सब-इंसपेक्टर मोहन मोरे रात डयूटी पर गश्त कर रहा था। उसकी मोटरसाईकिल पर पीछे हवलदार सुरेन्द्र काछी बैठा था। उस वक्त वो दोनों पावनहार और दगशाही के सामने मुख्य सड़क पर थे कि जब उन्हें पहली गोली की आवाज सुनाई दी।

मोहन मोरे ने तुरन्त मोटरसाइकिल रोक दी।

"ये गोली की आवाज थी काछी।" मोहन मोरे आस-पास देखता बोला।

"आवाज किधर से आई साहब जी?" सुरेन्द्र काठी मोटरसाइकिल से नीचे उतरा।

दोनों की नज़रें आस-पास घूमती रही।

सब कुछ सामान्य दिखा।

"साहब जी, किसी मोटरसाइकिल ने बैक फायर किया...।"

"नहीं काछी, ये गोली की आवाज थी। और ज्यादा दूर गोली नहीं चली। पास ही से आवाज आई थी।"

“पर यहाँ तो सब कुछ ठीक ही नज़र आ रहा है।"

तभी एक के बाद एक दो फायरों की आवाज उन्हें सुनाई दी।

"साब जी उधर।" काछी पेड़ों की तरफ हाथ करके बोला--- "उस पार से आवाज आई है।"

"उधर इस इलाके की इनर लेन है। बैठ। आगे से मोड़ काट कर उस तरफ जाना होगा।"

काछी बैठा। मोरे ने मोटरसाइकिल दौड़ा दी।

"साब जी, तीन गोलियाँ चली हैं। कोई लफड़ा लगता है।"

"अभी पता चल जायेगा।" मोहन मोरे ने कहा और मोटरसाइकिल दौड़ाता रहा। वापसी का मोड़ काफी आगे जाकर था। आगे लाल बत्ती भी आ गई और काफी ट्रैफिक था। मजबूरन रुकना पड़ा उन्हें ।

बहरहाल दूसरी तरफ की इनर लेन में पहुँचते-पहुँचते उन्हें दस मिनट लग गये। इनर लेन में मोहन मोरे ने मोटरसाइकिल धीमी कर दी और सुरेन्द्र काछी से बोला ।

"इधर अंधेरा है। देखता रह आस-पास---।"

जल्दी ही मोहन मोरे को मोटरसाइकिल की ब्रेक लगा देनी पड़ी।

मोटरसाइकिल की हैडलाइट में, सामने हरीश खुदे की लाश दिखी।

"कोई पड़ा है। लगता है इसे ही गोली लगी होगी।" सुरेन्द्र काछी मोटरसाइकिल से उतरकर आगे बढ़ा।

"अगर वो मर गया है तो उसे हाथ मत लगाना।" पीछे से मोहन मोरे बोला। उसने मोटरसाइकिल बंद करी और नीचे उतर कर उसे स्टैंड पर लेकर आस-पास देखा। पावनहार और दगशाही बिल्डिंग खामोश खड़ी दिखी। मोहन मोरे जेब से फोन निकालता आगे बढ़ा और फोन की लाइट जला दी । सुरेन्द्र काछी से पूछा।

"जिन्दा है या मर गया?"

"पता नहीं। आपने मोटरसाइकिल की लाइट बंद कर दी थी।" काछी बोला।

मोहन मोरे ने टॉर्च की रोशनी नीचे पड़े हरीश खुदे पर मारी ।

“मर चुका है ये।" मोहन मोरे उसे देखते ही कह उठा।

"मारने वाला कहां गया साहब जी?"

"हमारे पहुँचने से पहले ही भाग गया। रुकेगा थोड़े ना हत्यारा---।" मोहन मोरे फोन बंद करके दगशाही मैनशन को देखता बोला--- “यहाँ तो हमेशा गार्ड होते हैं। नेशनल बैंक का ऑफिस है और नीचे ब्राँच है।" फिर उसने साथ वाली पावनहार पर नजर मारी--- "वहाँ भी गार्ड होते हैं, लेकिन आज दोनों ही जगहों पर गार्ड नहीं हैं। अजीब बात है ।"

"मैं देखूं साहब जी ।" सुरेन्द्र काछी आगे बढ़ने को हुआ।

"तू लाश के पास रुक। मैं देखता हूं।" मोहन मोरे होलेस्टर से रिवाल्वर निकालता बोला--- "गड़बड़ लग रही है मुझे।"

ये सुनते ही सुरेन्द्र काछी ने मोटरसाइकिल में फंसा डंडा हाथ में ले लिया।

मोहन मोरे रिवाल्वर थामे दगशाही मैनशन के गेट पर पहुंचा और ऊँचे से पुकारा।

"कोई है?"

परन्तु जवाब में कोई आवाज नहीं आई।

गेट खुला ही था। मोहन मोरे रिवॉल्वर थामे भीतर प्रवेश कर गया।

सुरेन्द्र काछी डंडा थामें, हरीश खुदे की लाश के पास खड़ा रहा।

दो मिनट भी नहीं बीते कि सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे तेजी से बाहर निकलता दिखा।

“यहाँ कुछ हुआ है काछी। भीतर सब गार्ड बेहोश पड़े हैं।" मोहन मोरे ने ऊँचे स्वर में कहा।

"सब बेहोश हैं?"

“मैं साथ वाली बिल्डिंग में देखता हूँ। वहाँ भी कोई गार्ड नहीं दिख रहा। तू थाने फोन कर दे।"

सुरेन्द्र काछी तुरन्त मोबाइल निकालकर फोन पर, यहाँ के बारे में सूचना देने लगा ।

मिनट भर में सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे लौट आया।

सुरेन्द्र काछी तब तक पुलिस स्टेशन खबर दे चुका था ।

“साथ वाली बिल्डिंग में भी सब गार्ड बेहोश पड़े हैं। यहाँ बड़ा कांड हुआ लगता है।" मोहन मोरे वहाँ से निकलकर वापस दगशाही में प्रवेश करता ऊँचे स्वर में बोला--- “बैंक देखता हूँ कहीं उसे तो नहीं लूटा गया। तूने खबर दे दी।"

“पुलिस स्टेशन फोन कर दिया साहब जी।" सुरेन्द्र ने कहा।

जल्दी ही मोहन मोरे वापस लौटता कह उठा।

“बैंक तो ठीक तरह से बंद है।"

"तो क्या हुआ होगा, साहब जी ?"

“भारी गड़बड़ है। बैंक के रखवाले बेहोश हैं। साथ वाली बिल्डिंग के गार्ड बेहोश हैं। किसी ने इस आदमी को कुछ देर पहले गोली मारी। ये सब बिना वजह तो हुआ नहीं होगा। इंस्पेक्टर साहब को बुलाना पड़ेगा।" मोहन मोरे ने फोन निकाला और नम्बर मिलाने लगा।

■■■

इलाके का इंस्पेक्टर किशन दारूवाला अपने दल-बल के साथ वहाँ आ गया था। तब तक मोहन मोरे ने पावनहार और दगशाही मैनशन की छतों पर वो सीढ़ी देख ली थी जो दोनों इमारतों के बीच पुल का काम कर रही थी। आते ही पुलिस वालों ने तेजी से इन्वेस्टिगेशन शुरू कर दी। इंस्पेक्टर दारूवाला ने मोहन मोरे को, हरीश खुदे के शरीर के साथ, पुलिस गाड़ी में हॉस्पिटल भेज दिया। मोरे ने हवलदार सुरेन्द्र काछी को साथ ले लिया था। पुलिस की गाड़ी हॉस्पिटल की तरफ दौड़ पड़ी।

"इस बॉडी को हॉस्पिटल छोड़कर हम वापस आ जायेंगे साहब जी।" काछी बोला।

“हाँ। ये तो मरा पड़ा है।” मोहन मोरे ने हरीश खुदे के शरीर पर निगाह मारी।

"हुआ, क्या होगा वहाँ, साहब जी ?"

"मेरे ख्याल में नैशनल बैंक पर डकैती की गई होगी। परन्तु अभी कुछ भी साफ नहीं है।"

"इसे किसने मारा? "

“पता नहीं, खोजबीन से पता चलेगा। मुझे तो ये डकैती का ही साथी लगता है।”

“हमें तो वहाँ ना लूटे का कोई निशान दिखा और ना ही कोई बंदा दिखा।"

“हमारे पहुँचने तक वो निकल गये होंगे। पता चल जायेगा वहाँ क्या हुआ... ।”

तभी मोबाइल बज उठा ।

मोहन मोरे ने फौरन अपनी जेब में हाथ डाला। परन्तु उसका फोन नहीं बज रहा था।

"साहब जी, लाश के कपड़ों में फोन बज रहा है।" कहने के साथ ही काछी अपनी जगह से उठा और हरीश खुदे की लाश को टटोलने लगा। उसकी आँखें अभी तक फैली हुई थी--- “कितनी डरावनी लग रही हैं आँखें साहब जी।"

काछी ने खुदे का मोबाइल फोन निकालकर मोहन मोरे को दिया और अपनी जगह पर बैठ गया।

फोन अभी भी बजे जा रहा था।

मोहन मोरे ने कॉल रिसीव की।

"हैलो---।"

"मेरा दिल नहीं लग रहा। तुमसे मिलने का मन है। देख सुबह के चार बजने वाले हैं और मुझे अभी तक नींद नहीं आई।" टुन्नी की आवाज मोहन मोरे के कानों में पड़ी--- “तू टाइम निकाल कर मेरे पास दो घंटे के लिए ही आ-जा। इस तरह तो तू अपनी टुन्नी को मार देगा। दो महीने से तुझे देखा नहीं। तुझे छुआ नहीं। अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे मैं शादीशुदा नहीं, कुंवारी हूँ। सुन रहा है ?"

मोहन मोरे का दिमाग तेजी से दौड़ पड़ा।

"कौन है तू?" मोहन मोरे ने शांत स्वर में कहा।

दो पल के लिए उधर से टुन्नी की आवाज नहीं आई फिर आवाज आई।

"तू कौन है! ये फोन मेरे पति का है, उसे दे।"

“क्या नाम है तेरे पति का?" मोहन मोरे ने संभलकर पूछा।

“फालतू सवाल क्यों पूछता है, उसे फोन दे। मेरे पति का फोन तेरे पास क्यों है?"

“अपने पति का नाम बता, तभी तो उसे फोन दूंगा।"

“ये क्या बात हुई? ठीक है, उसका नाम हरीश खुदे है।"

“हरीश खुदे ?"

"जल्दी दे उसे फोन ।” उधर से टुन्नी ने कहा।

"कहाँ रहती है तू?"

“क्या?" उधर से टुन्नी ने तेज स्वर में कहा--- “कहीं भी रहूँ तुझे क्या, मेरे पति को फोन दे। मेरे से स्टोरी मत डाल---मैं--।"

"मैं पुलिस वाला हूँ ।" सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे ने सब्र के साथ कहा।

पुलिस की गाड़ी हॉस्पिटल की तरफ दौड़े जा रही थी।

“पु... पुलि... स वाला?" उधर से टुन्नी हक्की बक्की सी कह उठी--- "पकड़ा गया वो।"

"वो कौन?"

"मेरा पति हरीश खुदे---।"

"तो तुझे पता था कि वो कोई गलत काम कर रहा है। क्या कर रहा था वो?"

टुन्नी की आवाज नहीं आई।

"बता, क्या कर रहा था वो?"

"पता नहीं।" उधर से टुन्नी की आवाज आई।

"अपना पता बता, मैं आऊँगा तेरे पास बात करने।"

"लेकिन...।”

“पता बोल। ये बात फोन पे करने वाली नहीं है।"

"कौन सी बात?"

"तेरे पास आकर बताऊँगा, नाम क्या है तेरा?"

"टु-टुन्नी---।"

“पता--।"

उधर से टुन्नी ने पता बता कर कहा ।

"एक बार मेरी उससे बात तो करा दे।"

"अभी टेम नहीं है बात करने का तू घर पर ही रहना, मैं आऊंगा।" मोहन मोरे ने कहा और फोन बंद कर दिया।

"कौन था साहब जी ?" हवलदार काछी ने पूछा।

"इस मरने वाली की पत्नी थी। इसका नाम हरीश खुदे है। शायद उसे पता था कि उसका पति कोई गलत काम कर रहा है।"

"आपको कैसे पता---।"

"पुलिस के बारे में सुनते ही वो बोली---पकड़ा गया वो।" मोहन मोरे ने सोच भरे स्वर में कहा।

■■■

“सॉरी इंस्पेक्टर--।" डॉक्टर विनायक ने हरीश खुदे का चैक-अप करने के बाद कहा--- "ये मर चुका है। इसे तीन गोलियाँ मारी गई हैं। एक पीठ पर और दो छाती पर। मेरे ख्याल में गोलियाँ लगते ही ये अपनी जान गवां बैठा था।"

"लाश मोर्चरी में रखवा दो डॉक्टर। पोस्टमार्टम करना होगा।"

"तुम फार्म साइन कर दो। बॉडी को मैं अभी मोर्चरी में भिजवा देता हूं। दोपहर में पोस्टमार्टम हो जायेगा।” डॉक्टर विनायक के चेहरे पर सोच के भाव उभरे और उसने हरीश खुदे की लाश की फटी आँखों को देखा--- "कितनी देर हो गई इसे मरे?"

"डेढ घंटा, क्यों?" मोहन मोरे ने डॉक्टर को देखा।

"कुछ पैसा कमाना चाहते हो इंस्पेक्टर ?" डॉक्टर विनायक ने मोहन मोरे को देखकर कहा।

"कैसे?"

"ये तो मर गया। परन्तु किसी को इसकी आँखों की सख्त जरूरत है। इसे मरे ज्यादा देर हो गई तो आँखें बेकार हो जायेंगी।"

"तुम इसकी आँखें निकाल कर किसी और को लगाना चाहते हो?"

