गेट के पास अँधेरा था। बाहर की लाइट भी रोशन नहीं थी। देवराज चौहान सावधानी से रिवॉल्वर थामे, होंठ भींचे, अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहा था, परन्तु कुछ भी नज़र नहीं आया।
चंद क़दमों पर मौजूद सोहनलाल पास आ पहुँचा।
“यहाँ तो कोई भी नजर नहीं आ रहा।”
“चीख यहीं-कहीं से आई थी।” देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर कह उठा- पोर्च की लाइट ऑन करो। वहाँ से कुछ रोशनी तो यहाँ तक आयेगी।”
सोहनलाल ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ली और वापस पलट गया। पोर्च की रोशनी ऑन करके वापस आया। कुछ दूर ऑन हुई रोशनी से, यहाँ का अँधेरा थोड़ा छट गया था।
दोनों की निगाहें हर तरफ घूम रहीं थी।
सामने खुला गेट था।
धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए देवराज चौहान की निगाह, खुले गेट के भीतरी तरफ, बाईं और पड़ी तो आँखें सिकुड़ गईं। वहाँ अँधेरे में लॉन की घास पर कोई औंधा पड़ा नज़र आ रहा था। देवराज चौहान जल्दी से आगे बढ़ा और नीचे पड़े व्यक्ति को सीधा करके चेक किया। वहाँ रोशनी न के बराबर थी।
“क्या हुआ?” तभी मुख्य दरवाजे की तरफ से नानकचंद की आवज़ आई।
सोहनलाल,देवराज चौहान के पास पहुँच चुका था।
“कौन है ये?” सोहनलाल ने पूछा।
“माचिस जलाना।”
सोहनलाल ने रिवॉल्वर जेब में डालकर माचिस जलाई।
तीली से होने वाली क्षणिक तेज रोशनी में नीचे पड़े व्यक्ति का चेहरा देखा तो दोनों ही चिहुँक पड़े। वो जगमोहन था। वो ठगे-से खड़े रह गये।
“कौन है?” भटनागर ने पूछा। नानकचंद के साथ वो भी वहाँ आ पहुँचा था।
“उठाओ इसे।” देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में डालते हुए सख्त स्वर में कहा।
भटनागर ने हाथ लगाया। देवराज चौहान और वो, दोनों जगमोहन को उठाये बँगले के भीतर लेते चले गये। जगमोहन बेहोशी की अवस्था में था।
भीतर भटनागर और नानकचंद ने उसे पहचाना तो चौंके।
“जगमोहन!” भटनागर के होंठों से निकला।
“वो ससुरी इसका भी काम तमाम कर गई।”
देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी बरस रही थी।
सोहनलाल के दाँत भिंच चुके थे।
जगमोहन की छाती पर चाकू का एक वार था। दूसरा वार पेट पर था और तीसरा वार कान के पास कनपटी पर हुआ पड़ा था। तीनो जगहों से खून बह रहा था। और स्पष्ट लग रहा था कि चाकू मारने वाला अपना काम पूरा नहीं कर सका था। शायद उनके बाहर आ जाने की वजह से।
“ये तो घायल है। जया ने इसकी भी जान -। भटनागर ने कहना चाहा।
“जल्दी से किसी नर्सिंग होम चलो।” देवराज चौहान खतरनाक स्वर में बोला- “सोहनलाल कार तैयार रखो।”
सोहनलाल तुरंत बाहर वाले दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
भटनागर और नानकचंद ने बेहोश जगमोहन को सम्भालकर उठाया।
“वो लड़की बहुत खतरनाक निकली।” भटनागर कठोर स्वर में कह उठा- “उसे केटली के बेसमेंट में ही खत्म कर देते तो न केसरिया मरता और न ही जगमोहन ज़िन्दगी और मौत के खतरे में पड़ता।”
वे जगमोहन को उठाये बाहर की तरफ बढ़े।
देवराज चौहान चेहरे पर दरिन्दगी समेटे साधे था।
सोहनलाल ने कार का पिछ्ला दरवाज़ा खोल रखा था। भटनागर और नानकचंद ने बेहोश जगमोहन को ठीक तरह से कार की पिछली सीट पर लिटाया।
“सोहनलाल! तुम जगमोहन के पास बैठो।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने उन दोनों को देखा- “तुम लोग केसरिया की लाश को बँगले से हटाकर, खून वाले फर्श को साफ़ करके यहाँ से -।”
देवराज चौहान के शब्द अधूरे ही रहा गये।
“साली।” नानकचंद ने अजीब से स्वर में कहा- “वो ससुरी तो ऊपर वाले कमरे की खिड़की पर खड़ी है।”
सब की निगाह तुरन्त ऊपर वाली खिड़की पर गई।
ग्रिल लगी खिड़की पर खड़ी जया केटली इधर ही देख रही थी।
“वो तो कमरे में है!” सोहनलाल के होंठों से निकला।
“तुमने उसका कमरा चेक किया था ?” सोहनलाल के माथे पर बल नजर आ रहे थे।
“नहीं।” भटनागर का हाथ जेब पर गया। उस कमरे की चाबी जेब में थी, जिसमें जया केटली कैद थी।
देवराज चौहान के होंठ भिंचे हुए थे। आँखें सिकुड़ चुकी थीं।
“इसका मतलब वो।” सोहनलाल कह उठा- “जया कमरे में ही बंद है।”
“तो-तो केसरिया और अब जगमोहन को मारने की कोशिश किसने की है।” नानकचंद के होंठ सिकुड़े।
“भटनागर।” देवराज चौहान कठोर स्वर में कह उठा- “चेक करो कि लड़की कमरे में थी।”
भटनागर के चेहरे का हाल अजीब सा हो रहा था। उसने जेब में हाथ डालकर चाबी निकाली।
“नानकचंद! तू भी चल मेरे साथ -।”
“चल-चल। घबराता क्यों है।”
दोनों भीतर चले गये।
“मुझे कुछ अजीब सा लग रहा है। सोहनलाल धीमे स्वर में कह उठा।”
देवराज चौहान कुछ नहीं बोला। चेहरे पर कठोरता नाच रही थी। चौथे मिनट ही दोनों वापस आये।
“वो छोरी तो कमरे में बंद हौवे। वो तो क्या उसकी हवा भी बाहर न निकलो हो।” नानकचंद कह उठा।
“तो फिर केसरिया की और अब जगमोहन की जान किसने लेने की चेष्टा की।” सोहनलाल के होंठों से निकला।
“यहाँ कोई है।” देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर हर तरफ नजरें दौड़ाता कह उठा- “जो ये काम कर रहा है। वो क्या चाहता है। मालूम नहीं। मतलब कि पुलिस का कोई ख़तरा नहीं। तुम दोनों यहीं रहो। ढूँढो उसे वो बँगले में ही कहीं छिपा हो सकता है। मैं जगमोहन को डॉक्टर के पास ले जा रहा हूँ-।”
कोई कुछ न बोला।
“लेकिन कौन हो सकता है जो....।” भटनागर ने कहना चाहा।
“इन बातों से जरूरी है, जगमोहन को बचाना। तुम लोग सतर्क रहना। वो जो भी है, तुम दोनों पर भी वार कर सकता है।” देवराज चौहान का लहज़ा बहुत खतरनाक हो उठा था।
भटनागर ने नानकचंद को देखा।
“साले को देख लेंगे। मेरे केसरिया को मारा उसने। केसरिया को। बचेगा नहीं।” नानकचंद वहशी स्वर में कह उठा- “रिवॉल्वर दे मेरी। वो कुत्ता जो भी है, बुरी मौत मारूँगा उसे।”
देवराज चौहान ने नानकचंद की रिवॉल्वर उसके हवाले करते हुए कहा।
“बेशक जैसी मर्जी मौत मारना उसे। लेकिन ये जानने की कोशिश करना उससे कि वो ये सब क्यों कर रहा है।”
“तुम्हारा मतलब कि वो, बँगले में ही है।” भटनागर का चेहरा सख्त था।
“जो बँगले में घुसकर केसरिया को मार सकता है, उसका इरादा इतनी जल्दी जाने का नहीं हो सकता। कोई तो ख़ास बात होगी। तुम दोनों सावधान रहना।” उसके बाद उसने सोहनलाल से कहा- “जगमोहन के पास बैठो।”
सोहनलाल पिछली सीट पर मौजूद बेहोश जगमोहन के साथ बैठ गया।
देवराज चौहान ड्राइविंग सीट पर बैठा और कार स्टार्ट करके, बँगले के बाहर से जाता चला गया।
☐☐☐
रंजन तिवारी -।
अँधेरा घिरने के साथ-साथ ही बँगले के पास पहुँच गया था। अपनी कार को वह दूर खड़ी कर आया था। जब से यहाँ पहुँचा था, बँगले पर ही निगाह रख रहा था। भीतर चंद लाइटें ऑन थीं। पहली बार तो वो तब चौंका, जब उसने पहली मंजिल की खिड़की पर मौजूद युवती को देखा। उसका चेहरा अँधेरे की वजह से ठीक तरह नहीं देख पाया था। इस पर भी उसकी सोचें यहीं ठहरी कि वो युवती जया केटली हो सकती है। उसके अलावा रंजन तिवारी को कोई और नज़र नहीं आया। जबकि वो डकैती में शामिल चेहरों को देखकर तसल्ली कर लेना चाहता था कि वो ठीक जगह पहुँचा है।
जब से वो यहाँ पहुँचा था। न तो कोई बँगले के बाहर निकला था। न ही कोई बँगले के भीतर गया था। रंजन तिवारी तसल्ली से बँगले पर निगाह रखे था।
कुछ देर बाद उसने केसरिया को देखा, जो दो-तीन लिफ़ाफ़े उठाये बाहर से आया था और बँगले में चला गया। बाहर कम रोशनी होने पर भी रंजन तिवारी ने उसे स्पष्ट पहचाना कि वो नानकचंद जैसे खतरनाक डाकू का दाहिना हाथ केसरिया है। वीडियो फिल्म में उसे अच्छी तरह देखा था। लिफाफों से वो समझ गया कि खाने-पीने का सामान लेकर आया होगा।
रंजन तिवारी बिना किसी जल्दी के अँधेरे में खड़ा बँगले पर निगाह रखता रहा। अब तक इस बात का उसे पक्का अन्दाजा हो चुका था कि ऊपर मंजिल की खिड़की पर नजर आने वाली युवती और कोई नहीं, जया केटली ही है, परन्तु एक बार भी उसका इरादा जया के बारे में पुलिस को खबर करने का नहीं बना। पुलिस ने जया को वहाँ से छुड़ाने के चक्कर में सारा खेल बिगाड़ देना था, और उसके हाथ साढ़े चार अरब के हीरे नहीं लग पाने थे। हीरे हाथ में आने पर ही वो जया के बारे में कुछ सोचेगा। अब तक जया सलामत थी, तो उसके ख्याल से जया को आगे भी कोई नुक्सान नहीं होने वाला।
वो जानता था कि बँगले के भीतर के लोगों को जगमोहन के पुलिस स्टेशन से आने का इंतजार है। उसके आने के पश्चात ही इनकी हरकतों में तेजी आएगी। उसके ख्याल से हीरों को बँगले में ही होना चाहिए। परन्तु वह पूरी तस्सली के पश्चात ही कोई कदम उठाना चाहता था।
रात करीब बाराह बजे के बाद रंजन तिवारी ने देवराज चौहान और सोहनलाल को बँगले के अन्दर जाते देखा तो रंजन तिवारी के चेहरे पर सोच के भाव नाच उठे। जगमोहन पुलिस स्टेशन में है। देवराज चौहान और सोहनलाल अब बँगले में आ रहे हैं। ऐसे में हीरे कहाँ हैं! देवराज चौहान किसी भी हालत में नानकचंद जैसे खतरनाक डाकू पर विश्वास करके हीरे, उसके पास छोड़कर नहीं जा सकता, और हीरे देवराज चौहान के पास उसकी आँखों से दूर रहें, इस बात पर नानकचंद जैसा डाकू कभी विश्वास नहीं करेगा।
रंजन तिवारी को अपनी दोनों तरह की सोचें ठीक लगी।
ऐसे में हीरे किसके पास हैं?
रंजन तिवारी ने यही फैसला किया कि अभी कुछ देर और नजर रखें। रात ज्यादा होने पर भी बँगले में प्रवेश करके, भीतर के हालातों और हीरों के बारे में जानने की चेष्टा करेगा।
कुछ ही देर बीती होगी देवराज चौहान और सोहनलाल को भीतर गये कि, बँगले से उठने वाले खामोश हलचल को उसने महसूस किया, परन्तु रंजन तिवारी अपनी जगह से हिला नहीं।
कुछ ही देर बाद उसने गेट के पास जगमोहन को देखा, जो कि भीतर प्रवेश कर रहा था। रंजन तिवारी ने मन ही मन चैन की साँस ली कि, जगमोहन के आ पहुँचने पर इन लोगों की हरकतें अब तेज होंगी। हो सकता है, इसमें साढ़े चार अरब के हीरों का बँटवारा होने लगे। यानि कि उसके बँगले में प्रवेश करने का वक्त आ गया है। एक बार पक्के तौर पर मालूम हो जाये कि हीरे बँगले में ही हैं तो उसने फौरन पुलिस को फोन कर देना था।
रंजन तिवारी के देखते ही देखते, जब जगमोहन ने बँगले के खुले गेट में प्रवेश किया तो अँधेरे में उसने किसी को जगमोहन पर छलाँग लगाते और उसके बाद कानों में पड़ने वाली जगमोहन की चीख सुनी।
रंजन तिवारी हक्का बक्का रह गया।
जगमोहन पर हमला करने वाला कौन है?
उसने पहली मंजिल की खिड़की पर देखा, जहाँ अब जया नजर आ रही थी।
रंजन तिवारी एकाएक फैसला नहीं कर पाया कि उस तरफ जाये या नहीं। तभी उसने भीतर से देवराज चौहान और सोहनलाल को बाहर निकलते देखा। अँधेरे में भी देख लिया कि देवराज चौहान के हाथ में रिवॉल्वर है। वो समझ गया कि जगमोहन पर हमला करने वाले की अब खैर नहीं, परन्तु जल्द ही उसे मालूम हो गया कि जगमोहन पर हमला करनेवाला उनकी नजर में नहीं आया। वो लोग, जगमोहन को उठाकर भीतर ले गये हैं। कुछ देर बाद उसने देखा कि जगमोहन को कार की पिछली सीट पर डालकर ले जाया गया है। सोहनलाल भी साथ गया है और देवराज चौहान ने कार ड्राइव की थी।
उसके पीछे जाने का कोई फायदा नहीं था।
रंजन तिवारी समझ गया कि जगमोहन घायल है और उसे ईलाज के लिये ले जाया गया है। उसे कार में डालते हुए, उसने नानकचंद और भटनागर को देखा, जिसकी कि पुलिस या वह, इस बात की शिनाख्त नहीं कर पाए थे कि वो कौन है? भीतर केसरिया भी था।
तीन थे।
जया ऊपर कमरे में थी। उसे शायद कमरे में बंद कर रखा था। और आखिरी इनसान वो था, जिसने जगमोहन पर हमला किया था। रंजन तिवारी के मन में उस्तुकता थी कि आखिर वो कौन था? और अभी भी भीतर ही है।
रंजन तिवारी को इतना तो एहसास हो गया कि बँगले के भीतर के हालात ठीक नहीं है। क्योंकि जगमोहन पर हमला करने वाला भीतर है और जाने वो क्या चाहता है? अब बाहर खड़े रहना भी ठीक नहीं था। रंजन तिवारी बँगले के भीतर जाने का सुरक्षित रास्ता तलाश करने लगा, कि भीतर जाकर देख आये कि क्या हालात हैं। शायद साढ़े चार अरब के हीरों के बारे में कोई खबर मिल जाये।
☐☐☐
जब कार बँगले के बाहर निकल गई तो नानकचंद और भटनागर की नजरें मिलीं। फिर दोनों की निगाह अँधेरे में भरे लॉन में घूमी। खुद वे पोर्च की रोशनी में खड़े थे।
“ओ भटनागर!” नानकचंद हाथ में पकड़े रिवॉल्वर को हिलाकर खतरनाक स्वर में कह उठा- “तेरे को क्या लगता है, देवराज चौहान ठीक कहता है, या यूँ ही बोल गया है।”
“क्या?”
