“अब भी मान जाओ दिव्या । अब भी मान जाओ मेरी बात।" कसमसाता सा देवांश कहता चला जा रहा था- -“छोड़ो बीमा कम्पनी से मिलने वाली रकम का लालच और ठकरियाल का फेर ! आखिर वही हो रहा है जिसका मुझे डर था | सीधे-साधे राजदान के हत्यारे साबित होने वाले हैं हम । इससे बेहतर है, वह जुर्म कुबूल कर लें जो किया है। अखिलेश के पास चलो । वह हमें बता ही गया है कि सेन्टूर होटल के सुईट नम्बर छः सौ बारह में ठहरा है। उसके पास नहीं तो सीधे एस. एस. पी. के पास चलो। राणा को ही बता दो सबकुछ।”
“तुम समझ क्यों नहीं रहे देव! सचमुच अब हमें कुछ भी स्वीकार करने से कोई फायदा नहीं है।”
“कुछ और फायदा हो न हो मगर एक फायदा जरूर है। भले ही जेल में रहें मगर सुकून से रहेंगे।"
“मतलब?”
“गौर करो --- जब से वह मरा है, तब से क्या चैन की एक भी सांस ले सके हैं ?” देवांश उसे कन्विंस करने की भरपूर कोशिश कर रहा था --- “इधर उसने आत्महत्या की उधर बाथरूम का दरवाजा खटखटाया जाने लगा । हमारी ऊपर की सांस ऊपर, नीचे की नीचे रह गयी । भाग-दौड़ मचाई। पता लगा वह ठकरियाल था। तब से शुरू होकर यहां का पहुंच चुके सिलसिले पर गौर तो करो तुम । आज तीसरी रात है, न सोना मिला है न खाना|
एक क्षण भी तो ऐसा नहीं आया जिसे अपना कहा जा सके। कानून की शरण में जाकर कम से कम चैन से मरना तो मिल जायेगा हमें ।"
"मैं जेल से नहीं डरती देव। उस मंजर से डरती जब लोगों को मेरे और तुम्हारे सम्बन्धों के बारे में पता लगेगा और.. हमने ऐसा किया तो ठकरियाल कह चुका है वह यह भेद सब पर खोल देगा । "
“मैं कहता हूं खोल दे । यह स्थिति भी हमारी आज की स्थिति से बेहतर होगी।"
“नहीं देव। मैं लोगों को अपने ऊपर थूकते नहीं देख सकती ।”
“उफ्फ ! ... मरने भी तो नहीं दे रहा हमें वह मरा हुआ शैतान !” दांत किटकिटाकर देवांश कहता चला गया “अच्छे भले हम उसी वक्त अपना जुर्म कुबूल कर रहे थे। वो साला ठकरियाल पाला बदल बैठा। तुम उसके चक्कर में आ गईं और..
“प्लीज ! प्लीज देव! धीरे बोलो । वह ठकरियाल आता होगा । उसने सुन लिया तो..
“तुम डरती होगी उस कमीने से। मैं नहीं डरता।" देवांश बुरी तरह उत्तेजित था - -- “बड़ा समझदार बनता था खुद को । पुराना खिलाड़ी बताता था इस किस्म के खेलों का । उसने हर बार दावा किया कि अब... अब वह राजदान की सारी साजिश को समझ गया । मगर अगले ही पल, हर बार मुंह की खाई । अरे, उससे बेहतर तो मेरी ही समझ में आ रहा है राजदान का जाल | कोई ज्यादा दिमाग भिड़ाने की जरूरत भी नहीं है उसे समझने के लिए। खुद उसी के अंतिम शब्दों पर गौर कर लिया जाये तो सब कुछ क्लियर है । वह न हमारी मौत चाहता था न वह जिन्दगी जिसे हम जी सकें। देखो --- वही हालत बना दी है उसने हमारी । उसके पास मेरा फोटो है । वह चाहे तो उसे 'रिलीज' करके एक सेकण्ड में हमें जेल पहुंचा दे । वह एकमात्र फोटो यह साबित करने के लिए काफी होगा कि बबलू को हमने फंसाया | मगर वह उसे 'रिलीज' नहीं करता । उल्टा बबलू से जुर्म कुबूल कराता है। उसे जेल से फरार करा लेता है। किचन लॉन और बाथरूम में हमें डराने की कोशिश करता है। अखिलेश को भेज देता dhinda । उसके लेटर में हमारे नाम साफ-साफ लिख सकता था मगर नहीं लिखता । क्यों ?... जवाब साफ है दिव्या, वह एक ही झटके में खेल खत्म नहीं कर देना चाहता । वह हमें आतंक के साये में जीने पर मजबूर करना चाहता है।
अखिलेश को नंगी तलवार बनाकर हमारी गर्दन पर टांग देता । मगर गर्दन पर गिरने नहीं देता उसे । यही सब तो कहा था उसने --- यह कि न वह हमें मरने देगा न जीने देगा | उसके इस चक्रव्यूह से निकलने का एक और सिर्फ एक ही रास्ता है। वही, जिसका फैसला हम तब कर चुके थे जब ठकरियाल को बाथरूम में समझ रहे थे ।”
दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला था कि कॉलबेल बज उठी ।
दोनों को झटका सा लगा ।
दिव्या के मुंह से निकला--- "ठकरियाल आ गया।”
“आने दो। .... अब मैं उसके किसी फेर में नहीं पडूंगा । करके ही रहूंगा फैसला ।”
“नहीं देव । उससे यह बात मत कहना | वह पहले ही चेतावनी दे चुका है कि...
