सुभाष नगर से सुनील पूर्वपरिचित था। वो शहर से कदरन बाहर जार्जटाउन से तीन किलोमीटर आगे एक मध्यम वर्ग की कालोनी थी।

हाउस नम्बर 3/5, जो कि मकतूल अंशुल खुराना उर्फ आदित्य खन्ना और अब उर्फ अविनाश खत्री की जिन्दगी में उसका आवास था, को तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई।
कालबैल बजाने से पहले ही उसे वहां मातम का माहौल छाया लगा।
उस घड़ी साढ़े दस बजे थे।
जवाब में जिस औरत ने दरवाजा खोला, उसकी पोशाक और उम्र ही जाहिर कर रही थी कि वो मकतूल की बेवा थी।
“योगिता जी?”—उसने सवाल किया।
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“जो हुआ, बुरा हुआ। मुझे आप से हमदर्दी है। आप अपने दुख में मुझे शरीक जानिये।”
“मैने...आप को पहचाना नहीं।”—वो दबे स्वर में बोली।
“मेरा नाम सुनील है। मैं प्रैस रिपोर्टर हूं।”
“आप... उन से वाकिफ थे?”
“नहीं, मुझे ये फख्र कभी हासिल नहीं हुआ।”
“क्या चाहते हैं?”
“आप से दो मिनट बात करना चाहता हूं।”
“किस बारे में?”
“आपके दिवंगत पति के बारे में।”
“आइये।”
“थैंक्यू।”
वो उसके पीछे बाहरले गेट से भीतर दाखिल हुआ।
“बैठक से फर्नीचर हटा दिया गया हुआ है।”—वो बोली—“वहां दरी बिछी है। इसलिये आप को बरामदे में ही...”
“मुझे कोई ऐतराज नहीं।”
बरामदे में वो दो कुर्सियों पर आमने सामने बैठे।
“अन्तिम संस्कार हो गया?”—सुनील ने सहानुभूतिपूर्ण भाव से पूछा।
“हां।”—वो बोली—“कल शाम काफी लेट हुआ। डैड बॉडी मिलने में देर लगी न!”
“ओह! पुलिस ने परेशान तो नहीं किया?”
“नहीं। लेकिन बोलते थे अभी पूछताछ के लिये फिर आयेंगे या मुझे हैडक्वार्टर बुलायेंगे।”
“आई सी। तो कल आपने ‘ताजा खबर’ में मुखपृष्ठ पर छपी अपने पति की तसवीर देखी?”
“हां।”
“यहां ‘ताजा खबर’ आता है?”
“नहीं। यहां तो कोई अखबार नहीं आता। वो आफिस में अखबार मंगवाते थे जिसे वो शाम को लौटती बार कभी कभार घर ले आते थे।”
“कौन सा अखबार?”
“ ‘क्रानीकल’। तुम उसी अखबार से हो?”
“जी नहीं, मैं ‘ब्लास्ट’ से हूं। चीफ रिपोर्टर हूं।”
“हूं।”
“तो कैसे आप के नोटिस में ‘ताजा खबर’ और उस में छपी तसवीर आयी?”
“सब्जी लेने मार्केट गयी थी। वहां कोई अखबार को यूं थामे पढ़ रहा था कि मुखपृष्ठ का रुख मेरी तरफ था और उस पर छपी उन की तसवीर मुझे दिखाई दी। मेरे तो छक्के छूट गये। मैंने उस शख्स से अखबार हासिल किया, उसकी कत्ल सम्बन्धी हैडलाइन पढ़ी, जल्दी जल्दी खबर पड़ी तो...तो...”
वो फफक पड़ी।
“धीरज रखिये।”—सुनील सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला—“जो होना होता है, वो तो होना ही होता है। होनी को कोई नहीं टाल सकता।”
उसने अपनी सफेद साड़ी का पल्लू अपनी आंखों पर फेरा।
“फिर क्या किया आपने?”
“मैंने सब्जी का खयाल छोड़ा, अखबार अपना खरीदा और घर आकर राज को फोन किया।”
“राज कौन?”
“प्रहलाद राज। मेरे पति का बिजनेस पार्टनर।”
“कहां रहता है?”
“विनायक नगर।”
“वहां कहां?”
“वहां हाउसिंग बोर्ड के फ्लैट्स हैं। फ्लैट नम्बर पैंतालीस में।”
सुनील ने पता मोबाइल पर नोट कर लिया।
“फिर?”
“वो दौड़ा हुआ यहां आया। मैंने उसे अखबार दिखाया।”
“आपने उसे अखबार दिखाया? वो उस खास खबर से पहले से वाकिफ नहीं था?”
“नहीं था। सुबह उसके घर अखबार तो आता है, पर ‘ताजा खबर’ से उसका कोई मतलब नहीं था।”
“ओह! तो आप की तरह उस खबर ने उसे भी हैरान किया?”
“वो तो करना ही था लेकिन वो मर्द था, मेरे से ज्यादा दुनियादार था इसलिये उसने एक शक जाहिर किया।”
“क्या?”
“कि ‘ताजा खबर’ में छपी तसवीर मेरे पति की नहीं थी।”
“लेकिन आपने सूरत पहचानी थी!”
“बोला, सूरत मिलती जुलती हो सकती थी, वो मेरे पति से मिलती जुलती शक्ल वाला कोई दूसरा शख्स हो सकता था। आखिर अखबार के मुताबिक उस का नाम जुदा था और वो कहीं बाहर से आया लोकल होटल में मौजूद था जब कि मेरे पति तो बाहर गये हुए थे, मुम्बई...मुम्बई गये हुए थे।”
“तो आप को यकीन आया कि अखबार में छपी तसवीर आप के पति की नहीं थी?”
उसने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
“यकीन न आया तो आपने अपने मुम्बई गये पति से सम्पर्क करने की कोशिश न की?”
“की। उन के मोबाइल पर काल लगाई। लेकिन कोई जवाब न मिला।”
“होटल फोन न किया?”
“मुझे नहीं मालूम था कि मुम्बई वो कहां ठहरे हुए थे!”
“आई सी। तो आखिर आपने क्या फैसला किया?”
“उस घड़ी मेरी अक्ल ने मुझे यही सुझाया कि मुझे लाश की सूरत देखनी चाहिये थी।”
“गलत तो न सुझाया! तो इस वजह से आप पुलिस हैडक्वार्टर गयीं?”
“हां।”
“वहां जाना कैसे सूझा?”
“खबर के साथ केस के इनवैस्टिगेटिंग आफिसर किसी इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल का नाम छपा था जो कि पुलिस हैडक्वार्टर में पाया जाता था।”
“इसलिये आप वहां गयीं?”
“हां।”
“अकेली?”
“राज साथ गया न!”
“आपने उस से पुलिस हैडक्वार्टर साथ चलने की दरख्वास्त की?”
“जरूरत ही न पड़ी। उसने खुद ऑफर किया।”
“ओह! खुद ऑफर किया।”
“इतना भला, नेक, दुनियादार आदमी है राज, मेरे पति का जिगरी था, उन का बिजनेस पार्टनर था, क्यों न करता?”
“ठीक। बाज लोग बने ही ऐसे होते हैं कि ऐसे मामलों में मदद के लिये सामने आने से पीछे नहीं हटते।”
“राज ऐसा ही है।”
“तो आप पुलिस हैडक्वार्टर गयीं, आप को लाश दिखाई गयी और आपने उस की शिनाख्त अपने पति अविनाश खत्री के तौर पर की जो यहां सुभाष नगर के रहने वाले थे?”
“हां।”
“पुलिस ने आप की शिनाख्त पर ऐतबार किया?”
“क्यों न करती? कैसे कोई औरत किसी गैर मर्द को अपना पति और खुद को विधवा करार देगी!”
“ठीक।”
“फिर राज ने भी तो लाश की शिनाख्त की जो कि उन का दोस्त था, बिजनेस पार्टनर था!”
“उन्होंने सबूत की मांग न की? शिनाख्त की तसदीक करना पुलिस की रूटीन होता है।”
“होता है तो उन्होंने अपनी रूटीन के तौर पर कुछ किया होगा जिसकी मुझे खबर नहीं।”
“बहरहाल लाश की सुपुर्दगी कल ही हो गयी और कल ही अन्तिम संस्कार भी हो गया?”
“हां।”
“आपको इस बात से कोई हैरानी न हुई कि आप के पति, जो आप को बता के गये थे कि मुम्बई जा रहे थे, यहां राजनगर के एक होटल में रहते पाये गये? और वो भी एक जुदा नाम से? अंशुल खुराना के नाम से?”
उसने जवाब न दिया, उसके चेहरे पर अवसाद के भाव गहन हुए।
“आप कोई वजह सुझा सकती हैं जिसके तहत वो मुम्बई न गये, यहां राजनगर में ही स्थापित रहे?”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“क्यों वो घर से निकले और जा के एक खर्चीले होटल में रहने लगे?”
उसका सिर फिर इंकार में हिला।
“क्या कह के मुम्बई गये थे?”
उसने सकपका कर सुनील को देखा।
“क्या मतलब?”—फिर बोली।
“कोई घर से बाहर लम्बे सफर पर जाता है तो पीछे कुछ बोल के तो जाता है कि क्यों जा रहा था, कब तक लौटेगा वगैरह।”
“यही कहा था कि कारोबार से ताल्लुक रखता कोई जरूरी काम था जिसके लिये मुम्बई जा रहे थे। चार पांच दिन में लौटने को बोल के गये थे।”
“उन का कारोबार यहां था, लोकल किस्म का था, उसके लिये मुम्बई जाना क्यों जरूरी था?”
“मुझे नहीं पता। न मुझे ये बात सूझी थी, न मैंने इस बाबत कुछ पूछा था।”
“यूं सफर पर अक्सर जाते थे?”
“जाते ही थे।”
“मुम्बई के अलावा और कहां?”
“कहीं नहीं। सिर्फ मुम्बई।”
“लौट कर बताते थे कि जिस काम गये थे, वो हुआ था या नहीं?”
“ऐसा कोई जिक्र कभी नहीं उठता था। वो कुछ कहते नहीं थे, मैं कुछ पूछती नहीं थी। संतोष की बात यही होती थी कि घर का कर्त्ता लम्बे सफर पर गया था, घर लौट आया था।”
“बहुत सरल चित्त महिला हैं आप!”
वो खामोश रही।
“बिजनेस कैसा था उनका? अच्छे पैसे कमाते थे?”
उसने तुरन्त उत्तर न दिया।
“मैंने”—फिर बोली—“इस बाबत कभी उन से कोई सवाल नहीं किया था। लेकिन गुड प्रोवाइडर थे, घर में किसी चीज की कमी नहीं होने देते थे, रुपये पैसे सम्बन्धी मेरी किसी जरूरत को उन्होंने कभी नजरअन्दाज नहीं किया था।”
“शुरू से ही प्रॉपटी के बिजनेस में थे?”
“हां।”
“कोई साइड बिजनेस?”
“मुझे खबर नहीं।”
“आप को खबर नहीं या था ही नहीं?”
