मेरी आंख खुली ।
मैंने अपने-आपको एक विशाल डबल बैड पर पड़ा पाया । मेरी दायीं ओर एक खिड़की थी जिस पर भारी पर्दे पड़े हुए थे, लेकिन फिर भी साफ मालूम हो रहा था कि दिन चढ चुका था और सूरज निकला हुआ था । मेरी दायीं जांघ बहुत हल्की-हल्की दुख रही थी । मैंने चादर के नीचे हाथ डालकर देखा कि वह बड़ी मजबूती से पट्टियों से बंधी हुई थी ।
और साथ ही मैंने महसूस किया कि मेरे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था ।
मेरी बगल में अपनी पिछली रात वाली ही कमीज और बैलबॉटम पतलून पहने शीतल औंधे मुंह सोई पड़ी थी । नींद में वह एक बच्चे जैसी मासूम लग रही थी । उसके खूबसूरत बाल उसके चेहरे पर बिखरे हुए थे और नींद में उसके चेहरे पर गुलाब जैसी ताजगी महसूस हो रही थी ।
उसकी कलाई पर बंधी नन्ही सी घड़ी के मुताबिक साढे आठ बजे हुए थे ।
मैंने उठने की कोशिश की तो मेरे मुंह से चीख निकल गई । मेरी टांग अकड़कर लकड़ी का तख्ता बन गई थी और मेरी पसलियों में भी कहीं दर्द हो रहा था ।
मेरी आवाज सुनकर शीतल ने आंखें खोलीं ।
“क्या हुआ ?” - वह बोली ।
“मैंने उठने की कोशिश की थी ।” - मैंने बताया ।
“चुपचाप लेटे रहो ।”
“मैं कहां हूं ?”
उसने करवट बदली, एक कोहनी के सहारे अपना सिर टिकाकर गौर से मेरी ओर देखा और पूछा - “तबीयत कैसी है ?”
“अच्छी ।”
“मैं कहां हूं ?”
“बानी पार्क में । मेरे दोस्त के घर में ।”
“और तुम्हारा वह दोस्त कहां है ?” - मैंने सशंक स्वर में पूछा ।
“यहां नहीं है ।”
“उसने मुझे देखा था ?”
“नहीं । मैंने उसे यहां पहुंचने से पहले ही भगा दिया था । यहां आने से पहले मैंने उसे फोन करके कह दिया था कि वह मेरे लिए अपना बंगला खाली करके चला जाये ।”
“और वह चला गया ?”
“हां । मेरे दोस्त मेरा कहना मानते हैं ।”
“वह यहां अकेला रहता है ?”
“हां ।”
“मुझे यहां तक तुम अकेले लाई ?”
“हां । तुम तो टेलीफोन बूथ में बेहोश पड़े मिले थे मुझे । बड़ी मुश्किल से मैंने तुम्हे अपनी कार में लादा था और यहां लेकर आई थी ।”
“मेरी ड्रेसिंग किसने की थी ?”
“मैंने और किसने ? मैंने यहां आते समय रास्ते में ही ड्रेसिंग का सामान और एण्टीसेप्टिक वगैरह खरीद लिए थे ।”
“ओह !”
उसने हाथ बढाकर मेरा माथा छुआ ।
“शुक्र है, तुम्हारा बुखार उतर गया है । रात को तो तुम अंगारे की तरह तप रहे थे ।”
“पूरी रात सोता जो रहा मैं ।”
“एक रात नहीं । दो रातें और एक पूरा दिन । तुम कम-से-कम छत्तीस घंटे दीन-दुनिया से बेखबर सोये पड़े रहे थे ।”
मैं हक्का-बक्का - सा उसका मुंह देखने लगा । तो इसलिए मुझे अपनी तबीयत इतनी सुधरी हुई लग रही थी ।
“तुम तभी से यहीं हो ?” - मैंने पूछा ।
“हां ।” - वह बोली - “बीच में एक बार मैं महल में गई थी । मैं वहां से कुछ कपड़े और खाने-पीने का सामान ले आई थी और अपनी मां को कह आई थी कि मैं अपनी एक सहेली के साथ पिकनिक पर भरतपुर जा रही थी ।”
“तुम्हारी मां ने एतराज नहीं किया ?”
“बहुत एतराज किया, लेकिन कौन सुनता है उन एतराजों को ।”
“शीतल !” - मैं गम्भीरता से बोला - “तुम मेरे लिए जरूरत से ज्यादा तकलीफ उठा रही हो । अगर किसी को पता लग गया कि तुमने एक फरार अपराधी की मदद की है तो...”
“तुम मुझे डराने की कोशिश कर रहे हो ?”
“नहीं । मैं तुम्हें वस्तुस्थिति समझाने की कोशिश कर रहा हूं ।”
“मैं सब समझती हूं ।” - वह बोली । वह पलंग से उतरकर फर्श पर खड़ी हो गई और उसने हाथों को सिर से ऊपर उठाकर एक जोर की अंगड़ाई ली ।
मेरे दिल की धड़कन बढ गयी और कलेजा मुंह को आने लगा । ऐसा सांचे में ढला जिस्म मैंने इतने करीब से पहले कभी नहीं देखा था ।
“भूख लगी है ?” - उसने मुस्कराते हुए पुछा ।
“बहुत ज्यादा । गोली से तो बच गया, लेकिन लगता है भूख से मर जाऊंगा ।”
“मैं अभी आई ।”
वह बगल के एक दरवाजे में दाखिल होकर निगाहों से ओझल हो गयी ।
मैं कोशिश करके पलंग से उठा । चादर मैंने अपनी कमर के गिर्द लपेट ली और लड़खड़ाता हुआ बाथरूम तक पहुंचा ।
जब तक मैं वहां से लौटा, शीतल ब्रेकफास्ट ले आई थी - कॉफी, ऑमलेट, डबलरोटी, मक्खन, मुरब्बा ।
“मेरे कपड़े कहां हैं ?” - मैंने पूछा ।
“अलमारी में ।” - वह बोली - “लेकिन वे पहनने लायक नहीं रहे हैं । पतलून तो बिल्कुल बेकार हो गयी है । वह खून के साथ जगह-जगह तुम्हारे जिस्म पर चिपक गयी थी । मुझे कैंची से काट-काटकर उसे तुम्हारे जिस्म से अलग करना पड़ा था । बाकी कपड़ों पर भी खून के धब्बे लगे हुए हैं ।”
“ओह !”
“लेकिन घबराओ नहीं । ऐसे कपड़े जयपुर में मिल जाते हैं । मैं तुम्हें और ला दूंगी ।”
“मेरे... मेरे पास” - मैं संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “एक रिवॉल्वर भी थी ।”
“वह भी अलमारी में पड़ी है ।”
मैं पलंग पर बैठ गया । बाथरूम में जाने और वहां से लौटने में मेरी काफी शक्ति खर्च हो गई थी । मैं हांफ रहा था ।
“अभी तुम्हें काफी आराम की जरूरत है ।” - वह सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोली ।
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर मैंने डटकर ब्रेकफास्ट किया । उसके बाद वह नहा-धोकर तैयार हुई और मुझसे बोली - “मैं जा रही हूं । शाम को लौटूंगी । लंच के लिए काफी सारा सामान रेफ्रीजरेटर में पड़ा है । तुम्हें खुद निकालकर खाना होगा । शाम का मुनासिब खाना मैं साथ लेकर आऊंगी ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“और मैं तुम्हारे लिए कपड़े भी ले आऊंगी ।”
“शुक्रिया । शीतल, जो अहसान तुम मुझ पर कर रही हो, उसका बदला मैं जिन्दगी भर नहीं उतार सकता । तुमने...”
“शटअप !”
“तुमने मेरी जान बचाई है, तुमने...”
“आई सैड शटअप ।”
मैं खामोश हो गया ।
वह चली गयी ।
थोड़ी देर बाद वह फिर वापिस लौटी ।
“अखबार ।” - वह मेरी तरफ अखबार उछालती हुई बोली ।
“थैंक्यू ।” - मैं बोला ।
वह फिर वहां से निकल गयी । थोड़ी देर बाद बाहर से कार स्टार्ट होने की और उसके वहां से रवाना होने की आवाज आई ।
अखबार में अल्बर्टो की खबर मुखपृष्ठ पर छपी थी । उसके अनुसार वह हस्पताल में था । उसकी हालत काफी खराब बताई गयी थी, लेकिन यह भी लिखा था कि वह किसी भी प्रकार के खतरे से बाहर था । अखबार में पुलिस विभाग की अच्छी खबर ली गयी थी । लिखा था कि दादागिरी की ऐसी घटनाएं नगर में आम होती जा रही थीं, जो कि पुलिस की लापरवाही का फल थीं । अल्बर्टो जैसा एक इज्जतदार आदमी बाहर से जगतप्रसिद्ध गुलाबी नगर में आया और उसके वहां कदम रखते ही तीन सजायाफ्ता मुजरिम उसके पीछे पड़ गये । यह तो उसकी बहादुरी और हौसलामन्दी थी कि उसने बाजी पलट दी थी । वह एक बदमाश से उसकी रिवॉल्वर छीनने में कामयाब हो गया था और उसने जी-जान से उनका मुकाबला किया था ।
तीनों बदमाश मर चुके थे ।
मुझे विश्वास था कि पुलिस को उस कहानी पर विश्वास नहीं हुआ होगा, लेकिन उसकी पुष्टि में चाची और मानक के बयान की रुह‍ में पुलिस के पास विश्वास कर लेने के अलावा और कोई चारा भी नहीं रहा होगा ।
मुझे पुलिस विभाग पर गुस्सा आने लगा ।
अल्बर्टो की कहानी सरासर झूठी थी, लेकिन पुलिस को उस पर विश्वास करना पड़ रहा था क्योंकि कहानी को झूठी साबित करने के लिए उनके पास कोई सबूत नहीं था । कंचन के कत्ल के सन्दर्भ में मैंने एकदम सच बोला था, लेकिन फिर भी अगर मैं उनके हाथ में आ जाता तो वे अदालत में इतने काफी सबूत मेरे खिलाफ पेश कर देते कि मुझे जरूर फांसी हो जाती ।
भाग्य की कैसी विडम्बना थी !
