा था उपन्यास ?”
“बेटा, मैं यहां श्रीलेखा की बात करने आई थी ।”
“ओह, हां, हां । आपको खबर कैसे लगी उसकी हत्या की ?”
“पुलिस ने बताया । मेरी एक चिट्ठी पुलिस को श्रीलेखा के सामान में से मिली थी । उस पर मेरा रामनगर का पता था । उन्होंने मुझे खबर की । मैं फौरन यहां चली आई” - उसकी आंखें नम हो गयीं - “इतनी जवान लड़की । इतनी कम उम्र में मर गई । बिना जिंदगी का कोई सुख देखे ।”
“प्रभू को यही मंजूर था, मां जी ।”
वह खामोश रही ।
“आपको मेरे बारे में किसने बताया ?”
“श्रीलेखा ने ही बताया ।”
“अच्छा !”
“हां । उसने मुझे चिट्ठी लिखी थी । उसने तुम्हारे बारे में लिखा था ।”
“क्या ?”
“कि वो और तुम एक ही लाइन पर काम कर रहे थे और उसने तुम्हारी पूरी मदद करने का फैसला किया हुआ था ।”
“ऐसा लिखा था उसने ?”
“हरीश के उपन्यास की ही बाबत थी वो लाइन ।”
“उपन्यास का कोई नाम ?” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“भला सा नाम था । हां....औलाद का फर्ज ।”
“ओह !” - मैं मायूसी से बोला ।
“लेकिन वह छपा कोख का कलंक के नाम से था ।”
“ओह ! ओह !”
“सुना है सिनेमा भी तैयार हो रहा है उसका ।”
“लेकिन कोख का कलंक के लेखक का नाम तो हर्षवर्धन है ।”
“जैसे उन्होंने उपन्यास का नाम बदला था, वैसे ही उन्होंने लिखने वाले का नाम भी बदल दिया था ।”
“कैसे मालूम ?”
“कि हरीश का उपन्यास औलाद का फर्ज ही कोख का कलंक था ।”
“श्रीलेखा कहती थी । उसने हरीश का उपन्यास पढ़ा हुआ था । कोख का कलंक हूबहू वही था ।”
“श्रीलेखा को कोख का कलंक पढ़कर यह बात मालूम हुई ? खुद हरीश ने इस बाबत कुछ नहीं बताया ?”
“वो कैसे बताता ? वो तो पहले ही मर गया था ।”
“यानी कि उपन्यास उसकी जिंदगी में नहीं छपा था ?”
“यही तो कह रही हूं मैं ।”
“ओह !”
“हरीश को कैंसर था लेकिन हर किसी से उसने यह बात छुपाये रखी । जब मर गया तभी पता लगा कि कैंसर ने उसकी जान ली थी ।”
फिर उसका गला भर आया और आंखें नम हो गई ।
“हर्षवर्धन के बारे में श्रीलेखा ने कभी कुछ लिखा था ?” - मैंने पूछा ।
“हां । लिखा था । लिखा था कि वो कोई चोर है, डाकू है जिसने उसके भाई का लिखा उपन्यास अपने नाम से छपवा लिया था । तुम्हें उस चोर को पकड़वाकर उसे उसके किए की सजा दिलवानी चाहिए । यह कोई बात है ? मेहनत किसी की, माल किसी का और मालिक कोई बन बैठा । मैं तो कहती हूं कि जरुर उसी ने श्रीलेखा की जान ली है ।”
“किसने ?”
“उस पापी हर्षवर्धन ने और किसने ?”
“क्यों ?”
“असलियत छुपाने के लिए । श्रीलेखा को मालूम जो हो गया था कि उसने हरीश का उपन्यास अपने नाम से छपवा लिया था ।”
क्या यह बात हो सकती थी ? - मैंने मन ही मन सोचा - क्या पहले भी इसीलिये किसी ने सिकन्दरा रोड पर उसे मेरी कार के आगे धक्का देकर उसकी जान लेने की कोशिश की थी ?
अब कम से कम यह बात साफ हो गई थी कि क्यों उसने प्रीति नारंग को रिश्वत देकर उपन्यास के प्रकाशक कल्याण खरबंदा के आफिस में नौकरी हासिल की थी । असलियत जानने के लिए वह बेहतरीन जगह थी । खरबन्दा को चाहे यह शुरू में ही मालूम हो गया था कि कैसे श्रीलेखा ने वह नौकरी हथियाई थी लेकिन निश्चय ही उसे श्रीलेखा की असलियत या उसके उद्देश्य की खबर नहीं थी, होती तो वह उसे नौकरी पर बरकरार न रखे रहा होता ।
मुझे हर्षवर्धन के रायल्टी के चैक की फोटोकापी का ख्याल आया ।
जरूर उसकी कोई और ही अहमियत थी । कोई और ही बात थी जिसे मेरी तवज्जो में लाने के लिए वह आधी रात को मेरे फ्लैट पर आ रही थी ।
“क्या सोच रहे हो ?” - वृद्धा बोली ।
“कुछ नहीं” - मैं हड़बड़ाकर बोला - “कुछ नहीं ।”
“तो तुम कोशिश करोगे इस हर्षवर्धन के बच्चे को उसकी करतूत की सजा दिलवाने की ?”
“जरूर । क्यों नहीं ? मैं तो इस हर्षवर्धन की तलाश में पहले से हूं । अगर वही श्रीलेखा का हत्यारा हुआ तो जरूर अपने किए की सजा पाएगा ।”
“और दुनिया को यह भी पता लगना चाहिए कि उपन्यास असल में मेरे हरीश ने लिखा था ।”
“जरूर पता लगेगा । अब आप मुझे एकाध बात बताइए ।”
“पूछो ।”
“हरीश कब मरा ?”
“सात आठ महीने हो गए ।”
“यहीं दिल्ली में ?”
“हां ।”
“यहां वो किसके पास रहता था ?”
“किसी के पास नहीं ।”
“आप लोगों का कोई रिश्तेदार दिल्ली में नहीं जो उसे अपने पास रख लेता ?”
“न ।”
“कोई यार दोस्त ?”
“दिल्ली में उसका कोई नहीं था, बेटा ।”
“दिल्ली में अपना खर्चा पानी कैसे चलाता था वो ?”
“नौकरी करता था ।”
“कैसी नौकरी ?”
“ड्राइवर की नौकरी । किसी पैसे वाली मेम साहब की कार चलाता था और उन्हीं के गैरेज में रहता था ।”
“उन मेम साहब का नाम मालूम है आपको ?”
“मालूम है ।”
“वैरी गुड । क्या नाम था ?”
“वीणा शर्मा ।”
मैं सन्नाटे में आ गया ।
उस रहस्योद्घाटन से केस का एक और नया एंगल निकल आया था ।
वीणा शर्मा तो कुछ ज्यादा ही रहस्यमयी रमणी साबित हो रही थी । पहले वह मुझे खरबन्दा के फ्लैट में गोपाल पचेरिया की लाश के साथ मिली और अब मुझे बताया जा रहा था कि कोख का कलंक का असली लेखक उसके पास ड्राइवरी करता रहा था ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि हरीश की मौत के बाद वीणा शर्मा ने गैरेज में पड़े हरीश के निजी सामान में से उसके उपन्यास की स्क्रिप्ट बरामद की हो और उसे आगे खरबन्दा को सौंप दिया हो जिसने कि उपन्यास और लेखक दोनों का नाम बदलकर उसे छाप दिया हो ।
इस लिहाज से तो हर्षवर्धन कोई फर्जी नाम हुआ ।
अब जिस शख्स का कोई वजूद ही नहीं वो भला कत्ल कैसे कर सकता था !
लेकिन वजूद फर्जी नाम के लेखक का नहीं था, फर्जी नाम घड़ने वाले का तो था ।
यानी कि जो अपराध किया होने का शक वृद्धा हर्षवर्धन पर कर रही थी, वह खरबन्दा का किया भी तो हो सकता था ।
मैं खरबन्दा की कल्पना श्रीलेखा के कातिल के रूप में करने लगा ।
मुझे वह कल्पना कोई बुरी नहीं लगी ।
खरबन्दा सुभाष पचेरिया के कत्ल के शक से ही अभी कौन सा बरी हो चुका था । यकीनन दोनों करतूतें उसी की हो सकती थीं ।
“हरीश” - मैं बोला - “घर चिट्ठी लिखता रहता था ?”
“हां” - वृद्धा बोली - “हफ्ते दस दिन बाद चिट्ठी आ ही जाती थी उसकी ।”
“क्या लिखता था ?”