वो फिर विचार करने लगी।
“मुझे खबर नहीं।”—आखिर बोली।
“हो तो आप को हैरानी होगी?”
“भई, छोटा मोटा कुछ और करते हों तो...”
“मोटा मोटा। मेन बिजनेस से ज्यादा तन्दुरुस्त!”
“नहीं हो सकता।”
“जब आपको उन की माली हैसियत की कोई खबर ही नहीं तो क्यों नहीं हो सकता?”
“नहीं हो सकता। कोई मर्द अपनी बीवी से, अपने बच्चों की मां से अपनी कोई बड़ी अचीवमेंट नहीं छुपाता।”
“ठीक। लेकिन अगर मैं कहूं कि आपके पति अपने किसी दूसरे धन्धे से अपने प्रॉपर्टी बिजनेस से कहीं ज्यादा कमाते थे तो आप क्या कहेंगी?”
“तो मैं कहूंगी कि आप को गप्पें मारने का, लम्बी लम्बी छोड़ने का शौक है।”
सुनील हँसा, तत्काल संजीदा हुआ। वो एक क्षण को भूल गया था कि जिस घर में बैठा था, उसमें मातम हो के हटा था।
“विल है?”—वो बोला।
“जी?”
“विल! वसीयत है आप के पति की?”
“अभी वो इतनी उम्र के कहां हुए थे कि वसीयत करते?”
“ये जरूरी नहीं होता कि वसीयत बुढ़ापे में ही की जाये। दानिशमन्द लोग गृहस्थी बसा लेते हैं तो वसीयत को जरूरी समझने लगते हैं।”
“मुझे वसीयत की कोई खबर नहीं।”
“आप उनकी पत्नी हैं इसलिये स्वाभाविक वारिस हैं। तलाश कीजियेगा। तलाश में शायद आप को उन के किसी लॉकर या लॉकरों की भी खबर लगे।”
उसने हैरानी से सुनील की तरफ देखा।
“पार्टनर साहब इस घड़ी कहां होंगे?”—सुनील ने नया सवाल किया।
“घर पर ही होंगे! दोपहरबाद यहां आने को बोल के गये थे इसलिए अभी तो घर पर ही होंगे।”
“शादीशुदा हैं?”
“हां।”
“बच्चे?”
“नहीं हैं।”
“हाल में ही शादी हुई?”
“नहीं, शादी को तो छ: साल हो गये हैं?”
“फिर भी बच्चे नहीं!”
“वो क्या हैं कि...अनबन रहती है पति पत्नी में। बीवी खाते पीते घर की है और बहुत तुनक मिजाज है इसलिये राज से गिले शिकवे ही करती रहती है। अक्सर खड़े पैर उठती है और मायके चली जाती है। फिर खुद ही आ भी जाती है।”
“आजकल कहां है?”
“मायके में।”
“मायका कहां है?”
“झेरी।”
“ज्यादा दूर तो न हुआ!”
“हां।”
“इजाजत चाहता हूं।”—सुनील एकाएक उठ खड़ा हुआ—“मुझे टाइम देने का शुक्रिया।”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
सुनील विनायक नगर पहुंचा।
प्रहलाद राज हाउसिंग बोर्ड के अपने फ्लैट में मौजूद था।
वो एक फिल्म स्टार्स जैसी सजधज वाला, पैंतीसेक साल का, गोरा चिट्टा, दुबला पतला, क्लीनशेव्ड व्यक्ति था जो व्यक्तित्व के आकर्षण के मामले में सिर्फ कद में मात खा गया था। लम्बे बाल रखता था जो साफ लगता था कि ब्यूटी सैलून से सैट कराता था। अपने घर पर मौजूद था फिर भी उस घड़ी बड़ी माकूल, सजीली पोशाक पहने था।
सुनील ने उसे अपना परिचय दिया।
“क्या, यार”—वो बेवाकी से बोला—“तुम चौथे अखबार वाले हो जिसने सुबह से अब तक कालबैल बजायी है।”
“सॉरी।”—सुनील बोला।
“अरे, भई, तुम्हें सॉरी करने के लिये नहीं बोला मैंने। मैं तो ये बात इस लिये कह रहा था कि जब तक कत्ल से मेरा खुद का वास्ता नहीं पड़ा था, मुझे पता ही नहीं था कि कत्ल इतनी बड़ी न्यूज होता था जब कि कत्ल किसी वीआईपी का भी नहीं, किसी नेता या अभिनेता या धन कुबेर का भी नहीं।”
“कत्ल बड़ा समाजी कारोबार होता है। किसी की नाहक जान ले लेना एक शैतानी हरकत है, सम्वेदनशील समाज की जिस की तरफ हमदर्दीभरी तवज्जो जानी ही होती है। आखिर आज जो एक के साथ बीतती है, वो कल दूसरे के साथ बीत सकती है। जाबर के जुल्म से इम्यूनिटी तो किसी को हासिल नहीं है!”
“यू सैड इट, माई डियर। नाम क्या बताया था तुमने अपना?”
“नाम तो मैंने अभी नहीं बताया था!”
“बताते तो क्या नाम बताते?”
“सुनील। सुनील चक्रवर्त्ती।”
“‘ब्लास्ट’।”
“जी हां। कैसे जाना?”
“मशहूर हस्ती हो, भई, अखबार की दुनिया की। फिर यहां ‘ब्लास्ट’ ही आता है।”
“जानकर खुशी हुई।”
“तुम्हारी पूछताछ लम्बी होगी या छोटी?”
“कह नहीं सकता। आप के मूड पर, मिजाज पर मुनहसर है। इस बात पर मुनहसर है कि आप मीडिया को कितना मुंह लगाते हैं!”
“भई, जो तुम से पहले आये, उन की पूछताछ से तो मैं बेजार था लेकिन तुम्हें खुली छूट है। क्योंकि तुम सुनील हो। ‘ब्लास्ट’ हो।”
“अहोभाग्य!”
“आओ, बैठ ही जायें।”
उसने सुनील को ड्रार्इंगरूम में बिठाया और खुद उसके सामने बैठा।
“सिग्रेट पीते हो?”—वो बोला।
“जी हां।”—सुनील तनिक हड़बड़ाया—“लेकिन शुक्रिया। मेरे पास है।”
“भई, इसीलिए पूछा। मेरा पैकेट खाली हो गया है। पीते हो तो एक मेरे को दो।”
“ओह! यस, सर। राइट अवे, सर।”
सुनील ने अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला और अपने विशिष्ट अन्दाज से उसे यूं झटका कि एक सिग्रेट आधा बाहर उछल पड़ा। उसने पैकेट मेजबान की तरफ बढ़ाया तो उसने वो सिग्रेट खींच लिया। सुनील ने भी एक सिग्रेट लिया और फिर लाइटर निकाल कर दोनों सिग्रेट सुलगाये।
“थैंक्यू।”—वो बोला—“आज कल बीवी मायके गयी हुई है इसलिये मैं तुम्हें कोई चाय काफी आफर नहीं कर सकता!”
“जरूरत नहीं, जनाब।”
“अलबत्ता पैप्सी, या कोक या जूस...”
“नो, सर। थैंक्स आल दि सेम।”
“अब बोलो, क्या पूछना चाहते हो? बल्कि पहले ये बोलो कि तुम्हें मेरी खबर कैसे लगी?”
“मकतूल की बेवा से लगी। आप मकतूल के पार्टनर थे, बेवा से बातचीत के दौरान आप का जिक्र आया और मुझे इस पते की खबर लगी। वैसे सुना है कल बेवा के साथ आप पुलिस हैडक्वार्टर भी गये थे और फिर लाश की शिनाख्त के सिलसिले में विक्टोरिया हस्पताल की मोर्ग में भी गये थे।”
“ठीक सुना है।”
“आप का पूरा नाम क्या है?”
“पूरा नाम?”
“पेपर में कोट करने के काम आयेगा न!”
“मेरा आधा पौना पूरा नाम एक ही है। प्रहलाद राज।”
“सरनेम?”
“कोई नहीं। मैं सरनेम के खिलाफ हूं।”
“जी!”
“मैं सरनेम के खिलाफ हूं क्योंकि मैं जात पांत के खिलाफ हूं। जात पांत आदमी और आदमी में फर्क करती है, उसे बांटती है।”
“नया फलसफा है।”
“तुम्हारे लिये, लेकिन नया नहीं हैं। उधर लिकर कैबिनेट के ऊपर एक तसवीर लगी है, उसे देखो।”
सुनील ने निर्देशित दिशा में देखा तो दीवार पर एक फ्रेम टंगा पाया जिसमें उसका मेजबान फिल्म अभिनेता इरफान खान के साथ दिखाई दे रहा था। दोनों मिड शॉट में थे और कैमरे को देखते हँस रहे थे।
साथ ही उसने शीशे के फ्रन्ट वाली लिकर कैबिनेट भी देखी जिसमें उम्दा स्काच विस्की की कई बोतलें मौजूद थीं। कैबिनेट के ऊपर एक चमड़ा मंढ़ा घोड़ा खड़ा था जो कि था तो खिलौना ही लेकिन फासले से भी उत्तम कारीगरी का नमूना जान पड़ता था। उसके बाजू में आठ गुणा दस इंच का एक फोटो फ्रेम था जिस में एक रेस का घोड़ा चित्रित था जिस पर जाकी सवार था और जिसके दायें बायें घोड़े की लगाम थामे अभिनेता इरफान खान और उसका मेजबान प्रहलाद राज खड़े थे।
“आप”—सुनील वापिस उसकी तरफ घूमा—“इरफान खान से वाकिफ जान पड़ते हैं!”
“इरफान मेरा आइडियल है।”—वो गर्व से बोला—“मैं उसका हम-खयाल हूं। जात-पांत की जो वजह मैंने बयान की, उसी वजह से उसने अपने नाम से हमेशा के लिये खान हटा दिया है और अब जिन फिल्मों में वो रोल करता है, उन के क्रेडिट्स में उसका नाम खाली इरफान दर्ज होता है।”
“अच्छा! मुझे नहीं मालूम था।”
“देखना कभी।”
“इसीलिये आप प्रहलाद राज!”
“हां।”
“नो सरनेम?”
“हां। लेकिन अगर तुम्हें सरनेम की इतनी तलब है तो, भई, तुम समझ लो कि मेरा सरनेम राज है और मिडल नेम नहीं है।”
“वो घोड़ा! किसी बहुत ही उम्दा कारीगर की कारीगरी जान पड़ता है!”
“हां। है तो चायनीज खिलौना ही लेकिन इसकी एक खास अहमियत मेरे लिये है कि”—उसके स्वर में गर्व का पुट आया—“खुद इरफान ने मुझे गिफ्ट दिया था।”
“वो राजनगर आया था?”
“मैं मुम्बई गया था।”
“फिर तो वो बगल की फ्रेम में लगी तसवीर भी मुम्बई रेसकोर्स की ही होगी!”
“वहीं की है।”
“लगता है रेस के शौकीन हैं आप!”
“हूं तो सही थोड़ा बहुत!”