“मुझे किसी चेतावनी की परवाह नहीं है और फिर, वे हालात दूसरे थे । जब से अखिलेश आया है तब से तो खुद उसी की फूंक सरकी हुई है अंतिम संस्कार के बाद जब सब लोग चले गये थे, तब देखा नहीं था उसे ? श्मशान में अखिलेश ने जो किया और कहा उसे बताते वक्त खुद उसी की सिट्टी-पिट्टी गुम थी । उसकी हर बात का मतलब एक ही था । यह कि अखिलेश बहुत जल्द हमें राजदान का हत्यारा साबित करने वाला है । "
कालबेल एक बार फिर बजी ।
“धीरे बोलो देव ।” दिव्या फुसफुसाई --- “वह बाहर ही खड़ा है।"
इस बार देवांश बगैर कुछ कहे विला के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा |
इस वक्त वे लम्बी चौड़ी लॉबी में थे ।
केवल एक बल्ब ऑन था ।
न सभी पर्दे खिड़कियों पर खिंचे हुए थे ताकि बाहर से पता न लग सके अंदर की लाइटें ऑन हैं ।
देवांश ने एक झटके से दरवाजा खोल दिया ।
और।
यूं खड़ा रह गया अपने स्थान पर जैसे पत्थर की मूर्ति में बदल गया हो ।
जैसे समझ न पा रहा हो उसकी आंखें आखिर देख तो देख क्या रही हैं?
वैसी हालत हो गयी थी जैसे अचानक किसी मोड़ पर मुड़ते ही खुद को बब्बर शेर के सामने पाकर हिरन की हो जाती । न हिल सका, न डुल सका । पलकें तक न झपक सकीं। पल भर में आंखें मानो कांच की बेजान गोलियों में बदल गयी थीं ।
हिप्नोटाइज सा हो गया वह ।
“क्या हुआ देव ?” दिव्या ने पूछा।
तब कहीं जाकर देवांश के हलक से चीख निकली।
कुछ इस तरह पलटकर दरवाजे से सीधा लॉबी के फर्श पर आ गिरा जैसे किसी शक्तिशाली स्प्रिंग ने रबर के बबुए पर उछाल दिया हो ।
उसी क्षण, दिव्या के हलक से भी चीख निकली ।
दरअसल उसकी नजर भी दरवाजे पर खड़े शख्स पर पड़ चुकी थी ।
चीखने के साथ घबराकर दिव्या ने गैलरी की तरफ भागना
चाहा ।
“खबरदार !” लॉवी में राजदान की गुर्राहट गूंजी ---“एक कदम भी बढ़ाया तो ढेर कर दूंगा ।”
दिव्या जहां की तहां जाम हो गई ।
जैसे वह लोहे में और फर्श चुम्बक में तब्दील हो गया हो ।
हाथ में रिवाल्वर लिए वह लाबी में दाखिल हुआ।
वह
जो वही था, जो सत्यप्रकाश, सुजाता और स्वीटी से मिला था।
देवांश उसकी तरफ यूं देख रहा था जैसे लोग मिस्र के पिरामिडों को देखते हैं ।
फटी-फटी आंखों से उसे देखता वह 'स्लो मोशन' में खड़ा हो गया ।
दिव्या की हालत उससे भी ज्यादा खराब थी । पीले चेहरे के साथ वह जूड़ी के मरीज की मानिन्द कांप रही थी। लाख कोशिशों के बावजूद दोनों में से किसी के मुंह से आवाज न निकल सकी ।
कुछ और आगे बढ़ते राजदान ने क्रूर मुस्कान के साथ कहा--- "मैंने ढेर कर देने के लिए कहा और तुम जाम हो गईं। यानी मरना नहीं चाहतीं। अब भी मरना नहीं चाहती तुम । ठीक भी है। इंसान भले ही चाहे जिन हालातों में हो। भले ही जिन्दगी से इतना आजिज आ चुका हो कि भगवान से बार-बार मौत मांग रहा हो लेकिन मौत जब झपटती है --- मौत को जब आदमी अपनी तरफ लपकते देखता है तो छटपटाता ही है उससे बचने के लिए। बहुत ही कष्टप्रद काम है मरना। मैं खुद भुक्तभोगी हूं। न होता तो इस वक्त तुम्हारे सामने न खड़ा होता । मरने की कितनी ख्वाहिश थी मेरी! कितनी शिद्दत से चाहता था अपनी मौत लेकिन जब वक्त आया तो पलायन कर गया। नहीं जुटा सका खुद में में मरने का साहस । मुझसे ज्यादा जिगरवाला तो वही निकला । वह, जो अपनी बेटियों की खातिर हंसते-हंसते तुम्हारी आंखों के सामने मर गया।"
