लोकल पर सवार होकर जीतसिंह धारावी पहुंचा । वहां ट्रांजिट कैम्प के इलाके में स्थित अजमेरसिंह के ढाबे में बैठा परदेसी उसे मिला ।"


ट्रांजिट कैम्प धारावी का वो इलाका था जिसमें अपनी जिन्दगी में चुनिया रहता था । परदेसी भी वहां का पुराना बाशिन्दा था और वो जीतसिह और चुनिया दोनों का दोस्त था । जीतसिंह को यकीन अपने डकैती के बाकी जोड़ीदारों का भी नहीं था लेकिन फिर भी उसका एतबार इस बात पर ज्यादा था कि चुनिया के किसी अड़ोसी-पड़ोसी को ही किसी तरीके से उसके पास मौजूद लूट के माल की भनक लग गई थी और उसने पहला मौका हाथ आते ही उसका कत्ल करके माल पर हाथ साफ कर दिया था। इसी धारणा के अंतर्गत उसने वारदात के बाद परदेसी से दरख्वास्त की थी कि वो ऐसे किसी आदमी की ताक में रहे जो कि एकाएक माल चमकाने लग गया हो ।


हालचाल पूछ-बता चुकने के बाद परदेसी ने उसके लिए चाय मंगायी और उसे सिगरेट पेश किया ।


"क्या खबर है ?" - जीतसिंह ने पूछा ।


"कोई खबर नहीं ।" - जवाब मिला । "महीना हो गया है, फिर भी कोई खबर नहीं ?" "नहीं।"


"ऐसा तो नहीं कि तू ही गफलत से काम ले रहा हो ?” "नहीं, ऐसा नहीं । मेरी बहुत जगह नजर है।"


"पुलिस को कातिल का कोई सुराग मिला ?"


"नहीं।"


"यानी कि उन्हें ये भनक नहीं लगी कि अपनी मौत से पहले चुनिया के पास बारह लाख रुपया था ?"


'नहीं लगी । कैसे लगती ?"


"ये भी ठीक है । "


"इस बात की क्या गारंटी है कि वो रकम उसके पास थी।" 


"रकम तो उसके पास बराबर थी । "


"मंजूर लेकिन इस बात की क्या गारंटी थी कि वो उसे अपनी खोली में ही रखे था?”


"और कहां रखता ?”


"कहीं भी । कहीं भी किसी ज्यादा महफूज जगह पर ।" 


"ऐसी कोई जगह उसे हासिल नहीं थी । "


" अपने किसी यार-दोस्त के पास ?"


"इतने भरोसे के उसके कोई यार दोस्त थे, त वो हमीं लोग थे । अगर उसे ये अहसास होता कि वो रकम को महफूज नहीं रख सकता तो अगली ही सुबह तो मेरे पास या देवर के पास, या ख्वाजा के पास या पपड़ी के पास पहुंच गया होता । उसने ऐसा नहीं किया था तो इसलिए नहीं किया था क्योकि वो मुतमइन था कि वो रकम की हिफाजत कर सकता था। मेरे भाई, उसका कत्ल अपने आप में इस बात का सबूत है कि रकम उसके पास थी । "


" यानी कि उसे अपने आप पर एतबार था कि वो इतनी बड़ी रकम महफूज रख सकता था ?"


“जाहिर है। तभी तो उसने उस जिम्मेदारी से कन्नी न कतराई |"


"उसकी अपनी ही नीयत बेइमान हो जाती तो ?"


बल्कि महाराष्ट्र से भी दूर, "तो वो माल के साथ बम्बई से दूर, कब का फूट गया होता । लेकिन ऐसा तो न हुआ । उसका तो कत्ल हो गया । उसकी लाश उसकी खोली में पड़ी पायी गई । और माल वहां से गायब पाया गया ।”


"जो कि तुम्हीं लोग जानते हो कि उसके पास था।”


"हां।" - जीतसिंह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - "उसकी खोली की क्या पोजीशन है ?"