“ये ई कि इस वक्त भी कोई बँगले में है।” नानकचंद के दाँत भिंचे हुए थे।
भटनागर की नजरें हर तरफ घूम रहीं थीं।
“बोल रे-।”
“लगता है तू ठीक तरह से सोच-समझ नहीं पा रहा है।” भटनागर ने सख्त स्वर में कहा।
“सोचने-समझने का काम तो केसरिया करता था। वो तो मर गया रे। अब तू ही मुझे समझा दे-।” खूँखार स्वर था नानकचंद का।
“वो कोई खतरनाक हिम्मत वाला इनसान है, जिसने बँगले में घुसकर केसरिया की जान ली। जबकि नीचे मैं और तुम मौजूद थे। ये अलग बात थी कि मैं नींद में और तू नशे में लुढ़का पड़ा था। केसरिया को चीखने का भी मौका नहीं दिया उसने, कि कहीं हमारी आँख खुल जाये।” भटनागर ने एक-एक शब्द चबाकर कहा।
“हूँ।”
“केसरिया की जान लेने के बाद, वो डरकर बँगले से गया नहीं।” देवराज चौहान की मौजूदगी में भी बँगले में ही रहा और मौका मिलने पर, भीतर प्रवेश करते जगमोहन पर चाकू से हमला कर दिया।” भटनागर का स्वर गम्भीर और सख्त था- “ये तो अच्छा हुआ कि जगमोहन की चीख पर, देवराज चौहान तुरन्त वहाँ पहुँच गया। वरना वो जो कोई भी है, केसरिया की तरह जगमोहन को भी खत्म कर डालता। अभी भी जगमोहन की हालत ठीक नहीं। दो-तीन वार और हो जाते तो, जगमोहन को डॉक्टर के पास ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती।”
“मैं उस कुत्ते के बावन टुकड़े कर दूँगा।” नानकचंद हाथ में रिवॉल्वर दबाये गुर्रा उठा।
“पहले उसे ढूँढ तो ले -।” भटनागर कड़वे-कठोर स्वर में कह उठा- “जगमोहन जब घायल मिला तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि तब भी वो आसपास ही था, परन्तु सबका ध्यान जगमोहन पर टिक जाने की वजह से उसे ढूँढने की तरफ ध्यान ही नहीं गया।”
“तो अब ढूँढ लेते हैं रे।” नानकचंद की आँखों में सुर्खी दौड़ रही थी।
“बँगले के बाहर तो इस वक्त देख पाना सम्भव नहीं। अँधेरा है। यहाँ से चारदीवारी तक वो कहीं भी छिपा हो सकता है। चारदिवारी के पास लगे, पेड़ों के पीछे। लॉन में लगे फूलों के पौधों के पीछे। या कहीं भी। लेकिन इस वक्त हम दो हैं और उसे लॉन वाले हिस्से में नहीं देख सकते।” भटनागर ने सोच भरे स्वर में कहा- “हो सकता है किसी तरह वो बँगले के भीतर भी जा छिपा हो। हम सबका ध्यान तो जगमोहन पर था।”
“चल भीतर देखते हैं हरामजादे को। शायद मिल जाये।”
दोनों बँगले के भीतर प्रवेश कर गये।
रोशनी में पूरा ड्राइंगहॉल चमक रहा था।
“यहाँ तो नहीं है।” भटनागर बोला।
“तू नीचे वाले हिस्से में देख, मैं ऊपर-।”
“नहीं नानकचंद। हम दोनों साथ रहेंगे।” भटनागर सख्त स्वर में कह उठा।
“क्यों डरता है।” नानकचंद गुर्राया।
“डरने की बात नहीं है। बात समझदारी की है।” भटनागर दाँत भींचकर कह उठा- “दरअसल अभी हम जानते नहीं है कि वो एक है या दो-तीन हैं। जो खामखाह हम लोगों की जान लेने पर तुल गया है। ऐसे में वो या उसके साथी हममें से किसी को अकेला पाकर आसानी से दबोच सकते हैं। हम दोनों साथ रहेंगे तो फिर हम पर हाथ डालने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ेगी। हम सलामत रहेंगे।”
नानकचंद ने भटनागर को घूरा।
“नहीं समझे -?”
“कुछ समझा, कुछ नहीं-।”
“केसरिया अकेला था। उसे खत्म कर दिया गया। इसी तरह जगमोहन अकेला बँगले में प्रवेश कर रह था। उस पर भी हमला करके उसे खत्म करने की चेष्टा की गई, वो खत्म हो ही गया होता, अगर चीख न पड़ता। अभी भी कोई भरोसा नहीं कि वो बचता है या नहीं।” भटनागर कह रहा था- “ऐसे में हम इकट्ठे रहते हैं तो, वो जो भी है हम पर हमला करने से पहले सौ बार सोचेगा। किया तो दोनों मिलकर, उसे सम्भाल सकते हैं।”
“बात तो तेरी सोलह आने ठीक ही होवे।” नानकचंद ने खतरनाक स्वर में कहा- “ठीक है। दोनों इकट्ठे ही रहेंगे।”
“चल पहले जया को देख लें। उसे भी खतरा हो सकता है।” भटनागर बोला।
“वो तो कमरे में बंद है।”
“फिर भी एक नजर उस पर डाल लेना अच्छा है।”
“चल -।”
दोनों सीढ़ियों की तरफ बढ़ गये। नानकचंद के हाथ में रिवॉल्वर दबी थी।
“केसरिया ऊपर क्या करने गया था? तुम दोनों तो नीचे बैठे थे जब मेरी आँख लगी।” भटनागर बोला।
“जो इस वक्त हम करने जा रहे हैं।” दाँत भींचकर बोला नानकचंद।
“मतलब कि तब केसरिया जया के पास जा रहा था।” भटनागर ने नानकचंद को देखा।
“हाँ-।”
“लेकिन दरवाजा तो बंद था। चाबी मेरे जेब में थी।”
“मामूली ताले खोल लेता था केसरिया-।”
दोनों सीढियाँ तय करके अन्दर पहुँचे तो केसरिया की चादर में लिपटी लाश नजर आई। दो कदम के फासले पर फर्श पर खून बिखरा हुआ था।
“वाह केसरिया!” नानकचंद अफ़सोस भरे स्वर में कह उठा- “तू मरा भी तो ऐसी जगह कि तुझे ढंग से ठिकाने भी नहीं लगा सकता। फिर भी किस्मत वाला है कि तेरे शरीर को चादर मिल गई। अपनी बारी पता नहीं क्या होता है।”
दोनों एक बंद दरवाजे के सामने रुके। भटनागर ने जेब से चाबी निकालकर दरवाज़ा खोला और भीतर प्रवेश कर गये। जया कमरे में मौजूद बेड पर लेटी थी कि उठ गई। भटनागर ने आगे बढ़कर अटैच बाथरूम का दरवाजा खोला। भीतर झाँका। खाली था। दरवाज़ा बंद करके वो पलटा।
“कमरे से बाहर निकलने की कोशिश मत करना।” भटनागर ने कठोर स्वर में जया से कहा- “ये मैं तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूँ। तुम्हें हमसे ज्यादा किसी और से खतरा है, जो बँगले में या आस-पास ही है और यहाँ मौजूद सब लोगों की जान लेना चाहता है। केसरिया को वो खत्म कर चुका है और जगमोहन पर चाकू से घातक वार किये गये हैं। उसे हस्पताल ले जाया गया है। कमरे से बाहर निकली तो तुम्हें भी वो मार सकता है।”
“वो है,कौन?” जया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
“मालूम नहीं। अभी वो हमे दिखा नहीं।”
दोनों बाहर निकले और दरवाज़ा बंद करके चाबी जेब में डाली और बढ़कर, वहाँ के बंद कमरों को सावधानी के साथ चेक करने लगे।
“जगमोहन ज्यादा घायल था?” एकाएक नानकचंद ने पूछा।
“तूने देखा नहीं था-।”
“देखा था रे। फिर भी तेरे से पूछ रहा हूँ-।”
“हाँ। बहुत घायल था। उसे कुछ हो भी जाये तो कोई बड़ी बात नहीं।” भटनागर गम्भीर स्वर में बोला।
“ऐसा मत बोल-।”
“क्यों?” भटनागर ने नानकचंद को देखा।
“वो मर गया तो बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा हमें। क्योंकि वो ही जानता है कि साढ़े चार अरब के हीरे उसने कहाँ छिपाये हैं। दुआ कर कि मरने से पहले वो हीरों के बारे में बता दें।”
“ये दुआ न करूँ कि वो बच जाए।”
“बचे या मरे। मेरे को क्या फर्क पड़ता है। मुझे तो डेढ़ अरब के हीरे चाहिये। अपने हिस्से वाले हीरे-।”
दोनों बँगले के जर्रे-जर्रे की तलाशी लेते रहे। दोनों इकट्ठे ही रहे कि अगर कोई उन पर हमला करे तो उसे संभाला जा सके। अपना बचाव किया जा सके।
सुबह के चार बज गये।
बँगले में उन्हें कोई न मिला।
थके-हारे वो ड्राइंगहाल में सोफे पर आ बैठे।
“लगता है, वो हमला करने वाला हरामजादा यहाँ नहीं है।” नानकचंद दाँत भींचकर कह उठा।
“बँगले में भी हो सकता है।” भटनागर बोला।
“तुम ये बात कैसे कह सकते हो?”
“यहाँ सिर्फ हम दो ही हैं। दोनों इकट्ठे रहें। इतना बड़ा बँगला है। हम दोनों बँगले के एक तरफ हैं। तो वो अपने बचाव में बँगले में दूसरी तरफ जा सकता है। यानि कि सिर्फ हम दो बँगले में रहकर, उसे नहीं तलाश कर सकते। अगर वो बँगले में ही है तो-।”
“अभी तो बँगले की छत भी नहीं देखी -।” नानकचंद गुर्राया।
“पीछेवाला हिस्सा भी नहीं देखा। दोनों साथ रहकर बँगले की अच्छी तरह से तलाशी नहीं ले सकते।”
“तू ठीक बोलता है रे -।”
उनके चेहरों पर थकान के- नींद के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
“देवराज चौहान नहीं आया अभी तक-।” नानकचंद ने पूछा।
“जगमोहन के ही साथ होगा। अभी तक न आने का मतलब है, जगमोहन की हालत ठीक नहीं।” भटनागर ने कहा।
कुछ पलों की चुप्पी के बाद नानकचंद बोला, “तेरे को लगता है केसरिया मर गया। अभी तो मेरे साथ था वो हरामजादा -।”
भटनागर ने नानकचंद के चेहरे पर निगाह मारी फिर गहरी साँस लेकर कह उठा।
“मुझे नींद आ रही है।”
“सो जा -।”
“तू क्या करेगा?”
“फ़िक्र नेई कर। मैं नेई सोने वाला।” नानकचंद दाँत भींचकर कह उठा- “मैं तो उस हरामजादे का इतंजार करूँगा, जिसने केसरिया को मारा है। वो बँगले में है तो, बचेगा नहीं साला।”
“मेरे सोने के बाद, तू भी सो गया तो -?”
नानकचंद ने भटनागर को घूरा।
“पागलों वाली बातें मत कर। तू क्या समझता है, ये वक्त मेरे सोने का है। इस वक्त कोई एक ही सो सकता है।”
“मैं नींद ले लूँ। दो-तीन घंटे बाद उठा देना। तब तुम नींद ले लेना-।”
“सो जा। बेफ़िक्र होकर सो।”
भटनागर वहाँ से उठा और दीवान पर जा लेटा।
गहरी खामोशी छा गई थी। वहाँ पर।
“सो मत जाना।” एकाएक भटनागर आँखें खोलकर कह उठा।
“बार-बार मत बोल-।”
पाँच-सात मिनट में भटनागर गहरी नींद में था।
रिवॉल्वर हाथ में थामे नानकचंद की निगाहें सावधानी से इधर-उधर फिरती रहीं। गहरा सन्नाटा वहाँ छाया हुआ था। नानकचंद सोचने लगा कि अगर वो इसी तरह बैठा रहा तो, केसरिया की जान लेने वाला सामने नहीं आएगा। हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर देखकर तो वो बिलकुल भी सामने नहीं आयेगा।
नानकचंद ने मन ही मन सोचा। तय किया कि शिकार करने के लिए, भेड़ बनना ही पड़ेगा। उसने रिवॉल्वर जेब में डाली और सुस्ती भरे अंदाज में वहीं सोफे पर इस तरह पसर गया, जैसे बहुत नींद आ रही हो। यह उसने इसलिए किया कि, अगर कोई देख रहा हो तो समझ जाए कि वो सोने जा रहा है।
नानकचंद ने आँखें बंद कर ली थीं, परन्तु एक आँख का जरा सा कोना खोले, पूरे हॉल का नजारा देख रहा था। चारों तरफ शांति रही। पाँच मिनट बीत गये।
दस मिनट बीत गये।
फिर वही हुआ, जो होना था।
तीव्र चीख से नानकचंद की आँखें खुलीं।
पहले तो वो समझ ही नहीं पाया कि उसकी आँख क्यों खुली। नींद कैसे टूटी। तभी भटनागर की पीड़ा भरी कराह उसके कानों में पड़ी तो उसने उस तरफ देखा।
अगले ही पल चौंक कर उछल कर खड़ा हो गया। भटनागर का कंधा खून में डूबा हुआ था। और एक आदमी पास की खुली खिड़की से बाहर कूद रहा था। नानकचंद के होंठों से वहशी गुर्राहट निकली। उसने जल्दी से रिवॉल्वर निकाली।
परन्तु तब तक तो आदमी खिड़की से कूद कर नजरों से ओझल हो गया था। भटनागर घायल बाँह थामे कराह रहा था।
नानकचंद पागलों की तरह खिड़की की तरफ भागा।
“तूने मेरे केसरिया को मारा। छोडूँगा नहीं तेरे को हरामजादे।” इसके साथ ही वो भी खिड़की से बाहर कूद गया।
बाहर अँधेरा था।
कोई भी नजर नहीं आया।
दस मिनट तक नानकचंद खूँखार-सा बना उसे ढूँढता रहा। लेकिन वो जो कोई भी था नहीं नजर आया। दाँत भींचे गुर्राता हुआ, नानकचंद खिड़की से ही वापस हॉल में पहुँचा।
भटनागर का कंधा खून में डूबा हुआ था।
“क्या हुआ-?”
अपनी पीड़ा दबाते हुए, भटनागर भिंचे स्वर में कह उठा। “मैं नींद में था कि एकाएक मुझे लगा कि कोई मेरे पास है। मैंने आँखे खोली और देखा, वो मेरे सिर पर सवार था। चाकू वाला हाथ ऊपर की तरफ उठा हुआ था। ज़रा भी वक्त नहीं बचा था कि मैं कुछ कर पाता। वो सीधे-सीधे मेरी गर्दन का निशाना ले रहा था। और कुछ कर न सका। मैंने फौरन करवट ली। करवट लेने की वजह से चाकू का वार गर्दन पर न होकर, कंधे पर लगा। मैं चीखा। तभी वो कंधे से चाकू निकालकर खिड़की से बाहर कूद गया और तुम उसके पीछे गये।”
नानकचंद के होंठों से दरिन्दगी भरी गुर्राहट निकली।
“मेरे ख्याल से वो तुम्हारी वजह से भाग गया। तुम- तुम क्या कर रहे थे? सो गये थे क्या?”
“उस हरामजादे की किस्मत अच्छी थी, जो मैं सो गया था।” नानकचंद का स्वर वहशी हो उठा- “तुम्हें पता है कौन था वो। तूने तो देखा है उसे?”
