मंगलवार : तेईस मई : मुम्बई दिल्ली विंस्टन प्वायंट पूना
अगले रोज के अखबारों में डी.सी.पी. डिडोलकर के कत्ल की खबर मोटी सुर्खियों में थी ।
उसके साथ सब-इन्स्पेक्टर अठवले और दिल्ली के व्यापारी पवित्तर सिंह के कत्ल की भी खबर थी लेकिन तकरीबन अखबारों ने मोटी सुर्खी डिडोलकर के कत्ल को ही बनाया था ।
पुलिस के एक प्रवक्ता ने बताया था कि कन्ट्रोल रूम में आयी एक गुमनाम टेलीफोन कॉल के जवाब में डी.सी.पी. डिडोलकर और सब-इन्स्पेक्टर अठवले होटल नटराज पहुंचे थे जिसके कमरा नम्बर पांच सौ पांच में एक कत्ल हुआ बताया गया था जो कि सोहल ने किया हो सकता था । मौकायवारदात की तफ्तीश से पता चला था कि उस कमरे में ठहरे दिल्ली के व्यापारी पवित्तर सिंह के साथ कोई मेहमान था जिसके साथ कि उसने ड्रिंक्स शेयर की थीं और उसी मेहमान को गुमनाम फोन कॉल करने वाले ने सम्भवत: सोहल बताया था जो कि मशहूर इश्तिहारी मुजरिम था । पुलिस ने वहां से फिंगरप्रिंट्स उठाये थे लेकिन उनमें से कोई भी पुलिस के रिकार्ड में मौजूद सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिलता नहीं पाया गया था । मेहमान के विस्की के गिलास पर से उठाये गये फिंगरप्रिंट्स या बिना नम्बर की रिवॉल्वर - जिसके कि पवित्तर सिंह का कत्ल हुआ था - पर से उठाये गये प्रिंट्स सोहल के नहीं थे जिससे सिद्ध होता था कि फोनकर्ता की शिनाख्त गलत थी, मकतूल पवित्तर सिंह का मेहमान सोहल नहीं था ।
सब-इन्स्पेक्टर अठवले की सर्विस रिवॉल्वर मौकायवारदात पर एक साइड टेबल पर टेलीफोन के पहलू में पड़ी पायी गयी थी और वो खाली थी । पुलिस के प्रवक्ता के अनुसार ये दोनों ही बातें हैरान करने वाली थीं कि रिवॉल्वर में से गोलियां गायब थीं और वो सब-इन्स्पेक्टर अठवले के अधिकार में होने की जगह एक साइड टेबल पर पड़ी थी ।
डी.सी.पी. और सब-इन्स्पेक्टर को जिस रिवॉल्वर से शूट किया गया था, वो मौकायवारदात से बरामद हुई दो रिवॉल्वरों में से नहीं थी । इससे स्थापित होता था कि पवित्तर सिंह का कातिल कोई और था डी.सी.पी. और सब-इन्स्पेक्टर का कातिल कोई और था जो कि मर्डर वैपन अपने साथ ले गया था ।
व्यापारी पवित्तर सिंह का कत्ल कोई जाती रंजिश या किसी व्यापारिक अदावत का नतीजा हो सकता था लेकिन इनवैस्टिगेशन के लिये मौकायवारदात पर पहुंचे पुलिस अधिकारियों का कत्ल क्यों हुआ, इस विषय में पुलिस कोई काबिलेएतबार बात न कह सकी । वो ये नहीं कह सकते थे कि पुलिस वालों ने ऊपर से पहुंच कर कातिल को रंगे हाथों पकड़ लिया था क्योंकि उस सूरत में पुलिस वालों का कत्ल भी उसी रिवॉल्वर से हुआ होता जिससे कि पवित्तर सिंह का हुआ था और जो मौकायवारदात पर पड़ी पायी गयी थी ।
पुलिस के प्रवक्ता के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं था कि एक आम कत्ल की तफ्तीश के लिये स्थानीय थाने से पुलिस न पहुंची - जैसा कि दस्तूर है - पुलिस हैडर्क्वाटर से एक डी.सी.पी. पहुंचा ।
एक अखबार ने उस कत्ल का रिश्ता शुक्रवार को ग्रांट रोड पर स्थित होटल स्वागत में हुए दिल्ली के एक अन्य व्यापारी - ‘दिल्ली’ और ‘व्यापारी’ शब्दों पर अखबार का विशेष जोर था - माताप्रसाद ब्रजवासी से भी जोड़ने की कोशिश की और सवाल किया कि क्यों मुम्बई का माहौल दिल्ली के व्यापारियों पर ही भारी गुजर रहा था ? दोनों वारदातों में ये समानता भी दर्शाई गयी कि दोनों ही कत्ल मकतूलों के अपने अपने होटल में चैक-इन करने के चन्द घन्टों में ही हो गये थे ।
दिल्ली में भोगीलाल ने वो खबर पढी तो उसके मुंह से झामनानी के लिये वाह वाह निकल गयी जिसने दिल्ली से फरार हो गये गद्दार सरदार का परदेस में भी पता लगवा लिया था और तुरन्त उसकी लाश गिराने का करिश्मा कर दिखाया था ।
मुबारक अली ने भांजों से वो खबर सुनी तो उसने खयाल तक न किया कि वो कारनामा सोहल के अलावा किसी का हो सकता था ।
“बाकी बचे दो ।” - वो बड़े संतोषपूर्ण भाव से बोला ।
झामनानी तक शायद वो खबर पहुंचती ही नहीं जो कि उसे मोबाइल पर बजाज से सुनने को मिली ।
“आज का अखबार देखा, बॉस ?” - बजाज ने पूछा ।
“वडी किधर से देखा नी ?” - झामनानी बोला - “इधर जंगल में अखबार किधर से आयेगा नी ? वडी क्यों पूछ रहा है नी ?”
“बॉस, पवित्तर सिंह खत्म ।”
“ये तो गुड न्यूज है नी । ठण्ड पड़ गयी मेरे दिल को सुन के । अब बोल, कब मरा, किधर मरा ?”
“मुम्बई के होटल नटराज में मरा ।”
“झूलेलाल ! मुम्बई पहुंच भी गया था कर्मांमारा ! अब बोल कैसे मरा ?”
बजाज ने अखबार की बाकी खबर भी उसे सुनाई ।
“वडी, अखबार में सोहल का हवाला गलत है नी ।” - सुन कर झामनानी बोला - “सोहल क्यों मारेगा उसे ? वो तो उसकी शरण में गया था । वो क्यों मारता उसे ? मारता तो पहुंचते ही क्यों मारता ? वो जरूर ‘भाई’ का कारनामा है जो उसने मेरी दरख्वास्त पर अरेंज कराया ।”
“बॉस, कैसे भी छूटा, एक फसादी शख्स से पीछा तो छूटा ।”
“वडी ठीक बोला नी । गोलीवजना, जो मां भैन की मेरी करके गया, जो मेरे ऑफिस का हाल करके गया... ऑफिस पर याद आया, पुटड़े, सब सम्भाल लिया न ? सब चौकस कर लिया न ?”
“यस बॉस । गति की वैन को तो परसों रात न्यू फ्रेंड्स कालोनी से रवाना होने से पहले ही ठिकाने लगा दिया था । अब तक तो वो पुखराज की लाश समेत बुद्धा गार्डन के करीब के पास से बरामद भी हो चुकी है, बाकी जो शीशे वगैरह टूटे थे, वो मैंने कल ठीक करा लिये थे ।”
“वडी जीता रह नी ।”
“और मुबारक अली की निगरानी का तो अब कोई मतलब रहा नहीं, अगर आप कहें तो वो काम बन्द करा दूं ?”
“हां । बुला ले अपने आदमी वापिस । सरदार साईं की वजह से उसकी निगरानी थी, जब वो ही नहीं रहा तो निगरानी का क्या मतलब !”
“वही तो ।”
“और क्या खबर है नी ?”
“बॉस, आपकी बाबत पुलिस अभी भी सवाल करती है । एक बार तो खुद डी.सी.पी. मनोहरलाल भी आया । मुझे अन्देशा है कि पुलिस कहीं मुझे ही गिरफ्तार न कर ले ।”
“वडी तेरे को किस लिये नी ?”
“आपका खास, आपका करीबी होने की वजह से । थर्ड डिग्री के तरीकों से मेरे से आपका पता निकलवाने के लिये ?”
“वडी तेरे को किधर मालूम है नी मेरा पता ?”
“बॉस, ये बात मैं जानता हूं, आप जानते हैं लेकिन पुलिस तो नहीं जानती न ?”
“वडी ये तो ठीक बोला नी तू । पर तू फिकर न कर, मैं एक बिचौलिये की तलाश में हूं जो मेरी डी.सी.पी. से बात करा दे और ये पता कर दे कि वो कितने में बिकेगा ! फिर सब ठीक हो जायेगा झूलेलाल की मेहर से ।”
“लेकिन...”
“हौसला रख पुटड़े, मैं जल्दी ही कुछ करूंगा ।”
“...अगर पहले ही....”
“अब पहले ही का क्या जवाब दूं मैं ! पहले तो बिजली गिर सकती है तेरे पर, तू ब्लू लाइन से कुचला जा सकता है, तेरे को धड़का लग सकता है...”
“बॉस, शुभ शुभ बोलो सवेरे सवेरे ।”
“तो फिकर छोड़ नी और मेरे पर एतबार रख । ये डी.सी.पी. का पुटड़ा न पटा तो मैं खुद उसे भेज दूंगा ।”
“कहां ?”
“वडी पवित्तर सिंह के पास और कहां ?”
***
विमल ने घूर कर इरफान की तरफ देखा ।
इरफान जानबूझ कर परे देखने लगा ।
“बैठ ।” - विमल बोला ।
इरफान उसके सामने बैठ गया ।
“चाय पियेगा ?”
“पी चुका ।”
“मैं उम्मीद कर रहा था कि तू रात को ही मेरे से मिलेगा ।”
“देर से लौटा था ।”
“क्या हुआ उधर डिमेलो रोड पर ?”
“मिल गया था अपना भीड़ू । थाम लिया । नीचे बन्द करके रखा है । अभी चुप है, कुछ नहीं बोलता । पण बोलेंगा ।”
“हूं, मुझे लगता है तू कतरा रहा था मेरे से ।”
“खामखाह !”
“तो फिर अपनी कल की हरकत की जवाबदारी कर ।”
“क्या जवाबदारी करूं ?”
“क्यों पुलिसियों को शूट किया ?”
“क्योंकि वोहीच मुनासिब था ।”
“क्या मुनासिब था उसमें ? मेरा बाहर निकलना कोई प्राब्लम था ? सब मेरे काबू में था । वो डी.सी.पी. पूरी तरह से मेरे कब्जे में था जो मैं जहां चाहता मुझे छोड़ के आता ।”
“उसके बाद तू क्या करता, बाप ?”
“उसे छोड़ देता और क्या करता !”
“गोया गवाह छोड़ देता ! पीछे सब-इन्स्पेक्टर को भी !”
“गवाह ! किस बात का गवाह ?”
“तेरे उस थोबड़े का गवाह जिसके साथ तू उधर पहुंचा । जिसके साथ तू उस सिख का कातिल करार दिया जाता । वो डी.सी.पी. उस सूरत को भूल जाता जिसने उसके मातहत के सामने उसकी जिल्लत का सामान किया होता ? वो कभी उस सूरत वाले शख्स को काबू करता तो क्या उसे गवाह की जरूरत होती उसका गुनाह साबित करने के लिये ? फिर वो उस सूरत वाला शख्स अन्दर होता तो सोहल बाहर होता ? राजा साहब बाहर होता ?”
विमल अवाक उसका मुंह देखने लगा ।
“बाप, वोहीच सूरत है जो तेरी असली है, जिस पर कोई मुखौटा नहीं - है तो उतारा नहीं जा सकता - तू एक नये जुर्म के तहत - भले ही वो तूने नहीं किया था - उस सूरत को भी पुलिस की जानकारी में लाना मांगता है ?”
“मेरा नया चेहरा कोई राज नहीं है ।”
“है । है राज । तेरे नये चेहरे की जानकारी इकबाल सिंह ने सिर्फ अन्डरवर्ल्ड में करायी थी, ताकि कोई मुखबिर तुझे पकड़वा पाता; उसकी पुलिस को, आम पब्लिक को कोई जानकारी नहीं । पुलिस को बड़ी हद ये मालूम है कि एक इश्तिहारी मुजरिम ने प्लास्टिक सर्जरी से अपनी सूरत तब्दील करवा ली थी लेकिन ये नहीं मालूम कि वो सूरत कैसी थी ? कल वो पुलिसिये जिन्दा रहते तो ये भी मालूम हो जाता ।”
“खामखाह ! डी.सी.पी. को ये कैसे पता लगता कि वो सूरत सोहल की थी ?”
“बाप, तू ऐसा इसलिये बोलता है क्योंकि तेरे को नहीं मालूम कि वो डी.सी.पी. कौन था ! वो डी.सी.पी. एक करप्ट पुलिसिया था जो ‘कम्पनी’ के निजाम के दौर में मुकम्मल तौर से ‘कम्पनी’ के हाथों बिका हुआ था । वो डी.सी.पी. था, जब तू इब्राहीम कालिया और इकबाल सिंह की खुफिया मीटिंग का गवाह बन कर ग्रांट रोड से भाग था तो जिसे इकबाल सिंह ने तेरे पीछे लगाया था और जिसे इकबाल सिंह ने तेरे हर इन और आउट की खबर की होगी । वो वो डी.सी.पी. था जो अब तू सिवरी के परिजात स्टूडियो में चूहे का माफिक फंसा हुआ था तो स्टूडियो को घेरे ‘कम्पनी’ के प्यादों से तुझे बचाने की जबह तेरी लाश गिराने के मिशन में उनकी मदद कर रहा था । वो वो डी.सी.पी. था जिसकी वर्दी पहन कर तू चूहेदान जैसे परिजात स्टूडियो से निकलने में कामयाब हुआ था ।”
“कैसे मालूम ?” - विमल भौचक्का सा बोला ।
“तुका को मालूम । वागले को मालूम । क्योंकि वो उस वाकये के बाद तेरे साथ पहले दिल्ली, फिर चण्डीगढ, फिर जम्मू, फिर वैष्णोदेवी गये थे ।”
“ओह !”
“तुका, वागले और मेरे में सब सांझा था ।”
“हूं ।”
“उस डी.सी.पी. की ताजातरीन करतूत ये थी कि उसने राजा साहब को एक्सपोज करने के लिये इन्स्पेक्टर दामोदर राव को भेजा था । और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ऐसा उसने किसी की शह पर किया था ।”
“किसकी ?”
“मालूम है तेरे को ।”
“‘भाई’ की ? या दिल्ली वालों की ?”
“या दोनों की ।”
“हूं ।”
“जब से तू मलाड वाले आश्रम में हो के आया है, तभी से बहकी बहकी बातें कर रहा है । लैक्चर देता है, नसीहत करता है, ऐसी बातें करता है जिनको अमल में नहीं लाया जा सकता । भूल जाता है कि जो रास्ता अख्तियार किया है, उस पर मरना न हो तो मरना पड़ता है । रोज अपने ही लहू से नहाना पड़ता है । पंगा लेने की मंशा न भी हो तो पंगा लेना पड़ता है ।”
विमल अवाक् सा उसका मुंह इेखता रहा ।
“बाप तू जज्बाती हो रहा है इसलिये तू सोचता है कि मैंने नाहक दो आदमी मार गिराये । पण मैं अपना फर्ज निभाया । मैं वो किया जो मेरी जगह वागले होता तो करता । तुका होता तो करता । बाप, मैं तेरी सलामती की खातिर सौ खून कर सकता है, हजार खून कर सकता है । आज तुका, वागले नहीं है, पण उनकी जगह मैं है । मैं अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकता । मैंने तुका को मुंह दिखाना है । मैंने अल्लाह को मुंह दिखाना है ।” - वो एक क्षण ठिठका फिर बदले स्वर में बोला - “मैंने जवाबदारी कर दी । अब जो तेरे जी में आये, तू कर । मेरा जान, ईमान सब तेरे हवाले है ।”
“ठीक बोला तू । मैं वोहीच करूंगा जो मेरे जी में आयेगा ।”
“क्या ?”
