"अब तो हद हो रही है।" अपनी रिस्टवॉच पर नजर डालते हुए गोडास्कर ने कहा—"मिस्टर हेमन्त पत्र ढूंढ रहे हैं या भूसे में से सुई, पूरे पंद्रह मिनट हो गए हैं—मैं ही देखता हूं।"
"मैं आ गया हूं, इंस्पेक्टर।" हेमन्त तेजी से कमरे में दाखिल होता हुआ बोला—"देरी के लिए माफी चाहता हूं, मगर बात यह थी कि सब चीजें सुचि के चार्ज में रहती थीं न, इसीलिए ढूंढने में थोड़ी दिक्कत आई।"
"लगता है, अंत में आप कामयाब हो ही गए।"
"ज...जी क्या मतलब?"
"मेरा इशारा तुम्हारे हाथ में मौजूद इस कागज की तरफ है।"
"ओह हां—यह लीजिए।" कहते हुए हेमन्त ने पत्र उसकी तरफ बढ़ा दिया—"आप खुद देख लीजिए, यूं देखने पर राइटिंग में कोई फर्क नजर नहीं आता, मगर मेरा दिल कहता है कि इन दोनों में कोई फर्क जरूर निकलेगा।"
"राइटिंग का जो विवाद तुमने खड़ा किया है मिस्टर हेमन्त, यह तुम्हें शाम या ज्यादा-से-ज्यादा कल तक बचा पाएगा, क्योंकि तब तक रिपोर्ट आ जाएगी।"
कसमसाकर चुप रह गया हेमन्त।
कुछ देर के लिए वहां खामोशी छा गई, ऐसी खामोशी जो हरेक को शूल की तरह चुभने लगी—फिर भी हेमन्त अपनी कारगुजारी पर थोड़ा खुश था—किसी भी हद तक सही, मगर वह उस घाघ इंस्पेक्टर को धोखा देने में सफल जरूर हो गया था, अचानक गोडास्कर ने कहा—"मैं आपको इसी वक्त गिरफ्तार करता हूं, मिस्टर अमित।"
सभी उछल पड़े, गोडास्कर के शब्दों ने बम के विस्फोट का-सा काम किया था—और अमित के तो देवता ही कूच कर गए, काटो तो खून नहीं।
चेहरा निचुड़-सा गया।
"क...किस जुर्म में।" हेमन्त चीख-सा पड़ा—"अमित पर ऐसा क्या एक्स्ट्रा आरोप हैं, जो हम पर नहीं।"
"हापुड़ से एक कार चुराकर बुलंदशहर तक लाए हैं यह।"
गड़गड़ाकर बिजली उनके सिर पर गिरी, अमित बेचारा तो आतंक की प्रतिमूर्ति-सा नजर आने लगा था, हकला उठा—"ल...लेकिन...।"
"आपने कार चुराई थी—यह आप कुछ ही देर पहले खुद स्वीकार कर चुके हैं।"
"ज...जी हां।"
"बस—मैं आपको उसी जुर्म में गिरफ्तार कर रहा हूं।"
गिरफ्तारी के नाम मात्र से अमित के प्राण कण्ठ में फंसे थे—सभी कसमसाकर रह गए, कुछ कर नहीं सकते थे बेचारे—दरअसल इस बड़े झमेले में कार चोरी जैसी मामूली घटना उनके दिमागों में ही न थी।
बिशम्बर गुप्ता और ललिता हक्का-बक्का रह गए।
"फिक्र मत करना अमित, तुम पर कोई बहुत बड़ा आरोप नहीं है।" हिम्मत करके हेमन्त ने कहा—"हम तुम्हें जेल तक नहीं पहुंचने देंगे, आज दिन में कचहरी से ही जमानत करा लेंगे तुम्हारी।"
आंखों में खौफ लिए दयनीय भाव से अमित ने उसे देखा।
हेमन्त को लगा कि वह बहुत डरा हुआ था, अचानक उसके दिमाग में यह ख्याल आया कि दहशतग्रस्त अमित कहीं कुछ बक न दे?
उस विचार ने उसके दिमाग की जड़ों को झंझोड़ डाला।
अचानक उसे लगा कि कार चोरी का आरोप तो मात्र बहाना था, वास्तव में गोडास्कर ने उसे सुचि वाले केस के बारे में सवालात करने हेतु अपने चार्ज में लिया था।
कांप उठा हेमन्त।
इस बारे में उसने जितना सोचा, घबराहट बढ़ती ही गई। उसे लगा कि अमित गोडास्कर के सवालों के सही जवाब देना तो दूर, संतुलित भी नहीं रह पाएगा—चालाक गोडास्कर डरा-धमका कर या बातों के जाल में फंसाकर कुछ उगलवा ही लेगा।
हेमन्त को खेल खत्म-सा लगा।
अंत में गोडास्कर अपनी चाल चल गया था और वह कुछ भी नहीं कर सकता था।
"चलिए मिस्टर अमित।" गोडास्कर की यह आवाज हेमन्त के कान में पड़ी, वह किसी पागल की तरह चीख पड़ा—"हौसला रखना अमित, अपने बड़े भाई पर यकीन रखना—मैं किसी को भी ऐसे किसी अपराध में फंसने नहीं दूंगा, जो हमने किया नहीं है।"
¶¶
पुलिस चली गई।
इंस्पेक्टर गोडास्कर नाम की वह आफत चली गई, जो सामने वाले के पेट से गैस का गोला उठा दिया करती थी, मगर वह अमित को ले गया था, शायद इसलिए ड्राइंगरूम में काफी देर तक खामोशी छाई रही—बीच-बीच में वे एक-दूसरे की तरफ डरी-सहमी निगाहों से देख लेते थे।
हेमन्त धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
थका-सा वह धम्म् से एक सोफे पर गिर पड़ा।
उसी क्षण, रेखा ने ड्राइंगरूम में कदम रखा—उसके चेहरे पर वैसे ही भाव थे जैसे शेर के सामने बंधी बकरी के चेहरे पर होते हैं—जाहिर था कि उसने ड्राइंगरूम के उस दरवाजे के पीछे खड़ी होकर सब कुछ सुना था जो अन्दर वाली गैलरी में खुलता था।
अचानक बिशम्बर गुप्ता बड़बड़ा उठे—"अब क्या होगा हेमन्त?"
"आप फिक्र न करें, बाबूजी, भगवान ने चाहा तो सब ठीक ही होगा।"
"अगर भगवान की ही नजर तिरछी न होती तो इतना सब कुछ क्यों होता?" ललितादेवी कह उठीं—"जाने वह कौन से जन्म के बदले ले रहा है हमसे?"
"वह अमित को ले गया है, क्या इससे तुम्हें डर नहीं लग रहा है, हेमन्त?" बिशम्बर गुप्ता ने पूछा।
"लग रहा है, मगर इसमें उससे ज्यादा हम कर ही क्या सकते थे बाबूजी, जितना मैंने किया, सांकेतिक भाषा में मैंने उसे समझा दिया है कि जो बयान पुलिस को दिया गया है, उससे हटकर गोडास्कर को कुछ न बताए।"
"तुम्हारे कहने से शायद कुछ नहीं होगा, पुलिस के हथकंडों को हम जानते हैं—अगर वे चाहें तो सख्त-से-सख्त मुजरिम से हकीकत उगलवा लेते हैं—पुलिस के पास ढेरों तरीके होते हैं, उनके सामने अमित शायद ठहर न सके।"
"शायद ठहर सके—यह उम्मीद लगाने से ज्यादा हम कर ही क्या सकते हैं?"
"अगर उससे गोडास्कर ने सब कुछ उगलवा लिया तो...।"
"आइडिया।" चुटकी बजाता हुआ हेमन्त अचानक सोफे से खड़ा हो गया, बोला—"अमित को पुलिस की पूछताछ से बचाने का रास्ता है, बाबूजी।"
"क्या?"
"आपके तो शहर के लगभग सभी वकील जानकार हैं, जानकार ही नहीं बल्कि कहना चाहिए कि इज्जत करते हैं आपकी—आप किसी अच्छे वकील को इसी समय थाने भेज सकते हैं, उसके सामने पुलिस अमित को किसी तरह टॉर्चर नहीं कर पाएगी—वह कोर्ट के टाइम तक वहीं रहे और अपनी देख-रेख में अमित को मजिस्ट्रेट के सामने पेश कराए—कार चोरी का केस मायने नहीं रखता, जमानत आसानी से हो जाएगी।"
बिशम्बर गुप्ता ने गंभीर स्वर में कहा—"यह सब हो तो जाएगा हेमन्त, मगर...।"
"म...मगर क्या बाबूजी?"
"तू आखिर करना क्या चाहता है, कुछ पता तो चले?"
"क्या मतलब?"
"माना कि अमित से पुलिस को कुछ पता नहीं लगता, दिन में किसी समय हम उसकी जमानत भी करा लाते हैं, मगर इससे होगा क्या—जो संदेह हम पर किया जाता है, क्या उससे मुक्त हो सकेंगे?"
"कोशिश तो कर रहा हूं, बाबूजी।"
"क्या कोशिश कर रहे हो, हमारा ख्याल तो यह है कि जो कुछ तुम कर रहे हो, उससे पल-पल हम लोग मुसीबत की दलदल में और ज्यादा धंसते जा रहे हैं।"
"मैं समझा नहीं।"
"सबसे पहले तो यह बताओ कि तुमने पुलिस से झूठ क्यों बोला, यह क्यों कहा कि रात तुम घर ही में थे?"
"क्योंकि सच मैं बता नहीं सकता था, उसे प्रूव नहीं कर सकता था।"
"क्यों नहीं बता सकते थे और रही प्रूव करने की बात—ओवरटाइम करने वाला, तुम्हारी फैक्टरी का हर वर्कर गवाही देता कि फैक्टरी में सारी रात काम चला है और तुम सारी रात फैक्टरी में ही थे।"
"ऐसा नहीं होता, क्योंकि दरअसल रात न तो फैक्टरी में कोई काम हुआ है, न ही मैं वहां था।"
"क...क्या मतलब?" बिशम्बर गुप्ता बुरी तरह उछल पड़े—"फिर कहां थे तुम, सारी रात क्या करते रहे?"
हेमन्त गंभीर हो गया, बोला—"अगर इस सवाल को आप छोड़ ही दें तो ज्यादा बेहतर होगा बाबूजी, बताते हुए मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा।"
"क्या बकवास कर रहे हो तुम?" बिशम्बर गुप्ता उफन पड़े—"हमें पहली बार इल्म हुआ कि तुम कोई ऐसा काम करते हो, जिसे बताते हुए तुम्हें शर्म आएगी और हमसे झूठ भी बोलते हो, बताओ कि वास्तव में रात-भर तुम कहां रहे?"
"होटल में।" हेमन्त ने गर्दन झुका ली।
"होटल?" बिशम्बर गुप्ता चौंक पड़े—"होटल में क्यों?"
"क्योंकि रात मैंने शराब पी थी।"
"श...शराब?" बिशम्बर गुप्ता की हालत ऐसी हो गई जैसे पागल होने वाले हों—हिस्टीरियाई अंदाज में चीख पड़े वे—"त...तुम शराब भी पीते हो?"
"आदतन नहीं पीता, कभी-कभी मजबूरी में पीनी पड़ती है।"
"उफ—हे भगवान, यह क्या सुन रहे हैं हम—जिंदगी के अंतिम क्षणों में ये क्या-क्या दिखा रहा है तू हमें—क्या औलाद का यही रूप देखने के लिए हम जिंदा थे?"
हेमन्त की आंखों में आंसू भर आए, बोला—"आपको ठेस लगेगी, मजबूरी में जो कुछ मुझे करना पड़ता है, वह आपको पसंद नहीं आएगा, इसीलिए जब कभी पीनी पड़ती है तो मैं घर नहीं आता—किसी होटल में कमरा लेकर रात गुजार देता हूं।"
"क्यों—आखिर क्या मजबूरी है तेरी?"
"आपने जिंदगी में कभी रिश्वत नहीं ली—रिश्वत के रूप में पैसे के लेन-देन को ही आप घृणित रूप में देखते हैं—शराब पीना तो आपकी नजर में ऐसा जुर्म है जिसे कभी माफ नहीं किया जा सकता और यही तालीम आपने हम सबको भी दी, घर का माहौल ही ऐसा बनाया कि इस किस्म की बातों के लिए यहां कोई जगह न थी।"
दर्द से बिलबिलाते बिशम्बर गुप्ता बोले—"तभी तो तुमने हमें ये दिन दिखाया, बेटे!"
