गुरुवार : ग्यारह मई : मुम्बई दिल्ली
साढ़े नौ बजे विमल माहिम पुलिस स्टेशन पहुंचा।
उस घड़ी उसके साथ शोहाब था जो कि तुका का इरफान जैसा ही भरोसे का आदमी था। इरफान और शोहाब में कोई फर्क था तो ये था कि इरफान निरा टपोरी था जबकि शोहाब पढ़ा लिखा, संजीदासूरत, संजीदामिजाज नौजवान था।
वे ड्यूटी आफिसर के पास पहुंचे।
“ये मिस्टर कौल हैं।” — शोहाब बोला — “मेरे बॉस हैं। इनकी बहन कल से लापता है।”
“बैठिये।” — ड्यूटी आफिसर बोला।
दोनों ड्यूटी आफिसर के सामने बैठ गये।
“अब फरमाइये!” — ड्यूटी आफिसर बोला।
“मेरी बहन कल कोलीवाड़े में होटल मराठा से चर्चगेट के लिये रवाना हुई थी लेकिन चर्चगेट न पहुंची। बीच में ही कहीं गायब हो गयी। अभी तक गायब है।”
“इधर क्यों आये?”
“क्या मतलब?”
“इस थाने के तहत तो न कोलीवाड़ा आता है और न चर्चगेट। आपको या सही थाने में जाना चाहिये था, या मिसिंग पर्संस ब्यूरो (गुमशुदा तलाश केन्द्र) में जाना चाहिये था या सैंट्रल कन्ट्रोल रूम से ‘100’ डायल करके दरयाफ्त करना चाहिये था।”
“मैंने कल रात ‘100’ नम्बर पर फोन लगाया था। मालूम हुआ था कि आपने इधर एक नौजवान लड़की की लाश बरामद की थी।”
“आपको ठीक मालूम हुआ था लेकिन उस लाश की शिनाख्त हो चुकी है।”
“हम फिर भी लाश की सूरत देखना चाहते हैं।”
“क्या फायदा?”
“कोई दिखायी तो नहीं देता! समझ लीजिये कि मन की तसल्ली केे लिये।”
“हूं। नाम क्या था आपकी बहन का?”
“अरे, साहब। भगवान के लिये उसे ‘था’ न बनाइये। मेरा दिल हिलता है।”
“नाम क्या है आपकी बहन का?”
“सुमन वर्मा।”
“वर्मा! आप तो कौल हैं।”
“वो मेरी मुंहबोली बहन है।”
“दिल्ली से आयी थी?”
“हां।”
“हुलिया बयान कीजिये।”
विमल ने किया।
“मिस्टर कौल, मोटे तौर पर आप उसी लड़की का हुलिया बयान कर रहे हैं जिसकी लाश कल माहिम क्रीक से बरामद की गयी थी। कल शाम उसका सगा भाई यहां आया था जिसे कि हमने लाश की शिनाख्त के लिये बान्द्रा के मुर्दाघर भेज दिया था।”
“सगा भाई आया था? कहां से आया था?”
“दिल्ली से उसके साथ ही आया बताता था वो अपने आपको। रमेश वर्मा नाम था।”
“कोई लोकल पता इस रमेश वर्मा का?”
“बताया तो था उसने लेकिन जिस नोट शीट पर मैंने वो पता नोट किया था, वो मैंने सब-इन्स्पेक्टर रावले को सौंप दी थी।”
“उसे किस लिये?”
“क्योंकि वो इस केस का इंचार्ज था और वो ही रमेश वर्मा को लाश की शिनाख्त के लिये बान्द्रा लेकर गया था।”
“इस वक्त वो कहां होगा?”
“होगा तो बान्द्रा के मुर्दाघर में ही होगा क्योंकि लाश की सुपुर्दगी उसी की देखरेख में होनी थी।”
“आई सी। ये रमेश वर्मा... इसने अपनी बहन का नाम सुमन वर्मा बताया था?”
“हां।”
“सुमन का कोई भाई नहीं था, जनाब। उसका कोई सगा सम्बन्धी इस दुनिया में जिन्दा नहीं है। मेरे सिवाय उसका इस दुनिया में कोई नहीं है।”
“कमाल है! फिर वो आदमी...”
“यकीनन कोई फ्रॉड था।”
“फ्रॉड किसी हासिल की खातिर किया जाता है। किसी गैर की लाश क्लेम करने में मुझे तो कोई फ्रॉड नहीं दिखाई देता!”
“लाश क्लेम कर चुका होगा वो?”
“कर ही चुका होगा। कल उसे सब-इन्स्पेक्टर रावले के साथ बान्द्रा के मुर्दाघर में भेजा गया था। अगर उसने लाश पहचानी होगी तो क्लेम भी की होगी।”
“कल ही?”
“कल तो नहीं। क्योंकि वो यहां काफी लेट पहुंचा था। उधर प्रशासनिक कार्यालय छ: बजे बन्द हो जाता है इसलिये मेरे खयाल से सुपुर्दगी की कार्यवाही आज कार्यालय खुलने पर ही हुई होगी। ”
“कितने बजे खुलता है कार्यालय?”
“नौ बजे।”
विमल ने घड़ी देखी और उठ खड़ा हुआ।
“हम वहां जाते हैं।” — वो बोला — “पता बताइये।”
“वो तो मैं बताता हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि आपका वहां जाना आपके किसी काम आयेगा।”
“क्यों? क्यों नहीं लगता?”
“क्योंकि मुझे नहीं लगता कि वो लड़की आपकी मुंहबोली बहन होगी।”
“अगर उसका नाम सुमन वर्मा बताया गया है तो...”
“ये एक कामन नाम है जो कि इत्तफाक से दो गुमशुदा लड़कियों का निकल आया है। इसी वजह से नाम के अलावा कोई बात नहीं मिलती। आप कहते हैं आपकी बहन कोलीवाड़े से चर्चगेट के लिये रवाना हुई थी जबकि वो लड़की घाटकोपर से सायन अपनी किसी सहेली के पास गयी थी जहां उसने हेरोइन का इंजेक्शन लिया था और फिर नशे का तजुर्बा न होने की वजह से बेध्यानी में समुद्र में गिर गयी थी और डूब कर मर गयी थी।”
“मेरी बहन की सायन में या मुम्बई में और किसी जगह कोई लोकल सहेली नहीं है और उसके हेरोइन का या कैसा भी कोई नशा करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।”
“तभी तो मैं बोला कि जिस सुमन वर्मा की लाश बरामद हुई है, वो आपकी बहन नहीं हो सकती।”
“मुर्दाघर का पता बोलिये।”
ड्यूटी आफिसर ने बोला।
हुमने ने अपनी देखरेख में लाश को ताबूत में पैक कराया और फिर सब-इन्स्पेक्टर रावले ने उसको अपनी देखरेख में सील कराया।
फिर हुमने को पोस्टमार्टम रिपोर्ट की कापी, डैथ सर्टिफिकेट और एक अन्य सर्टिफिकेट जो कि सर्टिफिकेट होल्डर को लाश को दिल्ली ले जाने का अधिकारी बताता था, सौंपा गया।
“देख लीजिये।” — रावले बोला — “मैंने बोला था आप आधे घन्टे में फारिग हो जायेंगे।”
“वैसे तो शायद न हो पाता” — हुमने कृतज्ञ भाव से बोला — “लेकिन आपकी मेहरबानी से हो गया हूं।”
हुमने ने अतिरिक्त मेहरबानी सब-इन्स्पेक्टर की मुट्ठी में चुपचाप पांच पांच सौ के चार नोट ठूंस कर दिखाई।
तत्काल रावले के चेहरे पर रौनक आयी।
“टैक्सी आपको मैं ठीक कर देता हूं।” — वो बोला — “ताकि वो आपको कार्गो आफिस ले जाने में कोई हुज्जत न करे।”
और दस मिनट बाद हुमने ताबूत के साथ एक टैक्सी में सवार सहर एयरपोर्ट की तरफ उड़ा जा रहा था जहां कि इन्डियन एयरलाइंस के कार्गो सैक्शन में उसने वो लाश जमा करानी थी और फिर हासिल कनसाइनीज कापी को झामनानी के लिये फैक्स कराना था।
फिर सारा दिन आराम।
दस बजे के करीब विमल और शोहाब बान्द्रा के मुर्दाघर पहुंचे।
शोहाब ने सुमन वर्मा की लाश की बाबत दरयाफ्त किया।
“वो तो गयी!” — एक अटेंडेंट से जवाब मिला।
“कहां गयी?” — विमल बोला।
“हमें क्या पता कहां गयी! इधर से गयी।”
“कौन ले गया?”
“लड़की का भाई।”
“कैसे ले गया?”
“टैक्सी बुलाई और ताबूत को उस पर लाद कर ले गया।”
“लेकिन ये पता नहीं कि कहां ले गया?”
“कैसे पता चलेंगा!”
“लाश की कोई तसवीर पीछे रखी गयी है?”
“आफिस से मालूम करो।”
आफिस से मालूम हुआ कि तसवीर उन लाशों की रखी जाती थी जिनकी शिनाख्त नहीं हो पाती थी। सुमन वर्मा की लाश की क्योंकि बाकायदा शिनाख्त हुई थी इसलिये ऐसी कोई तसवीर खींची जाने का कोई मतलब ही नहीं था।
शिनाख्त करने वाला वही शख्स था जिस के कि लाश सुपुर्द की गयी थी।
सुपुर्दगी की कोई रसीद?
बहुत मिन्नत समाजत के बाद उन्हें दिखाई गयी।
उस पर रमेश वर्मा के हस्ताक्षर थे और पते के स्थान पर लिखा था मार्फत जीवराज हुमने, बी-26, घाटकोपर, मुम्बई - 400077.
वे माहिम थाने वापिस पहुंचे।
सब-इन्स्पेक्टर रावले वहां नहीं पहुंचा था, लेकिन, ड्यूटी आफिसर ने ही बताया कि उसने हर हाल में लौट कर वहीं आना था।
“तुम इधर बैठो” — शोहाब को अलग ले जाकर विमल बोला — “और उस सब-इन्स्पेक्टर का इन्तजार करो।”
“किसलिये?” — शोहाब बोला।
“हो सकता है उसे मालूम हो कि लाश का क्लेमेंट ताबूत को कहां लेकर गया था!”
“मैं समझ गया।”
“बढ़िया। मैं घाटकोपर जाता हूं।”
“अकेले?”
“हां। मेरे पास बहुत थोड़ा वक्त है क्योंकि साढ़े ग्यारह बजे मेरी होटल सी-व्यू में हाजिरी है।”
“ओह!”
“उस सब-इन्स्पेक्टर से ताबूत की बाबत जानकारी हासिल हो तो उस पर अमल भी करना है। मेरी असल मंशा लाश पर एक निगाह डालने की है, जो करना, इस बात को निगाह में रख कर करना। ओके?”
शोहाब ने सहमति में सिर हिलाया।
हुमने घाटकोपर अपने घर लौटा।
वो अपने आप से और हालात से बहुत सन्तुष्ट था। सब कुछ ऐन मशीनी अन्दाज से फिट हुआ था। एयर कार्गो सैक्शन से ताबूत बुक करा के, बुकिंग से हासिल हुई कनसाइनीज कॉपी को फैक्स करा के और झामनानी से टेलीफोन पर बात करके अपने आपको उस काम से मुकम्मल तौर से फारिग जान कर वो वापिस लौटा था।
वो टी.वी. चलाकर उसके सामने पलंग पर ढेर हुआ ही था कि कालबैल बजी। उसने दरवाजा खोला।
आगन्तुक को देख कर वो सन्न रह गया।
वो ‘कम्पनी’ का पुराना खिदमतगार रहा था इसलिये वो ‘कम्पनी’ द्वारा अन्डरवर्ल्ड में प्रचारित सोहल की हर सूरत से वाकिफ था। उसने आगन्तुक को तुरन्त पहचाना।
सोहल वहां! अकेला! क्या उसे खबर लग गयी थी कि सुमन वर्मा के साथ उन्होंने क्या सलूक किया था?
ऐसा कैसे हो सकता था?
तो फिर वो वहां कैसे पहुंच गया?
क्या वाकेई वो अकेला आया था या उसके संगी साथी कहीं दायें बायें छुपे हुए थे।
‘कम्पनी’ खत्म न हो गयी होती तो उसे पचास पेटी का ईनाम और ‘कम्पनी’ के निजाम में ओहदेदारी हासिल होती सोहल की लाश गिराने की एवज में। तीन लाख का सरकारी ईनाम तो अभी भी कहीं नहीं गया था।
लेकिन क्या वो ऐसी जुर्रत कर सकता था?
‘कम्पनी’ के बड़े बड़े महन्तों की जिस शख्स के सामने पेश नहीं चली थी, जिसे काल पर फतह पाया शख्स बताया जाता था, जो अकेला ही एक फौज के बराबर बताया जाता था, क्या वो अकेला उससे पार पा सकता था?
नहीं — उसकी अक्ल ने जवाब दिया — अकेला नहीं।
“कहां खो गये, भाई?” — विमल मुस्कराता हुआ बोला।
“क... क्या.. क्या मांगता है?” — हुमने बड़ी कठिनाई से कह पाया।
“रमेश वर्मा से मिलना मांगता है।”
“कौन रमेश वर्मा?”
“जो दिल्ली से है, जो आपका दोस्त है और जो आपके साथ ठहरा हुआ है।”
“कौन बोला?”
“कोई बोला। तभी तो मैं इधर आया!”
“तुम उस... उस रमेश वर्मा से क्या मांगता है?”
“उसी को बताऊंगा।”
“इधर कोई रमेश वर्मा नहीं है। न इस नाम का इधर या दिल्ली में मेरा कोई दोस्त है। कोई गलत बोला। बंडल मारा।”
“तुम्हारा नाम जीवराज हुमने नहीं है?”
“यहीं नाम है मेरा। पण मैं किसी रमेश वर्मा को नहीं जानता।”
“लेकिन पता तो ये ही...”
“कोई गलती। आजू बाजू पूछो।”
“इधर जीवराज हुमने नाम का ही कोई और शख्स है?”
“नहीं, वो तो मैं ही हूं।”
“फिर आजू बाजू पूछने का क्या फायदा?”
“वो तो है।”
“तकलीफ माफ।”
“क्या?”
