ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटेड का रजिस्टर्ड आफिस तारदेव के इलाके में एक आलीशान मल्टीस्टोरी आफिस कम्पलैक्स में आबाद था । आफिस की रिसैप्शनिस्ट ने सिर उठा कर अपने सामने खड़े सूटबूटधारी व्यक्ति की ओर देखा जो यूं उसे घूर रहा था जैसे उसकी शान में उससे कोई गुस्ताखी हो गयी हो ।
“फरमाइये ।” - उससे निगाह मिलाने से कतराती वो तनिक विचलित स्वर में बोली ।
“चेयरमैन साहब से मिलना है ।” - वो व्यक्ति ऐसी आवाज में बोला जैसे घुमड़ते बादल हौले हौले गर्जन करते हैं ।
“रणदीवे साहब से ?”
“अगर चेयरमैन साहब का नाम रणदीवे साहब है तो रणदीवे साहब से ।”
“आपका नाम ?”
“इनायत दफेदार ।”
“कहां से आये हैं मिस्टर दफेदार ?”
“दुबई से ।”
“इज दिस ए बिजनेस काल, सर ?”
“यस ।”
रिसैप्शनिस्ट ने अपने सामने एक रजिस्टर पर निगाह डाली और फिर बोली - “आपकी अप्वायन्टमेंट तो नहीं है ।”
“तो ?”
“चेयरमैन साहब अप्वायन्टमेंट बिना किसी से नहीं मिलते ।”
“मेरा मिलना बहुत जरूरी है ।”
“आल दि सेम....”
“तो कौन से साहब अप्वायन्टमेंट बिना मिलते हैं ? शायद मैनेजिंग डायरेक्टर साहब मिलते हों ?”
“एम. डी. दाण्डेकर साहब का पिछले दिनों देहान्त हो गया है । उनकी जगह नये एम. डी. की नियुक्ति होनी अभी बाकी है ।”
“तो किसी डायरेक्टर से मिलवाइये ।”
“किसी डायरेक्टर से मिलने से काम चलेगा आपका ?”
“नहीं चलेगा । मैंने चेयरमैन से ही मिलना है लेकिन, मोहतरमा, उसे मैं आपसे बेहतर समझा सकूंगा कि मेरा चेयरमैन से मिलना बहुत जरूरी है ।”
रिसैप्शनिस्ट सकपकाई ।
“आई बात समझ में ?” - इस बार दफेदार बड़े कर्कश स्वर में बोला ।
रिसैप्शनिस्ट हड़बड़ाई और फिर विचलित स्वर में बोली - “आप एक मिनट बैठिये, मैं भीतर बात करती हूं ।”
“शुक्रिया ।”
दफेदार रिसैप्शन से परे हट गया, उसने बैठने का उपक्रम न किया ।
रिसैप्शनिस्ट ने टेलीफोन पर एक नम्बर डायल किया और फिर माउथपीस से मुंह लगाकर खुसर पुसर करने लगी ।
फिर उसने रिसीवर रखा और घन्टी बजाई ।
दरवाजे पर बैठा चपरासी उसके करीब पहुंचा ।
“साहब को चेयरमैन साहब के आफिस में छोड़ के आओ ।”
दफेदार की भवें उठीं ।
“चेयरमैन साहब” - रिसैप्शनिस्ट बोली - “अपने बिजी शिड्यूल में से कुछ मिनट आपके लिये निकालने को तैयार हो गये हैं ।”
“ओह ! शुक्रिया ! उनका और आपका भी ।”
“यू आर वेलकम ।”
दफेदार चपरासी के साथ हो लिया ।
ओरियन्टल का चेयरमैन रणदीवे एक सफेद बालों वाला, सूरत से ही सम्पन्न और इज्जतदार लगने वाला आदमी था ।
उसने निर्विकार भाव से आगन्तुक का स्वागत किया और उसे कुर्सी आफर की ।
“जनाब” - दफेदार बोला - “मेरा नाम इनायत दफेदार है ।”
“रिसैप्शनिस्ट ने बताया मुझे आपका नाम । तो आप दुबई से हैं ?”
“नहीं ।”
“नहीं । लेकिन रिसैप्शनिस्ट को तो आपने बोला था....”
“जिस शख्स का मैं नुमायन्दा हूं, वो दुबई से है इसलिये मैं ऐसा बोला । आप यूं समझिये कि मैं उस शख्स का लोकल रिप्रेजेंटेटिव हूं ।”
“चलिये ऐसे ही सही । अब फरमाइये मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?”
“मैं ‘भाई’ का आदमी हूं ।”
“भाई ! आप अपने भाई के रिप्रेजेंटेटिव हैं ?”
“मैं ‘भाई’ बोला, बाप ।”
“मैंने सुना । लेकिन समझा कुछ नहीं । कौन भाई ?”
“मैं दुबई बोला, ‘भाई’ बोला, फिर भी नहीं समझा, बाप ?”
“नहीं समझा । और आप जरा अदब से बात करें, मैं नहीं चाहता कि मुझे इस बात का अफसोस होने लगे कि मैंने आपसे बिना अप्वायन्टमेंट मिलना कुबूल किया ।”
“जनाब, ‘भाई’ एक ही है इस दुनिया में । और अक्खे एशिया में ऐसा कोई नहीं जो उसके नाम से वाकिफ नहीं ।”
“ओह ! तो आप उस फरार गैंगस्टर की बात कर रहे हैं जो गिरफ्तारी से बचने के लिये कभी दुबई में पनाह पाता है तो कभी कराची में ?”
दफेदार तिलमिलाया और फिर बोला - “बहुत हल्के ढंग से आप ‘भाई’ का जिक्र कर रहे हैं लेकिन हां, मैं उसी की बात कर रहा हूं और उसी के हुक्म से यहां आया हूं ।”
“वजह ?”
“वजह होटल सी-व्यू है जो कि ओरियन्टल की प्रापर्टी है । वो होटल आप लोग बेचना चाहते हैं, ‘भाई’ उसका खरीदार है ।”
“आपकी जानकारी गलत है । हमारा होटल बेचने का कोई इरादा नहीं ।”
“लेकिन हमने सुना है कि....”
“पहले था, अब नहीं है ।”
“अब क्यों नहीं है ?”
“क्योंकि अब वो होटल बेचने के लिये हमारे कब्जे में नहीं है ।”
“क्या मतलब ?”
“उसे लीज पर उठाया जा चुका है ।”
“लीज पर ही तो उठाया जा चुका है, बेचा तो नहीं जा चुका ?”
“लीज की वजह से जो प्रापर्टी किसी दूसरे के कब्जे में हैं, उसे हम कैसे बेच सकते हैं ?”
“लीज कैंसल कीजिये ।”
“ये नहीं हो सकता ।”
“ये ‘भाई’ का हुक्म है ।”
“तुम्हारे भाई का हुक्म हम पर क्योंकर लागू है, भई ?”
“‘भाई’ का हुक्म सब पर लागू है क्योंकि वो ‘भाई’ है । जो ‘भाई’ की हुक्मउदूली की हिम्मत करता है, वो जान और माल दोनों से जाता है ।”
“मिस्टर ! तुम धमकी दे रहे हो ?”
“वार्निंग दे रहा हूं । अगर आप अपनी कम्पनी की, अपने डायरेक्टर साहबान की और खुद अपनी सलामती चाहते हैं तो फौरन होटल ‘भाई’ के हवाले करने का इन्तजाम कीजिये, आपको मुंहमांगी कीमत मिल जायेगी ।”
“मिस्टर, गो अवे ऑर आई विल कॉल दि पोलीस ।”
“आप नादान हैं जो नहीं समझते कि ये ‘भाई’ का बड़प्पन है कि जो चीज वो आप से छीन सकता है, उसकी वो आपको कीमत अदा कर रहा है ।”
“नादान तुम हो । अरे, जो चीज हमारी नहीं, उसे हम क्योंकर बेच सकते हैं ?”
“अपनी बनाइये उसे ।”
“भाई ऐसा ही सूरमा है तो राजा गजेन्द्र सिंह से क्यों नहीं छीनता जो कि लीज की वजह से होटल मालिक है ?”
दफेदार से जवाब देते न बना ।
“तुमने और कुछ कहना है ।”
“नहीं लेकिन....”
“दैन स्टैण्ड अप एण्ड गैट आउट ।”
“जाता हूं ।” - दफेदार उठ खड़ा हुआ - “एक आखिरी बात सुन लीजिये, बल्कि दो बातें सुन लीजिये । ‘भाई’ की मुखालफत करके आज तक कोई साबुत बाकी नहीं बचा । जरा दायें बायें दरयाफ्त कीजियेगा, ऐसे कई लोगों का जिक्र आपको सुनने को मिल जायेगा जिनकी रूह इसलिये उनके जिस्म से किनारा कर गयी क्योंकि उन्होंने ‘भाई’ की मुखालफत करने की जुर्रत की ।”
“आउट !”
“दूसरी बात, जल्दबाजी का फैसला नादानी का फैसला होता है । इसलिये सोच विचार के लिये, बाकी डायरेक्टर साहबान से मशवरा करने के लिये, मैं आपको दो दिन का वक्त देता हूं । दो दिन में आपका माकूल जवाब ‘भाई’ को न मिला तो ‘भाई’ के कहर से दो चार होने को तैयार रहियेगा । खुदा हाफिज ।”
वो घूमा और लम्बे डग भरता वहां से निकल गया ।
पीछे कितनी ही देर रणदीवे बुत बना बैठा रहा ।
फिर उसने फोन उठाया और रिसैप्शन पर काल लगायी ।
“वो आदमी गया ?” - उसने पूछा ।
“मिस्टर दफेदार, सर ?” - रिसैप्शनिस्ट ने पूछा - “जो अभी आपसे मिलने आये थे ?”
“हां ।”
“चले गये, सर । अभी बाहर निकले ।”
“हूं । इस वक्त आफिस में डायरेक्टर साहबान में से कोई मौजूद है ?”
“यस, सर । खान साहब हैं । जठार साहब हैं ।”
“दोनों को बोलो मेरे आफिस में आयें और पुलिस कमिश्नर को कॉल लगाओ ।”
“सर ?”
“यस । आई वांट टु स्पीक कमिश्नर ऑफ मुम्बई पुलिस इमीजियेटली आन ए मैटर ऑफ लाइफ एण्ड डैथ । सो गैट आन विद इट ।”
“यस, सर । राइट अवे, सर ।”
***
इरफान और शोहाब टॉप फ्लोर पर लौटे ।
विमल सुइट के ड्राईंगरूम में उसी सोफे पर खामोश बैठा था जहां कि वो उसे बैठा छोड़ कर गये थे । उसके हाथ में एक कागज था जिस पर से वो कुछ पढता जान पड़ता था । उन दोनों की आमद पर उसने कागज पर से सिर उठाया, सवाल करती उसकी निगाह उन पर पड़ी ।
“सब उसी कमीने की करतूत निकली, बाप ।” - इरफान गमगीन स्वर में बोला ।
“उस वेटर की ?” - विमल बोला - “जिसे अभी बेसमेंट में ले के गये थे ?”
“हां । ‘कम्पनी’ का प्यादा निकला, कम्बख्त ।”
“कुबूल किया उसने ऐसा ?”
“हां, बाप । हुक से उलटा टांग कर बहुत मार लगायी तो कुबूल किया ।”
“और क्या बोला ? किस के हाथों बिका ?”
“इनायत दफेदार का नाम लिया, बाप ।”
“दफेदार का ? ‘भाई’ का काम नहीं ?”
“एक ही बात है । ‘भाई’ काम करता नहीं, काम करवाता है । काम करने का हुक्म देता है । ये दफेदार छोटा अंजुम सरीखा ही उसका खास आदमी जान पड़ता है जिसने कि उसकी मौत के बाद उसकी जगह ली है ।”
“बहरहाल इधर फिर अगवा का कामयाब ड्रामा स्टेज हो गया । नीलम और सूरज फिर दुश्मनों के हाथ में हैं ।”
“डूबने मरने का मुकाम है, बाप । कुबूल करते कलेजा फटता है लेकिन हां ।”
“वो वेटर... क्या नाम था उसका ?”
“भाटे । गोविन्द भाटे ।”
“नीचे लॉबी में जो कुछ हुआ, उसकी बाबत वो क्या बोला ?”
“कुछ नहीं । उसे उधर की कोई खबर नहीं थी ।”
“वो बोला कि ये दफेदार किधर पाया जाता था ?”
“नहीं ।”
“उसका कान्टैक्ट कैसे था दफेदार से ?”
“बिचौलिये के जरिये ।”
“बिचौलिया ?”
“वही जेकब परदेसी । जो कि धोबी तालाब उसके घर आता था । खुद कहां रहता था, नहीं मालूम । उससे कान्टैक्ट का जरिया दगड़ी चाल में ईरानी का रेस्टोरेंट ।”
“काफी समझदार है ‘भाई’ । बखिया की माफिक अन्डर में चलने वालों की जंजीर बना के रखता है जिनकी बीच में से एक कड़ी टूट जाये तो जंजीर का आगे कुछ पता नहीं चलता ।”
इरफान खामोश रहा ।
“अब क्या किया इस... भाटे का ?”
“वही जो करना चाहिये था, बाप ।”
“क्या ?”
इरफान ने कनपटी के साथ अपनी तर्जनी उंगली लगायी और घोड़ा खींचने का एक्शन किया ।
“ओह !” - विमल एक क्षण खामोश रहा और फिर धीरे से बोला - “दुखु सुखु तेरे भाणे होवै, किस थै जाय रुआइये ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“तो दुश्मन ने फिर अपनी ताकत दिखा दी ! वो फिर सोहल पर वो चोट करने में कामयाब हो गया जिससे वो सबसे ज्यादा तड़पता है !”
“तू फिक्र न कर, बाप । हम सब पता निकालेंगे और भाभी जान और बच्चे को वापिस लेकर आयेंगे ।”
“जिनका कि अगवा हुआ है ?”
“वो तो है, बाप”
“ये चिट्ठी पढ ।”
“चिट्ठी ?”
“हां । तेरे जाने के बाद मुझे बैडरूम में एक तकिये के नीचे से मिली ।”
“कैसी ? किसकी ?”
“खुद देख ।”
हकबकाये इरफान ने चिट्ठी थामी । उसने सबसे पहले नीचे वहां निगाह डाली जहां कि चिट्ठी लिखने वाले का नाम दर्ज था ।
“नीलम !” - उसके मुंह से निकला ।
“चिट्ठी मेरे नाम है, मेरे लिये है, पर तू निसंकोच पढ ।”
इरफान चिट्ठी पढने लगा । उसके कन्धे पर से शोहाब भी चिट्टी पढने लगा ।
लिखा था:
मेरे सरदार जी,
कभी तुम्हारे फर्ज और तुम्हारी गैरत का तकाजा था तो तुमने मुझे चिट्ठी लिखी थी, हम मां-बेटे को सोया छोड़ कर हमारे पहलू से उठे थे और चुपचाप घर से निकल गये थे । आज मेरे फर्ज और मेरी गैरत का तकाजा है जो मुझसे ये चिट्ठी लिखवा रहा है और मुझे तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर निकल जाने के लिये प्रेरित कर रहा है । मैंने औरत होकर तुम्हारी जुदाई का सदमा झेल लिया था तो तुम तो मर्द हो, विषम परिस्थितियों से जूझने में माहिर हो, इसलिये उम्मीद है कि हम मां-बेटे की जुदाई का कई सदमा महसूस करोगे तो उसे भी झेल ही लोगे ।
सरदार जी, अगर औरत अपने मर्द के पांव की बेड़ियां बन जाये तो औरत का ये ही धर्म बनता है कि वो उन बेड़ियों को काट डाले । मैं अपना धर्म निभा रही हूं और जैसे एकाएक तुम मुझे छोड़ के चल दिये थे, वैसे ही एकाएक तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं । मुझे मालूम था तुम कहां जा रहे थे, इसलिये तुमने मुझे हिदायत दी थी, बल्कि औलाद की कसम दी थी, कि मैं तुम्हारे पीछे आने की कोशिश न करुं । मेरी तरफ से तुम्हें न कोई कसम है न हिदायत है क्योंकि मैं कहां जा रही हूं, नहीं बताऊंगी । लेकिन अब तुम्हें ये फिक्र करने की जरूरत नहीं कि जो अभी दिल्ली में होकर हटा, वो फिर हो सकता था, फिक्र करने की जरूरत नहीं कि दुश्मन फिर मुझे - या सूरज को या दोनों को - तुम पर वार करने का, तुम्हारा सिर झुका देखने का जरिया बना सकते थे । फिक्र करने की जरूरत नहीं कि नीलम का क्या होगा ? सूरज का क्या होगा ? अब सिर्फ अपनी फिक्र करना और अपना सिर वैसे ही शान से ऊंचा रखना जैसे कि आज तक रखा, दशमेश पिता दो जहां का मालिक मेहर करेगा और वाहेगुरु के खालसा की गर्दन कभी नहीं झुकने देगा । तुम्हारे पैरों की बेड़ियां समझो मैंने खुद काट दीं । तुम मुझे जोंक कहते थे जो कि तुम्हारी पीठ पर ऐसी चिपकी हुई थी कि तत्ता चिमटा लगाने पर भी नहीं हटने वाली थी, जो बेताल की तरह तुम्हारे कन्धे पर सवार थी । अब तुम्हारी पीठ पर न कोई जोंक है, न कन्धे पर कोई बेताल है । अब तुम अपनी जिन्दगी की सबसे बड़ी फिक्र से आजाद हो ।
मैं जानती हूं कि तुम मेरी तलाश की हरचन्द कोशिश करोगे लेकिन अपना वक्त ही जाया करोगे क्योंकि तुम्हारी कोई तलाश कामयाब नहीं होगी, क्योंकि मैं हिमाचल अपने गांव नहीं जा रही, मैं फरिश्ताजात मुबारक अली और उसके भांजों की शरण मे दिल्ली नहीं जा रही, मैं योगेश पाण्डेय जी को तलाश करती बैंगलौर नहीं जा रही, मैं तुम्हारे किसी भी मेहरबान के दरेदौलत को अपनी पनाहगाह बनाने नहीं जा रही । कहने का मतलब ये है कि भले ही दसों दिशायें छान मारो, मैं तुम्हें ढूंढे नहीं मिलने वाली । मैं तुम्हें ढूंढे नहीं मिलने वाली तो जाहिर है कि तुम्हारे दुश्मनो को भी ढूंढे नहीं मिलने वाली इसलिये अब मुझे आगे करके मेरी ओट से कोई तुम पर वार नहीं कर सकेगा फिर भी कोई करिश्मा हो गया, माता भगवती भवानी अपनी भक्तन से रूठ गयी, और तुम्हारे दुश्मनों को मेरी खबर लग गयी तो इस बार उनके चंगुल में आने से पहले मैं ही अपने आपको खत्म कर दूंगी । कभी मेरी मौत तुम्हारी मौत की शर्त बन गयी तो मुझे जिन्दा रहने कोई अख्तियार नहीं होगा ।
सूरज मेरी शिनाख्त का जरिया बन सकता है इसलिये मैं उससे भी किनारा कर लूंगी, अपने कलेजे के टुकड़े को कलेजे से नोच कर अलग कर दूंगी ।
मैं जा रही हूं तो अपनी मर्जी से जा रही हूं इसलिये लौटूंगी तो अपनी मर्जी से लौटूंगी । और मेरी मर्जी तब होगी जब मुझे पता चलेगा कि मेरी वजह से या सूरज की वजह से तुम्हें कोई खतरा नहीं, जब मुझे पता चलेगा कि किसी भी वजह से तुम्हें कोई खतरा नहीं ।
आखिर में एक ही बात और कहनी है; तुम्हारी जान मेरी जान है, मेरी जान की जी जान से हिफाजत करना, सरदार जी ।
तुम्हारी खतावार, तुम्हारे चरणों की धूल, तुम्हारी मिडल फेल
नीलम
“ये” - इरफान हकबकाया सा बोला - “ये क्या है, बाप ?”