“दांव लगाते हैं?”
“हां। कभी कभार।”
“कहां? राजनगर में तो रेस होती नहीं!”
“आजकल बुकी की मार्फत आप इन्डिया में कहीं भी दांव लगा सकते हैं। मुम्बई में, पूना में, हैदराबाद में, बैंगलोर में, कहीं भी।”
“अच्छा! मुझे नहीं मालूम था। तो आप मकतूल के साथ पार्टनरशिप में प्रॉपर्टी बिजनेस में थे।”
“हां।”
“लेकिन सुना है सेल्स परचेज में कमीशन खाने वाला काम नहीं करते थे!”
“हमारा काम बहुत दिलचस्प है।”
“बिल्डर वाला?”
“हां। लेकिन इमारत खड़ी करने वाला नहीं। हमारा काम जुदा किस्म का है इसीलिये दिलचस्प बोला।”
“सर, प्लीज एक्सप्लेन।”
“सुनो। राजनगर डवैलपमेंट अथारिटी की तीस साल पहले जब स्थापना हुई थी, तब उसने जो फ्लैट बना कर पब्लिक को दिये थे वो आज वाले फ्लैट्स के मुकाबले में बहुत खुले थे और उन की छतें भी आज के मुकाबले में ऊंची थीं। तीस साल के वक्के में ऐसे कई फ्लैट खस्ता हालत में पहुंच चुके हुए हैं क्योंकि अलॉटीज़ की उन को रेनोवेट करा पाने की हैसियत नहीं। हम ऐसा टूटा फूटा फ्लैट खरीदते हैं और छ: महीने में उसका काया पलट कर देते हैं। मार्बल की फ्लोरिंग, मौडूलर किचन, नये, माडर्न खिड़कियां दरवाजे, लग्जरी बाथरूम फिटिंग्स, पाइप और वायरिंग के कंसील्ड रूट वाले एयरकंडीशनर्स, फैंसी लाइट फिटिंग्स, दि वर्क्स। आखिर वो फ्लैट ऐसा बन जाता है जैसे वो किसी बड़े होटल का हिस्सा हो और फिर मुंह मांगे दामों पर बिकता है। बायर उसे देखता है तो मचल बैठता है कि यही लूंगा, भले ही कितनी रकम लगे। साल में हम दोनों पार्टनर ऐसा एक प्रोजेक्ट भी पूरा कर लेते थे तो दोनों की जेबें भर जाती थीं।”
“तो मकतूल की आमदनी का यही जरिया था?”
“हां।”
“आप की भी?”
“हां।”
“कोई साइड बिजनेस नहीं?”
“न।”
“न मकतूल का, न आप का?”
“हां।”
“आप को इस बात पर कोई हैरानी नहीं कि आप का पार्टनर आप की जानकारी के बिना, अपनी बीवी की जानकारी के बिना एक लोकल लग्जरी होटल में मुकाम पाये था? जो बीवी को बोल के गया था कि मुम्बई जा रहा था लेकिन राजनगर से बाहर भी जिस ने कदम नहीं रखा था?”
“सख्त हैरानी है।”
“आप को इस बात की खबर नहीं थी?”
“अरे, भई, हिन्ट भी नहीं था। कैसे होता? कभी खयाल तक न आया।”
“ये भी उजागर हुआ है कि ये पहला मौका नहीं था जब कि मकतूल ने ऐसा किया था।”
“ओ, नो।”
“ये हकीकत है। अब ऐसा करने की कोई वजह बयान कीजिये।”
“मैं! मैं करूं?”
“अपना कोई अन्दाजा बताइये। क्यों आप का पार्टनर, मुम्बई जाने को बोल कर घर से निकलता था और जाकर बदले नाम और आइडेन्टिटी से लोकल होटल में मुकाम पाता था?”
“मेरा...कोई अन्दाजा नहीं।”
“कोई वाइल्ड गैस?”
“वो भी नहीं।”
“तो मैं कुछ कहूं?”
“कहो। क्या कहना चाहते हो?”
“आपके पार्टनर का उसके...”
फोन की घन्टी बजी।
मेजबान के निगाह स्वयमेव ही पिछवाड़े के एक बन्द दरवाजे की ओर उठ गयी।
“एक्सक्यूज मी।”—वो बोला।
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
वो उठकर पिछवाड़े के दरवाजे पर पहुंचा और उसे खोल कर भीतर दाखिल हो गया। उसके दरवाजा बन्द कर लेने से पहले सुनील ने देखा कि वो एक बैडरूम था।
घन्टी बजने की आवाज आनी बन्द हो गयी।
लिकर कैबिनेट के बाजू में एक खुली खिड़की थी जिसके आगे एक राइटिंग टेबल लगी हुई थी। दूर से भी दिखाई देता था कि राइटिंग टेबल पर कुछ कागजात बिखरे हुए थे। लगता था कि मेजबान राइटिंग टेबल पर ही था जब कि सुनील ने आकर कालबैल बजायी थी।
उसने एक सतर्क निगाह बैडरूम के बन्द दरवाजे की तरफ डाली और फिर दबे पांव चलता राइटिंग टेबल पर पहुंचा।
उस पर बिखरे कागजात से लगता था कि वो कोई हिसाब किताब करने में मशगूल था। कागजात के ऊपर एक चैक बुक और बैंक की पास बुक पड़ी थी। चैक बुक नेशनल बैंक की थी। पास बुक पर भी नेशनल बैंक, विनायक नगर ब्रांच लिखा था।
जरूर वो अपने एकाउन्ट्स ही टैली कर रहा था। लिहाजा पास बुक उस का करेंट बैलेंस दर्शाती हो सकती थी।
उसने पास बुक की तरफ हाथ बढ़ाया।
“वहां क्या कर रहे हो?”
सुनील चिहुंक कर घूमा।
वो बैडरूम के दरवाजे के बाहर खड़ा था और सन्दिग्ध भाव से उसे देख रहा था।
“खिड़की से बाहर झांक रहा था।”—सुनील सहज भाव से बोला—“वो क्या है कि मेरी मोटरसाइकल बहुत कीमती है। यहां पहुंच कर जब मैंने मोटरसाइकल पार्क की थी तो उसे बच्चे घेर कर खड़े हो गये थे। मैं देख रहा था कि कहीं वो उस के साथ छेड़ाखानी तो नहीं कर रहे थे!”
“ओह!”
दोनों फिर यथास्थान आमने सामने बैठे।
“कौन सी है?”—वो उत्सुक भाव से बोला।
“एम वी आगस्ता अमेरिका। बीस हार्स पावर्स।”
“नाम तो सुना है! कीमती बोले तो लाखों में आती होगी!”
“जी हां।”
“दस लाख?”
“मैंने चौदह लाख में सैकण्डहैण्ड ली थी। मेरे वाला माडल नया तीस लाख का आता है।”
“वाह! चौदह लाख की सैकण्डहैण्ड! तुम तो बहुत रईस आदमी हुए!”
“बस एक ही मामले में रईसी है, जनाब। कपड़े उतर गये। कर्जाई हो गया।”
“शौक की कोई कीमत नहीं।”
“आप से बेहतर कौन जानता है इस बात को।”
“क्या बोला?”
“रेस खेलते हैं। जो कि बड़ा शौक है, एक्सक्लूसिव शौक है, अपर लैवल का शौक है।”
“है तो सही!”
“दूसरे, आप की वैल स्टैक्ड लिकर कैबिनेट में तमाम बोतलें स्काच विस्की की दिखाई दे रही हैं।”
“स्काच भी सिर्फ सिंगल माल्ट। राजनगर में एक सिंगल माल्ट ड्रिंर्क्स क्लब है, मेम्बर हूं मैं उसका।”
“ग्रेट!”
“तुम कौन सी विस्की पीते हो?”
“मैं तो, जनाब, ड्रिंक नहीं करता।”
“अच्छा! मैं तो तुम्हें आफर करने लगा था!”
“थैंक्स आल दि सेम। तो रेस में हारजीत कैसी चलती है? अमूमन जीतते हैं या हारते हैं?”
“जीतता हूं, भई।”
“फिर तो खुशकिस्मत हैं आप!”
“जो मुझे रेसिज की टिप सरकाता है, उसका रेसिंग का चालीस साल का तजुर्बा है।”
“तभी।”
“तो क्या कह रहे थे तुम फोन बजने से पहले?”
“मैं ये अर्ज कर रहा था कि आपके मरहूम पार्टनर का उसके प्रॉपर्टी के प्रत्यक्ष बिजनेस से ज्यादा मुफीद एक साइड बिजनेस था।”
वो हड़बड़ाया, फिर बोला—“क्या? क्या साइड बिजनेस?”
“ठगी।”
“क्या?”
“कॉनमैनशिप।”
“वाट द हैल!”
“पैसे वाली नौजवान लड़कियों को बहलाता फुसलाता था और उनसे उन का पैसा झटक लेता था और गायब हो जाता था।”
“अविनाश!”
“उर्फ अंशुल खुराना, उर्फ आदित्य खन्ना उर्फ कोई भी।”
“अविनाश ऐसा करता था?”
“जी हां। अपने कॉनगेम में वो हर बार एक नये नाम से एक नयी आइडेन्टिटी अख्तियार करता था और एक स्टैण्डर्ड माडस अपरांडी के तहत किसी लड़की का विश्वास जीतकर उसे मूंड लेता था।”
“वाट स्टैण्डर्ड माडस अप्रांडी?”
सुनील ने बताया।
वो खामोश हुआ तो मेजबान भौंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा।
“दिस इज प्रीपोस्चरस।”—फिर उत्तेजित लहजे से बोला—“आई कैननाट बिलीव इट।”
“तो उसकी होटल स्टारलाइट में नकली नाम से मौजूदगी की कोई और वजह बताईये। इसी बात की कोई वजह बयान कीजिये कि क्यों उसके पास अंशुल खुराना के नाम का वोटर आई-कार्ड था, आधार कार्ड था।”
“ऐसा था?”
“मुम्बई के नल बाजार के फर्जी पते के साथ। प्रूफ आफ रेजीडेंस और प्रूफ आफ आइडेन्टिटी के तौर पर उसने बाकायदा ये दोनों डाकूमेंट चैक-इन के वक्त होटल में जमा कराये लेकिन उसकी मौत के बाद पुलिस ने जब उन दोनों कार्डों को चैक किया तो दोनों नकली पाये गये।”
“कमाल है! तो उसके गाहे बगाहे सो काल्ड मुम्बई ट्रिप का ये राज था?”
“हां।”
“फिर तो...फिर तो हो सकता है कि उसका कत्ल उससे खता खाई किसी लड़की ने किया हो!”
“हो सकता है। आपकी जानकारी के लिये ऐसी एक लड़की को पुलिस ने हिरासत में लिया है और ऐसी दो और लड़कियों की वो लोग टोह में हैं।”
“भई, अगर ये बात सच है तो एक ही बात मुंह से निकलती है।”
“क्या?”
“बुरे काम का बुरा नतीजा।”
“पार्टनर की इस एक्स्ट्रा एक्टिविटी की आप को कभी कोई भनक न लगी?”