"पहले तो वो पुलिस के कब्जे में थी लेकिन अब तो एक पड़ोसी ने ही उस पर ताला जड़ा हुआ है । कहता है उसने बिहार में कहीं रहते उसके एक रिश्तेदार को चिट्ठी लिखी है लेकिन अभी तक तो कोई आया नहीं वहां से ।"


- "यानी कि फिलहाल उसके माल असबाब का भी कोई भी वली - वारिस नहीं ?"


"माल - असबाब के नाम पर है ही क्या खोली में ! दो जोड़ी कपड़े, एक चारपाई, एक बिस्तर और दो-चार बर्तन - भाण्डे!"


"इस पड़ोसी का क्या नाम है ?"


"मनोहर सोलापुरे ।"


"क्या करता है ?"


"एम एल वाई की टैक्सी चलाता है ।"


"वो इस वक्त घर पर होगा ?"


"क्यों ?"


" मैं चुनिया की खोली में एक नजर डालना चाहता हूं।"


"टाइम बर्बाद करेगा। रकम क्या अभी भी खोली में रखी होगी। पुलिस ने खोली की पूरी बारीकी से तलाशी ली थी। वहां कुछ नहीं रखा, बाप ।”


"ओह !"


“अलबत्ता एक जगह ऐसी वहां जरूर थी जहां कि कुछ रखा जा सकता था।"


"क्या मतलब ?"


"उसकी खोली का फर्श फुट फुट की टाइलों का है उनमें से एक टाइल ऐसी थी जो कि देखने में तो बाकी टाइलों की तरह फर्श में फिट ही मालूम होती थी लेकिन असल में वो कोई चाकू-छुरी जैसा पतले फल वाला औजार दरार में डालने पर अपनी जगह से अलग हो जाती थी। जीते, उस टाइल के नीचे एक खाना-सा फर्श में बना हुआ था लेकिन वो पुलिस को खाली मिला था । पुलिस का ख्याल है कि कातिल उसी खाने में रखा कोई माल टटोल रहा था जब कि चुनिया ऊपर से आ गया था और पकड़े जाने से बचने के लिए कातिल ने उसके पेट में चाकू घोंप दिया था। लेकिन वो माल क्या था, ये पुलिस को नहीं मालूम । बारह लाख जैसी कोई बड़ी रकम तो उनके कयास में भी नहीं है । थोड़ा-बहुत नावा-पत्ता हर किसी के पास होता है जिसे कि अपने-अपने तरीके से हर कोई महफूज रखता है । लिहाजा चुनिया की किसी ऐसी ही जमापूंजी पर किसी की निगाह थी जिसने कि उसका कत्ल किया ।”


"मुझे जरा वो खाना दिखलाने का ही इन्तजाम कर दे ।”


“अभी तो नहीं हो सकता ।"


"क्यों ?"


"मनोहर टैक्सी को लेकर किसी लम्बे रूट पर गया हुआ है। अभी हफ्ते-भर में लौटेगा ।"


"ओह ! कोई और बात ?"


" है तो सही एक बात ।”


"क्या ?"


“जिस रोज खोली में से चुनिया की लाश बरामद हुई थी, उससे पिछली शाम को उससे मिलने के लिए एक आदमी यहां पहुंचा था । चुनिया तब खोली में नहीं था । उस आदमी ने थोड़ी देर उस की बाट देखी थी लेकिन फिर नाउम्मीद होकर वापिस लौट गया था।"


"तो ? जिक्र के काबिल क्या बात है इसमें ?"


"खास कुछ नहीं, सिवाय इसके कि उस आदमी का जो हुलिया मुझे अड़ोस-पड़ोस से सुनने को मिला है, वो ऐन" परदेसी एक क्षण को ठिठका और फिर बड़े अर्थपूर्ण ढंग से बोला - " पपड़ी का था ।”


"पपड़ी ?" 


