अगले दिन सुबह इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह मोना चौधरी से तयशुदा जगह पहुंचा। साढ़े दस बज रहे थे। वो वहां से टैक्सी पर बैठे और सोहनलाल के फ्लैट पर पहुंचे। टैक्सी बाहर ही छोड़ दो। किराया चुकता करके वे भीतर प्रवेश कर गए। लोकनाथ सिंह जो कि पूरे रास्ते में चुप सा ही रहा था, वो बोला।

"मुझे डर लग रहा है मोना चौधरी !"

"क्यों ?"

"देवराज चौहान कल बहुत गुस्से में था। जब मेरे पास आया था, उसने स्पष्ट कहा था कि अगर तुमने सोहनलाल के फ्लैट का रुख किया तो वो तुम्हारे साथ-साथ मुझे भी मार देगा।" लोकनाथ सिंह ने आवाज में घबराहट भर ली थी।

"देखते हैं।" मोना चौधरी की आवाज में कठोरता भर आई थी।

"तुम... तुम मेरी बात को मजाक समझ रही...!"

"मैं तुम्हारी बात को मजाक नहीं समझ रही, बल्कि ये बात मुझे मजाक जैसी लग रही है कि देवराज चौहान इस तरह मुझे मारेगा।"

"वो ही कह रहा था।"

"आ पहुंचे हैं, देख लेना।" मोना चौधरी की आवाज में अजीब से सख्त भाव उभर चुके थे।

"तुम-तुम भीतर जाओ। मुझे यहीं छोड़...!"

"साथ रहोगे तुम मेरे। मैंने तुम्हें और महेशपाल को आमने-सामने कराना है।" मोना चौधरी ने आसपास देखते हुए कहा--- "ताकि मुझे भी पता चले कि कौन सच...!"

"मैं सच कह रहा...।"

"मालूम हो जाएगा।”

"तुम्हें ये बात की पड़ी है और मैं देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर की सोच रहा...!"

"उसके बारे में सोचने के लिए मैं हूं। रिवॉल्वर लाए हो मेरे लिए?"

"हां।" लोकनाथ सिंह ने रिवॉल्वर निकाली और मोना चौधरी को थमा दी।

मोना चौधरी ने रिवॉल्वर कपड़ों में फंसा ली।

■■■

बांकेलाल राठौर, सोहनलाल और सब-इंस्पेक्टर महेशपाल के साथ सोहनलाल के फ्लैट पर दस बजे ही पहुंच गया था। सोहनलाल और बांकेलाल राठौर गंभीर थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या होने वाला है। सब-इंस्पेक्टर महेशपाल सारे हालातों से वाकिफ हो चुका था और घबराया हुआ था।

"थारो कारणों से म्हारो पल्लो मुसीबत पड़ो हो।" बांकेलाल राठौर ने उखड़ी नजरों से महेशपाल को घूरा--- “थारो वजहो से देवराज चौहान और मोना चौधरी में झगड़ा होने जा रयो।"

"म... मैं मुझे क्या पता था कि...!"

“थारो का, म्हारो को भी हवा न लागो कि इतनो गड़बड़ो हो जायो। पता होवो तो थारे को उंगली न पकड़ने दयो।"

महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"अभ्भी भी बता दयो कि तने ही बलात्कार-हत्यो करो हो। सच बता दयो तो...!"

"कसम खाकर कहता हूं कि मैंने कुछ नहीं किया !" महेशपाल यकीन दिलाने वाले स्वर में कह उठा।

"वो म्हारे को लगो हो। तभी तो थारे को बचायो हो।" बांकेलाल राठौर गहरी सांस लेकर कह उठा।

सोहनलाल ने सोफे पर बैठे-बैठे पहलू बदला और गोली वाली सिग्रेट सुलगाई।

"तम तूतनी फूंको हो। आगो के बारो में भी सोचो के नाही।"

"सोचने को कुछ नहीं है, जो है सामने आ जाएगा।" सोहनलाल गंभीर था।

"जबो सामने ही आ गयो तो सोचनो को बचो ही का।"

"देवराज चौहान ने यहां आने को कहा था ?"

"हां, बोलो हो ग्यारह बजो इधर ही...!"

तभी कॉलबेल बजी ।

दोनों की नजरें मिली। देखते ही देखते उन्होंने रिवॉल्वरें निकाल ली।

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल का चेहरा फक्क पड़ गया।

"अम देखो हो।" बांकेलाल राठौर खतरनाक स्वर में कहते हुए उठा और रिवॉल्वर संभाले दरवाजे के पास पहुंचा--- "कोणो हौवे ?"

"मैं...।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

बांकेलाल राठौर ने सावधानी से दरवाजा खोला।

सामने देवराज चौहान और जगमोहन खड़े थे। वो भीतर आए तो उसने पुनः दरवाजा बंद कर दिया।

जगमोहन ने वहां नजर दौड़ाने के बाद पूछा।

"मोना चौधरी नहीं आई?"

"आ जावे।" बांकेलाल राठौर ने गंभीर स्वर में कहा--- "थारे को का जल्दी हौवे उसो से मिलनो वास्ते ?"

"देवराज चौहान को जल्दी है।" जगमोहन ने होंठ सिकोड़कर कहा और सोहनलाल की तरफ बढ़ गया।

बांकेलाल राठौर, देवराज चौहान के पास आते कह उठा।

"म्हारी तो समझ में न आवे कि थारे को का जरूरत पड़ो हो, इसो मामले में टांग फंसाने को।"

देवराज चौहान उसे देखकर मुस्कराया और सिग्रेट सुलगाते हुए कह उठा।

"सोहनलाल को मोना चौधरी की वजह से अपने घर से जाना पड़ा। कहीं और छिपना पड़ा।"

"तो ?"

"ये गलत बात है। इसका मतलब बात आगे बढ़ चुकी है। वरना सोहनलाल को जाना न पड़ता।"

"यो थारी सोच हौवे । अम तो यो न सोचो हो। " बांकेलाल राठौर ने अपनी मूंछ के कोने को उंगली लगाते हुए सोच भरे स्वर में कहा--- “मोना चौधरी को महेशपाल से बात करना हौवो। वो इंस्पेक्टर लोकनाथो और इसे आमने-सामणे करनो चाहो कि पता लागो कि कौण असली गड़बड़ वाला हौवे। इक वो लोकनाथों के साथ आवे, इधरो यो भी पासो हो हौवो। दोनों में बातो करा दयो। किधर भी टेंशन नाही होवे।"

देवराज ने बांकेलाल राठौर को देखा।

"का देखो हो तम म्हारे को ?"

"मैंने कल इंस्पेक्टर लोकनाथ से स्पष्ट कहा था कि वो मोना चौधरी से कह दे कि सोहनलाल की तरफ रुख न करे।" देवराज चौहान का स्वर शांत था--- "ऐसे में वो लोकनाथ के साथ आती है तो...!"

"कोणों फरक नेई पड़ो हो।" बांकेलाल राठौर ने हाथ हिलाकर कहा--- "अम सब देख लयो । तम चुपो होकर एक तरफ बैठो के सब देखो । यो मामलो मामूली हौवे। थारी इधर को जरूरत न हौवे । "

"बांके ठीक कहता है।" सोहनलाल कह उठा--- "ये कोई ऐसा मामला नहीं कि तुम्हें मोना चौधरी के सामने खड़े होने की जरूरत पड़े। उस इंस्पेक्टर और ये महेशपाल की आमने-सामने बात करा देंगे। मोना चौधरी ठीक ही तो कह रही है कि इस तरह की बातों से ये स्पष्ट हो सकता है कि दोनों में जुर्मी कौन है ?"

देवराज चौहान ने कश लेते हुए सोहनलाल को देखा।

"मेरे खयाल में हम लोग बेकार के मामले में फंस रहे हैं।" जगमोहन गहरी सांस लेकर कह उठा--- "मोना चौधरी ने भी यूं ही खुद को इस मामले में डाल लिया और हम भी बेकार में इस मामले को उठा रहे हैं। होना तो ये चाहिए कि दोनों पुलिस वालों को खुला छोड़ दिया जाए, खुद ही अपने मामले का फैसला कर लेंगे।"

"तम सोलहो आने ठीको बोलो हो।"

"वो मुझे मार दे...!" महेशपाल सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला--- "उसके पास पहचान वाले ऐसे बदमाश हैं, जो मेरे पीछे लगकर मेरी जान लेकर ही रहेंगे। लोकनाथ नंबरी हरामी हैं।"

"थारो का पूरो जन्मों का ठेका ले लयो हमणें । म्हारे को भी काम हौवे कि ना।" बांकेलाल ने उसे देखकर सख्त स्वर में कहा--- "थारो को गोदी में ले करो किधर-किधर भागो हो अम।"

महेशपाल घबराहट भरी नजरों से उसे देखता रहा।

"देवराजो।" बांकेलाल राठौर ने फैसले वाले स्वर में कहा--- "तम चुप रहियो। इसो मामलो में ना बोलो हो।"

"ठीक है।" देवराज चौहान मुस्कराया--- "अगर तुम लोग ये मामला संभाल लो तो मुझे खुशी होगी।"

"सब ठीको हो जायो। तम चैनो से उधर बैठो और...!"

तभी कॉलबेल बजी।

पलों के लिए वहां चुप्पी आ ठहरी।

सबकी नजरें मिली। बांकेलाल राठौर ने जेब में रखी रिवॉल्वर को थपथपाया और दरवाजे की तरफ बढ़ा। हर किसी को अगले पलों का इंतजार था कि दरवाजे के पार आने वाला कौन है ?

"कौणे हौवे ?"

"बांके।"

मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी।

बांकेलाल राठौर ने सतर्कता से दरवाजा खोला।

आगे मोना चौधरी और पीछे इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह को देखा।

"तम म्हारे को इत्ते प्यार से नको पुकारो।" बांकेलाल राठौर एकाएक मुस्कराकर बोला--- "म्हारो दिल जोरो से धड़को हो। वो फट जायो तो म्हारी तो जान गयो।"

मोना चौधरी मुस्कराई।

"अभी तक पहले की तरह जवान हो।"

"तम तो म्हारी जवानी को भी नजरो लगाओ हो।" बांकेलाल राठौर ने पूरा दरवाजा खोल दिया--- "तम तो पैले की तरहो जवानों हो, खूबसूरतो भी---यूं तो म्हारो इरादो ब्याह करनो को न होवे। गुरदासपुरो में ही ब्याहो से दिल टूट गयो । फिरो भी तुम राजी हौवो तो अम थारी बातों पर सोच लयो कि ब्याहो करणों हो कि ना ही।"

"बांके!" मोना चौधरी के होंठों पर शांत मुस्कान थी--- "अभी मेरा इरादा शादी करने का नहीं है।"

"थारी मरजी। आवो भीतर को। यो बाराती तक पैले से ही ले आवो।" बांकेलाल राठौर का इशारा इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह की तरफ था--- "ये कोणो होवो ?"

"इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह।"

"समझो।"

मोना चौधरी ने भीतर आने के लिए कदम आगे बढ़ाया कि तभी फायर की तेज आवाज हुई।

गोली बाहर से आई थी और मोना चौधरी के कंधे को गरम हवा देती हुई, दरवाजे में जा धंसी।

"ब...चो।" बांकेलाल राठौर के होंठों से निकला।

उसी पल मोना चौधरी ने भीतर छलांग लगा दी।

पीछे खड़ा इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह हड़बड़ाया सा भागा, भीतर आ गया। वो समझ गया कि उसके साथी पुलिस वालों ने बेवकूफी कर दी है। मोना चौधरी को सामने पाकर वे खुद पर काबू नहीं रख सके और गोली चला दी।

बांकेलाल राठौर ने फौरन दरवाजा बंद किया।

वहां मौजूद हर कोई स्तब्ध सा रह गया था।

गोली चलने की तो अभी दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं थी। फिर गोली किसने चलाई ?

मोना चौधरी नीचे से उठी। उसके चेहरे पर कठोरता नाच रही थी। मौत भरे सन्नाटे में उसकी निगाह बारी-बारी सब पर जाने लगी। देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, बांकेलाल राठौर, सब-इंस्पेक्टर महेशपाल और इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह को देखा। सब उसे ही देख रहे थे।

"तम तो अपणो साथी, अपणो दुश्मन भी ले आयो।"

बांकेलाल राठौर ने गंभीर स्वर में कहा।

"मेरा यहां ऐसा कोई दुश्मन नहीं कि जो इस तरह मुझ पर गोली चलाकर मेरी जान लेने की कोशिश करे।" मोना चौधरी गुर्रा उठी।

"फिर थारो स्वागत कौणो करो हो ?" बांकेलाल राठौर होंठ भींचे चिन्ता भरे स्वर में कह उठा।

"ये...!" मोना चौधरी की निगाह इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह पर जा टिकी।

सब चौंके।

देवराज चौहान पहले से ही होंठ भींचे लोकनाथ को देख रहा था।

"म... मैं?" हड़बड़ा उठा लोकनाथ। घबराहट चेहरे पर आ ठहरी।

"ये तो तुम्हारे साथ आया है।" जगमोहन ने उलझन भरे स्वर में कहा।

"आया तो मेरे साथ है लेकिन हरामी कहीं भी, कोई भी हो सकता है।" मोना चौधरी ने खतरनाक निगाहों से लोकनाथ सिंह को देखते हुए कहा--- "तुम लोगों में से कोई भी इस तरह मेरी जान लेने की चेष्टा नहीं करेगा। ये संब-इंस्पेक्टर तुम लोगों के पास था, इसलिए इसे मेरे खिलाफ जाल बिछाने का मौका नहीं मिल सकता। अब सिर्फ यही बचता है, जो हर तरफ से आजाद था और कुछ देर पहले ही मुझे मिला है।"

"म....मैंने कुछ नहीं किया!" इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह कांप उठा।

मोना चौधरी ने रिवॉल्वर निकाली और आगे बढ़कर नाल ठीक उसके दिल वाले हिस्से पर रख दी।

लोकनाथ की आंखों में आतंक भर उठा।

"मेरी-तेरी कोई दुश्मनी नहीं इंस्पेक्टर! मैं तो तेरी सहायता कर रही थी। तेरे लिए काम कर रही थी, फिर तूने मेरी जान लेने के लिए घेरा क्यों डलवाया ? कौन है बाहर ? पुलिस वाले या किराए के बदमाश ?" मोना चौधरी के स्वर में ऐसे भाव थे कि लोकनाथ की हड्डियों में भी सिहरन दौड़ती चली गई। भय से चेहरा निचुड़ गया था ।

लोकनाथ के सूखे होंठ हिले, शब्द नहीं निकला।

"गोली तेरे दिल में उतर रही है लोकनाथ।" मोना चौधरी दांत किटकिटा उठी--- "अब...।"

"म...मुझे माफ कर दो मोना चौधरी । म... मैं गलती कर...!"

"बाहर कौन है ?" मोना चौधरी ने नाल का दबाव बढ़ाकर दांत पीसे ।

"पुलि... स वा-ले!"

"क्यों मेरी जान लेने... ।"

तभी देवराज चौहान पास आया।

देवराज चौहान और मोना चौधरी की नजरें मिलीं।

"ऐसे भेड़िये हम लोगों को कहीं भी मिल सकते हैं।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा--- "ये तुम्हारा मामला है। क्या तुम अब भी इसकी बात, सब-इंस्पेक्टर महेशपाल से कराना चाहोगी ?"

"नहीं, ये हरामी है। मैं इसके लिए कोई काम नहीं कर सकती।" मोना चौधरी गुर्राई ।

"अब हमारे यहां रहने की कोई जरूरत नहीं।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द को चबाकर कहा--- "हमारे जाने के बाद तुम इसके साथ कैसा भी व्यवहार करो, हमें कोई मतलब नहीं। बेहतर होगा कि सोहनलाल के फ्लैट पर शोर-शराबा न करो। जो करना है, यहां से दूर जाकर करो।"

मोना चौधरी देवराज चौहान को घूरती रही।

"जो हौवो, भलो के वास्ते ही हौवे। ये न हौवे तो हो सके, म्हारो में झगड़ा पैदा हो जातो। ईब तो बॉल थारो मैदानों में हौवा मोन्नो चौधरी । म्हारी जानो की नमस्तो को स्वीकारो।"

वे लोग जाने की तैयारी करने लगे तो मोना चौधरी ने देवराज चौहान से कहा ।

"इस तरह बाहर मत जाना। बाहर पुलिस वाले हम लोगों का निशाना लेने की ताक में हैं। मेरे खयाल में इस हरामी लोकनाथ ने दो-चार मैडल लेने के लालच में ये घेराबंदी की है। बाहर निकले तो वो हमारा निशाना ले लेंगे।"

देवराज चौहान ने खतरनाक निगाहों से लोकनाथ को देखा।

लोकनाथ को स्पष्ट नजर आ रहा था कि अब वो नहीं बच सकेगा।

"कितने पुलिस वाले हैं बाहर ?" देवराज चौहान के दांत भिंचे पड़े थे।

"च... चौदह !" लोकनाथ के होंठों से खतरनाक स्वर निकला ।

देवराज चौहान और मोना चौधरी की नजरें मिलीं।

देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाकर लोकनाथ के सिर के बाल पकड़े और दरिन्दगी से कहा।

"चल बाहर। अपने आदमियों से कह कि गोली न चलाएं अगर गोली चली तो हम तेरे को भून देंगे--समझा।"

इंस्पेक्टर लोकनाथ ने कठिनता से गरदन हिलाई।

"जगमोहन।"

देवराज चौहान के पुकारने पर जगमोहन फौरन बाहर आया।

"इसे बाहर ले चल।"

जगमोहन ने रिवॉल्वर निकाली और लोकनाथ की बांह पकड़कर नाल उसकी पीठ पर लगा दी।

"चल ।"

लोकनाथ आगे, पीछे उसकी पीठ पर नाल लगाए जगमोहन था और उसके पीछे बांकेलाल राठौर, सोहनलाल, देवराज चौहान, मोना चौधरी थे। देवराज चौहान ने भी रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली थी। महेशपाल के चेहरे पर राहत के भाव थे कि वो निर्दोष साबित हो गया है।

दरवाजा खोलकर जगमोहन, लोकनाथ को कवर किए बाहर निकला और रुक गया।

"बोल ।"

लोकनाथ ने गले में फंसी थूक निगली और सूखे होंठों पर जीभ फेरकर ऊंचे स्वर में बोला।

"त... त्यागी !"

परंतु जवाब में कोई सामने नहीं आया।

"त्या-गी!" लोकनाथ और भी ऊंचे स्वर में चिल्लाया। चेहरा फक्क था।

"हां!" कुछ दूर एक दीवार की ओट से आवाज आई।

"फायरिंग मत करना। सब से कह दे---नहीं तो मैं मारा जाऊंगा। किसी पर गोली नहीं चलानी है।"

"क्यों ?"

"मैं खतरे में हूं। तेरे को नजर नहीं आ रहा।" लोकनाथ पागलों की तरह चिल्लाया।

"ठीक है।"

उसके बाद शांति छा गई।

सब सतर्क थे। रिवॉल्वरें उनके हाथों में थीं। ये सब कुछ अड़ोसी-पड़ोसी भी देख रहे थे और सोहनलाल सोच रहा था कि अब उसे ये फ्लैट भी छोड़ना पड़ेगा। कहीं दूसरी जगह जाना पड़ेगा।

वे लोग अपनी-अपनी कारों में जा बैठे।

मोना चौधरी लोकनाथ को अपनी रिवॉल्वर के निशाने पर लेकर महेशपाल को भी साथ लेकर कुछ दूर मौजूद पुलिस वालों की कार पर जा बैठी थी। स्टेयरिंग पर महेशपाल को बिठाकर उसे कार आगे बढ़ाने को कहा था। त्यागी, वीरेन्द्र और अन्य पुलिस वाले बेबस से ये सब देख रहे थे लेकिन उनके हाथ बंध चुके थे कि वे कुछ करते हैं तो इंस्पेक्टर लोकनाथ की जान जाएगी।

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल और बांकेलाल राठौर कारों पर चले गए थे।

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल ने भी पुलिस कार आगे बढ़ा दी थी।

■■■

एक घंटे बाद मोना चौधरी के कहने पर महेशपाल ने पुलिस कार को सड़क से उतारकर सुनसान इलाके में पेड़ों-झाड़ियों के बीच ले जा रोका। हर तरफ सुनसानी थी यहां।

लोकनाथ को अपनी मौत आंखों के सामने नाचती नजर आ रही थी। ऐसे मौके पर भी वो अपना दिमाग दौड़ा रहा था कि कोई शतरंजी चाल सोचकर खुद को बचा सके।

मोना चौधरी के चेहरे पर दरिन्दगी के भाव स्पष्ट नाच रहे थे। कार रुकते ही उसने दरवाजा खोलते हुए लोकनाथ को धक्का दिया तो वो कच्ची जमीन पर लुढ़कता चला गया। महेशपाल गंभीर था। उसे महसूस हो चुका था कि अब लोकनाथ के साथ मोना चौधरी जो भी करेगी, बुरा करेगी।

मोना चौधरी भी रिवॉल्वर थामे बाहर आ गई।

महेशपाल बाहर निकलकर कार के साथ खड़ा हो गया। एक बारगी तो उसके मन में आया कि वो लोकनाथ को बचाने की चेष्टा करे, परंतु ये सोचकर उसने अपना इरादा छोड़ दिया कि लोकनाथ ने उसके साथ कुछ भी अच्छा नहीं किया। पहले उसे मारने के लिए बदमाश पीछे लगा दिए, अब मोना चौधरी को उसके पीछे डाल दिया था। ये तो किस्मत अच्छी थी कि उसे बचाने वाले लोग हिम्मत वाले निकले। वरना वो तो गया था।

"तेरे जैसे एहसान फरामोश बहुत कम मिलते हैं।" मोना चौधरी गुर्रा उठी--- "मैं तेरे को बचा रही थी और तू मुझे...!"

