उस वक्त वातावरण में सुरमई प्रकाश फैल गया था, चिड़ियां चहचहाने लगी थीं, जब मोन्टो डिक्की स्थित थाने पहुंचा—थाने में कोई भी पुलिसमैन ड्यूटी पर तैनात नजर नहीं आया।
अतः सीधा ऑफिस में पहुंचा।
ऑफिस में सिर्फ एक पुलिसमैन था और वह भी कुर्सी पर बैठा, सामने मेज पर सिर रखे ऊंघ रहा था—मोन्टो ने उसके 'फीतो' से जाना कि थानेदार की कुर्सी पर ऊंघ रहा व्यक्ति वास्तव में हैड़ कांस्टेबल था।
मोन्टो सीधा मेज पर जा बैठा।
अपना हाथ हैड कांस्टेबल के सिर पर रखकर उसने बड़े ही प्यार से सहलाना शुरू किया तो उसने चेहरा मेज में ही छुपाए अपने हाथ से मोन्टो का हाथ हटाया।
पलभर बाद मोन्टो ने फिर वही क्रिया शुरू कर दी। इस बार हैड कांस्टेबल ने झुंझलाकर मक्खी-सी उड़ानी चाही, किंतु मोन्टो ने लपककर उसकी कलाई पकड़ ली—भद्दी-सी गाली बकते हुए हैड कांस्टेबल ने चेहरा ऊपर उठाया तो!
मेज पर एक बंदर को बैठे देखकर उछल पड़ा।
नींद काफूर।
शुरू में शायद एक-दो-पल के लिए उसे लगा कि वह कोई ख्वाब देख रहा है, क्योंकि कम-से-कम दस बार अपनी आंखों को मलकर उसने मोन्टो को देखा।
उसकी स्थिति का मजा मोन्टो मन-ही-मन ले रहा था।
सूटेड-बूटेड बंदर को देखकर हैड कांस्टेबल का दिमाग खराब हुआ जा रहा था। वह एक झटके से खड़ा होता हुआ चिल्लाया-—"अरे! कोई है यहां?"
बौखलाए हैड कांस्टेबल की दृष्टि पुनः मोन्टो पर स्थिर हो गई और उस वक्त तो उसकी खोपड़ी ही घूम गई जब मोन्टो ने उसे आंख मारी।
"अरे, अजीब बंदर है!"
मोन्टो हवा में उछला, कलाबाजियां खाता दूर पड़ी तीन में से एक कुर्सी पर जा बैठा, जेब से पव्वा निकालकर उसने दो-तीन घूंट हलक में उतारी और जेम्स बाण्ड स्टाइल में एक सिगार सुलगाया।
हैड कांस्टेबल उसे यूं देखता रहा जैसे स्वप्न देख रहा हो। मोन्टो ने जेब से डायरी और पैन निकालकर कुछ लिखा, कागज डायरी से फाड़कर उसकी तरफ बढाया और कहीं खोए-से हैड कांस्टेबल ने कागज लेकर पढ़ा—"जो मुझे 'बंदर' कहता है, मैं उसे कम-से-कम एक चांटा जरूर मारता हूं। तुम्हें सिर्फ इसलिए माफ कर दिया, क्योंकि तुम्हें यह मालूम नहीं था—बेहतर है कि आगे से मुझे मेरे नाम से पुकारना, मेरा नाम 'मोन्टो' है—दोस्त प्यार से धनुषटंकार भी कहते हैं।"
हैड कांस्टेबल के चेहरे पर ऐसे भाव उभर आए मानो दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य उसके सामने बैठा हो—मोन्टो सिगार का धुंआ उड़ाने में व्यस्त था।
एकाएक हैड कांस्टेबल पूछा—"कहां से आए हो तुम?"
"गुमटी से।" मोन्टो ने लिखकर जवाब दिया।
"क्या काम है?"
मोन्टो ने पुनः लिखा—"मुझे इस वक्त थाने के इंचार्ज से बात करनी है।"
"इस वक्त मैं ही इंचार्ज हूं।” हैड कांस्टेबल ने कहा—"जो भी शिकायत है, मुझसे करो।"
जवाब में मोन्टो ने लिखा—"राजनगर के आई.जी. इस समय छुट्टियां बिताने इस इलाके में आए हुए हैं। गुमटी नामक गांव में वे एक मुसीबत में फंस गए हैं। उनकी जान तक को खतरा है, मुझे उन्होंने ही भेजा है, अतः इंस्पेक्टर को फौरन बुलाया जाए।"
और...
इस कागज ने हैड कांस्टेबल के जेहन में तहलका-सा मचा दिया।
तीस मिनट के अंदर-अंदर वह सचमुच का थाना नजर आने लगा—ये तीस मिनट मोन्टो ने सिगार पीते गुजारे—वहां आता हुआ थाने का समूचा स्टाफ उसे हैरत और दिलचस्पी के साथ देख रहा था।
पैंतीस मिनट बाद उसने थाने के इंचार्ज आर. श्रीवास्तव को एक कागज पर लिखा—"जितनी ज्यादा-से-ज्यादा फोर्स मुहैया हो सकती है, लेकर मेरे साथ फौरन गुमटी चलो। गांव वाले आई.जी. के प्रति भ्रम का शिकार हो गए हैं—इस कदर कि आई.जी. की जान खतरे में है।"
¶¶
पहाड़ के पीछे से सूरज ने अभी झांका ही था कि ठाकुर निर्भयसिंह ने एक ऊंची जंप लगाई—हवा में कम-से-कम दो कलाबाजियां खाने के बाद वे दूध-से सफेद रंग के घोड़े की पीठ पर सवार हो गए।
दोनों पैर हवा में उछालकर घोड़ा जोरों से हिनहिनाया। ठाकुर निर्भयसिंह के पैरों में इस वक्त मोटे जूते थे, जिन्हें उन्होंने रकाब में फंसाया। उनके जिस्म पर डाकुओं वाला लिबास था।
मस्तक पर रक्त-तिलक।
आंखों में क्रूर चमक, चेहरे पर हिंसा की आग।
कोई मान नहीं सकता था कि वे वही ठाकुर निर्भयसिंह हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन पुलिस की वर्दी पहनकर गुजारा है। इस रूप में यदि उन्हें कोई देखे तो यकीन नहीं कर सकता था कि ये वही हैं—जो देखे वह सोचे कि आईoजीo ठाकुर निर्भयसिंह के मेकअप में कोई अन्य होगा।
मगर नहीं।
हकीकत ये नहीं थी।
हकीकत ये थी कि वे ठाकुर निर्भयसिंह ही थे।
विजय के पिता, उर्मिलादेवी के पति और वही ठाकुर निर्भयसिंह, जिनकी सेवाएं आज भी पुलिस की फाइलों में स्वर्ण अक्षरों में लिखी हैं।
उनके चारों ओर करीब चालीस डाकू खड़े थे।
उन्हीं के बीच खड़ी थी—फूलवती।
इस डाकू गिरोह की सरगना।
वह छरहरे किंतु ठोस बदन की एक ऐसी महिला थी, जिसके जबड़े हमेशा कसे रहते थे। आंखों से टपकती थी—समाज के प्रति नफरत।
कुछ ही देर में ठाकुर साहब ने घोड़े को काबू में कर लिया। कंधे से बंदूक उतारकर एक हवाई फायर किया, तो आवाज दूर-दूर तक पहाड़ियों में गूंज गई।
"फ...फूलो।" एकाएक ठाकुर साहब ने पुकारा।
अपने घोड़े सहित आगे बढ़कर फूलवती ने कहा—"हां, सरदार!"