“तू बोल ।” - विमल बोला ।
“इससे तो लगता है कि भाभी जान जहां गईं, अपनी मर्जी से गयीं, वो जबरन नहीं ले जायी गयीं, उनका अगवा नहीं हुआ ?”
“लगता तो यही है ।”
“लेकिन ये सच नहीं हो सकता । बाप, वो... वो भाटे... अगवा की बाबत सब कुबूल किया । इनायत दफेदार का नाम तक लिया, साफ बोला कि वो उसके हाथों बिका । जेकब परदेसी का नाम लिया उसने, जो कि उसके और दफेदार के बीच की कड़ी था । इसी वजह से वो जान से गया । कोई भीड़ू जान बचाने के लिये झूठ बोला, ऐसा तो बहुत बार सुना, पण जान देने के लिये कौन झूठ बोलता है, बाप ?”
“तो फिर ये चिट्ठी....”
“शर्तिया फर्जी है । जाली है ।”
“वजह जाली चिट्ठी की ?”
“ताकि तू गुमराह हो, तू ये समझे कि तेरी बीवी अपने बच्चे को लेकर तेरी खातिर अपनी राजी से तेरे से दूर चली गयी ।”
“यूं मैं उसकी तलाश को नजरअन्दाज कर दूंगा ?”
“नहीं कर देगा, बाप, पण तलाश करेगा तो जुदा वजह से तलाश करेगा । इसलिये तलाश करेगा क्योंकि वो तेरी शरीकेहयात है, तेरा लख्तेजिगर उसके साथ है ओर उनकी फिक्र करना, उनकी हिफाजत करना, उनके दुख सुख का ख्याल रखना तेरा फर्ज है । इसलिये नहीं तलाश करेगा कि वो दोनों फिर दुश्मनों के हाथ पड़ गये हैं जबकि असलियत यही है ।”
“हूं । लेकिन ये चिट्ठी... मुझे जाली नहीं लगती ।”
“बाप, तेरी बीवी ने पहले कभी तुझे कोई चिट्ठी लिखी ?”
“नहीं ?”
“कभी तेरे सामने ही कुछ लिखा हो ?”
“ऐसा भी नहीं है ।”
“तो फिर तू कैसे जानता है कि ये हैण्डराइटिंग तेरी बीवी का है ?”
“कैसे जानता हूं ?”
“नहीं जानता, बाप । तू इसे अपनी बीवी की चिट्ठी इसलिये तसलीम करता है क्योंकि नीचे उसका नाम लिखा है । जैसे तुकाराम की चिट्ठी को, जो तुझे दिल्ली में मिली थी, कभी तू इसलिये उसकी लिखी तसलीम करता था क्योंकि उसके नीचे तुकाराम का नाम लिखा था । तू तब नहीं जानता था लेकिन बाद में वागले ने मुझे खुद बताया था कि वो चिट्ठी तुकाराम ने नहीं, तुकाराम के नाम से वागले ने लिखी थी । तुकाराम तालीमयाफ्ता शख्स नहीं था, खाली थोड़ी बहुत मराठी लिख पढ लेता था, वो हिन्दी में वैसी चिट्ठी नहीं लिख सकता था ।”
“तेरी बात ठीक है, भाई, लेकिन और भी तो वजह है इसके जाली न लगने की ।”
“और क्या वजह है ? ये कि इसमें बहुत जज्बाती बातें दर्ज हैं ?”
“कुछ ऐसी बातें भी दर्ज हैं जिनकी जानकारी नीलम के सिवाय किसी को नहीं हो सकती, खासतौर से हमारे नये दुश्मनों को मसलन उन्हें कैसे मालूम हो सकता है कि कभी मैं नीलम के सिरहाने एक चिट्ठी रख कर उसे सोता छोड़कर चला गया था ?”
“भाभी जान से जबरन कुबूलवाई होंगी ।”
“और भी कई बातें है चिट्ठी में जो...”
“वो भी जबरन कुबूलवाई होंगी ।”
“जब बातें जबरन कुबूलवाई जा सकती हैं” - शोहाब धीरे से बोला - “तो क्या चिट्ठी जबरन नहीं लिखवाई जा सकती ?”
“लिखवाई जा सकती है लेकिन जबरन लिखवाई गयी चिट्ठी ऐसी साफ सुथरी और खुशखत नहीं हो सकती जैसी कि ये है । ये जबरदस्ती की चिट्ठी होती तो इसमें खूब तो काट पीट होती, फिर अल्फाज आड़े तिरछे होते, सतरें ऐसी सीधी न होती जैसी कि इस चिट्ठी में हैं ।”
शोहाब चुप हो गया ।
“इस चिट्ठी की टोन” - विमल बोला - “इसका मूड, इसका मिजाज कहता है कि ये फर्जी नहीं है ।”
“बाप, तू जज्बाती हो रहा है ।” - इरफान बोला - “तू जाहिरा बातों को नजरअन्दाज कर रहा है ।”
“क्या कहना चाहता है ?”
“फर्ज किया कि ये चिट्ठी असली है और भाभी जान अपनी राजी से उसे अपने पीछू छोड़ के गयीं । बरोबर ?”
“हां ।”
“फिर ये भी बरोबर कि भाटे ने और बाकी दो जनों ने यहां की रखवाली की अपनी ड्यूटी में कोई कोताही न की ?”
“तो ?”
“तो बच्चे के साथ यहां से रुख्सत होती तेरी बीवी उन तीनों में से किसी को क्यों न दिखाई दी ? तो कार्पेट की कहानी का क्या मतलब हुआ ? कार्पेट या तो बिगड़ा था या नहीं बिगड़ा था बिगड़ा था तो हाउसकीपर को उसके तब्दील किये जाने की खबर होनी चाहिये थी जो कि नहीं है । नहीं बिगड़ा था तो नवां कार्पेट इधर लाया जाने का क्या मतलब ? अभी जब हम ये मान के हटे हैं कि स्टाफ ने ड्यूटी में कोताही नहीं की तो क्यों उन्होंने कार्पेट के साथ पहुंचे भीड़ूओं की करारी खबर न ली ? वो भी न ली तो वो यहां पहुंचे किस के बुलावे पर ? पहुंचे भी तो क्या करने पहुंचे ?”
“इरफान ! तू तो वकीलों की तरह जिरह कर रहा है !”
“जनाब” - शोहाब बोला - “गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज है, हम गैरजरूरी बहस में मशगूल हैं । मैडम कैसे भी गयीं, अगर राजी से गयी हैं तो फिक्र वाली कोई बात ही नहीं है; अगर उनका अगवा हुआ है तो दुश्मनों की कोई मांग, कोई हुक्म सामने आने में क्या देर लगेगी ? यही वाकया जब पिछली बार हुआ था तो याद कीजिये कि कितना आननफानन दिल्ली वालों का वो फैक्स यहां पहुंचा था जिसमें आपको अकेले दिल्ली पहुंचने का हुक्म दर्ज था ? लिहाजा मेरी नाचीज राय में हमें दुश्मनों की तरफ से इस बात की तसदीक का इन्तजार करना चाहिये कि मैडम का सच में ही अगवा हुआ है ।”
“आपकी राय दुरुस्त है, जनाबेआली” - विमल बोला - “लेकिन एक बाप के लिये, एक खाविंद के लिये वो तसदीक होने तक हाथ पर हाथ रखे बैठना मुमकिन होगा ?”
“नहीं होगा ।” - इरफान तनिक उत्तेजित भाव से बोला - “किसी के लिये भी मुमकिन नहीं होगा । भाभी जान का पता लगाने में हम अपनी पूरी सलाहियात, पूरी ताकत झोंक देंगे । वो गयीं या ले जायी गयीं, दोनों ही सूरतों में उनकी खबर निकालने में हम जमान आसमान एक कर देंगे । कभी मुम्बई में जैसे ‘कम्पनी’ के भेदियों की भरमार थी, वैसीच बाप, अब इधर तेरे मुरीदों की भरमार है । हम सब की मदद हासिल करेंगे और पता लगा के रहेंगे कि क्या हुआ, कैसे हुआ और जो हुआ, वो अनहुआ कैसे होगा ? इस कोशिश में हमारी पहली तवज्जो जेकब परदेसी को या उसके बाप इनायत दफेदार को या दोनों को काबू में करने की तरफ होगी । बाप, फिक्र नक्को । सब ठीक होगा ।”
“सब ठीक होगा ।” - विमल धीरे से बोला ।
“हां ।”
“भाग जाग जायेंगे । खोट की परत खुरची जायेगी ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“कैसे अभागी औरत है नीलम ? पति के कुकर्मों की सजा उसे भुगतनी पड़ती है । हमेशा वो मेरी वजह से किसी न किसी बखेड़े में फंसती है । उसके मुकद्दर में अपने पति की वजह से सदा दुख झेलने लिखे हैं । कभी कोई सुख न दे सका मैं उसे । कभी छोड़ गया, कभी चला जाने दिया, तो कभी छिन जाने दिया ।”
“इंशाअल्लाह सब ठीक होगा । आखिरकार सब ठीक होगा ।”
“अच्छी बात है । तुम जाओ और जो मुनासिब समझते हो, करो । मैं थोड़ी देर इधर ही ठहरूंगा ।”
सहमति में सिर हिलाते दोनों खामोशी से वहां से निकल गये ।
पीछे विमल ने आंखे बन्द कर लीं और शरीर ढीला छोड़ दिया ।
जीअ जंत सभि सरणि तुम्हारी - वो होंठों में बुदबुदाया - सरब चिंत तुधु पासे । जो तुधू भावे सोई चंगा इक नानक की अरदासे ।
***
डी.सी.पी. मनोहरलाल अपनी लालबत्ती वाली सरकारी एम्बैसेडर पर, जिसे कि एक वर्दीधारी हवलदार चला रहा था, शामनाथ मार्ग पर स्थित गजेटिड आफिसर्स क्लब मे पहुंचा जो कि आम हवाले में जीओज मैस कहलाता था ।
कार पोर्टिको में जाकर रुकी । हवलदार ने फुर्ती से बाहर निकल कर कार का इमारत की ओर का पिछला दरवाजा खोला ।
मनोहरलाल कार से बाहर निकला और कुछ परिचितों के अभिवादन स्वीकार करता तो कुछ को अभिवादन करता बार में पहुंचा ।
बार में उस घड़ी ज्यादा भीड़ नहीं थी । एक ओर टी.वी. चल रहा था जिसकी तरफ किसी की भी तवज्जो नहीं जान पड़ती थी ।
फिर टी.वी. के करीब की एक टेबल पर अकेला बैठा अपना सहयोगी डी.सी.पी. एस.पी. श्रीवास्तव उसे दिखाई दिया । उसके सामने एक बीयर का मग मौजूद था जो कि उसे तभी सर्व हुआ जान पड़ता था ।
मनोहरलाल उसकी टेबल पर पहुंचा, दोनों में अभिवादनों का आदान प्रदान हुआ ।
“क्या पियोगे ?” - श्रीवास्ताव बोला ।
“बीयर नहीं ।” - मनोहरलाल मुस्करा कर बोला ।
“साहब के लिये विस्की लाओ, भई ।” - तत्परता से करीब आ के खड़े हुए वेटर से श्रीवास्तव बोला ।
“वही, सर ?” - वेटर मनोहरलाल से बोला ।
“हां, भई । वही ।”
तत्काल विस्की सोडा सर्व हुआ ।
दोनों ने चियर्स बोला ।
“टी.वी. देख रहे थे ?” - मनोहरलाल बोला ।
“नहीं, यार । अब कोई स्विमिंग पूल के किनारे बैठा हो तो क्या जरूरी है कि वो वहां स्विमिंग के लिये मौजूद हो ?”
“कोई जरूरी नहीं । बड़े होटलों में तो ऐसे लोग भी स्विमिंग पूल के किनारे बैठ कर या लेट कर ड्रिंक एनजाय करते हैं जिन्हें तैरना आता ही नहीं होता ।”
“दुरुस्त ।”
“ड्रिंक भी एनजाय करते हैं और बिकिनी क्लैड किशोरियों को देखकर नयन सुख भी पाते हैं ।”
“टी.वी. के पास मेरी मौजूदगी भी ऐसी ही है लेकिन हौसला रखो, मैं फैशन चैनल नहीं देख रहा ।”
“कहां से देखोगे ? टी.वी. पर तो ‘आजतक’ की न्यूज आ रही हैं ।”
“छोड़ो वो बातें ? ये बताओ कि नसीबसिंह का क्या किया ?”
“सस्पेंड कर दिया है । तगड़ी विजीलेंस शुरू करा दी है । आगे जो होगा, देखेंगे ।”
“वैसे तुम्हारा जाती ख्याल क्या है ? फार्म पर हुए वाकयात की जो कहानी नसीबसिंह सुनाता है, उस पर तुम्हें एतबार है ?”
“वो कहानी पहले तो तुम ही ने सुनी थी । तुम बताओ, तुम्हें एतबार है ?”
“रत्ती भर भी नहीं । मुझे तो वहां पहुंचते ही एक बड़ी मिलीभगत की सूंघ लगने लगी थी । हमारा इन्स्पेक्टर पूरी तरह से झामनानी के कब्जे में जान पड़ता था । मैं सवाल उससे करता था, जवाब झामनानी देता था । अलग ले जा के सवाल किये तो यूं बोलना शुरू कर दिया जैसे कि कोई रटी हुई कहानी दोहरा रहा हो । कम्बख्त ये तक हिन्ट दे रहा था कि मुझे उसके डी.सी.पी. से - जो कि तुम हो - बात करनी चाहिये थी ।”
“जिसे जवाबतलबी का अख्तियार था, उसके पल्ले भी क्या खाक डाला उसने ? वही रटी रटाई कहानी मेरे सामने भी दोहरा दी । श्रीवास्तव, दि होल थिंग स्टिंक्स लाइक हैल होल । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वहां फार्म मे एनकाउन्टर का नहीं मास किलिंग का ड्रामा स्टेज हुआ था । हमारा नौजवान ए.सी.पी. एनकाउन्टर में नहीं मारा गया, उसका कत्ल हुआ है और उस कत्ल में हमारे काईयां इन्स्पेक्टर नसीबसिंह का बराबर का हाथ है ।”
“किस के साथ बराबर का हाथ है ?”
“झामनानी के साथ और किसके साथ ? झामनानी के साथ और उसके जोड़ीदारों के साथ ।”
“फिर तो उनकी खबर ली जानी चाहिये ।”
“बराबर ली जानी चाहिये लेकिन वो रसूख वाले आदमी हैं, उन पर एकाएक चढ दौड़ना तो भिड़ के छत्ते में हाथ डालने जैसा होगा ।”
“तो ?”
“मैंने जायन्ट कमिश्नर को नोट लिखा है । कल वो मुझे बुलायेगा और शायद कमिश्नर के पास भी ले जायेगा । फिर देखते हैं क्या होता है ?”
श्रीवास्तव का सिर सहमति मैं हिला ।
“मैंने जायन्ट कमिश्नर को लिखे अपने नोट में पुरजोर सिफारिश की है कि तमाम बिरादरीभाइयों को नहीं तो कम से कम झामनानी को तो जरूर पूछताछ के लिये हिरासत में लिया जाना चाहिये ।”
“सिफारिश कुबूल होगी ?”
“हो सकती है । गुरबख्शलाल के कत्ल के बाद से झामनानी की ताकत बढी है, अगर दिल्ली शहर में वो भी गुरूबख्शलाल जैसा पसरने में कामयाब हो चुका है तो नहीं भी हो सकती । तभी तो बोला कि देखते हैं क्या होता है !”
“इसी ड्रामे में उलझा एक हवलदार भी तो गायब है ?”
“तरसेमलाल ! मुझे तो लगता है कि वो भी भगवान को प्यारा हो चुका है ।”
“अच्छा !”
“हां । वो झामनानी के कैम्प में हमारे भेदिये काम काम कर रहा था । उसका सम्पर्क सिर्फ नसीबसिंह से था । नसीबसिंह अपनी कहानी को सजाने के लिये, उस पर अड़ा रहने के लिये, उसकी बाबत कुछ भी बोल सकता है । बोल रहा है । ऐसे कंफीडेंस के साथ बोल रहा है जैसे यकीनी तौर पर जानता हो कि तरसेमलाल उसका मुंह पकड़ने नहीं आ सकता था । वो तो ये सम्भावना जाहिर कर भी चुका है कि तरसेमलाल का कत्ल हो चुका है ।”
“किसने किया ?”
“भाई लोगों ने किया - या करवाया - और फिर लाश ठिकाने लगा दी ।”
“लाश ठिकाने लगा दी ? कोई हंसी खेल है ?”
“मैं भी यहीं कहना चाहता था । श्रीवास्तब, तुम्हें तरसेमलाल की लाश की तलाश करवानी चाहिये । लाश का वो कथित ठिकाना झामनानी के फार्म या उसतके आसपास ही कहीं होना चाहिये ।”
“जरूरी तो नहीं । लाश दूर भी ले जायी जा सकती है । बहुत दूर भी ले जायी जा सकती है ।”
“कुबूल लेकिन उसकी तलाश में पहले करीबी जगहें टटोलने में क्या हर्ज है ?”
“कोई हर्ज नहीं ।”
“शुरुआत फार्म से ही करना बेहतर होगा ।”
“फार्म की बाबत मुझे एक शुबह है ।”
“क्या ?”
“कत्ल करके अपने ही घर में लाश कौन छुपाता है ! और वो भी झामनानी जैसा टॉप का हरामी !”
“मोटे तौर पर तुम्हारी बात ठीक है लेकिन जो घर इस वक्त हमारे सामने है, तुम उसके साइज को खातिर में नहीं ला रहे हो । वो कई एकड़ में फैला एक फार्म है । इतने बड़े फार्म पर कहीं लाश छुपाना घर में सूई छुपाने जैसा काम है ।”
“मे बी यू आर राइट देयर । ठीक है, मैं कल सुबह इसका इन्तजाम करवाऊंगा ।”
“गुड । उसने तुमसे कहा था न कि वो फार्म के लिये अकेला रवाना होने वाला था लेकिन ए.सी.पी. सक्सेना जबरन उसके साथ चिपक लिया था ?”
“हां बराबर कहा था ।”
“साफ मुकर गया । मुझे कहता है कि सक्सेना मुझे अकेले भेजने के हक में नहीं था, इसलिये उसके साथ हो लिया था ।”
“ही इज ए डैम लायर । ब्रिंग हिम टु मी एण्ड आई विल....”
“यू बिल बी एबल टु डू नथिंग । इट विल बी यूअर वर्ड अगेंस्ट हिज वर्ड ।”
“ये दावा करेगा वो ?”