“नहीं।” भटनागर का चेहरा दर्द से भरा हुआ था - “उसने चेहरे पर रुमाल इस तरह बाँध रखा था कि पहचाना न जा सके। सिर्फ उसकी सुर्ख आँखें ही नजर आईं। मैं उसे नही पहचान सकता।”
नानकचंद दाँत पीसकर रह गया।
“तूने तो कहा था तू पहरा देगा। सोयेगा नहीं।” भटनागर ने तीखे स्वर में कहा।
“अब मैं क्या करूँ। सो गया तो सो गया -।” नानकचंद को अपने पर गुस्सा आ रहा था।
“मेरा कुछ कर। कंधा बहुत घायल है।” भटनागर कह उठा।
नानकचंद की नजरे उसके कंधे पर गई।
“यहाँ पर दवा दारू के लिए कुछ है। कोई सामान है?”
“मालूम नहीं। तुम देखो, कहीं कुछ पड़ा हो।”
“मैं देखने जाऊँ और वो हरामजादा फिर आ गया तो तू...।”
“इतनी हिम्मत उसमें नहीं होगी कि, वो अभी लौट आये।” भटनागर विश्वास भरे स्वर में कह उठा।
दाँत भींचे नानकचंद वहाँ से जाने लगा तो ऊपर कमरे का दरवाज़ा थपथपाने का स्वर आया फिर जया की आवाज़ आई।
“क्या हो रहा है? कौन चीखा था - ?”
“ससुरी को रात में भी चैन नहीं।” नानकचंद भिंचे स्वर में बोला - “जवानी सोने कैसे देगी।”
“उसे कह दे कि सब ठीक है।”
“चाबी दे कमरे की। अच्छी तरह समझा दूँगा। उसके बाद उसे नींद भी अच्छी आयेगी।”
“चाबी रहने दे।” भटनागर पीड़ा को दबाते हुए कह उठा - “बाहर से ही कह दे।”
“बाहर से। दरवाजा बंद है। बाहर से क्या फायदा, कुछ कहने का।” नानकचंद ने उखड़े स्वर में कहा और वहाँ से हटते हुए बोला- “संभल कर रहना। दवा-दारू के लिये देखता हूँ कि कुछ मिलता है या नहीं।”
भटनागर ने कुछ नहीं कहा।
आगे बढ़ते हुए नानकचंद ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली।
☐☐☐
रंजन तिवारी कुछ घंटे पहले बहुत सावधानी से बँगले में प्रवेश कर गया था। वो जानता था कि बँगले के भीतरी हालत ठीक नहीं हैं। ऐसे में बँगले वालों की निगाह में आना खतरे से खाली नहीं। और ये इत्तिफ़ाक़ ही रहा कि नानकचंद और भटनागर की बातें उसके कानों में पड़ गईं थी।
जब वे जगमोहन के बारे में बातें कर रहे थे कि जब तक जगमोहन का मुँह नहीं खुलेगा, हीरों के बारे में नहीं पता चलेगा कि उसने हीरे कहाँ छिपाये हैं।
रंजन तिवारी के लिए यही बात काम की थी।
उसे तो सिर्फ हीरे ही चाहिये थे। वो समझ गया कि हीरे, जगमोहन ने छिपाये हैं और जब तक वो नहीं बताता, हीरों के बारे में किसी को मालूम नहीं हो सकता कि वो उसने कहाँ छिपाये हैं। यानि कि अभी हीरों तक पहुँचने में वक्त है। क्योंकि उनकी बातों से ये भी जान चुका था कि जगमोहन ज्यादा घायल है। उन लोगों की तरह रंजन तिवारी भी उलझन में था कि इन लोगों के पीछे कौन पड़ गया है?
अपने काम की बात मालूम करके रंजन तिवारी खामोशी से बँगले के बाहर आ गया था और उसे इस बात का भी एहसास हो गया था कि अकेला इस तरह रात भर निगरानी करके मामले को नहीं संभाल सकता। उसके लिये जरूरी हो गया था कि अपने किसी असिस्टेंट को बुलाये। रंजन-तिवारी ने जेब से मोबाइल फोन निकाला और प्रीतम वर्मा के घर का नम्बर मिलाने लगा।
☐☐☐
घंटे भर बाद ही, जब दिन का उजाला निकलना शुरू हुआ प्रीतम वर्मा वहाँ हाजिर हो गया।
“क्या बात है तिवारी साहब! इतनी सुबह-सुबह मुझे बुलवा लिया? ख़ास मामला है क्या?” प्रीतम वर्मा ने पूछा।
“साढ़े चार अरब के हीरों का मामला है।” रंजन तिवारी गम्भीर स्वर में बोला।
“केटली वाले हीरे। जो डकैती में चले गये। जिनका बीमा कम्पनी ने किया हुआ है?”
“हाँ। कटारिया की हालत खराब हुई पड़ी है। अगर हीरे न मिले तो साढ़े चार अरब रूपये, केटली को देने पड़ेंगे और इतनी बड़ी रकम का भुगतान देना कम्पनी के बड़ों को अच्छा नहीं लगेगा। वो कटारिया की छुट्टी भी कर सकते हैं।”
“लेकिन आप तो छुट्टी पर थे।”
“कटारिया के जोर देने पर छुट्टी कैंसिल कर दी -।” चूँकि दिन का उजाला फैल गया था। इसलिए रंजन तिवारी दूर रहकर बहुत ही सावधानी से बँगले पर नजर रख रहा था।
“वो तो ठीक है तिवारी साहब।” प्रीतम वर्मा होंठ सिकोड़ कर कह उठा - “इतनी सुबह-सुबह आपने मुझे हीरों के बारे में जानने के लिए बुलाया है कि शायद मुझे खबर हो कि, वो कहाँ है।”
“अभी तो हीरे चुराने वाले भी नहीं जानते कि हीरे कहाँ हैं तो ऐसे में तुम कहाँ से जान जाओगे।”
“क्या मतलब?”
रंजन तिवारी ने प्रीतम वर्मा को देखा।
“जिन लोगों ने हीरों की डकैती की है, वो इत्तिफ़ाक़ से मेरी नजरों में आ चुके हैं। इस वक्त वो सामने वाले बँगले में हैं। उनमें से एक को किसी ने मार दिया है। और दूसरे को मारने की चेष्टा कि गई है। रात को मैं चुपके से बँगले का फेरा लगा आया था। वो सबके सब खतरनाक लोग हैं। देवराज चौहान जैसा डकैती मास्टर है। उसका ख़ास साथी जगमोहन है। सोहनलाल है। चम्बल का डाकू नानकचंद उर्फ़ नानू है। उनका साथी केसरिया है। एक की अभी पहचान नहीं हो पाई। वो भी खतरनाक है। इनमें से केसरिया मारा जा चुका है। जगमोहन पर जानलेवा हमला हुआ। उसकी हालत सीरियस है। उसे जाने कहाँ डॉक्टर के पास ले जाया गया है। उसे ले जाने वाले देवराज चौहान और सोहनलाल अभी वापस नहीं लौटे। मालूम नहीं कौन इन लोगों की जान के पीछे पड़ गया है।”
“मैं समझा नहीं तिवारी साहब आप कहना क्या चाहते हैं।”
“जो कहा है, वो समझा है कि नहीं?”
“वो तो समझा हूँ। लेकिन जब तक बाकी बातें समझ में नहीं आयेंगी तब तक...।”
रंजन तिवारी ने बाकी सारी बातें प्रीतम वर्मा को बताईं।
“समझा -।” प्रीतम वर्मा ने गर्दन हिलाई।
“ये बातें पुलिस तक न पहुँचे। वरना पुलिस जया को छुड़ाने के चक्कर में मेरी सारी मेहनत खराब कर देगी।”
“मैं समझता हूँ -।” प्रीतम वर्मा गम्भीर हो उठा।
“इस मामले पर मैं अकेला नजर नहीं रख सकता। इन लोगों की हरकतों पर हर वक्त नजर रखी है और कभी भी जाने कैसी भागदौड़ का वक्त आ सकता है। अब इस काम में तुम मेरे साथ हो।” रंजन तिवारी ने कहा।
“ठीक है।”
“मैं उधर सामने वाले पार्क में जा रहा हूँ आराम करने। जरूरत पड़े तो मुझे बुला लेना।”
“जी।”
“याद रखना। तुम्हें सिर्फ बँगले पर, बँगले पर होने वाली हरकतों पर नजर रखनी है। अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करना है। अगर किसी बात को लेकर उलझन महसूस करो तो मेरे पास आ जाना।”
“बढ़िया तिवारी साहब -।”
“बँगले के लोगों की नजर में न आ जाना।”
“मैं इस बात का ध्यान रखूँगा।” प्रीतम वर्मा ने सिर हिलाया।
☐☐☐
देवराज चौहान सुबह सात बजे लौटा। दो रातों से जगा, थका हुआ स्पष्ट नजर आ रहा था। कार को उसने पोर्च में रोका और उतरकर बँगले में प्रवेश कर गया।
नानकचंद और भटनागर ड्राइंगहॉल में ही मौजूद थे।
भटनागर के कंधे पर निगाह पड़ते ही, देवराज की आँखें सिकुड़ गई।
“कंधे पर क्या हुआ?” उसके होंठों से निकला।
“रात को बच गया ये।” नानकचंद दाँत भींच कर बोला- “जिसने केसरिया को मारा। जिसने जगमोहन की जान लेने की कोशिश की। उसने इसका भी निपटारा करना चाहा और -।”
“तुम कहाँ थे तब ?”
“पास ही था। आँख लग गई थी -।”
देवराज चौहान के जबड़ों में कसाव आ गया।
“तुमने उसे देखा, वो कौन था?” देवराज चौहान ने भटनागर से पूछा।
“नहीं।” भटनागर ने धीमी आवाज में कहा- “चेहरे पर उसने रुमाल बाँध रखा था।”
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और वहीं बैठ गया।
“कैसे हुआ ये सब?” देवराज चौहान का चेहरा कठोर था।
भटनागर ने बताया।
“कितनी अजीब बात है कि कोई रात भर बँगले में रहा। केसरिया की उसने जान ले ली। जगमोहन की जान लेने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी और फिर तुम्हें भी मारने की कोशिश की गई। और उसे कोई देख नहीं सका।”
“जगमोहन की हालत कैसी है?” भटनागर ने पूछा।
“ठीक नहीं है। अभी तक उसे होश नहीं आया।” देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा- “कनपटी पर चाकू का जो वार किया गया है वो वार उसके लिए घातक रहा। डॉक्टर पूरी देख-रेख कर रहे हैं।”
“बच पायेगा।”
“कह नहीं सकता।” देवराज चौहान की आँखों में व्याकुलता उभरी - “डॉक्टर पूरी कोशिश कर रहे हैं।”
दो पलों के लिए कोई कुछ नहीं बोला।
“वो जो कोई भी है। उसने इतना कुछ किया और कोई भी उसे पहचान नहीं सका कि वो -।”
“उसके चेहरे पर रुमाल नहीं होता तो, मैंने उसका चेहरा देख लेना था।” भटनागर ने गहरी साँस ली।
नानकचंद के चेहरे पर खतरनाक भाव मचल रहे थे।
“हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल है कि वो कौन है जो हम सब की जान ले लेना चाहता है?” देवराज चौहान ने खतरनाक निगाहें दोनों पर मारी- “आखिर वो ये सब क्यों कर रहा है?”
“मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा -।”
“शहरी हिसाब लगा के सोचो।” नानकचंद गुर्रा उठा।
देवराज चौहान ने कश लिया।
“डकैती के दौरान हमने किसी की जान नहीं ली। किसी से दुश्मनी नहीं ली कि वो हमारी जाने के पीछे पड़ जाये।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा - “हम सबका एक ही दुश्मन कौन हो सकता है?”
इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था।
“भटनागर -?”
“हाँ-।”
“ये बँगला तुमने जिस पहचान वाले ले लिया है, ये सब उसकी हरकत भी हो सकती है। वो जान गया हो सकता है कि हम सबने मिलकर साढ़े चार अरब के हीरों की डकैती की है। उसके मन में बेईमानी आ गई हो और -।”
“नहीं -। वो ऐसा नहीं कर सकता।” भटनागर ने दाँत भींचकर कहा- “उसे कुछ नहीं पता कि मैं किस फेर में हूँ।”
“तुम्हारा सोचना गलत भी हो सकता है। वो हीरों को -।”
“नहीं देवराज चौहान।” भटनागर ने पहले वाले स्वर में कहा- “ये बात यहीं छोड़ दो।”
देवराज चौहान दाँत भींचकर उसे देखता रह गया।
“तो फिर वो कौन हो सकता है? और किसी को तो पता भी नहीं कि हम यहाँ हैं। हमारे बँगले में पहुँचते ही पीछे-पीछे कौन आ गया, हमारी जान लेने के लिये। कोई तो भेदी है ही। जो ये समझे बैठा है कि हीरे हमारे पास हैं और हम सब को खत्म करके हीरों को वो ले लेगा।” देवराज चौहान कठोर स्वर में कह उठा।
“ठीक बोला। कोई तो है ही -।” नानकचंद दाँत पीसकर कह उठा।
“हो सकता है , वो इस वक्त भी बँगले में हो।” भटनागर के होंठों से निकला।
देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।
“ये बँगला बहुत बड़ा है। वो कहीं भी छिप सकता है हरामजादा। नानकचंद खतरनाक स्वर में कह उठा - “अगर वो कुत्ता बँगले में है तो सब आदमी एक साथ अलग-अलग जगह से उसकी तलाश करें तो वो मिल सकता है। चम्बल होता तो मेरे गिरोह में बहुत आदमी थे। साले को गर्दन से पकड लेते। लेकिन शहरों में आदमियों की कमी रहती है। इस काम के लिए बाहर से भी किसी को नहीं बुला सकते।
देवराज चौहान सख्त ढंग से सिगरेट के कश लेता रहा।
“कई वो छोरी तो ये सब नेई कर रही।” नानकचंद कह उठा।
“वो कैसे करेगी। दरवाजा बंद है। चाबी मेरे पास है।” भटनागर कह उठा- “पहली मंजिल के कमरे में मौजूद है।”
“खिड़की से भी नीचे नहीं आ सकती। वैसे भी खिड़कियों पर ग्रिल लगी है।”
“हो सकता है, उसने कोई रास्ता निकाल रखा हो।”
“नहीं।” भटनागर ने विश्वास भरे स्वर में कहा - “वो कोई भी, कैसे भी रास्ता नहीं निकाल सकती, कमरे से बाहर निकलने के लिये। और जिस ढंग से केसरिया को मारा गया है। जगमोहन की जान लेने की चेष्टा की गई है। मुझ पर जैसे वार किया गया है। ये काम किसी युवती के बस का नहीं है।”
“अपने चम्बल में तो औरतें, मर्दों से भी ज्यादा खतरनाक, वार कर जाती है। शहरी हिसाब की तो मुझे खबर नहीं।” नानकचंद कह उठा - “वार करने की ताकत शरीर से नहीं मिलती। बल्कि ताकत उस भावना से मिलती है, जिसे मद्देनजर रखकर, वार किया जा रहा हो।” नानकचंद ने कठोर स्वर में कहा- “मेरे ख्याल में तो कोई भी औरत, इतनी फुर्ती के साथ वार कर सकती है, बशर्ते कि उसके पास वार करने की ठोस वजह हो। भीतर से वो जल रही हो। नफरत से सुलग रही हो, परन्तु इसके साथ तो हमने कोई भी बुरा व्यवहार नहीं किया। क्यों भटनागर?”