“हां।” 


"पक्की बात ?”


"शक की कोई गुंजायश नहीं, बाप । तू जानता है कि उसकी पहचान के लिए तो लंगड़ी चाल ही काफी है।"


"हूं।"


"जीते, तू मेरे को एक काम बोला और फिर उसकी खबर लेने के लिए महीने बाद लौटा। कहां था तू एक महीने से ?"


"था कहीं । अभी कुछ रोज और वहीं रहना है मैंने । फिर लौट आऊंगा । मैं तुझे पणजी का एक नम्बर बता रहा हूं । मेरे लिए कोई खास खबर हो तो उस नम्बर पर टैक्सी ड्राइवर ऐंजो से बात करना । वहां ऐंजो मुझे बद्रीनाथ के नाम से जानता है। समझ गया ?"


“समझ गया ।"


वो वापिस भिंडी बाजार लौटा ।


उसे पपड़ी की खोली में ताला लगा मिला ।


इन्तजार का कोई फायदा नहीं था । वो जानता था कि एक बार का वहां से निकला वो आधी रात से पहले वापिस नहीं लौटता था । या नहीं भी लौटता था ।"


उसने कमाठीपुरे का भी चक्कर लगाया लेकिन वहां देवरे के घर को उसे बदस्तूर ताला लगा मिला ।


ख्वाजा करीब ही नल बाजार में रहता था लेकिन वहां उस घड़ी न वो मिला और न उसका कोई जोड़ीदार ।"


निराश जीतसिंह वापिस बस अड्डे को लौट पड़ा जहां से कि उसने गोवा की बस पकड़नी थी ।


***

अगला लगभग पूरा हफ्ता खामोशी से गुजर गया । जीतसिंह को कहीं से भी कोई गुड न्यूज हासिल न हुई । पिछले पांच दिनों से ऐंजो उससे सिर्फ दो बार मिला था और हर बार वो जीतसिंह को अपने से कन्नी कतराता लगा था ।


उसका एम्प्लोयर अब पहले से काफी तंदरुस्त हो गया था लेकिन दुकान की पूरी ड्यूटी भरना अभी भी उसके बस की वात नहीं थी । वो दोपहर बाद दुकान पर आता था और सूरज डूबने से पहले वहां से रुखसत हो जाता था। यानी कि अब दुकान खोलना और बन्द करना जीतसिंह की रेगुलर जिम्मेदारी बन गई थी ।


वो शनिवार का दिन था जबकि शाम को मालिक के दुकान से रुखसत होते ही आसमान पर सुरमई बादल घुमड़ने लगे थे और किसी भी क्षण बारिश शुरू हो जाने का माहौल बन गया था । नतीजतन तब ओल्ड कोर्ट रोड तकरीबन सुनसान पड़ी थी लेकिन मालिक के आदेशानुसार उसने आठ बजे तक वहां जरूर रुकना था जब कि अभी मुश्किल से छ: ही बजे थे ।


उस घडी ऐंजो की टैक्सी सड़क पर आकर रुकी । ऐंजो फुर्ती से टैक्सी से बाहर निकला और लपकता हुआ उसके करीब पहुंचा ।


"गुड न्यूज है।" - वो आते ही बोला - "सब फिट कर के रखा है। ये कागज सम्भाल । कल दोपहर को तेरे को बेलगाम में इस पते पर पहुंचने का है।"


"बेलगाम !" - जीतसिंह सकपकाया ।


"वहां जिस का ये पता है, उसका नाम विष्णु आगाशे है । लेकिन फिगारो आइलैंड पर जैक रिकार्डो के घर की तरह वो घर किराये का नहीं है । आगाशे रहता ही उधर है। उसका रैजीडेंस है वो ।”


"वहां क्या है ?"