“मैंने कहा तकलीफ की माफी चाहता हूं।”
“ओह! वान्दा नहीं।”
ठीक साढ़े ग्यारह बजे होटल सी-व्यू की लॉबी में होटल का सारा स्टाफ जमा था।
विमल तब राजा गजेन्द्र सिंह बना वहां मौजूद था। वो कपिल उदैनिया का परिचय प्राप्त कर चुका था, उसे अपना परिचय दे चुका था और कौल की बाबत उसे बता चुका था कि उसका होनहार सैक्रेट्री किसी और जरूरी काम में कहीं और बिजी था।
उदैनिया राजा साहब के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ था।
विमल के पहलू में शानदार सूट पहने इरफान मौजूद था और रह रहकर लॉबी के किसी न किसी पिलर पर लगे शीशे में अपने आपको देख कर अपने आप पर बलिहार जा रहा था।
जो लोग लॉबी में मौजूद थे, वो गिनती में छ: सौ से ऊपर जान पड़ते थे।
पर्सनल मैनेजर ने विमल को — राजा साहब को — बताया था कि हाजिरी शतप्रतिशत तो नहीं लेकिन फिर भी वो अधिकतम लोगों को उधर निर्धारित वक्त पर तलब करने में कामयाब हो गया था।
“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” — कार्डलैस माइक हाथ में लिये उदैनिया बोला — “मेरा नाम कपिल उदैनिया है। मुझे राजा गजेन्द्र सिंह ने, जो कि आपके सामने मौजूद हैं, होटल का जनरल मैनेजर नियुक्त किया है। राजा साहब इस होटल के नये मालिक हैं जिन्होंने कि ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स से इसे लीज पर हासिल किया है। लीज की एक शर्त ये भी है कि राजा साहब छ: महीने में होटल से मुनाफा कमा कर दिखायेंगे। राजा साहब ने अब ये जिम्मेदारी मुझे सौंपी है कि हम लोग सामूहिक प्रयत्नों से इस शर्त पर खरे उतर कर दिखायें। अगर हम कामयाब हुए तो समझ लीजियेगा कि हम सब का भविष्य बहुत सुनहरा है। हमें नाकामी का मुंह देखना पड़ा तो आज की बेरोजगारी के जमाने में वो नाकामी सब पर भारी गुजरेगी। इसलिये मैं उम्मीद करता हूं कि आप लोग निर्धारित वक्त में इस प्रोजेक्ट को कामयाब बनाने में मेरे हाथ मजबूत करेंगे।”
उदैनिया के भाषण के दौरान विमल की तीखी निगाह पैन होती हुई एक एक चेहरे पर फिर रही थी।
“मैं यहां इस बात की कोई चर्चा नहीं करना चाहता कि आज से पहले ये होटल क्या था या क्या समझा जाता था लेकिन इतना जरूर बताना चाहता हूं कि आइन्दा ये होटल क्या होगा! आइन्दा ये होटल वैसी ही डीसेंट और इज्जतदार जगह होगी जैसी कि किसी फाइव स्टार होटल को होना चाहिये। इसलिये अब यहां के स्टाफ की, यानी कि आप लोगों की, ड्यूटियों का बंटवारा भी नये तरीके से होगा। मुझे मालूम हुआ है कि यहां का कुछ स्टाफ नाम को ही होटल का मुलाजिम था, असल में वो कुछ और ही काम करता था। और तो और, यहां का भूतपूर्व सिक्योरिटी आफिसर नाम को ही सिक्योरिटी आफिसर था, असल में वो यहां के भूतपूर्व बॉस गजरे साहब का सिपहसालार था। ऐसा यहां और भी ढेरों स्टाफ है जो तनखाह तो होटल से पाता था लेकिन भूतपूर्व बॉस लोगों के लिये कारोबार कोई और ही चलाता था। हमें उस स्टाफ से कोई जाती अदावत नहीं है क्योंकि वो स्टाफ वही करता था जो बॉस लोग उसे करने को कहते थे लेकिन मौजूदा निजाम में ये इन्तहाई जरूरी होगा कि जो वेटर है वो वेटर का ही काम करे, जो स्टीवार्ड है, वो स्टीवार्ड का ही काम करे, जो बारमैन है, वो बारमैन का ही काम करे, जो बैल ब्वाय है, वो बैल ब्वाय का ही काम करे वगैरह। तभी यहां मौजूद हर योग्य आदमी अपनी योग्यता और क्षमता के मुताबिक सही और भरपूर काम कर सकेगा। जो स्टाफ इन कैटेगरीज में नहीं आता, उनके लिये हमारे पास और योजना है जिसका खुलासा अभी मैं थोड़ी देर बाद तब करूंगा जबकि दोनों किस्म का स्टाफ अलग अलग मेरे सामने मौजूद होगा।”
उदैनिया एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “अब मैं आप लोगों से दरख्वास्त करता हूं कि जनाबेहाजरीन में से जो लोग ‘कम्पनी’ के काम करते थे, वो बायीं ओर हो जायें और जो लोग अपना शुमार होटल के क्वालीफाइड स्टाफ में मानते हैं, वो दायीं ओर हो जायें।”
कोई डेढ़ सौ आदमी हुजूम में से हटकर बायीं तरफ हुए।
दस पन्दरह लोग ऐसे थे जो कि कन्फ्यूजन में थे, इसलिये वो कभी दायें जाते थे तो कभी बायें।
आखिरकार सब सैटल हुए।
“वो” — एकाएक विमल इरफान की बांह थामता हुआ बोला — “वो काली पतलून और नीली कमीज वाला जो कमीज के नीचे गोल गले की काली टी शर्ट भी पहने है। वो कल रात ताज की टैक्सी पार्किंग में मेरे पांच हमलावरों में से एक था।”
“चौकस पहचाना, बाप?” — इरफान बोला।
“हां। यही था वो, अपने ही साथी के तलवार के वार से जिसकी हैल्मेट सिर से उतरकर गिर गयी थी।”
“मैं थामूं इसे?”
“अभी नहीं। इधर नहीं। पहले मालूम कर कि ये कौन है और गजरे के निजाम में इसकी कोई हैसियत थी या ये मामूली प्यादा ही था। ये आदमी बजातेखुद मेरे खून का प्यासा नहीं हो सकता।”
“क्यों भला?”
“होता तो इधर मौजूद न होता।”
“समझता होगा कि तू इसे नहीं पहचाना था।”
“हो सकता है। या हो सकता है कि मेरी उम्मीद से ज्यादा दीदादिलेर हो।”
“बाप, फिर तो ये बजातेखुद भी तेरे खून का प्यासा हो सकता है!”
“नहीं हो सकता।”
“फिर भी नहीं?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि इसको मेरी मौत से कुछ हासिल नहीं होने वाला। सोहल की लाश गिराने पर ऊंचे ओहदे का इनाम इकराम का वादा करने वाले तो सब जहन्नुमरसीद हो गये, अब ये क्यों मेरे पीछे पड़ेगा? वो भी मुझे मार डालने के लिये? मुझे गिरफ्तार करा के तीन लाख रुपये का सरकारी ईनाम हासिल करने का तमन्नाई होता तो कोई बात भी थी।”
“बाप, हमला तो ये तेरे पर किया! दो बार किया। पहले मेरिन ड्राइव पर और कल उधर ताज पैलेस की टैक्सी पार्किंग में। कोई तो वजह होगी, बाप!”
“वो वजह ही तो जानना जरूरी है वरना इन घात लगा के किये जाने वाले हमलों का सिलसिला तो तब तक चलता रहेगा जब तक कि ये कामयाब नहीं हो जायेंगे! तू इसके पीछे लग और पता कर कि ये है कौन और किस की सोहबत में है!”
“कुछ न पता चला तो?”
“तो तब इसे थामेंगे और इसी से पूछेंगे।”
“ये बतायेगा?”
“अब ये होटल हमारा है और यहां की बदनाम बेसमेंट भी हमारी है। ये ‘कम्पनी’ का आदमी है, बेसमेंट क्यों बदनाम है, इस बात से ये नावाकिफ न होगा। मियां मेरा यकीन जान, ये कितना ही बड़ा सूरमा क्यों न हो, बेसमेंट में ले जाने के खयाल से ही, देख लेना, इसके प्राण कांप जायेंगे। तू अभी इसके पीछे ही लग लेकिन अकेला नहीं।”
“मैं समझ गया, बाप।”
तत्काल इरफान उससे परे सरक गया।
“जो लोग बायीं ओर खड़े हैं” — उदैनिया कह रहा था — “पर्सनल मैनेजर साहब अभी उन सब के नाम नोट करेंगे। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अब इन लोगों के लिये होटल में जगह नहीं है। ऐसे स्टाफ को एक महीने का नोटिस या एक महीने की तनखाह देकर डिसमिस करने का प्रावधान है लेकिन राजा साहब बहुत दयानतदार आदमी हैं इसलिये सब को छ: छ: महीने की तनखाह के बराबर की रकम दी जायेगी।”
“हमें कुबूल नहीं।” — बायीं ओर के हुजूम में से कोई बोला।
“जिसे ये पेशकश कुबूल नहीं होगी, वो यहां से सीधा जेल में पहुंचेगा। पुलिस उन नोन क्रिमिनल्स और हिस्ट्रीशीटर्स को गिरफ्तार करके बहुत खुश होगी जो कि ‘कम्पनी’ के जेरेसाया होटल सी-व्यू को अपनी पनाहगार बनाये हुए थे। अब बोलो, किसे ये पेशकश कुबूल नहीं?”
कोई आवाज न आयी।
उदैनिया के लिये विमल का मन गहन प्रशंसा से भर उठा। उसने साबित कर दिखाया था कि खामखाह ही होटल बिजनेस में उसका बड़ा नाम नहीं था। काबिलेतारीफ चतुराई और दानिशमन्दी से उसने गेहूं अलग कर दिया था और भूसा अलग कर दिया था।
बद्हवास हुमने ब्रजवासी की हाजिरी भर रहा था।
“तूने ठीक पहचाना?” — ब्रजवासी बोला।
“हां, बाप।” — हुमने बोला — “वो खरा सोहल था।”
“फिर भी तूने उसे निकल जाने दिया? वहीं खत्म न कर दिया उसे?”
“मैं अकेला क्या कर सकता था, बाप?”
“अरे, वो भी तो अकेला था!”
“बाप, तुम इधर नवां है। तुम्हेरे को नहीं मालूम कि वो क्या बला है! उसका अकेला होना और मेरा अकेला होना एक ही बात नहीं है।”
“बेवकूफ! खामखाह उसके रौब से थर्राया जा रहा है। खामखाह इतना अच्छा मौका हाथ से निकल जाने दिया। जिस एक शख्स की हस्ती मिटाने की खातिर इतना खूनखराबा किया जा रहा है, उसे सामने पा कर भी कुछ न किया। लानत!”
“बाप, अब मैं क्या बोलेंगा?”
“वो वहां पहुंच कैसे गया?”
“हैरानी है, बाप।”
“मालूम करना था!”
“अब क्या फायदा! हमेरा काम तो हो गया। लाश वाला जहाज तो अब तक दिल्ली उतर भी चुका होगा।”
“तुझे उसके पीछे जाना चाहिये था।”
“जहाज के?”
“अहमक! सोहल के।”
“मेरी मजाल नहीं हुई, बाप। उसे पता चल जाता तो...”
“यानी कि औरतों के लिये ही सूरमा है।”
“अब क्या बोलेंगा, बाप!”
“चुप ही कर। इसी में तेरी भलाई है।”
“बाप...”
“इतना सुनहरा मौका हाथ से निकल जाने दिया। सोहल न हुआ, हौवा हो गया जिसके सामने पड़ते ही तेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी।”
“पण, बाप...”
“दफा हो।”
शोहाब होटल सी-व्यू पहुंचा।
“मुझे वो सब-इन्स्पेक्टर आपके जाते ही मिल गया था।” — उसने विमल को बताया — “उससे बात होते ही मैं गोली की तरह एयरपोर्ट पहुंचा था लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ था। इन्डियन एयरलाइन्स की वो फ्लाइट, जिससे ताबूत बुक था, मेरे सामने उड़ गयी थी। अब तब तो वो प्लेन दिल्ली पहुंच भी चुका होगा!”
“वो तो हुआ” — विमल उतावले भाव से बोला — “लेकिन वहां से कुछ तो जाना होगा!”
“बस, यही जाना कि कनसाइनमेंट बुक कराने वाला रमेश वर्मा था और उसने दिल्ली के लिये सैल्फ की बुकिंग कराई थी।”
“सैल्फ की बुकिंग क्या मतलब?”
“सैल्फ की बुकिंग में पाने वाले का कोई पता लिखना जरूरी नहीं होता। जिसके पास भी रसीद होती है, वो माल छुड़ा लेता है।”
“फिर तो वो शख्स भी ताबूत के साथ दिल्ली गया होगा?”
“मैंने उस फ्लाइट की पैसेंजर लिस्ट देखी थी। उसमें किसी रमेश वर्मा का नाम दर्ज नहीं था।”
“कोई फायदा न हुआ। ये तो पता न चला न, कि ताबूत में लाश सुमन की थी या नहीं!”
“बाप, वो वैसे भी कैसे पता चलता! जहाज न भी उड़ गया होता तो भी कार्गो बुकिंग सैक्शन में कौन मुझे ताबूत खोल कर भीतर झांकने देता! ताबूत प्लेन में लोड किया जा चुका होता तो क्या मेरा उसके कार्गो होल्ड में घुस पाना मुमकिन होता?”
“ठीक है, भाई, ठीक है।”
कुछ क्षण खामोशी रही।
“मुझे एक बात हज्म नहीं हो रही” — विमल यूं बोला जैसे स्वत: भाषण कर रहा हो — “कि मरने वाली हेरोइन के नशे में थी। यही बात मेरे मन में उम्मीद जगा रही है कि शायद वो सुमन न हो। शोहाब, मेरे भाई, तू एक काम कर।”
“हुक्म कीजिये!”
“बान्द्रा के उस मुर्दाघर में वापिस जा और उस डाक्टर का पता कर जिसने कि लाश का पोस्टमार्टम किया था। उससे जाती तौर पर इस बात की तसदीक कर कि क्या मरने वाली वाकेई हेरोइन के नशे में थी!”
“बेहतर।”
“हो सके तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट की एक कापी भी हासिल कर।”
“ठीक है।”
“तेरे पीछे मैं एयर फ्लाइट का दूसरा सिरा पकड़ने की कोशिश करता हूं।”
“जी!”
