शुक्रवार : दोपहरबाद

अगले दिन सुबह के अखबार में गुलशन को दोनों हत्याओं के बारे में कोई विशेष बात नहीं मिली। पुलिस ने उस बारे में कोई खास तरक्की की हो, ऐसा कम से कम अखबार से नहीं मालूम होता था।
दोपहरबाद वह चौक में गया और अखबार का सांध्य संस्करण खरीदकर लाया।
उसने खिड़की के पास एक कुर्सी घसीट ली और अखबार लेकर उस पर बैठ गया। खिड़की से धूप भीतर आ रही थी जो कि उसे उस वक्त बहुत अच्छी लग रही थी।
उसने देखा अखबार में एक ऐसी बात छपी थी जिसे पढ़कर उसे बड़ी राहत महसूस हुई।
मोहिनी के कत्ल के सिलसिले में पुलिस ने सूरज को नहीं, दारा को हिरासत में लिया था।
और दारा अभी भी हिरासत में था।
एक बार अखबार में वह खबर छपी देखने की देर थी कि वह कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गया कि मोहिनी का कत्ल दारा ने ही किया था।
अब उसे इस बात पर अफसोस होने लगा कि वह और जगदीप नाहक सूरज पर शक करते रहे थे। उसका तो तब शायद मोहिनी से कोई रिश्‍ता ही नहीं रहा था। पुलिस ने सूरज से पूछताछ की थी लेकिन, यह भी अखबार में छपा था कि, उसे हिरासत में नहीं लिया गया था। इसका साफ मतलब यही था कि पुलिस ने रूटीन के तौर पर उसे इसलिए तलब कर लिया था क्योंकि कभी मोहिनी से उसकी वाकफियत थी।
लेकिन वह था कहां?
धूप को कुछ ज्यादा ही तीखी पाकर उसने धूप से परे हटने के स्थान पर अपना कोट उतारकर कुर्सी की पीठ पर टांग दिया।
उसका जी चाहा कि वह कूचा मीर आशिक जाए और मालूम करे कि सूरज कहीं वहीं पर तो नहीं था।
लेकिन वहां जाना उसे मुनासिब न लगा।
दारा के आदमी सूरज के घर की निगरानी करते हो सकते थे और वह खामखाह उनकी निगाहों में आ सकता था।
तभी कोट कुर्सी की पीठ से सरककर नीचे फर्श पर जा गिरा।
“लाओ, तुम्हारा कोट अलमारी में टांग दूं।”—चन्द्रा बोली।
“नहीं, नहीं।”—गुलशन झपटकर कोट उठाता बोला—“कोई जरूरत नहीं।”
उसने कोट वापिस कुर्सी की पीठ पर टांग लिया।
बात मामूली थी लेकिन चन्द्रा का माथा ठनके बिना न रह सका।
गुलशन को चीजें इधर उधर फेंकने की आदत थी। वह घर आकर कपड़े बदलता था तो जूते कहीं फेंकता था, जुराबें कहीं फेंकता था, कोट कहीं होता था तो पतलून कहीं होती थी। खुद वैसी बेतरतीबी फैलाने के बाद शिकायत वह हमेशा चन्द्रा से करता था कि वह चीजों को ठीक से उठाकर भी नहीं रख सकती थी।
उसके कोट में ऐसी क्या चीज थी जो वह आज यूं लसूड़े की तरह उससे चिपका हुआ था?
मन ही मन हैरान होती चन्द्रा रसोई में घुस गई।
कोई पौने घण्टे बाद काफी सारे काम करके जब वह रसोई से बाहर निकली तो उसने गुलशन को कुर्सी पर ही सोया पड़ा पाया। अखबार उसकी गोद में से उड़कर उससे दूर जा पड़ा था और उसका कोट कुर्सी की पीठ पर से सरककर फिर फर्श पर गिरा पड़ा था। उसकी नाक में से सीटी जैसी आवाज निकल रही थी और वह गहरी नींद सोया पड़ा मालूम होता था।
चन्द्रा हिचकिचाती हुई उसके समीप पहुंची।
डरते-डरते उसने कोट को फर्श पर से उठाया।
क्या वह उसकी जेबें टटोले?
अगर बीच में ही गुलशन की नींद खुल गई और उसने चंद्रा को कोट की जेबें टटोलते देख लिया तो वह उस पर हाथ उठाए बिना नहीं रहने वाला था।
एकबारगी तो उसका जी चाहा कि वह कोट को वापिस फर्श पर डाल दे लेकिन उसकी स्वभावसुलभ उत्सुकता ने उसे ऐसा न करने दिया।
बड़े आतंकित भाव से जल्दी जल्दी उसने कोट की जेबें टटोलनी आरम्भ कीं।
कोट की बायीं ओर की भीतरी जेब में एक शनील की थैली मौजूद थी। बहुत हिम्मत करके उसने थैली को जेब से बाहर खींचा और उसे उंगलियों से टटोला।
भीतर कोई कंकडों की तरह खड़कती चीज थी।
उसने कोट को अपनी बांह पर डाल लिया और थैली का मुंह खोलकर भीतर झांका।
थैली के भीतर झिलमिल-झिलमिल हो रही थी।
सांस रोके उसने थैली को अपने बायें हाथ की हथेली पर उलटा।
उसकी हथेली पर विभिन्न आकार के बेशुमार हीरे मोती जगमगाने लगे।
चन्द्रा के छक्के छूट गए।
उसकी आतंकित निगाह अभी भी सोये पड़े गुलशन के चेहरे पर पड़ी। ऐसे में अगर वह जाग गया तो वह जरूर उसे जान से ही मार डालेगा।
उसने तमाम जवाहरात वापिस थैली में डाल दिए।
एक हीरा उसके हाथ से फिसलकर नीचे फर्श पर गिरा। एक हल्की सी टन्न की आवाज हुई लेकिन चन्द्रा को वह आवाज यूं लगी जैसे बम फटा हो। उसने जल्दी में हीरा फर्श पर से उठा कर थैली में डाला, थैली का मुंह बन्द किया, उसे वापिस कोट की भीतरी बायीं जेब में डाला और कोट को पूर्ववत् कुर्सी के पास फर्श पर फेंक दिया।
वह किचन में आ गई। उसने सिंक के नल से ढेर सारा पानी पिया और एक स्टूल पर बैठ गई। वह अपनी धौंकनी की तरह चलती सांस पर काबू पाने की कोशिश करने लगी।
उसका दिल गवाही दे रहा था कि शनील की उस थैली में लाखों रुपये का माल था।
लेकिन इतना माल गुलशन के पास आया कहां से?
नौकरी छूटने के बाद से क्या वह किसी चोरी या स्मगलिंग जैसे धन्धे में पड़ गया था?
क्या चक्कर था?
तभी एकाएक उसे याद आया कि सोमवार की रात को गुलशन घर नहीं आया था। सोमवार शाम का गया हुआ वह मंगलवार सुबह घर लौटा था।
और मंगलवार शाम के अखबार में सोमवार रात को हुई आसिफ अली रोड की एक धनाड्य महिला की हत्या की खबर छपी थी जिसके फ्लैट में से उसके कीमती रत्नजड़ित जेवर भी चुराए गए थे।
उसके शरीर ने एक जोर की झुरझुरी ली।
क्या उस औरत का खून उसके पति ने किया था?
क्या उसका पति चोर और खूनी था?
अब एकाएक उसे अपने पति से डर लगने लगा। जैसी उसकी उस वक्त हालत थी, उससे वह बहुत कुछ भांप सकता था। एक बार उसे यह मालूम हो जाने पर कि वह उसकी जेबें टटोल चुकी थी, उसकी खैर नहीं थी।
उसने थोड़ी देर के लिए घर से निकल जाने का फैसला किया।
अब वह अपने पति के सामने तभी पड़ेगी जब वह पूरी तरह से अपने आप पर काबू पा चुकी होगी। उस वक्त वह अक्सर सब्जी खरीदने के लिए घर से निकलती थी। गुलशन जागने पर आज भी उसे घर पर न पाता तो समझ जाता कि वह सब्जी लेने गई थी।
उसने टोकरी उठाई और घर से निकल पड़ी।
वह चौक में पहुंची।
वास्तव में वह वक्त उसकी और श्रीकान्त की एक संक्षिप्त सी मुलाकात का होता था। उस संक्षिप्त मुलाकात में ही वे आगे का कोई प्रोग्राम निर्धारित करते थे।
श्रीकान्त उसे वहीं खड़ी मिला जहां हमेशा मिलता था।
“शुक्र है अकेली आई हो।”—श्रीकान्त तनिक व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला—“शुक्र है आज साथ पहरेदार नहीं है।”
“मैं सब्जी खरीदने आई हूं।”—वह बोली—“अगर वह सब्जी खरीदने मेरा साथ आ सकता हो तो वह खुद ही मुझे सब्जी न ला दे।”
“छोड़ो, अब बोलो, क्या प्रोग्राम है?”
“अभी कोई प्रोग्राम मुमकिन नहीं। अभी वो घर पर है।”
“ओह!”
“लेकिन आजकल वह शाम को घर से जाता जरूर है और लौटता भी बड़ी देर से है।”
“चन्द्रा, आज शाम को अगर तुम घर से निकल सको तो आज मैं तुम्हें अपने घर ले जा सकता हूं।”
“अपने घर?”
“हां! मेरे घर वाले सब एक शादी में जा रहे हैं जहां से वे आधी रात से पहले नहीं लौटने वाले। चन्द्रा, ऐसा मौका फिर दोबारा हाथ नहीं आएगा।”
“अगर किसी ने देख लिया तो...”
“जब घर में कोई होगा ही नहीं तो देखेगा कौन?”
“अगर किसी ने मुझे तुम्हारे घर में घुसते देख लिया तो?”
“कोई नहीं देखेगा। अभी और थोड़ी देर बाद अन्धेरा हो जाएगा। आजकल हमारे अड़ोस पड़ोस वाले अन्धेरा होते ही घरों में घुस जाते हैं।”
“लेकिन...”
“लेकिन वेकिन छोड़ो।”—श्रीकान्त तनिक बेसब्रेपन से बोला—“अगर तुम सचमुच मुझसे प्यार करती हो तो आज मेरा कहना मानो। याद है मंगलवार रात को तुमने क्या कहा था? तुमने कहा था कि तुम हर तरह से मेरी बनना तो चाहती थीं लेकिन कोई मौका तो लगता! अब आज मौका लग रहा है तो तुम बात को टालने की कोशिश कर रही हो।”
“यह बात नहीं है।”
“तो फिर और क्या बात है?”
वह श्रीकान्त को जवाहरात के बारे में बताना चाहती थी और ऐसा सड़क पर खड़े होकर करना उसे जंच नहीं रहा था।
तो क्या वह श्रीकान्त के घर जाना कबूल कर ले?
हर्ज क्या था?
उसके मानसपटल पर अपने और श्रीकान्त के बड़े अश्‍लील दृश्‍य उभरे।
ऐसी तनहाई में उससे मिलकर श्रीकान्त अपनी मनमानी किए बिना नहीं मानने वाला था।
उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गई।
“क्या सोच रही हो?”—श्रीकान्त बोला—“जवाब क्यों नहीं देती हो?”
“अगर वह घर से न गया तो?”—वह बोली।
“कमाल है! खुद ही कहती हो रोज जाता है, खुद ही कहती हो न गया तो।”
“रोज जाता है लेकिन आज न गया तो?”
“न गया तो न सही। लेकिन अगर चला गया तब तो आ जाओगी?”
वह फिर हिचकिचाई।
“फिर वही बात!”—श्रीकान्त आहत भाव से बोला—“लगता है तुम्हें मुझसे कतई कोई प्यार नहीं है।”
“ऐसा मत कहो, श्रीकान्त।”
“क्यों न कहूं? तुम तो...”
“ठीक है। अगर वह चला गया तो मैं आ जाऊंगी।”
“यह हुई न बात!”—श्रीकान्त हर्षित स्वर में बोला—“जी चाहता है यही तुम्हें बांहों में भरकर तुम्हारा मुंह चूम लूं।”
“खबरदार!”
“ठीक है। ठीक है। अन्धेरा होने के बाद से मैं यहीं तुम्हारा इन्तजार करूंगा।”
चन्द्रा ने सहमति में सिर हिला दिया।
श्रीकान्त वहां से हट गया।
चन्द्रा ने सब्जी खरीदी और घर वापिस लौटी।
गुलशन को उसने शीशे के सामने खड़े होकर बालों में कंघी फिराते पाया। कोट उसने पहन लिया हुआ था।
“जा रहे हो?”—चन्द्रा ने पूछा।
“हां।”—गुलशन ने बिना उसकी तरफ निगाह उठाए जवाब दिया।
“वापिस कब लौटोगे?”
“पता नहीं।”
“आकर खाना तो खाओगे न?”
