डी.सी.पी. की प्रेस कांफ्रैंस
डॉक्टर बरनवाल का केस सॉल्व होता देखकर पुलिस कितनी उतावली हो उठी थी उसका पता इसी बात से लग जाता था कि उसे कोर्ट में पेश करने से कहीं पहले सुबह नौ बजे वसंतकुंज थाने में एक प्रेस कांफ्रेंस बुला ली गयी, जिसमें तमाम मीडिया ग्रुप्स के प्रतिनिधियों ने हामी भरी।
कांफ्रेंस के दौरान डीसीपी ने अमरीज राय के कत्ल का खुलासा करते हुए बताया कि, “अमरजीत राय की हत्या के मामले में हमने अखिल नाम के एक एक्यूज को हिरासत में लिया है, जिसने अपना जुर्म कबूल कर लिया है। कत्ल उसने स्मैक खरीदने के लिए पैसा हासिल करने की खातिर किया था, ना कि उसकी मरने वाले के साथ कोई दुश्मनी थी।”
“रात के वक्त वॉक पर निकले शख्स के पास ज्यादा पैसे तो नहीं रहे होंगे सर?” एक पत्रकार ने पूछा।
“नहीं बस हजार रूपये थे, एक्यूज जो हमारे पीछे काला नकाब पहनकर खड़ा है, इसने पहले चाकू दिखाकर उससे पर्स छीनना चाहा, जिसके जवाब में अमरजीत ने विरोध किया तो इसने उसके पेट में छुरा घोंप दिया, और पर्स तथा मोबाईल लेकर घटनास्थल से फरार हो गया।”
“बरामद हो गयीं दोनों चीजें?”
“नहीं, क्योंकि उस वक्त ये नशे में था इसलिए कहां फेंक दिया इसे याद नहीं आ रहा, लेकिन जल्दी ही हम पता लगा लेंगे। साथ ही कुछ और हत्याओं की बात भी इसने कबूल की है, जिनके बारे में जांच पड़ताल चल रही है।”
“नकाब उतार क्यों नहीं इसका?”
“क्योंकि अभी हम एक्यूज की पहचान उजागर नहीं करना चाहते।”
“मैं खुद उतार देता हूं, अब छिपाने को क्या बचा है।” कहते हुए अखिल ने अपना नकाब दूर उछाल दिया। पुलिस हड़बड़ाई, किसी ने जल्दी से उसका नकाब दोबारा पहनाने की कोशिश की, मगर तब तक मीडियाकर्मी उसके थोबड़े की तस्वीरें अपने अपने कैमरे में उतार चुके थे। साथ ही उसकी आंखों के नीचे बने स्याह धब्बे और सूजे पड़े होंठ भी कैमरों में कैद होकर रह गये।
“ये कबूल करता है कि अमरजीत राय का कत्ल इसी ने किया था?”
“हां करता है।”
“क्यों मारा?”
“बताया तो स्मैक खरीदने के लिए पैसे चाहिए थे।”
“इसकी शक्ल देखकर तो नहीं लगता कि स्मैकिया है।”
“है, खुद कबूल किया है।”
“तुम क्या कहते हो?” कैदी से सवाल किया गया।
“हां मैंने ही मारा था, बहुत से लोगों का कत्ल कर चुका हूं मैं, फांसी पर लटका दो मुझे। या सड़क पर खड़े कर के गोली मार दो। क्योंकि मैं थाने में अब एक पल भी नहीं रहना चाहता।”
“यहां कोई परेशानी है तुम्हें?”
डीसीपी ने हड़बड़ाकर वहां खड़े सिपाहियों की तरफ देखा, जो अखिल के फिर से जुबान खोल पाने से पहले ही वहां से उसे जबरन भीतर लिवा ले गये।
“इसे टार्चर किया गया है सर?”
“नहीं।”
“चेहरे पर निशान हमने साफ देखे थे।”
“नशेड़ी है, कहीं गिरने के कारण चोट खा गया होगा।”
“फिर ये क्यों कहता है कि थाने में नहीं रहना चाहता?”