“हाल चाल ही लिखता था बेचारा अपना ।”
“कभी अपने उपन्यास के बारे में कुछ नहीं लिखता था वो ?”
“लिखता था ।”
“क्या लिखता था ?”
“यही कि वह उपन्यास को छपवाने की कोशिश कर रहा था । अपनी बहन को लिखी अपनी आखिरी चिट्ठी में उसने लिखा था कि उसने उपन्यास एक प्रकाशक को पढ़ने के लिए दिया था ।”
“वो चिट्ठी कहां है ?”
“मेरे पास है ।”
“इस वक्त है आपके पास ?”
“हां ।”
“जरा दिखाइए तो ।”
उसने एक चिट्ठी निकालकर मुझे सौंप दी ।
कुशल क्षेम के आदान-प्रदान के बाद लिखा था: “मैंने उपन्यास के कई चैप्टर दोबारा लिखे हैं और अब वह पहले से बहुत ज्यादा दिलचस्प और तेज रफ्तार हो गया है । मैंने कल उसे उत्कल प्रकाशन के एक पार्टनर पंचानन मेहता को सौंपा है जो हफ्ते दस दिन में पढ़कर बतायेगा कि वे उसे छाप सकते हैं या नहीं । देख लेना एक बार मेरे उपन्यास छपने शुरू हो गए तो मैं लोकप्रिय साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में तहलका मचा दूंगा । मैं....”
आगे सिर्फ गर्वोक्तियां थीं लेखक की अपने बारे में । लेकिन पत्र में पंचानन मेहता के जिक्र ने फिर मुझे वैसा ही झटका दिया था जैसे पहले वीणा शर्मा के नाम ने दिया था ।
अब तक मैं जब्त किए हुए था कि वृद्धा के सामने सिगरेट न पियूं लेकिन तब मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाल लिया ।
“मुझे दमा है” - वह बोली - “सिगरेट के धुएं से मुझे तकलीफ होती है ।”
“ओह !” - मैं बोला । मैंने पैकेट वापिस जेब में धकेल दिया और एक दियासलाई चबाने लगा ।
“हरीश भी बहुत सिगरेट पीता था” - वह गमगीन स्वर में बोली - “कहता था सिगरेट के साथ उसकी कलम बहुत खूबी से चलती थी ।”
“लेखकों के ऐसे शुगल होते ही हैं ।” - मैं बोला - “यह चिट्ठी मैं रख लूं, बुआ जी ?”
“इससे श्रीलेखा के हत्यारे की गिरफ्तारी में कोई मदद मिलेगी ?”
“हां ।”
“फिर रख लो ।”
“शुक्रिया ।”
“सुना है तुम्हारे जैसे प्राइवेट पुलिस वाले फीस लेकर काम करते हैं ।”
“करते तो हैं लेकिन...”
“तुम्हारी कोई वाजिब फीस मैं भरने के लिए तैयार हूं ।”
“उसकी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी । उलटे अगर मैं यह साबित करने में कामयाब हो गया कि कोख का कलंक का लेखक आपका बरखुरदार हरीश था तो आप को चार पैसों की कमाई हो जाएगी ।”
“वो कैसे ?”
“फिर रायल्टी आपको जो मिलने लगेगी ।”
“क्या मुझे मिलने लगेगी ?”
“रायल्टी । फीस । जो किताब कि बिक्री पर प्रकाशक से लेखक को मिलती है ।”
“मुझे फीस नहीं चाहिए, बेटा । मैं तो तुम्हारी फीस की बात कर रही थी ।”
“मुझे अपनी फीस कहीं और से मिल रही है । मेरी फीस का ख्याल छोड़ दीजिए ।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी ।”
“आपका दिल्ली में कब तक ठहरने का इरादा है ?”
“मैं तो एक सेकेंड इस नामुराद शहर में नहीं ठहरना चाहती जो कि मेरे दो बच्चों को लील गया । लेकिन श्रीलेखा की लाश कल मिलेगी इसलिए कल तक तो ठहरना ही होगा ।”
“कहां ठहरी हैं आप ? “
“श्रीलेखा के कमरे में । पुलिस ने इंतजाम करवाया है । उसका सामान भी तो समेटना है ।”
“चलिए मैं आपको वहां छोड़कर आता हूं ।”
“मैं चली जाऊंगी ।”
“कैसे जाएंगी । आधी रात को इस अजनबी शहर में एक नयी जगह पहुंचना कोई आसान काम न होगा । आइए, चलिए ।”
“तुम बड़े दयावान हो, बेटा । भगवान तुम्हारा भला करे ।”
***
पंचानन मेहता पहाड़गंज रहता था । उससे बात करने के लिए सुबह का इंतजार करना मुझे बहुत दूभर लग रहा था । पहाड़गंज  मैंने कर्जन रोड से होकर ही जाना था इसलिए वृद्धा को श्रीलेखा के कमरे तक पहुंचाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी ।
कई बार कालबैल बजाने पर पंचानन मेहता ने दरवाजा खोला । वह आंखें मलता हुआ चौखट पर प्रकट हुआ ।
“कोहली ।” - मुझे देख कर वह चौंका - “क्या हो गया ?”
“मुझे तुम्हारे से बात करनी है ।” - मैं बोला ।
“बात करनी है । इस वक्त ! जानते हो क्या टाइम हुआ है ?”
“जानता हूं । डेढ़ बजा है ।”
“लेकिन...”
“बात जरूरी है । भीतर चलो ।”
“तीव्र अनिच्छा का प्रदर्शन करता हुआ वह दरवाजे से हटा । वह मुझे अपनी बैठक में लाया । मैं एक कुर्सी पर ढेर हो गया । मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाल कर एक सिगरेट सुलगा लिया ।
वह अनिश्चित सा मेरे सामने खड़ा रहा ।
“बैठ जाओ” - मैं बोला - “मैं इतनी आसानी से नहीं टलने वाला ।”
“यार, डेढ़ बजे रात को....”
“रात का रोना बंद करो । यह ख्याल करो कि मैं तुम्हारे पड़ोस में नहीं रहता । दस मील से गाड़ी चला कर आया हूं । समझे !”
“बात क्या है ?”
“बैठ कर बात ज्यादा अच्छी तरह समझ सकोगे ।”
“वह बैठ गया और आंखें मिचमिचाता हुआ मेरी तरफ देखने लगा ।”
“पहली बात तो यह है” - मैं बोला - “कि मैंने पता लगा लिया है कि कोख का कलंक किसने लिखा है ।”
“बड़ा तीर मारा” - वह भुनभुनाया - “लेखक का नाम तो किताब के ऊपर ही लिखा है । ये मोटे मोटे अक्षरों में ।”
“हर्षवर्धन ?”
“हां ।”
“इस नाम का कोई आदमी इस दुनिया में हैं । यह एक फर्जी नाम है ।”
“फर्जी नाम !”
“हां । वैसा ही फर्जी नाम जैसे तुम्हारे धंधे में बतौर ट्रेड मार्क दर्जनों की तादाद में चलते हैं । राम, श्याम, हरनाम, रमेश, सुरेश, महेश, रतन, मदन, पवन, वगैरह वगैरह वगैरह ।”
“हर्षवर्धन वैसा नाम है ?”
“हां ।”
“असल में नावल किसने लिखा है ?”
“हरीश नाम के एक रामनगर वासी ने । याद आया यह नाम ?”
“मुझे ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इस लेखक ने अपना यह उपन्यास, जिसका लेखक का रखा नाम औलाद का फर्ज था” - मैंने एक उंगली खंजर की तरह उसकी तरफ भौंकी - “तुम्हें सौंपा था ।”
““मुझे !” - वह हड़बड़ाया ।
“हां ।”
“कौन कहता है ?” - वह भड़का ।
“मैं कहता हूं । लेखक कहता है । वो सबूत कहता है जो इस वक्त मेरे पास है ।”
“तुम पागल हो गए हो । आधी रात को तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । अरे, अगर वो उपन्यास मेरे पास आया होता तो मैं उसे हाथ से निकल जाने देता ! निकल जाने देता तो क्या खामखाह निकल जाने देता ! खामखाह भी निकल जाने देता तो क्या मैं यह दुहाई मचाता तुम्हारे पास आता कि मेरे साथ धोखा हो गया है और तुम मुझे इंसाफ दिलवाओ ?”