“तुम बना कर रख देना। खाना होगा तो खा लूंगा।”
उसका वह जवाब ही इस बात का सबूत था कि उसका घर जल्दी लौट आने का कोई इरादा नहीं था।
वह तनिक आश्‍वस्त हुई।
गुलशन बिना बीवी से कोई बात किए घर से निकल पड़ा।
चन्द्रा रसोई में घुस गई।
हीरे जवाहरात की शक्ल में अपने पति की जेब में पड़ी शनील की थैली में गिरफ्तार विपुल धनराशि के बड़े सुन्दर सपने देखती वह खाना पकाने में जुट गई।
उस रोज श्रीकान्त के घर चन्द्रा ने उसके सामने सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। श्रीकान्त की मन की मुराद तो पूरी हो गई लेकिन ऐसा करने के लिए उसको चन्द्रा को घर की तनहाई में दबोच लेने के बाद भी जो पापड़ बेलने पड़े, जो सेल्समैनशिप दिखानी पड़ी, उसे उसी का दिल जानता था। जन्म जन्मान्तर तक साथ देने का वादा उसे पता नहीं कितनी बार दोहराना पड़ा। यह बात उसे उसके दिमाग में हथौड़े की तरह ठोक कर भरनी पड़ी कि जो ‘बेपनाह मुहब्बत’ वह उससे करता था, वह पति नाम का कोई जीव कभी कर ही नहीं सकता था।
एक बार वर्जित फल खा लेने के बाद चन्द्रा की भी शर्म झिझक खत्म हो गई। अब उसे श्रीकान्त अपने इतना करीब लगने लगा और इतना विश्‍वसनीय लगने लगा कि उसने बेहिचक उसे गुलशन की जेब में मौजूद जवाहरात की थैली की बात कह सुनाई।
चन्द्रा से श्रीकान्त पहले ही सुन चुका था कि सोमवार रात को गुलशन घर नहीं आया था।
और सोमवार रात को ही राजेश्‍वरी देवी नामक महिला का कत्ल हुआ था और उसके फ्लैट में चोरी हुई थी।
सारा सिलसिला उसे दो जमा दो चार जैसा आसान लगा।
अब वह सोचने लगा कि वह जवाब क्या चन्द्रा भी निकाल चुकी थी?
दोनों बातों में जो रिश्‍ता है—उसने मन ही मन सोचा—अगर चन्द्रा को न ही सूझे तो अच्छा था।
लेकिन इतनी आसान बात जब उसे सूझ सकती थी तो भला चन्द्रा को क्यों न सूझती!
चन्द्रा ने वही बात अपने मुंह से कही।
उसे बड़ी मायूसी हुई।
“जरूरी नहीं।”—वह सावधानी से बोला—“कि तुम्हारे पति की जेब में आसिफ अली रोड वाली चोरी का ही माल हो।”
“वह वही माल है।”—चन्द्रा निश्‍चयात्मक स्वर में बोली—“मेरा दिल गवाही दे रहा है कि यह वही माल है। और इसी वजह से डर से मेरा दम खुश्‍क हुआ जा रहा है। मेरा पति हत्यारा है, यह सोचकर ही मुझे दहशत होती है।”
“तुम खामखाह डर रही हो। वह तुम्हारा पति है। वह तुम्हें थोड़े ही कोई नुकसान पहुंचा सकता है!”
“लेकिन उसका कोई भीषण अन्जाम तो हो सकता है! फिर मेरा क्या होगा?”
“तुम घबराओ नहीं। कुछ नहीं होगा।”
“लेकिन...”
“और फिर मैं जो हूं तुम्हारे साथ!”—श्रीकान्त उसके एक गाल पर एक चुम्बन अंकित करता हुआ बोला।
चन्द्रा तनिक आश्‍वस्त हुई।
“लेकिन मैं करूं क्या?”—कुछ क्षण बात वह बोली।
“कुछ भी नहीं। चुपचाप बैठो और मेला देखो। गुलशन तुम्हारा पति है। अगर वह अपराधी है भी तो तुम्हें यह थोड़े ही शोभा देता है कि तुम उसकी रिपोर्ट करने पुलिस के पास पहुंच जाओ। तुम कतई खामोश रहो, चन्द्रा।”
“कितने ढेर सारे जवाहरात थे!”—वह बड़े अरमान से बोली—“एक सच्चे मोतियों की पूरी लड़ी तो ऐसी थी कि मेरा जी चाह रहा था कि मैं तभी उसे गले में पहन लूं। लाखों के जवाहरात होंगे वह।”
“तुम उनका खयाल कतई मन से निकाल दो।”—श्रीकान्त तीखे स्वर में बोला—“मैं नहीं चाहता कि गुलशन के साथ तुम भी किसी मुसीबत में फंस जाओ। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा, मेरी जान?”
वह प्रेम प्रदर्शन चन्द्रा को बहुत अच्छा लगा। वह कसकर श्रीकान्त के साथ लिपट गई।
“मैं कुछ नहीं करूंगी।”—वह बोली।
“और किसी से जिक्र भी मत करना इस बात का।”
“नहीं करूंगी।”
“अब छोड़ो यह किस्सा। खामखाह वक्त बरबाद हो रहा है।”
दोनों फिर गुत्थमगुत्था होने लगे।
गुलशन और जगदीप प्लाजा के सामने मिले, जहां से हटकर वे कनाट प्लेस के सैन्ट्रल पार्क में जा बैठे।
“हफ्ता होने को आ रहा है।”—जगदीप बोला—“अभी तक तो किसी की तवज्जो हम लोगों की तरफ गई मालूम होती नहीं!”
“फिर भी अभी हमें और सावधान रहना होगा।”—गुलशन बोला—“पुलिस से भी और दारा के आदमियों से भी। खास तौर से उस जुम्मन के बच्चे से जिसने हमारी सूरतें देखी हुई हैं।”
“उससे सावधान रहना क्या मुश्‍किल है! वह तो अगर हमें ढूंढ़ रहा होगा तो जामा मस्जिद के इलाके में ही ढूंढ़ रहा होगा और वहां अब हम कदम तक नहीं रखते।”
“ठीक।”
“सूरज कहां होगा?”
“क्या पता! वैसे वह अच्छा ही कर रहा है जो हमारे पास नहीं फटक रहा।”
“तुमने गलत सोचा था कि वह पुलिस की हिरासत में था। आज शाम के अखबार में...”
“हां। मैंने पढ़ा है।”
“कल पिक्चर कैसे पहुंच गए?”
“यूं ही।”
“तुम्हारे साथ तुम्हारी बीवी थी न?”
“और कौन होगी?”
“गुलशन”—जगदीप हिचकिचाता हुआ बोला—“एक बात है। समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हें कहूं या न कहूं।”
“क्या बात है?”—गुलशन उत्सुक भाव से बोला।
“तुम मेरे दोस्त हो। इसलिए बात को तुमसे छुपाकर रखने को भी जी नहीं मान रहा।”
“पहेलियां बुझा रहो हो, यार। कल मेरे सिनेमा जाने का ताल्लुक रखती कोई बात है क्या?”
“है तो ऐसी ही बात।”
“कोई चन्द्रा की बात तो नहीं?”
“चन्द्रा की ही बात है।”
“तो बता भी चुको।”
“यार, तुम खफा तो नहीं हो जाओगे?”
“ओफ्फोह! तुम तो पहेलियां बुझा रहे हो।”
“तुम... तुम कल पिक्चर से जल्दी उठकर चले गए थे न?”
“हां। मेरा मन नहीं लगा था पिक्चर में। तुम अपनी बात कहो।”
“तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद ही इण्टरवल हो गया था तो तुम्हारी बीवी ने उठकर बाल्कनी में सब तरफ निगाह दौड़ाई थी और फिर मेरे पीछे कहीं किसी के लिए हाथ हिलाया था और वापिस अपनी सीट पर बैठ गई थी।”
“फिर?”—गुलशन बड़े बेसब्रेपन से बोला।
“फिर एक युवक पीछे से आया और बत्तियां गुल होने के जरा बाद तुम्हारी खाली की हुई सीट पर चन्द्रा के बगल में बैठ गया। मुझे ऐसा भी लगा था जैसे वे दोनों युवक के वहां पहुंचते ही खसुर-पुसर करने लगे थे।”
“तुम्हारे खयाल से उसी युवक को इशारा करके चन्द्रा ने अपने पास बुलाया था?”
“मुझे नहीं पता लेकिन उस इशारे के बाद पहुंचा उसके पास वही युवक था।”
“फिर भी तुम्हारा खयाल क्या है?”
“मेरे खयाल से”—जगदीप हिचकिचाया—“चन्द्रा ने उसी युवक को हाथ हिलाकर बुलाया था। पिक्चर खत्म होने के बाद भी वे दोनों हाल से इकट्ठे ही विदा हुए थे।”
“देखने में कैसा था वो?”
“सूट-बूटधारी खूबसूरत युवक था। कद दरम्याना था, बाल झबराले थे, दुबला नहीं था लेकिन मोटा भी नहीं था, दाढ़ी-मूंछ साफ थीं...”
“हूं।”—गुलशन एकाएक बेहद गम्भीर हो गया—“तो वह खरगोश मार्का लौंडा इत्तफाकिया ही मुझे दो बार अपने आसपास नहीं दिखाई दिया था!”
“तुमने भी देखा था उसे?”
“हाल में नहीं देखा था लेकिन सिनेमा के रास्ते में और सिनेमा के बाहर दो बार देखा था। मैंने तो उसे कोई राहगीर समझा था लेकिन वह तो पट्ठा मेरी बीवी का यार मालूम होता है।”
वैसे यह उसके लिए संसार का आठवां आश्‍चर्य था कि उसकी गुड़िया जैसी बीवी यार पालने जैसा हौसला कर सकती थी, वह यारबाश किस्म की औरत हो सकती थी।
“तुम जानते हो उस लौंडे को?”
“जान जाऊंगा।”—गुलशन विषभरे स्वर में बोला—“आखिर साला रहता तो हमारे ही इलाके में कहीं होगा!”
“मैं तो तुम्हें बात बताते डर रहा था लेकिन इतनी बड़ी बात सुनकर तुमने कोई खास ताव नहीं खाया, उस्ताद।”
“हमारे दूसरे बखेड़ों की वजह से आजकल ताव खाने का माहौल नहीं है। कोई और दिन होता तो मैंने अभी तक घर जाकर अपनी बीवी की चमड़ी उधेड़ दी होती। लेकिन इस वक्त बीवी की बेवफाई से ज्यादा विकट समस्याओं से दो-चार होना वक्त की जरूरत बना हुआ है।”
“यानी कि इस मामले में खामोश रहोगे?”
“खामोश तो रहूंगा लेकिन हाथ-पर-हाथ धरकर बैठा नहीं रहूंगा। बात की तह तक तो मैं जरूर पहुंचूंगा। उस लौंडे का भी पता मैं जरूर लगाऊंगा। इस काम के लिए मैं अपनी बीवी की निगरानी करूंगा और उसे उस लौंडे के साथ रंगे-हाथों पकड़ने की कोशिश करूंगा।”
“उसके बाद क्या करोगे?”
“यह अभी कहना मुहाल है।”—गुलशन दांत किटकिटाता हुआ बोला—“यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा मैं क्या करूंगा लेकिन अगर उनकी आशनाई हर हद लांघ चुकी है तो फिर जो कुछ मैं करूंगा, बहुत बुरा करूंगा।”
“गुलशन के वर्तमान मूड को देखते हुए जगदीप ने खामोश रहना ही मुनासिब समझा।
श्रीकान्त चान्दनी चौक की एक केमिस्ट शॉप पर सेल्समैन की नौकरी करता था। अगले रोज शॉप पर पहुंचने के कोई आधे घण्टे बाद ही वह वहां से निकला और मोती सिनेमा के कम्पाउण्ड में पहुंचा। वहां लगे पब्लिक टेलीफोन से उसने 100 नंबर पर टेलीफोन किया।
“पुलिस कन्ट्रोल रूम।”—दूसरी ओर से तुरन्त उतर मिला।
श्रीकान्त ने जल्दी से कॉयन बॉक्स में सिक्का डाला और बोला—“क्या आप बता सकते हैं कि सोमवार रात को आसिफ अली रोड पर जो चोरी और कत्ल की घटना हुई थी, उसकी तफ्तीश का इन्चार्ज कौन है?”
“आप कौन बोल रहे हैं?”
“यह मैं इन्चार्ज को ही बताऊंगा।”
“आप क्या कहना चाहते हैं इन्चार्ज से?”
“कोई ऐसी बात जो कत्ल की तफ्तीश में बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।”
“कौन-सी बात?”
“बार-बार एक ही सवाल करने का कोई फायदा नहीं। मैंने जो बताना है, सही आदमी को बताना है।”
“होल्ड कीजिए।”
“ठीक है।”
श्रीकान्त रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा।
“हल्लो।”—थोड़ी देर बाद उसके कान में फिर आवाज पड़ी।
“हां।”—वह बोला।
“आप दरियागंज पुलिस स्टेशन जाकर इंस्पेक्टर चतुर्वेदी से बात कर सकते हैं।”
“राजेश्‍वरी देवी के कत्ल और उसके फ्लैट पर हुई चोरी की तफ्तीश वे कर रहे हैं?”
“हां।”
“शुक्रिया।”
श्रीकान्त ने लाइन काट दी।
उसने दरियागंज पुलिस स्टेशन जाने का कोई उपक्रम न किया।
उसने डायरेक्ट्री इन्कवायरी का नम्बर डायल करके दरियागंज पुलिस स्टेशन का नम्बर मालूम किया। फिर उस नम्बर पर फोन करके उसने इंस्पेक्टर चतुर्वेदी से बात करने की इच्छा व्यक्त की।
“आप कौन बोल रहे हैं?”—वहां से भी पूछा गया।
“मैं वह शख्स बोल रहा हूं”—श्रीकान्त बड़े धीरज के साथ बोला—“जो राजेश्‍वरी देवी के कत्ल के बारे में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी रखता है।”
“कैसी जानकारी?”
“यह मैं इंस्पेक्टर चतुर्वेदी को ही बताऊंगा और अगर मुझे लटकाने की कोशिश करोगे तो मैं लाइन काट दूंगा।”
“होल्ड करो।”
एक मिनट बाद इंस्पेक्टर चतुर्वेदी लाइन पर आया।
“मैं इंस्पेक्टर चतुर्वेदी बोल रहा हूं।”—श्रीकान्त के कान में एक अधिकारपूर्ण आवाज पड़ी।
“इंस्पेक्टर साहब”—श्रीकान्त बोला—“मुझे कुछ चोरी के हीरे-जवाहरात का सुराग मिला है। मुझे स्पष्ट संकेत मिले हैं कि वे जवाहरात वही हैं जो आसिफ अली रोड पर हुए राजेश्‍वरी देवी के कत्ल के बाद उसके फ्लैट से चुराये गए थे।”
“कहां हैं वे जवाहरात?”