“नहीं, यार, कभी न लगी।”
“गाहे बगाहे मुम्बई जाने की वो कोई वजह तो बताता होगा?”
“यही कहता था कि काम था, किसी से मिलना था। ज्यादा कुरेदना तो बनता नहीं था न! ऐसा करने की न कोई वजह होती थी और न कोई जरूरत होती थी।”
“कत्ल परसों रात नौ और दस के बीच हुआ बताया जाता है। बाई दि वे, आप उस वक्फे के दौरान कहां थे?”
“मैं कहां था?”
“हां।”
“क्यों पूछते हो?”
“कोई खास वजह नहीं है। ये एक रूटीन क्वेश्चन है जो पुलिस भी आप से पूछेगी।”
“क्यों?”
“क्योंकि केस में ताल्लुक रखते हर शख्स से पूछेगी।”
“मेरा केस से क्या ताल्लुक?”
“मकतूल से तो था न! आप उसके पार्टनर थे। पुलिस हर उस शख्स से ये सवाल करेगी जो किसी भी तरीके से मकतूल से कनैक्टिड था।”
“योगिता से भी?”
“हां।”
“कमाल है!”
“जवाब दीजिये अब।”
“मेरी अक्ल ये कहती है कि मर्डर के केस में ऐसे सवाल मर्डर सस्पैक्ट से पूछे जाते हैं। अगर मैं मर्डर सस्पैक्ट हूं तो जवाब तो, भैय्या, मैं पुलिस को ही दूंगा।”
“प्रैस को क्यों नहीं?”
“क्योंकि प्रैस हर बात का ढ़ोल पीट देती है। पुलिस ऐसा नहीं करती।”
“मेजर केसिज में पुलिस अपनी जानकारी मीडिया से शेयर करती है, बाजरिया प्रैस काफ्रेंस बाकायदा मीडिया को ब्रीफ करती है।”
“तब की तब देखी जायेगी। ये तुम्हारा खयाल है कि पुलिस मेरे से सवाल करेगी। हो सकता है तुम्हारा खयाल गलत हो। हो सकता है इस बाबत मेरे से कोई सवाल न हो।”
“रूटीन इंक्वायरी आप से जरूर होगी।”
“हो। मैं जवाब दूंगा।”
“अभी जवाब देने में क्या हर्ज है?”
“कोई हर्ज नहीं लेकिन साइलेंस इज़ गोल्डन। नो?”
“इतना बोल चुकने के बाद आप को ये बात सूझी?”
“देर आयद दुरुस्त आयद।”
“आप का यकायक तब्दील हुआ रवैया मेरी समझ से बाहर है।”
“तुम्हारा एक खास सवाल का जवाब पाने की जिद करना मेरी समझ से बाहर है। फिर भी जवाब चाहते हो तो जवाब ये है कि उस घड़ी मैं कहीं भी था होटल स्टारलाइट में नहीं था, उसके आसपास भी नहीं था।”
“ये बतायेंगे कि कहां नहीं थे लेकिन ये नहीं बतायेंगे कि कहां थे?”
“हां।”
“ये आप का दृढ़ निश्चय है?”
“फिलहाल तो है, आगे की राम जाने।”
“आपने होटल स्टारलाइट में कभी कदम नहीं रखा?”
“रखा, भई, क्यों नहीं रखा? होटल है आखिर, कभी वहां किसी लंच, डिनर या बार सर्विस की जरूरत पड़ जाती है, लेकिन परसों रात—या परसों दिन की किसी भी घड़ी—कदम न रखा।”
“मकतूल ने कत्ल से पहले किसी के साथ जाम टकराये थे, बार से विस्की आर्डर की थी। अभी तक इस केस में एक मर्द आप ही दिखाई देते हैं।”
“तुम्हारा सोच में ही नुक्स है, भई। आजकल औरतें सांझ ढले आम विस्की पीती हैं।”
“तो आप वो शख्स नहीं, परसों रात अपने होटल रूम में मकतूल ने जिसके साथ ड्रिंक्स शेयर किये?”
“न था, न हो सकता था।”
“क्योंकि उस घड़ी आप कहीं और थे?”
“अब ये बात अभी कितनी बार और दोहरानी होगी?”
“लेकिन ये नहीं बतायेंगे कि कहां थे!”
“ये बात भी।”
“ओके!”—सुनील उठ खड़ा हुआ—“हैपी मीटिंग विद पोलीस।”
वो भी उठा।
“एण्ड थैंक्स फार नथिंग।”
वो दरवाजे पर पहुंचे। उसे खोलने के लिये सुनील ने दरवाजे की तरफ हाथ बढ़ाया तो दरवाजा पहले ही खुल गया और एक नौजवान लड़की उसकी छाती से आ टकराई।
“ईजी!”—सुनील बोला—इजी डज़ इट।”
“सॉरी!”—तनिक पीछे हटती वो हड़बड़ाई सी बोली—“वो...वो... राज... राज कहां है?”
“मैं यहां हूं।”—सुनील के पीछे से आवाज आयी।
“मैं...मैं फिर आऊंगी।”
“नहीं। ये जा रहे हैं।”
“फिर आऊंगी।”
वो हिरणी की तरह वहां से हवा हुई।
विचारपूर्ण मुद्रा बनाये सुनील वहां से रुखसत हुआ।
वो सनातन नगर पहुंचा।
उसने तोरल मेहता के फ्लैट की कालबैल बजाई तो दरवाजा तत्काल खुला। चौखट पर प्रकट हुई तोरल ने उसे देखा तो उसके माथे पर बल पड़े।
“मैं जानबूझकर लेट आया।”—सुनील मीठे स्वर में बोला—“ताकि तुम्हारी ब्यूटी स्लीप में खलल न पड़ता।”
“तुम फिर आ गये!”—वो अनमने भाव से बोली।
“हनीपॉट, मैं कोई गया वक्त तो नहीं जो आ भी न सकूं।”
“अब क्या है?”
“तूफानेहमदम, मेरे से ऐसे पेश आना ज्यादती है तुम्हारी! क्या भूल गयीं कि कल तुमने मुझे भला आदमी करार दिया था!”
“अब क्या साबित करने पर तुले हो कि भले आदमी नहीं हो?”
“तौबा!”
“मैंने यही तो पूछा है कि कैसे आये!”
“यूं पूछा जैसे आमद से ऐतराज हो।”
“गॉड! कितना घसीटते हो बात को। अब कहो, कैसे आये?”
“तुमसे एक जरूरी बात करनी है।”
“फिर?”
“फिर।”
“उसी सिलसिले में?”
“हां।”
“आओ।”
दोनों फिर ड्रार्इंगरूम में जा कर बैठे।
तब सुनील ने नोट किया कि वो चायनीज स्टाइल का लाल रंग का ड्रैसिंग गाउन पहने थी जिस पर आजू बाजू गले से कमर तक आने वाले दो ड्रैगन बने हुए थे और जिस में वो गुड़िया-सी हसीन लग रही थी।
“अब कहो”—वो तनिक उतावले स्वर में बोली—“क्या कहना चाहते हो?”
“कल मैंने होटल स्टारलाइट में हुए एक कत्ल का जिक्र किया था, उसकी बाबत कुछ कहना चाहता हूं।”
“अभी और भी?”
“हां। वो क्या है कि उस कत्ल से ताल्लुक रखती आज मुझे एक नयी बात मालूम हुई है, कल जिसका मुझे कोई हिन्ट भी नहीं था।”
“क्या बात?”
“कत्ल एक नक्काशीदार हैंडल वाले चाकू से हुआ है जो उस किस्म का है जो खानाबदोश लोग खुद बनाते हैं और पटड़ी पर बेचते हैं।”
“आगे?”
“आगे बढ़ने से पहले मैं तुम से कुछ पूछना चाहता हूं।”
“पूछो।”
“पड़ोसी कलाकार सफदर हुसैन से तुम्हारे बड़े मधुर सम्बन्ध हैं। तुम दोनों का एक दूसरे के यहां आम आना जाना है, खास तौर से तुम्हारा क्योंकि वो बिरयानी बहुत उम्दा बनाते हैं और उन के दस्तरख्वान पर तुम अक्सर इनवाइटिड होती हो। मैं ये पूछना चाहता हूं कि सम्बन्ध मधुर ही हैं या घनिष्ट भी हैं?”
“घनिष्ट से क्या मतलब है तुम्हारा?”—उसका स्वर खुश्क हुआ—“मेरे पिता की उम्र के हुसैन साहब से मेरा लव अफेयर है?”
“घनिष्ट सम्बन्धों की तर्जुमानी लव अफेयर से ही नहीं होती। अभी तुमने उन्हें पिता की उम्र का बताया। तुम उन्हें पिता सरीखा समझो, वो तुम्हें पुत्री मानें तो भी घनिष्ट सम्बन्धों की स्थापना होती है। नहीं?”
“हां।”
“है ऐसी घनिष्टता? स्थापित है ऐसा प्रेम भाव तुम दोनों में?”
“है।”
“अपना दुख सुख सांझा करती हो उनसे?”
“हां।”
“तब उन की क्या प्रतिक्रिया होती है?”
“वही जो एक पिता की पुत्री के लिये होती है। उन का बस चले तो मेरी सारी बलायें अपने सर ले लें।”
“तुम्हारे लिये कत्ल कर सकते हैं?”
“क्या! क्या बोला?”
“वही जो तुमने सुना। जिस नक्काशीदार हैंडल वाले चाकू से कत्ल हुआ है, जो कि आलायकत्ल है, उसके फल पर वैसे आयल पेंट्स के दाग पाये गये हैं जैसे हुसैन साहब अपनी पेंटिंग्स में इस्तेमाल करते हैं। ऐन आलायकत्ल जैसे सात चाकू कल मैंने उन के वर्क स्टेशन पर पड़े देखे थे। उन्होंने खुद कुबूल किया था कि उन्हें नहीं मालूम था कि वैसे कितने चाकू उन के पास थे। यानी एक चाकू की घट बढ़ से वहां कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। आलायकत्ल के फल पर लगा आयल पेंट इस बात की साफ चुगली करता है कि वो उन्हीं चाकुओं में से एक था जो कि कलाकार के वर्क स्टेशन पर मौजूद हैं। इसका आगे मतलब ये है कि कत्ल या कलाकार ने खुद किया या एक चाकू वहां से चोरी हुआ। कत्ल से कलाकार का कोई रिश्ता या उसमें उसका कोई जाती फायदा नजर नहीं आता। फिर भी अगर उन्होंने कत्ल किया तो किसी की भलाई की खातिर किया और ऐसा कोई तुम्हारे सिवाय मुझे नजर नहीं आता। अब बोलो, तुम्हारी खातिर...तुम्हारी खातिर, हुसैन साहब ने खून से हाथ रंगे?”
“नहीं।”—वो तीखे स्वर में बोली—“हरगिज नहीं। उन्हें उस केस की तो भनक तक नहीं जिसकी तफ्तीश में तुम लगे हो।”
“तुमने उन्हें कुछ नहीं बताया?”