“जरूर करेगा ।”
“ऐसा पहुंचा हुआ आदमी है ?”
“पहले कैसे भी रहा हो, अब तो ऐसा ही है । उसकी चतुराई देखो, बल्कि दीदादिलेरी देखो, कि वो फार्म के वाकयात की बाबत जो बयान देता है उसका जामिन या तो हवलदार तरसेमलाल को बना देता है और या ए.सी.पी.प्राण सक्सेना को बना देता है ? क्यों बना देता है ? क्योंकि वो जानता है कि उनमें से कोई उसका मुंह पकड़ने नहीं आ सकता ।”
“कमाल है !”
“उसकी हर बात गलत है, सिवाय एक बात के कि उसकी फार्म के लिये रवानगी थाने के रोजनामचे में दर्ज है ।”
“उससे क्या होता है ? असल बात ये होगी कि फार्म पर जो हुआ था, वो उसके लिये अप्रत्याशित था । वहां क्या होने वाला था और उसमें उसका खुद का क्या रोल मुकर्रर था, अगर इसका उसे पहले से इमकान होता तो वो उस हाजिरी में भी कोई भांजी मार देता ।”
“हो सकता है ।”
“सम्पेंशन पर कैसे रिएक्ट किया उसने ?”
“बहुत तड़पा । कोर्ट में जाने की, मेरे खिलाफ बहुत ऊपर तक अपील लगाने की धमकी देकर गया ।”
“करे ये सब । फिर बिल्कुल ही बरबाद हो के रहेगा ।”
“वो तो है । हम झामनानी से या उस जैसे किसी और से हकीकत कुबूलवाने में कामयाब हो गये तो फिर कहां ठहरेगी उसकी तड़प और कहां ठहरेगी उसकी धमकी ?”
“ऐग्जैक्टली ।”
“अब तुम भी तो कुछ बोलो ।”
“किस बारे में ?”
“झामनानी ने अपने फार्म के मेहमानों की एक लिस्ट तुम्हें दी थी - जिसकी एक कापी तुमने मुझे भी दी थी - उस पर क्या एक्शन लिया तुमने ?”
“उस लिस्ट से कुछ हाथ नहीं आने वाला । सब झामनानी के पढाये हुए तोते हैं । लगता है हमारे पीठ फेरते ही उसने सब को खबर कर दी थी कि पूछे जाने पर उन्होंने क्या कहना था !”
“क्या मतलब हुआ इसका ?”
“हमने लिस्ट में दर्ज चार पांच लोगों से कान्टैक्ट किया था, हर किसी से एक ही जवाब मिला - हां वो झामनानी की पार्टी में मौजूद था लेकिन क्योंकि वहां के किसी बखेड़े में शरीक नहीं होना चाहता था इसलिये चला आया था । इसे कहते हैं चोरों की टोली एक ही बोली ।”
“लगता है इस लाइन पर आगे तहकीकात का, मेरा मतलब है लिस्ट के बाकी लोगों से भी सम्पर्क करने का, तुम्हारा कोई इरादा नहीं ?”
“वक्त ही बरबाद होगा । मुझे मालूम है कि बाकि लोगों से भी वही जवाब मिलेगा जो कि चार पांच लोगों से मिला ।”
“फिर भी...”
तभी मनोहरलाल की निगाह टी.वी. पर पड़ी और वो खामोश हो गया । उस वक्त टी.वी. स्क्रीन पर किसी हस्पताल की बैड पर पड़ा एक घायल व्यक्ति दिखाया जा रहा था जो कि एक टी.वी. रिपोर्टर के माइक के आगे बोल रहा था । नीचे लाल पट्टी में कैप्शन आ रहा था जिस पर लिखा था:
साधूराम मालवानी
विवेक विहार निवासी बिजनेसमैन
बन्दर मानव की दहशत से भड़की भीड़ के पहले शिकार
“रिपीट न्यूज है” - श्रीवास्तव ने बताया - “शाम से आ रही है । आजकल दिल्ली के कुछ इलाकों में जिस बन्दर मानव या काला बन्दर का आंतक बताया जाता है, खबर उससे ताल्लुक रखती है इसलिये ये न्यूज चैनल इस अपने हर बुलेटिन में दिखा रहा है ।”
“इस शख्स पर भी मंकी मैन ने हमला किया है ?”
“नहीं लेकिन इसकी दुर्दशा की वजह मंकी मैन उर्फ बन्दर मानव उर्फ काला बन्दर ही है ।”
“वो कैसे ?”
“जिन इलाकों में बन्दर मानव का आंतक है, उनमें आजकल इलाके के निवासी रात रात भर जाग कर गलियों में गश्त लगाते हैं और घरों की पहरेदारी करते हैं । जो लोग बन्दर मानव को देखा बताते हैं या जिस पर हमला हुआ है, उनके बयान हैं....”
“वो सब मुझे मालूम है । मैं टी.वी. पर खबरें कम देख पाता हूं लेकिन अखबार रोज पढता हूं इसलिये जानता हूं कि उस बन्दर की बाबत - जो पता नहीं है भी या नहीं - पब्लिक की कल्पनाशक्ति किस कदर आपे से बाहर हुई हुई है । सात फुट लम्बा है, पैरों में स्प्रिंग हैं, पंजों के नाखून लोहे के हैं, आंखों पर गागल्स लगाता है, सिर पर हैल्मेट पहनता है, तीखी सीटी बजा कर अपनी आमद की खबर करता है, एक छलांग में दो-दो तीन-तीन मंजिलें फांद जाता है और और पता नहीं क्या क्या करता है ? तुम सिर्फ ये बताओ कि इस आदमी की क्या स्टोरी है ?”
“इसकी स्टोरी ये है कि ये अपनी कार पर आधी रात के बाद किसी वक्त एक पार्टी से विवेक विहार अपने घर लौट रहा था रास्ते में इसे एक अपना वाकिफकार मिल गया जिसका स्कूटर खराब हो गया था और जिसको इसने अपनी कार पर लिफ्ट दी थी । वो शख्स जमना पार कृष्णा नगर के इलाके में रहता था जो कि विवेक विहार के रास्ते में ही थी । इस आदमी ने उस वाकिफकार को उसके घर के आगे उतारा और फिर विश्वास नगर से होता हुआ विवेक विहार अपने घर की ओर चला । रात की गश्त करते लोगों ने विश्वास नगर में ये पूछताछ करने के लिये उसे रोक लिया कि वो कौन था और इतनी रात गये कहां से आ रहा था ? इसके मुंह भी खोल पाने से पहले उन्हें पिछली सीट पर पड़ी हैल्मेट दिखाई दे गयी ?”
“हैल्मेट ?”
“उस वाकिफकार की थी जिसे उसने लिफ्ट दी थी और जो जरूर नशे में होगा जो कि उसे कार में भूल गया था ।”
“ओह !”
“अब कार वाले के पास हैल्मेट का क्या मतलब ? लिहाजा भीड़ कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गयी कि वो ही शख्स बन्दर मानव था जो कि अपनी हरकतें दोहराने के लिये रात-ब-रात सड़कों पर विचर रहा था । ये बात भीड़ को सूझने की देर थी कि उन्होंने इसकी कार भी तोड़ दी और इसे भी धुन डाला । तभी गश्ती पुलिस की एक गाड़ी वहां पहुंच गयी तो इसकी जान बची वरना वहीं मरा पड़ा होता ।”
“लिहाजा मंकी मैन का शिकार न हुआ, मॉब फ्यूरी का शिकार हुआ ?”
“हां ।”
“कब का वाकया है ये ?”
“परसों रात का ।”
“तब से अभी तक ये हस्पताल में है ?”
“हां । प्रीत विहार के एक प्राइवेट नर्सिंग होम में । सचदेवा मेडीकल सेंटर नाम है । लगता नहीं अभी और कुछ दिन घर जा पायेगा ।”
“और नाम इसका साधूराम मालवानी है और ये विवेक विहार में रहता है ?”
“हां । क्या कहना चाहते हो ?”
“श्रीवास्तव, झामनानी की गैस्ट लिस्ट में भी एक साधूराम मालवानी दर्ज है जो कि विवेक विहार में रहता है ।”
श्रीवास्तव सकपकाया, उसने सशंक भाव से पहले मनोहरलाल की तरफ देखा, फिर टी.वी. की तरफ देखा और फिर वापिस मनोहरलाल की तरफ देखा ।
“एक नाम के दो आदमी हो सकते हैं” - मनोहरलाल बोला - “वो एक ही इलाके में रहते भी हो सकते हैं, फिर भी ये तफ्तीश का मुद्दा है कि क्या मौजूदा हालात में भी ऐसा ही है ? अगर विवेक विहार निवासी ये साधूराम मालवानी झामनानी की लिस्ट में दर्ज साधूराम मालवानी नहीं है तो बात जुदा है लेकिन अगर ये वो ही शख्स है तो क्योंकर ये कल झामनानी के फार्म पर मौजूद हो सकता था जबकि परसों रात से ये गम्भीर घायलावस्था में हस्पताल में पड़ा है ?”
“नहीं हो सकता था ।” - श्रीवास्तव मन्त्रमुग्ध भाव से बोला ।
“ऐग्जैक्टली ।”
“मैं अभी पता लगाता हूं । मैं अभी प्रीत विहार थाने के एस. एच. ओ. को फोन करता हूं और उसे बोलता हूं कि वो खुद नर्सिंग होम में जाकर इस शख्स से मिले और हकीकत का पता लगाये ।”
“अगर ये वही आदमी निकला जिसका हवाला झामनानी ने अपनी लिस्ट में दिया है तो ये भी एक वजह होगी उसे जवाबतलबी के लिये पकड़ मंगवाने की ।”
“सब होगा । जस्ट यू वेट । जस्ट यू वेट एण्ड वाच ।”
फिर डी.सी.पी. मनोहरलाल अपने वायरलैस फोन में उलझ गया ।
***
कपिल उदैनिया के आफिस में जिन तीन संजीदासूरत महानुभवों ने कदम रखा, उनमें से दो से वो भलीभान्ति परिचित था । उनमें से एक ओरियन्टल होटल एण्ड रिजोर्ट्स का चेयरमैन रणदीवे और दूसरा ओरियन्टल का डायरेक्टर राजेश जठार था जो कि ओरियन्टल की तरह और भी कई कम्पनीयों के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स पर था ।
“वैलकम !” - उदैनिया ने उठकर मेहमानों का स्वागत किया - “वैलकम !”
“थैंक्यू ।” - रणदीवे गम्भीरता से बोला ।
उदैनिया ने सब से हाथ मिलाया, आखिर में उसने तीसरे मेहमान से हाथ मिलाया तो रणदीवे बोला - “ये मिस्टर मोहसिन खान हैं, ओरियन्टल में हमारे फैलो डायरेक्टर हैं । मोहसिन, ये कपिल उदैनिया हैं । होटल इन्डस्ट्री की सबसे बड़ी तोप हैं । पहले ताज में थे, अब यहां सी-व्यू में जनरल मैनेजर हैं ।”
“हल्लो, सर ।” - मोहसिन खान मीठे स्वर में बोला - “प्लीज्ड टु मीट यू, सर ।”
“बिराजिये ।” - उदैनिया बोला ।
तीनों उदैनिया के सामने बैठ गये ।
“हैरानी है, रणदीवे साहब” - उदैनिया बोला - “कि आपको मालूम है कि मैंने जॉब चेंज कर ली हुई है । बाई दि वे कैसे मालूम है ? ताज गये थे ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“तुम्हारे प्रेजेंट एम्पलायर ने बताया था ।”
“राजा साहब ने ?”
“हां । होटल उनको लीज पर दिया जाये या न दिया जाये, इस बात के फैसले में तुम भी मेजर फैक्टर थे, भाई । राजा साहब की दूरंदेशी और बिजनेस सैंस का जो पहला सिक्का हम लोगों पर जमा था, वो इसी वजह से जमा था कि सी-व्यू की कमान सम्भालने के लिये उन्होंने तुम्हें एंगेज किया था ।”
“आई सी । बहरहाल मुझे दिली खुशी हुई कि आप मेरे से मिलने आये ।”
“हमें तुमसे मिल कर बराबर खुशी हुई है, कपिल, लेकिन, आई एम सॉरी टु से, तुमसे मुलाकात की ख्वाहिश हमें यहां नहीं लायी ।”
“ऐसा ?”
“हां । हम राजा गजेन्द्र सिंह साहब से मिलना चाहते हैं । हमारी उनसे फौरन मुलाकात इन्तहाई जरूरी हूं । आई मस्ट से दैट दिस इज ए मैटर आफ लाइफ एण्ड डैथ ।”
“डोंट टैल मी दैट ।”
“दिस इज गॉड्स ट्रुथ ।”
“ऐसी क्या बात हो गयी है ?”
“राजा साहब से मुलाकात की कोशिश कामयाब होती न पाकर मुझे तुम्हारा ख्याल आया । सो हेयर वुई आर ।”
“अप्वायन्टमेंट लेकर नहीं आये थे आप ?”
“नहीं । कोशिश हमने की थी लेकिन हमें नीचे वाले स्टाफ से टालमटोल वाला जवाब मिला था । हर बार यही कहा गया नम्बर छोड़ दीजिये, राजा साहब खुद आपसे सम्पर्क कर लेंगे । यूं सम्पर्क न होता पाकर ही हमने इधर का रुख किया । अब हमारी तुम्हारे से दरख्वास्त है कि तुम राजा साहब से हमारी मुलाकात करवाओ ।”
“लेकिन बात क्या हो गयी है ? जीवन मरण का मामला कैसे बन गया ?”
“वो हम राजा साहब को बताना प्रेफर करेंगे ।”
“कमाल है ! ऐसी क्या पर्दादारी है ?”
“पर्दादारी नहीं है । अन्देशा है कि शायद राजा साहब ही पसन्द न करें कि इस बाबत हम उनके सिवाय किसी और से बात करें ।”
“ओह ! ओह ! इतना तो बताइये कि बात होटल से ताल्लुक रखती है या....”
“होटल से ताल्लुक रखती है । होटल का लीज से ताल्लुक रखती है ।”
“ओह ! आप बरायमेहरबानी यहां तशरीफ रखिये, मैं खुद जा के मालूम करता हूं कि राजा साहब आपको रिसीव करने की स्थिति में हैं या नहीं ।”
“मालूम नहीं करना, मुलाकात करवानी ही है । हर हाल में ।”
“रणदीवे साहब, हैव फेथ इन मी । आई विल डू माई बैस्ट ।”
“थैंक्यू ।”
उदैनिया उन्हें पीछे बैठा छोड़ कर वहां से बाहर निकल गया ।
पांच मिनट बाद वो वापिस लौटा तो विमल उसके साथ था ।
दिवंगत शेषनारायण लोहिया की वजह से विमल - बतौर कौल - राजेश जठार से पहले से परिचित था इसलिये वो उससे बगलगीर होकर मिला । वैसी ही गर्मजोशी से वो मोहसिन खान से मिला जिसके राजा साहब के हक में वोट देने की वजह से विमल का होटल सी-व्यू कब्जाने का बिगड़ता काम बना था । आखिर में उसने रणदीवे से हाथ मिलाया ।
“जन्टलमैन” - वो आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “राजा साहब से मुलाकत में कोई अड़चन नहीं है । आप लोग तो होटल के मालिकान हैं इसलिये आपसे मुलाकात से इनकार तो वो कर ही नहीं सकते । लेकिन फौरन मुलाकात इसलिये मुमकिन नहीं है क्योंकि राजा साहब एक प्रीशिड्यूल्ड अप्वायन्टमेंट की वजह से किसी और के साथ एंगेज्ड हैं और अभी वो और पन्द्रह मिनट तक फारिग नहीं होने वाले । आप लोगों का आमद की खबर उन्हें कर दी गयी है । लिहाजा थोड़ा इन्तजार आपको करना पड़ेगा जो कि मजबूरी है ।”
“हमें कोई एतराज नहीं ।” - रणदीवे बोला ।
जठार और खान के सिर भी सहमति में हिले ।
“इन दि मीनटाइम वुड यू लाइक टु हैव ए ड्रिंक, जन्टलमैन ?”
“नो । नॉट यैट । वुई विल हैव दैट आनर वैन वुई हैव अकम्पलिश्ड दि जॉब फॉर विच वुई हैव कम हेयर ।”
“श्योर ?”
“यस । तब तक हम उदैनिया साहब से बतियाते हैं जो कि हमारे पुराने परिचित हैं ।”
“ठीक है फिर । आप अब से बीस मिनट बाद साइड लिफ्ट्स से चौथी मंजिल पर आ जाइयेगा, जहां कि राजा साहब खुद आपको रिसीव करेंगे ।”
“थैंक्यू । थैंक्यू, मिस्टर कौल ।”
“वैलकम ।”
विमल वहां से बाहर निकल गया ।
वास्तव में बीस मीनट का वक्त उसे राजा गजेन्द्र सिंह एन. आर. आई. फ्रॉम नैरोबी का बहुरूप अख्तियार करने के लिये दरकार था ।
***
ब्रजवासी के साथ झामनानी विवेक विहार पहुंचा ।
बिरादरीभाइयों में सिर्फ झामनानी ही था जिसे गाड़ी चलानी नहीं आती थी । इस मामले में वो अपने ड्राइवर भागचन्द का मोहताज था आदमियों के तोड़े की वजह से जिसे उसने हिम्मतसिंह के साथ बजाज हवाले कर दिया हुआ था । अब वो ब्रजवासी की डीज़ल की सफेद एम्बैसेडर पर सवार था जिसे कि ब्रजवासी खुद चला रहा था ।
डी ब्लाक में स्थित साधूराम मालवानी की कोठी को ताला लगा हुआ था और रात की उस घड़ी वो अन्धेरे की चादर ओढे जान पड़ती थी ।
“झूलेलाल !” - झामनानी बोला - “तभी टेलीफोन का कोई जवाब नहीं मिल रहा था ।”
“कहां चला गया होगा परिवार समेत ?” - ब्रजवासी बोला ।
“वडी क्या पता नी ? पाछे कोई नोटिस टांग कर तो गया नहीं ।”
“तो ? क्या करें अब ?
“पड़ोस से पता कर । शायद किसी को कुछ मालूम हो ।”
सहमति में सिर हिलाता ब्रजवासी कार से बाहर निकला । उसने मालवानी की कोठी से अगली कोठी पर पहुंच कर कालबैल बजायी ।
पीछे झामनानी खामोशी से बैठा पहलू बदलता रहा ।
ब्रजवासी वापिस लौटा ।
“नर्सिंग होम में भरती है ।” - वो कार में बैठता हुआ बोला - “सारा परिवार भी वहीं है ।”
“वडी क्या हुआ नी ? दिल बैठ गया ?”
“दंगई किसम के लोगों ने हमला कर दिया । काफी ज्यादा जख्मी हुआ बताते हैं ।”
“वडी कब हुआ नी ये हादसा ?”
“परसों रात ।”
“तभी से भरती है ?”
“हां ।”
“झूलेलाल ? वडी भैय्यन साईं, कुछ समझा नी ?”
