हमारी ग़ज़ल है, तसव्वुर तुम्हारा

बाहर ठण्ड में अकेली बैठी मैं गुनगुना रही थी। प्यार में ठण्ड अच्छी लगती है और अंधेरा भी। कब से अकेले बैठी गुनगुनाये जा रही थी। बीच-बीच में गलियारे से गुज़रती किसी लड़की के कदमों की आहट आती जो धीमी होते-होते खो जाती। मैं दरबान बनी दरवाज़े पर बैठी थी और फिर भी बाहर का अंधेरा धीरे-धीरे हॉस्टल के अंदर पैठ रहा था। यूँ भी जो प्यार में ख़ुद ही डूब-उतर रहा हो वो किसी को डाँटे भी तो कैसे? सभी उसके सामने से अपनी मनमर्जी करते चले जाते हैं। सो अँधेरा भी मुस्कुराता हुआ वहाँ से होकर गुज़रता रहा।

तभी किसी ने सवालिया ढंग से आवाज़ दी- हर्षा दी?’ मैं पलटी और तब तक वो भी मेरे पास आ गयी थी। उसने हैरत से कहा- यहाँ क्या कर रहे हो? ठण्ड हो रही है। चलो अन्दर।

मैंने कहा- नहीं यार, इतनी भी नहीं हो रही ठण्ड। आओ बैठो, अच्छा सा लग रहा है।

यह लड़की B.Tech. की थी, जो उम्र में मुझसे कम और हॉस्टल अनुभव में मुझसे ज़्यादा थी। उसने कहा- ओहो! आप चलो, मेरे रूम में। मैगी खिलाती हूँ आपको।

मैं मैगी के नाम पर भी नहीं हिली तो चलोकहकर मेरा हाथ खींचती हुई, वो मुझे उठाने में कामयाब हो गई। उसने मुझे वहाँ से उठा लिया, एक हाथ में मैगी और दूसरे हाथ को मेरी कमर में डाले वो मुझे फर्स्ट फ्लोर की ओर लेकर चल पड़ी।

पता है आपको, 1:30 बज रहा है’ -उसने कहा।

मैंने कहा- अच्छा!

वो बोली- क्या हुआ? किस पर मर मिटे हो?’ उसकी इस इंटेलिजेंस पर उसे किस कर लेने की इच्छा हुई। किस को तो थाम लिया लेकिन मैं मुस्कुराहट रोक नहीं पाई। मुस्कान तो उस दिन जैसे रेशम का आँचल हो गयी थी, फिसले ही जाये। हम दोनों उसके कमरे तक पहुँच गये थे और वहाँ दूसरी भी लड़कियाँ थीं। सबने आओ यार, हर्षा दीकहकर स्वागत किया। कुछ देर बाद मैं उनकी फ़रमाइश पर एक बाद एक गाना सुना रही थी।

शाम सवेरे तेरी यादें आती हैं.. ओ सनम मोहब्बत की क़सम ओ ओ ओ

अब मुझे रात दिन, तुम्हारा ही ख़याल है, क्या कहूँ प्यार में दीवानों जैसा हाल है।

तीन बजे वो सभा भी विसर्जित हुई और मैं नीचे लौट आई, लेकिन अपने कमरे में जाने का मन नहीं हुआ। नींद का कोई अता-पता नहीं था। फेंटम हो गए थे। फिर बाहर बैठ गये। ठण्डी सी हवा बहुत अच्छी लग रही थी। हल्की सी ठण्ड वाली उस रात को मैं लड़की से हरसिंगार के पौधे में बदल गई।

अक्टूबर, यही तो समय होता है जब रातों को एक पौधा अपनी मीठी सी महक से भर उठता है और उसके नन्हे सुकुमार फूल रात भर झरते रहते हैं। सुबह तप्त सूरज की किरण उन्हें छूती भर है और वो मुरझा जाते हैं। मैं भी अपने आप में महक रही थी। ख़ुद को अपनी ही बाँहों में समेटे बैठी थी। कितनी संतुलित मिठास थी मन की उस कस्तूरी गंध में! ऐसा लग रहा था कि दिल की एक-एक ख़्वाहिश, हर एक अरमान फूल की तरह खिल उठा हो। वो नाज़ुक चाहतें झर-झर कर मेरे पैरों के आस-पास जमा हो गई हों जैसे। मैं वहाँ से हटूँ कैसे!

मन में आता कि कल सुबह जब पलाश अपने कॉलेज जायेगा और रास्ते में उसे कहीं कोई हरसिंगार का पौधा मिलेगा, तो वो ठिठकेगा। उसका एक फूल अपने हाथों से उठाकर, प्यार से अपनी हथेली पर रखकर, वो हैरान तो होगा ना? यह आज इतना जाना पहचाना सा, अपना सा क्यूँ लग रहा है! उस से अनजाना सा लगाव महसूस करेगा। उस पर अपनी प्यार से सनी हल्की सी मुस्कान लुटाएगा। मेरा मन उस रात यही मानना चाहता था कि ऐसा होगा। ऐसी ही नादान ख़्वाहिशों का जखीरा हो गया था मेरा मन।

यूँ ही तमाम बातें सोचते-सोचते अचानक ही मुझे बहुत असहजता हुई। मुझे मेरी साँसें ना सिर्फ़ सुनाई दे रहीं थीं, बल्कि वो नाक से होते हुए पेट तक कैसे पहुँच रही है, इसका भी पूरा एहसास हो रहा था। दिल प्रेमियों वाले डिपिक्शन में नहीं, बाक़ायदा बायओलजी पुस्तक में देखे चित्र की तरह सीने में लब डबकरता महसूस हो रहा था और सुनाई भी दे रहा था। पलकों का अपना एक भार भी होता है, यह हर बार पलक झपकाने पर पता चल रहा था।

मन में घुमड़ रहे थे उन लड़कों के चेहरे, जिनकी दोस्ती में मिलावट महसूस होते ही मैंने उनसे कन्नी काट ली थी।

ना जाने वो रात का अँधेरा था, जो अब धीरे से मेरे भीतर भी घुसपैठ करने लगा था? या फिर भोर की आँखें खोलती पहली किरणें, जिनकी तपिश से मेरे हरसिंगार के फूल मुरझाने को हो गये?