“हाँ। पैसे वाली पार्टी है। दो महीने पहले एक्सीडेंट में उसकी दोनों आँखें चली गई। उसे आँखें मिल जायें तो वो दोबारा देख सकता है, परन्तु उसकी डिमांड है कि उसे एक व्यक्ति की दोनों आंखें लगे। ताकि उसका चेहरा सामान्य दिखे। इसके लिए वो कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार है। इस इन्सान की दोनों आंखें उसके काम आ सकती है।"

"पर मैं कैसे इसकी इजाजत दे सकता हूँ। इस बात की हाँ तो मरने वाले का करीबी रिश्तेदार ही दे सकता है।" मोहन मोरे बोला।

“तब तक तो देर हो जायेगी। इसकी आँखें बेकार हो जायेंगी।" डॉक्टर विनायक ने कहा।

“सॉरी डॉक्टर, इसमें मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता।” सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे बोला।

डॉक्टर विनायक ने एक निगाह हवलदार काछी पर मार कर मोरे से कहा।

"अगर तुम चाहो तो ये काम हो सकता है।"

"कैसे?"

"हॉस्पिटल के एक फार्म पर साइन चाहिये होते हैं मरने वाले के करीबी के । फार्म भरकर तुम्हें दे देता हूँ। मेरे ख्याल से तुम उस पर साइन करा सकते हो। जानते हो मरने वाला कौन है और कहाँ रहता है?"

मोहन मोरे को टुन्नी के फोन का ध्यान आया।

"शायद जानता हूँ। दिन में पक्का पता चल जायेगा, क्यों?"

"इसका जो भी करीबी हो, तुम उस फार्म पर साइन करा लेना इसकी एवज में उसे पाँच लाख मिल सकते हैं।"

“पांच लाख ?"

“पाँच ही तुम्हें मिल जायेंगे।"

“बहुत दिलचस्पी ले रहे हो, इस मामले में।” मोरे बोला--- "तुम्हें क्या मिलेगा डॉक्टर?"

“दस लाख। दो महीने से मैं ऐसी ही आँखों का जोड़ा ढूंढने के लिए परेशान हो रहा था।" डॉक्टर विनायक बोला।

मोहन मोरे सोच भरी निगाहों से डॉक्टर को देखने लगा।

"सोच लो इंस्पेक्टर। फार्म पर सिर्फ एक साइन। मरने वाले के करीबी की सहायता हो जायेगी। पाँच तुम्हें मिलेगा और जो जिम्मेदारी मुझ पर ओबराय फैमिली की तरफ है, वो भी पूरी हो जायेगी।"

"ओबराय फैमिली ?"

“हाँ, नामी फैमिली है मुम्बई की। दो ओबराय भाइयों का तगड़ा बिजनेस है देश-विदेश में। छोटा भाई विनोद ओबराय शादीशुदा है और साल भर पहले शादी के चंद हफ्तो बाद ही एक बुरे एक्सीडेंट में उसकी रीड की हड्डी टूट गई। एक टांग कट गई। वो बैड पर ही रहता है। दूसरा तीन साल बड़ा अमन ओबराय है, जिसने अभी तक शादी नहीं की। दो महीने पहले उसका भी एक्सीडेंट हो गया और वो दोनों आँखें गवां बैठा। इस वक्त बिजनेस संभालने वाला कोई नहीं है। विनोद ओबराय की पत्नी है, परन्तु उसे नहीं पता कि फैमिली का बिजनेस कैसे संभाला जाता है। ओबराय फैमिली ने सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ रखा है कि मैं अमन ओबराय के लिए आँखों का इन्तजाम करूँ। इस तरह मैं भी अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लूंगा। मरने वाले के करीबी रिश्तेदार के साइन एक फार्म पर हो जायें तो सारी समस्या सुलझ जायेगी और तुम्हें भी---।”

"ओबराय फैमिली पैसे वाली है?" सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे ने पूछा।

"तगड़ी---।"

"फिर तो पाँच लाख कम है, जो मुझे देने को कह रहो हो।” मोहन मोरे ने कहा।

"क्या चाहते हो?"

"बीस लाख और मेरे इस असिस्टेंट---।” मोरे ने काछी की तरफ इशारा किया--- “को पाँच लाख और मरने वाले करीबी को दस लाख। इतना इन्तजाम करो तो तुम इसकी आँखों को, अमन ओबराय की आँखें बना सकते हो।"

"मैं अभी मिसेज ओबराय से फोन पर बात करता हूँ। एक मिनट रुको।" कहकर डॉक्टर विनायक ने मोबाइल निकाला और नम्बर मिलाकर, फोन कान से लगा लिया। चेहरे पर गम्भीरता थी।

उधर बेल जाने लगी। लम्बी बेल जाने के बाद डॉक्टर के कानों में सरसराती आवाज पड़ी।

"हैलो।"

“मिसेज ओबराय।" डॉक्टर विनायक बोला--- "बे-वक्त फोन करने की माफी चाहता हूँ। अभी-अभी एक केस मेरे सामने आया है। काम बन सकता है, परन्तु खर्चा पचास लाख तक होगा।”

"आँखें ठीक हैं?" वो ही सरसराती आवाज डॉक्टर के कानों में पड़ी।

“एकदम बढ़िया। खर्चा पचास लाख तक हो जायेगा। मरने वाले के परिवार वालों को दस लाख, पच्चीस लाख पुलिस को और बाकी मिला कर पचास लाख... ।”

“काम कर दो डॉक्टर। अमन ओबराय को आँखें लगा दो। बहुत काम रुके पड़े हैं। नुकसान हो रहा है।"

"ठीक है। मैं अभी आँखों के डॉक्टर भूटानी को बुलाकर काम शुरू कर देता हूँ।"

सामने खड़ा मोहन मोरे कह उठा।

"मुझे पच्चीस लाख दिन में मिल जाने चाहिये और मरने वाले के परिवार को जो दस लाख देने हैं, वो अलग से---।"

"मिसेज ओबराय।" डॉक्टर ने फोन पर कहा--- "तीस लाख तो अभी देना होगा---।"

"कुछ घंटे लगेंगे। दिन निकल जाने दो तो पैसे का भी इन्तजाम हो जाएगा।" उधर से सरसराती आवाज कानों में पड़ी।

"पुलिस को कितने बजे का टाइम दे दूं?"

"बारह बजे का।"

"ठीक है मिसेज ओबरॉय मैं बारह बजे का वक्त दे देता---।"

"दस लाख पहले चाहिये।" मोरे ने कहा--- "ताकि फार्म पर मरने वाले के करीबी के साइन कराये जा सकें।"

"मिसेज ओबराय।" डॉक्टर विनायक ने कहा--- "दस लाख पहले चाहिये। मरने वाले के करीबी को देने हैं।"

"किसी को मेरे पास भेज दो।"

"जरा होल्ड कीजिये।" फिर डॉक्टर ने मोरे से कहा--- “तुम्हें मिसेज ओबराय के पास जाकर दस लाख लाना होगा ।"

"कहीं रहती है मिसेज ओबरॉय?"

“खार, तीसरे रास्ते पर।"

"उन्हें कह दो कि एक घंटे में हवलदार काछी आयेगा, उसे दस लाख दे दें।" मोरे बोला।

डॉक्टर विनायक ने ये बात मिसेज ओबराय को कहकर फोन बंद किया तो मोरे ने कहा।

“मेरे को वो फार्म तैयार करके दे दो, जिस पर मरने वाले के करीबी के साइन कराने हैं।"

डॉक्टर ने पन्द्रह मिनट में फार्म भर कर दे दिया। मरने वाले का नाम, मोरे के कहने पर हरीश खुदे लिखा गया। फिर डॉक्टर ने ओबराय के ख़ार के बंगले का पता बताया। मोरे और काछी फार्म लिए हॉस्पिटल से बाहर आ गये।

“साब जी, क्या पता मरने वाले के करीबी फार्म पर साइन ना करें।" काछी बोला।

“साइन हो जायेंगे।” मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा।

"इतना भरोसा कैसे साब जी?"

"तुम साथ ही हो। देखते रहना। अब पहले ओबराय के बंगले पर चलो। तुम भीतर जाना और मिसेज ओबराय से दस लाख ले आना। वो मरने वाले की पत्नी टुन्नी को देने हैं। ये ही नाम था उस औरत का जिसका फोन आया था। वो अपने को मरने वाले की पत्नी बता रही थी तो होगी भी।" मोहन मोरे ने सोच भरे स्वर में कहा फिर इंस्पेक्टर किशन दारूवाला को फोन करके वहाँ का हाल-चाल पूछा तो पता चला कि नैशनल बैंक के हैड ऑफिस में डकैती की गई है। डकैती करने वाले काफी बड़ी दौलत ले गये हैं। पावनहार और दगशाही मैनशन के गार्डों को होश आ गया है और उनसे पूछताछ की जा रही है। पावनहार के गार्डों ने दोनों छतों की सीढ़ी के बारे में जानकारी दी है कि उसे एक खूबसूरत सी औरत लेकर आई थी। मतलब कि डकैती में औरत भी शामिल थी। इंस्पेक्टर दारूवाला तेजी से सारे मामले की जाँच में लगा हुआ था। मोहन मोरे ने उसे बताया कि वो अभी हॉस्पिटल में व्यस्त है और कुछ देर बाद वहाँ पहुँचेगा।

■■■

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, पूरन दागड़े, उस्मान अली सुबह आठ बजे बारू के फ्लैट पर एक-एक करके पहुँचे। बेहोश सतीश बारू को रात को ही उसके फ्लैट पर छोड़ दिया गया था और सुबह छः बजे उसे होश आया था। रात भर सब बजरंग कराड़े और सोनी की तलाश में मुम्बई को छानते रहे थे परन्तु उनकी हवा तक नहीं लगी। सब अभी तक हैरान-परेशान थे कि बजरंग और सोनी ने क्या कर डाला। उन्हें तो इस दगाबाजी पर अभी तक भरोसा नहीं हो रहा था। उनके वहाँ पहुँचने पर बारू ने बताया कि बजरंग ने जब उस पर बेहोशी वाली सुईं चलाई तो तब हरीश खुदे सलामत था।

मतलब कि उसके बेहोश होने के बाद ही, खुदे को गोली मारी गई। परन्तु खुदे को क्यों गोली मारी गई। उसे भी बारू की तरह बेहोश क्यों नहीं किया गया। इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था। हरीश खुदे की मौत से सबसे ज्यादा तकलीफ देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल को थी, क्योंकि तीनों उसे देर से जानते थे और देवराज चौहान, जगमोहन ने तो उसी के लिए इस डकैती को अंजाम दिया था और खुदे ही मारा गया।

इसमें कोई शक नहीं कि बजरंग और सोनी हत्थे चढ़ जाते तो देवराज चौहान उन्हें बुरी मौत देता, परन्तु रात भर की भागदौड़ के बाद भी वो मिल नहीं पाये थे और उनके पास पचास करोड़ की रकम थी। जिसमें सतीश बारू, उस्मान अली और पूरन दागड़े का हिस्सा था। वो हरीश खुदे की जान लेकर, बारू को बेहोश करके सारी दौलत ले भागे थे। देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरे कठोर हुए पड़े थे। बजरंग कराड़े और सोनी के चेहरे उन की आँखों के सामने नाच रहे थे।

“वो दोनों दौलत के साथ रातो-रात ही मुम्बई से बाहर निकल गये होंगे।" सोहनलाल ने कहा--- “हमसे धोखाधड़ी के बाद वो मुम्बई में रहने का खतरा मोल नहीं लेंगे। अब तक वो बहुत दूर पहुँच चुके होंगे।"

"हम उन्हें ढूंढ लेंगे।" पूरन दागड़े ने गुस्से से कहा--- “उनके पास हमारा पैसा है।"

“पूरा दस करोड़ हमें मिलना था। एक-एक को मिलना था।" उस्मान अली ने कहा।

"बुरा किया उन्होंने ।" उस्मान अली परेशान सा कह उठा ।

"उन्हें ढूंढना ही होगा।" सतीश बारू ने कहा।

“उन दोनों तक पहुँचने में वक्त लग सकता है।" जगमोहन दाँत भींचकर बोला--- “पर वो बचेंगे नहीं।"

"उन्हें ढूंढने में तुम हमारे साथ रहोगे ना देवराज चौहान ?” उस्मान अली ने पूछा।

“हाँ। मैंने उन्हें खुदे की मौत की सजा देनी है।" देवराज चौहान ने दरिन्दगी भरे स्वर में कहा--- “अगर वे सिर्फ दौलत लेकर भागे होते तो मेरे लिए इतने जरूरी ना होते, परन्तु वे खुदे के हत्यारे हैं। उसकी सजा तो मैं उन्हें दूंगा ही।"

"जब तक हमें उनका पता नहीं चलता, वो दोनों किस तरफ गये हैं, तब तक हमें मुम्बई में ही उन्हें तलाश करते रहना होगा और उनकी पहचान वालों को टटोलना होगा। उन्हीं से हमें पता चल सकेगा कि वो देश के किस कोने में है।"

"उस हीरे का क्या होगा ?" पूरन दागड़े ने पूछा--- “हरीश खुदे तो मर गया।"

“हीरे को बेचकर, जो रकम मिलेगी, वो खुदे की पत्नी को दी जायेगी उसने कहा था कि ऐसा कुछ हो जाये तो उसका पैसा उसकी पत्नी को दे दिया जाये।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा।

“तुम्हारा मतलब कि सौ करोड़ से ऊपर की रकम, सारी की सारी तुम खुदे की पत्नी को दे दोगे ?" उस्मान अली ने कहा।

“हाँ। उस हीरे की दौलत पर, हममें से किसी का हक नहीं। वो खुदे की दौलत थी अब उसकी पत्नी की है। ये बातें पहले ही तय थी। बजरंग और सोनी को ढूंढो, वो मिल गये तो करोड़ों की दौलत पा लोगे तुम लोग ।"

