निश्चय

नवंबर 2006

बेटी की शादी। ज़माना चाहे कितना भी आगे बढ़ गया हो लेकिन हमारे भारतीय समाज में बेटी की शादी आज भी एक पिता के लिए बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। बेटी पैदा हुई नहीं कि लो एक नई ज़िम्मेदारी आ गई। भारतीय समाज का कोई भी वर्ग इस ज़िम्मेदारी की भावना से अछूता नहीं रह गया है और फिर बात मध्यम वर्गीय परिवार की हो तो इस ज़िम्मेदारी के मायने ही बदल जाते हैं जो हमे विभिन्न रंग-रूपों में नज़र आते हैं। यह ज़िम्मेदारी कभी-कभी तो सामाजिक मानसिकता के प्रभाव में इस प्रकार हावी हो जाती है कि माता-पिता अपने बड़े होते बच्चों की भावनाओं को भी उसके तले कुचल देते हैं। फिर यह ज़िम्मेदारी वाली मानसिकता और हमारा समाज दोनों मिलकर अप्रत्यक्ष रूप से पैदा करते हैं, प्रेम-कहानियाँ, जैसे जिग्ना और पलाश की प्रेम कहानी।

बेटी की शादी वाली इस ज़िम्मेदारी के पीछे ना सिर्फ़ सामाजिक वरन बहुत से व्यक्तिगत कारण भी होते हैं जैसे ग़रीबी, शिक्षा और जातिवाद रूपी राक्षस। आज के दौर में भी, हमारे समाज में पढ़े-लिखे शिक्षित परिवार जातिवाद की बुराई से मुक्त नहीं है। जातिवाद रूपी राक्षस की जड़ें समाज में बहुत गहराई तक फैली हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन हर जगह मौजूद है। जिग्ना और पलाश की प्रेम-कहानी भी इस राक्षस के प्रकोप से कहाँ बचने वाली थी। शादी की ज़िम्मेदारी के चलते, महज़ 20 साल की उम्र में ही पिता ने जिग्ना की शादी के लिए लड़का ढूँढना शुरू कर दिया था।

जिग्ना ने पलाश को भी यह बात बताई कि उसके पिता ने उसकी शादी के लिए लड़का ढूँढना शुरू कर दिया है। पलाश को बाक़ी परिस्थितियों के चलते यह तो पहले ही अंदेशा था कि उन दोनों की प्रेम-कहानी को शादी की बंधन में बाँधना, इतना आसान नहीं होगा। लेकिन उसने यह कभी नहीं सोचा था कि जिग्ना के पिता उसकी शादी की बात चलाकर, दोनों की समस्या को और बढ़ा देंगे, वो भी इतना जल्दी। हालाँकि, अभी सिर्फ़ शुरुआत थी, लेकिन जिग्ना और पलाश दोनों ही अब अपनी शादी को लेकर और अधिक गंभीर हो चले थे। पिता की इस शादी वाली ज़िम्मेदारी ने ही, कहीं-न-कहीं उन दोनों को आने वाले समय में सुदृढ़ होने के लिए चेता दिया था। पलाश की नियति ने उसे आगे आने वाले चुनौतियों के लिए साफ़ संकेत देना शुरू कर दिया था।

जिग्ना तो पलाश को पहले ही अपना निर्णय सुना चुकी थी कि वो शादी करेगी तो सिर्फ़ उसी से। इसीलिए पिता के इस अप्रत्याशित क़दम से वो भविष्य को लेकर परेशान थी। पलाश भी अपना निर्णय सुनिश्चित कर चुका था, उसने जिग्ना को कहा, “चाहे जो भी परिस्थिति होगी मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। हमें अपना क़दम उठाने के लिए सिर्फ़ सही समय का इंतज़ार करना है।” पलाश ने जिग्ना को वादा किया, “अगर इस बीच तुम्हें कभी भी लगे कि परिस्थितियाँ अब तुम्हारे नियंत्रण में नहीं है, तो तुम्हें बस मुझे बताना है। पहला क़दम तुम्हें उठाते हुए मेरे पास आना होगा और फिर आगे ज़िम्मेदारी मेरी होगी।” पलाश भावी परिस्थितियों को बहुत अच्छे से कल्पित कर पा रहा था, जैसे कि सब कुछ उसकी आँखों के सामने उसी समय घटित हो रहा हो। पलाश की तरफ़ से जिग्ना के लिए, आने वाले समय के मद्देनज़र यह उसका आख़िरी निर्णय था। इससे अधिक तो आगे आने वाला समय ही बता सकता था कि उनकी प्रेम-कहानी की नियति क्या है? अब पलाश सही समय का इंतज़ार करते हुए, हर पल अपने भविष्य को ही कल्पित कर रहा था। जैसा कि वह अच्छी तरह समझता था, समय स्वयं ही हर गुज़रते हुए दिन के साथ भविष्य की धुँधली तस्वीर को साफ़ करता जा रहा था।

दूसरी ओर पलाश के लिए एक बड़ा सवाल यह था कि अगर मुश्किल समय होने पर जिग्ना सब कुछ छोड़कर उसके पास आ भी गई तो वो अचानक से क्या करेगा?

वह इस बात को लेकर बहुत ही निश्चित था कि उन्हें शादी तो करनी ही पड़ेगी, लेकिन कैसे? इसका जवाब उस समय उसके पास नहीं था।

भारत में शादी के लिए क़ानूनी रूप से लड़के की आयु कम-से-कम 21 वर्ष और लड़की की आयु 18 वर्ष होनी चाहिए, यह तो सभी जानते हैं। इस हिसाब से पलाश और जिग्ना क़ानूनी रूप से तो शादी करने के क़ाबिल थे लेकिन अब वह यह जानकारी बटोरने में लगा हुआ था कि शादी के लिए उन्हें क्या-क्या दस्तावेज़ चाहिए होंगे? और यह शादी कहाँ और कैसे होगी?

पलाश अब तक समझ चुका था कि दोनों के ही माता-पिता इस शादी के लिए तैयार नहीं होंगे, विशेष रूप से जिग्ना के पिता तो बिल्कुल भी नहीं। आख़िरी रास्ता यही था कि उन दोनों को यह शादी घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ करनी थी। पलाश को अब तक इतना तो पता चल ही चुका था कि उन दोनों को शादी की योग्यता साबित करने के लिए कम-से-कम आयु का प्रमाण तो चाहिए ही था। इसीलिए पलाश ने जिग्ना से फ़ोन पर बातचीत के दौरान माध्यमिक विद्यालय के सर्टिफ़िकेट के बारे में पूछा, जिसमें जन्म-तिथि अंकित होती है और उसे आयु प्रमाण की तरह उपयोग किया जा सकता था। जिग्ना ने बताया कि वो सर्टिफ़िकेट उसके पास है। पलाश ने जिग्ना को तुरंत ही उसकी एक कॉपी करवा के पंतनगर, उसके हॉस्टल के पते पर भेजने को कहा। पलाश किसी भी तरह की ग़लती नहीं करना चाहता था, जिससे कि वे दोनों आख़िरी समय में किसी भी कारण से कहीं फँसे। ना जाने कब किस चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए, इसीलिए पलाश हर संभव परिस्थिति के लिए पहले ही तैयार हो जाना चाहता था। हालाँकि, उस समय पलाश को बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि उस सर्टिफ़िकेट का उपयोग कब? कैसे? और कहाँ होगा?

आख़िर पलाश की नियति ही थी जो उसे यह सब करने पर मजबूर कर रही थी। बहरहाल, पलाश की बात मानकर जिग्ना ने अगले दिन ही सर्टिफ़िकेट की फ़ोटोकापी उसके हॉस्टल के पते पर पोस्ट कर दी और तीसरे दिन पलाश वो सर्टिफ़िकेट मिल गया, जो कि उसके पास जिग्ना का एक मात्र अधिकारिक दस्तावेज़ था।

सत्य ही है कि जब आप किसी चीज़ के पीछे पूरी जान लगाकर लग जाएँ तो फिर आप नियति का नहीं, बल्कि नियति ख़ुद आपका पीछा करने लगती है। बिल्कुल यही हो रहा था पलाश के साथ भी। वैसे तो पलाश हर समय अपने आप में ही खोए रहने का स्वभाव रखता था। फिर ट्रेन के सफ़र की तो बात ही अलग है, वहाँ तो सब पहले ही अनजान होते हैं और फिर रानीखेत एक्सप्रेस का रात का सफ़र। पलाश की यात्रा अक्सर बिना किसी से एक शब्द बोले ही गुज़र जाया करती थी। लेकिन नियति और समय तो पलाश का जैसे मानो पीछा ही कर रहे थे।

हुआ यूँ कि जिग्ना से मुलाक़ात का समय और दिनांक तय हो चुका था और पलाश हमेशा की तरह नियत समय पर स्टेशन पहुँचकर ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। संयोग की बात थी कि उस दिन स्टेशन पर बहुत भीड़ थी और जनरल डिब्बे की हालत और भी खस्ता थी। ट्रेन का सिर्फ़ दो मिनट का ही ठहराव था स्टेशन पर और फिर वही हुआ जिसका पलाश को डर था। बहुत मारामारी के बाद भी वो डिब्बे में अभी चढ़ भी नहीं पाया था कि हरी बत्ती हो गई और ट्रेन हॉर्न मारते हुए चल पड़ी। जनरल डिब्बे में चढ़ना तो अब मुश्किल था। फ़िलहाल पलाश बाबू ने फिर से अपने तुरंत निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देते हुए पलक झपकते ही रिज़र्वेशन डिब्बे में चढ़ने का फ़ैसला किया जो कि अब ट्रेन पकड़ने का आख़िरी रास्ता था। इससे पहले की ट्रेन रफ़्तार पकड़ती पलाश तेज़ गति से दौड़कर रिज़र्वेशन डिब्बे में चढ़ गया।