मेरी अपनी खबर मुखपृष्ठ से सरककर पांचवें पृष्ठ पर पहुंच चुकी थी । केवल इतना छपा था कि मैं अभी भी फरार था, लेकिन पुलिस ने दावा किया था कि वे मुझे बहुत जल्दी गिरफ्तार कर लेंगे ।
उसके बाद मैं सो गया ।
जब मैं उठा तो मैंने जाकर रेफ्रीजरेटर खोला । उसमें सैंडविच और बियर की बोतलें पड़ी थीं । मैंने एक बोतल खोली, कुछ सैंडविच उठाई और वापिस बैडरूम में आ गया ।
बियर और सैंडविच से निपटकर मैं फिर सो गया ।
शाम को मैं उठा तो सीधा बाथरूम में पहुंचा । वहां शेव का सामान भी पड़ा था । दिलावर सिंह से खाई मार की वजह से मेरा सूजा हुआ चेहरा ठीक हो चुका था । मैंने शेव कर ली ।
उसके बाद मैंने पानी में तौलिया भिगो-भिगोकर खूब रगड़-रगड़कर अपने जिस्म को साफ किया ।
सूरज डूबने के काफी देर बाद शीतल वहां लौटी । वह अपने साथ प्लास्टिक की एक बहुत बड़ी टोकरी लाई थी ।
“अरे !” - मुझे देखकर वह हैरानी से बोली - “तुम तो बहुत खूबसूरत निकल आये हो ।”
“मैं हूं ही बहुत खूबसूरत ।” - मैं शरमाता हुआ बोला ।
“जब तुम सरदार थे तब भी तुम इतने ही खूबसूरत थे ?”
“हां । इससे भी ज्यादा । बहुत बांका । बहुत सजीला ।”
“चलो-चलो । अपने मुंह मियां मिट्ठू मत बनो ।”
“टोकरी में क्या है ?”
“तन्दूरी चिकन, कीमा और नान । खाओगे तो तबीयत खुश हो जायेगी ।”
“अच्छा !”
“लेकिन पहले मुझे तुम्हारी पट्टियां बदलनी होंगी ।”
मैं खामोश रहा ।
वह अलमारी में से ड्रेसिंग का सामान निकाल लाई ।
मैंने देखा, वह कपड़े बदल आई थी । उस वक्त वह सिल्क की एक सलवार - कमीज पहने थी बहुत कमसिन, बहुत नाजुक लग रही थी ।
“तुम्हारी उम्र कितनी है ?” - एकाएक मैंने पूछा ।
“बीस । क्यों ?”
“यूं ही पूछा था ।”
“सोच रहे होगे कि इतनी कम उम्र में मैं इतनी बुरी-बुरी बातें कैसे सीख गयी ?”
“नहीं ।” - मैं बोला । हकीकतन मैं यही सोच रहा था ।
फिर वह मेरी पहली पट्टियां काटकर नयी ड्रेसिंग करने में जुट गई ।
“खाना ठंडा नहीं हो जायेगा ?” - मैं बीच में बोला ।
“नहीं ।” - वह बड़े इत्मीनान से बोली - “मैं उसे थर्मोकोल में रखकर लाई हूं ।”
“वैरी गुड ।”
“ज्यादा-से-ज्यादा और तीन दिन में तुम्हारा जख्म बिल्कुल ठीक हो जायेगा ।”
“थैंक्यू, नर्स ।”
वह मुस्कराई ।
“शीतल !” - मैं बड़ी संजीदगी से बोला - “तुम बहुत बदल गई हो ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि जिस शीतल से मैं शुरु में मिला था, उसमें और मेरे सामने बैठी शीतल में जमीन-आसमान का फर्क है ।”
“क्या फर्क है ?”
“छोड़ो । शायद तुम्हें सुनना अच्छा न लगे ।”
“नहीं । बताओ ।”
“पहले तुम मुझे एक बड़ी ओछी, बदनीयत, बिगड़ैल और सैक्स की भूखी लड़की लगी थी, लेकिन अब... अब तुम मुझे बड़ी समझदार, सलीके वाली और धीर-गंभीर लड़की लग रही हो ।”
“अच्छा ! इसे मैं अपने लिये तारीफ की बात समझूं या तौहीन की ?”
“तारीफ की ।”
“अगर मेरे में तुम्हें कोई ऐसा परिवर्तन दिखाई दे रहा है तो उसकी वजह तुम्ही हो ।”
“मैं ?”
“हां । तुम पहले शख्स हो जिसने मुझे अपने सामने परोसा पाकर मुझ पर झपट्टा नहीं मारा । मेरे लिये यह एक नई अनुभूति थी कि मैं किसी के सामने थाली में सजाकर अपना जिस्म पेश करुं और वह मुझमें दिलचस्पी न ले । पहले मुझे बहुत गुस्सा आया था । मैंने तुम्हें पुरुषत्वहीन पुरुष समझा था, लेकिन बाद में मुझे महसूस हुआ था कि गलती मेरी थी । मेरी अप्रोच गलत थी । वह यहां के ओछे, नातजुर्बेकार लोगों पर काम कर सकती थी, हर किसी पर नहीं । फिर जब तुमने घायलावस्था में मुझे फोन करके मुझे मदद के लिए बुलाया तो मुझे बहुत अच्छा लगा । मुझे पहली बार महसूस हुआ कि मर्द का बिस्तर गर्म करने के अलावा मैं उसके किसी और काम भी आ सकती हूं । तुम्हारी सेवा करके मुझे एक नए सुख और संतोष की अनुभूति हुई है ।”
मैं हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“इसलिए यह मत समझो कि मैं तुम पर कोई अहसान कर रही हूं ।” - वह उठती हुई बोली । उसने ड्रैसिंग खत्म कर दी थी - “मैं तुम्हारे लिए कपड़े लाई हूं ।”
उसने प्लास्टिक की टोकरी में से एक बंडल निकालकर मुझे सौंपा । मैंने देखा उसमें मेरा पहले जैसा ही हिप्पी परिधान था और एक खद्दर का सफेद कुर्ता-पजामा था ।
मैंने कुर्ता-पाजामा पहन लिया ।
“तुम बहुत पैसे खर्च कर रही हो ।” - मैं बोला ।
“मैं जिस बापकी बेटी हूं, उसके पास बहुत पैसा है । फालतू । घुन लग रहा है ।”
“ओह !”
“मैं खाना लगाती हूं ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
उसने ड्राइंगरूम में प्लेटों में खाना सजा दिया ।
खाने के साथ वह जॉनी वॉकर की एक बोतल भी लाई थी ।
हमने दो-दो पैग विस्की पी और डटकर खाना खाया ।
“रात को यहां रहोगी ?” - एकाएक मैंने आशापूर्ण स्वर में पूछा ।
“नहीं ।” - वह बोली - “आज मम्मी ने मुझे खास कहा है कि मैं वक्त पर लौटूं ।”
“तुम अपनी मम्मी का कहना मानती हो ?”
“कभी-कभी मानना पड़ता है । हालात का यही तकाजा है कि अब कहना मानूं । दो रात घर से गायब जो रही हूं । मैं नहीं चाहती कि मेरी मां मेरी निगरानी के लिए मेरे पीछे कोई प्राइवेट जासूस लगा दे ।”
“ऐसी कामों का बहुत शौक है तुम्हारी मां को । उसने तुम्हारे पापा के पीछे भी प्राइवेट जासूस लगाया था ?”
“हां । वह यह जानने को बहुत उत्सुक रहती है कि उसके घर के लोग क्या मौज मार रहे हैं ।”
“तुम्हारी हरकतों, की खबर है उसे ?”
“शक है, लेकिन गारन्टी नहीं है । इसीलिये तो मैं नहीं चाहती कि वह मेरे पीछे प्राइवेट जासूस लगाए ।”
हम भोजन की मेज से उठे । वह बैडरूम में आई और उसने खाली टोकरी उठा ली ।
एकाएक मैंने उसे अपनी बांहो में भर लिया । मैंने बड़ी आतुरता से उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए ।
“मुझे जाने दो ।” - कुछ क्षण बाद वह कम्पित स्वर में बोली ।
“क्यों ? मुझसे डरती हो ?”
“नहीं । अपने आपसे डरती हूं ।”
मैंने उसे बन्धनमुक्त कर दिया ।
उसने हौले से मेरे गाल पर एक चुम्बन अंकित किया, मुस्कराई और बोली - “मैं कल फिर आऊंगी ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“शायद कल मुझे डर न लगे । तुमसे या अपने आपसे ।”
“ओके ।”
“गुड नाइट । स्वीट ड्रीम्स ।”
वह चली गई ।
मैं बिस्तर के हवाले हो गया ।
तीन दिन और गुजर गए ।
तीन बेहद सकून, इत्मीनान और मौज के दिन ।
मेरा जख्म अब काफी हद तक भर चुका था और अब मैं मजे से चल-फिर सकता था ।
चौथे दिन की सुबह !