मैं सोच बैठी कि मेरा हाल जानने के बाद यही दरकिनार पलाश ने मुझसे किया तो? और मेरे पापा? मुझे मोहल्ले की उन दीदी का चेहरा सामने दिखने लगा। हे भगवान! यह क्या हो रहा है? जिस बात को आगे कहीं जाना नहीं, उसके लिये रात भर जागकर कैसे सपने देख लिये मैंने! दिल में ख़ुशियों की जगमगाती झालर अचानक बुझ गयी। अभी जो जगमग था, सुनसान अँधियारे में बदल गया। दिल सूखे, अंधे कुएँ सा हो गया और मुझे प्यास का तेज़ एहसास हुआ। मैं धीमे क़दमों से अपने रूम की तरफ़ बढ़ी, पानी पिया और यह गुनगुनाती हुई मुस्कुरा उठी। ख़ता तो जब हो कि हम हाल-ए-दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई ख़ता तो नहीं।

मेरा दिल वो परिंदा था, जो अब तक किसी पर भी फ़िदा होने और उसका मुरीद होने के लिये आज़ाद था। वो दिल, एक ही रात में सबसे छिपा कर रक्खी जाने वाली बेशकीमती संदूकची हो गया था। जिस पर पलाश की शक्ल, बातें, शरारतें, यादें, अदायें, नखरे और मोहब्बत के अनमोल नगीने छिपाने की ज़िम्मेदारी आ गयी थी। अब यह जब-तब, यहाँ-वहाँ किसी को भी अपना मेहमान नहीं बना सकता। कहीं भी उड़ने की आज़ादी उड़ गयी। पहली दफ़ा मेरा दिल इतना धड़का था और पहली दफ़ा कितनी ही बार धड़कना भूल ही गया। पहली बार साँस इतनी तेज़ चली थी और इतनी बार रुक भी गयी थी। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मैं इतनी ख़ुशबूदार, इतनी नाज़ुक और इतनी रेशमी हूँ। उस रात ही जाना मैंने कि ख़ूबसूरती ज़हरीली होती है और किसी की हंसी बिजली सी भी गिर सकती है। घायल होना ऐसा मीठा होता है! किसी की बाँहों में बसने को यूँ तबीयत मचलती है! मन इतना तरस सकता है! इतनी प्यास ख़ुद में सहेज सकता है! कैसे नशे में चूर हो गया था मेरा मन! सम्हाले नहीं सम्हल रहा था।

मौसम है आशिक़ाना

रात नींद की माला में जिन सपनों के मोती पिरोकर मुझे पहनाती, वो मोती तो अब हर समय मेरी मुट्ठी में रहते थे। सपनों के लिए नींद की दरकार ही नहीं रही। मेरे जीवन में रतजगों का सिलसिला शुरू हो गया था। म्यूज़िकल कॉन्सर्ट हर रात होता था और मैं पलाश की भेंटेगाती गुनगुनाती रहती थी। जैसे शाम फिसलकर रात की गोद में ख़ुद को खो देती है, वैसे ही मैं रात होते ही पलाश में ख़ुद को खो देती थी। कभी अपने गाल अपनी हथेली पर टिकाये महसूस करती कि हथेली पलाश की है और वो मुझे छू रहा है। तो कभी लगता गाल पलाश के हैं और मैं उसे छू रही हूँ। आसमाँ का चाँद गवाह है उस दौर का जब रातों को इस धरती पर दो पलाश हुआ करते थे- एक इलाहाबाद में और दूसरा इंदौर में। हर्षा तो उन रातों में पलाश पर मर जाती थी। पूरी दुनिया से छिपकर यादों और ख़्वाहिशों का यह मेला कभी हॉस्टल की छत पर तो कभी हॉस्टल के एंट्रन्स पर चहलक़दमी वाले एरिया में लगता था। अमूमन सुबह के लगभग तीन बजे मैं अपने कमरे में जाती और बेसुध सो जाती थी।

सुबह 7:30 बजे मैं उठती थी और उठते ही अपने कम्प्यूटर पर भजनबजाती थी- मुझको ख़बर नहीं, मुझको सबर नहीं, इश्क़ ज़हर नहीं, इश्क़ क़हर नहीं, गले से लगा ले मुझे, होंठों में छुपा ले मुझे.. दिलबर आ मुझे छू ले।इस गाने पर झूमती लहराती मेरी सुबह होती थी। एकदम तरोताज़ा। मुझे कोई सुपर पावर मिल गयी थी कि नींद की कमी ज़रा भी महसूस नहीं होती थी। उठे और झटपट तैयार होकर इंस्टी के लिये रवाना।

उन दिनों सब आशिक़ाना, शायराना और सुरीला हो गया था। हम सात लड़कियाँ एक साथ इंस्टी जाती थीं। उस क़दमताल और साथ में किसी के बैग से आती कुछ-कुछ आवाज़ों की जुगलबंदी भी किसी ऑर्कस्ट्रा का संगीत लगती थी। मैं लगभग रोज़ ही कॉलेज कैंटीन में नाश्ता करती थी, इसलिये सुबह मेरी दौड़ अक्सर हॉस्टल से कैंटीन तक होती थी। जब तक रैगिंग चल रही थी, हमें कैंटीन जाना अलाउड नहीं था। हमारी क्लास के लड़के भी रैगिंग की मार से त्रसित थे, तो किसी को फ़्लर्ट करने जैसी लग्ज़री सूझती ही नहीं थी। अब सब आज़ाद परिंदे उड़ान भरने को बेताब थे। अक्सर कोई ना कोई क्लासमेट मुझे कैंटीन में मिल ही जाता था। एक ही टेबल पर हम नाश्ता करते थे और साथ में कुछ बातें भी।

एक दिन मैं समोसा खाकर चाय पी रही थी कि एक क्लासमेट आया और अपना चाय, पोहा लेकर सामने बैठ गया। सामान्य शिष्टाचार के बाद मैं चाय पीने लगी, तभी मेरी नज़र पड़ी एक गोरैया पर। कैंटीन के पास ही दाहिने तरफ़ के एरिया में बचा हुआ पोहा और बाकी खाद्य सामग्री डाल दी जाती थी इन पखेरूओं के लिये। उस दिन मैंने देखा कि एक गोरैया दोने से चाय पी रही थी! यह मेरे लिये बिलकुल नयी बात थी, गौरैया और चाय? अपनी अनूठी आकस्मिक खोज पर मैं अपनी ख़ुशी और उत्साह को रोक ही नहीं सकी।

मैंने सामने बैठे दोस्त से ख़ुशी बाँटते हुए कहा- वो देखो, गौरैया चाय पी रही है। मैंने पहली बार किसी गौरैया को चाय पीते देखा आज।