“वे जवाहरात एक आदमी के पास हैं।”
“उसका नाम-पता बोलो।”
“ऐसे नहीं, साहब। पहले यह बतायें कि उन जवाहरात की बरामदी में मदद करने के बदले में मुझे क्या मिलेगा?”
“तुम्हें क्या मिलेगा!”
“जी हां। मुझे भी तो कोई ईनाम-इकराम मिलना चाहिए!”
“उन जवाहरात की बरामदी पर कोई ईनाम नहीं है।”
“पुलिस की तरफ से नहीं होगा लेकिन होगा जरूर।”
“और कहां से होगा?”
“राजेश्‍वरी देवी इतनी रईस औरत थी। यह नहीं हो सकता कि उसके इतने कीमती जेवरात इंश्‍योर्ड न हों। अगर वे इंश्‍योर्ड थे तो इंश्‍योरेन्स कम्पनी माल की कीमत का कम-से-कम नहीं तो दस प्रतिशत तो खुशी से ईनाम में दे देगी।”
“तुम इंश्‍योरेन्स कम्पनी से ईनाम हासिल करने की फिराक में हो?”
“और क्या मैं वालंटियर हूं जो इतनी महत्वपूर्ण जानकारी किसी को फोकट में दूंगा!”
“हर नेक शहरी का फर्ज बनता है कि वह अपराध की रोकथाम और उसकी तफ्तीश में पुलिस की मदद करे।”
“मैं उतना नेक शहरी नहीं। और फिर मैं कोई नाजायज या गैरकानूनी बात नहीं कह रहा। इंश्‍योरेन्स कम्पनी से ईनाम हासिल करने का मुझे हक पहुंचता है।”
“ठीक है। तुम यहां आ जाओ। हम तुम्हें इंश्‍योरेंस कम्पनी वालों से मिलवा देंगे।”
“जी नहीं। आप मुझे उस इंश्‍योरेन्स कम्पनी का नाम बतायें जिसके पास राजेश्‍वरी देवी के जेवरात इंश्‍योर्ड थे।”
“पहले तुम अपना नाम तो बताअो।”
“अपना नाम बताना मैं जरूरी नहीं समझता।”
“तुमने जवाहरात अपनी आंखों से देखे हैं या तुम्हें सिर्फ खबर है कि वे किसी के पास हैं?”
“मैंने अपनी आंखों से देखे हैं।”—श्रीकान्त ने साफ झूठ बोला।
“वे जेवरों की सैटिंग में हैं या खुले?”
“खुले।”
“कैसे हैं वो?”
“कैसे क्या मतलब?”
“मेरा मतलब है वे हीरे हैं या मोती हैं या...”
“हीरे-पन्ने, पुखराज, नीलम, मानक, मोंगा, मोती सब कुछ है उन जवाहरात में।”
“मोती भी खुले हैं?”
“नहीं। वे एक लड़ी की सूरत में हैं।”
“सिर्फ एक लड़ी?”
“हां।”
“उनमें कोई एक बहुत बड़ा हीरा भी था?”
“मैंने ध्यान नहीं दिया था। शायद रहा हो।”
“वह हीरा इतना बड़ा है कि ध्यान दिए बिना भी उसकी तरफ ध्यान जाए बिना नहीं रह सकता।”
“मेरा ध्यान नहीं गया था।”
“यही इस बात का सबूत है कि बड़ा हीरा, जो कि फेथ डायमंड के नाम ले जाना जाता है, उन जवाहरात में नहीं था।”
“तो नहीं होगा।”
“तुम यह कैसे कह सकते हो कि वे जवाहत चोरी के हैं, कि वे उस आदमी की अपनी मिल्कियत नहीं जिसके पास कि तुमने उन्हें देखा है।”
“ऐसा मैं उस आदमी का औकात की वजह से कह सकता हूं। आज की तारीख में एक चांदी का छल्ला खरीदने की हैसियत नहीं है उसकी।”
“लेकिन तुम यह दावा कैसे कर सकते हो कि वे आसिफ अली रोड वाले केस से ताल्लुक रखते जवाहरात हैं?”
एकाएक श्रीकान्त को लगा कि इंस्पेक्टर खामखाह उसे बातों में फंसाए रखने की कोशिश कर रहा था। पुलिस वाले दूसरे फोन से एक्सचेंज में रिंग करके मालूम कर सकते थे कि पुलिस स्टेशन के चतुर्वेदी वाले फोन पर जो काल लगी हुई थी, वह कहां से की गई थी।
यानी कि उसको पकड़ने के लिए पुलिस किसी भी क्षण वहां पहुंच सकती थी।
“मुझे बातों में मत उलझाइए, इंस्पेक्टर साहब।”—वह जल्दी से बोला—“मुझे राजेश्‍वरी देवी की इंश्‍योरेन्स कम्पनी का पता बताइए नहीं तो मैं फोन बन्द करता हूं।”
“राजेश्‍वरी देवी के जेवरात”—उसके कान में आवाज पड़ी—“न्यू इण्डिया इंश्‍योरेन्स कम्पनी, जनपथ के पास इंश्‍योर्ड थे।”
“शुक्रिया।”—श्रीकान्त बोला। उसने फौरन रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया।
वह कम्पाउण्ड से बाहर निकल आया।
वह डाकखाने पहुंचा।
वहां उसने डायरेक्टरी में न्यू इण्डिया इंश्‍योरेन्स कम्पनी, जनपथ का नम्बर देखा।
फिर वहां के पब्लिक टेलीफोन से उसने उस नम्बर पर टेलीफोन किया। ऑपरेटर ने उत्तर दिया तो उसने मैनेजर से बात करने की इच्छा व्यक्त की।
ऑपरेटर ने उसे मैनेजर की सेक्रेट्री से मिला दिया।
बड़ी कठिनाई से वह सेकेट्री को समझा पाया कि उसका मैनेजर से ही बात करना जरूरी था और वह उनकी कम्पनी के भले की बात थी।
मैनेजर लाइन पर आया।
श्रीकांत ने सारी दास्तान उसे भी सुनाई कि वह राजेश्‍वरी देवी के फ्लैट से चोरी गए जवाहरात की बरामदी में उनकी मदद कर सकता था।
“इस सेवा के बदले में आपकी कम्पनी मुझे क्या ईनाम देगी?”—फिर उसने पूछा।
“कम्पनी के नियमों के मुताबिक आपको बरामद माल की कीमत का दस प्रतिशत ईनाम में मिल सकता है।”—मैनेजर बोला।
“यह बात आप मुझे अपनी कम्पनी के लेटर हैड पर अपने हस्ताक्षरों के साथ लिख कर दे सकते हैं?”
“हां, हां। क्यों नहीं?”
“फिर ठीक है।”
“तो आप आ रहे हैं?”
“अभी नहीं। मैं दोपहरबाद आऊंगा। आप बरायमेहरबानी ऐसा इन्तजाम करके रखिएगा कि मेरे आप तक पहुंचने में कोई अड़ंगा न हो।”
“कोई अड़ंगा नहीं होगा।”
“शुक्रिया।”
“अगर आप मुझे अपना नाम पता बता दें तो मैं एक एग्रीमेंट की सूरत में आपकी चिट्ठी आपके लिए तैयार रखूंगा।”
श्रीकांत ने उसे अपना नाम पता बता दिया।
फिर उसने सम्बन्धविच्छेद किया और वापिस अपनी केमिस्ट शॉप पर आ गया।
डेढ़ बजे तक वह वहां बहुत वयस्त रहा।
डेढ़ से तीन बजे तक शॉप लंच के लिए बन्द रहती थी।
शॉप के शीशे के दरवाजे पर ‘क्लोज फॉर लंच’ का बोर्ड टंगते ही वह सड़क पर आ गया।
लाजपतराय मार्केट के सामने से वह एक फटफटे पर सवार हुआ और कनाट प्लेस पहुंचा।
जनपथ पर न्यू इण्डिया इन्श्‍योरेन्स कम्पनी का ऑफिस तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई।
वह रिसैप्शन पर पहुंचा।
“मेरा नाम श्रीकांत है।”—वह बोला—“मैंने मैनेजर साहब से मिलना है।”
रिसैप्शनिस्ट मुस्कराई। उसने मेज पर रखी घण्टी को तीन बार बजाया।
मुख्यद्वार के पास एक स्टूल पर बैठा एक चपरासी फौरन उठा लेकिन रिसैप्शन की तरफ बढ़ने के स्थान पर वह दरवाजा खोल कर इमारत से बाहर निकल गया।
श्रीकान्त को वह बात बड़ी अजीब लगी।
“मैंने”—वह तनिक बेचैनी से बोला—“मैनेजर साहब से...”
“अभी मिलवाते हैं, साहब।”—रिसैप्शनिस्ट मधुर स्वर में बोली।
श्रीकान्त बेचैनी से पहलू बदलता रिसैप्शन काउन्टर के सामने खड़ा रहा।
तभी दरवाजे में से एक सूटधारी व्यक्ति भीतर दाखिल हुआ। वह लम्बे डग भरता हुआ सीधा श्रीकांत के सामने पहुंचा।
“मिस्टर श्रीकांत?”—वह बोला।
“हां।”—श्रीकांत घबरा कर बोला।
“मेरा नाम पुलिस इन्स्पेक्टर चतुर्वेदी है। सुबह हमारी फोन पर बात हुई थी।”
एकाएक श्रीकांत की टांगें कांपने लगीं और गला सूखने लगा। उसका दिल हथौड़े की तरह उसकी पसलियों से टकराने लगा।
“आओ।”—इन्स्पेक्टर उसकी बांह थामता बोला—“मैं ले चलूं तुम्हें मैनेजर के पास।”
“ल... लेकिन”—श्रीकान्त फंसे कण्ठ से बोला—“लेकिन, साहब...”
“घबराओ नहीं।”—इन्स्पेक्टर आश्‍वासनपूर्ण स्वर में बोला—“जिस काम के लिए तुम यहां आए हो, वह हो जाएगा।”
सहमा सा श्रीकांत उसके साथ हो लिया।
इन्स्पेक्टर उसे विशाल वातानुकूलित कमरे में ले आया। वहां मेज के पीछे एक सफेद बालों वाला व्यक्ति बैठा था। उसके सामने बिछी कुर्सियों में से एक पर एक वर्दीधारी पुलिस अधिकारी बैठा था।
“ये मैनेजर साहब हैं।”—इन्स्पेक्टर सफेद बालों वाले की तरफ संकेत करता बोला—“मिस्टर स्वामीनाथन। और आप मिस्टर भजन लाल हैं, असिस्टैंट कमिश्‍नर ऑफ पुलिस।”
श्रीकान्त के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। उसे अपनी टांगें अपना वजन संभालने में असमर्थ लगने लगीं।
“बैठो।”—भजनलाल बोला।
श्रीकान्त एक कुर्सी पर ढेर हो गया।
इन्स्पेक्टर चतुर्वेदी उसकी बगल में एक अन्य कुर्सी पर बैठ गया।
मैनेजर ने एक ट्रे में से कम्पनी के लेटर हैड पर टाइप की हुई एक तहरीर निकाली और उस पर अपने हस्ताक्षर घसीट कर उसे श्रीकांत के सामने रख दिया।
“देख लो।”—वह बोला—“जो तुमने कहा था, वही लिखा है।”
श्रीकान्त ने कांपती उंगलियों से कागज उठा लिया।
“पढ़ो।”
श्रीकांत पढ़ने लगा।
“ठीक है?”
श्रीकांत ने सहमति में सिर हिलाया।
मैनेजर फिर न बोला।
“इसे अपनी जेब में रख लो।”—भजनलाल ने आदेश दिया।
बड़ी मुश्‍किल से श्रीकांत कागज को तह कर पाया। फिर उसने उसे अपनी जेब के हवाले किया।
“अब जबकि”—भजनलाल उसे घूरता हुआ बोला—“ईनाम के बारे में तुम्हारी तसल्ली हो चुकी है तो बात आगे बढ़ाई जाए?”
श्रीकांत खामोश रहा।
“वैसे ऐसा ईनाम हासिल करने की कोशिश जानलेवा भी साबित हो सकता है। जानते हो?”
श्रीकांत के मुंह से बोल न फूटा।
“कोई लाश का पता नहीं लगने देगा।”
श्रीकांत ने बेचैनी से पहलू बदला।
“उस आदमी का नाम बोलो जिसके पास जवाहरात हैं।”
“गुलशन।”—श्रीकांत बड़ी कठिनाई से कह पाया—“गुलशन कुमार।”
“कहां रहता है?”
“चांदनी महल।”
“क्या करता है?”
“पहले अमरीकी दूतावास में ड्राइवर की नौकरी करता था, अब कुछ नहीं करता।”
“चोरी का माल उसने कहां छुपाया हुआ है?”
“माल उसकी जेब में ही है। एक शनील की थैली में जिसे कि वह अपने कोट की बायीं ओर की भीतरी जेब में रखता है।”
“और वह थैली और थैली के भीतर जवाहरात तुमने अपनी आंखों से देखे हैं?”
श्रीकांत ने फिर बेचैनी से पहलू बदला।
“जवाब दो।”—भजनलाल कठोर स्वर में बोला।
श्रीकांत व्याकुल भाव से परे देखने लगा।
“यानी कि जवाहरात तुमने अपनी आंखों से नहीं देखे।”
श्रीकांत खामोश रहा।
“सर”—चतुर्वेदी बोला—“इसने यह भी कहा था कि यह राजेश्‍वरी देवी के कत्ल के बारे में कोई महत्वपूर्ण जानकारी रखता था।”
“मैं कत्ल के बारे में कुछ नहीं जानता।”—श्रीकांत बौखला कर बोला।
“तो फिर तुमने ऐसा कहा क्यों?”
“उस बात से मेरा मतलब जवाहरात की बाबत जानकारी से ही था।”
“तुम यह दावा कैसे कर सकते हो कि जो जवाहरात गुलशन नाम के उस शख्स के पास हैं, वही राजेश्‍वरी देवी के फ्लैट से चोरी गए जवाहरात हैं?”