शीतल किचन में ब्रेकफास्ट तैयार कर रही थी और मैं बैडरूम में बैठा अखबार पढ रहा था ।
मुख पृष्ठ पर मेरे बारे में या अल्बर्टो के बारे में कुछ नहीं था ।
मैंने पन्ना पलटा ।
तीसरे पृष्ठ पर निगाह पड़ते ही मैं ठिठक गया ।
वहां छपी दिलावर सिंह की तस्वीर मेरी तरफ झांक रही थी ।
वह तस्वीर पुलिस का स्टॉक शॉट थी । वह केवल गले तक की तस्वीर थी और उसके नीचे गले के पास एक पुलिस के रिकॉर्ड का नम्बर अंकित था ।
जिस समाचार के अन्तर्गत वह तस्वीर छपी थी, उसके अनुसार दिलावर सिंह ने हाल ही में एक पैट्रोल पम्प लूटा था । क्योंकि बैंक डकैती के संदर्भ में उसकी तस्वीर पहले भी छप चुकी थी, इसलिए पैट्रोल पम्प के मालिक ने उसे पहचान लिया था । बाद में जब उसे पुलिस द्वारा दिलावर सिंह की वह तस्वीर दिखाई गई थी तो उसने तस्वीर से भी उसे झट पहचान लिया था और इस बात की पुष्टि हो गई थी कि वह‍ डाका मारने वाला आदमी दिलावर सिंह ही था जो कि हाल ही में जेल तोड़कर भाग निकला था ।
उस खबर में दिलावर सिंह के उस आखिरी अपराध का भी हवाला था, जिसकी वजह से उसे उम्र कैद की सजा हुई थी । उसने अपने एक साथी के साथ मिलकर दिन-दहाड़े नेशनल बैंक पर डाका मारा था, जिसमें उसके हाथ से बैंक का गार्ड मारा गया था और बैंक डकैती में उसका सहयोगी उसका एक साथी मारा गया था । दिलावर सिंह उस वक्त तो वहां से भाग निकलने में कामयाब हो गया था लेकिन बाद में वह गिरफ्तार कर लिया गया था ।
खबर के अनुसार दिलावर सिंह मूल रूप से भीलवाड़ा का रहने वाला था ।
दिलावर सिंह का कंचन की हत्या से रिश्ता किसी ने भी जोड़ने की कोशिश नहीं की थी । इसका मतलब था कि कोई नहीं जानता था कि उसका उससे कोई रिश्ता था या हो सकता था । केवल मैं जानता था कि दिलावर सिंह का कंचन की मौत से नहीं तो कम-से-कम कंचन से जरूर कोई रिश्ता था ।
भीलवाड़ा ।
मैं सोचने लगा कि अगर मैं भीलवाड़ा जाऊं तो क्या वहां से दिलावर सिंह की कोई खबर लग सकती थी ?
तभी मुझे लगा कि शीतल मेरे पास खड़ी थी । पता नहीं वह कब वहां आ खड़ी हुई थी ।
“क्या सोच रहे हो ?” - उसने पूछा ।
मैंने उसे सारी बात बताई और उससे पूछा - “क्या तुम मुझे अपने साथ भीलवाड़ा लेकर चल सकती हो ?”
“कार पर ?” - उसने पूछा ।
“हां ।”
“बड़ा फासला है ।”
“चार-पांच घंटे का रास्ता है । हम रात तक वापिस लौट आएंगे ।”
“जयपुर से निकलते समय अगर तुम्हें पुलिस ने पकड़ लिया तो ?”
“मुझे उम्मीद नहीं कि ऐसा हो ।” - मैं बोला - “एक तो अब बात बहुत पुरानी हो चुकी है दूसरे तुम मेरे साथ होगी । ऊपर से तुम्हारी खूबसूरत विलायती गाड़ी और मेरा बदला हुआ व्यक्तित्व । मुझे तो उम्मीद नहीं कि किसी का मेरी तरफ ध्यान भी जाएगा ।”
“ठीक है । चलते हैं ।”
मैंने शीतल का लाया हुआ नया हिप्पी परिधान पहन लिया और चलने के लिए तैयार हो गया ।
हम कंचन की लाल वोल्क्सवैगन पर भीलवाड़ा के लिए रवाना हुए ।
रास्ते में किसी प्रकार की अड़चन पेश नहीं आई ।
हम दो बजे के करीब भीलवाड़ा पहुंच गए ।
भीलवाड़ा एक छोटी-सी जगह थी, जो केवल अबरक की खानों की वजह से मशहूर थी ।
हमने नगर के इकलौते ढंग के रेस्टोरेन्ट में खाना खाया ।
हमने दिलावर सिंह के बारे में पूछताछ आरम्भ की तो मालूम हुआ कि दिलावर सिंह तो वहां पर लोककथाओं के नायकों की तरह मशहूर था । उसे भीलवाड़ा का बच्चा-बच्चा जानता था ।
हमने रेस्टोरेन्ट के मालिक से ही बात की । हमने उसे यह बताया कि हम दोनों मनोहर कहानियां के प्रतिनिधि थे और दिलावर सिंह के कारनामों पर आधारित मनोहर कहानियां में प्रकाशनार्थ एक सत्यकथा तैयार कर रहे थे ।
“दिलावर सिंह तो यहां की बड़ी मशहूर हस्ती है, साहब ।” - उसने हमें बताया ।
“है ?” - मैं बोला - “शायद तुम्हारा मतलब है कि था । अब तो वह जेल में है न ?”
“नहीं, साहब । वह तो कई हफ्ते हुए जेल तोड़कर भाग निकला था । मैंने अखबार में पढ़ा था । मैं तो पहले ही जानता था कि दिलावर सिंह जैसे आदमी को जेल में बन्द करके रख पाना बड़ा मुश्किल काम था । वह उनके काबू में आने वाला आदमी था ही नहीं ।”
वह यूं कह रहा था जैसे उसे दिलावर सिंह के कारनामों पर फख्र हो ।
“ये डाकाजनी की हरकतें उसने भीलवाड़ा से निकलने के बाद शुरु की थीं या यहां भी वह यही कुछ करता था ?”
“उसकी जरायमपेशा जिन्दगी की शुरुआत तो यहीं से हो गई थी लेकिन यह छोटी जगह थी, यहां छोटे हाथ मारने की गुंजायश थी, इसलिए वह यहां से चला गया था ।”
क्या कहने - मैं मन-ही-मन बोला - जैसे सिकन्दर दुनिया फतह करने के लिए मकदूनिया से निकल गया हो ।
“तुम जाती तौर पर जानते थे उसे ?” - प्रत्यक्षतः मैंने पूछा ।
“हां” - वह गर्व से बोला - “वह अक्सर यहां आया करता था और हमेशा मुझसे हाथ मिलाकर जाया करता था ।”
“यानी कि तुम्हारा रेस्टोरेन्ट काफी पुराना है ?”
“हां ।”
“उसके घर वाले तो यहीं रहते होंगे ?”
“पहले रहते थे, लेकिन अब तो सब मर-खप गए । उस परिवार में से केवल दिलावर सिंह ही जिन्दा है ।”
“काम धन्धा क्या था उनका यहां ?”
“सब सेठ पूसालाल मानसिंह की अबरक की खानों में काम करते थे । दिलावर सिंह का बाप भी, उसका दादा भी और कुछ अरसा वह खुद भी । लेकिन जल्दी ही उसने उस काम से किनारा कर लिया था और जरायमपेशा लोगों की सोहबत शुरु कर दी थी । उसके बाद वह यहां से चला गया था और फिर धीरे-धीरे वह इतना बड़ा डकैत बन गया था कि अखबारों में उसकी तस्वीरें छपने लगी थी लेकिन जयपुर के नैशनल बैंक की डकैती से पहले वह कभी पकड़ा नहीं गया था ।”
“सुना है वह फौरन नहीं पकड़ा गया था ?”
“ठीक सुना है आपने । उस डकैती में उसने एक गार्ड को मार डाला था और खुद उसका एक साथी गार्ड की गोली का शिकार होकर जान से हाथ धो बैठा था । उस वक्त तो वह भाग निकलने में कामयाब हो गया था लेकिन तीन दिन बाद बेचारा आ ही गया था पुलिस की गिरफ्त में । दरअसल डकैती के दौरान उसकी भी बांह में गोली लगी थी और उसकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि उसके लिए किसी डॉक्टर के पास जाना जरूरी हो गया था जिस डॉक्टर के पास वह गया था, उसने उसे पहचान लिया था । ऑपरेशन करके गोली निकालने के बहाने उसने इंजेक्शन देकर दिलावर सिंह को बेहोश कर दिया था और फिर पुलिस को खबर कर दी थी । उसको होश आने से पहले ही पुलिस ने उसको आ दबोचा था । लेकिन दिलावर सिंह ही उनके हाथ आया था, लूट का माल नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“भई, बैंक डकैती में जो पांच लाख रुपया उसने लूटा था, वह पुलिस उसके पास से बरामद नहीं कर सकी थी ।”
पांच लाख रुपया !
तो यह था वह माल जिसका दिलावर सिंह मुझसे कोई अता-पता जानना चाहता था और उसके ख्याल से कंचन ने वह माल तलाश कर लिया था ।
“उन पांच लाख रुपयों की पुलिस को कोई खोज-खबर नहीं लगी ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं । दिलावर सिंह ने वह माल कहीं छुपा दिया था । पुलिस ने बहुत जोर लगाया, लेकिन वह बक कर ही नहीं दिया कि माल उसने कहां छुपाया था । फिर अदालत में उसे उम्रकैद की सजा हो गई । यह उसकी खुशकिस्मती थी कि उसे फांसी की सजा नहीं मिली ।”
“हूं ।”
“और अच्छा ही हुआ कि वह पुलिस के इस घिस्से में नहीं आया कि अगर वह माल का पता बता देगा तो उसकी सजा कम हो जाएगी । शायद उसे गारन्टी थी कि वह जेल से भाग निकलने में कामयाब हो जाएगा । अब पट्ठा पांच लाख रुपये के साथ मौज मार रहा होगा ।”
“लेकिन मुमकिन है उसकी जेलयात्रा के दौरान माल किसी और के हाथ लग गया हो ?”
“मुझे उम्मीद नहीं, क्योंकि उसकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने यहां पर माल की तलाश में जमीन-आसमान एक कर दिया था । यहां पर दिलावर सिंह का खानदानी मकान है । उसकी गिरफ्तारी के बाद यहां के लोगों ने उस मकान को उधेड़कर रख दिया था, इस उम्मीद में कि शायद वह माल यहां छुपा गया हो और वह उनमें से किसी के हाथ लग जाए । अब वह मकान खाली पड़ा है, लेकिन लोगों ने उसे रहने के काबिल नहीं छोड़ा है । बच्चे वहां खेलने के लिए जाते हैं और इस उम्मीद में वहां के फर्श खोदते रहते हैं और दीवारों की ईंटें उखाड़ते रहते हैं कि शायद माल अभी भी वहां हो । लेकिन माल वहां नहीं हो सकता । दिलावर सिंह की गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने उस मकान की बड़ी बारीकी से तलाशी ली थी । पुलिस ने तो दिलावर सिंह की मंगेतर के घर की तलाशी भी ली थी, लेकिन माल वहां से भी उनके हाथ नहीं लगा था ।”
“दिलावर सिंह की मंगेतर ! वह अभी भी यहां है ?”