“वही जो फिगारो आइलैंड पर था । डिटेल जाने पर मालूम पड़ेगा । मैं तेरे को उधर ही मिलेगा ।"


"साथ नहीं चलेगा यहां से ? "


"नहीं । मैं शायद रात को ही वहां पहुंच जाएगा। तेरे को दोपहर तक पहुंचने का है। मैं तेरे वास्ते एक किराए की एम्बैसेडर ठीक करके रखा है । वो तुझे किधर से मिलेगी, इस पेपर पर लिखा है ।"


"एम्बैसेडर किसलिये ?”


"खास तेरी खातिर अरेंज किया मैं । वो साला एस एच ओ गायकवाड़ तेरे को वार्निंग जो दे के छोड़ा कि वो तेरे को वाच करके रखेगा । तू गाड़ी को होशियारी से हैंडल करेगा तो उसको पता भी नहीं लगेगा कि तू कहां गया, किधर गया, कब गया ।"


"हूं । लेकिर ये आगाशे... ये है कौन ?”


'बहुत माहिर आदमी है । पक्का प्रोफेशनल । ऐसे कामों की ड्रिल को खूब जानता-समझता है । बहुत डिसिप्लिंड है । ग्रुप में काम करने का उसे पूरा तजुर्बा है । कई हाथ पहले ही मार चुका है ।"


"उसे हमारी जरूरत क्यों है ?"


"पहले वो दूसरे लोगों के साथ काम करता था। तब स्कीम उन्हीं लोगों की होती थी वो सिर्फ उसमें शरीक होता था । इस बार कुछ उसे सूझा है जिसके लिए खुद उसने टीम तैयार करनी है ।"


"यानी कि आर्गेनाइजर वो है । हम लोग महज वर्कर हैं ।"


"माई डियर फिरेंड, फिगारो आइलैंड पर रिकार्डो के साथ भी तो ऐसा ही था ।”


"हूं।"


"तू वहम न कर आगाशे फिट आदमी है । मैं फुल चैक किया ठीक ?"


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।


"ये एक पुर्जा और पकड़।" - ऐंजो ने पहले कागज से एक चौथाई नाप की एक पर्ची-सी उसकी तरफ बढ़ाई |


"ये क्या है ?" - जीतसिंह बोला ।


"तेरे लिये मैसेज है । बम्बई से । कोई परदेसी करके दिया । टैक्सी स्टैंड पर टेलीफोन पर मेरे से बात करके मैसेज छोड़ा । मैं इधर उधर पेपर पर लिख के रखा ।”


शुक्रिया ।”


“अब चलता है। मेरे पास पैसेंजर है। पण तेरे को कल हर हाल में बेलगाम पहुंचने का है। भूलने का नहीं है । "


और वो लगभग दौड़ता हुआ अपनी टैक्सी में जा सवार हुआ ।


तत्काल टैक्सी सड़क पर दौड़ चली ।


जीतसिंह कभी हाथ में थमे कागजों को तो कभी दूर होती जा रही टैक्सी को देखता रहा । फिर उसने बड़े उत्सुक भाव से परदेसी के मैसेज वाली पर्ची पर निगाह डाली । पर्ची पर जो गिनती के चार अक्षर लिखे थे, वो थे : मिसेज अचरेकर, हाउस नंबर 13, रोड नंबर 2, वास्कोडिगामा


उसने वो पता अच्छी तरह से याद कर लिया और पर्ची को फाड़ दिया ।


वैसा ही उसने दूसरे कागज के साथ किया ।


उसने एक सिगरेट सुलगाया और सोचने लगा ।


ये बात तो निश्चित थी कि वास्कोडिगामा का पता काशीनाथ देवरे का था वर्ना परदेसी ने वो मैसेज ऐंजो के पास छोड़ने की जहमत न की होती । देवरे ने उस पर गोवा में वार किया था इसलिए उसका अभी भी वहीं मंडराते रहना समझे में आता था । यूं वो जीतसिह को खत्म करने का फिर कोई मौका तलाश कर सकता था । ये भी जाहिर था कि वो उसकी किसी तालों की दुकान पर नौकरी करते होने की कल्पना नहीं कर सकता था और इसीलिए वो अभी तक उस तक नहीं पहुच पाया था ।


बढ़िया वो होठों में बुदबुदाया ।


अब उसके सामने अहम सवाल था कि अगर देवरे वास्कोडिगामा में मौजूद था तो वो उसके पीछे निहत्था कैसे पड़े ? हथियारबंद देवरे से वो निहत्था कैसे मुकाबला कर सकता था !