“क्योंकि कोई नहीं रहना चाहता, फिर कल रात से ही इसे नशा नहीं मिला है, ऐसे में अनर्गल बातें नहीं करेगा तो और क्या करेगा।”
“जबकि हमें तो एकदम ठीक ठाक दिखाई दिया था सर।”
“पहले मुझे अपनी बात पूरी कर लेने दीजिए, फिर आपके सवाल जरूरी नहीं रह जायेंगे।”
सन्नाटा छा गया।
“ये प्रेस कांफ्रेंस आप लोगों को अमरजीत के कत्ल की जानकारी देने के लिए नहीं बुलाई गयी है। बल्कि उसकी असल वजह कुछ और है, इसलिए आगे जो कहने जा रहा हूं उसपर ध्यान दीजिए। जिसके बाद आप लोग अमरजीत के कत्ल की बात पलक झपकते ही भूल जायेंगे।”
“फिर तो जरूर बताईये सर।” कई स्वर एक साथ गूंजे।
“साल भर पहले इसी इलाके में हुए डॉक्टर बरनवाल की हत्या का मामला अब सुलझा लिया गया है। वो मामला जो एक अनसुलझी पहेली बनकर रह गया था।”
तत्काल पत्रकारों के बीच खुसर फुसर होने लगी।
“एक्युज अखिल ने कबूल किया है कि डॉक्टर बरनवाल की हत्या भी उसी ने की थी। इसलिए की क्योंकि उसे नशे की लत है, जिसके लिए पैसों का इंतजाम नहीं कर पा रहा था। हत्या वाली रात डॉक्टर का क्लिनिक खुला दिखाई दिया तो भीतर दाखिल होकर उसने छुरे की नोक पर वहां मौजूद नकदी लूट ली और डॉक्टर का कत्ल कर के फरार हो गया। उसने दर्जनों और हत्यायें की होने की बात कबूल की है, मगर उनकी जांच होनी अभी बाकी है इसलिए उस बारे में अभी विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।”
“लेकिन इस बात की आप गारंटी कर रहे हैं कि अमरजीत राय और डॉक्टर बरनवाल का कातिल अखिल ही है?” किसी पत्रकार ने पूछा।
“ऑफ कोर्स है, तभी तो आपको उसकी जानकारी दी है।”
इसी तरह बहुतेरे सवाल जवाब चलते रहे और डीसीपी यथासंभव उनके कहे का जवाब देता रहा। ये अलग बात थी कि साल भर पहले हुई डॉक्टर बरनवाल के कत्ल की गुत्थी सुलझ जाने की खबर पत्रकारों को बुरी तरह हैरान किये दे रही थी।
उस प्रेस कांफ्रेंस में भारत न्यूज के किसी पत्रकार के न शामिल होने का तो कोई मतलब ही नहीं बनता था, लेकिन ‘पर्दाफाश’ की टीम में से कोई वहां नहीं पहुंचा था। वे चारों लोग तो अपने केबिन में बैठे कॉफी और सैंडविच का मजा लेता हुए टीवी पर वह न्यूज देख रहे थे।
“बकवास।” कॉन्फ्रेंस खत्म होते ही वंश वशिष्ठ बोल पड़ा।
“अच्छा - पुनीत ने पूछा - ऐसा क्या कह दिया डीसीपी ने।”
“ये कह दिया कि - जवाब अनिल आर्या ने दिया - साल भर पहले हुए डॉक्टर बरनवाल का कत्ल भी अखिल नाम के उस लड़के ने ही किया है।”
“कम से कम एक कत्ल की बात तो उसने सबके सामने कबूल की है।”
“यूं किया था जैसे करने के लिए मरा जा रहा हो।” मेघना बोली।
“मुझे तो कोई अटैंशन सीकर जान पड़ता है।”
“अटैंशन पाने के लिए भला कोई कत्ल का गुनाह अपने ऊपर क्यों लेगा?”