"चलो!" इस हुक्म के बाद उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई तो वह ठाकुर साहब के इशारे पर दौड़ चला। उनके पीछे फूलवती का घोड़ा था।
साथ में चालीस घुडसवार, सभी सशस्त्र।
पहाड़ों के बीच बने पहेली समान भूल-भुलैया वाले जाने कितने रास्तों को रौंदता यह डाकू दल गुमटी की ओर खतरनाक आंधी के समान बढ़ रहा था।
¶¶
"भागो-भागो.....डाकू आ गए।" अचानक गांव में हल्ला मच गया।
इर व्यक्ति सिर पर पैर रखे यही चिल्लाता हुआ भागा चला जा रहा था—ऐसी भगदड़ मच गई जैसे भूकंप आने की सूचना मिली हो।
घरों के दरवाजे फटाफट बंद होने लगे।
डाकू दल के गांव में दाखिल होने से पहले सारे गांव में श्मशान जैसी खामोशी छा गई। चिड़ियां का बच्चा तक खुले मैदान में नजर नहीं आ रहा था।
यह शोर झोंपड़ी के अंदर मौजूद विजय, विकास, अशरफ, विक्रम, नाहर, आशा, उर्मिलादेवी, रैना और रघुनाथ ने भी सुना।
एक साथ सभी ने सुराखों से आंखें सटा दीं।
ठाकुर साहब से हुई बातें विजय विकास को बता चुका था, जबकि रैना, रघुनाथ और उर्मिलादेवी को कुछ नहीं बताया गया—बावजूद इसके कि होश में आने के बाद से लगातार वे पूछ रहे थे।
शीघ्र ही उन्हें घोड़ों पर सवार डाकू गांव में मंडराते नजर आए और उस वक्त तो उनके कलेजे ही दहल गए जब डाकू सरगना के रूप में ठाकुर साहब को देखा।
"हे भगवान!" उर्मिलादेवी बड़बड़ा उठीं—"ये क्या हो गया है इन्हें?"
जवाब किसी ने न दिया।
देता भी कौन?
सब स्तब्ध थे!
तभी गांव में एक महिला की आवाज गूंज उठी—"मैं जानती हूं गांव वालों कि हमारे डर से तुम घरों में छुप गए हो, मगर अपने झरोखों से हमें देख रहे होंगे—मेरे साथ ठाकुर निर्भयसिंह हैं। वही ठाकुर निर्भयसिंह जिनकी तुम लोग 'अवपूजा' करते हो—वही ठाकुर निर्भयसिंह जिनका पुतला हर साल इस गांव की चौपाल पर जलाया जाता है—इनसे बदला लेने के लिए तुम बीस साल से पागल हो, सारी रात इनकी तलाश में पहाड़ियों की खाक छानते रहे—अब आओ, बाहर निकलो—अगर हिम्मत है तो बदला लो इनसे। अरे! चूहों की तरह अपने बिल में क्यों छुप गए हो?"
वह चेतावनी सारे गांव में गूंज उठी।
कुछ देर खामोशी छाई रही।
फिर!
"मैं जानती हूं कि कोई बाहर नहीं निकलेगा—सब बुजदिल हैं—इस गांव में सब हिजड़े रहते हैं—शेरबहादुर सिंह जैसे हिजड़े—तुम लोग निर्भयसिंह से बदला लेने के लिए केवल तभी तक बहादुर बने हुए थे जब तक ठाकुर अकेला था—अब हम सबके साथ सामने आया है—जानती हूं कि गांव की किसी मां ने अपने लाल को इतना दूध नहीं पिलाया जो ठाकुर साहब के सामने आने की हिम्मत करे!"
जवाब में पुनः सन्नाटा।
विजय आदि के दिल जोर-जोर धड़क रहे थे—उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब चक्कर क्या है—उन्होंने फूलवती को ठाकुर साहब के नजदीक आते देखा।
फूलवती की बगल में छोटा-सा लाउडस्पीकर लटक रहा था। अपने हाथ में दबा माइक उसने ठाकुर साहब को दिया और फिर—
सारे गांव में ठाकुर साहब की आवाज गूंज उठी—"मैं बीस साल बाद गुमटी आया हूं गांव वालों! मुझे मालूम नहीं था—होता तो बहुत पहले ही आ गया होता—उम्मीद है कि बीस साल पूर्व मेरे द्वारा किया गया नरसंहार तुम भूले नहीं होगे—हां, इस उलझन में तुम लोग जरूर होगे कि वह सबकुछ मैंने क्यों किया—उसी शेरबहादुर और उसके समूचे परिवार को मौत के घाट क्यों उतारा जिसने सुच्चाराम का खात्मा करने में मेरी मदद की थी—इन सब बातों का जवाब मैंने बीस साल पहले नहीं दिया था, मगर आज दूंगा—उससे पहले इस गांव की चौपाल पर मैं आप लोगों को एक तमाशा दिखाना चाहता हूं—ऐसा तमाशा जो यह साबित करे कि मैं आज भी वही बीस साल पहले वाला निर्भयसिंह हूं।"
कदाचित् ठाकुर साहब सांस लेने के लिए रुके थे। हर तरफ ऐसी खामोशी छाई रही कि यदि चींटीं भी रेंगे तो आवाज साफ सुनाई दै। क्षणिक अंतराल के बाद माइक पर उनकी आवाज पुनः गूंजी—"आज मैं यहां ये सोचकर आया हूं कि उस वक्त तक किसी गांव वाले को कुछ नहीं कहूंगा जब तक कि गांव वालों की तरफ से ही मुझ पर कोई आक्रमण न हो—आज यहां, इस रूप में मेरे आने का मकसद कुछ ऐसे लोग हैं, जो सारी जिंदगी खुद को 'मेरे अपने' कहते रहे—उन्हीं का तमाशा आज मैं सारे गांव को दिखाना चाहता हूं—वे इसी गांव की एक झोंपड़ी में छुपे हैं और वह झोंपड़ी है ये—।''
कहने के साथ ही ठाकुर साहब ने जो उंगली इस झोंपड़ी की और उठाई तो विजय आदि के कलेजे उछल पड़े—जिस्मों में मौत की सिहरन दौड़ गई और अभी कोई कुछ समझ भी न पाया था कि ठाकुर साहब पुनः चीखे—"इस झोंपड़ी को चारों तरफ से घेर लो फूलो—वे लोग इसी के अंदर छुपे हैं।"
"अरे!" अशरफ उछल पड़ा—"ये तो सचमुच हमें घेरा जा रहा है विजय।"
सुराख से आंख सटाए विजय बड़बड़ाया—"लगता तो यही है प्यारे।"
"क्या करें गुरु?" विकास पलटा।
एकाएक रघुनाथ पागलों की तरह चिल्ला उठा—"ये सब क्या चक्कर है? ठाकुर साहब अपने मुंह से कह रहे हैं कि बीस साल पहले उन्होंने नरसंहार किया था—तुम बताते क्यों नहीं विजय कि रात ठाकुर साहब की तुमसे क्या बातें हुई थीं?"
"रात भी इन्होंने यही कहा था। क्या बताएं तुलाराशि—अपना तो साला दिमाग उल्ट गया है—झोंपड़ी से बाहर मिलते ही हमने इनसे पूछा कि कहां जा रहे हो—जवाब दिया कि फूलवती के पास—हमने पूछा कि फूलवती से आपका क्या मतलब? तो बोले—वह हमारी शागिर्द है—उसी वक्त इन्होंने यह भी स्वीकार किया कि बीस साल पहले खुद इन्होंने ही यहां वह सब किया था, जो गांव वाले कहते हैं—हमने यह सोचकर रोकने की कोशिश की कि शायद इनके दिमाग का कोई पुर्जा ढीला हो गया है तो हम पर गोलियां चलाने लगे—इनका मौजूदा रूप हमारे लिए भी उतना रहस्यमय है जितना तुम्हारे लिए।"
रघुनाथ, रैना और उर्मिलादेवी अवाक् रह गए।
विक्रम चीखा—"झोंपड़ी को चारों तरफ से घेरकर वे लगातार हमारी तरफ बढ़ रहे हैं विजय, क्या किया जाए?"
"अबे सब कुछ मुझसे ही पूछोगे, खुद कोई निर्णय लो।" सुराख से आंख सटाए ब्लैक ब्वॉय के कानों में लगातार विजय की यह बात गूंज रही थी कि वे संपूर्ण सीक्रेट सर्विस का रहस्य जान चुके हैं—उनके जीवित रहने का मतलब और कई कत्ल हो सकते हैं, क्योंकि कल वे यह रहस्य उर्मिलादेवी, रैना या रघुनाथ जैसे किसी व्यक्ति को भी बता सकते हैं।
उसने जबड़े भींचे।
सुराख ही के माध्यम से ब्लैक ब्वॉय ने ठाकुर साहब को अपने रिवॉल्वर के निशाने पर लिया और दृढ़ विचारों के साथ ट्रिगर दबा दिया।
मगर, दुर्भाग्यवश उसी क्षण बीच में एक घुड़सवार टपक पड़ा। गोली घोड़े के मस्तक पर लगी और वह जोर से हिनहिनाता हुआ ढलान पर फिसलता चला गया, साथ में उसका सवार भी।
यही क्षण था जब फूलवती की आवाज गूंजी—"फायर !"