“समझा ।” - ब्रजवासी चिन्तित भाव से बोला - “पवित्तर सिंह ने ठीक कहा था, वक्त खराब होना चाहिये, फिर वही काम सबसे पहले होता है जो नहीं हो सकता होता या जो नहीं होना चाहिये होता ।”
“वडी लाला भी तो यही जुबान बोला नी मेरे को पहले ही फिक्र में डालने को । टंगड़ी टूट गयी हो बोला, बुखार में पड़ा हुआ हो बाला, परदेस गया हुआ हो बोला तो ये भी बोल देता कि डाकू पड़ गये, धुन के रख दिया । झूलेलाल !”
“अब क्या करें ?”
“नर्सिंग होम का पता मालूम किया नी ?”
“हां । प्रीत विहार में है । सचदेवा मैडिकल सेंटर करके ।”
“वडी फिर क्या पूछता है क्या करें ? वडी पहुंच नी उधर ।”
प्रीत विहार का इलाका वहां से ज्यादा दूर नहीं था इसलिये दस मिनट से भी कम समय में वे नर्सिंग होम पहुंच गये ।
भारी हुज्जत और तकरार के बाद उन्हें साधूराम मालवानी के कमरे में जाने की इजाजत मिली ।
मालवानी उन्हें पट्टियों में लिपटा पलंग पर पड़ा मिला । उसकी बीवी उसके सिरहाने बैठी हुई थी । उसके दो बच्चे परे सोफे पर बैठे टी.वी. देख रहे थे ।
आगन्तुकों को देख कर मालवानी के होंठो पर फीकी मुस्कराहट आयी ।
“मालूम पड़ गया, साईं ?” - वो क्षीण स्वर में बोला ।
“तेरे घर गये थे ।” - झामनानी बोला - “पड़ोस से मालूम हुआ ।”
“ओह !”
“ब्रजवासी से वाकिफ है न ?”
“हां । कैसे हो, भैय्यन ?”
“ठीक ।”
“वडी ये क्या हाल कर लिया नी ?” - झामनानी बोला - “क्या हुआ नी ?”
“लम्बी कहानी है ।”
“फिर भी ?”
“डाक्टरों ने” - मालवानी की बीवी धीरे से बोली - “इन्हें ज्यादा बोलने से मना किया है ।”
“ठीक है । कहानी फिर कभी । जब साईं चंगा हो जायेगा ।”
“घर क्यों गये थे ?” - मालवानी बोला ।
“ऐसे ही तो नहीं गये थे, साईं । बात तो खास ही थी वरना कहां करोल बाग में मेरा घर और कहां विवेक विहार में तेरा घर !”
“क्या खास बात थी ?”
“वडी तू ही सुने तो बोलूं नी ।”
“सुन तो रहा हूं ।”
“किधर सुन रहा है ? वडी मैं बोला तू ही... तू ही सुने तो....”
झामनानी खामोश हो गया, उसने एक गुप्त, अर्थपूर्ण निगाह उसकी बीवी पर डाली ।
“ओह ! मीरा, जाकर बच्चों के साथ बैठ ।
“लेकिन...” - बीवी ने विरोध करना चाहा ।
“दो मिनट । दो मिनट में कुछ नहीं होता ।”
“लेकिन...”
“तूने सुना नहीं झामनानी साईं क्या बोला ? मेरे को सुनने को बोला । बोलना ही तो मना है मेरे लिये ? सुनना तो नहीं मना ?”
“लेकिन....”
“कितनी लेकिनें लगा चुकी ? इतने में तो वापिस भी आ जाती ।”
बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से वो उठी और भारी कदमों से चलती जाकर बच्चों के साथ सोफे पर बैठ गयी ।
मालवानी की प्रश्नसूचक निगाह झामनानी की तरफ उठी ।
संजीदगी से सहमति में सिर हिलाता झामनानी आगे बढा जाकर मीरा मालवानी द्वारा खाली की कुर्सी पर बैठ गया और फिर धीरे धीरे अपने घायल दोस्त को अपनी वहां आमद की वजह समझाने लगा ।
झामनानी बोलता रहा, जवाब में मालवानी इंकार में सिर हिलाता रहा । वो खामोश हुआ तो मालवानी बोला - “झामनानी, कोई अक्ल की बात कर । कैसे मैं ये कह सकता हूं कि मैं आस नहीं, पास नहीं, छतरपुर तेरे फार्म पर तेरा मेहमान था ? मैं सामने टायलेट तक तो उठ के जा नहीं सकता, छतरपुर कैसे...”
“अब नहीं जा सकता न ? पहले जा सकता था, साईं, पहले जा सकता था ।”
“क्या मतलब ?”
“जो हादसा तेरे साथ परसों रात हुआ, तू कह सकता है कि कल रात हुआ । फिर....”
“नहीं कह सकता ।”
“वडी क्यों नी ? अगर तेरा इशारा इस नर्सिंग होम के रिकार्ड की तरफ है तो वो तब्दील हो जायेगा । मेरा जिम्मा । फिर क्या...”
“झूलेलाल ! अरे, ये मैडिकोलीगल केस है, इसकी एफ. आई. आर. दर्ज हो चुकी है, पुलिस वाले यहां आ के मेरा बयान दर्ज कर चुके हैं, मेरी हालत सुधरने के बाद वो फिर आने वाले हैं, अखबार वाले आ चुके हैं, टी.वी. वाले आ चुके हैं, मैं टी.वी. की न्यूज में दिखाया तक जा चुका हूं, मैं टी.वी. कैमराज के सामने बयान दे चुका हूं कि मेरे पर कातिलाना हमला परसों रात हुआ था, अब कैसे मैं तेरी खातिर तेरा सुझाया झूठ बोल सकता हूं ?”
झामनानी अवाक् उसे देखने लगा ।
“मेरे साथ जो बीती है, उसका बहुत व्यापक प्रचार हो चुका है । आज के हर अखबार में मेरी खबर थी, हैरानी है कि तुम लोगों को फिर भी कुछ पता नहीं ।”
“अखबार कौन पढता है नी ?”
“दोपहरबाद टी.वी वाले आये, शाम को न्यूज टी.वी पर भी आ गयी, तुम लोगों को फिर भी कुछ पता नहीं ?”
“गर्दिश का दौर है” - ब्रजवासी बोला - “सारा दिन तो भटकते गुजर गया । कहां अखबार पढते और कब टी.वी. देखते ?”
मालवानी खामोश रहा ।
“लेकिन खबर आज के अखबार में क्यो छपी ? कल को अखबार में क्यों न छपी । जब तुम्हारे साथ जो बीती, वो परसों रात बीती तो...”
“परसों रात एक बजे के बाद बीती । उसके प्रैस के नोटिस में आते आते सवेरा होने को हो गया था, कैसे वो खबर कल के अखबार में छप सकती थी ?”
“ओह !”
“वडी साईं” - झामनानी बोला - “कुछ सोच । कोई तरकीब निकाल वरना हमारे लिये तो भारी मुश्किल हो जायेगी नी ।”
”क्या सोचूं ? क्या तरकीब निकालूं ?”
“तू था किधर इतनी रात गये तक ? किधर से आ रहा था ?”
“कान इधर कर ।”
झामनानी ने किया ।
“एक पुटड़ी के साथ था ।” - मालवानी उसके कान में बोला ।
“कहां ?”
“गुड़गांव के एक होटल में ।”
“पुटड़ी मुंह खोलेगी ?”
“हरगिज नहीं । सिर्फ बाईस साल की है । कभी नहीं मानेगी कि वो मेरा उम्र के किसी आदमी के साथ होटल में थी ।”
“पुलिस को क्या बोला था ? ये तो नहीं बोला था कि गुड़गांव के एक होटल से आ रहा था ?”
“चड़या हुआ है ?”
“तो ?”
“बोला, एक पार्टी से लौट रहा था ।”
“ये तो बोला होगा कि पार्टी किधर थी ?”
“नहीं बोला था । न मेरे से किसी ने पूछा था, न मैंने बोला था ।”
“बस ये बोला कि एक पार्टी से लौट रहा था ?”
“हां ।”
“झूलेलाल ! फिर तो काम बन गया नी ।”
“क्या मतलब ?”
“पूरा नहीं तो आधा पौना तो बन ही गया ।”
“अरे, कुछ कह भी साईं ।”
“तू परसों रात मेरे फार्म पर था । मेरे फार्म पर थी वो पार्टी जहां से कि तू लौट रहा था ।”
“लेकिन” - ब्रजवासी बोला - “पुलिस को मेहमानों की लिस्ट बना कर देते वक्त तो तुमने कहा था कि मेहमान कल सुबह वहां जमा हुए थे ?”
“तमाम नहीं । तमाम नहीं । दो तीन परसों रात को ही आ गये थे । जैसे कि अपना मालवानी । तेरे को क्या मालूम नहीं उधर मेरे फार्म की पार्टी दो दो दिन तक चल सकती है, तीन तीन दिन तक चल सकती है ।”
“हूं ।”
“अपना मालवानी अगले रोज रात तक रुकने का इरादा लेकर आया था लेकिन आधी रात को बोर हो गया और ये कहकर घर को रवाना हो गया कि दिन में फिर आ जायेगा । लेकिन नहीं आया । कैसे आता ? इधर नर्सिंग होम में पड़ा था । उधर के हंगामे में हमारे ध्यान में ही नहीं आया कि किसी ने लौट के आना था लेकिन नहीं लौट के आया था किसी वजह से ।”
ब्रजवासी के चेहरे पर आश्वासन के भाव नहीं आये ।
तभी मीरा मालवानी हौले से खांसी ।
“साईं” - झामनानी आग्रहपूर्ण स्वर में मालवानी से बोला - “वडी और कुछ नहीं कर सकता तो इतना जरूर कर नी अपने सिन्धी भाई की खातिर कि पूछे जाने पर तू यही बोल कि परसों रात तू झामनानी के फार्म से लौट रहा था । वडी तेरी बीवी कलप रही है इसलिये जल्दी हां बोल ।”
“अच्छी बात है ।”
“वडी जीता रह नी । वडी झूलेलाल की मेहर को छतरी तेरे सिर पर हमेशा बनी रहे नी । मैं जाता हूं नी । फिर आऊंगा तेरे को मिलने । तेरे को देखने । वडी गुड नाइट नी ।”
झामनानी उठा और दरवाजे की तरफ बढा ।
ब्रजवासी उसके पीछे हो लिया ।
झामनानी ने दरवाजा पहले ही खोलने के लिये हाथ बढाया तो दरवाजा पहले ही खुला गया और वो सीधा एक वर्दीधारी पुलिस इन्सपेक्टर की छाती से जाकर टकराया ।
“वडी आंख खोलकर चला कर नी ।” - झामनानी भुनभुनाया ।
इन्सपेक्टर एक तरफ हट गया ।
वो प्रीत विहार थाने का एस. एच. ओ. था और झामनानी और ब्रजवासी दोनों को पहचानता था । अब वो जानता था कि डी.सी.पी. एस. पी. श्रीवास्तव के जिस एक्सप्रैस आर्डर की तामील पर वो वहां पहुंचा था, उसमें वो दोनों दादा लोग जरूर कोई न कोई भांजी मार भी चुके थे ।
***
राजा गजेन्द्र सिंह, एन. आर. आई. फ्रॉम नैरोबी, अपने पूरे जलाल के साथ ‘कमपनी’ के दिवंगत बिग बॉस लोगों के आलीशान आफिस में उनकी राज सिंहसन जैसी एग्जीक्यूटिव चेयर पर विराजमान थे । ओरियन्टल के चेयरमैन र डायरेक्टर साहबान चेहरे पर गहन संजीदगी के भाव लिये उनके सामने बैठे हुए थे ।
विमल को चेहरे पर उस वक्त ईस्साभाई विगवाला से हासिल हुई फुल दाढी मूंछ थीं । दाढी पर उसने जाली बांधी हुई थी और मूंछे फिक्सो से अकड़ाई हई थीं । उसके सिर पर लाल फिफ्टी के साथ काली पगड़ी थी और जिस्म पर सिल्क की सुरमई कमीज, काली टाई और काला सूट था । टाई में हीरा जड़ा टाई पिन था, बायीं कलाई पर रौलेक्स की गोल्ड वाच थी और दायीं में सोने का कड़ा था । उसके बायें हाथ की तीन और दायें हाथ की दो उंगलियों में हीरे जवाहरात से जड़ी भारी अंगूठियां थीं । सबसे रौबदार जेवर पगड़ी में जड़ा ब्रोच था जिसमें छोटे मोटे अंडे के आकार का पुखराज जड़ा हुआ था ।
राजा साहब की लकदक का हिस्सा बने तमाम जेवरात नकली थे जो उसने सिवरी में मिनर्वा स्टूडियो के बाजू की कई बार आजमायी हुई दुकान से हासिल किये थे ।
“सो जन्टलमैन” - विमल दबंग लहजे से बोला - “हेयर वुई आर एट युअर सर्विस ।”
“वुई आर ग्रेटफुल ।” - रणदीवे बोला ।
“हमें बताया गया है कि आप हम से कोई जिन्दगी मौत का मसला डिसकस करना चाहते है !”
“बात तो ऐसी ही है, राजा साहब ।”
“क्या बात है ? हम सुन रहे हैं । बेहिचक बयान कीजिये ।”
“आपके सैक्रेट्री साहब नहीं दिखाई दे रहे ?”
“हमें भी नहीं दिखाई दे रहे ।”
“मेरा मतलब था....”
“इस मीटिंग में आप कौल की मौजूदगी लाजमी मानते हैं ?”
“ऐसा तो नहीं लेकिन....”
“या आप समझते हैं कि जो आप कहना चाहते हैं, वो तभी बेहतर कह पायेंगे जबकि कौल यहां मौजूद होगा ? या हम तभी बेहतर समझ पायेंगे ?”
“ओह नो ! नो सच थिंग !”
“दैन कम टू दि प्वायन्ट । टाइम इज मनी । रिमेम्बर ?”
“आई डू । आई डू ।”
रणदीवे ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“रणदीवे साहब को” - जठार बोला - “भाई’ की धमकी मिली है ।”
“कैसी धमकी ?” - विमल बोला ।
“बताइये, रणदीवे साहब ।”
रणदीवे ने झिझकते अटकते बताया ।
“ओह !” - विमल बोला - “तो इस सो-काल्ड ‘भाई’ की होटल पर नजर है ?”
“जी हां ।”
“ताकि वो हमें बेदख्ल कर सके । बेदख्ल कर सके और एक्सपोज कर सके ?”
“जी !”
“उसकी होटल में पेश नहीं चल रही इसलिये वो होटल खरीदकर हमें बाहर करना चाहता है, दरबदर करना चाहता है ?”
“मैं कुछ समझा नहीं ।”
“कैसे दी धमकी ? फोन किया या खुद आया ?”
“अपना आदमी भेजा ? इनायत दफेदार नाम था । उम्दा सूट पहने था फिर भी साफ गैंगस्टर जान पड़ता था । दो टूक धमका कर गया कि अगर मैं अपनी और अपने डायरेक्टर्स की सलामती चाहता था तो मैं फौरन होटल को ‘भाई’ के हवाले किये जाने का इन्तजाम करूं ।”
“धमकी से क्या होता है ?”
“सर, ही वाज डैम सीरियस अबाउट इट । ऐसे लोगों की मिसालें दे रहा था जिन्हें कि इसलिये शूट कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने ‘भाई’ की मुखालफत करने की जुर्रत की थी ।”
“ऐसे आदमी को गिरफ्तार करवाना चाहिये था आपको ।”
“ऐसा तो मैं नहीं कर सका था लेकिन उसके जाने के बाद मैंने पुलिस से सम्पर्क किया था ।”
“कैसे ? इलाके के थाने में एफ. आई. आर. दर्ज कराई थी ?”
“खुद पुलिस कमिश्नर मिस्टर जुआरी से बात की थी ।”
“कोई नतीजा निकला ?”
“नतीजा तो निकला लेकिन वो कोई खास तसल्ली नहीं । पुलिस की तरफ से मुझे एक गनर बतौर बाडीगार्ड मुहैया कराया गया है । अभी भी नीचे लॉबी में बैठा है वो । लेकिन मुझे लगता है कि जब नौबत आयेगी तो वो बेचारा भी बेमौत मारा जायेगा ।”
“ऐसा जबर है ये ‘भाई’ ?”
“कहते तो यही हैं ।”
“फिर तो कोई छोटी मोटी फौज ही आपकी हिफाजत कर सकती है ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“हरगिज नहीं । हम काफी मजाक पसन्द हैं - सरदार जो ठहरे - लेकिन इस वक्त मजाक नहीं कर रहे ।”
रणदीवे खामोश रहा ।
“चलिये, हमने कुबूल किया कि कर्टसी ‘भाई’ साक्षात मौत आप लोगों के सिरों पर मंडरा रही है । अब ये बताइये कि इस सिनेरियो में हमारा क्या रोल है ? अपनी सलामती के लिये आप लोग हमें ‘भाई’ से भिड़ाना चाहते हैं ?”
“हरगिज नहीं ।”
“तो ?”
जवाब देने की जगह बेचैनी से पहलू बदलते हुए रणदीवे ने फिर अपने सहयोगियों की तरफ देखा ।
“सर” - इस बार मोहसिन खान बोला - “वुई हैव डिसाइडिड नाट टु प्रोवोक ट्रबल ।”
“वैरी गुड डिसीजन । क्या करेंगे आप ? कैसे रोकेंगे आप ट्रबल को प्रोवोक होने से ?”
“हमने” - जठार बोला - “आई मीन ओरियन्टल के डायरेक्टर्स ने ‘भाई’ की मांग मान लेने का फैसला किया है ।”
“मतलब ?”
“हमने होटल ‘भाई’ के हवाले कर देने का फैसला किया है ।”
“उसकी पेशकश” - रणदीवे बोला - “पूरी कीमत चुका कर होटल खरीदने की है, न कि उसे हमसे छीन लेने की इसलिये हमने फैसला किया है कि....”
“लेकिन” - विमल बोला - “जिस चीज पर आपका कब्जा नहीं है, उसे आप कैसे बेच सकते हैं ?”
“अगर आपका इशारा लीज की तरफ है....”
“उसी तरफ है हमारा इशारा । और किस तरफ होगा ?”
“तो लीज कैंसल की जा सकती है ।”
“नहीं की जा सकती ।
“म्यूचल कन्सैंट से” - मोहसिन खान बोला - “आपसी समझौते से की जा सकती है ।”
“इस सिलसिले में” - जठार बोला - “आपका जो माली नुकसान होगा, उसकी भरपाई कर दी जायेगी ।”
“क्यों नहीं ? क्या मुश्किल होगा ये काम आपके वास्ते ? यू विल बी गैटिंग ट्रक लोड्स ऑफ मनी... दैट इज इफ दिस ‘भाई’ ऑफ युअर्स एक्चुली पेज फार दि परचेज ।”
“तो फिर क्या कहते हैं आप ?” - रणदीवे व्यग्रभाव से बोला ।
“लीज कैंसल नहीं हो सकती ।” - विमल निर्णायक भाव से बोला - “नहीं होगी ।”
“लेकिन....”