“मेरा ऐसा खयाल है।”
“इस खयाल की कोई वजह तो होगी? कोई बुनियाद तो होगी?”
श्रीकान्त फिर खामोश हो गया।
“यूं चुप रहने से काम नहीं चलेगा, मिस्टर।”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला—“हम तुम्हारे साथ इसलिए नर्मी से पेश आ रहे हैं ताकि हमें तुम्हारा सहयोग हासिल हो। यहां हमारा शाम तक बैठे रहने का कोई इरादा नहीं है। मैनेजर साहब का टाइम बहुत कीमती है। अगर तुमने एक सवाल का जवाब देने में दस मिनट लगाने हैं तो हम तुम्हें थाने ले चलते हैं।”
“नहीं, नहीं।”—श्रीकान्त आतंकित भाव से बोला।
“तो फिर जबड़ा जरा जल्दी-जल्दी चलाओ।”
“राजेश्‍वरी देवी का कत्ल और उसके यहां चोरी का वाकया सोमवार रात को हुआ था। सोमवार सारी रात गुलशन घर नहीं आया था। सोमवार शाम को गया हुआ वह मंगलवार सुबह दस बजे घर लौटा था।”
“तुम्हें कैसे मालूम है?”
“बस, मालूम है। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, हकीकत है।”
“यह गुलशन कितनी उम्र का आदमी है?”
“होगा कोई तीसेक साल का।”
“तुम्हारा दोस्त है वो?”
“दोस्त तो नहीं है।”
“फिर तुम कैसे जानते हो उसे?”
“यूं ही जानता हूं।”
“शादीशुदा है?”
“हां।”
“बच्चे?”
“नहीं।”
“बीवी खूबसूरत है?”
“हां।”
“खूब?”
“ह-हां।”
“हूं।”—भजनलाल उसे घूरता हुआ बोला—“तो तुम बीवी के यार हो।”
श्रीकान्त का चेहरा कानों तक लाल हो गया।
“और इसीलिए तुम मियां के बारे में इतनी जानकारी रखते हो।”
श्रीकान्त खामोश रहा।
“बीवी का क्या नाम है?”
“चन्द्रा।”
“गुलशन की जेब में मौजूद जवाहरात की थैली के बारे में तुम्हें चन्द्रा ने बताया है?”
श्रीकान्त बगले झांकने लगा।
“कबूल करो”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला—“कि तुम्हें जो कुछ मालूम हुआ है, चन्द्रा से मालूम हुआ है?”
“ज-जी... जी हां। जी हां।”
“क्या जी हां?”
“गुलशन की जेब में मौजूद जवाहरात के बारे में मुझे चन्द्रा ने ही बताया था।”
“और चन्द्रा को कैसे मालूम हुआ था? उसे गुलशन ने बताया था?”
“जी नहीं।”
“तो?”
“उसने गुलशन के सोते में उसके कोट की जेबें टटोली थीं।”
“हूं। राम मिलाई जोड़ी...”
श्रीकान्त ने फिर पहलू बदला।
“यानी कि गुलशन को फंसवाकर ईनाम की रकम तुम और चन्द्रा आपस में बांटने वाले हो?”
“नहीं।”
“नहीं?”
“चन्द्रा को इस बारे में कुछ मालूम नहीं।”
“आई सी। यानी चन्द्रा ने अपने पति को धोखा दिया और अब तुम चन्द्रा को धोखा दे रहे हो!”
वह खामोश रहा।
“चन्द्रा ने तुम्हें और क्या बताया?”
“कुछ नहीं।”
“जो कुछ उसने तुम्हें बताया है, वह किसी और को भी बता सकती है?”
“नहीं। मैंने उसे खास तौर से मना किया है कि वह इस बात का जिक्र किसी से न करे।”
“और वह तुम्हारा कहना मानती है?”
जवाब फिर नदारद।
“गुलशन आजकल कतई बेकार है?”
“हां।”
“वक्तगुजारी के लिये भी कुछ नहीं करता?”
“न।”
“तो वक्त गुजारता कैसे है अपना?”
“यूं ही इधर उधर भटक कर।”
“उसका कोई खास ठिकाना?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“उसका हुलिया बयान करो।”
श्रीकान्त ने किया।
“अब तुम जा सकते हो।”
श्रीकान्त ने छुटकारे की एक मील लम्बी सांस ली। वह गेंद की तरह उछल कर खड़ा हो गया।
“लेकिन एक बात याद रखना।”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला।
श्रीकान्त सकपकाया। उसने व्याकुल भाव से भजनलाल की तरफ देखा।
“इस बारे में किसी के सामने तुमने अपनी जुबान खोली तो तुम्हारी खैर नहीं। समझ गए?”
श्रीकान्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“फूटो।”
श्रीकान्त लम्बे डग भरता वहां से बाहर निकल गया।
और आधे घण्टे बाद इन्सपेक्टर चतुर्वेदी चांदनी महल के इलाके में मौजूद था। अपने साथ जो पुलिसिए वह लाया था, उनमें से अधिकतर सादे कपड़ों में थे।
अपने अधिकतर लोगों को पीछे छोड़कर एक वर्दीधारी सब-इन्स्पेक्टर और एक हवलदार के साथ चतुर्वेदी आगे बढ़ा।
उसने गुलशन के मकान के दरवाजे पर दस्तक दी।
दरवाजा चन्द्रा ने खोला।
“गुलशन घर पर है?”—चतुर्वेदी ने पूछा।
“नहीं।”—चन्द्रा तनिक सकपकाए स्वर में बोली।
“कहां गया है?”
“आप कौन हैं?”
“पुलिस।”
पुलिस का नाम सुनकर चन्द्रा बौखलाई।
“तुम उसकी बीवी हो?”—चतुर्वेदी ने पूछा।
चन्द्रा ने सहमति में सिर हिलाया।
“हमें भीतर आने दो।”
वह सहमी-सी एक तरफ हट गई।
पुलिसिए भीतर दाखिल हुए।
वे सारे मकान में फिर गए।
गुलशन वाकई घर पर नहीं था।
एक दीवार पर एक तसवीर लगी हुई थी जो श्रीकान्त के बयान किए हुलिए के मुताबिक चतुर्वेदी को गुलशन की लगी। उसने चन्द्रा से उस तसवीर के बारे में पूछा।
तसवीर गुलशन की ही थी।
चतुर्वेदी ने वह तसवीर अपने अधिकार में कर ली।
चाहते हुए भी चन्द्रा विरोध न कर सकी।
“गुलशन कहां गया है?”—चतुर्वेदी ने अपना सवाल दोहराया।
“मुझे नहीं मालूम।”—चन्द्रा बोली।
“कितनी देर हुई है गए हुए?”
“कोई एक घण्टा हो गया है।”
“वह बताकर तो गया होगा कि कहां जा रहा था और कब तक लौटने वाला था?”
“नहीं, मुझे कुछ बताकर नहीं गए वो।”
“अमूमन इस वक्त कहां जाता है वो?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहतीं?”
“मालूम नहीं।”
“हूं।”
“आप भी तो कुछ बताइए, क्यों तलाश है आपको उनकी? क्या कर दिया है उन्होने?”
“कुछ नहीं। लेकिन एक केस के सिलसिले में हमें उसके बयान की जरूरत है।”
चन्द्रा आश्‍वस्त न हुई। जरूर वह पुलिसिया झूठ बोल रहा था। बयान लेने का सरासर बहाना था, जरूर वह गुलशन को गिरफ्तार करने वहां आया था।
“ठीक है।”—अन्त में चतुर्वेदी बोला—“हम फिर आएंगे। जब वह लौटे तो उसे घर पर रोककर रखना।”
चन्द्रा ने सहमति में सिर हिलाया।
“और उसे कहना कि डरने की कोई बात नहीं। एक केस के सिलसिले में हमने सिर्फ बयान लेना है उसका।”
चन्द्रा खामोश रही।
चतुर्वेदी दोनों पुलिसियों के साथ मकान से बाहर निकल गया।
उसने अपने आदमियों को गुलशन की तसवीर दिखाई और उन्हें उस इलाके में फैला दिया। गुलशन कहीं भी गया था, उसने कभी तो घर लौटना ही था। और लौटते ही वह गिरफ्तार किया जा सकता था।
फिर वहां का इन्तजाम सब-इन्स्पेक्टर के हवाले करके चतुर्वेदी वापिस थाने लौट गया।
उसने अपने आदमियों को चन्द्रा की भी निगरानी करने का आदेश दिया था क्योंकि वह गुलशन के बारे में जानती हो सकती थी कि वह कहां था और उसे पुलिस के आगमन के बारे में सावधान करने की कोशिश कर सकती थी।
वास्तव में पीछे घर में बैठी चन्द्रा सोच भी यही रही थी। पुलिस के आगमन ने उसे दहला दिया था और पता नहीं क्यों उसके दिल से यह पुकार उठ रही थी कि गुलशन के सिर पर मंडराते खतरे के लिए वही जिम्मेदार थी।
क्या श्रीकान्त ने जवाहरात का जिक्र आगे किसी से कर दिया था?
नहीं, नहीं। श्रीकान्त ऐसा नहीं कर सकता था। श्रीकान्त उससे प्यार करता था, वह उसके विश्‍वास की हत्या नहीं कर सकता था।
कैसे वह गुलशन को पुलिस के आगमन से आगाह करे?
गुलशन से बेवफाई करना और बात थी लेकिन वह जानते-बूझते गुलशन को किसी मुसीबत में फंसता नहीं देख सकती थी। आखिर वह उसका पति था, उसका सुहाग था और अपने सुहाग की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य था।
वह सोचने लगी कि गुलशन उस वक्त कहां हो सकता था?
फिर उसे एक जगह सूझी।
अजमेरी गेट के बाहर कमला मार्केट में एक रेस्टोरन्ट था जिसका मालिक गुलशन का दोस्त था। दिन में अगर गुलशन काफी देर तक घर से बाहर रहता था तो वह अक्सर वहीं जाता था।
उसने वहां जाने का फैसला कर लिया।
उसने कपड़े बदले, थोड़ी लीपापोती से अपना हुलिया सुधारा और घर से निकल पड़ी।
पैदल चलती वह चौक में पहुंची।
तब तक उसे अपने आसपास कोई पुलिसिया दिखाई नहीं दिया था।
वह तनिक आश्‍वस्त हुयी।
चौक से वह एक रिक्शा पर सवार हो गयी।
रिक्शा भीड़भरे बाजार से गुजरता अजमेरी गेट की दिशा में आगे बढ़ा।
उसे नहीं मालूम था कि उसके पीछे आती काले रंग की एम्बैसेडर कार पुलिस की थी और वह उसी की निगरानी के लिए रिक्शा के पीछे लगी हुई थी।
चन्द्रा की निगाह रिक्शा पर सवार होते समय उस कार पर पड़ी थी लेकिन उसे क्योंकि उसके भीतर कोई पुलिस की वर्दी पहने व्यक्ति बैठा नहीं दिखाई दिया था इसलिए उसने लगभग फौरन ही उस पर से अपनी निगाह फिरा ली थी।
अजमेरी गेट पहुंचकर चन्द्रा रिक्शा से उतर गयी।
उसने जल्दी से सड़क पार की और कमला मार्केट की तरफ बढ़ी।
गुलशन के दोस्त का रेस्टोरेन्ट मार्केट के बाहर के बरामदे में था।
रेस्टोरेन्ट में दाखिल होने से पहले उसने एक बार सड़क पर निगाह दौड़ाई तो वही काली एम्बैसेडर, जो उसने तिराहा बैरम खां पर तब खड़ी देखी की जबकि वह रिक्शा पर सवार हुई थी, उसे वहां भी दिखाई दी।
चन्द्रा का दिल धक्क से रह गया।
तब पहली बार उसे सूझा कि जरूरी नहीं था कि पुलिस वर्दी में ही हो या पुलिस वालों की कार पर पुलिस लिखा ही हो।
अपनी नादानी पर वह अपने आपको कोसने लगी।
अब अगर गुलशन भीतर था तो पुलिस को उस तक पहुंचाने के लिए सरासर वही जिम्मेदार थी।
लेकिन पुलिस वाले अभी रेस्टोरेन्ट से काफी परे थे।
अभी वह वक्त रहते गुलशन को खबरदार कर सकती थी।
रेस्टोरेन्ट का दरवाजा धकेलकर वह झपटकर भीतर घुसी।
एक तो वैसे ही भीतर नीमअन्धेरा था, ऊपर से धूप की चकाचौंध में से उसने वहां कदम रखा था। एकबारगी तो उसे भीतर कुछ भी न दिखाई दिया।
भीतर रेस्टोरेन्ट लगभग तीन चौथाई भरा हुआ था। उसके पृष्ठभाग में दो दरवाजों की बगल में एक छोटा सा काउन्टर लगा हुआ था जिसके सामने काउन्टर के पीछे बैठे आदमी से बातें करता उसे गुलशन दिखाई दिया। गुलशन की सूरत उसे दिखाई नहीं दे रही थी, उसने उसे उसके कोट से और उसके कद काठ से ही पहचाना था।
मेजों के बीच में से गुजरती वह झपटकर उसके समीप पहुंची और उसकी बांह पकड़कर उसे झिंझोड़ती हुई आतंकित भाव से बोली—“भागो! पुलिस!”
