"हां, बोलो नसीम—तुम मुझसे क्या बात करना चाहती थीं?"
दूसरी तरफ से कहा गया—"यहां पुलिस आई थी।"
"प.....पुलिस?" मिक्की का लहजा कांप गया।
"हां.....वे मुझसे पूछ रहे थे कि तुमसे मेरा क्या सम्बन्ध है?"
मिक्की के मुंह से निकला—"फ.....फिर?"
"फिर से क्या मतलब?"
"म.....मेरा मतलब तुमने क्या कहा?"
"फिलहाल तो कह दिया कि तुमसे मेरा कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है, मगर मुझे खतरा मंडराता नजर आ रहा है सुरेश—लगता है कि पुलिस ने मेरे बयान पर कतई यकीन नहीं किया है—वे निश्चय ही दूसरे रास्तों से छानबीन करेंगे, उधर मनू और इला भी मुंह फाड़ रहे हैं—वे बेवकूफ किसी भी क्षण कुछ बक सकते हैं—अगर तुमने जल्दी ही कुछ न किया तो हम फंस जाएंगे, पुलिस का वह खुर्राहट इंस्पेक्टर सारे रहस्य से वाकिफ हो जाएगा।"
उसके किसी वाक्य का अर्थ मिक्की की समझ में न आया—हां, इतना जरूर समझ सकता था कि इन बातों का मतलब सुरेश अच्छी तरह समझ सकता था और इसीलिए उक्त बातों के सम्बन्ध में वह नसीम से कोई सवाल न कर सका। बहुत सोच-समझकर उसने कहा— "ठीक हैं, मैं कुछ करता हूं।"
"याद रहे, अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो मेरा शायद उतना कुछ नहीं बिगड़ेगा, क्योंकि मैं तो हूं ही एक उपेक्षित जीव, मगर तुम...।" नसीम ने चेतावनी दी—"तुम बरबाद हो जाओगे सुरेश.....सारा जमाना तुम पर थूकेगा।"
सवाल करने की मिक्की की प्रबल इच्छा हुई, मगर मजबूर था। सवाल करने का मतलब था नसीम पर यह जाहिर कर देना कि वह सुरेश नहीं, कोई और है, अतः उसने सिर्फ इतना ही कहा— "मैं समझता हूं।"
"ओoकेo।" कहकर दूसरी तरफ से रिसीवर रख दिया गया।
इधर, रिसीवर क्रेडिल पर रखते वक्त मिक्की का हाथ सौ साल के बूढ़े की तरह कांप रहा था—चेहरे पर दो राउंड लड़ चुके मुक्केबाज जितने पसीने थे और सांस लम्बी दौड़ जीतने वाले धावक की तरह फूल रही थी।
दिल हथौड़े की तरह पसलियों पर चोट कर रहा था।
दिलो-दिमाग—हाथ-पांव।
सब कुछ सुन्न।
ठीक से कुछ सोच नहीं पा रहा था वह।
दिमाग में अनेक सवाल घुमड़ रहे थे।
नसीम कौन है—मनू और इला कौन हैं—पुलिस का क्या चक्कर है, ऐसा वह कौन-सा रहस्य है जिस तक यदि पुलिस पहुंच गई तो सुरेश (अब वह) बर्बाद हो जाएगा—नसीम के साथ सुरेश का क्या सम्बन्ध था?
जवाब एक सवाल का भी नहीं।
मिक्की का मस्तिष्क ठीक इस तरह झनझनाता रहा जैसे फर्श पर गिरने के बाद कुछ देर तक स्टील की प्लेट झनझनाती रहती है। जिस्म का सारा बल जाने कहां लुप्त हो गया। खुद को वह अपनी टांगों पर खड़ा न रख सका—'धम्म' से बेड पर गिरा और एक सिगरेट सुलगाने के बाद उसमें कश लगाने लगा।
वह सोचता रहा।
सोचता रहा।
समय काफी गुजर गया। सिर में दर्द होने लगा और उस वक्त दस बजने में पन्द्रह मिनट बाकी थे, जब सुरेश के पर्सनल सेक्रेटरी विमल मेहता ने कमरे में कदम रखा।
मिक्की संभला।
"गुड मॉर्निंग सर।"
अपने हाथों में दबीं फाइलों को संभालते हुए विमल ने पूछा—"क्या चलेंगे नहीं सर?"
"कहां?" मिक्की ने मूर्खों की तरह गर्दन उठाकर कहा।
"ऑफिस सर, और कहां?"
"आ-ऑफिस.....हां, चलेंगे क्यों नहीं—ऑफिस जरूर चलेंगे।"
उसे बड़ी गहरी नजरों से घूरते हुए विमल ने कहा— "क्या बात है सर, आज आप कुछ अपसैट लग रहे हैं।"
"अपसैट.....नहीं तो—मैं बिल्कुल ठीक हूं, चलो।" बौखलाया-सा मिक्की उठकर खड़ा हो गया—बहुत कुछ खटकने के बावजूद विमल ने कुछ पूछा नहीं।
वे कोठी से बाहर आए।
पिछली सीट पर उनके बैठते ही ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
साठ की रफ्तार पर मर्सडीज सड़क पर दौड़ती नहीं बल्कि पानी पर तैरती-सी लग रही थी—जिस सड़क से वह इस वक्त गुजर रही थी, वहां ज्यादा ट्रैफिक न था।
कार में सन्नाटा।
मिक्की अपने विचारों में गुम था।
एकाएक विमल ने पुकारा—"सर!"
"हां।" वह चौंका नहीं बल्कि उछल पड़ा।
"आज आप सचमुच अपसैट हैं।"
"न.....नहीं तो।"
"माफ कीजिए, यदि ऐसा न होता तो हमेशा की तरह आज भी आप गाड़ी में मुझसे बिजनेस से सम्बन्धित बातें कर रहे होते?"
"बिजनेस से सम्बन्धित?"
"जी हां, आज अभी तक आपने मुझे कोई निर्देश नहीं दिया है, किस पार्टी को कितना माल भेजना है—किसे भेजना है, किसे नहीं और फिर आज तो कलकत्ता से मानिकलाल को भी आना है, उससे किस ढंग से बात करनी है?"
"ढंग से क्या मतलब?"
"जी— ?" हैरत में डूबे इस अलफाज के साथ विमल ने चकित अन्दाज में उसकी तरफ देखा। कुछ ऐसे अन्दाज में कि मिक्की का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मस्तक पर पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं, जबकि विमल ने कहा— "मानिक लाल पर हमारे पिछले माल के दो लाख रुपये बकाया है, हमारी फर्म का सख्त नियम है कि जब तक पिछले माल का भुगतान नहीं होगा, तब तक माल की दूसरी खेप सप्लाई नहीं की जाएगी और मानिक लाल ऐसा चाहता है।"
"इसमें पूछने वाली क्या बात है?" संभलने की कोशिश करते हुए मिक्की ने अपनी तरफ से काफी सही जवाब दिया—"फर्म के नियमों का सभी पर पूरी सख्ती से अमल होना चाहिए, जब तक मानिक लाल पिछले माल का पेमेण्ट नहीं कर देता तब तक.....।"
"फिर 'वैलकम इण्डस्ट्री' से हम कैसे निपटेंगे?"
"वैलकम इण्डस्ट्री?" मिक्की की खोपड़ी नाच गई।
"जी हां, कलकत्ता में हमारे माल को खपाने वाली सिर्फ दो ही फर्में थीं, एक मानिक लाल और दूसरी मनचंदा—मनचंदा को तो हमारी प्रतिद्वन्दी इण्डस्ट्री 'वैलकम' पहले ही तोड़ चुकी है—आज वह हमारे स्थान पर वैलकम इण्डस्ट्री का माल मंगाता है, रह गया सिर्फ मानिक लाल—उसका कहना है कि यदि हमने उसे माल उधार नहीं भेजा तो वह भी वैलकम इण्डस्ट्री से ट्रांजेक्शन शुरू कर देगा।"
"फिर?"
"अगर ऐसा हो गया तो कलकत्ता के बाजार पर वैलकम इण्डस्ट्री का माल छा जाएगा—हम वहां पिट जाएंगे, कलकत्ता में मानिक लाल और मनचंदा का पूरा होल्ड है—आप जानते ही हैं कि कोई अन्य फर्म वहां हमारे माल को अच्छी परफॉर्मेन्स नहीं दे सकती।"
मिक्की का दिमाग नाच गया।
समझ में न आया कि क्या कहे—इस झमेले के सम्बन्ध में विमल को क्या निर्देश दे, सोचने के बाद उसने कहा— "कुछ देर सोचने के बाद हम इस बारे में फैसला करते हैं।"
विमल ने उसे अजीब-सी नजरों से देखते हुए कहा— "आज आप सचमुच अपसैट हैं, सर।"
"क.....क्यों?" मिक्की बौखला गया।
"बिजनेस से सम्बन्धित हर व्यक्ति आपके 'फैसला लेने की शक्ति' की तारीफ ही नहीं करता, बल्कि लोग हैरत करते हैं—कहते हैं कि बिजनेस से सम्बन्धित किसी भी दुविधा को आप चुटकी बजाते ही हल कर लेते हैं और आपके लिए गए फैसलों के परिणाम अधिकतर फायदे के निकलते हैं—सारी इण्डस्ट्री में मशहूर है कि आप सोचते नहीं, पलक झपकते ही फैसला करते हैं।"
मिक्की ने बुरी मुश्किल से कहा—"हमारे सर में थोड़ा दर्द है।"
"मैं पहले ही कह रहा था कि आप अपसैट हैं, वर्ना ये मानिक लाल और वैलकम इण्डस्ट्री वाली समस्या भला क्या हैं, बड़ी-से-बड़ी समस्या को तुरन्त हल कर देना ही तो आपके कैरेक्टर की खासियत है।"
मिक्की चुप रह गया।
बोले भी तो क्या?
