रविवार को सोलंकी को सूझा कि उसे डायरेक्ट्री में चन्दानी का नाम ‘सी’ में ही नहीं, ‘एच’ में भी देखना चाहिए था ।
उसने वेटर से डायरेक्ट्री मंगाई और नर्स की उलझनपूर्ण और अनुमोदनरहित निगाहों का शिकार होते हुए उसे ‘सी’ पर खोला ।
वहां कम-से-कम बीस चन्दानी और दर्ज थे -
हरीश चन्दानी, हरीश एम. चन्दानी, हरीश जे.एम. चन्दानी, एच.जे.एम. चन्दानी, एच.जी. चन्दानी, एच.आर. चन्दानी जैसे नामों का कुल जमा जोड़ बीस तक पहुंचा ।
पिछली ही रोज की तरह नर्स को डाज देकर वह होटल से निकला और सारा दिन अहमदाबाद शहर के धक्के खाते रहने के बावजूद यह अपनी नई लिस्ट में से सिर्फ नौ नाम चैक कर पाया ।
उस रात वह वापिस लौटा तो नर्स पांव पटकती हुई वहां से हमेशा के लिए कूच कर गई ।
सोलंकी ने कोई एतराज नहीं किया ।
तबीयत अब उसकी काफी हद तक ठीक थी । उसकी गर्दन अभी भी दुखती थी लेकिन वह दर्द नाकाबिलेबर्दाश्त नहीं था । और दवा वह फिलहाल खा ही रहा था ।
उसने खाना खाया, दवा खाई और फिर घोड़े बेचकर सो गया ।
***
रौनक बाजार में घटनास्थल पर पहुंचने वाले पुलिस अफसरान में इन्स्पेक्टर अशोक जगनानी भी था ।
वहां की तहकीकात के दौरान एक चीज ऐसी सामने आई जिसकी तरफ केवल अशोक जगनानी की तवज्जो गई ।
वह एक भूरा कागज था जोकि लुटी हुई दुकान के भीतर उड़ता फिर रहा था ।
अशोक ने वह कागज उठाया । उसने उसे उलटा-पलटा और उस पर अपनी तर्जनी उंगली फिराई । फिर उंगली को वह नाक मे पास लेकर गया ।
“क्या है ?” - ए.सी.पी. देवड़ा बोला ।
“हेरोइन ।” - अशोक बोला - “इस कागज में हेरोइन थी ।”
“तो ?”
“डकैतों में से कोई जरूर हेरोइन का नशा करता था ।”
“सिर्फ यह भूरा कागज देखकर ऐसा कैसे कहा जा सकता है ।”
“कागज दुकान के भीतर लुटी हुई तिजोरी के सामने उड़ता फिरता मिला है ।”
ए.सी.पी. आश्वास्त न हुआ ।
लेकिन जब वैसा ही एक कागज एक और लुटी हुई दुकान में मिला तो उसे अशोक की बात पर पुनर्विचार करना पड़ा ।
“दिस इज ए लीड, सर ।” - अशोक बोला - “डकैतों का एक साथी डोप एडिक्ट था ।”
“हूं !”
“मुझे इस कागज की खास पहचान है । यह कागज कमाठीपुरे के इलाके का हजारा सिंह नाम का एक डोप पैडलर हेरोइन की पुड़िया बनाने में इस्तेमाल करता है । सर, एक डकैत शर्तिया हजारा सिंह को कोई ग्राहक है ।”
“दिस एज ए बिग लीड । उस आदमी को, हजारा सिंह को, पकड़ो और मालूम करो कि वह किस-किस को हेरोइन सप्लाई करता रहा है ।”
“कागज की क्या बात है ?” - एकाएक समीप खड़ा इंस्पेक्टर फाल्के बोला ।
अशोक ने उसे कागज दिखाया और बात बताई ।
“ऐसे कागज तो” - फाल्के बोला - “उस सुरंग में आम उड़ते पाए गए थे जोकि सेंधमारों में वाल्ट तक पहुंचने के लिए खोदी थी ।”
“यह डकैती उसी गैंग का काम है ।” - देवड़ा बोला - “और भी बहुतेरी बात यह साबित करती हैं कि यह डकैती उसी गैंग का काम है । मैं दाद देता हूं हमलावरों की जीदारी की कि एक बार नाकामयाब हो चुकने के बाद उन्होंने उसी जगह, इतनी जल्दी, फिर वार करने की हिम्मत की ।”
“सर, ऐसी जीदारी गैंग नहीं होती” - फाल्के बोला - “गैंग को कन्ट्रोल करने वाले लीडर में होती है ।”
“कहीं वह सोहल का काम तो नहीं ?” - देवड़ा बोला ।
कोई कुछ न बोला ।
“सारी कार्यप्रणाली पर सोहल की स्पष्ट छाप है उसको ऐसी डकैतियों का तजुर्बा है । यूं ही उसने अमृतसर में भारत बैंक का वाल्ट खोला था ।”
कई सिर सहमति में हिले ।
“साहबान, तफ्तीश इस बात को मद्देनजर रखकर की जाए कि यह सोहल का काम हो सकता है ।”
***
“यह सोहल का काम है ।” - इकबाल सिंह भन्नाया - “यह सोहल का काम है ।”
“साहब” - डोंगरे बोला - “डाका वाल्ट पर नहीं मार्केट की दुकानों पर पड़ा है ।”
“फिर भी यह सोहल का काम है । उसे मालूम हो गया होगा कि वह मार्केट ‘कम्पनी’ की है और वहां की दुकानों को ‘कम्पनी’ की सरपरस्ती हासिल है ।”
“कैसे मालूम हो गया होगा ! जो बात किसी को मालूम नहीं वो सोहल को कैसे मालूम हो गई होगी ?”
“यह मुझे नहीं पता । यह पता लगाना तेरा काम है कि हमारी सिक्योरिटी में कहां छेद है ।”
“साहब गुस्ताखी माफ हो तो एक बात कहूं ।”
“क्या ?”
“आपके मन में सोहल का हौवा बैठ गया मालूम होता है, इसीलिए जो कोई भी वारदात शहर में होती है, आप उसका रिश्ता सोहल से जोड़ लेते हैं ।
इकबाल सिंह ने कहरभरी निगाहों से डोंगरे को देखा लेकिन फिर खुद ही उसकी निगाह झुक गई ।
“तू ठीक कह रहा है, डोंगरे ।” - वह धीरे से बोला - “सच पूछे तो हकीकत यही है । हकीकत यह है कि मुझे उसकी उस वक्त की प्रलयंकारी सूरत नहीं भूलती, जब उसने मुझे कहा था कि ‘इकबाल सिंह बखिया बनने की कोशिश मत करना’ ।”
“बखिया तो आप बने !”
“हां बना । हालात ने बनाया । बखिया के टॉप के पन्द्रह ओहदेदारों में से मैं ही एक इकलौता ओहदेदार था जिस पर सोहल का कहर नहीं टूटा था । मैं आगे न आता तो बखिया का इतना बड़ा निजाम बन्दरबांट के हवाले हो जाता । नीलम की मौत के गम में जैसा अधमरा-सा सोहल यहां से विदा हुआ था, उससे तो मुझे लगा था कि या तो वह वैसे ही मर-खप जाएगा या फिर पुलिस की गिरफ्त में आकर फांसी पर टंग जाएगा । मेरी बदकिस्मती कि दोनों में से एक भी बात न हुई । पता नहीं किसने उस मुर्दा जिस्म में फिर जान फूंक दी और वो फिर बम्बई पहुंच गया । डोंगरे, सोहल के बारे में मुझे तेरे से नाउम्मीदी होती जा रही है । तू तो उसे पकड़ पाएगा नहीं अलबत्ता वो जरूर किसी दिन मौत का परकाला बनकर यहां मेरे सामने आन खड़ा होगा ।”
“साहब, कोशिश तो मैं पूरी...”
“मेरा दिल गवाही दे रहा है कि तेरी कोशिश से कुछ नहीं होने वाला । लगता है मुझे ही सोहल से अपना गुनाह बख्शवाना पड़ेगा ।”
“आप ऐसा कर सकते हैं ?”
“हां । है एक तुरुप का पत्ता मेरे हाथ में ।”
“क्या ?”
“नीलम । मैं नीलम की जान के बदले में सोहल से अपनी जानबख्शी करवाऊंगा ।”
“नीलम कौन ?”
“सोहल की जान । जान से जान का सौदा किया जा सकता है ।”
“साहब, मैं कुछ समझा नहीं ।”
“छोड़ । तू यह बता, तू आया कैसे था ?”
“मैं यह बताने आया था कि पुर्तगाल और गोवा के रास्ते हमारा नारकाटिक्स स्मगलिंग का जो रूट चलता है, उसे फौरन बन्द कर देना बहुत जरूरी हो गया है ।”
“क्यों ?”
“बाम्बे पुलिस के इन्स्पेक्टर अशोक जगनानी की मेहरबानी से उस रूट का पर्दाफाश हो चुका है । हमारा बहुत माल पकड़ा गया है । कई आदमी भी पकड़े गये हैं लेकिन अभी खैरियत है कि पकड़े जाने वालों में ऐसा आदमी कोई नहीं है जो उस आपरेशन की रिश्तेदारी ‘कम्पनी’ से जोड़ सकता हो लेकिन अगर हमने फौरन वो रूट बन्द न किया और अपने आदमियों को आगाह न किया तो आने वाले दिनों में कोई ऐसा आदमी भी पकड़ा जा सकता है ।”
“ऐसा नहीं होना चाहिए ।” - इकबाल सिंह चिन्तित भाव से बोला ।
“आप अभी सावधानी बरतेंगे तो ऐसा नहीं होगा । मेरे ख्याल से इस बाबत आपको गजरे साहब से फौरन बात करनी चाहिए और उन्हें इस बाबत खबरदार करना चाहिए ।”
गजरे - व्यास शंकर गजरे - ‘कम्पनी’ का सीनियर ओहदेदार था और उन दिनों कम्पनी के नारकाटिक्स ट्रेड का इन्चार्ज था ।
“मैं करूंगा ।” - इकबाल सिंह बोला ।
“और कुछ समय के लिए नारकाटिक्स का लोकल ट्रेड भी तब तक के लिए बन्द कर देना चाहिए जब तक कि पुलिस की वाल्ट की तरफ से तवज्जो नहीं हट जाती ।”
“ठीक है । डोंगरे, आज तो तू बहुत काबलियत की बातें कर रहा है ।”
डोंगरे बड़े हास्यास्पद ढंग से शरमाया ।
“सिर्फ सोहल के बारे में तेरी काबलियत काम नहीं कर रही ।”
“साहब मैं तो पूरी कोशिश...”
“तूने जार्ज सैबेस्टियन की बैकग्राउण्ड को टटोला ?”
“हां । वो एक मामूली टैक्सी ड्राइवर निकला है । पिछले काफी अरसे से वह मुबारक अली नाम के एक मवाली की शागिर्दी में था । मुबारक अली फोर्ट के इलाके का मामूली दादा है वो वाल्ट को सेंध लगाने जैसे काम में शरीक हुआ नहीं हो सकता ।”
“लेकिन जिसे तू उसका शागिर्द बताता है, वो शरीक था सेंधमारी में । जब शागिर्द एक काम कर सकता है तो उस्ताद नहीं कर सकता !”
“मैं मुबारक अली को और टटोलूंगा ।” - डोंगरे दबे स्वर में बोला
“फौरन । अगले हफ्ते या अगले महिना नहीं ।”
“जी हां । फौरन ।”
***
सिपाही करमी बख्श ए.सी.पी. देवड़ा के रूबरू पेश किया गया । वह उस रोज भी छुट्टी पर था, उसका ए.एस.आई उसे पूना से ढूंढ कर ए.सी.पी. के रूबरू पेश करने के लिए लाया था ।
उसे बताया गया कि उसे क्यों वहां तलब किया गया था ।
“तेरह तारीख इतवार की रात को माहिम काजवे की चैकपोस्ट पर जो लोग तुम्हारे साथ ड्यूटी पर थे, उनका कहना है कि जिस मैटाडोर वैन के बारे में अभी तुम्हें बताया गया है, उसका पैसेन्जर तुम्हारा जानने वाला था ।”
“जी, साहब ।” - करीम बख्श दबे स्वर में बोला ।
“कौन था वो ?”
“मुबारक अली ।”
“क्या करता है ये मुबारक अली ?”
“फिल्मों में एक्स्ट्रा सप्लाई करता है, साहब ।”
“तुम उसे कैसे जानते हो ?”
“वो पहले धोबी तलाब के झोंपड़ पट्टे में मेरे बाजू मे रहता था ।”
“अब वहां नहीं रहता ?”
“नहीं ।”
“अब कहां रहता है ?”
“पता नहीं मालूम, साहब, लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“वो फोर्ट में कहीं रहता होगा ।”
“कैसे जाना ?”
“वो मैटाडोर वैन वाला बन्दरगाह जा रहा था, मुबारक अली बोला था कि वैन वाले से उसने फोर्ट तक के लिए लिफ्ट मांगी थी ।”
“लिफ्ट मांगी थी !” - ए.सी.पी के माथे पर बल पड़े - “वो दोनों इकट्ठे नहीं थे ?”