“उस लड़की जया ने ये सब किया है। मैं नहीं मानता।” भटनागर कह उठा।
“मैंने मानने को नहीं कहा। मैं तो अपनी समझ की बात कर रहा हूँ -।” नानकचंद कह उठा।
देवराज चौहान ने सिगरेट ऐश ट्रे में डालते हुए कहा।
“जया के कमरे की चाबी दो। एक बार उसे चेक कर लेना चाहिये।”
भटनागर ने चाबी निकालकर देवराज चौहान को दी।
देवराज चौहान उठा तो नानकचंद बोला।
“जगमोहन को एक बार भी होश नहीं आया।”
“नहीं -।” देवराज चौहान ने उसकी आँखों में देखा।
“मैंने सोचा शायद थोड़ा होश आया हो और उसने बता दिया हो कि हीरे कहाँ रखे हैं।” नानकचंद ने गहरी साँस ली।
देवराज चौहान बिना कुछ कहे सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
“तेरे में जरा भी समझ नहीं है।” भटनागर ने तीखे स्वर में कहा - “जगमोहन ज़िन्दगी और मौत के बीच है और तू देवराज चौहान से ऐसी शक भरी बातें कर रहा है। इधर अलग मुसीबत खड़ी हुई पड़ी है।”
“मुझे सब समझ है।” नानकचंद कड़वे स्वर में कहा उठा - “ज़रा मेरी तरफ से भी सोच कि हीरों को पाने के फेर में मैं अपना खास साथ केसरिया खो चुका हूँ। ऐसे में हीरे भी न मिले तो मुझे कितना दुःख होगा।”
“मिल जायेंगे। जगमोहन को होश आते ही मिल जायेंगे।” भटनागर ने कंधे पर की गई बैंडेज को छूते हुए कहा।
☐☐☐
चाबी घुमाने के बाद देवराज चौहान ने दरवाज़ा खोला और भीतर प्रवेश कर गया। दूसरे पल ही ठिठका। जया नहा-धो कर वही कपड़े पहने हुए थी और गीले बालों को शीशे के सामने खड़ी होकर सँवार रही थी। देवराज चौहान को भीतर प्रवेश करते देखकर उसने अपनी हरकतें रोक दीं।
“मुझे भूख लग रही है।” जया केटली कह उठी- “नाश्ता मिल जाये तो...।”
देवराज चौहान की नज़रें कमरे में घूमने लगीं। आगे बढ़कर उसने बाथरूम चेक किया। बाहर की तरफ खुलने वाली खिड़की पर लगी ग्रिल को चैक किया वो ठीक तरह से फिट थी।
“क्या देख रहे हो?” एकाएक जया जेटली ने पूछा।
“रात किसी ने बँगले में मौजूद, हममें से तीन व्यक्तियों पर वार किया। एक मर गया। दूसरा अभी ज़िन्दगी-मौत के बीच में है और तीसरे का कंधा घायल हुआ है।” देवराज चौहान का स्वर कठोर था।
“बता दिया गया है मुझे।” जया ने उसकी आँखों में देखा - “तुम ये बात मुझे क्यों बता रहे हो?”
“किसी को नहीं मालूम कि हम लोग डकैती के बाद यहाँ है।” देवराज चौहान ने उसे देखा।
“तो?”
“तो यह काम तुम भी कर सकती हो।”
“मैं कैसे कर सकती हूँ?” जया केटली मुस्कराई - “मुझे तो कमरे में बंद कर रखा है।”
“मैं भी यही सोच रहा हूँ कि इस तरह बंद कमरे में से तुम बाहर कैसे निकलकर, दूसरों की जान ले सकती हो और फिर कैसे कमरे में वापस आ सकती हो!” कठोर था, देवराज चौहान का स्वर।
“मैंने कमरे से बाहर निकलने का काफी रास्ता तलाश किया। लेकिन कोई रास्ता नजर नहीं आया। तुम देख लो।”
“मेरे ख्याल में तो बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं।” जया ने शांत स्वर में कहा।
देवराज चौहान जानता था कि वो ठीक कह रही है।
“एक रास्ता है।”
“कौन-सा?”
“दरवाज़ा -।” देवराज चौहान ने उसी लहजे में कहा - “हो सकता है यहीं कहीं से दरवाज़े की दूसरी चाबी तुम्हारे हाथ लग गई हो और...।”
“ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा होता तो, मैं यहाँ रहती ही क्यों? भाग जाती यहाँ से। और फिर तुम लोगों की जान लेने के पीछे मेरे पास मोटिव ही क्या है। मैं क्यों मारूँगी तुम लोगों को? तुम लोगों ने मुझे कोई तकलीफ नहीं दी। तंग नहीं किया।” जया केटली ने देवराज चौहान को देखा।
“मैंने आज का अखबार देखा था।” देवराज चौहान ने उसे घूरा - “डकैती को पूरा विवरण देने के बाद बताया गया है साढ़े चार अरब के हीरे लूटने वाले सतीश केटली की बेटी को भी साथ ले गये।”
जया केटली एकाएक कुछ न कह सकी।
“जबकि तुमने खुद को शोरूम की सेल्सगर्ल जाहिर किया था।” देवराज चौहान का स्वर कठोर था।
“ऐसा कहना मेरी मजबूरी थी।” जया केटली गम्भीर स्वर में बोली- “ये जानकार कि मैं पापा, सतीश की बेटी हूँ, तुम लोग ज्यादा नुकसान पहुँचा सकते हो। मुझे छोड़ने के बदले फिरौती के रूप में बड़ी रकम माँग सकते हो। तुम्हारे साथी तो पहले ही मेरी जान लेने पर आमादा थे।”
“हो सकता है, तुम्हारे हाथ इस दरवाजे की दूसरी चाबी लग गई हो और तुम हम लोगों से डकैती और अपने अपहरण का बदला, हमारी जान लेने की कोशिश करके ले रही हो।” देवराज चौहान एकाएक शब्द चबाकर कह उठा- “क्योंकि तुम जानती हो कि इन हालातों में हमें मारने से, कानून भी तुम्हें कुछ नहीं कहेगा और -।”
जया केटली मुस्कराई, परन्तु चेहरे पर गम्भीरता ही रही।
“मेरे पास दरवाजे की कोई चाबी नहीं है। जब से मुझे कमरे में बंद किया गया है, मैं बाहर नहीं निकली। और तुम खुद ही सोचो कि मैं इतने लोगों के बीच बाहर निकलकर, ऐसा कुछ करने की हिम्मत कर सकती हूँ -।”
“करने को तो तुम कुछ भी कर सकती हो।” देवराज चौहान कड़वे स्वर में कह उठा - “अगर इस मामले में तुम्हारा हाथ निकला तो तुम सोच सकती हो कि तुम्हारा क्या अंजाम होगा।”
“मैंने कुछ नहीं किया।”
दाँत भींचकर देवराज चौहान बाहर निकला, और दरवाज़ा लॉक करके आगे बढ़ गया।
उसके बाद देवराज चौहान ने सारे बँगले का फेरा लगाया। लेकिन कोई भी नज़र नहीं आया। किसी के भी बँगले में होने का आभास नहीं हुआ तो वो दोनों के पास पहुँचा। कमरे की चाबी भटनागर को वापस दी।
“तुम लोग सतर्क रहना। मैं जगमोहन के पास जा रहा हूँ -।” देवराज चौहान गम्भीर और व्याकुल था।
“फोन पर सोहनलाल से खबर ले लो।” भटनागर बोला- “कौन से नर्सिंग होम में है?”
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और बाहर निकलता चला गया।
☐☐☐
अगले दिन सुबह अमृतपाल और बुझे सिंह अपने किराये के कमरे से नहा-धोकर जल्दी से बाहर निकले और टैम्पो में बैठकर चल पड़े।
“उस्ताद जी -!” बुझे सिंह कह उठा - “मेरे को समझ में नहीं आता कि आखिर इतनी जल्दी क्या है, जो नींद से उठते ही भागने को तैयार हो गये-।”
“आज का दिन कौन-सा है?” अमृतपाल ने पूछा।
“बोत अच्छा दिन है जी। ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही ...।”
“मैंने पूछा है, आज का वार कौन-सा है। वीरवार -।”
“हाँ जी। हफ्ते में एक बार तो वीरवार आता ही है। इसमें पूछने बताने वाली कौन-सी बात हैं -।”
“मार्किट से छोटे वाले लाले का माल हम हर वीरवार उठाते हैं ना। सीमापुर ले जाते हैं ना?”
“हाँ उस्ताद ही। एक ही फेरे में पूरे दो हजार खरे हो जाते हैं। सीमापुर से आती दफा भी वहाँ से माल लाने का फेरा पहले से ही बुक रहता है। कुछ घंटे जाने के और कुछ घंटे आने के।” बुझे सिंह सिर हिलाकर कह उठा - “लेकिन यहाँ तो ग्यारह बजे पहुँचना होता है। अभी तो -।”
“अभी तेरे को नाश्ता करना है।” अमृतपाल ने मुस्कराकर कहा।
“हाँ जी, भूख लगनी शुरू हो गई लगती है।” बुझे सिंह ने पेट पर हाथ फेरा।
“उसके बाद और क्या काम करना है?”
“मेरे को क्या काम जी! टैम्पो दी झाड़ू-सफाई करनी है और क्या?”
“और -?”
“और तो कुछ भी नहीं -।”
“पेंचर लगवाना है। भूल गया।”
“वो कोई काम थोड़े न है। जो मैं भूल जाऊँगा। वो तो पेंचर वाला ही लगायेगा।”
अमृतपाल ने एक होटल के सामने टैम्पो रोका।
“चल यहाँ से नाश्ता करते हैं।”
“याँ से। उस्ताद जी, ये होटल वाला नाश्ते में मूली के पराठें बोत बढ़िया बनाता है और इसका दही भी बोत बढ़िया होता है जी। वैसा ही जैसा मेरी बहन दही जमाती है। इसका दही खाते ही मुझे मेरी बहन याद आ जाती है। उस्ताद जी, जब आप मेरी बहन को देखोगे तो, देखना इस होटल का दही याद आ जायेगा।”
आधे घंटे बाद दोनों नाश्ता करके होटल से बाहर निकले।
अमृतपाल तब से ही बहुत खुश नज़र आ रहा था, जब से चोरी हुआ टैम्पो मिला था।
“उस्ताद जी! तुसी बोत साफ़ मन के हो। जो खाते हो, वो ही मुझे खिलाते हो। एक ज्यादा ही खिला देते हो। खाने-पिलाने में आप कंजूसी नहीं करते। ये सब देखकर सोचता हूँ कि अपनी बहन का ब्याह आपसे कर दूँ। लेकिन वो तोते वाले ज्योतिषी की बात की वजह से अपनी बहन का ब्याह आपसे नेई कर सकता। इस बात का अफसोस तो होता ही है।” बुझे सिंह मुँह लटकाकर बोला- “लेकिन वो तोते वाला -।”
“बुझया -!”
“जी - !”
“मैंने अभी तक एक बार भी कहा है कि मैंने तेरी बहन से शादी करनी है।” अमृतपाल मुस्कराया।
“रब झूठ न बुलावे। अभी तक तो आपने एक बार भी नहीं कहा।”
“नहीं कहा तो फिर तू क्यों चिंता करता है, कि तोते वाले ने क्या कहा और क्या नहीं -।”
“ये बात भी ठीक हैं।” बुझे सिंह ने सिर हिलाया।
“चल टैम्पो में। पैंचर लगवा के लाले के यहाँ चलते हैं। पहला नम्बर मिल जायेगा।”
“चल्लो जी -।” कहते हुए बुझे सिंह टैम्पो के पीछे वाले हिस्से में पहुँचा, और नीचे झुककर टैम्पो की उस जगह को देखा, जहाँ स्टैपनी रखकर,उसे नट-बोल्ट से कसा होता है। बुझे सिंह ने यूँ ही स्टैपनी को हाथ से चैक किया। फिर दोबारा चैक किया।
“चल बुझया -।” अमृतपाल टैम्पो की ड्राइविंग सीट पर बैठता हुआ बोला।
“उस्ताद जी! उस्ताद जी -!” बुझे सिंह जल्दी से अमृतपाल पे पास पहुँचा।
“क्या हुआ?” अमृतपाल टैम्पो स्टार्ट करता हुआ कह उठा।
“उस्ताद जी! टैम्पो चोरी करने वाला बोत शरीफ बन्दा था, उसकी गवाही तो मैं दे सकता हूँ। तुसी ही बताओ कि क्या कोई टैम्पो चोरी करने वाला पैंचर हुई स्टेपनी का, पैंचर लगवाता है। लेकिन हमारे टैम्पो चोर ने ऐसा किया जी। उसने हमारी स्टैपनी का पैंचर लगवा दिया।” बुझे सिंह ख़ुशी से बोला।
“क्या?”
“हाँ उस्ताद जी। विश्वास नहीं आने वाली बात है। नीचे उतर के, विश्वास कर लो। आओ। आओ।”
अमृतपाल ने टैम्पो का इंजन बंद किया और नीचे उतरकर पीछे स्टैपनी बॉक्स के पास गया।
“देख लो उस्ताद जी। टना-टन टाईट हवा वे। स्टैपनी बिलकुल तैयार है -।”
अमृतपाल ने खुद स्टैपनी को चेक किया। पहिया टाईट था।
“ठीक है बुझे सिंह।” अमृतपाल सीधा खड़ा होता हुआ बोला - “पैंचर लगवा लिया होगा टैम्पो चोर ने। चल ठीक है अब यहाँ से सीधे लाले के यहाँ चलते हैं। पहले नम्बर लगा के, माल लदवा लेंगे।”
“चल्लो जी...।”
दोनों टैम्पो में बैठे। टैम्पो आगे बढ़ गया।
☐☐☐
देवराज चौहान दोपहर दो बजे बँगले में वापस आया। साथ में खाने का सामान भी लेता आया था। जैसा कि उसका ख्याल था, उन्होंने सुबह से ही कुछ नहीं खाया था। भटनागर के घायल होने की वजह से, नानकचंद उसे छोड़कर बाहर नहीं गया था कि कहीं, भटनागर पर फिर से हमला न हो जाये। सब ठीक देखकर, देवराज चौहान ने चैन की साँस ली।
“लड़की ठीक है?” देवराज चौहान खाने का सामान टेबल पर रखकर, बैठता हुआ बोला।
“ठीक ही होगी।” नानकचंद मुँह बनाकर कह उठा - “सुबह से अब तक दो बार उसकी सलामती के बारे में पूछ आया हूँ। दरवाजा बंद ही रहता है। वो भीतर से आवाज दे देती है। दर्शन नहीं हो पाते।”
भटनागर, देवराज चौहान के चेहरे के भावों को देख रहा था।
“कोई अच्छी खबर?” भटनागर ने पूछा।
“अच्छी खबर भी हैं, और बुरी भी।” देवराज चौहान ने कहा- “पहले उस लड़की को खाना दे आओ। वो सुबह से भूखी है और तुम भी अपने लिये डाल लो। फिर आगे की बात करते हैं।”
भटनागर तो घायल था।
नानकचंद खाने के लिफाफे उठाते हुए मुँह बनाकर बोला।
“अगर ये खबर चम्बल में पहुँच गई कि नानू लोगों को, बर्तनों में खाना डालकर खिला रहा है तो मेरा नाम मिट्टी में मिल जायेगा। सब मेरे नाम पर थू-थू करेंगे। चाबी दे -।”
भटनागर ने उसे जया के कमरे की चाबी दी।
नानकचंद किचन में पहुँचा। बर्तनों में खाना डाला और जया केटली का खाना लेकर पहली मंजिल पर, जया वाले कमरे तक पहुँचा और दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। जया कमरे में ही थी और भूख से बेहाल हो रही थी, परन्तु वो ये भी जानती थी कि खाने के लिये जोर डालना ठीक नहीं।
नानकचंद को देखते ही वो मन ही मन सतर्क हो गई थी।
“ले रहे छोरी खाना खा ले।” उसे सिर से पाँव तक घूरते हुए नानकचंद ने कहा और खाने के बर्तन टेबल पर रख दिए - “किस्मत वाली है जो तू मेरे हाथों से खाना खा रही है।”
जया अपनी जगह पर खड़ी रही।
“एक सलाह दूँ तेरे को -।” नानकचंद का हाथ मूँछ पर पहुँचा और मूँछ मरोड़ने लगा।
“क्या?”