लग रहा था कि वह जितने ज्यादा शब्द बोलेगा, उतनी ही गलतियां करेगा।
समझ में न आ रहा था कि बिजनेस से सम्बन्धित वे फैसले वह कैसे ले सकेगा जो सुरेश लिया करता था—बिजनेस के बारे में उसकी जानकारी 'निल' थी—कभी ऐसा कुछ किया हो तो ज्ञान भी हो, जबकि सुरेश की इमेज धुरंधर बिजनेसमैन की थी।
पहनावे, हाव-भाव, चाल-ढाल और शक्ल-सूरत से भले ही वह खुद को सुरेश साबित किए रखे।
परन्तु—
सुरेश की बुद्धि कहां से लाएगा?
बौद्धिक स्तर पर वह कैसे और कब तक सुरेश बना रह सकता है?
इस अड़चन की तरफ उसका ध्यान पहले नहीं 'अब' गया था—उस वक्त तो उसने सिर्फ यही सोचा था कि सुरेश की शक्ल-सूरत उस पर हैं ही—आवाज की नकल और उसके हाव-भाव की एक्टिंग वह कर सकता है। सो—हमेशा के लिए सुरेश बन जाएगा, मगर अब?
सुरेश बन जाना उसे अपनी सबसे बड़ी बेवकूफी लगी।
सुरेश की हर एक्टिविटी की नकल हो सकती है, मगर उसकी-सी बुद्धि कहां से लाएगा—अगर बिजनेस से सम्बन्धित या इंग्लिश का लिखा कोई भी कागज उसके सामने आ गया तो उसे वह कैसे पढ़ेगा, कैसे समझेगा—जबकि सुरेश फर्राटे के साथ इंग्लिश पढ़ता था।
क्या ऐसे किसी स्पॉट पर वह पकड़ा नहीं जाएगा?
मिक्की के मस्तिष्क में घुमड़ते ऐसे सैकड़ों विचार उसे आतंकित किए दे रहे थे कि अचानक ड्राइवर के मुंह से निकला—"अरे।"
वह ब्रेक पर जोर-जोर से पैर मार रहा था।
"क्या हुआ? विमल ने पूछा।
"ब्रेक नहीं लग रहे हैं सर।" असफल प्रयास करते ड्राइवर ने बौखलाए स्वर में कहा— "किसी ने फेल कर रखे हैं शायद।"
विमल और मिक्की के दिलो-दिमाग पर एक साथ बिजली गिरी।
दोनों बुरी तरह हड़बड़ा गए।
"अरे.....अरे संभालो।" विमल चीख पड़ा—"सामने से ट्रक आ रहा है।"
ड्राइवर ने तेजी से स्टेयरिंग घुमाया।
हालत तीनों की खराब थी।
पसीने से लथपथ।
मिक्की मूर्खों की तरह चिल्लाया—"य......ये कैसे हो गया, ब्रेक किसने फेल किए हैं?
जवाब कौन दे?
ट्रक मर्सडीज की बगल से गुजर चुका था।
कदाचित ड्राइवर की बौखलाहट के कारण गाड़ी सड़क पर लड़खड़ाने लगी थी, बुरी तरह आतंकित वह चिल्लाया—"आप अपनी-अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर कूद जाइए साहब, गाड़ी मेरे काबू से बाहर.....।"
विमल ने उसका वाक्य पूरा होने से पहले बाहर जम्प लगा दी।
बौखलाए हुए मिक्की ने भी दरवाजा खोला।
मुश्किल से दो या तीन पल हवा में तैरने के बाद वह तारकोल की पक्की सड़क पर इतनी जोर से टकराया कि मुंह से निकली चीख फिजां में दूर-दूर तक गूंज गई। उसे नहीं मालूम कि जिस्म के किस हिस्से में कितनी चोट लगी थी।
दिमाग सांय-सांय कर रहा था।
कलाबाजियां खाता अभी वह सड़क पर लुढ़क ही रहा था कि पीछे से आने वाली कार उसके समीप से, इतने समीप से गुजर गई कि मिक्की के रोंगटे खड़े हो गए—लगा कि यदि एक इंच का भी फर्क रह जाता तो तेजरफ्तार कार उसे कुचलती हुई निकल जानी थी।
धड़ाम।
एक जबरदस्त विस्फोट की आवाज से आस-पास का इलाका दहल उठा।
यह विस्फोट मर्सडीज के एक पेड़ से टकराने का था। ड्राइवर विहीन होते ही वह गन से निकली बुलेट के समान पेड़ से जा टकराई थी।
एक तरफ वह धूं-धूं करके जल रही थी, दूसरी तरफ मिक्की के शरीर ने जब सड़क पर लुढ़कना बन्द किया तो उसने स्वयं को होश में पाया।
यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी कि वह बेहोश नहीं हुआ।
चोटें जब तक गर्म रहती हैं, तब तक उनकी गम्भीरता का अहसास नहीं होता। वे चीखती तब हैं, जब ठंडी पड़ जाएं—शायद इसीलिए काफी सख्त चोटों के बावजूद थोड़ा-सा प्रयास करने पर ही मिक्की खड़ा हो गया।
दृष्टि सफेद रंग की उस एम्बेसेडर के पिछले हिस्से पर टिकी हुई थी, जिसके नीचे कुचलने से वह बाल-बाल बचा था।
फर्राटे भरती एम्बेसेडर निरन्तर उससे दूर होती जा रही थी।
अचानक!
उस वक्त मिक्की चौंका, जब एकाएक एम्बेसेडर की रफ्तार कम हुई। अंग्रेजी के अक्षर 'यू' का आकार बनाकर वह सड़क पर टर्न हुई और फिर पहले की तरह फर्राटे भरती हुई वापस यानी मिक्की की तरफ लपकी।
मिक्की के मस्तिष्क में न जाने क्यों खतरे की घंटी घनघनाने लगी।
हालांकि यह विचार उसके दिमाग में आया कि एम्बेसेडर वाला मर्सडीज को दुर्घटनाग्रस्त होते देखकर मदद हेतु वापस आ रहा हो सकता है, परन्तु यह विचार उस वक्त निर्मूल साबित हुआ जब उससे कुल दस फीट दूर रह जाने के बावजूद एम्बेसेडर की रफ्तार में रत्ती-भर फर्क न आया।
वह तेज रफ्तार से आ रही गाड़ी के ठीक सामने खड़ा था। बिजली की-सी तेजी से मिक्की के जेहन में विचार कौंधा कि एम्बेसेडर का ड्राइवर मुझे कुचलकर मार डालना चाहता है—इस विचार के साथ मिक्की के जिस्म में स्वयं बिजली भर गई। रबड़ के बबुए की तरह वह हवा में लहराया।
अभी हवा में ही था कि एम्बेसेडर सांय के साथ उस स्थान से गुजर गई, जहां वह मुश्किल से एक पल पहले खड़ा था।
मौत का खौफ बड़ा बलवान होता है।
तभी तो—
इस बार फुटपाथ पर टकराने के तुरन्त बाद मिक्की उछलकर खड़ा हो गया, दृष्टि निरन्तर दूर होती जा रही एम्बेसेडर के पिछले हिस्से पर स्थिर थी।
मिक्की को लग रहा था कि वह पुनः टर्न होगी।
मगर।
इस बार ऐसा न हुआ।
दूर होते-होते एम्बेसेडर उसकी आंखों से ओझल हो गई, मगर उस कार के ड्राइवर का चेहरा अब भी मिक्की की आंखों के सामने चकरा रहा था।
मस्तिष्क फिरकनी के समान घूमने लगा, मौत का खौफ गायब होते ही तन पर बने जख्मों का अहसास हुआ और फिर लाख कोशिश के बावजूद वह स्वयं को बेहोश होने से न रोक सका।
¶¶
मिक्की को अस्पताल में होश आया।
तब जबकि उसके सभी जख्मों पर ड्रेसिंग हो चुकी थी—होश आए मुश्किल से अभी पांच मिनट ही गुजरे थे कि एक डॉक्टर के साथ विनीता कमरे में प्रविष्ट हुई। उसने आगे बढ़कर कहा— "अरे! तुम होश में आ गए?"
मिक्की चुप रहा।
विनीता के मुखड़े पर हड़बड़ाहट जरूर थी, मगर चेहरा 'फक्क' नहीं था—वैसा तो हरगिज नहीं जैसा पति के गम्भीर एक्सीडेट पर पत्नी का होना चाहिए।
मिक्की के समूचे जिस्म में नफरत की चिंगारियां भर गईं।
लगा कि उसके मुखड़े पर मौजूद बौखलाहट भी नकली है। अभिनय कर रही है वह, जबकि अत्यन्त नजदीक आकर विनीता ने पूछा—"तुम ठीक तो हो सुरेश?"
"हां।" मिक्की ने बहुत आहिस्ता से कहा।
"भगवान का लाख शुक्र है सुरेश बाबू कि आपको कोई ऐसी चोट नहीं आई जिसे सीरियस कहा जा सके।" डॉक्टर ने कहा— "बेचारा ड्राइवर तो.....।"
"क्या हुआ ड्राइवर को?"
"वह अब इस दुनिया में नहीं है।" डॉक्टर ने बताया—"सिर सड़क पर टकराने के कारण उसने दुर्घटना-स्थल पर ही दम तोड़ दिया।"
"ओह!" मिक्की के मुंह से निकला। जाने क्यों ड्राइवर की मौत का समाचार सुनकर उसे दुख हुआ—हालांकि वह भी सुरेश के उन नौकरों में से एक था जो 'उसे' (मिक्की को) दुत्कार भरी नजरों से देखते थे।
कुछ देर के लिए कमरे में खामोशी छा गई।
फिर डॉक्टर ने कहा— "आपका अच्छी तरह चैकअप किया जा चुका है, मामूली चोटें हैं—हम शाम तक आपको छुट्टी दे देंगे—एक—दो दिन घर पर आराम करेंगे तो ठीक हो जाएंगे।"
वह चला गया।
विनीता उसके समीप टीन के स्टूल पर बैठती हुई बोली— "यह सब कैसे हो गया सुरेश, मोहन लाल तो गाड़ी काफी सेफ ड्राइव करता था।"
कुछ कहने के स्थान पर सुरेश ने विनीता की तरफ देखा—उसके मुंह से कोई अल्फाज न निकल सका। सिर्फ देखता रहा उसे—इतनी देर तक कि मजबूर होकर विनीता को पूछना पड़ा, "ऐसे क्या देख रहे हो?"