मैं खामोश रहा । मैंने सिगरेट का एक लंबा कश खींचा ।
“बोलो ! जवाब दो ।”
“जवाब तुम दो ।”
“मैं क्या जवाब दूं । मेरा जवाब यही है कि मैंने उस स्क्रिप्ट की कभी सूरत नहीं देखी ।”
“यह चिट्ठी पढ़ो ।” - मैंने उसे विद्यावती से हासिल हुई चिट्ठी सौंपी ।
उसने चिट्ठी पढ़ी । फिर उसने लिफाफे पर छपा पता पढ़ा ।
“श्रीलेखा !” - उसके मुंह से निकला ।
“हां । वही श्रीलेखा” - मैं बोला - “जिसका कल रात कत्ल हुआ है, जो खरबन्दा की सैक्रेट्री थी और जो कोख का कलंक के हरीश नाम के मूल लेखक की बड़ी बहन थी । चिट्ठी में क्या हरीश ने झूठ लिखा है कि उसने स्क्रिप्ट तुम्हारे प्रकाशन में तुम्हें सौंपी थी ?”
“झूठ तो नहीं लिखा होगा ।”
“अगर उसने झूठ नहीं लिखा तो तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“नहीं, मैं झूठ नहीं बोल रहा ।”
“लेकिन वो....”
“वो भी झूठ नहीं बोल रहा ।”
“दोनों बातें कैसे हो सकती हैं ?”
“हो सकती हैं” - वह बड़ी संजीदगी से बोला - “देखो । जरा सब्र से सुनो, मेरी बात पर विश्वास करके सुनो, अपने क्लायंट पर कोई भरोसा दिखा कर सुनो कि कैसे हो सकती हैं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“देखो, लोकप्रिय साहित्य का धंधा फिल्म जैसा है । जैसे लाखों दर्शक फिल्म के दीवाने होते हैं, वैसे ही लाखों पाठक ऐसी किताबों के दीवाने होते हैं । जैसे हर कोई फिल्म देख कर यह महसूस करने लगता है कि वह एक्टर बन सकता है । वैसे ही हर कोई ऐसे नावल पढ़ कर समझने लगता है कि वो नावल लिख सकता है । आधी दर्जन ऐसे नावल पढ़े नहीं कि उसे अपने आप में छुपी विलक्षण प्रतिभा के दर्शन होने लगते हैं और उसकी उंगलियां कलम चलाने को फड़कने लगती हैं । ऐसे लेखक दर्जनों की तादाद में हमारी किस्म के प्रकाशकों के दफ्तरों में आते हैं । ऐसी बेशुमार स्क्रिप्ट वे जबरन प्रकाशकों के पास ढेर कर जाते हैं । हम उसके दो पेज पढ़ते हैं तो हमें मालूम हो जाता है वह कूड़ा है ।”
“सिर्फ दो पेज पढ़ कर ?”
“हां, भाई । खिचड़ी पकी है या कच्ची, इसकी तसदीक के लिए पूरी हांडी थोड़े ही खानी पड़ती है । एकाध दाना चखने से ही उसकी औकात नहीं मालूम हो जाती ?”
“तुम ठीक कह रहे हो । आगे बढ़ो ।”
“ऐसी कूड़ा स्क्रिप्ट और उसके खुशफहमी के मारे लेखक प्रकाशक के दफ्तर में आते रहते हैं और लौटते रहते हैं । उन तमाम लेखकों की सूरतों को और उनके तमाम नावलों के नामों कों कोई माई का लाल याद नहीं रख सकता । ऐसे ही लेखकों में वो एक लेखक हरीश होगा जो अपनी स्क्रिप्ट मेरे पास छोड़ गया होगा । कोहली, कसम उठवा लो, मुझे न यह नाम याद है और न उसकी स्क्रिप्ट का ख्याल है ।”
“लेकिन स्क्रिप्ट तो उसने तुम्हें दी थी ।”
“दी होगी । लेकिन हो सकता है मैंने उसकी तरफ झांका तक न हो । हो सकता है दफ्तर में किसी और ने उसका एकाध वरका पढ़ा हो और फिर उसे लेखक को लौटा देने के लिए प्रीति नारंग को सौंप दिया हो जो कि बंटवारे से पहले हमारी फर्म में सैक्रेट्री थी और बंटवारे के बाद जो खरबन्दा की एम्प्लायमेंट में रह गई थी ।”
“स्क्रिप्ट वापिस तो हुई ही नहीं थी ।”
“वह खरबन्दा के हाथ लग गई होगी । फर्म में आई सारी स्क्रिप्ट मैं ही थोड़े ही पढ़ता था । उनमें से कईयों को खरबन्दा भी तो पढ़ता था । उस हरीश नाम के लेखक ने स्क्रिप्ट सौंपी जरूर मुझे होगी लेकिन वह पहुंची खरबन्दा के पास होगी । पहुंची होगी क्या ? पहुंची ही थी ! तभी तो खरबन्दा उसे ले उड़ा । तभी तो अब मैं उस पर अपना हक जताने के लिए तुम्हारा क्लायंट बना हूं ।”
मैं सोच में पड़ गया । मुझे कबूल करना पड़ा कि उसकी बात में दम था ।
“श्रीलेखा कभी तुम्हारे पास आई ?” - फिर मैंने पूछा ।
“नहीं कभी नहीं आई ।”
“आना चाहिए था लेकिन नहीं आई ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उसने तो हाल ही में दिल्ली में कदम रखा है । उसके यहां आने तक तो कोख का कलंक के कई एडीशन प्रकाशित हो चुके थे और खरबन्दा से मेरी पार्टनरशिप टूटे भी महीनों हो चुके थे । उन हालात में मेरे पास आकर उसे क्या हासिल होता ? स्क्रिप्ट का कोई घोटाला अगर हुआ था तो वह खरबन्दा ने किया था और उसका खरबन्दा के ही पीछे पड़ना समझ में आता था । आगे उसकी हरकतों से जाहिर ही है कि वह खरबन्दा के पीछे पड़ी ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।”
“शुक्र है ।”
“किस बात का ?”
“तुमने माना तो सही कि मैं ठीक कह रहा हूं । कोहली, हो तो तुम बड़े तीस मार खां लेकिन एक सबक मेरे से भी लो ।”
“क्या ?”
“अपने क्लायंट का विश्वास करना, उस पर भरोसा करना, सीखो ।”
“सीख के लिए शुक्रिया, पिता जी, लेकिन बात ही कुछ ऐसी थी कि उसकी फौरन तुमसे सफाई हासिल करना जरूरी था ।”
“अब कर ली न ?”
“हां ।”
“राजी हो ?”
“हां ।”
“शुक्र है ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “यह हरीश, जिसकी तुमने मुझे चिट्ठी दिखाई, अब कहां है ?”
मैंने छत की तरफ उंगली उठा दी ।
“क्या मतलब ?” - वह बोला ।
“मर गया । नावल छप पाने से पहले ही मर गया । उसे तो शायद अपनी जिंदगी में यह खबर लगी ही नहीं थी कि उसने ऐसा सुपर हिट नावल लिख लिया था और पब्लिशर उस पर चारों खाने चित्त हो चुका था ।”
“ओह ! यानी कि अब लेखक के बयान से खरबन्दा की बेईमानी साबित नहीं की जा सकती ?”
“नहीं की जा सकती ।”
“लेखक की बहन खरबन्दा के यहां नौकरी हासिल करने में कैसे कामयाब हो गई ?”
“प्रीति नारंग को रिश्वत देकर । प्रीति नारंग ने खुद नौकरी छोड़ दी और उसे अपनी जगह लगवा गयी ।”
“ओह !”
“लेकिन ऐसी कमबख्त निकली साली कि जाकर खरबन्दा को भी यह बात बता आई ।”
“खरबन्दा तड़पा नहीं ?”
“उसे श्रीलेखा की असलियत तो मालूम नहीं थी न । श्रीलेखा की असलियत तो प्रीति नारंग को भी नहीं मालूम थी । खरबन्दा इसी बात को सच मान बैठा होगा कि लड़की उस पर फिदा हो गई थी और उसके ज्यादा से ज्यादा करीब रहने की खातिर उसने प्रीति नारंग को पटा कर वह नौकरी हासिल की थी । तुम बताओ, खरबन्दा जैसे औरतखोर और खुशफहम आदमी के साथ यह कहानी नहीं चल सकती ?”