वैसे तो यह ट्रेन से सफ़र करने के दौरान हो जाने वाला साधारण-सा वाक़िया था लेकिन पलाश के लिए यह कुछ विशेष था। जैसे भी हो पलाश ने ट्रेन तो पकड़ ही ली थी और अब जिग्ना से मुलाक़ात भी पक्की ही थी। अभी भागते हुए ट्रेन में चढ़कर साँस ले ही रहा था कि टिकट कलेक्टर आ गया। अच्छी बात यह थी की पलाश के पास जनरल टिकिट था लेकिन फिर भी आरक्षित डिब्बे में चढ़ने का जुर्माना तो भरना ही पड़ा। हालाँकि, भीड़ बहुत ज़्यादा होने के कारण जुर्माना भरने के बाद भी पलाश को सीट तो नहीं मिल पाई थी और अब यहाँ भी पूरी रात खड़े-खड़े ही सफ़र करना था। मौसम सर्द था लेकिन हवा के ठंडे झोंकें पलाश को एक अलग ही सुकून दे रहे थे और वो ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा अपने और जिग्ना के भविष्य के बारे में सोचता हुआ सफ़र का पूरा मज़ा ले रहा था।

यूँ ही खड़े-खड़े भविष्य की संभावनाओं के सागर में ग़ोते लगाते हुए कब 11.45 हो गए थे, पलाश को पता ही नहीं चला। तभी अचानक से किसी ने पलाश के कंधे को थप-थपाते हुए दरवाज़े से थोड़ा साइड होने को कहा। मुड़कर देखा तो क़रीब 30 वर्षीय गठीले शरीर वाला एक युवक खड़ा था जिसके एक हाथ में सिगरेट का पैकेट और दूसरे में लाइटर था। पलाश तुरंत ही उसकी सिगरेट पीने की तलब को समझकर दरवाज़े से साइड होकर खड़ा हो गया। वैसे तो पलाश को सफ़र में अनजान लोगों से बात करने में कोई रुचि नहीं थी लेकिन उस दिन परिस्थिति कुछ और ही थी।

सफ़र तो वह जनरल डिब्बे में भी बिना किसी से बात किए चुपचाप ही करता था लेकिन उसकी बात और ही होती थी। सही बोला जाए तो भारतीय रेल के जनरल डिब्बे में छोटी-सी जगह में कुछ ही समय में जीवन के बहुत से रंग देखने को मिल जाते हैं, फिर बोर होने का तो सवाल ही नहीं उठता। भारतीय रेल का जनरल डिब्बा एक चलते फिरते छोटे गाँव जैसा होता है जिसमें बच्चे, बूढ़े, जवान, पुरुष, महिलाएँ सभी अपने वास्तविक स्वभाव को उजागर करते सहज ही नज़र आ जाते हैं। उस पर मूँगफली, नमकीन और चाट बेचने वाले तो ऐसे लगते हैं मानो जैसे बचपन की ख़ुशियों की होम-डिलीवरी कर रहे हों। यात्रा कर रहे हर यात्री का बस एक ही लक्ष्य होता है, चाहे मुश्किल से ही सही बस अपनी मंज़िल पर समय से पहुँच जाएँ। मंज़िल पर पहुँच जाने का यह एक लक्ष ही उन सारे अलग-अलग चरित्रों को इतना क़रीब ला देता है कि सामाजिक ताना-बना चलती ट्रेन में भी सहज ही देखने को मिल जाता है।

दूसरी ओर रिज़र्वेशन डिब्बे का माहौल बिल्कुल ही अलग होता है और जब आपके पास सीट नहीं हो तो फिर रात का सन्नाटा भी अकेलेपन का एहसास कराने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ता। यही कारण था कि जब सिगरेट पीते उस युवक ने पलाश से बात करनी शुरू की तो वह सहज ही उससे बात करने में मशग़ूल हो गया। बातों-बातों में जब परिचय हुआ तो पलाश ने जाना कि वो रुद्रपुर का रहने वाला था और पेशे से एक वकील था और अभी कुछ ही समय पहले symbiosis, पुणे से वकालत की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आजकल नैनीताल कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहा था। पलाश यह जानकार बड़ा ख़ुश हुआ क्योंकि उसे तो पहले ही कहीं-न-कहीं पूर्वाभास था कि उसकी जिग्ना के साथ शादी इतनी आसानी से नहीं होने वाली और कोर्ट मैरिज की भी पूरी संभावनाएँ उसे लग रही थीं।

आज तो उसे सफ़र में एक वकील मिल गया था जिससे कि वो दोस्त की तरह अपनी सारी समस्या साझा करके उनका संभव हल भी जान सकता था। कुछ ही देर में वो दोनों काफ़ी घुल-मिल गए और पलाश ने अपनी प्रेम-कहानी में आ रही समस्या भी उससे साझा कर डाली। वकील साहब ने अपनी सीट भी पलाश के साथ साझा कर ली और फिर तो विचार-विमर्श लंबा चल पड़ा जो कि सुबह दिल्ली आने तक जारी रहा। सबसे प्रमुख बात जो पलाश ने उस दिन जानी वो यह थी कि शादी करने का सबसे आसान तरीक़ा आर्य समाज मंदिर में शादी करना है जिसे कि बाद में कोर्ट से रजिस्टर करवाया जा सकता है। सफ़र के दौरान ही दोनों ने अपने मोबाइल नंबर भी साझा कर लिए और वकील साहब ने पलाश को कभी रुद्रपुर उनके आवास पर आने का निमंत्रण भी दे डाला।

लगभग एक महीने बाद पलाश रुद्रपुर में वकील साहब से उनके घर पर मिला। जहाँ उसे इस तरह के प्रेम-विवाह से संबंधित और भी कई महत्त्वपूर्ण जानकारी वकील साहब के ज़रिये मिली। ट्रेन में, यूँ जनरल डिब्बे में ना बैठ पाना, फिर रिज़र्वेशन डिब्बे में चढ़ना और फिर वकील का मिलना, मानो जैसे सब कुछ पहले से ही नियत था। बहरहाल, वकील साहब से मिली जानकारी के बाद पलाश का आत्मविश्वास अब और बढ़ गया था। अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, वकील से हुई मुलाक़ात और जानकारी के कारण अपनी और जिग्ना की प्रेम-कहानी के रास्ते में पलाश एक क़दम और आगे बढ़ चुका था।

क्या पलाश और जिग्ना अपनी प्रेम-कहानी को शादी के बंधन में बाँध पाए?

सारे क़ानूनी नियम और जानकारी जो पलाश को वकील से पता चली, क्या वो सब उसे असली परिस्थिति से लड़ने में मदद कर पाई?

पलाश को और किन-किन चुनौतियों का सामना अपनी प्रेम-कहानी के रास्ते में करना पड़ा?

पलाश और जिग्ना की प्रेम-कहानी के उस रौंगटे खड़े कर देने वाले मोड़ की कहानी के इन सारे सवालों के जवाब आपको आगे के अध्यायों में मिलेंगे।

चेतावनी

दिसंबर 2006

हॉस्टल के कमरे में चोरी छुपे चलते जुगाड़ू हीटर की गर्माहट का पंतनगर की सर्दी में अलग ही मज़ा था। दिसंबर का महीना शुरू हो चला था और पंतनगर की हाड़ कँपा देने वाली सर्दी ज़ोरों पर थी। तीसरे साल का पहला सेमेस्टर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला और अब पलाश को पंतनगर में रहते पूरे ढाई साल हो चुके थे। सर्दियों वाला सेमेस्टर ब्रेक अक्सर डेढ़ महीने लंबा तो होता ही था लेकिन इस बार AIET की वजह से सेमेस्टर ब्रेक छोटा होने वाला था। पलाश हमेशा ही समेस्टर ब्रेक में घर जाकर अपने माता-पिता से मिलने के लिए उत्सुक रहता था लेकिन साथ ही थोड़ा उदास भी हो जाता था क्योंकि घर जाकर वो जिग्ना से कभी-कभार ही बात कर पाता था।

सेमेस्टर ब्रेक भले ही छोटा होने वाला था लेकिन घर जाने के अलावा पलाश के पास कोई और चारा भी नहीं था क्योंकि हॉस्टल में रुकने वाला कोई नहीं था और फिर मेस भी बंद होने वाला था। इसलिए वह अपने घर जयपुर चला गया। घर जाकर भी पलाश को आराम ही करना था क्योंकि वहाँ उसके कोई स्थानीय दोस्त तो थे नहीं और ज़्यादातर समय घर पर ही व्यतीत होना था।