“एण्ड दैट इज फाइनल ।”
“आई बैग टु डिफर, सर ।” - रणदीवे के स्वर में आवेश का पुट आ गया - “दैट इज नॉट फाइनल । आप लीज की इस शर्त को भूल रहे हैं कि आपने होटल को मुनाफे पर चला कर दिखाना है । हमें उदैनिया से खबर लगी है कि होटल मुनाफे पर नहीं चल रहा ।”
“अभी नहीं चल रहा । अभी हमें सिर्फ एक हफ्ता हुआ है लीज साइन किये हुए । मुनाफा क्या जादू के जोर से होने लगेगा ? हर काम होते होते होता है । इसीलिये तो लीज में हमें छ: महीने की मोहलत का प्रावधान है ।”
“मुनाफा तब भी नहीं होगा ।”
“आपके मुंह में घी शक्कर ।”
“आ... आ... आई एम सॉरी ।”
“जब आप जैसे वैल‍विशर्स हमारे रूबरू हैं तो कैसे होगा मुनाफा ? क्योंकर होगा मुनाफा ? मुनाफा तो हो नहीं सकता ।”
“आई सैड आई एम सॉरी, सर । आई एम रीयली सॉरी । दैट जस्ट स्लिप्ड ।”
“नैवर माइन्ड ।”
“मौजूदा हालात में” - मोहसिन खाना बोला - “हम छ: महीने इन्तजार नहीं कर सकते ।”
“मुझे आप लोगों से हमदर्दी है ।”
“आपकी हमदर्दी से हमारी जान का खतरा नहीं टल सकता ।”
“दैट्स युअर प्राब्लम ।”
“आप मजबूर कर रहे हैं हमें” - रणदीवे बोला - “कोई सख्त कदम उठाने के लिये ।”
“बल्ले !” - विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला - “क्या सख्त कदम उठायेंगे आप ?”
रणदीवे ने कुछ कहने को मुंह खोला लेकिन कुछ सोच कर खामोश हो गया, उसने पनाह मांगती निगाहों से अपने साथियों की तरफ देखा ।
“कोई सख्त कदम उठाने में आप अपने आप को सक्षम पाते हैं तो ‘भाई’ के खिलाफ क्यों नहीं उठाते ?”
“क्योंकि... क्योंकि...”
“क्योंकि जैसे आपने तारदेव से जुहू का रुख किया तो राजा गजेन्द्र सिंह के पास पहुंच गये, वैसे आप ‘भाई’ के पास नहीं पहुंच सकते । नो ?”
किसी से जवाब देते न बना ।
“कैसी अजीब बात है ! उसका कोई काम नहीं, पता नहीं, ठिकाना नहीं, वो कभी सामने नहीं आता, आपके पास इस बात की तसदीक का कोई जरिया नहीं कि जो कहा, वाकेई ‘भाई’ ने कहा । फिर भी आप उसकी धमकी से थर्राये पुलिस कमिश्नर की शरण में पहुंच गये, एक गलत नाजायज, गैरकानूनी मांग पर जोर देने यहां पहुंच गये ।”
“जनाब” - मोहसिन खान दबे स्वर में बोला - “हमारे सामने ऐसी मिसाल हैं कि ‘भाई’ का खौफ खा कर....”
“कोई उद्योगपति केनिया भाग गया ! कोई प्रोड्यूसर न्यजीलैंड जाकर फिल्में बनाने लगा, कोई बिल्डर अपना धन्धा छोड़ कर बाल बच्चों समेत नामालूम जगह के लिये कूच कर गया । कोई मारा गया तो कोई मरता मरता बचा । यही मिसाल हैं न आपके सामने ?”
“आप तो” - मोहसिन खान के मुंह से निकला - “बहुत कुछ जानते हैं ?”
“जबकि” - रणदीवे बोला - “आप कहते हैं कि आपको नैरोबी से आये अभी महज दो महीने हुए हैं ?”
“जो हम जानते हैं, उसे छोड़िये । इस वक्त बहस का मुद्दा वो है, जो आप जानते हैं । और आप क्या जानते हैं ? ये कि आज कोई आप पर दबाव डालकर गया कि आप लीज कैंसल करके होटल वापिस हासिल करें क्योंकि होटल ‘भाई’ को मांगता है । लिहाजा आप दौड़े हुए यहां पहुंच गये । कल कोई काला चोर आपको धमकायेगा ‘ओये, मैं ‘भाई’ का आदमी हूं, ‘भाई’ एक करोड़ देने को बोला, निकाल वरना तू खलास’ । आप फौरन उसके हुक्म की तामील करेंगे । परसों कोई ‘भाई’ के नाम के सदके आपकी बहन बेटी पर दावा लगाने पहुंच जायेगा तो....”
“आई विल किल दि बास्टर्ड ।”
“यू मस्ट ।”
“आपने बहुत चुभती मिसाल दी है ।” - जठार धीरे से बोला - “अगले बुधवार रणदीवे साहब की बेटी की शादी है । ऐसे में....”
“वुई आर सॉरी । बधाई, मिस्टर रणदीवे ।”
“थैंक्यू ।” - रणदीवे बोला - “शादी चौबीस तारीख की है । होटल ऐशली क्राउन प्लाजा में । तशरीफ लाइयेगा ।”
“जी हां । जरूर ।”
“मैं अलग से कार्ड भी भिजवाऊंगा ।”
“न भी भिजवायें तो क्या है ? बेटी की शादी की खबर होना ही काफी होता है हाजिरी भरने के लिये । हम जरूर आयेंगे ।”
“शुक्रिया ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“हम कहां थे ?” - फिर विमल ने ही चुप्पी तोड़ी - “हां, मिस्टर रणदीवे, बात हमने चुभने वाली कही लेकिन गलत नहीं कही । बहन बेटी के नाम पर जैसा तड़प कर आपने दिखाया, वैसी तड़प आप में होटल के नाम से तो न पैदा हुई ! क्या हम वजह जान सकते हैं ?”
वजह बयान करने की जगह रणदीवे दायें बायें देखने लगा ।
“आप एक बेजा और नाजायज मांग के आगे झुकते हैं तो आपको एक सौ एक बेजा मांगों के लिये तैयार रहना होगा क्योंकि जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है ।”
जठार और मोहसिन खान के सिर सहमति में हिले ।
“यही सबक मिला है हमें अपनी जिन्दगी से कि ‘कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐजाजेसुखन, जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है’ ।”
“राजा साहब” - रणदीवे इस बार कतार भाव से बोला - “आप हमारी प्राब्लम को बहुत कम करके आंक रहे हैं । इनायत दफेदार नाम का ‘भाई’ का आदमी आपके पास नहीं आया था, मेरे पास आया था और मुझे भी आदमी पहचानने का कोई कम तजुर्बा नहीं है । जाहिर मैंने उस आदमी के सामने यही किया था कि उसकी बातें सुनकर मैंने कान से मक्खी उड़ाई थी लेकिन मेरा दिल जानता था कि वो धमकी सीरियस थी । अब कैसे हम उस धमकी को नजरअन्दाज कर सकते हैं ?”
“न कीजिये ।”
“जी ?”
“मुकाबला कीजिये धमकी का और धमकी देने वालों का ।”
“लेकिन....”
“मिस्टर रणदीवे, दिस इज ऐन आकूपेशनल हैजर्ड विच यू मस्ट फेस । ऐसी धमकियां हैसियत और रसूख वाले लोगों को ही मिलती हैं, गरीबगुरबा को नहीं मिलतीं, इस बात से क्या आप वाकिफ नहीं थे । वाकिफ थे तो क्यों आप ओरियन्टल की चेयरमैनशिप की जोखिमभरी कुर्सी पर बिराजे, चौपाटी पर भेलपूरी बेच कर ही क्यों न सन्तुष्ट हो गये ।”
“सर, यू आर इन्सल्टिंग मी ।”
“मे बी वुई आर । मे बी वुई आर नाट । बहरहाल हमने जो कहना था, कह दिया । लीज कैंसल नहीं हो सकती, अभी तो हो ही नहीं सकती, छ: महीने बाद भी नहीं हो सकती क्योंकि तब कैंसलेशन के लिये आपको साबित करके दिखाना होगा कि होटल मुनाफा नहीं कमा रहा । ऐसा आडिट कराने से ही साबित हो सकेगा और हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आडिट से यही साबित होगा कि होटल मुनाफा ही नहीं कमा रहा, बड़ा मुनाफा कमा रहा है ।”
“हम पहले आडिट की मांग कर सकते हैं ।”
“आपकी क्या बात है ! लेकिन क्या होगा पहले आडिट से ? अगर साबित हुआ कि होटल मुनाफा कमाने लगा है तो आपकी जुबान वैसे ही बन्द हो जायेगी, नुकसान साबित हुआ तो भी लीज के तहत छ: महीने तो आप कुछ नहीं कर सकेंगे ।”
“घर के भाग ड्योढी से दिखाई दे जाते हैं । हम ये साबित कर के दिखायेंगे कि आपके अन्डर होटल मुनाफा कमा ही नहीं सकता इसलिये लीज कैंसल....”
“नहीं हो सकता । ऐवरीथिंग इज डाकूमैंटिड इन ब्लैक एण्ड वाइट अन्डर युअर ओन सिग्नेचर्स । कम प्रॉफिट ऑर लॉस, कम हैल ऑर हाई वाटर, कम डेविल ऑर डीप सी, लीज विल स्टे ।”
“हम कोर्ट में जायेंगे ।”
“हम आपको वहां मिलेंगे ।”
“तो ये आपका आखिरी फैसला है ?”
“जी हां ।”
“पुनर्विचार की कोई गुंजायश नहीं ?”
“जी नहीं ।”
“ऐसा है तो एक आखिरी बात कहले की इजाजत दीजिये, उसके बाद हम आप से विदा लेंगे ।”
“वो भी कहिये ।”
“हम आपको अन्धेरे में नहीं रखना चाहते इसलिये कहना जरूरी है कि आपके इस अड़ियल रवैये के लिये भी हम तैयार होकर आये थे । हमारा काम प्रेमभाव से, म्यूचल कन्सैंट से, सीधे सीधे बन जाता तो हमें खुशी होती क्योंकि तब हम वो कदम उठाने से बच जाते जिसे कि अंग्रेजी में ‘ए हिट बिलो दि बैल्ट’ कहा जाता है ।”
विमल सकपकाया ।
“हमें ये कबूल करते कोई झिझक नहीं है कि हमें ‘भाई’ का खौफ है । हमारे इतने वसीह मुल्क की पुलिस फोर्स की जिसके आगे पेश नहीं चलती, उसका खौफ खाना ही दानिशमन्दी है । हम ये भी जानते हैं कि ‘भाई’ ने जिस खेल की शुरुआत हमारे साथ की है, उसके कोई रूल्ज नहीं, कोई नियम नहीं । ‘भाई’ जब फाउल खेलेगा तो कोई रैफरी सीटी बजाकर उसे रोकने वाला नहीं होगा । उसके गोली चला चुकने के बाद जब ये उजागर होगा कि उसके पास तो रिवाल्वर का लाइसेंस ही नहीं था तो मुर्दा उठ कर नहीं खड़ा हो जायेगा, चली गोली अनचली नहीं हो जायेगी । लिहाजा खेल में हमारी हार लाजमी है । दूसरे, हमें आपकी इस बात से इत्तफाक नहीं कि ‘भाई’ का कोई नाम पता ठिकाना नहीं । नाम, पता, ठिकाना सब बराबर है और हमारी सरकार को, हमारी पुलिस को उसकी खबर है लेकिन कभी भी ऐसी कोई पहल सरकार या पुलिस की तरफ से नहीं हुई कि उसे पकड़ मंगवाया जाये और इस मुल्क में, जिसका कि वो भी बाशिन्दा है, इस मुल्क के कानून के मुताबिक उसे उसके गुनाहों की, जो कि बेशुमार है, सजा दिलवाई जाये । ऐसे ‘भाई’ की धमकी को हम गम्भीरता से नहीं लेंगे तो इसका मतलब होगा कि हम खुदखुशी के तमन्नाई हैं । आपने हमें जो मशवरा दिया, जो लैक्चर पिलाया, जो फटकार लगाई वो सब सिर माथे लेकिन ये हकीकत फिर भी अपनी जगह कायम है कि हम ‘भाई’ से खौफजदा हैं जबकि आपके साथ ऐसा नहीं है ।”
विमल की भवें उठीं ।
“आपके साथ ऐसा नहीं है क्योंकि” - रणदीवे एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “आप खुद भाई हैं ।”
“जी ? क्या फरमाया ?”
“आप सोहल हैं ।”
विमल भौंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“सोहल !” - बड़ी कठिनाई से वो अपने स्वर को सन्तुलित रख कर कह पाया - “कौन सोहल ?”
“जिस सवाल का जवाब आप हम से बेहतर जानते हैं, वो आप हम से न पूछें तो टाइम की बचत होगी । टाइम इज मनी । रिमेम्बर ? अभी आपने खुद कहा था ।”
“आप बड़ी रहस्यमयी बातें कर रहे हैं, मिस्टर रणदीवे ।”
“शेषनारायण लोहिया, भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे, मेरा पुराना परिचित था । मैं उसी लोहिया की बात कर रहा हूं जो बड़ा उद्योगपाति था, अपनी जिन्दगी में नेपियन हिल जैसी एक्सक्लूसिव जगह पर रहता था और मेरे आफिस में हमारी पिछली मुलाकात के दौरान जिसका नाम आपने बतौर रेफ्रेंस लिया था और जिसे आपने अपना करीबी दोस्त बताया था । फेमस फाइनांसर कुमुद भाई देसाईं के प्राइवेट यॉट सी-हॉक पर आयोजित जिस ग्रैंड पार्टी के दौरान लोहिया यॉट से गिर कर समुद्र में डूब मरा था, इत्तफाक से उसमें मैं भी गैस्ट था । वहां मैं उससे मिला था तो मैंने उसके सामने आपका जिक्र छेड़ा था । वो नशे में था और एक खूबसूरत लड़की के पीछे पड़ा हुआ था इसलिये उसने राजा गजेन्द्र सिंह, एन.आर.आई. नैरोबी के बारे में कुछ कहने को यह कह कर टाल दिया था कि उस वक्त वो कुछ कहने के नहीं, कुछ करने के मूड में था इसलिये दास्तानेसोहल फिर कभी ।”
“इतने में हम सोहल - जो कोई भी वो है - हो गये ?”
“जब उसने राजा साहब से अपनी वाकफियत की लम्बी दास्तान को दास्तानेसोहल कहा तो क्यों न हो गये ?”
“आपने पूछा होता वो किस सोहल की दास्तान की बात कर रहा था ?”
“मैं जरूर पूछता लेकिन उसके पास टाइम नहीं था । ज्यादा जिद ये सोच के नहीं की थी कि बाद में पूछ लूंगा लेकिन बाद हुई ही नहीं, बेचारा पहले ही भगवान को प्यारा हो गया ।”
“आगे कुछ मैं कहता हूं ।” - जठार जल्दी से बोला - “लोहिया के तमाम करीबी इस हकीकत से वाकिफ थे कि लोहिया अमूमन मुंह नहीं फाड़ता था, आई मीन लूज टॉक नहीं करता था लेकिन जब गिलास हाथ में हो तो गैरजिम्मेदार हो जाता था । लोहिया से जो स्टोरी मुझे सुनने को मिली थी, वो विमल, कौल और राजा साहब की थ्री इन वन स्टोरी थी । इसीलिये कल से पिछले मंगलवार की सुबह को जब तुमने मेरे से फोन पर बात की थी तो मैंने तुम्हें दाई से पेट न छुपाने की राय दी थी ?”
“हमें ? हमें राय दी थी ?”
“विमल को राय दी थी । साथ ही ये आश्वासन भी दिया था कि दाई भी अपनी थी और पेट भी अपना था इसलिये फिक्र की कोई बात नहीं थी । वो आवश्वासन अभी भी कायम है । क्योंकि जो लोहिया का दोस्त, वो मेरा दोस्त । जो लोहिया का अजीज, वो मेरा अजीज ?”
“सोमवार आठ तारीख को” - मोहसिन खान बोला - “ओरियन्टल के आफिस में इस बात पर वोटिंग के दौरान, कि राजा साहब के प्रतिनिधि और उनके सैक्रेट्री कौल ने मुझे मेरे वालिद अताउल्लाह खान साहब से अपनी दोस्ती का सदका दे कर राजा साहब के हक में वोट देने की इल्तजा की थी जो कि मैंने कबूल की थी, नतीजतन उस रोज पांच के खिलाफ पांच वोट पर फैसला टाई हो गया था और अगले रोज - एम.डी. दाण्डेवर की एकाएक मौत के बाद - दोबारा वोटिंग होने पर फैसला राजा साहब के हक में हुआ था ।”
“ये जिक्र किसलिये ? क्योंकि आप इस बात की बधाई चाहते हैं कि आपका वोट न होता तो फैसला कभी राजा साहब के हक में न होता ?”
“नहीं । जिक्र इसलिये कि बाद में जब मैंने अपने वालिद साहब के सामने अरविन्द कौल का जिक्र चलाया था तो उन्होंने पूरे यकीन के साथ कहा था कि वो किसी कौल को नहीं जानते थे । अगले रोज ओरियन्टल के आफिस में ये बात मैंने आपसे चलाई थी - या कहिये कि कौल से चलाई थी, बात एक ही है - तो आप बड़ी नफासत से मुद्दे को ही टाल गये थे और वोट को मेरे लिये जियारत जैसा सबाब बता कर चले गये थे । बाद में मैंने इस बात पर बहुत सिर धुना कि जब कौल मेरे वालिद साहब को बाई नेम जानता था तो वालिद साहब उसे क्यों नहीं जानते थे जबकि मैं ये बात फख्र के साथ कहता हूं कि उम्र के लिहाज से मेरे वालिद साहब की याददाश्त बहुत तीखी है, सिर्फ एक मर्तबा भी किसी से मिले हों तो न नाम भूलते हैं न सूरत । बहरहाल आखिरकार ये गुत्थी खुली । मुझे बड़ी स्मार्ट शेरवानी वाला, काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी वाला, फ्रेंचकट दाढी मूंछ वाला, वो नौजवान याद आया जिसका नाम परवेज था जिसकी बीवी का नाम रेशमा था और सात मई वाले इतवार की सुबह हमने सहर एयरपोर्ट से शिवाजी पार्क तक जिसे लिफ्ट दी थी । उस नौजवान की सूरत बार बार, बार बार मेरे जेहन पर उभरती रही और ऐसा होना तभी बन्द हुआ जबकि मैं बिना शेरवानी, बिना दाढी मूंछ और बिना तुर्की टोपी उस सूरत का तसव्वुर करने में कामयाब हुआ । ऐसा होने पर मेरे जेहन पर कोई और ही सूरत नक्श होने लगी । जनाब, अब क्या ये भी बताना होगा कि किसकी सूरत नक्श होने लगी ?”
विमल खामोश रहा ।
“पहली वोटिंग वाले दिन” - रणदीवे बोला - “दाण्डेकर की एक ही दुहाई थी कि कौल सोहल था क्योंकि वो ‘कम्पनी’ की बाबत, उसके नये पुराने टॉप बॉसेज की बाबत, उसके निजाम की बाबत, उसके धन्धों की बाबत हर बात से वाकिफ था । तब मैं दाण्डेकर की दुहाई को इसलिये खातिर में नहीं लाया था क्योंकि वो होटल को लीज में दिये जाने के खिलाफ था । अब मुझे ये कुबूल करना पड़ रहा है कि हम में से सिर्फ दाण्डेकर की ही निगाह और सोच पैनी थी ।”
“जिसने ये ताड़ लिया” - मोहसिन खान बोला - “कि कौल सोहल था ।”
“और लोहिया ने देसाई की पार्टी में झोंक में ये बोल दिया कि राजा गजेन्द्र सिंह सोहल था ।”
“लिहाजा” - जठार बोला - “कौल राजा गजेन्द्र सिंह था ।”
विमल ठठाकर हंसा ।
“हम” - वो बोला - “आपको कौल लगते हैं ?”