■■■

सुबह साढ़े दस बजे सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे, हवलदार सुरेन्द्र काछी के साथ हरीश खुदे के दो कमरों वाले घर पर जाकर टुन्नी से मिला। तब तक ये बात स्पष्ट हो चुकी थी कि नैशनल बैंक के हैड ऑफिस में, दगशाही मैनशन की दूसरी मंजिल में, छोटे वॉल्ट में डकैती की गई है और पचास करोड़ से ज्यादा की दौलत के साथ, स्टार डायमंड नामक का वो हीरा भी डकैती में चला गया, जिसकी कीमत सौ करोड़ से भी ज्यादा की है। इस खबर से नैशनल बैंक में हड़कंप मच गया था। टी०वी० के न्यूज़ चैनल जोर-शोर के साथ इस डकैती का ब्यान कर रहे थे। नैशनल बैंक के हैड ऑफिस के पुलिस के बड़े अधिकारी पहुँच चुके थे। वाल्ट के दरवाजे की ऐसी बुरी हालत थी कि उसे देखकर ये अनुमान लगाना कठिन था कि डकैती करने वालों ने वाल्ट का दरवाजा तोड़ा है या उसे खोला गया है। इसके लिए वाल्ट को सुरक्षा देने वाली इकबाल ऐंड कम्पनी को फोन कर के महेश नागपाड़े को बुलाया गया, क्योंकि वाल्ट को सुरक्षा देने का काम वो ही देखता था, जबकि हकीकत ये थी कि नागपाड़े की हालत बुरी हो रही थी। परन्तु दगशाही मैनशन पहुँचकर जब उसने वाल्ट के लॉक की हालत देखी तो चैन की लम्बी सांस ली। क्योंकि उसे देखकर समझ पाना असंभव था कि दरवाजे के साथ क्या हुआ होगा। ऐसे में नागपाड़े ने निरीक्षण के बाद घोषणा कर दी कि वाल्ट के लॉक्स को तोड़-फोड़ के, नाकारा करके दरवाजा खोला गया है। इस प्रकार नागपाड़े ने पुलिस से खुद को बचाया। वरना पुलिस ने उसे ही डकैतों का साथी मान लेना था।

अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो सका था कि डकैती किसने की? सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे ने इंस्पेक्टर दारूवाला को टुन्नी के आये फोन के बारे में और मरने वाले का नाम हरीश खुदे बता दिया था। ऐसे में दारूवाला ने उसे कहा था कि वो इस मामले की पूरी तरह जाँच करे और ये दोनों नाम अभी मीडिया के सामने खोले नहीं गये थे।

मोरे और काछी जब टुन्नी के घर पहुँचे तो सत्ताईस वर्षीय टुन्नी बहुत बेचैन थी। सुबह चार बजे तक जागती रहने के पश्चात् उसने यूँ ही खुदे को फोन कर दिया था और फोन किसी पुलिस वाले ने रिसीव किया था। ये बात उसके लिए चिन्ता वाली थी। सोच-सोचकर परेशान थी कि क्या हरीश खुदे डकैती में, पुलिस के हाथों में पड़ गया है? जिस पुलिस वाले ने उससे बात की थी उसने कहा था कि वो कहीं जाये मत, वो उससे मिलने आयेगा।

मोहन मोरे और काछी वर्दी में उसके पास पहुंचे थे। काछी ने एक लिफाफे को बंडल के रूप में थाम रखा था जिसमें कि दस लाख रुपया था।

दो पुलिस वालों को आया पाकर टुन्नी का दिल 'धक' से रह गया।

"तुम्हारा नाम टुन्नी है?"

टुन्नी ने हाँ में सिर हिला दिया।

"सुबह चार बजे तुमने जो फोन किया, तब मेरे से ही बात हुई थी तुम्हारी।" मोरे बोला--- “भीतर बैठें मैडम---।"

टुन्नी ने सिर हिला दिया।

सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे हवलदार काछी छोटे से ड्राइंगरूम में जा बैठे। दूसरा कमरा बैडरूम था ।

टुन्नी खड़ी, उन दोनों को देख रही थी।

"तुम भी बैठो।” मोरे गम्भीर स्वर में बोला ।

“मेरा पति कहाँ है?" बैठते हुए टुन्नी ने पूछा।

“देख, मेरी बात सुन।" मोहन मोरे ने गम्भीर स्वर में बोला।

“हरीश खुदे नाम है उसका।”

“हाँ---।" टुन्नी बहुत बेचैन थी।

"देख, मेरी बात सुन।" मोहन मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अब पुलिस इस लाइन पर लग चुकी है। छिपाने का कुछ फायदा नहीं। तूने रात ये जानकर कि पुलिस वाला बात कर रहा है, तूने छूटते ही कहा, हरीश खुदे पकड़ा गया, बोल कहा कि नहीं?"

टुन्नी के चेहरे पर घबराहट थी।

"बोल।"

“हाँ---कहा था।" टुन्नी अपने में हिम्मत इकट्ठी करने लगी कि उसने तो कुछ किया नहीं फिर वो क्यों डरे ?

"तो तेरे को पता था कि वो क्या कर रहा है।"

"पता था तो क्या हो गया।" टुन्नी बोली--- "वो पकड़ा गया जो पूछना है उससे पूछो। मेरे पास क्यों आये हो?"

“तेरे से भी पूछताछ करनी जरूरी है। बता, वो क्या कर रहा था?" मोहन मोरे ने पूछा।

"पुलिस को नहीं पता ये बात ?" टुन्नी का स्वर तीखा हुआ।

"सब पता है। परन्तु पूछताछ तो करनी ही पड़ती है, तो तेरा पति क्या कर रहा था?"

"डकैती कर रहा था।"

“किसके साथ? वो अकेला तो होगा नहीं।" मोरे ने फौरन कहा।

“मैं नहीं जानती।" टुन्नी ने दृढ़ स्वर में कहा।

"जानती नहीं, या बताना नहीं चाहती ?"

"जो भी समझो। ये बात उसी से पूछो। मेरा क्या मतलब इन बातों से।"

“देख, तेरे को पता था कि तेरा पति डकैती कर रहा है। सब कुछ जानते हुए तूने ये खबर पुलिस को नहीं बताई। इससे तू भी उन डकैतों की सहायक मानी जायेगी। समझी ना, तू भी फंसेगी।" मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा। 

"नये भर्ती हुए हो पुलिस में।" टुन्नी की आवाज तीखी हो गई--- "मुझे फंसाने चला है तू । ठीक है, मैं नहीं जानती मेरा पति क्या कर रहा था। वो शाम को सब्जी लेने गया और रात को लौटा नहीं। मैं इन्तजार कर रही थी कि वो आ जायेगा। पर पुलिस आ गई और मुझे पता चला उसे पुलिस ने पकड़ लिया।"

“और वो सुबह चार बजे तूने फोन किया---वो---?"

“वो सब्जी लेने के बहाने रात भर गायब रहा तो मैं उसे फोन नहीं करूँगी।”

"फोन पर तूने कहा कि वो पकड़ा गया।"

"मैंने कब कहा ?" टुन्नी मुँह बनाकर बोली--- “साबित कर। तू मुझे फंसा नहीं सकता।”

हवलदार सुरेन्द्र काछी धीमें से मोरे से बोला ।

“खेली, खाई है जनाब---।"

“पूरबनाथ साठी, देवेन साठी का नाम सुना है।"

“पूरबनाथ साठी को तो डेढ़ दो महीने पहले देवराज चौहान ने मार दिया था।" मोरे बोला--- “कह तू---।"

"मेरा पति पहले उनके लिए काम करता था।"

"पुराना पापी था, एक बात तो बता ।"

"दो पूछ---।"

“हरीश खुदे का डकैती मास्टर देवराज चौहान से तो कनैक्शन नहीं था?" मोरे एकाएक बोला।

"मुझे क्या पता।”

“रात बैंक में डकैती की गई है और उसमें तेरा पति हरीश खुदे भी शामिल था।" मोरे ने कहा।

“बता, मैं क्या करूँ। उसने डकैती की तो उससे बात कर, मेरे पास क्यों... ।”

“आना पड़ा।" मोहन मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा--- “क्या उम्र है तेरी ?"

“पच्चीस।"

"कितनी देर हो गई तेरी शादी को ?”

“छः-सात साल। क्यों?" टुन्नी ने नाराजगी से मोरे को देखा ।

“बुरी खबर देनी है तुझे। सोच रहा हूँ कैसे दूँ।” मोरे ने कहा।

टुन्नी का दिल जोर से 'धक्क' करके रह गया।

"बुरी खबर ?"

टुन्नी को अपना दम निकलता महसूस हुआ।

मोहन मोरे और काछी उसे ही देख रहे थे।

“क... क्या बुरी खबर ?"

“देख, रोने-धोने से काम नहीं चलेगा। तेरे को पता है कि तेरा पति क्या कर रहा था। ऐसे कामों में ऐसा ही होता है। तभी तो कहते हैं कि बुरा काम मत करो। परन्तु लोग हैं कि सुनते नहीं। सोचते हैं एक ही रात में करोड़ों रुपया इकट्ठा कर--।"

“बुरी खबर बता।" टुन्नी की आवाज कांपी।

"मैं कई बार लोगों को ऐसी बुरी खबर सुनाने का काम कर...।"

“मर गया वो।" टुन्नी का स्वर जोरों से कांपा ।

“हाँ।" मोहन मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा--- "डकैती वाली जगह पर उसकी लाश मिली।”

टुन्नी को काटो तो खून नहीं।

हरीश खुदे का चेहरा उसकी आँखों के सामने नाच उठा।

वो, मोहन मोरे को देखे जा रही थी।

“पुलिस ने नहीं मारा उसे।" मोरे बोला--- “अपने ही साथियों से झगड़कर वो मरा। उसे तीन गोलियाँ मारी गई। एक गोली पीठ पर लगी और दो गोलियां छाती पर। मुझे बहुत दुःख है, पर तेरे को ये बताना पड़ा।"

टुन्नी की आँखों से आंसू बह निकले।

“मर गया वो।" टुन्नी रो पड़ी--- "उसके अपने ही लोगों ने उसे मारा। मर गया---विश्वास नहीं होता।"

"किसके साथ डकैती कर रहा था वो?" मोरे ने पूछा।

"देवराज चौहान के साथ--।”

"डकैती मास्टर देवराज चौहान के साथ?" मोरे सतर्क हुआ।

“हाँ। साथ में जगमोहन भी था।"

"देवराज चौहान का साथी।"

टुन्नी ने आंसुओं भरा चेहरा हिला दिया।

"और बता---?"

“खुदे ने देवराज चौहान और जगमोहन का साथ दिया था, जब वो देवेन साठी और विलास डोगरा, मोना चौधरी से झगड़ा। खुदे मुझे फोन पर सब बताया करता था। देवराज चौहान ने ये डकैती मेरे पति का एहसान उतारने के लिए ही की थी। वो मेरे पति को बहुत सा पैसा देना चाहता था। यकीन नहीं होता कि उसने, मेरे पति को मार---।"

“ये जरूरी नहीं है कि देवराज चौहान ने उसे मारा हो। और भी लोग थे डकैती में?"

“हाँ, पाँच-सात थे। खुदे ने एक बार फोन पर बताया था। दो महीने से वो घर नहीं आया। देवराज चौहान के साथ था अब आई तो उसकी मौत की खबर ।" टुन्नी पुनः रो पड़ी--- “मर गया वो। वो तो मुझे रानी बनाकर रखना चाहता था। क्या-क्या सपने दिखाता था मुझे, पर वो तो खुद ही सपना बन गया।"

"हौसला रख।” मोरे ने गम्भीर स्वर में कहा--- “किसी के साथ नहीं मरा जाता। तू खूबसूरत है कोई और मिल जायेगा तुझे। उसके लिए थोड़ा-बहुत अफसोस कर ले फिर अपनी आगे की जिन्दगी संवार। तुझे बता दूँ कि देवराज चौहान डकैती कर गया है। पचास करोड़ की नकद दौलत के साथ एक बेशकीमती हीरा ले उड़ा है वो।"

"हीरा ? टुन्नी के होंठों से निकला।"

"क्या हुआ?"

"खुदे मुझे फोन पर बताया करता था कि डकैती में देवराज चौहान सिर्फ हीरा लेगा। और वो हीरा सिर्फ उसका होगा। उस हीरे की कीमत सौ करोड़ से ज्यादा की है और उसे बेचकर सारी दौलत वो खुदे को देगा।" टुन्नी ने भर्राये स्वर में कहा।

"कौन, किसको इतनी बड़ी दौलत देता है। ऐसी बातें सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही होती हैं।" मोरे बोला--- “तेरे पति ने तेरे को उन लोगों का नाम तो बताया होगा, जो लोग इस डकैती में शामिल थे।"

"इस बारे में उसने कुछ नहीं बताया। मेरे पति का शरीर कहाँ पर है?" बार-बार टुन्नी की आँखों से आंसू निकल रहे थे।

"हॉस्पिटल में है। दोपहर को पोस्टमार्टम होगा। शाम तक शरीर मिल जायेगा। तू घबरा मत। मैं तेरे साथ हूँ। सारे काम निपटाने में तेरी सहायता करूँगा। तेरा कोई सगा वाला है कि नहीं?"

“जब खुदे से शादी की तो वो छूट गये। अब कोई नहीं मिलता मुझसे।" टुन्नी ने भर्राये स्वर में कहा।

"जिन्दगी कैसे चलायेगी। कितना पैसा है तेरे पास?"

टुन्नी ने गालों पर से आंसू साफ किए।

“जवाब दे। मैं तेरी कुछ सहायता करना चाहता हूँ। कितना माल है तेरे पास?"