“मैं अपने भाई को सॉरी बोलूंगा । मैं सॉरी बोलता है, इरफान अली ।”
इरफान के चेहरे पर क्षीण सी मुस्कराहट आयी ।
विमल उससे गले लग के मिला ।
“लेकिन” - फिर विमल बोला - “अफरातफरी के उस माहौल में इतनी दूर की तुझे सूझी कैसे ?”
“तेरे दीमाक से सोचेला था, बाप ।” - इरफान हंसता हुआ बोला ।
“बढिया ।”
***
इनायत दफेदार सुबह सवेरे विंस्टन प्वायंट पहुंचा ।
भुनभुनाता हुआ ‘भाई’ उससे मिला ।
“बहुत कुछ हो गया पिछली रात ।” - दफेदार चिन्तित भाव से बोला - “तुम्हेरे से मशवरा जरूरी था । इसी वास्ते फोन न लगाया, खुद हाजिर हुआ ।”
“हूं ।”
“आज का अखबार देखा, बाप ?”
“हां ।”
“पवित्तर सिंह के कत्ल की खबर पढी ?”
“पढी । डी.सी.पी. डिडोलकर और उसके सब-इन्स्पेक्टर अठवले की भी पढी । पवित्तर सिंह का कत्ल तो समझ में आया, पुलिस वाले कैसे मारे गये ?”
“सोहल ही ने मारा होगा ।”
“सोहल ?”
“जो पवित्तर सिंह से मिलने पहुंचा था ।”
“कैसे मालूम ?”
दफेदार ने बेचैनी से पहलू बदला और फिर बोला - “नहीं मालूम । अन्दाजा लगाया ।”
“खुलासा कर ।”
“वो क्या है कि कल रात चिरकुट और रघु नाम का उसका एक आदमी उधर होटल की निगाहबीनी कर रहे थे जिसमें जाकर पवित्तर सिंह ठहरा था । परदेसी उधर बाद में पहुंचा था । चिरकुट बोलता है कि उनके सामने अपने सैक्रेट्री के साथ राजा साहब वहां पहुंचा था । दोनों सीधे लॉबी में ही मौजूद रेस्टोरेंट में गये थे और भीतर जाकर बैठ गये थे ।”
“रेस्टोरेंट में ?”
“हां, बाप ।”
“पवित्तर सिंह ऐसा बोला होगा या राजा साहब पवित्तर सिंह को बोला होगा कि वो उसको उधर मिले !”
“हो सकता है ।”
“बहरहाल हमारे अन्दाजे के मुताबिक राजा साब उधर आया तो सही । राजा साहब उधर पहुंचा तो सही ।”
“क्या करने पहुंचा, बाप ? रेस्टोरेंट में बैठ कर विस्की पीने ?”
“क्या मतलब ?”
“वो तो उधर रेस्टोरेंट में एक बार जाकर बैठा तो वहां से हिला ही नहीं । न ही कोई उसके पास फटका । क्या पवित्तर सिंह, क्या काला चोर, कोई भी नहीं ।”
“कमाल है !”
“अलबत्ता उसका सैक्रेट्री जरूर उधर से उठकर कहीं गया और फिर थोड़ी देर बाद वो फिर राजा साहब के साथ बैठा दिखाई दिया ।”
“वो पवित्तर सिंह के पास पहुंचा होगा ?”
“नहीं पहुंचा था । परदेसी कहता है कि उसने जिस शख्स को पवित्तर सिंह के कमरे में उसके सामने बैठा देखा था वो तो कोई क्लीनशेव्ड आदमी था जो कि चश्मा भी नहीं लगाता था ।”
“वो कौन था ?”
“मालूम नहीं ।”
“जरूर वो ही सोहल होगा ।”
“बाप, चिरकुट सोहल को पहचानता है । वो उसके नये पुराने दोनों चेहरों से वाकिफ है । वो गारन्टी करता है कि सोहल ने होटल में कदम नहीं रखा था ।”
“गाफिल हो गया होगा । जरूर वो ही शख्स सोहल था जो पवित्तर सिंह के साथ मौजूद था ।”
“बाप, अगर वो सोहल था तो फिर राजा साहब तो सोहल नहीं हो सकता । क्योंकि वो तो नीचे रेस्टोरेंट में बैठा अपनी टेबल से हिला ही नहीं था ।”
“क्या गोरखधन्धा है ?”
“गोरखधन्धा ही है, बाप । तभी तो फोन पर बात न की । खुद पहुंचा ।”
“ये राजा साहब अक्खी मुम्बई के सैकड़ों रेस्टोरेंट छोड़ कर खास उसी रेस्टोरेंट में क्यों आया जिसके होटल में पवित्तर सिंह आकर ठहरा था ?”
“इत्तफाक से आया ।”
“ऐसा इत्तफाक भी क्यों हुआ ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ?”
“इन बातों का मलतब तो ये हुआ कि हमें तसलीम कर लेना चाहिये कि राजा साहब राजा साहब ही है, वो सोहल नहीं है और इस बाबत इन्स्पेक्टर दामोदर राव ने डी.सी.पी. डिडोलकर को जो रिपोर्ट दी थी, वो दुरुस्त थी । राजा साहब में कोई भेद नहीं था, वो सोहल नहीं हो सकता था ।”
“ऐसा ही जान पड़ता है ।”
‘भाई’ ने घूर कर दफेदार की तरफ देखा ।
“लगता है, कोई और भी बात है ।” - वो बोला ।
“बाप, परसों सुबह जब मैं डिडोलकर के घर पर उससे फिर मिला था तो उसने मुझे बताया था कि इन्स्पेक्टर दामोदर राव की रिपोर्ट के बावजूद राजा साहब की पड़ताल अभी फाइनल नहीं थी । उसके पासपोर्ट, क्रेडिट कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस की बाबत इंक्वायरी जारी की गयी थी जिसका जवाब अभी आना बाकी था । बाप, दोपहरबाद मैंने उसके ऑफिस में उसे फोन किया था तो पता चला था कि उस बाबत फैक्स कमिश्नर के ऑफिस में पहुंच गये थे और उनका लुब्बोलुआब ये था कि राजा साहब का पासपोर्ट असली था, क्रेडिट कार्ड सही था और इन्टरनेशनल ड्राइविंग लाइसेंस खरा था ।”
“कमाल है ! यकीन नहीं आता ।”
दफेदार खामोश रहा ।
“इसका मतलब तो ये हुआ कि जो राजा साहब दिल्ली पहुंचा था, वो ये नहीं था । सोहल ने इस राजा साहब का बहुरूप धारण करके अपने आपको दिल्ली वालों के सामने पेश कर दिया था !”
“हो सकता है ।”
“लेकिन दिल्ली वालों ने सोहल को जो फैक्स लगाया था, वो होटल सी-व्यू में लगाया था । फिर वो फैक्स सोहल के हाथ कैसे लग गया ?” - ‘भाई’ कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “इसका एक ही मतलब हो सकता है ।”
“क्या, बाप ?”
“ये कि राजा साहब दो हैं । एक सच में राजा साहब है, यानी कि असली है । और दूसरा फर्जी राजा साहब है जो कि सोहल है ।”
“बाप, तुम्हेरा मतलब है कि सोहल जब सहूलियत समझता है, राजा साहब की शक्ल अख्तियार कर लेता है जिसके नीचे कि उसकी खुद की शकल छुप जाती है ?”
“हां । और असली राजा साहब यकीनन उसकी इस हरकत में शरीक है । तभी शुक्रवार की शाम सवा चार बजे राजा साहब की ही वक्त में दो मुख्तलिफ जगहों पर पाया गया । एक - जो जरूर सोहल था - मनोरी बीच पर कत्लेआम मचा रहा था और दूसरा - जो कि असली था - होटल में बैठा इन्स्पेक्टर दामोदर राव को इन्टरव्यू दे रहा था ।”
“बाप, बहुत डर के बोलता है, अगर ऐसा है तो हमारा राजा साहब की सुपारी लगाना तो गलत हुआ न ?”
“गलत ही सही लेकिन जो होता है होने दे । यूं घिचपिच तो खत्म होगी । क्या पता बारबोसा नकली को - सोहल को - मार डाले ! खबर क्या है उसकी ?”
“चैम्बूर वाला वार खाली जाने के बाद से तो कोई खबर नहीं पण कुछ तो कर ही रहा होगा ।”
“हूं । अब तू आगे बढ और बोल, उधर होटल में आगे क्या हुआ ?”
“बाप, उधर परदेसी ने बहुत होशियारी दिखाया, बहुत चौकस काम किया । उसने पवित्तर सिंह की आर्डर की विस्की में बेहोशी की दवा मिलवा दी नतीजतन विस्की पीकर पवित्तर सिंह और उसका मेहमान दोनों बेहोश हो गये । फिर उसने मेहमान के पास से उसकी रिवॉल्वर बरामद की और उससे पवित्तर सिंह को शूट कर दिया ।”
“मेहमान को भी ?”
“मेहमान को न कर सका । तभी कोई उधर पहुंच गया जिकसी वजह से उसे गन फेंक कर भाग खड़ा होना पड़ा ।”
“अहमक ! एक गोली और चलाने में क्या टेम लगता था ?”
“बाप, उसे पक्की भी तो नहीं था कि मेहमान सोहल था, ऊपर से उसकी अपनी जान पर आ बनी थी इसलिये फौरन भाग खड़े होने में ही उसकी भलाई थी पण उसने फिर भी एक उम्दा काम किया ।”
“क्या ?”
“कन्ट्रोलरूम में फोन लगा कर कत्ल की खबर कर दी, बोल दिया कि कालित अभी भी वहीं था जो कि सोहल हो सकता था ।”
“नतीजा क्या निकला ?”
“सोहल के नाम पर डी.सी.पी. डिडोलकर खुद उधर पहुंचा लेकिन आगे वहां पता नहीं क्या हुआ कि डिडोलकर और उसका मातहत सब-इन्स्पेक्टर दोनों वहां मरे पड़े पाये गये ।”
“लिहाजा उस आदमी ने गिरफ्तारी से बचने के लिये पुलिस वालों को शूट कर दिया ?”
“ऐसीच जान पड़ता है ।”
“ये कारनामा सोहल के सिवाय किसी का नहीं हो सकता । वो ही था पवित्तर सिंह के साथ ।”
“कैसे था ? होटल में दाखिल होता तो देखा नहीं गया था ।”
“एक बार ये मान के चल कि वो सोहल था, फिर निकलता तो देखा गया होगा ?”
“बाप” - दफेदार की आवाज फिर दब गयी - “निकलता देखने के लिये उधर कोई नहीं था ।”
“क्या मतलब ?”
“वो क्या है कि चिरकुट और रघु तो पवित्तर सिंह की वजह से वहां मौजूद थे । उन्हें जब परदेसी ने बताया कि पवित्तर सिंह खलास था तो एक तरह से उनका काम तो खत्म हो गया ।”
“और परदेसी ?”
“उसका भी काम खत्म था क्योंकि पवित्तर सिंह के कमरे में उसकी लाश के पास जिस शख्स को वो बेहोश पड़ा छोड़ के आया था, उसके कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार हो जाने की गारन्टी थी । वो गिरफ्तार हो भी गया पण... अब पता नहीं उधर क्या हुआ कि अपना डी.सी.पी. ही हलाक हो गया । उसका सब-इन्स्पेक्टर भी मारा गया ।”
“यानी कि हमारी इतनी जहमत के बाद भी कुछ पल्ले पड़ा तो दिल्ली वालों के पल्ले पड़ा, हमारे पल्ले तो कुछ न पड़ा ।”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ।”
“डिडोलकर की मौत का मेरे को बहुत अफसोस है, क्योंकि मेरे को उससे बहुत उम्मीदें थीं, सच पूछे तो बारबोसा से भी ज्यादा, जिसकी कि हम मोटी फीस भर रहे हैं ।”
“बाप, जब सारा महकमा ही करप्ट है तो डिडोलकर जैसा कोई और मिल जायेगा ।”
“जो मिल जायेगा, वो मिलता मिलता मिलेगा, डिडोलकर मिला हुआ था । जो मिलेगा, वो नयी कमाई जैसा होगा, डिडोलकर गिरह का माल था ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“हैदर की क्या खबर है ?”
“दुश्मनों के काबू में है । उसकी सप्लाई की जानकारी पर जो अमल होगा, वो तो अभी सामने आयेगा ।”
“उस बाबत हमारी तैयारी तो चौकस है ?”
“हां, बाप ।”
“नीचे मेन रोड के दहाने पर मेरे को कोई ऐसा आदमी बिठाना मांगता है जो सोहल के नये पुराने हर चेहरे को पहचानता हो ताकि कभी सोहल इधर का रुख करे तो उसे आने दिया जाये, आम दस्तूर के मुताबिक रोक न लिया जाये ।”
“वो ऐसे आ सकता है ?” - दफेदार नेत्र फैला कर बोला ।
“दुश्मन की सोच का क्या पता लगता है ! खासकर ऐसे दुश्मन की सोच का जो कई किले फतह कर चुका हो ।”
“वो इधर का रुख करे तो क्यों न उसे नीचे नाके पर ही मार गिराया जाये ?”
“कोई वान्दा नहीं । अगर गारन्टी हो वो सोहल है तो कोई वान्दा नहीं, कोई शक हो तो आने दिया जाये, फिर मै खुद शक दूर कर लूंगा ।”
“बढिया । बाप, ऐसा आदमी तो चिरकुट ही है ।”
“उसको इधर भेज ।”
“मुम्बई जाते ही भेजता है, बाप ।”
“और भी कुछ परखे और जाने पहचाने भीड़ू मेरे को इधर मांगता है ।”
“गुस्ताखी माफ, बाप, वजह ?”
“साउथ एशिया के ड्रग लॉर्ड्स की जो मीटिंग दिल्ली में होने वाली थी लेकिन दिल्ली वालों की नालायकी और कमजोरी की वजह से और सोहल के पंगे की वजह से जो नहीं हो सकी थी, वो हमारा बिग बॉस रीकियो फिगुएरा अब इधर करना चाहता है ।”
“इधर !”
“ये सेफ जगह है, नामालूम जगह है । हम वो मीटिंग ठीक से आर्गेनाइज कर सके तो बिग बॉस की निगाहों में हमारा रुतबा बढेगा वरना मीटिंग का क्या है, वो जहांगीर खान कराची में करा सकता है, बुद्धिरत्न भट्टराई काठमाण्डू में करा सकता है, खलील-उल-रहमान ढाका में करा सकता है, आन सू विन रंगून में करा सकता है, नेविल कनकरत्ने कोलम्बो में करा सकता है, मुहम्मद कामिल दिलजादा काबुल में करा सकता है । और रीकियो फिगुएरा तो सारे एशिया और योरोप में कहीं भी करा सकता है ।”
“तारीख मुकर्रर हो गयी ?”
“अभी नहीं । अभी तो फिगुएरा ने फोन करके इस बाबत सिर्फ इशारा किया है पण कुछ तैयारियां फिर भी एडवांस में करना जरूरी है - करना नहीं तो उनकी लिस्ट बना कर रखना जरूरी है - भले ही मीटिंग कैंसल हो जाये ।”
“बाप, अपने परदेसी फिट इस काम के वास्ते । वो ही भरोसे के आदमी भी जमा कर लेगा । मैं वापिस मुम्बई पहुंचते ही उसको पकड़ता हूं ।”
“बढिया ।”
“अब मैं जाता है, बाप ।”
“ठीक है ।”
***
दोपहर तक विंस्टन प्वायंट और पूना भेजी गयी दोनों टीमें वापिस लौटीं ।
पहले विमल ने परचुरे और मतकारी की सुनी जो कि विंस्टन प्वायंट गये थे ।
“उस बंगले के वजूद तक की” - परचुरे बोला - “उधर के तकरीबन लोगों को खबर नहीं है । वो ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी इलाका है जो पूरी तरह से पेड़ों से ढका हुआ है । उसके सबसे ऊंचे हिस्से का नाम अंग्रेजों के राज के वक्त से विंस्टन प्वायंट पड़ा हुआ है । पलवल नेराल वाली सड़क से गुजरते वक्त तो वो दिखाई तक नहीं देता ।”
“तो फिर कैसे देखा ?” - विमल ने पूछा ।
“एक पगडण्डी पर चले, जंगल में घुसे, आगे कदरन ऊंचाई पर कहीं निकले तो दिखाई दिया ।”
“लेकिन” - शोहाब बोला - “हैदर तो कहता था कि ऐसे बंगले का रुख नहीं किया जा सकता था ?”