"म... मुझे माफ कर दो।" लोकनाथ जल्दी से सूखे स्वर में कह उठा--- "ये सब देवराज चौहान का किया धरा है!"

"देवराज चौहान का ?" मोना चौधरी ने खा जाने वाले स्वर में कहा।

"हां, कल वो जब मेरे पास आया तो मुझे धमकी देकर गया था कि कल मोना चौधरी सोहनलाल के फ्लैट पर आएगी। तूने वहां पुलिस वालों का घेरा डलवा देना है। जब वो आए तो उसे शूट कर दिया जाए। अगर मैंने ऐसा न किया तो मेरे बीवी-बच्चों को मार देगा। उसकी इस धमकी दम था---मुझे ऐसा करना पड़ा। बहुत खतरनाक है देवराज चौहान ! वरना मैं तुम्हारी जान क्यों लूंगा। तुम तो मुझे बचा रही...!"

"बकवास करता तू---देवराज चौहान हो...!"

"मैं सच कह रहा हूं। जब तुमने सोहनलाल के फ्लैट पर मेरे से पूछा कि मैंने ऐसा क्यों किया तो तभी देवराज चौहान आकर तुमसे बात करने लगा था। उसे डर था कि कहीं मैं सच बात न तुमसे कह दूं।" लोकनाथ एक ही सांस में कहे जा रहा था--- "सुबह मैंने तुम्हें ये बात बताने की कोशिश की, परंतु हिम्मत न जुटा पाया। ये सोचकर कि कहीं देवराज चौहान मेरी बीवी-बच्चों की जान न ले ले। कितना मजबूर हो गया था मैं उसकी बात मानने...!"

"झूठ बोल रहे...!"

"किसी की भी कसम ले लो मोना चौधरी, मैं सच कह रहा हूं!" लोकनाथ ने आंखों में आंसू भर लिए। इस वक्त वो अपनी जान बचाने के लिए दुनिया भर का झूठ बंडल में बांधकर मोना चौधरी के कदमों में रख सकता था।

मोना चौधरी रिवॉल्वर निकालकर उसे घूरने लगी।

लोकनाथ ने आंसू पोंछे और सीधा होकर बैठ गया।

"अगर तुम सच कह रहे हो तो सुबह सोहनलाल के फ्लैट, तक, पहुंचने तक, ये बात बताकर मुझे सतर्क कर...!"

"बोला तो, मैंने कोशिश की लेकिन हिम्मत नहीं इकट्ठी कर सका। सामने देवराज चौहान था और !"

"ये बातें कहकर तुम बच नहीं सकते। तुमने मेरी जान लेने की कोशिश की है।" मोना चौधरी गुर्रा उठी--- "तुम बच्चे नहीं हो जो हिम्मत नहीं इकट्ठी कर सके। पुलिस के बड़े ऑफिसर हो!" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने ट्रेगर दबा दिया।

गोली चलने का तीव्र धमाका हुआ।

गोली लोकनाथ के माथे पर लगी। उसकी आंखें फटी रह गई। वो कई पलों तक खड़ा ही खड़ा लहराता रहा, फिर नीचे गिर गया। जमीन पर लुढ़क गया।

ये देखकर महेशपाल की आंखों में डर भर उठा।

मोना चौधरी रिवॉल्वर थामे पलटी और महेशपाल को कहर भरी नजरों से देखा।

"म...मैंने कुछ नहीं किया!"

"तुम उन लोगों के साथ रहे, बता सकते हो कि वो कहाँ मिलेंगे। खासतौर से देवराज चौहान।" मोना चौधरी गुर्राई। उसके दांत भिंच चुके थे। आंखों में आग थी।

"म...मुझे क्या मालूम। देवराज चौहान को तो मैंने तुम्हारे आने से कुछ पहले ही देखा था।" वो घबराकर बोला।

"मुझे उन लोगों का पता ठिकाना चाहिए।"

"सच में, मुझे कुछ नहीं मालूम। तुम्हारे आने से पहले देवराज चौहान अपने साथी के साथ आया था। वो सोहनलाल के पास जा बैठा था। उनसे दो कदम की दूरी पर बैठा था। तब सुना वो सोहनलाल से कह रहा था कि आज कल में वो काशीपुर गांव जा रहे हैं। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता।" घबराया सा वो कह उठा।

"काशीपुर गांव... वहां क्या है ?"

"म... मैं- मुझे क्या पता ?" महेशपाल जल्दी से बोला--- "मुझे मत मारना। मैंने तो तुम्हारे खिलाफ कभी कुछ नहीं किया। आज पहली बार देखा है तुम्हें ! म... मैं।"

"काशीपुर गांव के बारे में बताओ कि वे और क्या बात कर रहे थे?"

"और नहीं सुना मैंने। तभी बेल बज गई थी। बाहर से तुमने कॉलबेल बजाई थी।"

मोना चौधरी ने दांत भींचे रिवॉल्वर वापस कपड़ों में छिपा ली।

ये देखकर महेशपाल की आंखों में राहत नजर आई।

"जाओ। दोबारा कभी मेरे रास्ते में न आना।"

महेशपाल ने फौरन सहमति से सिर हिला दिया।

"काशीपुर गांव का किसी के सामने जिक्र मत करना, वरना...!"

"म... मैं इस बारे में किसी से कोई बात नहीं करूंगा!"

"दफा हो जाओ।" मोना चौधरी का स्वर सख्त था।

घबराया सा महेशपाल कार के पास से हटा और हड़बड़ाया सा सड़क की तरफ तेजी से बढ़ गया।

मोना चौधरी कठोर नजरों महेशपाल को देख रही थी लेकिन उसकी सोचें देवराज चौहान और काशीपुर गांव की तरफ दौड़ रही थी। देवराज चौहान ने लोकनाथ को मोहरा बनाकर उसे शूट करवाने की चाल चली थी। उसने तय कर लिया कि देवराज चौहान को जिन्दा नहीं छोड़ेगी। ये बात तो उसने एक बार भी इसलिए नहीं सोची कि लोकनाथ झूठा भी हो सकता है। इसलिए नहीं सोची कि सामने देवराज चौहान था और उसे पूरा विश्वास था कि देवराज चौहान ने उसे मारने के लिए ये हरकत अवश्य की होगी।

अपने दिमाग पर बिछी, देवराज चौहान के प्रति गुस्से की चादर हटाकर देखती तो अवश्य ये बात महसूस होती कि लोकनाथ अपनी जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा था लेकिन देवराज चौहान के सामने देखकर उसका गुस्सा हमेशा ही बढ़ जाता था। ऐसे में अब वो कैसे सोचती ? मोना चौधरी को ये भी याद न आया कि फकीर बाबा ने कहा था कि लोकनाथ हर जन्म में उन दोनों में लड़ाई पैदा कर देता है।

सब कुछ भूलकर देवराज चौहान को खत्म करने की सोचते हुए वो सड़क की तरफ बढ़ गई।

मोना चौधरी सड़क पर पहुंचकर पैदल ही सड़क के किनारे एक तरफ बढ़ने लगी थी। सब-इंस्पेक्टर महेशपाल वहां नहीं था । यकीनन उसे किसी वाहन से लिफ्ट मिल गई थी।

मोना चौधरी देवराज चौहान के बारे में सोच रही थी कि वो अकेला नहीं हैं। उसके साथ जगमोहन, सोहनलाल, बाकेलाल राठौर और रुस्तम राव भी हैं। ऐसे में वे लोग, वक्त आने पर उस पर भारी पड़ सकते हैं।

मोना चौधरी को महाजन और पारसनाथ की जरूरत महसूस होने लगी।

कुछ देर बाद उसे खाली टैक्सी मिली तो वो टैक्सी द्वारा भीड़ भरे इलाके में पहुंची और वहां से महाजन को दिल्ली फोन किया। राधा से बात हुई। महाजन घर पर नहीं था। उसके बाद मोना चौधरी ने पारसनाथ को फोन किया तो वो मिला। नींद से उठा था अभी।

“मोना चौधरी ?" पारसनाथ की आवाज कानों पड़ी।

"सब ठीक है ?" मोना चौधरी ने पारसनाथ से पूछा ।

"हां, क्या हुआ ?"

"मैं मुंबई में हूं। तुम महाजन को लेकर आ जाओ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने होटल का पता बताया।

"बात क्या है ?" पारसनाथ की आने वाली आवाज में अब सतर्कता आ गई थी।

"शायद देवराज चौहान से सामना हो।" कहने के साथ मोना चौधरी ने कम शब्दों में सारी बात बताई।

पारसनाथ की आवाज नहीं आई।

"चुप क्यों हो गए?"

"सोच रहा था तुम्हारी बातों को।" पारसनाथ का सपाट स्वर कानों में पड़ा--- "मुंबई से काशीपुर गांव चलना है।"

"हां, क्योंकि मैं नहीं जानती कि यहां देवराज चौहान कहाँ मिलेगा। यही खबर बहुत कि वो एक-दो दिन में काशीपुर गांव पहुंचेगा। वो छोटी जगह होगी। उसे वहां ढूंढा जा सकता है ।"

"ठीक है, मैं महाजन के साथ कल मुंबई में तुम्हारे होटल पहुंच जाऊंगा। काशीपुर गांव कहां पर है?"

"मालूम नहीं। तुम आओ। तब तक मैं काशीपुर गांव के बारे में मालूम कर लूंगी।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा और रिसीवर रख दिया। आंखों में खतरनाक भाव चमक रहे थे ।

■■■

काशीपुर गांव !