“नहीं साहब ।”
“कैसे मालूम ?”
“मुबारक अली खुद ऐसा बोला था । वो बोला था, उसकी गाड़ी बिगड़ गई थी, टैक्सी उसे मिली नहीं थी इसलिए उस मैटाडोर वैन वाले छोकरे से उसने लिफ्ट मांगी थी । मुबारक अली साफ बोला था कि वो छोकरा उसका जानने वाला नहीं था ।”
“ये… मुबारक अली... आ कहां से रहा था ?”
“यह तो मैंने पूछा नहीं था ।”
“हूं । ठीक है । तुम जा सकते हो । तुम भी ।”
करीम बख्श और ए.एस.आई. सैल्यूट मारकर वहां से विदा हो गए ।
“हमें आदमी का नाम मालूम है” - देवड़ा इन्स्पेक्टर फाल्के की तरफ घूमा - “उसका धन्धा मालूम है और वह इलाका मालूम है जिसमें कि वह रहता है । क्या उसको तलाश करना मुश्किल होगा ?”
“कतई नहीं ।” - फाल्के बोला ।
“गुड । उसको तलाश करवाओ और यहां बुलवाओ । फिर देखते हैं वो कितने नम्बर का जूता पहनता है ।”
“यस, सर ।”
***
आंटी के घर में कैनवस के तीनों झोलों का माल मेज पर पलट दिया गया था ।
कमरे में जगमग हो गई ।
वैसी ही जगमग कमरे में मेज के गिर्द मौजूद लोगों की आंखों में दिखाई देने लगी ।
फिर सोना, जेवरात, जवाहारात और नोट अलग-अलग किए गए ।
लूट में नोट मिलने से सबको विशेष खुशी हुई थी ।
लूटी गई कई सेफों में नोट और दस्तावेज रखने के लिए खास तौर से बनाए गए फायरप्रूफ चैम्बर थे जिसकी वजह से नोट झुलसने से बच गए थे ।
इरफान अली को उन्हीं नोटों में से बीस हजार रुपए देकर वहां से रवाना कर दिया गया था । एक रात की पहरेदारी की उसकी उतनी ही फीस तय हुई थी ।
नागराज का अभी भी कुछ पता नहीं था ।
फिर सबसे पहले नोटों को गिना गया ।
लगभग बीस लाख रुपया ।
फिर सोने की बारी आई ।
लगभग पैंतीस किलो ।
हीरे-जवाहारात और जेवरात की एकदम दुरुस्त कीमत आंकने की काबलियत किसी में भी नहीं थी लेकिन आंटी ने अपने फैंस के तजुर्बे के आधार पर बताया कि वह माल चार करोड़ रुपए से किसी सूरत में कम नहीं था ।
“बिकेगा कितने का ?” - वागले ने पूछा ।
“दो करोड़ का ।” - आंटी बोली ।
“चार करोड़ का माल दो करोड़ में बिकेगा ?”
“वो भी हमारी वजह से । कोई दूसरा फैंस ऐसे माल का चालीस फीसदी से ज्यादा नहीं दिला सकता ।”
“और सोना ?”
“वो चौबीस कैरेट बिस्कुटों की सूरत में है । साठ लाख में बिक जाएगा ।”
“एक करोड़ का सोना साठ लाख में ?”
“एक एक बिस्कुट करके बेचने पर अस्सी लाख में भी बिक सकता है । और ऊपर भी बिक सकता है । छ:-सात महीने में तो बिक ही जाएंगे सारे बिस्कुट ।”
“छ:-सात महीने में !” - रूपचन्द बोला ।
“वो भी तब अगर बेचने वाला बीच में ही पकड़ा न जाए ।”
“ओह !”
“चोरी का इतना माल एकमुश्त बेच पाना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है । इतनी बड़ी पेमेन्ट दो दिन में करने वाला अपना भी तो कोई नफा-नुकसान देखेगा या नहीं ।”
“आंटी ठीक कह रही है ।” - मुबारक अली बोला ।
“लेकिन...” - वागले ने कहना चाहा ।
“यूं आंटी पर बेएतबारी दिखाने का कोई फायदा नहीं । अब खड़े पैर हम कोई दूसरा फैंस तलाश करने नहीं जा सकते ।”
विमल ने सहमित में सिर हिलाया ।
जामवन्तराव मन-ही-मन अपने हिस्से का हिसाब लगाने लगा ।
दो करोड़ जमा साठ लाख जमा बीस लाख बटा पांच ।
जवाब तो वह न निकाल सका लेकिन जवाब की उम्दा सम्भावनाओं से उसकी बाछें खिल गई ।
उस घड़ी आनन्द की किसी को याद नहीं आ रही थी । आंटी ने आनन्द के बारे में पूछा था लेकिन जब मुबारक अली ने उसे बताया था कि वह मर गया तो उसकी सूरत पर कोई अफसोस के भाव नहीं आए थे । विमल को तो उलटे यूं लगा था कि वह खबर सुनकर वह मन ही मन खुश हुई हो ।
“नोटों का बंटवारा क्यों न अभी हो जाए ?” - एकाएक जगनानी बोला । आखिर चालीस हजार की रकम में उसके प्राण अटके हुए थे ।
“ख्याल बुरा नहीं ।” - मुबारक अली बोला ।
“हां ।” - अपनी नाखुश बीवी को याद करता हुआ जामवन्तराव भी तुरन्त बोला - “यह ठीक रहेगा ।”
वागले ने विमल की तरफ देखा, फिर उन दोनों के सिर भी सहमति में हिले ।
“ठीक है ।” - आंटी बोली - “विट्ठलराव, नोटों के छ: हिस्से कर ।”
“छ: !” - जामवन्तराव सकमकाया ।
“एक हिस्सा हमारा भी तो है ।”
“ओह ! ओह ! मैं तो भूल ही गया था ।”
“सात !” - मुबारक अली बोला
“सात ?” - आंटी की भृकुटि तनी ।
“हां, सात । आनन्द का हिस्सा मेरे कू मांगता है । वो मरने से पहले मेरे कू बोलकर गया था कि उसका हिस्सा उसकी मां को पहुंचाने का है ।”
“लेकिन एक मर चुके आदमी का हिस्सा...”
“ज्यास्ती बात नहीं मांगता । सात हिस्से बनाओ और दो मेरे हवाले करो ।”
“ओहो, तो आनन्द का हिस्सा हम सब में बंटने देने की जगह तुम अकेले डकार जाना चाहते हो !”
“औरत है तू, आंटी ।” - मुबारक अली का स्वर एकाएक बेहद हिंसक हो उठा - “इसलिए तेरे कू माफ किया । यह बात अगर तेरा पिल्ला बोला होता तो अभी तक पेट फाड़कर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आंतें बाहर निकाल देता ।”
मुबारक अली का वह रौद्र रूप देखकर आंटी के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई ।
“विट्ठलराव ।” - वह जल्दी से बोली - “सात हिस्से बना ।”
सारे नोट सात हिस्सों में बंटकर हिस्सेदारों की जेबों में पहुंच गए ।
“बाकी बंटवारा मंगलवार शाम को ।” - आंटी बोली ।
“मुझे” - विमल धीरे से बोला - “अपना बाकी का हिस्सा भी अभी चाहिए ।”
सब विमल की तरफ देखने लगे ।
“क्या ?” - मुबारक अली बोला ।
“मैंने कहा मुझे अपना बाकी का हिस्सा भी अभी चाहिए ।”
“यह कैसे हो सकता है ?” - आंटी बोली - “मैं पहले ही बार-बार कह चुकी हूं कि दो दिन से कम वक्त में चोरी के ऐसे माल का रोकड़ा खड़ा नहीं किया जा सकता ।”
“मैं दो दिन इन्तजार नहीं कर सकता । मैंने आज ही कहीं जाना है । बम्बई से बाहर । बम्बई से दूर ।”
“आज रोकड़ा किसी सूरत में नहीं मिल सकता ।”
“तुम जेवर और जवाहरात पचास फीसदी पर और सोना साठ पर बेचने वाली हो । मैं अपने हिस्से का चालीस फीसदी भी कबूल कर सकता हूं ।”
“वो भी बहुत बड़ी रकम बनती है । उसका आनन-फानन इन्तजाम मुमकिन नहीं ।”
“पैंतीस ।”
“मैंने कहा न...”
“ठीक है । मैं और वागले अपना हिस्सा सोने और जेवरात की सूरत में लेने को तैयार हैं । सोना पैंतीस किलो है ! मेरे और वागले के हिस्से के तौर पर दस किलो हमारे हवाले कर दिया जाए ।”
कोई कुछ न बोला ।
“किसी को कोई एतराज ?”
फिर कोई जवाब न मिला । हर कोई एतराज करने का ख्वाहिशमन्द दिखाई देता था लेकिन किसी को नहीं सूझ रहा था कि एतराज किया जाता तो किस बिना पर किया जाता !
“वागले ! सौ बिस्कुट उठा ।”
वागले बिस्कुट उठाकर एक झोले में भरने लगा ।
सब उसे टुकर-टुकर देखते रहे ।
“अब ऐसे ही” - विमल बोला - “हमें जेवरात और जवाहरात में से दो हिस्से दिए जाएं ।”
“वो कैसे होएंगा !” - इस बार मुबारक अली बोला - “बिस्कुट तो सब एक जैसे हैं लेकिन जेवर और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, हीरे तो एक जैसे नहीं ।”
“यह बंटवारा” - आंटी बोली - “माल की कीमत अंकवाए बिना नहीं हो सकता ।”
“हो सकता है ।” - विमल बड़े सब्र से बोला - “माल की अन्दाजन कीमत तुम पहले ही लगा चुकी हो ।”
“मैंने सामूहिक कीमत का अन्दाजा लगाया है । एक-एक आइटम का मेरा कोई अन्दाजा नहीं ।”
“हमारे हिस्से की रकम के बराबर तुम हमें वो आइटम दे दो जिन्हें तुम कम कीमत का समझती हो ।”
“या” - वागले बोला - “हमें हमारे इनमें हिस्से की रकम के बराबर का भी सोना दे दो ।”
“हमें सौ बिस्कुट और दे दो” - विमल बोला - “समझ लो हमारा हिस्सा मुकम्मल हो गया ।”
“तुम दो दिन इन्तजार क्यों नहीं कर सकते ?” - मुबारक अली चिढकर बोला ।
“वजह मैं बता चुका हूं । मैं आज ही बम्बई से बाहर जा रहा हूं ।”
“लेकिन वागले...”
“वो मेरे साथ जा रहा है ।”
“हम तुम्हारा हिस्सा तुकाराम को पहुंचा देंगे ।”
विमल यूं हंसा जैसे कोई भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
“रुपए की तरह” - मुबारक अली बोला - “सोने में भी हम सब अभी हिस्सा लेने के लिए तैयार हो जाएं तो ?”
“तो क्या ! तो जाहिर है कि जवाहरात और जेवरात के बदले में हमें सोना नहीं मिलेगा । फिर हम किसी तरह इन्हीं का बंटवारा करने की कोशिश करेंगे ।”
“लेकिन हिस्सा तुम आज ही लेकर जाओगे ?”
“आज ही नहीं । अभी ।”
“आंटी” - मुबारक अली बोला - “तुम जेवर और हीरे किसी तरीके से बराबर बांट सकती हो ?”
“नहीं ।” - आंटी बोली - “ऐसा बंटवारा अन्दाजन किया गया तो तगड़ा माल इन लोगों के पास जा सकता है ।”
“उलट भी हो सकता है ।” - विमल बोला - “बिना किसी की गलती के हमारे साथ धोखा हो सकता है और हमारे हिस्से सब से कमजोर माल पड़ सकता है ।”
“आंटी ।” - मुबारक अली बोला - “हमारा फायदा किसमें है ?”
“इन्हें सोना देने में ।” - आंटी निसंकोच बोली - “सोने की कीमत हम जानते हैं, इनके बाकी के हिस्से की कीमत हम जानते हैं इसलिए हमें मालूम होगा कि ये क्या ले गए ?”
“हूं । कोई साहब इस वक्त सोना लेना चाहते हैं ?”