'धांय-धांय-धांय !'
एक साथ अनेक गोलियां झोंपड़ी की दीवारों से टकराईं। लकड़ी की दीवारों की किरचें झोंपड़ी में छितरा-सी गईं और अंदर मौजूद विजय-विकास सहित अभी के रोंगटे खड़े हो गए, दिलों-दिमाग कांप उठे।
सबके जेहन में एक ही सवाल उभरा—क्या ठाकुर साहब सचमुच सबको मार डालना चाहते हैं? क्या हो गया है उन्हें?
जबड़े कसे ब्लैक ब्वॉय दुबारा ठाकुर साहब को निशाने पर लेने की कोशिश कर रहा था कि विजय ने कहा—"मौजूदा हालात में यह जरूरी हो गया है काले लड़के कि बापूजान के 'इस रूप' के बारे में उन्हीं से पूछा जाए—ऐसा न हो कि उनका यह रूप हमारे लिए हमेशा के लिए प्रश्नवाचक चिन्ह बना रह जाए।"
ब्लैक ब्वॉय इशारा समझ गया।
उसने पलटकर विजय की तरफ देखा। विजय बोला— "उस समय ऐसा करना मजबूरी होगी, जब वे राज की बातें किसी ऐसे व्यक्ति की मौजूदगी में कहने की कोशिश करेंगे, जिसके सामने नहीं की जानी चाहिए।"
ब्लैक ब्वॉय के जवाब देने से पहले ही वातावरण में ठाकुर साहब की आवाज गूंजी—"नन्हीं, उन्हें इतनी आसान मौत नहीं देनी है फूलो! उन्हें जिंदा गिरफ्तार करके तुम्हें हमारे हवाले करना है।"
"जो हुक्म सरदार।" यह आवाज फूलवती की थी। कुछ देर के लिए वातावरण में पुनः सन्नाटा व्याप्त हो गया।
"रात से यही रट लगाए हैं बापूजान।" विजय बड़बड़ाया—"समझ में नहीं आता कि हमें निपटने की ऐसी कौन-सी आल्हा तरकीब सोच रखी है।"
"क्या मतलब?" रैना ने पूछा।
रैना के किसी जवाब से पहले ही बाहर से गूंजती फूलवती की चेतावनी सुनाई दी—"जितने भी लोग इस झोंपड़ी के अंदर हैं, अगर वे अपनी जान की सलामती चाहते हैं तो आत्मसमर्पण की मुद्रा में बाहर निकल आएं।"
सभी एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।
जैसे पूछ रहे हों कि इन हालात में क्या किया जाए?
चेतावनी पुनः गूंजी।
विकास ने पूछा—"क्या करें गुरु?"
"आत्मसमर्पण के अलावा कोई चारा नहीं है।" विजय ने दो टूक जवाब दिया।
"जाने क्या हो गया है?" नाहर बोला—"हमने कभी सोचा भी नहीं था कि यहां पहुंचते ही खुद ठाकुर साहब दुश्मन के रूप में हमारे सामने होंगे।"
"होता वही है प्यारे विक्रमादित्य, जो राम रच राखा और फिर अगर जिंदगी में सबकुछ वैसा ही घटता रहे जिसकी हम कल्पना करते रहें तो फिर मजा ही क्या रहा?”
"तो इन हालात में तुम मजा लूटने की फिराक में हो?”
"हम बापूजान की तरह कोई डाकू-लुटेरे तो है नहीं प्यारे—जो किसी का घर या माल लूटें। हम तो...।"
"व...विजय।" उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही उर्मिलादेवी गुर्राईं।
विजय सकपका गया।
इस बार खुद ठाकुर साहब की चेतावनी गूंजी—"हम आखिरी बार कह रहे हैं—या तो तुम लोग आत्मसमर्पण कर दो अन्यथा हम इस झोंपड़ी को आग के हवाले कर देने का हुक्म जारी कर देने पर मजबूर हो जाएंगे।"
"क्या हो गया है इन्हें?" उर्मिलादेवी झुंझला-सी उठीं—"मैं देखती हूं, आखिर ये चाहते क्या हैं?"
वे दरवाजे की तरफ बढ़ीं।
ब्लैक ब्वॉय ने इस आशय से विजय की तरफ देखा कि उन्हें रोका जाए या नहीं, मगर विजय को कोई इशारा न करते देख वह चुपचाप खड़ा रहा—जबकि उर्मिलादेवी दरवाजा खोलकर हवा के झोंके की तरह बाहर निकल गईं।
¶¶
झोंपड़ी को घेरे खड़े घुड़सवार डाकुओं की हथियारों पर पकड़ उर्मिलादेवी की देखकर कुछ और सख्त हो गई—एक-एक पर फिसलती हुई उनकी दृष्टि ठाकुर साहब पर स्थिर हुई—यदि यूं कहा जाए तो गलत न होगा कि ठाकुर साहब के चेहरे पर नजर पड़ते ही उर्मिलादेवी के समूचे जिस्म में झुरझुरी दौड़ गई थी।
उनकी भाव-भंगिमा ही इतनी वीभत्स थी।
पत्थर की तरह सख्त और सुलगता चेहरा, अंगारों के समान दहक रही आंखें—माथे पर रक्त-तिलक लगाए वे सचमुच प्रतिशोध की आग में सुलगते नरपशु लग रहे थे—काफी देर से छाई खामोशी को उर्मिलादेवी ने हिम्मत करके तोड़ा। बोली—"लीजिए......आपके सामने हूं मैं—कीजिए मेरा क्या करना चाहते हैं?
"करेंगे—जरूर करेंगे।" ठीक ड्राक्युलाई अंदाज में ठाकुर साहब ने दांत पीसते हुए कहा—"जो कुछ करेंगे, वह ऐसा होगा कि अच्छे-अच्छो के कलैजे दहल जाएंगे—पनाह मांगने लगेंगे हमसे।"
"ऐसा क्या हो गया है?" उर्मिलादेवी चीख पड़ीं—"पागल तो नहीं हो गए हैं आप?"
"न...नहीं—मैं बिल्कुल ठीक हूं ठकुराइन।"
"फ...फिर?"
उर्मिलादेवी का वाक्य पूरा होने से पहले ठाकुर साहब ने ऊंची आवाज में कहा—"यदि कुछ देर और जिंदा रहना चाहते हैं तो बाकी लोग भी निकल आएं।"
इस चेतावनी के पांच मिनट बाद।
सभी उर्मिलादेवी के नजदीक आ खड़े हुए।
"राका!" फूलवती ने पुकारा।
एक डाकू के मुंह से निकला—"यस मैड़म।"
"सभी हिजड़ों की तलाशी लो।"
"जो हुक्म मैड़म!" कहने के साथ वह घोड़े से उतरा। यह महसूस करके कि 'हिजड़े' शब्द उनके लिए प्रयोग किया गया है—विकास के समूचे जिस्म में चिंगारियां-सी भर गई थीं—शायद अनजाने ही में आवेशवश वह दांत पीस उठा, मुट्ठियां स्वतः कस गईं और अभी वह कुछ निश्चय नहीं कर पाया था कि बगल में खड़े विजय ने कहा—"मुझे तुम्हारे दांतों के बजने की आवाज आ रही है दिलजले! जोश में कोई हरकत मत करना—इस वक्त हम इस कदर बुरी तरह घिरे हुए हैं कि बापूजान के इशारे मात्र में जिस्म छलनी में बदल जाएंगे।"
विकास की मुट्ठियां खुलती चली गईं।
फूलवती ने चेतावनी दी—"राका के तलाशी लेते वक्त यदि किसी ने चालाकी दिखाने की कोशिश की तो उसे वक्त से पहले ही नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा।"
सब चुप खड़े रहे।
विजय भी।
हां, ऐसे मौकों पर हमेशा चहकते रहने वाला विजय भी चुप था। दरअसल उसे डर था कहीं उसके कुछ बोलते ही ठाकुर साहब ऐसा कुछ न कह दें, जिससे उसके सीक्रेट एजेंट होने की बात रैना, रघुनाथ और उर्मिलादेवी पर खुल जाए।
तलाशी के बाद ठाकुर साहब के हुक्म पर सबके हाथ अलग-अलग रस्सियों से कसकर बांधे गए—फूलवती को उन्होंने अपने पास बुलाया, फिर माइक पर बोले—"मैं जानता हूं कि अपने-अपने घरों में छुपे तुम लोग मेरी ये आवाज सुन रहे होगे—मैं तुम सबको हुक्म देता हूं कि अपने घरों से निकलकर चौपाल पर इकट्ठे हो—यह हुक्म इस वादे के साथ है कि किसी भी गांव वाले को कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा—ये ठाकुर साहब का वचन है और इसी ठाकुर का ये वचन भी है कि जो गांव वाला चौपाल पर नहीं पहुंचेगा, वह मेरा सबसे बड़ा दुश्मन होगा—उसकी वही गत बनाऊंगा जो कभी शेरबहादुर की बनाई थी।”
बस!