“नहीं । वह तो काफी अरसा हुआ यहां से चली गई थी । यहां तो किसी ने काफी अरसे से उसके बारे में कुछ नहीं सुना । वापिस कभी वह लौटी नहीं और किसी को बता कर वह गई नहीं थी कि वह कहां जा रही थी । मेरा ख्याल है कोई तीन साल पहले वह यहां से गई थी । यहां उसका भी खानदानी मकान था, जिसे कि वह जाने से पहले बेच गई थी । लोगों को इसी बात से समझ जाना चाहिए था कि वह लौटकर आने वाली ही नहीं थी । और फिर कंचन जैसी लड़की के लिए भीलवाड़ा मुनासिब जगह थी भी नहीं ।”
मैं चौंका । मैंने शीतल की तरफ देखा । उसने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से सिर हिलाया ।
“क्या नाम लिया तुमने ?” - मैं बोला ।
“कंचन ।” - वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “क्यों ?”
“यह दिलावर सिंह की मंगेतर का नाम था ?”
“हां ।”
“उसके घर वाले यहां कहां रहते हैं ?”
“उसके घर वाले हैं ही नहीं । उसकी मां तो बचपन में ही मर गई थी । यहां अपने धोबी कटड़ा वाले मकान में वे दोनों बाप-बेटी ही रहते थे । फिर कोई साढे तीन साल पहले बाप की भी मौत हो गई थी ।”
“और उसके तुरन्त बाद कंचन मकान बेचकर यहां से चली गई थी ?”
“नहीं । कोई छः महीने वह उस मकान में अकेली रहती रही थी । उसके बाद एकाएक उसने अपने पड़ोसी प्रताप सिंह को वह मकान बेच दिया था और यहां से चली गई थी ।”
हमने उससे धोबी कटड़ा का रास्ता पूछा और वहां से विदा हो गए ।
“वहां से तुम क्या हासिल होने की उम्मीद कर रहो हो ?” - रास्ते में कार चलाती हुई शीतल बोली ।
“देखते हैं ।” - मैं बोला - “शायद कुछ हासिल हो ।”
धोबी कटड़ा के इलाके में प्रताप सिंह को हर कोई जानता था । हमें बता दिया गया कि उसका मकान कौन-सा था ।
प्रताप सिंह एक हट्टा-कट्टा तन्दुरुस्त वृद्ध निकला । वह बहुत मोटे कपड़े का कुर्ता-पजामा पहने था और सिर पर राजस्थानी ढंग का साफा बांधे था ।
“मैं एक वकील हूं” - मैंने उसे बताया - “यहां इस मकान में कंचन नाम की जो लड़की रहती है, उसके लिए उसका कोई रिश्तेदार विरासत में कुछ पैसा छोड़ गया है । वह पैसा कंचन को सौंपने की जिम्मेदारी हमारी है ।”
“कंचन पहले यहां रहती थी । अब तो वह यहां रहती नहीं ।”
“लेकिन मैंने सुना है, यह मकान उसका है ?”
“था । कोई तीन साल हुए, यह मकान कंचन से मैंने खरीद लिया था ।”
“आपको मालूम नहीं कि यह मकान बेचकर कंचन यहां से कहां गई ?”
“नहीं ।”
“यहां से जाने के बाद उसे कभी अपनी कोई खोज-खबर नहीं दी ?”
“न ।”
“पड़ोसी होने के नाते आप उसे जानते तो खूब अच्छी तरह से होंगे ?”
“हां । लेकिन मैं उसके बाप को बेहतर जानता था । बढिया आदमी था ।”
“कंचन मकान बेचकर यहां से चली क्यों गई ?”
“वह बड़ी तड़क-भड़क वाली, फिल्मों से प्रभावित लड़की थी । बहुत महत्तवाकांक्षी थी वह और बहुत उच्छृंखल स्वभाव था उसका । यहां भीलवाड़ा में उसके लिए क्या रखा था ! मैं उसका स्वभाव समझता था इसीलिए मैंने उसके बाप की मौत के बाद उसे कहा था कि अगर वह अपना मकान बेचे तो मुझे दे । लेकिन उसके मकान की जो कीमत मैंने लगाई थी, वह उसे जंची नहीं थी । वह कहती थी कि वह कीमत कम थी इसलिए उसने अपना मकान मुझे नहीं बेचा था । लेकिन कोई लगभग तीन साल पहले वह मकान बेचने को तैयार हो गई थी । मैंने मकान की वही कीमत अदा की थी जो मैंने उसे पहले देनी चाही थी ।”
“ऐसा कैसे हो गया ?”
“मेरे ख्याल से वह मकान पर पल्ले से पैसा नहीं लगाना चाहती थी । शायद वह छत ठीक करवाने पर पैसा खर्च नहीं करना चाहती थी ।”
“छत !”
“हां । तीन साल पहले एक बार बड़ा भयंकर तूफान आया था और उसके मकान की ऊपर की मंजिल पर बने चौबारे की चिमनी के पास की कुछ सिलें ढीली पड़कर गिर गई थीं । कंचन ने उन्हें फिर से लगवाने के लिए एक आदमी बुलवाया तो था लेकिन वह बिना कुछ किए ही लौट गया था । बाद में जब मैंने मकान खरीद लिया था चौबारे की छत की मरम्मत खुद मैंने करवाई थी । बड़े पैसे लगे थे । शायद इसीलिए कंचन ने छत की मरम्मत के लिए बुलवाये आदमी को वापिस भेज दिया था क्योंकि वह बहुत ज्यादा पैसे मांग रहा था । वह साला नाहर सिंह वैसे भी धन्धे में लोगों की चमड़ी उधेड़ने में विश्वास रखता था । बहुत पैसे मांगा करता था वह ।”
“नाहर सिंह !” - मैं फिर चौंका - “नाहर सिंह कौन ?”
“भई वही आदमी जिसे कंचन ने छत की मरम्मत की खातिर बुलाया था । वह यहां का ऐसे तमाम तोड़-फोड़ के कामों का ठेकेदार था । उससे पहले नाहर सिंह का बाप भी यही काम करता था, लेकिन वह नाहर सिंह की तरह गैर-मुनासिब पैसे नहीं मांगा करता था ।”
“कंचन नाहर सिंह को खूब जानती थी ?”
“हां । छोटी-सी तो जगह है यह । यहां तो हर कोई हर किसी को जानता है ।”
“बाद में आपने उसी से छत ठीक करवाई थी ?”
“नहीं । मैंने छत खुद ही ठीक कर ली थी ।” - उसकी निगाह चौबारे की छत की ओर उठ गई - “लेकिन शायद मैं ठीक से यह काम नहीं कर पाया था, क्योंकि पिछले हफ्ते ठीक पहले वाली जगह से ही कुछ सिलें फिर उखड़ गई थीं और मुझे उनको फिर से लगाना पड़ा था ।”
“पिछले हफ्ते ?” - अब सारी कहानी मेरी समझ में आती जा रही थी ।
“हां ।”
“लेकिन सिलें फिर से उखड़ कैसे गई ?”
“पता नहीं ।”
“क्या फिर तूफान आ गया था ?”
“नहीं, तूफान तो नहीं आया था । हुआ तो कुछ भी नहीं था । पिछले हफ्ते हम लोग घर पर नहीं थे, कहीं रिश्तेदारी में गये हुए थे । जब हम वापिस आये थे तो मैंने सिलें उखड़ी हुई पाईं थीं । पता नहीं ऐसा कैसे हो गया ! उस दिन तो साली हवा तक नहीं चल रही थी ।”
“नाहर सिंह अब भी यहीं रहता है ?”
“नहीं । वह तो कब का भीलवाड़ा छोड़ गया है । मेरे ख्याल से जब कंचन यहां से गई थी, तभी वह भी कहीं चला गया था ।”
हमने प्रताप सिंह का शुक्रिया अदा किया और वापिस कार में आ बैठे ।
“अब ?” - शीतल बोली ।
“वापिस जयपुर ।” - मैं बोला ।
“जाओगे ?”
“क्यों ? क्यों नहीं जाऊंगा ?”
“तुम इस वक्त खतरे के जोन से बाहर हो । वापिस लौटकर क्यों दोबारा खतरे में कदम रखते हो ? वहां तो तुम्हें हर क्षण यही चिन्ता लगी रहेगी कि कहीं तुम कंचन के कत्ल के इल्जाम में फिर गिरफ्तार न कर लिए जाओ ।”
“यह केस अब खत्म होने वाला है । मेरा ख्याल है, मैं समझ गया हूं कि कंचन का हत्यारा कौन हो सकता है ।”
“फिर भी लौटने का फायदा ?”
“मैं पहले ही कह चुका हूं कि वहां की पुलिस ने अभी तक भी मुझे पुराने इश्तिहारी मुजरिम के रूप में पहचाना नहीं है । अगर कंचन के कत्ल का इल्जाम मेरे सिर से हट जाये तो मैं अभी भी सुख-चैन से वहां अपना मोटर मैकेनिक गैरेज चलाता रह सकता हूं ।”
“ओह !”
“और फिर जब जयपुर रहने में मेरी एक दिलचस्पी और भी है ।”
“क्या ?”
“तुम ।”
उसका चेहरा लाल हो गया । उसने जोर से मेरी पीठ पर मुक्का जमाया ।
मैं हंसा ।
“तुम तो यहां दिलावर सिंह की फिराक में आये थे !”