"देख नहीं, सोच रहा हूं।"
"क्या?"
"क्या वाकई तुम्हें मेरे एक्सीडेंट पर दुख हुआ है?"
"कैसी बात कर रहे हो, सुरेश, क्या तुम्हारे एक्सीडेंट पर मुझे दुख नहीं होगा?"
"यानी है?"
"बेहद दुख हुआ मुझे।"
"हुंह।" इस हुंकार के साथ मिक्की के होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, होंठों से निकला—"वास्तविक दुख चेहरे पर साफ नजर आता है, जिनके दिल रो रहे होते हैं, वे तो मुंह से कह भी नहीं पाते कि उन्हें दुख हुआ है।"
"तो क्या तुम यह चाहते हो कि मैं जाहिल और अनपढ़ औरतों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर रोना-पीटना शुरू कर दूं?"
न चाहते हुए भी मिक्की के मुंह से निकल गया—"मुझे नहीं मालूम था कि पढ़ने-लिखने से दुख जाहिर करने के अंदाज भी बदल
जाते हैं।"
"ये कैसी अजीब बातें कर रहे हो, सुरेश?"
"खैर, मैं नहीं जानता कि यह जानकर तुम्हें दुख होगा या खुशी कि वह एक्सीडेंट नहीं था।"
"तो?"
"वह मेरे मर्डर की कोशिश थी।"
"म.....मर्डर की कोशिश?" विनाता चौंकी—"मैं समझी नहीं।"
"इसमें न समझने की जैसी क्या बात है, मर्डर की कोशिश का मतलब मर्डर की कोशिश ही होता है।"
"म.....मगर—"
"किसी ने पहले ही गाड़ी के ब्रेक फेल कर रखे थे—उसने सोचा होगा कि या तो मैं गाड़ी के किसी दूसरी गाड़ी अथवा पेड़ या खम्भे से टकराने पर गाड़ी में ही मर जाऊंगा या.....।"
"या?"
"या बचने के लिए मुझे चलती गाड़ी से कूदना पड़ेगा—यह बात हत्यारे ने शायद पहले से सोच ली थी—सो, ऐसा इन्तजाम कर रखा था कि गाड़ी से कूदने की स्थिति में भी मैं बच न सकूं।"
"वह क्या?"
"मर्सडीज के पीछे-पीछे पूरी रफ्तार के साथ एक सफेद एम्बेसेडर चली आ रही थी—उसके ड्राइवर को शायद यह निर्देश था कि यदि मैं मर्सडीज से कूदने में सफल हो जाऊं तो वह एम्बेसेडर से मुझे कुचलता हुआ निकल जाए—यदि मैं इस तरह मरता, तब भी इसे एक्सीडेंट ही कहा जाता और एम्बेसेडर ड्राइवर को ज्यादा दोषी नहीं ठहराया जा सकता था—वह कहता कि अगर आगे जा रही गाड़ी से अचानक कूदकर कोई व्यक्ति गाड़ी के नीचे आ जाए तो वह भला उसे कैसे बचा सकता है?"
"म.....मगर यह तुम्हारा भ्रम भी तो हो सकता है।"
"कैसा भ्रम?"
"वास्तव में एम्बेसेडर इत्तफाक से मर्सडीज के पीछे चल रही हो।"
"इत्तफाक से चलने वाले वापस लौटकर कुचलने की कोशिश नहीं करते।"
"क्या मतलब?"
मिक्की ने संक्षेप में उसे सबकुछ बता दिया—सुनकर विनीता गम्भीर हो गई। उसके मस्तिष्क पर चिंता की लकीरें भी नजर आने लगी थीं, मिक्की ने व्यंग्य-सा करते हुए पूछा—"अब तुम्हारा क्या ख्याल है?"
"यह तो वाकई मर्डर की कोशिश थी, मगर.....।"
"मगर—?"
"सोचने वाली बात तो यह है कि ऐसी जलालत भरी खतरनाक हरकत कर कौन सकता है?"
"यह पता लगाना ही तो अब मेरा उद्देश्य है।"
"जो कुछ हुआ, वह हमें पुलिस को बता देना चाहिए—वे खुद पता लगाएंगे कि कौन आपकी हत्या क्यों करना चाहता है?"
पुलिस का ख्याल आते ही जाने क्यों मिक्की के जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ गई, बोला— "पुलिस भला इसमें क्या करेगी, मैं खुद ही पता लगा लूंगा कि इस नापाक हरकत के पीछे कौन है?"
"तुम्हें किसी पर शक है?"
"हां।"
"किस पर?"
"शायद मैं किसी की मौज-मस्ती के बीच का कांटा होऊं या फिर मुमकिन है कि कोई मेरी दौलत हथियाने का ख्वाब देख रहा हो?"
विनीता उसे अपलक देखती रह गई।
¶¶
शाम के वक्त।
अस्पताल से छुट्टी के बाद उसे घर पहुंचाया गया, और यह एहसान करने वालों में विनीता भी शामिल थी—मिक्की 'सांध्य दैनिक' पढ़ने के लिए बुरी तरह बेचैन था—उसकी योचना के मुताबिक उसमें एक ऐसी खबर छुपी होनी चाहिए थी, जिसकी मौजूदगी के कारण अपनी बेचैनी को उजागर करना भी उसे घातक नजर आ रहा था।
सो उसने हल्के अंदाज में—कुछ इस तरह 'सांध्य दैनिक' मांगा जैसा बिस्तर पड़े-पड़े मन न लग रहा हो।
दैनिक के हाथ में आते ही उसने अपने मतलब की खबर ढूंढ ली।
तीसरे पृष्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था—'लालकिले पर लोगों को पानी पिलने वाली की लाश रेल की पटरियों पर पाई गई।'
हैडिंग पढ़ते ही मिक्की का दिल धक्-धक् करके बजने लगा।
एक ही सांस में इस शीर्षक से सम्बन्धित समूची न्यूज पढ़ गया, जो निम्न प्रकार थी—
दिल्ली.....आज सुबह, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूर पुलिस ने पटरियों से एक नवयुवती का बुरी तरह क्षत-विक्षत शव बरामद किया—शव का सिर और धड़ अलग थे—कदाचित् रात के समय गुजरने वाली किसी माल या यात्री ट्रेन ने उसकी यह हालत की
है।
इस खबर के प्रेस में जाने तक दिन-भर की भगदौड़ और जांच-पड़ताल के बाद पुलिस यह पता लगाने में कामयाब हो गई कि
लालकिले पर लोगों को पानी पिलाने वाली इस युवती का नाम अलका था—मिक्की नामक जिस गुंडे से यह प्रेम करती थी, कल अपनी जिन्दगी से निराश होकर उसने आत्महत्या कर ली थी—मिक्की की लाश को देखने के बाद से ही अलका ही हालत पागलों जैसी थी—इस युवती के पड़ोसियों के अलावा पुलिस ने भी यह सम्भावना व्यक्त की है कि अपने प्रेमी से मिलने के फेर में ही इस युवती ने रात के किसी वक्त रेल के नीचे कटकर आत्महत्या की है।
पूरी खबर पढ़ने के बाद मिक्की के जेहन में खुशी की तरंगें नाच उठीं।
उसकी योजना पूरी तरह सफल थी।
सो पुलिस वही.....ठीक वही सोच रही थी, जो वह सुचवाना चाहता था, ठीक उसी नतीजे पर पहुंची थी जिस पर वह पहुंचाना चाहता था—मर्सडीज में डालने के बाद अलका के बेहोश जिस्म को रेल की पटरियों तक पहुंचाने के दृश्य चलचित्र की तरह मिक्की की आंखों के सामने तैर गए।
ट्रेन से अलका के जिस्म के दो टुकड़े होते उसने अपनी आंखों से देखे थे—सुरेश की लाश पर, जिसे वह और दूसरे लोग मिक्की की लाश समझ रहे थे—लोगों ने जिस कदर उसे टूट-टूटकर रोते देखा था, उसी रोशनी में मिक्की के दिमागानुसार इस हादसे या हत्या को लोगों से आत्महत्या समझा जाना स्वाभाविक ही था।
उन सब परिस्थितियों पर अच्छी तरह गौर करने के बाद ही तो मिक्की ने अलका नाम की मुसीबत से पीछा छुड़ाने का ये नायाब तरीका निकाला था और अपने उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल भी रहा था—पुलिस तक यह नहीं सोच पा रही थी कि अलका ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उसकी हत्या की गई है और सच्चाई तो उन्हें कल्पनाओं में भी पता नहीं लग सकती थी कि अलका का हत्यारा सुरेश बनकर घूम रहा मिक्की है, वही मिक्की जिसे सारी दुनिया मृत मान चुकी है—जिसकी मृत्यु को दुनिया अलका की आत्महत्या की वजह समझ रही है।
सबकुछ ठीक था।
उसी तरह जिस तरह मिक्की चाहता था।
इस राज को जानने वाला अब इस दुनिया में उसके अलावा दूसरा कोई नहीं था कि वह सुरेश नहीं मिक्की है—यही तो उसकी योजना थी। यही तो वह चाहता था कि किसी को पता होना तो दूर, भनक तक न लग सके कि वह मिक्की है।
और वास्तव में किसी को भनक तक न थी।
बिस्तर पर पड़ा वह स्वयं को मिक्की से सुरेश में तब्दील करने की प्रक्रिया पर दूर-दूर तक सोचता रहा—बड़ी बारीकी से उसने अपने अतीत के हर कदम पर पुनर्विचार किया.....गौर किया कि कहीं भी उससे कोई चूक तो नहीं हो गई है, जिसका दामन पकड़कर पुलिस उस तक पहुंच सके—जान सके कि वह सुरेश नहीं मिक्की है और काफी माथा-पच्ची करने के बावजूद उसे अपनी स्कीम में कहीं कोई 'लूज पॉइंट' नहीं मिला।
सबकुछ दुरुस्त था, कसा-कसाया।
सोचते-सोचते मिक्की का मस्तिष्क अपने वर्तमान हालातों में आ फंसा—सुरेश बनने के बाद घटनाएं बड़ी तेजी से घटी थीं और इन
घटनाओं ने उसके जेहन को हिलाकर रख दिया था—विनीता के कमरे से चोरों की तरह निकलकर गायब हो जाने वाले साए से लेकर नसीम, मनू और इला आदि सारे नाम उसके लिए रहस्य का बायस थे—नसीम द्वारा फोन पर कही गईं बातें अत्यन्त खतरनाक और रहस्यमय थीं।
अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी में सुरेश ने आखिर क्या चक्कर चला रखा था?