“जो पगडण्डी हमने चुनी थी, उसकी हालत बताती थी कि वो इस्तेमाल में नहीं आती थी ।”
“और” - मतकरी बोला - “आगे वो बंगले तक नहीं पहुंचती थी ।”
“तो कहां तक पहुंचती थी ?” - विमल ने पूछा ।
“पहाड़ी के एक पहलू तक जो एक सपाट दीवार की तरह सीधा आसमान की तरह सिर उठाये खड़ा था, ऐन उसके सिर पर बंगले का एक पहलू था ।”
“यूं था” - परचुरे बोला - “कि वो पथरीली सपाट दीवार और बंगले की उधर की दीवार दोनों एक ही जान पड़ती थीं ।”
“उसमें बंगले की कोई बाल्कनी ? कोई खिड़की दरवाजा ? कोई रोशनदान ?”
“सिर्फ एक खिड़की हमें दिखाई दी थी जो कि मजबूती से बन्द थी ।”
“बस, एक खिड़की ?”
“हां । इसके अलावा कोई झरोखा तक नहीं ।”
“फिर तो वो बंगले की पीठ होगी ?”
“ऐसीच जान पड़ता था ।”
“और ?”
“बंगले तक पहुंचने के लिये पेड़ों से ढकी दो पहाड़ी सड़कें हैं । दोनों में पांच सौ गज का फासला है । सड़कें इतनी संकरीं हैं कि एक ही वक्त में एक ही वाहन उस पर से गुजर सकता है । शायद इसी वजह से एक ऊपर जाने के लिये और दूसरी लौटने के लिये इस्तेमाल होती है । दोनों के निचले दहानों पर बैरियर लगे हुए हैं और आगे बोर्ड लगा हुआ जिस पर लिखा है : आम रास्ता नहीं है । बिना इजाजत यहां से आगे बढना मना है । कुत्तों से सावधान ।”
“कुत्ते भी हैं ?”
“हमारे खयाल से तो नहीं हैं ।” - मतकरी बोला ।
“लोगों को डराने के लिये ऐसे ही लिखवा दिया होगा !”
“होंगे भी तो” - शोहाब बोला - “ऊपर बंगले पर होंगे ।”
“मैं भी यहीच बोला परचुरे को ।” - मतकरी बोला - “दोनों सड़कों के नाकों पर गार्ड थे । अगर कुत्ते होते तो उन्हीं के पास तो होते !”
“ठीक ।” - विमल बोला - “नीचे से ऐसा कोई हिन्ट मिलता था कि बंगला आबाद था ?”
“नहीं ।” - परचुरे बोला - “कैसे मिलता ? मेन रोड पर से तो बंगला दिखाइच नहीं देता ! बोला न, बाप ।”
“लेकिन वो न इस्तेमाल में आने वाली पगडण्डी से दिखता था !”
“खाली एक खिड़की दिखती थी । पहले से खबर न होती कि ऊपर एक बंगला था तो कभी न सूझता कि बंगले की थी ।”
“वो खिड़की तो ऐसी जान पड़ती थी, बाप” - मतकरी बोला - “जैसे पहले कभी किसी खास जरूरत के लिये जबरन निकाली गयी हो और वो जरूरत पूरी हो जाने के बाद फिर कभी न खोली गयी हो ।”
“कोई ग्रिल या सींखचे या ऐसा कोई और अड़ंगा है खिड़की पर ?”
“नक्को । खाली दो पल्ले हैं ।”
“मजबूती से बन्द ।” - परचुरे बोला ।
“हमें तो” - मतकरी बोला - “यहीच लगा था कि वो कभी खुलती नहीं थी ।”
“किसी स्टोर या गोदाम की होगी ।”
“या” - शोहाब बोला - “किसी ऐसे कमरे की जो कि इस्तेमाल में न आता हो ।”
“कैसे पता चले ?”
“कोई भेदिया ही बता सकता है ।”
“हैदर ?”
“क्यों नहीं ? जब वो बंगले के बारे में इतना ढेर सारा जानता है तो उस खिड़की के बारे में भी कुछ न कुछ तो जानता ही होगा !”
“अब एक दूसरा जमूरा भी तो है हमारे कब्जे में ।”
“जेकब परदेसी !”
“हां ।”
“मैं दोनों से पूछूंगा ।”
“मैं एक निगाह खुद भी उस पगडण्डी पर और खिड़की पर डालना चाहूंगा ।”
“करेंगे इन्तजाम ।”
“और कोई बात ?” - विमल ने परचुरे से पूछा ।
परचुरे और मतकरी दोनों ने इनकार में सिर हिलाया ।
“दूसरी टीम को बुला ।”
शोहाब ने उन दोनों को रुख्सत किया और पिचड़ और बुझेकर को तलब किया जो कि पूना होकर आये थे ।
“क्या जाना ?” - विमल बोला ।
“मेपल हाईट्स बहुत बड़ा हाउसिंग कम्पलैक्स है ।” - पिचड़ बोला - “सारे ग्राउन्ड फ्लोर पर कवर्ड पार्किंग है, टेनिस कोर्ट है, स्विमिंग पूल है, कम्पलैक्स का अपना स्टैण्डबाई पावर हाउस है । नौवां माला टॉप है उस कम्पलैक्स का । जिस ब्लॉक में नौ सौ तीन नम्बर फ्लैट है उसके हर माले पर छ: फ्लैट हैं तकरीबन सब आजाद हैं पण नौवें माले पर खाली 903 और 906 आबाद हैं, बाकी में ताले पड़े हैं ।”
“वजह ?”
“दो आजकल बन्द हैं, दो पर शुरू से ताला है ।”
“शुरू से ?”
“वो नवां बना हाउसिंग कम्पलैक्स है । एक साल पहले से ही उधर रहन सहन शुरू हुआ है । इसलिये खाली फ्लैटों पर मालिकान का कब्जा ही है, रहन सहन नहीं है ।”
“नौ सौ छ: में कौन है ?”
“एक पारसी जोड़ा है साठ से ऊपर का । मिस्टर एण्ड मिसेज सायरस बन्दूकवाला ।”
“खैर । आगे ?”
“इस बात की तसदीक हुई है कि 903 में यासमीन करके बाई रहती है और वो पहले फैशन माडल थी । बच्चा भी बराबर है । लड़की । दो साल की ।”
“कैसे जाना ?”
“फ्लैट में घुसा न, बाप !”
“कैसे ?”
“गैस कनैक्शन का इन्स्पेक्टर बन के ।”
“आई सी ।”
“बोला, कम्पनी से आया । बर्नर चैक करने का था, ट्यूब चैक करने का था, रेगुलेटर चेक करने का था । गैस लीक की बहुत शिकायत । इस वास्ते चैकिंग जरूरी ।”
“वैरी गुड ।”
“पण बाई बहुत होशियार ! बहुत खबरदार ! दरवाजे में सेफ्टी चेन लगा कर बात किया । पहले मेरा आईडेन्टिटी कार्ड देखा, फिर फ्लैट में घुसने दिया ।”
“तेरे पास था आईडेन्टिटी कार्ड ?”
“इस्पेशल बनवाया । बाई अकेली रहती थी इसलिये मेरे को पहले से पक्की था वो कार्ड जरूर देखेगी ।”
“और क्या देखा ?”
“और बस यहीच देखा कि वो तीन बैडरूम का बहुत सजा धजा और खूब बड़ा फ्लैट था ।”
“कोई नौकर चाकर ?”
“वाचमैन से दरफ्यात किया । पक्का कोई नहीं । अक्खे दिन बच्ची के लिये एक आया और आधे दिन झाड़ा पोछा करने के लिये एक बाई । बस ।”
“‘भाई’ की उधर आमद की कोई तसदीक हुई ?”
“पिछले पांच रोज से रात के नौ बजे के बाद एक सिल्वर मर्सिडीज उधर रोज पहुंचती है ।”
“कौन बोला ?”
“उधर की रात पाली का एक गार्ड ।”
“एक ! कई हैं ?”
“रात को कम से कम दो । दिन में कई ।”
“आगे ।”
“मर्सिडीज में हमेशा चार जने होते हैं । तीन आगे एक पीछे मर्सिडीज भीतर कम्पाउन्ड में पहुंचती है तो दो बाहर निकलते हैं और लिफ्ट में सवार होकर ऊपर जाते हैं ।”
“आल क्लियर की तसदीक करने !” - शोहाब को देखता विमल बोला ।
“और बाई को खबर करने कि ‘भाई’ आया था !” - शोहाब बोला ।
“दुरुस्त ।”
“वो दो भीड़ू वापिस लौटते हैं” - पिचड़ बोला - “तो पीछे गाड़ी में बैठे दो जने बाहर निकलते हैं और लिफ्ट में सवार हो जाते हैं । फिर एक भीड़ू अकेला वापिस लौट आता है । फिर तीनों भीड़ू मर्सिडीज में सवार होते हैं और वहां से चले जाते हैं ।”
“कहां ? कहां चले जाते हैं ?”
“करीब ही एक होटल है, उसके एक कमरे में ।”
“पीछे कोई नहीं ठहरता ?”
“हमने तो ठहरता नहीं देखा ।”
“यानी कि ये तमाम ड्रिल तुमने अपनी आंखों से देखी ।”
“देखी न पिछली रात ।”
“ओह !”
“अक्खी रात खोटी की ।”
“और” - बुझेकर बोला - “सुबह ठीक पांच बजे मर्सिडीज को मेपल हाइट्स लौटते देखा ।”
“फिर ?”
“फिर एक भीड़ू मर्सिडीज में ड्राइविंग सीट पर ।” - पिचड़ बोला - “दो ऊपर । तीसरा उनके साथ वापिस । आकर मर्सिडीज में सवार और मर्सिडीज ये जा वो जा ।”
“जो रात उधर रहा, वो ‘भाई’ होगा ?”
“कैसे बालेंगा, बाप ! उसकी सूरत तो हम देख ही न पाये । न पिछली रात जाती बार न आज सुबह आती बार ।”
“खाली ड्रैस देखी ।” - बुझेकर बोला - “काला सूट, रात को भी काला चश्मा और सिर पर माथे पर झुका हैट ।”
“वो भीड़ू” - पिचड़ बोला - “इस स्टाइल से मर्सिडीज को लाकर खड़ी करते थे कि उसकी पिछली सीट लिफ्ट के दरवाजे से मुश्किल से दस फुट दूर होती थी । पलक झपकते तो वो गाड़ी में से निकलता था और लिफ्ट में घुस जाता था । सूरत दिखाई देना तो नामुमकिन ।”
“इस बात की क्या गारन्टी है कि मर्सिडीज वाला यासमीन के फ्लैट में जाता था ?”
“सिवाय इसके कोई नहीं कि उसको लेकर लिफ्ट सीधी नौवें माले पर जाकर रुकी थी । मैं पहले ही बोला कि नौवें माले पर खाली दो फ्लैट आबाद । एक नौ सौ तीन नम्बर, बाई का । और दूसरा नौ सौ छ: नम्बर कर, बन्दूकवाला का । बाप, कोई भीड़ू रोज रात को बूढे बन्दूकवाला और उसकी बूढी बीवी के पास क्या करने जायेंगा !”
“ठीक ।”
“रात को” - शोहाब ने पूछा - “कम्पलैक्स के भीतर दाखिले का क्या दस्तूर है ?”
“गेट पर एन्ट्री करनी पड़ती है ।” - पिचड़ बोला - “नाम, पता, किससे मिलना है, उसका फ्लैट नम्बर, आने का टेम, कार हो तो उसका नम्बर ।”
“कल मर्सिडीज वालों को करते देखा ?”
“हां । एक आदमी उतर कर करता है ।”
“लेकिन” - विमल बोला - “मेजबान से तसदीक नहीं की जाती आने वाले के बारे में ?”
“कोई तरीका नहीं है ऐसी तसदीक का ।”
“तू उसको स्विमिंग पुल, टेनिस कोर्ट और कवर्ड पार्किंग वाला हाउसिंग कम्पलैक्स बताता है । बढिया हाउसिंग कम्पलैक्सिज में तो इन्टरकॉम का इन्तजाम होता है । गार्ड फोन करके पहले सम्बन्धित फ्लैट में खबर करता है मेहमान की आमद की ।”
“वहां ऐसा कोई इन्तजाम नहीं है ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“बाहर जा के बैठो ।”
दोनों वहां से रुख्सत हो गये ।
पीछे विमल और शोहाब गम्भीर मन्त्रणा करने लगे ।
***
रात के ग्यारह बजे एक मिनी बस और एक एस्टीम कार आगे पीछे चलती पूना, कर्वे रोड पहुंची ।
कार पिचड़ चला रहा था और उसकी पिछली सीट पर विमल और शोहाब मौजूद थे ।
मिनी बस में इरफान, बुझेकर, परचुरे और मतकरी सवार थे ।
मेपल हाइट्स से थोड़ा परे दोनों वाहन रुके । कुछ क्षण बाद मिनी बस वहीं रुकी रही और कार आगे बढी । कार हाउसिंग कम्पलैक्स के करीब रुकने की जगह आगे उस होटल के सामने जाकर रुकी जिसका पिचड़ ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया था ।
सिल्वर मर्सिडीज होटल के कम्पाउन्ड में खड़ी थी ।
“बढिया ।” - शोहाब बोला ।
“क्या बढिया ?” - विमल बोला - “‘भाई’ पहुंचा हुआ है ?”
“मर्सिडीज की मौजूदगी तो यही जाहिर करती है, बाकी सामने आ जायेगा ।”
“बॉडीगार्ड्स मालिक से इतनी दूर क्यों ?”
“तुम इस बात को खातिर में नहीं ला रहे हो कि वो किस काम के लिये यहां आता है ! बॉडीगार्ड्स को वो अपने सिरहाने मौजूद नहीं रख सकता ।”
“फ्लैट में कहीं और ?”