“ये दो कमरों का घर और दो-ढाई लाख रुपया हो जायेगा, जो इधर-उधर दे रखा है।" टुन्नी भर्राये स्वर में बोली ।

"जिस औरत का आदमी नहीं होता, उसका आदमी पैसा होता है। पैसे को संभाल के रखना, नहीं तो ठोकरे खायेगी। शाम को तेरे को तेरे पति का शरीर मिलेगा। मेरे ख्याल में शाम को ही उसका संस्कार करा देना ठीक होगा। मैं तेरे सब काम निपटा दूंगा। पुलिस वाले भी इन्सान ही होते हैं। वर्दी पहनकर हमारी भावनाएं नहीं मर जाती। तू चाहे तो मैं तेरे का दस लाख अभी दे सकता हूँ ।"

"क्यों?" टुन्नी ने उसे देखा--- “फंसाना चाहता है मुझे। मैं ऐसी नहीं ।"

“गलत मत समझ। मैं तेरा भला कर रहा हूँ। अगर तू अपने पति की आँखें दान कर दे तो किसी दूसरे को रोशनी मिल जायेगी और तेरे को दस लाख अभी। नहीं तो क्या फायदा, शाम को सब कुछ स्वाहा होकर बराबर हो जायेगा।" मोरे गम्भीर था--- "किसी को आँखें चाहिये। आँखें दान करने वाले फार्म पर साइन करके तू दस लाख ले सकती है।" कहने के साथ ही मोहन मोरे ने जेब से तय किया फार्म निकाला और उसे खोलकर टेबल पर रख दिया--- "फार्म भर रखा है। तेरे साइन की जरूरत है। साइन कर और दस लाख कमा ले। ऐसा मौका भी भगवान किसी-किसी को देता है। काछी---।"

काछी फौरन उठा और पास रखे लिफाफे से नोटों की गड्डियां निकाल-निकालकर टेबल पर लगा दी और जेब से पैन निकाल फार्म पर रख दिया।

टुन्नी भीगी आँखों से नोटों को देख रही थी।

"ज्यादा टेम नहीं है। जो सोचना है जल्दी से सोच ले । लाश का पोस्टमार्टम हो जायेगा तो---।"

टुन्नी ने पैन उठाया और जहाँ साइन करने की जगह थी, वहाँ साइन कर दिए।

"अब ये दस लाख तेरा।" मोहन मोरे फार्म उठाकर जेब में रखता बोला--- “सच बात तो ये है कि सुबह चार बजे ही मैंने डॉक्टर को ऑंखें दान करने को कह दिया था और तभी आँखों को निकाल कर सुरक्षित रख लिया गया था। मेरे ख्याल में बारह बजे का वक्त तय हुआ था किसी का ऑप्रेशन करके उसे आँखें लगाने को। दो घंटे तक तुम्हारे पति की ऑंखें ऑप्रेशन करके, किसी को लगा दी जायेंगी। तुम्हें खुशी होगी तब कि तुम्हारे पति की आँखें नहीं मर सकी। आँखें जिन्दा हैं उसकी।"

“संस्कार में मेरा हाथ बंटाना ।" टुन्नी ने भरे गले से कहा।

"चिन्ता मर कर। इन सारे कामों में मैं तेरे साथ रहूँगा।" मोरे बोला ।

"वो मेरे से बड़ा प्यार करता था।" टुन्नी फिर से रो पड़ी--- “और मैं भी उससे...।" शब्द पूरे ना कर सकी।

“तुम्हारे लिए, उसकी मौत का दुःख है मुझे। बेहतर होता अगर तुम उसे बुरे रास्ते से दूर रखती।”

"ऐसा हो जायेगा, कभी सोचा नहीं था।" रोते हुए टुन्नी ने कहा।

“पैसे संभाल ले अपने।” सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे उठते हुए बोला--- “संभाल ले। फिर मैं आस-पास की दो-तीन औरतों को तेरे पास रहने को बोल देता हूँ। ऐसे में तेरा अकेले रहना ठीक नहीं। और सुन, ये बात पुलिस को या किसी को मत बताना कि तेरे को पता था, तेरा पति क्या कर रहा है। देवराज चौहान का नाम भी होंठों पर मत लाना। वरना पुलिस तेरे को परेशान कर देगी। मेरे को पुलिस वाला मत समझ। अपना भाई समझ। दिल की बात मुझसे कर लिया करना। मैं आया और तेरे को तेरे पति की मौत की खबर दी और चला गया। बस। सारे मामले से तेरा अलग रहना ही ठीक है।"

काछी भी खड़ा हो चुका था।

“नोट संभाल, फिर मैं आस-पड़ौस की दो औरतों को बुला देता हूँ जो तेरे पास रहेंगी।"

■■■

सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे, काछी के साथ हॉस्पिटल पहुँचा। डॉक्टर विनायक ड्यूटी पर नहीं था। पता चला कि उसकी रात की ड्यूटी है। मोरे ने हॉस्पिटल से विनायक का नम्बर लिया और बाहर आकर उसने फोन किया।

"हैलो।" डॉक्टर विनायक की नींद से भरी आवाज कानों में पड़ी।

"डॉक्टर, मैं सब-इंस्पेक्टर मोरे, पहचाना?"

“हाँ---।”

“बारह बज गये हैं। पच्चीस लाख नहीं मिला।”

“मिलेगा। अभी अमन ओबराय का ऑप्रेशन हो रहा होगा। उसे हरीश खुदे की आँखें लगाई जा रही होंगी।"

“पर मेरे नोट---।"

"मैं अभी मिसेज ओबराय को फोन करके तुम्हें बताता हूँ।”

“मैं तेरे फोन का इन्तजार कर रहा हूं डॉक्टर। ऐसे कामों में उधार नहीं चलता।"

“मैं तुम्हें पाँच मिनट में फोन करता हूँ---।”

मोरे, डॉक्टर के फोन के इन्तजार में वहीं खड़ा रहा।

"साब जी।" काछी बोला--- “इस मामले की सारी बातें साफ हो गई। नैशनल बैंक के हैड ऑफिस में डकैती मास्टर देवराज चौहान ने डकैती की। साथ में जगमोहन था, देवराज चौहान का साथी। मरने वाला हरीश खुदे था और भी लोग थे। परन्तु उनमें कोई ऐसी बात हुई कि हरीश खुदे को गोली मार दी गई और वे वहाँ से निकल भागे।"

“मेरे ख्याल में हरीश को देवराज चौहान ने गोली नहीं मारी होगी।" मोरे बोला।

"कैसे पता?"

"खुदे की पत्नी कहती है कि देवराज चौहान खुदे से खुश होकर खुदे के लिए डकैती कर रहा था। ऐसे में वो खुद को क्यों मारेगा। वैसे भी देवराज चौहान के बारे में सुन रखा है कि वो अपने साथियों से धोखेबाजी नहीं करता। उसे किसी दूसरे साथी ने गोली मारी होगी।"

"काफी बड़ी डकैती कर गये साहब जी।"

“हाँ, पचास करोड़ से ज्यादा की नकद दौलत और सौ करोड़ से ज्यादा की कीमत वाला 'स्टार डायमंड' हीरा।" मोरे बोला।

"देवराज चौहान हमेशा ही बड़ी डकैती करता है।"

मोहन मोरे ने कुछ नहीं कहा।

"इंस्पेक्टर साहब को क्या बताना है?"

“हरीश खुदे की पत्नी को इस मामले से बाहर रखना है। मैं नहीं चाहता कि वो पुलिस के सवालों से घिर जाये। इंस्पेक्टर साहब से ये ही कहना है कि वो हरीश खुदे की पत्नी कहती है कि वो शाम को सब्जी लेने गया था, फिर लौटा नहीं और पुलिस से ही सुबह उसे पता चला कि उसे गोलियाँ लगी हैं, वो मारा गया। ये भी बताना है कि खुदे साठी ब्रदर्स के लिए काम करता था। इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना....।"

तभी मोहन मोरे का फोन बजा ।

“हैलो।” मोरे ने फोन पर बात की।

दूसरी तरफ डॉक्टर विनायक था।

“मिसेज ओबराय से बात की है मैंने। वो कहती है कि शाम 4 बजे बंगले पर आकर पैसा ले लो।"

“ठीक है, उसे कहना कि जो सुबह दस लाख ले गया था, वो ही आदमी शाम को चार बजे आयेगा। उसे पैसा दे दें।" इसके बाद मोरे फोन बंद करता काछी से बोला--- “तुम चार बजे मिसेज ओबराय से पच्चीस लाख ले आना।"

"जी साहब जी।"

मोरे ने इंस्पेक्टर दारूवाला को फोन किया।

“आप कहाँ है सर। मैं मरने वाले की पत्नी से मिलकर आ रहा हूँ।” मोरे बोला।

"अभी पुलिस स्टेशन पहुँचा हूँ। यहीं आ जाओ मोरे ।" उधर से इंस्पेक्टर दारूवाला ने कहा।

इंस्पेक्टर किशन दारूवाला ने सब-इंस्पेक्टर मोहन मोरे की बात सुनी कि खुदे की पत्नी ने क्या कहा ।

“वो औरत बहुत परेशान है सर।" मोरे बोला--- “उसका पति हरीश खुदे साठी ब्रादर्स के लिए काम करता--।"

"अण्डरवर्ल्ड के साठी ब्रदर्स ?"

"वो ही सर।" पूरबनाथ साठी दो महीने पहले मारा गया, परन्तु उसका छोटा भाई देवेन साठी जिन्दा है। पीछे सुना था कि साठी का पंगा खड़ा हो गया है देवराज चौहान से। देवराज चौहान ने पूरबनाथ साठी को मार दिया। अब देवेन साठी देवराज चौहान को मार देना चाहता है। विलास डोगरा और मोना चौधरी भी इस मामले में आ फंसी थी। उसके बाद इस मामले का क्या हुआ, पता नहीं।"

ये सब कुछ जानने के लिए अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास पढ़ें। (1) सबसे बड़ा गुण्डा (2) मैं हूँ देवराज चौहान ।

"इन बातों से हमें कोई मतलब नहीं। हमें इस डकैती पर ध्यान देना है।"

"यस सर।"

"ये डकैती बेवकूफों का काम नहीं है। एक्सपर्ट हाथों ने इस काम को अंजाम दिया है। डकैती करने वाले लिफ्ट के रास्ते लिफ्ट की शाफ्ट में दाखिल हुए और दूसरी मंजिल, नैशनल बैंक के हैड ऑफिस में प्रवेश कर गये। जबकि वहाँ सुरक्षा के तगड़े इन्तजाम थे। कोई भीतर प्रवेश नहीं कर सकता था, परन्तु वो आसानी से भीतर प्रवेश कर गये। स्वीटजरलैंड से मंगाये गये लॉक सिस्टम वहाँ काम कर रहे थे। वहाँ की सुरक्षा की देखभाल करने वाला इंजीनियर नागपाड़े का कहना है कि उसे विश्वास नहीं होता कि कोई इस सुरक्षा सिस्टम को भेद कर भीतर प्रवेश कर गया है। कम्बीनेशन लॉक लगे थे बैंक के प्रवेश दरवाजे पर भी और भीतर मिनी वाल्ट में भी। परन्तु डकैतों ने जाने किस तकनीक का इस्तेमाल किया कि उन्हें खोल दिया। कम्बीनेशन लॉक बुरी तरह टूट-फूट चुके हैं। समझ पाना मुश्किल है कि उनके साथ क्या हुआ होगा।"

"बहुत हिम्मत दिखाई डकैती करने वालों ने।" मोरे गम्भीर स्वर में बोला--- “कुछ पता चला उनके बारे में?"

“अभी नहीं। इन्वेस्टिगेशन चल रही है। हम उनके बारे में पता लगा लेंगे।" इंस्पेक्टर दारूवाला ने कहा--- "पावनहार और दाऊद मैनशन, दोनों इमारतें पास-पास हैं। डकैती करने वालों ने पावनहार के गार्डों को भी बेहोश कर दिया। उनके शरीरों में बनी सुइयां मिली हैं। समझ में तो ये ही आया है कि वो बेहोशी की सुईयां है और दूर से उन पर फेंक कर उन्हें बेहोश किया गया।"

"इसका मतलब सर। डकैती करने वाले समझदार लोग थे।"

"हाँ वो चालाक और शातिर हैं तभी तो बैंक की वाल्ट में आसानी से घुस गये।" दारूवाला ने सिर हिलाया--- "तुम मरने वाले हरीश खुदे के बारे में जानकारी प्राप्त करो कि इन दिनों वो किस-किस से मिल रहा था। उसकी पत्नी से पूछो। ऊपर से प्रेशर पड़ रहा है कि बैंक में डकैती करने वालों को जल्दी पकड़ा जाये। ये काम हमें निपटाना ही होगा।"

"मैं हरीश खुदे की पत्नी से पूछताछ करूँगा सर। आज शाम को उसके पति का संस्कार होगा। तब भी मैं वहाँ रहूँगा। हो सकता हैं उसके संस्कार में उसका कोई साथी हो। काछी मेरे साथ रहेगा। मैं कोई काम की जानकारी पाने की कोशिश करूँगा।"

पावनहार और दगशाही गार्डों के बयानों से हमें खास कुछ नहीं पता चला वो सिर्फ एक मजदूर औरत के बारे में ही बता पा रहे हैं, जिसकी सीढ़ी उन्होंने छत पर पहुँचा दी थी। जो डकैती करने वालों की चाल थी। उसी लम्बी सीढ़ी को पुल की तरह इस्तेमाल करके डकैती करने वाले दगशाही मैनशन की छत पर पहुँचे। C.C.T.V. कैमरे उन्होंने पहले ही बेकार कर दिए थे। वहाँ से कुछ नहीं मिला। उंगलियों के निशान जरूर मिले हैं। उनकी जाँच चल रही है। ले-देकर सिर्फ हरीश खुदे नाम के व्यक्ति की लाश मिली है। अभी ये भी स्पष्ट नहीं कि वो डकैती में शामिल था, या उसने डकैतों को देख लिया था तो उसे गोली मार दी गई। हमें काफी जानकारी इकट्ठी करनी है मोरे।"

"मैं शाम तक ज्यादा से ज्यादा पता लगा लूंगा सर।"

■■■

शाम चार बजे सब-इंस्पेक्टर मोरे ने मोटरसाइकिल अमन ओबराय के बंगले से कुछ आगे रोके रखी और हवलदार सुरेन्द्र काछी पन्द्रह मिनट में ही एक छोटा सा ब्रीफकेस ओबराय के बंगले से ले आया।

"चलिये साहब जी।"

मोरे ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की। काछी बैठा तो मोटरसाइकिल आगे बढ़ गई।

“पूरा पच्चीस लाख है?" मोहन मोरे ने पूछा।

"खोल कर देखा साहबजी और गिन भी लिया। हजार-हजार के नोटों की पच्चीस गड्डियां है।" काछी बोला।

“पाँच तेरी बीस मेरी---।"

"जो हुक्म साब जी।"