‘कोई साहब’ में असल में तो सिर्फ जामवन्तराव और रूपचन्द जगनानी शामिल थे और असलियत यह थी कि उन्हें तो यह भी ठीक से नहीं पता था कि बहस का मुद्दा क्या था । दोनों तो उन नोटों से ही बेतहाशा खुश थे जो उनकी जेबों में सुरक्षित पहुंच चुके थे ।
दोनों के सिर तुरन्त इन्कार में हिले ।
उधर मां-बेटे की तो सूरतों पर लिखा था कि सोने से ज्यादा उनका ‘फेथ’ जेवरात और जवाहरात में था ।
“ठीक है ।” - मुबारक अली बोला - “कोई वान्दा नहीं । सोना ले लो, बाप ।”
वागले ने सौ बिस्कुट और उठाकर झोले में भर लिए ।
फिर सब से अलविदा कहकर विमल और वागले वहां से विदा हुए ।
***
जौहरी बाजार में से जो तीन लाशें बरामद हुईं उनमें से तत्काल शिनाख्त, पुलिसकर्मी होने की वजह से, सिर्फ ए.एस.आई. नामदेव की ही हो पाई ।
नागराज, जिसका भेजा उसकी खोपड़ी से बाहर बिखरा पड़ा पाया गया था, नामदेव के हाथों मरा था, यह बात पुलिस को मलानी के बताए मालूम हुई थी ।
यह मात्र संयोग था कि आनन्द की शिनाख्त करने की कोशिश करने वालों में सिनेमा प्रेमी कोई नहीं था वर्ना कम से कम पुलिस को इतना जरूर मालूम हो जाता कि मरने वाला छोटा-मोटा फिल्म एक्टर था ।
उसको डकैतों का साथी साबित करने के लिए उसके जिस्म पर मौजूद हीटप्रूफ पोशाक ही काफी थी ।
पुलिस चौकी की जीप घटनास्थल से कोई आधा मील दूर पिछले बाजार से बरामद हो गई थी । उसी में से तब भी बेहोश पड़ा मार्केट का गोरखा चौकीदार मनबहादुर बरामद हुआ था ।
जीप को रुटीन चैकअप से गुजारा गया । उस पर से कोई अपरिचित फिंगरप्रिंट्स बरामद न हुए ।
प्रैस के लिए पुलिस का जगतप्रसिद्ध, चाकचौबन्द जवाब हाजिर था:
वे कई लीड्स पर काम कर रहे थे और अगले अड़तालीस घन्टों में वे तमाम के तमाम डकैतों को - जिनकी अभी उन्हें संख्या तक नहीं मालूम थी - गिरफ्तार कर लेने वाले थे ।
***
जामवन्तराव टैक्सी पर घर लौटा ।
चाल की सीढियां चढते वक्त उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे ।
वह बार-बार अपनी उन चारों जेबों को सहला रहा था जिनमें उसने ढूंस-ढूंस कर सौ-सौ के नोट भरे हुए थे । आज वो अपनी बीवी का हर गिला, हर शिकवा दूर करने में समर्थ था । सब से पहले तो वह उसे उस गन्दी चाल में से निकालेगा और उसकी नौकरी छुड़वाएगा । फिर बीवी को और खुश करने के लिए वह हेरोइन का नशा छोड़ने की भी पूरी कोशिश करेगा ।
अपने उस संजीदा, पुख्ता इरादे के सबूत के तौर पर उसने अपनी जेब से भूरे कागज में लिपटी हेरोइन की दो खुराकें निकालीं और उन्हें सीढियों पर फेंक दिया ।
वह अपनी खोली के दरवाजे पर पहुंचा ।
वह दरवाजा खटखटाने ही लगा था कि उसने पाया कि दरवाजा खुला था । उसने धक्का देकर उसे खोला और भीतर दाखिल हुआ ।
अन्जना पलंग पर पीठ के बल लेटी हुई थी और उस घड़ी दीन-दुनिया से बेखबर मालूम होती थी ।
बेचारी - उसने दरवाजा भीतर से बन्द करते हुए मन ही मन सोचा - सारी रात इन्तजार करती रही होगी उसके लौटने का, हालांकि वह कहकर गया था कि वह रात को नहीं लौटने वाला था । जरूर बहुत देर से सोई होगी जो अभी तक नहीं जागी थी जबकि सूरज सिर पर आ चुका था ।
दरवाजा खुलने पर जो थोड़ी-बहुत रोशनी भीतर दाखिल ही रही थी, वह दरवाजा बन्द होते ही गायब हो गई और खोली में अन्धेरा छा गया । उसने बिजली के स्विच की तरफ हाथ बढाया लेकिन फिर रास्ते से ही वापिस खींच लिया । उसके मन में अभिसार के बड़े रंगीन सपने तैरने लगे । उसकी शादी कल के रोज हुई थी लेकिन सुहागरात वाला दिन तो आज था ।
वह पलंग के करीब जा खड़ा हुआ । वह कुछ क्षण नीमअन्धेरे में बीवी के चेहरे को निहारता मन्द मन्द मुस्काता रहा, फिर उसने एक अनोखी हरकत थी ।
वह अपनी जेबों से सौ-सौ के नोट निकालकर अपनी बीवी के जिस्म पर डालने लगा ।
जल्दी ही अन्जना एड़ी से चोटी तक सौ-सौ के नोटों से ढंक गई ।
“मैं न कहता था” - वह पूर्ववत् उस पर नोटों की बारिश करता हुआ बड़े अनुरागपूर्ण स्वर में बोला - “कि चन्द रोज और मेरी जान, फकत चन्द ही रोज । मैं न कहता था कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुझे दौलत के अम्बार से ढंक दूंगा । देख ले, वो दिन आ गया । वो दिन आ गया, अन्जना, वो दिन आ गया । तू कहती थी कि वो दिन तेरी जिन्दगी में तो क्या आएगा ! देख ले, तेरी जिन्दगी में ही आया है वो दिन । अन्जना, अब उठ तो सही । ऐसी भी क्या नींद हुई !”
फिर उसे सूझा कि उसकी बीवी को अन्धेरे में क्या दिखाई देता कि वह नोटों के अम्बार के नीचे दबी हुई थी ।
उसने स्विचबोर्ड के करीब जाकर ट्यूब लाइट आन की और वापिस पलंग के करीब लौटा ।
वह पलंग पर बैठ गया । उसने अन्जना को दोनों कन्धों से थामकर तनिक झिंझोड़ा ।
अन्जना के शरीर में कोई हरकत न हुई ।
उसने उसे उठाकर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की तो उसकी एक बांह यूं पलंग से नीचे लटककर झूलने लगी कि जामवन्तराव का दम खुश्क होने लगा ।
“अन्जना !”
फिर तभी उसकी निगाह नजदीक तिपाई पर पड़ी नींद की गोलियों की उस शीशी की तरफ गई जिसकी गोलियां अन्जना नींद न आने की शिकायत होने पर अक्सर खाती थी । पिछले रोज उसने वह शीशी तीन-चौथाई भरी देखी थी लेकिन उस वक्त वह एकदम खाली थी ।
उसने फटी फटी आंखों से अपनी बेसुध बीवी की तरफ देखा ।
फिर हकीकत हजार मन के पत्थर की तरह उसकी चेतना से टकराई ।
“अन्जना !” - उसके मुंह से यूं चीत्कार निकली जैसे उसका कलेजा फट रहा हो - “ये क्या किया तूने ! मैं कामयाब हुआ तो तूने आंखें बन्द कर लीं ! मैंने तेरे साथ के काबिल बन के दिखाया तो तूने साथ छोड़ दिया । अन्जना ! ये क्या किया तूने ! क्यों किया तूने !”
उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे ।
जिन नोटों को हासिल करने के लिए वह मरा जा रहा था, वे अब उसे रद्दी कागज के पुर्जे लग रहे थे ।
रोता-रोता वह दरवाजा खोलकर खोली से बाहर निकला ।
क्या करे वो ? कहां जाए ? क्या छाती कूट-कूटकर दहाड़ें मारने लगे और चिल्लाने लगे कि देखो लोगो, मेरी बीवी मर गई । उसने मेरा विश्वास न किया, उसने मेरा इन्तजार न किया, वो मर गई । वो...
तभी उसकी निगाह सीढियों पर पड़ी भूरे कागज में लिपटी हेरोइन की दो खुराकों पर पड़ी ।
उसने आगे बढकर उन्हें उठा लिया । उसने बारी-बारी दोनों को खोला और एक के बाद एक करके अपने नथुनों में चढा लिया ।
डबल डोज ने फौरन अपना चमत्कार दिखाया ।
फिर एक यन्त्र-मानव की तरह चलता हुआ वह सीढियां उतरने लगा ।
जो टैक्सी वाला उसे वहां लाया था, वह संयोगवश अभी वहीं खड़ा था । वह टैक्सी के करीब पहुंचा और उसका पिछला दरवाजा खोल कर भीतर बैठ गया ।
जामवन्तराव ने जब पहली बार उसका भाड़ा चुकाया था तो टैक्सी ड्राइवर को उसकी एक जेब में ठुंसे पड़े सौ-सौ के नोटों की झलक मिली थी । उसी झलक को याद करता हुआ वह बड़े अदब से बोला - “कहां चलूं, सेठ ?”
“कहीं भी ।” - जामवन्तराव बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
टैक्सी ड्राइवर ने लापरवाही से कन्धे उचकाए और टैक्सी आगे बढाई । ऐसे दौलत से लदे-फंदे लोगों से ऐसे अजीबोगरीब आदेश हासिल होना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी । खूब जानता था वह ऐसे पैसेंजरों को ।
लेकिन वो यह नहीं जानता था कि उसका पैंसेजर पिछली सीट पर सिर झुकाए बैठा हिचकियां ले-लेकर रो रहा था ।
***
“तुमने यूं अपना हिस्सा क्यों वसूला ?” - चैम्बूर के रास्ते में कार चलाते हुए वागले ने पूछा - “तुम्हें उन लोगों का भरोसा नहीं ?”
“मुझे अपनी तकदीर का भरोसा नहीं ।” - विमल गम्भीरता से बोला - “खुदा अपने गुनहगार बन्दों के जो बेशुमार इम्तहान लेता है उसमें से एक इम्तहान यह भी होता है कि प्यास लगी हो तो जाम होंठों के करीब पहुंचकर टूट जाए । पिछली बार छ: करोड़ रुपया मेरे कब्जे में था, पल्ले क्या पड़ा ! दस लाख रुपया । वो भी संयोग से । मुमकिन था वो भी हाथ न आता । इसीलिए इस बार मैंने दो दिन इन्तजार करना मुनासिब नहीं समझा ।”
“हूं ।”
“और फिर बम्बई से बाहर तो मैंने सचमुच जाना है ।”
“कहां ?”
“सोनपुर । सोलंकी को भूल गए क्या ? अब अगर मैंने फौरन, एहतियातन कुछ न किया तो उस बेवकूफ आदमी की किसी बेहूदा हरकत से मेरा नया चेहरा छिन जाएगा मेरे से ।”
“अकेले जाओगे ?”
“हां ।”
“क्यों न मैं साथ चलूं ?”
“नहीं । तुमने यहां तुका का ख्याल करना है और सोने को कैश करने का कोई इन्तजाम करना है । मेरा काम मामूली है । मैंने सिर्फ हेल्गा को विश्वास दिलाना है कि मैं डॉक्टर स्लेटर का कातिल नहीं ।”
वागले फिर न बोला । वह खामोशी से कार चलाता रहा ।
दाता ! - विमल होंठों में बुदबुदाया - जीउ डरत है आपणा कै सिउ करी पुकार, दुख विसारण सेवया सदा-सदा दातार ।
***
मुबारक अली पैदल अपने फ्लैट की तरफ बढ रहा था । उस वक्त वह आनन्द के घर से लौट रहा था । आनन्द का घर उसके घर से मुश्किल से आधा मील दूर था इसलिए वह वहां से पैदल चला आ रहा था ।
उसका मन उस वक्त बहुत भारी था । आनन्द के फ्लैट में बैठी, उसका इन्तजार करती, गोवानी लड़की हाना गोंसाल्वेज एक बहुत ही नेकबख्त लड़की निकली थी, आनन्द की मौत की खबर सुनकर उसने यूं सूरत बनाई थी जैसे वह खबर ही उसकी जान ले लेने वाली हो । निहायत सख्तजान मुबारक अली से भी उस घड़ी उसकी सूरत नहीं देखी गई थी और वह हड़बड़ाकर यूं वहां से भागा था जैसे उसे डर हो कि लड़की कहीं उसके सामने ही सदमे से जान न दे दे ।
कितना खुशकिस्मत था आनन्द कि उसे ऐसी प्यार करने वाली लड़की मिली थी ! बावजूद इसके कि खुद उसने जिस लड़की से भी यारी की थी, अपनी हवस की पूर्ति के लिये की थी ।
जब एक गैरऔरत आनन्द से इतना प्यार कर सकती थी तो उसकी मां तो पता नहीं उसे कितना चाहती होगी जिसके पास आनन्द का हिस्सा लेकर अभी उसने जाना था और उसे आनन्द की मौत की खबर सुनानी थी !
बहुत बदमजा जिम्मेदारी सौंपी थी आनन्द ने उसे ।
उसके लिए यह भी कम हैरानी की बात नहीं थी कि आनन्द ने एक गैर, नावाकिफ, बूढे की खातिर अपनी जान दी थी । पहले भी तो वह बुजुर्गवार की यूं ही तरफदारी करता रहा था । ऐसा क्यों ? आनन्द जैसे खुदगर्ज और अपने लिए जीने वाले आदमी की किसी गैरशख्स से ऐसी निसबत क्यों जैसे वह कोई उसका सगे वाला हो !
मुबारक अली के पास उसका कोई जवाब न था । उसने मोड़ काटकर अपने फ्लैट वाली गली में कदम रखा तो वह एकाएक थमक कर खड़ा हो गया ।
उसके फ्लैट वाली इमारत के सामने एक पुलिस की जीप खड़ी थी ।
उसने घूमकर वापिस लौट जाने का इरादा किया ही था कि उसने अनुभव किया कि पुलसियों ने उसे देख लिया था ।
क्या उन्हें मालूम हो गया था कि वह डकैती में शामिल था ?
नहीं, नहीं । ऐसा कैसे हो सकता था ! वो भी इतनी जल्दी !