इस ऐलान के बाद ठाकुर साहब ने माइक फूलवती को लौटा दिया। बोले—"अब इन सबकी रस्सियों के सिरे अलग-अलग घोड़े की जीन के साथ बांध दिए जाएं और उसकी (इशारा विजय की तरफ था) रस्सी मेरे घोड़े की जीन से बंधनी चाहिए।"
विजय शांत रहा।
जबकि अन्य सब ठाकुर साहब के खतरनाक इरादों को भांपकर चीख पड़े और उनकी चीखें सुनकर ठाकुर साहब ने अपना चेहरा आकाश की तरफ उठा दिया। नरभक्षी पिशाच की तरह ठहाका लगाकर हंस पड़े वे।
सभी सहम गए।
फिर!
उनके हुक्म पर गांव के चक्कर लगाते हुए घोड़े चौपाल की तरफ दौड़े। इन घोड़ों के साथ बंधे उनके अपने घिसटते चले जा रहे थे—सारा गांव उनकी चीखों से गूंज रहा था और गूंज रहा था ठाकुर साहब के कहकहों से।
ग्रामीण अपनी झोंपड़ियों से निकलने लगे।
¶¶
चौपाल का समां अजीब था।
विशाल चबूतरे के चारों तरफ खड़े ग्रामीण—उनमें सभी थे—स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े और युवा—सभी के चेहरे इस कदर पीले पड़े हुए थे जैसे किसी विशेष मशीन से उनके जिस्म का रक्त निचोड़ा गया हो।
चबूतरे के किनारों पर घुड़सवार डाकू खड़े थे।
चारों कोनों पर वृक्ष।
वृक्षों पर उलटे लटके थे—विजय, विकास, अशरफ, विक्रम, नाहर, ब्लैक ब्वॉय और रघुनाथ—आशा, रैना और उर्मिलादेवी को अलग-अलग वृक्षों की जड़ों से बांधा गया था।
एक तरफ घोड़े पर सवार ठाकुर साहब दीवानों के समान आकाश की ओर मुंह उठा-उठाकर हंस रहे थे—विकास के कंधे पर मौजूद जख्म घोड़े के पीछे घिसटने के कारण पुनः उधड़ गया था और उससे खून बह रहा था।
वे सभी लगातार चीख रहे थे, मगर उनकी दर्दनाक चीखों पर कोई ध्यान दिए बिना ठाकुर साहब ने ऊंची आवाज में कहा— "हमने तुमसे वादा किया था गांव वालो यह कि आज हम तुम्हें एक राज से वाकिफ कराएंगे—इस राज से कि बीस साल पहले हमने गुमटी में नरसंहार क्यों किया—क्यों शेरबहादुर के सारे परिवार को मौत के घाट उतार दिया, जिसने सुच्चाराम का खात्मा करने में हमारी मदद की थी—इस राज से वाकिफ कराने के लिए मुझे तुम लोगों को बीस साल पीछे ले जाना होगा—सुच्चाराम की मौत के साथ ही उसके ज्यादातर साथी मारे गए थे और बाकी जीवित गिरफ्तार कर लिए गए और इन जीवित गिरफ्तार किए हुए डाकुओं में एक ठाकुर रामकुमार भी था।"
¶¶
"त...तुम?” रामकुमार को देखते ही एस.पी. निर्भयसिंह उछल पड़ा—"तुम यहां—और डाकू सुच्चाराम के गिरोह में?"
"हां।" रामकुमार के होंठो पर जहर में बुझी व्यंग्यात्मक मुस्कान नाच उठी—"तुमने मुझे जरा देर से पहचाना ठाकुर निर्भयसिंह, मैं काफी पहले ही तुम्हें पहचान चुका हूं—चुप इसलिए था क्योंकि देखना चाहता था कि मुझे देखकर तुम्हें भी कुछ याद आता है या नहीं?"
"त...तुम्हें भला मैं कैसे भूल सकता हूं?" जाने किस भावना से युवा एस.पी. के जबड़े भिंच गए—"तुमने तो मेरी जिंदगी उजाड़ दी—कहां-कहां नहीं ढूंढा तुम्हें—गुलशनगढ़ (ठाकुर साहब की पैतृक स्टेट) से जाने तुम कहां गायब हो गए—आज इत्तफाक से पंद्रह साल बाद मिले हो, वह भी डाकुओं के गिरोह में—एक डाकू के रूप में—तुम यहां, इस हाल तक कैसे पहुंच गए?"
"तुम्हें मेरी नहीं, अपनी आरती की तलाश थी।" रामकुमार ने उसी व्यंग्य के साथ कहा—"उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की तलाश थी।"
"हां", एस.पी. के हलक से आह-सी निकली—"मुझे आरती की तलाश थी, इसलिए तलाश थी क्योंकि तुम मुझसे गद्दारी कर गए—मेरे और अपने बीच हुए अनुबंध को तुमने तोड़ा—मैं आरती से प्यार करता था, वह भी तन-मन से मुझे और सिर्फ मुझे चाहती थी—तुम जानते हो कि मंदिर में हम शादी भी कर चुके थे—जब उससे शादी की बात मैंने अपने पिता से की तो उन्होंने इंकार ही नहीं कर दिया, बल्कि तूफान बरपा दिया—आरती मेरे बच्चे की मां बनने वाली थी और पिता उस वक्त दूसरे हार्ट अटैक के बाद बिस्तर पर थे—मेरी जिद उनकी मौत का वायस बन सकती थी—मुझे पूरी उम्मीद थी कि बीमारी के कारण पिताजी चिड़चिड़े हो रहे हैं—स्वस्थ होने के बाद मैं उन्हें तैयार कर लूंगा, किंतु उधर आरती की हालत ऐसी थी कि वह इंतजार नहीं कर सकती थी—उसका पेट दुनिया की नजरों में खटकने लगा था—तुम मेरे दोस्त थे—हुंह—आज तुम्हें दोस्त कहने में शर्म आती है रामकुमार—मैंने दोस्ती में तुम्हें उस वक्त के सारे हालात बताए—तब तुमने कहा कि समस्या सिर्फ यही तो है न अगर कुंआरी आरती मां बन गई तो सारा 'गुलशनगढ़' उस पर थूकेगा—तुम्हीं ने कहा था कि इस बदनामी से बचाने के लिए तुम उससे बनावटी शादी कर सकते हो—सिर्फ नाम की शादी—तुमने यह भी कहा था रामकुमार कि मेरे पिता के ठीक होने तक तुम उसे मेरी अमानत समझकर रखोगे—बोलो, कहा था या नहीं?"
"कहा था।"
"फिर तुमने गद्दारी क्यों की—विश्वासघात क्यों किया?" भावावेश पर झपटकर युवा एसoपीo ने उसका गिरेबान पकड़ लिया—"मेरी आरती को लेकर कहां चले गए थे तुम—मेरी अमानत को तुमने अपनी बीवी कैसे समझ लिया—आरती की तुमसे शादी की खबर भी मेरे पिता को न बचा सकी—पंद्रह दिन के अंदर ही तीसरे दौरे ने उनकी जान ले ली—उनके बाद मुझे आरती से शादी करने से रोकने वाला कोई न था, मगर तुम...तुम मेरी जिंदगी को साथ लिए गधे के सींग की तरह गुलशनगढ़ से गायब हो गए—बोलो, बोलो रामकुमार—ऐसा तुमने क्यों किया—मैंने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा?"
"गायब होने के लिए मुझसे खुद आरती ने कहा था।"
"आरती ने?" निर्भय तड़प उठा—"झूठ—तुम सफेद झूठ बोल रहे हो रामकुमार—वह मुझे चाहती थी—सिर्फ मुझे।"
"मैंने कब कहा कि वह मुझे चाहती थी?"
"फिर...भला खुद आरती तुमसे गुलशनगढ़ छोड़ने के लिए क्यों कहने लगी?"