“किधर से भी नहीं लगते ।” - रणदीवे बोला ।
“तो फिर ? तो फिर बात खत्म न हो गयी ?”
“नहीं हो गयी ।”
“क्यों भला ?”
“क्योंकि लगने और होने में फर्क होता है । क्योंकि कई बार जो आंख देखती है, वो ही सच नहीं होता । कई बार आंख वो देखती है जो उसे दिखाया जाता है ।”
“पर्दा-दर-पर्दा सूरत” - मोहसिन खान बोला - “यूं ही तो नुमाया नहीं हो जाती ।”
“मैंने तो कहा ही था” - जठार ने कहा - “कि मैं जिधर भी नजर डालता हूं मुझे पर्दे ही पर्दे दिखाई देते हैं । जवाब में मुझे ये तसल्ली मिली थी कि दो चार मुलाकात और हो जायें, तमाम पर्दे उड़ जायेंगे । दो चार मुलाकात तो हो भी चुकी हैं लेकिन पर्दा तो कोई भी उड़ता नहीं दिखाई दे रहा ।”
“हम नहीं समझ पा रहे कि आप किसकी बात कर रहे हैं ।” - विमल तीखे स्वर में बोला - “न ही हमें कोई पर्दा दिखाई दे रहा है....”
“ए वर्ड टु दि वाइज सर ।” - रणदीवे बोला ।
“वन वर्ड इज नॉट एनफ फार दिस वाइज । और अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई इसलिये बीच में न बोलें ।”
रणदीवे ने होंठ भींच लिये ।
“आप हमारे से मुलाकात करना चाहते थे जो कि आपने कर ली । आपने जो कहना था, कह दिया । हमने जो कहना था, हमने कह दिया । आप कुछ और कहना चाहते हैं तो वो भी फरमाइये वरना ये मीटिंग बर्खास्त समझिये ।”
“कुछ और कहना चाहते हैं ।” - रणदीवे बोला ।
“फरमाइये ।”
“हम आपके सैक्रेट्री मिस्टर कौल से मिलना चाहते हैं ।”
“वो नीचे लॉबी में कहीं होगा, जाकर तलाश कर लीजिये । न मिले तो उदैनिया से बोलियेगा, ढूंढ देगा ।”
“हम आपकी मौजूदगी में मिस्टर कौल से मिलना चाहते हैं ।”
“अगर हमें आपकी ये दरख्वास्त कुबूल हो तो ?”
“ये मामूली दरख्वास्त है ।”
“मामूली दरख्वास्त भी न कुबूल हो तो ?”
“तो हमें वो काम करना पड़ेगा जिसके लिये हमारा दिल गवाही नहीं देता ।”
“क्या ? क्या करेंगे आप ?”
“बेखौफ बोलें ?”
“जी हां । बोलिये ।”
“तो हम अपनी थ्री-इन-वन वाली थ्योरी के साथ पुलिस के पास पहुंचेंगे । हमें यकीन है मिस्टर जुआरी, कमिश्नर मुम्बई पुलिस, हमारी थ्योरी को गौर के काबिल मानेंगे और उस पर कोई फौरी अमल करेंगे ।”
“क्या हम इसे धमकी समझें ?”
“नहीं, जनाब । मजबूरी समझें । ऐसे लोगों की मजबूरी समझें ‘भाई’ की धमकी से मुकाबिल होना जिनके बस की बात नहीं ।”
“हासिल क्या होगा आपके इस कदम का ?”
“अगर हमारे सामने बैठा आदमी सोहल है तो वो गिरफ्तार हो जायेगा, गिरफ्तार नहीं होगा तो फरार हो जायेगा, दोनों ही तरीकों से लीज के तहत होटल उसकी पकड़ से बाहर होगा । फिर ‘भाई’ जो उसका जी चाहेगा होटल के साथ करेगा और हमारी जान सांसत से निकलेगी ।”
“आई सी ।”
“दोहरी आइडेन्टिटी बना लेना और उसे चला लेना आम हालात में कोई बड़ी बात नहीं लेकिन हमारी हम्बल ओपीनियन ये है कि भले ही कितनी होशियारी से गढी गयी हो, वो बारीक तहकीकात को, गहरी छानबीन को, डीप स्क्रूटिनी को स्टैण्ड नहीं कर सकती । राजा गजेन्द्र सिंह हमें साबित करके दिखा सकते हैं कि वो अनिवासी भारतीय हैं, नैरोबी से हैं, पीछे पटियाले के शाही खनदान से हैं लेकिन ऐसा किसी सरकारी एजेन्सी को - जैसे कि पुलिस को, सी.बी.आई. को, इन्टेलीजेंस ब्यूरो को, स्पेशल टास्क फोर्स को, फॉरेन आफिस को - साबित करके दिखाना मुश्किल होगा । बल्कि नामुमकिन होगा ।”
“वजह ?”
“सबसे बड़ी वजह तो आपकी सूरत पर चस्पां हैं ।”
“मतलब ?”
“समझिये ।” - रणदीवे ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से अपनी ठोडी और ऊपरी होंठ पर हाथ फेरा ।
“कमाल है ? बड़ी फास्ट करवट बदली आपके मिजाज ने मिस्टर रणदीवे ? जब आप यहां तशरीफ लाये थे, तब तो आपके ऐसे तेवर नहीं थे ?”
“आप हमें गलत समझ रहे हैं । मैं फिर दोहराता हूं कि हम मजबूर हैं और रास्ता भटके हुए हैं । आप हमें कोई रास्ता सुझाइये, हमें इस सांसत से निकालिये तो हम ताजिन्दगी आपका ये अहसान नहीं भूलेंगे ।”
“आप समझते हैं कि हम ऐसा कर सकते हैं ?”
“आप नहीं कर सकते । सोहल कर सकता है ।”
“जिस शख्स के आगे बखिया न ठहरा” - जठार दबे स्वर में बोला - “इकबाल सिंह न ठहरा, गजरे न ठहरा, हमें यकीन है उसके आगे ‘भाई’ भी नहीं ठहर सकता ।”
“शैतान का मुकाबला आतिश से ही हो सकता है ।” - मोहसिन खान बोला - “‘भाई’ इस वक्त शैतान है, सोहल आतिश है ।”
“हूं ।” - विमल कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “ओके । हम इस बारे में गौर करेंगे । हम आपको अपना जवाब फिर देंगे ।”
तीनों ने इनकार में सिर हिलाया ।
“गुस्ताखी माफ, जनाब ।” - रणदीवे विनयशील स्वर में बोला - “हमें आपका जवाब अभी चाहिये ।”
“कमाल है ! ऐसी जल्दी क्या है ? अभी आपने खुद तो बोला कि उस... उस भाई के आदमी ने... क्या नाम बोला था उसका ?”
“इनायत दफेदार ?”
“हां । इनायत दफेदार । अभी आपने बोला तो था कि उसने आपको दो दिन का वक्त दिया है जवाब देने के लिये ?”
रणदीवे खामोश रहा ।
“ओके ।” - तब पहली बार विमल ने राजा साहब का रोल त्यागा और अपनी नार्मल आवाज में बोला - “तो मेरा जवाब ये है कि आप निर्धारित वक्त तक इन्तजार करें ।”
“दो दिन में सोहल ‘भाई’ को खत्म कर देगा ?” - रणदीवे बोला ।
“या” - जठार बोला - “उसकी धमकी को खत्म कर देगा ?”
“या” - मोहसिन खान बोला - “आप होटल हमारे हवाले कर देंगे ?”
“होने को कुछ भी हो सकता है ।” - विमल बोला - “मुझे ऐसी कोई सिद्धि प्राप्त नहीं है जिसके सदके मैं भविष्य जान सकूं । मैं भविष्यवक्ता होता तो ‘भाई’ का भविष्य जानने से पहले अपना भविष्य जानता और इस बात से हिला हुआ न होता कि मुम्बई के तीन महानुभाव, तीन महामहिमामय मनुष्य, तीन वी.वी.आई.पी. मेरे सामने बैठे ये दावा कर रहे हैं कि वो मेरी असलियत से वाकिफ हैं ।”
“हमने” - रणदीवे जल्दी से बोला - “आपकी असलियत आपके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिये आप पर उजागर नहीं की है ।”
“कर तो रहे हैं ।”
“हम आपको कैसे समझायें कि हम...”
“मजबूर हैं, खौफजदा हैं, इरादतन कुछ नहीं कर रहे, वगैरह । बहरहाल वो किस्सा छोड़िये और मुझे अपनी बात पूरी करने दीजिये ।”
“यस । प्लीज ।”
“मैं कह रहा था कि मैं भविष्य में नहीं झांक सकता, मैं आपको सिर्फ अपनी आइन्दा स्ट्रेटेजी समझा सकता हूं, वो भी तब जबकि आपको मेरी मुखालफत छोड़ कर मेरा हमराज, मेरा हमकदम बनना कुबूल हो ।”
“हमें कुबूल है ।” - रणदीवे बेहिचक बोला ।
“गुड । तो सुनिये । आइन्दा दिनों में मेरी अपनी सलामती के लिये ये जरूरी हो गया है कि कुछ लोग इस फानी दुनिया से रुख्सत फरमा जायें । उनमें से एक ये स्वनामधन्य ‘भाई’ भी है । आप अपनी प्राब्लम के साथ यहां तशरीफ लाते या न लाते, ‘भाई’ के खिलाफ, उसकी हस्ती मिटाने के लिये जो मैंने करना है, वो करना ही है । मेरी आप से जो दरख्वास्त है, वो ये है कि आप दो दिन तो खामोश बैठें, निश्चिन्त बैठें, किसी करिश्मासाज तरीके से दो दिनों में ही ‘भाई’ का बोलोराम हो गया तो बात ही क्या है वरना वक्त आने पर आप ‘भाई’ या उसके आदमी को जो जवाब देंगे वो ये होगा कि आपने राजा साहब को लीज कैंसल करके होटल छोड़ देने के लिये मना लिया है । सीधे ऐसा कहने से शायद वो आप की बात का यकीन न करे इसलिये आप इस बात पर जोर देंगे कि ऐसा आप हरजाने के तौर पर एक मोटी रकम राजा साहब की नजर करने के वादे के तहत ही कर पाये हैं ।”
“हम समझ गये । आगे ?”
“आगे ये कि लीज कैंसलेशन को कानूनी कार्यवाही के लिये, होटल की अचल सम्पत्ति को चौकस करने के लिये और टेक ओवर के बाद जो नया स्टाफ भरती किया गया है, उसको कानूनी तौर से डिसमिस करने लिये, राजा साहब को कम से कम एक हफ्ते का वक्त दरकार होगा इसलिये एक हफ्ता वो खामोश बैठे ।”
“बैठ जायेगा ?” - जठार सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“हां, बैठ जायेगा । क्योंकि इतनी मामूली बात को नाकुबूल करने की कोई वजह नहीं होगी । जो वजह है, वो ये है कि वो सोहल को होटल की प्रोटेक्शन से बाहर देखना चाहता है, क्योंकि भीतर उसकी पेश नहीं चल रही, लेकिन ये वजह वो अपनी जुबानी कभी कुबूल नहीं करेगा क्योंकि ऐसा कुबूल करने से उसकी हेठी होती है । आपकी बात पर शुबह करने की भी कोई वजह सामने नहीं होगी, क्योंकि इधर हम ये अफवाह गर्मा देंगे कि वजह किसी को मालूम नहीं लेकिन होटल फिर बन्द होने जा रहा था । कहने का मतलब है कि उसके पास हफ्ता खामोश बैठने के अलावा कोई चारा नहीं होगा ।”
“ओह !”
“यूं हमें नौ क्लियर दिन हासिल हो जायेंगे ।”
“नौ दिनों में भी कुछ न हुआ तो ?”
“तो कुछ और सोचेंगे ।”
“हूं ।”
“तब की तब देखी जायेगी, जनाबेआली । जो अभी नौ दिन और नौ रातों के बाद आगे आना है उसके लिये आप अभी से क्यों अपनी नींद हराम करते हैं ।”
रणदीवे ने फिर हुंकार भरी ।
“फिर भी नींद हराम करना चाहते हैं तो बेटी के लिये कीजिये अगले हफ्ते होने वाली जिसकी शादी एक बड़ा कारज है । आनन्द कारज ।”
“ही इज राइट ।” - जठार बोला ।
मोहसिन खान ने भी सहमति में सिर हिलाया ।
“तो हम लोग” - रणदीवे व्यग्र भाव से बोला - “खुशी खुशी घर जायें और चैन की नींद सोयें ?”
“अभी नहीं ।”
“जी !”
“अभी आप” - एकाएक विमल का स्वर फिर राजा साहब जैसा भारी, तीखा और दबंग हो गया - “और राजा गजेन्द्र सिंह एन.आर.आई. फ्रॉम नैरोबी, लास्ट बीकन आफ रायल फैमिली ऑफ पटियाला जानीवाकर ब्लू लेबल के पटियाला पैग के साथ चियर्स बोलेंगे । नो ?”
तब पहली बार तीनों के चेहरों पर मुस्कराहट आयी ।
“यस ।” - वो सम्वेत स्वर में बोले - “बाई आल मींस ।”
***
अपनी एस्टीम कार पर सवार पवित्तर सिंह सुजान सिंह पार्क पहुंचा ।
उस घड़ी रात के आठ बजे थे ।
एम्बैसेडर होटल के टैक्सी स्टैण्ड पर ले जाकर उसने कार रोकी और सामने निगाह दौड़ाई ।
टैक्सी स्टैण्ड पर उस घड़ी छ: सात टैक्सियां मौजूद थीं । वहां के खोखे में एक बल्ब जल रहा था जिनकी रोशनी में उसके करीब बिछे तख्तपोश पर बैठे कुछ ड्राइवर ताश खेल रहे थे, कुछ अधलेटे पड़े सुस्ता रहे थे ।
पवित्तर सिंह ने कार से उतरने के लिये दरवाजे को थामा और फिर कुछ सोचकर हाथ वापिस खींच लिया । उसने खिड़की का शीशा नीचे गिराया और हॉर्न बजाया ।
ड्राइवर लोगों की तवज्जो एस्टीम की तरफ हुई ।
पवित्तर सिंह ने फिर हॉर्न को छुआ ।
पिछले शनिवार झामनानी ने अपने चार आदमी मुबारक अली की खबर लेने के लिये वहां भेजे थे, वो चारों तो उसकी खबर नहीं ले सके थे अलबत्ता मुबारक अली ने अकेले ही उनकी खूब खबर ली थी, उसने चारों को रुई की तरह धुनकर रख दिया था, वो वहां से भाग न खड़े हुए होते तो यकीनन जान से जाते ।
एक व्यक्ति तख्तपोश पर से उठा और कार के करीब पहुंचा ।
पवित्तर सिंह की सफेद दाढी देख कर उसके चेहरे पर अदब के भाव आये ।
“टैक्सी चाहिये, मालको ?” - वो झुक कर खिड़की के रास्ते भीतर झांकता हुआ बोला ।
“नहीं, काका ।” - पवित्तर सिंह बोला - “इक डरेवर दा पता करना सी ।”
“कौन डरेवर ? नां पता जे ?”
“हां । मुबारक अली ।”
“वो तो है नहीं ?”
“वैसे होता तो इधर ही ए न ?”
“हां जी । इधर ही होता है । ये उसका पक्का स्टैंड है । पर आजकल कम आता है ।”
“कम आता है ?”
“हां । दिन में बारां तक पहुंचता है । चला भी जल्दी जाता है ।”
“हूं ।”
“आपको क्या काम है उससे ?”
“है कोई काम । मुलाकात वास्ते मैनूं की करना चाहीदा ए ?”
“कल आना । दोपहरबाद ।”
“ओ पैसेंजर लै के चल दित्ता तां ?”
“वो तो है । आप ऐसा करना, सरदार जी, चार बजे आना । मैं उसे इधर रोक के रखूंगा ।”
“चार बजे ?” - पवित्तर अनिश्चित भाव से बोला ।
“हां । या अपना नां पता दे जाओ, आपके पास भेज देंगे ।”
“नहीं, नहीं । ऐसे मुश्किल होगी । इधर टेलीफोन है ?”
“हां ।”
“नम्बर दे दो ।”
“फोन पर बात करोगे ?”
“नहीं, बात तां आमने सामने होना ई जरूरी ए । मैं कल फोन से पैल्ले पता कर लूंगा कि अपना बन्दा इधर मजूद ए ।”
“ये ठीक रहेगा ।”
“नम्बर की ए उसकी टैक्सी दा ?”
“डी एल टी-2619 है जी नम्बर । पुरानी फियेट है ।”
“हूं ।”
“ये कारट है । इस पर इधर का नम्बर दर्ज है ।”
पवित्तर सिंह ने टैक्सी सर्विस का छपा हुआ कार्ड ले लिया और बोला - “शुक्रिया, काका ।”
“जी आयां नू जी ।”
“वैसे तेरा की नां ए ?”
“करतारा । करतार सिंह ।”
“ज्यूदां रह, पुत्तरा ।”
पवित्तर सिंह ने शीशा चढाया और कार आगे बढा दी ।
करतारा वापिस तख्तपोश पर लौटा ।
“कौन था, करतारया ?” - एक ड्राइवर उत्सुक भाव से बोला ।
“पता नहीं कौन था !” - करतारा बोला - “कोई वड्डा आदमी था । अपने मुबारक अली को पूछ रहा था ।”
“क्यों ?”
“मुलाकात वास्ते ।”
“बड़ा आदमी था और मुबारक अली टैक्सी ड्राइवर से मिलना चाहता था ?”
“हां ।”
“कमाल है ! अरे, नाम तो पूछा होता ऐसे आदमी का ।”
“जब आयेगा तो” - एक और ड्राइवर बोला - “अपना मुबारक अली भी तो पूछेगा ?”
“छोड़ यार ।” - करतारा झुंझला कर बोला - “वड्डे लोग अपनी मर्जी से कुछ बताते हैं तो बताते हैं, पूछने पर कुछ नहीं बताते ।”
“चल, ठीक है । अब चा मंगा ।”
“उठ ओये, भूतनीदया ।” - करतारा खोखे के दरवाजे के फर्श पर टांगे लटकाये बैठे एक लड़के से बोला - “जा सब वास्ते चा बोलके आ । अपने वास्ते भी ।”
लड़का, जो कि फरीद नाम का अड्डे का क्लीनर था, सरपट वहां से भागा ।
***
रात साढे ग्यारह बजे बुझेकर, पिचड़ और आकरे, होटल के पिछवाड़े की सर्विस ऐन्ट्रेंस के करीब के एक कमरे में इरफान के रूबरू हुए ।
इरफान के साथ कमरे में शोहाब भी मौजूद था ।
“क्या हुआ ?” - इरफान बोला ।
“अभी कुछ नहीं हुआ ।” - बुझेकर बोला ।
“तो लौट क्यों आये ?”