आल इंडिया टूर पर जाने से पहले की उन कुछ दिनों की छुट्टियों को पलाश बड़े सुकून से घर पर आराम करते हुए बिता रहा था। इसी बीच एक दिन सामान्य वार्तालाप के दौरान ही माँ ने पलाश को हिदायत भरे लहजे में कहा, “पंतनगर लौटते समय दिल्ली में कहीं भी इधर-उधर घूमने और जाने की ज़रूरत नहीं है।” माँ की इस हिदायत से पलाश को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उसने माँ से इस बारे में किसी बात की उम्मीद नहीं की थी। असल में माँ ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन पलाश को जिग्ना से मिलने के लिए मना कर दिया था। पलाश को भी यह बात समझते देर ना लगी और उसने माँ की इस बात को कोई उत्तर न देने में ही अपना भला समझा।

माजरा यह था कि पिछले सेमेस्टर ब्रेक में घर पर पलाश का छोटे भाई के साथ जिग्ना को लेकर जो वाद-विवाद हुआ था, उसी का नतीजा था माँ की यह हिदायत। एक तरफ़ तो उस दिन पहली बार घर में जिग्ना के बारे में सबको पता चल गया था, जो कि कहीं-न-कहीं पलाश के लिए अच्छा ही था। लेकिन साथ ही पलाश के वापस लौटने के बाद माँ ने यह सारी बात पिता को भी बता दी थी। मोबाइल फ़ोन को लेकर हुए पुलिस केस के कारण माता-पिता पहले ही उसके बारे में चिंतित थे और अब पलाश की जिग्ना के साथ दोस्ती की बात को जानकार वो कुछ ज़्यादा ही चिंतित हो गए थे।

इन सब बातों को नतीजा यह हुआ कि‍ पलाश के पिता उसकी जन्मपत्री बनवाने पंडित के पास चले गए थे। भारत देश अपने पौराणिक और आध्यात्मिक संस्कृति के साथ ही भारतीय ज्योतिष के लिए भी प्रसिद्ध है। ज्योतिष विधा का ही प्रभाव है कि भारत में लोग अपने सभी महत्त्वपूर्ण कार्य पंडित द्वारा निर्धारित मुहूर्त के अनुसार ही करते हैं। और जब बात किसी व्यक्ति विशेष की हो तो उसकी जन्मपत्री देखकर उसी के अनुसार उसके सभी शुभ कार्यों के मुहूर्त भी निर्धारित किए जाते हैं। इसीलिए पलाश के पिता भी जन्मपत्री बनवाकर उसके भविष्य से संबंधित समस्यों के समाधान के लिए पंडित के पास पहुँच गए थे। पंडित महाशय ने पलाश की जन्म दिनांक, समय और स्थान जानकर जन्मपत्री तो बनाई ही साथ ही यह भी पलाश के पिता को बताया कि, “दिल्ली या दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में जल्द ही आने वाले समय में पलाश के साथ कोई बड़ी घटना घटित होने वाली है, जिसमें उसे जान का ख़तरा भी हो सकता है।” यही कारण था कि माँ ने पलाश को दिल्ली में इधर-उधर कहीं भी जाने को मना किया था। हालाँकि, ये तो आने वाला समय ही बताने वाला था कि नियति ने पलाश के लिए क्या तय किया था और पंडित की कही हुई बात में कितनी सच्चाई थी।

अगले कुछ ही दिनों में वापस पंतनगर लौटने से पहले ही पलाश के माता-पिता ने सीधे और साफ़ शब्दों में उसे दिल्ली जाने और विशेष रूप से जिग्ना से मिलने को मना कर दिया था। पिता ने उसे जन्मपत्री और इस समस्या से बचने के लिए पंडित के बताए सुझाव के बारे में भी बताया। पंडित के बताए अनुसार पिता ने पहले ही गोमेद रत्न जड़ी हुई चाँदी की अँगूठी पलाश ले लिए बनवा दी थी। उन्होंने पलाश को सख़्त हिदायत देते हुए हर समय वह अँगूठी पहनने को कहा। हालाँकि, पलाश को इन सब बातों में बहुत अधिक विश्वास नहीं था, वो बस अपने किए हुए निर्णय और दृढ़ निश्चय में ही विश्वास करने वाला था। लेकिन माता-पिता की बात को मानते हुए उसने वो अँगूठी पहन ली। उसे पंडित की बात पर भरोसा तो नहीं था लेकिन पंडित ने दिल्ली और आस-पास के क्षेत्र का नाम लिया था जो कि सीधे जिग्ना से संबंध रखता था, इसीलिए कहीं-न-कहीं वो सतर्क तो हो ही गया था। उसे तो पहले ही आगे आने वाले मुश्किल समय का पूर्वाभास हो चुका था और अब पंडित का इशारा भी उसी दिशा में था। ख़ैर, जो भी हो, इन सब बातों के बावजूद ये सब परिस्थितियाँ उसे भविष्य के लिए और अधिक मज़बूत बना रही थीं।

सब कुछ तो ठीक था लेकिन दिल्ली तो उसे पंतनगर लौटते समय जाना ही पड़ता था और यह बात माता-पिता भी अच्छी तरह जानते थे। कुल मिलाकर, दिल्ली से होकर गुज़रना समय का निर्णय था और जिग्ना से मुलाक़ात, पलाश का उससे किया हुआ वादा और दृढ़निश्चय था। पलाश नियति की चेतावनी को महसूस कर पा रहा था जो उसे किसी-न-किसी रूप में बार-बार मिल रही थी। लेकिन दूसरी ओर ख़ुद नियति ही थी जो उसे उसकी नियत मंज़िल पर जाने को बाध्य भी कर रही थी।

एक तरह से देखा जाए तो पलाश का जिग्ना के साथ बिताया समय शादी जैसा बड़ा निर्णय लेने के लिए पर्याप्त तो नहीं था लेकिन उनके प्यार की गहराई के आगे समय के कोई मायने नहीं थे। वो बस अपने आपको आने वाली चुनौतियों से लड़ने के लिए तैयार करते हुए, सही समय के आने का इंतज़ार कर रहा था। पलाश को नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है लेकिन वो अपने आपको मानसिक रूप से तो हर परिस्थिति के लिए तैयार कर ही चुका था।

दिसंबर में ही AIET की तारीख़ तय हुई थी, इसीलिए पलाश दो हफ़्ते में ही पंतनगर के लिए लौट गया। सारी हिदायतों के बाद भी, हर बार की तरह पलाश इस बार भी जिग्ना से मिला, आख़िर यह अपने आप से किया हुआ, एक दृढ़ निश्चय भी तो था। उसने घर पर हुई सारी बातें, जन्मपत्री और पंडित की बात के बारे में भी जिग्ना को बताया। सारी बातें सुनकर जिग्ना का चिंतित होना स्वाभाविक था लेकिन पलाश ने उसे विश्वास दिलाया, “वो हर क़दम पर उसके साथ है। कुछ नहीं होगा और कुछ होता भी है तो वह हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार है।” हाथों में हाथ लिए दोनों प्रेम-पंछी आगे आने वाली चुनौतियों से लड़ने ले लिए तैयार थे जो कि नियति की किताब में उनके लिए पहले ही लिखी जा चुकी थी।

वादा

दिसंबर 2006

आधा दिसंबर निकल चुका था और पंतनगर में कड़ाके की सर्दी अपने ज़ोरों पर थी लेकिन AIET में जाने का जोश इतनी सरगर्मी पर था कि सभी नामांकित बच्चे घरों से लौट आए थे और सर्दी की तो किसी को फ़िक्र ही नहीं थी। वैसे तो पंतनगर के कृषि पाठ्यक्रम में कॉलेज टूर आम बात थी लेकिन अभी तक के सारे टूर उत्तराखंड के पहाड़ों तक ही सीमित थे। AIET, आल इंडिया टूर था जो कि लगभग 22 दिन लंबा था तो बच्चों में उत्साह तो स्वाभाविक ही था। पलाश भी अपने जीवन के अभी तक के सबसे लंबे टूर को लेकर उत्साह और रोमांच से भरा हुआ था। AIET का ये टूर बड़ा और लंबा तो था ही, साथ ही जाने वाले विद्यार्थियों का समूह भी बड़ा था। कुल लगभग 70 के क़रीब विद्यार्थी टूर के लिए नामांकित थे। मज़े की बात यह थी कि टूर में लड़के और लड़कियाँ दोनों ही शामिल थे वो भी लगभग 50:50 के अनुपात में। अब पंतनगर के बैचलर्स को और भला क्या चाहिए। यह कॉलेज के विद्यार्थियों का एक आधिकारिक टूर था इसीलिए साथ में दो प्रोफ़ेसर भी अपने परिवार सहित साथ जा रहे थे।

कहने को तो यह सेमेस्टर ब्रेक था लेकिन AIET के कारण हॉस्टल का माहौल ऐसा हो गया था मानो बीच सेमेस्टर का समय हो। हर कोई AIET के लिए अपनी तैयारियों में लगा हुआ था। पलाश के दोनों क़रीबी दोस्त UD और पार्थ भी टूर पर जा रहे थे इसीलिए पलाश भी उनके साथ मिलकर पैकिंग और बाक़ी की तैयारियों में लगा हुआ था। निश्चित रूप से यह टूर पलाश के लिए तो यादगार रहने वाला था और जब साथ में जिगरी दोस्त भी जा रहे हों तो बात ही अलग थी।