बहरहाल उसकी इस समस्या का हल भी ऐंजो ही सुझा सकता था ।


फिलहाल इन्तजार । इन्तजार ।


पिछले रविवार को आधी रात के बाद ही वो घर लौट पाया था ।


सोमवार को जब उसकी ऐंजो से मुलाकात हुई थी तो उसे मालूम हुआ था कि फिगारो आइलैंड पर बीच पर पड़ी फरताद की लाश तक पुलिस के पहुंचने से पहले ही उसके प्राण पखरू उड़ चुके थे। पुलिस के वहां पहुंचने से पहने ही वो मर चुका था । इस बात ने जैक रिकार्डो को बहुत उत्साहित किया था और उस सोमवार को ही ऐंजो के माध्यम से जीतसिंह के पास पैगाम भिजवाया था कि वो अपनी पुरानी स्कीम पर अभी भी अमल कर सकते थे। यानी कि बुलबुल ब्रांडो के मेंशन की वाल सेफ पर अभी भी हाथ साफ किया जा सकता था । जवाब में जीतसिंह ने यही राय दी थी कि कम-से-कम एक हफ्ता उस बाबत खामोश रहना जरूरी था क्योंकि उस दौरान ये बात सामने आ सकती थी कि पुलिस ने फरताद के कत्ल के केस में कितनी तरक्की की थी या वो भी पुलिस के अनसुलझे केसों में दफन हो जाने वाला था । उसकी अक्ल तब भी यही कहती थी कि एक बार बिगड़ गए काम में दोबारा हाथ डालना मूर्खता थी लेकिन उसकी मजबूरी और वक्त की कमी उसे वो मूर्खता करने के निए प्रेरित करने लगी थी। फरताद का बिना जुबान खोले, पुलिस के हाथों में पड़ने से पहले ही मर चुका होना भी उसे उस डकैती में शरीक होने के लिये दोबारा हामी भरने के लिये उकसा रहा था ।


लेकिन गुरुवार के स्थानीय अखबार में एक ऐसी सनसनीखेज खबर छपी जिसे पढ़कर जीतसिंह सौ बार अपने बनाने वाले का शुक्रगुजार हुआ जिसने कि उसकी रक्षा की थी ।


हुआ ये था कि जैक रिकार्डो की कोई और तिजोरीतोड़ टकरा गया था जो कि उस काम को अंजाम देने के लिए तुरंत तैयार हो गया था जिसकी बाबत हां या न में जवाब देने के लिए जीतसिंह ने एक हफ्ते की मोहलत मांगी थी। दूसरी नाजायज दिलेरी उसने ये दिखाई थी कि मूलरूप में जो काम उसे और ऐंजो को मिलाकर छ: जनों ने करना था उसको वो मोरानो और नये तिजोरी तोड़ के साथ अंजाम देने के लिए निकल पड़ा था। और भी बड़ी हिमाकत उसने ये की कि उसने ब्रांडो की एस्टेट के वाचमैन को ही किसी गिनती में माना, केयरटेकर और उसके नौजवान लड़के रोमियो को उसने कतई नजर-अन्दाज कर दिया । नतीजतन बुधवार रात को रोमियो ने तब तीनों को रायफल से शूट करके मार गिराया था जबकि अभी वो पहली मंजिल के उस मास्टर बैडरूम में पहुंचे ही थे जहां कि ब्रांडो की वाल सेफ थी । यानी कि नये तिजोरीतोड़ को अपने जौहर दिखाने का अभी मौका भी नहीं मिला था कि वो रिकार्डो और मोरानो के साथ सेफ के पहलू में मरा पड़ा था ।