“चल सकती है ।”
“तभी तो उसने श्रीलेखा को नौकरी से नहीं निकाला । उसे यह भी मालूम होता कि लड़की भेद लेने के लिए उसकी फर्म में घुसी थी तो वह अपना माथा पीट लेता और एक सेकेंड भी श्रीलेखा को वहां न टिकने देता ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।”
“अब अपनी प्रकाशक की हैसियत से बताओ कि असल कहानी क्या हुई होगी ।”
“असल कहानी यह हुई होगी कि जब अभी पार्टनरशिप नहीं टूटी थी, तब कोख का कलंक की स्क्रिप्ट खरबन्दा के हाथ पड़ गयी थी । फिर पार्टनरशिप टूट गई, स्क्रिप्ट खरबन्दा के पास चली गई, उसने स्क्रिप्ट पढ़ी तो उसके छक्के छूट गए । उसने लेखक की पूछताछ कि तो पता लगा कि वह मर गया था । और पूछताछ की तो पता लगा कि उसका कोई होता सोता भी नहीं था दिल्ली शहर में । बस उसने नावल का नाम बदलकर कोख का कलंक रखा, उस पर हर्षवर्धन का फर्जी नाम चिपकाया और छाप दिया ।”
“दुरुस्त !”
“फिर लेखक की बहन आ टपकी और आकर खरबन्दा के आफिस में घुसपैठ कर गयी । घुसपैठ का नतीजा यह हुआ कि वह हकीकत जान गई और उसके हकीकत जान जाने का नतीजा यह हुआ कि....”
“उसका कत्ल हो गया ?”
“हां ।”
“खरबन्दा के हाथों ?”
“मुझसे क्या पूछते हो ! मौजूदा हालात में क्या तुम्हारा भी यही ख्याल नहीं ?”
“ख्याल तो मेरा यही है लेकिन केस के कुछ और भी एंगल हैं जो तवज्जो के तलबगार हैं ।”
“जैसे ?”
“जैसे वीणा शर्मा ।”
“मानव शर्मा की बीवी ।”
“हां ।”
“उसका क्या एंगल है ?”
“अपनी जिंदगी में हरीश - कोख का कलंक का मूल लेखक - बतौर ड्राइवर उसके पास नौकरी करता था ।”
वह हक्का-बक्का सा मेरा मुंह देखने लगा ।
“इसका क्या मतलब हुआ ?” - फिर वह बोला ।
“कुछ तो मतलब होना ही चाहिए ।” - मैं उठता हुआ बोला - “सोचो ।”
“और वीणा शर्मा वो कटे बालों वाली औरत थी जिसे मैंने बुधवार को खरबन्दा के फ्लैट पर पाया था और जिसकी शर्तिया खरबन्दा के साथ आशनाई है ।”
उसने उल्लुओं की तरह पलकें झपकाईं ।
“अब तुम मुझे यह बताओ कि क्या कोख का कलंक की स्क्रिप्ट वीणा शर्मा के माध्यम से खरबन्दा तक पहुंची हो सकती है ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि क्या यह हो सकता है कि हरीश तुम्हारी फर्म में से रिजैक्ट हो जाने पर स्क्रिप्ट वापिस ले गया हो, फिर उसकी मौत के बाद वीणा शर्मा ने वह स्क्रिप्ट उसके सामान में से बरामद की हो और आगे खरबन्दा को सौंप दी हो ? हो सकता है ऐसा ?”
“हो तो सकता है” - वह घबराकर बोला - “लेकिन कोहली यूं तो मेरा केस पिट जाएगा । फिर मैं यह कैसे क्लेम कर सकूंगा कि स्क्रिप्ट तब फर्म में पहुंची थी और खरबन्दा द्वारा हथिया ली गई थी जब कि अभी पार्टनरशिप भंग नहीं हुई थी ?”
“नहीं कर सकोगे !” - मैं उठता हुआ बोला ।
“अरे, तुम उठ के कहां चल दिए मुझे फिक्र में डालकर ! कोई रास्ता सुझाओ, कोहली ।”
“खुद सोचो रास्ता । दिमाग पर जोर दो ।”
“अब मुझे बाकी रात नींद नहीं आनी ।”
यह और भी अच्छी बात है । सोचने में सहूलियत होगी ।”
वह दरवाजे तक मेरे साथ आया । मैं वहां से विदा होने लगा तो एकाएक उसने मेरी बांह थाम ली ।
“क्या हुआ ?” - मैं हकबकाया ।
“मानव शर्मा कहता है” - वह बोला - “कि उसने खरबन्दा की जुबानी कोख का कलंक की कहानी तब सुनी थी जब कि अभी पार्टनरशिप भंग नहीं हुई थी । अगर खरबन्दा के पास स्क्रिप्ट लेखक की मौत के बाद वीणा शर्मा के माध्यम से पहुंची होती तो उसे पहले से कहानी कैसे मालूम हो सकती थी ?”
“देखा !” - मैं प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “अभी जरा सा ही सोचा है तो कितनी मार्के की बात सूझी है । सारी रात सोचोगे तो क्या कुछ नहीं सूझेगा !”
“तुम मजाक कर रहे हो ।” - वह आहत भाव से बोला ।
“मैं एकदम गंभीर हूं । नमस्ते ।”
मैंने उसकी पकड़ से अपनी बांह छुड़ाई और वहां से विदा हो गया ।
***
मैं आफिस पहुंचा ।
हमेशा की तरह उस सुबह भी रजनी मेरे से पहले वहां मौजूद थी ।
“भीतर आओ ।” - मैं बोला ।
वह मेरे पीछे पीछे मेरे आफिस केबिन में पहुंची ।
मैंने सिर से पांव तक उसे निहारा ।
“लगता है आज ब्रेकफास्ट नहीं करके आए” - वह बोली । 
“कैसे जाना ?” - मैं हकबकाया ।
“आंखों आंखों में मुझे जो निगल जाने की कोशिश कर रहे हैं आप ।”
“सिर्फ कोशिश कर रहा हूं ।” - मैंने नकली आह भरी - “कोशिशें तो मैं और भी बहुत करता हूं लेकिन कामयाब कहां हो पाता हूं ?”
“कई बार कोशिश में कामयाबी से ज्यादा मजा होता है ।”
“वो कैसे ?”
“कोशिश इनसान बार बार करता है । कामयाबी के बाद वो कहानी खत्म हो जाती है ।”
“क्या बात है, आज तो बड़ी काबलियतभरी बातें कर रही हो ?”
“मैं अक्सर काबलियतभरी बातें करती हूं, खासतौर से सुबह सवेरे ।”
“गुड । अब यूं करो, अपनी यही काबलियत किसी ढंग के काम में लगाओ ।”
“जी !”
“एक कमाल करके दिखाओ ।”
“वैसा ही जैसा मैंने आपके पिछले केस में किया था ? करोलबाग के महारानी होटल में रहती रोहिणी नाम की लड़की की जन्म कुण्डली तैयार करके ?”
“उससे जरा ज्यादा मुश्किल ।”
“वह कमाल तनख्वाह में ही करके दिखाना होगा ?”
“हां” - मैं सख्ती से बोला ।
“वैसे आपको याद है न की मेरी यहां भरती टाइप और शार्टहैंड के लिए है, कमाल दिखने के लिए नहीं ।”
“अब बहस ही करे जाओगी कि सुनोगी भी कुछ !”
“सुनाइए ।”
“तुमने नैशनल बैंक की कनाट प्लेस शाखा में जाना है । वहां रुद्रनारायण गुप्ता नाम के एक शख्स का एकाउंट है । तुमने किसी तरह से वहां से यह मालूम करके आना है कि पिछले एक साल में उस शख्स ने अपने एकाउंट में क्या जमा करवाया और उसमें से क्या निकलवाया ।”
“एकाउंट नंबर ?”
“नहीं मालूम ।”
“ऐसी जानकारी तो बैंकों में गोपनीय रखी जाती है ।”
“मुझे मालूम है । तभी तो तुम्हें भेज रहा हूं ।”
“मुझे जानकारी कैसे हासिल होगी ?”