वापिस चलो ।” - मैं व्यस्त भाव से बोला - “अब मैं दिलावर सिंह की फिराक में नहीं हूं ।”
शीतल ने कार फिर उस रास्ते की तरफ दौड़ा दी, जो जयपुर की तरफ जाता था ।
मैं बहुत थक गया था । मैंने शीतल के कन्धे के साथ सिर टिका दिया और आंखें बन्द कर लीं ।
***
आधी रात के बाद हम जयपुर वापिस पहुंचे ।
मैंने शीतल को गुलाब महल के पास कार से उतार दिया । मैंने उसे बताया कि मैं उसके दोस्त के बंगले पर जा रहा था ।
और कार भी साथ ले जा रहा था ।
उसने एतराज नहीं किया ।
मेडिकल कॉलेज के सामने वाले टेलीफोन बूथ के आगे मैंने कार रोकी । मैंने बूथ में से डायरेक्ट्री निकाली और उसमें देखना आरम्भ किया कि क्या नाहर सिंह के घर पर भी टेलीफोन था ।
डायरेक्ट्री में नाहर सिंह के घर का नम्बर भी लिखा था और उसके नाम के आगे उसके घर का पता भी लिखा था - 14, शिव मार्ग, बानी पार्क ।
तब तक समय दो से ऊपर हो चुका था । चेतक क्लब एक बजे बन्द हो जाती थी इसलिए मुझे उम्मीद थी कि नाहर सिंह तब तक अपने घर पहुंच चुका होगा ।
मैं बानी पार्क पहुंचा ।
नाहर सिंह की कोठी तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । उस वक्त शिव मार्ग सुनसान पड़ा था और अड़ोस-पड़ोस में एकदम सन्नाटा था ।
मैंने कार को नाहर सिंह की कोठी से थोड़ा आगे ले जाकर रोका और फिर पैदल वापिस लौटा । उसकी कोठी के समीप पहुंचकर मैं एक क्षण को ठिठका और फिर लोहे का फाटक ठेलकर भीतर कम्पाउण्ड में दाखिल हो गया । मैं कोठी के मुख्य द्वार के पास पहुंचा । मैंने अपना दायां हाथ पतलून की उस जेब में डाला, जिसमें रिवॉल्वर पड़ी थी । मेरी उंगलियां बड़ी मजबूती से रिवॉल्वर की मूठ के गिर्द लिपट गईं ।
फिर मैंने कॉलबेल बजाई ।
कोई जवाब न मिला । इमारत के भीतर से किसी भी प्रकार की आहट नहीं मिल रही थी ।
मैं वहां से हटा और अन्धकार में डूबी इमारत का घेरा काटकर पिछवाड़े में पहुंचा । वहां खुलने वाली एक-एक खिड़की को मैंने धकेल-धकेल कर चैक कराना आरम्भ किया । पिछले दरवाजे के बगल की एक खिड़की खुली थी । मैं उचककर उसकी चौखट पर चढ गया और फिर खामोशी से भीतर कूद गया ।
वह एक अन्धेरा कमरा था । मैं अपने पीछे खुली खिड़की बन्द करने के लिए घूमा ।
तभी मुझे अपने पीछे से एक भारी, खरखराती कर्कश आवाज सुनाई दी ।
“हिलना मत ।”
दिलावर सिंह की आवाज !
मेरा सांस सूखने लगा ।
“अपने दोनों हाथ ऊपर को फैलाकर दीवार के साथ टिका दो ।” - आदेश मिला ।
जेब में पड़ी रिवॉल्वर तक दोबारा हाथ पहुंचाने का मुझे मौका ही नहीं मिला था । मैंने दोनों हाथ उठाए और दीवार पर टिका दिए ।
उसने मेरी जेब टटोली फिर मेरी पतलून की जेब से रिवॉल्वर निकाल ली । वह तुरन्त परे हट गया और बोला - “अब घूम जाओ ।”
मैं घूमा । खिड़की के बाहर से आती मद्धिम-सी रोशनी में मुझे उसके विशाल शरीर का आकार दिखाई दिया । तभी उसने हाथ बढाकर एक बिजली का स्विच ऑन‍ किया । कमरे में एक छोटा-सा बल्ब जल उठा । मैंने देखा हम एक पुराने ढंग की किचन में थे । दिलावर सिंह के विशाल हाथ में वही रिवॉल्वर मौजूद थी जिसके दर्शन मुझे पहले भी हो चुके थे । उसका रिवॉल्वर वाला हाथ एकदम स्थिर था और उसकी नाल का रुख सीधा मेरे पेट की तरफ था । उसके भारी चेहरे पर क्रूरता के भाव हमेशा की तरह तब भी मौजूद थे ।
“इस बार फिर कोई होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना, पट्ठे ।” - वह क्रूर स्वर में बोला - “इस बार अगर तुमने जोर से सांस भी ली तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा ।”
मैंने सहमति से सिर हिलाया ।
“यहां क्यों आए तुम ?” - उसने पूछा ।
“नाहर सिंह से मिलने आया था ।” - मैं बोला - “मुझे यहां तुमसे मुलाकात होने की उम्मीद नहीं थी ।”
वह हंसा ।
“लेकिन मुझे सूझना चाहिए था कि तुम यहां हो सकते हो । इस शहर में पुलिस से तुम्हें और कौन छुपाकर रख सकता था । नाहर सिंह को तो तुम बहुत पुराने जानते होगे । तुम दोनों भीलवाड़ा के ही तो रहने वाले हो ।
“हम दोनों बचपन के दोस्त हैं ।”
“और दोस्ती का हक अदा करने के लिए ही नाहर सिंह तुम्हें अपनी कोठी में छुपाए हुए है ।”
वह खामोश रहा । वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोला - “यहां से चलो ।”
“कहां ?”
“आगे बढो ।”
मैं खिड़की से परे हटकर आगे बढा ।
अपनी रिवॉल्वर से कवर किए हुए वह मुझे इमारत की बेसमेंट में ले आया । वहां एक कमरे में रोशनी थी । वह कमरा एक बैडरूम की तरह सजा हुआ था । दिलावर सिंह शायद वहीं छुपकर रह रहा था । इसीलिए मुझे कोठी से बाहर कोई रोशनी नहीं दिखाई दी थी । कमरे की बायीं दीवार में एक बन्द दरवाजा था जो मेरे अनुमान से गैरेज में खुलता था ।
“घूम जाओ !” - वह बोला ।
मैं घूमा । मेरा मुंह सामने खड़े दिलावर सिंह की तरफ हो गया । रिवॉल्वर की नाल फिर मेरे पेट की तरफ तनी हुई थी ।
“बैठ जाओ ।”
मैं अपने पीछे पड़ी कुर्सी पर बैठ गया ।
“अपने दोनों हाथ अपनी गरदन के पीछे बांध लो ।”
मैंने आदेश का पालन किया ।
वह थोड़ा आगे बढा, लेकिन मेरे बिल्कुल करीब नहीं आया ।
“अब मैं तुमसे आखिरी बार पूछ रहा हूं । आखिरी बार । समझे ! बोलो, मेरा माल कहां है ?”
“मुझे नहीं मालूम” - मैं सावधानी से बोला - “कि माल अब कहां है ।”
“तुम्हे सब मालूम है ।”
“जब तुमने मुझसे पिछली बार पूछा था, तब मुझे नहीं मालूम था । सच कह रहा हूं । मुझे अभी...”
“ज्यादा बातें मत बनाओ । सीधे-सीधे बोलो । माल कहां है ?”
“बता दूंगा लेकिन पहले तुम्हें मेरे दो सवालों का जवाब देना होगा ।”
“तुम मुझसे सवाल मत करो । मेरे सवाल का तुम जवाब दो । समझे ?”
“तुम उन पांच लाख रुपयों के बारे में पूछ रहे हो न जो तुमने नेशनल बैंक की डकैती में लूटे थे ?”
“हां ।”
“वह रुपया तुमने भीलवाड़ा में कंचन के मकान के चौबारे की छत में छुपाया था ?”
“हां । और कहा न बातें मत बनाओ । जो मैं पूछ...”
“वह पैसा कंचन के हाथ लग गया था ।”
“मुझे मालूम है । यह तुम मुझे कोई नई बात नहीं बता रहे हो । मैं जेल से फरार होते ही भीलवाड़ा पहुंचा था । वहां मैंने चौबारे की सिलें उखाड़कर भीतर झांका था तो पांच लाख रुपया मैंने वहां से गायब पाया था । मैं तभी समझ गया था कि माल कंचन के हाथ लग गया था ।”
“बिल्कुल । लेकिन एक बात ऐसी भी है जो तुम नहीं समझे हो । तुम...”
“यह टालमटोल बन्द करो ।” - वह धमकीभरे ढंग से अपने रिवॉल्वर वाले हाथ को झटका देता हुआ बोला - “मुझे सीधे बताओ कि अब... अब वह माल कहां है ? वह माल मेरा है । उसके लिए मैंने अपनी जान की बाजी लगाई है । उसके लिए मैं जेल में चक्की पीसता रहा था । मुझे मेरा माल वापिस चाहिए । अभी मैं अपना माल वापिस हासिल करके रहूंगा, चाहे इसके लिए मुझे कितना ही खून-खराबा क्यों न करना पड़े । मैं...”
एकाएक वह खामोश हो गया । बाहर से एक कार के आकर ड्राइव-वे में रुकने की आवाज आई थी । थोड़ी देर बाद गैरेज का शटर उठने की आवाज आई । फिर कार गैरेज में दाखिल हुई ।
कमरे का वातावरण एकाएक बहुत पैना हो उठा । दिलावर सिंह स्तब्ध खड़ा रहा । मैं खामोश बैठा रहा ।
लेकिन दिलावर सिंह की निगाह एक क्षण के लिए भी मुझ पर से नहीं हटी थी ।
फिर गैरेज का शटर नीचे गिराये जाने की आवाज आई । उसके बाद बायीं दीवार के दरवाजे में चाबी लगने की आहट मिली चाबी ताले में घूमी । किसी ने बाहर से दरवाजे को धकेलकर खोला ।
फिर नाहर सिंह ने भीतर कदम रखा । उसने एक थकी हुई मुस्कराहट दिलावर सिंह पर डाली और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया ।
तब उसे कुर्सी पर बैठा मैं दिखाई दिया ।
वह चौंका । एक क्षण के लिए मुझे उसके थके हुए चेहरे पर दशहत के भाव दिखाई दिये । एकाएक वह आतंकित भाव से चिल्लाया - “दिलावर ! यह वह आदमी है जिसने तुम्हारी मंगेतर कंचन का कत्ल किया है । तुम देख क्या रहे हो ? शूट कर दो हरामजादे को !”