और फिर अभी तो यह भी पक्का नहीं था कि पुलिस उसी के इन्तजार में वहां मौजूद थी । आखिर उस इमारत में और भी तो कई फ्लैट थे ।
लेकिन तवज्जो तो उनकी उसी की तरफ मालूम होती थी ।
उसके और आनन्द के हिस्से के नोट नायलोन की एक डोरी से बंधे एक बण्डल की सूरत में उसके हाथ में थे । किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर उसने एक कचरे से भरे ढोल के करीब से गुजरते समय बंडल अपने हाथ से निकल जाने दिया । बण्डल निशब्द ढोल में पड़े कचरे में जाकर गिरा ।
वह इमारत के करीब पहुंचा ।
“मुबारक अली !” - तभी एक पुलसिया बोला ।
“क्या है ?” - मुबारक अली थमककर बोला ।
“तुम्हारा नाम मुबारक अली है ?”
“अरे, बाप, बोला न है । अब तू भी तो कुछ बोल ।”
“तुम्हें मेरे साथ हैडक्वार्टर चलने का है ?”
“कहां ?”
“हैडक्वार्टर । पुलिस के बड़े दफ्तर ।”
“चौकी नहीं ? थाने नहीं ? सीधे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, हैडक्वार्टर !”
“हां ।”
“वजह ?”
“वजह वहीं चलकर मालूम होगी !”
“यह क्या धांधली है ? मैं...”
“अगर तुम इनकार करोगे तो मुझे तुमको गिरफ्तार करके ले जाना पड़ेगा ।”
“ऐसा ?”
“हां ।” - पुलसिया दृढ स्वर में बोला - “ऐसा ।”
“ठीक है, बाप, चलो ।”
वह जीप में सवार हो गया ।
जीप वहां से रवाना हुई ।
वह कूड़े के ढोल के करीब से गुजरी तो मुबारक अली को नोटों के पैकेट की एक झलक मिली ।
उसने एक आह भरी ।
अल्लाह ! - वह मन ही मन बोला - सुभान तेरी कुदरत ! पौने छ: लाख की रकम कूड़े के ढेर में पड़ी थी ।
***
अपने पास मौजूद रकम की बाबत रूपचन्द जगनानी खुश कम था और फिक्रमन्द ज्यादा था । बात छोटी-मोटी रकम की होती तो वह कह सकता था कि मेरा घोड़ा लग गया था या मटके का नम्बर लग गया था लेकिन चालीस-पैंतालीस लाख की रकम की उसके पास मौजूदगी की अगर किसी को खबर लग जाती तो वह क्या जवाब देता ! अपने पास उस वक्त मौजूद लगभग पौने तीन लाख रुपये ही उसे मुसीबत लग रहे थे और अभी तो उसे बहुत माल मिलना था ।
वो लड़का, आनन्द, बेचारा मर गया वर्ना वह अपने हिस्से की रकम उसी के पास रखवा देता । और तो किसी पर उसका एतबार बन नहीं रहा था । एक वो पाइप वाला नौजवान सूरत से भला और ईमानदार लगता था लेकिन वो तो अपना मुकम्मल हिस्सा बटोरकर यूं चम्पत हुआ था जैसे दोबारा उन लोगों में से किसी की सूरत तक न देखना चाहता हो ।
अपने पास मौजूद नोटों को कुछ कम करने की नीयत से ही उस घड़ी उसने सबसे पहले कोलाबा का रुख किया था ।
आनन्द की मौत का उसे दिल से अफसोस था । बेचारे ने उसे बचाने की खातिर अपनी जान दे दी । इतना तो अपनी सगी औलाद नहीं करती । पता नहीं क्या भाया था आनन्द को उसमें जो वह आखिर तक उस पर इतना मेहरबान रहा था ।
उसने गोविन्द दत्तानी की कोठी की कालबैल बजाई तो दत्तानी ने खुद दरवाजा खोला । रूपचन्द पर निगाह पड़ते ही दत्तानी के चेहरे पर गहन वितृष्णा के भाव आये ।
“फिर आ गया, बुढऊ !” - वह कर्कश स्वर में बोला ।
“तुम्हारी रकम लौटाने आया हूं ।” - रूपचन्द सहज भाव से बोला ।
उस अप्रत्याशित जवाब से दत्तानी हड़बड़ाया, फिर उसके चेहरे के भाव बदले, वह नम्र स्वर में बोला - “आओ, भीतर आओ ।”
दत्तानी के पीछे-पीछे रूपचन्द ने दत्तानी के ड्राइंगरूम में कदम रखा । वहां अव्यवस्था का बोलबाला था । विस्की और सोडे की खाली बोतलें और गिलास जगह-जगह लुढके पड़े थे । प्लेटों में मुर्गों की हड्डियां, अनछुई, अधखाई टांगें पड़ी थीं । एक सोफे को पीठ पर एक बड़े-बड़े कपों वाली जालीदार काली ब्रेसियर पड़ी थी । जगह-जगह सिगरेटों, सिगारों के टुकडे बिखरे पड़े थे ।
“कल रात‍ यहां पार्टी थी ।” - दत्तानी बोला - “बड़ा बॉस आया था । इकबाल सिंह । बीवी यहां नहीं है । नौकरानी आई नहीं इसलिए यहां का बुरा हाल है ।”
रूपचन्द का जी चाहा कि कह दे मुझे क्या लेकिन वह खामोश रहा ।
“तुम बाहर क्या कह रहे थे ?” - दत्तानी बोला ।
“मैं कह रहा था कि मैं तुम्हारी रकम लौटाने आया हूं ।”
“हां । यही सुना था मैंने । कानों पर विश्वास नहीं हुआ था इसलिए दोबारा पूछा । तो तुम रकम लौटाने आए हो ।”
“हां ।”
“पूरी ? पूरे चालीस हजार ?”
“हां ।” - रूपचन्द ने अपनी उस जेब में हाथ डाला जिसमें उसने पहले ही चालीस हजार रुपये गिन कर रख लिये थे । उसने नोटों का पुलन्दा दत्तानी को सौंपा और बोला - “गिन लो ।”
दत्तानी ने नोट गिने ।
नोट पूरे थे ।
“क्या बात है ?” - फिर वह रूपचन्द को घूरता हुआ बोला - “अभी तो पच्चीस तारीख में पांच दिन बाकी थे ।”
“कर्जा जितनी जल्दी उतरे, उतना ही अच्छा होता है, साईं ।”
“क्या कहने !”
रूपचन्द खामोश रहा ।
“कुछ पियोगे ?” - दत्तानी बार की ओर निगाह डालता हुआ बोला ।
“नहीं, शुक्रिया ! मुझे जरा जल्दी है । कोई खता हुई हो तो माफ करना, साईं । आज के बाद अब हमारी मुलाकात नहीं होगी ।”
“अच्छा ! ऐसा क्यों ?”
“क्योंकि अब हमारे रास्ते अलग हैं ।”
“कमाल है । अभी कल तक तो तुम गिड़गिड़ा रहे थे कि तुम्हें मटका कलैक्टर बना रहने दिया जाए । आज वो रास्ते ही छोड़ रहे हो ?”
“हां । अब मैं तुम्हारा देनदार नहीं । अब तुम्हारा-मेरा हिसाब बराबर है । मैं जाता हूं । नमस्ते ।”
वह घूमकर दरवाजे की ओर बढने लगा तो वहीं थमक कर खड़ा हो गया ।
दरवाजे पर वो मवाली खड़ा था, पांच तारीख, शनिवार की रात को जिसने उससे माचिस मांगी थी और फिर अपने दो साथियों से साथ जिसने उसे सबसे ज्यादा मारा था ।
“साईं” - वह दत्तानी की तरफ वापिस घूमा - “यह क्या बात हुई ?”
“कोई खास बात नहीं हुई ।” - दत्तानी बड़े कुटिल भाव से मुस्कराया - “मुझे आज तेरे रोकड़े के साथ यहां आने की उम्मीद थी इसलिए मैंने इस मूर्ति को, तेरे स्वागत के लिए यहां बुला छोड़ा था ।”
“तुम्हें” - रूपचन्द हकलाया - “मेरे यहां आने की उम्मीद थी ।”
“हां ।”
“क - क्यों ?”
“क्योंकि मेरी गारन्टी है कि कल रात जौहरी बाजार की डकैती में तू शामिल था । अब तू पूछेगा कि मुझे यह गारन्टी क्योंकर हुई । मैं तेरे पूछे बिना तुझे बताता हूं । मुझे यह गारन्टी इसलिए है क्योंकि मुझे पहले तेरे वाल्ट की सेंधमारी में भी शामिल होने की गारन्टी थी । तूने पुलिस वालों को बेवकूफ बना लिया और यह कहकर छूट गया कि तू इत्तफाकिया ऐन सायरन बजने के वक्त जौहरी बाजार में मौजूद था लेकिन मैं ऐसे बेवकूफ नहीं बनने वाला । मुझे मालूम है कि तू इसलिए वहां मौजूद था क्योंकि तू सेंधमारी में शामिल था । जानता है मैंने इकबाल सिंह को क्या कहा था ? मैंने उसे कहा था कि अगर आज अपना सिन्धी भाई रूपचन्द जगनानी चालीस हजार रुपये लौटाने यहां आ गया तो फिर यह अपने आप में सबूत होगा कि तू डकैतों का साथी है । साले, कल तक तेरे पास काला पैसा नहीं था, अब कैसे आ गए आज तेरे पास मुझे एकमुश्त लौटाने के लिए चालीस हजार रुपये ! बोल ! जवाब दे !”
रूपचन्द के मुंह से बोल न फूटा । बोलने की कोशिश में उसे अपना गला रुंधता महसूस होने लगा ।
“अगर तेरे में रत्तीभर भी अक्ल होती” - दत्तानी तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “तो तू आज ही रोकड़ा लौटाने यहां न पहुंच गया होता । तू यहां पच्चीस तारीख को आता और काबिलेरहम शक्ल बनाकर, यह कहकर, मुझे रोकड़ा लौटाता कि तेरा ईश्वर ही जानता है कि कैसे तूने उस रकम का इन्तजाम किया था । लेकिन तू आज आया । जौहरी बाजार में डाका पड़ते ही आया ।”
“म - मेरा उस डाके से कोई... वास्ता नहीं ।”
“तूने कह दिया और मैंने मान लिया ।”
“लेकिन साईं, मैं कहता हूं कि...”
“मुझे पता है तू क्या कहता है । जो कहता है वो मत कह और वो सुन जो मैं कहता हूं । वो देख जो मैं करता हूं ।”
“क - क्या ?”
“मूर्ति, तलाशी ले हरामजादे की ।”
वह हुक्म होते ही मूर्ति के पहलू में एक और प्यादा प्रकट हुआ । उसने ऐन वैसे ही रूपचन्द को पीछे से जकड़ लिया जैसे उसे पांच तारीख वाले शनिवार की रात को जकड़ा गया था ।
मूर्ति उसकी तलाशी लेने लगा ।
रूपचन्द प्यादे की पकड़ में छटपटाता रहा, मूर्ति उसकी जेबें टटोलता रहा । ज्यों ज्यों रूपचन्द की जेबों से नोट बरामद होते गए, दत्तानी के नेत्र फैलते गए ।
दो मिनट में रूपचन्द की जेबों का सारा माल बाहर आ गया ।
“झूलेलाल !” - दत्तानी बोला - “कहां से आया इतना माल तेरे पास ? जैक पाट लग गया ?”
“तुम्हें क्या ! कहीं से भी आया हो” - रूपचन्द भन्नाकर बोला - “तुम्हारी रकम तो लौटा दी न मैंने !”
“हां । वो तो है । बराबर है ।”
“मेरा माल वापिस करो और मुझे जाने दो ।”
“कितना माल है ये ?”
रूपचन्द ने उत्तर न दिया ।
“मूर्ति, इसे छोड़ दे और नोट गिन ।”
“दो लाख पैंतालीस हजार रुपये ।” - रूपचन्द धीरे से बोला ।
“जमा वो चालीस हजार जो तूने मुझे दिए । इतना माल तेरे पास कहां से आया, रूपचन्द ?”
रूपचन्द परे देखने लगा ।
“रूपचन्द, मैंने तेरे से एक सवाल पूछा है ।”
रूपचन्द ने उत्तर नहीं दिया ।
“जवाब नहीं देगा तो जानता है क्या होगा ?”
“जानता हूं । तुम मूर्ति को कहोगे कि यह मेरे को मार लगाए । पहले भी तो इसने तुम्हारे कहने पर मेरे को मारा था ।”
“तू नहीं जानता क्या होगा । इस बार तेरे को कुछ नहीं होगा, रूपचन्द । इस बार जो कुछ होगा तेरे पुटड़े की बीवी को होगा, उसकी नाबालिग बेटी को होगा । यहीं होगा । तेरे सामने होगा । और तब तक होगा, जब तक तू बक के नहीं देगा कि इतना माल तेरे पास कहां से आया । तेरी वो फूल जैसी पोती तेरे सामने...”
“ठहर जा, साले !”