ओल्ड गोवा की बैंक डकैती में जो एक आदमी पुलिस ने गिरफ्तार किया था उसको नये तिजोरीतोड़ की लाश दिखाई गई थी तो उसने उसकी शिनाख्त इमरान मिर्ची नाम के अपने उस तीसरे साथी के तौर पर की थी जिसने कि ओल्ड गोवा बाले बैंक की सेफ खोली थी। यानी कि गोवा की कर्मठ और जागरुक पुलिस ने बैंक डकैती के केस को मुकम्मल तौर पर हल कर लिया था ।


परसों से उसे जब भी ये ख्याल आता था कि ब्रांडो की एस्टेट में इमरान मिर्ची नामक तिजोरीतोड़ की जगह वो मरा पड़ा हो सकता था, उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ जाती थी ।


तभी बादलों ने एक गंभीर गर्जन किया और फिर खामोशी से पानी बरसने लगा । नतीजतन सड़क पर जो थोड़ी बहुत आवाजाही अभी थी, वो भी खत्म हो गई ।


अब बारिश बद होने तक उसका दुकान पर रुकना लाजमी हो गया, भले ही बारिश आठ बजे के बाद, कहीं बाद, रूकती ।


पन्दरह मिनट खामोशी से कटे ।


तभी एकाएक सड़क पर करीब आती एक गाड़ी की हैडलाइट्स चमकीं । गाड़ी और करीब पहुंची तो उसने देखा कि वो एक स्याह काले रंग की एम्बैसेडर थी, उसने एक उड़ती सी निगाह उस पर डाल कर निगाह फिरा ली । लेकिन फिर उसने अनुभव किया कि गाड़ी ऐन उसकी दुकान के आगे आकर रुक गई थी । उसकी निगाह फिर गाड़ी पर टिक गई । ।


गाड़ी के पिछले दो दरवाजे एक साथ खुले और दो आदमी उसमें से बाहर निकले । फिर जैसे भीगने से बचने की नीयत से वो लपककर दुकान में घुस आए।"


जीतसिंह ते प्रश्नसूचक निगाहों से उनकी तरफ देखा ।


“तुम्हारी दुकान है ये ?" - एक बड़े दबंग स्वर में बोला ।


"नहीं।" - जीतसिंह सकपकाया सा बोला - "क्यों ?"


"तुम कौन हो ?"


"मुलाजिम हूं।"


"मालिक कहां है ?"


"छुट्टी करके घर गया ।"


"यहां बद्रीनाथ किसका नाम है ? "


"मेरा ।"


"बढ़िया । हमें तुम्हीं से काम है। अपने कील-कांटे और औजार संभालो और हमारे साथ चलो ।”


"कहां ?"


"जहां ले जाया जाए।"


"क्यों ?"


"मालूम पड़ जाएगा। जल्दी हिलो । जल्दी वाला काम है । बहुत जल्दी वाला काम है ।"


"लेकिन पता तो लगे क्या काम है ?"


"रास्ते में मालूम पड़ जाएगा । चलो ।”


"लेकिन..."


दूसरे के चेहरे पा एकाएक बड़े हिसक भाव आए, उसने कोट की जेब से एक रिवॉल्वर निकाली और उसकी नाल को जीतसिंह के माथे के साथ सटा दिया ।


"क्या !" -वो सांप की तरह फुंफकारा ।


जीतसिंह बौखलाया । उसने व्याकुल भाव से सुनसान सड़क पर निगाह डाली । आसपास कहीं कोई नहीं था । और गोली चलने की आवाज बारिश के शोर में गुम होकर रह सकती थी ।


"मैं.... मैं" - वो अपने होंठों पर जबान फेरता हुआ बोला - "चलता हूं।"