“अभी इधर तेरा घर पास में है। उधर रख दे ब्रीफकेस। हॉस्पिटल जाना है। हरीश खुदे की बॉडी लेकर उसकी पत्नी को खबर करनी है कि संस्कार के लिए मोहल्ले के पाँच सात लोगों को ले आये। ये काम भी निपटाना है। वो अकेली है। फिर उसी की मेहरबानी से तो पच्चीस लाख हाथ लगे हैं। हमें इसके साथ शराफत से पेश आना है।"

■■■

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, पूरन दागड़े, उस्मान अली और सतीश बारू, सुबह होने पर सब बारू के फ्लैट पर पहुँचे थे। दो-तीन घंटे सोने के पश्चात वो सब अलग-अलग बजरंग कराड़े और सोनी की तलाश में निकल गये थे।

परेशान थे सब। गुस्से में थे।

बजरंग और सोनी को हर हाल में ढूंढ कर उनसे पैसा वापस लेना चाहते थे और देवराज चौहान, जगमोहन तो उन्हें खुदे की मौत के बदले, मौत देना चाहते थे।

उनका पूरा दिन भागदौड़ में ही बीता।

शाम आठ बजे वो सब सतीश बारू के फ्लैट पर इकट्ठे हुए।

"मेरे ख्याल में वो दोनों पैसे के साथ मुम्बई से बाहर निकल गये है।" जगमोहन ने कहा।

"उनकी कहीं से कोई खबर नहीं मिल रही।" सोहनलाल ने कहा--- "मैं दिन में सोनी के फ्लैट पर गया। वहाँ ताला लगा था। आस-पास से सोनी के बारे में पूछा तो पता चला उसका फ्लैट तीन-चार दिन से बंद है। बजरंग कराड़े के उस टैक्सी स्टैण्ड पर गया, जहाँ वो टैक्सी के साथ होता था, परन्तु वो वहाँ भी कई दिन से नहीं आया। मैं सहमत हूँ कि वो पैसे के साथ, मुम्बई छोड़ गये हैं।"

"सालों ने हवा भी नहीं लगने दी कि वो कुछ करने वाले हैं।" उस्मान अली गुस्से से कह उठा।

“हम उनसे पैसा लेकर रहेंगे।" सतीश बारू बोला ।

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई।

पूरन दागड़े ने टी०वी० चला लिया था।

"मैं।" बारू पुनः कह उठा--- “दिन में हरीश खुदे के घर गया था। मैंने उसकी पत्नी को देखा वो रो रही थी। मोहल्ले की पाँच-सात औरतें उसके घर पर थी। फिर शाम को खुदे का दाह संस्कार किया गया। दो पुलिस वाले इन सब कामों को करने में आगे थे। उसका दाह संस्कार देखकर मुझे बहुत बुरा लगा कि वो हम में से ही एक था।

जगमोहन ने देवराज चौहान से कहा।

“तुम क्या सोच रहे हो?"

“सिर्फ इतना कि हम उन्हें ढूंढकर रहेंगे।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

“वो मुम्बई से जा चुके हैं। ऐसे में उन्हें ढूंढने में काफी वक्त लग सकता है।" जगमोहन बोला।

“जितना भी वक्त लगे, हम उन्हें ढूंढ के ही रहेंगे।" देवराज चौहान गुर्रा उठा ।

“बहुत बुरा किया उन्होंने। सारा पैसा ले गये।" उस्मान अली बोला--- "मैं घर जाकर माँ से क्या कहूँगा कि देवराज चौहान के साथ डकैती करने के बाद भी मैं खाली हाथ रह गया। सारी उम्र इस झटके को नहीं भूल पाऊँगा।"

“तब खुदे की जगह तुम भी उसके सामने हो सकते थे उस्मान अली।" बारू बोला ।

“तुम ठीक कहते हो ।" उस्मान अली ने गहरी सांस ली--- “पर एक बात समझ में नहीं आई।"

“क्या?”

"तुम्हें तो वो बेहोश कर गये, पर हरीश खुदे को शूट कर दिया। तुम्हें क्यों जिन्दा छोड़ दिया ?"

"जब वो हाथ लगे तो ये बात तुम उनसे जरूर पूछना।" बारू शांत स्वर में बोला।

“सब पूछा जायेगा, एक बार हाथ तो लगने दे उन्हें---।"

तभी टी०वी० पर नजरें टिकाये पूरन दागड़े कह उठा।

"टी०वी० देखो। खबर सुनो---।”

सबकी निगाहें टी०वी० पर जा टिकीं।

खबरों का चैनल लगा था और महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित शहडा नाम के कस्बे की खबर थी जो कि आधा महाराष्ट्र में और आधा मध्य प्रदेश में आता था।

टी०वी० स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही सब ठगे से रहे गये।

बजरंग कराड़े और सोनी एक वैन के पास खड़े दिख रहे थे। साथ में पुलिस थी। दोनों के चेहरे फक्क पड़े हुए थे। टी०वी० पर बताया जा रहा था कि महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश की सीमा, शहडा पर, पुलिस रूटीन ने बैरियर लगाकर आने-जाने वाले वाहनों की तलाशी ले रही थी कि बैरियर देखकर इन दोनों ने वैन को भगा ले जाने की कोशिश की। परन्तु पुलिस ने कोशिश कामयाब नहीं होने दी और वैन की तलाशी लेने पर नोटों से भरे छः बैग मिले हैं जिनमें करोड़ों की दौलत है। इन्होंने अपने नाम बजरंग कराड़े और युवती का नाम सोनी बताया है। दोनों पुलिस कस्टडी में है और पूछताछ चल रही है।

सब सन्न रह गये थे ये सुनकर।

नजरें टी०वी० स्क्रीन पर टिकी थी।

फिर खबर बदल गई।

पूरन दागड़े ने टी०वी० बंद किया और बोला ।

“खेल खत्म---।"

"पैसा मिलने की जो थोड़ी सी उम्मीद थी, वो भी नहीं रही अब। दोनों पैसे के साथ पुलिस के हाथ लग गये।" उस्मान अली कह उठा।

“पुलिस उनके मुँह से उगलवा लेगी। खुदे की मौत के बारे में भी।" देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला--- “अब उनकी सारी जिन्दगी जेल में बीतेगी। डकैती के साथ हत्या, संगीन जुर्म की श्रेणी में आता है। हमारी भागदौड़ खत्म हो गई।"

"लेकिन पैसा तो हाथ से गया।" सतीश बारू ने कहा।

"हमें पैसा चाहिये था।" उस्मान अली बोला।

“इतना कुछ करके भी हम खाली हाथ रह गये।" पूरन दागड़े ने अफसोस भरे स्वर में कहा।

"हमने कोशिश तो की थी कि---।" जगमोहन ने कहना चाहा।

"तुम्हें दोष नहीं दे रहे।" उस्मान अली बोला--- “पर हमारी जरूरत पैसा थी। वो तो अब हाथ से निकल गया।"

“पुलिस के पास पहुँच गया। सब कुछ खत्म हो गया।" पूरन दागड़े ने कहा।

"ना खुद खा सके कमीने, ना हमें खाने दिया।" सतीश बारू झल्लाकर बोला--- "दगाबाजी ना करते तो सब ठीक रहता। हरीश खुदे भी जिन्दा रहता और हम सब के हिस्से दस-दस करोड़ आ जाता।"

तभी उस्मान अली ने देवराज चौहान से कहा।

"क्या तुम हमारे साथ किसी और डकैती का प्रोग्राम बनाओगे?"

"नहीं।" देवराज चौहान ने कहा।

"क्यों?"

"मैं जरूरत नहीं समझता।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- "तुम लोगों के साथ मैंने एक डकैती करनी थी, वो कर ली । जो हुआ, उसका मुझे तुमसे ज्यादा दुःख है। ये डकैती मैं हरीश खुदे के लिए कर रहा था। और वो मर गया।”

कई पलों तक कोई कुछ ना बोला ।

देवराज चौहान ने पुनः कहा।

"मैं तुम तीनों को पाँच-पाँच करोड़ दूंगा।"

"पाँच करोड़ दोगे?" उस्मान अली खुश हो गया।

"सच कह रहे हो?" पूरन दागड़े ने कहा।

"मेरे पास 'स्टार डायमंड' नाम का हीरा है। जिस पर अब खुदे की पत्नी का हक है। परन्तु उसे बेचकर, उसमें से पाँच-पाँच करोड़ तुम तीनों को दूंगा और बाकी पैसा खुदे की पत्नी को। इस तरह तुम लोगों का काम भी चल जायेगा।"

“ये बढ़िया रहेगा---पाँच करोड़---।" सतीश बारू मुस्करा पड़ा।

“कब दोगे?" उस्मान अली ने पूछा।

“एक सप्ताह तक ।" देवराज चौहान ने कहा--- “परन्तु अब हमें अलग-अलग हो जाना चाहिये। बजरंग कराड़े और सोनी पुलिस के हाथों में पड़ गये हैं। पुलिस उनके मुँह से सब निकलवा लेगी। तुम तीनों के वे सिर्फ नाम जानते हैं। लेकिन ये फ्लैट उन्होंने देख रखा है। बारू तुम्हें ज्यादा सावधान रहना होगा। बचे रहना चाहते हो तो इस फ्लैट में वापस मत लौटना और अपनी पहचान के सब लोगों से संबंध तोड़ लो। तुम फंसे तो उनकी वजह से ही फंसोगे ! यहाँ कुछ ही घंटों में पुलिस आ जायेगी।"

सतीश बारू ने गम्भीरता से सिर हिलाया ।

"मैं सप्ताह तक तुम लोगों को फोन करूँगा पाँच-पाँच करोड़ देने के लिए।" देवराज चौहान ने कहा।

"मेरा पता-ठिकाना तो सिर्फ तुम ही जानते हो देवराज चौहान।" पूरन दागड़े बोला।

"निश्चिंत रहो। समझो कि तुम्हारा पता ठिकाना कोई भी नहीं जानता। घर जाओ और मेरे फोन का इन्तजार करो।"

"अ... और मैं?" उस्मान अली के होठों से निकला।

"तुम अपने नाम की वजह से पकड़े जा सकते हो, क्योंकि तुम चोर हो। पुलिस को तेरे बारे में जरूर पता होगा।"

“मैं अपना और माँ का कोई इन्तजाम कर लेता हूँ।"

“तुम पक्का फोन करोगे, पाँच करोड़ देने के लिए?" सतीश बारू ने देवराज चौहान को देखा।

"तुम तीनों को सप्ताह तक पाँच-पाँच करोड़ मिल जायेगा। अब ये जगह फौरन छोड़ दो। बारू तुम्हें ज्यादा सावधान रहना होगा। क्योंकि तुम्हारा ये फ्लैट पुलिस की नज़रों में आ जाने वाला है। पुलिस तुम्हें ढूंढ निकालने की पूरी कोशिश करेगी।" देवराज चौहान ने कहा।

■■■

रानी ओबराय।

विनोद ओबराय की पत्नी। सुंदरता का जीता-जागता उदाहरण थी। देखने वाले उसे देखते ही रह जाते थे। गोरा रंग, लम्बा कद, तीखे और खूबसूरत नैन-नक्श बिल्लौरी आँखें। वो जब आँखें मिलाकर सामने वाले से बात करती तो सामने वाले के होश उड़ जाते। जिस्म का एक-एक हिस्सा तराशा हुआ लगता था, अगर उसकी आँखें बिल्लौरी ना होती तो शायद वो लोगों पर इतना प्रभाव ना छोड़ पाती। अपनी बिल्लौरी आँखों की वजह से ही वो सबसे अलग लगती। यूँ वो पीछे से मध्यमवर्गीय परिवार की थी। उत्तर प्रदेश की एक छोटी से जगह मेरठ की रहने वाली थी। परन्तु फिल्मों में हिरोईन बनने के लिए वो मुम्बई आ गई थी। कई सालों की कोशिश के बाद भी फिल्मों में कोई चाँस नहीं मिला और इसी दौरान विनोद ओबराय से मुलाकात हो गई। जब उसे पता लगा कि विनोद ओबराय मुम्बई की मोटी आसामी है तो वो भी उसकी तरफ आकर्षित हो गई। तेजी से दोनों में प्यार हुआ और उतनी ही तेजी से दोनों ने शादी भी कर ली। पहली मुलाकत के डेढ़ महीने बाद दोनों की शादी हो गई थी और दोनों की शादी को कठिनता से महीना ही बीता था कि विनोद ओवराय का जबर्दस्त कार एक्सीडेंट हो गया था।

एक ट्रक ने विनोद ओबराय की कार को पीस डाला था। परन्तु देखने वालों का कहना था कि एक वैन भी थी, ट्रक के साथ, जिन्होंने विनोद ओबराय की कार को टक्कर मारी थी। ट्रक तो वापस पलटकर दूसरी बार उसकी कार पर चढ़ गया था। स्पष्ट था कि ये एक हत्या की चेष्टा थी। ट्रक चलाने वाला, वैन चलाने वाला दोनों ही फरार हो गये थे। बाद में पुलिस को पता चला कि ट्रक और वैन दोनों ही सुबह चोरी हो गये थे और उनकी चोरी की रिपोर्ट थाने में लिखाई गई थी।

पुलिस ने लोगों के ब्यान लिए।

परन्तु पुलिस ने इसे हत्या की कोशिश का मामला दर्ज ना करके, एक्सीडेंट का मामला दर्ज किया।

ऐसे एक्सीडेंट के बाद विनोद ओबराय का मरना लाजिमी था परन्तु वो जिन्दा रहा और उसकी हालत मरों से भी बुरी हो गई। उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। एक टांग काटनी पड़ी। अब वो ऐसा अपाहिज हो गया था कि हर वक्त पीठ के बल बैड पर लेटा रहता। दो नौकर हर वक्त उसकी सेवा में रहते। एक की ड्यूटी दिन में होती तो दूसरे की ड्यूटी रात की होती। विनोद ओबराय के काम अब बैड पर ही होते थे सारे। उसकी जिन्दगी में सिवाय इसके कुछ ना बचा था कि वो बैड पर लेटा रहे और छत को देखता रहे। बेहद खूबसूरत शह उसकी पत्नी थी, परन्तु अब उसके लिए बेकार थी क्योंकि वो किसी भी काबिल नहीं रहा था। वो देख सकता था। बातें कर सकता था---बस।