"उसने कहा था। हालात ही ऐसे बने कि उसे कहना पड़ा।"
"ऐसे क्या हालात थे?"
रामकुमार ने एक गहरी सांस ली और फिर कहना शुरू किया— "इसमें शक नहीं निर्भय कि मैंने शादी केवल दिखावे के लिए की थी—उस वक्त तुम्हारी अमानत में खयानत करने का कोई विचार मेरे जेहन में नहीं था—मगर कल्पना और हकीकत में बहुत फर्क होता है निर्भय!”
"क्या मतलब?"
"वह शायद आरती का बेपनाह सौंदर्य ही था जिसने उस रात मुझे इंसान से दरिंदा बना दिया—दोस्तों ने ज्यादा पिला दी थी—सोई हुई आरती के अर्धनग्न जिस्म ने मुझे हैवान बना दिया—दिमाग में जाने कहां से यह बात समा गई कि मैंने उससे शादी की है, वह मेरी पत्नी है—उस पर मेरा पूरा हक है—उसने पुरजोर विरोध किया—मेरे सामने रोई-गिड़गिड़ाई, मगर वासना का भूत इंसान को सचमुच दरिंदे से भी कहीं खतरनाक बना देता है—मैंने वह सब किया, जो नहीं करना चाहिए था, मगर ये अहसास मुझे वासना का भूत उतरने के बाद ही हो सका, उससे पहले नहीं।"
"क...कमीने-कुत्ते-गद्दार!" निर्भयसिंह हलक फाड़कर चिल्ला उठा—"तूने मेरी आरती के साथ जबरदस्ती की—बलात्कार किया उससे?"
रामकुमार ने फीकी मुस्कान के साथ कहा—"उस गुनाह के बोझ से मैंने हर पल खुद को दबा महसूस किया है—आज सुनकर भले ही तुम मुझे जान से मार डालो, मगर मैं खुद को हलका महसूस करूंगा।"
जार-जार रोते हुए निर्भयसिंह ने पूछा—"उसके बाद क्या हुआ?"
"आरती ने उसी रात गले में धोती का फंदा डालकर मरने की कोशिश की, मगर मैंने उसे कामयाब न होने दिया—कहने लगी कि 'अब मैं निर्भय को मुंह दिखाने लायक नहीं रही—मुझे मर जाने दो' तब—अपने गुनाह के बोझ से दबे मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हें अपनी सचमुच की पत्नी बनाकर जिंदगीभर तुम्हारी सेवा करूंगा।''
बुरी तरह रोता हुआ निर्भयसिंह दिल थामें सुन रहा था।
रामकुमार कहता चला गया—"इस पर भी वह मेरे काफी रोने-गिड़गिड़ाने पर तैयार हुई, फिर उसने स्वयं ही मुझसे यह अनुरोध किया कि उसे छुपाकर गुलशनगढ़ से कहीं दूर— इतनी दूर ले चलूं कि जहां 'तुम' कभी न पहुंच सको और एक रात हम दोनों ने गुलशनगढ़ छोड़ दिया—जाने कहां भटकते हुए इस इलाके में पहुंच गए—गुमटी से दो मील दूर 'आरा' नामक गांव में अपनी झोंपड़ी बनाई और रहने लगे—वहीं तुम्हारी बेटी का जन्म हुआ।”
"ब...बेटी?"
"हां—आरती कहा करती थी कि तुम बेटी चाहते थे—उसका नाम भी तुमने रख लिया था। आरती ने वही नाम ऱखा।"
"सु...सुलभा!" निर्भय कराहा।
"हां!"
"अब कहां हैं वे?" बुरी तरह व्यग्र होकर निर्भयसिंह ने पूछा—"मेरी आरती कहां है? शादीशुदा होने के बावजूद मैं उसे आज भी अपना लूंगा—अब तो मेरी बेटी करीब चौदह साल की हो रही होगी—कहां है सुलभा, मेरी आरती?"
रामकुमार चुप रहा।
निर्भय ने पागलों की तरह उसे झंझोड़ा—"बोलते क्यों नहीं, कहां हैं वे?
"अब वे इस दुनिया में नहीं हैं।"
"क...क्या?" निर्भयसिंह के पैरों तले से जमीन खिसक गई।
"उनकी मौत ने ही तो मुझे डाकू बना दिया।"
"क्या बक रहे हो तुम?" आपे से बाहर होकर निर्भयसिंह हलक फाड़ उठा—"क्या हुआ मेरी बीवी—मेरी बच्ची को?"
"अगर मेरा अधूर काम पूरा करने का वचन दो तो बताऊं।"
"क्या मतलब?"
"मैं उनकी मौत का बदला लेने के लिए ही डाकू बना था—हालांकि ठाकुर डाकुओं का दल दूसरा था, मगर मैं मल्लाहों के डाकू दल में शामिल हुआ—क्योंकि, ठाकुरों के साथ रहने से मेरा उद्देश्य पूरा नहीं होना था—उद्देश्य अब भी पूरा न हो सका, क्योंकि उससे पहले ही तुमने सबकुछ खत्म कर दिया। सुच्चाराम तक मारा गया।"
खून के आंसू रोता हुआ निर्भयसिंह मारे गुस्से के पागल हो गया—जुनून की अवस्था में उसने रामकुमार को झंझोड़ते हुए पूछा—"कौन है वह, जिसने मेरी आरती और बेटी की हत्या की—मुझे उसका नाम बता रामकुमार, मैं उसे चीर-फाड़कर सुखा दूंगा—कच्चा चबा जाऊंगा उसे—आग में जिंदा भून दूंगा। तू नाम बता।"
"ठाकुर शेरबहादुर सिंह।"
¶¶
"हां।" घोड़े पर सवार ठाकुर निर्भयसिंह के हलक से बहुत ही हिंसक आवाज निकली—"रामकुमार ने मुझे यही नाम बताया था—साथ ही बताया था कि वह सबकुछ जो सुलभा और आरती के साथ यहां, गुमटी नाम के इस गांव में हुआ।"
हर तरफ सन्नाटा, हर व्यक्ति—सारा गांव स्तब्ध!
"बोलो—बोलो इस गांव के बुजदिल मर्दों—क्या मैं मलत कह रहा हूं? क्या रामकुमार ने मुझसे झूठ बोला था? क्या डिक्की से गांव लौटती आरती और सुलभा को यहां, इसी चौपाल पर शेरबहादुर ने नहीं पकड़ लिया था? क्या सारे गांव के सामने शेरबहादुर और उसके लोगों ने आरती और सुलभा के साथ मुंह काला नहीं किया था? जिनके परिवारों को मैंने मौत के घाट उतारा—पेड़ों से उल्टा लटकाकर आग में भूना—क्या उन्हीं सबने मेरी चौदह साल की मासूम बच्ची को नोच-नोचकर नहीं लूटा था—क्या उन्हीं सबने मेरी आरती के साथ बलात्कार नहीं किया था—बोलो रामधन, उस वक्त तुम भी तो थे—तुम गांव के सरपंच हो—तुम्हीं बोलो कि आरती और सुलभा के साथ ऐसा हुआ था या नहीं—इसी गांव के कुत्तों की हवस का शिकार होते-होते मेरी बीवी और बेटी ने जान गंवाई थी या नहीं?"
सब चुप, पूरा सन्नाटा!
रामधन भी।
एकाएक ठाकुर साहब गरज उठे—"बोलता क्यों नहीं, रामधन? मैं तुझसे पूछ रहा हूं?"