दिलावर सिंह स्थिर स्वर में बोला - “पहले मुझे मेरा माल चाहिए अभी फौरन ।”
“अगर तुम्हें अपना माल चाहिए, दिलावर सिंह” - मैं बोला - “तो मांग लो अपने दोस्त से । तुम्हारा माल इसी के पास है ।”
“यह झूठ है ।” - नाहर सिंह बोला । वह आगे बढ़ा । उसने एक जोर का थप्पड़ मेरे मुंह पर जमाया और बोला - “साले, झूठे ! मैं तेरा थोबड़ा तोड़ दूंगा ।”
“मैं सच बोल रहा हूं, दिलावर सिंह ।” - मैं स्थिर स्वर में बोला - “माल इसी के पास है । और यह बात साबित करना कोई मुश्किल काम नहीं है ।”
नाहर सिंह ने मुझ पर आक्रमण करने के लिए फिर अपना हाथ उठाया ।
“नाहर !” - दिलावर सिंह अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “रुक जाओ ।”
“लेकिन यह हरामजादा झूठ बक रहा है ।” - नाहर सिंह भड़ककर बोला - “यह...”
“शटअप ।” - दिलावर सिंह क्रूर स्वर में बोला - “यह जो कहना चाहता है, इसे कहने दो ।” - फिर वह मुझसे सम्बोधित हुआ - “बोल, पट्ठे ! कैसे साबित करते हो कि माल नाहर सिंह के पास है ?”
“बड़ा आसान काम है यह ।” - मैं बोला - “केवल तुम्हें भीलवाड़ा फिर जाना पडे़गा । प्रताप सिंह नाम का जो आदमी अब कंचन के घर का मालिक है, वह तुम्हें बतायेगा कि कैसे तीन साल पहले एक तूफान आया था और चौबारे की छत की चिमनी के पास की कुछ सिलें उखड़कर गिर गई थीं । कैसे उस छत की मरम्मत के चक्कर में कंचन के बुलावे पर नाहर सिंह वहां पहुंचा था, लेकिन छत की मरम्मत के लिए कुछ किये बिना ही वहां से चला गया था । यह...”
“दिलावर !” - नाहर सिंह फरियाद-सी करता हुआ बोला - “यह बात नहीं...”
“तुम थोड़ी देर के लिए अपना थोबड़ा बन्द रखो ।” - दिलावर सिंह एक क्षण के लिए रिवॉल्वर उसकी तरफ लहराता हुआ बोला - “तुम आगे बढ़ो ।” - वह मुझसे बोला ।
“इसने छत ठीक नहीं की ।” - मैं बोला - “लेकिन उसके लगभग फौरन बाद यह भीलवाड़ा से कूच कर गया और यहां आ गया । ठीक उसी दौरान कंचन भी यहां आ गई । नाहर सिंह ने आते ही यहां चेतक क्लब खोल ली और कंचन उस क्लब की होस्टेस बन गई । यानी कि जो आदमी कल तक छोटी-मोटी मरम्मत के कामों का ठेकेदार था, वह एकाएक क्लब खोलने के काबिल सम्पन्न हो गया । अब कुछ समझ में आया, दिलावर सिंह ?”
“झूठ !” - नाहर सिंह चिल्लाया - “सब झूठ !”
लेकिन दिलावर सिंह अब उसके मुंह से निकले शब्दों की ओर कतई ध्यान नहीं दे रहा था । अब उसका पूरा ध्यान मेरी तरफ था ।
“इन तमाम बातों का एक ही जवाब है जो सही है ।” - मैं बोला - “तुमने लूट का माल चौबारे की छत में छुपाया था । तूफान से जब छत की सिलें उखड़कर गिर गईं और नाहर सिंह उनकी मरम्मत के लिए वहां पहुंचा तो जहां छत से सिलें उखड़ी थीं, उसने वहां तुम्हारा माल छुपा हुआ पाया । उस वक्त वहां कंचन भी मौजूद थी । उन दोनों ने सोचा कि तुम्हारी तो बाकी जिन्दगी जेल में गुजरने वाली थी इसलिए किसी को खबर नहीं लगने वाली थी कि वह माल उनके हाथ लग गया था । उन दोनों ने माल हजम कर जाने का फैसला कर लिया ।
नाहर सिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं । वह दरवाजे के समीप सरक गया और उसका हाथ यूं दरवाजे के हैंडल पर पड़ा जैसे वह उसका सहारा ले रहा हो ।
“कोशिश बेकार होगी ।” - दिलावर सिंह धीरे से बोला ।
“म.. मैं... मैं कुछ नहीं...” - नाहर सिंह बोलता-बोलता बीच में ही अटक गया । वह बद्हवास-सा कभी मुझे और कभी दिलावर सिंह को देखने लगा ।
“वह पांच लाख रुपया कब्जा कर यह और कंचन जयपुर आ गए ।” - मैं बोला - “उसी रुपये से दोनों ने यहां चेतक क्लब खोली । जैसा कि लोगों ने हमेशा समझा, कंचन चेतक क्लब की केवल होस्टेस नहीं थी, वे दोनों क्लब में पार्टनर थे और उससे होने वाले मुनाफे के बराबर के हिस्सेदार थे । यह वह कमाई थी जिसकी वजह से कंचन अपने सागर अपार्टमैंट्स वाले शानदार फ्लैट में रहना अफोर्ड कर सकती थी ।”
दिलावर सिंह ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला - “ठीक है, पुरानी बातें तो आ गई मेरी समझ में, अब ताजे हालात की बात करो ।”
“सुनो ।” - मैं बोला - “पिछले हफ्ते जब तुम जेल तोड़कर भागे तो इस बात की खबर नाहर सिंह और कंचन को भी लगी । यह और कंचन बुरी तरह डर गये । ये जानते थे कि जेल से निकलते ही तुम सबसे पहले माल को अपने काबू में करने के लिए भीलवाड़ा पहुंचोगे और जब तुम माल कंचन के घर के चौबारे की छत में नहीं पाओगे तो फौरन समझ जाओगे कि माल कंचन के हाथ लग गया था । फिर तुम्हें यह भी खबर लग सकती थी कि नाहर सिंह भी तुम्हारे उस माल का हिस्सेदार बन बैठा था । इन्होंने महसूस किया कि अगर तुम्हें यह बात पता लग गई तो तुम जरूर दोनों का खून कर दोगे ।”
“इन्होंने ठीक महसूस किया था ।” - दिलावर सिंह शुष्क स्वर में बोला ।
“हां । और तुम्हारे डर की वजह से ही कंचन बिना किसी को बताये अपना फ्लैट छोड़कर उस कॉटेज में रहने को चली गई थी ताकि तुम उसे तलाश न कर सको । लेकिन नाहर सिंह उसका पार्टनर था और तुम्हारे माल की चोरी में उसके साथ शरीक था । इसलिये इसे जरूर मालूम होगा कि कंचन छुपने के लिये कहां गई थी । मुमकिन है कि कंचन को छुप जाने की राय ही इसी ने दी हो । इसने उसे बताया होगा कि पुलिस जल्दी ही फिर तुम्हें पकड़ लेगी और उसके बाद वह सुरक्षित वापिस अपने फ्लैट में लौट सकती थी । कंचन के गायब हो जाने से नाहर सिंह का तुम्हें ख्याल भी नहीं आ सकता था । केवल कंचन ही तुम्हें बता सकती थी कि तुम्हारे माल की उस चोरी में नाहर सिंह भी शामिल था ।”
मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “और इसलिए नाहर सिंह ने कंचन का खून किया । उसकी जुबान बन्द करने के लिए, ताकि वह तुम्हें हकीकत न बता सकें ।”
दिलावर सिंह ने कहरभरी निगाहों से नाहर सिंह की तरफ देखा । नाहर सिंह अपने आप में सिकुड़कर रह गया ।
“और अगर तुम्हें फिर भी कोई शक है” - मैं बोला - “तो भीलवाड़ा चले जाओ और प्रताप सिंह नाम के कंचन के उस पड़ोसी से बात करके देखो जिसने कंचन का मकान खरीदा था ।”
दिलावर सिंह की रिवॉल्वर का रुख नाहर सिंह की तरफ हो गया । वह बर्फ-से सर्द स्वर में बोला - “नाहर आओ तुम्हें घर ले चलूं । चलो, अपनी कार निकालो ।”
नाहर सिंह ने कुछ कहना चाहा, लेकिन उसके होंठ हिलकर रह गये । उसके मुंह से बोल नहीं फूटा ।
दिलावर सिंह ने अपना रिवॉल्वर वाला हाथ तनिक ऊंचा उठाया ।
“ठहरो ! ठहरो !” - एकाएक नाहर सिंह फट पड़ा - “दिलावर, गोली मत चलाना । मैं तुम्हारा सारा माल तुम्हें वापिस कर दूंगा ।
“मैं...”