पुलिस उन लोगों को आज तक नहीं पकड़ सकी थी जिन्होंने विनोद ओबराय की कार के साथ एक्सीडेंट किया था। रानी ओबराय ने पुलिस से सम्पर्क करके कभी ये जानने की चेष्टा भी नहीं की थी कि पुलिस ने इस केस के संबंध में क्या किया था। वो अपनी शानदार जिन्दगी बिता रही थी। दौलत की, कारों की, नौकरों की कमी नहीं ओबराय फैमिली में। रानी को हर तरह की छूट थी। ओबराय फैमिली में सिर्फ दो भाई ही थे। जिसमें से एक हमेशा के लिए अपाहिज होकर बैड पर पड़ा था और दूसरा अमन ओबराय, जो कि हर वक्त बिजनेस में व्यस्त रहता था। विनोद ओबराय के बैड पर पड़ जाने की वजह से सारा काम उसके सिर पर आ गया था। वो अट्ठाईस बरस का था और अभी तक शादी नहीं की थी।

महीना भर पहले अमन ओबराय का भी कार एक्सीडेंट हो गया।

ठीक विनोद ओबराय की तरह। एक ट्रक और एक टैम्पू ने उसे घेरा और उसकी कार पर चढ़ा दिया ट्रक।

परन्तु अमन ओबराय खुश किस्मत निकला। पहली टक्कर में ही कार से बाहर निकलकर भाग खड़ा हुआ था और एक अन्य कार से टकरा गया। लोग इकट्ठे हो गये। परन्तु तब तक उसकी आँखों में कार के शीशे के नन्हें-नन्हें पीस टूट कर घुस चुके थे। जिसकी वजह से उसकी दोनों आँखें बेकार हो गई। दिखना बंद हो गया। वो अंधा हो गया। लेकिन अमन ओबराय ने हौसला नहीं छोड़ा और मुम्बई के सबसे बढ़िया आँखों के अस्पताल में ही एडमिट रहा। घर नहीं गया। वो अंधा हो गया था। वो दोनों आँखें नई लगवा लेना चाहता था। एक जैसी आँखें कि फिर से सामान्य जिन्दगी जी सके। रानी ओबराय इसके लिए अपनी पूरी कोशिश कर रही थी। मुम्बई के सारे अस्पतालों के डॉक्टरों से मिलती और उन्हें दो आँखों का इन्तजाम करने को कहती।

और महीने भर में ही आँखों का इन्तजाम हो गया।

हरीश खुदे की आँखें अमन ओबराय को मिल गई थी।

आज आठ घंटे लगाकर खुदे की दोनों आँखें, अमन ओबराय को लगा दी गई थी, जबकि ऐसे केस में कानून था कि सिर्फ एक आँख ही लगाई जा सकती है। ताकि दो आँखों से दो इन्सान दुनिया को देख सके। लेकिन पैसे में ताकत होती है। कानून तो उनके लिए होता है, जो पैसा खर्चने के काबिल नहीं होते।

हरीश खुदे की दोनों आँखें ऑप्रेशन करके, अमन ओबराय को लगा दी गई थी आज ।

इस सारे काम में रानी ओबराय ने एक परिवार की तरह महीना भर काफी भागदौड़ की थी। परन्तु भीतरी हकीकत ये थी कि विनोद ओबराय के एक्सीडेंट के बाद, उसके नाकारा हो जाने के बाद रानी की अमन ओबराय के साथ नजदीकियाँ हो गई थी, और वो नजदीकियाँ अमन ओबराय के बैडरूम तक पहुँची थी। बंगले के पुराने और खास नौकर को ये बात पता थी, परन्तु उसकी इतनी हिम्मत कहाँ कि किसी के सामने मुँह खोल सके। वैसे भी ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी कि ढोल पीटा जाये। विनोद ओबराय की हालत देखकर ही समझा जा सकता था कि उसकी पत्नी को दूसरे मर्द की जरूरत पड़ेगी ही। ऐसे में उसने अपना काम चलाने के लिए अमन ओबराय को चुनकर समझदारी की। अमन ओबराय को भी तो औरत की जरूरत रहती थी।

■■■

बंगले के शानदार बैडरूम के विशाल बैड पर विनोद ओबराय सीधा लेटा छत को देख रहा था। पहले से वो बहुत कमजोर हो चुका था। पच्चीस बरस की उम्र थी उसकी। साल भर से बैड पर लेटा हुआ था। शरीर से कोई काम नहीं लिया जा सकता था। ऐसे में उसने कमजोर तो होना था। आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गये थे। वो जानता था कि उसकी ये ही जिन्दगी है। जब तक जिन्दा रहेगा, तब तक इसी तरह पड़ा रहेगा। उसकी रीढ़ की हड्डी इस तरह टूट चुकी थी कि उसका कोई इलाज नहीं था। साल भर से उसके यार-दोस्त भी कन्नी काट गये थे। अब तो उनके फोन आने भी बंद हो गये थे। वो फोन करता तो, वे कॉल रिसीव ना करते। कोई वक्त था कि उससे मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी, परन्तु अब उसकी जिन्दगी कमरे में, सिर्फ बैड पर सिमट कर रह गई थी।

शाम के आठ बज रहे थे कि रानी ओबराय ने भीतर प्रवेश किया। उसने लांग स्कर्ट और कमीज पहन रखी थी। बाल कंधों से फैलकर पीठ तक जा रहे थे। वो बहुत खूबसूरत लग रही थी। उसकी बिल्लौरी आँखों में अजीब सी चमक थी। होठों पर जानलेवा मुस्कान नाच रही थी। लिपिस्टिक से उसके होंठ सुर्ख से चमक रहे थे।

विनोद ओबराय ने गर्दन घुमाकर उसे देखा।

"कैसे हो पति देव---।” रानी ने सरसराहट भरे स्वर में कहा।

विनोद कई पलों तक उसे देखता रहा फिर बोला।

"मैंने तुम्हें सुबह से नहीं देखा ।"

“मैं व्यस्त थी। तुम्हारे भाई की आँखें लग गई हैं आज। चार बजे ऑप्रेशन खत्म हुआ था।” वो बोली ।

“ऑप्रेशन ठीक रहा।"

"डॉक्टर भूटानी ऑप्रेशन करेगा तो ठीक क्यों नहीं होगा।"

“तुम बहुत खुश हो।” विनोद की निगाह रानी के खूबसूरत चेहरे पर टिकी थी।

“हाँ---।"

"किस बात के लिए खुश हो?" विनोद ने चुभते स्वर में कहा।

"इस खानदान में दो मर्द हैं। एक पूरी तरह बेकार होकर बैड पर पड़ा है। दूसरा आँखें गंवा चुका है।" रानी ओबराय ने लापरवाही से कहा--- "अब कम से कम एक मर्द तो ठीक होगा। देख सकेगा। इसी कारण से खुश हूँ।"

रानी की निगाह विनोद ओबराय के चेहरे पर जा टिकी।

"कोई और बात नहीं।"

“और बात से तुम्हारा मतलब क्या है?"

"कुछ नहीं।” विनोद ने अपना हाथ आगे बढ़ाया--- "अपना हाथ मुझे दो।"

"क्यों?" रानी वहीं खड़ी रही।

"मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ। अपने करीब पाना चाहता हूँ।" विनोद ओबराय ने कहा।

"ज़रूरत नहीं। तुम में अब कुछ नहीं रहा।" रानी ओबराय शांत स्वर में बोली---  "जब मैंने तुम्हें पसन्द किया था, तब तुममें कुछ बात थी लेकिन अब तुम सिर्फ रबड़ का बबुआ बन कर रहे गये हो। मेरे सारे सपने मिट्टी में मिल गये।"

विनोद ओबराय ने अपना हाथ बैड पर गिरा लिया। उसे देखता रहा।

"तुम एक्सीडेंट के बाद से कभी मेरे करीब नहीं आई ।" बोला विनोद ओबराय ।

"अपनी हालत देखी है।" रानी ने उसे घूरा।

"मैं कुछ नहीं कर सकता तो कम से कम तुम तो कर सकती हो मेरे साथ। परन्तु तुमने... ।”

"होश में रह कर बातें करो पतिदेव ।" रानी की आवाज में सरसराहट आ गई--- "मुझसे किसी भी तरह की उम्मीद मत रखो। तुम्हारी ऐसी हालत है कि मैं तुम्हें छूना भी नहीं चाहती। अपने को ध्यान से देखो तुम--।"

विनोद ओबराय ने कुछ पलों के लिए आँखें बंद की फिर खोली और देखा ।

“मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम मेरे साथ ऐसा बर्ताव करोगी।"

"मैंने भी कभी नहीं सोचा था कि शादी के बाद मेरा पति ना जिन्दों में रहेगा ना मरों में।"

"तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं कितना दुखी हूँ इस जिन्दगी से।” विनोद ओबराय ने थके स्वर में कहा।

"मैं इसमें कुछ नहीं कर सकती।"

"मुझे जहर लाकर दे दो रानी।" विनोद की आँखें भर आईं।

"ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती।"

"मैं तुम्हारे मन की हालत समझ सकता हूँ परन्तु कुछ कर नहीं सकता।" विनोद ओबराय ने वैसे ही लेटे-लेटे बैड के पास छोटे से टेबल पर हाथ मारा तो सिग्रेट का पैकिट लाइटर उठाया और सिग्रेट सुलगाकर बोला--- “कभी तुम्हें सिग्रेट का धुंआ अच्छा लगता था।"

"वो वक्त निकल चुका है।"

“मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ।” विनोद ओबराय ने कश लेकर गम्भीर स्वर में पूछा ।

"बोलो--।"

“तुम अपनी जरूरत कहाँ से, किससे पूरी करती हो।" विनोद का स्वर शांत था।

"जरूरत?"

“मर्द की जरूरत।"

“वाह।" रानी मुस्करा पड़ी--- "तो अब तुम ऐसी बातें सोचने लगे हो। बुरी बात है जानेमन।"

“बताओ!"

"यकीन नहीं करोगे।" रानी ने एकाएक गहरी सांस ली।

“करूंगा। तुम कहो तो।"

“मैं ऐसा कुछ नहीं करती।" रानी बोली।

“गलत मत कहो। मैं समझ सकता हूँ कि तुम ऐसा जरूर करती होगी। तुम्हारी खूबसूरती में हर वो चीज शामिल है, जो दुनिया की औरतें चाहती हैं। तुम्हारे एक इशारे से सैकड़ों पीछे लग जायेंगे, जैसे कभी मैं तुम्हारे पीछे था।"

"क्या तुम्हें इस बात का अफसोस है कि तुमने मुझे चुना था।" रानी मुस्कुराई ।

"नहीं। तुम्हें चुनकर मुझे गर्व महसूस हुआ था। मैं खुश था। परन्तु एक्सीडेंट ने सब खत्म कर दिया। मैंने तुम्हें कई बार कहा है कि वो एक्सीडेंट नहीं था। मुझे मारने की कोशिश की गई थी।" विनोद ने एकाएक कहा।

“वहम है तुम्हारा। पुलिस का कहना है कि वो सिर्फ एक एक्सीडेंट था।" रानी ने लापरवाही से कहा।

"वो ऐक्सीडेंट नहीं था। मेरी हत्या की कोशिश थी।"

"कहते रहो।" रानी ने कंधे उचकाए--- "परन्तु मुझे पुलिस पर ज्यादा भरोसा है इस बारे में।"

"तुम्हें मेरी बात का विश्वास करना चाहिये।"

"छोड़ो। इन बातों में कुछ नहीं रखा---।"

"तो तुम नहीं बताओगी कि कौन-सा मर्द तुम्हारे करीब आ चुका है?" कहा विनोद ने ।

"कोई मर्द नहीं है।" रानी आगे बढ़ी और विनोद का गाल थपथपा कर बोली--- "ऐसी बातें सोच-सोचकर अपने को टार्चर मत करो। अभी तक तो मैंने इस बारे में कुछ भी सोचा नहीं।"

"एक्सीडेंट ने मुझे, तुमसे कितना दूर कर दिया।" विनोद ओबराय थके स्वर में कह उठा।

"मैं इस बात से उभर चुकी हूँ।"

"तुम मुझसे तलाक क्यों नहीं ले लेती।” विनोद की निगाह रानी के चेहरे पर जा टिकी।

रानी ने उसे देखा। देखती रही।

"मैं तुम्हें तलाक देने को तैयार हूँ। तुम अपनी नई जिन्दगी की शुरुआत कर सकती हो। मैं तुम्हें पाँच-दस करोड़ रुपया भी दे दूंगा कि...।"

"विनोद---।" रानी ने गम्भीर स्वर में कहा--- “मैं तुम्हारे पास रहना चाहती हूँ।”

"मेरे में अब रखा ही क्या...।"

"जानती हूँ कुछ नहीं रखा। पर मैं यहीं रहूँगी। तुम्हारी पत्नी बनकर ।" रानी ने भावहीन स्वर में कहा।

"तुम्हारा इस जिद्द का मतलब मेरी समझ में नहीं आता।"

"कोई मतलब है ही नहीं, जो तुम्हें समझ में आयेगा। मैं हमेशा यहीं रहूँगी। ओबराय परिवार की बहू बनकर।”

विनोद कुछ कह नहीं सका।

"सुबह-शाम तुम्हें देख लेती हूँ, मेरे लिए ये ही बहुत है।" एकाएक रानी मुस्कराई--- "आज तुम्हारी हालत देख कर तरस आता है परन्तु ये बात मैं कभी नहीं भूलती कि कभी मैंने तुम्हें प्यार किया था। मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकती।"

"परन्तु तुम्हारी भी जरूरतें हैं रानी जो स्वस्थ मर्द ही पूरा कर---।"

"उस बारे में अभी तक मैंने सोचा नहीं।"

विनोद ओबराय, रानी को देखता रहा। फिर बोला।

"सब सोचते हैं। तुमने भी सोचा है। पर मुझे नहीं बताना चाहती मत बताओ। तुम समझदार हो। अपना रास्ता चुन लोगी ।" विनोद ओबराय ने कश लिया फिर कह उठा--- "अमन की अब क्या पोजिशन है?"