“नहीं बताया।”
“सच कह रही हो?”
“हां।”
“फिर सोच लो।”
“मैं सच कह रही हूं। और सच के सिवा कुछ नहीं कह रही हूं।”
“तो फिर अपने उचरे सच का मतलब भी समझो।”
“क्या?”
“कत्ल तुमने किया।”
“ओ, नो!”
“वहां से एक चाकू सरका लेने की सुविधा तुम्हें पूरी तरह से हासिल थी। मैंने पहले ही कहा कि एक चाकू की घट बढ़ की वहां खबर नहीं लगने वाली थी। तुम मकतूल से वाकिफ थीं क्योंकि वो तुम से वाकिफ था। उस के मोबाइल में ‘फेवरिट्स’ में तुम्हारा नम्बर दर्ज था। उसके बैडरूम में तुम्हारी तसवीर मौजूद थी। ऐसा किसी गैर के साथ होना मुमकिन नहीं। इतने से ही साबित होता है कि अब नहीं तो पहले, कभी न कभी वो तुम्हारे से बाखूबी वाकिफ था। वाकफियत की धारा दोतरफा बहती है। ये नहीं हो सकता कि ए बी से वाकिफ हो और बी ए से वाकिफ न हो। या हो सकता है?”
उसने जवाब न दिया।
“मकतूल एक कॉनमैन था जिस का कारोबार ऐसी स्वतन्त्र जीवन जीती लड़कियों को ठगना था जिनके पास कोई मोटी रकम हो। तुम ऐसी लड़की हो। तुम अपने एकाउन्ट का स्टेट्स बताने को तैयार नहीं लेकिन मौजूदा हालात की रू में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी छोटी मोटी, किसी गिनती में न आने वाली रकम के अलावा उसमें कुछ नहीं रखा क्योंकि तुम मकतूल की कामयाब कॉनमैनशिप की शिकार हो चुकी हो। सनशाइन, अब ये बात मैं तुम से पूछ नहीं रहा, तुम्हें बता रहा हूं।”
उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“अब लाख रुपये का सवाल ये है कि जिस शख्स की ठगी का शिकार तुम हुर्इं, उसकी शहर में, होटल स्टारलाइट में मौजूदगी की तुम्हें खबर कैसे लगी? जवाब दो!”
वो खामोश रही।
“तुम अब खामोश नहीं रह सकतीं। पुलिस को आलायकत्ल की खबर लगने की देर है कि वो तुम पर चढ़ दौड़ेगी। फिर तुम्हारा भगवान ही मालिक होगा।”
“अभी...अभी खबर नहीं?”
“नहीं, अभी खबर नहीं। और सच बोलोगी, मुक्म्मल सच बोलोगी तो हो सकता है खबर कभी लगे भी नहीं।”
“ऐसा हो सकता है?”
“हो सकता है। बशर्ते कि कत्ल तुमने नहीं किया।”
“मैंने नहीं किया।”
“लेकिन तुम्हें खबर थी कि उसका कत्ल हो गया था?”
“हं-हां।”
“यानी तुम होटल में गयी थीं? आगे उसके कमरे में गयी थीं?”
“हं-हां।”
“अब पहले यही बताओ कि तुम्हें खबर कैसे थी कि वो वहां उपलब्ध था?”
वो कुछ क्षण बेचैनी से पहलू बदलती रही, फिर कठिन स्वर में बोली—“उसने मुझे फोन किया था।”
“किसने? किसने फोन किया था?”
“कॉनमैन ने। जो होटल स्टारलाइट के सुईट नम्बर 506 में ठहरा हुआ था।”
“उसने... उसने खुद तुम्हें फोन किया?”
“हां।”
“बाई दि वे, कितनी थूक लगाई थी उसने तुम्हें?”
“साढ़े तेरह लाख रुपये की।”
“कैसे?”
तोरल ने वही कहानी सुना दी जो वो पहले कियारा से सुन चुका था।
“आई सी।”—सुनील बोला—“ये न कहा गया कि ड्यूटी अभी भी शॉर्ट थी क्योंकि उस दौरान कुछ आइटम्स की ड्यूटी के रेट बदल गये थे?”
“नहीं।”
“यानी एक ही स्ट्राइक से सब्र कर लिया, उसे सप्लीमेंट करने की कोशिश न की!”
“हां।”
“बोला क्या?”
“बोला, अपनी किसी मजबूरी के तहत उसने वो गुनाह किया था जिसका कि उसे आज तक पछतावा था। बोला कि वो अपने गुनाह की तलाफी करना चाहता था और अगर मैं उसे सहयोग देती तो अभी भी सब ठीक हो सकता था।”
“क्या ठीक हो सकता था? तुम्हारा रुपया तुम्हें लौटा देता?”
“उसकी बातों से ऐसा ही कुछ जान पड़ता था।”
“यकीन नहीं आता। जरूर उस के जेहन में कोई स्कीम थी जिस के तहत वो तुमसे वो बाकी रकम भी झटक सकता था जो अभी तुम्हारे कब्जे में थी।”
“हो सकता है।”
“कितनी थी?”
“क्या?”
“अरे भई, प्रेजेंट बैंक बैंलेंस क्या है?”
“तकरीबन साढ़े नौ लाख।”
“वो चाहता क्या था?”
“चाहता था मैं उससे आकर मिलूं।”
“तुमने उसकी चाहत पर अमल किया?”
“हां।”
“नादानी की। तुम्हें पुलिस के पास जाना चाहिये था।”
“पुलिस का खयाल मेरे को आया बराबर था लेकिन मेरी अक्ल ने मुझे यही सुझाया था कि पहले मुझे सुनना चाहिये था कि वो क्या कहता था!”
“तुम्हें पुलिस के पास ही जाना चाहिये था। बहरहाल, तुम उससे मिलने गयीं?”
“हां।”
“मुलाकात का कोई टाइम मुकरर्र था?”
“उसने मुझे आठ बजे आने को बोला था लेकिन हालात कुछ ऐसे बन गये थे कि मैं आठ बजे नहीं पहुंच पायी थी, मैं नौ बजे के करीब पहुंची थी।”
“चाकू साथ लेकर क्यों गयीं?”
“आत्मरक्षा के लिये।”
“क्या मतलब?”
“वो कॉनमैन था, गलत आदमी था, मुझे ठग चुका था, वो मेरे साथ गलत तरीके से पेश आ सकता था, मेरा दिल गवाही देता था कि मुझे हिफाजत की जरूरत थी।”
“इसलिये तुमने हुसैन साहब के स्टूडियो से उनके कई नक्काशीदार चाकुओं में से एक चुरा लिया!”
“उठा लिया। वापिस रख देने की नीयत से उठा लिया।”
“मांग क्यों न लिया?”
“वो सवाल करते। माकूल जवाब न मिलता तो शक करते।”
“अप्वायन्टमेंट पर पहुंचने में इसीलिये तो देर नहीं लगी थी कि चाकू खिसकाने की कोशिश फौरन कामयाब नहीं हुई थी, उसमें टाइम लग गया था?”
“यही बात थी।”
“बावक्तेजरूरत चाकू चला लेतीं?”
“मुझे उम्मीद नहीं थी कि ऐसी कोई जरूरत पेश आने वाली थी। मेरे खयाल में बड़ी हद यही जरूरत पड़ती कि मुझे चाकू निकालकर, तान कर उसे धमकाना पड़ता, उसकी किसी बेजा हरकत पर उसे वार्न करना पड़ता। वैसे मुझे उम्मीद थी कि ऐसी कोई नौबत नहीं आने वाली थी लेकिन खबरदार रहने में क्या हर्ज था!”
“हूं। तो नौ बजे के करीब तुम उसके पास पहुंची थीं?”
“हां। ठीक आठ बजकर पचपन मिनट पर मैं होटल की पांचवीं मंजिल पर थी और उसके रूम की कालबैल बजा रही थी।”
“वक्त का इतना एक्यूरेट अन्दाजा कैसे है?”
“गलियारे में एक दीवार पर वाल क्लॉक लगी हुई थी। इत्तफाक से मेरी उस पर निगाह पड़ गयी थी।”
“फिर?”
“दो बार बजाने पर भी कालबैल का जवाब मुझे न मिला। तब मुझे महसूस हुआ कि दरवाजा लॉक्ड नहीं था। तब उसको नाम से पुकारती मैं भीतर दाखिल हुई।”
“किस नाम से पुकारती?”
“अंशुल खुराना!”
“ये उसका असली नाम था?”
“वो कहता था इस नाम से वो होटल में रजिस्टर्ड था।”
“तुम उसे किस नाम से जानती थीं? जब उसने तुम्हें अपनी कॉनमैनशिप के मायाजाल में उलझाया था तो क्या नाम बताया था अपना? अंशुल खुराना?”
“नहीं। आकाश खोसला।”
“तुमने पूछा नहीं जब उसका नाम आकाश खोसला था तो होटल में वो अंशुल खुराना क्यों था?”
“पूछा था! बोला, मैं आऊंगी तो वो हर बात एक्सप्लेन करेगा। ये बात भी।”
“कि उसके दो नाम क्यों थे?”
“हां।”
“एक नाम आदित्य खन्ना भी था, और मजेदार बात ये है कि तीनों ही नकली थे। उसका असली नाम अविनाश खत्री था और वो न मुम्बई से था, न न्यूयार्क से था, लोकल बाशिंदा था। यही, इसी शहर में, सुभाषनगर में बीवी बच्चों के साथ रहता था।”
“हे भगवान!”
“आज के अखबारों में उसकी लाश की शिनाख्त की स्टोरी छपी है।”
“मुझे खबर नहीं। लेट उठती हूं न! कल भी बोला था। इसलिये सुबह अखबार नहीं पढ़ पाती।”
“तो तुम उसके कमरे में दाखिल हुर्इं, फिर क्या हुआ?”
“भीतर कदम रखने पर ही मुझे मालूम पड़ा था कि वो सुइट था और मैं उसके ड्रार्इंगरूम में खड़ी थी।”
“वो कहां था?”
“वो वहां नहीं था। भीतर भी मैंने उसे नाम ले कर पुकारा था लेकिन कोई जवाब नहीं मिला था।”
“थोड़ी देर के लिये कहीं चला गया होगा!”
“हो सकता है।”
“तो तुमने क्या किया?”
“सुनील, तब मेरे जेहन में एक बड़ा शैतानी खयाल आया।”
“क्या?”
“कि मैं वार्डरोब में पड़ा उसका सामान टटोलूं।”
“किसलिये?”
“पता नहीं किसलिये! तभी तो बोला, शैतानी खयाल आया।”
“कि तुम्हारे साढ़े तेरह लाख रुपये उसके सामान में कहीं से बरामद हो जाते?”
“अब क्या बोलूं!”
“वो कमरे में नहीं था तो जरूर उसे खुला छोड़ कर थोड़ी देर के लिये कहीं गया था और किसी भी क्षण लौट सकता था!”
वो खामोश रही।
“तो ली तलाशी?”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“क्या हुआ?”