रूपचन्द दत्तानी पर झपटा लेकिन मूर्ति ने उसे रास्ते में ही थाम लिया, उसने रूपचन्द को फिरकनी की तरह अपनी तरफ घुमाया और उसकी पसलियों में ताबड़तोड़ तीन-चार घूंसे रसीद किए । रूपचन्द पेट पकड़कर दोहरा हो गया, उसका चेहरा पीड़ा से विकृत हो उठा और आंखों में आंसू छलक आए ।
“अब बोल । जवाब दे ।” - दत्तानी यूं सहज भाव से बोला जैसे कुछ भी न हुआ हो - “बकता है या मैं मंगवाऊं यहां तेरी बहू और तेरी पोती को ?”
“दत्तानी” - रूपचन्द बड़ी कठिनाई से कह पाया - “तू शायद भूल गया है कि मेरा पुटड़ा कौन है । तूने उसके बीवी-बच्चे की तरफ एक उंगली भी उठाई तो बम्बई की सारी पुलिस तेरे पीछे पड़ जाएगी ।”
“ऐसी धमकियां मैंने बहुत सुनी हैं, बूढे ।”
“तू यह जानकर क्या करेगा कि यह माल मेरे पास कहां से आया ?”
“क्या करूंगा ! पूछता है क्या करूंगा ! अरे मैं वो माल भी कब्जाऊंगा जिसका यह माल एक मामूली हिस्सा है । साले, कोई टुच्चा मवाली बम्बई शहर में ‘कम्पनी’ की इजाजत के बिना ऐसी वारदात नहीं कर सकता । कोई...”
तभी कालबैल बजी । दत्तानी के इशारे पर मूर्ति दरवाजा खोलने चला गया ।
कुछ क्षण बाद राजसी शान से अपने सिपहसालार और चार बाडीगार्डों के साथ इकबाल सिंह ने वहां कदम रखा ।
दत्तानी ने बड़े अदब से उसका अभिवादन किया ।
“रूपचंद ।” - इकबाल सिंह करीब आकर उसकी पीठ पर धौल जमाता हुआ बोला - “कैसा है ?”
रूपचन्द के मुंह से बोल न फूटा, जवाब में वो सिर्फ सहमति में सिर हिला पाया ।
फिर इकबाल सिंह की निगाह मेज पर ढेर हुए नोटों पर पड़ी । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से दत्तानी की तरफ देखा ।
“रूपचन्द से बरामद हुए ।” - दत्तानी बोला ।
“कितने ?”
“दो लाख पैंतालीस हजार । उन चालीस हजार रुपयों के अलावा जो इसने मुझे पहले खुद लौटाए ।”
“वाह, रूपचंद । तूने तो कमाल कर दिया । दत्तानी ने जब पहले मुझे यह इशारा दिया था कि तू डकैतों का साथी हो सकता था तो मैं हंसते-हंसते लोटपोट हो गया था । अपना रूपचंद, अपना मटका कलैक्टर रूपचन्द और डकैतों का साथी ! अब मैं अपनी गलती मानता हूं । तू तो बहुत तीसमारखां निकला, रूपचन्द । तुझे तो यकीनन ‘कम्पनी’ में कोई बड़ा ओहदा मिलना चाहिए ।”
“मैं अब ‘कम्पनी’ के लिए काम नहीं करना चाहता ।” - रूपचंद हिम्मत करके बोला ।
“क्यों ? एक ही हल्ले में अमीर हो गया है इसलिए ?”
रूपचंद ने उतर न दिया ।
“खैर, वो तेरी मर्जी है । तू ‘कम्पनी’ के लिए काम चाहे न करे लेकिन इकबाल सिंह का दोस्त तो तू फिर भी रहेगा न ! रहेगा कि नहीं ?”
रूपचंद ने सहमति में सिर हिलाया ।
“बढिया । अब यह बता डकैती में कौन-कौन लोग शामिल थे और उनमें तेरा सरगना कौन था ?”
“मैंने कब कहा कि मैं किसी डकैती में शामिल था ?”
“अच्छा ! नहीं कहा अभी ? दत्तानी, नहीं कहा अभी ?”
दत्तानी ने इन्कार में सिर हिलाया ।
“कहेगा । मेरे से कहेगा । आखिर मैं इसका पुराना दोस्त हूं । अपने पुराने दोस्त का कुछ तो लिहाज करेगा यह । क्यों रूपचंद, करेगा न ?”
रूपचन्द ने उसकी तरफ निगाह न उठाई ।
“पीछे क्या है ?”
“बैडरूम ।” - दत्तानी बोला ।
“तुम सब लोग वहां जाओ ।”
डोंगरे के अलावा सब लोग पिछले कमरे में चले गए । डोंगरे उनसे परे ड्राइंगरूम के दरवाजे से टेक लगाए खड़ा रहा ।
“बैठ, रूपचंद ।” - इकबाल सिंह मीठे स्वर में बोला ।
रूपचंद झिझकता हुआ एक सोफे पर बैठ गया ।
इकबाल सिंह उसके करीब इसकी सोफे पर बैठ गया । उसने अपनी जेब से सोने का सिगरेट केस निकाला और उसे खोलकर रूपचंद की तरफ बढाता हुआ बोला - “ले । सिगरेट पी ।”
रूपचंद ने झिझकते हुए एक सिगरेट ले लिया । इकबाल सिंह ने भी एक सिगरेट होंठो से लगाया, फिर उसने पहले रूपचंद का और फिर अपना सिगरेट सुलगा लिया ।
“एक बात पूछूं ?” - एकाएक रूपचंद बोला ।
इकबाल सिंह तनिक हड़बड़ाया ।
“दो पूछ, रूपचंद ।” - फिर वह बोला ।
“तुम तो कहते थे आठवीं रेस तुमने फिक्स करवाई हुई थी । ‘शीशमहल’ को तुम श्योर विन बता रहे थे । फिर ‘शीशमहल’ जीता क्यों नहीं ?”
“जाकी दगा दे गया ।” - इकबाल सिंह बड़ी संजीदगी से बोला - “लालच में पड़ गया, हरामजादा । दुश्मनों से पैसा खा गया ।”
“ये वही जाकी तो नहीं था, दो दिन बाद जिसकी गोलियों से छलनी लाश समुद्र में से निकाली गई थी ?”
“वही था ।” - फिर इकबाल सिंह अपलक रूपचंद को देखने लगा - “लेकिन तू निश्चिंत रह । तेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा । आखिर तू मेरा यार है । तू मुझे दगा थोड़े ही देगा !”
रूपचंद के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई । दत्तानी की धमकियों ने उसे उतना नहीं डराया था, जितना उसे इकबाल सिंह के उस डेढ फिकरे ने डराया ।
इकबाल सिंह ने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया, फिर उसका आश्वासनपूर्ण हाथ रूपचंद के कंधे पर पड़ा ।
“देख ।” - वह हौले-हौले रूपचंद का कंधा थपथपाता हुआ बोला - “तूने ‘कम्पनी’ के पैसे पर निगाह मैली की, बुरा किया । लेकिन उसकी भरपाई कर दी, इसलिए तेरी खता माफ हो गई । भरपाई के लिए तेरे पास पैसा कोई वाल्ट लूटकर आया या बैंक लूटकर, इसके लिए तूने किसी का टेंटुवा दबाया या गला काटा, मुझे इससे भी कोई मतलब नहीं ।”
“लेकिन दत्तानी तो कहता है...”
“वो क्या कहता है, उसे छोड़ । जो इकबाल सिंह कहता है, उसे सुन । सुन रहा है ?”
“हां ।”
“तू डकैती में शामिल था ?”
“हां ।”
“पहली बार भी और इस बार भी ?”
“हां ।”
“सरगना कौन था ?”
रूपचंद ने उतर न दिया ।
“तू मत बता, मैं बताता हूं । सरगना सोहल था ?”
रूपचंद चौंका ।
“सरगना सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था जिसकी गिरफ्तारी पर दो लाख का इनाम है । ठीक ?”
“जब तुम्हें सब मालूम है तो मेरे से क्यों पूछते हो ?”
“यह देखने के लिए कि मेरे बरसों पुराने दोस्त रूपचंद में आज की तारीख में इकबाल सिंह की यारी-दोस्ती की कोई कद्र बाकी है या नहीं ।”
“मुझे यारी-दोस्ती की बहुत कद्र है ।”
“बढिया । तो डकैती में सरगना सोहल था ?”
“हां ।”
“इस वक्त कहां है वो ?”
“तुम क्यों जानना चाहते हो ?”
“क्योंकि मैं महसूस करता हूं कि ऐसा कांटे का आदमी ‘कम्पनी’ में होना चाहिए । मैं उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढाना चाहता हूं और उसे ‘कम्पनी’ की छत्रछाया में लाना चाहता हूं ।”
रूपचंद को वो बात जंची ।
“कांटे का आदमी तो वो है ।” - वह बोला ।
“तभी तो । देखना उसके हमारे साथ आ मिलने से ‘कम्पनी’ की कितनी ताकत बढती है ! अब बोल, इस वक्त वो कहां है ?”
“चैम्बूर में । तुकाराम नाम के आदमी के घर पर ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“तूने खुद उसे वहां देखा है ?”
“हां ।”
“वो कहां आता-जाता है या वहां रहता है ?”
“मेरे ख्याल से तो वहां रहता है ।”
इकबाल सिंह ने कहरभरी निगाहों से परे खड़े डोंगरे को देखा । कितना निकम्मा था उसका सिपहसालार ! कितने निकम्मे थे तुकाराम के घर की निगरानी करते उसके आदमी जो कहते थे कि सोहल के कदम तुकाराम के घर में नहीं पड़े थे ।
इकबाल सिंह ने सिगरेट फेंक दिया और उठ खड़ा हुआ ।
“चल ।” - वह बोला ।
“कहां ?”
“चैम्बूर । तुकाराम के घर ।”
“मैं क्यों ?”
“क्योंकि सोहल तेरा दोस्त है और तू मेरा दोस्त है । तू मुझे सोहल से मिलवाने का अहम काम करेगा ।”
“ओह !” - रूपचंद बोला, फिर उसने सामने मेज पर पड़े नोटों पर निगाह डाली और बोला - “ये नोट...”
“तेरे हैं ।” - इकबाल सिंह बोला - “चाहे अभी ले ले, चाहे वापिस आकर ले लेना ।”
“अब मैं वापिस आकर क्या करूंगा ?”
“ठीक है । अभी ले ले ।”
रूपचंद नोट बीनने लगा और सोचने लगा कि इकबाल सिंह बड़े अच्छे मौके पर आया वर्ना दत्तानी पता नहीं उसकी क्या दुर्गति करता !
कितना मूर्ख था रूपचंद जगनानी ।
***
मुबारक अली को ए.सी.पी. देवड़ा के सामने पेश किया गया ।
उसको यह बात बड़ी अजीब लगी कि ए.सी.पी. के आफिस में मौजूद सारे पुलिसिये उसके थोबड़े की जगह उसके पैरों को देख रहे थे ।
“क्या नाम है तुम्हारा ?” - देवड़ा सख्ती से बोला ।
“मुबारक अली ।”
“कहां रहते हो ?”
“फोर्ट में ।”
“फोर्ट में कहां ?”
“आर्थर बंदर रोड पर टेलीफोन एक्सचेंज के बाजू में । मकान नम्बर पंद्रह । फ्लैट नम्बर तीन ।”
“काम क्या करते हो ?”
“बाप, ऐसे सवाल क्यों पूछते हो जिसके, वो क्या कहते हैं अग्रेंजी में, जवाब तुम्हेरे कू मालूम । घर से पकड़कर मंगवाया फिर भी नाम-पता पूछते हो...”
“रविवार तेरह तारीख की रात को तुम कहां थे ?”
“याद नहीं ।”
“मैं याद दिलाता हूं । तब तुम एक मैटाडोर वैन में सावर थे जिसमें वैल्डिंग में काम आने वाले सिलेंडर लदे हुए थे और जिसे जार्ज सैबेस्टियन नाम का एक छोकरा चला रहा था । वैन को माहिम काजवे के नाके पर रोका गया था तो तुमने करीब बख्श नाम के अपना वाकिफकार निकल आए सिपाही को बताया था कि तुम्हारी गाड़ी बिगड़ गई थी और तुमने उस वैन पर लिफ्ट मांगी थी । याद आया ?”
“बरोबर याद आया, बाप ।”
“वैन का ड्राइवर तुम्हारे लिए एकदम नावाकिफ था ?”
“हां ।”
“वो कोई-सी वैन थी जो तुम्हें सड़क पर जाती मिल गई थी और तुमने जिससे लिफ्ट मांग ली थी ?”
“हां ।”
“वैन का ड्राइवर तुम्हारे लिए एकदम अजनबी था ?”
“हां । पहले भी तो बोला, बाप ।”
“वो ड्राइवर जार्ज सैबेस्टियन था ?”
“होयेंगा, बाप । अपुन नाम नहीं पूछेला था ।”
“तुम किसी जार्ज सैबेस्टियन को नहीं जानते ?”
“नक्को ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।” - देवड़ा ने एकाएक मेज पर जोर से घूंसा जमाया और गरजकर बोला - “अगर तुम किसी जार्ज सैबेस्टियन को नहीं जानते हो तो यह क्योंकर हुआ कि जो टैक्सी जार्ज सैबेस्टियन चलाता था, देना बैंक से उसके कर्जें के कागजात पर बतौर जामिन तुमने दस्तखत किए थे ? बोलो । जवाब दो ।”
“दे तो रहा हूं जवाब । धमका क्यों रहे हो, बाप ?”