"पाँच दिन वो बैड पर रहेगा। छटे दिन उसकी आँखों की पट्टी खुलेगी कल जाऊँगी उसके पास हॉस्पिटल में।"

"शाम को पच्चीस लाख किसको दिया था?"

"वो पुलिस वाले थे। उन्हीं की वजह से अमन के लिए आँखों का इन्तजाम हो सका था।" रानी ने मुस्कराकर कहा।

विनोद, रानी के खूबसूरत चेहरे को देखता रहा फिर बोला।

"तुम मुझे एक 'किस' भी नहीं दे सकती। क्या मैं इतना बुरा हो गया हूँ?"

"मैं जरूरत नहीं समझती और इन चीजों की अब तुम्हें जरूरत नहीं है पतिदेव।" रानी ने कहा और बाहर निकलती चली गई।

विनोद ओबराय दरवाजे को देखता रहा जहाँ से रानी निकल कर गई थी फिर बड़बड़ा उठा।

“अब तुम वो रानी नहीं रही। बहुत बदल गई हो।"

■■■

आँखों का जाना-माना मुम्बई का हॉस्पिटल था ये। प्राइवेट हॉस्पिटल। स्टारों वाले होटल की तरह लग रहा था ये। एक नज़र में देखने पर कोई नहीं कह सकता था कि ये कोई हॉस्पिटल है। यहाँ पर दौलतमंद लोग ही अपनी आँखों के इलाज के लिए आते थे। रोज ही यहां जाने कितने ऑप्रेशन होते थे। डॉक्टर भूटानी इस हॉस्पिटल का मालिक था और मुम्बई का माना हुआ आँखों का सर्जन था। इसी हॉस्पिटल में अमन ओबराय को, हरीश खुदे की आँखें लगाई गई थी। ये ऑप्रेशन डॉक्टर भूटानी ने खुद किया था।

दिन के ग्यारह बज रहे थे।

रानी ओबराय हॉस्पिटल पहुँची। मुख्य गेट पर उसे उतारकर ड्राइवर कार को आगे लेता चला गया था। रानी आगे बढ़ी तो दरबान ने शीशे का गेट खोल दिया था। भीतर प्रवेश किया रानी ने। ए०सी० की ठण्डी हवा से भरा लाऊंज था। एक तरफ बैठने के लिए गद्देदार सोफे रखे हुए थे। उसी तरफ ही रिसैप्शन था। रानी उधर बढ़ गई। आज वो जीन की पैंट और सफेद रंग की स्कीवी पहने हुए थी। चेहरे पर शानदार मेकअप था और बालों को पीछे करके, चिड़िया की तरह बांधकर क्लिप लगा रखा था। बेहद दिलकश लग रही थी वो और आते-जाते लोग उसे प्रशंसा भरी निगाहों से देख रहे थे। रानी को सब एहसास था उनकी नज़रों का।

रानी रिसेप्शन पर पहुँची और अपनी बिल्लौरी आँखों से वहाँ खड़ी लड़की को देखकर बोली।

"कल मिस्टर अमन ओबराय का...।"

"यस मिसेज ओबराय। मिस्टर ओबराय सैकिण्ड फ्लोर के अट्ठारह नम्बर कमरे में हैं।"

“थैंक्यू--- ।" रानी वहाँ से हटी और लिफ्ट की तरफ बढ़ गई।

रानी दूसरी मंजिल पर पहुँची और विश्वास भरे अन्दाज में गैलरी में आगे बढ़ने लगी। डॉक्टर नर्सें आ-जा रही थी। गैलरी के दोनों तरफ बने कमरों के दरवाजों पर नम्बर लिखे हुए थे। वो 18 नम्बर कमरे के सामने ठिठकी और दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गई। ये दस बाई दस का कमरा था और नर्स रूम था। एक नर्स वहां पर मौजूद थी।

"हैलो मिसेज ओबराय---।" नर्स फौरन कह उठी।

"हैलो।" रानी ने ठिठक कर उसे देखा--- "ऑप्रेशन कैसा रहा?"

"एक दम बढ़िया।"

"वो देख लेगा?"

"क्यों नहीं। डॉक्टर भूटानी को इस ऑप्रेशन में पूरी तसल्ली है मिसेज ओबराय।" नर्स ने कहा।

“ठीक है। तुम कुछ देर के लिए बाहर घूम लो। मिस्टर ओबराय से मुझे बात करनी है।" रानी बोली।

"जी।" नर्स बाहर निकल गई।

रानी आगे बढ़ी और एक दरवाजे को धकेल कर भीतर प्रवेश कर गई।

ये शानदार कमरा था। बिलकुल होटल की तरह सजा हुआ। एक तरफ बैड पर अमन ओबराय लेटा था उसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी। कभी उसका हाथ हिलता दिख जाता था। रानी के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान उभरी। वो निशब्द सी पास पहुंची और ठिठक कर अमन ओबराय के चेहरे को देखने लगी। आंखों पर पट्टी बंधी होने की वजह से उसका चेहरा आधा ढका सा था।

तभी रानी बैड के कोने पर बैठी और हाथ अमन ओबराय की छाती पर रख कर कह उठी।

"कैसे हो जान?" स्वर में सरसराहट भरी थी।

"र-रानी" अमन ओबराय के होंठ हिले ।

"मैं ही हूं।"

"और कौन है यहां?"

"सिर्फ मैं और तुम ।" सरसराहट भरे स्वर में कहा रानी ने।

अमन ओबराय ने उसका हाथ थाम लिया। हाथ को चूमा।

"कब से तुम्हें देखा नहीं रानी। महीने से ऊपर हो गया। मेरी आंखें...।"

"अब देखा करोगे जान।" रानी ने प्यार से कहा।

"तुम वैसी ही खूबसूरत हो।" अमन ओबराय ने उसका हाथ थामें प्यार से पूछा।

"उससे भी ज्यादा।" सरसरा रहा था रानी का स्वर। वो उस पर झुक गई। उसके होंठों को चूमा।

"मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहता हूं।"

"अच्छा।" रानी मुस्कराई--- "क्या सोचते हो?"

"पता नहीं पर तुम्हारे बारे में ही सोचता हूं। क्या मैं फिर से तुम्हें देख पाऊंगा?"

"जल्द देखोगे। तुम्हें दोनों आंखें लगा दी गई हैं जान ।"

"ऑप्रेशन सफल रहा?"

"पूरी तरह। डॉक्टर भूटानी से तुम्हारी बात नहीं हुई?"

"सुबह हुई थी। वो कहते हैं मैं देख पाऊंगा। पर मुझे तुम्हारी बात का ज्यादा भरोसा है रानी।"

"तुम जरूर देख पाओगे। सब ठीक है।"

"आंखें किसकी थी ?"

"कोई मर गया था हास्पिटल लाया गया। डॉक्टर विनायक ने मुझे खबर दी ।"

"जवान था वो आंखों वाला ?"

"हां क्यों पूछा?"

"जवान आंखें मुझे लगेंगी तो बेहतर ढंग से सब कुछ देख पाऊंगा। विनोद कैसा है?"

"वैसा ही, जैसा हमेशा होता है।" रानी बोली।

अमन ओबराय गहरी सांस लेकर रह गया। रानी का हाथ अभी भी थाम रखा था।

"मैंने तुम्हारी आंखों के लिए बहुत भागदौड़ की है जान कि तुम फिर से देखने लगो, मैं तुम्हें कितना चाहती हूँ।"

"मैं भी तुम्हें बहुत पसन्द करता हूँ रानी।"

"हम दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते।" रानी ने पुनः उसके होंठों को चूमा।

"अगर तुम मुझे पहले मिली होती तो मैं जरूर तुमसे शादी कर लेता।" अमन ओबराय प्यार से बोला ।

"अब भी तो कोई कसर बाकी नहीं। हम पति-पत्नी ही तो हैं जान।"

"मैं विनोद के बारे में सोचता हूं।"

"तुम जानते ही हो कि वो किसी काबिल नहीं रहा। हम उससे कोई धोखेबाजी नहीं कर रहे।"

अमन ओबराय चुप रहा।

"क्या सोचने लगे जान?"

"अपने एक्सीडेंट के बारे में सोच रहा हूं।" अमन ओबराय बोला।

"साल भर पहले इसी तरह विनोद का एक्सीडेंट हुआ उसने कई बार कहा कि वो एक्सीडेंट नहीं उसे मारने की साजिश थी परन्तु मैंने उसकी बात को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया। परन्तु अब मुझे सोचना पड़ रहा है।"

“मत सोचो। कुछ भी मत सोचो। सिर्फ मेरे बारे में सोचो जान।"

"मेरा भी एक्सीडेंट नहीं था एक्सीडेंट के बहाने मुझे मारने की कोशिश की गई थी रानी।"

"छोड़ो भी---।"

“अगर मैं फौरन कार छोड़कर भाग नहीं गया होता तो शायद मैं जिन्दा नहीं...।"

"तुम बच गये। मेरे लिए इतना ही बहुत है। इससे ज्यादा मैं सोचना नहीं चाहती। शादी मैंने विनोद से जरूर की है, परन्तु मेरी सांसें तुम्हारे लिए चलती है। तुम्हीं मेरे सब कुछ हो। मैं अब तुम्हें बहुत संभाल कर रखूंगी।" रानी ने प्यार से सरसराते स्वर में कहा।

"तुम्हारा मुझे बहुत सहारा है रानी।"

“मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं।” अमन ओबराय के होंठों को फिर से चूमा रानी ने।

"मैं कब देख सकूंगा?" अमन ओबराय ने बेचैनी से पूछा ।

"छः दिन बाद। तब तुम्हारी आंखों की पट्टी खुलेगी और तुम फिर से देखने लगोगे जान ।"

■■■

सतीश बारू ने जब से टुन्नी को देखा था तब से ही उसका दिल टुन्नी पर आ गया था। वो खूबसूरत थी, जवान थी। उसका पति हरीश खुदे अब मर चुका था और अब वो अकेली थी। खुदे के संस्कार के वक्त उसने टुन्नी को दूर से देखा था और वो उसके दिल में आ बसी थी इस वक्त बारू एक सस्ते से होटल में रुका हुआ था और कम ही बाहर निकलता था कि डकैती के मामले में पुलिस ना पकड़ ले। उसे देवराज चौहान द्वारा दिए जाने वाले पांच करोड़ का इन्तजार था जिसे लेकर वो चुपचाप गांव जाकर जिन्दगी बिता देने का इरादा रखता था। मुम्बई से उसका दाना-पानी उठ चुका था। पुलिस से बचा रहे ये ही बहुत था। टी.वी. की खबरों में उसने दो-तीन बार बजरंग कराड़े और सोनी को देखा और उनके बारे में खबरें सुनी थी। उन्हें मध्य प्रदेश के शहाडा जिले से मुम्बई लाया गया था। उन्होंने मुंह खोल दिया और डकैती के बारे में सब कुछ पुलिस को बता दिया था। उनका खेल तो पूरी तरह खत्म हो गया था।

सतीश बारू को अपनी चिन्ता थी ।

दो दिन होटल के कमरे में बंद रहने के पश्चात् बारू आज होटल से निकला और सीधा टुन्नी के घर पर जा पहुंचा। इस वक्त वो अकेली थी कमीज-सलवार पहन रखा था और फर्श पर चादर बिछाये बैठी थी।

“नमस्ते ।" बारू ने हाथ जोड़ कर कहा।

टुन्नी उसे देखने लगी।

सतीश बारू ने जूते उतारे और चादर पर बैठ गया।

“मैं हरीश खुदे का दोस्त हूं।" बारू बोला--- “उसकी मौत का मुझे बहुत अफसोस है।”

“तू उसका दोस्त नहीं हो सकता।" टुन्नी बोली--- "बिल्ला के अलावा उसका कोई दोस्त नहीं था ।"

"मेरा नाम सतीश बारू है और मैं उस डकैती में शामिल था, जिसे हरीश खुदे भी कर रहा था।" बारू ने कहा।

टुन्नी की आंखें सिकुड़ी और सतीश बारू के चेहरे पर आ टिकी।

"मेरे पति को क्यों मार दिया?" टुन्नी के होंठों से निकला।

"हमारी डकैती की टीम में दो गद्दार निकल आये थे। बजरंग कराड़े और सोनी नाम की लड़की उन्होंने हरीश खुदे को शूट किया और सारा पैसा ले गये। हमें भी बाद में पता चला। उसकी मौत से देवराज चौहान को बहुत तकलीफ हुई।"

“मेरा पति तो गया। उसकी तकलीफ को क्या करूं मैं।" टुन्नी तीखे स्वर में बोली।

“बजरंग और सोनी पैसा लेकर भाग रहे थे कि पुलिस के हाथों में पड़ गये। पकड़े गये वो भी, पैसा भी।"

“तू मुझे खबर देने आया है।”

"मिलने आया हूं।"

"क्यों?"

“संस्कार वाले दिन मैंने तुझे देखा था। उसके बाद से ही तेरे से मिलने को मन कर रहा था।" बारू बोला--- “मैं तेरे को बता दूं कि बहुत जल्द दो-तीन दिन में देवराज चौहान तेरे पास आयेगा। डकैती में देवराज चौहान ने सौ करोड़ से ज्यादा कीमत का हीरा हासिल किया है। वो हीरा खुदे के लिए था और खुदे ने देवराज चौहान से कह रखा था कि उसे कुछ हो जाये तो हीरा उसकी पत्नी को दे देना।"

टुन्नी ने गहरी सांस ली।

“देवराज चौहान उस हीरे को बेचने में लगा हुआ है और दो-तीन दिन में पैसा लेकर तेरे को देने आयेगा। उसमें से पांच करोड़ मेरे को, पूरन दागड़े को और उस्मान अली को देगा। बाकी सब तुझे---।"

टुन्नी की आँखें में आंसू चमक उठे।

“रो क्यों रही है?" बारू ने अपनेपन से पूछा।

“अपने पति की याद आ गई। वो मुझे कितना ज्यादा प्यार करता था।" टुन्नी आंसू साफ करते बोली।

"तू यूं समझ वो पिछले जन्म की बातें हैं। अब तेरा नया जन्म हुआ है। पैसा तेरे पास आ रहा है। तेरे को आगे की सोचना है।"

“क्या करूंगी पैसे का। अकेली हूं। खुशियां खत्म हो गई।" टुन्नी ने भर्राये स्वर में कहा।

बारू कुछ नहीं बोला।

टुन्नी भी खामोश रही।

"नाम क्या है तेरा?"