“मैं दिल्ली मुबारक अली को फोन लगाता हूं।”
झामनानी ने उस काली वैन का मुआयना किया जो कि हुकमनी उसे दिखा रहा था।
वैन के दोनों पहलुओ में सफेद अक्षरों में इंगलिश में हर्स और हिन्दी में शववाहन लिखा था।
वैसे शववाहन शहर के कई श्मशान घाटों पर पाये जाते थे, मुर्दा ढोने के लिये फिक्स्ड फीस भर कर मिलते थे और दिल्ली की सड़कों पर आम दिखाई देते थे।
झामनानी ने भोगीलाल की ओर देखा।
भोगीलाल ने सहमति में सिर हिलाया।
“वडी, क्या स्टोरी है, नी?” — झामनानी हुकमनी से बोला।
“ये निगमबोध घाट की असली गाड़ी है जो कि बिगड़ी हुई निकलसन रोड की एक रिपेयर शाप में खड़ी थी। वो रिपेयर शाप आज बन्द है क्योंकि मालिक के घर में मातम हो गया है। गाड़ी रिपेयर शाप के कम्पाउन्ड में वैसे ही लावारिस खड़ी थी जैसे कि ऐसी वाहियात गाड़ियां खड़ी होती हैं। मैंने चैक किया तो पाया कि इसमें कोई बड़ा नुक्स नहीं था। मैंने वो नुक्स खुद ही ठीक कर लिया और गाड़ी को इधर निकाल लाया। हमारा काम हो जाये, फिर मैं वापिस इसे वहीं खड़ी कर आऊंगा।”
“कहीं किसी ने टोका तो?”
“तो मैं जवाब दूंगा। मैं श्मशान घाट के ड्राइवर की वर्दी में होऊंगा। मैने वहां का एक नकली आइडेन्टिटी कार्ड भी बनवा लिया है। ये देखिये।”
दोनों दादाओं ने कार्ड का मुआयना किया और उससे सन्तुष्टि जतायी।
“मैने बहुत गौर किया है, साहब।” — हुकमनी बोला — “मुर्दा गाड़ी को कोई नहीं रोकता। कोई नहीं चैक करता।”
“चोखो।” — भोगीलाल बोला।
“ठीक है।” — झामनानी बोला — “तू वैन में बैठ। हम तेरे पीछे आते हैं।”
हुकमनी वैन की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
झामनानी और भोगीलाल एक होंडा अकार्ड में सवार हुए।
वैन चली तो भोगीलाल ने अपनी होंडा अकार्ड उसके पीछे लगा दी।
आगे पीछे दौड़ती दोनों गाड़ियां एयरपोर्ट पर पहुंचीं।
“ये फैक्स पकड़।” — झामनानी ने वहां उसे एक पर्चा थमाया — “इसी को जमा कराने पर तेरे को ताबूत मिलेगा।”
“कोई दिक्कत तो नहीं होगी?” — हुकमनी सन्दिग्ध भाव से बोला।
“उम्मीद तो कोई नहीं, नी! होगी तो आ के खबर करना। हम इधर कार में ही बैठे हैं।”
“आप में से कोई मेरे साथ नहीं चलेंगे?”
“वडी, क्यों जरूरत है, नी, तेरे को साथ की?”
“ताबूत मैं अकेला कैसे वैन में लादूंगा?”
“लक्ख दी लानत हई। वडी, मैं तेरे साथ ताबूत उठाने इधर आया हूं! उधर पोर्टर लोग होते हैं। पैसा देगा, सब काम हो जायेगा। समझ गया, नी?”
हुकमनी ने सहमति में सिर हिलाया।
“तो जाता क्यों नहीं? अभी कोई तेरे को सिग्नल देगा तो इधर से हिलेगा?”
हुकमनी वैन को आगे बढ़ा ले गया।
उसने कार्गो सैक्शन वाली इमारत के करीब वैन रोकी और भीतर डिलीवरी काउन्टर पर पहुंचा।
डिलीवरी में कतई कोई दिक्कत न आयी।
दो पोर्टरों ने ताबूत को वैन में लाद दिया।
उनकी फीस भर कर वो वैन की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा और उसे चलाता वापिस ले चला।
झामनानी होंडा अकार्ड के हुड से टेक लगाये खड़ा था।
हुकमनी ने इशारे से उसे बताया कि सब काम चौकस हो गया था।
झामनानी के चेहरे पर से उत्कंठा के भाव गायब हुए, वो लपक कर कार में भोगीलाल के पहलू में जा बैठा।
तत्काल भोगीलाल ने कार वैन के पीछे लगा दी।
“ये तो वो सिन्धी दादा झामनानी था!” — मुबारक अली एकाएक बोला।
“कहां?” — अली बोला।
“उस सफेद विलायती कार में जो अभी चौराहा पार करके हमारे पहलू से गुजरी और जो, वो क्या कहते है अंग्रेजी में, हमारे से उलटी तरफ गयी।”
वो मुबारक अली की टैक्सी में सवार थे जिसे अली चला रहा था। उसका जुड़वा वली आगे उसके पहलू में बैठा हुआ था। पीछे मुबारक अली के साथ हाशमी सवार था।
“तो क्या हुआ?” — वली बोला।
“अरे, कम्बख्तमारो” — मुबारक अली बोला — “उसके आगे आगे एक मुर्दागाड़ी थी। पीछे चलो।”
“किसके? झामनानी के या मुर्दागाड़ी के?”
“जरूरी नहीं” — हाशमी दबे स्बर में बोला — ”झामनानी का मुर्दागाड़ी से कुछ लेना देना हो।”
“पण...”
“मामू” — वली अनुनयपूर्ण स्वर में बोला — “मुम्बई से मैसेज लेट मिलने की वजह से हम पहले ही बहुत लेट हैं। अब अपनी असली मंजिल छोड़ कर उलटे घूम पड़े तो सब चौपट हो जायेगा।”
मुबारक अली कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया।
टैक्सी बदस्तूर एयरपोर्ट की ओर दौड़ चली।
अब वैन और होंडा अकार्ड की मंजिल छतरपुर का फार्म थी।
दोनों वाहन कुछ अरसा नेशनल हाइवे नम्बर आठ पर दौड़ते रहे और फिर हाइवे छोड़ कर महिपालपुर महरौली रोड पर घूम गये।
उस सड़क पर बहुत मामूली ट्रैफिक था। गाहेबगाहे कोई बस, कोई ट्रक या कोई इक्का दुक्का कार ही सड़क पर से गुजरती पायी गयी।
महिपालपुर से आगे तो सड़क बिल्कुल ही यूं थी जैसे उजाड़ में से गुजर रही हो।
तब हुकमनी को सिग्रेट की तलब लगी।
उसने जेब से पैकेट निकाला और एक हाथ स्टियरिंग से फारिग करके उसे खोला, पैकेट को तनिक झटका तो एक सिग्रेट बाहर उछल आया, उसने सिग्रेट को अपने होंठो से थामा और पैकेट जेब के हवाले किया। उसी जेब से उसने माचिस बरामद की, स्टियरिंग पर से दोनों हाथ हटा कर माचिस जलाई और उसकी लौ सिग्रेट को दिखाई। सिग्रेट सुलगा चुकने के बाद जब उसने सिर उठा कर सामने सड़क पर झांका तो उसके प्राण कांप गये।
सामने सड़क में झोल था और उस पर दो ट्रकों के बराबर का रेलवे कन्टेनर ट्रक उसकी तरफ आ रहा था। आतंकित भाव से उसने जोर से ब्रेक लगाई और वैन को कन्टेनर ट्रक की चपेट में आने से बचाने के लिये वैन को तेजी से बायें काटा। यूं वैन कन्टेनर ट्रक से टकराने से तो बच गयी लेकिन एक पहिया सड़क के नीचे कच्चे में उतर जाने की वजह से डांवाडोल हुई, किसी पत्थर से अगला पहिया टकराया और फिर वैन उसके कन्ट्रोल से निकल गयी। उसके हाथ से स्टियरिंग छूट गया और वो एक धड़ाम की आवाज के साथ अपने एक पहलू के बल एक गहरी खड्ड में जाकर गिरी। उसका सिर डैश बोर्ड से टकराया और ऐसा झनझनाया कि उसकी आंखे बन्द हो गयीं।
लेकिन जल्दी ही उसने आंखे खोलीं और कांखते कराहते अपना मुआयना किया। ये देखकर उसकी जान में जान आयी कि कोई गम्भीर चोट उसे नहीं आयी थी।
जो कि एक करिश्मा ही था।
ऊपर सड़क पर उसे होंडा अकार्ड खड़ी दिखाई दी।
झामनानी और भोगीलाल कार से बाहर निकल आये थे और आतंकित भाव से उलटी पड़ी वैन को देख रहे थे।
“हुकमनी! हुकमनी!” — फिर झामनानी ने आवाज लगायी — “कर्मांमारे, वडी किधर है, नी? है भी या नहीं? जिन्दा है या मर गया?”
हुकमनी ने वैन का दरवाजा खोला और कांखता कराहता किसी तरह से आड़ा तिरछा होकर उसमें से बाहर निकला।
“मैं ठीक हूं, साहब।” — वो हांफता सा बोला।
“वडी, लानत है, नी, तेरे ठीक होने पर। अरे, तेरे पर झूलेलाल की मार, ये क्या कर दिया तूने?”
“क... क्या कर दिया?”
“पीछे देख, कम्बख्त।”
तब हुकमनी को दिखाई दिया कि वैन के खड्ड में गिरने के धक्के से वैन का पिछला दरवाजा खुल गया था, उसमें से ताबूत बाहर निकलकर टूट गया था और लाश ताबूत में से आधी बाहर लटकी पड़ी दिखाई दे रही थी। ताबूत की स्थिति ऐसी थी कि वो एक तिहाई वैन के नीचे दबा हुआ था।
“हे भगवान!” — आतंक के अतिरेक में हुकमनी के मुंह से अपने आप ही निकल गया — “दिन दहाड़े!”
“अरे, गोली लगे तेरे को, कमीने!” — भोगीलाल बोला — “गाड़ी चला रिया था के भीतर डांस कर रिया था?”
“अरे, कर्मांमारे” — झामनानी कलपा — “अब ताबूत को वैन के नीचे से निकाल और लाश को किसी तरीके से कार में लाद।”
हुकमनी ने वैन के परले पहलू में जाकर ताबूत को उसके नीचे से खींचने की नीयत से उसे अभी थामा ही था कि वैन जोर से हिली।
वो घबरा कर पीछे हट गया।
“वडी, क्या हुआ, नी?”
“ताबूत यूं फंसा हुआ है” — हुकमनी परेशान स्वर में बोला — “कि मैंने इसे खींचा तो वैन मेरे ऊपर आ पड़ेगी।”
“लक्ख दी लानत!”
“सिन्धी भाई” — भोगीलाल बोला — “जो करना है, जल्दी कर। आते जाते लोगों में से एक ने भी गाड़ी रोकी तो देखते देखते इधर भीड़ लग जायेगी।”
“वडी, मैं क्या करूं, नी?”
“लाश का काम हो गया। लाश को क्यों कलप रिया है? उसे गोली मार और अपना माल निकाल।”
“वडी, एकदम ठीक बोला, नी। मैं ही चड़या हो गया था। तेरी गाड़ी में कोई बोरा, कोई बड़ा झोला या कोई बड़ा बैग वैग है?”
“तिरपाल है।”
“कहां है?”
“पीछे डिकी में है।”
“पीछे जा के डिकी खोल और तिरपाल निकाल।”
फिर झामनानी खुद नीचे खड्ड में उतरा। उसने वैन के डैश बोर्ड के खाने में हाथ डाला तो वहां पड़े औजारों में उसे एक चाकू दिखाई दिया। उसने चाकू वहां से उठा कर जबरन हुकमानी को थमाया और बोला — “चल, शुरू कर, नी?”
“क... क्या?” — हुकमनी हड़बड़ा कर बोला।
“वडी, लाश के टांके काट, और क्या नी?”
“मैं!” — हुकमनी घबरा कर एक कदम पीछे हट गया।
“जल्दी कर, कर्मांमारे, नहीं तो गोली मार दूंगा।”
कांपते हाथों से हुकमनी ने टांके काटने शुरू किये।
भोगीलाल ने झामनानी की तरफ तिरपाल उछाली।
झामनानी ने तिरपाल लपकी और उसे यूं व्यवस्थित किया कि उसने एक बोरे की शक्ल अख्तियार कर ली।
“वडी, सांप लड़ गया, नी?” — वो कलपा — “अब भीतर से माल क्यों नहीं निकालता?”
आंखें मीचे हुकमनी ने सामने से खुल चुकी लाश के भीतर हाथ डाला और हेरोइन की थैलियां झामनानी को थमानी शुरू कर दीं।
झामनानी उन्हें तिरपाल के टैम्परेरी बोरे में डालने लगा।
“वडी, जल्दी कर, नी।”
हुकमनी तेजी से हाथ चलाने लगा।
“वडी, सब माल निकल आया, नी?”
हुकमनी ने बड़े यत्न से आंखे खोल कर लाश के भीतर झांका और फिर फंसे कंठ से बोला — “हं... हां।”
“तो आ के तिरपाल पकड़ और इसे ले जा के कार में रख।”
हुकमनी ने तिरपाल थामी और गिरता पड़ता खड्ड से ऊपर सड़क पर पहुंचा।
झामनानी वैन के करीब पहुंचा, उसने उसके डीजल के टैंक का ढक्कन खोला तो डीजल बाहर बहने लगा। बहते डीजल में उसने अपना रूमाल भिगोया और उससे अलग हटा।
फिर वो ऊपर कार के करीब पहुंचा।
“क्या मर्जी है?” — भोगीलाल धीरे से बोला।
“क्रियाकर्म की मर्जी है, नी” — झामनानी बोला — “और क्या मर्जी होगी!”
बात भोगीलाल की समझ में आयी तो वो प्रशंसात्मक स्वर में बोला — “सिन्धी भाई, बहुत कम्बख्त दिमाग दिया है नीली छतरी वाले ने तन्ने।”
“अब माचिस तो दे, नी!”