“जवाब दो ।”
“अपुन कब बोला कि अपुन टैक्सी डरेवर जार्ज सैबेस्टियन को नहीं जानता । उसके बारे में तो तुम हमेरे से पूछा तक नहीं । तुम तो अपुन से उस मैटाडोर वैन के डरेवर के बारे में पूछेला है ।”
“मैटाडोर वैन तुम्हारा यार टैक्सी ड्राइवर जार्ज सैबेस्टियन ही चला रहा था ।”
“नहीं चला रहा था ।” - मुबारक अली बड़े इत्मीनान से बोला ।
“जार्ज सैबेस्टियन की शिनाख्त उस मैटाडोर वैन ड्राइवर की शक्ल में हो चुकी है ।”
“शिनाख्त करने वाला भांग खायेला होगा या चरस पियेला होगा । आजकल ऐसा फोकट का माल तुम्हेरे महकमे के लोगों में बहुत, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मशहूर है ।”
“शट अप ।”
“बाप, इसका अंग्रेजी में क्या मतलब हुआ ?”
“मुबारक अली, उस रात तुमने अपने जोड़ीदार जार्ज सैबेस्टियन के साथ जुहू विलेपार्ले स्कीम के इलाके में स्थित एक सरकारी गोदाम से गैस के सिलेंडर चुराए थे और उन्हें उस मैटाडोर वैन में ढोया था जोकि माहिम क्रीम के नाके पर रोकी गई थी । बाद में वही सिलेंडर जौहरी बाजार की डकैती में इस्तेमाल हुए थे । इससे साबित होता है कि तुम भी इस डकैती में शामिल थे ।”
“नहीं साबित होता ।”
“तुम्हारा जोड़ीदार जार्ज सैबेस्टियन उस डकैती में शामिल था, यह साबित हो चुका है ।”
“जरूर हो चुका होगा ।”
“तुम डकैती में शामिल थे ।”
“नहीं शामिल था । क्या सबूत है तुम्हेरे पास कि अपुन डकैती में शामिल था ? सिवाय इसके कि इत्तफाक से अपना वो छोकरा जार्ज डकैती में शामिल था । और यह भी तुम्हीं लोग बोलेला है । अपुन को तो इसका भी यकीन नहीं ।”
“सबूत है हमारे पास तुम्हारे खिलाफ ।”
“क्या सबतू है ?”
“तुम्हारे जूते के निशान सिलेंडरों के गोदाम के करीब वहां पाए गए थे, जहां से जाली काटकर सिलेंडर चुराए गए थे ।”
“उन जूतों के निशानों पर हमेरा चौखटा छपेला है ?”
“तुम बारह नम्बर का जूता पहनते हो ?”
“तो क्या हुआ ?”
“यह एक गैरमामूली साइज है ।”
“तो भी क्या हुआ ? बाप, बम्बई में नब्बे लाख लोग रहते हैं । अब यह न बोलना कि तुम लोग चैक कर चुके हो कि एक मेरे को छोड़कर उन नब्बे लाख लोगों में से कोई भी बारह नम्बर का जूता नहीं पहनता ।”
“तुम्हारे जूते की हमारे पास पहचान है ।”
अब तक डटकर पुलिस का मुकाबला करता हुआ मुबारक अली सकपकाया ।
“पहचान है ?” - वह बोला ।
“हां ।” - देवड़ा पुरजोर स्वर में बोला ।
“क्या पहचान है ?”
“तुम्हारे जूते के सोल का पैट्रन हमारे पास हैं ।”
“क्या ?”
“फाल्के । इसे प्लास्टरकास्ट दिखाओ ।”
इंस्पेक्टर फाल्के ने एक अलमारी में से निकालकर प्लास्टर आफ पेरिस की सहायता से मौकायेवारदात से उठाया हुआ मुबारक अली के जूते के निशानों का प्लास्टरकास्ट मुबारक अली को दिखाया ।
“इस पर बना पैट्रन देख रहे हो ? यह एक खास तरह का पैट्रन..”
“जोकि” - मुबारक अली व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “बारह नम्बर के एक ही जूते पर बनाया गया होयेंगा ।”
“नहीं । लेकिन ये बायें पांव का सोल यहां पंजे के पास से कटा हुआ है । ऐसे किसी और जूते का भी बायां ही सोल, यूं ही कटा हुआ हो, यह नहीं हो सकता ।”
“नहीं हो सकता तो ?”
“तो यह, मुबारक अली, कि अब तुम एक पुलिस पार्टी के साथ अपने फ्लैट पर वापिस जाओगे यहां कि तुम्हारी मौजूदगी में तुम्हारे फ्लैट की तलाशी होगी । अगर तुम्हारे फ्लैट से ऐसे सोल वाला बारह नम्बर का जूता बरामद हुआ तो... तो क्या बताने की जरूरत है कि फिर तुम्हारा क्या हश्र होगा ?”
“अगर जूता बरामद होगा तो !”
“तुम्हें तलाशी से कोई एतराज ?”
“नक्को । शौक से तलाशी लो, बाप । अपुन की ओर से कोई वान्दा नहीं ।”
मुबारक अली की लापरवाही देवड़ा को उलझन में डाल रही थी ।
वह मुबारक अली के चेहरे पर हवाइयां उड़ती देखने की तलबगार था जबकि उसके कान पर जूं तक नहीं रेंग रही थी ।
देवड़ा नहीं जानता था कि अपने उन जूतों में स्थायी रूप से बस गई सीवर की बदबू से तंग आकर मुबारक अली ने वे जूते अभी पिछले रोज ही स्टेनलैस स्टील के चार गिलासों के बदले में एक बर्तन बेचने वाली को दिए थे ।
***
पांच कारों में ‘कम्पनी’ के पच्चीस आदमियों के साथ इकबाल सिंह चैम्बूर पहुंचा ।
वहां बड़ी मुस्तैदी से चुपचाप, तुकाराम के मकान को घेर लिया गया ।
डोंगरे के संकेत पर रूपचंद ने कालबैल बजाई ।
वागले ने दरवाजे में लगे लैंस में से झांककर पहले देखा कि कौन आया था और फिर दरवाजा खोला ।
तुरंत चार प्यादों के साथ डोंगरे भीतर दाखिल हुआ ।
प्यादों ने वागले को यूं दबोचा कि वह न बोलने के काबिल रहा और न हिलने के ।
चार अन्य प्यादों के साथ डोंगरे आगे बढा और तुकाराम के बैडरूम में पहुंचा जहां कि विमल तुकाराम से विदा ले रहा था ।
डोंगरे ने खामोशी से दोनों को जता दिया कि उन्होंने हिलना-डुलना नहीं था ।
दाता ! - विमल मन ही मन बोला - खेल खत्म ।
प्यादे खामोशी से सारी इमारत में फिर गए और उन्होने आकर अपने सिपहसालार को रिपोर्ट दी कि इमारत में और कोई नहीं था ।
फिर दत्तानी और बाडीगार्डों के साथ वहां इकबाल सिंह के ऐन्ट्री हुई ।
इकबाल सिंह ने अपने सामने मौजूद तीनों सूरतों पर निगाह डाली और फिर रूपचंद से बोला - “वो कहां है ?”
रूपचंद ने विमल की तरफ इशारा कर दिया ।
इकबाल सिंह ने एक उचटती निगाह सोहल पर डाली और फिर बोला - “रूपचंद, सोहल कहां है ?”
“यही तो है सोहल ।” - रूपचंद बोला, फिर वह विमल से सम्बोधित हुआ - “तुम घबराओ नहीं । बॉस तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढाने आया है । बॉस तुम्हें कम्पनी की छत्रछाया में आने का दावतनामा देने आया है ।”
मूर्ख ! - विमल मन ही मन बोला ।
“यह सोहल है ?” - इकबाल सिंह रूपचंद को घूरता हुआ बोला ।
“हां ।” - रूपचंद बोला ।
“रूपचंद, तू कहीं यह तो नहीं समझ रहा कि मैं सोहल की सूरत से वाकिफ नहीं और अपनी जान छुड़ाने के लिए तू जिस किसी को भी सोहल बताएगा मैं मान लूंगा, वही सोहल है ।”
“लेकिन यही सोहल है ।”
“यह सोहल नहीं है ।”
“लेकिन...”
“चुप रह ।” - इकबाल सिंह डपटकर बोला, फिर वह विमल की तरफ घूमा - “तुम कौन हो, भाई ?”
“इसका नाम आत्माराम है” - तुकाराम बोला - “यह मेरी बहन का लड़का है । गांव से आया है । आज वापिस जा रहा है ।”
“तुकाराम ।” - इकबाल सिंह शिकायतभरे स्वर में बोला - “मैंने सवाल इससे किया था ।”
“मेरा नाम आत्माराम है ।” - विमल बोला - “मैं सोनपुर से यहां अपना मामा के यहां आया हूं । आज वापिस जा रहा हूं । यह देखिए मैंने टिकट भी मंगवा रखी है ।”
और विमल ने इकबाल सिंह को सोनपुर की टिकट दिखाई ।
इकबाल सिंह ने बड़ी बारीकी से टिकट का मुआयना किया और यह बात खासतौर से नोट की कि टिकट पर उसी रोज की तारीख दर्ज थी ।
क्या माजरा था !
“आत्माराम” - इकबाल सिंह बोला - “तू इसे जानता है ?”
विमल ने रूपचंद पर निगाह डाली और इनकार में सिर हिला दिया ।
“मैं जानता हूं ।” - तुकाराम बोला - “इसका नाम रूपचंद है, यह वागले के एक दोस्त के साथ कभी-कभी यहां आया करता है ।”
“कौन दोस्त ?”
“उसका नाम सतीश आनंद है । फिल्मों में काम करता है ।”
“कहां रहता है ?”
वागले ने पता बताया ।
डोंगरे ने तत्काल पता नोट कर लिया ।
“तुकाराम, तेरे को मालूम है सोहल आजकल कहां है ?”
“नहीं ।” - तुकाराम बोला ।
“मालूम होता तो मुझे बताता ?”
तुकाराम ने इनकार में सिर हिलाया ।
“जानता है न यह सवाल तेरे से कौन पूछ रहा है ?”
“जानता हूं ।”
“जौहरी बाजार की डकैती से कितना माल पीटा ?”
“किसने ?”
“तूने ।”
“मैंने ! बिस्तर पर पड़े-पड़े ।”
इकबाल सिंह खामोश रहा । हालात उसे बहुत उलझन में डाल रहे थे । कोई बात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही थी । उसका दिल गवाही दे रहा था कि कहीं जरूर कोई गड़बड़ थी लेकिन क्या गड़बड़ थी, यह उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था ।
“रूपचंद कहता है” - वह बोला - “कि यह जौहरी बाजार की डकैती में शामिल था और उस डकैती में सरगना सोहल था ।”
तुकाराम यूं हंसा जैसे भारी मजाकर की बात सुन ली हो ।
“लेकिन यह सच है” - रूपचंद व्याकुल भाव से बोला - “और यही आदमी” - उसने विमल की तरफ इशारा किया - “हमारा सरगना था । यही सोहल है ।”
“मैं अंधा हूं ?” - इकबाल सिंह कहरभरे स्वर में बोला ।
रूपचंद ने जोर से थूक निगली ।
“ल... लेकिन कहा इसने यही था कि यह सोहल है ।”
“अपनी बला किसी और के सिर मंढने से तेरी खलासी नहीं होने वाली, रूपचंद ।”
इकबाल सिंह का स्वर एकाएक ऐसा हिंसक हो उठा था कि रूपचंद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“इसे वापिस दत्तानी के यहां लेकर चलो ।” - इकबाल सिंह ने आदेश दिया ।
“लेकिन” - रूपचंद विक्षिप्तों की तरह चिल्लाया - “लेकिन मैं कहता हूं यही सोहल है ।”
“खामोश !”
रूपचंद सहमकर चुप हो गया ।
“अच्छा, तुकाराम !” - इकबाल सिंह बोला - “तेरे को तकलीफ दी ।”
तुकाराम के होंठ मशीनी अंदाज से मुस्कराहट में फैले ।
“जाने से पहले एक बात बोलता हूं ।”
“क्या ?”
“कम्पनी’ से वैर मोल लेने का नतीजा आज भी बुरा हो सकता है । जो कहानी शांताराम की मौत के साथ शुरू हुई थी और तेरे तीन और भाइयों की मौत के साथ खत्म हुई थी, वो आज भी दोहराई जा सकती है ।”
“मैं रिटायर हो चुका हूं ।”
“रिटायर ही रहना । सोहल से गंठजोड़ करके फिर ताव में न आ जाना ।”
“मुझे तो पता भी नहीं कि सोहल कहां है । मुझे तो यह भी नहीं पता कि वो जिंदा है कि मर गया ।”
“यह तो तेरे को पता है । जिंदा तो वो है । फ्रांसीसी पेंटिगों की चोरी में उसका हाथ पुलिस साफ-साफ साबित कर चुकी है । सब कुछ अखबार में छपा था ।”
“मैं अखबार नहीं पढता ।”
“तेरा शादिर्ग तो पढता होगा ।”
तुकाराम कुछ न बोला ।
“खैर । फिलहाल नमस्ते ।” - वह जाने के लिए घूमा ।
“इकबाल सिंह !” - तुकाराम ने आवाज लगाई ।
इकबाल सिंह ठिठका, उसने तुकाराम की तरफ देखा ।
“तुम्हारे एकाएक यहां आ धमकने से मेरा भान्जा लेट हो गया है । इसकी गाड़ी छूट जाएगी । अगर तुम इसे साथ ले जाओ और रास्ते में कहीं से टैक्सी पर चढा दो तो...”