"ऐसा मत कहिए बाबूजी, यकीन मानिए—आपका बेटा खुशी से यह सब नहीं करता।"
"हम तेरी वह मजबूरी जानना चाहते हैं।"
एक पल ठहरने के बाद हेमन्त ने बताया—"रिश्वत न लेकर आपका काम चल गया होगा बाबूजी, लेकिन जरा सोचिए, आप जैसे कितने हैं—मैं दावे के साथ कहता हूं कि शायद लाखों में एक निकले—मगर वह एक आसानी से नहीं मिलता बाबूजी, अगर उस के को ढूंढते रहें तो बिजनेस नहीं चल सकता—आपको याद होगा, शुरू-शुरू में जब मैंने फैक्टरी डाली थी तो एक साल तक मैं घाटे में जाता रहा—मैं प्रोडक्शन करता, मगर माल की सप्लाई ही कहीं न थी, फैक्टरी में माल के चट्टे लग गए—मैं हर कम्पनी के पास जाता, अपने माल की क्वालिटी बताता परन्तु ऑर्डर कोई न देता—उदार किस्म के हमपेशा लोगों ने बताया कि मुझे ऑर्डर लेने का तरीका नहीं आता है, ऑर्डर तब मिलेंगे जब सम्बन्धित लोगों की जेबें गर्म करूं—उन्हें पार्टी दूं—मगर मैं न माना, आपके सिद्धांतों पर डटा रहा—एक साल गुजर गया, फैक्टरी लगभग ठप्प पड़ गई—बैंक वाले तकादा करने लगे—आप भी डांटते कि मैं कैसा बिजनेस कर रहा हूं, जिसमें कोई इनकम ही नहीं—तब कहीं जाकर मैं आपके आदर्शों से गिरा, हमपेशा लोगों की राय मानी—सम्बन्धित लोगों को रिश्वत दी, शराब पिलाई—मुझे ऑर्डर मिलने लगे—किसी की दिलचस्पी इस बात में नहीं है कि मेरे माल की क्वालिटी क्या है—रिश्वत दे दो, कूड़े को सोना बताने का साहस मुझमें न था—जब दूसरों को पिलाता हूं तो साथ देने के लिए जहर के वे घूंट मुझे भी भरने पड़ते हैं और जिस रात ऐसा होता है, आपके डर से घर नहीं आता—आज ऐसी मजबूरी आ गई कि आपके दिल को ठेस पहुंचाने पर मजबूर हो गया।"
बिशम्बर गुप्ता हैरत से आंखें फाड़े हेमन्त को देखते रह गए।
काफी देर तक वहां खामोशी छाई रही।
हेमन्त ने विनती करने वाले अंदाज में कहा—"आशा है आपने मुझे माफ कर दिया होगा, बाबूजी।"
"अगर बिना रिश्वत के यह काम नहीं चल सकता था तो कोई दूसरा काम कर सकते थे।"
"अब मैं आपको कैसे समझाऊं कि बिना रिश्वत और शराब के आजकल कोई काम नहीं चल सकता—जब आपका किसी से काम नहीं पड़ता और सारी दुनिया का काम आपसे पड़ता है तो आप बिना रिश्वत लिए रह सकते हैं, मगर जब आपका काम किसी से पड़े तो बिना रिश्वत दिए काम नहीं निकल सकता।"
बिशम्बर गुप्ता पर कुछ कहते न पड़ा—ऐसी बात नहीं कि वे बातें उनके इल्म में ही न थीं जो हेमन्त ने कहीं, मगर यह जानकर उन्हें ठेस लगी कि उनका अपना बेटा भी भ्रष्टाचार की दलदल में फंसा हुआ था, बोले—"मगर तुम पुलिस इंस्पेक्टर को वास्तविकता भी तो बता सकते थे।”
"अगर मैं वह वास्तविकता बता देता जो दरअसल प्रूव ही नहीं हो सकती तो हम और ज्यादा फंस जाते, बाबूजी।"
"क्या मतलब?"
"वह इंजीनियर जिसने कल रात मुझसे पार्टी और रिश्वत ली, किसी भी कीमत पर अदालत में यह बयान नहीं दे सकता कि वह रात मेरे साथ था, क्योंकि ऐसा करने से तुरन्त उसकी नौकरी जा सकती थी।”
बिशम्बर गुप्ता उस चक्रव्यूह के बारे में सोचते रह गए, जिसमें हेमन्त फंसा हुआ था, जबकि हेमन्त ने कहा—"मैं इसके अलावा और कोई बयान दे ही नहीं सकता कि रात घर ही पर था।"
रेखा ने पूछा—"मगर आपने मुझसे वह पत्र क्यों लिखवाया भइया?"
"उस चक्रव्यूह से निकलने की कोशिश कर रहा हूं, जिसमें व्यर्थ ही हम सब फंस गए हैं।" हेमन्त ने कहा—"अगर हमने होशियारी से काम नहीं लिया तो बहू के हत्यारों के रूप में सारे समाज में बदनामी तो होगी ही, फांसी के फंदे से भी हमें कोई नहीं बचा सकेगा।"
"मगर पता तो लगे कि तुम करना क्या चाहता हो?"
"सारा दारोमदार सुचि के उस पत्र पर है जो उसने न जाने क्यों अपने पीहर लिखा था, अगर हम उसे फर्जी साबित कर दें तो इस कलंक और बर्बादी से निजात पा सकते हैं।"
"लेकिन उसे फर्जी साबित कैसे किया जा सकता है?"
"सुचि की वास्तविक राइटिंग बनाकर जो पत्र गोडास्कर को दिया है, वह दरअसल सुचि की राइटिंग बनाकर रेखा द्वारा लिखा गया पत्र है—कोई भी साधारण आदमी नहीं ताड़ सकता कि पत्र अलग व्यक्तियों ने लिखे हैं।"
"मगर एक्सपर्ट को फर्क ढूंढने में कोई देर नहीं लगेगी।"
"जानता हूं, इसलिए मैंने यह सब कुछ किया भी है—जरा सोचिए, एक्सपर्ट कहेगा कि दोनों पत्र लिखने वाले व्यक्ति भिन्न हैं—रेखा से लिखे पत्र को गोडास्कर सुचि का लिखा समझ ही रहा है तो क्या एक्सपर्ट की रिपोर्ट मिलते ही वह इस नतीजे पर नहीं पहुंचेगा कि पीहर से प्राप्त सुचि का पत्र किसी नकल एक्सपर्ट ने लिखा है?"
बिशम्बर गुप्ता मन-ही-मन अपने बेटे के दिमाग की तरीफ कर उठे।
रेखा बोली—"मगर भइया, पुलिस सुचि भाभी के घर से उनकी पुरानी राइटिंग लेकर भी तो मिलान कर सकती है—उस अवस्था में यह साबित होते देर न लगेगी कि दरअसल वह पत्र नकली राइटिंग में है, जो हमने दिया है।"
"ऐसा हो सकता है, मगर होगा नहीं, क्योंकि गोडास्कर के दिमाग में यह सवाल आने का कोई कारण ही नहीं है कि हमारे द्वारा दिया पत्र नकली हो सकता है और हममें से कोई पत्र भी नकल माहिर हो सकता है।"
"मगर बहू की लाश का क्या होगा?"
"हां—इस वक्त हमारे सामने सबसे अहम दिक्कत सुचि की लाश है, गनीमत रही कि गोडास्कर ने सुचि के कमरे का निरीक्षण करने की कोई इच्छा नहीं रखी, वरना उसे ऊपर जाने से रोकना शायद असंभव हो जाता और उस अवस्था में इस वक्त हम सबके हाथों में हथकड़ियां पड़ी होतीं।"
"लेकिन यह भी तो सोचो हेमन्त कि इस तरह हम उसे कब तक छुपाए रहेंगे, सुचि की खोज के लिए इन्वेस्टीगेशन शुरू हो चुकी है, पुलिस जिसे तलाश करती है, सबसे पहले उसके पर्सनल सामान और कमरे की तलाशी लेती है, क्योंकि वहीं से गुमशुदा व्यक्ति का पता निकलने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती हैं—इस वक्त तो शायद सर्च वारंट के अभाव में गोडास्कर ने ऐसी कोई इच्छा जाहिर नहीं की, मगर हमारा ख्याल है कि शीघ्र ही वह सर्चवारंट के साथ पुनः यहां आ धमकेगा।"
"आप ठीक कह रहे हैं।"
"उस वक्त हम क्या करेंगे??"
"मेरा ख्याल है कि हमारा सबसे पहला काम लाश को वहां से हटाकर मकान के किसी अन्य हिस्से में रखना होना चाहिए।"
"इससे क्या होगा?"
"गोडास्कर के दोबारा यहां पहुंचने से पहले ही हम कमरे को इतना व्यवस्थित कर देंगे कि उसके फरिश्ते भी यह पता न लगा सकें कि कभी वहां सुचि की लाश थी।"
"क्या गोडास्कर को धोखा देने से ही हमारी सारी दिक्कतों का समाधान हो जाएगा—लाश को घर में कब तक रख सकेंगे हम, उसमें से बदबू उठने लगेगी—अड़तालीस घंटे बाद तो हालत यह हो जाएगी कि मौहल्ले वाले थाने में जाकर बदबू की रिपोर्ट करने लगेंगे।"
"ऐसा होने से पहले ही हमें लाश घर से बाहर निकालनी पड़ेगी।"
“लाश को कहां ढोते फिरोगे तुम?”
"मजबूरी है बाबूजी, लाश को हम अपने घर में नहीं दिखा सकते।"
"मगर लाश को कैसे और कहां ले जाएंगे?"
"जैसे भी हो, यह काम तो हमें करना ही है—रात के किसी भी वक्त लाश को घर से निकालेंगे और कहीं दूर, जंगल में डाल आएंगे।"
बिशम्बर गुप्ता के प्राण खुश्क हो गए—"यह क्या बक रहे हो तुम?"
"मजबूरी है बाबूजी।"
"यह काम होगा कैसे?"
"सोचना पड़ेगा, बल्कि पूरी योजना बनानी पड़ेगी हमें—हमारे पास शाम तक का वक्त है, कोई ऐसी ठोस योजना बनाएंगे—उस पर अमल करके लाश को न सिर्फ यहां से निकाल दें, बल्कि ऐसे इंतजाम भी कर दें कि जब भी, जहां भी सुचि की लाश पुलिस को मिले—वह हम पर संदेह न कर सके।"
"म...मगर यह बहुत झमेले का काम है, हेमन्त। हम कहीं भी—किसी भी क्षण रंगे हाथों पकड़े जा सकते हैं, नहीं—मैं तुम्हें यह खतरनाक काम करने की सलाह नहीं दूंगा।"
"तो फिर आप ही बताइए, क्या करें?"
बिशम्बर गुप्ता एकदम कुछ नहीं बोले—जो कुछ हेमन्त ने कहा था, दरअसल उसे सुनकर उनके होश फाख्ता हुए जा रहे थे—एक नजर उन्होंने ललिता और रेखा पर डाली—वे इस कदर स्तब्ध खड़ी थीं, जैसै पत्थर की मूर्ति हों, एक गहरी सांस छोड़ते हुए वे बोले—"मेरा ख्याल यह है कि गोडास्कर को यहां बुलाकर उसे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिएं।"
"क्या ऐसा आप कर नहीं चुके हैं?"
"क्या मतलब?"
"लाश घर में है, इस हकीकत के अलावा हमनें और उससे छुपाया ही क्या है—जो कुछ हमारे साथ हुआ, क्या वह सब कुछ ज्यों-का-त्यों उसे साफ-साफ नहीं बता दिया, मगर क्या उसने यकीन किया—क्या उसने माना कि हम दहेज के लालजी नहीं हैं, हमने कभी सुचि से पैसे नहीं मांगे और हम उसे बहुत प्यार करते थे—क्या गोडास्कर ने हमारी इस बात पर यकीन किया बाबूजी कि अमित सचमुच हेयर पिन लेने बराल से लौटा था और हमें वास्तव में यह नहीं मालूम कि सुचि के साथ क्या हुआ?"
"नहीं, उसे हमारी किसी बात पर यकीन नहीं।"
"उसे ही क्या किसी को भी नहीं आएगा—हर व्यक्ति हमें सुचि के हत्यारे समझेगा, अदालत तक हमारा यकीन नहीं करेगी।”
बिशम्बर गुप्ता किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गए।
जोश के साथ-साथ हेमन्त भावुकता से भी भर उठा, कहता चला गया वह—"तब, यही हकीकत बता देने से वह हम पर कैसे यकीन कर लेगा कि लाश हमारे घर में है—फिलहाल की स्थिति में तो हम यहां खड़े बातें भी कर रहे हैं, अगर ज्यादा हकीकत बता दें तो शायद जेल की अलग-अलग बैरकों में पड़े हों—जरा सोचिए, क्या वह इस बात पर यकीन करेगा कि जिस कमरे में मैं सारी रात सोता रहा, उसे पता ही न चला—पुलिस यह पूछेगी कि सुचि कोठी में कब और कैसे आ गई तो हम क्या जवाब देंगे—किसी भी सवाल का हमारे पास ऐसा जवाब नहीं है, जिस पर लोग यकीन कर सकें—बड़ी आसानी से यह बात साबित हो जाएगी कि खुद सुचि की हत्या करने के बाद हम, अब इसको आत्महत्या का मामला बनाने की कोशिश कर रहे हैं।"
सनसनी, सन्नाटा!