भोगीलाल ने उसे लाइटर थमाया।
झामनानी ने रूमाल का गोला सा बनाया और फिर उसे लाइटर की लौ छुआ कर वैन की तरफ उछाल दिया।
रास्ते में ही आग का गोला बन चुका रूमाल जब बहते डीजल पर जाकर गिरा तो डीजल तत्काल धधका।
वो सब कार में सवार हो गये।
जब तक कार वहां से रवाना हुई, तब तक पीछे वैन धू धू करके जल रही थी।
ए.सी.पी. प्राण सक्सेना थाने की इमारत की पहली मंजिल के अपने आफिस से बाहर निकला तो हवलदार तरसेम लाल ने उठ कर जोर से उसे सैल्यूट मारा।
उस वक्त शाम के सात बजे थे और ए.सी.पी. वाले फ्लोर पर सन्नाटा था। खुद वो वहां इसीलिये मौजूद था क्योंकि अभी ए.सी.पी. नहीं उठा था।
वो बाहर का रास्ता पकड़ते ए.सी.पी. के पीछे पीछे गलियारे में चलने लगा। वैसे ही चलता वो नीचे कम्पाउन्ड में ए.सी.पी. की गाड़ी तक पहुंचा। ए.सी.पी. के ड्राइवर ने लपक कर पीछे का दरवाजा खोला, ए.सी.पी. भीतर बैठ गया तो मुस्तैदी से उसे बन्द किया और वापिस ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
गाड़ी के वहां से हिलते ही तरसेम लाल ने फिर ठोक कर सैल्यूट मारा।
गाड़ी रुखसत हो गयी।
गया — वो मन ही मन बोला — अब मैं कमाता हूं पांच हज़ार कलदार।
लापरवाही से चलता तो वापिस पहली मंजिल पर पहुंचा जहां कि ए.सी.पी. के आफिस की बत्तियां वगैरह बन्द करके उसने उसे ताला लगाना था।
वो भीतर दाखिल हुआ।
उस रोज उसने ए.सी.पी. को न आती बार ब्रीफकेस थामे देखा था और न जाती बार।
बढ़िया।
यानी कि फाइल आफिस में ही होगी।
आफिस में होगी तो या टेबल पर होगी या साइड रैक पर होगी क्योंकि वो जानता था कि ए.सी.पी. फाइलों को मेज के दराजों में नहीं रखता था, उनमें वो अपना ही इतना निजी सामान भर के रखता था कि फाइल जैसी चीज के लिये उसमें जगह ही नहीं होती थी।
फिर उसे साइड रैक पर पड़ा ए.सी.पी. का चमड़े का ब्रीफकेस दिखाई दिया।
फाइल वो ब्रीफकेस में बन्द कर गया हो सकता था।
तो क्या हुआ?
ब्रीफकेस में नम्बरों वाला ताला था और उसे मालूम था कि वो किस नम्बर से खुलता था। उसने कितनी ही बार ए.सी.पी. को ताले के अंकों की तीन कतारों को ‘007’ पर लाकर ताला खोलते देखा था।
मेज के करीब पहुंच कर उसने सामने निगाह दौड़ाई तो फाइल उसे कहीं दिखाई न दी।
यानी कि ब्रीफकेस में थी।
कोई बात नहीं। अभी निकालता हूं।
वो ताले के अंकों को ‘007’ पर लाया तो तत्काल ब्रीफकेस खुला। उसने उसका ढक्कन उठा कर भीतर झांका तो फाइल को ऊपर ही मौजूद पाया। फाइल पर काले मार्कर से मोटे मोटे अक्षरों में ‘मायाराम बावा’ लिखा साफ दिखाई दे रहा था।
बढ़िया।
इधर मैंने फाइल उठाई, उसमें से तसवीरें निकालीं, नीचे थाने के बाजू में ही मौजूद जेरोक्स वाले से उसकी कापियां निकलवाईं, तसवीरें वापिस ला के फाइल में रखीं, फाइल ब्रीफकेस में डाली, ब्रीफकेस पहले की तरह बन्द किया और दस हज़ार रुपये खरे।
उसने फाइल की तरफ हाथ बढ़ाया।
“ये क्या हो रहा है?”
आवाज ऐसी कड़कदार थी कि तरसेम लाल के प्राण कांप गये। उसने घूम कर वापिस देखा तो पीछे सब-इन्स्पेक्टर जनकराज को खड़े पाया।
“ये क्या कर रहा है?” — जनकराज उसे घूरता हुआ बोला।
“क... कुछ नहीं।” — तरसेम लाल हकलाता सा बोला — “साहब का ब्रीफकेस खुला रह गया था, उसे बन्द कर रहा था।”
“झूठ बोलता है! ब्रीफकेस खुला नहीं रह गया था, उसे तूने खोला था और अभी तू उसमें से फाइल निकालने लगा था।”
“क... कौन सी फाइल?”
“कमीने! तुझे पता है कौन सी फाइल!”
“गाली मत दीजिये, साहब।”
“लेकिन तुझे ये नहीं पता कि जिस चीज की तुझे तलाश है, वो उस फाइल में नहीं है।”
“क... क्या?”
“अब ब्रीफकेस खोल ही लिया है तो खुद देख क्या?”
“आप मुझ पर बेजा इलजाम लगा रहे हैं, साहब। मैंने ब्रीफकेस नहीं खोला, मैं तो खुले रह गये ब्रीफकेस को बन्द...”
“बकता रह। बकता रह।”
“साहब, आप...”
“ये तसवीरें ढूंढ रहा था न?”
तरसेम लाल ये देखकर सन्न रहा गया कि उसे जिन तसवीरों के मायाराम वाली फाइल में होने की खबर की गयी थी, वो एस. आई. जनकराज उसे अपनी जेब से निकालकर दिखा रहा था।
“अब बोलती क्यों बन्द हो गयी?” — जनकराज खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता हुआ बोला।
तरसेम लाल ने बेचैनी से पहलू बदला।
“अब बोल, किस के हाथों बिका?”
“साहब, आप नाहक...”
“तू नहीं बोलता तो मैं बोलता हूं।”
“क्या?”
“इन्स्पेक्टर देवीलाल ने कहा तुझे ये काम करने के लिये। या शायद खुद झामनानी ने।”
हे भगवान! ये कमीना तो बहुत कुछ जानता था।
“साले! मायाराम को यहां से पंजाब ले जाये जाने का प्रोग्राम भी तूने ही लीक किया था।”
हे भगवान! बहुत कुछ क्या, ये तो सब कुछ जानता था।
“अब ये काम क्योंकि तू झामनानी के लिये कर रहा है, इसलिये वो काम भी तूने उसी के लिये किया होगा?”
होगा? होगा बोला, हरामी? यानी कि सब कुछ नहीं जानता था। काफी कुछ की अटकलें लगा रहा था।
“साले! थाने में झामनानी का भेदिया तू है।”
“साहब, आप नाहक मुझ पर इलजाम लगा रहे हैं।” — तरसेम लाल दिलेरी से बोला — “मैंने पहले भी कहा और फिर फिर और फिर कहता हूं कि मैंने कुछ नहीं किया।”
“कुछ नहीं किया का बच्चा!”
“साहब, आप फिर गाली...”
“चल।”
“कहां?”
“एस.एच.ओ. के पास। अब वो ही तेरी खबर लेगा।”
“चलिये।”
“पहले ब्रीफकेस बन्द कर, बत्तियां बुझा और ताला लगा।”
वो सब काम करने के बाद तरसेम लाल यूं गलियारे में जनकराज के आगे आगे चला जैसे जनकराज उसे नहीं, वो जनकराज को एस.एच.ओ. के पास ले जा रहा था।
एस.एच.ओ. नसीब सिंह अपने आफिस में मौजूद था।
जनकराज ने उसके सामने तमाम वाकया दोहराया।
नसीब सिंह ने घूर कर हवलदार की तरफ देखा।
जैसा कि उससे अपेक्षित था, तरसेम लाल पूरी ढिठाई के साथ न केवल हर बात से मुकर गया बल्कि जोर जोर से बोलता हुआ जनकराज पर तोहमत लगाने लगा कि वो उसे खामखाह हलकान कर रहा था।
“ठीक है।” — नसीब सिंह बोला — “जा।”
“मैं ऐसे नहीं जाने का, साहब।” — तब तरसेम लाल और शेर हो गया — “पहले कहिये कि आपको मेरी बात पर विश्वास है।”
“कहा।” — नसीब सिंह बड़े सब्र के साथ बोला — “मुझे तेरी बात पर विश्वास है। जनकराज को जरूर तेरी बाबत कोई गलतफहमी हुई। अब घर पहुंच, बीवी इन्तजार कर रही होगी।”
“जाता हूं, साहब। आपका शुक्रिया। नमस्ते।”
निगाहों से जनकराज पर भाले बर्छियां बरसाता और उसकी तत्काल मौत की कामना करता तरसेम लाल यूं ऐंठा हुआ वहां से रुखसत हुआ जैसे कोई दंगल जीत कर जा रहा हो।
“साहब” — पीछे जनकराज आवेशपूर्ण स्वर में बोला — “ये क्या किया आपने?”
“बैठ, भाई।”
“लेकिन...”
“अरे, बैठ तो सही!”
जनकराज धम्म से एक कुर्सी पर बैठा और बोला — “साहब, मेरे से लिखवा लीजिये कि ये ही वो भेदिया है जो...”
“भैया, मुझे तेरी बात पर पूरा यकीन है।”
“फिर भी आपने उसे यूं चले जाने दिया!”
“और क्या करता? देखा नहीं था कैसे दीदे फाड़ रहा था और उलटे तेरे पर इलजाम लगा रहा था।”
“वो तो उसने करना ही था लेकिन...”
“उसकी डण्डा परेड तो नहीं हो सकती न! आखिर महकमे का आदमी है, हवलदार है, उसके साथ कोई जोर जबरदस्ती करने का नतीजा ये होता कि हम लाइनहाजिर होते और वो हमारे पर हंस रहा होता।”
“साहब, मैंने अपनी आंखों से उसे ए.सी.पी. साहब का ब्रीफकेस खोलते देखा था और...”
“साबित कर सकता है?”
जनकराज हड़बड़ाया।
“तू कहता है, उसने ऐसा किया। वो कहता है उसने ऐसा नहीं किया। मैं अंग्रेज थानाध्यक्ष होता तो कहता कि इट इज युअर वर्ड अगेंस्ट हिज वर्ड। समझा कुछ?”
जनकराज ने सहमति में सिर हिलाया।
“सर!” — फिर एकाएक वो बोला।
“हां।”
“परसों रात की एक बात है जो कि मैंने आपको नहीं बताई थी। वो बात अब सुनिये।”
“ऐसी क्या बात है?”
जनकराज ने उसे कनाट प्लेस थाने के एस.एच.ओ. देवीलाल की परसों रात को अपने क्वार्टर पर आमद की बाबत बताया।
“ओह! — नसीब सिंह बोला — “तो देवीलाल ने साफ झामनानी का नाम लिया था कि तसवीरें उसे चाहिये थीं?”
“जी हां।”
“फिर भी ये बात तुमने मुझे न बतायी?”
“साहब, आपकी बराबरी के अफसर की लाज रखी।”
“हूं। अब तो हमें बड़ा मजबूत इशारा मिल रहा है कि झामनानी ही वो शख्स है जो तमाम खटराग फैला रहा है या फैलवा रहा है।”
“जी हां।”
“लेकिन क्यों?”
“कोई तो वजह होगी!”
“जरूर होगी। और वो वजह हम जान के रहेंगे।”
“कैसे?”
“जैसे को तैसा वाले तरीके से। हम भी झामनानी का कोई आदमी फोड़ने की जुगत भिड़ायेंगे और फिर उसी से कुबुलवायेंगे कि ये सिन्धी दादा किस फिराक में है!”
“ओह!”
“सोहल तो हमारे हाथ से निकल गया, हम झामनानी को ही काबू में कर सके तो, जनकराज, हमें बहुत यश मिल सकता है।”
“वो तो बाद की बात है, साहब। अब तो वो कमीना हवलदार तरसेम लाल मेरे मुंह पर जूता मार गया न?”
“अरे, मेरे भाई, तू ये न समझ कि मैंने उसे छोड़ दिया है। मैंने उसे सिर्फ ढील दी है ताकि वो लापरवाह हो जाये। मुझे पूरा यकीन है कि हमारे बीच ये ही वो भेदिया है जिसकी वजह से मायाराम के साथ इतनी बड़ी वारदात हुई। अब देखना, मैं भी इसकी वर्दी उतरवा के रहूंगा।”
“कैसे?” — जनकराज उत्सुक भाव से बोला।
नसीब सिंह ने बताया।
शोहाब होटल सी-व्यू वापिस लौटा।
“क्या जाना?” — विमल उत्सुक भाव से बोला।
“बहुत कुछ जाना, सर।” — शोहाब बोला — “सर, मरने वाली वो लड़की सुमन थी या नहीं थी, इस बात की तसदीक का अभी भी कोई जरिया सामने नहीं है लेकिन एक बात पक्के तौर पर साबित हो गयी है।”
“क्या?”
“उस लड़की का कत्ल हुआ था।”
“क्या!”
“उसको बेहोश करके समन्दर में जबरन डुबो कर मारा गया था।”
“कैसे? कैसे जाना?”
“पोस्टमार्टम वाले डाक्टर से बात करके जाना। वो कहता है कि लाश में हेरोइन के अलावा और ड्रग्स के भी अवशेष पाये गये थे।”
“और ड्रग्स?”
“जी हां। एक का नाम स्कोपोलामाइन (SCOPOLAMINE) है और दूसरे का फिनोथायाजीन (PHENOTHIAZINE) है। इन दो ड्रग्स का कम्बीनेशन किसी को इस हद तक निढाल और बेजान बना सकता है कि उसके असर के दौरान उसे न तो ये पता चलता है कि उसने क्या किया और न ये पता चलता है कि खुद उसके साथ क्या बीती? और जो उस लड़की के साथ बीती, वो ये बीती कि उसे जबरन पानी में डुबोकर मारा गया। हेरोइन उसके जिस्म में इसलिये पहुंचाई गयी ताकि ये समझा जाता कि वो नशे की हालत में लापरवाह होकर डूब मरी थी।”
“इस ड्रग्स का जिक्र पोस्टमार्टम रिपोर्ट में है?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“पुलिस ने गैरजरूरी समझा। डाक्टर कहता है कि पुलिस कहती थी कि इससे केस खामखाह पेचीदा होता।”
“कमाल है! अपना काम घटाने की और केस को सिंपल रखने की नीयत से पुलिस ने डाक्टर की रिपोर्ट के इस पहलू को नजरअन्दाज कर दिया!”
“पुलिस ऐसा आम करती है। तभी तो जब कभी कोई हो हल्ला हो जाता है तो दोबारा पोस्टमार्टम किये जाने का हुक्म होता है ताकि पुलिस ये लीपापोती कर सके कि पहली बार इत्तफाक से वो हकीकत डाक्टर की निगाह में नहीं आयी थी।”
“लेकिन किसी ने एक अनजान, नामालूम लड़की का कत्ल किया तो अपने किस नफे की खातिर किया?”