“ठीक है ।”
विमल अपने ‘मामाजी’ से और वागले से गले लग के मिला और इकबाल सिंह के काफिले के साथ हो लिया ।
बाम्बे सेन्ट्रल स्टेशन तक का फासला उसने इकबाल सिंह की बगल में बैठकर तय किया लेकिन जिस शख्स को वह जान से मार देने का ख्वाहिशमंद था, उसकी उस वक्त उस पर पेश नहीं चल सकती थी ।
बहरहाल एक बात से वह खुश था ।
उसका नया चेहरा अपना करिश्मा पूरी कामयाबी के साथ स्थापित कर चुका था ।
***
पुलिस हैडक्वाटर की पांचवी मंजिल पर स्थित एक बंद कमरे में परेशानहाल हजारा सिंह एक कुर्सी पर बैठा हुआ था । करीब मेज पर एक टेबल लैम्प पड़ा था जिसकी तीखी रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी । रोशनी में उसे आंखें खुली रखना मुहाल लगता था लेकिन वह आंखें बंद करता था तो फौरन उसके सामने मौजूद इंस्पेक्टर का झन्नाटेदार थप्पड़ उसके मुंह पर पड़ता था और उसे अपनी गर्दन फिरकनी की तरह घूमती महसूस होती थी ।
डोप पैडलर हजारासिंह ने अपने कुछ पक्के ग्राहकों के नाम लिए थे जिन्हें जब पुलिस ने चैक किया था तो पाया था कि उनमें से किसी के डकैतों का साथी होने की सम्भावना नहीं हो सकती थी ।
“हजारा सिंह ।” - इंस्पेक्टर अशोक जगनानी बोला - “इधर देख । इस भूरे कागज को देख । मेरे को पक्की खबर है कि इस भूरे कागज में हेरोइन की पुड़िया तू ही बनाता है । बनाता है कि नहीं ?”
हजारा सिंह का सिर सहमति में हिला ।
“हमें जिस आदमी की तलाश है, वो डोप एडिक्ट है और ऐसी ही पुड़िया - हेरोइन की - अपने पास रखता है । वो तेरा ग्राहक है । वो तेरा ग्राहक है, हजारा सिंह, और अगर तूने उस ग्राहक को न पकड़वाया तो मैं मार-मारकर तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगा ।”
“मालको ।” - हजारासिंह क्षीण स्वर में बोला - “मैंनू मलूम तो हो कि मैंने किसे फड़वाना है ।”
“अपने एक ग्राहक को ।”
“केड़े गाहक को ! उस गाहक की कोई पछान, कोई अता-पता वी ते होवे !”
अशोक ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई । हर बार यहीं आकर गाड़ी अटक जाती थी ।
“अशोक !” - एकाएक इंस्पेक्टर फाल्के बोला ।
अशोक ने उसकी तरफ देखा ।
“मुझे एक बात सूझी है ।”
“क्या ?”
“जो आदमी सारी रात सुरंग खोदता रहा हो, वो दिन में तो मुर्दों से शर्त लगाकर सोता होगा ।”
“तो ?”
“ऐसा आदमी दिन में रोज इससे अपने नशे की खुराक लेने तो क्या जाता होगा !”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि जिस आदमी के सामने रोज सारी रात सुरंग खोदते रहने जैसा जांमारी का काम रहा हो और जो दिन में थकान की वजह से हिलने-डुलने के भी काबिल न रहता हो, उसने क्या इससे अपना कई दिनों के नशे का कोटा इकट्ठा ही नहीं हासिल कर लिया होगा ?”
अशोक को बात जंची ।
“हजारा सिंह !” - वह बोला ।
“हां ।” - हजारा सिंह यूं बोला जैसे कुएं की तलहटी में से आवाज आई हो ।
“इधर मेरी तरफ देख ।”
बड़ी मेहनत से हजारा सिंह ने सिर उठाया ।
“पिछले कुछ दिनों में तूने किसी एक आदमी को अपनी ढेर सारी पुड़िया इकट्ठी बेची हैं ?”
वह खामोश रहा ।
“जवाब दे, साले ।”
“मालको, सोचन ते दयो ।”
“सोच ले जितना मर्जी सोच ले लेकिन जवाब अगर टालमटोल वाला हुआ तो तेरी खैर नहीं ।”
“वेच्ची हैं ।”
“किसको ?”
“एक बाउ को ।”
“अबे, बाबू को कोई नाम भी होगा ।”
“जामवंतराव ।”
“वो तेरा ग्राहक है ?”
“आहो ।”
“उसने हाल ही में तेरे से नशे की कुछ खुराकें इकट्ठी खरीदी थीं ?”
“आहो ।”
“कितनी ?”
“पंद्रां ।”
“कब ?”
“बारां तरीख नूं ।”
“ये... ये जामवंतराव कहां रहता है, क्या करता है ?”
“नईं मलूम ।”
“क्या ।” - अशोक आंखें निकालकर बोला ।
“रब्ब दी सौं, नईं मलूम ।”
“फिर धंधा कैसे चलता है ?”
“ओ मेरे कोल आता है ।”
“कहां ?”
“न्यू बाम्बे रेस्टोरेंट में ।”
“तू हमेशा वहीं होता है ?”
“नईं ।”
“फिर तुझे पता कैसे लगता है कि वो आने वाला है ।”
“वो पैल्ले फोन करता है ।”
“यह बताने के लिए कि वो आ रहा है ?”
“आहो ।”
“उसका हुलिया बोल ।”
हजारा सिंह ने जामवंतराव का हुलिया बयान किया ।
हुलिया सुनकर अशोक जगनानी का माथा ठनका ।
“मैं अभी आया ।” - वह बोला ।
फाल्के ने सहमति में सिर हिलाया ।
अशोक अपने कमरे में पहुंचा । उसने अपनी मेज की दराज में से वो तस्वीरें निकालीं जो उसने शुक्रवार चार तारीख की शाम को कमाठीपुरे में न्यू रेस्टोरेंट के सामने टैलीलेंस वाले कैमरे से खींची थीं । उसने हजारा सिंह की तस्वीर छोड़कर बाकी, उसके ग्राहकों की तस्वीरें संभाली और वापिस लौटा ।
“हजारा सिंह” - अशोक वे तस्वीरें जबरन उसके हाथ में थमाता हुआ बोला - “ये तस्वीरें देख और बता कि क्या इसमें तेरा वो ग्राहक है जिसका नाम तूने जामवंतराव बताया ? देख ।”
आंखें मिचमिचाता हुआ हजारा सिंह तस्वीरों को देखेन लगा । फिर उसने एक तस्वीर अलग करके अशोक को थमा दी ।
अशोक ने तस्वीर का मुआयना किया ।
“तू” - फिर वह बोला - “सच कहता है कि तुझे इसका पता नहीं मालूम ।”
“सौं वाहे गुरु दी ।”
“यह हमेशा फोन करके अपनी खुराक लेने आता है ?”
“आहो ।”
“आखिरी बार इसका फोन तुझे कब आया था ?”
“अज ।” - अप्रत्याशित जवाब मिला ।
“क्या !” - अशोक चौंका ।
“अज ।”
“तेरे इस ग्राहक ने जामवंत ने, तुझे आज फोन किया था ?”
“आहो ।”
“अपनी खुराक हासिल करने के लिए ?”
“आहो ।”
“कहां आयेगा वो ?”
“जित्थे हमेशा आता है ।”
“कमाठीपुरे । न्यू बाम्बे रेस्टोरेंट !”
“आहो ।”
“कितने बजे ?”
“पंज बजे ।”
अशोक ने घड़ी देखी ।
चार बज चुके थे ।
“हजारा सिंह ।” - वह उसे कंधा पकड़कर झिंझोड़ता हुआ बोला - “मैं तुझे छोड़ रहा हूं । मैं तेरे से बरामद हुआ माल भी तेरे हवाले कर रहा हूं । तूने पांच बजे प्रोग्राम के मुताबिक अपने ग्राहक जामवंतराव से मिलना है और नशे की उसकी जरूरत पूरी करनी है । उस वक्त हम लोग तेरे आसपास ही होंगे । ज्यों ही वह तेरे से अपनी खुराकें हासिल कर लेगा, हम उसे गिरफ्तार कर लेंगे । समझ गया ।”
हजारा सिंह का सिर सहमति में हिला ।
“तूने उसके साथ वैसे ही पेश आना है, जैसे आज तक हमेशा आता रहा है । तुने उसे कोई इशारा नहीं करना । उसे यह समझाने की कोशिश नहीं करनी कि पुलिस उसकी ताक में है । समझ गया ?”
“आहो ।”
“देख, अगर पुलिस की मदद करेगा तो फायदे में रहेगा । तो बहुत सस्ता छूटेगा तू । हो सकता है मैं तेरे पर इतना मेहरबान हो जाऊं कि तेरी गिरफ्तारी को कहीं दर्ज ही न करूं और तुझे यूं ही छोड़ दूं । क्या ?”
हजारा सिंह के मुर्झाए चेहरे पर हल्की-सी रौनक आई । फिर उसका सिर अपने आप ही हौले-हौले सहमति में हिलने लगा ।
***
उसी घड़ी उस स्थान से कुछ ही कमरे परे अपने आफिस में बैठा ए,सी.पी. देवड़ा टेलीफोन काल सुन रहा था जो उस सब-इंस्पेक्टर ने की थी जो मुबारक अली के साथ उसके घर की तलाशी लेने गया था ।
“साहब” - सब-इंस्पेक्टर ने बताया - “हमारे पास मौजूद पैट्रन जैसे सोल का जूता तलाशी में नहीं बरामद हुआ ।”
“तलाशी ठीक से ली ?” - देवड़ा निराश स्वर में बोला ।
“बहुत ठीक से ली, साहब ।”
“ठीक है । मुबारक अली को छोड़ दो और वापिस आफिस में रिपोर्ट करो ।”
“यस, सर ।”
देवड़ा ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
तभी एक अन्य सब-इंस्पेक्टर ने भीतर कदम रखा ।
“सर ।” - सब-इंस्पेक्टर बोला - “एक लड़की आई है । वो अंतिम संस्कार के लिए सतीश आनंद की लाश क्लेम करना चाहती है ।”
“सतीश आनंद ! यह कौन हुआ ?”
“वो कहती है कि यह वो आदमी है जो जौहरी बाजार में पुलिस की गोली खाकर मरा है ।”
“गोली खाकर ?” - देवड़ा सम्भल के बैठ गया और बोला ।
“यस, सर ।”
“उसने ऐन ऐसा ही कहा । जो आदमी जौहरी बाजार में पुलिस की गोली खाकर मरा है, वह सतीश आनंद है और वह उसकी लाश क्लेम करना चाहती है ?”
“यस,सर ।”
“लड़की उसकी क्या लगती है ?”
“कुछ नहीं ।”
“तो फिर वह उसकी लाश क्यों क्लेम करना चाहती है ?”
“क्योंकि, बकौल उसके, बम्बई शहर में सतीश आनंद का होता-सोता और कोई नहीं जो कि उसका अंतिम संस्कार कर सके और वह नहीं चाहती थी कि उसका अंतिम संस्कार एक लावारिस लाश की तरह पुलिस के हाथों हो ।”
“हूं । वो... वो... लड़की... क्या नाम बताया उसने अपना ?”
“हाना गोन्साल्वेज ।”
“वो उसकी कोई प्रेमिका होगी !”
“हो सकता है, सर ।”
“हूं । तुम ऐसा करो, तुम पहले उसे वो दोनों लाशें दिखाओ जो ए.एस.आई. नामदेव की लाश के साथ मौकायेवारदात से उठाई गई थीं । दोनों में गोली खाई लाश एक ही है लेकिन फिर भी उसे दोनों लाशें दिखाओ और देखो कि वो किस लाश की शिनाख्त करती है और फिर उसे यहां मेरे पास लाओ ।”
“यस, सर ।”
***
“आपने सोहल को इकबाल सिंह के साथ भेज दिया !” - वागले बोला ।
“कोई बुरा नहीं किया ।” - तुकाराम बोला - “उससे इकबाल सिंह को और भी गारंटी हो गई थी कि वो सोहल नहीं था ।”
“लेकिन फिर भी...”