“तो करो ।” - दिलावर सिंह बोला ।
“जरूर । जरूर ।” - नाहर सिंह बोला और कोने में पड़ी मेज की तरफ बढा - “लेकिन इस वक्त मेरे पास पूरी रकम नहीं है ।” - वह मेज के पीछे पहुंच गया - “जितना रुपया मेरे पास इस वक्त है, वह तुम ले लो । बाकी का पैसा भी मैं बहुत जल्दी तुम्हें दे दूंगा ।”
“मुझे पूरी रकम अभी चाहिए ।” - दिलावर सिंह गर्जा ।
“जो नकद हासिल है वह ले लो ।” - नाहर सिंह अनुनयपूर्ण स्वर में बोला - “बाकी रकम का मैं चैक काटे देता हूं । - उसने मेज की दराज में हाथ डाला । जब उसने हाथ बाहर निकाला तो उसमें एक छोटी-सी रिवॉल्वर थी ।
लेकिन अभी वह अपना रिवॉल्वर वाला हाथ ठीक से सीधा भी नहीं कर पाया था कि दिलावर सिंह ने फायर कर दिया । गोली नाहर सिंह की छाती में लगी । वह पीछे को गिरा और दीवार से जा टकराया । रिवॉल्वर उसके हाथ से निकल गई । दीवार से टकराकर वह आगे को उलटा और औंधे मुंह मेज पर गिरा ।
क्रोध में पगलाया हुआ दिलावर सिंह नाहर सिंह की खोपड़ी को निशाना बनाकर गोली चलाने ही वाला था कि एकाएक मैंने उस पर छलांग लगा दी । मैं पूरी शक्ति से उसके साथ जाकर टकराया । हम दोनों एक-दूसरे से उलझे हुए कुर्सी पर गिरे और फिर फर्श पर लुढक गये । मैं उसके ऊपर गिरा और मेरे हाथ में उसकी दायीं कलाई आ गई । मैंने उससे अलग छिटककर जोर से उसकी कलाई मरोड़ी । रिवॉल्वर उसके हाथ से निकल गई । उसने अपने दूसरे हाथ से रिवॉल्वर झपटने की कोशिश की । मैंने उसकी खोपड़ी में पांव की एक ठोकर जमाई और अपने दोनों घुटनों के बल उस पर गिरा ।
उसने धौंकनी की तरह सांस छोड़ी और पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो उठा । फिर एकाएक वह अपने हाथ मेरे गले तक पहुंचाने में कामयाब हो गया । वह मेरा गला दबाने लगा । मैंने बदहवास भाव से ताबड़तोड़ उसके चेहरे पर तीन-चार घूंसे बरसाये । मेरे गले से लिपटी उसकी उंगलियां ढीली पड़ने लगी । मैं किसी प्रकार उसके बन्धन से मुक्त हुआ और उछलकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । मेरी सांसें उखड़ी जा रही थीं । मैं उन पर काबू पाने की कोशिश करने लगा । वह भी जल्दी से खड़ा हुआ और मुझ पर झपटा । मैं उसे झुकाई देकर एक तरफ हट गया । फिर मेरा दायां हाथ हवा में घूमा और मेरा घूंसा उसकी कनपटी से टकराया । दिलावासिंह झोंक में दीवार से जाकर टकराया । मैं फिर उस पर झपटा । वह‍ मुझसे ज्यादा लम्बा-चौड़ा और शक्तिशाली था । लेकिन मेरी जिन्दगी दांव पर लगी हुई थी और मुझे उस पर इस बात का भी ताव आ रहा था कि उसने नाहर सिंह का खून कर दिया था । स्वयं को बेगुनाह साबित करने की दिशा में नाहर सिंह मेरी इकलौती उम्मीद था । मेरे पास कोई सबूत तो था नहीं । लेकिन नाहर सिंह अगर जीवित रहता तो अपना अपराध अपने मुंह से स्वीकार कर सकता था । उसकी मौत के साथ मेरी वह उम्मीद भी मर गई थी ।
गुस्से से पगलाया होने की वजह से ही मैं अपने से दोगुने आदमी पर हावी हो गया था । मैं ताबड़तोड़ उसके शरीर के विभिन्न भागों पर घूंसे बरसा रहा था । फिर एकाएक उसके घुटने मुड़ने लगे और वह दोहरा गया । मैंने उसे बालों से पकड़ा और उसका चेहरा जोर से दीवार के साथ टकरा दिया । उसके मुंह से एक हौलनाक चीख निकली । मैंने उसके बाल नहीं छोड़े । मैंने कई बार वह क्रिया दोहराई । दिलावर सिंह का चेहरा लहूलुहान होकर मांस का लोथड़ा दिखाई देने लगा । उसके बालों के गुच्छे के गुच्छे उखड़कर मेरे हाथ में आ गये । फिर वह बेहोश होकर फर्श पर लोट गया ।
मैं कितनी ही देर उसके सिर पर खड़ा हांफता रहा और अपनी उखड़ी सांसों को व्यवस्थित करने की कोशिश करता रहा ! फिर मैं नाहर सिंह की तरफ आकर्षित हुआ ।
मैं भगवान से किसी करिश्मे की प्रार्थना करने लगा ।
शायद नारहसिंह अभी जिन्दा हो । लेकिन कोई करिश्मा नहीं हुआ । वह मर चुका था । अब मेरे सामने एक ही रास्ता था ।
मुझे वहां से भाग जाना था । अब मैं अपने आपको बेगुनाह साबित नहीं कर सकता था । अब जयपुर से मेरा अन्नजल उठ गया था
मैं लड़खड़ाता हुआ इमारत से बाहर निकला ।
अभी मैंने शीतल की कार की तरफ दो कदम भी नहीं बढाये थे कि पुलिस की एक जीप मेरी बगल में आ खड़ी हुई । उसमें से कई पुलिसिये बाहर कूदे और उन्होंने मुझे दबोच लिया ।
शायद किसी पड़ोसी को गोलियां चलने की आवाज सुनाई दे गई थी और उसने पुलिस को फोन कर दिया था ।
मैं फिर गिरफ्तार ।
***
फिर वही शुरुआत वाला सिलसिला ।
कोतवाली का वही लाल पत्थरों की दीवारों वाला बन्द कमरा और उसके बीच में तेज रोशनी के सामने एक स्टूल पर आंखें मिचमिचाता बैठा मैं ।
अन्तर केवल इतना था कि उस वक्त वहां अभी इंस्पेक्टर महिपाल सिंह नहीं था ।
उसका एक चमचा मुझसे क्रॉस क्वेश्चन कर रहा था ।
मैंने पूरी ईमानदारी से उसे सारी कहानी सविस्तार कह सुनाई, लेकिन उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ । आखिर वह पुलिसिया था । किसी अपराधी के पहले बयान पर वह भला कैसे विश्वास कर सकता था !
“यह कहानी नहीं चलेगी ।” - वह कठोर स्वर में बोला - “इस पर कोई विश्वास नहीं कर सकता ।”
तभी लोहे का दरवाजा खुला और महिपाल सिंह ने भीतर कदम रखा ।
वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया । उसने यूं मेरी तरफ देखा जैसे वह निगाहों से मेरा कत्ल कर देना चाहता हो ।
उसके आदेश पर मैंने उसे वह सब फिर कह सुनाया जो कि नाहर सिंह की कोठी पर हुआ था । मैंने उसे यह भी बताया कि नाहर सिंह ने कंचन का कत्ल कर दिया था और क्यों किया था ।
मैं ‘वाहे गुरु’ प्रार्थना करने लगा कि उसे मेरी बात पर विश्वास हो जाये ।
नहीं हुआ ।
“मुझे नहीं मालूम था कि दिलावर सिंह जैसा खतरनाक बदमाश तुम्हारा दोस्त था ।” - वह जहरभरे स्वर में बोला ।
“वह मेरा दोस्त नहीं था ।” - मैं बोला - “जिस रोज उसने मुझे रिहा करवाया था, उससे पहले मैंने कभी उसकी सूरत भी नहीं देखी थी और यह भी मुझे उसके बताने से ही मालूम हुआ था कि वह दिलावर सिंह था ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं तो दिलावर सिंह से पूछ लो ।”
“उसने तुम्हें क्यों रिहा करवाया था ?”
“क्योंकि आप लोगों की तरह उसने भी यह समझ लिया था कि कंचन का कत्ल मैंने किया था । कंचन ने उसका पांच लाख रुपया मार लिया था । वह उस रुपये का सुराग मुझसे मिलने की उम्मीद कर रहा था ।”
“तुम यह राग अलापना बन्द नहीं करोगे कि कंचन का कत्ल तुमने नहीं किया ?”
“यह हकीकत है । मैंने कंचन का कत्ल नहीं किया । उसका कत्ल नाहर सिंह ने किया था ।”
उसने हाथ बढाकर मुझे गिरहबान से पकड़ लिया और मुझे जोर से झिंझोड़ा ।
“कबूल करो” - वह चिल्लाया - “कि कंचन का कत्ल तुमने किया था ।”
मैं खामोश रहा ।
“भगवान कसम, इस बार मैं मार-मारकर तुम्हारी हड्डी-पसली एक कर दूंगा ।”
“फिर भी मेरा यही जवाब होगा कि कंचन का कत्ल मैंने नहीं किया ।”
उसने एक जोर का थप्पड़ मेरे मुंह पर रसीद किया । मेरा सिर फिरकनी की तरह घूम गया । मेरी आंखों में आंसू छलक आये और मेरा गाल अंगारे की तरह दहकने लगा ।
“तुम पुलिस इंस्पेक्टर हो या कोई डाकू-लुटेरे !” - मैं भर्राये स्वर में बोला - “तुम तो मेरे साथ यूं पेश आ रहे हो जैसे तुम्हारी मुझसे कोई जाती अदावत हो ।”
उसने एक घूंसा मेरी छाती पर एकदम मेरे दिल के ऊपर जमाया । मुझे दिल की धड़कन रुकती महसूस हुई ।
“बोलो !” - वह गर्जा - “क्यों किया तुमने कंचन का कत्ल ?”
“भाड़ में जाओ ।” - मैं आंसूभरे स्वर में बोला ।
उसका हाथ फिर उठा ।
तभी एक सिपाही ने कमरे में कदम रखा ।
“दिलावर सिंह को होश आ गया है, साहब ।” - उसने आदरपूर्ण स्वर में महिपाल सिंह को बताया ।
“कैसी हालत में है वह ?” - महिपाल सिंह ने पूछा ।
“हालत तो उसकी खस्ता है साहब, लेकिन डाक्टर कहता है, थोड़ी देर के लिए आप उससे बात कर सकते हैं ।”
“ठीक है ।” - महिपाल सिंह बोला और उस सिपाही के साथ वहां से बाहर निकल गया ।
मेरी जान में जान आई । जब तक महिपाल सिंह वहां नहीं था, तब तक मेरे लिए राहत थी ।
लेकिन वह मेरी उम्मीद से बहुत जल्दी वापस लौट आया ।
“दिलावर सिंह ने कुछ बताया, साहब ?” - उसके एक चमचे ने उत्सुक भाव से उससे पूछा ।
“कुछ नहीं बका, साला ।” - महिपाल सिंह गुस्से में बोला - “हरामजादा अपनी जुबान तक खोलने को तैयार नहीं । जरा-सा और ठीक हो ले वह । फिर सिखाऊंगा मैं उसे जुबान बन्द रखना ।” - फिर वह मुझसे सम्बोधित हुआ - “बसन्त कुमार, आखिरी बार कह रहा हूं । अपनी खैरियत चाहते हो तो कबूल करो कि तुमने कंचन का कत्ल किया था ।”
मैंने जवाब नहीं दिया ।
उसने इतनी जोर का घूंसा मेरे चेहरे पर जमाया कि मैं स्टूल समेत उलटकर फर्श पर जा गिरा ।
“इसे उठाओ ।” - वह कर्कश स्वर में बोला ।
दो पुलिसियों ने मेरी बगलों में हाथ डालकर मुझे डालकर मुझे मेरे पैरों पर खड़ा किया ।
“इसके हाथ पकड़कर इसकी पीठ के पीछे करो ।”
मेरे हाथों को मरोड़कर मेरी पीठ के पीछे कर दिया गया ।
महिपाल सिंह के दायें हाथ का वज्र प्रहार मेरे पेट पर पड़ा । मैं पीड़ा से बिलबिलाता हुआ दोहरा हो गया ।
“सीधा करो इसे ।” - वह चिल्लाया ।
जो पुलिसिये मेरी बांह थामे हुए थे, उन्होंने मुझे पीछे को खींचकर सीधा किया ।
“कबूल करो ।” - महिपाल सिंह कहरभरे स्वर में बोला - “कबूल करो कि कंचन का कत्ल तुमने किया था वरना खाल खीच...”