“कोई वजह सामने नहीं है। डाक्टर कहता है कि इसीलिये उसने पुलिस की बात मान ली थी और उन दो ड्रग्स की लाश में मौजूदगी को नजरअन्दाज कर दिया था।”
“अगर वो मरने वाली सुमन थी तो क्यों किसी ने उसकी लाश को उसका फर्जी सगेवाला बन के क्लेम किया?”
“सर, अगर वो भाई रमेश वर्मा फर्जी था तो लाश का कोई तो रोल होना चाहिये। तो हमें ये तसलीम करके चलना पड़ेगा कि उसे लाश बनाया ही उसके किसी खास रोल के मद्देनजर गया था। अगर भाई जेनुइन था तो फिर लाश सुमन वर्मा की नहीं थी।”
“पता नहीं क्या गोरखधन्धा है! मेरा तो दिमाग भन्ना गया।”
“दूसरे सिरे से अभी कोई खबर नहीं आयी लाश की बाबत?”
“नहीं। दो बार फोन लगा चुका हूं। अपने टैक्सी स्टैण्ड पर न मुबारक अली है और न उसकी टैक्सी है।”
तभी इरफान वहां पहुंचा।
“क्या बात है, मियां?” — विमल झुंझलाया सा बोला — “बड़ी देर लगाई लौटने में! सुबह से शाम कर दी!”
“सब खबर लगा के आया हूं उस भीड़ू की।” — इरफान बोला — “इसलिये देर लगी।”
“क्या जाना?”
“बोलेगा, बाप। पहले एक खास खबर सुन जो मैं होटल की मीटिंग की अफरातफरी में तेरे को सुना नहीं पाया। तू मेरे को आननफानन उस भीड़ू के पीछे भेज दिया तो तब भी मैं...”
“खबर क्या है?”
“तुका आ रहा है।”
“अरे! कब?”
“आज ही रात। दस बजे एयरपोर्ट पर पहुंचेगा। एकदम चौकस। एकदम फिट।”
“कैसे मालूम?”
“चिट्ठी आया उसका मेरे नाम। मेरे घर के पते पर। आज ही मिला। लिखा है वो वागले के साथ बी.ओ.ए.सी. की फिलाइट नम्बर 465 से आ रहा है जो कि रात दस बजे सहर हवाई अड्डे पर पहुंचेगी।”
“ये तो वाकेई बहुत बढ़िया खबर है कि तुका न सिर्फ लौट रहा है बल्कि तन्दुरुस्त होकर लौट रहा है!”
“अल्लाह का फजल है कि चिट्ठी टेम पर मिल गयी। एक दिन लेट मिली होती तो, सोच, बाप, कितना बुरा होता! उधर तुका सहर पर हैरान हो रहा होता कि मैं उसे लेने उधर क्यों न पहुंचा और मेरे को खबर लगती अगले रोज जबकि तुका कब का आ भी चुका होता।”
“मैं भी चलूंगा एयरपोर्ट।”
“जरूर चलना, बाप। उसे क्या मालूम होगा तू मुम्बई में है! खुश हो जायेगा तुझे देख के।”
“हां। अब बोल, क्या खबर लगा के आया उस भीड़ू की?”
“उसका नाम बाबू कामले है। आजकल वो कमाठीपुरे की एक चाल में रहता है और वहीं का एक ईरानी का रेस्टोरेंट उसका अड्डा है। अड्डे से मुराद ये है किसी से कोई मेल मुलाकात करनी हो तो चाल की जगह उस रेस्टोरेंट में करता है। वो रेस्टोरेंट भी ऐसा ही है जहां उस जैसे भीड़ू लोग हर वक्त जमा रहते हैं।”
“और?”
“वो ‘कम्पनी’ का ही आदमी निकला है। सुना है कि ‘कम्पनी’ के जलाल के दिनों में उसकी अच्छी पूछ थी।”
“ओहदेदार था?”
“ओहदेदार तो नहीं था लेकिन प्यादों से बेहतर हैसियत रखता था। श्याम डोंगरे का लेफ्टीनेंट बताया जाता था।”
“अब किस का लेफ्टीनेंट है?”
“अभी मालूम नहीं पड़ सका। मैं उधर उसकी ताक में एक आदमी लगा के आया हूं, जो कि उस पर ही नहीं, उसकी मेल मुलाकात पर भी निगाह रखेगा। फिर देर सबेर हमें उस शख्स की खबर जरूर लगेगी जिसके कि अन्डर में वो, आजकल काम कर रहा है।”
“ये पक्का है कि काम अन्डर में ही कर रहा है, खुद ही कर्त्ताधर्त्ता नहीं?”
“हां।”
“कैसे पता है?”
“बाप, दोपहरबाद का अक्खा टेम उसने उस ईरानी के रेस्टोरेंट में गुजारा; जो खुद कर्त्ताधर्त्ता हो, वो क्या ऐसे मक्खियां मारता है?”
“हूं।”
“वो पंड्या — जिसकी मैंने टांग तोड़ी थी — वो भी उसी चाल में रहता है। दोनों आजू बाजू के कमरे में रहते हैं वहां। बाप, वो दोनों भीड़ू मेरे को एक ही हैसियत के आदमी लगे। कोई फर्क था तो ये कि पंड्या घर में चारपाई पर पड़ा टेम जाया कर रहा था और बाबू कामले वही काम ईरानी के रेस्टोरेंट में बैठा कर रहा था।”
“मेरे को भी इसी बात की उम्मीद लगती है कि ये लोग किसी की शह पर मेरे पीछे पड़े हैं।”
“कौन होगा वो?”
“उस ‘भाई’ के सगे छोटा अंजुम के बारे में क्या खयाल है? भिंडी बाजार कौन सा दूर है कमाठीपुरे से!”
“पण, बाप, जो लोग तुझे अपनी तरफ करने की उम्मीद रखते हैं, वो भला ऐसा कोई कदम...”
“या तो नाउम्मीदी में उठा रहे होंगे या मुझे अपनी ताकत दिखा रहे होंगे।”
“बरोबर बोला, बाप। बहरहाल आज ही रात नहीं तो कल तक पता चल जायेगा कि बाबू कामले आजकल किस का हुक्का भर रहा है!”
“ठीक।” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “कल की तो कोई बात ही न हुई! कल क्या हुआ?”
“बहुत बढ़िया तफरीह हुई, बाप।” — इरफान खींसे निपोरता बोला — “जन्नत का नजारा हो गया। क्यों, शोहाब?”
शोहाब शर्माया।
“मेरा सवाल ” — विमल बोला — “तुम्हारी तफरीह की बाबत नहीं था।”
“छोटा अंजुम की बाबत था?” — इरफान बोला।
“हां।”
“वो कल भी अपने टेम पर उधर पहुंचा था और पहुंच कर वही कुछ किया था जो तू खुद हमें बतायेला था। हमने जो जुदा बात जानी, वो ये है, बाप, कि छोकरी के साथ वो रात भर की सोहबत नहीं करता।”
“अच्छा!”
“हां। उसकी छोकरी कल साढ़े बारह से थोड़ी से देर बाद नीचे आ गयी थी फिर वापस नहीं गयी थी। बकौल बुझेकर, वो खुद सुबह आठ बजे उठ कर भिंडी बाजार गया था।”
“यानी कि मौज मस्ती कर चुकने के बाद सोता अकेला है?”
“ऐसीच जान पड़ता है।”
“अभी और वाच करके तसदीक करनी होगी। आज आप अकेले उधर जायेंगे।” — उसने घूर कर शोहाब को देखा जिस पर कि उसकी बात की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी — “जनाब, मैं आप से मुखातिब हूं।”
“जी!” — शोहाब हड़बड़ाया — “जी, क्या फरमाया?”
“अभी पिछली रात के ही सपने आ रहे हैं?”
वो खिसियाया सा हंसा।
“मैं कह रहा था कि आज आप अकेले उस ठीये पर जायेंगे।”
“ठीक है।”
“कदरन जल्दी जायेंगे और कोशिश करेंगे कि आपको सात नम्बर कमरा मिले।”
“लेकिन वो तो ग्यारह बजे छोटा अंजुम के हवाले होता है।”
“तभी तो बोला कि आप कदरन जल्दी जायेंगे। उधर कमरे के फी दिन रेट के अलावा फी घन्टा रेट भी हैं। तुम शाम सात बजे ही उधर पहुंच जाओगे तो सात, आठ, नौ, दस तक कोई एक घन्टा तो निकल ही आयेगा जबकि वो कमरा तुम्हारे हवाले होगा। अगर तुम्हारी ये कोशिश कामयाब हो जाये तो तुमने कमरे का पूरा जुगराफिया समझ के आना है।”
“न हुई तो?”
“तो कल फिर ट्राई करेंगे। एक से ज्यादा जने ट्राई करेंगे। किसी के पल्ले तो कभी वो कमरा पड़ेगा!”
“ठीक।”
विमल खामोश हो गया।
“बाप” — इरफान बोला — “मैं एक बात पूछना मांगता है।”
“क्या?” — विमल बोला।
“छोटा अंजुम की तरफ इतनी तवज्जो किसलिये?”
“इसलिये क्योंकि मुझे एकाएक एक बात सूझी है।”
“क्या?”
“कहीं छोटा अंजुम ही तो ‘भाई नहीं!”
“क्या!”
“जैसे मैं, सोहल, राजा गजेन्द्र सिंह बन सकता हूं, वैसी ही डबल आइडेन्टिटी, दोहरी शख्सियत क्या ‘भाई’ की नहीं हो सकती?”
इरफान सकपकाया, उसने शोहाब की तरफ देखा तो उसे भी वैसे ही सकपकाते पाया।
“अन्डरवर्ल्ड में आम कहा जाता है कि ‘भाई’ का दुबई में बसे होने का प्रचार इसलिये है ताकि किसी की उसकी मुम्बई में मौजूदगी की तरफ तवज्जो न जाये। आज की तारीख में ‘भाई’ मेरे पीछे पड़ा है। वो या मुझे बखिया बना देखना चाहता है या मुझे जहन्नुमरसीद देखना चाहता है। जब उसके अपनी दूसरी ख्वाहिश पर अमल करने का वक्त आयेगा तो छोटा अंजुम की बाबत हमारी खुफिया जानकारी हमारे बहुत काम आयेगी।”
“बशर्ते कि वो ‘भाई’ हो।”
“न हो तो भी। तो हम उसी से कुबुलवायेंगे कि वो ‘भाई’ है और अगर वो ‘भाई’ नहीं है तो ‘भाई’ कहां है!”
“गुस्ताखी माफ, बाप मेरे को ये बात नहीं हज्म हो रही कि छोटा अंजुम ‘भाई’ होगा। पास्कल के बार में वो तेरे को टेलीफोन का अपना अलग नम्बर दिया और ‘भाई' का अलग नम्बर दिया।”
“जो कि मोबाइल फोन का नम्बर था, जिसके बारे में ये नहीं जाना जा सकता कि वो कहां चल रहा था! ये गौरतलब बात है कि जैसे उसने अपना इधर के एक आम एक्सचेंज का नम्बर दिया, वैसे ‘भाई’ का आम एक्सचेंज का नम्बर नहीं दिया।”
“तेरा मतलब है कि भिंडी बाजार वाले नम्बर पर भी वो ही बोलेगा और मोबाइल पर भी वो ही बोलेगा?”
“हो सकता है।”
“एक ही आवाज दो जगह सुनायी देगी तो...”
“आवाज बदल लेना कोई बहुत बड़ा कारनामा नहीं है।”
“एक ही वक्त दोनों फोन बजाये जायें तो?”
“तो वो एक पर जवाब दे देगा, दूसरे को बजने देगा। हम उसे मजबूर तो नहीं कर सकते कि वो दोनों काल इकट्ठी रिसीव करे!”
“हूं। बाप, लोग बाग ये तो कहते हैं कि ‘भाई’ इधर ही पाया जाता है लेकिन साथ में ये भी कहते हैं कि ‘भाई’ की तरह ही पाया जाता है, अपने ही लेफ्टीनेंट छोटा अंजुम की तरह नहीं।”
“ये कहीं गजट में छपा है कि छोटा अंजुम करके कोई शख्स ‘भाई’ का लेफ्टीनेंट है?”
“नहीं पण लोग बाग ‘भाई’ की शक्ल पहचानते हैं। अगर छोटा अंजुम ‘भाई’ होता तो कोई तो कहता कि वो छोटा अंजुम नहीं, ‘भाई’ था।”
“अगर छोटा अंजुम सिर्फ मेरे ही लिये वजूद में लाया गया है तो फिर क्यों कहता?”
“क्या मतलब?”
“अरे, ‘भाई’ जब दुनिया को दिखाई दे तो ‘भाई’ है, मुझे दिखाई दे तो छोटा अंजुम है।”
“ओह!”
“मेरे से मुलाकात खत्म, छोटा अंजुम का वजूद खत्म।”
“ये ठीक कह रहे हैं।” — शोहाब बोला।
“यानी कि अब ये भी तफ्तीश का मुद्दा है ” — इरफान बोला — “कि छोटा अंजुम ‘भाई’ है या नहीं?”
“हां।” — विमल बोला — “बहरहाल छोटा अंजुम ‘भाई’ हो या न हो, उसकी बाबत ज्यादा से ज्यादा जानकारी हमारे खूब काम आ सकती है।”
“ठीक। बाप, सुमन बीबी की कोई खबर?”
“मुम्बई से तो है नहीं! दिल्ली से अभी तक कोई आयी नहीं। मैं” — विमल मेज पर पड़ा फोन अपनी तरफ घसीटता बोला — “मुबारक अली को फिर ट्राई करता हूं।”
इस बार मुबारक अली से तत्काल सम्पर्क हुआ।
“क्या बात है, मियां?” — विमल शिकायतभरे स्वर में बोला — “तुम्हारी तो कोई खोज खबर ही नहीं है!”
“क्या बोलेंगा, बाप!” — मुबारक अली की परेशान आवाज उसके कान में पड़ी — “खोज की खबर लगे तो कुछ बोलें न! अभी तो भटक ही रहे हैं!”
“क्या हुआ?”