पलाश एक दिन पहले ही अपने सारी पैकिंग और तैयारियाँ पूरी कर चुका था। टूर की समय-सारिणी अनुसार दूसरे दिन सुबह लालकुआँ स्टेशन से संपर्कक्रांति एक्सप्रेस लेकर दिल्ली पहुँचना था। संपर्कक्रांति लगभग 3.30 बजे दिल्ली पहुँच जाती थी, उसके बाद मुंबई जाने के लिए नई दिल्ली स्टेशन से रात को 9.40 पर अगली ट्रेन पकड़नी थी। सारे ट्रेन टिकिट और होटल आदि, कॉलेज प्रबंधन द्वारा टूर की समय-सारिणी अनुसार पहले ही बुक कर दिए गए थे। दिल्ली में मुंबई के लिए अगली ट्रेन पकड़ने से पहले छह घंटे का समय अंतराल था, फिर पलाश जिग्ना से मिलने का मौक़ा कैसे छोड़ सकता था। दोनों ने नियत तिथि पर अपनी मुलाक़ात पहले ही तय कर ली थी।

बाक़ी सब तो ठीक था लेकिन टूर बाईस दिन लंबा था और पलाश के सामने सवाल यह था कि जिग्ना से बात कैसे करेगा? पलाश के पास फ़ोन तो था लेकिन यह वो समय था जब स्थानीय क्षेत्र के बाहर रोमिंग के कारण फ़ोन कॉल दर और भी महँगी हो जाती थी। महँगी कॉल दर का भी पलाश एक हद तक प्रबंधन कर सकता था लेकिन समस्या यह थी कि हर जगह वो रीचार्ज कैसे करवाएगा? उस ज़माने में व्हॉट्सप्प, फ़ेसबुक, मैसेंजर और ईमेल तो बहुत दूर की बात थी, ऑनलाइन रीचार्ज करना भी संभव नहीं था। यह वो समय था जब सिर्फ़ पेपर रीचार्ज ही चलते थे। बहरहाल, महँगा ही सही लेकिन पेपर रीचार्ज ही पलाश के पास आख़िरी उपाय था। फिर उसी दिन शाम को पलाश मार्केट जाकर ढेर सारे पेपर रीचार्ज ख़रीद लाया। कुछ भी हो प्रेम-पंछी अपनी प्रेम-कहानी का सफ़र तय करने के उपाय ढूँढ ही लेते हैं।

आख़िर, AIET की शुरुआत का दिन आ ही गया। यूनिवर्सिटी बस हॉस्टल के पार्किंग में सभी को लालकुआँ ले जाने के लिए खड़ी थी। सभी अपने-अपने बैग और बाक़ी समान बस में चढ़ाने में लगे थे। सभी के लिए टिकिट तो पहले ही बुक थे तो कोई मारामारी भी नहीं थी। लालकुआँ से संपर्कक्रांति एक्सप्रेस अपने सही समय पर चल पड़ी थी। यह AIET की शुरुआत थी और सारे बच्चों का जोश और उत्साह देखते ही बन रहा था।

हँसते, गाते, मस्ती करते ट्रेन कब पुरानी दिल्ली पहुँच गई, पता ही नहीं चला। शाम के पूरे चार बज चुके थे जब टूर का पूरा समूह ट्रेन से उतरकर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर खड़ा था। साथ आए प्रोफ़ेसर ने अनुदेश देते हुए सभी को 9.30 पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अगली ट्रेन के लिए निर्धारित प्लेटफ़ॉर्म पर मिलने को कहा। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और सभी को अपनी सहूलियत से निर्धारित समय पर वहाँ पहुँचना था। अगली ट्रेन के समय के बीच छह घंटे का अंतराल था तो प्रोफ़ेसर ने सभी को जहाँ मर्ज़ी समय व्यतीत करने की छूट दे दी थी। स्वाभाविक रूप से सभी विद्यार्थी अपनी इच्छा के अनुरूप छोटे-छोटे समूहों में बँट गए थे। सहज रूप से पलाश भी आठ लोगों के छोटे समूह में था जिसमें UD और पार्थ भी शामिल थे। कई लोगों के लिए तो दिल्ली नया था लेकिन पलाश तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। उसने अपने समूह के लोगों को अपना समान वहीं क्लॉक रूम में रखने का सुझाव दिया ताकि वो सभी आराम से आस-पास के मार्केट में घूम सकें।

दूसरी ओर पार्थ और UD को, पलाश की जिग्ना से मुलाक़ात के बारे में पहले ही पता था। दोनों ही पलाश के अच्छे और क़रीबी दोस्त थे इसलिए उन्हें पलाश के बारे में लगभग सब कुछ ही पता होता था। पार्थ और UD दोनों ही पलाश को हर संभव सहयोग करने के लिए हमेशा तैयार भी रहते थे इसीलिए उस दिन भी उन्होंने निर्णय लिया कि पलाश का सामान वो अपने साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन ले जाएँगे, ताकि वो जिग्ना से मिलने के बाद सीधा ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन आ सके।

अगले कुछ ही मिनटों में पलाश ने बिना समय गँवाए, स्टेशन के बाहर से ऑटो लिया और EDM मॉल की ओर चल पड़ा। शाम का समय हो चला था और दिल्ली के यातायात की मारामारी, पलाश को EDM मॉल पहुँचते हुए पूरे 5.30 बज गए थे। जिग्ना पहले से ही वहाँ उसका इंतज़ार कर रही थी। पलाश जिग्ना से मिलकर अपने भीतर एक नई ऊर्जा का एहसास कर रहा था जो दिन भर के सफ़र के बाद भी ताज़गी का एहसास करवा रही थी। दोनों के पास लगभग तीन घंटे का ही समय था क्योंकि पलाश को समय रहते 8.30 बजे के लगभग नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए भी निकलना था। बहरहाल, दोनों मॉल में ही एक जगह बैठकर अपनी बातों में व्यस्त हो गए। जिग्ना कुछ गंभीर लग रही थी, उसने पलाश को बताया, “उसके पिता ने उसकी शादी के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया है लेकिन उसने अपने माँ को साफ़ कह दिया है कि वो शादी करेगी तो सिर्फ़ पलाश से।” जिग्ना के ये शब्द सुनकर माँ ने उसपर काफ़ी ग़ुस्सा भी किया क्योंकि वो अच्छी तरह जानती थी कि यह किसी भी प्रकार से संभव नहीं होगा। दूसरी ओर जिग्ना के पिता को अभी तक पलाश के बारे में कुछ भी पता नहीं था। कुल मिलाकर जिग्ना के घर में उसकी शादी को लेकर परिस्थितियाँ बदल रही थीं और इसी कारण से जिग्ना परेशान थी। वो बार-बार पलाश को सिर्फ़ एक ही बार कह रही थी कि शादी करेगी तो सिर्फ़ उसी से करेगी। फ़िलहाल, दोनों ही इस बात से अनजान थे कि नियति ने उनके लिए क्या तय किया हुआ है और फिर नियत समय से पहले तो कुछ भी संभव नहीं होता।

पलाश तो पूरे धैर्य के साथ सही समय का इंतज़ार कर रहा था। उसने जिग्ना को भी समझाकर शांत किया और सही समय का इंतज़ार करने के लिए कहा। उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ जिग्ना को कहा, “सही समय आने पर ही उसे परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेना होगा और वो सही समय कब आएगा? यह तो आने वाला समय ख़ुद-ब-ख़ुद बताएगा।”

पलाश ने जिग्ना को समझाया, “हमें तब तक धैर्य रखना है जब तक कि परिस्थितियाँ नियंत्रण में हैं।”

पलाश अपने निर्णय को लेकर बहुत दृढ़ था और उसने जिग्ना को पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा, “जब उसे लगे कि परिस्थितियाँ अब उसके नियंत्रण में नहीं है, उस समय उसे बस उसको बताना है और उसके पास चले आना है। यह उसका आख़िरी क़दम होगा और उसके बाद वह उसकी ज़िम्मेदारी होगी।” जिग्ना को पलाश पर पहले ही पूरा भरोसा था और उसका आत्मविश्वास देखकर फ़िलहाल वो भी निश्चिंत हो गई थी। दोनों ने हर परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ देने का वादा किया, चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों ना आएँ।

समय ख़त्म होने को था और पलाश को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए भी निकलना था। पलाश ने जिग्ना को मोबाइल के पेपर रीचार्ज के बारे में बताया और पूरे टूर के दौरान भी बात करते रहने का वादा किया। जल्दी करते-करते भी लगभग 9 बज ही गए थे। जिग्ना ने पलाश को AIET के लिए बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ ही अपना ख़याल रखने की भी हिदायत दी। फिर कुछ ही मिनटों में पलाश जिग्ना के साथ मुलाक़ात की कभी न भूलने वाली यादों को अपने दिल में सँजोए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकल गया, जहाँ पार्थ और UD उसका इंतज़ार कर रहे थे।