“मैं तब ड्रार्इंगरूम के मिडल में खड़ी थी। मैंने अपना हैंडबैग सेंटर टेबल पर रखा और वार्डरोब की ओर बढ़ी। अभी मैं वार्डरोब से दो कदम दूर ही थी कि थमक कर खड़ी हो गयी।”
“वो लौट आया?”
“नहीं।”
“तो?”
“टोको नहीं। मुझे कहने दो।”
“सॉरी!”
“तब एकाएक मेरी निगाह उस रूम और नैक्स्ट रूम के बीच के उस बन्द दरवाजे पर पड़ी जो कि वार्डरोब के पहलू में था और मैंने उसका दरवाजा बाल बाल कर के सरकते देखा।”
सुनील सम्भला लेकिन खामोश रहा।
“परली तरफ से कोई उस हैंडल को आपरेट कर रहा था जिस से दरवाजा खुलता-बन्द होता था और हैंडल बाल बाल सरकाया जाने से जाहिर हो रहा था कि किसी नेक इरादे से वो ऐसा नहीं कर रहा था।”
“कोई सावधानी से, चोरी से परले कमरे के रास्ते से वहां दाखिला पाना चाहता था?”
“यही जान पड़ता था। इस बात ने मेरे छक्के छुड़ा दिये, मैं इतना घबरा गयी कि उस के सामान की तलाशी का इरादा तर्क करके मैं वापिस सेंटर टेबल की तरफ लपकी जिस पर कि मैंने अपना बैग रखा था। मैं बैग को झपट कर वापिस घूमी तो बैग कहीं अटक गया और मेरे हाथ से छूट गया। खुद मैं बुरी तरह से लड़खड़ायी और एक सोफाचेयर पर जा कर पड़ी। मैं सम्भली तो मैंने देखा कि बैग खुल गया था और उसका काफी सारा सामान बाहर बिखर पड़ा था। मैंने बीच के दरवाजे की तरफ देखा तो पाया कि उसका बाहर की तरफ सरकना बन्द हो गया था और अब वो अपनी ओरीजिनल क्लोज्ड पोजीशन पर स्थिर था। साफ जाहिर होता था कि मेरा बैग गिरने और मेरे लड़खड़ाने की आवाज बीच के दरवाजे के परली तरफ जो कोई भी मौजूद था, उसे सुनायी दी थी और उसे अहसास हो गया था कि वो कमरा खाली नहीं था और फौरन उसने बीच का दरवाजा खोलने का खयाल छोड़ दिया था।”
“या उसने सोचा होगा कि उस रूम का आकूपेंट लौट आया था!”
“कुछ भी।”
“सेंटर टेबल पर एक फूलदान पड़ा था। हैण्डबैग के साथ जो मिसएडवेंचर हुई, उसमें क्या वो लुढ़क कर नीचे जा गिरा था?”
“फूलदान! नहीं तो!”
“वो नीचे गिरा हो और तुमने उसे उठा कर वापिस टेबल पर रखा हो!”
“नहीं तो!”
“वैसे इतना तो पता है न कि सेंटर टेबल पर एक फूलदान था?”
“हां, फूलदान तो था!”
“सहज स्वाभाविक ढ़ण्ग से पड़ा हुआ?”
“क्या मतलब?”
“एक दो फूल बाहर गिरे पड़े हों?”
“नहीं, ऐसा नहीं था। ऐसा होता तो मेरी तवज्जो इस बात की तरफ जरूर गयी होती।”
“ठीक। फिर?”
“मैंने आनन फानन फर्श पर बिखरी पड़ी अपनी चीजें समेट कर वापिस हैण्डबैग में डालीं और वहां से निकल पड़ी। बीच के दरवाजे के इतने रहस्यपूर्ण तरीके से खुलने की तैयारी होती होने ने मुझे ऐसा डराया था कि मैंने अपने कॉनमैन से मिलने का खयाल ही छोड़ दिया और जल्दी से जल्दी होटल से निकल लेने पर जोर दिया। मैंने सोचा कि बाद में मेरे न आने की बाबत वो गिला करेगा तो मैं उसे यहां बुलाऊंगी और हुसैन साहब से संरक्षण में उससे बात करूंगी। लेकिन उस की नौबत ही न आयी। बाद में तुम्हारे बताये खबर लगी कि मेरे होटल से निकलने के थोड़ी देर बाद ही किसी वक्त उसका कत्ल हो गया था।”
“और?”
“और रास्ते में टैक्सी में अपने हैण्डबैग में मैंने फिर झांका तो पाया कि पीछे उसमें से फर्श पर गिरा अपना सारा सामान मैं वापिस नहीं समेट पायी थी, उसमें से बाहर गिरी दो आइटम वहीं रह गयी थीं।”
“क्रिमसन लिपस्टिक की ट्यूब और हुसैन साहब की मिल्कियत नक्काशीदार हैंडल वाला चाकू!”
“हां। लेकिन उन चीजों को रीक्लेम करने मैं वापिस नहीं लौट सकती थी। लिपस्टिक मैंने नयी खरीद ली और चाकू के वजूद को ये सोच के भुला दिया कि किसी को पता नहीं लगने वाला था कि वो किस का था, कैसे वहां पहुंचा था!”
“कत्ल न होता तो यही होता, लेकिन अब उस चाकू की अहमियत बन गयी है क्योंकि वो आलायकत्ल है।”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“चाकू की तसवीर भी अखबार में छपी है। और ये भी छपा है कि उसके फल पर आयल पेंट के दाग पाये गये थे। तुम अखबार नहीं पढ़ती हो लेकिन हुसैन साहब पढ़ते होंगे। उन्हें सूझ सकता है कि वो चाकू—आलायकत्ल—उनके कलैक्शन का हिस्सा था। फिर उन की तवज्जो तुम्हारी तरफ जाये बिना नहीं रहेगी क्योंकि परसों शाम एक अरसे तक तुम उनके फ्लैट में थीं। माई हनी-चाइल्ड, चाकू की बाबत वो तुम से सीधे सवाल कर सकते हैं अगरचे कि अभी तक कर नहीं चुके।”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“क्या जवाब दोगी?”
“तुम बताओ।”
“मैं बताऊं?”
“हां। प्लीज।”
“जो मेरे से कहा, वो उन्हें भी कह सुनाना और खामोशी की दरख्वास्त करना।”
“वो तो मैं करूंगी और उम्मीद है कि दरख्वास्त कुबूल भी हो जायेगी लेकिन तुम अपनी बोलो, तुम खामोश रहोगे?”
“पुलिस ने मुझे यहां देखा था। न देखा होता तो खामोश रहना आसान था। स्वीटहार्ट, मेरे से कोई सीधा सवाल हुआ तो खामोश रहना मुश्किल होगा वर्ना मैं खामोश रह सकता हूं अगरचे कि...”
उसने रुककर स्थिर नेत्रों से तोरल की ओर देखा।
“क्या? क्या कहना चाहते हो?”
“अगरचे कि होटल में पहुंचने के अपने टाइम की बाबत तुमने सच बोला है।”
“मेरे से जिसकी मर्जी कसम उठवा लो, मैंने सच बोला है।”
“हुस्नवालों के कसमिया सच पर मेरा अकीदा नहीं।”
“अब...मैं क्या कहूं!”
“कहूं नहीं, सुनूं। तुम्हारे फायदे की बात है।”
“क्या?”
“अगर तुम सच में नौ बजे से पहले होटल में थीं तो तुम कातिल नहीं हो सकतीं।”
उसने चैन की लम्बी सांस ली।
“इतना राजी हो के दिखाने वाली बात नहीं है। जो मैंने कहा, उस पर ‘अगर’ भी लगा हुआ है।”
वो फिर चिन्तित दिखाई देने वाली।
“पुलिस के पास एक ऐसा गवाह मौजूद है जिसकी गवाही ये स्थापित करती है कि कम से कम नौ बज कर पन्द्रह मिनट तक मकतूल जिन्दा था।”
“तब तक तो मैं होटल से दूर यहां के रास्ते पर टैक्सी में थी।”
“इस बात को स्थापित करने की कोई तरकीब सोच सको तो तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा। सोचना इस बाबत। जोर देना दिमाग पर। बन्दा चला।”
सुनील यूथ क्लब पहुंचा।
रमाकान्त उसे आफिस में मिला।
अपने फेवरेट पोज़ में।
अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर अधलेटा पड़ा सिग्रेट पीता।
“आ भई, काकाबल्ली।”—सुनील के देख कर वो सीधा हुआ—“जी आयां नूं।”
सुनील एक विजिटर्स चेयर पर ढ़ेर हुआ।
“लंच करने आया?”—रमाकान्त ने पूछा।
“हां।”
“मार्इंयवा मतलबी यार। कभी नहीं कहता यार से मिलने आया।”
“करैक्शन। यार के साथ लंच करने आया।”
“बात संवारना खूब जानता है।”
“लंच कर तो नहीं चुके?”
“नहीं, अभी नहीं। हाल में चलें?”
“आज यहीं मंगाओ। यहां एकाध जरूरी बात भी हो जायेगी।”
“पहले बात ही कर ले। बता क्या काम है?”
“मैंने कब बोला काम है?”
“तेरे वड्डे भापा जी अन्तरयामी हैं। जानते हैं तेरी बात कैसी होगी।”
“फिर तो सुनो।”
“शुरू से सुना। अब तक की फुल रिपोर्ट पेश कर।”
सुनील ने की।
“हूं। इतना पहुंचा हुआ आदमी था मकतूल! बीवी को भनक न लगने दी, पार्टनर को भनक न लगने दी कि किस फिराक में था!”
“बीवी वाली बात ठीक है—अपनी क्रिमिनल एक्टिविटीज को बीवी के साथ कोई नहीं शेयर करता, वो भी खालिस हाउसवाइफ बीवी के साथ—लेकिन पार्टनर के बारे में मैं श्योर नहीं।”
“कहीं तू ये तो नहीं कहना चाहता कि प्रॉपर्टी बिजनेस में पार्टनर ठगी के कारोबार में भी पार्टनर था?”
“ऐसा कोई हिन्ट तो नहीं मिला है लेकिन होने को क्या नहीं हो सकता?”
“ये बात तो ठीक है तेरी!”
“ये बात काबिलेगौर है कि पार्टनर प्रहलाद राज छ: साल से शादीशुदा है लेकिन औलाद नहीं है। बीवी से उसकी रेगुलर अनबन रहती बताई जाती है, इतनी कि खड़े पैर उठती है और मायके चली जाती है। मेरे को लगता है कि खाविन्द बीवी को उकसाता है, जानबूझ कर तकरार का माहौल खड़ा कर के उकसाता है कि वो मायके जाये।”
“कैसे लगता है?”
“मैं जब उसके फ्लैट से रुखसत होने लगा था तो वहां एक नौजवान लड़की पहुंची थी। फुल पटाखा और बहुत चंचल। उम्र में प्रहलाद राज से कम से कम दस साल छोटी। उस के व्यवहार से साफ जाहिर होता था कि उस घड़ी वो प्रहलाद राज के फ्लैट में अकेला होने की उम्मीद कर रही थी।”
“यानी जानती थी उसकी बीवी मायके गयी हुई थी!”