" औजार संभाल ।" - पहला बोला ।


जीतसिंह ने झुककर काउंटर के नीचे से एक कैनवस का बैग निकाल लिया ।


"जल्दी !" - रिवॉल्वर वाला उसे नाल से टहोकता, बाहर की ओर धकेलता बोला- "जल्दी ।"


"दुकान बन्द तो कर लूं ।" - जीतसिंह बोला ।


"कोई जरूरत नहीं । हिल के दे।"


भारी कदमों से वो दुकान से बाहर निकला । कार के पिछले दोनों दरवाजे तब भी खुले थे, रिवॉल्वर वाले ने उसे एक खुले दरदाजे की तरफ धकेला । जीतसिंह आगे बढ़ा । वो कार के दरवाजे के करीब पहुंचकर भीतर दाखिल होने लगा तो कैनवस का भारी बैग उसके हाथ से छूटकर नीचे जा गिरा।


"सारी ।" - वो होंठों में बुदबुदाया ।


"इडियट !" - रिवॉल्वर वाला घुड़ककर बोला - "उठा ।"


जीतसिंह नीचे झुका । बैग उठाकर सीधा होने की जगह उस ने बैग को जोर से ऊपर को उछाला । बैग रिवॉल्वर वाले के हाथ से टकराया, रिवॉल्वर उसके हाथ से छिटककर हवा में उछली तो जीतसिंह ने जुस्त लगाकर उसे हवा में ही लपक लिया । रिवॉल्वर के पकड़ में आते ही उसने उसका घोड़ा खींच दिया । एक फायर हुआ । गोली- अब भूतपूर्व - रिवॉल्वर वाले के कान को हवा देती हुई गुजरी ।


"क... क्या ?" - वो हकलाया- "क्या मागता है ?"


"तुम क्या मांगते हो, हरामजादो !" - जीतसिंह कहरभरे स्वर में बोला ।


"हम तेरे को हमारे साथ चलना मांगते हैं। वो क्या है कि..."


"दफा हो जाओ।"


"वो क्या है कि..."


"दफा हो जाओ।"


“भीड़ू तू समझता नहीं है । वो क्या है कि...”


जीतसिंह ने एक फायर और किया ।


दोनों छलांग मारकर दोनों तरफ से एम्बैसेडर में घुस गए । फिर पलक झपकते ही एम्बैसेडर बारिश से नहाई सुनसान

सड़क पर दौड़ चली ।


जीतसिंह ने अपना बैग उठाया और वापिस दुकान में आ गया ।


वो लोग उसे अपने कील-कांटे और औजार साथ लेकर चलने को बोल रहे थे उससे इतना तो वो समझ ही गया था कि वो उससे कोई ताला-वाला खुलवाना चाहते थे लेकिन उसके लिए वो धांधली और दादागिरी का तरीका क्यों अख्तियार करने लगे थे, ये उसकी समझ से बाहर था।


अब उसके सामने सवाल था कि क्या वो वापिस लौट सकते थे ?


फिर जोर-जबरदस्ती आजमाने ।


नहीं - उसकी अकल ने जवाब दिया- उसके पास रिवॉल्वर होते वो ऐसा नहीं कर सकते थे ।


उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके कश लगाता बारिश बंद होने की प्रतीक्षा करने लगा ।


बारिश अब मूसलाधार होने लगी थी ।


दस मिनट यूं ही गुजरे ।


फिर एकाएक तूफानी रफ्तार से चलती हुई एक मर्सिडीज कार उसकी दुकान के सामने आकर रुकी। कार रुकते ही पिछला दरवाजा खोलने के लिये वर्दीधारी शोफर बाहर निकला लेकिन उसका मालिक पहले ही पिछला दरवाजा खोलकर कार से बाहर कदम रख चुका था ।


जीतसिंह ने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा, अनायास ही उसका हाथ काउंटर के नीचे रखी रिवॉल्वर पर सरक गया ।