“होगी । बैंक का डीलिंग क्लर्क नौजवान हुआ तो जल्दी होगी । मेरा मतलब समझ रही हो न ।”
“जी हां, समझ रही हूं । और मतलब हल करने का आपका निहायत बेहूदा इशारा भी समझ रही हूं ।”
“गुड ! अच्छा है कि आज लग भी कुछ ज्यादा ही शानदार रही हो । अब जाओ ।”
उसने मेरी तरफ हाथ फैला दिया ।
“अब क्या है ?” - मैं आंख निकाल कर बोला ।
“टैक्सी का किराया ।” - वह बड़ी मासूमियत से बोली ।
“बस पर जाओ ।”
“मुझे कोई एतराज नहीं लेकिन बस पर कनाट प्लेस पहुंचने तक मैं शानदार नहीं रह पाऊंगी । बस के धक्के मेरी सारी चमक दमक और पालिश उतार देंगे । फिर पता नहीं बैंक क्लर्क की मुझे देखकर लार टपकेगी या नहीं, फिर पता नहीं आपका काम होगा या नहीं ।”
“अच्छा, अच्छा” - मैंने भुनभुनाते हुए उसे एक पचास का नोट थमाया ।
“यह तो एक तरफ का किराया हुआ ।” - वह बोली ।
“इतनी अंधी नहीं लगी रही ।”
“इतनी ही अंधी लग रही है । जानते नहीं अभी हाल ही में पैट्रोल के दाम बढ़े हैं ।”
“जानता हूं । फिर भी इतनी अंधी नहीं लग रही । हद है । मैं दुनिया जहान के कपड़े उतारता हूं, तुम मेरे कपड़े उतार रही हो !”
वह हंसी ।
“वापिस बस पर आना ।” - मैं सख्ती से बोला ।
“लेकिन...”
“वापसी में तुम्हारी पालिश उतरती है, उतरने देना ।”
“ठीक है । मर्जी आपकी ।”
वह चली गई ।
उसके जाते ही आफिस में मानव शर्मा के कदम पड़े ।
उसे आया देखकर मैं हैरान भी हुआ और खुश भी । हैरान इसलिए क्योंकि मैं उसके वहां आने की उम्मीद नहीं कर रहा था, खुश इसलिए क्योंकि उस घड़ी मैं खुद उसके यहां जाने की सोच रहा था ।
“वैलकम । वैलकम ।” - मैं उठकर उसका स्वागत करता हुआ बोला ।
उसने मेरे से हाथ मिलाया और मेरे सामने पड़ी एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
“इधर एक काम से आया था” - वह अपने कान की लौ खींचता हुआ बोला - “याद आया कि यहीं कहीं तुम्हारा भी दफ्तर था । ढूंढा तो झट मिल गया । सोचा मिलता चलूं ।”
“बहुत अच्छा किया आपने । इसी बहाने भगवान के पांव चींटी के घर भी पड़ गये ।”
वह हंसा । उसने बड़े प्यार से कान की लौ खींची और बोला - “और सोचा तुम्हें एक खबर भी सुनता चलूं ।”
“खबर !”
“हम सिंगापुर जा रहे हैं ।”
“हम ?”
“मैं और वीणा ।”
“सिंगापुर !”
“मेरा छोटा भाई वहां रहता है । कई सालों से बुला रहा था । अब एकाएक प्रोग्राम बन गया ।”
“सैर कर आने का ?”
“वहीं सैटल हो जाने का ।”
“कब जा रहे हैं आप ?”
“आज ही रात ।”
“लेकिन आपने तो यहां पंचानन मेहता के हक में कोर्ट में गवाही देनी है और केस तो अभी कोर्ट में लगा भी नहीं ।”
“गवाही की बाबत मैंने अपना इरादा बदल दिया है ।”
“कमाल है । आप तो कहते थे कि आप पंचानन मेहता के हक में गवाही जरूर देंगे ।”
“भई , यहां रहूंगा तो दूंगा न ! अब उसकी खातिर मैं अपना प्रोग्राम तो नहीं बदल सकता !”
“यह तो पंचानन मेहता को बीच मंझधार में लाकर छोड़ने जैसी बात हुई ।”
“अब मैं क्या करूं । हालात ही ऐसे बन गये हैं ।”
“आपका तो खुद का इन्टरेस्ट था उस गवाही में । आप तो ढाई लाख रुपया कमाने जा रहे थे ।”
“वो कहानी अब खत्म । जब मैंने यहां रहना ही नहीं तो मैं यहां किसी को कर्जा देकर अपने कारोबारी झमेले क्यों बढ़ाऊंगा ?”
“जनाब, कोई ऐसा तरीका है कि आप कोर्ट में अपनी गवाही देने तक सिंगापुर न जाएं ?”
“है एक तरीका ।”
“क्या ?” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“कल्याण खरबन्दा का” - उसने इतने जोर से कान की लौ खींची कि यही हैरानी की बात थी कि कान न उखड़ गया - “कत्ल करवा दो ।”
“जी !”
“वर्ना मैं मार डालूंगा उस हरामजादे को ।”
“इस भयंकर आक्रोश की वजह ?”
“वजह तुम्हें पता है ।” - भावावेश में उसकी आवाज कांपने लगी - “तुम्हें यह भी पता है कि परसों मैंने तुम्हें अपने यहां क्यों बुलाया था ?”
“अपनी गवाही की बाबत बात करने के लिए ।”
“नानसैन्स ।”
“तो ?”
“अपनी बीवी से तुम्हारा आमना सामना करवाने के लिए ।”
“जी !”
“तुम्हारी विजिट से मेरा यह शक विश्वास में बदल गया था कि खरबन्दा के फ्लैट में तुम्हारा जिस कटे बालों वाली युवती से आमना सामना हुआ था, वह मेरी बीवी वीणा थी । तुम्हारी शक्ल देखते ही उसके चेहरे का रंग उड़ता मैंने साफ देखा था । और वो समझती है कि बाद में फ्लैट से बाहर गलियारे में उसने तुमसे जो खुसर फुसर की थी, उसकी मुझे खबर नहीं ।”
मैं खामोश रहा । अपनी नर्वसनैस छुपाने के लिए मैंने सिगरेट सुलगा लिया ।
“दो कौड़ी की औकात नहीं थी मेरी बीवी की मेरे साथ शादी से पहले” - वह जोर जोर से अपने कान को मसलता हुआ बोला - “स्टेज और टी वी सीरियल्स में काम पाने के लिए सारा सारा दिन मण्डी हाउस की खाक छाना करती थी । मैंने उससे शादी की, उसे रुतबा दिया, इज्जत दी, सुखसुविधा और ऐश्वर्य दिया । जमीन से उठा कर आसमान पर बिठाया उसे । बदले में मुझे क्या मिला उस नाशुक्री और हरजाई औरत से ? धोखा ! फरेब ! बेवफाई !”
वह ठिठका । मुझे यूं लगा जैसे वह पुक्का फाड़ कर रोने लगा हो । लेकिन ऐसा न हुआ । उसने अपने आप पर काबू पाया और अपेक्षाकृत सुसंयत स्वर में बोला - “मैं जिंदगी का बड़े से बड़ा झटका बर्दाश्त कर सकता हूं लेकिन औरत की बेवफाई नहीं बर्दाश्त कर सकता । मैं अपनी बीवी की कल्पना कल्याण खरबन्दा नाम के उस हरामजादे, उस कुत्ते के पिल्ले, उस मोरी के कीड़े के पहलू में नहीं कर सकता । मैं खून कर दूंगा उसका ।”
“फांसी हो जाएगी” - मैं धीरे से बोला ।
“मैं उसे तबाह कर दूंगा” - वह यूं बोला जैसे उसने मेरी बात सुनी ही न हो - “मैं उसे कौड़ी कौड़ी का मोहताज कर दूंगा । मैं उसे गलियों में भीख मांगने वाला मंगता बना दूंगा ।”
“फिर तो और भी जरूरी है कि आप पंचानन मेहता के हक में गवाही दें । पंचानन मेहता के केस जीत जाने से खरबन्दा को तगड़ा आर्थिक धक्का लगेगा जो कि आप पसन्द करेंगे । फिर खड्डे में गिरते को और गहरा धकेलना आसान होगा । आपके सिंगापुर पलायन कर जाने से आपको क्या हासिल होगा ? यूं उसके जहन से आपकी बीवी का ख्याल निकल थोड़े ही जाएगा ! वो यही सोचेगा कि कभी तो आप लौट कर आएंगे ही ।”
वह खामोश रहा ।
मैं उसके बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“मेरी बीवी कल तुमसे मिली थी ?” - एकाएक वह बोला ।
मैंने उत्तर न दिया ।
“झूठ बोलने का कोई फायदा नहीं । मेरे आदमी को तुमने डाज दे दी थी, वह नहीं जान पाया था कि तुम कौन थे लेकिन फिर भी मुझे मालूम है कि वह तुम्हीं से मिली थी ।”
“फिर भी कैसे मालूम है ?”