हाजी अली से सिद्धिविनायक

दिसंबर 2006

रात के 9 बजे का समय। पलाश ऑटो में बैठा बाहर दिल्ली के यातायात घमासान को ताक रहा था और ऑटो पलाश के कहे अनुसार अपनी पूरी संभव गति से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ़ दौड़ रहा था। ट्रेन को मुंबई के लिए छूटने के निर्धारित समय में अभी भी 40 मिनट बाक़ी थे लेकिन यह दिल्ली का ट्रैफ़िक था और फिर ऑटो स्टैंड से प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचने में भी कुछ समय तो लगना ही था। पलाश को पता था कि वह पहले ही निकलने में देर कर चुका था, बहरहाल उसे पूरी उम्मीद थी कि अभी भी वह ट्रेन पकड़ लेगा। इसीलिए पहले ही उसने ऑटो वाले को तेज़ी से जाने को बोल दिया था। ऑटो वाला भी परिस्थिति को समझते हुए आपना पूरा प्रयास कर रहा था। जैसे-जैसे नई दिल्ली स्टेशन नज़दीक आ रहा था ट्रैफ़िक बढ़ता जा रहा था और ऑटो की गति भी कम होती जा रही थी। पलाश की चिंता बढ़ना तो स्वाभाविक ही था, तभी अचानक से ऑटो रुक गया। देखा तो पता चला की आगे लंबा जाम लगा हुआ है और ऑटो ट्रैफ़िक में फँस गया है। ऑटो वाले से पूछने पर पता चला की वो अभी भी स्टेशन से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर थे। दूरी इतनी ज़्यादा थी कि‍ पैदल चलकर जाना संभव भी नहीं था। पलाश के पास ऑटो में बैठकर ट्रैफ़िक खुलने का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा ना था। हालाँकि, अभी 9 बजकर 20 मिनट हो रहे थे और ट्रेन के समय में अभी भी 25 मिनट बाक़ी थे लेकिन अब पालाश को लग रहा था कि अगर जल्दी ही ट्रैफ़िक नहीं खुला तो उसकी ट्रेन छूट सकती है।

बड़ा मुश्किल समय था लेकिन पलाश बड़े धैर्य और उम्मीद के साथ ट्रैफ़िक खुलने का इंतज़ार कर रहा था। दस मिनट हो चुके थे और अभी भी ऑटो जाम में फँसा हुआ था, तभी धीरे-धीरे जाम खुलने लगा और अगले कुछ ही मिनटों में ऑटो पूरी गति से स्टेशन की ओर दौड़ रहा था। पूरे 9.35 हो चुके थे जब पलाश ऑटो स्टैंड पर उतरा। समय बचाने के लिए वो ऑटो वाले को रुपये भी पहले ही दे चुका था। प्लेटफ़ॉर्म के लिए सीढ़ियों की तरफ़ दौड़ते हुए ही उसने प्लेटफ़ॉर्म पर नियत स्थान जानने के लिए पार्थ को फ़ोन लगाया। ट्रेन छूटने में सिर्फ़ 5 मिनट बाक़ी थे और वो भी अब तेज़ी से घट रहे थे। अच्छी बात यह रही की पार्थ ने एक ही बार में फ़ोन उठा लिया और पलाश को सही स्थान की जानकारी भी मिल गई थी। अभी प्लेटफ़ॉर्म नंबर 6 दूर था और पलाश भीड़ को चीरता हुआ तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। प्लेटफ़ॉर्म नंबर 6 पर पलाश सीढ़ियों से नीचे उतर ही रहा था कि ट्रेन ने एक लंबा हॉर्न मारा और ट्रेन के पहिये धीरे-धीरे लुढ़कने लगे। पार्थ का बताया हुआ स्थान सीढ़ियों के पास ही था और इससे पहले कि ट्रेन गति पकड़ती पलाश तेज़ी से दौड़ा और लपककर ट्रेन में चढ़ गया।

अगले कुछ मिनटों में पलाश, पार्थ और UD के साथ ट्रेन में बैठा अपनी उखड़ी हुई साँसें सँभाल रहा था। दोनों दोस्त पलाश की हालत देखकर मंद-मंद मुस्कुराते हुए पंतनगरीय भाषा में उसका उपहास उड़ा रहे थे। जो भी हो, यह तो सत्य ही था कि उस दिन अगर पलाश को कुछ सेकंड की भी और देरी ओर होती तो उसकी ट्रेन छूट जाती। अगले कुछ मिनटों में ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही थी। टूर में आए सभी लोग अपने-अपने समूहों में अपना समान व्यवस्थित कर चुके थे। रात के लगभग 10.15 मिनट का समय हो रहा था लेकिन अभी भी ट्रेन के डिब्बे का माहौल काफ़ी जीवंत लग रहा था। हर कोई AIET की इस शुरुआती यात्रा का अपने हिसाब से, अपने समूह में आनंद ले रहा था। ट्रेन के डिब्बे में गिटार की धुन पर एक साथ गाना गाने का स्वर रात के सन्नाटे और बहती हवा के साथ और भी तीव्र हो रहा था, जिसका अपना अलग ही मज़ा था। दूसरी ओर पलाश भी अपने जिगरी दोस्त पार्थ और UD के साथ बातचीत करते हुए अपने अलग ही अंदाज़ में सफ़र का आनंद ले रहा था।

दिल्ली से मुंबई बोरीवली तक लगभग 18-20 घंटे का सफ़र था, इसीलिए दूसरा दिन पूरा ट्रेन में ही गुज़रने वाला था। इधर-उधर की मस्ती भरी बातें करते हुए सफ़र का पूरा मज़ा लेते हुए, देर रात कब सारे लोग सो गए पता ही नहीं चला। अब सुबह उठकर, कौन-सा कॉलेज जाना था, बस सफ़र का मज़ा ही तो लेना था। अगले दिन सुबह ट्रेन में उठने के बाद बस चारों ओर गाने-बजाने का ही माहौल था। टूर में गए सारे लोगों का समूह ऐसे प्रतीत हो रहा था मानो ट्रेन में ही एक छोटा-सा शहर बस गया हो, जिसमें सब बेफ़ि‍क्रे अंदाज़ में बस अपनी ज़िंदगी को जिए जा रहे थे। पंतनगर के बैचलर्स ने तो जैसे भारतीय रेल के उस चलते-फिरते शहर में एक नई जान ही फूँक दी थी। असल में बैचलर्स लाइफ़ ही वो समय होता है जिसमें कई रंगों के ख़्वाबों को अपने दिलो-दिमाग़ में सँजोएँ, वो अल्हड़ और बेफ़ि‍क्रे चरित्र कुछ ऐसे शहर बसा जाते हैं जो वक़्त निकल जाने के बाद सिर्फ़ यादों में ही ज़िंदा रहते हैं। कुछ समय के लिए बसे हुए ये अल्हड़ और बेफ़ि‍क्रे शहर इतने जीवंत होते हैं कि ज़िंदगी भर की ख़ुशियाँ और यादें कुछ ही पलों में दे जाते हैं। ट्रेन में बसे उस बेफ़ि‍क्रे शहर में उस दिन पलाश की जिग्ना से दो बार फ़ोन पर बात हुई जो कि किसी मुलाक़ात से कम नहीं थी।

मात्र दिनभर की छोटी-सी ज़िंदगी, लेकिन उम्र भर की यादों वाला ट्रेन का वो शहर उस समय उजड़ गया जब शाम के लगभग 8.30 बजे ट्रेन बोरीवली स्टेशन पहुँची। सब लोग अपना-अपना समान सँभालते हुए भागम-भाग में लगे थे। बोरीवली स्टेशन से होटल तक के लिए टूर प्रबंधन द्वारा पहले ही बस बुक कर दी गई थी। फ़िलहाल, सभी लोग थके-हारे हुए से जब होटल पहुँचे तो रात के 10 बज चुके थे। होटल में कुल लोगों के हिसाब से पर्याप्त संख्या में कमरे बुक थे, जिसके अनुसार हर कमरे में 4-5 लोगों को रुकना था। सारे लोग तुरंत ही अपनी सहूलियत के हिसाब से समायोजित होकर अपने-अपने कमरों में चले गए। पलाश, पार्थ और UD का एक ही कमरे में होना तो स्वाभाविक ही था। तीनों दोस्तों ने होटल के कमरे में जमकर भसड़ मचाई, आख़िर पंतनगर के बैचलर्स जो ठहरे। और तो और, भूख लगी तो बाहर जाकर रात में ही होटल के आस-पास का सारा क्षेत्र भी छान मारा लेकिन खाने के लिए कुछ हाथ नहीं लगा। आख़िरकार, थके-हारे और भूखे बैचलर्स अपने साथ ही घर से लाया हुआ कुछ थोड़ा बहुत खाना-पीना खाकर सो गए।

होटल के पास से ही होकर मुंबई की एक व्यस्त सड़क गुज़रती थी। मुंबई की भागदौड़ भरी ज़िंदगी के शोरग़ुल की आवाज़ जिसे होटल के कमरे की खिड़की भी नहीं रोक पा रही थी, सुबह-सुबह जब पलाश के कानों में पड़ी तो उसकी नींद टूटी। देखा तो 7 बज चुके थे, उसने तुरंत ही पार्थ और UD को भी जगाया। तुरंत ही तीनों दोस्त निकलने के लिए तैयार हो गए, मुंबई घूमने की उत्सुकता में सब एक नई ऊर्जा से भरे हुए थे। सभी लोगों ने नीचे जाकर ब्रेकफ़ास्ट किया जिसकी व्यवस्था होटल की तरफ़ से ही थी। टूर प्रबंधन के निर्देशानुसार अब टूर में आए सभी लोग अपनी मर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ घूमने के लिए स्वतंत्र थे। सभी लोगों ने अपनी-अपनी सुविधानुसार अपने समूह बना लिए थे और फिर निकल पड़े मुंबई घूमने। पलाश के समूह में तीनों दोस्तों को मिलाकर कुल आठ लोग थे, जिसमें दो लड़कियाँ भी थीं। समूह का नेतृत्व पार्थ कर रहा था और कहाँ-कहाँ जाना है? खाने के लिए कहाँ रुकना है? ये सब निर्णय लेना उसका काम था। यह भी पार्थ का ही काम था कि कम पैसों में ज़्यादा-से-ज़्यादा स्थान कैसे घूमे जाएँ? और ये सब जुगाड़ करने में तो वो माहिर था, इसीलिए तो समूह का नेतृत्व वो कर रहा था। अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए पार्थ ने सभी के लिए मुंबई की लोकल बस के फ़ुल डे पास ख़रीद लिए जो कि उस समय मात्र 25 रुपये का था। अच्छी बात यह थी कि अब वो लोग पूरी मुंबई में रात 9 बजे तक उस पास से कहीं भी आ जा सकते थे।