देवराज चौहान ने सोहनलाल के फ्लैट से निकलने के बाद उसी दिन दोपहर बाद विष्णु सहाय से बात की तो वो काशीपुर गांव चलने के लिए तैयार हो गया।

ठीक जगह पर वो ड्राइवर के साथ बड़ी वैन में पहुंचा।

देवराज चौहान जगमोहन और सोहनलाल के साथ वहाँ मौजूद था। सोहनलाल ने खुद ही कहा था साथ चलने को, क्योंकि उसके फ्लैट पर गोली चल चुकी थी। अब वहां जाना खतरे से खाली नहीं था। अपनी नई जगह का इंतजाम करके एक ही बार वो फ्लैट पर सामान लेने जाएगा। ऐसे में उसके पास फुरसत थी और कुछ वक्त बिताना था उसे। अगर उसे मालूम होता कि काशीपुर गांव में कैसे हालात उसके इंतजार कर रहे हैं, तो शायद कहीं और जाकर ही वक्त बिताना ठीक समझता ।

विष्णु सहाय उन लोगों को देखकर खुश हुआ।

भीतर बैठे, वो। ड्राइवर ने वैन आगे बढ़ा दी।

"मैं तो सोच रहा था कि आजकल कहते-कहते कहीं तुम चलने का प्रोग्राम ही न बदल दो।" विष्णु सहाय कह उठा।

"हम व्यस्त थे।" जगमोहन बोला।

"तुम कौन हो ?" विष्णु सहाय ने उससे पूछा।

"मैं देवराज चौहान का दोस्त हूं--जगमोहन।"

विष्णु सहाय ने सोहनलाल को देखा फिर देवराज चौहान से कहा।

"ये ठेकेदार है क्या ?"

"ठेकेदार ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"वो...जमीन बराबर करने वाला ठेकेदार! ये जाकर वहां जमीन को देखेगा कि कैसे सब काम करना है।"

"तुम फिक्र मत करो।" जगमोहन ने मुस्कराकर कहा--- "हम सब ही ठेकेदार हैं। तुम्हारी जमीन बराबर हो जाएगी।"

"बढ़िया ! बढ़िया !" विष्णु सहाय खुशी से कह उठा--- "तुम लोग पहले कहां थे। मेरा काम पहले ही हो जाता।"

जगमोहन मुस्कराकर दूसरी तरफ देखने लगा।

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई और खिड़की से बाहर देखने लगा।

वैन तेजी से दौड़ी जा रही थी

■■■

वैन रात को दस बजे के बाद काशीपुर गांव पहुंची।

रास्ते में कोई खास बात न हुई। इधर-उधर की बातें हुईं तो हुई।

मुख्य सड़क से दो किलोमीटर भीतर था काशीपुर गांव ।

गांव में अंधेरा हुआ पड़ा था। दो-तीन जगह ही बल्ब रोशन नजर आ रहे थे। कभी-कभार कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दे जाती थी। वैन की हैडलाइट गांव में फैलते ही कुत्तों के भौंकने में तेजी आ गई थी। तेज-ठण्डी हवा का एहसास हो रहा था। वैन कच्ची पगडंडी जैसी सड़क पर हिचकोले खाती, गांव की एक चौड़ी गली के एक मकान के सामने जा रुकी। इस मकान के बाहर बल्ब जल रहा था। पक्का मकान बना हुआ था।

"इस तरह के पक्के मकान गांव में दो-तीन ही हैं।

"आओ।" विष्णु सहाय दरवाजा खोलता बोला।

"तुम्हारा मकान है ये?"

"मुझे भला यहां मकान की क्या जरूरत? गांव के एक जमींदार का है। भला बंदा है। जब भी आओ, इज्जत देता है। ठहरने को कभी मना नहीं करता। मैं भी हजार-दो हजार दे ही देता हूं। महीना भर पहले पुरानी कार दे गया था इसे।" विष्णु सहाय वैन से बाहर आ चुका था--- "रात के इस वक्त उधर जमीन पर जाना ठीक नहीं। कुछ नजर नहीं आएगा। यहीं आराम करते हैं और सुबह तुम लोगों को जमीन दिखाऊंगा।"

बारी-बारी सब उतरे।

विष्णु सहाय ने गेट खटखटाया। रात के सन्नाटे में आवाज दूर-दूर तक गई। बगल के घर में मौजूद भैंस की आवाज उनके कानों में पड़ी।

कुत्तों के भौंकने की आवाज अब कम हो गई। वैन की हैडलाइट दूर तक पड़ रही थी। बहुत कुछ स्पष्ट नजर आ रहा था।

देवराज चौहान ने आसपास देखते हुए सिग्रेट सुलगाई और कश लिया।

"आ गए देवा?" युवती की मीठी सरसराहट देवराज चौहान ने अपने कानों के पास महसूस की।

देवराज चौहान चौंककर घूमा।

आंखों की पुतलियां हर तरफ फिरी।

कोई न था ।

होंठ भींचे देवराज चौहान सतर्क निगाहों से हर तरफ देखता रहा, परंतु कोई भी नजर नहीं आया। एक बारगी उसे लगा कि वहम हुआ है लेकिन नहीं--वो वहम नहीं था। कोई उसके कान के पास फुसफुसाया था। उसे गलती नहीं लगी है। उस... उसने देवा कहा था। तो क्या वो पेशीराम (फकीर बाबा) था।

नहीं।

वो पेशीराम नहीं हो सकता। वो तो-वो तो किसी युवती की आवाज थी। इन्हीं सोचों में उलझा खड़ा रहा देवराज चौहान। उंगलियों में फंसी सिग्रेट सुलगती रही।

"खड़े क्यों हो?" जगमोहन की आवाज सुनाई दी--- "चलो।"

देवराज चौहान अपने खयालों से निकला। जगमोहन को देखा ।

"क्या हुआ ?" जगमोहन ने उसके चेहरे के भावों को देखकर पूछा।

"कुछ नहीं।" देवराज चौहान ने इस बारे में बताना ठीक नहीं समझा। बताता तो क्या बताता। परंतु चेहरे पर ढेर सारी उलझन का जाल आ ठहरा था।

मकान का गेट खुला हुआ था। भीतर की लाइटें जल चुकी थीं। सब भीतर जा रहे थे। पचास बरस का एक व्यक्ति सादे से कपड़े पहने स्वागत की मुद्रा में उन्हें भीतर आने को कह रहा था।

देवराज चौहान जगमोहन के साथ भीतर प्रवेश कर गया। उन सबके सोने का पर्याप्त इंतजाम तो नहीं था। ऐसे में उसने बड़े कमरे में फर्श पर गद्दे बिछा दिए और उसके घर वाले खाने-पीने के सामान की तैयारी करने लगे।

हाथ-मुंह धोकर वे सब गद्दों पर आराम की मुद्रा में बैठे बातें कर रहे थे।

परंतु देवराज चौहान उस युवती की आवाज के बारे में सोच रहा था कि वो कौन थी ?

या उसका भ्रम था ?

■■■

"देवा!"

देवराज चौहान के कानों में फुसफुसाहट पड़ी कि वो फौरन उठ बैठा। उसकी नींद अभी इतनी पक्की नहीं हुई थी कि फुसफुसाहट उसे सुनाई न देती। कमरे में जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। सब कुछ मध्यम-मध्यम सा नजर आ रहा था । वहां कोई भी न दिखा।

सब गद्दों पर गहरी नींद में थे।

दरवाजा भीतर से बंद था।

"देवा!"

"कौन हो तुम?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"बाहर आ जाओ, खुली हवा में। यहां तो दम घुटता है।" वो ही फुसफुसाहट उसके कानों में अब स्पष्ट रूप से पड़ी--- "बाकी लोगों के बारे में मत सोचो। इनमें से कोई भी सुबह से पहले नहीं उठेगा।"

"क्यों ?"

"मेरी शक्ति ने इन्हें गहरी नींद में सुला दिया है, ताकि कोई हमारे बीच बाधा न बने।"

देवराज चौहान आंखें सिकोड़े हर तरफ देख रहा था। परंतु कोई भी दिख नहीं रहा था।

"कौन हो तुम?"

"जल्दबाजी मत करो, जान जाओगे। काश, तुमने मुझे पहचान लिया होता। मेरी आवाज को भूल गए तुम।"

देवराज चौहान का चेहरा सख्त-सा हो उठा।

तभी उसके कानों में मध्यम सी खनखनाती हंसी पड़ी।

"गुस्सा आ गया मेरे देवा को। जन्म अवश्य बदल गए तुम्हारे--आदतें नहीं बदलीं।"

"मैंने पूछा है कौन हो तुम?" देवराज चौहान ने सख्त आवाज में अपना सवाल दोहराया।

कुछ पलों की खामोशी के बाद वो ही फुसफुसाहट कानों में पड़ी।

"रानी।"

"कौन रानी ?"

"तुम्हारा कोई कसूर नहीं क्योंकि तुम मुझे भूल गए हो लेकिन मैं तुम्हें सब याद करा दूंगी देवा तुम...!"

"तुम नजर क्यों नहीं आ रही ?"

"मुझे देखना चाहते हो ?" आवाज में मुस्कराहट आ गई।

"हां।"

"पहले भी तुम सिर्फ मेरी एक झलक पाने के लिए मेरे पास आया करते थे। मुझे देखे बिना तुम्हें चैन नहीं मिलता था।"

"फालतू बातें मत करो। जो मैंने पूछा है, वो कहो।"

"मुझे देखने के लिए तुम्हें यहां से बाहर, कुछ दूर चलना होगा। जहां मैं तुम्हें शायद अपना रूप नहीं दिखा सकूं। आओ देवा, हम बातें भी करेंगे।" उस युवती की फुसफुसाहट ने गहरी सांस ली--- "बीते जमाने की बातें। उस वक्त को मैं ताजा करना चाहती हूं जो आज भी मेरी आंखों के सामने है और तुम भूल चुके हो।"

देवराज चौहान होंठ भींचे बैठा रहा। वो उलझन में था, हैरानी में था-समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या है ? रानी कौन है और कौन से बीते वक्त की बात कर रही है।

"मैं बाहर जा रही हूं देवा। तुम्हारा इंतजार करूंगी। आना जरूर, तुमसे बातें करने को बहुत मन कर रहा है।"

इसके बाद देवराज चौहान को कोई आवाज सुनाई नहीं दी।

एक-एक करके पांच मिनट बीत गए।

सोचों में डूबे होंठ भींचकर एकाएक देवराज चौहान उठा और आगे बढ़कर दरवाजा खोलते हुए बाहर निकला तो ठण्डी हवा का झोंका उसके चेहरे और शरीर को महसूस हुआ। वो आगे बढ़ा और गेट के पास जा पहुंचा। बंद गेट को उसने खोला और गली में आ गया। एक तरफ वो वैन खड़ी थी, जिस पर वे सब लोग यहां पहुंचे थे।

गली में ठिठककर देवराज चौहान इधर-उधर नजरें घुमाने लगा।

"मैं जानती थी देवा कि तुम मुझसे बातें करने जरूर आओगे।"

"मेरे सामने आओ।" देवराज चौहान के स्वर में सख्ती आ गई थी।

"कहा ना, यहां से कुछ दूर चलना होगा। वहां तुम्हें अपना रूप दिखाऊंगी। आओ बातें करते हुए चलते हैं।"