इस पर वो दोस्त मुस्कुराता हुआ मुझपर अपनी आँखें टिकाकर बोला- मैंने भी आज पहली बार एक चिड़िया को चाय पीते देखा है।

उसका इशारा तो समझ गयी थी मैं, पर मासूम बनते हुए दोबारा गोरैया को देखने लगी। मूड अच्छा ही रहता था तो ऐसे छोटे-मोटे हार्मलेस फ़्लर्ट से मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होती थी। लोगों को इस फ़्लर्टबाज़ी से रोकने के लिए मैं सबको अपना स्टैटस “कमिटेड” नहीं बताने वाली थी कभी भी। मैं पलाश के प्यार में पागल ज़रूर थी, लेकिन इसकी मुनादी पीटने का मुझे ज़रा भी मन नहीं था। वैसे भी एक तरफ़ा प्यार के क़िस्से क्या जगज़ाहिर करना और मुझे तो उससे भी यह छुपाना था जिससे प्यार करती थी। इस प्यार की कोई मंजिल थी ही नहीं। मैं अपने परिवार के साथ विश्वासघात बिलकुल नहीं करूँगी। इसलिये मैंने हॉस्टल और कॉलेज में कभी भी किसी को अपनी दीवानगी के अफ़साने नहीं सुनाये। मेरा प्यार बस मेरा था- मेरा एकाधिकार। एक अभिमान भी था कि मेरे पास छिपाने को कितनी ख़ूबसूरत और अनमोल चीज़ है।

प्यार के सुरूर में झूमते हुए वक़्त गुजर रहा था। एक दिन कुछ सीनियर लड़कियाँ हमारे हॉस्टल आईं थीं, अपनी बैचमेट से मिलने। हम जूनियर भी उनसे मिलने प्यार मोहब्बत में उनके रूम में चले गये। कुछ देर की बातचीत के बाद एक सीनियर बोली- हर्षा, कल मैंने सपने में तुमको देखा।

मैंने ख़ुशी जताते हुए हँसकर कहा- अरे वाह! क्या बात है! क्या देखा आपने?’

इस पर वो बोली- मुकेश की शादी हो रही थी और मैंने देखा उसकी बारात A-5 में चली गई।और फिर उनकी खिसियानी सी हँसी गूँजी।

मुकेश उनके बॉयफ्रेंड का नाम था, जो हमारे सीनियर थे और A-5 मेरा रूम नंबर था। उस समय तिलमिलाने की तो बहुत सी वजहें थीं, लेकिन मेरा पारा यह सोचकर चढ़ गया कि उन्होंने मेरे और पलाश के बीच किसी तीसरे के होने की गुंजाइश देखी थी। भाड़ में गई उनकी मोहब्बत, भाड़ में गये उनके मुकेश, उनकी इन्सिक्युरिटी और वो। मैं कुछ देर के असहज सन्नाटे के बाद वहाँ से गुस्से में बाहर निकल आई। मुझे लड़कों के चिकी-पिकी टाइप के फ़्लर्ट से परहेज़ नहीं था, लेकिन कोई इस हद तक चला जाये, यह मेरी सहनशक्ति के बिलकुल बाहर था।

मेरे जुनून से बेख़बर, पलाश अब भी मुझे मेल यदा-कदा ही करता था, लेकिन अब मुझे उसके बनने, तनने, तुनकने, मुझे सताने और नखरे दिखाने पर भी प्यार ही आता था। माना कि चाँद में दाग हैं लेकिन वो उसकी ख़ूबसूरती और आकर्षण के आड़े कब आते हैं। दुनिया में इतराने का अधिकार अगर तुम्हें नहीं है मेरे पलाश, तो फिर और किसको है! ’ -हवाओं ने मेरा यह पैगाम कभी तो पलाश के बालों को प्यार से सहलाते हुए उसके कानों में फुसफुसाया होगा। कभी तो चांदनी ने मेरी तड़प उसके चेहरे तक पहुँचाई होगी। कभी तो उसको धोखा हुआ होगा कि मैं उसके आस-पास ही हूँ।

गया सितारा गर्दिश में

यह समय साल 2001 का था, जब कम्प्यूटर की दुनिया “Y2K” का प्रचण्ड स्लोडाउन झेल रही थी। हमारे सुपर सीनियर्स का प्लेसमेन्ट टाइम था और कॉलेज कैंपस में एक भी कंपनी नहीं। उस समय अभय सर का पूरा बैच अनिश्चितता और अवसाद से जूझ रहा था और शायद उन सबके परिवार भी। कभी-कभी अभय सर बहुत दुखी होते थे कि घर पर मम्मी ने कुछ भला बुरा कह दिया उनकी पढ़ाई और नौकरी न मिलने को लेकर। अक्सर वो शाम को हॉस्टल आते थे मुझसे मिलने।

एक बार उन्होंने बातों ही बातों में पूछा- हाथ देखना आता है तुमको?’

मैंने हँसकर कहा- नहीं।

नौटंकी?’ कहकर फिर उन्होंने पूछा- तुमने मेरे बारे में जो कहा था, याद है?’

मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा- याद तो नहीं, लेकिन अभी भी बता सकती हूँ। आपको याद है?’

वो बोले- याद क्यूँ नहीं होगा। फंडे फेंकने की आदत तुमको है। मेरा हाथ, मैं हर रोज़, हर किसी को थोड़ी दिखाता रहता हूँ।

मैं मुस्कुराई। वो हाथ आगे करके बोले- चलो देखो, बताओ कुछ।

मैंने कहा- अब तो मैं बिना हाथ देखे बता सकती हूँ।उनके बारे में जितना जान और समझ पायी थी, वो मैंने उनको बता दिया।

इस पर वो बोले- माथा पढ़ लेती हो क्या? मेरे माथे पर लिखा है यह सब?’

मैं क्या कहती उनसे। मैंने नाटकीय अन्दाज़ में कहा- इसको जादू कहते हैं।

वो मुस्कुराये और मेरे सिर पर टीप मारते हुए बोले- लड़की बहुत शार्प हो तुम।फिर कभी किसी शाम वो मुझसे कहते कि आज मेरा फेवरेट गाना सुना दो और हम दोनों टहलते हुए, गाते हुए और न जाने कितनी बातें करते हुए शाम बिताते थे।

एक दिन मैं बहुत गुस्से में थी कि तीन दिन से पलाश ने मेल नहीं की। ऐसा भी क्या बिज़ी है वो? आज तो मुझे बहुत ही गुस्सा आ रहा है उस पर।’ -मैंने अभय सर से कहा।

वो मुस्कुराते हुए बोले- तुम भी तो बात अपने तक ही रखती हो। उसको सपना थोड़ी आएगा।फिर छेड़ते हुए बोले- वैसे कितना गुस्सा आ रहा है तुमको?’