वह चिहुंककर सीधा हुआ और उसकी तरफ घूमा।
तब चन्द्रा को उसकी सूरत दिखाई दी।
वह गुलशन नहीं था।
लेकिन उस आदमी पर चन्द्रा की चेतावनी का बड़ा अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा। वह फौरन यूं दरवाजे की तरफ भागा जैसे उसने भूत देख लिया हो।
अभी वह दरवाजे से दूर ही था कि दरवाजा भड़ाक से खुला और चार सादी वर्दी वाले पुलिसियों ने भीतर कदम रखा। उन्होंने उस आदमी को दबोच लिया और उसे घसीटकर बाहर ले चले।
रेस्टोरेन्ट में बैठे सारे ग्राहकों ने बातें और भोजन करना भूलकर अपलक वह नजारा देखा था।
काउन्टर के पीछे बैठा व्यक्ति हक्का बक्का सा कभी अब बन्द हो चुके दरवाजे की तरफ और कभी चन्द्रा की तरफ देख रहा था।
चन्द्रा चेहरे पर खिसियाहट के भाव लिए जड़ सी अपनी जगह पर खड़ी रही।
तभी काउन्टर की बगल के दो दरवाजों में से एक, जिस पर कि टायलेट लिखा था, खुला और गुलशन ने रेस्टोरेन्ट में कदम रखा।
चन्द्रा की निगाह उस पर पड़ी। वह झपटकर उसके पास पहुंची।
गुलशन ने उसे देखा तो वह दरवाजे के पास ही थमककर खड़ा हो गया।
“तुम!”—वह हैरानी से बोला—“तुम यहां क्या कर रही हो?”
“यहां से चलो।”—चन्द्रा उसकी बांह थामकर हांफती हुई बोली—“फौरन। फिर बताती हूं।”
“लेकिन...”
“मैं कहती हूं चलो।”
“अच्छा।”
गुलशन ने आगे कदम बढ़ाने का उपक्रम किया।
“यहां से निकलने का कोई और रास्ता नहीं है?”—चन्द्रा ने पूछा।
“क्यों?”—गुलशन बोला—“सामने वाले रास्ते को क्या हुआ है?”
“बाहर”—वह फुसफुसाई—“पुलिस मौजूद है।”
“पुलिस!”—गुलशन के मुंह से निकला।
“वह अभी तुम्हारे धोखे में यहां से किसी और को पकड़कर ले गई है। वह आदमी कद-काठ में तुम्हारे जैसा था लेकिन शक्ल में नहीं। उन लोगों के पास तुम्हारी तसवीर है। जल्दी ही उन्हें अपनी गलती मालूम हो जाएगी और वे फिर यहां लौट आएंगे।”
“यहां क्यों?”
“क्योंकि मैं यहां हूं।”
“ओह! तो पुलिस तुम्हारे पीछे लगकर यहां तक पहुंची है?”
“क्यों बातों में वक्त बरबाद कर रहे हो?”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“भगवान के लिए यहां से तो निकलो!”
“आओ।”
गुलशन उसके साथ दूसरे दरवाजे में घुस गया। वह दरवाजा किचन का था। किचन का एक और दरवाजा पिछवाड़े में खुलता था।
दोनों उधर से बाहर निकल गए।
मार्केट का कम्पाण्ड पार करके वे परली तरफ निकल गए।
वहां एक तनहा जगह पर गुलशन ठिठका।
“पुलिस का क्या किस्सा है?”—गुलशन ने व्यग्र भाव से पूछा—“उनने पास मेरी तसवीर कहां से आई?”
“वे घर पर आए थे।”—चन्द्रा बोली—“वहीं से वे जबरन तुम्हारी वो तसवीर ले गए थे जो दीवार पर टंगी हुई थी।”
“सारी बात बताओ, क्या हुआ था?”
चन्द्रा ने पुलिस के आगमन की और खुद अपने यहां तक पहुंचने की सारी दास्तान कह सुनाई।
“पुलिसिये तुम्हारी वजह से यहां तक पहुंचे।”—गुलशन तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला।
“वे वर्दी में नहीं थे।”—चन्द्रा फरियाद-सी करती बोली—“मुझे बड़ी देर बाद सूझा कि वे पुलिसिये थे।”
“तुम यहां आयीं क्यों?”
“तुम्हें चेतावनी देने के लिए। तुम्हें यह खबर करने के लिए कि पुलिस तुम्हारी तलाश में थी।”
“तुम्हें मालूम था कि मैं यहां होऊंगा?”
“मुझे उम्मीद थी तुम्हारे यहां होने की।”
“और अब वे किसी और आदमी को मुझे समझकर यहां से ले गए हैं?”
“हां। पीठ से मैंने भी यही समझा था कि वह तुम थे। पुलिस का नाम सुनकर वह भागा भी यूं था जैसे तोप से गोला छूटा हो। उसे भागने की कोशिश करता पाकर ही तो पुलिसियों ने उसे दबोच लिया था और उसे वहां से बाहर ले गए थे वर्ना वे उससे दो-तीन सवाल ही करते तो उन्हें मालूम हो जाता कि वह तुम नहीं थे।”
“ओह!”
“अभी तक उन्हें मालूम हो चुका होगा कि वह तुम नहीं थे और वे तुम्हारी तलाश में फिर रेस्टोरेण्ट में पहुंच गए होंगे।”
“और तुम्हारी तलाश में भी।”—गुलशन वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला—“उन्होंने तुम्हें रेस्टोरेण्ट में घुसते देखा ही होगा। अब जब तुम उन्हें वहां नहीं दिखाई दोगी तो वे समझ जाएंगे कि तुम किसी और रास्ते से वहां से खिसकी हो। और तुम्हारा यूं खिसकना इस बात का सबूत होगा कि मैं वहां था। चलो यहां से। वे अभी सारा इलाका छानना शुरू कर देंगे।”
दोनों सड़क पर पहुंचे।
वहां से वे एक आटो पर बैठ गए।
गुलशन ने आटो वाले को लाल किला चलने को कहा।
“अब बेचारे रेस्टोरेण्ट वाले की भी खामखाह शामत आ जाएगी।”—गुलशन बड़े असंतोषपूर्ण स्वर में बड़बड़ाया।
चन्द्रा भयभीत-सी खामोश बैठी रही।
“पुलिस हमारे घर पहुंची कैसे?”—एकाएक गुलशन उसे घूरता हुआ बोला।
“मुझे क्या पता!”—चन्द्रा हड़बड़ाकर बोली—“मैं तो खाना बनाकर हटी थी कि वे लोग एकाएक वहां पहुंच गए थे।”
“कमाल है! ऐसा क्या जान गए हैं वो?”
“मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया।”
“तुमने कुछ नहीं बताया?”—गुलशन की तीखी निगाह फिर उसके चेहरे पर टिक गई।
“न। मैंने कतई कुछ नहीं बताया उन्हें।”
“किस बारे में?”
चन्द्रा सकपकाई। तब उसे सूझा कि उसने खामखाह जरूरत से ज्यादा मुंह फाड़ दिया था।
“किस बारे में?”—गुलशन ने अपना सवाल दोहराया।
“किसी भी बारे में।”—चन्द्रा मरे स्वर में बोली।
“हरामजादी!”—गुलशन दांत पीसता दबे स्वर में बोला ताकि आटो ड्राइवर न सुन लेता—“तूने जरूर मेरे कोट की जेबें टटोली हैं।”
“नहीं।”—चन्द्रा ने आर्तनाद किया।
“और जेब में जो कुछ देखा है, उसके बारे में जरूर तूने किसी को बताया है।”
“नहीं।”
“और मुझे यह भी मालूम है कि अपना मुंह तूने किसके सामने फाड़ा है। तूने यह बात अपने यार को बताई है।”
“मेरा यार! क्या कह रहे हो?”
“ठीक कह रहा हूं, कमीनी। वह सूटबूट वाला खरगोश जैसा लौंडा जो परसों शाम हमें सिनेमा के रास्ते में मिला था, क्या तेरा यार नहीं है? सिनेमा से मेरे उठकर चले आने के बाद क्या वह तेरे साथ आकर नहीं बैठा था?”
चन्द्रा के हाथ-पांव ठन्डे पड़ गए। उसका दिल डूबने लगा।
इसे तो सबकुछ मालूम था। कब से जानता था सबकुछ?
“तूने उस लौंडे को नहीं बताया था”—गुलशन आंखें निकाल कर बोला—“कि मेरे कोट की जेब में तूने क्या देखा था?”
“मैंने तो”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“सिर्फ उससे उसकी राय पूछी थी।”
“राय की बच्ची।”—गुलशन गुर्राया—“तेरा बाप लगता था वो जो तूने उससे उसकी राय पूछी थी?”
कोई और वक्त होता तो गुलशन ने मार-मारकर चन्द्रा की चमड़ी उधेड़ दी होती। गुस्से में वह उसकी जान भी ले लेता तो कोई बड़ी बात न होती लेकिन उस वक्त तो उस को अपनी जान के लाले पड़े दिखाई दे रहे थे। उस वक्त उसे चन्द्रा की खबर लेने की कहां फुरसत थी।
“नाम क्या है उस छोकरे का?”—गुलशन ने पूछा।
“श्रीकान्त।”—चन्द्रा ने बताया।
“कहां रहता है?”
चन्द्रा ने बताया।
“क्या करता है?”
चन्द्रा ने वह भी बताया।
“वही हरामजादा पुलिस के पास पहुंचा है। उसी ने पुलिस को सबकुछ बताया है।”
“वह ऐसा क्यों करेगा?”—चन्द्रा हिम्मत करके बोली—“उसे ऐसा करने से क्या मिलेगा?”
“ईनाम! ईनाम मिलेगा उसे। चोरी का माल पकड़वाने पर ईनाम मिलता है। समझी!”
चन्द्रा को विश्‍वास न हुआ कि श्रीकान्त ईनाम की खातिर उसके साथ वादाखिलाफी कर सकता था, यूं उसके विश्‍वास की हत्या कर सकता था।
“मैं उससे पूछूंगी।”—उसके मुंह से अपने आप ही निकल गया।
“क्या पूछेगी, कम्बख्त? किससे पूछेगी? अब क्या वो मिलेगा तुझसे? देख लेना, अब वह तेरे पास भी नहीं फटकेगा। उसने तेरे से जितना मिलना था, मिल लिया। लेकिन”—गुलशन सांप की तरह फुंफकारा—“अभी उसका मुझसे मिलना बाकी है।”
श्रीकान्त के किसी भीषण अंजाम के भय से चन्द्रा का शरीर पत्ते की तरह कांपा।
“कहीं यह तुम दोनों की मिली भगत तो नहीं?”—एकाएक गुलशन सन्दिग्ध भाव से बोला—“ईनाम की रकम के लालच में तुम दोनों कोई सांझी खिचड़ी तो नहीं पका रहे?”
“नहीं। नहीं।”—चन्द्रा कातर स्वर में बोली—“ऐसा तो मैं सपने में नहीं सोच सकती।”
गुलशन खामोश रहा।
“तुम्हारा शक बेमानी भी तो हो सकता है।”—चन्द्रा धीरे से बोली—“क्या पता श्रीकान्त ने कुछ भी न किया हो!”
“जो कुछ किया है, उसी ने किया है। नहीं किया है तो भी सामने आ जाएगा। लेकिन तू एक बात कान खोलकर सुन ले। अगर अब फिर किसी के सामने इस बारे में मुंह फाड़ा तो मैं तेरी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके चील-कौवों को खिला दूंगा। समझ गई?”
चन्द्रा ने कांपते हुए सहमति में सिर हिलाया।
तभी आटो दिल्ली गेट पहुंचा।
“यहां उतर जा।”—वह आटो वाले को रुकने का संकेत करता बोला—“और सीधी घर जा। याद रखना। दोबारा जुबान पर वो बात न आए!”
“अच्छा।”—वह व्याकुल भाव से बोली—“तुम क्या करोगे?”
“मैं अभी सोचूंगा। अब जा।”
उसे वहां रुकना बहुत खतरनाक लग रहा था। सामने दरियागंज का थाना जो था।
चन्द्रा आटो से उतर गई।
गुलशन के इशारे पर आटो आगे बढ़ा।
अपमान से जलती हुई, अंजाम से डरी हुई, विश्‍वास की हत्या से दुखी चन्द्रा भारी कदमों से चितली कबर बाजार में आगे बढ़ चली। जहां उसे इस बात से राहत महसूस हो रही थी कि गुलशन ने श्रीकान्त से आशनाई से ताल्लुक रखता कोई सवाल उससे नहीं पूछा था, वहां ऐसा कोई सवाल न पूछा जाना उसे अपनी नाकद्री भी लग रहा था—यानी कि गुलशन को कोई परवाह ही नहीं थी कि वह किसके साथ कैसा रिश्‍ता रखती थी।
परवाह गुलशन को पूरी थी। पुलिस के फेर में वह न पड़ा होता तो वह पता नहीं क्या कर डालता। लेकिन मौजूदा हालात में उस बारे में कुछ करना तो दूर, अब तो उसे यही उम्मीद नहीं थी कि उस घड़ी के बाद वह फिर कभी चन्द्रा से मिल पाएगा।
जिस राह नहीं जाना, उसका पता क्या पूछना!
वह जानता था कि रेस्टोरेन्ट में हुई घटना के बाद चन्द्रा के घर पहुंचते ही पुलिस ने उस पर चढ़ दौड़ना था लेकिन अब गुलशन को कोई परवाह नहीं थी कि चन्द्रा पुलिस को उसके बारे में क्या बताती थी। उसका जो नुकसान वह कर सकती थी, वह पहले ही कर चुकी थी। अब उसके और मुंह फाड़ने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
अपना अगला कदम वह पहले ही निर्धारित कर चुका था।
उसे फिलहाल कहीं छुप जाना था।
और छुपने के लिए उसे एक ही जगह सूझ रही थी।
जगदीप का घर।
जगदीप को उसे पनाह देनी ही होगी, चाहे इस काम के लिए उसे अपने बाप को भी राजदार क्यों न बनाना पड़े।
लाल किला उतरने के स्थान पर वह आटो वाले को दरीबे से आगे तक ले गया। वहां उसने आटो वाले को भाड़ा चुका कर विदा किया और स्वयं चारहाट की गली में घुस गया।
तब पहली बार एक बड़ा अप्रिय खयाल उसके मन में आया।
अगर ऐसा अप्रत्याशित हंगामा उसके साथ हो सकता था तो ऐसा कुछ जगदीप के साथ भी तो हो सकता था!