मर्सिडीज वाला एक कोई पैंतालीस साल का लम्बा-चौड़ा आदमी था, उसके चेहरे पर फ्रैंचकट दाढी थी और वो एक सूरत से ही कीमती लगने वाला काला सूट और सफेद कमीज पर बो टाई लगाए था । वो लपककर दुकान में दाखिल हुआ ।


ड्राइवर वापिस अपनी सीट पर जा बैठा ।


"बद्रीनाथ ?" - वो बोला ।


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।


"मुझे अफसोस है कि मेरे आदमी तुम्हारे साथ बद्तमीजी से पेश आए । उन्होंने तुम्हारे साथ जो बदसलूकी की, उसकी मैं माफी मांगता हूं ।”


"तुम... आप... कौन हैं ?"


"मेरा नाम मार्सेलो है । मैं स्थानीय डबल बुल कैसीनो का मालिक हूं। मुझे तुम्हारी फौरन, फौरन से पेश्तर जरूरत है । मेरे आदमियों की नालायकी से बहुत बेशकीमती वक्त पहले ही बर्बाद हो चुका है इसलिए, प्लीज, एक सैकंड भी और जाया किए बिना, मेरे साथ चलो।"


"लेकिन माजरा क्या है ?"


“रास्ते में बताऊंगा । मेरा एतबार करो । ये एक परेशानहाल बाप की तुम्हारे से फरियाद है ।"


उसके स्वर में ऐसी गिड़गिड़ाहट थी कि जीतसिंह पिघले बिना न रह सका ।


"कुछ... कुछ खोलना है ?" - वो नम्र स्वर में बोला ।


"हां। कैसीनो का वॉल्ट जिसे, पुझे पता लगा है कि, तुम ही खोल सकते हो ।”


"क्यों ?"


“बताऊंगा । रास्ते में बताऊंगा । यहां से चलो । प्लीज । मैं तुम्हें तुम्हारी खिदमत की मुंहमांगी उजरत दूंगा ।"


" मुंहमांगी उजरत ।" - जीतसिंह आशापूर्ण स्वर में बोला। 


"हां"


"आप मुकर तो नहीं जाएंगे ?"


"हरगिज नहीं ! आई स्वियर बाई सैंट जीसस ।"


"चलिए।"


जीतसिंह ने अपना औजारों का बैग उठाया और उसके साथ हो लिया । मुंहमांगी उजरत मिलने का ख्याल उस पर इस कदर हावी हो गया था कि इस बार उसे खुद ही ख्याल नहीं आया था कि उसने दुकान को बंद करना था ।


वो मार्सेलो के साथ कार में सवार हुआ । कार तत्काल सड़क पर दौड़ चली ।


जीतसिंह ने पीछे झांककर देखा तो उसे एक काली एम्बैसेडर अपने पीछे दिखाई दी । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से मार्सेलो की तरफ देखा ।


"वही हैं।" - मार्सेलो बोला- "लेकिन अब उन्हें अक्ल आ गई है । अब वो तुम्हारे साथ बेअदबी नहीं कर सकते । खासतौर से जबकि मैं तुम्हारे साथ हूं।"


"ओह !"


"टेलीफोन पर बहुत फटकार लगाई थी मैंने उन्हें । हर जगह दादागिरी कहीं चलती है ! हर जगह धौंस से कहीं काम होता है ! खासतौर से जबकि गरज भी अपनी हो । कमीनों ने कितना कीमती टाइम जाया कर दिया । मेरी बेटी को गया तो सबसे पहले मैं उन्हीं की खबर लूंगा।" कुछ हो


" आपकी बेटी ?"


“दस साल की है । सोफिया नाम है । वॉल्ट का दरवाजा खुला था । हंसी-खेल में उसमें घुस गई और दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया । वॉल्ट की चाबियां उसके हाथ में थीं जो कि साथ भीतर बंद हो गई ।


***