“मेरे से ब्याह कर ले। डेढ़ अरब के हीरे मुझे एक-दो दिन में मिल जायेंगे। मिलकर ऐश करेंगे। बहुत मजा आयेगा, तेरे को मेरे साथ। मेरी जवाँ मर्दी औरतों को पागल बना देती है। ऊपर से डेढ़ अरब रुपया। पूरे के पूरे मजे मिलेंगे। घाटे का सौदा नहीं है। सोच लेना। बाद में जवाब दे देना।”
जया कुछ नहीं बोली।
नानकचंद मूँछ मरोड़ता बाहर निकला और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।
☐☐☐
नानकचंद और भटनागर खाना खा रहे थे। देवराज चौहान खाना खा आया था।
“तुम अच्छी बुरी-खबर के बारे में बता रहे थे - “ भटनागर ने पूछा।
“हाँ।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया - “बुरी खबर तो यह है कि केटली एंड केटली शोरूम के बेसमैंट में उस वक्त वीडियो कैमरा चल रहा था, जब हम वहाँ डकैती कर रहे थे।”
“क्या?” भटनागर हक्का-बक्का रह गया।
“कैमरा -।” नानकचंद की आँखें सिकुड़ी - “मारी फोटो खींच ली का?”
“हाँ। हम सबकी तसवीरें पुलिस के पास हैं। डकैती में कौन-कौन शामिल हैं। पुलिस सब कुछ जान चुकी है। और पुलिस जोर-शोर के साथ हमारी तलाश कर रही है। आज के सारे अखबार इन बातों को लेकर भरे पड़े हैं। सड़कों पर जगह-जगह चैकिंग हो रही है।” देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था।
“ओह -।” ये तो बोत बुरा हुआ। पुलिस जान जायेगी कि चम्बल का नानू मुंबई में है। वो फिर मेरे पीछे -।”
भटनागर का खाना-खाना रुक चुका था।
“मैं चाहता था, पुलिस मेरे बारे में न जाने। लेकिन वीडियो कैमरे ने सारी गड़बड़ कर दी।” भटनागर बोला।
“उस वक्त हममें से किसी के दिमाग में नहीं आया कि बेसमेंट में वीडियो कैमरा लगा हो सकता है।” देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कहा- “कभी कभी ऐसी गलती हो ही जाती है। एक गलती और कर देते अगर उस वक्त तुम लोग जया को मार देते। पुलिस ने तो वीडियो कैमरे द्वारा हम लोगों के चेहरे देख ही लेने थे। जया को मारने से डकैती के साथ हत्या का मामला भी जुड़ जाता।”
नानकचंद और भटनागर की आँखें मिलीं।
“फिर भी अच्छा हुआ कि छोरी को हम ले आये। एकदम फिट छोरी है। डेढ़ अरब मिलते ही उससे ब्याह कर के दिल्ली चला जाऊँगा। आराम से मजे की ज़िन्दगी बीतेगी।” नानकचंद मुस्करा पड़ा।
“वो दौलत उसी की है।”
“का मतलब?”
“वो शोरूम में काम करने वाली सेल्सगर्ल नहीं, बल्कि केटली ब्रदर्स में से एक की बेटी है।”
“क्या?” भटनागर के होंठों से निकला।
नानकचंद से तो कुछ कहते न बना।
“एक बात को कान खोल कर सुन लो कि लड़की के साथ किसी भी हाल में बुरा नहीं होना चाहिए। ये मैं किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करूँगा। ख़ास तौर से तुम्हे समझा रहा हूँ नानकचंद। जब तक मेरे साथ रहो सबको अपनी माँ-बहन समझो और -।”
“सबको माँ बहन समझेंगे तो, बीवी कौन बनेगी रे -।” नानकचंद के होंठों से निकला।
“उसके लिये चम्बल का फेरा लगा आना।” भटनागर ने तीखे स्वर में कहा।
“मेरे को कौन-सा देवराज चौहान के साथ हमेशा रहना है रे।” नानकचंद कह उठा।
भटनागर ने देवराज चौहान के चेहरे पर नजरें टिका दीं। “जगमोहन का क्या हाल है?”
“उसकी हालत ठीक नहीं है।” देवराज चौहान गम्भीर हो गया - “कुछ *** डॉक्टर ने कहा था कि कम से कम अब उसे जान का खतरा नहीं। सोहनलाल उसके पास मौजूद है।”
“होश नहीं आया उसे?”
“आया था। चंद सेकिंडों के लिये।” देवराज चौहान पूर्ववतः स्वर में कह उठा - “पास में सोहनलाल को देखा तो इतना ही कह पाया कि हीरे टैम्पों में छिपाये हैं। उसके बाद फिर बेहोश हो गया। डॉक्टरों का कहना है कि अभी उसको बेहोश रहना ही ठीक है। वरना कनपटी का जख्म कुछ भर जाये तो, फिर वो होश में भी रहेगा और जल्दी ठीक हो जायेगा।”
“वो हीरे उसी टेम्पों में हैं, जिसे जगमोहन चला रहा था।” नानकचंद मुस्करा पड़ा।
“हाँ।” भटनागर ने देवराज चौहान को देखा- “वो टैम्पो तो अभी थाने में ही होगा।”
“मैं देखता हूँ। मालूम करता हूँ -।”
“मैं भी साथ चलता हूँ -।” नानकचंद कह उठा।
“नहीं। तुम यहीं रहोगे। यहाँ किसी को होना चाहिये। भटनागर की जान को खतरा है। वो लड़की जया की जान को खतरा है। वो हम लोगों की जान लेना चाहता है, उसे दूर मत समझो। हर वक्त सतर्क रहो।।”
“तो तुम कब आओगे।” नानकचंद ने पूछा।
“टैम्पो के बारे में मालूम करके आता हूँ। उसमें से हीरे निकालने हैं। हैं ऐसा न हो कि हीरे किसी और के हाथ लग जायें और सारी मेहनत ही बेकार चली जाये।” देवराज चौहान ने कहा और उठ खड़ा हुआ।
☐☐☐
रंजन तिवारी और प्रीतम वर्मा ऐसी जगह पर मौजूद थे, जहाँ से बँगला स्पष्ट नजर आ रहा था। कुछ देर पहले ही उन्होंने देवराज चौहान को भीतर प्रवेश करते देखा था।
“वर्मा -।” रंजन तिवारी की निगाह, बँगले पर थी।
“कहिये तिवारी साहब -।”
“इस तरह बात नहीं बनेगी -।” तिवारी के चेहरे पर सोच के भाव थे।
“मैं समझा नहीं -।”
“देवराज चौहान दो-तीन बार बँगले से बाहर आ-जा चुका है। जगमोहन घायल है। जाहिर है वो, उसके पास ही जाता है। सोहनलाल वापस नहीं आया तो स्पष्ट है कि वो जगमोहन के पास ही होगा।” रंजन तिवारी ने सोच भरे स्वर में कहा - “जगमोहन ने ही हीरे कहीं छिपाये हैं। पहली बात तो ये है कि हमें जानना चाहिए कि जगमोहन का ईलाज कहाँ पर चल रहा है। दूसरी बात ये कि होश में आने पर जगमोहन बता देगा कि हीरे कहाँ है। देवराज चौहान वहाँ से हीरे ला सकता है जहाँ जगमोहन ने हीरे छिपाये हैं और हम यहाँ खड़े यही सोचते रहें कि देवराज चौहान, जगमोहन का हाल मालूम करने गया है।”
“बात तो आपकी ठीक है तिवारी साहब।” वर्मा बोला - “तो अब क्या किया जाये?”
“हम दोनों का एक ही जगह पर रहने का कोई फायदा नहीं। तुम बँगले में होने वाली हरकतों को ज्यादा से ज्यादा जानने की चेष्टा करो और जब देवराज चौहान बाहर निकलेगा तो मैं उसके पीछे जाऊँगा।”
“हाँ। दो चार और बातें मालूम होंगी। लेकिन एक बात मेरी समझ से बाहर है।”
“क्या?” तिवारी ने उसे देखा।
“आपने बताया कि भीतर नानकचंद डाकू है। और एक दूसरा व्यक्ति है। जया को तो कमरे में बंद कर रखा है। ऐसा है तो वे दोनों बाहर क्यों नहीं निकलते? देवराज चौहान ही बाहर क्यों आ जा रहा है?”
“इस बारे में मैं क्या कह सकता हूँ- ?” तिवारी ने सोच भरे स्वर में कहा - “वैसे ...।”
कहते-कहते तिवारी ठिठका।
कानों में कार स्टार्ट होने की आवाज़ पड़ी।
“देवराज चौहान शायद फिर बाहर आ रहा है।” वर्मा के होंठों से निकला।
“वर्मा, बँगले -पर ठीक तरह से नजर रखना।” रंजन तिवारी जल्दी से बोला- “मैं देवराज चौहान के पीछे जा रहा हूँ।” कहने के साथ ही रंजन तिवारी वहाँ से हटा और तेजी से उस तरफ बढ़ गया, जिधर उसकी कार मौजूद थी। अपनी कार के पास पहुँचते ही उसने बँगले से कार निकलती देखी, ड्राइविंग सीट पर देवराज चौहान ही मौजूद था।
रंजन तिवारी ने कार स्टार्ट की और सावधानी से पीछा करने लगा।
☐☐☐
देवराज चौहान ने एक दुकान से काला चश्मा खरीदा। दूसरी जगह से दाढ़ी-मूँछे लेकर चेहरे पर इस तरह चिपकाई कि बिलकुल असली लगें। चश्मे और दाढ़ी मूँछों में उसका व्यक्तित्व पूरी तरह छिप गया था। उसे देखकर ये सोच पाना भी आसान नहीं था कि, वो देवराज चौहान हो सकता है।
रंजन तिवारी उसकी सब हरकतों को नोट कर रहा था। फासला रखकर, बराबर उसके पीछे था। वो समझ नहीं पा रहा था कि वेश बदलकर, आखिर देवराज चौहान करना क्या चाहता है।
आखिरकार देवराज चौहान चूना-भट्टी के पुलिस स्टेशन पहुँचा।
रंजन तिवारी के होंठ सिकुड़ गये। वो समझ नहीं पाया कि देवराज चौहान यहाँ क्यों आया है। क्या चाहता है। जबकि इन हालातों में तो उसे पुलिस से दूर रहना चाहिये।
रंजन तिवारी की नजरें देवराज चौहान पर ही रहीं।
देवराज चौहान ने एक जगह कार रोकी और बाहर निकलकर, जेबों में हाथ डालकर टहलने वाले अंदाज में चाय वाले के पास पहुँचा और उसे चाय के लिये कहकर, इधर -उधर देखने लगा। रह-रह कर उसकी निगाह पुलिस स्टेशन के गेट से भीतर-बाहर जाते पुलिस वालों को देख रही थी।
कार में बैठे-बैठे रंजन तिवारी ने सिगरेट सुलगा दी। नजरें देवराज चौहान पर ही रही। जगमोहन इस पुलिस स्टेशन से रात को भागा था। ओमवीर ने उसे भागने का मौका दिया था, डेढ़ लाख लेकर। अब देवराज चौहान का दोबारा यहाँ आना तिवारी को समझ नहीं आ रहा था।
☐☐☐
पुलिस स्टेशन में हर रोज की तरह गहमा-गहमी थी। कहीं शोर था तो कहीं खामोशी से मामले निपटाये जा रहे थे। हर कोई अपने-आप में व्यस्त नजर आ रहा था।
कांस्टेबल ओमवीर डंडा पकड़े पुलिस स्टेशन के एक कमरे में पहुँचा। जहाँ अलग-अलग दिशाओं में तीन टेबलों पर पुलिस वाले मौजूद थे। कुछ व्यक्ति अपने मामले सुलझाने में व्यस्त थे। एक टेबल पर हवलदार सुच्चा राम एक व्यक्ति की चोरी की रिपोर्ट लिख रहा था।
सुच्चा राम ने एक निगाह उस पर मारी। रिपोर्ट लिखता रहा।
ओमवीर कुर्सी पर बैठ गया।
सुच्चा राम ने अपना काम निपटाया तो वो आदमी कह उठा।
“हवलदार जी, अगर चोर पकड़ा जाये तो -?”
“हम पूरी कोशिश करेंगे।” सुच्चा राम रिपोर्ट की एक कॉपी उसे देते हुए कह उठा - “कि चोर जल्दी मिल जाये।”
वो रिपोर्ट की कॉपी लेकर चला गया।
हवलदार सुच्चा राम ने मुस्कराकर, कांस्टेबल ओमवीर को देखा।
“आ गये तुम?”
“हाँ -।”
“आज भाभी के लिए क्या खरीदा। कोई साड़ी ली नई वाली?” हवलदार सुच्चा राम मुस्कुराता हुआ कह उठा।
“साड़ी? क्यों, कल कोई ख़ास बात थी क्या?” ओमवीर ने उसे गहरी निगाहों से देखा।
“हाँ, वो टैम्पो चोरी में जिसे पकड़ा था। जिसका मुँह खुलवाया जा रहा था। वो रात को भाग गया। मालूम पड़ा वो आराम से पुलिस स्टेशन के बीच में से निकलकर, बाहर निकला। ये ख़ास बात नहीं है क्या?”
ओमवीर के माथे पर बल नजर आने लगे।
“उसके भागने से, साड़ी का क्या वास्ता?”
“मैंने सोचा भागते हुए उस टैम्पो चोर के नोट गिर गये हों। गलती से वो तुम्हें मिल गये और तुम भाभी के लिये साड़ी ले आये। इसलिए पूछ लिया।” सुच्चा राम मुस्करा रहा था।
“टैम्पो चोर के न तो कोई नोट गिरे और न ही मुझे मिले।” ओमवीर दाँत भींचकर कह उठा- “तुम जो कहना चाहते हो मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ सुच्चा राम -।”
“रात, उस पर तुम्हारी ड्यूटी थी -।” सुच्चा राम की मुस्कान कम होने का नाम नहीं ले रही थी।
“मेरी ड्यूटी रात बारह बजे तक थी -।”
“और मालूम हुआ है, टैम्पो चोर साढ़े दस बजे ही यहाँ से निकल गया था।”
“हाँ। इतने बजे ही निकला। मैं उसे कमरे में बंद करके, सब इंस्पेक्टर दयाल साहब के पास आ गया था। आधे घंटे बाद जब वापस आया तो देखा, दरवाजा खुला हुआ था, वो कमरे में नहीं था। पुलिस स्टेशन में हर जगह ढूँढा तो वो मिला नहीं। तब मैं समझ गया कि वो भाग गया।”
“हाँ। वो भाग गया।” सुच्चा राम का मुस्कराता चेहरा हिला - “तुम दरवाज़ा बंद करके सब इंस्पेक्टर दयाल के पास गये और वो भाग गया।” मेरे ख्याल से तुम दरवाज़ा बंद करना भूल गये होंगे।”
“मैंने बंद किया था। किसी और ने गलती से खोल दिया होगा।” ओमवीर भड़कने के अंदाज में बोला।
“गुस्सा क्यों हो रहे हो ओमवीर -?”