क्या पता वह पहले ही पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जा चुका हो और पुलिसिये उसके घर की निगरानी कर रहो हों!
लेकिन उस खयाल से जगदीप के घर की आरे बढ़ते उसके कदम न ठिठके।
आखिर कहीं तो उसने जाना ही था।
गिरफ्तारी का खतरा तो हर जगह था।
और जगहों के मुकाबले में वह खतरा वहां फिर भी कम था।
अपनी निगाह में जो वाकचातुर्य सूरज ने पुलिस के सामने दिखाया था, उससे वह बहुत खुश था। वह खुश था कि वह पुलिस को पूरी तरह विश्‍वास दिला चुका था कि मोहिनी के कत्ल या आसिफ अली रोड वाली चोरी से उसका कोई रिश्‍ता नहीं था।
लेकिन भविष्य की चिन्ता उसे अभी भी सता रही थी।
आगे क्या करेगा वह?
दिल्ली शहर में रहना भी उसे अब अच्छा नहीं लग रहा था। यहां तो पुलिस जब चाहती उसे दोबारा तलब कर सकती थी। उसके यहां न रहने पर कम-से-कम यह झंझट तो खतम हो सकता था।
एक तो वैसे ही नाकामयाबी की कालिख मुंह पर पोते वह हिसार नहीं जाना चाहता था, ऊपर से पुलिस को उसका वहां का पता मालूम था जिसकी वजह से वह जब चाहती हिसार पुलिस की सहायता से उसे वापिस दिल्ली तलब कर सकती थी।
पिछले रोज वह अखाड़े गया था। वहां बातों-बातों में उसके एक दोस्त ने उसे बताया था कि मुम्बई का एक फिल्म यूनिट शूटिंग के लिए दिल्ली आया हुआ था जिन्हें अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए कुछ स्टण्टमैनों की जरूरत थी। सौ रुपये दिहाड़ी जमा लंच का काम था और काम पसन्द किया जाने पर मुम्बई ले जाए जाने की भी सम्भावनायें थीं।
उस वक्त वह पहाड़गंज से, जहां की एक निहायत मामूली लॉज में एक गुसलखाने जितने बड़े कमरे में वह उन दिनों रह रहा था, पैदल ही बाराटूटी की तरफ जा रहा था जहां कि उसका वह पहलवान दोस्त रहता था जो कि उसे फिल्म में स्टण्टमैन का काम दिलवा सकता था।
उसे नहीं मालूम था कि उसका पीछा किया जा रहा था।
उसे नहीं मालूम था कि वह एक नहीं ,दो-दो पार्टियों की निगाहों में था।
उसके पीछे पुलिसिये भी लगे हुए थे और दारा के आदमी भी।
पुलिसिये सूरज के पीछे लगे हुए थे और पुलिसियों के पीछे दारा के आदमी लगे हुए थे। दारा के आदमियों के लिए वह काम बहुत सहूलियत का था। पुलिसिये सूरज को अपनी निगाहों से ओझल न होने देने में इस कदर लीन थे कि उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नहीं थी कि कोई उनके पीछे भी लगा हो सकता था। आखिर लगा तो चोर बदमाशों के पीछे जाता था—जैसे कि वे सूरज के पीछे लगे हुए थे—पुलिसियों के पीछे थोड़े ही लगा जाता था।
उस काम को दारा के चार आदमी कर रहे थे। उन चारों में एक बाकियों का सरगना था, जिसका नाम रईस अहमद था। रईस अहमद दारा का दायां हाथ माना जाता था। रईस अहमद को दारा के किसी अंजाम की फिक्र हो, ऐसी बात नहीं थी। उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद अगर वह जेल की सजा पा जाता था या फांसी चढ़ जाता था तो कम-से-कम वह दारा के लिए सिर धुनने वाला नहीं था क्योंकि दारा के न रहने पर दारा की जगह जिस आदमी ने लेनी थी वह रईस अहमद खुद था। वह दारा के लिए वफादार न हो, यह बात भी नहीं थी। उसको उसकी मौजूदा दुश्‍वारी से निजात दिलाने के लिए वह हरचन्द कोशिश कर सकता था, कर रहा था। यह उन लोगों के धन्धे का दस्तूर था कि जितना बड़ा गैंगस्टर होता था, उतने ही बड़े तरीके से उसका बेड़ागर्क होता था। इसीलिए दारा के अंजाम से वह फिक्रमन्द नहीं था और अपने अंजाम से वह नावाकिफ नहीं था।
दारा के लिए वह जो कुछ कर रहा था, दारा के लिए महज अपनी वफादारी की ही वजह से नहीं कर रहा था बल्कि उस धमकी की वजह से भी कर रहा था जो कि दारा ने जेल में से भिजवाई थी। उसके नाम दारा का पैगाम था कि मोहिनी के कत्ल के केस में अगर उसे सजा हुई तो वह पुलिस का ऐसा ज्ञानवर्धन करेगा कि या तो रईस अहमद उसकी बगल की कोठरी में बैठा नमाज पढ़ रहा होगा और या उसके साथ फांसी पर चढ़ रहा होगा।
सरल शब्दों में दारा का पैगाम था :
मुझे बचाओ नहीं तो अपनी खैर मनाओ।
अपनी खैर मनाने के अपने अभियान के अन्तर्गत ही वह उस वक्त अपने तीन साथियों के साथ सूरज के पीछे लगा हुआ था, हालांकि यह अभी भी उसके मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं था कि सूरज के पीछे लगने से उसे क्या हासिल होने वाला था, यूं कैसे ऐसा कोई सबूत हासिल हो सकता था जो कि दारा को बेगुनाह सिद्ध कर सकता था।
वैसे एक बात पुलिसिये भी जानते थे और दारा के आदमी भी जानते थे :
सूरज उन्हें अपने साथियों तक ले जा सकता था।
रईस अहमद सूरज के माध्यम से उनके उस दो साथियों तक पहुंचना चाहता था जिन्होंने जुम्मन की धुलाई की थी। बाकी के जवाहरात उन दोनों आदमियों के पास हो सकते थे और सूरज के पीछे लगे रहने के पीछे उनका एक उद्देश्‍य लूट का बाकी माल हथियाना था।
जिस ढंग से उन्होंने सूरज से जवाहरात में उसका हिस्सा छीना था, उससे रईस अहमद सन्तुष्ट नहीं था। अब वह महसूस कर रहा था कि मंगलवार रात को सूरज से उसका माल छीनकर भाग खड़े होने की जगह अगर उन्होंने सूरज को भी अपने कब्जे में कर लिया होता और बाद में जबरन उससे दरकार जानकारी कुबुलवाई होती तो ज्यादा तसल्लीबख्श नतीजा सामने आ सकता था। फिर वे सूरज के साथियों के साथ उस जुबान में मुखातिब हो सकते थे जिसमें वे जुम्मन से मुखातिब हुए थे।
लेकिन उस रात वक्त की कमी की वजह से भी तो वह कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम नहीं बना सका था। जुम्मन का फोन आते ही जो आदमी उसके काबू में आए थे, उन्हें साथ लेकर फौरन सूरज की मिजाजपुर्सी के लिए उसे चावड़ी की तरफ कूच कर जाना पड़ा था। वह हाथ-के-हाथ ही वहां पहुंच गया था। जरा-सी भी और देर हुई होती तो सूरत खिसक गया था वहां से।
उसी रोज, रईस अहमद को उड़ती-उड़ती यह खबर भी मिली थी कि चांदनी महल के इलाके में पुलिस का बड़ा भारी जमावड़ा लगा था और यह कि पुलिस को वहां रहने वाले गुलशन नाम के एक व्यक्ति की तलाश थी जो कि पुलिस के हाथ नहीं आया था।
गुलशन का जो हुलिया उसे बताया गया था, वह सूरज के उन दो साथियों में से एक से मिलता था जिसने मंगलवार रात को लाल किले की दीवार के साये में जुम्मन की धुनाई की थी।
अगर यह गुलशन नाम का कबूतर सूरज का जवाहरात की चोरी का साथी था तो अच्छा ही हुआ था कि वह पुलिस की पकड़ में नहीं आया था। पुलिस उसे पकड़ लेती तो उन लोगों का उस पर हाथ डालना नामुमकिन हो जाता।
अब मौजूदा हालात में रईस अहमद को और जवाहरात हाथ लगने की काफी उम्मीदें दिखाई दे रही थीं।
मोहिनी के कत्ल के बारे में रईस अहमद का जाती खयाल था कि कत्ल दारा ने ही किया था। पुलिस बिना सबूत के खामखाह लोगों को गिरफ्तार नहीं करती फिरती। अलबत्ता वह उसके लिए हैरानी की बात भी थी कि उसके उस्ताद ने खुद अपने हाथ से कत्ल किया, ऐसा कत्ल किया जिससे उसको कोई माली फायदा नहीं पहुंचा था और इतनी लापरवाही से कत्ल किया कि वह लगभग फौरन पुलिस की गिरफ्त में आ गया। ऐसी जहालत का इजहार जिन हालात में उसके उस्ताद ने किया, वे उसकी समझ से परे थे। और अगर उसने उस छोकरी का कत्ल नहीं किया था तो यह बड़े शर्म की बात थी कि दर्जनों कत्लों और सैकड़ों संगीन जुर्मों के लिए जिम्मेदार दारा एक ऐसे कत्ल के इलजाम में जहन्नुमरसीद होने वाला था जो उसे नहीं किया था।
इसीलिए दारा का यूं अंगारों पर लोटना जायज भी था।
बहरहाल दारा की गिरफ्तारी से पुलिस को तसल्ली थी कि उनका मुजरिम उनकी गिरफ्त में था।
वही बात इस बात का पर्याप्त सबूत था कि पुलिसिये मोहिनी के कत्ल के सिलसिले में सूरज के पीछे नहीं लगे हुए थे। उनकी निगाह में कत्ल का वह केस तो दारा की गिरफ्तारी के साथ हल हो चुका था। जरूर वे किसी और ही चक्कर में सूरज के पीछे लगे हुए थे।
मोहिनी के कत्ल के केस में पुलिस दारा को अपराधी मान कर चल रही थी। पुलिस जो कुछ कर रही थी, अपनी उस धारणा की पुष्टि के लिए ही कर रही थी इसलिए दारा के हक में अगर कोई बात थी तो या तो पुलिस उसे जानती नहीं थी और या जान-बूझकर उसे नजरअन्दाज कर रही थी। रईस अहमद का अपना खयाल था कि अगर इस पूर्वाग्रह की भावना को त्यागकर केस की तफ्तीश की जाती तो दारा को बेगुनाह साबित कर सकने वाले सबूत भी सामने आ सकते थे।
वह तसवीर का दूसरा रुख टटोल रहा था।
उसकी निगाह में सूरज का कत्ल में कोई हाथ हो सकता था। वह पुलिसियों की शीशे में उतारने में कामयाब हो गया और इसीलिए आजाद घूम रहा था लेकिन वह उसे बेवकूफ नहीं बना सकता था। पुलिस उसके साथ सख्ती से पेश नहीं आई थी या पुलिस की पेश नहीं चली थी लेकिन रईस अहमद सूरज जो कुछ जानता था उसके हलक में हाथ देकर निकाल सकता था।
सूरज हर क्षण पुलिसियों की निगाहों में रहता था लेकिन उस रोज उसे पुलिसियों की निगाहों के सामने से ही भगाकर ले जाने की योजना रईस अहमद ने पहले से ही तैयार की हुई थी।
उनके पीछे एक सलेटी रंग की फियेट आ रही थी जिसमें दारा के गैंग के तीन और आदमी मौजूद थे और वे भी सूरज के अपहरण के प्रोग्राम में बड़ा सक्रिय योगदान देने वाले थे।
सूरज अब बाराटूटी चौक के करीब पहुंच रहा था।
वहां भीड़ और भी ज्यादा थी इसलिए पुलिसिये उसके और ज्यादा करीब होकर चल रहे थे।
रईस अहमद ने पीछे आती फियेट को आगे निकल जाने का संकेत किया। जब फियेट आगे निकल गई तो उसने अपने साथियों को समझाया कि उन्होंने क्या करना था। उसके साथी फौरन उससे अलग हुए और आगे बढ़े। वे तीनों सूरज के पीछे लगे दोनों पुलिसियों के सामने पहुंचे और उनमें से दो एकाएक झगड़ने लगे। फौरन झगड़ा हाथापायी में बदल गया और मां-बहन की गालियों का आदान-प्रदान होने लगा। तीसरा उन्हें छुड़ाने की कोशिश करने लगा। लड़ाई होती देखकर उत्सुक राहगीर रुकने लगे। पलक झपकते वहां लोगों का जमघट लग गया जिसमें कि वे दोनों पुलिसिये भी फंस गए। एक पुलिसिये ने भीड़ से निकलने की कोशिश की तो दारा के तीसरे आदमी ने उसे वापिस भीड़ में धकेल दिया और आंखें निकालकर उस पर चिल्लाने लगा—“साले, धक्का क्यों देता है?”
दोनों पुलिसिये व्याकुल भाव से उचक-उचक कर देखने की कोशिश कर रहे थे कि सूरज आगे किधर गया था। लड़ाई करते दारा के दोनों आदमियों में से कभी एक उन पर आ गिरता था, तो कभी दूसरा। फिर सम्भलने के बहाने वे पुलिसियों को थाम लेते थे। पुलिसिये घेरे से बाहर निकलने की कोशिश करते थे तो या तो तीसरा आदमी बहाने से उन्हें रोक लेता था, या फिर भीड़ का रेला ही उन्हें वापिस धकेल देता था।
ऐसा कोहराम मचा कि रास्ता बन्द हो गया।
सूरज पीछे मचे कोहराम से बेखबर आगे बढ़ता जा रहा था।
सलेटी फियेट में मौजूद आदमी कार को एक और खड़ा करके बाहर निकल आए।
कार रईस अहमद ने सम्भाल ली।
सूरज बाराटूटी चौक से पहाड़ी धीरज की तरफ घूमा।
सड़क पर खूब भीड़ थी।
तभी कार वाले तीन आदमियों में से दो सूरज के दाएं-बाएं पहुंचे। उन्होंने दोनों तरफ से सूरज की बांहें जकड़ लीं।
“यह क्या बेहूदगी है?”—सूरज झल्लाकर बोला—“कौन हो तुम लोग?”