"जिन हालातों में हम फंसे हैं, उनमें भगवान किसी को न फंसाए बाबूजी।" कहता-कहता हेमन्त जाने क्यों रो पड़ा—"पोते को खिलाने-दुलारने के अरमान आज मम्मी और आपके दिल में लाश बन गए हैं, रेखा और अमित ने वह भाभी खो दी है जिसके साथ चुहल करते-करते जाने कब इनका दिन गुजर जाता था और म...मैं...मैं तो अपने दिल की रानी, अपनी जिंदगी की मौत पर दो आंसू भी नहीं बहा सकता बाबूजी, लोग उन्हें भी नकली समझेंगे—हंसेंगे, खिल्ली उड़ाएंगे मेरी—व्यंग्य कसेंगे मुझ पर।"
रेखा और ललितादेवी फफक-फफककर रो पड़ीं।
बिशम्बर गुप्ता का सारा जिस्म सूखे पत्ते-सा कांप गया था, उनके चेहरे पर जज्बातों की आंधी उड़ रही थी और लाख संभालने के बावजूद आंखों से आंसू छलछला उठे, भावकुता के भंवर में फंसे वे बोले—"र...रोता क्यों है, बेटे—कायर कहीं के—मर्द भी कहीं रोते हैं?"
और यह पहला अवसर था जब ऐसा लगा कि उस घर का कोई ऐसा सदस्य मर गया है, जिससे वे लोग बहुत प्यार करते थे।
हेमन्त सोफे में चेहरा छुपाकर बिलख पड़ा।
सारे बांध टूट गए, सारा डर जाने कहां चला गया?
हेमन्त इस कदर टूटकर रोया था कि बिशम्बर गुप्ता, ललिता और रेखा के भी कलेजे दहल उठे—कल तक उनकी कल्पनाओं में जो पोता उभरता था, वह इस वक्त उभरा तो दीवारों से सिर टकरा-टकराकर खुद को लहूलुहान कर लेने की तीव्र आरजू बिशम्बर गुप्ता के दिल की गहराइयों से निकली, मगर खुद तो नियंत्रित करके आगे बढ़े, हेमन्त के नजदीक पहुंचकर प्यार से उसके बाल सहलाते हुए बोले—"हौसला रखो हेमन्त, दिल छोटा नहीं करते बेटे—भगवान को शायद यही मंजूर था।"
हेमन्त ने एक झटके से चेहरा ऊपर उठाया।
उफ—आंसुओं से तर था वह चेहरा।
सुर्ख आंखों से उन्हें घूरता हुआ बोला—"अगर मैं अपने दिल की बात किसी से कहूं तो वह यकीन नहीं मानेगा, मगर आप—आप तो मेरी बात पर यकीन करेंगे न बाबूजी?"
"हां—हां बेटे, क्यों नहीं—बोल, क्या कहना है तुझे।"
"मैं—मैं सुचि से बहुत प्यार करता था बाबूजी।"
"प...पगले, यह बात भी कहीं कहने की है?" बिशम्बर गुप्ता तड़प उठे।
"म...मुझे कहने दीजिए बाबूजी।" हद दर्जे की दीवानगी से भरा हेमन्त कहता चला गया—"कहने दीजिए मुझे, अगर आप सुनने की ताकत रखते हैं तो सुनिए, मैं आप, मम्मी, रेखा और अमित से भी ज्यादा प्यार सुचि को करता था—अपने बेटे का नाम तक रख लिया था मैंने—अगर सुचि साधारण मौत मरी होती तो अब तक मैं भी जाने कब का मर चुका होता। अगर अब, इन हालातों में मैं मर भी तो नहीं सकता—लोग शायद तब भी यही कहेंगे कि हेमन्त अपनी बीवी का मर्डर करने के बाद, उसके समीप अपनी शक्ल से मिलता-जुलता पुतला डालकर कहीं भाग गया है।"
"कैसी बात कर रहे हो मेरे बच्चे, तुम पागल हो गए हो क्या?"
"हां-हां बाबूजी—मैं पागल हो गया हूं।" कहने के साथ ही वह बिशम्बर गुप्ता से लिपटकर बिलख प़ड़ा।
¶¶
करीब तीस मिनट की भरपूर कोशिश के बाद वे तीनों हेमन्त को नियंत्रण में ला सके, अजीब से भावुकतायुक्त जोश में भरा वह कह उठा—"अब तो मेरी जिंदगी का केवल एक लक्ष्य रह गया है, यह जानना कि सुचि किस चक्कर में उलझी हुई थी, अपने घर उसने झूठा पत्र क्यों लिखा और आत्महत्या क्यों की?"
"यही सब तो हम भी पता लगाना चाहते हैं, हेमन्त।"
"उसके लिए हमें टाइम चाहिए और टाइम के लिए हमें पुलिस और कानून से टकराना पड़ेगा बाबूजी, क्योंकि अगर हम ढीले पड़े, डरे—तो कानून हमें समय नहीं देगा—अगर सच्चाई की राह पर रहे, सुचि की लाश इसी कोठी से पुलिस को बरामद करा दी तो अंजाम आप जानते ही हैं, क्योंकि वह बहुत स्पष्ट है।"
"ल...लेकिन बेटे, हम यह कह रहे हैं कि जो कुछ करने की तुम सोच रहे हो, वह सब करते अगर रंगेहाथों पकड़े गए तो अंजाम और भी बुरा होगा।"
"हर हालत में एक ही अंजाम है, जिल्लत—फांसी—न उसके आगे कुछ है बाबूजी, न पीछे—फिर क्यों न हम खुद को एक मौका दें—यह भी तो हो सकता है कि हम सफल हो जाएं, दुनिया और कानून के सामने साबित कर सकें कि हम निर्दोष हैं।"
"हम तो यह जानते हैं हेमन्त कि कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं, हम खुद को उनसे कुछ क्षण, कुछ दिन या कुछ महीनों के लिए बचा जरूर सकते हैं परन्तु अंतिम जीत उन्हीं की होगी—एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब वे हमारी गर्दन पर होंगे।"
"मेरे ख्याल से खुद को बेगुनाह साबित करने की कोशिश करना कोई गुनाह नहीं।"
"अगर हम पकड़े गए तो दूसरी बातों की तरह हमारी इस बात पर भी कोई यकीन नहीं करेगा कि यह सब हम खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए कर रहे थे।"
"जानता हूं, मगर यदि हम खुद को बेगुनाह साबित करने में कामयाब हो गए, तब शायद न तो हमारे द्वारा अभी तक की गई कोई भी हरकत गुनाह की श्रेणी में आएगी और न ही वह सब जो आगे करना चाहते हैं।"
"मगर यह काम बहुत मुश्किल और खतरनाक है।"
"क्या सिर्फ इसलिए हम संघर्ष करना छोड़ दें?"
"क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?"
"ऐसा ही समझिए, मैं पता लगाकर रहूंगा कि सुचि ने किन हालातों में फंसकर वह पत्र लिखा? बीस हजार रुपए किसके लिए मंगवाए? मैं उन रहस्यमय हालातों का पर्दाफाश जरूर करूंगा, जिनमें फंसकर सुचि ने आत्महत्या की।"
"जैसी तुम्हारी मर्जी।" बिशम्बर गुप्ता ने हथियार डाल दिए।
हेमन्त ने स्पष्ट पूछा—"क्या आप इस राह पर मेरे साथ हैं?"
"बेटा बाप की लाठी भले ही न बने मगर बाप अपनी अंतिम सांस तक बेटे का संरक्षक रहता है और वह हम भी रहेंगे।"
"थ...थैंक्यू बाबूजी।" हेमन्त ने खुद को भावुक होने से रोका।
"अब बोलो, क्या करना चाहते हो तुम?"
"आप इसी वक्त किसी वकील के पास चले जाइए, मैं मम्मी और रेखा की मदद से सुचि की लाश को ठिकाने लगाने का काम करता हूं।”
बिशम्बर जी ने अपने एक परिचित के घर का दरवाजा खटखटाया। एडवोकेट नकवी ने दरवाजा खोलकर उन्हें दरवाजे पर खड़े देखा तो हैरान रह गया—“अरे! मेरे गरीबखाने पर गुप्ता जी! वह भी इतना सुबह।”
"काम ही कुछ ऐसा आ पड़ा नकवी।"
"अ...आपको और मुझसे काम?" अपने आश्चर्य पर भरपूर चेष्टा के बावजूद नकवी काबू नहीं पा सका—"जिसको सारी जिंदगी किसी से कोई काम नहीं पड़ा उसे मुझसे काम—मैं बड़ा नसीब वाला हूं, गुप्ताजी, मगर ऐसा भी क्या काम था कि आपको खुद आना पड़ा, किसी के हाथ खबर भेज दी होती, मैं खुद हाजिर हो जाता।"
"हमेशा प्यासे को कुएं के पास आना पड़ता है नकवी।"
"कुएं तो हमेशा आप ही रहेंगे गुप्ताजी।"
"तुम इतना सम्मान देते हो, यह तुम्हारा बढ़प्पन है नकवी।"
"आइए, तशरीफ लाइए।" यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि नकवी उन्हें दरवाजे से ड्राइंगरूम तक अपनी पलकों पर बैठाकर लाया और ऊंची आवाज में बोला—"अरी ओ नबीसा, कुछ नाशता ला—देख, आज हमारे यहां हजरत मोहम्मद आए हैं—नसीब खुल गए तेरे।"
"नाश्ता रहने दो नकवी और तैयार हो जाओ, जहां हम तुम्हें भेजना चाहते हैं, वहां जल्दी-से-जल्दी पहुंचना है।"
"आप हुक्म कीजिए, अगले पल मैं वहीं नजर आऊंगा।"
"तुम्हें कोठियात थाने जाना है।"
"थ...थाने।" नकवी चौंक पड़ा—"क्यों?"
"पुलिस ने हमारे छोटे लड़के को पकड़ लिया है।"
"प...पुलिस ने आपके लड़के को, यह मैं क्या सुन रहा हूं खुदा—अमित को किस जुर्म में पकड़ लिया उन्होंने?"
"कार चुराने के जुर्म में।"
"क...कार—अमित कार चुराएगा—हा—हा—हा, लगता है कि आपके इलाके के थानेदार का दिमाग खराब हो गया है।"
"उसने सचमुच कार चुराई थी नकवी।"
"यह आप क्या कह रहे हैं?"
"मगर असल मामला यह नहीं है, इस जुर्म में तो उसकी जमानत कोई छोटा-सा वकील भी कर सकता था—तुम्हारे पास किसी खास मकसद से आना पड़ा।"
"ऐसा क्या कर दिया अमित ने?" नकवी की आंखें गोल हो गईं।
"दरअसल किया किसी ने कुछ नहीं है, मगर हालात ऐसे हैं कि सबको यह लग सकता है कि हमने, बल्कि सारे परिवार ने बहुत कुछ कर डाला है।"
"बात क्या है गुप्ताजी, मैंने पहले कभी आपको इतना निरुत्साहित नहीं देखा।"
फिर, बिशम्बर गुप्ता उससे केवल सुचि की लाश का जिक्र छुपाते हुए सब कुछ बता गए—यह सच्चाई भी उन्होंने नकवी को नहीं बताई कि गोडास्कर को लिखा गया पत्र वास्तव में रेखा ने ही लिखा है।
सुनने के बाद नकवी का चेहरा गंभीर हो गया, सच बात तो यह है कि बिशम्बर गुप्ता अब उसकी आंखों में अपने लिए वह पहले वाला सम्मान नहीं देख रहे थे।
काफी देर तक दोनों के बीच खामोसी छाई रही।
उनके ठीक सामने शांत बैठा नकवी निरन्तर उन्हें घूरे जा रहा था, बिशम्बर गुप्ता की खुद्दारी को धक्का-सा लगा, बोले—"क्या सोचने लगे, नकवी?"
"कुछ खास नहीं।" नकवी बोला—"अगर आप बुरा न मानें गुप्ताजी तो क्या वकील होने के नाते मैं आपसे चंद सवाल पूछ सकता हूं?"