सामने होता तो बहुत ज़ोर का चांटा मारती उसे।’- मैंने तैश में आकर कहा।

इस पर उन्होंने मेरा हाथ टटोलते मुझे चिढ़ाया- इतने नरम हाथ का चांटा?

मैं चिढ़ गयी और मैंने कहा- ऐसा भी नरम नहीं है। जब उसे चांटा पड़ेगा, तो पता चल जायेगा।

अभय सर अपना गाल मेरे सामने करके बोले- अच्छा, ट्राय करो। देखें कितनी ज़ोर से मार सकती हो तुम?’

मैं हँस दी और मैंने कहा- आप दोस्त हो और मेरे सुपर सीनियर भी। आपको नहीं मार सकती।

उन्होंने मुँह बनाकर पूछा- पलाश दुश्मन है क्या?’

मेरा गुस्सा शांत हो चुका था। मैं मुस्कुरा भर दी। वो फिर छेड़ने लगे- चांटे से चोट तो बाद की बात है, तुम्हारा तो हाथ ही नहीं उठेगा। तुमसे कुछ नहीं होगा। तुम रहने दो। उसकी मनमानियाँ सहो।

मैं सिर झुकाये मुस्कुराती रही। उनसे जब भी पलाश के बारे में बात होती तो वो हमेशा कहते थे- कुछ प्रॉब्लम है। वैसे एक बात यह भी है कि लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप ज्यादा चलती नहीं है।

यह सुनकर एक छुरी सी चल जाती थी दिल पर और लगता था यही है मेरी सज़ा। अपने सच को भूलकर, सपने के पीछे भागने वाले इसी बेरहमी के हक़दार होते हैं। उनका कहना कि पलाश को सपना थोड़ी आएगा शायद ठीक भी था, लेकिन मैं भी बेबस थी। अपने परिवार और अपने पापा के मान-सम्मान के लिये मैं अपनी जान दे सकती हूँ, लेकिन अपनी ख़ुशी के लिये उन्हें बर्बाद नहीं कर सकती। कम-से-कम अपने होश-ओ-हवास में तो कभी नहीं।

पहला सेमेस्टर खत्म होने की तरफ़ बढ़ रहा था और कुछ ही दिनों में परीक्षा होने वाली थी। एक शाम को पुनीत हॉस्टल आया। वो हमारा कॉलेज फ्रेंड था और इंदौर का लोकल बंदा था। यह हम दोस्तों की शाम की कॉफी का समय था। हम लोगों ने पुनीत को भी, हॉस्टल से 100 मीटर दूर सांची पॉइंट पर, साथ कॉफी पीने का ऑफर दिया। उसने हाँ कर दी। वो बाइक पर था और उसने मुझसे कहा- चल, साथ चलते हैं।मैं पुनीत की बाइक पर बैठ गई, बिना उसे पकड़े। उसने भी खयाल रखा कि धीमे ही चलाए, लेकिन तभी साथ की हॉस्टल फ़्रेंड्स ने उसकी प्यारी बाइक को स्लो खटाराकह दिया। था तो मज़ाक़ ही, पर उसको बुरा लग गया और उसने मुस्तैदी से गियर बढ़ा दिया। मैं बिना कुछ पकड़े बैठी थी तो जैसे ही गियर चेंज हुआ, मैं दंगल के 5 पॉइंट वाले दाँव की तर्ज पर हवा में इंदरधनुस की तरिया हवा में आर्च बनाते हुए उड़ कर सीधे सर के बल सड़क पर गिर गई। जमीन पर गिरते ही मेरी दुनिया काली हो गयी और मैं बेहोश हो गयी।

जब मुझे होश आया, मेरे सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा था और जैसे ही मैंने गर्दन हिलाने की कोशिश की, मेरी चीख निकल गई। ज़मीन पर लेटे हुए ही मैंने अपना सिर पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाये, तो देखा कि मेरा दायाँ हाथ हड़ताल पर था। तुरन्त ही अभय सर को फोन किया गया। पीहू और वो मुझे ऑटो में बिठाकर अस्पताल ले गये। मेरे सिर की बनावट पीछे से ऊबड़-खाबड़ हो गई थी और मेरी गर्दन में ज़बरदस्त झटका लगा था जिसके लिये गर्दन का कॉलर दिया गया। डॉक्टर का कहना था कि हाथ की कोई मांसपेशी सिकुड़ गयी थी, इसलिये हिलाने-डुलाने में इतना दर्द था। मुझे फीजीओथेरपी के लिये कहा गया। हफ्ते भर बाद इम्तिहान थे और मेरा दायाँ हाथ मुँह फुलाये बैठा था। किसी दवाई और थेरपी से कोई फायदा नहीं हो रहा था। बेहद दर्द से गुज़र रही थी मैं। इन दिनों अभय सर रोज़ आते थे। पीहू और अभय सर मुझे क्लिनिक तक ले जाते थे। फीजीओथेरपी के समय दर्द और भी गहरे चुभता था। चीख किसी तरह रोकती थी मैं। आँखों से आंसू निकल जाते थे। तब यह नहीं जानती थी मैं कि दर्द और आँसू मेरे नये दोस्त हैं।

दिल का खिलौना टूट गया

मैं ऐसी हालत में थी कि गर्दन और हाथ दोनों ने मुझे लाचार कर दिया था। ना ख़ुद से उठ सकती थी, ना बैठ सकती थी, ना लेट सकती थी, ना करवट बदल सकती थी, ना खा सकती थी, ना बाल काढ़ सकती थी और ना ही ब्रश कर सकती थी। उस समय मेरे हॉस्टल के दोस्तों ने मुझे परिवार जैसा प्यार, अपनापन दिया और मेरी भरपूर देखभाल की।

मुझे पीहू खाना खिलाती थी, समय-समय पर प्रेस से कपड़ा गरम करके मेरे हाथ की सिंकाई करती थी। रात को मुझे बिस्तर पर लिटाती थी और बायीं करवट लिटा कर कुछ देर वहीं मेरे कमरे में पढ़ती थी। मेरे लिये पढाई करना नामुमकिन था, तो वो मेरे लिये ऑडियो बुक वाला रोल निभाती थी। सुबह मुझे बिस्तर से उठाने भी वही आती थी। माँ की कमी महसूस नहीं होने दी उसने मुझे। निधि रात को मेरे कमरे में सोती थी, जिससे अगर मुझे बीच रात में कोई ज़रूरत हो तो वो मेरी मदद कर सके। ऐसे में कोई दोस्त कुछ मदद करता तो कोई दोस्त कुछ और। दिन हो या रात, कोई ना कोई दोस्त मेरी ख़बर लेने और मेरी मदद के लिये मेरे कमरे में होता ही था। मैंने कैसे-तैसे दोस्तों की मदद से उस समय ख़ुद को संभाला।

घर पर नहीं बताया कि सबको चिंता हो जायेगी, लेकिन अब मुझे चिंता सताने लगी थी कि परीक्षा में लिखूँगी कैसे?