एक पल.....सिर्फ एक पल के लिए मिक्की ने यह सोचा कि मर्डर की वह कोशिश किसके लिए थी?
सुरेश.....या मिक्की के लिए?
'नहीं.....वह कोशिश मिक्की के लिए नहीं हो सकती।' मिक्की के जेहन ने कहा— 'जब कोई जानता ही नहीं कि मैं मिक्की हूं तो भला 'मिक्की' के मर्डर की कोशिश कौन कर सकता है—निश्चय ही वह सुरेश के मर्डर की कोशिश थी।'
किन्तु।
वह कौन है?
सुरेश आखिर ऐसे किस झमेले में उलझा हुआ था जिसकी वजह से कोई उसका मर्डर करना चाहता है?
क्या वह फिर कोशिश करेगा?
क्या वह कामयाब हो जाएगा?
एम्बेसेडर को याद करके मिक्की के मस्तक पर पसीना छलक उठा—इस पल उसे लगा कि सुरेश बनकर कहीं उसने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल तो नहीं की है—जब वह मिक्की था, तब भले ही दूसरी चाहे कितनी मुसीबतें थीं, परन्तु कम-से-कम उसकी हत्या का तलबगार कोई न था।
मगर अब।
उसने खुद को पूरी तरह एक ऐसी शख्सियत के रूप में तब्दील कर लिया है जिसकी हत्या का तलबगार भी कोई है—दिल के किसी कोने से आवाज उठी—अपने आपको मैंने ये किस मुसीबत में फंसा लिया है?
अगर सुरेश की हत्या का तलबगार कामयाब हो गया तो?
सोचते-सोचते मिक्की के छक्के छूट गए।
ठीक से निश्चय न कर सका कि सुरेश बनकर वह फायदे में रहा या नुकसान में—हां, इस निश्चय पर जरूर पहुंच गया कि अब यदि घबराकर उसने वापस मिक्की बनने की ओर भागना चाहा तो उसकी दौड़ का अन्त सीधा फांसी के फंदे पर होगा, अतः उसे सुरेश ही बने रहना है। उन हालातों को समझना और उनसे टकराना है, जो उसके चारों ओर सिर्फ इसलिए इकट्ठे हुए हैं, क्योंकि अब वह सुरेश है।
सुरेश बनकर ही उसे हर गुत्थी को समझना है, उससे लड़ना है। सारी बातों पर गौर करने के बाद मिक्की इस नतीजे पर पहुंचा कि सुबह हुआ एक्सीडेंट आंशिक रूप से उसके हित में ही रहा। यदि एक्सीडेंट न होता तो ऑफिस में बिजनेस से सम्बन्धित फैसलों के कारण शायद वह पकड़ा जाता—उस वक्त वह सुरेश की हत्या के तलबगार के बारे में सोच रहा था कि फोन की घण्टी घनघना उठी।
मिक्की की तंद्रा भंग हुई।
फोन उसके इतने नजदीक रखा था कि हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठा लिया और अपनी 'हैलो' के जवाब में दूसरी तरफ से नसीम की आवाज सुनाई दी—"मैं बोल रही हूं, सुरेश।"
"ओह, हां।" मिक्की ने संभलकर कहा— "मैंने पहचान लिया।"
नसीम का रहस्यमय स्वर—"पुलिस कुछ देर पहले फिर मेरे पास आई थी।"
"ओह!" मिक्की के मुंह से यही एक शब्द निकल पाया।
"वे मुझ पर बार-बार दबाव डाल रहे हैं—तरह-तरह के सबूत पेश कर रहे हैं कि तुमसे मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध है—बड़ी मुश्किल से मैं
उनके सामने झूठ पर कायम हूं—कुछ करो सुरेश वर्ना शायद मैं टूट जाऊंगी—उधर मनू और इला भी नाक में दम किए हुए हैं—मैंने सुबह भी फोन किया मगर तुमने उनका कोई इलाज नहीं किया—अगर जल्दी ही उनका मुंह नोटों से न भरा गया तो.....।"
"त.....तो?" इस 'तो' से आगे का मामला ही तो मिक्की जानना चाहता था।
"तो वे पुलिस के सामने सबकुछ उगल देंगे।"
मिक्की पूछना चाहता था कि वे क्या उगल देंगे मगर पूछ न सका—जिस ढंग से नसीम से बातें हो रही थीं, उससे जाहिर था कि सुरेश को मालूम था कि मनू और इला क्या उगल सकते हैं और इस सम्बन्ध में पूछना नसीम पर यह जाहिर कर देने के समान था कि वह सुरेश नहीं कोई अन्य है। अतः सारे हालातों पर गौर करने के बाद वह इतना ही कह पाया—"सुबह ऑफिस जाते वक्त मेरा एक्सीडेंट हो गया, वर्ना इस सम्बन्ध में जरूर कुछ करता।"
"मुझे मालूम है, एक्सीडेंट की सूचना मनू और इला को भी है।" नसीम ने कहा— "एक्सीडेंट का हवाला देकर ही मैंने उन्हें अब तक रोक रखा है, मगर जाने उन शैतानों को यह खबर कहां से मिल गई कि तुम्हें मामूली चोटें आई हैं—चल-फिर सकते हो—उन्होंने धमकी दी है कि आज रात दो बजे तक यदि बीस हजार रुपये उन्हें नहीं मिले तो तीन बजे इंस्पेक्टर म्हात्रे को सारी कहानी सुना रहे होंगे।"
"ओह!"
"ओह क्या.....कुछ करो।"
"क्या करूं?"
"रात एक बजे तक बीस हजार लेकर मेरे पास आ जाओ।"
हिम्मत करके मिक्की ने पूछ लिया—"त.....तुम कहां मिलोगी?"
"कैसी अजीब बात कर रहे हो, क्या तुम नहीं जानते कि मैं कहां मिलती हूं?"
मिक्की ने बात संभाली—"म...मेरा मतलब तो ये था कि शायद हमारा वहां मिलना ठीक नहीं है—तुमने खुद ही कहा है कि पुलिस तुम्हारे पीछे पड़ी है, यदि पुलिस ने मुझे 'वहां' तुमसे मिलते देख लिया तो.....?"
मिक्की ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया, क्योंकि इस 'तो' से आगे उसे कुछ पता ही नहीं था, जबकि कुछ सोचती-सी नसीम ने दूसरी तरफ से कहा— "हां, बात तो तुम्हारी ठीक है—इस बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं—मुमकिन है कि पुलिस मेरे 'कोठे' की निगरानी कर रही हो।"
नसीम के अंतिम वाक्य ने मिक्की के जेहन में धमाका-सा किया—'कोठे' शब्द से स्पष्ट हो गया कि नसीम कोई वेश्या है—हां, वेश्या का ध्यान आते ही 'वेश्याओं के रसिया' मिक्की के जेहन में 'नसीम बानो' का चेहरा नाच उठा—अब वह अच्छी तरह समझ गया कि फोन पर दूसरी तरफ कौन है और अभी वह अपने विचारों में गुम ही था कि नसीम ने पूछा—"चुप क्यों हो गए सुरेश—क्या सोचने लगे?"
"आं.....कुछ नहीं।" मिक्की चौंका—"स.....सोच रहा था कि कोठे पर हम मिल नहीं सकते, तो फिर मिलें कहां?"
"कश्मीरी गेट बस अड्डे पर।"
"बस अड्डे पर?"
"हां, ठीक वहां—जहां से लखनऊ के लिए बसें चलती हैं—मैं इस बात से पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही वहां पहुचूंगी कि कोई मेरा पीछा तो नहीं कर रहा है—तुम भी होशियार रहना—ठीक एक बजे।"
"ओ.के.।" मिक्की के मुंह से निकला।
दूसरी तरफ से नसीम बानो ने रिसीवर रख दिया।
एक बार रिसीवर क्रेडिल पर रखते वक्त मिक्की के जेहन में मामले की कुछ गुत्थियां खुली थीं—वह अच्छी तरह जानता था कि नसीम बानो कौन है और वेश्याओं के करैक्टरों से वह अच्छी तरह वाकिफ था।
इस फोन के बाद उसके जेहन में जो कहानी बनी, वह इस प्रकार थी, 'विनीता की उपेक्षा से त्रस्त सुरेश ने कोठों पर जाना शुरू किया होगा—दौलतमंदों को अपने जाल में फंसाकर चूसने में माहिर नसीम बानो ने सुरेश को भी फंसाया होगा—सुरेश सरीखे इज्जतदार और धनवान कभी नहीं चाहते कि उनके ऐसे कर्मों की भनक किसी को भी लगे—इसी कमजोरी का लाभ उठाकर वेश्याएं अक्सर अपने किसी दलाल से 'सहवास' के फोटो खिंचवा लेती हैं और फिर यह कहकर धन ऐंठती हैं कि वह बदमाश फोटुओं को सार्वजनिक बनाने की धमकी दे रहा है—सुरेश सरीखे लोग बेवकूफ बनकर ब्लैकमेल होते रहते हैं—सुरेश भी शायद नसीम बानो से इसी तरह ब्लैकमेल हो रहा था।' मिक्की जानता था कि ऐसी वेश्याओं से पीछा कैसे छुड़ाया जाता है सो, उसके होंठों पर नाचने वाली मुस्कान गहरी होती चली गई।
¶¶
मिक्की अभी अपनी सोचों में गुम था कि काशीराम ने आकर सूचना दी—"पुलिस वाले आपसे मिलने आए हैं, साहब।"
"प.....पुलिस?" मिक्की उछल पड़ा।
"जी।"
मिक्की का दिमाग बड़ी तेजी से घूम रहा था—वह सोचने की कोशिश कर रहा था कि कहीं वह कोई ऐसी गलती तो नहीं कर बैठा है, जिससे पुलिस उसके 'मिक्की' होने का राज जान गई हो—दिल हजारों शंकाओं के साथ धक्-धक् करने लगा, फिर भी उसने संभालकर पूछा—"किसलिए?"