“झूठ बोल रहे हो तुम ! बकवास कर रहे हो !” खुद को काफी हद तक संभाल चुका देवांश चिल्ला उठा देवांश चिल्ला उठा - "डराने की कोशिश कर रहे हो हमें | मगर.... मगर हम तुम्हारे इस फेसमास्क से डरने वाले नहीं हैं। अच्छी तरह जानते हैं तुम वो नहीं हो सकते ।”
राजदान के होठों पर मौजूद मुस्कान कुछ और गहरी, कुछ और जहरीली हो उठी । बोला --- “आओ! नजदीक आओ । मेरे । और चैक करो। मेरे चेहरे पर मास्क है तो उतार फेंको उसे ।”
देवांश ने उसे गौर से देखा --- वह, वही नजर आ रहा था।
हड्डियों का पंजर | जैसे कंकाल पर असंख्य झुर्रियों वाली खाल चढ़ा दी गई हो ।
चुड़चुड़ी, गिलगिली खाल ।
आंखें गड्ढों में धंसकर कांच की गोलियों की तरह गोल नजर आने लगी थीं। काले धब्बे पड़ गये थे उनके चारों तरफ | जिस्म पर वही गाऊन था । वही, जिस पर स्केल की चौड़ाई जितनी काली- सफेद लम्बी-लम्बी धारियां थीं। उसका पसन्दीदा गाऊन ।
वही जिसे पहनकर वह मरा था ।
कमजोर हाथ में एक रिवाल्वर था । वैसा ही रिवाल्वर जैसे से उसने आत्महत्या की थी। साइलेंसर भी लगा हुआ था उस पर । हाथ भले ही कांप रहा हो उसका मगर, नाल पर चढ़े साइलेंसर का भाड़ सा मुंह बराबर उन्हीं को घूर रहा था ।
देवांश तो देवांश, भला कौन हो सकता था इतना दिलेर जो रिवॉल्वर की मौजूदगी में उसकी तरफ बढ़ सकता । हिम्मत करके देवांश ने कहा---“तुम्हारा फेस चैक करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। लाश का फेस चैक कर चुके हैं। हम भी और ठकरियाल भी । प्लास्टिक का कोई रेशा नहीं था उस पर।”
राजदान की मुस्कान उस बुजुर्ग की सी मुस्कान में बदल गई में जो बच्चे की बचकानी बात पर मुस्कराया हो । बोला--- "यूं तो तुम दो ही मूर्ख काफी थे । तीसरा ठकरियाल आ मिला तुमसे । वह, जिसे अपने बारे में इस दुनिया का सबसे चालाक शख्स होने का वहम था । वह इतना तक नहीं सोच सका --- मैं जानता था, बबलू के बयान के बाद वह लाश के चेहरे से प्लास्टिक के रेशे ढूंढने की कोशिश करेगा । लाश उस वक्त मोर्चरी में थी । तुम तक पहुंचने से पहले भला मेरे लिए उन रेशों को चुन-चुनकर अलग कर देना क्या मुश्किल था!"
अवाक् रह गया देवांश | कुछ बोलते न बन पड़ा । ।
“य - ये हमें धोखा देने की कोशिश कर रहा है देवांश ।” बुरी तरह भयभीत दिव्या देख राजदान की तरफ रही थी, कह देवांश से रही थी --- “उतनी जान ही कहां थी उसमें जो उतने ऊंचे पत्थर पर चढ़कर झरने के नीचे नहा सकता।
बाथरूम की खिड़की से कूदकर तुमसे तेज....
हा...हा...हा...है...।
ठहाका लगा उठा राजदान |
दिव्या का वाक्य अधूरा रह गया।
ठहाका ऐसा था जो दिव्या और देवांश के जिस्मों में झुरझुर्ग बनकर दौड़ गया ।
और फिर ।
हंसते ही हंसते खांसी उठी राजदान को।
एक बार उठी तो फिर उठती ही चली गई।
उठी उसी तरह जैसे उनतीस तारीख को रात से पहले उठा करती थी ।
उनतीस तारीख की रात ।
उस रात खांसी क्यों नहीं उठी थी उसे?