डॉक्टर ने एक दर्द निवारक दवा और क्रीम दी थी, जिसे साथ लेकर मैं परीक्षा देने गई। बा-मुश्किल हाथ कुछ देर चलता फिर दर्द से बेहाल हो जाता। किसी भी प्रश्नपत्र में 50 प्रतिशत भी अटेम्प्ट नहीं कर पायी मैं। बचपन से टॉपर रही हर्षा तब मन-ही-मन दुआ कर रही थी कि बैकलग जाये, ताकि दोबारा दिया जा सके पेपर। लेकिन हाय! मैं बहुत ही गंदे ग्रेडस से पास हो गई। ज़िन्दगी इससे बड़ा लतीफ़ा और क्या सुनायेगी कि पहली बार मुझे उन लोगों से जलन हुई जिनकी बैक लगी थी।

परीक्षायें ख़त्म होने के बाद कम्प्यूटर लैब गई और बायें हाथ से टायपिंग करके पलाश को मेल पर इस दुर्घटना के बारे में बताया। उसने जवाब में लिखा- मुझे शाम को कॉल करो।

उसने मुझे अपने लखनऊ के दोस्त और M.N.R. के एक दोस्त का नंबर दिया था। मैंने उसको शाम को नियत समय पर कॉल किया और सारी बातें बताईं। मैंने तो चाहा था कि वो मुझसे प्यार से बात करे और मेरे लिये अपनी चिंता जताये। शाबाशी दे कि मैंने इस हाल में भी परीक्षा दी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो बहुत बहुत बहुत नाराज़ हुआ। मुझे डाँटता ही रहा। शायद मेरे साथ हुई दुर्घटना पलाश के दिल में कोई बड़ा सा नीम का पेड़ बनकर उग आई थी और उसी नीम की कड़वाहट उसकी बातों को कसैला किये जा रही थी।

उसके बाद जब सेमेस्टर ब्रेक में मैं लखनऊ गई, तब तक भी मेरी हालत में बहुत सुधार नहीं था। पापा ने मुझे अस्पताल में दिखाया। मेरे हाथ और सिर के कई टेस्ट हुए। धीरे-धीरे मेरी गर्दन उस कड़क कॉलर के बन्धन से मुक्त हो गई थी, लेकिन हाथ में कुछ दिक़्क़त अभी भी बची थी। लखनऊ से लौटने का समय हो गया था और पलाश की कोई ख़बर नहीं थी। मैं इंदौर लौट आई अगले सेमेस्टर के लिये। हॉस्टल पहुँचते ही तुरंत कैफ़े गयी और मेल चेक की। लेकिन पलाश की कोई मेल नहीं थी। वो कहाँ चला गया? मैंने उसे मेल की, तुम कैसे हो? उसका भी कोई जवाब नहीं आया। महीने भर यह चलता रहा। मैं उसे हर दूसरे दिन मेल करती थी और कोई जवाब नहीं आता था।

जब मन में प्यार बेल की तरह फैलता जा रहा था, तब मुझे लगा था मेरा मन जंगल हो उठा है जहाँ प्यार की नाज़ुक लताओं पर लालसा के टेसू और उम्मीदों की तितलियाँ रहा करती हैं। कल्पना ही नहीं की थी कि कभी दुःख की धूप इतनी तेज होगी कि जंगल में आग लग जायेगी और बच जाएंगे झुलसे हुए फूलों के जीवाश्म, तितलियों के कंकाल, कराहती लताएँ और दरारों से पटी बंजर ज़मीन। उस रोज़ जब वह मुझपर नाराज़ हो रहा था। काश! मुझे मालूम होता कि वो आख़िरी बातचीत थी, तो मैं अपना सारा अहं छोड़कर उसकी ख़ुशामद करती। यह नहीं सोचती कि उस एक्सिडेंट में मेरी कोई ग़लती नहीं थी। बल्कि उसके लगाए हर इल्ज़ाम को क़ुबूल कर उससे माफ़ी माँग लेती। काश! मुझे ज़रा भी एहसास होता कि वो पल कभी ना बीतने वाली विदाई की शुरुआत थे, तो विदा लेने से पहले मैं उसे बताती कि मैं उससे कितना प्यार करती हूँ। विदा लेने से पहले मैं फ़ोन पर जी भर रो लेती- आय विश यू ऑल द बेस्ट इन लाइफ़वाली लाइन में अपनी सारी शुभकामनाएँ उस तक पहुँचा देती। यह आख़िरी शिष्टाचार बहुत ज़रूरी था, लेकिन मैं चूक गयी थी। अब यह सब उसकी अमानत की तरह मेरे पास ही रक्खा है और हर पल मुझे याद दिलाता है उन बेतरतीब अन्तिम बातों की। बस! वो एक और बार मुझे मिल जाए। कहीं भी, कैसे भी। उसे उसकी अमानत सौंप दूँ। बस आख़िरी बार उसे देख लूँ, फिर चला जाए वो अपनी राह।

लेकिन क्या सचमुच मैं ऐसा कर पाती? किसको धोखा दे रही थी मैं? कैसे फ़िजूल के "काश" बुन रही थी मैं। असल बात तो यह है कि मुझमें यह करने की भी हिम्मत नहीं थी। नहीं कह पाती मैं उससे अपना सच। कैसी हारी हुई लड़की थी मैं? रह-रहकर मेरे मन में इन ख़यालों का ज्वार उमड़ता था और दुःख की उन्मादी लहरें आँखों के किनारों को लाँघकर चेहरा भिगोती रहती थीं। यह मातम मेरे प्यार की अकाल मौत का था। लेकिन किसी की मौत हो जाये तो क्या उसके घर की व्यस्तता में कोई कमी आ जाती है?