“उसने नहीं जंचता होगा । या बाई को एतराज होता होगा । शिट और सैक्स प्राइवेसी में ही होने चाहियें ।”
“बढिया बात कही ।”
“वैसे भी मोबाइल का जमाना है, वो जरूरत पड़ने पर पलक झपकते अपने बॉडीगार्ड्स को तलब कर सकता है ।”
“ये ज्यादा दमदार दलील है । वापिस चल, पिचड़ ।”
पिचड़ ने सहमति में सिर हिलाया ।
कार ने यू टर्न लिया और फिर वापिस लौट चली ।
तब तक मिनी बस मेन रोड छोड़ कर मेपल हाइट्स की चारदीवारी के बायें पहलू के साथ साथ बनी एक पतली गली में पहुंच चुकी थी ।
पिचड़ ने कार मिनी बस के पीछे ले जाकर खड़ी की ।
विमल ने कार से निकल कर माहौल का मुआयना किया, बस की छत पर चढ कर भीतर कम्पाउन्ड में झांका ।
आखिरकार वो नीचे उतरा ।
सब मिनी बस में सवार हो गये ।
“जहां बस इस वक्त खड़ी है” - विमल दबे स्वर में बोला - “दीवार से पार लिफ्टें ऐन इसके सामने हैं । हमारी चाल चल गयी तो ‘भाई’ फौरन मर्सिडीज तलब करेगा, कोई बॉडीगार्ड उसे लिवाने ऊपर जायेगा या वो खुद नीचे आ जायेगा । दोनों ही सूरतों में जब लिफ्ट का दरवाजा खुलेगा तो ‘भाई’ - भले ही फासले पर सही - हमारे सामने होगा ।”
“मर्सिडीज की ओट में ।” - शोहाब ने चेताया ।
“वो ओट रोड लैवल से ही ओट होगी, मिनी बस की छत से नहीं । बस की छत पर से मर्सिडीज से पार लिफ्ट से निकलते ‘भाई’ को बड़े आराम से देखा जा सकेगा ।”
“मर्सिडीज” - पिचड़ ने चेताया - “ऐन लिफ्ट के सामने जाकर खड़ी होती है ।”
“अन्दर तो नहीं घुस जाती । लिफ्ट से निकल कर मर्सिडीज तक पहुंचने के लिये चन्द कदम तो उसे उठाने ही पड़ेंगे ।”
“सैकंडों का काम होगा ।” - शोहाब बोला ।
“मुझे भी अपने काम के लिये सैकंडों में ही वक्त दरकार है । टेलीस्कोपिक साइट वाली रायफल से मैं पहले ही उस लिफ्ट के दरवाजे का निशाना साध कर रखूंगा जिसका इन्डीकेटर उसके नीचे आ रही होने की चुगली कर रहा होगा । वो बाहर निकला, मैंने गोली चलायी और फिर इससे पहले कि उसके गार्ड कुछ समझ सकें, हम ये जा वो जा ।”
“बाहर निकलेगा वो ?” - इरफान सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“अभी पता चल जायेगा । चल, भई ।”
पिचड़ तत्काल एस्टीम में सवार हुआ ।
शोहाब पिछली सीट पर बैठा ।
बाकी सब को पीछे मिनी बस में बैठा छोड़ कर एस्टीम वहां से रवाना हुई ।
पिचड़ ने कार को मेपल हाइट्स के लोहे के फाटक के सामने ले जाकर खड़ा किया और हार्न बजाया ।
तत्काल एक गार्ड वाच केबिन में से बाहर निकला ।
शोहाब ने पीछे की खिड़की गिराई और तनिक उच्च स्व्र में बोला - “नौ सौ छ: में जाने का है , मिस्टर सायरस बन्दूकवाला के यहां ।”
गार्ड ने सहमति में सिर हिलाया, शोहाब का उसने ऐसा रौब खाया कि खानापूरी के लिये उसे केबिन में बुलाने की जगह वो खुद रजिस्टर लेकर कार के करीब पहुंचा ।
शोहाब ने रजिस्टर भर के उसे लौटाया ।
गार्ड ने फाटक खोला ।
एस्टीम भीतर दाखिल हो गयी ।
पिचड़ ने उसे लिफ्टों के सामने खड़ा करने की जगह पार्किंग में एक ऐसे स्थान पर ले जाकर रोका जहां एस्टीम वहां खड़ी बेशुमार कारों में एक कार बन गयी ।
पिचड़ फुर्ती से बाहर निकला, डिकी खोल कर उसमें मौजूद बक्से में से उसने ऐन मेपल हाइट्स के गार्ड्स जैसी वर्दी निकाली और उसे अपनी पोशाक की जगह पहन लिया । फिर उसने शोहाब को इशारा किया ।
शोहाब कार से निकला । खामोशी से चलते दोनों लिफ्टों तक पहुंचे और उस घड़ी ग्राउन्ड फ्लोर पर ही खड़ी एक लिफ्ट में सवार हो गये ।
लिफ्ट नौवीं मंजिल पर पहुंची ।
वहां मुकम्मल सन्नाटा था और छ: फ्लैटों के बन्द मुख्यद्वारों को केवल एक ट्यूब लाइट रौशन कर रही थी ।
शोहाब चुपचाप ऊपर खुली छत को जाती सीढियों पर सरक गया और उसके मोड़ पर छुप के खड़ा हो गया ।
पिचड़ नौ सौ छ: नम्बर फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचा । उसने कालबैल का बटन एक बार दबा कर छोड़ दिया ।
‘सन्देशा’ सीधे यासमीन को देने की जगह बन्दूकवाला को दिया जाता, ये पिचड़ ने ही सुझाया था । बन्दूकवाला बूढा आदमी था, बाईफोकल्स लगाता था और रात को बाईफोकल्स से भी साफ नहीं देख पाता था । लिहाजा वो गार्ड की वर्दी ही पहचानता, सूरत नहीं जबकि यासमीन सबसे पहले उसकी सूरत ही पहचानती और झट जान जाती कि वो सोसायटी के जाने पहचाने गार्डों में से किसी की सूरत नहीं थी ।
“हू इज देयर ?” - भीतर से आवाज आयी ।
“सिक्योरिटी गार्ड, बन्दूकवाला साहब ।” - पिचड़ बोला ।
“क्या मांगता है ?”
“बाहर आकर सुनिये । जरूरी बात है ।”
“अच्छा ।”
दरवाजे में मैजिक आई लगी हुई थी जिसके जरिये पहले तसल्ली की गयी कि आगन्तुक सिक्योरिटी गार्ड ही था, फिर सेफ्टी चेन से अटका दरवाजा सिर्फ इतना खुला कि पिचड़ को बन्दूकवाला की सूरत दिखाई दे पाती ।
उल्लुओं की तरह पलकें झपकाते बन्दूकवाला ने पिचड़ की तरफ देखा ।
उसके मुंह खोल पाने से पहले ही पिचड़ जल्दी जल्दी बोलने लगा - “साहब, इलाके में खबर पहुंची है कि एक खतरनाक टैरेरिस्ट जेल से भाग निकला है । कहते हैं इस कोशिश में उसने जेल में ही चार पुलिस वाले मार गिराये थे, वो अभी भी हथियारबन्द है और भाग कर इधर ही कहीं आया है । पुलिस सब को खबरदार कर रही है कि घर की खिड़कियां दरवाजे मजबूती से बन्द रखें और किसी अजनबी को दरवाजा न खोलें । वो कहीं दिखाई दे जाये तो उसे पकड़ने की कोशिश न करें, क्योंकि उसके सिर पर खून सवार है बल्कि उसकी सूचना टेलीफोन पर पुलिस को दें । पुलिस इलाके की गश्त कर रही है, आपकी दी सूचना फौरन आगे गश्ती पुलिस तक पहुंचने का पक्का इन्तजाम है । और पुलिस घर घर की तलाशी ले रही है । उन्हें शक है कि इधर उसे किसी ने पनाह दी हो सकती है या उसने पनाह जबरदस्ती हासिल की हो सकती है । मैंने और मालों पर भी ये खबर पहुंचानी है इसलिये नौ सौ तीन में यही बात जरा आप बोल दीजिये । मैं चला । आप होशियार रहियेगा । नमस्ते ।”
सब कुछ पिचड़ ने एक ही सांस में कह डाला था ताकि बन्दूकवाला को सवाल करने का मौका न मिलता । फिर वो घूमा और सीढियों के रास्ते निचले माले की ओर दौड़ चला ।
बन्दूकवाला ने सेफ्टीचेन हटाई और हिचकिचाते हुए बाहर निकला । फिर वो मजबूती से कदम रखता ‘903’ के दरवाजे पर पहुंचा ।
‘903’ तक अपनी निगाह की पहुंच बनाने के लिये शोहाब तीन चार सीढियां नीचे उतर आया ।
बन्दूकवाला ने ‘903’ की कालबैल बजायी ।
दरवाजा तनिक खुला ।
“हमेरा बाईफोकल्स पीछू रह गया ।” - उसे बन्दूकवाला का मद्धम स्वर सुनायी दिया - “तुम यासमीन ही है न ?”
जवाब शोहाब को न सुनायी दिया ।
फिर वृद्ध जल्दी जल्दी वो सब दोहराने लगा, जो उसने पिचड़ से सुना था ।
आखिरकार वो वापिस लौटा ।
पीछे दरवाजा बन्द हो गया ।
बन्दूकवाला ने भी अपने फ्लैट में पहुंच कर दरवाजा बन्द कर लिया तो शोहाब दबे पांव सीढियां उतरा और जाकर लिफ्ट में सवार हो गया ।
वो नीचे पार्किंग में एस्टीम के करीब पहुंचा तो उसने पाया कि पिचड़ पहले ही गार्ड की वर्दी उतारकर अपनी पहले वाली पोशाक पहन चुका था ।
दोनों पूर्ववत् कार में सवार हुए । कार फाटक पर पहुंची ।
गार्ड ने दरवाजा खोला ।
कार बाहर निकल गयी । पीछे दरवाजा पूर्ववत् बन्द हो गया ।
कार वापिस मिनी बस के करीब जा खड़ी हुई ।
शोहाब ने देखा विमल पहले ही टेलीस्कोपिक लैंस वाली रायफल के साथ मिनी बस की छत पर लेटा हुआ था । उसने कार से निकलते शोहाब की तरफ देखा तो शोहाब ने अंगूठा उठा कर इशारा किया कि सब कुछ योजनानुसार चौकस हो गया था ।
इन्तजार शुरू हुआ ।
मर्सिडीज मेपल हाइट्स के कम्पाउन्ड में न पहुंची ।
‘भाई’ ग्राउन्ड फ्लोर पर लिफ्ट से निकलता न दिखाई दिया ।
विमल ने दस मिनट और इन्तजार किया और फिर छत से नीचे उतर आया ।
वो बस में पहुंचा ।
“क्या माजरा है ?” - इरफान बोला - “नहीं होगा फ्लैट में ?”
“ये तो नहीं हो सकता ।” - पिचड़ बोला - “जब होटल पर मर्सिडीज खड़ी है तो...”
वो बौखला कर चुप हो गया, उसे अहसास हुआ कि उसे यूं बीच में नहीं बोलना चाहिये था ।
“वो तुम्हारे से ज्यादा वान्टेड मुजरिम है ।” - शोहाब बोला - “घर घर गली गली उसकी सूरत पहचानी जाती है । ये सुन कर कि पुलिस घर घर तलाशी ले रही थी, कैसे वो ऊपर अपनी माशूक के फ्लैट में बैठा रहना अफोर्ड कर सकता है ?”
“तभी तो बोला” - इरफान बोला - “वो ऊपर हैईच नहीं ।”
“या कुछ ज्यादा ही दिलेर है ।” - विमल बोला ।
“या ज्यादा ही मूर्ख ।” - शोहाब बोला ।
“अब क्या करें ?”
“दूसरी स्कीम पर अमल करें और क्या करें ?”
“हां ।” - विमल बोला - “अच्छा हुआ हम आल्टरनेट स्कीम के लिये तैयार होकर आये ।”
तत्काल बस में से निकाल कर कुछ हथियार कार की डिकी में बन्द किये गये और फिर विमल इरफान, शोहाब और पिचड़ कार में सवार हुए ।
पिचड़ ने कार वापिस मेपल हाइट्स के फाटक पर पहुंचायी और उसका हॉर्न बजाया ।
गार्ड बाहर निकला, उसने कार को पहचाना, कार के ड्राइवर को पहचाना और फाटक खोल दिया ।
प्रत्यक्षत: ये बात उसे काबिलेएतराज नहीं लगी थी कि इस बार कार में दो की जगह चार जने सवार थे ।
कार पार्किंग में पहुंची, जहां सब ने पुलिस की वर्दियां पहन लीं ।
शोहाब ने इन्स्पेक्टर की, विमल ने सब-इन्स्पेक्टर की, इरफान ने हवलदार की और पिचड़ ने सिपाही की । इन्स्पेक्टर और सब-इन्स्पेक्टर की वर्दियों में रिवॉल्वर पहले से शामिल थीं । इरफान ने एक स्टेनगन सम्भाली और पिचड़ ने रायफल ।
लिफ्ट में सवार होकर वो नौवीं मंजिल पर पहुंचे ।
तब तक आधी रात हो चुकी थी ।
नौवीं मंजिल पर पूर्ववत् सन्नाटा था ।
वे ‘903’ के बन्द दरवाजे पर पहुंचे ।
इरफान ने कालबैल बजायी ।
शोहाब इरफान को एक ओर करके खुद मैजिक आई के सामने खड़ा हो गया ताकि भीतर से आगन्तुक को पुलिस इन्स्पेक्टर के तौर पर पहचाना जा सकता ।
दरवाजा खुला ।
बिना भीतर से आधी रात को पहुंचे आगन्तुक की बाबत दरयाफ्त किये ।
और बिना सेफ्टी चेन के ।
दरवाजे पर गुलाबी नाइटी पहने एक नौजवान युवती प्रकट हुई जिसकी सूरत से कतई नहीं लगता था कि वो सोते से जागी थी, या बिस्तर के भी हवाले थी ।
“क्या है ?” - वो सुसंयत स्वर में बोली ।
“जेल से एक खतरनाक टैरेरिस्ट भाग निकला है” - शोहाब बोला - “आप तक खबर पहुंची होगी ?”
“पहुंची थी ।” - युवती निर्विकार भाव से बोली ।
“इधर सब ठीक ठाक है ?”
“इधर क्या होगा ?”
“वो बहुत खतरनाक आदमी है ।”
“वो तो होगा ही । तभी तो इतने जने हो । और हथियारबन्द हो ।”
“वो इधर तो नहीं आया ?”
“इधर किधर से आयेगा ? इधर की एक ही तो ऐन्ट्रेंस है, जिसका दरवाजा मैंने तुम्हारे सामने खोला ।”
“वो बाल्कनी से आ सकता है, किसी खुली खिड़की से आ सकता है, यहां तक कि रोशनदान से आ सकता है ।”
“आप भूल रहे हैं कि आप नौवें माले पर खड़े हैं ।”
“फिर भी ।”
“जरूर उड़ना जानता होगा ।”
“फिर भी ।” - शोहाब जिदभरे स्वर में बोला ।
“तो अब क्या चाहते हैं आप ?”
“आप सो रही थीं ?” - विमल ने पूछा ।
“हां ।”
“कालबैल बजने पर जागीं ?”
“हां ।”
तभी पिचड़ विमल की आस्तीन खींचने लगा ।
विमल ने सकपका कर उसकी तरुफ देखा ।
पिचड़ ने उसे दरवाजे पर से दो कदम परे खींच और फिर उसके कान में फुसफुसाया - “ये वो बाई नहीं है ।”
“क्या ?”
“धीरे । धीरे । ये वो बाई नहीं है जो कल जब मैं गैस वाला बन कर आया था तो मुझे फ्लैट में मिली थी ।”
“पक्की बात ?”
“हां । उसका कद काठ, रंगरूप उससे मिलता है लेकिन ये वो बाई नहीं ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, उसने इरफान को इशारा किया और फिर उसका खुद का हाथ भी रिवॉल्वर की मूठ पर सरक गया ।
“फ्लैट में और कौन है ?” - शोहाब पूछ रहा था ।
“कोई नहीं ।”
“आप यहां अकेली रहती हैं ?”
“हां ।”
“नाम क्या है आपका ?”
वो एक क्षण हिचकिचाई और फिर बोली - “यासमीन ।”
“फ्लैट की मालकिन हैं या मेहमान हैं ?” - विमल ने पूछा ।
“मालकिन हूं ।”
“मैडम, मौजूदा हालात में आपको पुलिस प्रोटेक्शन की सख्त जरूरत है ।”
“मैं ऐसा नहीं समझती ।”
“हम समझते हैं । आप यहां अकेली रहती हैं इसलिये हमारा फर्ज है कि हम आपको प्रोटेक्ट करने में कोई कसर न छोड़ें ।”
“क्या करेंगे ? मेरे सिर पर चढ कर बैठेंगे ?”
“कुछ तो करेंगे ।”
“कुछ करना है तो जा के अपने फरार मुजरिम को पकड़िये ।”
“वही कर रहे हैं ।”
“वो इधर छुपा हो सकता है ।” - शोहाब बोला - “आप इतने बड़े फ्लैट में अकेली हैं, ये जगह उसके छुपने के लिये बिलकुल मुनासिब है ।”
“वो यहां नहीं है ।”
“आपको क्या पता ? देखना होगा । बाजू हटिये ।”
युवती को एक ओर धकेलते चारों भीतर दाखिल हुए ।
पिचड़ ने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया और उसके साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया ।
विमल की सतर्क निगाह पैन होती है फ्लैट में घूमी ।
उस घड़ी जहां वो खड़े थे वो ‘एल’ शेप का एक विशाल ड्राईंग-कम-डायनिंग हॉल था । ड्राईंगरूम वाले हिस्से के सामने किचन थी, दायें बाल्कनी थी जिस पर पर्दा खिंचा हुआ था । डायनिंग एरिया में किचन के दरवाजे के बाजू में एक विशाल स्लाइडिंग डोर था, उस पर भी पर्दा खिंचा हुआ था और, विमल का अन्दाजा था कि, वो भी एक दूसरी बाल्कनी में खुलता था । सावधानी से वो जरा आगे सरका तो डायनिंग एरिया से आगे उसे तीन बन्द दरवाजे दिखाई दिये । जरूर वो तीनों बैडरूम थे । अन्दाजन उसने महसूस किया कि बीच वाला दरवाजा मास्टर बैडरूम का था ।
वो वापिस प्रवेश द्वार के करीब सरक आया ।
वो अपलक युवती को देखने लगा ।
युवती नर्वस भाव से पहलू बदलने लगी ।
“आपका बच्चा कहां है ?” - एकाएक वो बोला ।
“बच्चा !” - वो हकबकाई ।
“बच्ची ! बेटी ! दो साल की !”