यह सवाल दिव्या और देवांश के दिमाग में एक साथ कौंधा । उन्हें अच्छी तरह याद है--- वह व्हिस्की पी रहा था। सिगार पी रहा था ।
कमरा भरा पड़ा था सिगार के धुर्वे से ।
इसके बावजूद उसे एक बार भी खांसी नहीं उठी थी।
क्यों?
क्या सचमुच वह राजदान नहीं था ?
क्या ये है राजदान ?
ये - - - जो इस वक्त भरपूर कोशिश के बावजूद अपनी खांसी को नहीं रोक पा रहा है?
खांसते-खांसते दुहेरा सा हुआ जा रहा था वह ।
रिवॉल्वर वाला हाथ भी जहां का तहां था ।
देवांश के दिमाग में ख्याल आया--- मौका ठीक है ।
वह चाहे जो हो----
राजदान या कोई और।
इस वक्त आसानी से दबोचा जा सकता है ।
और।
जम्प लगा ही जो दी उसने ।
परन्तु ।
लड़खड़ाता सा राजदान ठीक उसी क्षण अपने स्थान से हट गया था ।
देवांश झोंक में फर्श पर जा गिरा।
पुनः उठकर झपटने की कोशिश कर ही रहा था कि संभलने की कोशिश में लड़खड़ाते राजदान ने अपना रिवाल्वर वाला हाथ उसकी तरफ तानते हुए खांसी के बीच कहा --- “खबरदार! खबरदार छोटे! मुझे वह करने पर मजबूर मत कर जो मैं आज भी करना नहीं चाहता।”
देवांश को ठिठककर रुक जाना पड़ा।
सचमुच अब राजदान पर झपटने का मौका नहीं रहा था ।
वह खुद को संभाल चुका था।
खांसी भी नियंत्रण में आ चुकी थी ।
कोई शक नहीं इसमें कि इस वक्त वह उन्हें राजदान ही लगा था। वह, जिसने नियंत्रित होते ही कहा --- "पत्थर पर चढ़कर झरने के नीचे नहाने और बाथरूम की खिड़की से कूदकर भागने वाला मैं नहीं था ।”
“ फिर वह कौन था ?”
“भट्टाचार्य।”
“भ भट्टाचार्य ?” दोनों के हलक से चीख सी निकल गई ।
“हां ।” राजदान की मुस्कान में पुनः जहर आ घुला--- "वही भट्टाचार्य जिसे तुम्हारे ठकरियाल ने पोंगा पंडित समझकर इन्वेस्टिगेशन के टाइम इसलिए बुलाया था ताकि रणवीर राणा से तुम्हारी तारीफ कर सके। उसे बता सके तुम दोनों मुझे एड्स से बचाने के लिए किस कद्र मरे जा रहे थे। ताकि तुम किसी के भी शक के दायरे से कोसों दूर रहो। तुम्हारी सारी हरामजदगियों से वाकिफ होने के बावजूद उसने वही कहा जो मैंने समझाया और मैंने वही समझाया जो तुम चाहते थे । भला कैसे न करता मैं वैसा? मैंने तो हमेशा वही किया है जो तुमने चाहा । ”
दोनों की जुबान तालू से चिपकी थी ।
राजदान कहता चला गया--- " भट्टाचार्य यार है मेरा । जैसे ही तुम्हारे काले चेहरों का पता लगा, सुबह होते ही मैंने सबकुछ बता दिया। यह भी कि तुम मुझे कोई दवा नहीं दे रहे थे। मगर यह सब पुलिस को न बताने की सख्ती से हिदायत दी । उसने कारण पूछा । और तब --- मैंने उसे अपने प्लान में शामिल किया। वैसे भी उसके बगैर मेरा प्लान परवान नहीं चढ़ सकता था । "
“म - मगर... तुम्हारा प्लान आखिर था क्या ?”
“ अब भी नहीं समझे ।इसका मतलब पूरे गधे हो । अव्वल दर्जे के बेवकूफ हो तुम " अपने-अपने स्थान पर खड़े दोनों का थरथर कांपते रहे ।
“मैं जिंदा हूं | सामने खड़ा हूं तुम्हारे मगर अपनी हत्या के इल्जाम में तुम्हें फांसी करा दूंगा । यही सजा है तुम्हारी ।"
"कैसे - - - कैसे हो सकता है ऐसा ? "
"क्यों नहीं हो सकता ?” वह हंसा ।
“ हमारे पास तुम्हारे हाथ के लिखे ऐसे अनेक लेटर हैं जिनमें तुमने खुद आत्महत्या..
“हा...हा...हा...हा...।"
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