इतने काम, इतने मेहमान और इतनी व्यस्तता का माहौल बना होता है: कोई आटे का दीप बना रहा होता है, कोई बांस का प्रबन्ध कर रहा होता है, कोई शव को स्नान करवा रहा होता है और ढ़ेरों प्रियजन घर से लेकर शमशान में मृतक के दाह संस्कार तक साथ रहते हैं। उसके बाद सबको एक महाभोज करवाया जाता है, जिसमें मृतक के पसंदीदा भोज्य बनते हैं। विषाद तो कहीं बहुत निचली सतह पर दौड़ रहा होता है, व्यवहारिक और ऊपरी सतह पर यह किसी उत्सव जैसी ही गहमागहमी है। घर वालों के लिये कब दिन बीता और कैसे अगली सुबह हुई, यह कौन जानता है?

मेरे अन्दर भी एक मौत हुई थी और मैं भी तरह-तरह की रस्मों में उलझी हुई थी। कभी-कभी तो मैं कॉलेज से आकर कपड़े भी नहीं बदलती थी, बस पड़ रहती थी अपने बिस्तर पर। यह मेरा घर भी तो नहीं था कि जहाँ मम्मी से कुछ छिपाए ना छिपे। वो बिना मेरी फ़रमाइश के ही जल्दी से कुछ मेरी पसंद का बना लाएँ कि मेरा मन ठीक हो जाए। या फिर पापा के ऑफिस से आने का समय होता जानकर, मैं आप ही झटपट अपना हुलिया ठीक कर लूँ। यह तो हॉस्टल था।

यहाँ कोई नहीं पूछता- तूने खाना खाया कि नहीं?’ और उस पर भी बेशर्मी में ख़ुद ही बताऊँ कि मैंने खाना नहीं खाया। तो कोई नहीं पूछता- कुछ और खाने का मन है? कुछ और बना दूँ।

यहाँ तो कल सुबह भी यही पोहा और यही चाय थी नाश्ते में, जो आज है। मेरे मन और तन पर भी वही चोला है, जो कल था। बदला ही क्या? कभी भ्रम होता कि समय जम गया है-ना दोपहर हुई, ना साँझ हुई, ना रात हुई और ना अगली सुबह शुरू हुई। एक मूक, ब्लैक एंड वाइट तस्वीर बन गया था समय, जिसमें नियति ने अनन्त काल के लिए क़ैद कर लिया था यह रेखाचित्र- पोहा, चाय, चाय से उठती भाप और मैं।

ना जाने, तुम कब आओगे

पलाश की लत में बिलकुल पागल सी हो गयी थी मैं। मैं उससे मिली ही क्यूँ? जब वो नहीं था वो मेरी ज़िन्दगी में तो क्या कमी थी? सब अच्छा ही चल रहा था। यह दर्द, यह टीस देने के लिये ही मिला वो मुझे? क्या पहेली है यह कि ना वो मेरा है और ना पराया ही है? सुन्दर सपनों का नीड़ था दिल मेरा! उसने यह क्या हाल कर दिया है? दिल ना हुआ, एक जबरन खाली करवाया गया कमरा हो गया है। दरवाज़े पर अब भी वो कील धँसी है, जिस पर विंडचाइम झूमते हुए बजती थी। दीवारों पर कीलों के गहरे निशान हैं, जिन पर कभी सुन्दर ड्रीमकैचर लटकते थे। कहीं उसकी तस्वीर हटाने के चक्कर में दीवारों से प्लास्टर उखड़ा हुआ है। कहीं उसकी फ़ोटो फ्रेम के निशान नक्काशी की तरह दीवार पर खुरचे हुए हैं। हर कोने में बरबादियों के जैसे क़िस्से लिखे हुए हैं। दिल, उसके जाने और मेरे खोने-पाने का फटा-चिथड़ा बही खाता हो गया है। रास ना आयी मुझे यह मोहब्बत।

एक दिन हॉस्टल में भरी दोपहर मुझे रोना आ गया। हर रात अकेले में रोना अलग बात थी, लेकिन इस तरह भरी दोपहर तो मैं हादसा होने पर, चोट का तेज दर्द होने पर भी नहीं रोई थी। उस दिन मेरा सब्र छूट गया। दिल रो रहा था कि पलाश ने एक बार भी मेरी सेहत के बारे में नहीं पूछा। उस दिन के बाद कभी भी नहीं, जब गुस्सा ही किये जा रहा था। यह सहन नहीं हो पा रहा था कि उसे मेरी कोई चिंता ही नहीं। उस दिन मैंने मन कड़ा किया और वो पेपर फाड़ दिया जिसमें उसका फ़ोन नंबर लिखा था। ख़ुद से कहा- अब मैं उसे कभी कॉल नहीं करूँगी। किसके पीछे भाग रही हूँ मैं? जिसे मेरे मरने जीने से कोई मतलब ही नहीं।

मैंने फ़ैसला किया कि अब मैं उसे कभी मेल भी नहीं करूँगी। उसे छोड़कर आगे बढ़ जाऊँगी। भुला दूँगी उसको हमेशा के लिये।

'क्या आज तक तुमने कुछ ग़लत नहीं किया? क्या तुम्हारी ग़लती के लिये तुम्हारे मम्मी-पापा ने तुमसे नाता तोड़ लिया? तुम्हारे भाई-बहन ने तुम्हें अपनी ज़िंदगी से बाहर कर दिया? नहीं। क्यूँकि वो प्यार करते हैं तुमसे। प्यार का दस्तूर है माफ़ कर देना। प्यार करने वाले जताते नहीं कि कितना दुःख उठा रहे हैं तुम्हारे लिये। वो शर्मिंदा नहीं करते तुम्हें कि तुम कितनी अनगढ़ हो। यह प्यार करने का सलीका है। तुम रोना-गाना छोड़कर पहले तय करो कि वाक़ई प्यार करती हो पलाश से? या बस जवानी का जोश चढ़ा था और उसे अपना निशाना बना रही थी?'  दिल में कौन था, जो मुझे ऐसी बातों से झकझोर देता था!