"यह तो उन्होंने मुझे नहीं बताया साहब, सिर्फ इतना ही कहा है कि आपको खबर कर दूं कि इंस्पेक्टर गोविन्द म्हात्रे आए हैं।"
"म.....म्हात्रे, ओह।" मिक्की को याद आया कि कुछ ही देर पहले उसने यह नाम फोन पर नसीम से सुना है, बोला— "यहीं भेज दो।"
"अच्छा साहब।" कहकर काशीराम चला गया।
मिक्की के दिलो-दिमाग से तनाव काफी हद तक दूर हो चुका था—उसे मालूम था कि यदि पुलिस को उसके 'मिक्की' होने का संदेह होता तो इंस्पेक्टर महेश विश्वास तथा शशिकान्त आते—म्हात्रे के आगमन की वजह सुरेश और नसीम के सम्बन्धों से ही सम्बन्धित हो सकती है—उसे लगा कि म्हात्रे से बातचीत में शायद कुछ और गुत्थियां सुलझेंगी।
कुछ देर बाद।
तीन पुलिस वालों के साथ इंस्पेक्टर म्हात्रे नामक जिस हस्ती ने कमरे में कदम रखा, वह इतना पतला था कि यह सोच कर हैरत होती थी कि पुलिस में भर्ती के वक्त वह मैडिकल फिटनैस टेस्ट को कैसे पास कर सका?
पैन जैसी लम्बी और पतली उंगलियों वाला हाथ मिक्की से मिलाते हुए उसने अपना नाम बताया—मिक्की ने बिस्तर पर लेटे ही लेटे उसे बैठने के लिए कहा—वह बेड के समीप पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।
बाकी तीनों सिपाही सावधान की मुद्रा में खड़े थे।
मिक्की चुपचाप लेटकर म्हात्रे के बोलने का इन्तजार करता रहा, जबकि म्हात्रे ने जेब से पतली बीड़ियों का एक बण्डल निकाला, बण्डल
को देखते ही एक बीड़ी पीने की मिक्की की तीव्र इच्छा हुई—म्हात्रे ने बीड़ी उसे ऑफर भी की, परन्तु सुरेश बना रहने की कोशिश में लम्बी सिगरेट सुलगानी पड़ी।
अपनी बीड़ी सुलगाने के बाद म्हात्रे ने पूछा—"अब आपका क्या हाल है?"
"ठीक ही है।" मिक्की का लहजा संतुलित था।
"अलका के बारे में तो आपने अखबार में पढ़ ही लिया होगा?"
उसके मुंह से अलका का नाम सुनकर मिक्की चकरा गया। बोला— "कौन अलका?"
"कमाल है, आप अलका को नहीं जानते?"
"अ.....आप उसी अलका की बात तो नहीं कर रहे, जो मिक्की की लवर थी और अखबार के मुताबिक जिसने रात आत्महत्या कर ली?"
"जी हां।" म्हात्रे ने अर्थपूर्ण ढंग से उसे घूरते हुए कहा— "मैं उसी अलका की बात कर रहा हूं।"
"म.....मगर मुझसे उसके जिक्र का मतलब?"
"मतलब सिर्फ ये है कि वह आपके भाई की लवर थी, जिस तरह से सबकुछ घटा—क्या तुम्हें कुछ अटपटा-सा नहीं लगा मिस्टर सुरेश?"
"मैं समझा नहीं?"
"क्या एक पानी बेचने वाली, एक दस नम्बरी की इतनी दीवानी हो सकती है कि उसके लिए आत्महत्या कर ले?"
"मुहब्बत का अंदाजा प्रेमियों के अलावा किसी को नहीं होता। आपने उसे अगर मिक्की की लाश पर रोते देखा होता तो शायद आपको अलका द्वारा आत्महत्या करना इतना अटपटा न लगता।"
"यानी आप मानते हैं कि अलका ने आत्महत्या की है?"
एकाएक मिक्की को यह ख्याल आ गया कि इस वक्त मैं मिक्की नहीं सुरेश हूं और सुरेश को मिक्की की तरह इंस्पेक्टर के सामने दबा-दबा नहीं रहना चाहिए, बल्कि हावी होना चाहिए। सुरेश के सामने एक पुलिस इंस्पेक्टर की आखिर हैसियत क्या है, अतः थोड़ा अकड़कर बोला— "क्या आप यहां मुझसे अलका की मौत पर विचार-विमर्श करने आए हैं?"
"नहीं।"
"फिर?"
उसके चेहरे पर नजरें गड़ाए इंस्पेक्टर म्हात्रे ने एक झटके से कहा— "हम यहां तुम्हें गिरफ्तार करने आए हैं।"
"ग.....गिरफ्तार करने?" मिक्की के जिस्म का सारा खून जैसे एक ही झटके में निचोड़ लिया गया हो—"म.....मुझे?"
"जी हां.....आपको।" उसे घूरते हुए ये शब्द म्हात्रे ने इतने दृढ़तापूर्वक कहे कि मिक्की के होशो-हवास काफूर होते चले गए, यकीनन
वह एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने के बाद पूछ सका—"क.....किस जुर्म में?"
म्हात्रे कुछ बोला नहीं।
कड़ी नजरों से सिर्फ उसे घूरता रहा और उसके यूं घूरने पर मिक्की को अपने समूचे जिस्म पर असंख्य चींटियां-सी रेंगती महसूस हुईं—जब ये चुप्पी और खासतौर पर म्हात्रे की शूल-सी नजरें मिक्की के लिए असहनीय हो गईं तो वह लगभग चीख पड़ा—"बोलते क्यों नहीं मिस्टर म्हात्रे, मुझे किस जुर्म में गिरफ्तार करना चाहते हो तुम?"
"तुमने अपने पिता की हत्या की है।"
"प.....पिता की हत्या?"
"हां......अपने धर्मपिता की हत्या—धर्मपिता शब्द इसलिए इस्तेमाल करना पड़ रहा है, क्योंकि तुम जानकीनाथ के असली पुत्र नहीं हो—उनके मुनीम के बेटे हो—जानकीनाथ ने तुम्हें बचपन में ही गोद ले लिया था—यानी तुम उनके दत्तक पुत्र हो।"
"और मैंने उनकी हत्या की है?"
"बेशक।"
मिक्की हलक फाड़कर चीख उठा—"आप बकवास कर रहे हैं।"
"चीखने-चिल्लाने से आपका जुर्म कम नहीं हो जाएगा मिस्टर सुरेश, लम्बी इन्वेस्टिगेशन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जिस दुर्घटना के तहत जानकीनाथ की मृत्यु हुई, वह दुर्घटना नहीं बल्कि एक सोची-समझी स्कीम थी और उसे सोचने वाले थे आप।"
"य......ये झूठ है, आप किसी भ्रम का शिकार हैं।" मिक्की पागलों की तरह चीख पड़ा—"म.....मैं भला बाबूजी की हत्या क्यों करूंगा?"
"उनकी दौलत हड़पने के लिए।"
"क......कमाल की बात कर रहे हो इंस्पेक्टर, उनकी दौलत तो हर हाल में मेरी ही थी, भला उसके लिए मैं बाबूजी की हत्या क्यों
करूंगा?"
"धैर्य की कमी के कारण.....ऐसा अक्सर होता है।"
"म.....मैं समझ नहीं।"
"निःसन्देह जानकीनाथ की समस्त चल-अचल सम्पत्ति के वारिस आप अकेले थे—गौर करने वाली बात है—आप सिर्फ वारिस थे, मालिक नहीं—मालिक जानकीनाथ की मृत्यु के बाद बनने थे—वारिस से मालिक बनने के लिए आपसे जानकीनाथ की मृत्यु का इन्तजार न किया गया—आपने उनकी हत्या कर दी।"
मिक्की अवाक् रह गया, मुंह से बोल न फूटे।
होश गुम, पलक तक न झपक रहा था।
जेहन जैसे सुनसान पड़ी घाटियां बन चुका था और एक ही आवाज जैसे घाटी में प्रतिध्वनित होती फिर रही थी—'क्या यह सच है, क्या वास्तव में सुरेश हत्यारा था, क्या सचमुच जानकीनाथ की दौलत का मालिक बनने के लिए वह इतना व्यग्र हो गया था कि जानकीनाथ की मौत का इन्तजार करने की बजाय उनकी हत्या कर बैठा?'
'हे भगवान.....ये मैंने खुद को किस मुसीबत में फंसा लिया है?'
इंस्पेक्टर म्हात्रे अपने ही अंदाज में कहता चला जा रहा था—"हत्या भी तुमने ऐसे ढंग से की कि मामूली दुर्घटना नजर आए—भले ही हत्यारा चाहे कितना चालाक हो मिस्टर सुरेश, एक-न-एक दिन कानून की गिरफ्त में फंसना ही उसकी नियति है।"
मिक्की पसीने-पसीने हो चुका था। टूट चुका था वह और यह सच है कि वह हथियार डालने के-से लहजे में बोला— "क्या आपके पास कोई सबूत है कि मैंने बाबूजी की हत्या की है?"
"हम सारी कहानी जान चुके हैं।"
"कैसी कहानी?"