"जरूर।" कहते वक्त बिशम्बर गुप्ता का दिल जाने क्यों जोर-जोर से धड़कने लगा—नकवी ने दूसरी बदतमीजी जेब से सिगार निकालकर सुलगाने की की।
बिशम्बर गुप्ता की छाती पर घूंसा-सा लगा।
वे पहले से ही जानते थे कि नकवी सिगार पीता था, मगर यह भी उन्हें मालूम था कि उन्हें देखते ही या तो छिपा लेता है या फेंक देता है, वह कुछ बोले नहीं जबकि नकवी ने पूछा—"आप मजिस्ट्रेट रहे हैं, अच्छी तरह जानते हैं कि कानूनी कार्यवाही क्या होती है और अदालत में वकील अपनी लड़ाई किस तरह लड़ते हैं?"
बिशम्बर गुप्ता चुप रहे।
सिगार में एक कश लगाने के बाद उसने कहा—"अगर कोई क्लाईट अपने वकील से कुछ छुपाता है तो वह क्लाइंट कोर्ट में मुकदमा जीत नहीं पाता, क्योंकि स्वयं ही अंधेरे में होने के कारण वकील केस पूरी दृढ़ता के साथ नहीं लड़ पाता।"
"हम समझते हैं।"
"इस सारे मामले में कहीं आप मुझसे कुछ छुपा तो नहीं रहे हैं?"
"न...नहीं।" बिशम्बर गुप्ता बड़ी मुश्किल से कह सके।
नकवी ने फिर पूछा—"अच्छी तरह सोच लीजिए।"
"त...तुम हम पर शक कर रहे हो?" उनकी आंखों में आंसू झिलमिला उठे।
उस तरफ कोई ध्यान न देते हुए नकवी ने कहा—"सवाल शक करने का नहीं है गुप्ताजी, सवाल यह है कि आपने जो सुनाया, वह जम नहीं रहा है।"
बिशम्बर गुप्ता को अपने सम्मान—अपनी मान-मर्यादा और उस खुद्दारी की इमारत बुरी तरह झनझनाती महसूस हुई, जिसे उन्होंने बड़ी लगन, मेहनत ईमानदारी और परिश्रम से पूरे पैंसठ साल तक चुना था।
विवशता विषाद बनकर चेहरे पर उतर आई—उनका चेहरा कुछ ऐसे अंदाज में भभकने लगा जैसे भरे बाजार में नग्न कर दिए गए हों—
अपनी पूरी ताकत समेटकर बोले वे—"क्या नहीं जम रहा है तुम्हें?"
"जब आपने अपनी बहू से कभी पैसे की मांग की ही नहीं तो उसने अपने पीहर ऐसा पत्र क्यों लिख दिया?"
"हम नहीं जानते, अब ज्यादा मत पूछना नकवी।" वे लगभग गिड़गिड़ा उठे—"यकीन करो, हम भगवान कसम खाकर कहते हैं कि नहीं जानते।"
नकवी ने अहसान-सा किया—"आप कह रहे हैं तो मान लेता हूं, लेकिन...।"
"लेकिन...।" अपने धाड़-धाड़ करते दिल की आवाज वे साफ सुन सकते थे।
"है अजीब बात, शायद कोई यकीन न करे—अगर यह बात आपने न कही होती तो मैं कभी यकीन न मानता, क्योंकि लड़की अपने पीहर सब कुछ लिख सकती है, मगर इस मजमून का झूठा पत्र हरगिज नहीं—बिना राई के पर्वत नहीं बनता और पर्वत बना है तो कहीं-न-कहीं राई जरूर रही होगी।"
बिशम्बर गुप्ता ने मन-ही-मन कहा कि यकीन तो तुमने मेरे कहने पर भी कुछ नहीं किया है, खून के वे घूंट बिशम्बर गुप्ता पीकर रह गए—उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि हेमन्त ठीक ही कहता था—इस कहानी पर कोई यकीन नहीं करेगा।
"क्या सोचने लगे आप?"
"आं!" बिशम्बर गुप्ता चौंक पड़े, संभलकर बोले—"क...कुछ नहीं, फिलहाल मैं तुम्हारे पास सिर्फ इसलिए आया था कि तुम थाने चले जाओ, ताकि वे अमित को किसी तरह टॉर्चर न कर सकें—अपने साथ उसे कोर्ट ले जाना और जमानत तक सारे काम तुम्हें ही करने हैं।"
"यह काम तो मैं आपका कर दूंगा, मगर...।"
बिशम्बर गुप्ता बोले कुछ नहीं, धड़कते दिल से सवालिया अंदाज में नकवी की तरफ देखते भर रहे, जबकि सिगार की राख ऐश-ट्रे में झाड़ते हुए नकवी ने कहा—"मेरे टाइम की कीमत तो आप जानते ही हैं, मिस्टर गुप्ता।"
बड़ी जोर से घड़घड़ाकर बिशम्बर गुप्ता के दिमाग पर बिजली गिरी—जिंदगी में पहली बार हुए अपने इस अपमान पर वे तिलमिला उठे, परन्तु खामोशी के साथ जहर के इन घूंटों को सटक जाने के अलावा उनके पास कोई चारा न था, बोले—"अपने मुंह से ऐसा कहकर तुमने अच्छा नहीं किया, नकवी।"
"आप शायद बुरा मान गए हैं, मिस्टर गुप्ता।" कहता हुआ वह सोफे से खड़ा हुआ और बाएं हाथ का अंगूठा नाइट गाउन की जेब के किनारे पर फंसाता हुआ बोला—"मगर यह पेशे का मामला है, अगर घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?"
"घास ही खाएगा।"
"जी?"
जेब से रुपये निकालकर मेज पर डालते हुए बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"मैं तुम्हारे काम की कीमत लाया हूं—मगर तुमने अपने मुंह से कहकर ठीक नहीं किया, नकवी।"
तभी तक लड़का ट्रे में कॉफी और नाश्ता लिए वहां पहुंचा, नकवी ने कहा—"छोड़िए इन व्यापाराना बातों को, आप नाश्ता लीजिए।"
जलालत-भरा वह नाश्ता बिशम्बर गुप्ता के हलक में उतरना नहीं था, अतः इनकार करते हुए उठकर खड़े हो गए।
नकवी ने जिद नहीं की।
¶¶
सुचि की लाश डबलबेड के ऊपर अभी भी उसी तरह उटकी हुई थी—उसके निस्तेज, किन्तु विकृत हुए चेहरे, उबली हुई आंखों और आधी से ज्यादा बाहर लटकी हुई जीभ को देखकर ललिता और रेखा भले ही डर के मारे सूखे पत्ते-सी कांप रही हों, परन्तु हेमन्त के चेहरे पर कहीं खौफ न था।
हां, आत्मा से फूट पड़ने वाली रुलाई को रोकने के प्रयास में उसका चेहरा विकृत जरूर हो रहा था—दर्द का सैलाब-सा नजर आ रहा था वहां, भरपूर चेष्टा के बावजूद आंखें डबडबा गईं और बड़बड़ा उठा—"य...यह तुमने क्यों किया सुचि—ऐसा क्यों किया तुमने—क्या कमी रह गई थी मेरे प्यार में?"
सुचि की लाश पूर्ववत् लटकी रही।
"ऐस करते समय क्या तुम्हें एक बार भी मेरा ख्याल नहीं आया?" हेमन्त के मनोमस्तिष्क पर दीवानगी हावी होती चली गई- "क्या तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि तुम्हारे और गुड्डे के बाद मेरा क्या होगा?"
"भ...भइया।"
उसने चौंककर रेखा की तरफ देखा।
ललितादेवी कह उठीं—"यह भावुक होने का समय नहीं है, बेटे।"
दीवानगी के उसी आलम में कुछ देर तक चेहरे पर पागलपन के से भाव लिए वह अपनी मां और बहन को देखता रहा, फिर उसने सिर को ऐसे अंदाज में झटका दिया जैसे मनो-मस्तिष्क में घुमड़ रहे विचारों से मुक्त होना चाहता हो।
आगे बढ़कर उसने पलंग के समीप लुढ़का पड़ा स्टूल उठाकर पलंग पर रखा, बोला—"लाश को उतारने में मेरी मदद करो।"
हालांकि वे यही काम करने हेमन्त के साथ यहां आई थीं, परन्तु लाश को हाथ लगाने की कल्पना मात्र से सांप सूंघ गया।
जीभ तालू में कहीं जा छुपी थी।
स्टूल पर खड़े होकर हेमन्त ने लोहे के कुण्डे में बंधी रस्सी की गांठ खोली। उसके बार-बार कहने पर कांपती हुई मां-बेटी ने नीचे से लाश संभाली।
फिर आहिस्ता से उसे गले में पड़े फंदे सहित पलंग पर लिटा दिया गया।
हेमन्त ने जेब से रुमाल निकालकर कुण्डा अच्छी तरह साफ किया। वह नहीं चाहता था कि रस्सी का एक भी रेशा वहां लगा रहे। संतुष्ट होने के बाद स्टूल से उतरता हुआ बोला—"आप लाश को स्टेर रूम में पहुंचाने में मेरी मदद करें मम्मी और तुम कमरे को दुरुस्त करो रेखा, हमारे तलाशी आदि लेने से सब कुछ अव्यवस्थित हो गया है।"
बड़ी मुश्किल से रेखा सिर्फ गर्दन हिला सकी।
मारे भय के ललितादेवी का बुरा हाल जरूर था, किन्तु साथ तो उन्हें देना ही था, अतः सुचि की लाश को संभाले हेमन्त के साथ चलीं।
लाश के इर्द-गिर्द चार-पांच गंदी मक्खियां भिनभिना रही थीं।
वे नीचे पहुंचे।
स्टोररूम मकान के भीतरी भाग में था, ऐसे स्थान पर जहां दिन में भी लाइट जलाए बिना हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था।
लाश को फर्श पर लिटाकर हेमन्त ने लाइट ऑन की और बोला—"आप सीढ़ी तो लाइए, मम्मी।"
ललितादेवी सीढ़ी लेने चली गईं।
स्टोररूम में रह गए हेमन्त या सुचि की लाश—बल्ब की पीली रोशनी में लाश कुछ और ज्यादा भयानक और डरावनी लग रही थी, वे ही चार-पांच गंदी मक्खियां उस पर अब भी भिनभिना रही थीं।
हेमन्त के दिलोदिमाग में पुनः जाने क्या-क्या घुमड़ने लगा—लाश के चेहरे पर जमी उसकी आंखें पथरा-सी गई थीं, अगले ही पल वह घुटनों के बल सुचि के नजदीक बैठ गया।
झुका।
और फिर—दीवानगी से सराबोर एक चुम्बन उसने सुचि के मस्तक पर अंकित कर दिया—उस मस्तक पर जो इस वक्त दरअसल बर्फ के मानिंद ठंडा था और ऐसा करते वक्त उसकी आंखों से कूदकर दो गर्म आंसू उस ठंडे चेहरे पर जा गिरे—हाथों में लोहे की छोटी सीढ़ी लिए उसी समय ललितादेवी ने दरवाजे पर कदम रखा था।
वे ठिठक गईं।
हेमन्त की दीवानगी को देखकर उनका दिल हाहाकार कर उठा।
इस वक्त हेमन्त अपने सामने पड़ी लाश को नहीं बल्कि बेड के चारों तरफ अपने आगे-आगे भागती सुचि को देख रहा था, कानों में गूंज रही थी फिजां में पुष्प से बिखेर देने वाली सुचि की खिलखिलाहट।
ललितादेवी की आंखें भर आईं।
अगर वे उसे न पुकारती तो हेमन्त जाने कब तक खोया रहता—उनके पुकारते ही वह इस तरह हड़बड़ा गया जैसे चोरी करते पकड़ा गया हो, एक झटके से सीधा खड़ा होकर बोला—"सीढ़ी लगाओ, मम्मी।"
आगे बढ़कर ललितादेवी ने स्टोररूम के फर्श से टांड तक सीढ़ी लगा दी—टांड पर एक गंदी धोती का पर्दा झूल रहा था।
¶¶
सुचि और हेमन्त के बेडरूम का निरीक्षण करते हुए बिशम्बर गुप्ता ने बताया—"हमने नकवी को थाने भेज दिया है, साढ़े दस बजे कोर्ट जाएंगे—नकवी पुलिस और अमित के साथ वहां पहुंचेगा—हमारे ख्याल से बारह बजे तक अमित की जमानत हो जानी चाहिए।"
"नकवी ने आपके बयान पर संदेह तो नहीं किया?"
नकवी का व्यवहार याद आते ही बिशम्बर गुप्ता का सारा चेहरा भभकने लगा, किन्तु शीघ्र ही स्वयं को नियंत्रित करते हुए बोले—"उस सबको छोड़ो हेमन्त, यह बताओ कि यहां के काम में तो कोई दिक्कत नहीं आई?"