“तेरा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सन्देशा मेरे को लेट मिला। मैं अली वली और हाशमी को लेकर फौरन हवा के अड्डे पर पहुंचा, पण लेट पहुंचा। वो तेरी बताई फिलाइट तो कब की उधर पहुंच चुकी थी। हाशमी हवाई सामान के महकमे में पता करने गया तो पता चला कि उधर उस फिलाइट से मैयत वाला तीन ताबूत पहुंचा था जो कि लोग बाग अपना अपना ले जा भी चुके थे। बाप, देर से पहुंचने की वजह से सब, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, घपला हो गया।”
“ओह!”
“पण एक बात तेरे को बोलता है।”
“क्या?”
“मैं हवा के अड्डे की सड़क पर झामनानी को देखा।”
“उससे क्या होता है? वो कहीं भी गया हो सकता है। एयरपोर्ट वाली सड़क पर उसके देखे जाने से तो ये साबित नहीं होता कि वो उस ताबूत को रिसीव करने के लिये एयरपोर्ट पर गया था!”
“बाप, उसकी गाड़ी के आगे आगे मैं एक मुर्दा ढोने वाली गाड़ी को भी देखा।”
“जरूरी तो नहीं कि वो मुर्दागाड़ी उसके साथ हो।”
“जरूरी तो नहीं, पण जब कुछ हाथ न आ रहा हो तो गैरजरूरी पर भी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, गौर करने में क्या वान्दा होता है, बाप?”
“होता है। इतने बड़े दिल्ली शहर में तू एक मुर्दागाड़ी को कैसे तलाश कर सकता है? देर सबेर कर भी लेगा तो क्या गाड़ी का मुर्दा अभी उसके भीतर ही होगा?”
“बरोबर बोला, बाप।”
“जो काम बिगड़ गया सो बिगड़ गया, अब तू छोड़ उसका पीछा।”
“बाप, मेरे को अफसोस है कि...”
“खामखाह! जब मैं ही वक्त रहते तेरे तक सन्देशा न पहुंचा सका तो तेरी क्या गलती है काम बिगड़ने में?”
“बाप, अगर इधर मैं भी वो आल इन्डिया जेबी फोन का इन्तजाम करके रखे तो...”
“सोचेंगे इस बाबत। फिलहाल खुदा हाफिज।”
बी.ओ.ए.सी. की फ्लाइट नम्बर 465 ठीक समय पर सहर एयरपोर्ट पर उतरी।
वागले के साथ खुद चल कर तुकाराम अराइवल लाउन्ज में पहुंचा।
तुकाराम बहुत दुबला हो गया था, बहुत कमजोर हो गया था लेकिन फिर भी तन कर चल रहा था। उसकी जिस टांग को गैंगरीन की वजह से इधर काट दिये जाने की धमकी थी वो उधर लन्दन में लेसर बीम से ऑपरेशन और मवाद सुखाने की नयी टैक्नालॉजी से अब ठीक हो गयी थी, अलबत्ता उस टांग की वजह से अब उसकी चाल में हलकी सी लंगड़ाहट थी।
“तेरा क्या खयाल है?” — तुकाराम बोला — “इरफान इधर पहुंचा होगा?”
“क्यों नहीं पहुंचा होगा?” — वागले बोला।
“तूने चिट्ठी लेट लिखी थी।”
“फिर भी मिल गयी होगी उसे। मुम्बई जैसे बड़े शहर में हवाई डाक आजकल हवा की तरह पहुंचती है।”
“अपना सरदार मुम्बई में होगा?”
“हो सकता है। नहीं होगा तो इरफान को खबर होगी।”
“होगा तो भी खबर होगी कि किधर है?”
“हां।”
“गणपति से मेरी प्रार्थना है कि वो इधर ही हो। मैं उसे हैरान कर देना चाहता हूं। मैं एकाएक उसके सामने जा खड़ा होना चाहता हूं। अपने दो पैरों पर।”
“तुम्हारी प्रार्थना कबूल होगी।”
“मैं तो हार गया था, वागले। तकदीर के हवाले छोड़ भी चुका था अपने आपको और चारपाई पर पड़ा बस मौत के आने का इन्तजार कर रहा था जबकि एक खुदाई फरिश्ते की तरह वो आया और मेरे मुर्दा जिस्म में जान फूंक गया, मुझ नाउम्मीद की उम्मीद जगा गया। तूने कभी सोचा था कि मैं कभी उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो पाऊंगा?”
वागले ने इनकार में सिर हिलाया।
“लेकिन देख, करिश्मा हो गया! सरदार कहता था कि मैं अपने पैरों पर चल कर वापिस लौटूंगा। देख ले, ऐन ऐसा ही हुआ है।”
“सरदार बहुत खुश होगा।”
“अगर वो मुम्बई में हुआ तो हम आज ही उससे मिलेंगे।”
“जरूर।”
तब तक वो अराइवल लाउन्ज से बाहर निकल आये थे।
“इरफान कहीं दिखाई दे रहा है?” — तुकाराम ने पूछा।
“अभी नहीं।”
“भीड़ है। यहीं कहीं होगा! दिख जायेगा। मेरा मतलब है, आया होगा तो!”
“जरूर आया होगा।”
तभी दो व्यक्ति उनके पास पहुंचे।
“आप तुकाराम हैं?” — एक बोला — “आप वागले हैं?”
“हां।” — वागले बोला — “क्या मांगता है?”
“आप बी.ओ.ए.सी. की फ्लाइट नम्बर 465 से उतरे हैं?”
“जो लन्दन से आयी है?” — दूसरा बोला।
“क्या मांगता है?” — वागले बोला।
“मेरा नाम हुमने है।” — पहला बोला — “ये मेरा जोड़ीदार कोली है। हमें इरफान ने भेजा है। हम आपके लिये गाड़ी लाये हैं।”
“किसलिये?”
“आपको घर ले जाने के लिये।”
“किसके घर?”
“आपके घर। चैम्बूर।”
वागले ने तुकाराम की तरफ देखा।
“इरफान खुद क्यों नहीं आया?” — तुकाराम उन्हें घूरता हुआ बोला।
“आ सकता होता तो वो ही आता।”
“क्या मतलब?”
“वो हस्पताल में है। उसे गोली लगी है।”
“अरे! क्या हुआ?”
“बस, हो गया कुछ।”
“कौन से हस्पताल में है वो?”
“मलाड के सरकारी हस्पताल में।”
“वागले, जा के हस्पताल फोन लगा।”
“उसकी क्या जरूरत है?” — हुमने जल्दी से बोला — “आप चाहें तो हम आपको आपके घर चैम्बूर ले जाने की जगह मलाड ले चलते हैं।”
“देखेंगे। अभी बाजू में रुक।”
“पण...”
“वागले! मैं क्या बोला तेरे को?”
वागले ने सहमति में सिर हिलाया। उसने टेलीफोन बूथों की दिशा में कदम बढ़ाया ही था कि ठिठक गया। उसकी निगाह उसी क्षण मारकी में आकर रुकी एक एम्बूलेंस पर पड़ी। एम्बूलेंस के उसकी तरफ वाले पहलू पर बड़े बड़े शब्दों में लिखा था:
डाक्टर देशमुख्स नर्सिंग होम
कोलाबा, मुम्बई
उसके देखते देखते दो व्यक्ति एम्बूलेंस से बाहर निकले। दोनों के हाथ में लकड़ी पर टंगे बोर्ड थे। एक पर इंगलिश में लिखा था:
पेजिंग फार मिस्टर तुकाराम एण्ड मिस्टर वागले
फ्राम बी.ओ.ए.सी. फ्लाइट नम्बर 465
दूसरे बोर्ड पर वही इबारत मराठी में अंकित थी।
वागले की तुकाराम से निगाह मिली।
तुकाराम ने सहमति में सिर हिलाया।
वागले लम्बे डग भरता बोर्ड उठाये उन दो व्यक्तियों के पास पहुंचा।
उसने देखा दोनों हस्पतालों में प्रयुक्त होने वाले सफेद कोट पहने थे, जिनकी जेबों पर धागे से ‘डाक्टर देशमुख्स नर्सिंग होम’ कढ़ा था। दोनों के गले में जंजीर से लटकते नर्सिंग होम के आइडेन्टिटी कार्ड थे जिन पर उनकी तसवीरें लगी हुई थीं।
वागले आश्वस्त हुआ।
“मेरा नाम वागले है।” — वो बोला।
“खुशामदीद।” — इंगलिश का बोर्ड उठाये व्यक्ति बोला।
“रास्ते में भारी ट्रैफिक जाम लगा था” — मराठी के बोर्ड वाला बोला — “फिर भी शुक्र है कि हम टाइम पर पहुंच गये।”
“हम” — पहला बोला — “डाक्टर देशमुख के हुक्म से आपको लेने आये हैं।”
“कहां के लिये?” — वागले बोला।
“कोलाबा के लिये। नर्सिंग होम के लिये।”
“लेकिन तुका तो बिलकुल ठीक है!”
“इलाज के लिये नहीं। इलाज के लिये नहीं।”
“तो?”
“आजकल इधर के हालात ऐसे हैं कि” — वो उसके कान के पास मुंह ले जाकर बोला — “सोहल को आप का चैम्बूर जाना मुनासिब नहीं जान पड़ता। खराब हालात की वजह से ही खुद उसका यहां आना भी मुनासिब नहीं था इसलिये आपको कोलाबा ले चलने के लिये हम आये हैं।”
“सरदार को हमारी आमद की खबर है?”
“हां।”
“कैसे?”
“डाक्टर देशमुख ने बताया।”
“ओह! सरदार खुद कहां है?”
“नर्सिंग होम में। आप लोगों के इन्तजार में। एम्बूलेंस में वायरलैस टेलीफोन है। आइये आपकी बात कराता हूं।”
“किससे?”
“डाक्टर साहब से। उससे, जिसे आपने सरदार कहा। दोनों से।”
“एम्बूलेंस क्यों लाये? डाक्टर साहब को तो मालूम है कि तुका एकदम तन्दुरुस्त होकर लौट रहा है!”
“इधर पार्किंग पर पाबन्दी है लेकिन वो पाबन्दी एम्बूलेंस के लिये नहीं है। इसलिये।”
“ओह!”
“टैक्सी स्टैण्ड तक आधा किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है। एम्बूलेंस तो आप देख रहे हैं कि ऐन आपके सामने खड़ी है।”
“हूं।”
वागले ने घूम कर पीछे देखा तो पाया कि तुकाराम अकेला खड़ा था।
“मैं अभी आया।” — वो बोला।
वो लम्बे डग भरता वापिस तुकाराम के करीब पहुंचा।
“वो कहां गये?” — उसने पूछा।
“चले गये।” — तुकाराम बोला — “बोले, अभी आते हैं।”
“आयेंगे?”
“तेरा क्या खयाल है?”
वागले ने इनकार में सिर हिलाया।
“ठीक।” — तुकाराम बोला — “इतनी मुद्दत बाद वापिस मुम्बई में कदम रखते ही सबूत मिल गया कि हम पाप की नगरी में वापिस लौट आये हैं।”
“जो कि हमारी गैरहाजिरी में जरा नहीं बदली।”
“हां।”
“उन्हें हमारी वापिसी की कैसे खबर थी?”
“इरफान से कुबुलवाया होगा! मुझे इरफान की फिक्र, वागले।”
वागले ने चिन्तापूर्ण भाव से सहमति में सिर हिलाया और फिर अपना और तुकाराम का सूटकेस सम्भालता बोला — “आओ।”
“कहां?”
वागले ने बताया।
“बढ़िया।” — तुकाराम बोला और वागले के साथ हो लिया।
दोनों एम्बूलेंस के करीब पहुंचे तो आगे ड्राइवर के पहलू में बैठे एक व्यक्ति ने, जो कि पहले दो व्यक्तियों जैसी ही हस्पताल की यूनीफार्म पहने था, लपक कर एम्बूलेंस का पिछला दरवाजा खोला।
तुकाराम और वागले से उनके सूटकेस लेकर पहले दो व्यक्तियों ने उन्हें भीतर रखा और फिर तुकाराम को भीतर चढ़ने में उसकी मदद की।
फिर वागले भीतर सवार हुआ।
तभी एक टैक्सी एम्बूलेंस के पीछे आकर रुकी। वागले के पीछे पहले दो व्यक्ति भीतर सवार हुए तो तीसरे व्यक्ति ने पीछे का दरवाजा बन्द किया और जाकर आगे ड्राइवर के पहलू में बैठ गया।
“अरे!” — टैक्सी में विक्टर के पहलू में बैठे इरफान के मुंह से निकला — “ये तो वागले था!”
एम्बूलेंस सड़क पर लुढ़क चली।
टैक्सी में पीछे बैठा विमल चौंका।
“कहां?” — वो बोला।
“उस एम्बूलेंस में जो अभी अभी यहां से रवाना हुई।”
“तुका भी था?”
“मुझे नहीं दिखाई दिया था लेकिन अगर वागले था तो यकीनन तुका भी होगा।”
“एम्बूलेंस में! इसका मतलब है कि वो भला चंगा होकर नहीं लौटा। विक्टर, एम्बूलेंस के पीछे चल।”
तत्काल विक्टर ने टैक्सी आगे बढ़ाई।
“कुछ देखा था” — विमल ने पूछा — “कहां की एम्बूलेंस थी?”
“नहीं।” — इरफान बोला — “नाम तो आजू बाजू होता है। पीछे तो खाली जमा का लाल निशान बना हुआ था।”
“विक्टर, टैक्सी की रफ्तार बढ़ा और उसके बाजू में पहुंच।”
बहुत दक्षता से टैक्सी चलाते हुए विक्टर ने आदेश का पालन करके दिखाया।
“इस पर तो डाक्टर देशमुख के नर्सिंग होम का नाम लिखा है!” — इरफान बोला।
“डाक्टर देशमुख ने एम्बूलेंस क्यों भेजी? तुका ने तुझे जो जिट्ठी लिखी थी, उसमें कहीं इस बात का जिक्र था कि वो अभी भी एम्बूलेंस का मोहताज था?”
“नक्को। ऐसा होता तो अभी लौटता क्यों?”
“बिल्कुल। और अपनी हालत की जो खबर उसने डाक्टर देशमुख को की, वो तुझे क्यों न की? इरफान, मुझे दाल में कुछ काला लग रहा है। इस एम्बूलेंस में कोई भेद है।”
“बाप, पीछे तो हैं ही। ये उधर कोलाबा पहुंचेगी तो पता लगा जायेगा कि क्या भेद है?”
“तू अन्धा है?”
“क्या बोला, बाप?”