तुरन्त कुछ कहने के स्थान पर म्हात्रे कुर्सी से उठा। बीड़ी को फर्श पर डालने के बाद जूते से कुचलता हुआ बोला— "पुरानी दिल्ली की मशहूर तवायफ नसीम बानो के यहां सेठ जानकीनाथ का आना-जाना था—नसीम बानो को लेकर सेठजी पिकनिक आदि पर भी जाया करते थे—उनके इसी शौक को तुमने मौत का बहाना बनाया, नसीम बानो से मिलकर तुमने सौदा किया—वेश्या चूंकि बिकाऊ होती हैं, इसीलिए तुमने उसे आसानी से खरीद लिया—जानकीनाथ का मर्डर करने में वह तुम्हारे साथ हो गई।"
म्हात्रे सांस लेने के लिए रुका।
जबकि मिक्की सांस रोके एक-एक शब्द सुन रहा था। उसे पूर्ववत्त् घूरता हुआ म्हात्रे कहता चला गया—"शुरू में नसीम बानो सेठजी को अपना दीवाना बनाकर उनसे नोट ठग रही थी, फिर अपने बाप के मर्डर का प्लान लेकर तुम उसके पास पहुंच गए—तुमने इतनी मोटी रकम उसके सामने पटकी कि वह तैयार हो गई—शायद उसने यह भी सोचा हो कि उस एकमुश्त रकम के अलावा तुम्हें आसानी से जिन्दगी भर चूसती रहेगी—अपने बाप का हत्यारा, कभी भेद न खुलने देने के लिए राजदार को क्या नहीं देता रह सकता—यह सोचकर नसीम बानो जानकीनाथ के खिलाफ तुमसे मिल गई और फिर तेरह नवम्बर को जब जानकीनाथ नसीम बानो को 'बड़कल लेक' ले गए, तब नौका विहार करते वक्त अचानक नाव में पानी भरने लगा—सेठजी और नसीम के साथ-साथ मल्लाह महुआ ने भी नाव में भरे पानी को निकालने की भरसक चेष्टा की, मगर पानी आने के लिए नाव की तली में बनाए गए छेद इतने ज्यादा थे कि पानी की मात्रा बढ़ती रही और बढ़ते-बढ़ते यह इतनी हो गई कि नाव 'बड़कल लेक' में डूब गई—महुआ और नसीम बानो क्योंकि तैरना जानते थे सो, बच गए—तैरना न जानने की वजह से इस दुर्घटना में सेठजी की मृत्यु हो गई।''
"म.....मगर।"
"तुम और नसीम बानो पहले ही जानते थे कि सेठजी को तैरना नहीं आता, इसीलिए उनके मर्डर की ऐसी नायाब योजना बनाई कि जिसके बारे में सुनकर लोग उसे सामान्य दुर्घटना समझें—वास्तव में हुआ भी यही, तुम्हारी योजना पूरी तरह कामयाब रही—यहां तक कि पुलिस ने भी इसे दुर्घटना ही समझा.....लेक से सेठजी की फूली हुई लाश बरामद की—पोस्टमार्टम के बाद लाश अंतिम-संस्कार के लिए तुम्हें सौंप दी गई और फाइल इस जुमले के साथ बंद कर दी गई कि अपनी रखैल के साथ मौज-मस्ती करते सेठ जानकीनाथ नाव डूबने पर तैरना न जानने की वजह से मर गए।"
"फिर?" मिक्की ने अजीब मूर्खतापूर्ण अन्दाज से पूछा।
"फिर मैं इस थाने पर आया, पुरानी फाइलों को उलटते-पुलटते सेठ जानकीनाथ की फाइल पर नजर पड़ी—पूरी पढ़ने के बाद यह सवाल मेरे दिमाग में अटककर रह गया कि नाव आखिर डूबी क्यों.....इस सवाल का फाइल में कहीं कोई जवाब न था—मैं इन्वेस्टिगेशन के लिए निकल पड़ा—पता लगा कि एक हथौड़ी और बताशे वाली कील की मदद से महुआ की नाव में इतने छेद कर दिए गए कि उसका डूबना अवश्यम्भावी था—अब मैंने छेद करने वाले की तलाश शुरू की—सबसे पहले महुआ का बयान लिया और इस नतीजे पर पहुंचा कि कम-से-कम वह हत्या के षड्यंत्र में शामिल नहीं था—सो, नसीम बानो का बयान लिया—एक बार नहीं कई बार.....हालांकि वह खुद को बेहद चालाक समझती है और लगातार झूठ बोल रही है—मगर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह इस षड्यंत्र में शामिल है।"
"यह बात आप किस आधार पर कह रहे हैं?"
"वह लगातार कह रही है कि आपसे उसके कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं हैं, जबकि मैं दूसरे विश्वस्त सूत्रों से पता लगा चुका हूं कि नाव के बड़कल में डूबने से पहले तुम दोनों की अनेक गुप्त मुलाकातें हुई थीं।"
"कैसे विश्वस्त सूत्र?"
"मेरे पास ऐसे अनेक गवाह हैं, जो अदालत में यह कहेंगे कि जानकीनाथ की मौत से पहले उन्होंने तुम्हें नसीम से कई बार मिलते देखा है।"
"गवाह सिर्फ गवाह होते हैं, मिस्टर म्हात्रे, सबूत नहीं—ऐसे झूठे गवाहों के बूते पर आप अदालत में कुछ साबित नहीं कर पाएंगे।"
बड़ी ही रह्स्यमय मुस्कान के साथ म्हात्रे ने पूछा—"यानी नसीम की तरह आप भी यह कह रहे हैं कि सेठजी की मौत से पहले आप नसीम से कभी नहीं मिले?"
मिक्की ने दृढ़तापूर्वक कहा— "नहीं।"
"अच्छी तरह सोच लीजिए, मिस्टर सुरेश।"
"इसमें सोचना क्या है, सच्चाई यही है।"
म्हात्रे ने बंडल निकाला, एक बीड़ी सुलगाने के बाद बोला— "आपने यह नहीं पूछा कि इन्वेस्टिगेशन करता हुआ मैं कूदकर तुम तक कैसे पहुंच गया?"
"मुझे जानने की जरूरत नहीं है।"
"मगर मैं बताने में कोई कंजूसी नहीं करूंगा।” म्हात्रे ने कहना शुरू किया—"दरअसल ट्रैनिंग के दौरान हम पुलिस वालों को यह बात तोते की तरह रटाई जाती है कि कोई भी हत्या बेवजह नहीं होती और जानकीनाथ के मामले में नसीम पर शक होने के बावजूद मुझे 'वजह' नहीं मिल रही थी—यह बात मेरे भेजे में नहीं उतर पा रही थी कि जिस सेठ को अपना दीवाना बनाकर नसीम अच्छा-खासा नावां खींच रही थी, उसी का मर्डर क्यों करेगी—उसे मारने से भला नसीम का क्या फायदा हुआ—इसी सवाल का जवाब पाने हेतु इन्वेस्टिगेशन करते-करते वे लोग टकराए जो नाव डूबने से पहले तुम्हारी और नसीम की मुलाकातों के चश्मदीद गवाह हैं—बस, सारी गुत्थियां सुलझ गईं—सारी कहानी खुली किताब की तरह मेरे सामने थी।"
"यानी आप कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गए कि दौलत के लिए मैंने बाबूजी की हत्या की है, नसीम उसमें मेरी मददगार है?"
"मुझे इस नतीजे तक पहुंचाने में आप दोनों का झूठ बहुत बड़ा सहायक है कि आप नाव डूबने से पहले आपस में कभी नहीं मिले—यदि आप मुजरिम न होते तो झूठ न बोल रहे होते।"
"तुम्हारे चश्मदीद गवाह भी तो झूठ बोल रहे हो सकते हैं?"
"वे झूठ नहीं बोल रहे, क्योंकि यह झूठ बोलने से उन्हें कोई लाभ होने वाला नहीं है, जबकि झूठ बोलने से तुम्हारी समझ में तुम्हें
लाभ होने वाला है।"
"क्या उनके पास कोई सबूत है कि वे सच बोल रहे हैं?"
"नहीं।"
"तब अदालत उनकी गवाही पर यकीन कैसे करेगी?"
"अदालत यकीन करे या न करे, मगर मैं जानता हूं कि वे सच्चे हैं।"
पहली बार मिक्की के होंठों पर मुस्कान उभरी, बोला— "मेरी सेहत पर कोई फर्क आपके जानने से नहीं, अदालत के मानने से पड़ सकता है।"
"जानता हूं।"
"तब तो आप यह भी जानते होंगे कि अदालत वैसी किसी कहानी पर यकीन नहीं करती जैसी आप अपने मन से गढ़कर मेरे पास चले आए हैं—अदालत सबूत मांगती है, अपनी कहानी को सही साबित करने अथवा मुझे बाबूजी का हत्यारा साबित करने के लिए आपके पास कोई सबूत नहीं हो सकता।"
"क्यों नहीं हो सकता?"
"क्योंकि आपकी कहानी मनगढ़न्त, कोरी कल्पना है—कल्पना के सबूत नहीं हुआ करते—बाबूजी की हत्या करना तो दूर, ऐसा नापाक विचार भी मेरे दिमाग में कभी नहीं आया—मैं स्वयं भी उनकी मौत को एक दुर्घटना ही मानता हूं और यदि वह मर्डर था तो मुझे यह पता लगाना पड़ेगा कि यह जलील हरकत किसकी थी, क्यों की गई—अगर किसी ने बाबूजी की हत्या की है तो सात समुन्दर पार भी मैं उसको छोडूंगा नहीं।"
"यह काम करने के लिए पुलिस काफी है।"
"क्या मतलब?"
"इसमें कोई शक नहीं कि नाव डूबना दुर्घटना नहीं थी, उसे डुबोया गया है।" कहने के बाद कुछ देर तक म्हात्रे चुप रहा। ध्यान से मिक्की को देखते रहने के बाद बोला— "एक पुलिस वाले की जिन्दगी में अपनी सर्विस के दौरान ऐसे मौके कई बार आते हैं जब वह किसी गुनाह के मुजरिम को अच्छी तरह पहचान ही नहीं रहा होता है—वह जानता है कि सामने खड़ा व्यक्ति मुजरिम है, वह हाथ नहीं डाल पाता...सिर्फ इसलिए क्योंकि वो जो कुछ जानता है उसे अदालत में साबित करने के लिए मुकम्मल सबूत उसके पास नहीं होते।"
"क्या आप मेरे बारे में बात कर रहे हैं?"