"टुन्नी।" वो बोली--- "चाय बनाऊं तेरे लिए।"

"नहीं रहने दे।" बारू ने सिर हिलाया---फिर कहा--- "मैंने अभी शादी नहीं की। ड्रग्स का धंधा किया करता था मैं। पर अब पुलिस मेरे पीछे है डकैती के मामले में। पांच करोड़ मुझे मिलने वाला है। उसे लेकर गांव चला जाऊंगा और फिर वहीं रहूंगा। पर जब से तुझे देखा है, तू मुझे अच्छी लगी। सोच रहा हूं कि अगर तू माने तो तेरे से शादी कर लूं। रहेंगे गांव में ही। ये मत सोचना कि तेरे को देवराज चौहान पैसा देने वाला है इसलिए मैं तेरे पास आया हूं। वापस दे देना वो पैसा । मत लेना। मेरा पांच करोड़, गांव में जिन्दगी बिताने को काफी होगा उसी से हम मजे से जीवन बिता लेंगे। पर, अगर तू मेरे से शादी को माने तो।"

"बुरा काम करने वाले अब मुझे पसन्द नहीं। एक बार अब मैं अपने पति को खो चुकी---।"

"मैं बुरा काम नहीं करूंगा।" बारू बोला।

“क्या पता, फिर से करना शुरू कर दे।"

"तो अपनी जूती उतारकर मुझे मारना। तेरी कसम मैं बिल्कुल साफ मन से तेरे से बात कर रहा हूं। गांव में मेरा परिवार है। मां है, भाई है, बहन है जिसका ब्याह करना है। थोड़ी सी खेती-बाड़ी है, कुछ और जमीन खरीद लूंगा खेती के लिए। हम दोनों मिलकर घर और खेती को संभालेंगे। प्यार से रहेंगे। मेरा भरोसा कर। मैं अच्छा इन्सान हूं।"

“क्या पता?"

"एक बार भरोसा करके तो देख---।"

टुन्नी चुप रही। फर्श को देखती सोचती रही।

बारू चुप सा बैठा रहा।

पांच मिनट बीत गये।

“क्या बोलती है तू। एक बार भरोसा करके देख। तेरे को बोत खुश रखूंगा।" बारू पुनः बोला ।

“अभी मेरा मन खराब है। तू फिर आना सोचूंगी।"

“ठीक है।" बारू ने सिर हिलाया--- "मैं फिर आ जाऊंगा। ये बता बाजार से कुछ लाना है? मैं ला देता हूं।"

दुन्नी ने सतीश बारू को देखा फिर बोली।

“भूख लगी है। घर में कुछ नहीं है बनाने को।"

"मैं तेरे को खाना ला देता हूं। कच्ची सब्जी-दाल भी ला देता हूँ। खाने का सब सामान ला देता हूं।"

"थोड़ा पनीर भी ला देना। कुछ मटर भी। मटर पनीर ना खाऊं तो मजा नहीं आता।" टुन्नी बोली।

"और?"

"देशी घी का डिब्बा भी खत्म है। सोचा था जब मेरा पति घर आयेगा तो तब लाऊंगी, पर अब वो कहां आयेगा ।"

“दिल को मत लगा कोई बात। वो तो चला गया। मैं हूं मुझे अपना पति समझ ले।"

"सोचूंगी तेरे बारे में।"

“सोच लेना। मैंने तेरे को ये नहीं कहा कि अभी जवाब दे। मैं तेरे को खुश देखना चाहता हूँ। तू जहां भी रह, खुश रह ।"

“थोड़ी सी पालक भी ला देना। पालक पनीर भी बना लूंगी।"

"पहले तेरे लिए होटल से खाना ले आऊं। बाकी सामान तो आता ही रहेगा।"

"दूध भी ले आना। तेरे को चाय पिलाऊंगी। घर में दूध खत्म है।" टुन्नी बोली ।

“बाद में। पहले तेरे लिए खाना ।" बारू कहकर चला गया।

आधे घंटे में वापस लौटा तो टुन्नी नहा चुकी थी और कपड़े भी बदल चुकी थी।

“मैं अकेली बैठी सोच रही थी कि मेरा कोई भी नहीं है। " टुन्नी ने कहा।

"अपने तो बनाने से ही बनते हैं। पहले खाना खा ले बातें फिर करना।"

टुन्नी ने खाना बर्तनों में डाला और बोली ।

“तू भी खा ।"

“तेरे से शादी होगी तो तभी तेरे साथ खाना खाऊंगा। नहीं तो नहीं। मेरी फिक्र मत कर। अभी भूख नहीं है मुझे।”

टुन्नी ने कुछ नहीं कहा और खाना खाने लगी।

बारू बाजार चला गया, टुन्नी के घर के लिए, सामान लाने के लिए। दो घंटे बाद सामान लेकर वापस लौटा उसके बाद जाने को हुआ तो टुन्नी ने कहा।

"फिर आना तू ।”

सतीश बारू ने सिर हिलाया और चला गया।

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पांचवें दिन शाम को देवराज चौहान और जगमोहन टुन्नी के पास, उसके घर पहुंचे। दोनों गम्भीर थे। चेहरों पर अफसोस के भाव झलक रहे थे। टुन्नी ने दरवाजा खोला तो उन्हें सामने पाकर कुछ पल तो उन्हें देखती रह गई। फिर उसकी आंखें भर आई।

"हमें भीतर आने दो।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

टुन्नी पीछे हटी तो वो दोनों भीतर प्रवेश कर आये।

“हरीश खुदे की मौत का बहुत दुःख है मुझे।" देवराज चौहान ने कहा--- “दो महीने पहले उसे हम यहीं से अपने साथ ले गये थे। मुसीबत के वक्त उसने हमारा बहुत साथ दिया तो उसके लिए मैंने एक डकैती करने की सोची। फिर डकैती की, परन्तु डकैती करने वाले दो साथियों की गद्दारी की वजह से वो मारा गया। उसकी मौत देखकर मुझे बहुत तकलीफ हुई थी, परन्तु मैं कुछ भी नहीं कर सकता था उसके लिए। तभी वहां पुलिस आ पहुंची और उसकी लाश वहीं छोड़ कर हमें निकल जाना पड़ा। खुदे की मौत में हमारी कोई गलती नहीं थी।"

टुन्नी की आंखें में आंसू चमक रहे थे।

"हम हरीश खुदे को यहां से लेकर गये थे, ऐसे में उसे सही-सलामत घर लौटना चाहिये था। इसे तुम हमारी गलती कहो या ना कहो, ये तुम पर है। उसकी मौत से जो दुःख तुम्हें हुआ है, उतना हमें तो हो ही नहीं सकता।" देवराज चौहान बोला--- “फिर भी तुम्हारा दुःख कम करने आये हैं कि तुम्हारी जिन्दगी आसान हो सके। जितना तुम्हारे लिए कर सकते हैं, वो तो कर दें।"

टुन्नी की निगाह देवराज चौहान पर थी।

"मैंने ये डकैती हरीश खुदे के लिए की थी।" देवराज चौहान ने पुनः कहा--- "डकैती में एक नायाब हीरा, मैंने खुदे के लिए सोचा था और खुदे ने एक दिन कहा था कि अगर उसे कुछ हो जाये तो उसका हिस्सा तुम्हें दे दूं। वो हीरा मेरे पास बचा रह गया था। उस हीरे को मैंने एक सौ बीस करोड़ में बेचा है। अपने तीन साथियों को पांच-पांच करोड़ देने के बाद एक सौ पांच करोड़ की दौलत मेरे पास बची है। जो कि तुम्हारी है। वो पैसा मैं तुम्हें देने आया हूं। पूछना चाहता हूं कि तुम किस रूप में पैसे को लोगी। नकद ले लो। सोने-जवाहरातों के रूप में ले लो, जैसे भी तुम उसे सुरक्षित रख सको।"

टुन्नी ने गीली आंखें साफ की और कहा।

“तेरी ईमानदारी देखकर तो मैं अपने पति की मौत का दुःख भी भूल गई जैसे। खुदे फोन पर कहा करता था कि तू ईमानदार है पर मैं उसकी बात का यकीन नहीं करती थी। लेकिन वो सही कहता था कि तू ईमानदार है।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

जगमोहन शांत खड़ा था।

“खुदे होता तो पैसे से मौज भी होती।” टुन्नी ने भीगे स्वर में कहा--- "अब क्या करूंगी मैं इतने पैसे का ?"

“वो पैसा तुम्हारा है और मैंने उसे तुम्हारे हवाले करना है।" देवराज चौहान ने कहा।

"तू ही बता, कहां रखूं उस पैसे को। उसके लिए कोई भी मुझे मार देगा।" टुन्नी बोली ।

“मैंने खुदे से किया अपना वादा पूरा करना है।" देवराज चौहान गम्भीर था।

“लोग तुझे डकैती मास्टर कहते हैं। सोचने में लगता है कि डकैती मास्टर कैसा होगा। पर तेरा असली रूप तो आज मैंने देखा है। तू कुछ भी हो, पर नेक इन्सान है। पति की मौत भूल गई जैसे, तेरी बातें सुनकर।" टुन्नी ने गहरी सांस ली--- “सतीश बारू कौन है?"

देवराज चौहान और जगमोहन चौंके।

टुन्नी के होंठों से बारू के बारे में सुनना हैरानी की बात थी।

“सतीश बारू, तू उसे कैसे जानती है?" जगमोहन के होंठों से निकला।

“तीन दिन पहले वो मेरे पास आया था। मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। कौन है वो ?"

“वो इस डकैती में हमारा साथ था, जिसमें हरीश खुदे मारा गया।"

“उसने भी यही कहा था। उसने बताया कि बजरंग और सोनी ने हरीश खुदे को गोली मारी।"

“ऐसा ही हुआ था।”

“अब दोनों को डकैती के पैसे के साथ पुलिस ने पकड़ लिया ?”

“हां।"

“उसने मुझे कहा था कि तुम लोग मेरे पास पैसा देने के लिए आने वाले हो । परन्तु शादी का प्रस्ताव रखते समय उसने कहा था कि ये मत सोचना कि मैं पैसे की खतिर तेरे से शादी करने को कह रहा हूं । तू सच में मुझे अच्छी लगी है।"

देवराज चौहान और जगमोहन टुन्नी को देख रहे थे।

"सतीश बारू कैसा इन्सान है।" टुन्नी ने पूछा।

"हम उसे ज्यादा नहीं जानते। डकैती में शामिल होने से पहले वो ड्रग्स का धंधा करता रहा है।"

"ये भी बताया था बारू ने।" टुन्नी सोच भरे स्वर बोली--- “परन्तु वो ये भी कहता है कि अब कोई गलत काम नहीं करेगा। गांव में उसकी मां-बहन-भाई हैं। मेरे साथ जाकर वहीं रहेगा। तुम लोग क्या कहते हो कि उससे शादी कर लूं?"

“हम इस बारे में तुम्हें कोई राय नहीं दे सकते।" जगमोहन बोला ।

“उसे पांच करोड़ मिल गया?" टुन्नी ने गम्भीर स्वर में पूछा।

"हां। कल पांच करोड़ उसे दे दिया था।"

टुन्नी ने देवराज चौहान और जगमोहन पर निगाह मारी।

दोनों उसे ही देख रहे थे।

"मैं सतीश बारू को आजमाना चाहती हूं अगर तुम लोग मेरा साथ दो तो---।”

"कैसे?" जगमोहन की आंखें सिकुड़ी।

“एक सौ पांच करोड़ तुम लोग रख लो। जब जरूरत होगी मैं ले लूंगी। मैं बारू से शादी करूंगी और उसे कहूंगी कि मैंने पैसा नहीं लिया। वो कहता था कि उसे पांच करोड़ मिलेगा, जो जिन्दगी भर के लिए काफी रहेगा उसके साथ, उसके गांव, उसकी मां के घर में रहूंगी। देखूंगी वो शादी के बाद मेरे साथ कैसे पेश आता है।" टुन्नी ने गम्भीर स्वर में कहा।

"ये भी हो सकता है कि जब तुम कहो, तुमने एक सौ पांच करोड़ नहीं लिया तो वो शादी से इन्कार कर दे।" जगमोहन ने कहा।

“ऐसा भी हो सकता है।" टुन्नी गम्भीर थी--- "क्या तुम लोग मेरा एक सौ पांच करोड़ रखने को तैयार हो ?"

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

"तुम जैसे चाहो अपनी जिन्दगी सेट कर लो।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- “इस बारे में हमसे जो सहायता हो सकेगी, वो जरूर करेंगे। तुम्हारे कहने पर तुम्हारा पैसा हम रख रहे हैं। मैं तुम्हें ऐसा फोन नम्बर दे रहा हूं जो कभी बंद नहीं होता। ये मेरी पत्नी का फोन नम्बर है। जब भी तुम्हें पैसे की जरूरत हो, इस नम्बर पर फोन करके अपना नाम बता देना। मैसेज मुझ तक पहुंच जायेगा और मैं तुम्हें फोन कर लूंगा।” कहकर देवराज चौहान ने नगीना का नम्बर बताया।

टुन्नी ने नम्बर याद किया और बोली।

“मेरा पैसा तुम्हारे पास सुरक्षित रहेगा?"

"पूरी तरह आधी रात को भी फोन करोगी तो आधी रात को मिलेगा पैसा।" देवराज चौहान ने कहा।

"मेहरबानी तुम्हारे इतने सहारे पर ही मैं जिन्दगी को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर सकती हूं।" टुन्नी गम्भीर स्वर में बोली।

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