“आपको कैसे मालूम कि....”
“कहां है ? जवाब दीजिये ।”
“बैडरूम में सो रही है ।”
“कौन से बैडरूम में ?”
“मास्टर बैडरूम में ।”
“वो कौन सा हुआ ?”
“बीच वाला ।”
“मास्टर भी उधर ही है ?” - उसने पूछा ।
“क्या ?”
“मास्टर बैडरूम में...”
“मैंने अभी बोला न, मैं यहां अकेली हूं ।”
“बच्ची साथ है तो अकेली तो न हुईं !”
“मैं बच्ची भूल गयी थी ।”
“जिगर के टुकड़े को कोई ऐसे भूलता है ?”
“मुझे नहीं पता आप क्या कह रहे हैं !”
“तो बच्ची मास्टर बैडरूम में सो रही है ?”
“हां । जाकर देखिये ।”
विमल आगे बढा, वो युवती के करीब से गुजरा, ठिठका, वापिस घूमा और फिर एकाएक उसने उसकी पसलियों में रिवॉल्वर की नाल सटा दी ।
“आवाज न निकले ।” - विमल उसके कान में सांप की तरह फुंफकारा ।
युवती के होश उड़ गये, वो जोर से सिर से पांव तक कांपी ।
“सबसे पहले” - विमल दांत भींचता कहरभरे स्वर में बोला - “वे कुबूल कर कि तू यासमीन नहीं है वरना भरी जवानी में मरेगी ।”
उसकी घिग्घी बन्ध गयी ।
“नहीं ।” - बड़ी मुश्किल से वो बोल पायी ।
“क्या नहीं ?”
“मैं यासमीन नहीं हूं ।”
“वो कहां है ?”
“मुझे नहीं मालूम । यहां नहीं है ।”
“बच्चा ?”
“उसी के पास है ।”
“मास्टर बैडरूम में नहीं है ?”
“नहीं ।”
“‘भाई’ भी नहीं है ?”
‘भाई’ के नाम पर फिर उसकी बोलती बन्द हो गयी ।
विमल ने जोर से उसकी पसलियों में रिवॉल्वर की नाल गड़ाई ।
“नहीं है ।” - वो इतना हौले से फुसफुसाई कि विमल बड़ी मुश्किल से सुन पाया ।
“अब नहीं है या आया ही नहीं ?”
“आया ही नहीं ।”
“मास्टर बैडरूम में कितने आदमी हैं ?”
“तीन ।”
“वो ही जिनकी मर्सिडीज कार करीबी होटल के कम्पाउन्ड में खड़ी है ?”
“हां ।”
“वो क्यों है भीतर ?”
“तुम्हारे इन्तजार में हैं ।”
“क्या !”
“सोहल के ।”
“पहचानती है सोहल को ?”
वो खामोश रही ।
“तभी इतनी बेबाकी से दरवाजा खोला ! सेफ्टी चेन लगाना भी जरूरी न समझा ! क्योंकि खास सोहल का ही इन्तजार था ! इसीलिये फरार टैरेरिस्ट का भी रौब न खाया ।”
उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“अब बोला, क्या बोला, ‘भाई’ ?”
“‘भ... भाई’ नहीं बोला ।” - बड़ी कठिनाई से उसके मुंह से निकला ।
“तो और कौन बोला ?”
“दफेदार ।”
“दफेदार आया था इधर सब इन्तजाम करने ?”
“हां ।”
“वो क्या बोला ? ये कि सोहल इधर ‘भाई’ को मारने आयेगा और मर के जायेगा ?”
“हं... हां ।”
“ये प्रोग्राम कब तक चलता ?”
“तब तक जब तक सोहल आ न जाता ।”
“सोहल तो आ गया इधर । अब आगे क्या होगा ? वो तीनों बाहर कब निकलेंगे ?”
“वो क्यों निकलेंगे ?”
“क्या मतलब ?”
“‘भाई’ की फिराक में तुम मास्टर बैडरूम में जाओगे, वो तुम्हें मार गिरायेंगे ।”
“अगर उन्हें तुम्हारी जान पर बनी दिखाई दे तो क्या वो तुम्हें बचाने के लिये बाहर निकलेंगे ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“मेरी जान से उन्हें कोई सरोकार नहीं । इसीलिये तो यासमीन की जगह मैं यहां हूं ताकि उसकी जान को खतरा न हो पाता ।”
“ओहो ! इतनी लाडली है वो ‘भाई’ की ?”
वो खामोश रही ।
विमल ने शोहाब की तरफ देखा ।
शोहाब करीब आया ।
“क्या करें ?” - विमल दबे स्वर में बोला - “लौट चलें ?”
शोहाब ने इनकार में सिर हिलाया और बोला - “जब इतनी मेहनत की है तो तसदीक होनी चाहिये कि ये झूठ नहीं बोल रही...”
“मैं झूठ नहीं बोल रही ।” - युवती बोली ।
“चुप कर । तसदीक होनी चाहिये कि ‘भाई’ भीतर नहीं है ।”
“नहीं है । मैं कसम...”
शोहाब ने कहर बरसाती निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
युवती सहम कर चुप हो गयी ।
“‘भाई’ नहीं तो दफेदार हो सकता है । वो हुआ तो उसका फातिहा भी ‘भाई’ पर करारी चोट होगी ।”
युवती मुंह से तो कुछ न बोली लेकिन वो जोर जोर से इनकार में सिर हिलाने लगी ।
“ठीक ।” - इरफान बोला - “मेरे को जंची ये बात ।”
“नाहक खूनखराबा होगा ।” - विमल बोला ।
“फिर पहुंच गया एक आने वाली जगह पर ! वो करेंगे तो भी तो नाहक ही होगा !”
“ये भी ठीक है । तो फिर क्या करें ?”
जवाब देने की जगह शोहाब इरफान के करीब सरक गया ।
दोनों में खुसर पुसर हुई ।
फिर दोनों विमल के करीब आये ।
“बाप” - इरफान बोला - “हमारे से पूछ रहा है तो जो राय हम देंगे, उसे कुबूल करेगा ?”
“करूंगा ।” - विमल बोला - “हमेशा करता हूं ।”
“तो यहां से निकल ।”
“क्या ?”
“नीचे कार में जा के बैठ । हम पांच मिनट में आते हैं ।”
“लेकिन...”
“बाप, फिर राय क्या मानी तूने ?”
विमल खामोश हो गया । फिर उसका सिर सहमति में हिला ।
पिचड़ ने चुपचाप कार की चाबी उसकी तरफ बढ़ा दी ।
विमल ने चाबी थामी, उसने एक उड़ती निगाह युवती की तरफ डाली ।
युवती को तब तक जैसे इलहाम हो गया था कि वहां क्या होने वाला था, उसने जिबह को तैयार बकरी की तरह विमल की तरफ देखा ।
“लड़की को नहीं ।” - विमल धीरे से बोला - “ये तो....”
“ठीक है, लड़की को नहीं ।” - शोहाब उसे दरवाजे की ओर धकेलता उसके कान में फुसफुसाया - “दरवाजा धीरे से, बेआवाज खोलना और जोर से बन्द करना ।”
विमल ने वैसा ही किया ।
“बाप तेरी जानबख्शी करके गया ।” - पीछे शोहाब युवती से बोला - “अब बदले में तू भी कुछ कर ।”
“क्या ?” - युवती भयभीत भाव से बोली ।
“जा के दरवाजा खुलवा ।”
सहमति में सिर हिलाती वो आगे बढी ।
स्टेनगन लिये इरफान डायनिंग एरिया की दीवार से जा चिपका ।
शोहाब और पिचड़ वहीं दीवार के साथ सटे खड़े रहे ।
दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
भीतर से एक मर्दाना आवाज आयी जो किसी की समझ में न आयी ।
“सब चले गये ।” - युवती बोली ।
“क्या ?” - भीतर से पूछा गया ।
“सच में ही पुलिस वाले थे । तलाशी लेना चाहते थे । बड़ी मुश्किल से टले ।”
दरवाजा खुला ।
गले में मशीनगन लटकाये एक व्यक्ति दरवाजे पर प्रकट हुआ ।
“आज रात तो फिर वो क्या आयेगा ?” - वो बोला ।
“हां ।” - युवती बोली - “मैं अब जाकर सोती हूं ।”
“इधर ही सो न ?” - मशीनगन वाला अश्लील भाव से बोला ।
“खबरदार ! बकवास की तो दफेदार को बोल दूंगी ।”
“कम्बख्त, मेरा तो लिहाज कर ।”
“क्या लिहाज करूं ?”
“दरवाजा खुला रखना । चिटकनी न लगाना । ये दोनों सो जायेंगे तो मैं रात को आऊंगा तेरे पास ।”
युवती ने जवाब न दिया ।
“जवाब न दे । बैडरूम में जा । मैं बाहर से धक्का देकर दरवाजा आजमाऊंगा, खुला हुआ तो समझूंगा जवाब मिल गया ।”
युवती हौले से हंसी ।
वो बाईं ओर के बैडरूम का दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल हो गयी । दरवाजा बन्द हो गया ।
मशीनगन वाला दरवाजे पर पहुंचा, उसने हौले से दरवाजे को धक्का दिया तो वो खुलने लगा । उसने दरवाजे पर से हाथ खींच लिया और वापिस मास्टर बैडरूम में जाने के लिये घूमा ।
इरफान ने निशब्द दीवार की ओट से बाहर कदम रखा । मशीनगन वाले के मास्टर बैडरूम के खुले दरवाजे के भीतर कदम डालने तक वो ठिठका रहा, फिर उसने अन्धाधुन्ध फायरिंग शुरू कर दी । मशीनगन वाला पछाड़ खाकर दरवाजे पर गिरा । इरफान एक छलांग में उसकी लाश को पार कर गया । भीतर मौजूद बाकी दो जनों को सम्भलने का भी मौका न मिला । वो अपने हमलावर की तरफ झांक भी नहीं पाये थे कि मरे पड़े थे ।
फिर तीनों वापिस दरवाजे की तरफ लपके ।
दरवाजे पर से इरफान एकाएक वापिस घूमा ।
“क्या हुआ ?” - शोहाब उत्तेजित भाव से बोला ।
“अभी ।” - इरफान बोला - “अभी ।”
वो बायें बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा और उसे धक्का दिया ।
भीतर युवती ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी अपने बाल बांध रही थी ।
इरफान ने निसंकोच उसे शूट कर दिया ।
गवाह नहीं छोड़ने का था ।
***
बुधवार : चौबीस मई : मुम्बई दिल्ली
दफेदार ने ‘भाई’ का मोबाइल बजाया ।
वो भोर की बेला थी और ऐसे समय में ‘भाई’ का मोबाइल बजाया जाने पर उसके फट पड़ने की पूरी आशंका थी ।
“दफेदार !” - ‘भाई’ का भुनभुनाता स्वर उसके कान में पड़ा - “क्या है सवेरे सवेरे ? नाहक फोन बजाया है तो तेरी खैर नहीं ।”
“नाहक नहीं बजाया, बाप । बड़ा वाकया हो गया है । खबर करना जरूरी ।”
“क्या हुआ ?”
“पूना के फ्लैट में । चारों खलास । बाई समेत ।”
लाइन पर मुकम्मल खामोशी छा गयी ।
दफेदार ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की और फिर व्यग्र भाव से बोला - “हल्लो !”
“कैसे जाना ?”
“रात कैसी बीती, इस बाबत उधर रोज सुबह मेरे को फोन करने की हिदायत थी । आज सुबह फोन न आया तो मैंने किया । कोई जवाब न मिला । पूना में अपना एक आदमी है, उसको फोन लगाया और जाकर देखने को बोला । अभी उसका फोन आया । चारों खलास ।”
“सोहल ने किया ?”
“और कौन करेगा ?”
“उसको खबर कैसे लगी ?”
“हैदर से लगी न, बाप ! यहीच तो करना था उसने सोहल की पकड़ में आने के बाद ।”
“वो तो ठीये की खबर लगी न ! ताकि वो ‘भाई’ की फिराक में उधर जाता और मारा जाता । ये खबर कैसे लगी कि उधर उसके लिये कोई जाल फैला के रखा गया था ?”
“भांप गया होगा किसी तरीके से । जो नतीजा सामने आया है, उससे तो यहीच जान पड़ता है कि उसको भनक लग गयी थी कि आगे उसके इस्तकबाल का क्या इन्तजाम था !”
“हैदर तो नहीं भौंका ?”
“नहीं, बाप । वो ऐसा नहीं कर सकता । जो ‘भाई’ के एक इशारे पर जेल जाने को तैयार हो गया, वो ऐसा नहीं कर सकता ।”
“अनजाने में कुछ कह बैठा होगा ?”
“अनजाने में ?”
“बात कर उससे ।”
“ठीक ।”
“अब कहां है वो ?”
“अभी तो काबू में ही होगा सोहल के ।”
“मालूम कर ।”
“बाप, उसको मालूम कि छूटते ही मेरे से कान्टैक्ट करने का है । उसने अभी कान्टैक्ट नहीं किया, यहीच सबूत है कि वो अभी नहीं छूटा ।”
“परदेसी को इधर भेजने का था । कल मैं बोला तेरे को ।”
“वो क्या है कि...”
“क्या है ?”
“कल मेरे को उसको पकड़ने का टेम नहीं लगा ।”
“मोबाइल किस वास्ते दे के रखा उसको ?”
“मोबाइल नहीं बोलता ।”
“वजह ?”
“मालूम नहीं । आज मालूम करूंगा ।”
“उधर पूना में क्या करेगा ?”
“यही तो पूछेला है, बाप । तभी तो इतना सुबु फोन लगाया ।”
“सब से पहले उधर से मर्सिडीज हटाने का है ।”
“फिर ?”
“फिर लाशें गायब करवाने का है ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“उधर से लाशें बरामद होंगी तो यासमीन को वान्दा । मैं ऐसा नहीं मांगता । उसको उधरीच रहने का है, इसलिये उधर कुछ नहीं हुआ ।”
“कुछ नहीं हुआ ।” - दफेदार ने अनिश्चित भाव से दोहराया ।
“वो टॉप फ्लोर है । एक ही और फ्लैट आबाद है उधर । उसमें रहते पारसी बूढा बूढी दोनों को न ठीक से दिखाई देता है, न सुनायी देता है । क्या समझा ?”
“गोलियां चलने की आवाज नहीं सुनी गयी होगी ।”
“यही बोला मैं । अब जो करना है, जल्दी कर ।”
“ठीक । कट करता है ।”
***
सुबह दस बजे होटल सी-व्यू की बेसमेंट में हैदर को विमल के सामने पेश किया गया ।
उस वक्त इरफान और शोहाब भी वहां मौजूद थे जो कि हैदर की उस पेशी के लिये पहले ही खूब तैयारियां कर चुके थे । वो खुश थे - खासतौर से इरफान - कि विमल बहुत भड़का हुआ था ।
उनसे परे परचुरे और मतकरी खड़े थे ।
“एक सैकंड में कुबूल कर” - विमल कहरबरपा लहजे में बोला - “कि तेरी गिरफ्तारी धोखा थी और सोहल की लाश गिराने की साजिश का हिस्सा थी ।”
तत्काल हैदर के चेहरे का रंग उड़ा ।
फिर वो सम्भला ।
“धोखा कैसे होयेंगा, बाप ?” - वो बोला - “मैं अन्दर, मेरे खिलाफ दो गवाह...”