"नहीं।" हेमन्त समझ गया कि उसके बाबूजी जहर के कितने कड़वे घूंट पीकर आए थे, मगर नासमझ बनकर सवाल किया—"इस कमरे में तो आपको कोई असामान्य बात नजर नहीं आ रही है?"
"फिलहाल तो सब ठीक है, मगर...।"
"मगर?"
"क्या तुमने आगे की क्या योजना बनाई है?" बिशम्बर गुप्ता ने पूछा—"आज रात के बाद लाश को घर में छुपाए रखना असंभव हो जाएगा।"
"स्कीम बनाने से पहले मैं आपके साथ कुछ तर्क-वितर्क करना चाहता हूं।"
"किन बातों पर?"
"पहली तो यह कि उस अटैची पर कहीं कोई पता नहीं है, जो यहां से हापुड़ के लिए रवाना होते वक्त सुचि साथ ले गई थी, वह कहां गई?"
"इसका जवाब भला हममें से कोई भी कैसे दे सकता है?"
"मैं उन सवालों को इकट्ठा कर रहा हूं, जिनके हमारे पास जवाब होने चाहिए, मगर हैं नहीं—लगभग ये ही सवाल सुचि की लाश को देखकर पुलिस भी हमसे करती है और हम उनके किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाते, अतः यही अनुमान लगया जाता कि सुचि की हत्या करके लाश हमने टांग दी है।"
"सबसे बड़ा सवाल तो यह उठता हैं कि सुचि बराल से यहां कैसे और रात के किस वक्त पहुंची—कमरे का दरवाजा बाहर से बंद था, अन्दर सुचि ने आत्महत्या कर ली—कैसे हो गया यह सब?"
"इस सवाल का आधा जवाब तो मुझे मिल गया है।"
"क्या?"
"बॉल्कनी की तरफ खुलने दरवाजे की चिटकनी अन्दर से बंद नहीं थी, अतः जाहिर है कि रात के किसी वक्त सुचि इस रास्ते कमरे में आई।"
"म...मगर बॉल्कनी में कैसे पहुंची होगी वह?"
"लॉन से छत तक जो रेन वाटर पाइप है वह बॉल्कनी के नजदीक से गुजरता है, अतः पाइप के जरिए कोई भी व्यक्ति बॉल्कनी में पहुंच सकता है।"
"क्या सुचि पाइप पर चढ़ सकती थी?"
"कॉलेज टाइम में वह 'खेल-कूद' में अग्रणी रही थी, अतः पाइप पर चढ़ना उसके लिए असंभव नहीं माना जा सकता।''
"सवाल उठता है, क्यों?"
"जवाब एक ही हो सकता है, यह कि जब सुचि यहां से गई तब जानबूझकर उसने यह चिटकनी नहीं लगाई।"
"इसका मतलब यह हुआ कि उसे मालूम था कि रात के किस वक्त उसे लौटकर यहां आना पड़ सकता है।"
"बेशक यही मतलब निकलता है।" हेमन्त ने कहा—"सारी घटनाओं पर दृष्टिपात करने से एक ही बात सिद्ध होती है, यह कि सुचि सारा काम एक योजनाबद्ध तरीके से कर रही थी।"
"क्या आत्महत्या भी उसकी योजना का ही अंग थी—यहां की चिटकनी वह इसीलिए खुली छोड़ गई, क्योंकि जानती थी कि रात के किसी समय आकर यहां उसे आत्महत्या करनी है?"
"यह बात बड़ी अटपटी लगती है।"
"क्यों?"
"अगर किसी रहस्यमय वजह से सुचि को आत्महत्या ही करनी थी तो फिर इतने लम्बे-चौड़े बखेड़े की जरूरत क्या थी—उसे मालूम था कि रात को मैं घर में न रहूंगा, बिना इस बखेड़े के आत्महत्या आसानी से की जा सकती थी।"
"इसका मतलब आत्महत्या उसकी योजना का अंग नहीं, बल्कि किसी शॉक के लगने पर उसने अचानक की—"
"किस बात का शॉक लगा उसे?" ललितादेवी बोलीं—"घर में तो ऐसी कोई बात हुई नहीं थी?"
"टेलीग्राम, उसके यहां से रवाना होने और बराल से अमित को टकराने से ऐसा लगता है कि उसे किसी से मिलना था—किसी ऐसे शख्स से जिसके बारे में वह हममें से किसी को नहीं बता सकती थी।"
"किससे?"
"शायद उसी से, जिसके लिए हापुड़ से बीस हजार...।" और इतना कहकर हेमन्त खुद ही रुक गया, एक विचार उसके जेहन में बिजली की तरह कौंधा—फिर संदेह में डूबे स्वर में वह खुद ही बड़बड़ा उठा—"कहीं सुचि किसी ब्लैकमेलर के चक्कर में तो नहीं फांसी हुई थी?"
"क्या बड़बड़ा रहे हो तुम?"
"हां—यही हो सकता है, सिर्फ यही।" वह पागलों की तरह बड़बड़ाकर जैसे खुद ही को समझाता रहा—"इसके अलावा और बात हो भी क्या सकती है, वह भला किसी को बीस हजार क्यों देने लगी, बिल्कुल यही बात होगी।"
"तुम क्या सोच रहे हो हेमन्त, हमें भी तो कुछ बताओ।"
हेमन्त ने उन तीनों की तरफ देखा, दिमाग में उभरे विचार को व्यवस्थित किया और उत्साह के साथ चुटकी बजाता हुआ कह उठा—"गुत्थियां खुद ही सुलझ रही हैं बाबूजी, वह चक्कर कुछ-कुछ मेरी समझ में आ रहा है, जिसमें सुचि उलझी हुई थी।"
"क्या समझ में आ रहा है तुम्हारी?"
"सुचि शायद किसी ब्लैकमेलर के चक्कर में फंसी हुई थी, वही उसे परेशान कर रहा था और उसी की मांग पूरी करने के लिए शायद उसे बीस हजार की जरूरत पड़ी थी।"
रेखा ने कहा—"सुचि भाभी भला किसी से क्यों ब्लैकमेल होंगी?"
"इसके लिए हमें उसके विगत जीवन की खोजबीन करनी होगी।"
"क्या तुम सुचि के करेक्टर पर शक कर रहे हो?"
"सवाल करेक्टर पर शक करने का नहीं है, बाबूजी, बल्कि यह है कि पाक-से-पाक करेक्टर के व्यक्ति से भी किन्हीं विशेष हालातों में फंसकर, जाने-अनजाने में ऐसी भूल, पाप या जुर्म हो सकता है जिसे वह करना नहीं चाहता था और जिसका पछतावा उसे सारी जिंदगी रहता है, मगर उसका यही पाप या जुर्म अगर किसी असामाजिक तत्व को पता लग जाए तो वह उस व्यक्ति के लिए ब्लैकमेलर बन जाता है।"
सभी चुप रहे।
हेमन्त कहता चला गया—"सुचि से भी विगत जीवन में शायद ऐसा कोई पाप या जुर्म हो गया था, जिसका जिक्र न वह हमसे कर सकती थी, न अपने पीहर में किसी से—उसी का लाभ उठाकर किसी ने उसे ब्लैकमेल किया, उसकी मांग पूरी करने का जब सुचि को कोई अन्य तरीका न मिला तो झूठा पत्र लेकर पीहर से बीस हजार रुपये लाई।"
"सवाल फिर वही उठता है, जब उसने ब्लैकमेलर की मांग पूरी कर दी तो आत्महत्या करने की वजह ही कहां रह गई?"
"कल रात वह ब्लैकमेलर को पैसे पहुंचाने गई होगी और वे सबूत मांगे होंगे जो उसके पाप या जुर्म को साबित कर सकते थे, मगर ब्लैकमेलर इतनी आसानी से अपने शिकार का पीछा नहीं छोड़ते हैं, उसने और रकम मांगी होगी—सुचि ने असमर्थता जाहिर की होगी—मगर ऐसे लोग किसी की मजबूरी समझते कहां हैं, वह नहीं माना होगा, ग्लानि से भरी विवश सुचि के सामने आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता न बचा होगा—उसका पाप या जुर्म शायद कुछ ज्यादा ही घृणित था।"
"तुम्हारा विचार हमें भी जंच रहा है, हेमन्त।"
रेखा बोली—"अब तो शायद भाभी की लाश को कहीं दूसरी जगह छोड़कर आने की जरूरत नहीं है—हम पुलिस को यहीं बुलाकर उन्हें आत्महत्या की असली वजह बता सकते हैं।"
"पुलिस कहानियां नहीं, सुबूत मांगती है रेखा—जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर्फ हम समझ सकते हैं, किसी दूसरे को नहीं जानते, ब्लैकमेलर को नहीं जानते।"
सन्नाटा खिंच गया वहां।
¶¶
"न...नहीं दीनदयाल।" कर्नल जयपाल दृढ़तापूर्वक कह उठे—"यह क्या बक रहे हो तुम, मैं हरगिज नहीं मान सकता कि यह सच है—बिशम्बर गुप्ता खैर मेरा तो रिश्तेदार है, मगर उसे सारा बुलंदशहर जानता है, इस शहर का बच्चा-बच्चा ईमानदारी और सच्चाई के लिए उसकी कसम खाता है और तुम उसी को कह रहे हो कि...।"
"मैं सच कह रहा हूं कर्नल, उन्हीं लोगों ने मेरी सुचि को...।"
"मैं किसी कीमत पर नहीं मान सकता, अगर तुम यह कहते कि आज सूरत पूरब की जगह पश्चिम से निकला है तो एक बार को मान लेता, मगर बिशम्बर गुप्ता ने दहेज मांगा—उसने सुचि को प्रताड़ित किया, यह नहीं मान सकता—मेरे सामने तो खैर तुमने कह दिया, बुलंदशहर में रहने वाले किसी दूसरे आदमी के सामने ऐसा मत कह देना, वरना शायद उस शहर से तुम्हारा जीवित निकलना मुश्किल हो जाए।"
"हां, क्यों नहीं—तुम तो उसी का पक्ष लोगे, तुम्हारा रिश्तेदार जो ठहरा—मैं तो फिर भी सिर्फ दोस्त हूं, मगर इतना जरूर कहूंगा कर्नल कि मेरी बेटी को उन जल्लादों के यहां फंसवाकर तुमने ठीक नहीं किया।"
"यह बात नहीं है, दीनदयाल, तुम गलत ढंग से सोच रहे हो—कर्नल जयपाल एक मिलिट्री मैन है—सिद्धान्द, ईमानदारी और सच्चाई के हम पाबंद होते हैं और केवल वही बात कहते हैं जो सच्ची हो, भले ही वह चाहे जिसके पक्ष-विपक्ष की हो।"
"मगर इस वक्त सच्ची बात नहीं कह रहे हो।"
"मैं यह तो मान सकता हूं कि बिशम्बर गुप्ता की वाइफ, लड़के या लड़की ने दहेज की मांग की हो, मगर बिशम्बर गुप्ता भी उसमें शामिल रहा हो, ऐसा हरगिज...।"
"बिशम्बर गुप्ता ने सुचि से खुद बीस हजार मांगे थे।"
"क्या तुम्हारे पास कोई सुबूत है?"
"हां—यह पत्र पढ़ो, खुद सुचि का लिखा हुआ है।" जोश में भरे दीनदयाल ने पत्र की एक फोटोस्टेट कॉपी निकालकर जयपाल को पकड़ा दी—जयपाल ने पत्र लिया और पढ़ते-पढ़ते उसका भारी-भरकम चेहरा भभकने लगा।
पत्र पूरा पढ़ते-पढ़ते हैरत के साथ-साथ गुस्से के भी असीमित भाव उसके चेहरे पर उभर आए, कुछ बोल नहीं सका वह।
"कहो कर्नल, क्या अब भी तुम में सच्ची बात कहने की हिम्मत है?"
जयपाल ने पलटकर दीनदयाल की तरफ देखा, बोला—"मुझमें उस वक्त तक सच्चाई कहने की हिम्मत है जब तक सांस में सांस है।"
"अब तुम्हें क्या सच्चाई लगती है?"
"अगर यह पत्र सुचि ने लिखा है तो इसके अलावा सच्चाई कुछ भी नहीं हो सकती, लेकिन...।"
"लेकिन?"
"बात यह है दोस्त कि अगर सच्चाई यह है तो मैं चीख-चीखकर यह कहूंगा कि भारत के सिविलियन्स में से सिद्धांतप्रियता, ईमानदारी और सच्चाई पूरी तरह खत्म हो चुकी है।"
"क्या मतलब?"
"अपने अलावा जयपाल अग्रवाल अगर किसी को ईमानदार, सच्चा, अनुशासित, न्यायप्रिय और सिद्धांतप्रिय मानता था तो उस शख्स का नाम बिशम्बर गुप्ता है, जानते हो क्यों?"