“यकीनन! तभी तो उसके फ्लैट में अकेला होने की उम्मीद कर रही थी।”
“आगे बढ़।”
“दरवाजा खोल कर यूं हवा के झोंके की तरह, भीतर दाखिल हुई थी कि वहां से रुखसत होने को तत्पर मेरे से आ टकराई थी। फिर बड़े बेवाक अन्दाज से पूछा था कि राज कहां था। रमाकान्त, जैसा कि अपेक्षित था ये न पूछा कि भाई साहब कहां थे, वो कहां थे या राज साहब कहां थे, बल्कि पूछा कि राज कहां था जैसे कि राज उसका हमउम्र हो।”
“बहुत फ्रैंक होगी पट्ठे के साथ!”
“ऐसा ही जान पड़ता था।”
“मैं बोलूं तो मशूक होगी।”
“मेरा भी यही खयाल है। मुझे देख कर हड़बड़ा गयी थी और कहने लगी ‘मैं फिर आऊंगी।ʼ रमाकान्त, उसके ‘मैं फिर आऊंगी’ कहने से साफ लगता था कि उसने कहीं दूर से नहीं आना था, उसका मुकाम करीब ही कहीं था। यानी रुकने या लौट के आने में कोई खास फर्क नहीं था।”
“मालको, फिर तो जरूर वो उसी हाउसिंग बोर्ड में कहीं रहती थी।”
“बहुत मुमकिन है। उसका पता निकलवा सकते हो?”
“किस काम आयेगा?”
“वो शख्स ये बताने को तैयार नहीं था कि परसों रात नौ और दस बजे के बीच वो कहां था। दावे के साथ कहता था कि अव्वल तो उससे कोई पूछताछ होने वाली नहीं थी, क्योंकि उसका कत्ल से दूरदराज का भी कोई वास्ता नहीं था, होती तो वो बाखूबी साबित कर सकता था कि उस वक्फे के दौरान वो कहीं और था, वो तब होटल स्टारलाइट के आसपास भी नहीं था।”
“यानी तेरे को भाव देने को तैयार न हुआ; जो बताता, पुलिस को बताता!”
“साफ ऐसा बोला।”
“उस वक्त की कोई एलीबाई पहले से ही गढ़े बैठा होगा!”
“ऐग्जैक्टली! और वो एलीबाई वो लड़की हो सकती है जिस पर अभी तुमने उसकी माशूक होने का शक जाहिर किया। रमाकान्त, अगर उस लड़की की कोई खोज खबर लग जाये तो जो बात एक सिरा पकड़कर नहीं बनी, वो दूसरा सिरा पकड़ कर बन सकती है। हम जान सकते हैं कि लड़की हकीकतन उसकी एलीबाई है या मुलाहजे में, उसके इसरार पर उसे एलीबाई दे रही है।”
“इस से क्या होगा?”
“होगा क्या! एलीबाई चौकस हुई तो वाह वाह, न हुई तो एक मर्डर सस्पैक्ट और फोकस में आ जायेगा।”
“आसान काम नहीं है, मालको। सूरत की वाकफियत नहीं, नाम मालूम नहीं, कैसे होगा?”
“मैं बहुत बारीकी से लड़की का हुलिया बयान कर सकता हूं।”
“फिर भी कैसे होगा?”
“जमूरे की निगरानी कराओ। कभी न कभी वो उस लड़की के साथ जरूर दिखाई देगा। जमा, तुमने खुद कहा कि जरूर वो उसी हाउसिंग बोर्ड में कहीं रहती होगी। उसकी तलाश में ये बात बहुत काम आ सकती है।”
“देखेंगे। अभी तू एक कागज पकड़ और उस पर उस जमूरे का मुकम्मल पता और लड़की का मुकम्म्ल हुलिया दर्ज कर।”
सुनील ने वो काम किया।
रमाकान्त ने उठकर कागज उसके हाथ से लिया और बोला—“आता हूं।”
वो चला गया तो पीछे सुनील ने एक सिग्रेट सुलगा लिया।
पांच मिनट बाद रमाकान्त वापिस लौटा।
“जौहरी और दिनकर को”—वो वापिस अपनी कुर्सी पर बैठता बोला—“तेरे काम पर लगा कर आया हूं।”
“गुड।”
“शायद ‘थैंक्यू’ कहना चाहता था, मुंह से ‘गुड’ निकल गया।”
“थैंक्यू, वड्डे भापा जी!”
“मैंशन नाट टिका ले।”
“अब बोलो, तुम्हारे पास कुछ बताने लायक हो तो!”
“है, भई। क्यों नहीं होगा भला! यार काम बताये और वो हो नहीं, ऐसा कहीं हो सकता है।”
“क्या पता लगा?”
“बाजरिया सर्विस प्रोवाइडर पुलिस ने मकतूल के मोबाइल के ‘फैवरिट्स’ में दर्ज बाकी दो नाम वालियों का अता पता निकाल लिया है।”
“काव्या और देवीना, का?
“हां। मोतियांवालयो, इस बार खास मोटी फीस भरनी पड़ी है भेदिये की।”
“खास क्यों?”
“क्योंकि जानकारी आनन फानन हासिल की। शुरुआती दौर में ऐसी जानकारी खुफिया होती है, बाद में आम हो जाती है तो खुफिया नहीं रहती। मैं भेदिये को कहता कि जानकारी कभी भी सरकाना तो वो मुंह न फाड़ता। अब बात जुदा थी।”
“बहरहाल काम हुआ?”
“हां।”
“क्या जाना?”
“नोट कर। काव्या का पूरा नाम काव्या कपूर, पता फ्लैट नम्बर 39, मेफेयर टावर, चर्चरोड, मुगलबाग। देवीना का पूरा नाम देवीना महाजन, हाउस नम्बर बी-12, ज्योति कालोनी, नियर धोबी नाका क्रीक। ओके?”
“ओके।”
“पहले कहां जायेगा?”
“मुगलबाग कदरन करीब है।”
“ठीक। लंच कर ले, फिर चलते हैं?”
“चलते हैं।”
“नहीं तो फिर कहेगा कि साथ नहीं दिया।”
“नहीं कहूंगा।”
“ओये, मुझे रास्ता मालूम है, चर्च रोड पर मेफेयर टावर भी मालूम है, खामखाह भटकता फिरेगा।”
“नहीं भटकता फिरूंगा।”
“इसे कहते हैं चित्त भी मेरी पट भी मेरी। मैं साथ न चलूं तो भी बुरा, साथ चलूं तो भी बुरा।”
“ठीक है चलना।”
“शावाशे।”
“अब खाना यहां मंगाओ।”
“मंजूर।”
वो मुगलबाग और आगे चर्च रोड पहुंचे।
कार मेफेयर टावर के करीब पहुंची तो रमाकान्त ने एकाएक ब्रेक लगाई।
“क्या हुआ?”—सुनील हड़बड़ाया।
“सामने देख।”—रमाकान्त बोला।
मेफेयर टावर के सामने सड़क पर फुटपाथ से लगी एक पुलिस जीप खड़ी थी। सुनील ने देखा जीप की ड्राइविंग सीट पर वो हवलदार मौजूद था जिसे पिछले रोज प्रभूदयाल ने रामबल के नाम से पुकारा था।
“अब?”—रमाकान्त बोला।
“यहीं रुकते हैं। पुलिस के जाने के बाद आगे बढ़ेंगे।”
“ठीक।”
दोनों ने सिग्रेट सुलगा लिये और प्रतीक्षा करने लगे।
उन के सिग्रेट खत्म हुए तो इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल एक सब-इन्स्पेक्टर के साथ इमारत के कम्पाउन्ड से बाहर निकला और फिर दोनों जाकर जीप में सवार हुए।
ड्राइवर के जीप स्टार्ट की और उसे आगे बढ़ा दिया। जीप उन की कार की बगल से गुजरी पर प्रभूदयाल की निगाह उन की तरफ न उठी।
“अब बोल!”—रमाकान्त बोला।
“क्या?”—सुनील हड़बड़ाया—“क्या बोलूं?”
“अकेला आया होता तो तेरी शक्ल से नहीं तो तेरी मोटरसाइकल से प्रभूदयाल ने तुझे पहचान लिया होता।”
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
“दो बार ऐसा संयोग हुआ कि ऊपर से आ गया।”—फिर बोला—“अब फिर ऐसा होता तो भड़क जाता और यकीनन गले पड़ता।”
“तू कार क्यों नहीं लेता?”
“मुझे मोटरसाइकल पसन्द है।”
“ये नहीं कहता कि कंजूस हूं।”
“नहीं हूं। मेरी सैकण्डहैण्ड एम वी आगस्ता अमेरिका की कीमत में दो नयी हाई एण्ड कारें आती हैं।”
“मेरे से कार क्यों मांगता है?”
“अब नहीं मांगूंगा।”
“कमला, मार्इंयवा। बात को कहां से कहां घसीट के ले जाता है! ओये, मैं ऐसी दस कारें तेरे सिर से वार के फेंक दूं।”
“मुझे यकीन है तुम ऐसा कर सकते हो। थैंक्यू, वड्डे भापा जी। अब चलें?”
रमाकान्त ने कार आगे बढ़ाई और आगे जीप द्वारा खाली की गयी जगह पर ले जाकर रोकी। दोनों बाहर निकले और भीतर दाखिल हुए।
लॉबी में लगे इन्डेक्स के मुताबिक फ्लैट नम्बर 39 चौथी मंजिल पर था।
लिफ्ट द्वारा वे ऊपर पहुंचे। सुनील ने कालबैल बजायी।
तत्काल दरवाजा खुला।
चौखट पर एक नौजवान, चमचम बाला प्रकट हुई जो उन्हें देखकर सकपकायी।
“ओह!”—उसके मुंह से निकला—“मैं समझी थी कि...”
“क्या समझी थीं?”—सुनील मधुर स्वर में बोला।
“कुछ नहीं। कौन हैं आप लोग...”
“समझी थीं कि पुलिस वाले लौट आये थे!”
“...क्या चाहते हैं?”
“सोहनयो”—रमाकान्त बोला—“अगर तुम्हारा नाम काव्या कपूर है तो माड़ा जया हाउ-डू-यू-डू-क्वाइट-वैल-थैंक्यू करना चाहते हैं।”
“क्या!”
“मिलना चाहते हैं।”—सुनील बोला—“दो मिनट बात करना चाहते हैं।”
“किस सिलसिले में?”
“सिलसिला वही है जो अभी आप पुलिस के साथ डिसकस करके हटी हैं।”
“हो कौन तुम?”
“मेरा नाम सुनील है—सुनील चक्रवर्त्ती। मैं ‘ब्लास्ट’ से हूं।”
“‘ब्लास्ट’! वो जो डेली न्यूजपेपर है?”
“वही।”
“उस में क्या हो तुम?”
“चीफ रिपोर्टर। ये देखिये, मेरा आई-कार्ड।”
“हूं।”—फिर उसने रमाकान्त की ओर निगाह डाली।
“मैं सरबाला हूं।”—रमाकान्त चहका।
“क्या?”