“क्योंकि अपने पीछे लगे आदमियों को भांपने की और फिर उसे डाज देने की होशियारी कोई तुम्हारे जैसा आदमी ही दिखा सकता था ।”
“यह तो कोई बात न हुई ।”
“ठीक है नहीं हुई । तभी तो तुमसे सवाल कर रहा हूं । बोलो कल मेरी बीवी तुम से मिली थी ? जवाब यह सोचकर देना कि तुम इनकार भी करोगे तो मुझे विश्वास नहीं होगा ।”
“आपका आदमी पतला, लम्बा, तोते जैसी नाक वाला था ?”
“हां ।”
“है कौन वो ?”
“है एक तुम्हारे ही पेशे से ताल्लुक रखता आदमी जिसे मैंने अपनी बीवी की निगरानी के लिये लगाया था ।”
“कब ?”
“परसों ।”
“खरबन्दा के फ्लैट में घटी खूनी घटना वाले रोज से अगले रोज ?”
“हां । तुम पहले मेरे सवाल का जवाब दो । कल मेरी बीवी तुमसे मिली थी ?”
“मिली थी ।”
“क्या चाहती थी ?”
“खास कुछ नहीं ।”
“फिर भी ?”
“मेरा शुक्रगुजार होना चाहती थी कि मैंने परसों आपके सामने उसकी पोल नहीं खोली और आगे भी वह राज रखने का वादा लेना चाहती थी ।”
“यह वादा हासिल करने के लिए और क्या किया उसने ?”
“क्या मतलब ?”
“तुम पर डोरे डालने की कोशिश नहीं की उसने ?”
“नहीं” - मैं बड़े सब्र से बोला ।
“क्यों झूठ बोल रहे हो ? इसलिए इनकार कर रहे हो क्योंकि समझते हो कि मैं बुरा मान जाऊंगा ? तुम खूबसूरत हो, नौजवान हो, मॉडर्न हो, ऊपर से…”
“शर्मा साहब” - मैं सख्ती से बोला – “ऐसा कह कर, ऐसा सोचकर आप अपने आपको टार्चर कर रहे हैं । ईर्ष्या की भावना ने आपकी मति भ्रष्ट कर दी मालूम होती है । यूं तो जो मर्द एक सेकंड के लिये आपकी बीवी के पास खड़ा हो गया, आप उसी पर शक करने लगेंगे । ऐसा कहीं होता है ! इससे तो बेहतर यह है कि आप तलाक दे दें ऐसी बीवी को ।”
“उसने..उसने तलाक का कोई जिक्र किया था ?”
“नहीं । कतई नहीं ।”
“हूं ।” - वह बोला । उसने कान की लौ को खींचने मसलने की जगह सहलाना आरम्भ कर दिया - “अच्छा, यह बताओ, तुम्हारे ख्याल से मेरी बीवी का उस आदमी के कत्ल से कोई रिश्ता हो सकता है जो खरबंदा के फ्लैट में मरा पाया गया था । क्या नाम था उसका ?”
“सुभाष पचेरिया ।”
“हां । सुभाष पचेरिया । उसके कत्ल से मेरी बीवी का कोई रिश्ता हो सकता है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“भई । मैंने तुम्हारा ख्याल पूछा है ।”
“मेरा ईमानदाराना ख्याल जानना चाहते हैं आप ?”
“हां ।”
“फिर तो हो सकता है । आपकी बीवी के पास खरबन्दा के फ्लैट की चाबी थी । जब उस हाउसहोल्ड में वह इस हद तक स्थापित थी तोउसे यह भी मालूम रहा हो सकता है कि खरबन्दा के पास रिवाल्वर थी और वह उसे फ्लैट में कहां रखता था । आगे हालात ऐसे पैदा हो गए हो सकते हैं कि आपकी बीवी को गोली चलानी पड़ गई हो ।”
“हूं । अगर ऐसा हुआ, वह पकड़ी गई और उसे सजा हो गई तो मुझे बहुत अफसोस होगा ।”
“अच्छा !”
“मैं उसके बिना एक पल नहीं रह सकता ।”
“जी !”
मेरे लिए वह शख्स अजूबा साबित हो रहा था । घड़ी में तोला, घड़ी में माशा ।
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“मैं आपके लिए काफी मंगाऊं ?”
“नहीं । मैं चलता हूं ।” - उसने उठने का उपक्रम किया ।
“जरा एक मिनट और बैठिए ।”
वह प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी ओर देखने लगा ।
“तो सिंगापुर जाने के बारे में क्या सोचा आपने ?”
“सोच रहा हूं फिलहाल न जाऊं, तुम्हारी ही सलाह पर अमल करुं । पंचानन मेहता मेरी गवाही से केस जीत गया तो साले खरबन्दा की कुछ तो कमर टूटेगी । आगे की आगे देखेंगे ।”
मैंने चैन की सांस ली ।
“अब एक बात मैं आपसे पूछना चाहता हूं ।” - मैं बोला ।
“क्या ?” - उसने पूछा ।
“आपके यहां हरीश नाम का एक ड्राइवर हुआ करता था वो कुछ ही अरसा बाद कैंसर से मर गया था ।”
“हां ।”
“उसके बारे में बताइए कुछ ।”
“क्यों बताऊं ? खास कुछ तो मैं जानता नहीं । मेरी बीवी की फरमाइश थी एक ड्राईवर की । वह जरूरतमन्द लड़का था । मैंने उसे नौकरी पर इसलिए रखा था क्योंकि वह पिचका सा, मरघिल्ला सा, बदसूरत सा आदमी था । अपनी बीवी के मामले में मैं ऐसे ही किसी आदमी का भरोसा कर सकता था ।”
“उसके परिवार या खुद उसके बारे में आप और कुछ नहीं जानते थे ?”
“नहीं ।”
“क्या आप इस बात पर विश्वास कर लेंगे कि आपका वही ड्राईवर वास्तव में कोख का कलंक जैसे कामयाबी के अगले पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ देने वाले उपन्यास का लेखक था ?”
“क्या कह रहे हो ?” - वह अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ओर फिर अपने कान की लौ खींचने लगा - “जरूर तुम मजाक कर रहे हो !”
“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं । मेरे पास इस बात का सबूत है । खरबन्दा ने बेइमानी से वह स्क्रिप्ट हथियाई थी और उसका नाम बदलकर और लेखक की जगह हर्षवर्धन का फर्जी नाम लगा कर वह किताब छापी थी । लेखक बेचारा मर गया इसलिए उसकी उस बेइमानी को किसी ने चैलेंज भी न किया । अब यह
बात मैं पुलिस तक पहुंचाऊंगा ।”
“कहीं तुम यह तो नहीं कहना चाहते कि उस बेइमानी में भी मेरी बीवी ने खरबन्दा का साथ दिया था, यानी कि लेखक की मौत के बाद उसने वह स्क्रिप्ट खरबन्दा को सौंपी हो !”
“पुलिस ऐसा ही कोई नतीजा मौजूदा हालात में निकालेगी लेकिन ऐसा हुआ हो, यह इसलिए सम्भव नहीं क्योंकि मेरे पास एक सबूत है जो यह जाहिर करता है कि हरीश ने स्क्रिप्ट खुद उत्कल प्रकाशन में तब पहुंचाई थी जबकि अभी मेहता और खरबन्दा की पार्टनरशिप भंग नहीं हुई थी । आपकी गवाही भी यही है कि आपने उस उपन्यास की कहानी खरबन्दा की जुबानी पार्टनरशिप के दौरान सुनी थी ।”
“ओह !”
“अलबत्ता यह हो सकता है कि आपकी बीवी की ही सलाह पर हरीश अपनी स्क्रिप्ट लेकर उत्कल प्रकाशन में पहुंचा हो ।”
“आई सी ।”
“और यह भी हो सकता है कि लेखक की कोई और पाण्डुलिपि भी उपलब्ध हो और वह या तो आपकी बीवी के पास हो या उसको उसकी खबर हो ।”
“आज की तारीख में तो ऐसी कोई पाण्डुलिपि लाखों की होगी ।”
“बिल्कुल । और वे एक से ज्यादा भी हो सकती हैं ।”
“मैं पूछूंगा वीणा से इस बारे में ।”
“जरा सख्ती से, मजबूती से पूछिएगा ।”
“तुम फिक्र न करो ।”
“नतीजा मुझे बताएंगे ?”
“जरूर । मालूम होते ही । अब मैं चला ।”
मैं उसे बाहर तक छोड़ने आया ।
“तो सिंगापुर कैन्सल !” - लिफ्ट के पास मैं उससे हाथ मिलाता हुआ बोला ।
“कैंसल !”- वह बोला । उसने अपने कान की लौ छोड़ दी ।
“गवाही पक्की ?”