"क्यों?"
"मेरा छोटा लड़का नालायक निकल गया था, जुआ और शराबखोरी ही नहीं, बल्कि आवारा लड़कों के साथ कोठों पर भी जाने लगा था वह—एक रात चाकू घोंपकर किसी वेश्या की हत्या कर आया—संयोग से मुकदमा बिशम्बर गुप्ता की अदालत में गया। मेरे कुछ परिचितों ने मुझे सलाह दी कि बिशम्बर तुम्हारा रिश्तेदार है—उसके साथ बैठकर तुम शतरंज आदि खेलते हो, अतः सिफारिश करके सुरेश को बरी करा दो, मगर मैं मिलिट्रिमैन—वहां रग-रग में न्यायप्रियता की बात कूट-कूटकर भरी जाती है, भला कहां मानने वाला था—वैसे भी, जो कुछ सुरेश ने किया था वह नफरत के काबिल था और मैं यह मानता था कि उसे अपने किए की सजा मिलनी चाहिए—अतः बिशम्बर गुप्ता के घर गया जरूर, मगर सिफारिश करने नहीं, बल्कि यह कहने कि मेरा लड़का होने की वजह से सुरेश के साथ कोई रियायत न बरते, मैंने जैसे ही अपनी बातचीत के बीच सुरेश का नाम लिया तो—तो जानते हो दीनदयाल, बिशम्बर गुप्ता ने क्या कहा?"
"क्या?"
'वह एक झटके के साथ मेरे सामने खड़ा हो गया, बोला—'अगर तुम यहां सुरेश की सिफारिश के लिए आए हो तो प्लीज कर्नल, बेहतर यह होगा कि इस बारे में तुम मुझसे कोई भी बात किए बिना चले जाओ।'
'क्या मतलब?' मेरे मुंह से निकला।
'मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूंगा, जो गुनाह उसने किया है वह अगर हेमन्त या अमित में से भी कोई करता तो मैं उसको भी वही सजा देता जो सुरेश को दी जाएगी।'
मेरी तबीयत खुश हो गई—यूं तो न्यायप्रियता के मामले में मैंने उसका नाम खूब सुन रखा था, मगर उस दिन कायल हो गया, बोला—'मैं भी यहां यही कहने आया था बिशम्बर कि सुरेश के साथ कोई रियायत न बरतना।'
'क्या मतलब?' उसने चौंककर मेरी तरफ देखा।
'मान गया कि जो शौहरत तुमने कमाई है, वह बेवजह नहीं है, मगर मिलिट्री में मैं उसी रूप में फेमस हूं, जिसमें तुम इस शहर में और सुरेश का जिक्र छेड़ते ही जो अनुमान तुमने मेरे बारे में लगाया, वह मेरा अपमान था।'
'अगर यह सच है तो मैं माफी चाहूंगा जयपाल।'
'मैं चुप रह गया।'
"और आज तुम उसी आदमी के खिलाफ यह पत्र लेकर मेरे सामने खड़े हो, मैं कैसे मान लूं दीनदयाल, कैसे समझ लूं दोस्त कि सच्चाई यह हो सकती है?"
"मैं तुम्हारे अनुभवों को नहीं जानता, यह जानता हूं कि मेरी बेटी से दहेज उसी ने मांगा था और शायद अब तक सुचि की हत्या भी उन्होंने कर दी है।"
"क्या तुम्हें याद है दीनदयाल कि जब मैंने सुचि का रिश्ता हेमन्त से कराया था, तब क्या कहा था?"
"किस सम्बन्ध में?"
"तुमने पूछा था कि जहां मैं रिश्ता करा रहा हूं उनकी आर्थिक स्थिति क्या है, मैंने जवाब दिया था कि बहुत ज्यादा साउंड नहीं है, बस तुम्हारी ही तरह खाते-पीते लोग हैं, तुमने यह कहकर आश्चर्य व्यक्त किया था कि मजिस्ट्रेट और केवल खाता-पीता? तब, मैंने जवाब दिया था कि बिशम्बर गुप्ता बेहद ईमानदार हैं—उसने कभी एक पैसे की रिश्वत नहीं ली इसीलिए केवल खाता-पीता है मगर सारे बुलंदशहर में उसकी न्यायप्रियता के डंके बजते हैं, यही उसने कमाया है—इज्जत, मान-मर्यादा और शोहरत के मामले में वह बहुत धनवान है—तब, तुमने कहा था कि तुम्हें ऐसे ही लोग चाहिएं।"
"मगर वे लोग तो ठीक उल्टे निकले।"
कर्नल की बड़ी-बड़ी आंखें गहरी सोच में डूब गईं, बोला—"मुझे आज ही, बल्कि इसी वक्त बिशम्बर गुप्ता से मिलना पड़ेगा।"
¶¶
दोपहर एक बजे तक।
कोठियात मौहल्ले ही में नहीं बल्कि सारे शहर में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई थी कि कल रात से रिटायर्ड मजिस्ट्रेट बिशम्बर गुप्ता की बहू घर से गायब है, हालांकि अभी लाश तो नहीं मिली है, परन्तु लड़की का बाप हापुड़ से आ चुका है और पुलिस में केस भी दर्ज करा चुका है।
पुलिस का ख्याल है कि इन लोगों ने अपनी बहू को मारकर लाश कहीं छुपा दी है और अब यह नाटक कर रहे हैं कि वह घर से भाग गई है।
कानों-कान यह खबर भी सारे शहर में उड़ गई कि ये लोग कम दहेज लाने की वजह से बहू को मारते-पीटते थे—अपने पीहर से कैश लाने के लिए कहते और बहू इनकार करती तो उसे जली हुई लकड़ी और गर्म चिमटों से पीटा जाता।
नंगी करके सर्दियों में सारी रात के लिए छत पर खड़ी कर देते।
जितने मुंह उतनी बातें।
¶¶
जिनका जिक्र था, जिनके बारे में अफवाहें थीं, वे अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे आतंकित आंखों से एक-दूसरे का भयभीत चेहरा देख रहे थे।
अमित भी उनके बीच था।
हेमन्त के पूछने पर वह अभी-अभी बताकर चुका था कि थाने में इंस्पेक्टर ने उससे क्या-क्या पूछा—अमित ने गोडास्कर को ऐसी कोई बात नहीं बताई थी जिससे किसी नए किस्म के खतरे का जन्म हो सके।
हेमन्त के संतुष्ट होने पर बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"मगर कचहरी से यहां तक आना हमें भारी हो गया, हेमन्त।"
"क्यों?"
"रास्ते-भर सभी नजरें हमें घूरती रहीं—जिन आंखों में हमारे लिए सम्मान होता था उनमें आज अपने लिए घृणा का दलदल देखा है—जो लोग झुककर हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे—उन्हें आज हमने अपने सामने थूकते देखा है—जाने कितनी अश्लील फब्तियों को सुनकर भी अनसुना किया है और मौहल्ले वाले तो इस तरह झांक-झांककर देख रहे थे, जैसे हमारे सिरों पर सींग हों—महिलाएं हमसे डरी-सहमी थीं।"
"यह सब तो होना ही था, बाबूजी—लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे हैं इसका अंदाजा तो इसी से लगा लीजिए कि हममें से किसी का भी परिचित अभी तक यहां नहीं आया है—कर्नल अंकल भी नहीं आए। शहर में जो चर्चा है क्या वह उन्होंने न सुनी होगी—दु:ख-सुख बांटने मम्मी मौहल्ले के हर घर में जाती थीं, मगर सुबह से यहां कोई नहीं आया। इस वक्त हम शहर के सबसे ज्यादा उपेक्षित लोग हैं—हमसे कोई बात भी करना पसंद नहीं करेगा और...।"
"और?"
"लोगों की इसी नफरत का लाभ उठाते हुए मैंने एक स्कीम बनाई है।"
"कैसी स्कीम?"
"सुचि की लाश को घर से निकालने की।"
"क्या सोचा है तुमने?"
हेमन्त ने कहा—"हमारे घर में एक तिरपाल है—उससे इतना लम्बा-चौड़ा एक टुकड़ा काट लेंगे जितना लम्बा-चौड़ा स्ट्रेचर होता है।"
"स्ट्रेचर?" बिशम्बर गुप्ता चौंक पड़े।
"उसका क्या करना है?" अमित ने पूछा।
"लम्बाई में दोनों तरफ से सीकर हम उसमें इतने चौड़े 'नेफे' बना लेंगे कि स्ट्रेचर की चौड़ाई से कम-से-कम चार इंच ज्यादा होनी चाहिए ताकि यदि उसे किसी स्ट्रेचर पर चढ़ाया जाए तो वह काफी ढीला रहे, ठीक उसी तरह, जैसी ढीली खाट होती है।''
"मगर इससे फायदा क्या होगा—असली स्ट्रेचर में तो तिरपाल कसी हुई होती है।"
"हमें असली स्ट्रेचर नहीं बनाना है।"
"तो?"
इससे पहले कि हेमन्त कुछ कहे, जोर से चीखने वाली कॉलबेल ने उन्हें उछाल दिया—घबराकर उन्होंने एक-दूसरे की तरफ देखा, एक साथ कई के मुंह से निकला—"क...कौन हो सकता है?"
"शायद पुलिस।" अमित बड़बड़ाया।
"अब अगर पुलिस यहां आ भी जाए तो उसे कुछ नहीं मिलने वाला है।" कहता हुआ हेमन्त अपने स्थान से उठा—"स्टोर रूम के टांड पर तो वह चढ़ने से रही।"
कोई कुछ नहीं बोला, सबके चेहरे सुते हुए थे।
कॉलबेल पुनः बजी।
"मैं देखती हूं।" कहकर हेमन्त आंगन में पुहंचा, गैलरी पार करके उसने मुख्य गेट खोला तो दरवाजे के बीचोंबीच खड़े कर्नल जयपाल को देखकर एक पल के लिए अवाक् रह गया, मगर खुद को नियंत्रित करके बोला—"अरे, अंकल, आप?"
"बिशम्बर घर पर ही है न?"
"ज...जी हां अंकल, आइए।"
इस तरह वह कर्नल जयपाल को ड्राइंगरूम में ले आया। घर के सदस्य उसे देखकर खड़े हो गए, जबकि बिशम्बर गुप्ता पर नजर पड़ते ही वह अपनी आदत के मुताबिक ऊंची आवाज में बोला—"यह मैं क्या सुन रहा हूं, बिशम्बर?"
"सब किस्मत का खेल है कर्नल।" बिशम्बर गुप्ता का स्वर दर्द में डूबा था—"वरना तुम ही सोचो, तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो—क्या मैं ऐसा कर सकता हूं।"
"कैसा?"
"वही जो शहर के लोग कह रहे हैं, सुचि जाने कहां चली गई है—बदनामी हमारे सिर बंध गई कम्बख्त—लोग तरह-तरह की बातें बना रहे हैं।"
"क्या तुम सच कह रहे हो, बिशम्बर?" उनकी आंखों में झांकते हुए कर्नल जयपाल ने कहा—"क्या तुम वास्तव में नहीं जानते कि सुचि कहां है?"
"यह सवाल करके आज तुमने भी हमारा वैसा ही अपमान किया है कर्नल, जैसा कभी हमने तुम्हारा किया था, सुरेश का नाम लेते ही तुम्हारे आने का आशय गलत समझे थे।"
"तुमने उसी समय माफी मांग ली थी, मगर मैं तुरन्त नहीं मांगूंगा।" उन्हें लगातार घूरते हुए कर्नल ने कहा—"जानते हो क्यों?"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं अभी तक संतुष्ट नहीं हुआ हूं, नहीं मान सकता कि तुम्हें सचमुच सुचि की जानकारी नहीं है—मैं ऐसा सुबूत देखकर आ रहा हूं जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।"
"शायद तुम्हारे पास दीनदयाल पहुंचा था?"
"हां, उसने मुझे सुचि का पत्र दिखाया।"
हेमन्त बीच में बोला—"व...वह पत्र जाली भी हो सकता...।"
"जब बड़े बात कर रहे हों तो छोटों को बीच में नहीं बोलना चाहिए।" कर्नल हेमन्त की बात पूरी होने से पहले ही गुर्राया—"शिष्टाचार का यह पहला सबक तुम्हें अच्छी तरह याद है, फिर आज बीच में क्यों बोल रहे हो?"