“लेना तो नहीं चाहिए, मगर जिस तरह से उसने नकाब हटाकर सबको अपना चेहरा दिखाया था, उससे तो यही लगता है कि टीवी पर आने के लिए मरा जा रहा था।”
“या फिर ये दिखाने के लिए हटाया होगा कि पुलिस ने उसे कितनी मार लगाई थी।” पुनीत बोला।
“ये भी तो हो सकता है कि उसने बस अमरजीत को मारा हो, जिसे साबित करने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त प्रमाण मौजूद हों। मतलब अखिल का जेल जाना तय है। फिर पुलिस ने उसके साथ मारपीट न करने का आश्वासन देकर इस बात के लिए तैयार कर लिया होगा कि डॉक्टर के कत्ल का जुर्म भी कबूल कर ले। क्योंकि प्रत्यक्षतः उसे एक नया अपराध कबूल करने से कोई नुकसान नहीं पहुंचने वाला।” अनिल आर्या बोला।
“बिल्कुल हो सकता है, पुलिस के लिए ऐसी पैंतरेबाजी दिखाना कोई बड़ी बात नहीं है। एक चोर पकड़ते हैं तो आगे पीछे हुई तमाम चोरियां उसके सिर पर डाल देते हैं, ताकि कम से कम मामलों को पेंडिंग दिखाना पड़े। लेकिन कत्ल की वारदात में मुझे नहीं लगता कि इतनी बड़ी हेर फेर मुमकिन है। और कत्ल भी कैसा जिसका साल भर से कोई सुराग तक हासिल नहीं कर पाई थी पुलिस।”
“हेर फेर इसलिए चल जायेगी क्योंकि हत्या का मोटिव बस लूट पाट बताया जा रहा है। मतलब उसने हत्या क्यों की? उसमें राज जैसा कुछ है ही नहीं। ऐसे केसेज को जस्टीफाई कर दिखाना बहुत आसान होता है।”
“जो भी हो इस स्टोरी में हमारे मतलब का तो कुछ नहीं दिखाई दे रहा।”
“नहीं दिख रहा, सच पूछो तो साल भर पहले हमने बहुत बड़ी गलती कर दी थी। बरनवाल के केस को भुलाकर किसी दूसरे केस पर काम करने की गलती, वरना तो मामले का ओर छोर खोज ही निकाला होता।” पुनीत बोला।
“नहीं वह इतना आसान काम नहीं था, अच्छा ही हुआ जो हम उस स्टोरी पर आगे नहीं बढ़े थे, वरना हमें अपना एक शो ही मिस करना पड़ा होता। पुलिस ने यूं ही थोड़े अनट्रेस्ड दाखिल कर दिया होगा। और जिस कातिल को वे लोग एक साल में नहीं खोज पाये, उसे हम कुछ दिनों में कैसे तलाश लेते? इसलिए उस स्टोरी का मातम मनाने का कोई फायदा नहीं होगा।”
“जो भी हो, अब तो खैर क्या हासिल होगा।”
“देखते हैं, बस इस मामले पर नजर बनाकर रखो, मुझे लगता है जल्दी ही कोई विस्फोट होकर रहेगा। ऐसा विस्फोट जो अखिल के खिलाफ पुलिस के केस की धज्जियां उड़ाकर रख देगा।”
“ऐसा लगने की कोई वजह?”
“नहीं है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि कुछ न कुछ जरूर होगा। कुछ ऐसा जो हमारे मतलब का भी हो सकता है। और कहीं डॉक्टर बरनवाल के कत्ल के बारे में नई जानकारी सामने आ गयी, तो हो सकता है जो काम हम साल भर पहले नहीं कर पाये, उसे अब कर के दिखाने में कामयाब हो जायें।”
“हम वक्त जाया करना अफोर्ड नहीं कर सकते।”
“मैं करने को कह भी नहीं रहा। स्टोरी की तलाश जारी रखो, मगर इसपर भी निगाह गड़ाये रखना जरूरी है, मैं भी यही करूंगा, बल्कि सबसे पहले ये पता करता हूं कि पुलिस अखिल को कोर्ट में कब पेश करने वाली है। अगर आज ही कर रही है, तो समझ लो मैं अदालत पहुंच भी गया, क्योंकि करने को फिलहाल मेरे पास कोई दूसरा काम नहीं है।”
“हमारे पास भी कौन सा काम है सर, कोई स्टोरी दिखे तब तो आगे बढ़ें।” मेघना बोली।
“दिखेगी, कोशिश जारी रखो।”
“खोजना कहां से शुरू करें?”