"बेशक।" म्हात्रे ने जरा भी कमजोर पड़े बगैर कहा— "जानता हूं कि जो कहानी मैंने आपको सुनाई है, वह हंड्रेड वन परसेण्ट सही है, अपने पिता के कातिल आप ही हैं—और फिर भी अगर आप मुझसे इतने अकड़कर बात कर रहे हैं तो महज इसलिए कि मेरे पास गवाह तो हैं, सबूत नहीं।"
"आपका दिमाग खराब हो गया है मिस्टर म्हात्रे।"
"यकीनन मेरा दिमाग खराब हो गया है।" आवेशवश म्हात्रे दांत भींचकर कह उठा—"शायद इसलिए क्योंकि मैं खुलेआम एक हत्यारे को कानून की, सबूत मांगने वाली कमजोरी का लाभ उठाते हुए देख रहा हूं।"
"जुबान को लगाम दो, इंस्पेक्टर।" इस बार मिक्की भड़क उठा—"अब यदि एक बार भी तुमने मुझे बाबूजी का हत्यारा कहा तो तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं होगा।"
"फिर भी आप मुझे उन पुलिस वालों में से न समझें, मिस्टर सुरेश, जो सबूत न मिलने पर मुजरिम को सारी जिन्दगी सड़कों पर दनदनाता देखते रहते हैं, निराश होकर जो हथियार डाल देते हैं।"
"तुम क्या करोगे?"
"मरते दम तक मैं आपके खिलाफ सबूत जुटाने की कोशिश करता रहूंगा।"
"तो कहीं और जाकर झक मारो।" यह महसूस करते ही मिक्की का हौसला बढ़ गया था कि म्हात्रे के पास कोई ठोस सबूत नहीं है— "यहां मेरा दिमाग चाटने तब आना जब कोई सबूत जुटाने में कामयाब हो जाओ।"
म्हात्रे ने उसे ऐसी नजरों से घूरा जैसे कच्चा चबा जाने का इरादा रखता हो, बोला— "यदि चाहूं तो शक की बिना पर मैं आपको इसी वक्त गिरफ्तार कर सकता हूं।"
मिक्की ने बिना डरे कहा— "तुम मुझे तीस मिनट से ज्यादा अपनी कस्टडी में नहीं रख सकोगे और उसके बाद नौकरी खो ही बैठोगे, साथ ही मेरी तरफ से दायर किया मानहानि का मुकदमा तुम्हारे बर्तन भी बिकवा देगा।"
"अगर मैं आपको गिरफ्तार नहीं कर रहा मिस्टर सुरेश तो यकीन मानिए, उसके पीछे मानहानि के मुकदमे का खौफ या नौकरी चले जाने का डर नहीं है।"
"ओह!"
"और यकीनन जब मैं आपको गिरफ्तार करूंगा तो उसके बाद सारी जिन्दगी आप जेल से बाहर की हवा में एक सांस तक नहीं ले सकेंगे।"
"तो जाओ, सबूत इकट्ठे करके मुझे गिरफ्तार करने आना।"
"दरअसल मैं यहां सबूत के लिए ही आया था।"
"यहां तुम्हें क्या सबूत मिलेगा?"
"आपकी उंगलियों के निशान।"
"न.....निशान.....क्या मतलब?"
"मैंने यह बात ऐसी किसी लैंग्वेज में नहीं की है जो आपकी समझ में न आती हो।" चहलकदमी के अन्दाज में म्हात्रे ने उसके बेड की परिक्रमा करते हुए कहा— "उंगलियों के निशान का मतलब होता है फिंगर-प्रिन्ट्स, मैं आपके फिंगर प्रिन्ट्स मांग रहा हूं—यदि आप सच्चे हैं, बेगुनाह हैं तो आपको कोई उज्र नहीं होना चाहिए।"
"यदि मैं फिंगर प्रिन्ट्स न दूं तो?"
"उस हालत में भी मैं आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकूंगा—अतः फिंगर प्रिन्ट्स के लिए न मैं आप पर दबाव डालने की स्थिति में हूं और न मजबूर करूंगा मगर.....।" कहकर म्हात्रे रुका, एक पल ठहरकर सीधा मिक्की की आंखों में झांकते हुए बोला— "मैं ये जरूर समझ जाऊंगा कि आपके मन में कहीं-न-कहीं चोर है, क्योंकि अपने फिंगर प्रिन्ट्स छुपाने की कोशिश सिर्फ मुजरिम ही करते हैं, वे नहीं जो बेदाग हों।"
"मेरी उंगलियों के निशान का तुम करोगे क्या?"
"बड़ी मुश्किल से मैंने लोहे की वह हथौड़ी और बताशे वाली कील बरामद की है, जिससे नाव की तली में छेद किए गए।" लगातार उसकी आंखों में झांक रहा म्हात्रे कहता चला गया—"उन पर मैंने उंगलियों के कुछ निशान उठाए हैं, आपकी उंगलियों के निशानों का मिलान उन्हीं से करना है।"
"तुम्हें शक है कि कील और हथौड़ी पर मेरी ही उंगलियों के निशान होंगे।"
"शक नहीं मिस्टर सुरेश, यकीन है।"
"अगर न हुए?"
"निशानों को मिलाने से पहले मैं कोई बहस नहीं करना चाहता—अगर आप निशान दे दें तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा।"
मिक्की ने एक पल सोचा और फिर दिल चाहा कि जोर से ठहाका लगाए—उस बेवकूफ को क्या मालूम कि सुरेश बदल चुका है—यदि हथौड़ी और कील का इस्तेमाल सुरेश ने किया भी हो तो कम-से-कम इस सुरेश की उंगलियों के निशान से वे बिल्कुल नहीं मिलेंगें—निशान देने में बुराई तो दूर, मिक्की को उल्टी भलाई नजर आई—ऐसा होने पर म्हात्रे नामक इंस्पेक्टर को उस पर जो शक है, वह पूरी तरह खाक में मिल जाना था।
अभी वह सोच ही रहा था कि म्हात्रे ने कहा— "किस सोच में डूब गए मिस्टर सुरेश, यदि निशान देने के बारे में आप कोई स्पष्ट जवाब दें तो आप से विदा लूं।"
"आप शौक से मेरी उंगलियों के निशान ले सकते हैं।"
म्हात्रे चकित रह गया, मुंह से कोई आवाज न निकल सकी—मिक्की ने पूछा—"इस तरह क्या देख रहे हो इंस्पेक्टर?"
"अगर आप सच पूछें तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप निशान देने के लिए तैयार हो जाएंगे।"
मिक्की ने मुस्कराकर कहा—"उंगलियां नहीं, पूरा हाथ हाजिर है।"
¶¶
मिक्की को म्हात्रे के द्वारा उंगलियों के निशान ले जाने की बिल्कुल परवाह नहीं थी—हां, उसके जाने के बाद काफी देर तक वह उस कहानी पर जरूर गौर करता रहा जो म्हात्रे ने सुनाई थी।
क्या वह कहानी सच है?"
क्या सचमुच वारिस से मालिक बनने के लिए सुरेश ने जानकीनाथ की हत्या की थी?"
यदि ऐसा है तो निश्चय ही सुरेश मुझसे भी बड़ा छुपा रुस्तम निकला।
मिक्की को अब याद आ रहा था कि जानकीनाथ की मृत्यु 'बड़कल लेक' में डूबने से ही हुई थी—यह सोचकर मिक्की हैरान था कि वह मर्डर था और यह बात तो उसे रोमांचित किए दे रही थी कि वह मर्डर सुरेश ने किया था।
हालांकि इंस्पेक्टर म्हात्रे के पास कोई सुबूत न था और फिंगर प्रिन्ट्स के रूप में जो सबूत वह ले गया था, वह झूठ बोलने वाला था—परन्तु उसकी दृढ़ता ने मिक्की को यकीन दिला दिया कि हो न हो, हत्यारा सुरेश ही था।
दूसरी तरफ थी—नसीम बानो।
काफी देर तक फोन पर नसीम से कहा गया एक-एक शब्द मिक्की के कानों में गूंजता हुआ जेहन से टकराता रहा—अब यह ख्याल उसके जेहन से पूरी तरह आउट हो चुका था कि नसीम सुरेश को अवैध सम्बन्धों के आधार पर ब्लैकमेल कर रही थी—निश्चय ही म्हात्रे से सुनाई गई कहानी ही हकीकत है। नसीम की मदद से सुरेश ने जानकीनाथ की हत्या की होगी और अब इंस्पेक्टर म्हात्रे की इन्वेस्टिगेशन से घबराई हुई है।
और।
बीस हजार रुपये के लिए सवा बारह बजे उसने सुरेश की तिजोरी खोली—करेंसी नोटों से वह लबालब भरी थी।
साढ़े बारह बजे।
उस वक्त सब सो रहे थे जब जेब में बीस हजार डाले वह चोरों की तरह अपने कमरे में से ही नहीं, बल्कि चारदीवारी लांघकर कोठी से बाहर निकला।
टैक्सी पकड़ने से पहले वह अच्छी तरह चैक कर चुका था कि उसे चैक नहीं किया जा रहा है—एक बजने में पांच मिनट पर वह बस अड्डे के उस स्पॉट पर था, जहां से लखनऊ के लिए बसें रवाना होती थीं।
ज्यादा भीड़ नहीं थी।
लखनऊ जाने वाली एक नाइट बस में मुश्किल से बीस यात्री थे—चंद लोग बस के इर्द-गिर्द खड़े शायद उसके रवाना होने का इन्तजार कर रहे थे।
अभी मिक्की को वहां पहुंचे दो मिनट भी नहीं गुजरे थे कि एक बुर्कापोश औरत उसके समीप से गुजरती हुई फुसफुसाई—"मेरे पीछे आओ।"
मिक्की ने आवाज पहचान ली।
वह नसीम थी।
अजीब रोमांच में डूबा मिक्की उसके पीछे चल दिया—अपेक्षाकृत बस अड्डे के एक अंधेरे कोने में एक-दूसरे के नजदीक आए।
नसीम ने नकाब उलट दिया।
मिक्की को मानना पड़ा कि अच्छे-अच्छे को दीवाना बना देने वाला हुस्न अभी भी नसीम के पास है। इस वक्त उसके चेहरे पर गम्भीरता ही नहीं, बल्कि खौफ के लक्षण भी थे, बोली— "मनू और इला का मुंह बन्द करने के लिए रकम लाए हो?"