दो पलों तक तो देवराज चौहान अनिश्चित-सा खड़ा रहा, फिर बोला।

"किस तरफ चलना है।"

"दाई तरफ वाले रास्ते पर चलो। कच्चा-पतला रास्ता तुम्हें नजर आ रहा होगा। आज तो चंद्रमा भी अपनी चांदनी पूरी तरह बिखेर रहा है।" फुसफुसाहट में मुस्कान आ गई थी--- "चंद्रमा मेरे देवा के आने का स्वागत कर रहा है।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़कर उस रास्ते पर चल पड़ा, जिस पर चलने को उसे कहा गया था। वो उस फुसफुसाहट का एक-एक शब्द ध्यान से सुन रहा था।

"देवा।"

"हूं।"

"क्या सच में तुम्हें कुछ भी याद नहीं। अपनी रानी को भूल गया तू।” इस बार फुसफुसाहट में उदासी के भाव का स्पष्ट एहसास हुआ उसे ।

"मैं नहीं जानता तुम क्या कह रही हो।" उसके नजर न आने की वजह से देवराज चौहान बातें करने में असुविधा महसूस कर रहा था।

“मैं जानती थी देवा कि जब तू मिलेगा तो मेरे को पहचान नहीं पाएगा। तेरे को कुछ भी याद नहीं होगा। लेकिन मैं तेरे को सब याद दिला दूंगी। अब तू आ गया है तो सब ठीक जाएगा।" फुसफुसाहट में थकान के भाव थे।

"तुम्हें पता था कि मैं तुम्हें मिलूंगा ?”

"हां, मैंने तो एक-एक पल, गिनकर निकाला है। मुझे हमेशा पता रहा कि तेरे मिलने में अभी कितनी देर है । तेरे इंतजार में मैंने बहुत दुख पाया। बहुत तकलीफ हुई मुझे।" फुसफुसाहट में दर्द के भाव थे। शब्दों में प्यार और अपनापन महसूस किया देवा ने--- "लेकिन अब सब ठीक हो जाएगा। क्यों देवा-सब ठीक होगा ना ?"

"मुझे क्या पता ?" चलते-चलते देवराज चौहान ने कहा। अंधेरे से भरे अनजान रास्ते पर वो आगे बढ़ रहा था। चंद्रमा की रोशनी उसे आगे का रास्ता दिखाने में सहायक सिद्ध हो रही थी।

रानी बताया था फुसफुसाहट वाली आवाज ने अपना नाम। कौन थी ये रानी, जो कहती है कि उसे उसके आने का पता था। वो इंतजार कर रही थी उसके आने का। ये नजर क्यों नहीं आ रही ? वो तो इससे पहले इस आवाज वाली से कभी नहीं मिला। देवराज चौहान ने ये भी महसूस किया कि उसका अपने पर जो बस था, वो कुछ कमजोर सा हो गया है। वो क्यों इसके कहने पर उस मकान से बाहर आ गया? क्यों इसके कहने पर इस रास्ते पर चल पड़ा। मात्र अनजान आवाज को सुनकर, वो क्यों चल पड़ा।

उस वक्त देवराज चौहान ये बातें सोच अवश्य रहा था। परंतु चाहकर भी रुक नहीं पा रहा था कि वापस चला जाए। उसने महसूस किया कि जैसे कोई उसे आगे को खींच रहा है।

एकाएक देवराज चौहान ने अपनी इच्छा शक्ति का इस्तेमाल किया कि बढ़ते कदमों को रोके।

"क्या हुआ देवा?" उसी पल वो फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "तुम परेशान क्यों हो रहे हो?"

"मैं तुम्हारे साथ क्यों जा रहा हूं। तुम्हारे बताए रास्ते पर क्यों बढ़...!"

फुसफुसाहट भरी हंसी उसके कानों में पड़ी।

"इसलिए कि तुम अपनी रानी से मिलना चाहते हो। क्या मुझे देखना नहीं चाहते ?"

"हां।" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"तो चलते रहो। सामने ही वो जगह आ रही है, जहां तुम मेरा रूप देख सकोगे। मैं...!"

"लेकिन तुम हो कौन ?” देवराज चौहान का स्वर कुछ तेज हो गया।

"बहुत जल्दी जान जाओगे।" युवती की आवाज में गहरी सांस लेने का भाव आया--- "बेचैन तो मुझे होना चाहिए कि लंबे इंतजार के बाद तुम्हें पाया है। तुम्हें तो कोई इंतजार नहीं था मेरा। तुम तो जन्म लेते रहे। नए जीवन में व्यस्त रहे। कुछ भी याद नहीं रहा तुम्हें पहले का। पेशीराम तुम्हें अवश्य कुछ बार पूर्वजन्म की दुनिया में ले गया। तुम अपने रिश्तेदारों से मिले। और...!"

"तुम्हें कैसे मालूम?" देवराज चौहान के होंठ हिले ।

"सब मालूम है मुझे। बहुत कुछ पता है मुझे, लेकिन बेबस कर रखा है मुझे।"

"बेबस ! किसने ?"

"जल्दी मत करो सब कुछ जानने की। इस तरह तुम्हें कुछ भी समझ नहीं आएगा। लेकिन अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। तुम्हारा ही तो इंतजार था। तुम अपनी रानी को आजाद करा दोगे। मैं जानती हूं कि देवा जो भी काम करना चाहे, कर सकता है।"

देवराज चौहान को अपना सिर फटता सा महसूस हुआ।

"मैं तुम्हारी कोई बात ठीक से समझ नहीं पा रहा हूं।" देवराज चौहान की आवाज तेज हो गई।

चंद पलों की खामोशी के बाद युवती की आवाज पुनः कानों में पड़ी।

"शायद ठीक कह रहे हो देवा कि तुम कुछ भी समझ नहीं रहे। समझ भी कैसे सकोगे। अभी मेरे पास भी इतना वक्त नहीं कि तुम्हें समझा सकूं लेकिन अब ज्यादा देर नहीं रही। बहुत जल्दी तुम सब समझ जाओगे।" युवती की आवाज में भारीपन आ गया था--- "वक्त से पहले मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकती।"

"वक्त--कैसा वक्त ?"

"कुछ मत पूछो--वो सामने देखो, कितना बड़ा टीला है।"

"हां।" देवराज चौहान की निगाह सामने उठ गई थी। चंद्रमा की रोशनी में दूर-दूर तक खाली जमीन नजर आ रही थी। वहां पेड़ों के अलावा टीले थे। ऐसा लगता था जैसे मिट्टी के पहाड़ इकट्ठे हो गए हों।

"तुम यहां पर इसी जमीन की खातिर लाए गए हो।"

"ओह!"

"विष्णु सहाय इस जमीन को खरीद चुका है और अब इसे समतल करके ऊपर अपना काम शुरू करना चाहता है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाएगा।" युवती की फुसफुसाहट में गंभीरता के भाव आ गए थे--- "कम से कम जब तक मेरा ठिकाना यहां है, यहां कोई भी कुछ नहीं कर सकता। मैं किसी को कुछ नहीं करने दूंगी। मुझे इस बात का आदेश दिया गया था कि मैं किसी को भी भीतर न आने दूं। उस आदेश का पालन करना भी मेरा धर्म है देवा ।"

"किसने दिया था ये आदेश ?"

"जिन्होंने मुझे कील दिया था यहां अपने शक्तिशाली मंत्रों से। मुझे जब 'कीला' गया तो साथ में कुछ आदेश भी दिए थे। उन आदेशों का पालन नहीं करूंगी तो मैं भस्म हो जाऊंगी और मैं भस्म नहीं होना चाहती। क्योंकि मेरा लक्ष्य तुम्हें पाना है। अब तुम आ गए हो देवा । सबसे पहले तुम्हारा पांव ही भीतर पड़ना चाहिए। तुम्हारा पांव भीतर पड़ते ही नए चक्र की शुरुआत हो जाएगी। यही विधि है, यही विधान है। यही...!"

"किसने कीला था तुम्हें--तुम...!"

"रुक जाओ देवा।"

देवराज चौहान उसी पल ठिठक गया।

चंद्रमा की रोशनी पहले से तेज हो गई थी। मध्यम हवा में पेड़ों के पत्तों की खनखनाहट कानों में पड़ रही थी। कभी-कभार उन पत्तों के हिलते होने का एहसास भी होने लगता। चंद्रमा की रोशनी में पेड़ों की छायाएं भी स्पष्ट नजर आ रही थी। उस सुनसान जगह पर दूर-दूर कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। देवराज चौहान उस ऊंचे टीले के करीब खड़ा था। हवा की वजह से कभी-कभार जरा-जरा धूल उड़ती दिख जाती थी।

कोई दूसरा होता तो मन ही मन हिल जाता रात का ऐसा माहौल देखकर।

देवराज चौहान की गंभीर निगाह हर तरफ जा रही थी।

"कैसा लग रहा है देवा ?" अब वो आवाज फुसफुसाहट की अपेक्षा स्पष्ट कानों में पड़ी।

देवराज चौहान ने आवाज की दिशा की तरफ देखा तो कोई न दिखा।

"तुम... तुम यहां मुझे अपना रूप दिखाने वाली थी।" देवराज चौहान ने कहा।

"हां, मुझे याद है कि मैंने तुम्हें ये बात कही थी लेकिन मेरे पास वक्त कम है। मुझे वापस अपनी जगह पर पहुंचना होगा। अभी मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाऊंगी।" वो ही स्पष्ट आवाज कानों में पड़ी।

"क्या मतलब?"

"वक्त बरबाद मत करो देवा। सामने देखो, आगे बढ़ो। मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूं।" इस बार युवती यानी कि रानी की आवाज में व्याकुलता भर आई--- "मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूं।"

"अगर तुम मुझे दिखाई दो तो हममें अच्छी तरह बात हो...।"

"अभी तुम मुझे नहीं देख पाओगे। मैंने किताब में झांका है, वहां पर स्पष्ट लिखा है कि अभी वक्त नहीं आया कि मैं तुम्हारे सामने आऊं। अगर मैंने अपना रूप तुम्हें अभी दिखाना चाहा तो अनर्थ हो जाएगा।"

देवराज चौहान के होंठ भिंच गए। आंखें सिकुड़ीं ।

"तुम जान-बूझकर इस बात को टाल रही...!"