“मैं कहाँ गुस्सा हो रहा हूँ।”
“हो रहे हो। अपना चेहरा तो देखो। खैर, छोड़ो, दरवाजा तुमसे खुला रह गया होगा। ऐसे तो दरवाज़ा खुला छोड़ने वाले नहीं हों। लेन-देन का कोई तो हिसाब हुआ ही होगा। तभी दरवाजा खुला छोड़ा होगा।”
ओमवीर ने दाँत भींचकर सुच्चा राम को देखा।
“तुम मुझ पर रिश्वत लेने का इल्जाम लगा रहे हो।”
“मैंने कब कहा -।”
“तुम्हारी बात का वही मतलब -।”
“मतलब गया कुएँ में।” सुच्चा राम का चेहरा एकाएक कठोर हो गया - “मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा कि जिसका मतलब ये निकले कि तूने रिश्वत ली है। लेकिन ये जरूरत कहता हूँ रिश्वत दिये बिना जेल के कमरे का दरवाजा खुला नहीं मिल सकता था। जो कि मिला और वो निकल गया।”
“तू फिर मुझ पर रिश्वत का इल्जाम -।”
“मैंने ऐसा कुछ भी तेरे को नहीं कहा।” सुच्चा राम ने उसकी आँखों में झाँका - “मैंने तो तेरे से सिर्फ एक ही बात पूछी थी कि भाभी के लिये नई साड़ी कल ले आया था या वक्त नहीं मिला, आज लानी है। ये भी इसलिए पूछा कि मैंने अपनी बीवी के लिए भी साड़ी लानी है। दोनों इकट्ठे चले तो ज्यादा बढ़िया रहेगा।”
ओमवीर ने सुच्चा राम को घूरा।
सुच्चा राम सख्त निगाहों से उसे देख रहा था।
“मैं सब समझ रहा हूँ तेरी बात का मतलब।” ओमवीर ने भुनभनाते हुए कहा और उठकर बाहर निकलता चला गया।
“सुच्चा राम गहरी साँस लेकर रहा गया।”
“क्यों तंग कर रहा है उसे?” कुछ क़दमों की दूरी पर बैठे एक सब-इंस्पेक्टर ने मुस्कराकर कहा।
“तंग नहीं कर रहा। समझा रहा था कि अभी वक्त है। सुधर जाये। नहीं तो एक दिन वर्दी उतर जायेगी।” सुच्चा राम उखड़े स्वर में कह उठा - “मैंने टैम्पो चोरी वाले को, कल काफी मेहनत के बाद पकड़ा था। और मुझे पक्का विश्वास है कि इसने कुछ ले-देकर रात को उसे थाने से भगा दिया।”
“चिन्ता मत कर। ऐसी हरकतों वाले ज्यादा देर वर्दी पहनकर नहीं रह सकते। जब भी किसी मामले में फँसा तो समझ में आएगा कि तू इसे क्या समझाना चाहता था।”
☐☐☐
“चाय बना।” ओमवीर उखड़े स्वर में चाय वाले से बोला और डंडा बगल में दबाकर, बीड़ी सुलगाने लगा।
पास खड़े देवराज चौहान ने शांत ढंग से चाय का घूँट भरते हुए उसे देखा। इसी का तो इंतजार था देवराज चौहान को, और ओमवीर जल्दी ही नजर आ गया था।
चाय वाला उसके लिए चाय बनाने की तैयारी करता हुआ कह उठा।
“आज तो साहब का मूड उखड़ा हुआ लग रहा है।”
“पुलिस की वर्दी बदन पर रहेगी तो, मूड ऐसा ही रहता है।”
ओमवीर मुँह बनाकर कह उठा - “जनता की सेवा करो तो मुसीबत न करो तो मुसीबत। शराफत तो दुनिया में रह ही नहीं गई।”
ओमवीर ने बीड़ी का कश लिया। डंडा दूसरे हाथ में थाम लिया।
“साहब जी! पहले का भी कुछ हिसाब है।” चाय वाला, चाय बनाते हुए बोला।
“कितना है?”
“चार-पाँच सौ रूपये हो चुके हैं।”
ओमवीर ने उसी पल जेब में हाथ डालकर पाँच-सौ का नोट निकाला और उसे दिया।
“रख ले। जो बचे, उसे खाते में जमा कर लेना।”
“वो तो मैं जानता ही था कि आपसे मिल जाएंगे।” चाय वाला दाँत दिखाकर बोला - “तभी तो कहा नहीं। वरना सौ-दो सौ के होते ही मैं दूसरों को टोकना शुरू कर देता हूँ। ये लो साहब जी चाय।”
ओमवीर ने चाय गिलास पकड़ा। घूँट भरा।
देवराज चौहान उसके करीब आ गया।
“कल तुमने अपनी बात पूरी की।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला।
“कैसी बात?” ओमवीर ने उसे सिर से पाँव तक देखा - “कौन हो तुम?”
“कल जो तुम्हें डेढ़ लाख दिया गया था, वो मेरी ही जेब से गया था।” देवराज चौहान का स्वर धीमा हो गया।
ओमवीर सकपकाया फिर जल्दी ही सम्भलकर बोला।
“काम हो गया। बात खत्म। जाओ यहाँ से।”
“एक छोटा सा काम है।”
“नया काम है या उन्हीं डेढ़ लाख में से है?”
“नया है। लेकिन छोटा-सा है।”
ओमवीर ने इधर-उधर देखा। फिर घूँट भरा।
कुछ दूरी पर कार में बैठा रंजन तिवारी आँखें सिकोड़े दोनों को देख रहा था।
“बोलो।”
“उसने जो टैम्पो चुराया था, उस टैम्पो को मैं पाँच मिनट के लिए देखना चाहता हूँ।”
“वो टैम्पो?” ओमवीर ने देवराज के दाड़ी-मूँछों वाले चेहरे पर निगाह मारी।
“हाँ। जिसे मेरे साथी ने चोरी किया था। समझे क्या?”
“समझ तो गया।” ओमवीर ने घूँट भरा - “लेकिन वो टैम्पो तो गया। कल ही उसका मालिक, उसे ले गया।”
“मालिक? क्या नाम है उसका?”
“शायद अमृतपाल नाम था उसका।”
“मुझे उसका पता दो। टैम्पो कहाँ मिलेगा।”
“टैम्पो कहाँ मिलेगा! मैं नहीं जानता। और टैम्पो वाले का पता पुलिस स्टेशन के भीतर मौजूद फाइल में दर्ज है।”
“वो पता मुझे दो।” देवराज चौहान ने कहा - “हजार रुपया दूँगा।”
“आसान काम नही है। कल तुम्हारे आदमी को भगाने की वजह से हवलदार पहले ही मुझ पर शक कर रहा है।”
“अब किसी को भागना नहीं है। सिर्फ टैम्पो के मालिक का पता नोट करना है।”
“वो हवलदार शक खा जायेगा और।”
“मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है। दो हजार ले लेना।” देवराज चौहान ने चाय का घूँट भरा।
“तुम मुझे फँसवाकर ही रहोगे।”
देवराज चौहान कुछ नहीं बोला।
“तुम्हारा साथी तुम्हें मिल गया। टैम्पो वाले को टैम्पो मिल गया। अब क्या मामला रह गया।”
“तुम अपने काम से मतलब रखो। दो हजार मिल रहे हैं तुम्हें।”
“ठीक है। कोशिश करता हूँ। लेकिन पाँच हजार लूँगा। ओमवीर ने फैसले वाले स्वर में कहा।”
“मिल जायेंगे। टैम्पो वाले का नाम-पता ठीक से नोट करके लाना।”
☐☐☐
देवराज चौहान से बातें करने के बाद, रंजन तिवारी ने, कांस्टेबिल ओमवीर को पुलिस स्टेशन में जाते देखा और देवराज चौहान को एक तरफ खड़े होते देखा तो वो समझ गया कि दोनों में कोई ख़ास बात हुई है। ख़ास ही वजह है कि देवराज चौहान, ओमवीर से आकर मिला।
मालूम होना चाहिये कि देवराज किस फेर में है?
रंजन तिवारी सावधानी से कार से उतरा और देवराज चौहान की निगाहों से बचता-बचाता पुलिस स्टेशन में प्रवेश कर गया। तिवारी जानता था कि कल सोहनलाल से बातें करते समय देवराज चौहान ने उसे अवश्य देखा होगा। ऐसे में देवराज चौहान की नजरों में न आया जाये, तो ज्यादा बेहतर था।
☐☐☐
कांस्टेबल ओमवीर ने कमरे में प्रवेश किया और हवलदार सुच्चा राम के टेबल के पास मौजूद कुर्सी पर बैठ गया। सुच्चा राम ने हाथ में पकड़े कागज पर से निगाह हटाकर उसे देखा।
“बहुत जल्दी तू साड़ी खरीद लाया। दुकान पास में ही है क्या?” सुच्चा राम शांत स्वर में बोला।
“मैं ये सोचकर आया हूँ कि, तेरी ज़ुबान बंद करने का कोई इंतजाम करूँ।” ओमवीर उखड़े स्वर में बोला।
“हूँ।” सुच्चा राम ने सिर हिलाया - “तो तू मेरी जान लेने का इरादा करके आया है।”
“जान लेने नहीं, ज़ुबान बंद करने की सोचकर आया हूँ।”
“एक ही बात है। जान लेने या जुबान बंद करने में कोई फर्क?” सुच्चा राम ने कहना चाहा।
“तू क्या समझता है कि मैं रिश्वतें लेता फिरता हूँ।” ओमवीर ने नाराजगी से कहा।
“मैंने कब कहा कि मैं ऐसा समझता हूँ। मैं समझने से आगे पहुँच चुका हूँ।”
“मतलब कि मैं रिश्वत लेता हूँ। सीधे-सीधे शब्दों में तू यही कहना चाहता है।”
“अब मैं क्या कहूँ। मेरे कहने के लिए तो तूने कुछ छोड़ा ही नही।” सुच्चा राम ने होंठ सिकोड़े।
“टैम्पो चोरी वाली फाइल मुझे दे।”
“क्यों?”
“क्योंकि मैं तेरी ज़ुबान बंद करना चाहता हूँ कि मेरे बारे में तू - उल्टा-पुल्टा न बोल सके। टैम्पो चोरी करने वाला जाने कैसे भाग निकला है रात को पुलिस स्टेशन से।” ओमवीर का स्वर सख्त था - “मैं उसे ढूँढकर, वापस लॉकअप में बंद करके ही अब चैन लूँगा।”
सुच्चा राम के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।
“ये तू कह रहा है!” सुच्चा राम के होंठों से निकला।
“क्यों, मैंने कोई मंत्र पढ़ दिया है जो तू हैरान हो रहा है कि मैं इतना ज्ञानी कैसे हो गया।”
“मंत्र पढ़ता तो शायद मैं इतना हैरान नहीं होता। मैं तो -।”
“टैम्पो चोरी वाली फाइल दिखा।”
“उसको देखने का क्या फायदा।” सुच्चा राम ने कहा - “भागने वाले का नाम - फोटो- पता उसमें है क्या?”
“मजाक मत कर? मैं सीरियस हूँ। वो फाइल मुझे दिखा।”
सुच्चा राम ने सिर हिलाया और ड्रावर से फाइल निकालकर दूसरी तरफ बढ़ाई।
“अच्छी तरह देख ले। मैं फाइल को रिकॉर्ड रूम में रखने जा रहा हूँ। टैम्पो तो मिल गया है और जिसने चोरी किया था, उसके बारे में लिख दिया है कि वो मौका पाकर थाने से फरार हो गया।”
ओमवीर ने फाइल लेकर उसे खोला। टैम्पो चोरी की रिपोर्ट में अमृतपाल का पता मौजूद था।
वो पता उसने मन ही मन कई बार दोहराकर, याद किया। दो-चार मिनट यूँ ही फाइल को देखता रहा। उसके बाद फाइल बंद करके टेबल पर रखी और उठ खड़ा हुआ।
“इस फाइल से मालूम हो गया कि टैम्पो चोरी करने वाला कहाँ मिलेगा।” सुच्चा राम मुस्कराया।
“मजाक मत कर। वो जहाँ भी होगा। मैं उसे गर्दन से पकड़कर लाऊँगा।” कहने के साथ ओमवीर बाहर निकल गया।
सुच्चा राम ने फाइल उठाई और ड्राअर में रखने लगा।
“क्या हुआ?” कुछ क़दमों की दूरी पर, अपनी कुर्सी पर बैठे सब इंस्पेक्टर ने पूछा।
“कहता है, रात को वो भाग निकला। उसे ढूँढकर लायेगा।” सुच्चा राम ने मुँह बनाकर कहा - “मैं जानता हूँ बहाने से फाइल देखने आया था कि टैम्पो चोर के थाने से भागने की वजह क्या लिखी मैंने। मन में डर होगा कि कहीं मैंने ये न लिख दिया कि टैम्पो चोर, कांस्टेबल ओमवीर की लापरवाही की वजह से पुलिस स्टेशन से फरार हो जाने से कामयाब हो गया।”
☐☐☐
कमरे से बाहर निकलते ही ओमवीर ठिठका। सामने ही उसे रंजन तिवारी खड़ा नज़र आया जो कि उसे ही देख रहा था। ओमवीर उसकी तरफ बढ़ गया।
“तिवारी साहब आप।” कहते हुए ओमवीर का स्वर धीमा हो गया - “आज फिर कोई मुर्गा लाये हैं क्या?”
“मेरे लाने की क्या जरूरत है?” तिवारी मुस्कराया - “मुर्गे तो खुद तुम्हारे पास आते रहते हैं।”
“मेरे पास।”
“वो जो बाहर खड़ा है। दाड़ी वाला। काले चश्मे वाला।”
“ओह!” ओमवीर मुस्कराया - “आपने देख लिया।”
“हाँ, उससे बातें करते देखा तो मैं समझ गया, वो तुम्हारा मुर्गा ही है। ऐसे कामों में इतनी लापरवाही मत किया करो। थाने से दूर जाकर ऐसे लोगों से बातें कर लिया करो।” रंजन तिवारी ने समझाने वाले स्वर में कहा।
“क्या फर्क पड़ता है तिवारी साहब! ये तो जनता सेवा है। मैं किसी से कुछ लेता तो हूँ नहीं। सरकार जो तनख्वाह देती है, वो ही मेरे परिवार का पेट भरती है।” ओमवीर मुस्कराकर कह उठा।
“कोई ख़ास काम कर रहे दाढ़ी वाले का?”
“कुछ ख़ास नहीं। कल वो जो टैम्पो चोरी का मामला था। आपको तो पता ही है। टैम्पो तो टैम्पो का मालिक कल ही ले गया था। दाढ़ी वाला उस टैम्पो के बारे में पूछ रहा था कि वो किसका है। उसका मालिक कहाँ रहता है। उसका पता देने के पाँच हजार दे रहा है तो मैंने सोचा, जनता की सेवा कर ही दी जाये।”
ओमवीर की बात सुनते ही रंजन तिवारी मन ही मन चौंका। जगमोहन को उस टैम्पो के साथ गिरफ्तार किया गया। उसके पास से हीरे नहीं मिले। जगमोहन घायल था। यकीनन होश में आने पर उसने बताया होगा कि वो हीरे, उसने टैम्पो में छिपाये हैं। इसी कारण देवराज चौहान उस टैम्पो की तलाश में है।”
तिवारी का दिल जोरों से धड़का कि अब हीरे उससे दूर नही।
“कहाँ है टैम्पो वाले का पता?” तिवारी ने सामान्य स्वर में पूछा।
“याद है मुझे।”
“ओमवीर, कब तुम्हें अक्ल आयेगी। बेवकूफ ऐसी बातें कागज में लिखकर चुपचाप पार्टी के हाथ में कागज थमाकर उसे दफा कर देते हैं। बाहर जाकर क्या उसे याद कराने की कोशिश करोगे, जुबानी पता बोलकर।” रंजन तिवारी ने मुँह बनाकर कहा और जेब से डायरी पैन निकाल लिया- “पता बोलो,टैम्पो वाले का।”
ओमवीर ने अमृतपाल का पता बताया।
तिवारी ने छोटी डायरी के कागज में गलत पता लिखा और कागज फाड़कर ओमवीर को थमा दिया। जो पता ओमवीर ने बताया था, अमृतपाल का उसे खुद याद कर लिया था।
“जाओ। दे दो उसे।”
“ठीक है। आप यहाँ कैसे? कोई काम?” ओमवीर ने पूछना चाहा।
“मेरा काम हो चुका है। जाओ तुम भी अपना काम करो। फिर मिलूँगा।” कहने के साथ तिवारी आगे बढ़ गया।
☐☐☐
“टैम्पो वाले का पता ले आये।”
ओमवीर चाय वाले के पास पहुँचा तो देवराज चौहान उसके पास आ गया।
“हाँ। वो पान वाला देख रहे हो, जिसने छाता लगा रखा है।” ओमवीर बोला।
“नज़र आ रहा है वो मुझे।”
“पाँच हजार उसे दे आओ और मेरे से टैम्पो वाले का पता ले लो।”
देवराज चौहान पान वाले को पाँच हजार दे आया।
ओमवीर ने पते वाला कागज उसे थमाया तो देवराज चौहान अपनी कार की तरफ बढ़ गया।
☐☐☐
रंजन तिवारी खुश था। उसे पूरा विश्वास था कि जगमोहन ने उस टैम्पो में ही कहीं, साढ़े चार अरब के हीरे छिपाये हैं, तभी तो देवराज चौहान उस टैम्पो की तलाश में हैं। लेकिन अब देवराज चौहान उस टैम्पो तक जल्दी नहीं पहुँच पायेगा। क्योंकि उसके पास ओमवीर के द्वारा जो कागज पहुँचा है, उस पर उसने अमृतपाल का पता न लिखकर यूँ ही, कोई दूसरा पता लिख दिया है।
कम से कम आज का दिन तो देवराज चौहान का खराब हो ही जायेगा। और वो आज के दिन में टैम्पो को ढूँढकर, उसमें मौजूद हीरों को तलाश कर लेगा।
रंजन तिवारी वहाँ से सीधा अमृतपाल के किराये के कमरे पर पहुँचा।
कमरे के बाहर ताला लटक रहा था। उसने पड़ोस से पूछताछ की। पड़ोस में ऑटो वाला रहता था। इस वक्त घर पर ही था।
“अमृतपाल कहाँ गया?” उसे देखते ही रंजन तिवारी ने असे पूछा जैसे अमृतपाल उसका ख़ास हो।
“आज तो पार्टी खा-पी रहा होगा।” पड़ोसी ने मुस्कराकर कहा।
“क्या मतलब?”