हेमन्त सटपटा गया, मुंह से निकला—"स...सॉरी अंकल।"
कुछ देर के लिए वहां खामोशी नहीं बल्कि सन्नाटा छा गया और उसे तोड़ते हुए कर्नल ने ही कहा—"हां, तो मैं यह कह रहा था बिशम्बर कि दीनदयाल ने मुझसे यह भी कहा कि उसकी बेटी को मैंने किन जल्लादों के हाथ सौंप दिया था।"
"मुझे अफसोस है कर्नल कि तुम्हें ऐसा सुनना पड़ा।"
"तुम्हारे अफसोस जाहिर कर देने से मैं उस गाली से मुक्त नहीं हो सकता बिशम्बर, जो दीनदयाल ने मुझे दी है—एक आदमी के बारे में जो धारणा मेरे दिल में थी वह खण्ड-खण्ड होकर बिखर गई है, वह तुम्हारे अफसोस से नहीं—तर्कसंगत जवाब से जुड़ेगी बिशम्बर, बोलो—ऐसा क्यों हुआ?"
"फिलहाल कहने के लिए हमारे पास उसके अलावा कुछ नहीं है कर्नल, जो पहले ही कह चुके हैं, यह कि वह सब किस्मत का खेल है।"
"किस्मत का नहीं, तुम्हारा खेल है।" कर्नल बुलंद आवाज में चिल्ला उठा—"तुम सबका, उस पत्र में सुचि ने एक-एक के बारे खुलकर लिखा है।"
"वह पत्र फर्जी है—यह बात कल तक साबित हो जाएगी।"
"ऐसा कहकर तुम पुलिस को धोखा देने में कामयाब हो गए बिशम्बर, लेकिन मुझे धोखा नहीं दे सकोगे—अगर पत्र फर्जी था तो सुचि ने चार तारीख को वहां जाकर दीनदयाल से उसकी पुष्टि क्यों की—बीस हजार रुपये क्यों लाई?"
"हमें नहीं मालूम कि वह बीस हजार रुपये लेने गई थी, ऐसा भी तो हो सकता है कि...।"
"बिल्कुल नहीं हो सकता, दीनदयाल को भला झूठ बोलने की क्या जरूरत है—एक लड़की का बाप ऐसा झूठ कभी नहीं बोल सकता और फिर क्या उसे मालूम था कि ऐसा होने वाला है जो वह फर्जी लेटर लिखवाकर रखता, ऐसा झूठ बोलता?"
बिशम्बर गुप्ता ने दर्द-भरे स्वर में कहा—"क्या तुम मुझे गालियां देने आए हो?"
"अगर तुम खुद को सच्चा साबित नहीं कर सके तो यकीनन।" कर्नल दृढ़ और कठोर स्वर में गुर्राया—"अगर तुम अपनी स्थिति स्पष्ट कर सके तो इस मुसीबत की घड़ी में मुझे अपने साथ पाओगे, वरना...।"
"वरना...?"
"वरना तो समझ लेना कि अगर दुनिया में तुम्हारा कोई सबसे बड़ा दुश्मन है तो वह मैं हूं—एक दिन तुमने कहा था कि अगर हेमन्त और अमित में से भी किसी ने सुरेश वाला गुनाह किया होता तो तुम उन्हें भी वही सजा देते—अगर आज तुम अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाए तो समझूंगा कि वह सब बकवास थी—किसी दूसरे के और अपने बेटे में बिशम्बर गुप्ता बहुत फर्क करता है—इस शहर में जैसी छवि तुम्हारी थी वह असली नहीं, मुखौटा थी—ऐसा मुखौटा, जिसे पैंसठ साल तक तुमने अपने चेहरे पर चढ़ाए रखा।"
"उफ्फ—बस करो—चुप हो जाओ, कर्नल।" दर्द से तड़पते हुए बिशम्बर गुप्ता हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा उठे—"हमसे सहन नहीं होगा—सारे शहर की नजरों से गिर जाना और बात थी, तुम्हारी नफरत—तुम्हारी गालियां और तुम्हारा यह अविश्वास हमसे सहन नहीं होगा—जीते-जी मर गए हैं हम।"
"तो फिर अपनी स्थिति स्पष्ट करो।"
"न...नहीं कर सकता—कहने के लिए मेरे पास बहुत कुछ है मगर साबित करने के लिए कुछ भी नहीं और बिना साबित किए दूसरों की तरह तुम भी नहीं मानोगे कर्नल कि उस पत्र में लिखी एक-एक बात झूठ है, सफेद झूठ।"
कर्नल जयपाल का चेहरा बुरी तरह भभक रहा था, आंखें दहककर अंगारा हो रही थीं—गिड़गिड़ाते बिशम्बर गुप्ता को बुरी तरह घूरते हुए उसने कहा—"ये सब एक्टिंग है, खुद को बेगुनाह और दीन-हीन दिखाने की नाकाम कोशिश—सारी जिंदगी सबूत मांगने वाला बिशम्बर सबूत पेश करने की बजाए अगर रोने लगे तो मैं यही कहूंगा कि तुम अपने चेहरे पर उसी मुखौटे को चढ़ाने की नाकाम कोशिश कर रहे हो जिसे तुम्हारी बहू के पत्र ने नोचकर फेंक दिया है।"
"बस कीजिए भाई साहब, बस कीजिए।" ललितादेवी चीख पड़ीं—"क्या आपका इरादा इन्हें मार ही डालने का है, रहम कीजिए इन पर।"
"इस पर रहम करूं—हुंह—इस पर?" कर्नल के चीखने में रोने की आवाज झलकने लगी—"इस पाजी को माफ कर दूं, जिसने मेरे दिल में बसी मूरत को खण्ड-खण्ड करके रख दिया—मैं इसे सच्चाई, ईमानदारी और सिद्धांतप्रियता की सबसे पक्की मूर्ति समझता था—वह खंडित हो गई—क्या तुम्हें मेरे दुख, मेरी तड़प का अहसास है, भाभी?"
"भ...भाई साहब।"
"बिशम्बर अपने सिद्धांतों से गिर सकता है मगर जयपाल नहीं—जयपाल एक मिलीट्रीमैन है और आखिरी सांस तक सिर्फ सच्चाई का साथ देगा—फिर सामने भले ही यह बिशम्बर क्यों न हो—और दीनदयाल ठीक ही कहता था कि उसकी बेटी को मैंने जल्लादों के हवाले कर दिया, मगर अब मैं उसके साथ हूं—उसे न्याय दिलाकर रहूंगा—तुम अपने शब्दों पर कायम नहीं रहे, मगर कर्नल को देखना, कर्नल तुम्हें भी वही सजा दिलवाएगा जो इस जुर्म में किसी को भी मिल सकती है।"
बिशम्बर गुप्ता फफक-फफककर रो पड़े।
¶¶
कर्नल जयपाल चला गया।
उसके जाने के पंद्रह मिनट बाद ललितादेवी, हेमन्त, अमित और रेखा संयुक्त प्रयासों से बिशम्बर गुप्ता को सामान्य हालत में ला
सके, मगर अभी तक भी वह अपनी मुट्ठी से दिल को पकड़े हुए थे। ललिता ने पूछा—"दर्द है क्या?"
"हां ललिता, लगता है कि अंतिम घड़ी आ पहुंची है।"
"ए...ऐसा मत कहिए।" ललितादेवी तड़प उठीं।
"दिल में बहुत जोर से दर्द उठा था, अब तो कम है मगर बहुत तेज दर्द था ललिता—ऐसा लगा कि जैसे फट पड़ेगा—उफ्फ—हम बहुत थक गए हैं, ललिता।"
"य...यह अंकल भी क्या कुछ कम बक कर गए हैं?" भावुक हो उठी रेखा ने नफरत-भरे स्वर में कहा—"ऐसी कोई बात उन्होंने नहीं छोड़ी जो कह सकते थे और न कही हो। उनसे अच्छे तो वही हैं जो हम पर पड़ी मुसीबत के बारे में सुनकर भी यहां नहीं...।"
"न...नहीं बेटी।" बिशम्बर गुप्ता ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया- "ऐसा नहीं कहते—तुम अभी हमारे और कर्नल के सम्बन्धों को ठीक से नहीं जानतीं—हम एक-दूसरे के आदर्श हैं—जब अपने आदर्श को कोई पतित होता महसूस करे तो वह इसी तरह भड़क उठता है—अगर वह हमारी और हम उसकी जगह होते तो वह सब कहते जो वह कहकर गया है।"
"म...मगर बाबूजी, यह सब आपको बेवजह सुनना पड़ा।" अमित कह उठा—"आपने या हममें से किसी ने भी तो ऐसा कुछ नहीं किया है जिसके लिए हमें शर्मिंदा होना पड़े।"
“जब तक हमारे पास कोई सबूत नहीं है, तब तक कोई भी हमारे कथन को सच नहीं मान सकता और फिर कर्नल के भड़कने में कुछ अंश तो इस बात के भी होंगे कि उसे दीनदयाल की बातें भी सुननी पड़ीं।”
“बाबू जी।” हेमन्त ने कहा—“जब अंकल आपको यह सब कह रहे थे तब जाने क्यों मेरा दिल उन्हें सब कुछ विस्तार से बता देने के लिए करने लगा—पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगने लगा कि अगर सब कुछ खुलासा करके उन्हें बताया जाए तो वह न केवल हमारी विषमता को समझ लेंगे बल्कि इस सारे मामले में कुछ मदद भी कर सकते हैं।”
"ऐसा हो तो सकता है, बेटे—क्योंकि कर्नल हमारी तरह सिद्धांत और न्यायप्रिय आदमी हैं—सच्चे को इंसाफ दिलाने के लिए वह जान तक की बाजी लगा सकता है, मगर...।"
"मगर?"
"डर केवल यह लगता है कि अगर नकवी की तरह सब कुछ सुनने के बाद भी उसे यकीन न आया तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी—वह केवल बेइज्जती करके चुप बैठ जाने वाला नहीं है, बल्कि सुनते ही यहां पुलिस को बुलाकर लाश बरामद करा देगा।"
"ऐसे खतरनाक आदमी को जिक्र करने का मतलब ही क्या है?" अमित जल्दी से कह उठा—"हम उनकी मदद के बिना भी खुद को बेगुनाह साबित कर सकते हैं।"
खामोशी छा गई वहां।
इस खामोशी को बिशम्बर गुप्ता ने तोड़ा—"हां, तुम अपनी योजना बता रहे थे, हेमन्त।"
"अब आप बिलकुल ठीक हैं न?"
"ठीक हूं, बिल्कुल ठीक तो उस दिन कह सकेंगे, जिस दिन अपने सम्मान की चादर पर विधि के लगाए गए दाग को धोने में कामयाब हो सकेंगे।"
"तिरपाल का वह टुकड़ा असली स्ट्रेचर पर चढ़ाकर हम स्ट्रेचर को दोमंजिला बनाकर एक ही स्ट्रेचर से दो स्ट्रेचर का काम ले सकते हैं।"
"हम समझे नहीं।"
"रात के ठीक दस बजे अमित घर से निकल जाएगा।"
"किसलिए?" अमित ने पूछा।
"कल रात की तरह एक कार चुराने।"
"उसका क्या होगा?"
"सुनते रहो, ठीक ग्यारह बजे हमारे घर से एक ऐसा शोर उठेगा जिसे सारा मौहल्ला सुन सके और यह शोर मम्मी के बेहोश होने का होगा।"
"म...मेरे बेहोश होने का?"
"हां—आप वास्तव में बेहोश नहीं होंगी बल्कि सिर्फ बेहोशी का नाटक करेंगी। मैं, रेखा और बाबूजी इस कदर शोर मचाएंगे कि सारे मौहल्ले को आपके बेहोश होने की खबर लग जाए, तब मैं यहां से निकलकर सामने वाले अंकल के घर जाऊंगा—शायद आपको याद होगा कि वह होमगार्ड में चीफ वार्डन हैं और उनके यहां एक स्ट्रेचर है, मैं वह स्ट्रेचर मांगने उनके पास जाऊंगा।"
बिशम्बर गुप्ता ने धड़कते दिल से पूछा—"फिर?"
"हालांकि मौहल्ले के दूसरे व्यक्तियों की तरह वे हमारी किसी भी तरह की मदद करने में इन्ट्रेस्टेड न होंगे किन्तु चूंकि सारे मौहल्ले के सामने उनके दरवाजे पर पहुंच ही जाऊंगा तो इनकार करने के लिए उन्हें कोई बहाना नहीं मिलेगा, अतः देना ही पड़ेगा।"
"मुमकिन है कि बंसल स्पष्ट इनकार कर दे?"