"गलत मत कहो देवा। ऐसा तुम्हारे मुंह से सुनकर दिल दुखता है।" आवाज में प्यार भरी पीड़ा भर आई थी--- "भला तुम्हें क्यों टालूंगी ? तुम्हारे साथ ऐसा करने की तो मैं सोच भी नहीं सकती।"

देवराज चौहान के होंठ भिंचे रहे।

"वक्त बीता जा रहा है देवा। मैं अब ज्यादा देर रुक नहीं पाऊंगी। क्या तुम मुझे देखना नहीं चाहते। क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी रानी तुम्हें दिखे। मेरे सामने बैठकर पहले की तरह बातें करो। तुम...!"

"मैं नहीं जानता पहले की बातें।" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"हां, मैं तो भूल ही गई थी कि तुम्हें पहले का कुछ याद नहीं।" रानी के सुनाई देने वाले स्वर में दुख के भाव थे--- "लेकिन तुम्हें मैं याद दिलाऊंगी देवा। याद दिलाना ही पड़ेगा। तुम्हें वापस उसी दुनिया में लेकर जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे और मेरे कई काम अधूरे पड़े हैं। वो तुम्हारे हाथों से ही तो पूरे होने हैं।"

देवराज चौहान ने खुद को भारी तौर पर उलझन में फंसे पाया।

"कैसे काम ?"

"वक्त आने पर मालूम हो जाएगा। आगे बढ़ो देवा।"

"आगे तो मिट्टी का टीला है।"

"हां। आगे बढ़ो-जल्दी करो। "

देवराज चौहान आगे बढ़ा। दो-चार-आठ-दस बारहवें कदम पहुंचते ही रानी की आवाज सुनी।

"रुक जाओ।"

देवराज चौहान ठिठका ।

"नीचे झुको और इस जगह पर हाथों से मिट्टी उठाकर, निशान लगा लो।"

"क्यों ?"

"जो कह रही हूं वो करो। कुछ भी पूछो मत।" रानी का व्याकुल सा स्वर उसे सुनाई दिया।

देवराज चौहान नीचे झुका और दोनों हाथों से मिट्टी उठाकर एक तरफ फेंक दी।

"यहीं से खुदाई शुरू करना।"

"क्या! खुदाई ? लेकिन क्यों, मैं तो...!"

"अब तुम्हारी हर बात का जवाब तुम्हें आने वाला वक्त ही देगा। मैं जा रही हूं देवा। मुझे जाना है। इससे ज्यादा देर मैं अपनी जगह छोड़कर दूर नहीं रह सकती। हम जल्दी मिलेंगे देवा।"

"मेरी बातों का जवाब दो कि तुम कौन हो और...!"

देवराज चौहान अपने शब्द पूरे न कर सका। जाने उसे क्या हुआ कि उसके होश गुम से होने लगे। फिर उसके बाद उसे कुछ भी होश नहीं रहा कि क्या हुआ।

■■■

सुबह जब देवराज चौहान की आंख खुली तो दिन के आठ बज रहे थे। जगमोहन उसे हिलाकर उठा रहा था। उसने देखा कि सब ही लगभग तैयार हो चुके हैं। तैयार हो रहे हैं ।

"उठो।" जगमोहन बोला--- "बहुत गहरी नींद में रहे। अब तैयार हो जाओ। कुछ ही देर बाद नाश्ता आने वाला है। फिर विष्णु सहाय की उस जमीन पर चलना है, जिसके लिए हम यहां आए हैं।" कहने के साथ ही जगमोहन अपने कामों में व्यस्त हो गया।

देवराज चौहान ने आस-पास देखा।

वो गांव के उसी मकान में था, जहां रात वो सोया था।

लेकिन यहां आया कैसे ?

रात का वक्त देवराज चौहान के सामने नाचने लगा।

वो आवाज ! युवती की आवाज---उसे घर से बाहर ले जाना। बातें करना। खुद को रानी कह रही थी, उसके पहले के जन्म की पहचान वाली कह रही थी। बता रही थी कि उसे 'कील' दिया गया है। वो-वो ये भी कह रही थी कि उसने अभी कई काम पूरे करने हैं, जो पहले अधूरे रह गए थे। वो उसे अपना रूप दिखाना चाहती थी लेकिन दिखा नहीं पाई और अचानक ही जाने को बेचैन हो गई। फिर वो चली गई और उसके बाद उसे होश नहीं रहा।

वो-वो वहां था मिट्टी के टीले के पास।

फिर यहां कैसे आ गया ?

टीले की शुरुआती जमीन पर उससे कहीं निशान लगाने को कहा था। वो कह रही थी कि यहां से खुदाई करनी है। खुदाई... ? क्यों खुदाई करनी है। देवराज चौहान के मन में बेचैनी की लहर उठी।

कौन थी रानी ?

उससे क्या चाहती है ?

"बैठे-बैठे नींद ले रहे हो क्या ?"

विष्णु सहाय के शब्दों पर देवराज चौहान ने गरदन घुमाकर उसे देखा।

एकदम तैयार खड़ा, उसे देखता मुस्करा रहा था।

"चलो, तुम्हें जमीन दिखाता हूं। देर की तो तेज धूप निकल आएगी।"

देवराज चौहान के मस्तिष्क में रानी घूम रही थी। उसे अभी भी ऐसा लग रहा था, जैसे रानी की फुसफुसाहट कानों में पड़ रही हो। उसका मन अजीब से भंवर में फंसा पड़ा था और मस्तिष्क में बसी ढेरों सोचें जैसे आपस में गुड़मुड़ हो गई थी। खुद को अजीब से हालातों में फंसा महसूस करता हुआ देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।

लेकिन अपनी सोचों से वो रानी को दूर नहीं कर पा रहा था।

उसकी मीठी फुसफुसाहट जैसे कानों में बस गई थी देवराज चौहान के ।

■■■

सुबह छः बजे रुस्तम राव ने बंगले पर पहुंचकर बांकेलाल राठौर को नींद से उठाया।

"कब तक सोएला बाप। दिन चढेला है।"

बांकेलाल राठौर ने आंखें खोली और कह उठा।

"कब आयो छोरे ?"

"अपुन तो अभी पौंचेला है।" रुस्तम राव बेड के पास ही कुर्सी खींचकर बैठ गया--- "इधर क्या होएला। थापर साहब अपुन को फोन पर बताईला कि देवराज चौहान और मोना चौधरी में झगड़ा होईला।"

"तम भोपालो का काम पूरा करो कि... ?"

"सब फीट होईला।" रुस्तम राव ने हाथ उठाकर कहा ।

बांकेलाल राठौर सिर हिलाकर कह उठा।

"छोरे! बोतो मुश्किलों से मामलो टलो हो देवराज चौहान और मोन्नो चौधरी को...!" इसके साथ ही बांकेलाल राठौर ने रुस्तम राव को सब कुछ बताया कि क्या-क्या हुआ था।

रुस्तम राव गंभीरता से सब कुछ सुनता रहा।

बांकेलाल राठौर के खामोश होते ही बोला।

"तो मामला निपटेला बाप।"

"हां।" बांकेलाल राठौर ने सिर हिलाया।

"उधर, वो इंस्पेक्टर के साथ मोना चौधरी क्या करेला ?"

"म्हारे को का मालूम। ये तो पक्को हौवे कि उसो पर तोप दाग दयो। "

"महेशपाल के बारे में मालूम करेला कि वो ठीक होएला क्या...मोना चौधरी उसे तो गोली न मारेला।"

"उसो को मोन्ना चौधरी क्यों मारो हो ?"

"क्या मालूम बाप।" रुस्तम राव ने गहरी सांस ली।

बांकेलाल राठौर फौरन बेड से उतर गया।

"क्या होईला ?”

"अम उसो सब-इंस्पेक्टर के बारे में मालूम करेला, थाने जा के...!"

"हूं, थापर साहब ठीक होएला ?"

"हां!"

"देवराज चौहान भी ठीक होएला ?"

"हां छोरे, वो काशीपुर गयो, जगमोहन के साथो। म्हारे को तो लागे सोहनलाल भी उनो के साथो ही हौवो।" बांकेलाल राठौर बाथरूम की तरफ बढ़ता हुआ बोला--- "तम रात के जगो हो, नींद मार लयो।"

■■■

बांकेलाल राठौर पुलिस स्टेशन पहुंचा।

आज थाने में ज्यादा भीड़ थी। हर पुलिस वाला मुस्तैद नजर आ रहा था। पुलिस गाड़ियां आ-जा रही थीं। बड़े ऑफिसरों की गाड़ियां खड़ी दिखीं। सामान्य वक्त में थाने में पुलिस वालों की इतनी चहल-पहल नहीं होती थी।

बांकेलाल राठौर बाहर ही खड़े कांस्टेबल के पास पहुंचा।

"क्यों भायो, यां पे इत्ती भीड़ क्यों हौवे ?"

"इंस्पेक्टर साहब की लाश मिली है, किसी ने गोली मार दी।" कांस्टेबल बोला।

"यो तो बोत बुरो होयो। एको ही लाश मिल्लो हो?"

"क्या मतलब ?"

"म्हारो मतलब हौवे कि एको ही इंस्पेक्टर की लाश मिल्लो हो । दुई की तो न मिल्लो हो।"

कांस्टेबल ने बांकेलाल राठौर को सिर से पांव तक घूरा, फिर बोला।

"एक ही लाश मिली है।"

"ये सबो ऊपर वालो ही करो हो। सुन म्हारे को सबो-इंस्पेक्टर महेशपालो से मिलनो हौवे। वो किधर है ?"

"भीतर है।"

"उसो को बुला दयो। अम... !"

"तुम भीतर जाओ। मेरी ड्यूटी है यहां।"

बांकेलाल राठौर थाने के भीतर गया। दस मिनट लगे महेशपाल को ढूंढने में।

महेशपाल उसे देखते ही उसे लेकर एकांत में पहुंचा।

"तुम क्यों आए ?"

"थारे को देखने वास्ते आयो कि तम ठीक हो। मोन्ना चौधरी थारे की गरदनो तो न काटो हो।"

"म... मैं ठीक हूं।" महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"थारी हालत क्यों खराब दिखो हो ?" बांकेलाल राठौर ने उसके चेहरे पर नजरें टिका दीं।

"वो... लोकनाथ ने यहां बहुत गड़बड़ कर रखी थी। नेता की बहन का केस मेरे खिलाफ तैयार कर रहा था। कांस्टेबल सेठी को मेरे खिलाफ गवाही देने को तैयार किया था, जबकि उसी ने ही हत्या और बलात्कार किया।"

"पक्को ?" बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ीं।

"हां, अब वो फंस गया है। हेडक्वार्टर से बड़े ऑफिसर यहां आए पड़े हैं।"

"लोकनाथो को पैले ही पतो हौवे कि कांस्टेबलो सेठी यो सब करो हो ?"

"हां, उस दिन मोना चौधरी के साथ सोहनलाल के घर आने से पहले पता था।" महेशपाल ने गहरी सांस ली।

"ईब तो लोकनाथो का टंटा खत्म हो गयो ?"