“परसों उसका टैम्पो चोरी हो गया था। पट्ठा किस्मत वाला निकला कि कल मिल गया। आज तो सुबह-सुबह ही ख़ुशी में नाचता टैम्पो के साथ कहीं निकल गया।”
“लेकिन कहाँ गया?”
“इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम।”
“आज उसने मेरा माल, टैम्पो में लादकर ले जाना था और वो वक्त पर पहुँचा नहीं। दूसरा टैम्पो भी नहीं ले सकता। क्योंकि काम कीमती है और अमृतपाल भरोसे का आदमी है।”
“हाँ जी। बंदा तो शरीफ है।”
“सोचों, शायद ठीक अंदाजा लगा लो कि वो कहाँ हो सकता है। कहाँ मिलेगा।”
“इस बारे में तो भी नहीं कह सकता। टैम्पो पास में हो तो वो उड़ता पंछी है। जिधर का माल मिला, उसी शहर चल पड़ा। आपके पास टैम्पो लेकर नहीं पहुँचा तो कोई बढ़िया ग्राहक मिल गया होगा। ज्यादा पैसे देने वाला। उसी का माल ले गया होगा। ऑटो की जरूरत हो तो मैं हाजिर हूँ।”
रंजन तिवारी समझ गया कि अभी हीरे उसके हाथ नहीं लगने वाले। क्योंकि वास्तव में नहीं सोचा जा सकता था कि अमृतपाल टैम्पो लेकर कहाँ गया होगा। वैसे भी टैम्पो तलाश करने के लिए टैम्पो के नम्बर की जरूरत थी। और नम्बर भी उसे नहीं मालूम था। एक बार फिर ओमवीर से मिलना पड़ेगा, नम्बर मालूम करने के लिए।
☐☐☐
“उस्ताद जी!”बुझे सिंह कह उठा - “ माल टैम्पो विच लाद गया वे। रस्सा वगैरह बाँध दिया वे। गियर पाओ और चल्लो सीमापुर। लेट हो गये”उस्ताद जी!”बुझे सिंह कह उठा - “ माल टैम्पो विच लाद गया वे। रस्सा वगैरह बाँध दिया वे। गियर पाओ और चल्लो सीमापुर। लेट हो गये”उस्ताद जी!”बुझे सिंह कह उठा - “ माल टैम्पो विच लाद गया वे। रस्सा वगैरह बाँध दिया वे। गियर पाओ और चल्लो सीमापुर। लेट हो गये। दोपहर का डेढ़ बज रहा है। वैसे तो ये टैम खाने का होता है, परन्तु कोई गल नहीं। राह विच, रोटी-पानी नजर आई तो आधी-आधी खा लेंगे।”
अमृतपाल ने टैम्पो आगे बढ़ा दिया।
“उस्ताद जी! टैम्पो मिल गया। कितनी ख़ुशी दी गल है।”
“तेरे को कल बहुत दुःख हो रहा था।”
“वो तो बहन के ब्याह की बात याद आ गई थी ना, इसलिए दुःख तो हुआ। फिर जब तोते वाले ज्योतिषी की बात याद आई तो, दुःख दूर हो गया। क्योंकि मेरी बहन का ब्याह तो बड़े आदमी से होना है। जिसके पास एक बार बहुत बड़ी दौलत आयेगी और।”
“वो उसे संभाल पायेगा या नहीं, ये तोते वाले ज्योतिषी को नहीं पता।”
“हाँ जी। ठीक बोल्या वे उस्ताद जी। बिलकुल ये ही गल है।”
अमृतपाल ने मुस्कराकर उसे देखा फिर ड्राइविंग पर ध्यान लगा दिया।
“एक बात तो बता बुझया।”
“हुकुम उस्ताद जी!”
“जिसके पास बड़ी दौलत होगी। ज्यादा दौलत होगी। उसने का तेरी बहन से ही शादी करनी है।”
“ये बात भी ठीक वे उस्ताद जी। तोते वाले ज्योतिषी ने इस बारे में तो कुछ बताया ही नहीं। जिसके पास पैसा होगा, वो तो अपना रिश्ता बड़े घर में करेगा।” बुझे सिंह ने गहरी साँस ली।
“तू एक बार तोते वाले ज्योतिषी से फिर मिल। अपनी बहन के भविष्य के बारे में पूछताछ कर। सबसे पहले तो ये बात पक्के तौर पर मालूम करना कि तेरी बहन की किस्मत में ब्याह है भी या नहीं।”
“ठीक है। पूछ लूँगा। तुसी भी साथ चलना।”
“क्यों?”
“आपका भविष्य भी पूछ लेंगे कि तुस्सी टैम्पो दी बॉडी पर ही हाथ फेरते रहोगे या आपकी किस्मत में कोई और बॉडी भी है।” कहने के साथ बुझे सिंह ने अपना सिर दायें बायें हिला दिया।
अमृतपाल मुस्कराकर रह गया।
कुछ देर बाद टैम्पो शहर की सीमा के बाहर आ गया था और उसका रुख सीमापुर की तरफ था। शाम के पाँच बजे तक उन्होंने सीमापुर पहुँच जाना था।
☐☐☐
रात के ग्यारह बज रहे थे। हवलदार ओमवीर ड्यूटी पूरी करके घर जा रहा था। पास ही बस-स्टॉप पर भी अभी उतरा था और फिर पैदल आगे बढ़ने लगा। खाली हाथ था। ड्यूटी के बाद डंडा थाने में जमा करा आया था। दिन-भर की भागदौड़ की वजह से थका-थका सा नजर आ रहा था।
फुटपाथ पर कुछ आगे बढ़ते ही ठिठका। निगाह किनारे पर खड़ी कार पर गई तो चेहरे पर अजीब-से भाव आ गये। दरवाजा खोले ड्राइविंग सीट पर उसने उसी व्यक्ति को बैठे पाया, जो दिन में पुलिस स्टेशन के बाहर मिला था और उसे पाँच हजार रुपया देकर अमृतपाल का पता ले गया था।
बरबस ही ओमवीर उसकी तरफ बढ़ गया।
“क्यों गुरु रात को कहाँ भटक रहे हो।” ओमवीर ने लापरवाही से पूछा।
“तुम्हारा इंतजार कर रहा था।” देवराज चौहान ने चेहरे पर दाढ़ी-मूँछें और आँखों पर काला चश्मा अभी भी लगा रखा था।
“तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।”
“मेरा इंतजार!” ओमवीर के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे - “तुम्हें मालूम था कि मैं यहाँ से निकलकर घर जाता हूँ।”
देवराज चौहान ने शांत भाव से सिगरेट सुलगाई।
“बोलो। अब कौन सा काम आ फँसा?” ओमवीर लापरवाह था।
“डेढ़ लाख रुपया लेकर तुमने ईमानदारी से मेरे आदमी को, वायदे के मुताबित थाने से भगा दिया।”
“मैं सच्चे मन से जनता की सेवा करता हूँ।”
“लेकिन आज सिर्फ पाँच हजार के लिए बेईमानी कर गये।” देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया।
“पाँच हजार के लिये बेईमानी!” ओमवीर चौंका - “ये क्या कह रहे हो! मैं इस तरह बेईमानी कभी नहीं करता। तुमने पाँच हजार दिए, मैने तुम्हे टैम्पो वाले का पता दे दिया। बेईमानी कहाँ की?”
“पाँच हजार तो तुमने लिए। लेकिन पता गलत दिया।”
“ये कैसे हो सकता है?”
“मेरे पास फालतू का वक्त नहीं कि इस वक्त, यहाँ तुम्हारे इंतजार में मौजूद रहूँ।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा - “अगर अपनी सलामती चाहते हो तो इस कागज के दूसरी तरफ सही पता लिख दो टैम्पो वाले का। इसके लिए अगर तुम्हें वापस थाने जाना पड़े तो बेशक वापस चलो। मुझे अभी उसका पता चाहिये।”
“मेरे भाई, मैंने पता सही दिया था।” ओमवीर अपनी बात पर अड़ गया।
“सही दिया था?” देवराज चौहान की आवाज़ में तीखापन आ गया।
“हाँ। जो उसकी रिपोर्ट में लिखा था, वही पता दिया था। तुम्हें गलतफहमी हुई।”
“जानते हो जो पता तुमने दिया है, वो किसका है?” देवराज चौहान का स्वर खतरनाक हो गया।
“किसका है?”
“ये पता आशा पारिख का है।”
“आशा पारिख, वो कौन है?” ओमवीर के होंठों से निकला।
“पुरानी फिल्मों की हीरोइन आशा पारिख।”
ओमवीर अँधेरे में देवराज चौहान का दाढ़ी वाला चेहरा देखता रहा।
“ये कैसे हो सकता है!” कहने के साथ ही दाढ़ी ओमवीर ने उसके हाथ से कागज लिया और स्ट्रीट लाइट की मद्धम सी रोशनी में उसके कागज पर लिखे पते को पढ़ा, तो चेहरे पर अजीब-से भाव आ गये। उसके बताने पर रंजन तिवारी ने कागज पर पता लिखा था, लेकिन जो पता उसने बोला था, तिवारी ने वो पता कागज पर नहीं लिखा था।
“साला।” ओमवीर दाँत भींचकर बड़बड़ा उठा - “मेरा धंधा खराब करता है।”
“क्या?”
“तुम्हें नहीं कह रहा। रंजन तिवारी से कह रहा हूँ। टैम्पो वाले का जो पता मैंने बोला था, वो तो उसने कागज पर लिखा नहीं। कोई दूसरा लिख दिया। जानबूझकर किया है उसने ऐसा। बात करूँगा उससे।”
“कौन है ये रंजन तिवारी।”
“बीमा कम्पनी का जासूस है। अन्दर की कोई बात चाहिए होती है तो, मेरे पास-।”
“बीमा कम्पनी का जासूस।” देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।
“हाँ। ये ...।”
“नेमचंद कटारिया वाली कम्पनी में है रंजन तिवारी।” देवराज चौहान ने पूछा।
“हाँ। कटारिया वाली ब्रांच ने साढ़े चार अरब के हीरों का बीमा किया था। केटली ब्रदर्स के हीरे थे। चोरी हो गये। बात तो नहीं हुई तिवारी से, लेकिन आजकल हीरों की तलाश में लगा होगा। काबिल जासूस है बीमा कम्पनी का। खैर, आपको जो तकलीफ हुई जनाब, उसके लिए मैं माफ़ी चाहता हूँ। गड़बड़ मेरी तरफ से नहीं, साले तिवारी ने की है। बात करूँगा उससे। मुझे टैम्पो वाले का पता अभी तक याद है। कागज के दूसरी तरफ लिख देता हूँ।” कांस्टेबल ओमवीर ने बेहद शराफत से कहा।
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ चुके थे।
पुलिस ही नहीं बीमा कम्पनी का जासूस भी हीरों को तलाश कर रहा था। रंजन तिवारी नाम है उसका। कागज पर गलत पता लिखना और असली पता खुद ले जाने का मतलब था कि तिवारी जान गया था कि हीरे टैम्पो में ही कहीं हैं। वरना टैम्पो वाले का पता गलत नहीं लिखता। कोई बड़ी बात नहीं कि अब तक टैम्पो वाले के पास पहुँच गया हो। टैम्पो अपने कब्जे में कर लिया हो। हीरे उसे मिल गये हों।
देवराज चौहान को लगा रंजन तिवारी के रूप में एक नई मुसीबत सामने आ गई है।
ओमवीर ने कागज के दूसरी तरफ अमृतपाल के कमरे का पता लिखकर दिया। देवराज चौहान ने पते को पढ़ा। चेहरे पर सोच के भाव थे। फिर उसने ओमवीर को देखा।
“टैम्पो का नम्बर क्या था?”
“2000।” ओमवीर ने जल्दी से कहा - “फिर कभी मेरी सेवा की जरूरत पड़े तो जरूर आना।”
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।
☐☐☐
अमृतपाल जिस घर के एक कमरे में रहता था। उस घर में कहीं भी लाइट रोशन नहीं थी। बाहर भी ताला लटक रहा था और आसपास कहीं भी टैम्पो नहीं खड़ा था। देवराज चौहान सोच भरे अंदाज में इधर-उधर देखने लगा कि, किससे पूछताछ करे। बगल वाले घर की लाइट रोशन थी तो आगे बढ़कर उसने उस घर का गेट खटखटाया। भीतर टी.वी चलने की आवाज़ आ रही थी।
दूसरे ही मिनट बनियान-पायजामा पहने एक व्यक्ति दरवाजे से बाहर निकला और पास आकर गेट खोला। देवराज चौहान को देखा।
“कहो जी! क्या काम है?”
“आपके पड़ोस में में अमृतपाल रहता है, टैम्पो वाला। मैं उससे -।”
“कमाल है। अमृतपाल की लौटरी निकल आई है क्या? हर कोई उसे ही पूछ रहा है।” वो कह उठा।
“हर कोई?”
“और नहीं तो क्या। दोपहरबाद भी एक साहब आये थे। अमृतपाल को पूछ रहे थे। अब इतनी रात गये आप आ गये। बात क्या है, जबसे उसका टैम्पो चोरी हुआ और मिला, उसकी पूछ ही बढ़ गई।”
“जो साहब दोपहर को आये थे, वो देखने में कैसे थे?” देवराज चौहान ने पूछा।
उसने रंजन तिवारी का हुलिया बताया।
“इन साहब को अमृतपाल मिला?”
“नहीं जी। आज तो अमृतपाल सुबह-सुबह ही बुझे सिंह के साथ टैम्पो पर निकल गया। कहीं माल ले जाना होगा। उसके बाद तो अभी तक वापस नहीं आया।”
“क्या ख्याल है, कब तक वापस आएगा?”