“पुलिस।”—एक बोला—“तुम्हें थाने तलब किया गया है। चलो, कार में बैठो।”
“कौन से थाने तलब किया गया है मुझे?”
“दरियागंज।”
“किसने तलब किया है?”
“एसएचओ ने।”
“क्यों?”
“ज्यादा बातें मत बनाओ और चुपचाप कार में बैठो।”
“तुम तो मुझे पुलिसिये नहीं लगते।”
“कहा न, बातें मत बनाओ...”
“हाथ छोड़ो नहीं तो मार-मार कर भुस भर दूंगा।”
तीसरे आदमी ने जब देखा कि सूरज न केवल कार में सवार नहीं होने वाला था बल्कि वह उसके दोनों साथियों की गिरफ्त से भी छूटने वाला था तो उसने अपनी जेब से एक ब्लेड निकाला। उस मामूली ब्लेड को चलाने में यह सिद्धहस्त था और उसके हाथों में वह एक खतरनाक हथियार का दर्जा रखता था। उसने अपने बाएं हाथ की उंगलियों में ब्लेड को इस तरह फंसाया कि जब उसने उंगलियां बन्द कीं तो ब्लेड घूंसे से बाहर निकला हुआ था। उसने सूरज के सामने आकर घूंसा उस पर चलाया। दो आदमी क्योंकि सूरज को दाएं-बाएं से पकड़े हुए थे इसलिए न तो सूरज उस प्रहार को रोक सका और न उससे बच सका। अपने बचाव के लिए वह इससे ज्यादा कुछ न कर सका कि उसने अपना सिर नीचे झुका लिया। नतीजा यह हुआ कि उसकी आंखों को निशाना बनाकर चलाया गया ब्लेड उसके माथे से टकराया। ब्लेड उसके माथे में इतना गहरा धंसा कि वह उसे अपनी खोपड़ी की हड्डी से टकराता महसूस हुआ। तुरन्त उसके माथे से खून का फव्वारा-सा छूट पड़ा। खून उसकी आंखों पर, नाक पर, गालों पर, सब जगह बहने लगा और ठोडी से नीचे टपकने लगा।
ब्लेड वाला फौरन वहां से हटा और सड़क छोड़कर डिप्टीगंज की गलियों में कहीं गायब हो गया।
उसको दाएं-बाएं से थामे दोनों आदमियों ने भी उसे छोड़ दिया और वे भीड़ में मिल गए।
सूरज का बुरा हाल था। आंखों में खून भर आने की वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। वह अपना माथा थामे हौले-हौले कराह रहा था। उसका जी चाह रहा था कि वह वहीं बैठ जाए या लेट जाए।
सूरज के चेहरे पर खून देखकर वहां भी भीड़ इकट्ठी होने लगी थी लेकिन किसी को मालूम नहीं था कि क्या हुआ था।
रईस अहमद कार से बाहर निकल आया था और लोगों को सुनाने के लिए कह रहा था—“क्या जमाना आ गया है! दिन-दहाड़े लोगों पर हमले हो रहे हैं! ऐसी सरकार किस काम की जो अपने शहरियों के जान माल की हिफाजत तक नहीं कर सकती।”
तभी रईस अहमद ने उन दोनों पुलिसियों को वहां पहुंचते देखा जो पीछे नकली लड़ाई में फंसे हुए थे और जो आखिरकार किसी तरह वहां से निकल आने में कामयाब हो गए थे। उन पर निगाह पड़ते ही वह पूर्ववत् उच्च स्वर में बोला—“भाइयो, यह बेचारा बहुत बुरी तरह से जख्मी है। वक्त रहते इसे डाक्टरी इमदाद न मिली तो यह मर जाएगा। इसे मेरी कार में बिठा दीजिए। पास ही हिन्दूराव हस्पताल है, मैं इसे वहां पहुंचा देता हूं।”
सूरज को वे शब्द अपने कानों में अमृत की तरह टपकते लगे। शुक्र था भगवान का कि शरीफ और हमदर्द लोग दुनिया से कतई खतम नहीं हो गए थे।
कुछ लोगों ने उसे सम्भाला और फिएट की पिछली सीट पर लाद दिया। अपनी उस हालत में सूरज को नहीं मालूम था कि वह उसी कार में बिठाया जा रहा था जिसमें बैठने से इनकार करने की वजह से उस पर आक्रमण हुआ था।
रईस अहमद कार में सवार हुआ।
पुलिसियों के कार के समीप पहुंच पाने से पहले ही उसने कार को वहां से भगा दिया।
पुलिसियों में से एक ने भीड़ लगाए खड़े लोगों से पूछा कि क्या मामला था।
“किसी ने एक आदमी को लूटने की कोशिश की थी। बेचारे पर चाकू या छुरे से हमला किया गया था। बदमाश हमला करते ही भाग गए थे। कोई भला आदमी घायल को अपनी कार पर हिन्दूराव हस्पताल ले गया है।”
पुलिसियों ने दूर होती फिएट की तरफ देखा।
चौराहे से कार तेलीवाड़े की तरफ बायें मुड़ने की जगह जब दायें मुड़ गई तो पुलिसियों का माथा ठनका।
जिस रास्ते पर कार घूमी थी, वह तो हिन्दूराव हस्पताल नहीं जाता था। वह रास्ता तो पहाड़गज जाता था।
क्या कार वाला उसे किसी और हस्पताल ले जा रहा था?
लेकिन नजदीकी हस्पताल तो हिन्दूराव ही था। नजदीक के हस्पताल को छोड़कर वह उसे दूर कहीं क्यों ले जा रहा था?
जरूर कुछ घोटाला था।
“जिस आदमी पर हमला किया गया था।”—उसने फिर सवाल किया—“वह देखने में कैसा था?”
कई लोगों ने उसका कद काठ और हुलिया बयान किया।
वह सरासर सूरज का हुलिया था।
“कुछ घोटाला है”—वह व्यग्र भाव से अपने साथी से बोला—“मुझे लगता है सूरज का अगवा किया गया है। पीछे जो झगड़ा हुआ था, वह भी मालूम होता है कि हमें वहां फंसाए रखने के लिए स्टेज किया गया था।”
“अब क्या किया जाए?”—दूसरा पुलिसिया घबराकर बोला।
“तुम फौरन सदर थाने पहुंचो और वहां जाकर सारा वाकया सुनाओ। उस सलेटी रंग की फिएट का नम्बर डी एस डी 4153 था, याद रखना।”
“और तुम?”
“मैं जरा यहां हमलावर के बारे में पूछताछ करता हूं और फिर वहीं आता हूं।”
सदर थाना पास ही था। उस पुलिसिये ने एक राह चलते आटो को रोका और उस पर सवार होकर थाने की तरफ बढ़ चला।
पीछे रह गया पुलिसिया भीड़ से पूछताछ करने लगा। लेकिन ज्यों ही उसने बताया कि वह पुलिसिया था, लोग वहां से खिसकने लगे। पहले जो लोग अपने अपने तरीके से वाकया बयान करने के लिए मरे जा रहे थे, तब यूं खामोश हो गये जैसे उन्हें जुबान खोलते डर लग रहा हो।
किसी ने हमलावर को नहीं देखा था।
किसी को यह नहीं मालूम था कि हमला करके वह किधर भागा था।
किसी को यह नहीं मालूम था कि वह अकेला था या उसके साथ और भी लोग थे।
कोई कार वाले का हुलिया बयान न कर सका।
हर किसी को एकाएक कोई बहुत जरूरी काम याद आ गया था।
हर किसी ने फौरन कहीं पहुंचना था।
रईस अहमद ने मोड़ काटते ही अपने उन तीनों साथियों को कार में बिठा लिया जिन्होंने कि नकली लड़ाई शुरू करके पुलिसियों को उलझाया था। उनमें से दो पीछे सूरज के साथ बैठ गए और एक आगे रईस अहमद के साथ जा बैठा।
पीछे बैठे दोनों व्यक्तियों ने अपनी अपनी जेब से अपने रूमाल निकाले, एक ने दोनों रूमालों को बांधा और उसकी पट्टी सी सूरज के माथे पर बांध दी। पट्टी इस प्रकार बांधी गई कि सूरज की आंखें भी ढक गईं। अब वह बड़ी हद कार के फर्श को देख सकता था।
उसने पट्टी जरा ऊपर सरकाने की कोशिश की तो उसे रोक दिया गया।
“मुझे दिखाई नहीं दे रहा।”—वह बोला।
“कोई बात नहीं।”—उत्तर मिला—“अभी डांस शुरू होने में देर है।”
सूरज को वह जवाब बड़ा अजीब लगा।
“तुम लोग मुझे कहां ले जा रहे हो?”—उसने पूछा।
“अभी मालूम हुआ जाता है, पहलवान।”
सूरज खामोश हो गया।
उसका दिल गवाही दे रहा था कि वह किसी भारी झमेले में फंस गया था।
थोड़ी देर बाद कार कहीं रुकी।
एक शटर उठाए जाने की खड़-खड़ की आवाज हुई।
कार फिर आगे बढ़ी।
शटर वापिस नीचे गिराए जाने की आवाज हुई।
उसे कार से बाहर निकाला गया।
एक दरवाजा खुला।
उसे दोनों तरफ से पकड़कर आगे चलाया गया।
पट्टी के नीचे से वह अपने पैर और पैरों के आसपास की जमीन देख सकता था।
सबने दरवाजा पार किया।
दरवाजा पीछे बन्द कर दिया गया।
सूरज के नथुनों से केलों और सेबों की गन्ध टकराई।
जरूर वह किसी फलों के गोदाम में था।
कार ज्यादा देर तक नहीं चली थी, इससे लगता था कि वह गोदाम पहाड़गंज में ही कहीं था।
भीतर दो तीन बत्तियां जलीं।
उसने फिर आंखों से पट्टी हटाने की कोशिश की लेकिन उसे फिर वैसा करने से रोका गया।
“पहलवान!”—रईस अहमद बोला—“हम तुमसे चन्द सवालात पूछना चाहते हैं। उनका सही सही जवाब दे दो और फिर तुम्हारी छुट्टी। फिर जाकर अपने जख्म में टांके-वांके भरवा लेना। जल्दी ठीक हो जाओगे।”
सूरज खामोश रहा।
“अब जरा आसिफ अली रोड वाली चोरी के अपने साथियों के बारे में बताओ।”
“मेरा किसी चोरी से क्या मतलब?”
“मतलब है, पहलवान, तभी तो चोरी का माल तुम्हारे पास था!”
“ओह! तो वे तुम लोग थे जिन्होंने मेरी गली में मुझ पर हमला किया था!”
“सवाल करके वक्त जाया मत करो, पहलवान। जवाब देने की तरफ तवज्जो दो। अपने साथियों के बारे में बताओ। तुम तीन थे न?”
सूरज ने उत्तर न दिया।
“एक तो गुलशन था। दूसरा कौन था, पहलवान?”
“मुझे नहीं पता”—सूरज नफरतभरे स्वर में बोला—“कि तुम क्या बक रहे हो!”
एक जोरदार घूंसा उसकी कनपटी से आकर टकराया। प्रहार इतना प्रचंड था कि सूरज को अपनी खोपड़ी में अपना दिमाग हिलता महसूस हुआ। उसके घुटने मुड़ने लगे लेकिन उसे गिरने न दिया गया। दो जनों ने उसकी बगलों में हाथ डालकर उसे धराशायी होने से रोका। जब उसके पैरों ने उसका वजन सम्भाल लिया तो उसे छोड़ दिया गया।
आवाजों से सूरज महसूस कर रहा था कि वे कई थे। उसकी आंखों पर पट्टी न बंधी होती तो अपनी उस हालत में भी वह दो चार से तो निपट ही लेता।
“अपने तीसरे साथी का नाम बोलो।”—रईस अहमद कहरभरे स्वर में बोला—“बोलो, कौन था वो?”
“दारासिंह।”—सूरज बोला।
आंखों पर पट्टी बंधी होने की वजह से उसे यह भी नहीं मालूम हो सकता था कि उस पर अगला प्रहार किधर से होने वाला था। आवाजों से ऐसा लग रहा था कि उसके चारों तरफ आदमी थे।
उस बार प्रहार पीछे से हुआ।
किसी के भारी जूते की ठोकर उसकी पीठ से टकराई। लम्बा तड़ंगा शरीर बांस की तरह लचका। एड़ी से लेकर चोटी तक उसके शरीर में पीड़ा की लहर दौड़ गई। उसके घुटने मुड़ गये।
उसे फिर बड़ी बेरहमी से उठाकर सीधा खड़ा कर दिया गया।
“जवाब दो!”