"हां” , मिक्की ने संक्षिप्त जवाब दिया।
नसीम ने हाथ फैला दिया—"लाओ।"
"वह तो मैं दे ही दूंगा।" मद्धिम प्रकाश में नसीम को घूरते हुए मिक्की ने कहा— "मगर सवाल ये है कि यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा?"
"जब तक वो दोनों शैतान जिन्दा हैं।"
"क्या मतलब?"
"मतलब साफ है सुरेश, हथौड़ी और कील से नाव में छेद करते उन्होंने तुम्हें अपनी आंखों से देखा है—इस राज को राज रखने की ही वे बार-बार कीमत मांगते हैं—उस वक्त खतरा कम था, जब पुलिस ने साधारण दुर्घटना समझकर इस केस की फाइल बन्द कर दी थी—बुरा हो इस म्हात्रे का—बेहद कांइया है वह, जाने कम्बख्त को क्या सूझा कि गड़े मुर्दें उखाड़ने निकल पड़ा—जरा सोचो, यदि मनू और इला अपना बयान इंस्पेक्टर म्हात्रे को दे दें तो क्या होगा?"
"म.....मगर सिर्फ उनके बयान देने से कुछ होने वाला नहीं है।"
"उन्होंने मुझे वह फोटो दिया है।" कहने के साथ नसीम ने अपने पर्स से एक पासपोर्ट साइज का फोटो निकालकर उसे पकड़ा दिया।
मिक्की ने धड़कते दिल से फोटो लिया।
रोशनी मद्धिम जरूर थी मगर उसने साफ देखा.....एक हाथ में कील और दूसरे हाथ में हथौड़ी लिए सुरेश नाव की तली में छेद करता साफ नजर आ रहा था—मिक्की की नजर फोटो पर चिपककर रह गई।
"जरो सोचो सुरेश, यदि इस फोटो को वे शैतान म्हात्रे तक पुहंचा दें तो क्या म्हात्रे को किसी अन्य सबूत की जरूरत रह जाएगी?"
"ल...लेकिन ये फोटो उन्होंने लिया कब?"
"फोटो ही बता रहा है कि यह उस वक्त लिया गया, जब तुम नाव में छेद कर रहे थे।"
"मेरा मतलब ये है कि क्या वे हर समय अपने साथ कैमरा लिए घूमते हैं?"
"क्या तुमने देखा नहीं है—अब तक दो बार उनसे मिल चुके हो—शायद तुमने ध्यान नहीं दिया कि इला के गले में दोनों ही बार कैमरा था—कल रात बीस हजार की डिमांड करने जब वे मेरे पास कोठे पर आए, तब भी इला के गले में कैमरा था। मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया कि आखिर वह हर वक्त गले में यह कैमरा क्यों लटकाए रहता है? "
"क्या जवाब दिया उसने?"
जवाब मनू ने दिया, बोला—हमारा पेशा चोर के ऊपर मोर बनना है, जाने कहां हमें कोई सफेदपोश सुरेश की तरह जुर्म करता नजर आ जाए—ऐसा दृश्य देखते ही इला उसे कैमरे में कैद कर लेता है—इससे सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि जुर्म के बाद सफेदपोश हमारा मेहनताना देने में आनकानी नहीं करता, पेट भरने के लिए सबूत तो चाहिए ही न?"
"ओह!" मिक्की ने सारे हालतों को समझने की चेष्टा करते हुए कहा— "इसका मतलब....हम सारी जिन्दगी उनसे ब्लैकमेल होते रहेंगे।"
"मजबूरी है।"
"मगर मैं यह सब सहन नहीं कर सकता।"
"आखिर किया क्या जा सकता है?"
"फिलहाल तो बीस हजार देने ही पड़ेंगे, मगर मैं जल्दी इनका कोई इलाज सोचूंगा, ज्यादा दिन तक उन्हें सहन नहीं किया जा सकता।"
"जाने ये यमदूत वहां कहां से टपक पड़े?" नसीम बड़बड़ाई—"सारा प्लान कितनी खूबसूरती से अमल हुआ था, हम दोनों के अलावा किसी तीसरे को भनक तक नहीं थी—पुलिस तक ने उसे दुर्घटना समझा, म्हात्रे को जाने क्या सूझी—और फिर दूसरी तरफ अगर ये यमदूत न होते तो म्हात्रे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, हमने कोई सबूत छोड़ा ही नहीं था।"
"सबूत उसने ढूंढ लिया है।"
"क्या?"
"कील और हथौड़ी।"
"क.....क्या मतलब.....वे दोनों चीजें तो तुमने रेत में दबा दी थीं न?"
सुरेश बना रहने के लिए उसने जवाब दिया—"हां, मैंने सबकुछ योजना के अनुसार ही किया था।"
"फिर वे दोनों चीजें उसके हाथ कैसे लग गईं?"
"भगवान जाने.....मुझे सिर्फ इतना पता है कि उन पर फिंगर प्रिन्ट्स से मिलान करने के लिए वह मेरी उंगलियों के निशान ले गया है।"
"फ.....फिर?"
मुस्कराते हुए मिक्की ने कहा— "मगर उसकी तुम फिक्र मत करो, वे दोनों निशान एक-दूसरे से बिल्कुल अलग होंगे।"
"ऐसा कैसे हो सकता है, जब दोनों निशान तुम्हारी उंगलियों के.....।"
नसीम की बात बीच में ही काटकर मिक्की ने कहा— "अपनी उंगलियों के निशान देने से पहले मैं एक ऐसी कारस्तानी कर चुका हूं कि वे कील और हथौड़ी वाले फिंगर प्रिन्ट्स से पूरी तरह भिन्न होंगे।"
"ऐसी क्या कारस्तानी की है?"
"गहराई को छोड़ो, मतलब की बात ये है कि फिंगर प्रिन्ट्स का मिलान करने के बाद मनू और इला का इलाज सोचेंगे।"
"जैसा तुम ठीक समझो।" इस विषय को यहीं बंद करके नसीम ने कहा— "अब अगर कुछ पर्सनल बातें हो जाएं तो शायद बेहतर होगा।"
"पर्सनल बातें?"
"हां, मेरे और तुम्हारे बीच पांच लाख तय हुए थे—दो किस्तों में चार तुम दे चुके हो, रही तीसरी किस्त यानी एक लाख रुपये—मेरे ख्याल से अब उसका निपटारा भी तुम्हें कर देना चाहिए।"
मिक्की ने बहुत सम्भलकर कहा— "कर दूंगा, जल्दी क्या है?"
"ये बात गलत है सुरेश।" नसीम के लहजे में थोड़ी नागवारी उत्पन्न हो गई—"तुमने दो किस्तों में मेरा पूरा पेमेण्ट कर देने का वायदा किया था, फिर न जाने क्या सोचकर एक लाख रुपये रोक लिए, मैं साफ-साफ सुनना चाहती हूं कि मेरा एक लाख तुम कब दोगे?"
"मनू और इला नाम के रोड़ों से फारिग होने के बाद।"
"ये कोई बात नहीं हुई, तुम बिजनेसमैन हो—सौदा बिल्कुल फेयर होना चाहिए.....सारे अभियान में मैंने पूरी ईमानदारी से तुम्हारा साथ दिया—ये जानते-बूझते कि नाव में छेद है, जानकीनाथ के साथ उस पर सफर करना आसान नहीं था—तैरना जानने के बावजूद मेरी जान भी जा सकती थी।"
"इस काम के मैंने तुम्हें पूरे पांच लाख.....।"
"चार लाख.....पांच तब होंगे जब बाकी का एक लाख दे चुकोगे।"
"उसकी फिक्र मत करो।" मिक्की ने सवाल किया—"ये बताओ कि इंस्पेक्टर म्हात्रे तुमसे क्या बातें करके गया है?"
"हर मुलाकात पर वह मुझ पर यह स्वीकार करने के लिए दबाव डाल रहा है कि जानकीनाथ की मौत से पहले तुमसे मेरी मुलाकातें हुई हैं—योजना के अनुसार इस बात पर अड़ी हुई हूं कि ये झूठ है, मगर मैंने फोन पर भी कहा था सुरेश कि यदि वह इसी तरह मेरे पीछे पड़ा रहा तो मैं टूट जाऊंगी—डरती हूं कि कहीं हकीकत न उगल बैठूं?"
"उससे जितना नुकसान मुझे होगा, उतना ही तुम्हें भी।"
"म्हात्रे कई बार कह चुका है कि यदि मैं उसे हकीकत बता दूं तो वह केस में मुझे वादामाफ गवाह बना लेगा।"
"वह तुम्हें लुभा रहा है।" थोड़ा आतंकित होकर मिक्की ने कहा।
"मैं समझती हूं मगर क्या करूं.....वह ऐसी-ऐसी दलीलें पेश करता है कि दिमाग हिल जाता है, झूठ बोलने की हिम्मत नहीं होती।"
"कैसी दलीलें?"
"कभी कहता है कि उसके पास दूसरी वेश्याओं की गवाहियां है, कभी कहता हैं कि तेरह नवम्बर से पहले कोठों के आसपास जिन
पुलिस वालों की ड्यूटी थी, उनमें से कई ने तुम्हें वहां आते देखा है।"
"ओह, तो ये गवाहियां हैं उसके पास।" मिक्की के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएं खिंच गई—"खैर, तुम्हें नर्वस होने की जरूरत नहीं है—उन गवाहियों से वह कुछ भी साबित नहीं कर सकता।"
"मैं जानती हूं, मगर फिर भी उसकी दलीलों से डर लगता है।"
"मेरे ख्याल से अब वह तुम्हारे पास नहीं आएगा।" कहते हुए मिक्की ने सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां निकालकर उसे पकड़ा दीं—“ वे दोनों भले ही चाहे जितनी सतर्कता बरतने के बाद यहां आए हों, मगर एक शख्सियत अब भी ऐसी थी, जिसने उनके नजदीक वाले थम्ब के पीछे छुपकर एक-एक बात सुनी थी। हालांकि उसकी आंखें पहले से ही लाल थीं, मगर बातें सुनने के बाद तो दहकते शोलों में तब्दील होती चली गईं।
मारे गुस्से के उसका चेहरा तमतमा रहा था।
¶¶
0 Comments