अभी पलाश का समूह होटल के बाहर थोड़ी दूरी पर ही था, उन्होंने पाया कि गेट वे ऑफ़ इंडिया कुछ ही दूरी पर था जहाँ पैदल ही जाया जा सकता था। सब लोग पैदल ही गेट वे ऑफ़ इंडिया की ओर चल पड़े। पहुँचे तो देखा कि‍ सामने ही मुंबई का प्रसिद्ध होटल ताज भी था। सभी ने आस-पास कुछ फ़ोटो खिंचवाए फिर पास ही बस स्टॉप से बस ले ली। पार्थ के बताए अनुसार सभी लोग लगभग 10 मिनट के बाद एक स्टॉप पर उतर गए। बड़ा ही सुंदर नज़ारा था, सड़क के साथ-साथ चलता समुद्री किनारा वो साफ़ देख पा रहे थे। पार्थ के बताए अनुसार वो लोग अभी बस स्टॉप से कुछ ही क़दम चले थे कि वहाँ एक पैदल पुल था जो कि कुछ दूरी पर समुद्र में बने हुए, दूर से एक मस्जिद जैसे दिखने वाले स्थान पर जा रहा था। बड़ी संख्या में लोग उस पुल से होते हुए, उस स्थान पर जा रहे थे।

पार्थ पहले ही पता कर चुका था कि यह एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थान था और सभी लोगों को वहाँ जाने के लिए निर्देशित कर रहा था। सब लोग बात करने में, फ़ोटोज़ लेने में इतने व्यस्त थे कि उन्हें असल में उस जगह का नाम भी नहीं पता था, जहाँ वो जा रहे थे। ख़ैर, पार्थ के कहे अनुसार चलते हुए सभी उस स्थान पर पहुँच गए लेकिन वहाँ प्रवेश द्वार पर बहुत भीड़ थी। बैचलर्स को कौन रोकने वाला था, उन्होंने देखा कि एक रास्ता उस स्थान के पीछे की तरफ़ जा रहा था तो सभी पहले उधर की ओर मुड़ गए। पीछे पहुँचकर तो उन्हें वो मिल गया जो असल में बैचलर्स को चाहिए था। वास्तविक रूप से यह स्थान समुद्री चट्टानों पर बना हुआ था और हर समय पानी की ऊँची-ऊँची लहरें उन चट्टानों से टकरा रही थी। कुल मिलाकर मज़े करने का एक बहुत अच्छा स्थान था और पहले से वहाँ मौजूद लोगों को पानी में खेलते देखकर तो किसी को सब्र ही नहीं रहा। पलक झपकते ही सारे लोग अपनी पैंट्स घुटनों तक चढ़ा के पानी में उतर गए। पलाश जिग्ना को याद कर ही रहा था- ‘काश वो साथ होती तो बहुत मज़ा आता।’ तभी पलाश का फ़ोन बज उठा और देखा तो जिग्ना का ही कॉल आ रहा था। सच्चा प्यार कुछ ऐसा होता है कि प्रकृति भी उसके विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर पाती, वरन उस प्यार के स्वागत में, हर पल प्रेम-पंछियों को मिला देने के लिए तत्पर रहती है और यह अलौकिक मिलन किसी ज़रिये का मोहताज नहीं होता, इसके लिए तो बस दिलबर की एक याद ही काफ़ी होती है। पलाश के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही हो रहा था। उसने तुरंत फ़ोन उठाया और जिग्ना को टूर और मस्तियों के बारे में बताने लगा। उसने जिग्ना को उस धार्मिक स्थल के बारे में भी बताया, जहाँ वो उस समय था। जिग्ना ठहरी भगवान में भरोसा करने वाली आध्यात्मिक लड़की, उसने तुरंत ही पलाश को निर्देश दे डाला, “अंदर जाकर प्रार्थना ज़रूर करनी है।”

जिग्ना की बात भला पलाश कैसे काट सकता था। कुछ 30 मिनट से भी ज़्यादा समय पानी में बिताने के बाद सारे लोग बाहर आए और फिर अच्छे से हाथ-पाँव धोकर दर्शन करने के लिए अंदर चल पड़े। हालाँकि, अभी भी काफ़ी भीड़ थी और उन्हें लाइन लगाकर अपना नंबर आने का इंतज़ार भी करना पड़ा। जब पलाश अंदर गया तो उसे पता चला कि‍ यह एक दरगाह थी और मध्य में पवित्र मज़ार के चारों ओर चक्कर लगाकर लोग मन्नत माँग रहे थे और साथ ही वहाँ मिल रहे पवित्र धागे को मज़ार के स्तंभों पर बाँध रहे थे। वातावरण इतना आध्यात्मिक था कि कोई भी उससे अनछुआ नहीं रह सकता था। पलाश के लिए यह एक अनोखा अनुभव था और वो अपने आपको घुटनों के बल बैठकर मज़ार की चादर पर माथा टेकेने से नहीं रोक पाया। उसने मन्नत का धागा भी बाँधा और पूर्ण अध्यात्म के साथ प्रार्थना करते हुए कहा, “मैंने अपने आपको तुम्हें सौंप दिया है, मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं आगे आने वाले मुश्किल समय का मुक़ाबला कर सकूँ।”

कुछ समय में सभी बाहर आकार, बस पकड़ने के लिए वापस मुख्य सड़क की ओर जा रहे थे। साथ ही पार्थ आस-पास के लोगों से अन्य नज़दीकी स्थानों की जानकारी ले रहा था। सबके साथ चलते हुए पार्थ बोल रहा था, “अगला स्टॉप सिद्धिविनायक मंदिर होगा जो कि यहाँ से लगभग 5 किलोमीटर दूर है।” बात जारी रखते हुए पार्थ ने बोला, “जिस स्थान से होकर हम अभी आए हैं, वह हाजी अली की दरगाह है।” पलाश यह सुनते ही आश्चर्यचकित रह गया और तुरंत ही वापस मुड़कर एक बार फिर दरगाह को देखा। पलाश को भरोसा नहीं हो रहा था कि वो हाज़ी अली की दरगाह पर मन्नत माँगकर आया था क्योंकि यह वो जगह थी जहाँ लोग कई बार वर्षों इंतज़ार करने के बाद भी नहीं पहुँच पाते हैं। अब तक पलाश इस दरगाह के बारे में बॉलीवुड मूवीज़ में ही सुनता आया था। ऐसी मान्यता है कि हाज़ी अली की दरगाह पर माँगी गई हर मन्नत पूरी होती है।

पलाश मन-ही-मन नियति को धन्यवाद दे रहा था कि वो हाज़ी अली की दरगाह के दर्शन कर पाया था। लेकिन पलाश इस बात से बिल्कुल बेख़बर था कि यह उसकी नियति ही तो थी जो उसे उसकी मन्नत पूरी करने के लिए ख़ुद-ब-ख़ुद वहाँ खींच लाई थी। लेकिन क्या आगे आने वाला समय इतना आसान था? यह तो समय ख़ुद ही बता सकता था।

अगले 10 मिनट में ही सब लोग बस से अगले स्टॉप सिद्धिविनायक मंदिर पहुँच गए थे। हालाँकि, वहाँ भी भीड़ बहुत ज़्यादा थी लेकिन लाइन में इंतज़ार करने के बाद पलाश प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर की आध्यात्मिकता से भी सरोकार बिठा पाया था। सिद्धिविनायक मंदिर के आध्यात्मिक वातावरण में ग़ज़ब का आकर्षण था, पलाश को ऐसा लग रहा था मानो बाहरी दुनिया से उसका नाता टूट गया है, उसकी आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो गईं और सिर भगवान गणेश के समक्ष झुक गया था। पलाश ने मन-ही-मन कहा, “हे ईश्वर, अगर आप सच में कहीं हो तो, मेरी सिर्फ़ इतनी विनती है कि जिग्ना हमेशा ख़ुश रहे और उसकी हर इच्छा पूरी हो।”

असल में तो पलाश की नियति कहीं-न-कहीं बस सही समय का इंतज़ार कर रही थी, जब उसे हाजी अली की दरगाह और सिद्धिविनायक मंदिर में माँगी गई इन दुवाओं की ताक़त का पता चलने वाला था। लेकिन पलाश की ये ख़्वाहिश, ये माँगी गई मन्नतें, कैसे पूरी होंगी?