“बाप, उधर रात खोटी करने का कोई फायदा नहीं था । सुबह फिर पहुंचेंगे ।”
“हूं । तो उधर जेकब परदेसी करके भीड़ू की पूछताछ अक्खी वेस्ट गयी ?”
“अक्खी तो वेस्ट नहीं गयी, बाप । इतना तो पक्की हुआ है कि उधर लोगबाग उसको जानते बरोबर हैं । हुलिया भी निकाला है उसका पूछताछ करके । पण ये पक्की नहीं हुआ कि उधरीच रहता है कि नहीं या उधर नहीं रहता तो किधर रहता है !”
“आगे पीछे उस रेस्टोरेंट में तो आता ही होयेंगा ?”
“ऐसीच सोचा मैं भी । अब हमें उसका औना पौना हुलिया मालूम है, कल उधर कदम रखेगा तो मालूम पड़ जायेगा ।”
“कभी न कभी तो” - पिचड़ बोला - “आयेगा ही ।”
“नहीं आयेगा तो भी वान्दा नहीं । हमारी इलाके पर भी नजर होगी ।”
“मैं एक बात सोच रहा था ।” - इरफान बोला ।
“क्या, बाप ?”
“कोई उधर रेस्टोरेंट के संडास में बिलाल को खलास कर गया । कोई खड़े पैर सब सैट किया उधर ।”
“ये ही भीड़ू ? जेकब परदेसी ?”
“कोई भी । पण किया । मेरे को ये जानना मांगता है कि किसी को कैसे मालूम था कि वो उधर दगड़ी चाल के एक रेस्टोरेंट में पहुंचने वाला था ?”
“कैसे मालूम था ?”
“ऐन कील ठोक कर ठिकाना मालूम न सही, ये ही कैसे मालूम था कि वो भायखला का रुख करने वाला था ?”
“क्योंकि” - शोहाब धीरे से बोला - “उसने खुद कहा था कि उसकी फीस का बाकी रोकड़ा उसे दगड़ी चाल, भायखला से मिलने वाला था ।”
“बरोबर । बरोबर बोला वो ऐसा । मैं भी सुना । पण काम तो वो हुआ नहीं जिसका कि उसको बाकी रोकड़ा मिलने का था । काम हुआ होता तो बरोबर कि वो सीधा उधर पहुंचता ताकि उसका बाकी का रोकड़ा उसको जल्दी मिलता ।”
“उधर रिपोर्ट करना होगा कि काम नहीं हुआ ।”
“रिपोर्ट किधर किया उसने ? रिपोर्ट किधर मांगा कोई उससे ? उधर रेस्टोरेंट में तो कोई उसके पास भी न फटका ।”
“अब मैं तो उधर नहीं था न !”
“मैं था न ! मैं था ना ! वो तो थोड़ी देर उधर बैठा, संडास गया और उधरीच खलास । क्या ?”
“कोई इधर वाच करता होयेंगा ।” - बुझेकर बोला ।
“क्या बोला ?”
“कोई और भीड़ू इधर वाच करता होयेंगा कि बम फूटा या नहीं फूटा ।”
“वो ही भीड़ू” - इरफान सोचता हुआ बोला - “इधर होटल से हमारे पीछू लगा ?”
“हो सकता है ।”
“नहीं हो सकता ।” - विक्टर दृढता से बोला - “बाप, मैं फुल चौकस । मैं गारन्टी करता है होटल से कोई मेरी टैक्सी के पीछू नहीं लगा था । गारन्टी करता है कि अक्खे रास्ते भी कोई टैक्सी के पीछू नहीं था, कोई उधर दगड़ी चाल तक हमारे पीछू नहीं पहुंचा था । बाप, मैं बिग बॉस का डिरेवर । मेरा दो आंख आगे तो दो आंख पीछू...”
इरफान ने एकाएक मेज पर घूंसा मारा ।
विक्टर हड़बड़ा कर खामोश हो गया ।
“वो टैक्सी डिरेवर !” - इरफान उत्तेजित भाव से बोला - “जो बान्द्रा में मिला । जो उधर माहिम काजवे की लालबत्ती पर तेरी टैक्सी के बाजू में खड़ेला था । जो तेरे को नाम ले के पुकारा । अपना नाम भी बोला ।”
“जमीर मिर्ची !” - विक्टर के मुंह से निकला ।
“हां, मिर्ची । जिसका तू हालचाल पूछा और अपना बताया । क्या ?”
“वो अपना डिरेवर भाई है, जैसे जुहू एयरपोर्ट अपुन का पक्का अड्डा है वैसीच उसका भी...”
“अरे भाई गया तेल लेने, अड्डा गया तेल लेने, तब तू क्या बोला उसको ?”
“क्या बोला ?”
“बोला भायखला जाता है । वो पूछा किधर जाता है ? तू बोला भायखला । बोला कि नहीं बोला ?”
“बोला ।”
“बरोबर बोला । वो ही साला हलकट आगे किसी को खबर पहुंचाया कि बिलाल टैक्सी पर भायखला जाता था पण साथ में तीन भीड़ू और । क्या ?”
श्रोता प्रभावित दिखाई देने लगे ।
“ये मिर्ची करके भीड़ू ही हमारे दगड़ी चाल पहुंचने से भी पहले, एडवांस में, उधर किसी को सब बोल के रखा, तभी कोई ऐन हमेरी नाक के नीचे बिलाल को लुढकाने में कामयाब हुआ । अब मेरे को ये मिर्ची मांगता है । विक्टर, किधर रहता है वो ?”
“चिंचपोकली ।”
“चिंचपोकली में किधर ?”
“नहीं मालूम ।”
“क्या बकता है ?”
“यहीच मालूम कि चिंचपोकली में रहता है पण उधर किधर रहता है, नहीं मालूम । कभी अड्डे पर पूछा मिर्ची किधर रहता है तो बोला चिंचपोकली । शायद कभी पता भी बोला पण सुना नहीं ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“बाप, तू फिक्र नक्को कर । वो अपना डिरेवर भाई । जुहू एयरपोर्ट का टैक्सी स्टैण्ड उसका पक्का अड्डा । मिलेगा । डेफिनेट मिलेगा ।”
“बढिया । कल तू आकरे को पकड़ और अपने इस दोस्त जमीर मिर्ची को ढूंढने में लग । बुझेकर और पिचड़ कल का वो काम फिर पकड़ने का है जो आज भायखला में अधूरा छोड़ा । बरोबर ?”
सब के सिर सहमति में हिले ।
***
ब्रजवासी दरियागंज पहुंचा ।
वहां की टूटी फूटी लेकिन खाली पड़ी एक इमारत के एक हिस्से को भोगीलाल अपने आफिस की तरह इस्तेमाल करता था ।
“ये तो कमाल हो गया !” - भोगीलाल उसे देखते ही बोला - “ये तो अपना भैय्यन आ गया ! अरे, तन्ने कैसे बेरा हुआ कि मैं तन्ने याद कर रिया था ?”
“याद कर रहा था ?” - ब्रजवासी उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“जोरों से ।”
“वजह ?”
“अब जब अन्डरगिराउन्ड हो रहे हैं तो पता नहीं कब मिल बैठना हो पायेगा !”
“ठीक कहा । मैं इत्तफाक से दरियागंज से गुजर रहा था, मेरे मन में भी यही ख्याल आया था कि पता नहीं अब कब लाला से रूबरू मुलाकात का मौका मिलेगा, सो चला आया यहां ।”
“बढिया काम किया । इसी बात पर घूंट लगायें ?”
“जरूर - पता नहीं अब कब ऐसा मौका मिलेगा - लेकिन पहले एक मतलब की बात हो जाये ।”
“मतलब की बात ?”
“हां ।”
“यानी मिलने नहीं आया ! मतलब की बात करने आया !”
“तौबा, यार ! अरे, एक वक्त में दो काम नहीं हो सकते ?”
“हो सकते हैं । बोल मतलब की बात ।”
“अपनी जमींदोजी के दौरान मेरा दिल्ली से दूर निकल जाने का इरादा है ।”
“क्या बुराई है ?”
“कोई बुराई नहीं लेकिन मेरा शराब सप्लाई का जो धन्धा है, मेरे पीछे उसके बैठ जाने का अन्देशा है ।”
“तो ?”
“मैं चाहता हूं कि मेरी सप्लाई की हैंडलिंग भी तेरे आदमी करें ।”
“हूं । सिन्धी भाई को क्यों नहीं बोलता ?”
“क्योंकि उसकी लाइन नहीं है, सरदार की भी नहीं है लेकिन तेरी है । फर्क है तो ये कि तू नकली स्काच का धन्धा करता है जबकि मेरा धन्धा असली आई.एम.एफ.एल. (इन्डियन मैनूफैक्चर्ड फारेन लिकर) का है जो मैं एक्साइज अनपेड डिस्टिलरियों से निकलवाता हूं या उन प्रान्तों से स्मगल कराता हूं जहां शराब दिल्ली से सस्ती है जबकि तेरा काम घर बैठे हो जाता है ।”
“मेरी सप्लाई कम है । स्काच के ग्राहक थोड़े होते हैं ।”
“मेरा मार्जन कम है । लाला, तुझे कम सप्लाई में भी ज्यादा मुनाफा है, मुझे ज्यादा सप्लाई में भी काम मुनाफा है । तेरी एक बोतल आठ सौ से पन्दरह सौ तक की होती है, मेरी दो सौ से चार सौ तक की ।”
भोगीलाल बड़े धूर्त भाव से हंसा ।
“मैं भी तो गायब हो रिया हूं ।” - फिर वो बोला ।
“लाला, तेरे आदमी भरोसे के हैं, वो तेरी निगाहबानी के बिना भी ठीक काम करते हैं । मेरे आदमी इस मामले में नालायक हैं, मेरी गैरहाजिरी में भरोसे के काबिल नहीं हैं, इसलिये तेरे को बोल रहा हूं । अब बोल हां या न ?”
“न का के मतलब, भैय्यन । अरे यार का हुक्म सिर माथे ।”
“शुक्रिया । ये मेरी रेगुलर सप्लाई की लिस्ट है, पास रख ले । मेरा एक खास आदमी है जिसके कब्जे में स्टाक रहता है । चन्द्रेश सिंह नाम है उसका । ये उसका पता और मोबाइल नम्बर है । सप्लाई की बाबत जो हुक्म हो उसे बोलना ।”
“ठीक है ।”
“मैं निश्चिन्त हो जाऊं ?”
“हो जा ।”
“शुक्रिया । अब निकाल एक जोड़ी गिलास ।”
***
डिडोलकर मुम्बई पुलिस में डिप्टी कमिश्नर ऑफ के ऊंचे पद पर आसीन पुलिसिया था जो कि पूरी तरह से करप्ट था । ‘कम्पनी’ के जलाल के दिनों में ‘कम्पनी’ में उसका जिक्र ‘कम्पनी’ के हाथों बिका हुआ पुलिसिया के तौर पर होता था । बजातेखुद भी उसे ‘कम्पनी’ का पिट्ठू बनने में और कहलाने में कोई एतराज नहीं था क्योंकि उसने अपनी जिन्दगी में जो खूब मोटा पैसा पीटा था, वो ‘कम्पनी’ के सदके ही पीटा था ।
वो ‘कम्पनी’ का पुराना खादिम था और उसकी उस ऊंच नीच से भी वाकिफ था जो अमूमन आम शहरियों पर जाहिर नहीं हो पाती थी । ‘कम्पनी’ के पहले बादशाह राजबहादुर बखिया के वक्त वो ए.सी.पी. था और तब भी ‘कम्पनी’ की ड्योढी पर सिजदा उसका पसन्दीदा शगल था । बखिया ने उसे कभी ज्यादा मुंह नहीं लगाया था - क्योंकि काम बखिया के हुक्म से भी होना होता था तो उससे या बखिया का दायां हाथ जान रोडरीगुएज सम्पर्क करता था या उसके अन्डर में चलने वाला बड़ा ओहदेदार मुहम्मद सुलेमान उससे बात करता था - इकबाल सिंह के वक्त उसको सीधे उससे बात होती थी और गजरे का तो वो जैसे दोस्त ही बन गया था ।
अब ‘कम्पनी’ का सितारा गुरुब था और उसकी गद्दी खाली थी लेकिन, वो जानता था कि, हमेशा खाली नहीं रहने वाली थी । उसे उस दिन का बड़ी शिद्दत से इन्तजार था जबकि कोई बड़ा बाप आकर ‘कम्पनी’ की खाली गद्दी पर काबिज होता, अपने जलाल से ‘कम्पनी’ के मुर्दे में जान फूंकता, ‘कम्पनी’ की ताकत की तपिश फिर हर किसी को महसूस होती और ‘कम्पनी’ के दरबार में फिर उसकी भी पहले जैसी पूछ बनती ।
अभी हाल ही में जब उसे पता लगा था कि होटल सी-व्यू फिर चालू हो गया था तो उसने बड़े आशापूर्ण ढंग से यही समझा था कि जो उसने सोचा था, वो आखिरकार होने जा रहा था लेकिन जल्द ही उसे हकीकत मालूम हुई कि होटल को किसी अनिवासी भारतीय ने लीज पर लिया था और वो होटल की तरह ही चल रहा था ।
वो खबर मायूस करने वाली थी लेकिन उसे यकीन था कि जो चल रहा था, वो चलता नहीं रहने वाला था । या तो उस अनिवासी भारतीय में ही कोई भेद निकल आने वाला था, या फिर कोई बड़ा बाप आकर उसके पेंदे पर लात मारने वाला था और उसे वहीं पहुंचा देने वाला था जहां से कि वो आया था ।
या फिर इतना बड़ा समन्दर तो था ही वाहिद एन.आर.आई. की लाश ठिकाने लगाने के लिये ।
यही वजह थी कि उस शाम जब वो आफिस से अपने घर लौटा और उसके पीछे पीछे ही इनायत दफेदार वहां पहुंच गया और उसने अपने आप को ‘भाई’ का आदमी बताया तो वो कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गया कि ‘भाई’ ही वो शख्स था जो ‘कम्पनी’ की उजड़ी कायनात को, बाजरिया अपने किसी खासुलखास, फिर आबाद कर सकता था, करने जा रहा था ।
“डिडोलकर साहब” - दफेदार बोला - “‘भाई’ ने मुझे खास आपके पास इसलिये भेजा है क्योंकि उसे मालूम है कि ‘कम्पनी’ के बड़े आकाओं से आपके करीबी ताल्लुकात थे । आपके ‘कम्पनी’ के बड़े आकाओं से करीबी ताल्लुकात थे और बड़े आकाओं से ‘भाई’ के करीबी ताल्लुकात थे, लिहाजा ‘भाई’ का ये सोचना गलत नहीं है कि आप उसके उतने ही काम के आदमी साबित हो सकते हैं जितने कि आप ‘कम्पनी’ के काम के साबित होते थे । क्या कहते हैं आप ?”
“क्या कहूं ?” - डिडोलकर भावहीन स्वर में बोला ।
“अभी तो इतना ही कहिये, तसदीक कीजिये कि ‘भाई’ ने आपकी बाबत जो राय कायम की है, वो गलत नहीं है ।”
“‘भाई’ सुना है कि बहुत काबिल शख्स है, कोई गलत राय कैसे कायम कर सकता है ?”
“लिहाजा आपने तसदीक की कि आप ‘भाई’ के काम आ सकते हैं ?”
“भई, एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है ।”
“बजा फरमाया । जवाब में अर्ज है कि जो ‘भाई’ के काम आता है, ‘भाई’ उसके काम जरूर आता है ।”
“फिर क्या बात है !”
“‘भाई’ राजी होगा तो वो आपको राजी क्यों नहीं करेगा ?”
“गुड । अब बोलो, काम क्या है ?”
“आप यहां कोई टेप वेप लगा कर तो नहीं रखते ?”
“किसलिये ?”
“आपको मालूम है किसलिये !”
“हम बाहर लॉन में चल कर या सड़क पर चल कर बात कर सकते हैं ।”
“जरूरत नहीं । पण बोलना जरूरी था ।”
“क्यों ?”
“आपने ऐसा कुछ किया तो ‘भाई’ बहुत खफा होगा, फिर एक हाथ दूसरे हाथ को धोयेगा नहीं उसे कन्धे से उखाड़ देगा ।”
“डोंट टॉक नानसेंस । ‘भाई’ के आदमी के साथ ऐसे पेश आने का मैं ख्याल भी नहीं कर सकता ।”
“बढिया ।”
“अब बोलो क्या काम हैं ?”
“एक आदमी को एक्सपोज करना है ।”
“क्या प्राब्लम है ?”
“एक रसूख वाले आदमी को एक्सपोज करना है ।”
“ओह ! कौन है वो ?”
दफेदार ने बताया ।
“हूं ।” - डिडोलकर बोला - “मैंने इकनॉमिक टाइम्स के कार्पोरेट न्यूज सैक्शन में अभी परसों ही पढा था कि होटल सी-व्यू फिर बिजनेस करने लगा था और उसे राजा गजेन्द्र सिंह नाम के किसी नैरोबी के एन.आर.आई. ने लीज पर लेकर चालू किया था । भेद क्या है इसमें ? वो राजा नहीं है, एन.आर.आई. नहीं है या नैरोबी से नहीं है ?”
“वो सोहल है ।”
“सोहल ! कौन सोहल ?”
“वही जो इश्तिहारी मुजरिम है, जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख का ईनाम है और बमय मुम्बई आधे हिन्दोस्तान की पुलिस को जिसकी तलाश है ।”
“वॉट नानसेंस ! एक इश्तिहारी मुजरिम इतना बड़ा कार्पोरेट बॉस कैसे बन सकता है ?”
“बना हुआ है ।”
“कैसे ? ये करोड़ों, बल्कि अरबों का खेल है । कैसे वो इतना पैसा इनवैस्ट कर सकता है ? वो भी खुलेआम और वाइट में ?”
“वो क्या है कि...”
“मेरे ‘कम्पनी’ से पुराने ताल्लुकात थे इसलिये मुझे बाखूबी मालूम है कि ‘कम्पनी’ की होटल सी-व्यू की मिल्कियत की बुनियाद ओरियन्टल होटल एण्ड रिजार्ट्स लिमिटिड, जो कि होटल के मालिकान हैं, के बीस पर्सेंट शेयर थे । उन शेयरों की मार्केट वैल्यू चुकाये बिना कोई होटल पर काबिज नहीं हो सकता और वो कोई इश्तिहारी मुजरिम नहीं चुका सकता, भले ही उसके अपने कारनामों से कितना ही रोकड़ा पीटा हुआ हो ।”
“आप समझते नहीं हैं ।”
“क्या नहीं समझता मैं ?”
“वो फाइनांशल घुंडी उस आदमी ने कैसे खोली, ये एक जुदा मसला है, आप ये मान के चलिये कि ओरियन्टल का मेजर शेयर होल्डर बनने का काम उसने कैसे भी किया, कर लिया ।”
“कैसे किया क्या मतलब ? वो एन.आर.आई. है । नैरोबी में अरबों कमायें होंगे उसने तभी तो हिन्दोस्तान लौटा ।”
“किसने ?”