सूरज ने फिर अपनी आंखों से पट्टी नोच फेंकने की कोशिश की लेकिन उसके हाथ वापिस नीचे झटक दिए गए। सूरज ने अन्धाधुंध अपना एक हाथ अपने सामने चलाया। उसका हाथ घूंसे की शक्ल में किसी के चेहरे से टकराया। कोई जोर से कराहा।
“मारो साले को।”—फिर कोई चिल्लाया।
तुरन्त चारों तरफ से उस लात घूंसों की बरसात होने लगी।
मार से पहले उसने घुटने मुड़े, फिर सिर और कंधे झुके और फिर वह मुंह के बल फर्श पर लोट गया। तब भी लोगों के जूतों की ठोकरें उसकी खोपड़ी और पसलियों से टकराती रहीं।
उसे फिर उठा कर पैरों पर खड़ा किया गया।
वह बांस की तरह झूलता-लहराता अपने आपको धराशायी होने से रोकने की कोशिश करता रहा।
“हरामजादे!”—रईस अहमद चिल्लाया—“यहां मोहिनी नहीं है जिसका आसानी से तू गला घोंट लेगा।”
सूरज कुछ न बोला। उसे अपना सिर फटता महसूस हो रहा था और उसे यूं लग रहा था जैसे उसके सारे जिस्म में भाले भोंके जा रहे हों।
“अपनी जुबान से कबूल कर कि मोहिनी का गला तूने घोंटा था। बोल! बोल, साले!”
“तेरी मां की...”
इस बार घूंसा उसके पेट में पड़ा। उसका शरीर दोहरा हो गया। उसकी आंखों में आंसू छलक आए। किसी ने उसे बालों से पकड़ कर बड़ी बेरहमी से सीधा कर दिया।
नहीं, मैं अपनी जुबान नहीं खोलूंगा—सूरज मन ही मन दोहरा रहा था—मोहिनी को हीरे की अंगूठी दिखा कर मैं एक बार अपने साथियों के विश्‍वास की हत्या कर चुका हूं, अब मैं दोबारा ऐसा नहीं करूंगा। अपने साथियों के बारे में अपनी जुबान मैं नहीं खोलूंगा। नहीं खोलूंगा। नहीं खोलूंगा। गुलशन का इन्होंने कहीं से नाम सुन लिया है लेकिन इन्हें पक्का पता नहीं है कि गुलशन मेरे साथियों में से एक है। मैं गुलशन के बारे में चुप रहूंगा।
वे लोग मोहिनी के कत्ल के बारे में, उसके साथियों के बारे में, खास तौर से गुलशन के बारे में, उससे सवाल पूछते रहे। सवालों के साथ साथ उस पर लात घूंसों की बरसात भी होती रही लेकिन सूरज ने अपनी जुबान न खोली।
इस बार मार के आगे हथियार डालकर जब वह धराशायी हुआ तो लोगों के उठाए से भी न उठ सका। उसे उठता न पाकर वे यूं उसकी खोपड़ी पर ठोकरें मारने लगे जैसे ऐसा करने से उसका निष्क्रिय मस्तिष्क सक्रिय हो जाएगा, वह शरीर को उठ खड़ा होने का निर्देश देगा और वह फिर अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा।
लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। इस बार तो उसकी खोपड़ी पर पड़ती हर चोट उसे बेहोशी के गहरे, और गहरे गर्त में धकेलती चली गई।
“रुक जाओ।”—एकाएक रईस अहमद ने आदेश दिया—“साला कहीं मर न जाए!”
उसकी खोपड़ी पर ठोकरें पड़नी बन्द हो गईं।
“एक नम्बर का बेवकूफ है हरामजादा।”—कोई असहाय भाव से बोला—“बताओ तो! अक्ल से काम लेने वाला कोई आदमी इतनी मार खा सकता है?”
“इसके मुंह पर पानी के छींटे मारो। होश में लाओ इसे।”
उसके मुंह पर पानी के छींटे मारे जाने लगे। कोई उसका चेहरा थपथपाने लगा। कोई उसके जिस्म को हिलाने डुलाने लगा।
लेकिन सूरज होश में न आया।
उसका चेहरा बुरी तरह से सूज आया था। और मार खा-खाकर विकृत हो गया था। उसकी सांस यूं फंस फंस कर निकल रही थी जैसे वह खर्राटे भर रहा हो।
“इसे कोई दौरा-वौरा तो नहीं पड़ गया?”—उसे होश में न आता पाकर अन्त में कोई बोला।
“राधे”—रईस अहमद अपने समीप खड़े एक आदमी से बोला—“जरा देखना तो।”
सूरत से अपेक्षाकृत सयाना और पढ़ा लिखा लगने वाला राधे आगे बढ़ा। उसने घुटनों के बल झुक कर सूरज का मुआयना किया। उसने उसके माथे पर से पट्टी की सूरत में बंधे रूमालों को सरका कर उसकी आंखों में झांका।
“उस्ताद जी!”—वह तनिक आतंकित स्वर में बोला—“इसे तो ब्रेन हैमरेज हो गया है। इसकी दाई आंख देखो। कैसे खून से भरी हुई है और बाहर को उबली पड़ रही है। इसका चेहरा ही बता रहा है कि इसके सारे दाएं हिस्से को लकवा मार गया है। अब यह बोलने से तो गया। अब यह होश में आ भी जाएगा तो बोल नहीं पाएगा।”
“सालो! हरामजादो!”—गुस्से में रईस अहमद अपने आदमियों पर बरसा—“यूं अन्धाधुन्ध क्यों मारा इसे? अब यह हमारे किस काम का रहा?”
“एक ही हिस्से में तो लकवा है, उस्ताद जी।”—कोई नर्मी से बोला—“बोल नहीं सकेगा तो लिख तो सकेगा!”
“हफ्ता दस दिन से पहले यह लिख सकने वाला भी नहीं।”—राधे बोला।
“जो बोलने को तैयार नहीं।”—रईस अहमद चिल्लाया—“वह लिखने को तैयार जरूर ही होगा।”
कोई कुछ न बोला।
“और हफ्ता दस दिन हम इसे कहां छुपा कर रखेंगे? पुलिस क्या इसे तलाश नहीं कर रही होगी? जब यह पुलिस को मिलेगा नहीं तो वे समझ नहीं जाएंगे कि यह किन हाथों में पहुंचा हुआ होगा? हरामजादो! इसे कार में लादो और कहीं फेंक कर आओ।”
गोदाम का दरवाजा खोला गया।
सूरज को राधे समेत तीन आदमियों ने उठाया और उसे फिएट में लाद दिया। उन्हीं तीनों में से एक आगे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। राधे और उसका साथी पीछे सूरज के साथ सवार हो गए। एक और आदमी ने आगे बढ़ कर शटर उठाया।
कार बाहर निकल आई।
वह कार चोरी की थी इसलिए सूरज को कार समेत कहीं भी छोड़ा जा सकता था।
“कहां चलूं?”—ड्राईवर बोला।
“शंकर रोड चलो।”—राधे बोला।
कार आगे बढ़ चली।
“गुरु।”—राधे का साथी बोला—“अब तो पहलवान हमसे जुदा हो रहा है।”
“तो?”—राधे बोला।
“इसकी अंटी में कोई नावां पत्ता भी तो होगा?”
“होगा तो?”
“यह क्या करेगा उसका? कहो तो जेबें टटोलूं?”
“क्या हर्ज है?”
उस आदमी ने बड़े ललचाए भाव से सूरज की जेबें टटोलीं।
अगले ही क्षण सूरज की जेब में मौजूद सौ सौ के नोटों की गड्डी उसके हाथ में थी।
“कितने हैं?”—राधे उत्सुक भाव में बोला।
उसके साथी ने जल्दी जल्दी नोट गिने और फिर धीरे से बोला—“छत्तीस।”
“आधे मुझे दो।”
“गुरु।”—ड्राइवर रियरव्यू मिरर में उन्हें देखता चेतावनीभरे स्वर में बोला—“अपुन को भूल रहे हो।”
“दो तिहाई मुझे दो।”—राधे बोला।
उसके साथी ने चुपचाप चौबीस नोट उसे थमा दिए।
राधे ने बारह नोट अपनी जेब में रख लिए और बारह आगे ड्राइवर की तरफ बढ़ा दिए।
कार अब मन्दिर मार्ग पर दौड़ रही थी।
“गुरु”—एकाएक राधे का साथी बोला—“अब यह खर्राटे नहीं भर रहा। न ही यह नाक से सीटी बजा रहा है।”
राधे के नेत्र सिकुड़ गए। उसने झुककर सूरज की नब्ज टटोली।
नब्ज गायब थी।
उसने उसके दिल की धड़कन टटोली।
दिल की धड़कन गायब थी।
“यह तो मर गया”—राधे के मुंह से निकला।
“मर गया?”—उसका साथी घबरा कर बोला—“हम लाश के साथ कार में पकड़े गए तो चौदह-चौदह साल के लिए नप जाएंगे।”
ड्राइवर ने कार एक तरफ करके रोक दी।
“क्या कर रहे हो?”—राधे बोला।
“ठीक कर रहा हूं, गुरु।”—ड्राइवर बोला—“इसे कार में छोड़ कर फूटने की तैयारी करो।”
ड्राइवर जल्दी-जल्दी स्टियरिंग पर और उन तमाम जगहों पर, जिन्हें कि उसने छुआ था, रूमाल फेरने लगा।
राधे और उसके साथी ने भी उसका अनुसरण किया।
फिर तीनों कार से बाहर निकले और चुपचाप सड़क के साथ-साथ बने बहुमंजिला सरकारी क्वार्टरों के बीच की एक राहदारी में घुस गए।
कार से निकलकर क्वार्टरों की तरफ जाते उन तीन आदमियों की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। लोगबाग यूं कार पर क्वार्टरों में रहते रिश्‍तेदारों से मिलने-जुलने आते ही रहते थे।
फियेट कार मन्दिर मार्ग पुलिस स्टेशन से मुश्‍किल से एक फर्लांग दूर खड़ी थी, सारे शहर में उस नम्बर की फियेट की तलाश हो रही थी लेकिन फिर भी रात को सड़कों पर पुलिस की गश्‍त शुरू हो जाने के बाद कहीं जाकर किसी की तवज्जो उसकी तरफ गई। कार के समीप से गुजरते पुलिसियों में से एक ने इत्तफाकिया कार के भीतर झांका तो उसे भीतर पड़ी लाश दिखाई दी।
और आधे घण्टे में सूरज की लाश की बरामदी की खबर एसीपी भजनलाल और फिर उसके माध्यम से इन्स्पेक्टर चतुर्वेदी और इन्स्पेक्टर भूपसिंह तक पहुंची।
तुरन्त वे तीनों पुलिस अधिकारी मन्दिर मार्ग पुलिस स्टेशन पहुंचे।
उन्हें लाश दिखाई गई।
उन्होंने मार से विकृत हुए चेहरे पर निगाह डाली।
“वही है।”—भजनलाल बोला।
“बहुत बेरहमी से पीटा गया मालूम होता है इसे।”—इंस्पेक्टर भूपसिंह बोला।
“तुम्हारे खयाल से किसकी करतूत होगी यह?”
“दारा के आदमियों के अलावा और किसकी करतूत होगी?”—उत्तर चतुर्वेदी ने दिया—“उन्हीं हरामजादों ने दिन-दहाड़े बाराटूटी के इलाके से इसका अगवा किया था।”
“हमारे पास ऐसा कोई सबूत नहीं है”—भजनलाल बोला—“जिससे यह जाहिर हो सके कि यह काम दारा के आदमियों का था।”
“और किसका होगा, सर? उन लोगों के अलावा और किसी की इस आदमी में दिलचस्पी नहीं हो सकती। उन लोगों की निगाह में इस आदमी की वजह से उनका बॉस पुलिस के चंगुल में आया हुआ था। जरूर उन्होंने इससे मोहिनी के कत्ल का अपराध जबरदस्ती कुबुलवाने की कोशिश की होगी।”
भजनलाल खामोश रहा। अब तक वे लोग सूरज का चेहरा ही देख रहे थे, भजनलाल ने आगे बढ़कर उसके ऊपर से चादर खींच दी तो सूरज का नग्न शरीर एड़ी से चोटी तक उन लोगों के सामने आ गया। उसके बाकी के सारे जिस्म पर भी ऐसे निशान थे जो साबित करते थे कि उसकी बुरी तरह से धुनाई की गई थी।
लेकिन घने वालों से भरी उसकी छाती पर बनी आठ लम्बी लम्बी खरोंचें नयी नहीं थीं।
तीनों अधिकारी लगभग ठीक हो चुके खरोंचनुमा जख्मों का मुआयना करने लगे।
“ये खरोंचे”—भजनलाल बोला—“कम-से-कम चार-पांच दिन पुरानी हैं।”
“यानी कि”—भूपसिंह यूं बोला जैसे उस बात को कुबूल करने को उसका जी न चाह रहा हो—“इसकी छाती पर ये खरोंचे मंगलवार रात को आयी हो सकती हैं।”
“और ये मोहिनी नाम की उस लड़की की दस्तकारी हो सकती है जिसके कत्ल के इलजाम में दारा गिरफ्तार है।”
“यानी कि”—भूपसिंह भारी निराशापूर्ण स्वर में बोला—“दारा के खिलाफ केस की छुट्टी।”
“हमने बुधवार को इसके हाथों का, गर्दन का, गले का, चेहरे का मुआयना किया था लेकिन हमें इसकी छाती का मुआयना करने का भी खयाल आना चाहिए था।”
“अब हमें दारा को रिहा करना पड़ेगा।”
“अगर सूरज के कत्ल का रिश्‍ता दारा के गैंग से जोड़ सको, अगर यह साबित करके दिखा सको कि सूरज पर कातिलाना हमला दारा की शह पर हुआ था तो नहीं रिहा करना पड़ेगा। कत्ल करवाना भी उतना ही संगीन जुर्म है जितना कि कत्ल करना।”
“यह साबित करना आसान न होगा।”
“खासतौर से तब”—चतुर्वेदी बोला—“जब कि दारा अभी, इस वक्त भी हवालात में है।”
तभी कहीं टेलीफोन की घन्टी बजी।
कुछ क्षण बाद एक हवलदार दौड़ा हुआ वहां पहुंचा।
“सर”—वह भजनलाल से बोला—“हैडक्वार्टर से आपका टेलीफोन है। डिस्पैचर कह रहा है कोई बहुत जरूरी बात है।”
भजनलाल फौरन हवलदार के साथ हो लिया।