"हालांकि मैं ऐसा नहीं समझता क्योंकि सामने वाला भले ही आपसे चाहे जितनी नफरत करता हो मगर मुसीबत के समय वह चीज देने से इनकार नहीं कर सकता जो उसके पास हो और फिर, यह काम मेरा है—आप चिंतित न हों, मैं उनसे स्ट्रेचर लेकर ही आऊंगा, भले ही इसके लिए मुझे उसके पैर पकड़ने पड़ें।"
ललितादेवी ने कहा—"मगर ऐसा कोई काम हम करें ही क्यों जिसमें होने-न होने की शंका बनी रहे—अगर हमें स्ट्रेचर ही चाहिए तो शाम तक बाजार से खरीदकर ला सकते हैं या घर में भी तैयार हो सकता है।"
"मौहल्ले और शहर में हमारे विरुद्ध जो हालात हैं उनमें किसी की नजर से बचाकर स्ट्रेचर लाना नामुमकिन है और घर में तैयार करना भी ठीक नहीं है क्योंकि आमतौर से साधारण घर में स्ट्रेचर होता नहीं है और इन हालातों में हमारी तरफ से ऐसी चीज का प्रदर्शन करना निश्चय ही हमें संदिग्ध बना देगा।”
"हम तुम्हारे प्वॉइंट की गहराई को समझ रहे हैं।" बिशम्बर गुप्ता बोले—"स्ट्रेचर बंसल के यहां से मांगकर लाना ही ठीक होगा—मान लिया कि तुम स्ट्रेचर ले आए, उसके बाद?"
"जो हालात हैं उनमें मदद के लिए किसी मौहल्ले वाले का घर के अन्दर आने का सवाल ही नहीं उठता अतः मैं स्ट्रेचर लाकर आपको दे दूंगा और खुद रिक्शा लेने चला जाऊंगा। इसी बीच आप दोनों तैयार की गई तिरपाल को स्ट्रेचर की 'बाहियों में डालकर उसे दोमंजिला बना लेंगे—पहली मंजिल यानि अपनी तिरपाल पर तुम्हें किसी कपड़े में लपेटकर सुचि की लाश डाल देनी है और ऊपर की मंजिल यानि स्ट्रेचर के असली तिरपाल पर खुद आपको लेट जाना है मम्मी।''
"म...मुझे?" ललितादेवी का सारा चेहरा पसीने से नहा उठा—"सुचि की ल...लाश के ऊपर—हे भगवान—न...न बाबा, यह मुझसे नहीं होगा।"
"मजबूरी है मम्मी, करना तो पड़ेगा ही।"
ललितादेवी गुमसुम-सी उसे देखता रहीं।
बिशम्बर गुप्ता ने पूछा—"इसके बाद?"
"मैं मुश्किल से दस मिनट में रिक्शा ले आऊंगा, तब तक आप लोगों को स्ट्रेचर की निचली मंजिल पर सुचि की लाश डाल देनी है—पहली मंजिल पर मम्मी को लिटाकर एक कम्बल हम स्ट्रेचर पर इस तरह डाल लेंगे कि देखने वालों को मम्मी का चेहरा तो दीखे मगर यह नहीं कि स्ट्रेचर दोमंजिला है।"
"स्कीम तुमने अच्छी बनाई है, भइया।" अमित कह उठा।
बिशम्बर गुप्ता की तरफ देखते हुए हेमन्त ने आगे कहा—"मैं और आप स्ट्रेचर को उठाकर रिक्शे तक ले जाएंगे—रिक्शे वाले को अस्पताल चलने के लिए कहकर स्ट्रेचर के साथ ही उसमें बैठ जाएंगे और इस तरह सारे मौहल्ले के देखते-ही-देखते—सबकी आंखों के सामने हम सुचि की लाश को घर से बाहर निकाल लेंगे।"
"उसे ले कहां जाएंगे?"
"रिक्शे से अस्पताल तक—इमरजेंसी के बाहर प्रांगण में स्ट्रेचर उतार लेंगे, रिक्शा वाले का पेमेंट करके मैं उसे विदा कर दूंगा—रात की ड्यूटी पर रहने वाले वार्ड ब्वाय और नर्सें उस वक्त स्टाफ-रूम में बैठे हीटर पर हाथ ताप रहे होंगे—इमरजेंसी के नजदीक मुश्किल से एकाध वार्ड ब्वाय या नर्स होगी—उसे डॉक्टर को इन्फॉर्म करने के बहाने वहां से टरका देंगे।"
"क्या जरूरी है कि वहां सब कुछ वैसा ही मिले जैसा तुम सोच रहे हो?" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"मुमकिन है कि इमरजेंसी से पहले ही कोई केस आया हुआ हो या यूं ही वहां एक से ज्यादा व्यक्ति हों—क्या जरूरी है कि नाइट ड्यूटी वाले उस स्टाफ रूम में हीटर के चारों तरफ ही बैठे होंगे?"
"मैंने वह कहा बाबूजी, जो स्वाभाविक है और सर्दियों की रातों में अपनी आंखों से कई बार देखा हैं—मगर फिर भी आपकी संभावनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता—इस किस्म की दिक्कतें वहां पैदा हो सकती हैं मगर उन्हें तो हमें फेस करना ही होगा—दरअसल मेरी स्कीम के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षण वे ही होंगे।"
"अच्छा, माना कि तुम्हारी संभावनाएं ठीक निकलती हैं, तब?"
"रिक्शा के जाते ही उसके स्थान पर अमित चुराई हुई कार लाकर खड़ी कर देगा—सबसे संवेदनशील क्षण मैं इसलिए भी कह रहा हूं अमित कि यहां तुम्हें खासतौर पर राइट टाइम और चुस्ती-फुर्ती से काम लेना होगा—हम करीब साढ़े ग्यारह बजे हॉस्पिटल पहुंचेंगे, तुम्हें कार चुराकर पांच मिनट पहले ही हॉस्पिटल के इर्द-गिर्द पहुंच जाना है और रिक्शा वाले के वहां से जाते ही गाड़ी स्ट्रेचर की बगल में लाकर खड़ी कर देनी है—मैं समझता हूं कि डेढ़ घंटे में शहर के किसी भी कोने से कार चुराकर तुम हॉस्पिटल आराम से पहुंच सकते हो।"
"अगर कोई खास गड़बड़ न हो गई तो डेढ़ घंटा काफी है।"
"गुड।" हेमन्त ने कहा—"गाड़ी को वहां पहुंचाते ही तुम्हें उसका हमारी तरफ वाला पिछला दरवाजा खोल देना है और बाबूजी, वहां वैसे हालात मिलें जैसे मैंने कहे हैं या न मिलें, मगर सबकी नजरों से बचाकर सुचि की लाश सहित स्ट्रेचर की निचली मंजिल यानी तिरपाल को स्ट्रेचर की बाहियों से निकालकर गाड़ी में पहुंचा देना है—मैं अमित के साथ गाड़ी में चला जाऊंगा और आप मम्मी के पास वहीं रह जाएंगे।"
"वहां हम क्या करेंगे?"
"वार्ड ब्वायज और नर्सों की मदद से आप मम्मी को इमरजेंसी के अन्दर ले जाएंगे। आपको लगातार बेहोशी का नाटक किए रखना है, मम्मी—डॉक्टरों के पास यह पता लगाने को कोई यंत्र नहीं होता कि पेशेंट सचमुच बेहोश है या नाटक कर रहा है—डॉक्टरों की थोड़ी-सी कोशिश के बाद आपको होश में आ जाना है।"
"डॉक्टर पूछेंगे कि क्या हुआ था, तब हम क्या जवाब देंगे?"
"संक्षेप में वह बता देना जो बयान हमने पुलिस को दिया है। आप कहना कि मम्मी से यह पूछ रहे थे कि तुमने तो बहू से बीस हजार की मांग नहीं की—बस, यह सुनते ही मम्मी गश खाकर गिर पड़ीं और बेहोश हो गईं—डॉक्टर समझेंगे कि यह शॉक के कारण बेहोश हो गई हैं, बाकी कोई खास बात नहीं है, अतः वे मम्मी को एडमिट नहीं करेंगे और वापस घर भेज देंगे, अपना काम खत्म।"
"क्या यह भी सोचा है कि तुम दोनों कहां जाओगे और लाश कहां, किस स्थिति में छोड़कर आओगे?"
"हमें गुलावठी जाना होगा।"
"वहां क्यों?"
"लाश को हम कस्बे के नजदीक ही कहीं सुनसान स्थान पर छोड़कर आएंगे, ताकि पुलिस की समझ में यह आए कि सुचि गुलावठी में ही बस से उतर गई थी।"
"इससे क्या होगा?"
"अमित के बयान की पुष्टि।"
"क्या मतलब?"
"सुचि की राइटिंग में रेखा एक पत्र लिखेगी, इस पत्र को सुसाइड नोट के रूप में लाश के नजदीक छोड़ा जाएगा।"
धड़कते दिल से रेखा ने पूछा—"इस पत्र में मुझे क्या लिखना है?"
"सुचि द्वारा आत्महत्या करने की वजह।"
"क्या?"
"कुछ ऐसा जिससे पुलिस यह समझे कि सुचि का शादी से पहले कोई प्रेमी था, जो शादी के बाद उसे, उसके ससुराल वालों को लव-लेटर्स दिखा देने की धमकी देकर ब्लैकमेल करता था और वह गुलावठी में रहता था, उसी की धमकी पर वह ससुराल से झूठ बोलकर गुलावठी उससे मिलने गई थी—जो मांग प्रेमी कर रहा था, उसे सुचि पूरा करने में असमर्थ थी इसीलिए उसने आत्महत्या कर ली।"
"व...वैरी गुड—वैरी गुड, भइया।" अमित उछल पड़ा—"जवाब नहीं आपके दिमाग का—क्या स्कीम बनाई है, इस तरह एक ही चाल में हम न सिर्फ भाभी की लाश से छुटकारा पा लेंगे बल्कि पुलिस और सारे शहर के सोचने की धारा भी बदल देंगे—उसके बाद लोगों को हमारे बयानों पर यकीन करना पड़ेगा।"
"मेरे अनुमान से जो हुआ है वह मैं इसी ढंग से पुलिस और शहर को समझाने पर विवश हूं, हालांकि इससे मेरी सुचि बदनाम जरूर हो जाएगी।"
"मगर यह सब होगा तभी जब यह लम्बी स्कीम पूरी तरह कामयाब हो जाए।" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"अगर हम में से कहीं भी, कोई रंगेहाथों पकड़ा गया तो खून करने के अलावा कानून को धोखा देने की कोशिश का चार्ज भी....।"
"यह खतरा तो हमें उठाना ही होगा बाबूजी।"
"मैं तैयार हूं, भइया।" अमित उत्साह से भर गया था।
हेमन्त ने गंभीर और उदास स्वर में कहा—"मजबूरी है अमित, तैयार तो सभी को होना पड़ेगा—कल तक एक्सपर्ट की रिपोर्ट भी पुलिस को मिल जाएगी—दोनों राइटिंग्स में उन्हें फर्क मिलेगा ही। उधर सुचि की लाश के पास से सुसाइड नोट का जो पत्र पुलिस को मिलेगा, उससे उन्हें पूरा यकीन हो जाएगा कि सुचि की वास्तविक राइटिंग यही है और हापुड़ लिखा गया पत्र फर्जी था।"
"यानि पुलिस की नजर में भाभी की असली लिखाई किसी नकलची से बनाई गई साबित हो जाएगी और मेरे से बनाई गई उसकी असली राइटिंग?"
"बेशक।"
"वास्तव में, आपके दिमाग का जवाब नहीं भइया।"
"आदमी जब अपना सब कुछ खतरे में देखता है रेखा तो उसका दिमाग खुद-ब-खुद चलने लगता है, बचाव के रास्ते खुद निकलने लगते हैं—मैं यह कुछ करूंगा लेकिन अफसोस यह रहेगा कि मैं अपनी सुचि की लाश की बेकदरी भी अपने ही हाथों से करूंगा।"
"ऐसा सोचकर दिल छोटा मत करो, बेटे।" ललितादेवी ने कहा—"तुम ही तो हमारी हिम्मत हो, अगर तुम न होते तो अब तक हम सब जेल में होते।"
"सुचि की लाश कल या ज्यादा-से-ज्यादा परसों तक पुलिस के हाथ लग जाएगी।" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"पोस्टमार्टम आदि के बाद अंततः लाश तो उन्हें हमें ही सौंपनी होगी।"
"यही सोचकर थोड़ा संतुष्ट हूं।" भावुक होते हुए हेमन्त ने कहा—"लाश के पुनः अपने पास पहुंचने पर मैं खुलकर सब लोगों के सामने, बिना अपनी चीखों को दबाए रो सकूंगा—अपनी जिंदगी की अर्थी को सबके सामने, अपने कंधों पर रखकर श्मशान ले जा सकूंगा और फिर, खुलकर उस कर्ज को चुका सकूंगा बाबूजी, जो हर पत्नी का अपने पति पर आखिरी कर्ज होता है—जलाकर राख कर सकूंगा अपनी सुचि को।"
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