“राजा गजेन्द्र सिंह ने ।”
“आप सुन नहीं रहे हैं ।” - दफेदार झुंझला कर बोला - “समझ नहीं रहे हैं । अरे, वो कोई राजा-वाजा नहीं है, कोई एन.आर.आई. नहीं है, वो सोहल है । सोहल । लोकल गैंगस्टर जिसने इत्तफाक से तरक्की कर ली है तो अपने आपको खुदा से दस हाथ ऊंचा समझने लगा है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“बस है मालूम किसी तरीके से ।”
“कैसे मालूम है ?”
“अरे, मुझे नहीं मालूम, ‘भाई’ को मालूम है । अब ‘भाई’ को कैसे मालूम है, ये न पूछियेगा क्योंकि वो एक लम्बी कहानी है । जब ‘भाई’ बोलता है कि वो आदमी सोहल है तो है वो सोहल ।”
“सोहल पहले सिख ही था । तुम्हारा मतलब है कि वो दाढी मूंछ बढा कर फिर सिख बन गया है ?”
“दाढी मूंछ नकली है ।”
“कैसे मालूम ?”
“ऐसे लोगों के जरिये मालूम जिन्होंने हाल ही में चौबीस घन्टे के वक्फे में उसे दाढी मूंछ के साथ भी देखा और दाढी मूंछ के बिना भी देखा ।”
“कौन हैं वो लोग ? कहां पाये जाते हैं ?”
“नहीं बताया जा सकता पण जो मैं बोला वो सौ टांक सच है ।”
“भाई’ उसे एक्सपोज क्यों करना चाहता है ?”
“क्योंकि वो सोहल है ।”
“मैंने पूछा, एक्सपोज क्यों करना चाहता है ?”
“बोला तो । क्योंकि वो सोहल है । बाप, एक्सपोज होगा तो क्या होगा ? गिरफ्तार होगा । गिरफ्तार होगा तो अन्दर बैठेगा और फिर वक्त आने पर फांसी पर झूलेगा ।”
“यानी कि ‘भाई’ यूं उसे रास्ते से हटाना चाहता है ।”
“अब समझा, बाप ।”
“लेकिन राजा गजेन्द्र सिंह, सी-व्यू का मौजूदा मालिक, सोहल ? यकीन नहीं आता ।”
“जब ‘भाई’ बोलता है तो यकीन करने का है, बाप ।”
“अरे मेरे भाई, ‘भाई’ के दोस्त भाई, मैं यकीन कर भी लूंगा तो क्या होगा ? तुम क्या समझते हो कि मैं सी-व्यू जाऊंगा, राजा गजेन्द्र सिंह से मीटिंग की मांग करूंगा और जब मीटिंग होगी तो मैं उसकी दाढी नोच लूंगा ! या उसे हुक्म दूंगा कि वो खुद अपनी दाढी उतार कर मेरे सामने रख दे ! मेरी मजाल नहीं हो सकती ऐसा करने की । ‘भाई’ के शुकराने के लालच में या उसकी धमकी के तहत मैंने ऐसा कर भी डाला और दाढी नकली न निकली तो जानते हो मेरा क्या अंजाम होगा ?”
“जरूर निकलेगी ? जब वो सोहल है तो....”
“अभी पहले वो एक वी.वी.आई.पी. है, रुतबे और रसूख वाला बड़ा आदमी है, एक एन.आर.आई. है और एन.आर.आइज. को राज्यों की सरकारें तो क्या, केन्द्रीय सरकार भी आजकल गोद में बिठाती है । मेरे भाई, ऐसे आदमी पर कोई इल्जाम लगाने के लिये, वो भी इतना बड़ा इल्जाम लगाने के लिये कि वो एक लोकल इश्तिहारी मुजरिम है, कोई बहुत बड़ी और बहुत पुख्ता बुनियाद होनी चाहिये । किधर है वो ?”
“बुनियाद पैदा कीजिये, इसीलिये तो ‘भाई’, ने मुझे आपके पास भेजा है ।”
“गलत भेजा है । ये काम जैसे तुम चाहते हो वैसे मैं तो क्या खुद कमिश्नर नहीं कर सकता । वो सी-व्यू का रुख भी करेगा तो स्टेट होम मिनिस्टर की या खुद चीफ मिनिस्टर की हाजिरी भर रहा होगा । राजा साहब की एक टेलीफोन कॉल उसकी वर्दी उतरवा देगी ।”
“ओफ्फोह ! आप हर बात ये गांठ बांध कर कह रहे हैं कि वो राजा साहब हैं । अरे, बोला न वो सोहल है ।”
“मेरे किये या कमिश्नर के लिये उसकी शान में कोई गुस्ताखी होने पर होम मिनिस्टर को या चीफ मिनिस्टर को फोन एन.आर.आई. राजा गजेन्द्र सिंह लगायेगा या इश्तिहारी मुजरिम सोहल लगायेगा ?”
“उसकी मजाल नहीं हो सकती ऐसा करने की ।”
“जब होगी तो आकर हथेली ‘भाई’ लगायेगा या तुम लगाओगे ?”
दफेदार के मुंह से बोल न फूटा ।
“देखो” - डिडोलकर उसे समझाता हुआ बोला - “सरकारी मुलाजमत में हर काम का एक कायदा होता है, दस्तूर होता है....”
“कायदे दस्तूर की बात तो आप न ही करें तो अच्छा होगा” - दफेदार चिड़े स्वर में बोला - “‘भाई’ ने कायदे दस्तूर से काम करवाना होता तो उसने मुझे आपके पास न भेजा होता, जुहू पुलिस स्टेशन भेजा होता जहां मैं एस.एच.ओ. के सामने सोहल कि मुखबिरी कर रहा होता कि वो सी-व्यू में राजा साहब बना बैठा था ।”
“नतीजा जानते हो क्या होता ?”
“क्या होता ?”
“बेवड़ा जान के बन्द कर दिये जाते और तब तक डण्डा परेड होती जब तक नशा न उतर जाता ।”
“कैसा नशा ?”
“वैसा नशा जिसके हवाले कोई ऐसी बेपर की उड़ाता है ।”
“लाहौल !”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“तो फिर” - आखिरकार दफेदार बोला - “मैं क्या जवाब दूं ‘भाई’ को ?”
“यही जवाब दो” - डिडोलकर गम्भीरता से बोला - “कि ये काम ऐसे नहीं हो सकता ।”
“तो कैसे हो सकता है ? जवाब ये सोच कर देना कि काम तो होना ही है ।”
“मैं सोचूंगा इस बाबत । दिल से कह रहा हूं ।”
“कब तक सोचेंगे ?”
“एक दो दिन तो सब्र करो, यार ।”
“कल इसी वक्त मैं आपसे बात करूंगा ।”
“मैं एक दो दिन बोला, भई ।”
“तो परसों शाम ?”
“परसों शाम मैंने कहीं जाना है, आधी रात के बाद वापिसी होगी । तुम शनिवार सुबह कान्टैक्ट करना ।”
“ठीक है । पण आपकी सोच शनिवार सुबह से पहले कोई रास्ता निकालने में कामयाब हो गयी तो मुझे कैसे खबर लगेगी ?”
“तुम बोलो ।”
जवाब में दफेदार ने उसे अपना मोबाइल नम्बर लिखवाया और वहां से रुख्सत हो गया ।
***
मुम्बई से कोई नब्बे किलोमीटर दूर पनवल और नेराल के बीच एक ऊबड़ खाबड़ इलाका था जो कि पूरी तरह से पेड़ों से ढंका हुआ था । उस इलाके का जो सबसे ऊंचा हिस्सा था - इलाके के पुराने और खास जानकर लोग ही जानते थे कि - उसका नाम विंस्टन प्वायंट था । उस पर एक आलीशान बंगला था जो कि नीचे से कतई दिखाई नहीं देता था और उसकी बाबत भी खास जानकार ही जानते थे कि वहां कोई ऐसा गोरा साहब रहता था जिसने कि पार्टीशन के बाद भारते छोड़ना जरूरी नहीं समझा था । उस बंगले की जो खास खूबी थी वो ये थी कि कोई उस तक एकाएक नहीं पहुंच सकता था । उस तक जो मोटरेबल रोड पहुंचती थी, बंगले से उस पर तो निगाह रखी ही जाती थी और भी पगडण्डी जैसे या पगडण्डी से बड़े जो रास्ते उस तक पहुंचते थे, उन पर बराबर निगाह रखी जाती थी । कोई अवांछित व्यक्ति उनमें से किसी रास्ते पर कदम रखता था तो उसे रोका जाता था, हतोत्साहित किया जाता था, कोई फिर भी नहीं मानता था तो उसके साथ जोर जबरदस्ती करने की जगह तत्काल उसकी खबर बंगले में कर दी जाती थी । ऐसे व्यक्ति या व्यक्कियों ने ऊपर जाते किसी रास्ते पर अभी कदम ही डाला होता था कि ऊपर उनके स्वागत की, या उनसे आमने सामने से बचने की, तमाम तैयारी कर भी डाली जाती थी । फिर जैसा वो शख्स होता था - या होते थे - वैसा ही उसके साथ व्यवहार किया जाता था ।
विंस्टन प्वायंट का वो बंगला वैसा ही ‘भाई’ का अस्थायी आवास था जैसा कि पूना वाली कोठी थी या मुम्बई के अरब सागर की ओर वाले सी फेस पर दहिशर और सतपती के बीच के बीच वाला कॉटेज था जो कि ऐसी उजाड़ जगह पर बना हुआ था कि किसी को ये भी इमकान नहीं होता था कि वो आबाद था । विंस्टन प्वायंट के उस बंगले में एक दो सीटों वाला खिलौना सा हैलीकॉप्टर भी उपलब्ध था जो कि आज तक इस्तेमाल में नहीं लाया गया था लेकिन पुलिस की कोई बड़ी रेड पड़ने की सूरत में - जबकि आज तक बड़ी तो क्या किसी छोटी रेड की नौबत नहीं आयी थी - एक मिनट के नोटिस पर इस्तेमाल के लिये तैयार पाया जाता था ।
ऐसी नामालूम और एकदम सेफ जगह पर इनायत दफेदार अपने बॉस की हाजिरी भरने पहुंचा ।
“क्या खबर है ?” - ‘भाई’ बोला ।
“दिल्ली से नाग साहब का भेजा एक आदमी भिंडी बाजार पहुंचा था । उधर ट्रैवल एजेन्सी में ये” - दफेदार ने ‘भाई’ के सामने एक मोबाइल फोन रखा - “छोड़ कर गया । मैं पहुंचाने आया ।”
“बढिया । चौकस है ?”
“फोन नहीं चलता पण सिम कार्ड चौकस है ।”
“टैस्ट किया ?”
“हां ।”
“कैसे किया ?”
“इसका सिम कार्ड अपने फोन में लगाया, फोन बराबर चला । अपना सिम कार्ड इस फोन में लगाया, ये फोन नहीं चला ।”
“कोई वान्दा नहीं । मेरे को सिम कार्ड ही चौकस मांगता था । नया फोन है इधर मेरे पास । और ?”
“होटल की लॉबी में बम छोड़ने वाला प्रोग्राम नहीं चला । आगे भी नहीं चलेगा । वो लोग पहले से चौकस थे अब और चौकस हो जायेंगे ।”
“पहले से चौकस थे ?”
“हां, बाप । बिलाल उधर हाथ के हाथ पकड़ा गया ।”
“ये तो बुरा हुआ ।”
“काम नहीं बना, बाप, पण बुरा कुछ नहीं हुआ ।”
“मतलब ?”
“लुढका दिया ।”
“ओह ! लुढका दिया । फिर क्या वान्दा है ?”
“वान्दा नहीं, बाप, अफसोस है । ऐन फिट स्कीम थी, कामयाब हो जाती तो कमर टूट जाती सोहल की ।”
“तकदीर वाला है साला हलकट ।” - दिल्ली का वाकया याद करता ‘भाई’ बोला ।
“बाप, तकदीर हमेशा किधर किसी का साथ देती है ?”
“इसका भी नहीं देगी । डिडोलकर से मिला ?”
“हां, बाप । आज ही मिला । अभी सीधा उसी की कोठी पर से आ रहा हूं ।”
“क्या बोला ?”
दफेदार ने बताया ।
“दो दिन !” - सुनकर ‘भाई’ भुनभुनाया - “दो दिन जवाब देने में लगायेगा ?”
“ऐसीच बोला, बाप । शनिवार सुबह के लिये बोला तो दो के भी ढाई ही हुए ।”
“उसके बाद क्या जवाब देगा ? ये कि वो कुछ नहीं कर सकता ?”
“गुस्ताखी माफ, बाप, उसने ऐसा जवाब देना होता तो दे भी चुका होता ।”
“यानी कि कुछ करेगा ?”
“बरोबर करेगा, बाप ।”
“दो दिन हाथ पर हाथ रख कर बैठे नहीं रहा जा सकता । मेरे सिर पर फिगुएरा की धमकी की तलवार लटक रही है, मैंने एक महीने में सोहल को टपकाने में कामयाब होकर दिखाना है जबकि ग्यारह दिन गुजर भी चुके हैं । डिडोलकर का जवाब आता रहेगा, तब तक हमें कुछ और भी करना होगा ।”
“क्या, बाप ?”
“खामोश रह । सोचने दे ।”
दफेदार चुप हो गया ।
‘भाई’ कुछ क्षण कुर्सी पर बुत बना बैठा रहा, फिर उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगा ।
“मेरे उस्ताद का सबक है” - चहलकदमी करते वो यूं बोला जैसे स्वत: भाषण कर रहा हो - “कि पहले वार करो, तगड़ा वार करो । लड़ाई का पहला उसूल बताता था वो इसे लेकिन कैसे करें ? कैसे जाने कि कौन सा वार सोहल के लिये तगड़ा साबित होगा ?”
दफेदार खामोश रहा ।
पांच लम्बे मिनट यूं ही गुजरे ।
आखिरकार वो वापिस अपनी कुर्सी पर ढेर हुआ ।
दफेदार ने आशापूर्ण निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
“बारबोसा ।” - ‘भाई’ बोला ।
“क्या बोला, बाप ?” - दफेदार हड़बड़ाया सा बोला ।
“जो सारे एशिया में सुपारी उठाता है । विलायती अन्दाज में अपने आपको कान्ट्रैक्ट किलर बोलता है ।”
“अच्छा, वो बारबोसा ।”
“हां । कुछ मालूम है किधर है वो आजकल ?”
“पता करना पड़ेगा ।”
“कर । आजकल में काबू में आये तो मेरे से बात करा ।”
“उसको सुपारी देने का है, बाप ?”
“हां ।”
“किसकी ?”
“राजा गजेन्द्र सिंह की ।”
“ओह ! पण....”
“क्या पण ?”
“डर के बोलता है, बाप ।”
“अब कुछ कह भी ।”
“ये चौतरफा तैयारी जरूरी बाप ? डिडोलकर को बोला, अभी बारबोसा को बोलेंगे, मैं तो है ही, अभी आगे....”
“आगे भी है कुछ ।”
“बारबोसा के अलावा ?”
“हां ।”
बड़ी मुश्किल से दफेदार ने अपने बॉस से अपनी असहमति अपने चेहरे पर झलकने देने से रोकी ।
“कोई वान्दा नहीं है ।” - ‘भाई’ बोला - “सब चलने दे । कोई तो तीर निशाने पर बैठेगा । कोई तो कामयाब होगा । जब कोई एक कामयाब हो जायेगा तो बाकी वैसे ही गैरजरूरी हो जायेंगे । नहीं ?”
“हां ।” - दफेदार नकली उत्साह से बोला - “बरोबर, बाप ।”
“दिल्ली के वाकये के बाद से सोहल को यकीनी तौर पर मालूम है कि उसको लुढकाया जायेगा । उधर फिगुएरा उससे साफ बोला कि अगर वो ‘कम्पनी’ की खाली गद्दी कबूल करके दुश्मनी खत्म नहीं करेगा तो दुश्मन को - उसे - खत्म कर दिया जायेगा । अपनी जिन्दगी में छोटा अंजुम उसे पहले ही बता चुका था कि उसको खत्म करने का काम ‘भाई’ को सौंपा गया था । मरने से बचने का एक तरीका मारना भी होता है जो कि सोहल अख्तियार करेगा, कर चुका है । मुझे भी और दिल्ली वालों को भी ।”
“आपको भी, बाप ?”
“अरे, उसका तो बस चले तो फिगुएरा को भी ।”
“तौबा ! ऐसी दीदादिलेरी !”
“दिल्ली में सोहल के बच निकलने के बाद से दिल्ली वालों के तो होश उड़े हुए हैं । जमींदोज हो गये हैं चारों के चारों सोहल के खौफ के सताये और इधर अपील लगा रहे हैं कि ‘भाई’ जल्द-अज-जल्द सोहल को लुढकाने का सामान करे ताकि उनकी जान में जान आये ।”
“इस वास्ते चौतरफा इन्तजाम ?”
“हां । लेकिन उनके लिये नहीं, अपने लिये । पहले घर में चिराग जलाया जाता है, फिर मस्जिद की फिक्र की जाती है ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“इस खूनी खेल में एक मामले में हम सोहल से आगे हैं लेकिन अफसोस है कि उसका हमें कोई फायदा नहीं पहुंच रहा ।”
“मैं समझा नहीं, बाप ।”
“हम जानते हैं सोहल कहां पाया जाता है लेकिन सोहल नहीं जानता कि ‘भाई’ कहां पाया जाता है !”
“ओह ! बरोबर बोला, बाप ।”
“दूसरी बात, उसे इस बात पर एतबार नहीं है कि ‘भाई’ दुबई में पाया जाता है । वो समझता है कि ये ‘भाई’ की खुद की फैलाई अफवाह है ताकि इधर, मुम्बई में या आसपास, उसकी तलाश न हो ! अपना ये शक उसने खुद अपनी जुबानी छोटा अंजुम पर जाहिर किया था ।”
“बाप, आजकल तो ये बात हकीकत बनी हुई है ।”
“हां । इत्तफाकन बनी हुई है लेकिन बनी हुई है । अब आजकल में अगर सोहल को कोई ऐसा भीड़ू मिल जाये जो ‘भाई’ का पता मालूम होने का दावा करे तो सोच, वो क्या करेगा ?”
“वो ऐसे भीड़ू को हाथों हाथ लेगा ।”
“मिल कैसे जाये ?”
“मिल कैसे जाये ?” - दफेदार सोचता हुआ बोला - “होटल पहुंच जाये ? नहीं । उधर कौन मानेगा कि सोहल वहां पाया जाता था ?”
“सही जा रहा है । और सोच ।”
“दायें बायें फैला दे कि उसके पास सोहल के मतलब की बड़ी कांटे की जानकारी थी, बात सोहल तक जरूर पहुंचेगी, फिर वो खुद उससे तार जोड़ेगा ।”
“मियां, वो बहुत काईयां आदमी है, वो ऐसी किसी अफवाह को अपने खिलाफ चाल समझ सकता है ।”
“तो ?”
“कान को दूसरे तरीके से पकड़ना होगा ।”
“कैसे ?”
“कोई भरोसे का आदमी पकड़ और उसके जेल जाने का इन्तजाम कर ।”
“मैं समझा नहीं, बाप ।”
“मैंने अभी समझाया किधर है ?”
“ओह ! ओह !”
फिर धीरे धीरे ‘भाई’ ने इनायत दफेदार को समझाना शुरू किया ।
‘शेर सवारी’ में जारी
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