“सामने सड़क पर देख। ये एम्बूलेंस कोलाबा की तरफ नहीं जा रही। ये कहीं और ही जा रही है।”
“ये तो कोलाबा से उलट डिरेक्शन में जा रही है!”
“और मैं क्या बोला?”
“तो क्या करें?”
“इसे रुकवा।”
“विक्टर, सुना?”
विक्टर ने सहमति में सिर हिलाया और फिर एक्सीलेटर पर पांव दबाकर टैक्सी की स्पीड बढ़ाई।
तत्काल एम्बूलेंस की भी स्पीड बढ़ी।
“हॉर्न दे।” — इरफान बोला — “मैं हाथ से इशारा करता हूं।”
एम्बूलेंस के ड्राइवर ने रियर व्यू मिरर में से इरफान का रुकने का इशारा करता हाथ देखा और टैक्सी का निरन्तर बजता हॉर्न भी सुना लेकिन उसने उन की तरफ कतई कोई ध्यान न दिया।
“टैक्सी आगे निकाल” — इरफान दांत भींचे बोला — “और एम्बूलेंस के आगे अड़ा दे। जो होगा, देखा जायेगा।”
विक्टर ने सहमति में सिर हिलाया।
टैक्सी एम्बूलेंस के पहलू से निकलकर आगे सरकने लगी।
प्रत्यक्षत: विक्टर एम्बूलेंस के ड्राइवर के ज्यादा दक्ष ड्राइवर था।
विक्टर एम्बूलेंस को ओवरटेक करके आगे निकलने ही वाला था कि एकाएक सामने एक बस आ गयी। मजबूरन उसे रफ्तार कम करके टैक्सी को एम्बूलेंस के पीछे करना पड़ा।
बस उसके पहलू से गुजर गयी तो उसने फिर टैक्सी की रफ्तार बढ़ाई।
एकाएक एम्बूलेंस के पिछले दरवाजे के दोनों पल्ले खुले और भीतर से दो मानव शरीर हवा में उछले और सड़क पर आकर गिरे।
उस अप्रत्याशित घटना से टैक्सी में सवार तीनों की आंखें आतंक से फट पड़ीं। बला की होशमन्दी दिखाते हुए विक्टर ब्रेक के पैडल पर लगभग खड़ा न हो गया होता तो टैक्सी यकीनन उन शरीरों से टकराती और उलट जाती।
टैक्सी के रुकते रुकते एम्बूलेंस सड़क पर से गायब हो चुकी थी।
“क्या है?” — विमल बोला।
“देखना पड़ेगा, बाप।” — इरफान बोला।
तीनों टैक्सी से बाहर निकले।
उन्हें सामने सड़क पर जो नजारा दिखाई दिया, उससे तीनों को जैसे लकवा मार गया।
मानव शरीर तुका और वागले के थे। दोनों की कनपटी के साथ रिवॉल्वर लगा कर उन्हें शूट कर दिया गया था और फिर उन्हें एम्बूलेंस से बाहर फेंक दिया गया था।
तुका की पथराई आंखें विमल को दिखाई दीं तो उसका कलेजा चाक होने लगा।
तन्दुरुस्त होकर लौटा तुका अभी अपने घर में कदम भी नहीं रख पाया था कि मरा हुआ उसके सामने पड़ा था।
रामभक्त हनुमान जैसा वागले उसके पहलू में मरा पड़ा था।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह! ये कैसा इम्तहान है?
‘अब तो मेरी एक ही तमन्ना है’ — उसके कानों में तुका की आवाज गूंजी — ‘कि मैं जल्द-अज-जल्द अपने पैरों पर खड़ा होऊं और तेरे साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर हर वो काम करूं जो तुझे मुनासिब लगता है।’
“ये आदमी लेटा क्यों हुआ है? झूठी, फरेबी बात तो ये कभी नहीं करता था। फिर क्यों ये उठ कर खड़ा नहीं होता? खड़ा नहीं होगा तो कैसे मेरे साथ कन्धे से कन्धा मिलायेगा?”
“बाप!” — आतंकित इरफान ने उसे पकड़कर झिंझोड़ा।
“इरफान! तुका को खड़ा कर! इसे बोल सरदार आया है। इसे बोल ये उठकर मेरे गले लग कर मुझे रिसीव नहीं करेगा तो मैं वापिस लौट जाऊंगा।”
“सरदार!” — इरफान ने उसे फिर झिंझोड़ा।
“मेरा बाप मर गया, लोगो!” — विमल बिलख कर बोला — “मेरा बाप मर गया!”
इरफान ने विक्टर को इशारा किेया, दोनों ने उसे जबरन पकड़ कर टैक्सी में सवार कराया।
“ये क्या करते हो, कम्बख्तो?” — विमल चिल्लाया।
“होश में आ, बाप।” — इरफान घुड़क कर बोला — “लोग इधर आने भी लगे हैं। अभी भीड़ इकट्ठी हो जायेगी, फिर पुलिस आयेगी, पंचनामा होगा, गवाहियां होंगी। ऐसे में तेरा इधर टिकना गलत है। विक्टर तेरे को इधर से लेकर जाता है।”
“लेकिन तुका! वागले!”
“मैं है न! मैं है न!”
“लेकिन...”
“बाप, वक्त की नजाकत समझ। ये फौजदारी का मामला है। लाशें अभी कोई हमारे हवाले नहीं हो जाने वालीं। इन्हें पुलिस लेकर जायेगी, चीरफाड़ होगा, फिर कल किसी वक्त सुपुर्दगी होगी।”
“लेकिन किसने किया? किसने किया ये... ये...”
“देखेंगे। देखेंगे। जिन्होंने किेया, उनका इससे कहीं बुरा हश्र करेंगे पण इस वक्त तू जा। खुदा के वास्ते इस वक्त तू जा। मेरा यकीन कर, मैं इधर सब सम्भाल लूंगा। मेरा यकीन कर, बाप।”
विमल खामोश हो गया।
इरफान ने चैन की सांस ली और फिर विक्टर को इशारा किया।
विक्टर ने तत्काल टैक्सी वहां से दौड़ा दी।
“बढ़िया! बढ़िया!” — ब्रजवासी मुदित मन से बोला, फिर उसने बाकायदा टोकस की पीठ थपथपाई — “शाबाश! बेहतरीन काम किया तूने। सिन्धी भाई सुनेगा तो मेरे से कहीं ज्यादा और कहीं बड़ी — समझ गया? मैं बड़ी बोला — शाबाशी देगा।”
टोकस बाग बाग हो गया।
चिरकुट ने आशापूर्ण निगाहों से ब्रजवासी की तरफ देखा।
“तू भी उस शाबाशी में बराबर का हिस्सेदार है।” — ब्रजवासी ने उसकी पीठ थपथपाई — “सिपहसालार को मिली शाबाशी उसकी फौज के लिये भी बराबर होती है।”
“ऐसा, साहब?” — चिरकुट बोला।
“हां। और अभी मैं इधर ही हूं। मेरे जाने से पहले देखना, ये शाबाशी तेरी सारी जेबों में लबालब भरी होगी, भले ही वो कितनी हों।”
“शुक्रिया, बाप।”
“मुझे खुशी है कि तू हमारे आदमी का बहुत उम्दा तरीके से साथ दे रहा है। क्यों, टोकस?”
“असल जहूरा तो सब आपका ही है, साहब!” — वो बोला — “दोहरी चाल चलना तो आप ही को सूझा था!”
“वो तो है!” — ब्रजवासी बोला — “वो तुकाराम घुटा हुआ, तजुर्बेकार आदमी बताया जाता था इसीलिये मुझे उसके साथ डबल ब्लफ खेलना सूझा। मुझे यही उम्मीद थी कि एयरपोर्ट पर उसके सामने जो पहले पेश होगा वो आदतन उस पर शक करेगा लेकिन पेश होने वाली दूसरी पार्टी को सहज ही जेनुइन समझ लेगा। देख ले, ऐन यही हुआ।”
“बिल्कुल यही हुआ, साहब।”
“तूने ये एक और भी काबिलेतारीफ काम किया जो तुका और वागले को शूट करके लाशें एम्बूलेंस से बाहर फेंक दीं वरना एम्बूलेंस के पीछे लगे वो लोग पीछे ही लगे रहते और पता नहीं यूं कौन सी मुसीबत खड़ी करते! इसे कहते हैं तुर्त फुर्त सोच कर नतीजा। शाबाश!”
“साहब, मैंने सोचा था कि मरना तो उन्होंने था ही, तब मरते या थोड़ी देर मे मरते, क्या फर्क पड़ता था!”
“उन्हें नहीं पड़ता था, हमें पड़ता था। पड़ा। शाबाश!”
“शुक्रिया, साहब।”
“लेकिन तू ये पता न लगा पाया कि टैक्सी में कौन लोग सवार थे?”
“साहब, उसके लिये रुकना पड़ता या वापिस लौटना पड़ता। उस माहौल में वो दोनों ही काम गलत होते।”
“हूं।”
“रात के वक्त हैडलाइट्स की चमक ऐसी तीखी होती है कि उनके पीछे की सूरतें शिनाख्त में नहीं आतीं।”
“बहरहाल जो कोई भी थे, होंगे तो वो लन्दन के मुसाफिरों के कोई हिमायती या सगेवाले ही!”
“जहन्नुम के मुसाफिर बोलिये, साहब।”
“अब देखते हैं इस वार से सोहल कैसा तड़प कर दिखता है? और तड़प कर कहां नमूदार होता है? दिल्ली में या मुम्बई में!”
विमल कोलाबा में डाक्टर देशमुख के नर्सिंग होम में डाक्टर के आफिस में उसके सामने बैठा था।
उससे थोड़ा परे हट कर विक्टर खड़ा था।
विमल को पहले से मालूम था कि डाक्टर देशमुख का आवास नर्सिंग होम की ही इमारत में उसके टॉप फ्लोर पर था जहां से बहुत हुज्जत के बाद वो उतरकर नीचे आने को तैयार हुआ था।
“आपने मुझे पहचाना?” — विमल कठोर स्वर में बोला।
कठोर स्वर पर डाक्टर सकपकाया, फिर सुसंयत स्वर में बोला — “हां। तुम वो शख्स हो जिसने मुझे चैम्बूर वाले तुकाराम के इलाज के लिये उसके साथ लन्दन जाने को एंगेज किया था। नाम मुझे याद नहीं, क्या बताया था तुमने अपना?”
“भूलना चाहिये तो नहीं था आपको मेरे जैसे कैश कस्टमर का नाम! ऐसे शख्स का नाम जिसने आपकी चार गुणा फीस अदा की थी। बहरहाल विमल... विमल बताया था मैंने अपना नाम।”
“हां। विमल। तुम्हें तो खुशी होनी चाहिये कि तुम्हारा पेशेंट एकदम तन्दुरुस्त हो के लौट आया है। या” — डाक्टर देशमुख ने उसे घूरा — “कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी तुकाराम से तुम्हारी भेंट नहीं हुई? बहरहाल खबर तो है न तुम्हें उसके लौट आने की?”
“खबर है। जो कि जाहिर है कि आपको भी है!”
“है तो सही लेकिन जाहिर कैसे है? तुम्हारे पर कैसे जाहिर है?”
“उस एम्बूलेंस की वजह से जो कि आपने तुका को लिवा लाने के लिये एयरपोर्ट पर भेजी?”
“लिवा लाने के लिये? कहां लिवा लाने के लिये?”
“आप बताइये?”
“और एम्बूलेंस! हमने कहां भेजी एम्बूलेंस? हमें किस ने कहा एम्बूलेंस भेजने के लिये?”
“ये भी आप बताइये?”
“हमने कोई एम्बूलेंस नहीं भेजी। किसलिये भेजते भला? पूरी तरह से तन्दुरुस्त होकर लौट रहे आदमी को क्या एम्बूलेंस की जरूरत होती है?”
“आपने नहीं तो आपके नर्सिंग होम ने भेजी। मैंने अपनी आंखों से आपके नर्सिंग होम की एम्बूलेंस अभी दस बजे के करीब एयरपोर्ट पर देखी थी। मैं पूछता हूं कि...”
“होल्ड आन! होल्ड आन!”
उसने इन्टरकॉम पर एक नम्बर डायल किया और नर्सिंग होम के ड्यूटी आफिसर को वहां तलब किया।
“अभी कोई एम्बूलेंस एयरपोर्ट पर भेजी थी?” — डाक्टर देशमुख कड़े स्वर में बोला।
“नो, सर।” — जवाब मिला।
“तो कहां भेजी थी?”
“कहीं भी नहीं। दोनों एम्बूलेंस बाहर कम्पाउन्ड में खड़ी हैं। आज दोपहर से कोई एम्बूलेंस नर्सिंग होम से बाहर नहीं गयी।”
“सुना आपने?” — डाक्टर देशमुख विमल से सम्बोधित हुआ।
“सुना।” — विमल बोला — “तो फिर...”
“अभी और रुकिये।” — डाक्टर फिर ड्यूटी आफिसर की तरफ घूमा — “दोनों एम्बूलेंस की लॉग बुक्स इधर लेकर आओ और ला कर साहब को दिखाओ।”
“जरूरत नहीं।” — विमल बोला।
“क्यों जरूरत नहीं। जब तुम...”
“इन्हें रुखसत कीजिये।”
“लेकिन...”
“मुझे इनकी बात पर विश्वास है। मुझे आपकी बात पर विश्वास है। जाने दीजिये इन्हें।”
डाक्टर देशमुख ने सहमति में सिर हिलाया और फिर ड्यूटी आफिसर को इशारा किया।
डयूटी आफिसर वहां से चला गया।
“क्या माजरा है?” — पीछे डाक्टर बोला।
“आपको तुकाराम की लन्दन से वापिसी के प्रोग्राम की खबर थी?”
“बिल्कुल थी। क्यों न होती? वो मेरा स्पेशल पेशेंट था। मैं लन्दन उसके साथ रहा था और वापिस आकर भी उसके केस के डेली टच में रहता था। फिर भला क्योंकर मुझे उसके वापिसी के प्रोग्राम की खबर न होती?”
“और किसे खबर थी?”
“मेरे सिवाय किसी को नहीं।”
“आपने किसे बताया?”
“तुम इतने सवाल क्यों पूछ रहे हो?”
“वजह आप मेरे बिना बताये भी जान जायेंगे। फिलहाल जवाब दीजिये। प्लीज।”
“भई, कल उसके गांव से दो आदमी यहां आये थे। तुकाराम की बाबत बहुत परेशान थे बेचारे। बोलते थे उसकी बीवी बहुत फिक्र कर रही थी।”
“तुकाराम की बीवी?”