“तुम फिक्र न करो । देख लेना सरदार स्टेशन पर पहुंचते ही यहां फोन करेगा । उसका फोन आता ही होगा ।”
तभी फोन की घंटी बजी ।
वागले ने बढकर फोन उठाया, उसने एक क्षण दूसरी ओर से आती आवाज सुनी और फिर उसके होंठों पर मुस्कराहट खेल गई ।
“उसी का है ?” - तुकाराम बोला ।
वागले ने सहमति में सिर हिलाया और रिसीवर तुकाराम को थमा दिया ।
तुकाराम ने रिसीवर कान से लगाया ।
“मैं तुम्हारा भान्जा आत्माराम बोल रहा हूं ।” - उसे विमल का विनोदपूर्ण स्वर सुनाई दिया ।
“बोल भान्जे ! तेरा मामा भी बड़ा व्यग्र था इस घड़ी तेरी आवाज सुनने को ।”
“मुझे मालूम था । तभी तो फोन किया । मैं सुरक्षित स्टेशन पर पहुंच गया हूं ।”
“रास्ते में इकबाल सिंह से और भी बातें हुईं ?”
“हां । बहुत ।”
“कोई शक वाली बात तो नहीं हुई ?”
“नहीं । लेकिन एक अफसोस वाली बात हुई ।”
“क्या ?”
“वो मेरी बगल में बैठा था और मैं उसका टेंटुवा नहीं दबा सका ।”
“शुक्र मना कि उसे ख्याल तक नहीं आया कि आज के तरक्की के जमाने में प्लास्टिक सर्जरी से इंसानी सूरत तब्दील की जा सकती है ।”
“और आवाज भी ।”
“हां । आवाज भी ।”
“मैं एक बात और कहना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“आज गनीमत हुई कि इकबाल सिंह अपने इतने लावलश्कर के साथ मेरी तलाश में वहां पहुंचा । तुकाराम, वो रूपचंद जगनानी बहुत गलत आदमी निकला है ।”
“मूर्ख ।”
“हां । उसकी मेहरबानी से ऐसे ही कोई वहां माल की फिराक में भी पहुंच सकता है । इकबाल सिंह ही वापिस आ सकता है । माल तुम्हारे यहां से बरामद हो गया तो फिर तुम्हारे से यह झूठ बोलते नहीं बनेगा कि डकैती से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं था ।”
“मैं समझ गया तेरा मतलब । मैं माल को अभी कोलीवाड़े में सलाउद्दीन के यहां रखवाता हूं ।”
“गुड । मैं फोन रख रहा हूं । मेरी गाड़ी का वक्त हो रहा है ।”
“तू लौटेगा कब ?” - तुकाराम एक बाप की-सी व्यग्रता से बोला ।
“बहुत जल्द ।”
फिर लाइन कट गई ।
***
ए.सी.पी. देवड़ा ने सब-इन्सपेक्टर के साथ आई लड़की को देखा ।
लड़की बहुत मायूस और गमगीन लग रही थी ।
“बैठो ।” - देवड़ा सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला ।
वह बैठ गई ।
“कौन-सी लाश की शिनाख्त हुई ?” - देवड़ा ने सब-इन्सपेक्टर से पूछा ।
“जिसको गोली लगी है ।” - सब-इन्सपेक्टर बोला ।
“तो” - देवड़ा लड़की की तरफ आकर्षित हुआ - “तुम्हारा नाम हाना है । हाना गोंसाल्वेज !”
हाना ने सहमति में सिर हिलाया ।
“और जिस शख्स की तुमने अभी लाश देखी है, उसका नाम सतीश आनन्द है ?”
“हां ।”
“उसका कोई काम-धाम, पता वगैरह ?”
हाना ने बताया ।
“तुम्हारा ब्वाय फ्रेंड था ?”
“हां ।”
“उसके अन्जाम की खबर कैसे हुई ?”
“जी ?”
“कैसे मालूम हुआ कि वो जौहरी बाजार में पुलिस की गोली खाकर मरा था ? किसी अखबार में यह खबर अभी छपी नहीं । रेडियो या टी.वी. पर भी ऐसी कोई खबर नहीं आई । फिर कैसे जाना तुमने कि जौहरी बाजार में पुलिस की गोली खाकर कोई आदमी मरा था और जो आदमी मरा था वो तुम्हारा ब्वाय फ्रेंड सतीश आनन्द था । उसकी लाश तो तुमने अभी देखी है लेकिन उसके अंजाम से तो तुम यहां आने से पहले से वाकिफ थीं । अंजाम से वाकिफ थीं, इसीलिए यहां आई हो । ऐसा क्योंकर हुआ, हाना ?”
हाना ने उत्तर न दिया ।
“यूं खामोश रहने से तो काम नहीं चलेगा । यह एक गम्भीर मामला है । जो पूछा जा रहा है, उसका जवाब तो तुम्हें देना होगा ।”
“मुझे किसी ने बताया था ।” - वह इतने क्षीण स्वर में बोली की देवड़ा बड़ी कठिनाई से उसकी आवाज सुन सका ।
“इतना तो मैं भी समझ सकता हूं कि यह बात तुम्हें किसी के बताए से ही मालूम हुई है । कौन था बताने वाला ?”
“वो आनन्द को कोई दोस्त था ।”
“तुम वाकिफ हो उस दोस्त से ?”
“नहीं !”
“नाम क्या बताया था उसने अपना ?”
“नाम तो नहीं बताया था उसने ।”
“तुमने पूछा भी नहीं था ?”
“नहीं ।”
“वजह ?”
“एक तो - एक तो खबर ही इतनी हौलनाक थी कि सुनते ही मैं अपना सुध-बुध खो बैठी थी, दूसरे वो रुका तो था ही नहीं । उसने मुझे खबर सुनायी और चला गया ।”
“उसका कदकाठ हुलिया वगैरह कर सकती हो ?”
हाना ने किया ।
देवड़ा के जेहन में फौरन मुबारक अली का अक्स उभरा ।
“कोई और बात जो तुमने नोट की हो उसमें । उसका कोई मैनेरिज्म ! कोई खास आदत !”
“वो जो कुछ कहता था, उसमें जगह-जगह एक खास फिकरा बहुत लगाता था...”
“जिसे तकिया कलाम कहते हैं ?”
“मुझे नहीं पता क्या कहते हैं लेकिन ऐसी आदत कई लोगों में होती है कि कुछ खास लफ्ज दोहराये बिना वो अपनी बात नहीं कह सकते । वो आदमी - वो आनन्द का दोस्त हर बात में यह बहुत कहता था कि ‘वे क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ ।”
“लेकिन” - देवड़ा आशापूर्ण स्वर में बोला - “ऐसा कहने के बाद साथ में अंग्रेजी का लफ्ज कभी नहीं जोड़ पाता था ?”
“हां । ‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ कहने के बाद वो आगे जो कुछ कहता था, हिंदोस्तानी में ही कहता था ।”
देवड़ा प्रसन्न हो गया । यह मुबारक अली का जिक्र था और अब उसके पास अकाट्य सबूत था कि वह डकैती में शामिल था । और किसी तरीके से उसे इतनी जल्दी सतीश आनन्द की मौत की खबर नहीं हो सकती थी ।
“आपके ब्वाय फ्रेंड ने” - देवड़ा बोला - “सतीश आनन्द ने कभी अपने मुबारक अली नाम के किसी दोस्त का जिक्र किया था ?”
हाना ने इनकार में सिर हिलाया ।
“ओह !”
“लेकिन” - हाना बोली - “सुना है यह नाम मैंने एक बार ।”
“कब ? कहां ? कैसे ?”
“कल रात को । मैं... मैं आनन्द के साथ थी । उसके... उसके फ्लैट पर । तब एक टेलीफोन काल आई थी । काल करने वाले ने अपना नाम मुबारक अली बताया था ।”
“काल तुमने रिसीव की थी ?”
“नहीं । काल आनन्द ने रिसीव की थी लेकिन दूसरी तरफ से आती आवाज मुझे भी सुनाई दे रही थी ।”
“टेलीफोनों के साथ ऐसा हो जाता है कई बार ।”
“मैंने काल करने वाले को अपना नाम मुबारक अली बताते साफ सुना था ।”
“और क्या कहा था उसने ?”
“और उसने कहा था कर्फ्यू लग गया है । आज ही का प्रोग्राम तय हुआ है । फौरन पहुंच जाओ । आंटी के स्क्रैप यार्ड में ।”
“आंटी के स्क्रैप यार्ड में ! यह आंटी कौन हुई और स्क्रैप यार्ड क्या हुआ ?”
“मुझे नहीं पता । उस वक्त मैंने समझा था कि आंटी कोई चकला चलाने वाली मैडम थी जहां आनन्द मुबारक अली नाम के अपने दोस्त के साथ ‘प्रोग्राम’ करने जा रहा था लेकिन अब लगता है कि वह प्रोग्राम कुछ और ही था ।”
“जौहरी बाजार में डकैती का !”
हाना चुप रही ।
“कोई और बात जो तुम हमें बताना चाहती होवो ?”
हाना ने इन्कार में सिर हिलाया।
“इस आंटी के स्क्रैप यार्ड की बाबत तुम कुछ और याद कर पाती तो...”
हाना ने फिर इन्कार में सिर हिलाया ।
“खैर । कोई बात नहीं । बाकी बहुत कुछ मुबारक अली बताएगा ।”
“अब मुझे आनन्द की लाश मिल सकती है ?”
“अभी नहीं ।” - देवड़ा खेदपूर्ण स्वर में बोला - “अभी लाश का पोस्टमार्टम होना बाकी है ।”
“ओह !”
“मैं अभी ऐसा इन्तजाम करवाता हूं कि पोस्टमार्टम जल्दी से जल्दी हो और उसके फौरन बाद लाश तुम्हारे हवाले कर दी जाए ।”
“थैंक्यू ।” - हाना ने उठने का उपक्रम किया ।
“अभी बैठो ।”
हाना ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“अभी एक आदमी यहां पकड़कर लाया जाएगा । तुमने देखना है कि वही वो आदमी था या नहीं जिसने आकर तुम्हें आनन्द की मौत की खबर सुनाई थी । ओके !”
हाना ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
फिर ए.सी.पी. देवड़ा ने मुबारक अली को दोबारा गिरफ्तार करके हैडक्वार्टर लाए जाने का हुक्म दनदना दिया ।
***
“यह रूपचन्द कोई मुसीबत खड़ी करेगा ।” - तुकाराम चिंतित भाव से बोला ।
“क्या मुसीबत खड़ी करेगा ?” - वागले बोला ।
“जैसे वो इकबाल सिंह को यहां ले आया था वैसे ही वो उन्हें आंटी के घर भी पहुंचा सकता है और माल पिटवा सकता है ।”
“अब हमें माल से क्या ? हम तो अपना हिस्सा ले आए ?”
“लेकिन हिस्सेदारों से तो है । वो लोग डकैती में हमारी शिरकत की बात जाहिर कर सकते हैं ।”
“इकबाल सिंह आंटी के यहां क्यों पहुंचेगा ? माल की तो कोई बात ही नहीं हुई थी । वो तो यहां सोहल के चक्कर में आया था और रूपचन्द उसे यह समझकर यहां लाया था कि वह सोहल को इकबालसिंह से मिलवाने का सामान करके सोहल पर कोई अहसान कर रहा था ।”
“पता नहीं क्या माजरा था लेकिन मेरा दिल कहता है कि मौजूदा हालात की आंटी को खबर होनी चाहिए । हमें कम से कम उसे सावधान तो कर देना चाहिए ताकि वाह आगे और जनों को सावधान कर सके ।”
वागले ने सहमति में सिर हिलाया ।
“तू आंटी को फोन लगा ।”
वागले ने आंटी का नम्बर डायल किया, कई बार डायल किया लेकिन काल न लगी ।
“नम्बर खराब मालूम होता है ।” - वह बोला ।
“कोई बड़ी बात नहीं ।” - तुकाराम बोला - “बरसातों में फोन अक्सर एकाएक खराब हो जाते हैं ।”
“तो ?”
“तो यह कि तू आंटी के घर होकर आ ।”
“ठीक है ।”
वागले तुरन्त वहां से रवाना हो गया ।
***
मुबारक अली खुश था ।
न सिर्फ वह पुलिस के हाथों सस्ता छूटा था बल्कि नोटों का पैकेट भी उस कूड़े के ढोल में सही-सलामत पड़ा मिल गया था ।
अब वह महसूस कर रहा था कि सोहल कितना काबिल आदमी था, क्यों सारे हिन्दोस्तान के जरायमपेशा वर्ग में उसका सिक्का जमा हुआ था और कितनी गलती की थी उसने सिलेंडरों की खरीद के मामले में सोहल के साथ धोखाधड़ी करके ! सिलेंडरों की खरीद के लिए उसे दी गई बीस हजार रुपये की रकम का लालच ही आज उसे लम्बा नपवाने जा रहा था ।
मन ही मन सोहल की तारीफ करते हुए उसने नोटों का पैकेट खोला। पैकेट के कूड़े में पड़े रहने की वजह से उसके बाहरी हिस्से को सौ तरह की गंदगी चिपकी थी । वह नोटों को पैकेट से अलग करने लगा ।
उसी वक्त ए.सी.पी. देवड़ा का भेजा सब-इन्स्पेक्टर अपने मातहतों के साथ वहां पहुंचा । कालबैल बजाने से पहले आदतन उसने की-होल में आंख लगाकर झांका तो उसे मेज पर नोटों का अम्बार दिखाई दिया।
वह खुश हो गया । उसने कालबैल बजाई ।
इस बार मुबारक अली नोटों समेत गिरफ्तार हुआ ।