“दोनों घर के आदमी । केस बनाने के लिये । सोहल वो चारा न निगलता तो दोनों अपने आप ही तेरे खिलाफ गवाही देने से मुकर जाते । तेरा अन्दर रहना मामूली जहमत थी जो तूने ‘भाई’ की खातिर झेलनी कुबूल की ।” - विमल ने एक क्षण ठिठक कर खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा और फिर बोला - “परसों तूने बड़े ड्रामेटिक अन्दाज से अटक अटक कर, झिझक झिझक कर, डर डर कर हमें ‘भाई’ के तीन ठिकाने बताये । क्यों बताये ? क्योंकि तू जानता था - इसलिये जानता था क्योंकि तुझे ऐसा ही सिखाया पढाया गया था - कि दहिशर के कॉटेज में ‘भाई’ ने होना नहीं था, विंस्टन प्वायंट के बंगले तक हम पहुंच नहीं सकते थे इसलिये ‘भाई’ के लिये जिस जगह को हम अपना निशाना बनायेंगे, वो तेरा बताया उसका तीसरा ठिकाना ही होगा जहां कि मेरे इस्तकबाल की तमाम तैयारियां पहले से की जा चुकी थीं ।”
“‘भाई’ वहां सच में जाता है ।”
“जाता था । तभी तो हर बात की तसदीक हुई लेकिन कल नहीं गया, परसों नहीं गया था और तब तक जाने का उसका कोई इरादा न होता जब तक कि उधर सोहल को लुढका न दिया जाता । उसका वो प्रेम घरोंदा यू एक्सपोज हो जाने के बाद यकीनन वो वो ठिकाना ही बदल लेता ।”
“मुझे इस बाबत कुछ नहीं मालूम ।”
“तुझे सब मालूम है ।”
“अल्लाह कसम, मुझे....”
“अल्लाह की झूठी कसम खायेगा तो दोजख की आग में झुलसेगा ।”
वो खामोश रहा ।
“तू कुबूल नहीं करेगा कि ‘भाई’ की सोहल के खिलाफ बिछाई बिसात का तू मोहरा था तो मुझे वो काम करना पड़ेगा जो कि बुनियादी तौर से मुझे सख्त नापसन्द है, लेकिन क्या करूं ? मेरे जोड़ीदार कहते हैं कि इश्क और जंग में सब जायज होता है ।”
“क... क्या ?”
“और फिर इस नामुराद हरकत की शुरुआत करने वाले भी तो तेरे ही आका लोग हैं ?”
“कैसी हरकत ?”
“बता भई इसे ।”
इरफान ने बिजली का एक स्विच ऑन किया जिसके नतीजे के तौर पर एक तीखी रोशनी जली और एक बैंच पर बैठे तीन व्यक्तियों पर पड़ी ।
एक वृद्धा, एक नौजवान औरत और एक कोई आठ साल का लड़का ।
हैदर के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे किसी ने उसके प्राण खींच लिये हों ।
“ये तेरी मां है” - उसे विमल की आवाज यूं सुनाई दी जैसे बहुत फासले से आ रही हो - “ये तेरी बीवी है, ये तेरा बेटा है । पहचाना सबको ?”
हैदर के मुंह से बोला न फूटा ।
“अब अगर तू रास्ते पर आये तो तेरी मां मेरी मां है, तेरी बीवी मेरी बहन है, तेरा बेटा मेरा भांजा है ।”
विमल ने ठिठक कर जवाब का इन्तजार किया ।
जवाब न मिला ।
“अभी एक नग और भी है ।” - विमल बोला ।
“औ... और भी !”
विमल ने इशारा किया ।
शोहाब ने आगे इशारा किया तो परचुरे ने किसी को रोशनी के दायरे में धकेला ।
हैदर की नयी सूरत पर निगाह पड़ी तो उसके मुंह से जोर की सिसकारी निकली ।
“ये जेकब परदेसी है” - विमल बोला - “लेकिन असल में इसका नाम सफदर अली खान है - जैसे कि तेरा हैदर अली खान है - जैसे रंडियां धन्धे में उतरती हैं तो नाम तब्दील कर लेती हैं, वैसे ही इसने किया जान पड़ता है अलबत्ता तूने ऐसा जरूरी नहीं समझा क्योंकि तू शेर है, दिलेर है ।”
“मु... मुझे क्यों बता रहे हो ?”
“क्योंकि ये तेरा भाई है ।”
“नहीं है ।”
“ये तेरा सगा भाई नहीं है ?”
“नहीं । मैंने इस आदमी की कभी सूरत नहीं देखी ।”
“तू इसको पहचानने से इनकार कर सकता है, हैदर, लेकिन क्या तेरी मां भी अपने बेटे को पहचानने से इनकार करेगी, तेरी बीवी अपने देवर को पहचानने से इनकार करेगी, तेरा बेटा अपने चाचा को पहचानने से इनकार करेगा ? जवाब दे ?”
हैदर बगलें झांकने लगा ।
“झूठ बोलने लायक बात पर झूठ बोला जाता है । खाहखाह मुंह फाड़ने का क्या फायदा ? अब बोल, क्या जवाब है तेरा ? तू चाहता है कि इन चार जनों का खून तेरे सिर हो ?”
“नहीं ।” - हैदर फुसफुसाता सा बोला - “बाप, तू ऐसा नहीं कर सकता ।”
“नहीं कर सकता । सच में नहीं कर सकता । लेकिन क्या करूं, मेरे जोड़ीदार मेरे जैसे जज्बाती और रहमदिल नहीं हैं । पूना में भी मैंने इन्हें बहुत मना किया था लेकिन इन्होंने सब को मार गिराया ।”
“सबको ! किन सबको ?”
“जो उधर मेपल हाइट्स के फ्लैट नम्बर 903 में सोहल की लाश गिराने के नापाक इरादे से जमा थे ।”
“उधर हो भी आया ?”
“तभी तो तेरी करतूत का पता लगा । तभी तो ‘भाई’ के मंसूबों का पता लगा ।”
“ओह !”
“ये टेम खोटी कर रहा है ।” - इरफान नृशंस भाव से बोला ।
“देखा !” - विमल बोला - “जो थोड़ा बहुत सब्र है, वो मेरे में ही है, इनमें नहीं है । अब तू इनके सब्र का इम्तहान न ले ।”
“क्या चाहते हो ?”
“तेरे को मालूम है ।”
“क्या ?”
“वही करना चाहते हैं जो तेरे जरिये ‘भाई’ न कर सका ।”
“कैसे होगा ?”
“मुझे लुढकाने के लिये ‘भाई’ ने तुझे मोहरा बनाया, जवाब में ‘भाई’ को लुढकाने के लिये मैं भी तुझे मोहरा बनाना चाहता हूं ।”
“मुझे ?”
“या तेरे भाई को । सफदर अली खान उर्फ जेकब परदेसी को ।”
वो फिर खामोश हो गया ।
“हैदर, मुकम्मल केस हिस्ट्री निकालने में हमें टाइम लगेगा लेकिन इसके तो दो ताजातरीन गुनाहों की हमें वाकफियत है जो कि इसे - मां जी सुन रही हैं ? - सीधे फांसी के तख्ते पर पहुंचायेंगे ।”
वृद्धा के मुंह से एक घुटी हुई कराह निकली ।
जेकब परदेसी ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“पिछले बुधवार दगड़ी चाल में ईरानी के रेस्टोरेंट के टायलेट में इसने बिलाल का कत्ल किया । मिर्ची इस बात का गवाह है जिसके खबर किये बिना इसे बिलाल की वहां मौजूदगी की जानकारी नहीं हो सकती थी । परसों रात इसने होटल नटराज के कमरा नम्बर 505 में पवित्तर सिंह का कत्ल किया, मिर्ची ने ही अपनी आंखों से इसे कत्ल करते देखा । वहां दो कत्ल और भी हुए थे जो कि इसने नहीं किये थे लेकिन जब ये एक कत्ल के इलजाम में पकड़ा जायेगा तो पुलिस वो दो कत्ल भी इसी के सिर थोप कर ही मानेगी और वो दो मकतूल क्योंकि पुलिस वाले थे - एक तो आला अफसर था - इसलिये पुलिस वालों का जो कहर इस पर टूटेगा, उसका खयाल भी करके मेरा दिल हिलता है ।”
विमल ने सच में ही जानबूझ कर झुरझुरी ली ।
“मिर्ची की” - परदेसी दिलेरी से बोला - “मेरे से बाहर जाने की मजाल नहीं हो सकती ।”
“क्यों भई ?”
“वो मेरा आदमी है ।”
“इधर ही है वो ।”
“इधर ही है ?”
“आजाद । तेरी तरह मजबूर नहीं । फंसा हुआ नहीं । मैं अभी उसको बुलाता हूं, फिर तू खुद उसकी मजाल परखना ।”
“जरूरत नहीं ।”
“तो फिर क्या जवाब है तुम्हारा ?”
हैदर की परदेसी से निगाह मिली । दोनों की निगाहें बैंच पर बैठे तीन जनों की तरफ उठीं ।
“मौजूदा हालात में” - फिर परदेसी धीरे से बोला - “और क्या जवाब हो सकता है, बाप, कि हम तेरे हवाले हैं ।”
“हमारी ऐसी नस पकड़ी है” - हैदर बोला - “कि हवाले होने के अलावा हम और कुछ कर ही नहीं सकते ।”
“फर्जी हवाले का अंजाम” - विमल चेतावनीभरे स्वर में बोला - “मेरी मुखालफत पर कायम रहने से, ‘भाई’ का सगा बने रहने से भी बुरा होगा ।”
“हमारी तो दोनों तरह से मौत है । ‘भाई’ के खिलाफ जायेंगे तो वो कौन सा हमें छोड़ देगा ?”
“जब इस धन्धे में कदम डाला था तो इसके खतरों से वाकिफ नहीं थे ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ! ऐसा सवाल क्यों पूछता है जिसका जवाब तेरे को मालूम । तू भी तो इस धन्धे में है ।”
“मजबूरन । तुम्हारी तरह से मर्जी से नहीं ।”
“जिनकी मर्जी जान पड़ती है, उनकी भी कोई मजबूरी ही होती है ।”
“ये फैंसी बातें हैं, फलसफे वाली बातें हैं, अपने आपको तसल्ली देने वाली बातें हैं जो मैं नहीं सुनना चाहता ।”
कोई कुछ न बोला ।
“बहरहाल इतना ध्यान में रहे कि मेरा साथ कोई फूलों की सेज नहीं है, उसमें भी बेतहाशा कांटे हैं । लेकिन जब दो मुसीबतों में से एक को चुनना हो तो छोटी मुसीबत को चुनना भी दानिशमन्दी होती है । मौजूदा हालात में ‘भाई’ बड़ी मुसीबत है, मैं छोटी मुसीबत हूं । तुम्हारी मदद से ‘भाई’ मुझे मार गिराता तो तुम्हारा ईनाम चान्दी के चन्द टुकड़े होते लेकिन अगर तुम्हारी मदद से मैंने ‘भाई’ को मार गिराया तो तुम्हारा ईनाम नायाब होगा ।”
“क्या ?”
“जिन्दगी । जान है तो जहान है, मेरे भाई ।”
“हां बोलो, बेटा ।” - वृद्धा कांपती आवाज से बोली - “अपनी खातिर नहीं तो इस मां की खातिर जिसकी मैयत को तुमने कन्धा देना है, इस नेकबख्त की खातिर जो विधवा नहीं मरना चाहती, इस बच्चे की खातिर जो यतीम नहीं होना चाहता ।”
“हौसला रख, अम्मी ।” - हैदर बोला - “मेहर तू भी । शफीक तू भी । सब ठीक हो जायेगा ।”
“हां ।” - विमल बोला - “मैं ताईद करता हूं, सब ठीक हो जायेगा ।”
***
उसी रोज शाम को विमल और इरफान दिल्ली पहुंचे ।
हाशमी और मुबारक अली उन्हें रिसीव करने के लिये एयरपोर्ट पर मौजूद थे ।
हाशमी ने उन्हें बताया कि होटल ताज पैलेस में विमल खन्ना और उसके भाई के नाम रूम पहले से बुक था ।
चारों ताज पैलेस पहुंचे ।
वहां तीसरी मंजिल के एक कमरे में मेल मिलाप हो चुका, दुख सुख बांटा जा चुका, चाय की चुस्की हो चुकी तो विमल बोला - “क्या खबर है ?”
“हाशमी बताता है ।” - मुबारक अली बोला ।
विमल ने हाशमी की तरफ देखा ।
“भोगीलाल को एक्सपोज करने की एक स्कीम बनायी है” - हाशमी बोला - “जिसकी कामयाबी की पूरी पूरी उम्मीद है । इसीलिये मामू ने आपको इधर तलब किया ।”
“दैट्स गुड न्यूज । क्या है स्कीम ?”
हाशमी ने स्कीम बयान की ।
“स्कीम तो बुरी नहीं ।” - हाशमी खामोश हुआ तो विमल बोला - “कामयाब भी होनी चाहिये । अलबत्ता नतीजा आनन फानन निकले, ऐसा जरूरी नहीं जान पड़ता ।”
“तो क्या हुआ ?” - हाशमी बोला - “अहम बात तो ये है कि नतीजा निकलना चाहिये ।”
“कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में” - मुबारक अली बोला - “पिराब्लम है तेरी ?”
“कल रात वापिस मुम्बई में मेरी मौजूदगी जरूरी है ।”
“क्यों ?”
“एक शादी में शिरकत करनी है ।”
“तूने ?”
“राजा गजेन्द्र सिंह ने ।”
“क्या कहने ? ऐसी मकबूलियत हासिल कर ली उधर कि शादी ब्याहों में बुलाया जाने लगा ?”
“राजा साहब ने । मैंने नहीं । मेरी क्या औकात है !”
“ऐसा था तो पहले क्यों नहीं बोला ?”
“बोलता तो क्या होता ?”
“तेरे को आज की जगह परसों आने को बोलते । भोगीलाल की खिदमत दो दिन के लिये, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मुल्तवी कर देते ।”
“अब आ गया तो आ गया । मैं रिटर्न टिकट लेकर आया हूं । कल शाम तक कुछ हो गया तो ठीक वरना मैं शाम को मुम्बई जा के परसों सुबह फिर लौट आऊंगा ।”
“फिर क्या वान्दा है ?”
“झामनानी की बोलो ।”
“बोल भई, भांजे ।”
“उसकी कोई खोज खबर नहीं लग रही ।” - हाशमी खेदपूर्ण स्वर में बोला - “बहुत कोशिश कर ली ।”
“उसका कोई खास आदमी थामना था ।”
“खास आदमी है तो सही निगाह में उसका एक - मुकेश बजाज नाम है - जुम्मेराती से, यानी कि जब से झामनानी हमारे आदमियों को डाज देकर गायब हुआ है, उसकी निगाहबीनी भी जारी है । पड़ताल भी जारी है । लेकिन हमारी पड़ताल ये कहती है कि वो मालिक का बहुत वफादार है, किसी दबाव में आकर उसकी बाबत मुंह नहीं खोलने वाला ।”
“और” - मुबारक अली बोला - “कोई गारन्टी भी नहीं है कि उसे झामनानी का मौजूदा खुफिया पता मालूम होगा । क्यों, भांजे ?”
“हां, मामू ।”
“मुम्बई में एक जरिया हाथ में आया था” - विमल बोला - “भोगीलाल और झामनानी दोनों की एक साथ पोलपट्टी खुलने का लेकिन भांजी पड़ गयी ।”
“कैसा जरिया ?”
“पवित्तर सिंह । वो अपनी जानबख्शी के बदले में उन दोनों को ढुंढवाने में हर मदद करने को तैयार था । बोलता था दोनों का हर खुफिया ठिकाना जानता था, कोई इक्का दुक्का नहीं जानता था तो जान सकता था । लेकिन इससे पहले कि वो कुछ बता पाता, उसका बोलो राम हो गया और मेरा होते होते बचा ।”
“ओह !”
“इस बजाज की कोई दुखती रग पकड़नी थी ।”
“हमने सोचा था इस बाबत लेकिन जो आम दुखती रग होती है उनको छेड़ने से वो काबू में आने वाला नहीं लगता । एक खास दुखती रग की फिराक में हम हैं, उससे कोई नतीजा निकले तो निकले वरना ये आदमी हमारे लिये बेकार ।”
“खास दुखती रग क्या ?”
हाशमी ने एक सशंक निगाह मुबारक अली पर डाली और फिर दबे स्वर में बोला - “वो मैसोकिस्ट (MASOCHIST) है ।”
“दूसरे से प्रताड़ित होकर सुख पाने वाले ?”
“वही ।”
“क्या बोला, बाप ?” - मुबारक अली बोला - “भांजा क्या खुसर पुसर कर रहा है ?”