“पक्की ।” - उसने लौ फिर पकड़ ली ।
वह वहां से विदा हो गया ।
***
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
यादव अपने कमरे में मौजूद था ।
“आओ” - मुझे देखते ही वह बोला - “मैं तुम्हें ही याद कर रहा था ।”
“अच्छा !” - मैं उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“हां । सच पूछो तो मैं तुम्हें यहां बुलवाने वाला था ।”
“मैं खुद ही आ गया ।”
“अच्छा हुआ । क्या बातें हुई विद्यावती से ?”
“कौन विद्यावती !”
“श्रीलेखा की बुआ । जो पुलिस के बुलावे पर रामनगर से आई है । झूठ बोलोगे तो बेवकूफ बनोगे ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि जब उसने तुम्हारे से मिलने की बात की थी तो मैंने ही उसे तुम्हारे घर का पता समझाकर तुम्हारे पास भेजा था ।”
“ओह ! पुलिस को क्या बताया उसने ?”
“कुछ भी नहीं । पता नहीं क्यों उसे पुलिस से ज्यादा तुमसे उम्मीदें थीं । जरुर श्रीलेखा अपनी जिन्दगी में उसे तुम्हारे बारे में कोई चिट्ठी-विट्ठी लिख गई होगी । तभी तो बावजूद हमारे यह बताने के कि श्रीलेखा के कत्ल का शक तुम पर भी किया जा रहा था, वह तुमसे मिलने गई ।”
“बुढ़िया सयानी निकली । पुलिस के बहकावे में नहीं आई ।”
“अब शुरू करो ।”
मैंने पूरी ईमानदारी से अपना और विद्यावती का वार्तालाप दोहरा दिया ।
“यानी कि” - अन्त में मैं बोला - “कत्ल का शक उसे मुझ पर नहीं, उस शख्स पर है जिसने हरीश का उपन्यास चुराया था ।”
“और यह हरीश मानव शर्मा की गाड़ी चलाता था ?”
“गाड़ी उसकी बीवी की चलाता था, अलबत्ता तनखाह खाविन्द से पाता था ।”
“बीवी का जिक्र तुम यूं कर रहे हो जैसे उसका केस से कोई रिश्ता हो ।”
“है । बड़ा दिलचस्प रिश्ता है ।”
“क्या ?”
“जिस कटे बालों वाली लड़की की खरबन्दा के फ्लैट में मौजूदगी की बाबत मैंने अपना बयान दिया था और जिस पर किसी को भी विश्वास नहीं आया या, वह मानव शर्मा की बीवी वीणा शर्मा थी ।”
“क्या !”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“यह बात तुम्हें कब मालूम हुई ?”
“अगले दिन । यानी कि परसों ।”
“बता अब रहे हो ?”
“ऐसी बात बताने से क्या फायदा जिस पर तुम्हें विश्वास ही नहीं ।”
“अरे, - वह झल्लाया - “लड़की की शिनाख्त हो जाने के बाद बात वही नहीं रहती । तब हम उसी से पूछ सकते थे कि वो खरबन्दा के फ्लैट में थी या नहीं ।”
“मैंने सोचा क्यों किसी सभ्रांत महिला के लिए प्राब्लम खड़ी की जाए ।”
“सभ्रांत महिला !” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “जो शादीशुदा औरत किसी गैरमर्द के साथ इतने गहरे नाजायज ताल्लुकात बनाए हुए हो कि उसके फ्लैट की चाबी अपने पास रखती हो, उसे तुम सभ्रांत महिला कहते हो । सभ्रांत महिलाओं के ये लच्छन होते हैं !”
मैं चेहरे पर खेदपूर्ण भाव लिए खामोश रहा ।
वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तुम्हारी बातों से तो लगता है कि सारे फसाद की जड़ वह नावल कोख का कलंक है । इस लिहाज से फसाद की इस जड़ की भी जड़ खरबन्दा होना चाहिये ।”
“बिल्कुल !” - मैंने उसकी राय का पुरजोर समर्थन किया ।
“दोनों मरने वाले किसी ने किसी वक्त उसके मुलाजिम थे । सुभाष पचेरिया से उसकी रंजिश अब जगविदित है । श्रीलेखा ने एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत रिश्वत देकर उसके आफिस में घुसपैठ की थी, यह भी तुम कहते हो कि उसकी भूतपूर्व सैक्रेट्री प्रीति नारंग उसे बता चुकी थी ।”
“प्रीति नारंग !” - एकाएक मैं चौंका ।
“क्या हुआ ?”
“मैं कल उससे मिला था और उस पर यह सम्भावना व्यक्त की थी कि उसकी जान को भी खतरा हो सकता था और उसे कुछ दिन के लिए होस्टल से कूच कर जाने की राय दी थी । पता नहीं उसने मेरी राय पर अमल किया था या नहीं ।”
“क्या किस्सा है ?”
मैंने उसे किस्सा सुनाया । बमय इस तथ्य के कि मैंने खरबन्दा को पहले चोरों की तरह श्रीलेखा के कमरे मे विचरते और फिर प्रीति नारंग के कमरे का दरवाजा खटखटाते देखा था और फिर कैसे चौकीदार को भड़काकर ऊपर भेजा था ।
यादव कुछ क्षण अपलक मुझे देखता रहा और फिर दान्त पीसता हुआ बोला - “कोहली !”
“यस, सर ।”
“गोली मार देने के काबिल आदमी हो तुम ।”
“ओह नो, सर ।”
“जी चाहता है तुम्हें किसी काल कोठरी में बन्द करके चाबी जमुना में फेंक आऊं ।”
“ऐसा क्या कर दिया मैंने ?”
“तुम्हें नहीं पता ! यह बात तुम मुझे आज बता रहे हो ।”
“कल ही की तो बात है । आज खुद हैडक्वार्टर आकर बता रहा हूं ।”
“यहां तुम अपने किसी स्वार्थ से आए हो ।”
“मैंने अपना कोई स्वार्थ जाहिर किया ?”
“अभी करोगे ।”
“लेकिन...”
“अब बकवास मत करो और चुपचाप बैठो ।”
फिर वह टेलीफोन से उलझ गया ।
पूरे पांच मिनट बाद उसने फोन वापिस रखा ।
मैंने आशापूर्ण नेत्रों सेउसकी तरफ देखा ।
“लड़की अभी होस्टल में ही है ।” - उसने बताया ।
“सही सलामत ?” - मैं बोला ।
“फिलहाल । मैंने एक पुलिस वाले को उसकी रखवाली के लिए भेजा है ।”
“लड़की से तुम्हारी अभी बात हुई ?”
“हां । और चौकीदार से भी । तुम्हारे जाने के बाद चौकीदार ऊपर गया था तो उसने खरबन्दा को तब भी लड़की का दरवाजा खटखटाते पाया था और लड़की को उसे दफा हो जाने को कहते सुना था । चौकीदार ने गिरफ्तार करवा देने की धमकी देकर खरबन्दा को वहां से भगाया था ।”
“खरबन्दा चाहता क्या था ?”
“उसे उसकी पुरानी नौकरी पर वापिस बुलाना चाहता था जबकि लड़की दोबारा उसकी नौकरी में वापिस आना नहीं चाहती थी ।”
“वो कल गई क्यों नहीं ?”
“कहती है वो खरबन्दा का खौफ खा गई थी । उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो कि वह वहां से बाहर निकले और उसकी ताक में कहीं छुपा बैठा खरबन्दा फिर उसके पीछे पड़ जाए ।”
“ओह !”
“बहरहाल अब लड़की सेफ है ।”
“खरबन्दा श्रीलेखा के कमरे में चोरों की तरह किस फिराक में घुसा होगा ?”
“जाहिर है लड़की की असलियत मालूम करने के लिए ।”
“तुम्हें इस बाबत खरबन्दा से सवाल करना चाहिए ।”
“मैं करूंगा । पहले बोलो तुम किस फिराक में यहां आए हो ?”
“मैं हर्षवर्धन के चैक की उस फोटोकापी की फिराक में आया हूं जो कि तुमने श्रीलेखा के ब्लाउज में से बरामद की थी ।”
“मतलब ?”
“मैं उस फोटोकापी की एक फोटोकापी चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“यह देखने के लिए कि नारायणदास के नाम से लेखक की रायल्टी का चैक भुनवाने वाला व्यक्ति कहीं खुद कल्याण खरबन्दा ही तो नहीं ।”
“मतलब ?”