“क्या पता जी। वो तो उड़ता पंछी है। जिधर का माल मिला लेकर निकल गया। कभी तो दो दिन बाद आ जाता है तो कभी दस दिन बाद। बहुत मेहनती है। बंदा भी शरीफ है। अच्छे टाइम पे टैम्पो पा लिया। अब तो टैम्पो भी बोत महंगे हो गये हैं। आप हुकम करो। मेरे पास ऑटो है। कहीं माल ले जाना हो तो मैं ऑटो से चलता हूँ। नाईट चार्ज भी कम ही लूँगा।”
“मेहरबानी।” देवराज चौहान ने मुस्कराकर कहा- “ऑटो से काम नहीं चलेगा।”
“ये बात भी ठीक है। माल ज्यादा होगा।”
देवराज चौहान अपनी कार की तरफ बढ़ गया। मस्तिष्क में बीमा कम्पनी का जासूस रंजन तिवारी घूम रहा था। जो कि ये जान चुका था कि हीरे टैम्पो में है। मतलब कि जैसे भी हो, रंजन तिवारी से पहले, टैम्पो को हासिल करना होगा। वरना सारा मामला गड़बड़ा जाएगा।
देवराज चौहान वहाँ से सीधा जगमोहन के पास पहुँचा। सोहनलाल उसके देख-रेख के लिए पास ही मौजूद था। जगमोहन बेहोश था। लेकिन खतरे वाली कोई बात नहीं थी। सोहनलाल से बात करके देवराज चौहान जब बँगले पर पहुँचा तो रात का एक बज रहा था।
☐☐☐
ड्राइंगहाल में प्रवेश करते ही देवराज चौहान की निगाह दीवान पर पड़ी,जहाँ शायद कि सिर से पाँव तक चादर ओढ़े भटनागर लेटा था। नानकचंद सोफे पर बैठा खाना खाने में व्यस्त था। वो नशे में भी लग रहा था। पास में व्हिस्की की आधी बोतल पड़ी थी।
“आ -।” नानकचंद नशे से भरे स्वर में बोला - “तेरा इंतजार कर -कर खाना शुरू किया।”
“जया को खाना दे दिया?”
“दे दिया। लेकिन भटनागर तो खाना खाने से पहले ही मर गया।” कहते हुए नानकचंद ने मुँह बनाया।
देवराज चौहान चौंका।
“क्या कहा, मर गया ?”
“हाँ। गला काट दिया उस हरामजादे ने।” नानकचंद ने व्हिस्की का गिलास उठाकर खाली किया - “मैं तो जा ही नहीं रहा था खाना लाने। भटनागर के जोर देने पर ही गया। भूख तो सबको लगी थी। जया छोरी भी भूखी थी तो मुझे खाना लाने भेजा...।
देवराज चौहान जल्दी से दीवार की तरफ बढ़ गया। पास जाकर एक ही झटके से चादर उठाई तो होंठ भिंचते चले गये। चेहरे पर खूँखारता आ सिमटी। भटनागर मृत अवस्था में वहाँ पड़ा था। पीठ के बल था और गर्दन पर हुआ चाकू का वार स्पष्ट नजर आ रहा था। गर्दन वाले हिस्से से बहे खून ने दीवान को काफी हद तक रंग दिया था। उसकी आँखें खुली हुई पथरा चुकी थीं। जाहिर था कि वो बैड पर लेटा हुआ था और वार करने वाला चुपके से उसके सिर पर आ पहुँचा था। आखिरी समय में अपना बचाव तो क्या, ये समझने का भी मौका नहीं होगा कि वो मरने जा रहा है।
दाँत भींचे देवराज चौहान ने नानकचंद को देखा।
जो खाने में व्यस्त था।
“इसे कब मारा गया?”
“मैं नौ बजे गया था।” नानकचंद ने उसे देखा - “साढ़े दस वापस आया तो इसे मरा देखा।”
देवराज चौहान की निगाह बँगले में घूमने लगी।
“वो जो कोई है, अभी भी इसी बँगले में है।” देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा।
“हाँ। लेकिन हम उसे ढूँढ नहीं सकते। बँगला बहुत बड़ा है।” नानकचंद ने गहरी साँस ली।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
“वो टैम्पो मिला, जिसमें - ?” नानकचंद ने कहना चाहा।
“खामोश रहो।”
नानकचंद ने प्रश्न भरी निगाहों से, देवराज चौहान हो देखा।
“हम जो भी बात करेंगे, वो हत्यारा जरूर सुनेगा।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा - “और मैं नहीं चाहता कि वो ये जाने कि हम जो कर रहे हैं, उसमें कहाँ तक पहुँचे।”
“हरामजादा चाहता क्या है?” नानकचंद गुर्राया।
“साढ़े चार अरब के हीरे चाहता है वो।” देवराज चौहान की नजरें अभी भी इधर-उधर फिर रही थीं।
“हम लोगों की हत्याएं करके, हीरे पा लेगा वो?”
देवराज चौहान की निगाह नानकचंद पर जा टिकी।
“वो जो भी है, उसे बँगले में से ढूँढ निकालने की कोशिश की जानी चाहिये। लेकिन इस वक्त हमारे पास जो भी वक्त है, वो इस बात में गँवाने का नहीं है।” देवराज चौहान की निगाह पुनः बँगले में घूमने लगी - “अगर यहाँ पर वक्त लगा दिया तो, दूसरी तरफ से हमें नुकसान उठाना पड़ सकता है।”
“कौन सी दूसरी तरफ?” नानकचंद के होंठों से निकला।
“फिर बताऊँगा।”
नानकचंद नशे से भरी आँखों से उसे देखता रहा। बोला कुछ नहीं।
“जया कहाँ हैं?” देवराज चौहान ने पूछा।
“ऊपर ही होगी। अपने कमरे में। मैं तो उसे खाना दे आया था।” नानकचंद पुनः खाने में व्यस्त हो गया।
“केसरिया और अब भटनागर का मारा जाना। बहुत बुरा हुआ।”
एकाएक नानकचंद चौंका।
“देवराज चौहान!”
“हाँ।”
“वो - वो छोरी। मैंने उसके कमरे में चाबी नहीं लगाई। दरवाजा लॉक करना भूल गया था।”
“क्या?” देवराज चौहान चौंका। फिर दूसरे ही पल तेजी से सीढ़ियों की तरफ दौड़ा।
कुछ ही क्षणों में वो जया वाले बेडरूम के दरवाजे पर था। चाबी बाहर की तरफ फँसी हुई थी। देवराज चौहान ने जल्दी से दरवाज़ा खोला और अन्दर झाँका।
वो बेड पर पड़ी हुई थी। आँखें बंद थीं उसकी। गहरी नींद में थी और सलामत थी।
“उठो।” देवराज चौहान ने तेज स्वर में कहा तो वो हड़बड़ाकर उठ बैठी। आँखों में नींद भरी हुई थी।
“क्या हुआ?” जया केटली उलझन में थी कि इस तरह से उसे नींद से क्यों उठाया गया।
“चलो। हम ये बँगला छोड़ रहे हैं।” देवराज चौहान का लहजा काफी हद तक सामान्य था - “और तुम्हें भी पास रखने की अब जरूरत नहीं है। जहाँ कहोगी, छोड़ देंगे।”
“सच?” वो खिल उठी।
“जल्दी करो।”
जया केटली फुर्ती के साथ बैड से उतरी। बाथरूम जाकर मुँह पर छींटे मारे और बैड पर बिछी चादर से चेहरा साफ़ करके, चलने को तैयार खड़ी, देवराज चौहान को देखा।
“आओ।”
दोनों बाहर निकले। सीढ़ियों के पास पहुँचने पर चादर में लिपटी लाश देखी तो जया केटली घबरा उठी। चेहरे पर कई रंग आकर गुजर गये।
“ये क्या?” जया केटली के होंठों से निकला।
“तुम्हें बताया था कि कोई हम लोगों की हत्यायें कर रहा है।”
देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा - “और वो जो कोई भी है, बँगले में है। परन्तु इतने बड़े बँगले से ढूँढ पाना उसे आसान काम नहीं। तलाश करने के लिये हमारे पास आदमी कम हैं।”
जया केटली कुछ न कह सकी।
दोनों नीचे पहुँचे तो भटनागर की वीभत्स लाश देखकर वो चीख ही उठी।
“चुप रहो।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।
जया केटली ने सहमकर होंठ भींच लिए।
“ये -ये, इसे भी उसी व्यक्ति ने मारा है।” कुछ पल बाद उसके होंठों से काँपता स्वर निकला।
“हाँ।”
“ओ छोरी!” नशे में डूबे नानकचंद ने उसे घूरा- “तू तो मुझे पैले से भी फिट लगो हो।”
“खाना-पीना बंद करो और चलो यहाँ से।” देवराज चौहान बोला।
“क्यों?”
“हम ये जगह अभी छोड़ रहे हैं।”
“क्यों?”
“इस क्यों का मतलब बाद में मिल जायेगा। यहाँ से चलो।”
“और ये छोरी?”
“ये जहाँ कहेगी, इसे उतार देंगे।”
नानकचंद कुछ नहीं बोला। सिर हिलाकर उसने टेबल पर पड़ा पानी का जग उठाया और वही हाथ-मुँह धोकर उठ खड़ा हुआ। वो ठीक-ठाक नशे में था।
तीनो बाहर निकले। कार में बैठे। कार बँगले से निकलकर सड़क पर आ गई। इस बीच नानकचंद ने कुछ पूछना चाहा कि देवराज चौहान ने उसे बाद में बात करने को कहा।
“तुम्हें कहाँ छोड़े?” देवराज चौहान ने जया केटली से पूछा।
“म-मुझे घर छोड़ दो।”
“अपने घर का रास्ता बताती जाना।” कार ड्राइव करते हुए देवराज चौहान ने कहा।
एक घंटे बाद जया जेटली के कहने पर, देवराज चौहान ने बहुत ही विशाल और खूबसूरत बँगले के सामने कार रोकी। फाटक पर ही दो दरबान खड़े नजर आ रहे थे। वहाँ सामान्य रोशनी करने वाली लाइटें भी रोशन थीं।
“ये है तुम्हारा घर?” देवराज चौहान ने पूछा।
“हाँ।”
“जाओ।”
जया केटली जल्दी से, कार से बाहर निकली।
“ओ छोरी!”
जया केटली ने ठिठकर, कार के भीतर, नानकचंद को देखा।
“अपने बापू को नानू की राम-राम बोलियों।”
जय केटली सहमति में सिर हिला दिया।
“जाओ।” देवराज चौहान ने कहा।
जया केटली ने फौरन बँगले के फाटक की तरफ बढ़ गई। देवराज चौहान उसे तब तक देखता रहा, जब तक कि वो भीतर प्रवेश नहीं कर गई। देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।
नानकचंद ने नशे से भरी आँखों से, देवराज चौहान को देखा।
“देवराज चौहान! तुम्हारा शहरी हिसाब अपनों को तो सूट नेई करो।” नानकचंद बोला।
“क्या मतलब?”
“उस हरामजादे ने केसरिया को मारा। जगमोहन अभी तक ठीक हाल में नहीं आया। भटनागर की जान उसने ले ली, और तुम उसे यूँ ही छोड़ आये। ठीक नहीं किया। उस हरामजादे को जैसे भी हो, बँगले में ढूँढकर टुकड़े-टुकड़े करके ही वहाँ से बाहर निकलना चाहिये था।” नानकचंद का स्वर खतरनाक हो उठा।
देवराज चौहान मुस्कराया। खतरनाक मुस्कान थी वो।
“वो कहीं नहीं जाने वाला।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा।
“मैं समझा नहीं।”
“वो जो भी है। जो हत्याएँ कर रहा है। हमारे वहाँ से आ जाने से, वो हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने वाला नहीं। वो साए की तरह हमारे पीछे ही रहेगा।” देवराज चौहान ने पक्के स्वर में कहा।
नानकचंद ने फ़ौरन पीछे नजर मारी, परन्तु ऐसा कोई वाहन नजर नहीं आया जो उसे पीछे आता लगे। स्ट्रीट लाइट में चमकती काली सड़के ही देखने को मिलीं।
“पीछे तो कोई भी गाड़ी नहीं है।”
“मैं नहीं जानता। लेकिन वो, हमें अपनी निगाहों के सामने ही रखेगा।” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा- “आखिर अरबों के हीरों को पाने की कोशिश में है वो।”
नानकचंद गहरी साँस लेकर कह उठा।
“तुम्हारा शहरी हिसाब किताब केसरिया समझ लेता था। मेरी समझ से तो दूर है ये जमा-घट।”
देवराज चौहान तेजी से कार दौड़ाये जा रहा था।
“टैम्पो का, क्या हुआ रे मालूम हुआ कुछ?” एकाएक नानकचंद ने पूछा।
“है। लेकिन टैम्पो और टैम्पो वाला घर पर नहीं है। वहीं जा रहे हैं। टैम्पो की वापसी का इतंजार करना होगा।”
“हीरे टेम्पों में हैं?” नानकचंद का नशा कुछ कम होने लगा।
“हाँ। जगमोहन ने हीरों को टैम्पो में ही छिपाया है।”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि हीरे टैम्पो वाले के साथ लग गये हों और वो उड़न-छू हो गया हो?” नानकचंद ने पूछा।
“कह नहीं सकता।” देवराज चौहान का स्वर सपाट था।
नानकचन्द अपनी सोचों की जोड़-तोड़ करने में लग गया।
“उन हीरों का बीमा कम्पनी ने बीमा किया था। हीरे चोरी हो जाने की वजह से बीमा कम्पनी को साढ़े चार अरब की रकम केटली को देनी पड़ेगी। रकम न देनी पड़े, इसलिए बीमा कम्पनी का जासूस रंजन तिवारी उन हीरों को तलाश कर रहा है और उसे मालूम हो चुका है कि हीरे टेम्पों में हैं।”
नानकचंद ने अजीब-सी निगाहों से, देवराज चौहान को देखा।
“बीमा वाले जासूस को कैसे मालूम हो गया कि हीरे टैम्पो में है?” नानकचंद कह उठा- “हीरे तो जगमोहन ने टैम्पो में रखे हैं। और जगमोहन ने किसी को बताया नहीं।”
“मैं नहीं जानता कि रंजन तिवारी को ये बात कैसे मालूम हुई?” देवराज चौहान ने गहरी साँस ली।
“कोई बात नहीं। ससुरे इस बीमा वाले जासूस को भी देख लेंगे।” नानकचंद मूँछ मरोड़ने लगा।
“किसी को देखना नहीं है। किसी की जान नहीं लेनी है। मैंने तुम्हें इसलिए बताया है कि ऐसे किसी आदमी से सतर्क रहना, जिस पर तुम्हें किसी तरह का शक हो।” देवराज चौहान का स्वर का सख्त हो गया।
“वो तो ठीक है। लेकिन उसे न छोडूँगा जिसने केसरिया को मारा।”
“उसे बेशक खत्म कर सकते हो।”
नानकचंद के चेहरे पर वहशियाना भाव चमकने लगे।
कुछ देर बाद देवराज चौहान ने एक गली के बाहर सड़क के किनारे कार रोक दी। आधी रात का वक्त हो रहा था। सड़क पर कोई वहन भी आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा था।
“यहाँ क्या करना है?” नानकचंद ने देवराज चौहान को देखा।
“इस गली में टैम्पो वाला कमरा किराये पर लेकर रहता है। उसे कहीं भी ढूँढा नहीं जा सकता। वो जब भी हमें मिलेगा, यहीं अपने कमरे में मिलगा।” देवराज चौहान ने कहा।
“मतलब कि उसका इंतजार करना होगा, सड़क पर खड़े होकर।”
“सड़क पर खड़े होकर नहीं - बल्कि उसके ही कमरे में, इंतजार करेंगे।” कहने के साथ ही देवराज चौहान दरवाज़ा खोलकर कार से बाहर निकला - “सारा घर बंद है। वहाँ कोई नहीं रहता। एक कमरा टैम्पो वाले के पास है। ऐसे में कमरे में रहकर उसका इंतजार करने में कोई परेशानी नहीं होगी।”
नानकचंद भी कार से बाहर आ गया।
“ठीक बात है। वहाँ लेटकर मैं अपनी पीठ भी सीधी कर लूँगा।”
देवराज चौहान ने आसपास अँधेरे में देखा।
कहीं दूर से चौकीदार की सीटी और डंडा बजने की आवाज आ रही थी।
“आओ।” देवराज चौहान ने कहा और दोनों आगे बढ़ गये।
आधा मिनट भी नहीं बीता होगा कि सड़क के किनारे खड़ी कार की डिग्गी आहिस्ता से खुली और उसमें से एक व्यक्ति निकला। जिसने चेहरे पर रुमाल बाँध रखा था। उसने सावधानी से इधर-उधर और गली में देखा। देवराज चौहान और नानकचंद भी अब नजर आने बंद हो चुके थे। उसने डिग्गी बंद करते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखा कि आवाज न गूँजे। उसके बाद वो दबे पाँव एक तरफ अँधेरे में गुम होता चला गया।
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