"अ...आप ठीक कह रहे हैं।" हल्दी के समान पीले पड़े और मारे खौफ के बुरी तरह कांप रहे रामधन ने कहा।
"वह सबकुछ होता रहा और तुम—ये सारा गांव देखता रहा—किसी ने कोई विरोध नहीं किया—तुमने भी विरोध नहीं किया रामधन! इसीलिए इस गांव से, इस गांव में रहने वाले एक-एक शख्स से मुझे नफरत है—जी चाहता है कि एक-एक के परखच्चे उड़ा दूं।"
"म...मगर उस वक्त हम कर भी क्या सकते थे ठाकुर!" रामधन ने हिम्मत जुटाकर कहा—"शेरबहादुर ठाकुर था और हम मल्लाह लोग, कभी ठाकुर का पुरजोर विरोध नहीं कर सके—हमेशा उनसे डरते रहे।"
"देवी जैसी आरती और चौदह साल की मासूस सुलभा की लुटती इज्जत देखकर तुम लोग मर तो सकते थे।" ठाकुर साहब गुर्रा उठे—"मगर नहीं, दूसरों के लिए तो मरते भी वो हैं जो बहादुर हों—फूलवती ठीक कहती है, गुमटी में कोई मर्द नहीं है—हिजड़े रहते हैं—हिजड़ों का गांव है ये—इस गांव को धरती के नक्शे से मिटा देना चाहिए।"
पुनः हर तरफ सन्नाटा।
इस वक्त ठाकुर साहब के चेहरे पर भाव नहीं, बल्कि वही आग थी जो गुमटीवासियों ने बीस साल पहले नरसंहार वाली रातों में देखी थी—घोड़े को आहिस्ता-आहिस्ता चलाते वे पेड़ पर उल्टे लटके विजय के नजदीक पहुंचकर बोले—"तू यही सब जानने के लिए बेचैन था न—अब तो जान लिया कि इस गांव में हमारी अवपूजा क्यों होती है—हमारा पुतला क्यों जलाया जाता है—उस रात रामकुमार ने जो कुछ बताया, वह इतना वीभत्स था कि हम खुद पर काबू न रख सके—काबू रखना भी बुजदिली लगी—उसी रात हम गुमटी आए, शेरबहादुर और उसके परिवार को जीवित ही आग के हवाले किया—उसके बाद हर रात हम उस परिवार को अपना निशाना बनाते रहे, जिसके मुखिया ने आरती और सुलभा के साथ मुंह काला किया था—ऐसे हर परिवार को नेस्तनाबूद करने के बाद ही हमने डिक्की छोड़ी।"
विजय ने व्यंग्यपूर्वक कहा—"बहुत अच्छा किया।"
"क्या मतलब?" ठाकुर साहब गुर्राए।
"एक एसoपीo—कानून का नुमाइंदा जब व्यक्तिगत भावनाओं में बहकर मुजरिमों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने की जगह खुद मुजरिम बन जाए तो उसे वीरचक्र प्रदान किया जाना चाहिए।"
"तुम उन भावनाओं और उस वक्त के हालात को नहीं समझ सकते—हिजड़ों के इस गांव में पुलिस को एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिल सकता था जो शेरबहादुर के खिलाफ गवाही देता—अदालत को हकीकत बताता—और ऐसी गवाहियों के बिना कानून शेरबहादुर जैसे लोगों का मददगार है।"
"रामकुमार की गवाही कम नहीं थी?"
"वह जिंदा कहां रहा—सबकुछ बताने के बाद हम सब पागलों की तरह रो रहे थे तब उसने हमारे होलस्टर से रिवॉल्वर निकालकर आत्महत्या कर ली—हम उसे भी नहीं बचा सके—और यह कहानी हमें उसने टॉर्चररूम में सुनाई थी। वहां, जहां उसके और हमारे अलावा और कोई नहीं था।"
"हालात कैसे भी हों बापूजान, मगर आज एक ऐसा पुलिस अफसर अपने बेटे, पत्नी और दामाद की नजरों से गिर गया जिसे कानून का सच्चा और ईमानदार नुमाइंदा माना जाता था—जिसकी मिसालें दी जाती थीं—अपने द्वारा किए गए नरंसहार के पीछे जो कारण आपने बताया वह गांव वालों की भावनात्मक सहानुभूति भले ही लूट ले, मगर कानून के हिसाब से कोई बचाव प्रस्तुत नहीं करता—आप मुजरिम हैं और मुजरिम ही रहेंगे—मुजरिम भी ऐसे जिसे फांसी से कम सजा किसी हालत में नहीं मिल सकती—यदि मौका मिला तो फांसी के फंदे तक आपको खुद मैं पहुंचाऊंगा।"
"मुझे मालूम था कि हकीकत जानने के बाद तुम सबकी यही एकमात्र प्रतिक्रिया होगी, इसलिए आज तुम सब यहां उल्टे लटके हुए हो।"
"मतलब?"
"कल रात झोंपड़ी में लंबी-चौड़ी डींगे मारते हुए तुमने कहा था कि रश्मि को साधना बनाकर तुम हमें यहां लाए हो—मगर तुम भ्रम में रहे बेटे—भूल गए कि हम तेरे बाप हैं।"
"आज मुझे इस हकीकत पर शर्म आ रही है।"
"हुंह।" ठाकुर साहब बड़े ही वीभत्स अंदाज में हंसे—"साधना बनी रश्मि के मुंह से यह सुनते ही कि वह गुमटी की रहने वाली है, हमारा माथा ठनक गया—उस वक्त तक हम सिर्फ इतना ही समझ पाए थे कि उस लड़की को जिसने भी तुम्हारी पत्नी बनाकर पेश किया है, वह तुम्हारी पत्नी के नाटक की आड़ में हमारे गुमटी वाले राज तक पहुंचना चाहता है—वह कौन है, यही जानने हम उसे कोठी ले गए—पुलिस हैडक्वार्टर में नहीं रखा, क्योंकि वैसा करना हमारे लिए खतरनाक हो सकता था।"
"म...मगर उस वक्त तो आपने कहा था कि ऐसा आप उसे पत्रकारों से दूर रखने के लिए कर रहे हैं?" रघुनाथ ने पूछा।
"वह बहाना था बेटे!” ठाकुर साहब ने कहा—"कोठी में जब हमने साधना से बात की तो उसने खुद को शेरबहादुर की लड़की बताया—उसी क्षण हमें लगा कि इस लड़की के पीछे जो कोई भी है वह बहुत कुछ जानता है, सो उसका पता लगाने तक खुद इस नाटक में फंसे रहने का अभिनय किया—हमारी नजर हर पल उस पर थी—और जब उसने हमारे और अपने बीच हुई बातों की रिपोर्ट तुझे (विजय) को दी तो यह जानकर हमारा खून खौल उठा कि साधना के पीछे हमारा बेटा है।"
"शर्म नहीं आई?" विजय ने इस गरज से उऩ्हें भड़काने की कोशिश की कि वे पिछला वृत्तांत सुनाना बंद कर दें—दरअसल उसे डर था कि कहीं वह वृत्तांत सुनाते हुए वे यह राज न खोल दें कि वह सीक्रेट एजेंट है, अतः बोला—"चुल्लू-भर पानी में यह सोचकर डूब नहीं मरे आप, कि आपका बेटा आपकी काली करतूत जान गया है?"
"खामोश रहो!" ठाकुर साहब गुर्राए—"इस वक्त हम तुम्हारी उस डींग का जवाब दे रहे हैं जो रात झोंपड़ी में मार रहे थे।"
"आप...।"
विजय की बात बीच में ही काटकर ठाकुर साहब कहते रहे—"यह जानने के बाद कि साधना वाला सारा ड्रामा खुद तुम्हारा ही फैलाया हुआ है—हम समझ गए कि तुम्हें गुमटी की वारदातों की जानकारी हो गई है, मगर तुम्हें उनकी विश्वसनीयता पर शक है और पुष्टि करना चाहते हो कि वह सब हमने किया या नहीं—हम भी समझ गए कि तुम एक-न-एक दिन हकीकत जान ही जाओगे और उसी दिन तुमने अपनी किस्मत में हमारे हाथ से अपना अंत लिखवा लिया—हम तुम्हारे नाटक में फंसे होने का नाटक करते रहे—अशरफ आदि को तुम लाए—ऱघुनाथ, रैना और उर्मिला जिद करके खुद यहां आईं—नियति को कौन रोक सकता है—तुम सब लोगों की मौत आई थी जो गुमटी में कदम रखा।"
"क्या मतलब?" रैना के मुंह से निकला।
"जिस दुनिया में हम एक ऐसे पुलिस अफसर हैं जिसकी मिसाल दी जाती है, उस दुनिया में हम एक भी ऐसे व्यक्ति को सहन नहीं कर सकते जो हमारी जिंदगी के गुमटी वाले काले अध्याय को जानता हो—भले ही वह हमारी पत्नी हो, बेटा, बेटी या दामाद—तुम सबकी मौत यहीं, इसी चौपाल पर निश्चित है।"
"तो फिर देर किस बात की है, मार डालिए हमें।" अचानक उर्मिलादेवी पागलों की तरह हिस्टीरियाई अंदाज में चिल्ला उठीं—"एक-एक को खत्म कर दीजिए।"
"हा...हा...हा!" ठाकुर साहब ने कहकहा लगाया—"इतनी आसानी से नहीं, तुम लोगों को मारूंगा जरूर, मगर अपने उसी सदाबहार अंदाज में, जिसे देखकर इस गांव के रहने वालों ने मुझे रावण का नाम दिया है—एक-एक को तड़पा-तड़पाकर मारूंगा—इस तरह कि फिर कोई कभी अपने बाप की जासूसी न कर सके।"
विकास गुर्रा उठा—"मैं मानता हूं ठाकुर नाना कि आरती और सुलभा का बदला लेने के लिए आपने जो कुछ किया यह ठीक था, मगर वह सबकुछ करने के बाद छुपाए रखना शर्मनाक है—बात सही तब थी जब वह सबकुछ करने के बाद आप गर्व से खुद को कानून के हवाले कर देते—बीस साल तक आपने पुलिस की वर्दी का अपमान किया है और अब—हम सबको खत्म करके आप जो पुनः उसी सम्मानित जिंदगी में लौट जाने का ख्वाब देख रहे हैं वह तो इतना गिरावट का काम है कि यह सोचते हुए भी शर्म आ रही है कि आप राजनगर पुलिस के आई.जी. ठाकुर निर्भयसिंह हैं, विजय गुरु जैसी महान हस्ती के पिता हैं।"
विकास की इन बातों को ठाकुर साहब ने आकाश की तरफ मुंह उठाकर सिर्फ एक अट्टाहास में उड़ा दिया—पागलों की तरह हंसते रहे वे—जब रुके तो जोर से पुकारा—"फूलो!"