“हां। इसीलिये उसने उन दोनों को उसकी बाबत पूछताछ करने के लिये यहां भेजा था।”
“आपने क्या बताया?”
“यही कि वो एकदम तन्दुरुस्त होकर आज दस बजे बी.ओ.ए.सी. की फ्लाइट नम्बर 465 से यहां पहुंच रहा था।”
“डाक्टर साहब, ये जानकारी आपने तुकाराम के किसी गांव वालों को नहीं, उसके कातिलों को दी थी।”
“क्या मतलब?”
“तुकाराम विधुर था। उसकी बीवी को मरे दस साल से ऊपर हो चुके हैं।”
“था? था बोला तुमने?”
“हां।”
“क्या हुआ उसे?”
विमल ने बताया।
“ओ, माई गॉड!” — सुनकर डाक्टर ने नेत्र फट पड़े — “ओ, माई गुड गॉड! ऐसा डेयरडेविल क्राइम! हमारे यहां की नकली एम्बूलेंस बना ली, नकली स्टाफ बना लिया...”
“और उस शख्स को मार डाला, जो शफा हासिल करने के लिये लन्दन गया था। जो इसलिये लन्दन गया था ताकि लौट कर तन्दुरुस्त मर सकता। काल का पंजा मरोड़ देने की कूवत रखने वाला वीर मराठा कुत्ते की मौत मारा गया।” — विमल का गला रुंध गया — “इसलिये मारा गया क्योंकि आपने किसी के सामने उसकी वापिसी का प्रोग्राम उगल दिया।”
“अब मुझे क्या मालूम था कि...”
“आपने मुझे यतीम कर दिया।”
“वो... वो तुम्हारा पिता था?”
“हां, वो मेरा पिता था।”
“लेकिन... तुम तो... मराठा नहीं जान पड़ते।”
“है न आपके लिये अचरज की बात?”
“आई एम सॉरी, यंग मैन। आई एम रीयली सॉरी। मुझे नहीं मालूम था कि... कि... अब तुम क्या करोगे?”
“मैं क्या करूंगा? मैं क्या करूंगा? मरने वाले के साथ तो नहीं मर जाऊंगा — अलबत्ता ऐसा हो जाये तो मुझे जरा अफसोस नहीं होगा।” — विमल ने एक आह भरी — “मैं सीखूंगा कि कैसे कोई इस कत्लगाह में यतीम की जिन्दगी जी सकता है। सलीब की तरह इस लानत को — कि मैं अपने बाप की जान की हिफाजत न कर सका, मैंने उसे अपनी आंखों के सामने मर जाने दिया — अपने कन्धों पर ढोता अत्याचार के इस डेरे में मैं तब तक प्रेत की तरह विचरूंगा जब तक कि मैं मर नहीं जाता या मार नहीं डालता।”
आखिरी शब्द कहते कहते विमल के दान्त यूं किटकिटाने लगे कि डाक्टर ने घबराकर अपनी कुर्सी पीछे सरका ली।
“मैं इस विश्वास के साथ यहां से जा रहा हूं कि तुका की मौत से आपका या आपके नर्सिंग होम का कोई लेना देना नहीं, आप अनजाने में उस बिसात का एक मोहरा बन गये जिस पर तुका की हारी बाजी लगाई गयी थी लेकिन” — विमल ने कहरभरी निगाहों से डाक्टर की तरफ देखा — “आइन्दा दिनों में अगर मुझे मालूम हुआ कि आप या आपके स्टाफ में से कोई तुका के कातिलों से मिला हुआ था तो मैं वापिस आऊंगा और आपके इस फैंसी नर्सिंग होम को जलाकर ऐसा राख करूंगा कि न इसका कोई वजूद रहेगा और न आपका। ये मेरा वादा है आपसे, डाक्टर देशमुख, जिसे भूल न जाना।”
डाक्टर ने चेहरे पर दशहत के ऐसे भाव आये जैसे कि वो कुर्सी पर बैठा बैठा ही मर जाने वाला हो। लकवे की सी हालत में फटी फटी आंखों से वो विमल को वहां से जाता देखता रहा।
एक पी.सी.ओ. से विमल ने उस लोकल नम्बर पर फोन किया जो कि उसे छोटा अंजुम ने सम्पर्क के साधन के तौर पर दिया था।
“हल्लो!” — दूसरी ओर से कोई बोला — “कौन?”
“छोटा अंजुम को फोन दे।”
“कौन बोलता है?”
“उसको फोन दे, कम्बख्त!” — विमल कहरभरे स्वर में बोला।
“बाप, मेरे से जितना मर्जी कड़क बोल, वान्दा नहीं। पण वो भी पूछेगा।”
“उसे बोल मैं वो सफेद गुलाब वाला शख्स हूं, ‘भाई’ जिससे जुगलबन्दी का तमन्नाई है।”
“अभी, बाप। अभी।”
कुछ क्षण खामोशी रही।
“हल्लो!” — फिर छोटा अंजुम की परिचित आवाज उसके कान में पड़ी — “मैं छोटा अंजुम। तुम वही हो जो मैं समझ रहा हूं?”
“वही हूं। तभी तेरे को फोन किया।”
“जहेनसीब। मैं तो नाउम्मीद हो चला था। अब अच्छी खबर सुना डालो कि तुमने ‘भाई’ की पेशकश कुबूल करने का फैसला कर लिया है।”
“मेरा जो फैसला है, वो मैं भाई को ही सुनाऊंगा।”
“फिर भी पता तो लगे कि...”
“या तू कुबूल कर कि तू ‘भाई’ है, फिर मैं तेरे को ही सुनाता हूं।”
“मैं ‘भाई’? पागल हुआ है? अरे, मैं छोटा अंजुम हूं। छोटा अंजुम। ‘भाई’ का खास।”
“या खास ‘भाई’।”
“अरे, क्या बहकी बहकी बातें कर रहा है? ‘भाई’ से बात करना चाहता है तो ‘भाई’ को फोन कर। मैंने मोबाइल नम्बर दिया तो था उसका!”
“मुझे नम्बर नहीं, उसका पता चाहिये।”
“क्यों?”
“मालूम पड़ जायेगा।”
“लेकिन क्यों?”
“मेरे को उससे मिलना है।”
“ये तो ‘भाई’ के लिये भी खुशी की बात होगी लेकिन तू दुबई तो जा नहीं सकता क्योंकि तेरे पास पासपोर्ट नहीं है।”
“मुझे पता चला है कि ये ‘भाई’ की स्थापित की कोरी अफवाह है कि वो दुबई में है ताकि पुलिस पीछे न पड़े। असल में वो मुम्बई या उसके आसपास ही कहीं पाया जाता है।”
“तुम्हें गलत पता चला है। ये ठीक है कि बहुत सख्त जरूरत आन पड़ने पर वो कभी कभार इधर का फेरा लगाता है जो कि चन्द घन्टों का ही होता है। अगर तेरे इरादे नेक हों तो ऐसा फेरा वो तेरे लिये भी लगा सकता है।”
“उसे कह कि लगाये और फिर खबर करे कि वो कहां पाया जाता है!”
“गोया कि तेरे इरादे नेक हैं!”
“हां, बहुत ज्यादा।”
“तो तू चाहता है कि वो तेरे रूबरू हो तो तब तू उसकी पेशकश कुबूल करेगा?”
“पहली बात ठीक है।”
“पहली बात?”
“हां। मैं चाहता हूं कि वो मेरे रूबरू हो। वो मेरे रूबरू हो ताकि मैं उसका फातिहा पढ़ सकूं...”
“क्या बकता है?”
“...मैं उसकी लाश पर भांगड़ा डाल सकूं...”
“तू... तू पागल तो नहीं हो गया है?”
“...मैं उसका कलेजा निकाल कर खा सकूं।”
“अरे, क्यों ऐसी वाहीतबाही बक रहा है। ऐसा क्या कर दिया है हमने जो तू एकाएक ‘भाई’ के खिलाफ आग उगलने लगा है?”
“तुझे नहीं मालूम?”
“अल्लाह कसम, नहीं मालूम।”
“तुम लोगों ने तुकाराम को मार डाला।”
“क्या? तुका मर गया?”
“मेरे पर दबाव बनाने के लिये तुम लोगों ने मेरे पिता समान तुकाराम को बेरहमी से कत्ल करा दिया।”
“अल्लाह! सरदार! सुन। खुदा के वास्ते सुन।”
“क्या सुनूं, हरामजादे?”
“गाली दस और दे ले लेकिन सुन।”
“कह, क्या कहना चाहता है?”
“हमें इस बात की तो खबर है कि तुका अपना इलाज कराने के लिये लन्दन गया हुआ था लेकिन वो लौट आया था, इस बात की हमें कतई कोई खबर नहीं। मैं सच्चा मुसलमान हूं। अपने बनाने वाले की कसम खाकर मैं कभी झूठ नहीं बोलता। मैं पाक परवरदिगार की कसम खाकर कहता हूं कि न हमें तुका के वापिस लौट आये होने की कोई खबर है और न, अगर वाकेई उसका कत्ल हो गया है तो उसमें हमारा कोई हाथ है।”
“तो ऐसा किसने किया?”
“हमें नहीं मालूम।”
“मुझे तो दूसरा कोई दिखाई नहीं देता जिसकी तुका के कत्ल में कोई दिलचस्पी हो!”
“कोई तो होगा ही वरना वो कत्ल वाकया न हुआ होता!”
“लेकिन...”
“सुन। सुन। अभी और सुन। तू इस वक्त भड़का हुआ है। भड़के हुए आदमी की अक्ल काम नहीं करती इसीलिये तू अपनी नाक से आगे नहीं सोचना चाहता और कूद कर इस गलत, बेबुनियाद नतीजे पर पहुंचा हुआ है कि तुका का कत्ल हमने कराया।”
“नहीं कराया?”
“कसम खाकर तो बोला कि नहीं कराया! मैंने झूठ बोला हो तो मेरी रूह दोजख की आग में झुलसे, कयामत के दिन तक उसे चैन और सुकून नसीब न हो। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता।”
“अगर ऐसा सच्चा मुसलमान है तो कुबूल कर कि तू ही ‘भाई’ है।”
“अरे, कैसे मैं कोई गलत, वाहियात, बेबुनियाद बात कुबूल कर सकता हूं?”
“तू ‘भाई’ नहीं है?”
“नहीं हूं, मैं महज उसका खादिम हूं।”
“वो पक्का ही मुम्बई में नहीं रहता?”
“नहीं रहता। वो पक्का दुबई में रहता है। अलबत्ता कभी कभार चोरी से, चुपके से, इधर आता है।”
“भाई ने तुका और वागले का कत्ल नहीं कराया?”
“नहीं कराया।”
“मुझे तेरी बात पर एतबार नहीं।”
“अरे, अहमक। ‘भाई’ अभी तेरे से इतना नाउम्मीद नहीं हुआ कि ऐसा कदम उठाया जाने का हुक्म देता। न ही ‘भाई’ कुम्हार का गुस्सा गधे पर उतारने का हामी है। ‘भाई’ ‘भाई’ है, वो खुला खेल खेलता है। छुप कर वार नहीं करता। जाबर को जीतने के लिये कमजोर को अपना शिकार नहीं बनाता।”
“बनाता है। जब जाबर पर पेश न चल रही हो तो बनाता है।”
“क्या मतलब?”
“पिछले तीन दिनों में दो बार मेरे पर जानलेवा हमला हुआ लेकिन नाकाम रहा। मेरे पर पेश न चली इसलिये तुका के जरिये मेरे पर चोट की।”
“किसने किया तेरे पर हमला? नाम बता उसका। मैं उसी को पकड़ कर तेरे सामने लाता हूं और उससे कुबूलवाता हूं कि उसने ‘भाई’ के कहने पर तेरे पर हमला नहीं किया था।”
“क्या मुश्किल काम है तेरे लिये या ‘भाई’ के लिये?”
“तौबा! तू तो कसम खाये बैठा जान पड़ता है कि अक्ल से काम नहीं लेगा!”
“बातें न बना। समझा?”
“मुझे एक बात बता। जिन लोगों ने तेरे पर हमला किया, वो तेरे को पहचानते थे न? पहचानते ही होंगे वरना हमला क्योंकर करते?”
“क्या कहना चाहता है?”
“और ये भी जानते थे कि हमला करने के लिये तू कहां पाया जायेगा?”
“क्या कहना चाहता है?”
“अरे, हम तेरा पता जानने के लिये अक्खी मुम्बई में मारे मारे फिर रहे हैं। अगर तेरा हमलावर हमारा आदमी होता तो इसका मतलब है कि हमें मालूम था कि तू कब कहां पाया जाता था? ऐसा होता तो क्या हम तेरे खुद हमारे रूबरू नमूदार होने के मोहताज होते? सफेद फूल के शिनाख्ती निशान के मोहताज होते? सीधे ही तेरे सिर पर न आ खड़े होते तुझे ये फतवा सुनाने कि या तो हमारे से इत्तफाक की राह पकड़ या जहन्नुमरसीद हो?”
विमल के मुंह से बोल न फूटा।
“ ‘भाई’ को अभी तेरे से नाउम्मीदी नहीं हुई। उसे जब तेरे से नाउम्मीदी हो जायेगी तो वो जैसे भी बन पायेगा, तेरे पर — सुन रहा है? तेरे पर — वार करेगा और तब उसका एक ही वार तेरी हस्ती मिटा देगा।”
“ये सब लिफाफेबाजी है जो तू अपने ‘भाई’ को खुदा से भी दस इंच ऊंचा साबित करने के लिये कर रहा है।”
“चल ऐसे ही सही लेकिन यकीन कर, तुका की मौत से हमारा कोई लेना देना नहीं।”
“तो किसका है?”
“आधी रात से ऊपर का टाइम हो रहा है, जा के सो जा। कोई घूंट वूंट लगाता हो तो और भी अच्छा, लगा और सो जा। सुबह जब सो कर उठेगा तो भेजे पर जो गुस्से का शैतान सवार है वो रुखसत ले चुका होगा। तब तू कोई अक्ल की बात सोचने के काबिल होगा। तब तुझे अपने आप सूझेगा कि ये पीठ पीछे वार तेरे पर किसने किया! अब जा, सो जा। मैं खुदावन्द करीम से तेरे लिये दुआ करूंगा कि वो तुझे सुकून अता फरमाये और जो सदमा तुझे लगा है, उसे झेलने की तुझे ताकत दे।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
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