अपने फ़ैसले पर शर्मिंदा होते हुए टूटे दिल ने कहा- अच्छा मेल का दस्तूर निभाती रहूँगी। जवाब भले ही न देता हो लेकिन वो मेल पढ़ता तो है। कभी उसको मेरी ज़रूरत हुई, तो मेरी तरह मायूस न हो कि उसके साथ उसकी दोस्त नहीं। मैंने उससे प्यार किया है और मुझे प्यार करने का सलीका आता है।

अब दुखी मन से दिन शुरू होता था। मेरा सुबह का आ मुझे छू ले वाला भजनबन्द हो गया था। चाल में एक सुस्ती आ गयी थी, मन की थकान हर तरफ़ दिखती थी। मन सूखा ठूँठ हो गया था। कभी-कभी ख़ुद पर बहुत ग़ुस्सा आता था- क्यूँ मरी जा रही हूँ उसके लिये? कोई आत्मसम्मान है कि नहीं मेरा? पलाश ख़ुद को समझता क्या है? मैं मर नहीं जाऊँगी उसके बिना।

मुझे तो तब लगता था कि मैं एक चलती-फिरती लाश हूँ या शरद ऋतु का मुरझाया पेड़। लेकिन इसके बावजूद कॉलेज के लड़कों में मेरी डिमांड में कोई कमी नहीं थी। मुझे उन लड़कों पर हैरानी होती थी जो मेरे मुरझाने पर भी मुझे रिझाने के चक्कर में तरह-तरह के जतन करते थे। शायद प्यार के दर्द ने मेरे प्यार को, मुझे और भी निखार दिया था। मैं शरद ऋतु के मेपल पेड़ सी सवंर गयी थी, मेरी हर पत्ती में मेरे घावों का खून और पीले पड़े अरमान उतर आये थे। उस समय कॉलेज में जब कोई मुझे अप्रोच करता था, तो पलाश से बदला लेने की इच्छा कभी बहुत ज़ोर मारती थी। मन करता कि उसे दिखा दूँ- देखो, मरी नहीं मैं। ख़ुश हूँ मैं। तुमने ना चाहा तो क्या? मेरे कितने ही दीवाने हैं यहाँ।लेकिन फिर घबरा जाती थी। यह बेईमानी! यह धोखा कैसे दूँ अपने आप को? पलाश जाने या ना जाने, पर मैं तो जानती हूँ कि मुझे उसके सिवाय और कोई नहीं चाहिये। जब से यहाँ आई हूँ उस जैसा ही कोई ढूंढ रही हूँ। पर उस जैसा मिला कोई? और मैं उस तड़प, टीस और प्यार को मैला कैसे कर दूँ जो मेरी पूजा है, मेरी इकलौती दौलत है। जिस ख़ुशबू को मैं सिर्फ़ पलाश के लिये सम्हालती आई हूँ, वो किसी और को कैसे सौंप दूँ? किसी और को पलाश की जगह देने का ख़याल ही दम घोंटने लगता था। तब सांस लेने को फडफडाती मैं ख़ुद से कहती- अभी यह आगे पीछे घूम रहा है, जहाँ थोड़ा भाव दिया मैंने तो इसकी भी सींगें निकल आयेंगी, सांड कहीं का। सारे लड़के सांड होते हैं। सब एक जैसे होते हैं। मुझे नहीं चाहिये, मुझे कोई लड़का मेरे आस-पास नहीं चाहिये। भाड़ में जाओ सब।

इश्क़ की बाज़ी हार गयी तो हार भी ग्रेसफुल ढ़ंग से एक्सेप्ट करूँगी। अगर नसीब में यही है, तो यही सही। जल मेरे दिल, जल। देखूँ तो, पहले आग ख़तम होगी या पहले तू ख़ाक होगा। बिखर मेरे वजूद, जितना बिखर सके बिखर। देखूँ तो, बिखरने की इन्तहां क्या है? बस, मेरी शर्त इतनी ही है कि मेरे फ़ना होने से पहले पलाश को इसकी ख़बर भी ना होने देना। देखूँ तो, जिसके लिये तिल-तिल मर रही हूँ उसकी बेपरवाही कितनी लापरवाह रह लेती है? मर जाऊँगी किसी दिन तो क्या होगा उसका? समेट सकेगा मेरे बिखरे टुकड़े? उसे तब तो परवाह होगी, तब तो अफ़सोस होगा? एक तारा तो उसकी आँखों से भी टूटेगा, जब मुझे नहीं देख सकेगा। दिन अजीब ग़ुस्से, दुःख और आत्मसमर्पण में बीतता था। अब मेरी रातों को गानों की जगह ग़ज़लों ने ले ली थी और एक ग़ज़ल तो रिपीट पर चलती। मेरी आँखें शमा की तरह पिघलती रहती और रंज-ओ-ग़म के मोती सारी रात ढुलकते रहते।

प्यार मुझसे जो किया तुमने, तो क्या पाओगी, मेरे हालात की आँधी में बिखर जाओगी

रोते हैं उसको रात भर

पलाश से कहने और लिखने को कुछ बचा ही नहीं था। उसको पहले हर दो दिन बाद मेल करती थी। मेल के जरिये मैं अपनी हाजिरी उसके दरबार में लगाती थी, बिना उसे यह एहसास दिलाये कि कितनी तकलीफ़ में थी मैं। फिर मेल करने का यह समय बढ़कर तीन दिन और फिर चार दिन हो गया। मैंने पलाश को अपनी किसी भी तरह की बातें बताना बंद कर दिया था। अपनी परेशानी बताने का ख़याल भी कोफ़्त करता था। आयेगा मसीहा बनकर- यह कर लो, वो कर लो। नहीं चाहिये तुमसे मदद, अपने अनमोल वचन अपने पास ही रखो।वैसे यह ख़ुद को धोखा देने वाली ही बात थी। असल में, मैं अपना वहम चकनाचूर होने से बचा रही थी। वहम ही तो था कि मेरी परेशान मेल का जवाब वो ज़रूर देगा।

रातों को अक्सर मैं घण्टों टहलती रहती थी। बेचैन दिल बैठने ही नहीं देता था और नींद से बैर ठन गया था। कैसा पतझड़ महसूस होता था! टहलती थी तो लगता था सूखे पत्तों के ढेर पर पैर पड़ रहे हैं। सूखे पत्ते थे कि मेरे सूखे, मुरझाये सपने और दम तोड़ती इच्छाएँ। जब तक उन सूखे पत्तों से दबने पर कुरकुरी सी आवाज़ मुझे आती रहती थी, तब तक मैं अपने सपनों को, उन सूखे पत्तों को अपने ही पैरों से रौंदती रहती थी। चलते-चलते पैरों में दर्द हो जाता था, लेकिन धुन सवार रहती थी कि जब तक पत्तों से यह कुरकुरी सी आवाज़ आना पूरी तरह से बन्द ना हो जाये और इच्छाएँ दम ना तोड़ दें, ऐसे ही चलती रहूँगी। जहाँ इतने दर्द सह रही हूँ वहाँ यह पैरों का दर्द और सही। कभी कोई लड़की आवाज़ देती- ओय हीरोइन! बस कर, ग़ायब हो जाएगी वरना।