“बहुत हुआ, इंस्पेक्टर ।” - कमरे में एक अधिकारपूर्ण आवाज कोड़े की फटकार की तरह गूंज गई ।
महिपाल सिंह ठिठका । फिर वह तेजी से आवाज की दिशा में घूमा ।
दरवाजे पर डी. एस. पी. चौधरी खड़ा था ।
महिपाल सिंह सकपकाया ।
“छोड़ो इसे ।” - चौधरी ने आदेश दिया ।
दोनों पुलिसियों ने तत्काल मेरी बांहें छोड़ दीं और सहमकर परे हट गये । मैंने अगर तुरन्त मेज का सहारा न ले लिया होता तो शायद मैं फर्श पर ढेर हो गया होता ।
“यह क्या हो रहा है ?”
“साहब” - महिपाल सिंह सकपकाये स्वर में बोला - “ये लातों के भूत बातों से मानने वाले नहीं । यह आदमी मुझे कोई घिसा हुआ अपराधी लगता है इसलिए...”
“यह आदमी अपराधी नहीं है ।”
“लेकिन यह...”
“शटअप एण्ड लिसन ।” - डी. एस. पी. चौधरी क्रोधित स्वर में बोला - “तुम इस कदर अंधाधुंध इसके पीछे पड़े हुए हो कि पुलिस तफ्तीश के बुनियादी उसूलों तक को भूल गये हो ।”
“जी, मैं...”
“तुमने नाहर सिंह के घर की तलाशी लेने की कोशिश की ?”
“जी, मैंने जरूरत नहीं समझी ।”
“इस आदमी के यह बताने के बाद भी कि कंचन का कत्ल नाहर सिंह ने किया था, तुमने उसके घर की तलाशी लेने की जरूरत नहीं समझी ! लेकिन तुम तो इसे ही अपराधी साबित करने के लिए उधार खाए बैठे थे । अगर तुमने वहां की तलाशी लेने की समझदारी दिखाई होती तो नाहर सिंह का अपराध सिद्ध करने वाला जो सबूत वहां से मेरे हाथ लगा है, वह तुम्हारे हाथ लग सकता था ।”
“सबूत ?”
“हां । काले रंग का एक मैकिनटोश जो मुझे नाहर सिंह की कोठी में उसके बैडरूम की वार्डरोब में टंगा मिला है । वही मैकिनटोश जिसके रबर और ऊन के रेशे कंचन के नाखूनों के नीचे से बरामद हुए थे । उस मैकिनटोश पर नाखूनों से नुचे हुए रबर की खरोंचे साफ दिखाई दे रही थीं । कोठी के दो नौकरों ने इस बात की तसदीक की है कि वह मैकिनटोश नाहर सिंह का ही है । अब आया कुछ समझ में ?”
महिपाल सिंह खामोश रहा । उसने नर्वस भाव से अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी ।
“लैबोरेट्री में यह बात निर्विकार रूप से सिद्ध की जा चुकी है कि उसी मैकिनटोश के रबड़ और ऊन के रेशे कंचन के नाखूनों के नीचे पाये गये थे । उसके माइक्रोस्कोपिक एग्जामिनेशन से उस पर खून के ऐसे दाग भी मिले हैं जो नंगी आंख से नहीं देखे जा सकते थे । और यह भी टैस्ट किया जा चुका है कि वे खून के दाग कंचन के ही ब्लड ग्रुप के हैं ।”
महिपाल सिंह के मुंह से बोल न फूटा ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह - मैं मन-ही-मन बोला - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
“कंचन का कत्ल नाहर सिंह ने किया था ।” - चौधरी विश्वासपूर्ण स्वर में बोला - “उस कत्ल के इल्जाम में ये आदमी” - उसने मेरी तरफ उंगली उठाई - “खामख्वाह फंस गया था हालांकि नाहर सिंह ने अपनी तरफ से ऐसी कोई कोशिश नहीं की थी ।”
“लेकिन मैं क्या करता, साहब ?” - महिपाल सिंह दबे स्वर में बोला - “हालात तो इसी आदमी के कातिल होने की तरफ इशारा कर रहे थे । और मैं...”
“और तुम इसको कातिल साबित करने के लिए इस कदर मरे जा रहे थे कि तुम ऐसी किसी बात को चैक करने के लिए तैयार नहीं थे जो इस आदमी की बेगुनाही की तरफ इशारा करती हो । तुम्हें इस बात की ज्यादा फिक्र थी कि कहीं इस आदमी की वजह से रूपसिंह शेखावत जैसे सॉलिड सिटीजन की साख पर कोई बट्टा न लग जाए । एक पैसे वाले आदमी के झूठे मान-सम्मान की रक्षा करना तुम्हारे लिए ज्यादा जरूरी था, भले ही इस चक्कर में कोई बेगुनाह फांसी पर लटक जाता ।”
“ऐसी तो मेरी नीयत नहीं थी ।”
“ऐसी ही नीयत थी तुम्हारी” - चौधरी कर्कश स्वर में बोला - “इसीलिए तुम किसी भी तरह इस आदमी से कुबुलवाना चाहते थे कि कत्ल इसने किया था । क्योंकि इसके इस अपराध से इन्कार करने का मतलब था कि केस अदालत पहुंचता और तब रूपसिंह शेखावत को भी अदालत में पेश होना पड़ सकता था और इस आदमी का वकील शेखावत को कंचन से उसके नाजायज सम्बन्धों की बात बताने के लिए मजबूर कर सकता था, जो कि शेखावत का चमचा होने की वजह से तुम चाहते नहीं थे ।”
“लेकिन साहब, यह तो आप भी पसन्द नहीं करते थे कि शेखावत साहब जैसा प्रतिष्ठित व्यक्ति खामख्वाह अदालत में घसीटा जाता ।”
“उसका खामख्वाह अदालत में घसीटा जाना मैं नहीं पसन्द करता लेकिन वह खामख्वाह नहीं घसीटा जाने वाला था । यह इस केस का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि कंचन शेखावत की रखैल थी । अगर बड़े लोगों को अपने मान-सम्मान की इतनी फिक्र है तो वे न करें ऐसी नाजायज हरकतें । और फिर यह कहां का इन्साफ है कि समाज में एक आदमी की नाक ऊंची रखने की खातिर एक बेगुनाह को फांसी पर चढ़ा दिया जाये !”
महिपाल सिंह का सिर झुक गया - इसलिए नहीं कि वह अपने कृत्य से शर्मिंदा था बल्कि इसलिए क्योंकि उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था ।
चौधरी मेरी तरफ घूमा और बोला - “तुम आजाद हो, मिस्टर ।”
“शुक्रिया ।” - मैं अपनी उखड़ी सांसों काबू पाने की कोशिश करता हुआ बोला ।
“तुम्हारे साथ जो ज्यादती हुई, उसके लिए मैं शर्मिन्दा हूं । इंस्पेक्टर महिपाल सिंह ने जो दुर्व्यवहार तुम्हारे साथ किया है उसका मुझे अफसोस है । तुम चाहो तो इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हो ।”
“मैं नहीं चाहता ।” - मैं बोला ।
महिपाल सिंह ने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
चौधरी भी हैरान हुए बिना न रहा । वह बोला - “वैसे अगर तुम रिपोर्ट दर्ज कराओ तो मैं अभी इसे सस्पैंड कर दूंगा ।”
“जी नहीं, शुक्रिया । मैं किसी पुलिस अधिकारी के साथ बैर-भाव नहीं पालना चाहता ।”
“तुम डर रहे हो । लेकिन डरने की कोई बात नहीं । मैं गारन्टी करता हूं कि इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह भविष्य में कभी तुम्हारे पास नहीं फटकेगा ।”
“मैं शिकायत नहीं करना चाहता ।”
“मर्जी तुम्हारी ।”
मैंने डी. एस. पी. चौधरी का अभिवादन किया और बिना महिपाल सिंह की ओर निगाह उठाए वहां से निकल गया । बाहर भोर का छुटपुटा फैला हुआ था । चौक में एक आदमी अखबार बेच रहा था ।
मैंने उससे एक अखबार ले लिया ।
मुखपृष्ठ पर निगाह पड़ते ही मैं चौंका ।
वहां मोटे अक्षरों में छपा था -
बीकानेर बैंक जयपुर की लुटी हुई बख्तरबन्द वैन बरामद
वैन फुलेरा के पास एक जोहड़ में मिली । उसके बुलेटप्रूफ समझे जाने वाले शीशों के परखच्चे उड़े हुए थे । भीतर से दो सड़ी-गली लाशें बरामद जिनकी शिनाख्त न हो सकी ।
आगे मैंने नहीं पढ़ा । अभी मेरी जान एक जंजाल से छूटी नहीं थी कि दूसरी मुसीबत मुंह बाये मेरे सामने आन खड़ी हुई थी । पुलिस को यह मालूम होने की देर थी कि बैंक की बख्तरबन्द वैन सर्विसिंग के लिए मेरे गैरेज में आती थी कि मैंने फिर पकड़ा जाना था ।
‘धन्न करतार !’ - मेरे मुंह से निकला ।
इलाहाबाद से मुम्बई । मुम्बई से मद्रास । मद्रास से दिल्ली । दिल्ली से अमृतसर । अमृतसर से गोवा । गोवा से जयपुर । और अब पता नहीं कहां ।
कहां ?
समाप्त