"हां सरदार।" फूलवती आगे बढ़ी।
"हमने गांव वालों को इसी चौपाल पर एक दिलचस्प तमाशा दिखाने के लिए इकट्ठा किया था—काफी देर हो गई है, खड़े-खड़े ये लोग बेचारे थक गए होंगे—क्यों न वह तमाशा शुरू किया जाए।"
"आप हुक्म कीजिए सरदार।"
"उर्मिला को पेड़ से खोलकर चौपाल के बीचो-बीच खड़ा कर दो।"
"जो हुक्म सरदार।" कहने के बाद फूलवती घोड़े से उतरी—उस वृक्ष के नजदीक पहुंची जिसकी जड़ के साथ उर्मिलादेवी बंधी हुई थीं—उन्हें खोलकर चौपाल के बीच में ले आई।
उर्मिलदेवी ने हल्का-सा भी प्रतिरोध नहीं किया।
उनके मुंह से बोल ही नहीं फूट रहा था। इस तरह खड़ी थीं वे जैसे शेर के सामने बकरी। एकाएक ठाकुर साहब गुर्राए—"एक-एक से बदला लूंगा—वो हाल बना दूंगा कि चील-कव्वे भी खाने से इंकार कर दें।"
"म...मगर हमने किया क्या है?" हिस्टीरियाई अंदाज में चीखने के साथ ही उर्मिलादेवी रो पड़ीं—"आखिर हमसे आप किस बात का बदला ले रहे हैं?"
"हाय—गुस्से में कितनी हसीन लगती हो तुम।" ठाकुर साहब ने बड़े ही अश्लील अंदाज में कहा—"जी चाहता है कि तुम पर कुरबान हो जाएं।"
ठाकुर साहब के इन शब्दों और इस हरकत ने सभी को हैरान कर दिया। शर्म से जमीन में गड़ी जा रहीं उर्मिलादेवी के मुंह से निकला—"य...ये क्या हो रहा है आपको?"
"सच!" उन्होंने उसी अंदाज में कहा—"बंद बेडरूम में तो तुमसे हजारों बार प्यार किया है, मगर जरा सोचो, इस भरी महफिल में सब लोगों के सामने प्यार करना कितना अच्छा लगेगा। है न?"
उफ!
शर्म और ग्लानि के समूचे लक्षण उर्मिलादेवी के चेहरे पर उभर आए—जी चाहा कि धरती फटे और वे माता सीता की तरह उसमें समाती चली जाएं—और ठीक यही वक्त था जब पेड़ पर उल्टा लटका विजय चीख पड़ा—"ड...डैडी, बंद कीजिए अपनी ये गंदी जुबान—रोक दीजिए नफरत-भरा नाटक!"
"हा...हा...हा!" बुलंद कहकहे के बाद ठाकुर साहब ने राक्षसी अंदाज में कहा—"क्यों, अभी से पनाह मांग गए—अभी तो हमारा खेल शुरू हुआ है बेटे—खुद को बहुत बड़े तीसमारखां समझते थे तुम, आज हम साबित करेंगे कि हम तुम्हारे बाप हैं—हर मामले में। हर मोर्चे पर।"
पागल विजय गुर्राया—"अपनी इस नापाक जुबान और गंदे इरादों को लगाम दो डैडी, वरना...।"
"वरना?" ठाकुर साहब गुर्राए—"क्या करोगे तुम?"
विकास चिल्लाया—"मैं आपकी बोटी-बोटी कर डालूंगा ठाकुर नाना, खून पी जाऊंगा आपका—कोई सोच भी नहीं सकता था कि आपका अतीत इतना घृणित होगा—शायद ही किसी ने सोचा हो कि आप अंदर से इतने बुजदिल, कायर और गिरे हुए हैं। इतने ज्यादा कि आप पर थूकने को जी चाहता है।"
"ये हमारा अतीत ही नहीं, वर्तमान भी है विकास।"
"आज मालूम हुआ कि आप सचमुच इस दुनिया के सबसे बड़े जालिम हैं। इस गांव में आपका पुतला ठीक ही जलाया जाता है—सचमुच रावण हैं आप, बल्कि आपको रावण कहना भी रावण का अपमान है। रावण विद्वान था—उसका कैरेक्टर काबिले-मिसाल था—बहन के अपमान का बदला लेने के लिए वह मां सीता का अपहरण जरूर कर लाया, मगर अशोक वाटिका में उसने सीता से कोई अश्लील बात न कही और आप...।"
"हा...हा...हा!" विकास का वाक्य पूरा होने से पहले ठाकुर निर्भयसिंह दरिंदगी-भरे अंदाज में हंस पड़े, बोले—"वह सतयुग का रावण था, हम आज के रावण हैं—कलियुग के रावण, और कलियुग का रावण यदि सतयुग के रावण से चार कदम आगे न हुआ तो कलियुग की तौहीन न हो जाएगी।"
विकास सिर्फ कसमसाकर रह गया।
"और फिर—यदि तुम्हें रावण पसंद नहीं है तो हमें दुर्योंधन कह सकते हो—हां, ऐसे ही भरे दरबार में उसने द्रौपदी को जो शब्द कहे थे, हमने तो उनके मुकाबले अभी तक कुछ भी नहीं कहा। सच—कुछ भी तो नहीं।"
रघुनाथ चीख पड़ा—"आखिर आपको हो क्या गया है ठाकुर साहब?"
"फूलो!" उसके वाक्य पर कोई ध्यान दिए बिना ठाकुर साहब ने पुकारा।
"हां सरदार।"
"आज हम इन हरामजादों को यह दिखाना चाहते हैं कि आज का रावण सतयुग के दुर्योधन से भी कहीं ज्यादा जालिम और विलासी है—आगे बढ़ो, उर्मिला नाम की इस कुतिया के जिस्म से साड़ी ही नहीं, कपड़े का एक-एक रेशा नोचकर फेंक दो, नग्न कर दो इसे।"
"न...हीं।" उर्मिलादेवी, विजय और विकास आदि सभी के हलकों से ऐसी चीखें निकलीं जिन्होंने सारे वायुमंडल को झकझोरकर रख दिया—आकाश दहल उठा, धऱती मानों डगमगाने लगी थी—वे सब पागल-से हो गए। जुनूनियों-से अपने बंधन से निकलने के लिए छटपटाने लगे मगर सबसे बड़े पागल इस वक्त ठाकुर साहब लग रहे थे—किसी पागल भेड़िए की तरह आकाश की ओर मुंह उठाए गगनभेदी अट्टाहास लगा रहे थे वे—अपनी ही धुन में, जाने किस दुनिया में खोए वे कहते चले गए—"हम इसे नग्न देखना चाहते हैं। आज हम गुमटी की इस चौपाल पर वह काम करके दिखाएंगे जो दुर्योधन अपने दरबार में न कर सका—आगे बढ़ो फूलो, क्या तुम भी इन कुत्तों की तरह कांप रही हो?"