“देखो । अब जबकि यह जाहिर हो चुका है कि कोख का कलंक का असली लेखक मर चुका है और हर्षवर्धन एक फर्जी नाम है तो यह भी तो हो सकता है कि खरबन्दा इनकम टैक्स बचाने के लिए केवल दिखावे का रायल्टी का चैक लेखक के नाम काटता हो और उसे खुद ही भुनवा लेता हो ।”
“हो सकता है लेकिन है नहीं ऐसा ।”
“कैसे मालूम ?”
“हमने चैक किया है । हमने खरबन्दा के हैंडराइटिंग से नारायण दास की एंडोर्समेंट का मिलान किया है । दोनों हैंडराइटिंग नहीं मिलतीं ।”
“पक्की बात ?” - मैं तनिक मायूसी से बोला ।
उसने घूर कर मेरी तरफ देखा ।
“फिर भी अगर एक फोटोकापी मिल जाए तो...”
उसने एक सिपाही को बुला कर उचित निर्देश दिए ।
“चैक पर नारायणदास” - मैं विचारपूर्ण स्वर में बोला - “खरबन्दा के हैंडराइटिंग में नहीं भी लिखा हुआ तो भी पैसा वापिस खरबन्दा के पास जाता हो सकता है । क्या पता खरबन्दा का कोई मुलाजिम या चमचा सचमुच नारायणदास नाम वाला हो ।”
“हो सकता है” - यादव ने स्वीकार किया - “खरबन्दा इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि खुद ही चैक काट कर उसे नारायणदास के नाम से भुनवाने अपने बैंक में पहुंच जाए । वहां उसे सब जानते जो होंगे । चैक भुनवाने वह जरूर अपने किसी भरोसे के आदमी को भेजता होगा, नारायणदास नाम भले ही न हो उसका ।”
“ऐग्जैक्टली । मेरे ख्याल से तो तुम्हें अभी जाकर खरबन्दा से इस बाबत सवाल करना चाहिए । वह चैक भुनवाने वाले की बाबत कोई जानकारी होने से इनकार कर सकता है लेकिन चैक वह सौंपता किसे था, इस बात को वह छुपाये नहीं रख सकता ।”
यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठता हुआ बोला - “मैं अभी आया ।”
वह कमरे से बाहर निकल गया तो उसका टेलीफोन मैंने अपनी तरफ घसीट लिया ।
मैंने अपने ऑफिस का नंबर लगाया ।
तुरन्त रजनी फोन पर आई ।
“कुछ काम बना ?” - मैंने पूछा ।
“बना” - वह बोली - “लेकिन बहुत मुश्किल से । बहुत ही मुश्किल से ।”
“वजह ?”
“बैंक का डीलिंग क्लर्क कोई नौजवान नहीं एक चालीस से ऊपर की खूसट औरत थी जो अपनी बदहजमी और बच्चों की फीस का रोना रो रही थी । फिर वह दो प्लेट सांभर बड़ा और एक रवा मसाला डोसा खा गई और बच्चों की फीस में कंट्रीब्यूशन मैंने दी सौ के एक नोट की सूरत में । यानी कि एक सौ सत्ताइस रूपये पिचहत्तर पैसे आप मुझे अभी और देंगे ।”
“मालूम क्या हुआ ?”
“रुद्रनारायण गुप्ता के एकाउन्ट में हर महीने एक ही चैक - दस हजार रुपए का - जमा होता है जिसकी रकम पूरी की पूरी वे खाते में लगते ही हर महीने निकलवा लेते हैं ।”
“और कोई जमा या निकासी नहीं ?”
“नहीं । निकासी की तो गुंजायश भी नहीं । दस हजार रुपए निकलवाने के बाद एकाउन्ट में सौ सवा सौ रूपये ही बाकी रह जाते हैं ।”
“गुड । वापिस बस पर ही आई हो न ?”
“अब जब आपने टैक्सी का वापिसी का भाड़ा दिया ही नहीं तो बस पर ही आना था ।”
“सोचा शायद वह भी एक सौ सत्ताइस रुपए पिचहत्तर पैसे की तरह मेरे खाते में लगा दिया हो ।”
“नहीं लगाया ।”
“बस में तुम्हारी पालिश तो नहीं उतरी ?”
“नहीं उतरी ।”
“अंदेशा तो बहुत था तुम्हें ?”
“अलबत्ता उससे ज्यादा बुरी बात हो गई ।”
“क्या ?” - मैं सशंक स्वर में बोला ।
“बस में कुछ लफंगे सवार थे ।”
“ओहो !” - मैं हमदर्दी भरे स्वर में बोला - “उन्होने तुम्हें छेड़ा होगा, गन्दे इशारे किए होंगे, फबतियां कसी होंगी ?”
“इससे भी बुरा किया कमीनों ने ?”
“अच्छा ! क्या किया उन्होंने ?”
“उन्होंने मुझे हर तरह से नजरअंदाज कर दिया, मेरी तरफ झांका भी नहीं, पीठ फेर ली मेरी तरफ से ।”
“यह तो वाकई बहुत बुरा किया कमीनों ने ।”
“हां, न । आप वापिस भी मुझे टैक्सी पर लौटने देते तो क्या होती मेरी इतनी बेइज्जती ! आप...”
“छोड़ो । कोई और बात हो तो बोलो ।”
“एक है लेकिन पता नहीं वह आपको किसी काम की लगेगी या नहीं ।”
“क्या बात है ?”
“रुद्रनारायण ने आज ही बैंक से दस हजार रूपये निकलवाये हैं । मैं उसके चैक की फोटोकापी निकाल लाई हूं । अब पता नहीं यह आपके किसी काम आएगी या नहीं...”
तभी यादव वापिस लौटा ।
“चलो ।” - वह दरवाजे से ही बोला ।
“कहां ?” - मैं माउथपीस पर हाथ रखता हुआ हड़बड़ा कर बोला ।
“खरबन्दा की तलाश में । जाना चाहते हो न ?”
“बिल्कुल जाना चाहता हूं । सौ फीसदी जाना चाहता हूं । पहले कहां जाने का इरादा है ?”
“उसके घर । मैंने फोन करके पता किया है वो आफिस में नहीं है ।”
“मैं अभी चलता हूं” - फिर मैं माउथपीस से हाथ हटा कर बोला - “रजनी, वो फोटोकापी लेकर डिफेंस कालोनी पहुंचो ।”
“डिफेंस कालोनी कहां ?”
मैंने उसे खरबन्दा का पता बताया ।
“बस में ही आऊं या...”
मैंने फोन क्रैडल पर रख दिया और उछल कर खड़ा हो गया ।
मैं यादव के साथ हो लिया ।
“यादव साहब” - गलियारे में मैं तनिक दबे स्वर में बोला - “वो फोटोकापी...”
उसने तत्काल एक दोहरा किया हुआ कागज मुझे सौंप दिया ।
***
पहले हम डिफेंस कालोनी पहुंचे ।
वहां पुलिस की जीप खरबन्दा के फ्लैट वाली इमारत से अभी थोड़ा परे ही थी कि एकाएक एक आदमी दौड़ता हुआ बाहर निकला और बाहर खड़े एक थ्रीव्हीलर स्कूटर में सवार हो गया । स्कूटर तुरन्त विपरीत दिशा में दौड़ गया और मोड़ काटकर दृष्टि से ओझल हो गया ।
“पंचानन मेहता ।” - मेरे मुंह से अपने आप ही निकल गया ।
“यह यहां क्या कर रहा था ?” - यादव बोला ।
“पता नहीं । इसे तो खरबन्दा की सूरत देखना गवारा नहीं था । कहीं खुद ही कोई सैटलमैंट तो नहीं कर लिया दोनों ने ?”
ड्राईवर ने जीप रोकी ।
मैं और यादव जीप से निकले और इमारत में दाखिल हुए । सीढ़ियों के रास्ते हम पहली मंजिल पर पहुंचे जहां कि खरबन्दा का फ्लैट था ।
फ्लैट का मुख्यद्वार खुला था जिसकी वजह से बाहर से ही ड्राइंगरूम का नजारा हो रहा था ।
मैं और यादव चौखट पर ही ठिठक गये ।
भीतर ड्राईगरूम के कारपेट पर औंधे मुंह फ्लैट का मालिक कल्याण खरबन्दा पड़ा था । उसकी पीठ में मूठ तक जो खंजर घुपा हुआ था, उसे मैंने फौरन पहचान लिया ।
वह वही नक्काशीदार मूठ वाला जापानी खंजर था जो मैंने मधुमिता के फ्लैट में देखा था ।