"हां, मेरे सामने ही मोना चौधरी ने उसे गोली मारी थी।" उसके स्वर में घबराहट थी।

"बढ़िया करो हो। इंस्पेक्टर थारे को तो कोईयो प्राब्लम न हौवो ?"

"नहीं, तुम लोगों ने मेरी बहुत सहायता की। वरना...!"

"बीती बातों न बोलो तम। तम बचो, येई बढ़िया हौवे। अम चल्लो ईब और... !"

"सुनो।" सब-इंस्पेक्टर महेशपाल गंभीर स्वर में बोला--- "मैं कुछ कहूं तो मोना चौधरी को तो नहीं बताओगे कि ये बात मैंने तुम्हें बताई है। तुम लोगों ने मेरी सहायता की है, इसलिए ये बताना जरूरी...।"

"तम बोल्लो।" राठौर की आंख सिकुड़ीं--- "मोन्नो चौधरी को न पता चल्लो।"

महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी, फिर धीमे स्वर में बोला।

"मरने से पहले लोकनाथ ने मोना चौधरी से कहा कि देवराज चौहान ने उसके बीवी-बच्चों को मारने की धमकी देकर उसे मजबूर किया कि वो पुलिस का घेरा डलवाकर उसे मार दे।"

बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ीं।

"थारो मतलब कि मारणो से पैले लोकनाथो ने मोना चौधरी को झूठ बोलो के भड़का दयो।"

महेशपाल ने सिर हिलाया।

"फिरो ?"

"थोड़ी सी गलती मेरे से हो गई।"

"तम बातो बोल्लो हो।"

"वो...!" महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरने के बाद कहा--- "लोकनाथ को गोली मारने के बाद मोना चौधरी ने रिवॉल्वर मेरी तरफ कर दी और पूछा कि देवराज चौहान कहां मिलेगा। मैंने कहा, पता नहीं और उसके दोबारा पूछने पर मेरे मुंह से घबराहट में निकल गया कि जगमोहन का साथी सोहनलाल से कह रहा था कि एक-दो दिन में उन्होंने काशीपुर गांव जाना है। लोकनाथ की बात से मोना चौधरी गुस्से में थी। वो देवराज चौहान को जान से मारने के इरादे से काशीपुर गांव पक्का जाएगी। देवराज चौहान काशीपुर गांव तो नहीं गया ?"

"वो तो चल्लो गयो ?" बांकेलाल राठौर ने दांत भींचकर कहा ।

दोनों एक-दूसरे को देखते रहे।

"तम ये बातों म्हारे को पैलो क्यों न बतायो हो ?"

"कहाँ बताता, किसे बताता। सोहनलाल के फ्लैट पर गया---वहां तो कोई भी नहीं था और किसी का फोन नंबर नहीं था।" महेशपाल जल्दी से बोला ।

"काम करनो की थासे स्पीड बोत कम हौवो।" बांकेलाल राठौर ने कहा और पलटकर थाने से बाहर निकला और पास ही पब्लिक बूथ से रुस्तम राव से बात की---उसे मोना चौधरी के बारे में बताया कि वो देवराज चौहान के पीछे काशीपुर गांव पहुंचकर देवराज चौहान के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है।

"बाप! ये तो गड़बड़ होएला ।"

"तम तैयार हो जाइयो। पैले मोन्ना चौधरी को शहर के होटलों में ढूंढो। अम भी उसो तलाशो हो। वो मिल्लो तो म्हारे को मोबाइल पर फोन मार लयो। स्पीड से भागो छोरे। मोना चौधरी को पकड़ो हो।"

■■■

देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल और विष्णु सहाय जमींदार के मकान से उस जमीन की तरफ बढ़े। हालांकि विष्णु सहाय रास्ता बताता जा रहा था परंतु देवराज चौहान को जाने क्यों वो रास्ता पुराना लग रहा था कि उस रास्ते को वो सैकड़ों-हजारों बार तय कर चुका हो।

वैसे भी रात की चांदनी में रानी की आवाज के संग यहाँ रास्ता तय किया था।

जाने क्यों, यहां पर आना, इस रास्ते पर चलना उसे अजीब सा लग रहा था। रात को उसने यही रास्ता तय किया था। तब चंद्रमा की तेज चांदनी में ये सब चमक रहा था, अब सूर्य की रोशनी में।

तभी जगमोहन पास आया और धीमे स्वर में बोला।

"जब से यहां पहुंचे हैं, तुम मुझे किसी कशमकश में फंसे दिखाई दे रहे हो।"

देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़े और सिग्रेट सुलगाई।

"सच में कोई बात है या मुझे यूं ही ऐसा लग रहा है ?"

"बात है।" देवराज चौहान ने कश लिया।

"क्या ?"

देवराज चौहान ने चलते-चलते जगमोहन पर निगाह मारी।

"फिर बताऊंगा।"

जगमोहन ने गहरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा, फिर खामोशी से चलने लगा।

बारह-तेरह मिनट बाद ही वो सब उसी जमीन के हिस्से पर पहुंचे, जिधर वो रात को आया था लेकिन जहां वो खड़ा हुआ था, ये जगह वो नहीं थी। दूसरी तरफ थी।

"ये है वो जगह।" विष्णु सहाय ऊंचे स्वर में कह उठा--- "यहां से मेरी जमीन शुरू होती है और... !"

अपनी खरीदी जगह के बारे में बताता रहा वो।

जगमोहन, सोहनलाल, विष्णु सहाय से बातें करते रहे। वो जगह में कुछ आगे भी चले गए थे।

देवराज चौहान ने उन्हें देखा, फिर दूसरी तरफ कदम बढ़ा दिए। पलटकर एक बार दूर नजर आते गांव की तरफ देखा।

सामने छोटे और बहुत बड़े मिट्टी के टीले नजर आ रहे थे। वो उन्हीं में से बड़े टिले के पास पहुंचा और उसके गिर्द घूमता हुआ, वहां जा पहुंचा जहां वो चांदनी रात के अंधेरे में आया था।

देवराज चौहान की निगाह टीले के नीचे, जहां जमीन से टीले का उठान शुरू होता था, देखा। उसी पल उसके होंठ भिंच गए। वहां जमीन पर उसके पांवों के निशान और जहां से उसने दोनों हाथों से मिट्टी उठाई थी, वो निशान भी दिखे।

देखता रह गया देवराज चौहान उस जगह को ।

रानी की आवाज के शब्द उसे याद थे। उसने कहा था यहां से खुदाई करना।

यहां से खुदाई... क्यों... क्या है इसके नीचे ?

कौन थी रानी जो उससे जाने किस बीते वक्त की बातें कर रही थी। क्या बातें कह रही थी। समझकर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वो उसे अपना रूप दिखाना चाहती थी, परंतु... ।

देवराज चौहान की सोचें टूटी।

छम... छम... छम... छम...

पायल की आवाज थी जो उसके कानों में एकाएक पड़ने लगी थी। देवराज चौहान को पल भर के लिए लगा कि ये आवाज उसका भ्रम हैं। अपने सिर को झटका दिया लेकिन वो आवाज उसके कानों में पड़ रही थी। तभी उसे लगा कि आवाज उसके पीछे से आ रही है। वो तुरंत पलटा ।

बीस फीट दूर मिट्टी का कच्चा रास्ता था, जो कि गांव की तरफ आता था और यहां से होता हुआ आगे खेतों में जाकर गुम हो जाता था। जिनकी जमीन थी उस तरफ, वो ही दिन में दो-तीन बार इधर से निकलते थे।

देवराज चौहान की निगाह खेतों की तरफ से आते रास्ते पर जा टिकी। वहां से वो युवती आ रही थी। हाथ में पुराना सा थैला पकड़े हुए थी। उसमें बरतन भरे हुए थे। चोली-घाघरा पहन रखा था उसने। बालों में कंघी कर रखी थी । चुटिया कूल्हों तक झूल रही थी। मांग चमकती हुई, पीछे तक जा रही थी। पिंडलियों में भारी पायल पड़ी थी, जो कि उसके कदम रखने पर छम-छम कर रही थी। सांवले से रंग की वो युवती बहुत खूबसूरत थी। नाक में नथनी पहनी हुई थी। कानों में बड़ी-बड़ी बालियां जो कि ठोडी तक जा रही थी। घाघरे की कमर के गिर्द चांदी की बेल्ट जैसी चीज पहन रखी थी। कलाइयों में कांच की चूड़ियां भी रह-रहकर खनक उठती थी।

वो युवती करीब आ चुकी थी और अपनी मोतियों जैसे दांत दिखाते, मुस्कराते देवराज चौहान को ही देख रही थी।

“नमस्कार बाबूजी।" वो खिलखिलाकर हंसी और रुक गई--- "आपको यहां पहले कभी नहीं देखा।"

देवराज चौहान सोच भरी निगाहों से उसे देखता रहा।

"आप सोच रहे होंगे कि कौन हूँ मैं। क्यों नहीं सोचेंगे। पहली बार आपने मुझे देखा है ना। सब जानते हैं मुझे। प्रेमा नाम है मेरा। वो सामने गांव में रहती हूं। उधर मेरे बापू की जमीन है। छाज और बेसन की रोटी देकर आ रही हूं बापू को।" कहकर उसने खाली थैले में पड़े बरतनों को थपथपाया--- "बापू को छाज और बेसन की रोटी बहुत पसंद है। वो कहते हैं---प्रेमा, जब तक तू है, तभी तक ये सब मुझे मिलता है। तू ब्याह करके चली जाएगी तो कौन देगा, कौन बनाएगा? मैं कहती हूं कि ब्याह नहीं करूंगी तो बापू डांटता है। पूरे-पूरे दिन खाना नहीं खाता।"

देवराज चौहान उसे देखता रहा ।

"घर में और कोई नहीं है। बापू और मैं। मां तो पांच बरस पहले कुएं में गिरकर मर गई थी। पानी का पीपा कुएं से खींच रही थी कि पांव फिसला और कुएं में गिर गई। कुछ घंटों बाद पता चला कि मां कुएं में गिर गई है लेकिन वो जिन्दा नहीं थी। जब निकाला तो मर गई थी।" प्रेमा ने भोलेपन से कहा--- "लेकिन तुम कौन हो बाबू ? मैंने पहले तो तुम्हें कभी नहीं देखा।"

देवराज चौहान ने हौले से सिर हिलाया ।

"मैं... मेरा नाम देवराज चौहान है।"

"देवराज चौहान---बाप रे! बहुत लंबा नाम है।" प्रेमा आंखें फैलाकर बोली--- "यहां क्या कर रहे हो बाबूजी ?"

देवराज चौहान की निगाह हर तरफ फैले मिट्टी के टीलों पर गई।

"इस जमीन को बराबर करने आया हूं। उसके बाद यहां...!"