“फिलहाल तो ऑनलाईन ही सर्च मारो, देखो क्या पता कुछ हासिल हो जाये। कोई ऐसा केस जो अनसॉल्व हो लेकिन जिसमें हमारे मतलब के एलिमेंट्स दिखाई दे रहे हों।”
“ठीक है फिर लग जाते हैं अपने अपने लैपटॉप पर।”
तत्पश्चात सब बिजी हो गये, सिवाये वंश के जो ये पता लगाने में जुट गया कि पुलिस मुलजिम अखिल को कोर्ट कब ले जाने वाली थी।
‘भारत न्यूज’ कुछ सालों पहले लांच हुआ चौबीसों घंटे चलने वाला ऐसा चैनल था, जिनके पास देशव्यापी पत्रकारों की टीम के अलावा अलग से एक इंवेस्टिगेशन टीम भी थी। ऐसी टीम जो पुलिस के पीछे चलकर खबरें नहीं हासिल करती थी, वरन कुछ खास किस्म के उलझे हुए मामलों को खुद इंवेस्टिगेट कर के उनकी तह तक पहुंचती थी, फिर बमय सबूत, बड़े ही ड्रामैटिक तरीके से अमुक घटनाक्रम को ऑडियंस के सामने पेश किया जाता था। और पेश क्या किया जाता था बल्कि देश भर में जैसे खलबली मचाकर रख दी जाती थी।
टीम का इंचार्ज वंश वशिष्ठ नाम का एक सीनियर पत्रकार था, जिसने जर्नलिज्म की डिग्री के साथ-साथ एंकरिंग और इंवेस्टिगेशन में डिप्लोमा कर रखा था। उसकी उम्र यही कोई बत्तीस साल रही होगी। कद पांच फीट ग्यारह इंच, और पर्सनालिटी बेहद आकर्षक थी। चेहरा लंबा, आंखें बड़ी, नाक सुतवां और रंगत गोरी। कुल मिलाकर बड़ा ही हैंडसम दिखाई देता था।
टीम का दूसरा मेंबर अनिल आर्या था, जो कि पत्रकार होने के साथ-साथ फोरेंसिक साईंस में पोस्ट ग्रेजुएट था। तीसरा पुनीत कश्यप जो सर्विलांस मामलों का एक्सपर्ट था, आमतौर पर कैमरा हैंडल करता था। टीम की चौथी और सबसे छोटी मेंबर मेघना पुरोहित थी, उसकी राजनैतिक गलियारे से लेकर बड़े-बड़े उद्योग पतियों तक सीधी पहुंच थी, जानकारियां निकलवाने में जिसका कोई सानी नहीं था।
चार लोगों की ये टीम महीने में बस दो बार ऑडियंस से मुखातिब होती थी। और पब्लिक डिमांड पर तकरीबन हर बार कभी दोपहर में तो कभी शाम को उस एक्सक्लूसिव स्टोरी का रिपीट टेलिकॉस्ट होता था, लिहाजा उनका शो टीआरपी की रेस में सुपर डुपर हिट था। उनके खास शो का नाम था ‘पर्दाफाश’, जिसके लिए उनकी टीम पर इस विनिंग पोजिशन को बनाये रखने के लिए हमेशा भारी दबाव रहता था, क्योंकि हर पंद्रह दिन बाद कोई चौंकाने वाली खबर खोज निकालना, ऐसी खबर जिसका जवाब उनके अलावा और किसी के पास न हो, आसान काम नहीं कहा जा सकता था। बावजूद इसके अब तक ‘पर्दाफाश’ के कई शो पूरी कामयाबी के साथ होस्ट किये जा चुके थे।
यही वजह थी कि वे लोग हर तरफ निगाहें गड़ाये हुए थे। पुरानी खबरों पर दिमाग दौड़ाया जा रहा था, गूगल पर अनसुलझे मामलों की जानकारी हासिल की जा रही थी। दिल्ली पुलिस की वेबसाईट पर मौजूद क्रिमिनल्स पर रिसर्च किया जा रहा था।
मतलब कुल मिलाकर अगले शो के लिए मसाले की तलाश में जुटी हुई थी वह टीम। और इंतजार था कि किसी खास वारदात के घटित होने का या किसी पुरानी और उलझी हुई स्टोरी का, जिसपर वे लोग अपनी इंवेस्टिगेशन शुरू कर पाते।
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