मैं उसे अनसुना कर तब तक चलती रहती, जब तक पैर उठने से ही मना ना कर दें। अजीब सी उथल पुथल थी जीवन में और एक दुःख सदमा बनकर अन्दर धँसता जा रहा था। मुझे इस दर्द के सिवाय और कुछ महसूस ही नहीं होता था। जैसे महसूस करने को कुछ और था ही नहीं। दिन में जब कभी मन बहुत उदास होता, तो हॉस्टल के पीछे 100 मीटर की दूरी पर छोटा सा शिव मंदिर था, वहाँ बैठ जाती थी। शिवलिंग को एकटक देखती रहती और आँखें डबडबा जाती। चलते समय हाथ जोड़कर कहती- भगवान! जो उसके लिये अच्छा हो, उसके साथ वही करना। उसे हमेशा ख़ुश रखना। मेरे आँसुओं की ज़िम्मेदार मैं ही हूँ, यह इल्ज़ाम उसके सिर नहीं है। मैं रो धोकर इस दलदल से बाहर आ ही जाऊँगी।

प्यार का दर्द दिल को सिकोड़कर छोटा करता रहा। मेरा मुट्ठी बराबर दिल अब छोटे मोती बराबर रह गया था। जब अंदर की भावनाओं का दबाव अपनी हद से गुज़र गया तो बहुत बड़ा सा धमाका हुआ जैसे सुपरनोवा एक्सप्लोज़न। पल भर में एक तारा ख़ाक हो गया और रह गयी कुछ धूल, कुछ गैसें और बिखर गयी ढेर सारी तपिश। लेकिन मसरूफ़ क़ायनात में किसे फ़ुरसत थी कि वो अफ़सोस करे? ज़माने में ऐसे क़िस्से रोज़ ही हुआ करते हैं। इस पल भर के क़िस्से के लिए कौन अपना वक़्त ज़ाया करे। आस-पास की दुनिया बेख़बर सी चलती रही। दिन मुझे बिताते रहे और रातें मुझे काटती रहीं। ख़राब सपने तो अक्सर आने लगे थे लेकिन एक रात मैंने बड़ा बुरा सपना देखा और मैं बहुत परेशान हो गयी। मैं सोती ही सुबह तीन बजे के आस पास थी, तो सपना अपने आप ही सुबह के सपनेवाले ब्रेकेट में आ जाता था। सुबह के देखे सपने सच होते हैं, ऐसी कहावत भी है।

उस सपने ने मेरे दिल को अपनी मजबूत गिरफ़्त में ले लिया था और उसे बेरहमी से निचोड़ रहा था। अब तो मुझे पलाश की आवाज़ सुननी है कि वो ठीक है। पर हाय! कैसे? फ़ोन नम्बर वाला पेपर तो फाड़ दिया और मेल डिलीट कर दी। अब? मेल का फ़ायदा नहीं, वो जवाब नहीं देगा। कैसे बात हो? नहीं पता, लेकिन बात तो करनी है मुझे।

मैंने अपनी याददाश्त का हाथ पकड़ा और सुबह सवेरे ही 100 रुपये लेकर S.T.D. चली गयी। अब याद करके नम्बर डायल किया और जो होना था वही हुआ- रॉंग नम्बर। बात किए बिना रह पाना मुश्किल था, दिल में कुछ सुलग रहा था और उसका बेचैन धुआँ दम घोंट रहा था। मैंने दोबारा कोशिश की और फिर से रॉंग नम्बर, एक और रॉंग नम्बर, एक और, एक और। ऐसी कई नाकाम कोशिशों में 99.40 का बिल हो चुका था। अब जेब ने जवाब दे दिया था। अब कुछ नहीं हो सकता था। हर पल के साथ घबराहट बढ़ती जा रही थी। मैं सपने को सपना कहकर खारिज नहीं कर पा रही थी। अब मेरा एक ही आसरा था- मेरे भोलेनाथ। लगभग दौड़ती हुई मैं शिव मंदिर की ओर चली, अब वही मेरी सुनेंगे। मैं उनकी शरण में बैठकर बहुत रोई और हाथ जोड़कर उनसे पलाश की सलामती की प्रार्थना करती रही। भगवान, पलाश ठीक होगा ना? तुम मेरी प्रार्थना सुनते हो ना? मैं उसकी सलामती के लिये कुछ भी करूँगी। पलाश मेरा भले ना हो पर दुनिया में रहे और ख़ुश रहे। मेरा पिछला सपना झूठा करने के लिये यह मत करो। मैं उसे भूल जाऊँगी। तुम्हारे पास आकर आँसू भी नहीं बहाऊँगी। महादेव, मैं तुम्हारा व्रत करूँगी और तुम मेरी प्रार्थना को उसका ताबीज़ बनाना। उसका ख़याल रखना।

उस दिन मैंने पहली बार व्रत रखा। सोमवार नहीं था, पर व्रत शिवजी का ही रखा। मन को कुछ भरोसा मिला कि भगवान उसका ख़याल रखेंगे। इतना भरोसा बहुत था जीने के लिये, इसलिये उसके बाद न कभी उतना बुरा सपना देखा और न कभी उतनी तड़प उठी कॉल करने की। उसके बाद आने वाले कई सोमवार मैं व्रत करती रही, सालों तक। लेकिन अपने घायल और टूटे दिल के टुकड़ों का क्या करती? हर टूटे टुकड़े में पलाश का चेहरा और उसकी यादों का मेला लगा रहता था। बाती का जला हुआ हिस्सा गवाह है कि दीपक जला था कभी। उसे भूल जाना इतना आसान था क्या? जो खून बनकर दौड़ रहा था रगों में, उससे जीते जी कैसे निजात पाऊँ? जैसी टूट-फूट और बिखराव से गुज़र रही थी उसके निशां तो मरते दम तक ज़ेहन और दिल पर रहेंगे। एक अनहोनी जो हो गयी, वो कभी हुई ही नहीं ऐसा धोखा ख़ुद को कैसे दूँ मैं?