“मैं समझाता हूं मुबारक अली, बाज लोग दूसरे को दुख देकर सुख पाते हैं, दूसरे पर जुल्म ढा कर उन्हें मुसर्रत हासिल होती है । कोई उनकी वजह से झेलनी पड़ी दुख तकलीफ में चीखता चिल्लाता है तो वो खुश होकर ठहाके लगाते हैं । होते हैं न ऐसे लोग ?”
“हां ।”
“ऐसे क्रूर मिजाज वाले लोगों को अंग्रेजी में सैडिस्ट कहते हैं । जो मैसोकिस्ट होते हैं, वो ऐन इनसे उलट होते हैं ।”
“क्या बोला, बाप ? यानी कि उनको तकलीफ पहुंचाओ तो वो खुश होते हैं ?”
“हां । पीड़ा में उनको आनन्द की अनुभूति होती है । ऐसे जुल्म उन पर कोई हसीना ढाये तो बात ही क्या है !”
“गोया राजी से जुल्म कुबूल ।”
“राजी से । और कह कर । फरियाद करके ।”
“बाई, मार मेरे कू ?”
“हां । कोड़े से । बैंत से । हाथ पांव बंधवा कर ताकि मार से बचा न जा सके ।”
“तौबा ! यकीन नहीं आता ।”
“अपने अपने तौर पर हर कोई बहलाता है दिल ।”
“ये भी कोई तौर हुआ ?”
“हुआ । तू हाशमी को अपनी बात मुकम्मल करने दे ।”
मुबारक अली चुप हो गया ।
“तो” - विमल फिर हाशमी की तरफ आकर्षित हुआ - “ये मुकेश बजाज मैसोकिस्ट है ?”
“हां ।” - हाशमी बोला ।
“पक्का स्थापित हो गया ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“डिफेंस कालोनी में एक ठीया है जिसे पुलिस प्रोटेक्शन में स्वेतलाना नाम की एक मैडम चलाती है । वहां ग्राउन्ड फ्लोर पर एक रेस्टोरेंट है, फर्स्ट फ्लोर पर हाई क्लास क्लायन्टेल वाला चकला चलता है और सैकंड पर मैडम रहती है । हमें पता चला है बजाज का हफ्ता दस दिन में एक चक्कर वहां लगता है ।”
“कैसे पता चला ?”
“मैडम को ही सांठा ।”
“क्या कह कर ?”
“कोआपरेट करेगी तो उजरत मिलेगी, नहीं करेगी तो ठीया ठप्प, धन्धा चौपट ।”
“मान गयी ?”
“हां । फुल कोआपरेट करेगी ।”
“मसलन क्या करेगी ?”
“इतवार से हर शाम को हमारे दो आदमी उसके घर में ही मौजूद होते हैं । सूरज डूबने के बाद से आधी रात तक वो वहां ठहरते हैं । मैडम कहती है कि वो दिन में कभी नहीं आता, आधी रात के बाद भी कभी नहीं आता । वो जब भी वहां पहुंचेगा, उसकी हर करतूत को वीडियो फिल्म पर उतार लिया जायेगा । आगे सब कुछ उसकी शैतानी हरकतों की किस्म पर मुनहसर है ।”
“आयेगा सही वो वहां ?”
“क्यों नहीं आयेगा ? जब हमेशा आता है तो अब क्यों नहीं आयेगा ? अलबत्ता ये कहना मुहाल है कि कब आयेगा !”
“हूं ।”
“इन्तजार का अभी चौथा ही तो दिन है ।”
“ओके । लैट्स होप फार दि बैस्ट ।”
“यस । लैट्स होप फार दि बैस्ट ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
फिर मुबारक अली ने खंखार कर गला साफ किया ।
विमल ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“वो पुलिसिया” - मुबारक अली बोला - “वो एस एच का ओ ।”
“किस की बात कर रहे हो, मियां ?”
“अरे, वो ही अल्लामारा पहाड़गंज थाने का इन्स्पेक्टर जिसने बिरादरीभाइयों को सजा दिलाने के तेरे पिरोगराम में भांजी मारी...”
“नसीबसिंह ।” - हाशमी बोला ।
“....जिसकी वजह से उसका ए सी का पी जान से गया था और सब बिरादरीभाई यूं छुट्टे घूमने लगे थे जैसे पिछले मंगलवार को झामनानी के फार्म पर कुछ हुआ ही नहीं था । बिरादरीभाइयों के हाथों बिककर जिस कम्बख्तमारे ने पीछे फार्म पर नशा पानी के सामान या असलाह की कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बरामदी न दिखाई, उसका क्या करेगा ?”
“क्या करूंगा ?”
“कुछ करेगा ?”
विमल सोचने लगा ।
“या बकश देगा ?”
“नहीं, बख्शा तो नहीं जाना चाहिये ऐसे शख्स को । बख्शा तो नहीं जाना चाहिये ।”
“उस अकेले शख्स की वजह से ही तो” - हाशमी बोला - “पिटे हुए मोहरे उठ के खड़े हो गये और फिर मुकाबिल होने लगे ।”
“मुबारक अली” - विमल बोला - “पिछले मंगलवार तुमने फोन पर बताया था कि वो सस्पेंड था ।”
“क्या बोला, बाप ?” - मुबारक अली बोला - “क्या था ?”
“मुअत्तल था । नौकरी से बर्खास्त था ।”
“हां, ऐसीच बोला था मैं पण पता नहीं क्या पंगा किया कि अब अन्दर है ।”
“क्या ?”
“गिरफ्तार है । ऐसीच है न, भांजे ?”
“वो जुम्मेराती की शाम से ही पुलिस की हिरासत में है” - हाशमी बोला - “ये मेरे को मालूम है लेकिन चार्ज का पता नहीं ।”
“पता लगाना था ।” - विमल बोला ।
“कोशिश की थी । चार्ज का पता नहीं लगा था ।”
“किसी तरीके से” - मुबारक अली बोला - “करतूत की पोलपट्टी खुल गयी होगी ?”
“हो सकता है ।” - हाशमी बोला - “ये भी हो सकता है कि उसकी गिरफ्तारी की वजह कोई और हो ।”
“और क्या ?” - विमल बोला ।
“कोई भी । फसादी आदमी के फसादों का कहीं कोई ओर छोर होता है ?”
“ठीक ।”
“वो जुम्मेराती से हिरासत में है” - तब इरफान पहली बार बोला - “तो जाहिर है कि कोरट में तो उसकी पेशी हो चुकी होगी ?”
हाशमी सकपकाया ।
“क्या मतलब ?” - फिर वो बोला ।
“मुलजिम को चौबीस घन्टों में चार्ज लगा कर कोरट में पेश किया जाना होता है । एकाध दिन की कोताही चल सकती है । अब तो कल फिर जुम्मेराती है । इतना अरसा उसे, एक पुलिस के अफसर को, चार्ज लगा कर कोरट में पेश किये बिना हिरासत में रखे रहना क्यों कर मुमकिन होगा ?”
“अल्लाह !” - हाशमी के मुंह से निकला - “मुझे तो खयाल ही न आया इस बात का ।”
“वो कोर्ट में पेश किया जा चुका होगा” - विमल बोला - “और अभी भी हिरासत में है तो रिमांड पर होगा ।”
“जरूर यही बात होगी ।”
“वो रिमांड के लिये कोर्ट में पेश किया जा चुका है तो कोर्ट के रिकार्ड से ये पता लगा लेना क्या मुश्किल बात होगी कि उस पर क्या चार्ज लगाया गया था !”
“कोई मुश्किल बात नहीं । मैं कल सुबह कोर्ट खुलते ही पता लगाऊंगा ।”
“गुड । ये पक्का है कि अभी वो गिरफ्तार ही है, जमानत पर नहीं छूट गया हुआ ?”
“नहीं, नहीं छूट गया हुआ । छुट्टा घूम रहा होता तो मुझे खबर होती ।”
“दैट्स टू बैड । छुट्टा घूम रहा होता तो मेरा काम आसान हो जाता ।”
“जी !”
“फिर उसका फातिहा पढ कर ही मैं मुम्बई लौटना पसन्द करता ।”
“ओह !”
“भांजे !” - मुबारक अली सख्ती से बोला - “कल सब ठीक ठीक खबर निकाल उसकी ।”
“जरूर, मामू ।”
***
जेकब परदेसी ने दफेदार के मोबाइल फोन पर कॉल लगायी ।
“अरे, कहां गर्क हो गया था ?” - दफेदार झल्लाया - “मोबाइल पर जवाब क्यों नहीं देता था ?”
“बैटरी चार्ज करना भूल गया था” - परदेसी शान्ति से बोला - “अब चार्ज की तो सबसे पहले तुम्हेरे को फोन लगाया । सोचा कहीं दफेदार ढूंढता न हो ।”
“ढूंढता था न, इतनी बार कॉल लगायी ।”
“बैटरी डाउन । कैसे बोलेंगा मोबाइल ?”
“चौकस रखा कर फोन को । जब तक ‘भाई’ इधर है तब तक जरूरी । समझा ?”
“हां । अब बोलो क्या हुक्म है ?”
“भाई तेरे को विंस्टन प्वायंट पर मांगता है ।”
“कब ?”
“अभी ।”
“काम क्या है ?”
“वो खुद बोलेंगा न ।”
“ठीक है ।”
“चिरकुट का पता कर । उसको भी ‘भाई’ उधर मांगता है । वो न गया हो तो उसको भी साथ ले के जाने का है । बरोबर ?”
“बरोबर ।”
“कट कर ।”
परदेसी ने मोबाइल ऑफ करके जेब के हवाले किया ।
“क्या बोला ?” - करीब खड़े शोहाब ने पूछा ।
परदेसी ने बताया ।
“बढिया ।” - शोहाब संतोषपूर्ण स्वर में बोला - “बढिया ।”
***
ग्रेटर कैलाश पार्ट टू मेन मार्केट में स्थित मेफेयर नामक बार एण्ड रेस्टोरेंट के पिछवाड़े की गली में एक वैसा बन्द आटो दाखिल हुआ जो कि छोटा मोटा माल ढोने के लिये इस्तेमाल किया जाता था । आटो को अचरज लाल नाम का एक युवक चला रहा था जो कि असल में ब्रजवासी का डिलीवरी मैन था लेकिन अब भोगीलाल के पास काम कर रहा था । मुम्बई रवाना होने से पहले बाजरिया चन्द्रेश सिंह ब्रजवासी अपने तमाम आदमियों को ऐसा ही निर्देश देकर गया था ।
अचरज लाल ने आटो को रेस्टोरेंट के पिछवाड़े के बन्द दरवाजे के करीब रोका और फिर उतर कर दरवाजे पर दस्तक दी ।
दरवाजा खुला । एक लम्बा चौड़ा, अधगंजा आदमी चौखट पर प्रकट हुआ ।
“चावला साहब !” - अचरज लाल बोला ।
“क्या चावला साहब ?” - वो खरखराती आवाज में बोला ।
“डिलीवरी है ।”
“अरे, काहे की डिलीवरी है ?”
“स्काच की । तीन क्रेट ।”
“तो यूं बोल न ! पहले की बात आखिर में करता है । नया भरती हुआ है ?”
“नहीं । इधर पहली बार आया हूं ।”
“इधर ही ठहर । बुलाता हूं ।”
वो दरवाजे पर से हटा और पीछे का एक दरवाजा खोल कर उसके पीछे गायब हो गया । दो मिनट बाद वो दरवाजा फिर खुला तो उसके साथ एक सूटबूटधारी व्यक्ति था ।
“मैं हूं चावला साहब ।” - वो बोला - “क्या लाया है ?”
“स्काच । तीन क्रेट ।”
“वो तो गुरशरण ने ही बोल दिया । माल क्या है ?”
“दो क्रेट शीवाज रीगाल । एक क्रेट ब्लैक एण्ड वाइट ।”
“ले के आ ।”
अचरज लाल ने आटो का पृष्ठ भाग खोल कर बारी बारी तीन क्रेट निकाल कर जमीन पर रखे, दरवाजा बन्द करके ताला लगाया और फिर तीनों क्रेटों को भीतर एक पहुंचाया । भीतर एक स्टोरनुमा कमरा था चावला के निर्देश पर जिसके खुले दरवाजे के करीब उसने क्रेट रख दिये ।
फिर वो ठिठका सा चावला के सामने खड़ा हो गया ।
“अब क्या है ?” - चावला बोला ।
“पेमेंट ।” - अचरज लाल बोला - “सत्ताईस हजार छ: सौ रुपये ।”
“बिल भेज देना ।”
“ये बिल वाला माल नहीं है ।”
“बिल वाला माल नहीं है ! तो क्या फोकट का माल है ?”
“कैश ! कैश का माल है ।”
“कौन बोला ?”
“मेरा साहब । जिसने माल इधर भेजा ।”
“जा के अपने साहब को बोल आर्डर कैंसल । फिर कभी इधर माल लेकर न आना ।”
“ठीक है । बोल दूंगा । अब जो माल आ गया है उसकी पेमेंट तो दीजिये ।”
चावला अधगंजे की तरफ घूमा ।
“ये क्या कर रहा है ?” - वो बोला ।
अधगंजा एक कदम आगे बढा ।
“मैं गुरशरण हूं ।” - वो सख्ती से बोला ।
“पेमेंट आप करेंगे ?”
“लगता है तूने कभी गुरशरण का नाम नहीं सुना ?”
“अब सुन लिया है । मेहरबानी करके पेमेंट कीजिये, मैंने अभी और भी दो जगह जाना है ।”
“कुछ नहीं समझता । अक्ल टखनों में जान पड़ती है ।”
अचरज लाल सकपकाया, उसने अधगंजे की तरफ देखा तो उसे यूं घूरता पाया जैसे निगाहों से ही उसे भस्म कर देगा । उसने फौरन उसकी तरफ से निगाह फिरा ली और चावला की तरफ घूमा ।
“साहब” - वो याचनापूर्ण स्वर में बोला - “मुझे फारिग कीजिये न, ताकि मैं जाऊं ।”
“अबे, फारिग क्यों नहीं करता इसे ?” - चावला गुस्सा जताता अधगंजे से बोला ।
“अभी करता हूं ।” - अधगंजा बोला - “अभी करता हूं, छोकरे ।”
“शुक्रिया ।”
अधगंजे ने एक क्रेट को खोला और उसमें से ब्लैक एण्ड वाइट की एक बोतल बरामद की । उसने कुछ क्षण बड़ी संजीदगी से बोतल के लेबल और सील का मुआयना किया और फिर एकाएक बोतल को बाहर गली में उछाल दिया ।
बोतल पक्की जमीन से टकराई और एक झनाक की आवाज के साथ फूटी ।
अचरज लाल अवाक् उसका मुंह देखने लगा ।
अधगंजे ने एक और बोतल गली में फेंकी ।
“साहब !” - अचरज लाल आतंकित भाव से बोला ।
दो और गयीं ।
“साहब, ये क्या कर रहे हैं आप ?”
क्रेट खाली हो गया । बाहर बोतलें गली की जमीन से या परली दीवार से टकरा कर टूट गयीं ।
सकते की सी हालत में पहुंचा अचरज लाल वो नजारा देखता रहा ।
मशीनी रफ्तार से अधगंजे ने वही हाल बाकी की चौबीस बोतलों का भी किया ।
फिर उसने जेब से रुमाल निकाल कर बड़ी अदा से अपने हाथ पोंछे और मीठे स्वर में बोला - “न डिलीवरी, न पेमेंट । न कुछ देना, न लेना । अब राजी ?”
अचरज लाल के मुंह से बोला न फूटा ।
“अपने साहब को कहना माल घटिया था । एक एक बोतल चैक की । सब लीक करती थीं ।”
“अब जा” - चावला उसे पुचकारता सा बोला - “मंजिल खोटी हो रही होगी ।”
मन मन के कदम उठाता अचरज लाल घूमा और जाकर आटो पर सवार हो गया ।
पीछे दरवाजा बन्द हो गया ।
दरवाजा बन्द होते ही बाजू का एक दरवाजा, जो कि चावला के ऑफिस का था, खोल कर अली वली बाहर निकले ।
“देखा ?” - चावला बोला ।
“हां ।” - अली बोला ।
“ठीक किया अपने जवान ने ?”
“बिलकुल ।”
“एकदम बढिया ।” - वली बोला - “कमाल कर दिया ।”
गुरशरण हंसा ।
“अब क्या होगा ?” - चावला सशंक भाव से बोला ।
“जो होगा सामने आ जायेगा ।” - अली लापरवाही से बोला ।
“पर सम्भाल तो लोगे न ?”