उर्मिलादेवी की हालत अजीब थी, सबसे दयनीय।
उन्होंने नेत्र बंद कर लिए, हाथ जोड़े।
ठीक वैसी ही मुद्रा जैसी कभी पति से अपमान किए जाने पर माता सीता की रही होगी—बंद नेत्रों में आंसू भरे वे बड़बड़ा उठीं—"ये क्या हो रहा है सीता माता, भगवान राम ने आपका इतना अपमान नहीं किया था—उन्होंने तो संदेहजनक शब्दों में सिर्फ इतना ही पूछा था कि ये दूसरा बालक कहां से आ गया—तुम तो इतना अपमान भी न सह पाई थीं—धरती में समा गई थीं तुम और मुझ अभागिन को इतना अपमान सहने दे रही हो— ऐसा कौन-सा पाप किया है मैंने जो अपनी औलाद के सामने, भरी चौपाल पर निर्वस्त्र होना पड़े। धरती का कलेजा चीरकर बांहें फैलाओ सीता माता.....और उन बांहों में इस पापिन को समेट लो।"
उनकी इस मुद्रा को देखकर ठाकुर साहब खिलखिला उठे, बोले—"द्रोपदी के समान कृष्ण को याद कर रही है, यहां कोई कृष्ण आने वाला नहीं है।"
विजय चीखा—"अगर यह सब आप मुझ पर सिक्का जमाने के लिए कर रहे हैं डैडी तो बंद कर दीजिए, मैं अपनी शिकस्त कबूल करता हूं—तहेदिल से मानता हूं कि आप हर मोर्चे पर मेरे बाप हैं—मैं आपके सामने कुछ भी नहीं और आपकी जासूसी करके मैंने दुनिया की सबसे बड़ी भूल की।"
उस बार ठाकुर साहब का कहकहा कुछ और बुलंद हो गया।
बोले—"इतनी जल्दी परास्त हो गए बेटे, इतना कमजोर तो हमने तुम्हें नहीं सोचा था—जद्दोजहद करो, रोक सकते हो तो हमें वह करने से रोको जो करने जा रहे हैं, क्योंकि हमें तो वह सब करना ही है—हमारे बारे में जितना सबकुछ तुम जान गए हो, उसके बाद हम तुममें से किसी को जिंदा नहीं छोड़ सकते।"
"नहीं छोड़ सकते तो हम सबको गोली से उड़ा दीजिए—आखिर ये अपमान करके आप हमसे किस गुनाह का बदला ले रहे हैं?"
"यह हमारी कार्यशैली है बेटे।"
"आप झूठ बोल रहे हैं।" विजय दहाड़ उठा—"यदि वजह सिर्फ यही होती है कि हम आपका राज जान गए हैं तो आप सीधे गोली मार देते—इस अपमान के पीछे कोई और वजह है, आप किसी दूसरी ही बात का बदला ले रहे हैं हमसे।"
"फूलो!"
फूलवती के जिस्म में तनाव उत्पन्न हो गया।
"तुम अभी तक खड़ी क्यों हो?"
फूलवती आगे बढ़ी, उर्मिलादेवी की तरफ।
वे आंखें मूंदे उसी मुद्रा में खड़ी थीं।
पेड़ों पर बंधा हर शख्स कसमसा उठा, मगर बंधन इतने सख्त थे कि वे आजाद नहीं हो सकते थे। शायद ही विजय-विकास आदि जीवन में कभी इतने विवश हुए हों—इतने ज्यादा कि प्रतिरोध के नाम पर अपनी जान भी तो नहीं दे सकते थे।
उर्मिलादेवी के नजदीक पहुंचकर फूलो ने उनकी धोती का पल्ला पकड़ा और जिस वक्त एक झटके से उसने उसे अलग किया और उस क्षण विजय, विकास, अशरफ, विक्रम, नाहर, रघुनाथ, रैना, आशा और ब्लैक ब्वॉय ने कसकर अपनी आंखें बंद कर लीं—कानों में वे ऐसी आवाज महसूस कर रहे थे कि जैसे सैंकड़ों पिशाच चीख-चिंघाड़ रहे हों।
फूलवती ने उनकी धोती के घूम खोलने के लिए अभी हाथ बढ़ाया ही था कि—
'धांय !'
सारा गांव एक फायर की आवाज से गूंज उठा।
फूलवती के हलक से चीख निकली, क्योंकि गोली उसकी बढ़ी हुई कलाई पर लगी थी—ठाकुर साहब सहित सभी डाकू मानो सोते से जागे।
प्रथम पल किसी की समझ में न आया कि गोली कहां से चली?
मगर!
गांव वालों में अचानक भगदड़ मच गई।
तभी दूसरी गोली चली और यह गोली 'सांय' की आवाज के साथ ठाकुर साहब के कान के पास से गुजर गई। ठाकुर साहब की नजर दूर, एक पेड़ पर बैठे मोन्टो पर पड़ी—उसके हाथ में दबे रिवॉल्वर से धुंए की लकीर निकल रही थी।
ठाकुर साहब के मुंह से उसके लिए एक भद्दी गाली निकली।
गुस्से में तमतमाए उन्होंने कंधे से बंदूक उतारी ही थी कि मोन्टो ने फुर्ती के साथ डाल बदलकर खुद को घने पत्तों के बीच छुपा लिया—दहकती आंखों से ठाकुर साहब अभी उसकी स्थिति का जायजा लेने की कोशिश कर रहे थे कि—"पुलिस ने तुम लोगों को चारों ओर से घेर लिया है।" एक आवाज गूंजी—"जान की सलामती चाहते हो तो हथियार फेंककर हाथ ऊपर उठा लो।"
गोली लगी होने के बावजूद फूलवती एक ही जंप में घोड़े पर सवार हो गई।
ठाकुर साहब के दिमाग को झटका-सा लगा।
घोड़े हवा में पैर उछाल-उछालकर हिनहिनाने लगे।
पुलिस का नाम सुनते ही बहुत-से ड़ाकू घोड़े सहित चौपाल से नीचे कूदे—डरे हुए ग्रामीण तो इधर-उधर भाग ही रहे थे।
तात्पर्य ये कि वहां हंड़कंप-सा मच गया।
चौपाल को घेरे पुलिस वालों ने जब देखा कि डाकू आत्समर्पण नहीं कर रहे हैं तो उन्होंने गोलियां चलानी शुरू कर दीं।
जवाब में डाकुओं ने भी गोलियां चलाईं।
चारों ओर हाहाकार।
चीत्कार और चींखे!
"भागो!" डाकुओं के लिए माइक पर फूलवती का निर्देश गूंजा।
ठाकुर साहब के घोड़े ने भी उसके इशारे पर चौपाल से नीचे जंप लगा दी—उर्मिलादेवी भीड़ में जाने कहां गुम हो गई थी।
पेड़ों पर बंधे जांबाज मचलकर रह गए।
ठीक ऐसा लग रहा था जैसे किसी भरे-पूरे मेले में पुलिस और डाकुओं के बीच मुठभेड़ हो गई हो—पुलिस इसलिए असफल थी, क्योंकि उन्हें ग्रामीणों को बचाकर डाकुओं को निशाना बनाना था, जबकि डाकुओं को सिर्फ एक ही धुन सवार थी।
पुलिस का घेरा तोड़कर निकल जाना।
यह हंगामा मुश्किल से दस मिनट चला—कई पुलिस वाले और डाकू मारे गए—एक ग्रामीण भी जाने किसकी गोली का शिकार हो गया था।
ठाकुर साहब और फूलवती सहित ज्यादातर डाकू भाग गए—दो को पुलिस ने पकड़ लिया—इंस्पेक्टर आर.श्रीवास्तव भागते डाकुओं का पीछा करता गांव से बाहर निकल गया था—उधर से अब भी फायरिंग की आवाज आ रही थी, जो द्योतक थी इस बात की कि श्रीवास्तव डाकुओं को ज्यादा-से-ज्यादा नुकसान पहुंचाने पर आमादा है।
मगर!
चौपाल पर खामोशी छा चुकी थी।
गांव वाले अपनी झोंपड़ियों में बंद।
डाकू, पुलिसमैन और एक ग्रामीण की लाशें छितराई-सी पड़ी थीं—मोन्टो ने सबसे पहले विजय को बंधनमुक्त किया—उसके बाद वे लगभग सभी आजाद हो गए—विकास बड़बड़ाया—"नानी को ढूंढो अंकल, जाने वे कहां गईं?"
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