आगे पढ़ते हैं, पलाश की इस रोमांचक और नियति द्वारा निर्धारित प्रेम-कहानी की अनूठी दास्तान।

बैचलर पार्टी

दिसंबर 2006

उस दिन 31 दिसंबर था, साल का आख़िरी दिन। AIET की समय-सारिणी के अनुसार टूर मुंबई के बाद, बैंगलोर और मैसूर होते हुए अब केरल में ठहरा हुआ था। टूर जहाँ-जहाँ भी गया, जिग्ना से किए हुए वादे के अनुरूप ही पलाश लगातार उससे संपर्क में था। अपने साथ लाए ढेर सारे पेपर रीचार्ज की मदद से पलाश हर दिन जिग्ना से बात कर पा रहा था। हालाँकि, रोमिंग में कॉल दर ज़्यादा होने के कारण उनके बात करने का समय ज़रूर कम हो गया था। फ़ोन पर बात तो अपनी जगह थी ही, साथ ही अब हर समय पलाश के दिलो-दिमाग़ में सिर्फ़ जिग्ना का ही ख़याल था। असल बात तो यह थी कि पलाश कहने को तो अपने बैचमेट्स के साथ टूर पर आया हुआ था लेकिन वो अभी भी हर समय जिग्ना के साथ अपने भविष्य की कल्पना करने में ही व्यस्त था। अब पलाश हर पल जिग्ना के साथ जी रहा था। वह अपने प्यार की गहराई और ताक़त को हर दिन बढ़ता हुआ महसूस कर रहा था।

मुंबई के बाद जब टूर दो दिन के लिए बैंगलोर पहुँचा तो पलाश को पता चला कि बैंगलोर रेशम की साड़ियों और स्टोन ज्वैलरी के लिए प्रसिद्ध है। पलाश ने सोचा की क्यों ना जिग्ना के लिए रेशम की साड़ी ख़रीदी जाए जो कि उसके लिए एक सुंदर गिफ़्ट होगा। फिर पलाश को एहसास हुआ कि‍ साड़ी थोड़ी महँगी तो थी ही साथ ही जिग्ना के लिए घर पर उसे छुपाना भी मुश्किल होता और वह उस नाज़ुक समय में ऐसी कोई भी ग़लती नहीं करना चाहता था कि समय से पहले ही कोई समस्या खड़ी हो जाए। सारी बातों के मद्देनज़र पलाश ने पाया कि स्टोन ज्वैलरी जिग्ना के लिए एक अच्छा उपहार होगा जिसे वो आसानी से अपने पास रख भी सकती थी। फिर क्या था, पलाश ने एक सुंदर-सा स्टोन ज्वैलरी का सेट जिग्ना के लिए ले लिया जिसमें, ईयर रिंग और पेंडेंट के साथ एक चेन भी थी। इसी तरह जब केरल के बाद टूर कन्याकुमारी पहुँचा वहाँ भी पलाश, जिग्ना और अपने प्यार को यादगार बनाए बिना नहीं रह पाया। कन्याकुमारी बिल्कुल समुद्र तट पर ही स्थित है इसीलिए नज़दीक के मार्केट में शंख और उनसे बनी हुई बहुत सारी ख़ूबसूरत वस्तुएँ मिल रही थीं। पलाश ने एक छोटा-सा शंख ख़रीदा जिस पर जिग्ना-पलाश दोनों का नाम उकेरा हुआ था। हिंदू धर्म में शंख पवित्र होने के साथ ही धार्मिक महत्त्व का भी प्रतीक है। वो छोटा-सा प्यार का उपहार पलाश के जिग्ना के प्रति सच्चे प्यार की यादगार थी, जो आज भी उन्हें उन ख़ूबसूरत पलों की याद दिलाता है।

बहरहाल, अभी टूर दो दिनों के लिए केरल में था और नये साल की शुरुआत भी केरल में ही होनी थी। समुद्र किनारे की गीली रेत पर अपना और जिग्ना का नाम लिखने के यादगार पल भी पलाश ने अपने कोडेक KB10 कैमरे में क़ैद कर लिए थे जो उसने काफ़ी साल पहले जयपुर में ख़रीदा था और टूर में अपने साथ ले आया था। पूरे दिन केरल के अलग-अलग समुद्री किनारों पर मस्ती करने के बाद सभी लोग होटल लौट आए थे। यहाँ भी बाक़ी सब जगह की तरह ही सब लोग अपना-अपना ग्रुप बनाकर होटल में रुके हुए थे। पलाश के ग्रुप में UD और पार्थ को मिलाकर कुल आठ लड़के थे। पलाश का ग्रुप एक बड़े चार बेड वाले रूम में रुका हुआ था। सब लोग दिन भर तो मस्ती करके आए ही थे, थके भी हुए थे, लेकिन साल का आख़िरी दिन था तो बैचलर्स पार्टी तो बनती ही थी। पलाश के ग्रुप में सभी ने मिलकर रूम में ही नये साल का जश्न मनाने का प्लान बनाया। होटल के पास ही मार्केट था, तो सब ने जाकर पास ही से पार्टी के लिए कुछ ड्रिंक्स और स्नैक्स भी ख़रीद लिए। कमरे में ही एक टीवी भी था जिस पर कुछ म्यूज़िक चैनल भी चल रहे थे तो टीवी को म्यूज़िक सिस्टम की तरह काम में लेना तो स्वाभाविक ही था।

टूर की मस्ती का खुमार, उस पर नये साल की पार्टी का जोश वो भी घर से दूर, एकदम आज़ादी भरे माहौल में। बैचलर्स लड़कों को और क्या चाहिए, उन्हें तो जैसे आज ही ज़िंदगी जीने का मौक़ा मिला था जिसे वो हर पल, जी भर, जी लेना चाहते थे। लगभग, रात 10 बजे का समय, म्यूज़िक चैनल पर मद्धिम आवाज़ में चलते गानों, ड्रिंक्स और स्नैक्स के साथ नये साल की पार्टी शुरू हो चली थी। कहने तो सिर्फ़ आठ ही लड़के रूम में पार्टी कर रहे थे लेकिन सच्चाई तो यह है कि अगर दो से ज़्यादा लड़के एक साथ मिल जाएँ और वो भी बैचलर तो आठ अस्सी से कम नहीं होते, फिर पंतनगर के बैचलर्स के तो क्या कहने। कुल मिलाकर, उस दिन रूम में भसड़ और बकैती के साथ-साथ भारी धमाल मचना तो तय था। अब लड़के तो लड़के ही होते हैं, अभी बस पार्टी शुरू ही हुई थी कि बकैती का ना रुकने वाला सफ़र शुरू हो गया और जल्द ही बैच की लड़कियों तक जा पहुँचा। कुछ ही समय में बीयर ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था और अब बकैती एक बड़ी भसड़ में बदलने लगी थी। पलाश बाबू ठहरे नॉन-ड्रिंकर और कोल्ड ड्रिंक से ही काम चला रहे थे। लेकिन “नशा तो दिमाग़ में होता है, दारू में नहीं।” पलाश भी पार्टी के ख़ुमार में पूरी तरह चूर था और अपनी ऊँची आवाज़ में दिल खोलकर बकैती कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह भी नशे में है और इसी बीच उसने जाकर टीवी का वॉल्यूम फ़ुल कर दिया। टीवी के म्यूज़िक की तेज़ आवाज़ और दोस्तों के बीच हो रही बकैती के कारण, अब रूम में फ़ुल-ऑन भसड़ का माहौल बन चुका था। अब तो बकैती के साथ-साथ ही सारे डांस भी करने लगे थे।

सारे दोस्त मस्ती में इतने मशग़ूल हो गए कि वो ये बात बिल्कुल भूल गए थे कि वो पंतनगर में अपने हॉस्टल रूम में नहीं, वरन एक-दूसरे शहर के होटल रूम में थे। फिर दुर्भाग्यवश पार्टी के उस तेज़ शोरग़ुल ने आस-पास के रूम में रुके हुए अन्य लोगों का भी ध्यान आकर्षित कर लिया। लड़कों तक तो ठीक था लेकिन सामने वाले रूम में ही लड़कियाँ भी रुकी हुई थीं। अब लड़कों की बैचलर्स पार्टी में साथ पढ़ने वाली लड़कियों की बात ना हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता और यह बात तो जग ज़ाहिर है। पार्टी कर रहे दोस्तों का किसी भी व्यक्ति विशेष को लेकर या किसी ख़ास मामले को लेकर बात करने का कोई उद्देश्य नहीं था, वो तो बस अपनी ही धुन में मस्त पार्टी का मज़ा ले रहे थे। लेकिन बात उस समय बिगड़ गई जब सामने के कमरे में रुकी हुई कुछ लड़कियाँ लड़कों की बकैती को ध्यान से सुनने लगी क्योंकि उनकी बातों में लड़कियों के नाम भी आ रहे थे।