“हां । सम्भाल लेंगे ।”
“कहीं लेने के देने न पड़ जायें । भोगीलाल का कहर नहीं झेला जायेगा मेरे से ।”
“हमारे से झेला जायेगा ।”
“ठीक है फिर ।”
जो शख्स भोगीलाल की गैरहाजिरी में उसके दरियागंज वाले ठिकाने पर बैठता था और बतौर मैनेजर उसके पीछे उसका धन्धा देखता था, उसका नाम तलवार था । फोन पर उसने अचरज लाल की रिपोर्ट सुनी तो उसे अपने कानों पर यकीन न आया ।
छत्तीस बोतलें फोड़ दीं ! अट्ठाईस हजार का माल मिट्टी कर दिया !
“तूने तो कोई पंगा नहीं लिया था ?” - फिर भी उसने पूछा ।
“मैं क्या पंगा ले सकता था ?” - फोन पर अचरज लाल की आवाज आयी ।
“अपनी किसी बात से या हरकत से चावला साहब को नाराज कर दिया हो ?”
“मैंने कुछ नहीं किया, तलवार साहब । मैंने तो बस माल पहुंचाया, पेमेंट मांगी, वो न मिली तो माल वापिस मांगा, आगे जो हुआ मैंने बोल ही दिया है ।”
“अभी तू कहां है ?”
“वहीं हूं ।”
“तू बाकी की दो जगह माल पहुंचा के इधर वापिस पहुंच, मैं करता हूं कुछ ।”
“ठीक है ।”
अचरज लाल के लाइन छोड़ते ही उसने भोगीलाल के मोबाइल पर फोन लगाया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
उसने अचरज लाल के साथ हुआ वाकया बयान किया ।
जवाब में कितनी ही देर दूसरी तरफ से आवाज न आयी ।
“चावला ने ऐसा किया ?” - आखिरकार वो बोला ।
“जी हां ।”
“जो कि ब्रिजवासी वाले माल का ही नहीं, हमारे माल का भी गिराहक है ?”
“इसी बात की तो हैरानी है, साहब ।”
“वहां दस आदमी भेज । अभी । अच्छी तरियों समझा के कि वहां की कोई चीज साबुत न बचे । चावला की खोपड़ी भी ।”
“अगर वो पेमेंट कर दे तो ?”
“तो भी । अबे, सुन रिया है कि नहीं सुन रिया ?”
“सुन रहा हूं, साहब ।”
“वो ग्यारह बजे बार बन्द करता है । ग्यारह के बाद ग्राहकों से बार खाली होते ही हमारे आदमी वहां होने चाहियें । मैं फिर बोल रिया हूं । कुछ साबुत न बचे ।”
“ऐसी ही होगा, साहब ।”
अचरज लाल लोधी कालोनी की मार्केट में पहुंचा ।
वहां न्यू शेरे पंजाब रेस्टोरेंट था जिसका मालिक निहाल सिंह स्थानीय विधायक की शह पर रेस्टोरेंट की पहली मंजिल पर शरेआम विस्की परोसता था ।
अचरज लाल ने रेस्टोरेंट के सामने आटो खड़ा किया और रेस्टोरेंट की ओर बढा ।
काउन्टर पर बैठे निहाल सिंह ने उसे देखा तो वो उठ कर बाहर फुटपाथ पर आ गया ।
अचरज लाल ने उसका अभिवादन किया जो कि निहाल सिंह ने बड़े अनमने भाव से कुबूल किया ।
“कैसे आया ?” - फिर वो रूखे स्वर में बोला ।
“माल लाया हूं, सरदार जी ।” - अचरज लाल बोला ।
“कौन सा माल ?”
“दो क्रेट एन्टीकिटी ।”
“नहीं चाहिये ।”
“नहीं चाहिये ? सरदार जी, आपने खुद तो मंगाया ।”
“बोला न, नहीं चाहिये ।”
“लिस्ट में नाम दर्ज है आपका । हर हफ्ते दो क्रेट एन्टीकिटी, हर तीसरे हफ्ते दो क्रेट वैट-69...”
“बहरा है ? बोला न नहीं चाहिये ।”
“सरदार जी, कोई वजह भी तो बताओ ।”
“क्यों बतायें, भई ?”
“मेरा साहब भी तो पूछेगा । मैं उसे कोई वजह नहीं बताऊंगा तो वो यही कहेगा कि मैंने पूछा नहीं । सरदार जी, मेरी नौकरी क्यों दुश्वार करते हो ?”
“हमने माल किसी और से लेना शुरू कर दिया है ।”
“किसी और से लेना शुरू कर दिया है ? अगर रेट का फर्क है तो....”
“रेट का फर्क है । माल का भी फर्क है । फूट जा अब । दोबारा कभी इधर न आना । पुलिस पकड़ लेगी ।”
हैरान पशेमान अचरज लाल वहां से रुख्सत हुआ ।
उसका तीसरा और आखिरी पड़ाव शंकर रोड था जहां कि कल्पना नाम का एक लाइसेंसशुदा बियर बार था लेकिन जहां विस्की गैकरानूनी ढंग से बिकती थी ।
‘कल्पना’ में उसने चार क्रेट वाइट हार्स छोड़नी थी ।
वहां से भी अचरज लाल को लोधी वाला ही जवाब मिला ।
नहीं चाहिये । आगे भी नहीं चाहिये । माल किसी और से लेना शुरू कर दिया ।
हैरान पशेमान वो दरियागंज वापिस लौटा ।
भोगीलाल के पास ‘न्यू शेरे पंजाब’ और ‘कल्पना’ से सम्बन्धित खबरें भी पहुंचीं ।
उसने चन्द्रेश सिंह को फोन लगाया ।
“मैं भोगीलाल बोल रिया हूं ।” - जवाब मिला तो वो बोला ।
“राम राम, लाला जी । कैसे याद किया ?”
“अबे, ये क्या हो रिया है ? तेरे साहब की लिस्ट के मुताबिक जिधर भी माल भेजा, लेने की टाल हो गयी ।”
“टाल हो गयी ? लिस्ट में तो सब पक्के ग्राहक दर्ज हैं ।”
“अरे, पक्के गिराहक ऐसे होवें हैं कि दूसरे से माल लेने लगे ?”
“अब मैं क्या बोलूं ?”
“और कौन बोले ? मुम्बई जाने से पहले बिरजवासी मेरे को बोल के गया कि सप्लाई की बाबत कोई बात हो, कोई पिराब्लम हो तो मैं चन्द्रेश सिंह को बोलूं । इब तेरा साहब इस दुनिया में नहीं है तो उसका हुक्म तेरे पर लागू होना बन्द हो गया ?”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“मन्ने तो ऐसा ही दीखे है । तभी तो ‘मैं का बोलूं’ जैसी जुबान बोल रिया है ?”
“लाला जी, अगर मेरे साहब के धन्धे में पंगा पड़ रहा है तो पड़ने दीजिये, आपको क्या ?”
“अबे, ये कौन सी जुबान बोल रिया है ?”
दूसरी ओर से आवाज न आयी ।
“और मेरे को है । सुन क्या है मेरे को । अब बिरजवासी का धन्धा भी मेरा धन्धा है । समझा ?”
“मैं तो समझा...”
“इसलिये खबरदार, जो आइन्दा कभी ‘मेरे को क्या’ बोला ।”
“लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“बखेड़ा होगा ।”
“क्या बखेड़ा होगा ?”
“मुसीबत होगी ।”
“क्या मुसीबत होगी ?”
“फोन पर समझाना मुश्किल है ।”
“तो कैसे समझायेगा ?”
“रूबरू समझाऊंगा । मुलाकात का मौका दीजिये ।”
“यानी कि समझाने लायक है कुछ ?”
“है तो सही ।”
“जो कि तू छुपा रिया है ।”
“छुपा नहीं रहा, लाला जी कहते नहीं बन रहा ।”
“क्यों नहीं बन रहा ?”
“आप भड़क जायेंगे ।”
“ऐसी क्या बात है ?”
“फोन पर नहीं बता सकता ।”
“अरे, कोई तो वजह तो हो । क्यों नहीं बता सकता ।”
“किसी का नाम लेना पड़ेगा, जो कि फोन पर ठीक नहीं होगा ।”
भोगीलाल खामोश हो गया ।
“हल्लो !” - उसे चन्द्रेश सिंह का व्यग्र स्वर सुनायी दिया ।
“कोई धन्धे पर काबिज होने की कोशिश कर रिया है ?” - भोगीलाल बोला ।
“लाला जी, गुजारिश है, फोन पर ऐसी बातें न करें ।”
“लेकिन बात यही है । इतनी हां न तो बोल ।”
“हां ।”
“बिरजवासी के धन्धे पर ?”
“आपके भी ।”
“क्या !”
“मुलाकात का मौका दीजिये । सब समझाऊंगा ।”
“मैं... मैं तुझे सुबह फोन करूंगा ।”
“ठीक है ।”
“आठ बजे । फोन पर रहना । समझ गया ?”
“समझ गया जी ।”
निहायत फिक्रमन्द भोगीलाल ने फोन बन्द किया ।
भोगीलाल के दस आदमी एक मैटाडोर वैन पर ग्रेटर कैलाश पार्ट टू पहुंचे । मैटाडोर ‘मेफेयर’ के सामने पार्किंग में जाकर खड़ी हुई ।
ग्यारह बजे ‘मेफेयर’ के शीशे के दरवाजे पर क्लोज्ड की तख्ती लटकी दिखाई देने लगी । ग्यारह दस तक रेस्टोरेंट ग्राहकों से खाली हो गया । सवा ग्यारह बजे वो लोग मैटाडोर से बाहर निकले । सब हाकियों, लोहे की छड़ों और साइकल चेनों से लैस थे ।
वे रेस्टोरेंट के बन्द दरवाजे पर पहुंचे ।
उनका इस बात की तरफ ध्यान न गया कि जिस दरबान को उन्हें रोकना चाहिये था, वो उनके करीब आते ही परे हट कर, पीठ फेर कर खड़ा हो गया था ।
बगूले की तरह वे भीतर दाखिल हुए ।
भीतर दाखिल होते ही जैसे उन्हें सांप सूंघ गया ।
सामने उनसे कहीं बेहतर हथियारों से लैस उनसे दुगने आदमी खड़े थे ।
फिर खामोशी से और बड़े सुव्यवस्थित तरीके से उन बीस आदमियों ने दस आगन्तुकों की धुनाई शुरू की ।
कोई आवाज नहीं, कोई चीख पुकार नहीं, कोई आह कराह नहीं । फिर भी किसी के मुंह से कोई आवाज निकल जाती थी तो तत्काल ऐसा वार होता था कि दोबारा आवाज हलक में ही फंस कर रह जाती थी ।
“एक को हाथ रोक के” - अली हिदायत दे रहा था - “उसने गाड़ी चलानी होगी ।”
दस मिनट वो सिलसिला चला ।
फिर जैसे एकाएक वो संग्राम शुरू हुआ था, वैसे ही एकाएक बन्द हो गया ।
वली के ‘बस’ कहने की देर थी कि तमाम हाथ रुक गये ।
फिर कुछ खुद मैटाडोर में सवार हुए, कुछ को उठा कर उसमें डाला गया । जिसकी जानबूझ कर कम धुलाई हुई थी, वो ड्राइविंग सीट पर बैठा ।
“दोबारा इधर का रुख न करना ।” - वली ड्राईवर से बोला - “अपने साहब के कहे भी । समझ गया ?”
ड्राइवर ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“जोड़ीदारों को भी समझा लेगा ?”
उसने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया ।
“जानबख्शी बार बार नहीं होती । समझा ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“फूट ।”
मैटाडोर तोप से छूटे गोले की तरह वहां से भागी ।
“बिरादर” - पीछे अली बोला - “मजा नहीं आया ।”
***
आधी रात के करीब तलवार दिन भर की शराब सप्लाई की कैश कलैक्शन गिन कर सेफ में रखने जा रहा था कि ऑफिस में के दोनों सशस्त्र गार्ड ऑफिस में दाखिल हुए ।
“क्या है ?” - वो भुनभुनाता सा बोला ।
दोनों गार्डों ने भयभीत भाव से पीछे इशारा कर दिया ।
तब तलवार को दोनों के पीछे दो युवक दिखाई दिये । दोनों के हाथ में गन थीं जो उन्होंने गार्डों की गुद्दी से लगाई हुई थीं ।
उनके पीछे वैसे ही पांच छ: युवक और थे ।
तलवार घबरा कर मेज पर से नोटों की गड्डियां उठा उठा कर दराजों में डालने लगा ।
“खामखाह जहमत कर रहा है ।” - हाशमी नम्र स्वर में बोला - “तेरा कैश सेफ है ।”
“क... कौन हो ?” - तलवार बोला - “क्या चाहते हो ?”
“स्टाक किधर रखता है ?”
“स्टाक ?”
“जिसकी ये कलैक्शन है ।”
“क्यों पूछते हो ? जब कैश की फिराक में नहीं हो तो....”
हाशमी ने गोली चलाई ।
तलवार का एक कान गोली की चपेट में आ गया ।
तलवार के मुंह से तीखी चीख निकली, वो धम्म से पीछे कुर्सी पर गिरा, उसने अपने दोनों हाथों से कान थाम लिया ।
“किधर रखता है ?”
“तहखाने में ।”
“रास्ता किधर से है ?”
“बाजू में एक स्टोर है, उसमें से ।”
“ढूंढो ।” - हाशमी ने घूम कर आदेश दिया ।
सब जने चले गये ।
पीछे हाशमी के अलावा रहमान और इकबाल रह गया जो कि गार्डों को कवर किये थे ।
“उधर दीवार से लग कर बैठ जाओ ।” - हाशमी बोला - “हाथ सिरों पर रख लो ।”
आदेश का पालन हुआ ।
हाशमी तलवार के सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
रहमान और इकबाल दरवाजे पर खड़े रहे ।
तलवार का चेहरा फक था, वो रुमाल को कान पर दबा कर उसमें से टपकते खून को काबू में करने की कोशिश कर रहा था ।
“कुछ नहीं हुआ ।” - हाशमी ने उसे आश्वासन दिया - “जरा सा नक्का झड़ा है ।”
“क्यों किया ?” - वो कराहता सा बोला ।
“तेरे को मालूम है । यहां जो स्टाक है, वो टोटल स्टाक है ?”
उसने जवाब न दिया ।
“मेरा निशाना अचूक नहीं है । मैंने दूसरे कान पर गोली चलाई तो वो आंख में भी लग सकती है ।”
“यहां वर्किंग स्टाक होता है ।” - वो जल्दी से बोला - “बड़ा गोदाम किंग्सवे कैम्प में है । पता...”
“नहीं चाहिये ।”
उसने हैरानी से हाशमी की तरफ देखा ।
किछ क्षण खामोशी रही ।
“तुम लोग कौन हो ?” - फिर तलवार हिम्मत करके बोला - “क्यों भोगीलाल से बैर मोल ले रहे हो ?”
हाशमी ने उत्तर न दिया ।
दस मिनट बाद बाकी युवक लौटे ।
“दो सौ से ज्यादा क्रेट थे ।” - अनीस बोला - “कुछ लूज बोतलें भी थीं । सब फोड़ दिया ।”
तलवार के चेहरे पर गहन आतंक के भाव आये ।
“भोगीलाल के लाल” - हाशमी उठता हुआ नम्र स्वर में बोला - “तहखाने में जो शराब बह रही है, वो अक्लमन्द को इशारा है । मैं तेरे से ये नहीं पूछूंगा कि तेरा साहब अक्लमन्द है या नहीं लेकिन अगर उसकी अक्लमन्दी का कोई नमूना फौरन सामने न आया तो मैं तेरे से किंग्सवे कैम्प के गोदाम का पता पूछने आऊंगा । शब्बखैर ।”
सब जैसे चुपचाप वहां पहुंचे थे, वैसे ही वहां से रुख्सत हो गये ।
उनके जाते ही मैटाडोर वैन का ड्राइवर गिरता पड़ता वहां पहुंचा ।
उससे भी बुरी खबर के साथ ।
अब तलवार के सामने जो सबसे विकट काम था, वो ये था कि उसने अपने बॉस को सोते से जगा कर ‘अक्लमन्द को इशारा’ पेश करना था ।
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