"नहीं बाबू जी, नहीं!" प्रेमा जल्दी से बोली--- "यहां पर कोई काम नहीं करना। यहां वो रहती है।"

"कौन ?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"वो...वो मैं नहीं जानती उसे।" प्रेमा ने घबराकर सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "लेकिन मैंने उसे देखा है कई बार। खेतों पर बापू को खाना-पानी देने जाती हूं तो कभी-कभी वो नजर आ जाती है।"

"क....कौन है वो ?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ गई थीं।

"मुझे क्या मालूम बाबूजी कि वो कौन है।" प्रेमा कुछ करीब आकर धीमे स्वर में कह उठी--- "कभी वो इस टीले पर नजर आती है तो कभी उस टीले पर। उसने मेरी ही तरह चोली घाघरा पहन रखा है। कभी वो सादी सी साड़ी में होती हैं तो कभी सफेद सा कपड़ा कमर और ऊपर के हिस्से में लपेट रखा होता है। बाल उसके हमेशा मैंने खुले ही देखे हैं। उसका चेहरा इतना अच्छा लगता है कि जैसे वो अभी धोकर आई हो। बहुत खूबसूरत और भोली लगती है। उसकी आवाज भी बहुत...।" कहते-कहते एकाएक उसने होंठ बंद कर लिए। चेहरे पर भाव ऐसा था कि गलत बात कह दी हो।

देवराज चौहान प्रेमा को देखे जा रहा था।

"तुमने उसकी आवाज कैसे सुन ली ?"

वो चुप रही।

"जवाब दो। क्या वो तुमसे बात करती है या यूं ही वो बोलती है और...!"

"बापू डाटेंगे।"

"क्यों ?"

"मैंने बापू को बताया था लेकिन बापू ने कहा कि ये बात मैं किसी को बताऊं नहीं। गांव वाले सच नहीं मानेंगे और मैं बदनाम हो जाऊंगी। इसलिए मैं किसी को भी ये बात नहीं बताती।" प्रेमा ने धीमे स्वर में कहा।

“मुझे बताओ, मैं किसी को नहीं बताऊंगा।"

"बाद में तुमने बता दिया कि प्रेमा ऐसे कहती है तो गांव वाले मुझे...!"

"पक्की जुबान--नहीं बताऊंगा।"

प्रेमा ने सिर हिलाया। कुछ पल चुप रहकर बोली।

"बाबूजी! उधर गांव है, उधर खेत हैं। मेरा तो यहां से निकलना लगा रहता है। कभी बापू का सुबह का खाना-पानी देना है तो कभी दोपहर का। कई बार तो रात को मुझे ट्यूबवेल भी बंद करने जाना पड़ता है। दिन भर काम करने के बाद बापू थक जाता है ना। मैं तो भागकर जाती हूं और ट्यूबवेल बंद करके आ जाती हूं।"

देवराज चौहान प्रेमा को देखे जा रहा था।

"मैंने उसे कई बार टीले के ऊपर देखा है। दिन में भी रात में भी। जब चांदनी रात होती है तो वो अवश्य नजर आती है ।"

"प्रेमा, तुम उसकी आवाज के बारे में बता रही थी कि...!"

"हां, वो बहुत मीठा बोलती है। मेरे से कई बार बात की है।" प्रेमा ने फौरन कहा--- "किसी से कहना नहीं। पहले पहल तो मुझे बहुत डर लगा। जब उसने मुझे पुकारा। पास आने को कहा लेकिन अब तो उससे बात करके मुझे अच्छा लगता है। बेचारी बहुत दुखी है। मेरे बस में होता तो मैं उसकी सहायता जरूर करती।"

"क्या बातें करती है वो तुमसे ?" बेहद गंभीर था देवराज चौहान का स्वर ।

"वो बुलाकर मुझे पास बिठा लेती है।" प्रेमा ने गहरी सांस लेकर इस तरह कहा, जैसे वो सोच में डूब गई हो--- "मुझसे कहती है कि वो आजाद होना चाहती है। थक गई है। इस तरह बंधे-बंधे।"

"बंधे-बंधे! किसने बांध रखा है उसे?"

"मुझे क्या पता? वो कहती है मंदिर के प्रवेश द्वार पर 'कील' दिया गया है उसे। जाने किस वायुलाल का नाम लेती है वो--बहुत विद्वान है वो। उसने उसे कील दिया था। अब तो वो अपने मंत्रों को खुद भी काट नहीं सकता। उन मंत्रों से तो अब उसे देवा ही मुक्त करा सकता...!"

"देवा ?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"हां, जाने कौन है देवा। मुझे पता होता कि वो कहां रहता है तो मैं उसे अवश्य यहां ले आती।" प्रेमा ने दुखी स्वर में कहा--- "उस बेचारी को आजाद करा देती। लेकिन वो कहती है कि जल्द ही देवा आएगा। वो उसे अवश्य वायुलाल के मंत्रों से आजाद कराकर उसे खुशी देखा। तुम जानते हो बाबू कि देवा कहां रहता है ?"

देवराज चौहान उसे देखता रहा।

"चुप क्यों हो बाबू ?"

"उसका नाम क्या है ?"

"वो अपना नाम रानी बताती है, बहुत खूबसूरत है। कहती है देवा उसे बहुत प्यार करता है। उससे तो ब्याह भी करना चाहता था देवा, लेकिन हो नहीं सका। ये नहीं बताती कि क्यों नहीं हो सका। मैंने बहुत पूछा।"

"और क्या कहती है वो ?" देवराज चौहान गहरी सोच में डूबा दिखा।

"वो तो बहुत बातें बताती है। मुझे तो याद भी नहीं। याद आएगी तो तुम्हें जरूर बताऊंगी।" प्रेमा आस-पास देखते हुए कह उठी--- "लेकिन तुम कौन हो बाबू--यहां क्या कर रहे हो ?"

"मैं...!" देवराज चौहान बोला--- "इन टीलों को हटाकर जमीन बराबर.... !"

"हां, बताया था तुमने।" प्रेमा कह उठी--- "लेकिन तुम यहां कुछ नहीं कर पाओगे। रानी नाम है उसका। वो बताती है कि जमीन मंदिर की है। यहां पर वो किसी को कुछ नहीं करने देगी। मंदिर अपवित्र हो जाएगा। वायुलाल नाराज हो जाएगा कि उसे मंदिर की देख-रेख का जिम्मा सौंपा था और वो अपने काम को पूरा नहीं कर सकी। तुमसे पहले भी जो-जो इस जमीन को ठीक करने आया वो किसी न किसी तरह मर गया। तुम भी मर जाओगे बाबू ! चले जाओ यहां से।"

"वायुलाल कौन है?"

"मैं क्या जानूं ? जो रानी ने बताया था, वो ही बता रही हूं तुमसे। किसी से कहना नहीं, वरना गांव वाले मुझे पागल समझेंगे।"

"रानी ने बताया कि वो किस मंदिर की बात कर रही है। यहां पर कैसा मंदिर...!"

"मैं नहीं जानती। मैं उससे ज्यादा कुछ नहीं पूछती। वो ही बताती है। बातें करते-करते अचानक ही वो गायब हो जाती है लेकिन जाने से पहले वो अवश्य बता देती है कि वो जा रही है। तब तो मुझे लगता है वो भूत-प्रेत जैसी है लेकिन सोचने पर लगता है कि वो ऐसी नहीं है। वो तो बहुत अच्छी है। मेरे को तो सहेली जैसी लगती है।"

देवराज चौहान कुछ कहने लगा कि तभी कदमों की आहट कानों में पड़ी।

उसकी गरदन घूमी ।

टीले के पीछे से जगमोहन, सोहनलाल और विष्णु सहाय निकलकर इधर आ रहे थे।

"मैं चली बाबूजी।" प्रेमा उसी पल कह उठी।

देवराज चौहान ने उसे देखा ।

वो चल पड़ी। छम-छम-छम पायल की आवाज उसके कानों में पड़ने लगी।

देवराज चौहान उसे जाता देखने लगा।

"फिर आऊंगी बाबूजी।" पल भर के लिए ठिठककर प्रेमा ने उसे देखा और तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ गई। उसकी पायल की आवाज कानों में पड़ती रही। जाती हुई वो नजर आती रही।

"कौन थी ये ?"

जगमोहन की आवाज सुनकर देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।

"गांव में रहती है। उधर उसका खेत है। वहां से आ रही थी।"

"तुम तो यहां आ गए देवराज चौहान।" विष्णु सहाय बोला--- "मैं उधर इन्हें जमीन दिखा रहा था। खैर, तुम्हें भी नजर आ गई होगी सारी जमीन। जिस जगह पर टीले हैं, वो दूर तक मेरी ही जमीन है। तुम इस जगह को बराबर करवा दो। बहुत मेहरबानी होगी तुम्हारी। कभी नहीं भूलूंगा तुम्हें कि...!"

"यहां पर, इस कच्चे रास्ते के किनारे छोटे-छोटे दो तंबू लगवा दो।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "बाजार से रेडीमेड टैंट मिल जाते हैं। सोने के लिए तीन बेड का इंतजाम कर...।"

"समझ गया। रात को भी यहीं रहोगे ?" विष्णु सहाय बोला ।

"रहना पड़ेगा। ये काम ऐसे नहीं होगा।" देवराज चौहान ने कश लिया।

"पास में तो गांव है, जमींदार के घर में भी तुम लोग रह सकते...!" विष्णु सहाय ने कहना चाहा।

"नहीं, मैं इधर रहकर ही काम करूंगा।"

"ठीक है, मैं ड्राइवर को भेजकर पास ही के कस्बे सामान मंगवाता हूं।"

"खुदाई का सामान भी लाना है। वो भी नोट कर लो।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

"खुदाई का सामान ?" विष्णु सहाय के होंठों से निकला--- ''उसकी क्या जरूरत है ? काम करने वाले जो आएंगे, वो खुद ही...!"

"पहले काम हम ही शुरू करेंगे। उसके बाद जरूरत पड़ी तो मजदूरों को बुलाया जाएगा।"

"क्या ?" विष्णु सहाय के होंठों से निकला--- "क्या सारी जमीन टीलों को तुम लोग खुद ही बराबर....!"

"तुमने ही बताया था कि यहां पर जो भी काम करता है, वो मारा जाता है।" देवराज चौहान ने उसे देखा।

विष्णु सहाय ने सहमति में सिर हिलाया।

"तो मैं नहीं चाहता कि बेगुनाह की जान जाए। पहले दो दिन हम ही काम करेंगे, ताकि कुछ होना हो तो हमारे साथ हो।"

"खुद को खतरे में डालोगे ?"

"तुम्हें जो कहा है, वो काम करो।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था।