‘अगर माँ-बाप को पंतनगर में रहने वाले बच्चों के हॉस्टल की बातें सुनने का मौक़ा मिल जाए तो शायद ही कोई अपने बच्चों को पंतनगर पढ़ने के लिए भेजेगा।’ पंतनगर ही क्यों, हर ग्रेजुएट कॉलेज के हॉस्टल का हाल यही होता है। ये ही उस दिन हुआ कि लड़कियों को लड़कों की बातें सुनाई पड़ रही थी। अब ग़लती तो लड़कियों की भी नहीं थी, कोई भला अपने कान बंद करके थोड़े ही बैठ जाएगा। शायद कोई ग़लत था तो वो जगह ग़लत थी कि वो पंतनगर का हॉस्टल रूम ना होकर एक होटल का रूम था। बहरहाल, लड़कों को तो यह भी नहीं पता था कि अपनी बकैती के नशे में वो बड़ी ग़लतफ़हमियाँ पैदा कर चुके थे जिसका कि उन्हें अब भुगतान करना था।

पलाश ने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है। हुआ यूँ कि बकैती करते हुए जिन लड़कियों का नाम लड़के ले रहे थे, उन्हीं में से एक लड़की को जाकर, किसी ने लड़कों की इस बकैती के बारे में बता दिया। अब जैसा कि मैंने कहा, “अगर माँ-बाप को पंतनगर में रहने वाले बच्चों के हॉस्टल की बातें सुनने का मौक़ा मिल जाए तो शायद कोई अपने बच्चों को पंतनगर पढ़ने के लिए नहीं भेजेगा।” ठीक वैसा ही यहाँ भी हुआ, उस लड़की का तो ग़ुस्सा होना स्वाभाविक ही था। फ़िलहाल, लड़कों ने अनजाने में ही सही लेकिन पंगा तो कर दिया था और अब उसका ख़ामियाज़ा तो भुगतना ही था।

रात के लगभग 11.30 बजे थे, जब बैचलर्स पार्टी में हुई यह बकैती एक बड़ा विवाद बन गई थी। हालाँकि, मामले को शांति से भी सुलझाया जा सकता था लेकिन लड़कों का शायद समय ख़राब था। सारे लोग इतनी मस्ती के बाद बहुत थक गए थे और रूम में अब शांति का माहौल था, टीवी भी बंद हो चुका था। तभी अचानक से किसी ने दरवाज़ा खटखटाया और साथ ही बाहर से कुछ शोर भी सुनाई दे रहा था। पलाश को तुरंत ही कुछ गड़बड़ का अंदेशा हो गया और उसने रूम की सारी लाइट बंद कर दी ताकि ऐसा प्रतीत हो कि सब सो गए है। UD ने दरवाज़ा खोला तो पाया कि 20 के क़रीब लड़के और लड़कियों का समूह सामने था। वो सब चिल्ला रहे थे और सभी को बाहर आने को कह रहे थे। UD ने किसी प्रकार उन सबको समझाया कि अभी सब सो गए हैं और सुबह बात करने के लिए कहा। पलाश अब अच्छी तरह समझ चुका था कि उन्होंने क्या ग़लती कर दी थी।

अगली सुबह, अभी 7 ही बजे थे कि वो ही सब लड़के-लड़कियाँ दरवाज़े के बाहर आ खड़े हुए थे। कुछ लड़कियाँ तो बहुत ही ग़ुस्से में थीं और हर बात चिल्ला-चिल्लाकर ही कह रही थीं। बड़ी बात यह थी कि वो सब पलाश को लड़कियों के बारे में उट-पटांग बातें करने का दोषी बता रहे थे। पलाश बाबू तो पहले ही समझ रहे थे कि आख़िर ग़लती कहाँ हो गई है, समय और परिस्थिति को समझते हुए कम-से-कम बोलने में ही उसने अपनी भलाई समझी। बार-बार दोषारोपण होने पर पलाश ने कहा, “यह सब सत्य नहीं है और वह किसी के लिए भी कोई ग़लत भावना नहीं रखता है।” साथ ही पलाश ने उन सभी से अनजाने में अगर कुछ ग़लत हुआ भी हो तो उसके लिए भी माफ़ी माँगी। अब उन परिस्थितियों में इससे ज़्यादा तो और कुछ संभव नहीं था लेकिन फिर भी लड़कियाँ चिल्लाए जा रही थीं।

दूसरी तरफ़ पार्थ भी उन सभी को समझाने में लगा हुआ था, तो उल्टा एक लड़की उसी के पीछे पड़ गई और उसके पिता का नंबर माँगने लगी। पलाश पार्थ की ओर ही देख रहा था तभी उसने हिचकिचाते हुए अपने पिता का नंबर उस लड़की को दे दिया। अगर लड़की ने पार्थ के पिता को फ़ोन करके रात की सारी घटना के बारे में बता दिया तो क्या होगा? अभी पलाश सोच ही रहा था कि लड़की ने तुरंत ही नीचे जाकर STD से पार्थ के पिता को फ़ोन लगा दिया। अब ये तो बताने की ज़रूरत नहीं कि उसने पार्थ के पिता को क्या-क्या कहा होगा? लेकिन पार्थ तो उस समय भी ठीक-ठाक ही दिख रहा था।

बाद में पलाश के पूछने पर जो पार्थ ने बताया उसे सुनकर तो वो आश्चर्यचकित रह गया और फिर अपनी हँसी भी नहीं रोक पाया। पार्थ ने अपने पिता का नहीं बल्कि पंतनगर के ही एक सीनियर का नंबर दे दिया था जिनसे उसने उसी दिन सुबह इस मामले के बारे में बात की थी। असल में पार्थ रात के मामले को लेकर बहुत परेशान था और ये सारी बहसबाज़ी शुरू होने से पहले ही, सुबह आँख खुलते ही उसने अपने एक सीनियर से इस सारे मामले के बारे में बात की थी ताकि बचाव का कोई रास्ता निकाला जा सके। अब बाक़ी कुछ भी हुआ हो, पार्थ ने पिता के स्थान पर सीनियर का नंबर देकर, मामले को अपने घर तक पहुँचने से तो रोक ही लिया था।

आख़िरकार, यह सारा मामला प्रोफ़ेसर तक पहुँच गया जो कि टूर में सबके साथ आए थे। पलाश के साथ-साथ रूम में मौजूद बाक़ी लोगों को भी मामले की जवाबदेही देनी पड़ी। फिर प्रोफ़ेसर ने भविष्य में दुबारा ऐसा होने पर सख़्त क़दम उठाने की चेतावनी देकर मामले को वहीं ख़त्म कर दिया। वैसे तो पलाश उस दिन भी हमेशा की तरह ही सारे मामले को लेकर सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण था और फिर बिना किसी बात के आगे बढ़े मामले के निपट जाने से बहुत ख़ुश भी था। लेकिन इन सारे घटना क्रम ने टूर में बिताई बैचलर्स लाइफ़ की मीठी यादों के साथ-साथ जीवन के कुछ कड़वे अनुभवों से भी रूबरू करवा दिया था। उसका नतीजा यह था कि पलाश अपने कई बैचमेट्स से अब दूर हो गया था जिनमें उसका पंतनगर का पहला क्रश और कुछ अच्छे दोस्त भी शामिल थे। जब जिग्ना का कॉल आया तो उसने उसे भी सारी घटना के बारे में बताया। जिग्ना ने चिंतित होते हुए पलाश को अपना ख़याल रखने के साथ ही ऐसे मामलों से दूर रहने को कहा। पलाश ने जिग्ना को शांत करते हुए पूरा भरोसा दिलाया कि अब ऐसा कुछ नहीं होगा।

कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसे पल आते हैं जो बस छूकर इस तरह निकल जाते हैं कि पलभर में ही बहुत कुछ हो जाता है और फिर हम पल-पल करके पूरी ज़िंदगी गुज़ार देते हैं लेकिन फिर कभी वो पल पलटकर वापस नहीं आते हैं। पलाश के पास अभी भी उस बैचलर्स पार्टी की फ़ोटोज़ हैं, जिन्हें देखकर उन खट्टी-मीठी यादों के मिले-जुले भावों से वो आज भी शराबोर हो जाता है। कभी-कभी वो सोचता है कि काश वो उन गुज़रे पलों में वापस जा पाता और सब कुछ ठीक कर देता। लेकिन समय कभी नहीं रुकता और ना ही पलटकर वापस आता है। यही परम सत्य है। उन यादों के वो पल भी अब एक बैचलर जैसे ही हो गए हैं जो उस बैचलर पार्टी के फ़ोटोज़ में ही ठहर गए हैं और पीछे छोड़ गए हैं, अपने अच्छे और बुरे अनुभवों के पदचिह्न।

अगले ही दिन टूर अपने अगले पड़ाव गोवा के लिए बढ़ चल था। पलाश, UD और पार्थ बेचलर्स पार्टी की उस घटना से अभी तक स्तब्ध थे लेकिन फिर भी किसी प्रकार बीते पलों को भुलाकर, अपने आपको नई ऊर्जा के साथ गोवा घूमने के लिए तैयार कर रहे थे। गोवा, सिटि ऑफ़ बीचेज़ के नाम से प्रसिद्ध है और टूर के अगले दो दिन वहीं बीतने वाले थे।

जिग्ना, पलाश के साथ तो नहीं थी लेकिन वह हर पल उसे अपने साथ महसूस कर रहा था। एक अजनबी-सी ताक़त थी जो उसे हर समय जैसे जिग्ना की ओर खींचे जा रही थी। उन समुद्री तटों की गीली रेत पर बार-बार जिग्ना और अपना नाम लिखना, फिर बार-बार लहरों का उसे मिटा देना। सारी यादें पलाश की आँखों में आज भी जीवंत है, मानो जैसे कल ही की बात हो।