“सरबाला। जहां दुल्हा, वहां सरवाला।”
“दुल्हा!”
“ये।”
“आई डोंट अन्डरस्टैण्ड।”
“करा, भई, अन्डरस्टैण्ड मालकां नूं।”
“मजाक कर रहे हैं।”—सुनील निर्दोष भाव से मुस्कराया—“ये रमाकान्त मल्होत्रा हैं। मेरे साथी हैं।”
“ये भी मीडिया पर्सन हैं?”
“ये सिर्फ पर्सन हैं।”
“कैसे मालूम है कि मैं कोई सिलसिला पुलिस से डिसकस कर के हटी हूं?”
“ताड़ने वाले कयामत की नजर रखते हैं, खत का मजबूं भांप लेते हैं लिफाफा देख कर।”
उस के चेहरे पर उलझन के भाव आये।
“कोई ऐसी जुबान बोलो”—फिर बोली—“जो मेरी समझ में आये।”
“इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल”—सुनील बोला—“जो अभी यहां थे, मेरे फ्रेंड हैं।”
“ओह!”
“मेरी आप से मुलाकात को खुद उन्होंने ओके किया है।”
उसने पहले से लम्बी ‘ओह’ की और फिर बोली—“दो मिनट यहीं ठहरो।”
उसने उन के मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया।
सुनील ने अपना मोबाइल निकाला और उसे ‘फोटोज’ पर खोला।
परसों रात मकतूल के बैडरूम में फ्रेम में लगी जिन तीन तसवीरों के अक्स उसने मोबाइल के कैमरे में महफूज किये थे, वो लड़की उन में से एक थी—वो थी जिसकी तसवीर फ्रेम में सब से आगे थी। उसने तसवीर को पूरी स्क्रीन पर लिया और स्क्रीम रमाकान्त के सामने की।
“ये तो”—रमाकान्त तत्काल बोला—“यही लड़की है।”
“है न!”—सुनील बोला—“इस की तसवीर फ्रेम के फ्रंट में डिस्पले पर होना जाहिर करता है कि ये वहां, मकतूल के होटल रूम में, अपेक्षित थी। अब ये खुद बतायेगी कि गयी थी या नहीं! गयी थी तो कब गयी थी!”
“ओये, अभी खिसक तो नहीं जायेगी?”
“काहे को?”
“वजह तेरे को मालूम हो!”
“कोई वजह नहीं। ऐसे कहीं पीछा छूटता है! जुकाम हूं मैं। आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। खिसक जायेगी तो फिर आ जाऊंगा। फिर के बाद फिर आ जाऊंगा। ऐसे पीछा छोड़ने लगा मैं तो चल चुकी मेरी दुकानदारी।”
“ओह!”—रमाकान्त एक क्षण ठिठका फिर बोला—“खूबसूरत है।”
“सजावटी है।”
“क्या फर्क हुआ?”
“वही फर्क हुआ जो सुन्दर और आकर्षक में होता है; ब्यूटीफुल और अट्रैक्टिव में होता है।”
“बल्ले, भई! काफी सयाना हो गया है इस महकमे में।”
“इनायत है वड्डे भापा जी की।”
“परसों का बाकी बचा एक शेर सुनेगा?”
“नहीं।”
“क्यों, भई? मैं तेरी हर बात सुनता हूं तो तू क्यों...”
तभी दरवाजा खुला।
“आइये।”—वो बोली।
वो उन्हें ड्रार्इंगरूम में ले के आयी।
“यहां बेतरतीबी फैली हुई थी।”—वो बोली—“जरा ठीक की।”
“ओह!”
“बैठिये।”
“थैंक्यू।”
दोनों अगल बगल बैठ गये तो वो उन के सामने बैठी।
“जब”—सुनील बोला—“पुलिस को बेतरतीबी कबूल थी तो...”
“तब नहीं थी। उन लोगों के जाने के बाद मैंने फैलाई।”
“आपने?”
“तैयार होने की जल्दी में। आधे घन्टे में मैंने यहां से निकलना है। ठीक चार बजे मेरी कहीं हाजिरी है।”
“ये आप अगर हमें नोटिस दे रही हैं तो हम आपका ज्यादा वक्त नहीं लेंगे।”
“थैंक्यू।”
“पुलिस का यहां फेरा लगा इसलिये आप से ये पूछना तो बेकार होगा कि परसों रात होटल स्टारलाइट में हुए कत्ल की आप को खबर लगी या नहीं!”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“पुलिस को आप की खबर कैसे लगी? कैसे आप तक पहुंच गयी?”
“कहते थे मकतूल के मोबाइल में ‘फेवरिट्स’ की लिस्ट में मेरा नाम और फोन नम्बर था। उसके सुईट के बैडरूम में फ्रेम में लगी मेरी तसवीर मौजूद थी।”
“वो कहते थे? खुद आप को ये बात नहीं मालूम?”
“किसी के मोबाइल में क्या है, इसकी मुझे कैसे खबर होगी?”
“मैं तसवीर की बात कर रहा हूं।”
वो खामोश हो गयी।
“लगता है सवाल कुछ मुश्किल हो गया! ओके, मैं पहले चन्द आसान सवाल पूछता हूं, आप तब तक मुश्किल सवाल के जवाब की तैयारी कर लीजियेगा। ओके?”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“यहां अकेली रहती हैं?”
“हां।”
“कामकाजी महिला हैं?”
“हां।”
“क्या काम करती हैं।”
“लिंक रोड पर एक रेस्टोबार है। ‘चिल’ नाम है। उस में एम्पलायड हूं।”
“किस हैसियत में?”
“उस हैसियत में नहीं”—उसका स्वर शुष्क हुआ—“जो तुम्हारे जेहन में है।”
“जी!”
“जहां रेस्टोबार का नाम लो, लोगों को बारबाला सूझने लगती हैं।”
“है तो नहीं ऐसा लेकिन...खैर...आप की क्या जॉब है?”
“बारटेंडर हूं।”
“लड़कियां भी बार टेंड करती हैं?”
“करती हैं।”
“कमाल है!”
“सभी कहते हैं।”
“क्या?”
“जो तुमने कहा। मैं बारटेंडर हूं, सुनकर सभी कहते हैं कमाल है!”
“आप इतनी आकर्षक हैं, इतनी नौजवान हैं, इतनी उम्दा पर्सनैलिटी है...”
“छोड़ो वो किस्सा। ये सब भी सभी कहते हैं। मुझे अपनी जॉब से फिलहाल कोई शिकायत नहीं।”
“फिलहाल!”
“हां, फिलहाल। जब शिकायत होगी तो...सोचूंगी कुछ।”
“सोचना क्या है, सोहनयो”—रमाकान्त जोश से बोला—“तब मेरे पास आ जाना।”
“क्या बोला?”
“मेरे पास आ जाना।”
“तुम्हारे पास क्यों?”
“ये एक क्लब के संचालक है।”—सुनील बोला—“यूथ क्लब के।”
युवती के नेत्र फैले। जाहिर था कि वो यूथ क्लब के नाम से वाकिफ थी।
“रेस्टोबार ही समझो, सोहनयो”—रमाकान्त बोला—“खाली बारबालायें नहीं हैं और बारटेंडर मेल हैं।”
“मजाक कर रहा है।”—सुनील बोला।
“मैं सोचूंगी।”—वो अनमने भाव से बोली।
“इत्मीनान से सोचना।”—रमाकान्त बोला—“सोचती रहना। सोचती ही रहना। पर पहले कभी वैसे ही चली आना सांझ ढ़ले खिड़की तले। डिनर-शिनर के लिये। ड्रिंक-श्रिंक के लिये।”
उसने हैरानी से रमाकान्त की तरफ देखा।
“ओके, सोहनयो?”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“शावाशे! ज्यूंदी रह, फंसदी रह!”
“क्या?”
“ज्यून्दी वसदी रह।”
“तुम्हारी लम्बी उम्र की दुआ मांग रहा है अपनी जुबान में।”—सुनील बोला।
“ओह!”—उसके तेवर नर्म पड़े।
“सो, ऐज आई अन्डरस्टैण्ड”—सुनील वार्तालाप का सूत्र अपने हाथ में लेता बोला—“‘चिल’ में आप की ड्यूटी चार बजे से होती है!”
“हां।”—उसने कलाई घड़ी पर निगाह डाली—“इसीलिये बोला, आधे घन्टे में निकलना है।”
“इत्मीनान रखिये, थोड़ा सहयोग देंगी तो हमारी वजह से आप लेट नहीं होंगी।”
“सो नाइस आफ यू।”
“सिंगल हैं?”
उसके चेहरे पर विषाद की छाया तैर गयी, फिर उसने बम-सा छोड़ा—“विडो हूं।”
“तौबा!”—सुनील हाहाकारी लहजे से बोला—“इस उम्र में विधवा हैं!”
उसने गहरी सांस ली।
“कितना...कितना अरसा चला विवाहित जीवन?”
“दस महीने।”
“क्या हुआ?”
“सडन हार्ट फेलियोर। दूसरी सांस न आयी।”
“कितनी उम्र थी?”
“छत्तीस।”
“कारोबार क्या था?”
“होजियरी मैनूफैक्चरर थे। अपनी फैक्ट्री थी।”
“फिर तो सम्पन्न व्यक्ति हुए!”
“ठीक थे।”
“कब की बात है?”
“चार साल पहले की।”
“विल थी?”
“नहीं।”
“तो फिर...”
“इसी वजह से बहुत बखेड़ा हुआ। ससुराल में उसकी मां थी, दो बड़े भाई थे। मेरे हसबैंड के मरते ही सब मेरे दुश्मन बन गये, यूं पेश आने लगे जैसे मेरी शक्ल नहीं पहचानते थे। खड़े पैर घर से निकाल दिया। मैंने दुहाई दी कि तुम्हारा बेटा ही नहीं मरा था, तुम्हारा भाई ही नहीं मरा था, मेरा पति भी मरा था। किसी ने एक न सुनी। सब इसलिये कि मरने वाले के विरसे से मुझे बेदखल कर सकें। अपने पति की विवाहिता पत्नी होने के नाते मैं उसकी नेचुरल वारिस थी। कैसे वो लोग मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर फेंक सकते थे। मेंने कोर्ट में केस डाला। उन्होंने ये स्टैण्ड लिया कि मैं पत्नी थी ही नहीं, मेरी कभी शादी नहीं हुई थी, मैं तो गोल्ड-डिगर थी जो उन के लड़के के गले पड़ी हुई थी। मैंने कोर्ट में शादी की तसवीरें जमा करार्इं, वो गवाह पेश किये जिनकी मौजूदगी में शादी हुई थी। नतीजतन मुझे मुंह पर तेजाब फिंकवा देने की, जान से मार देने की धमकियां दी जाने लगीं। मैं विचलित न हुई तो कम्प्रोमाइज के लिये दबाव डालने लगे। मैं उस दबाव में आ गयी क्योंकि मैं भी कोर्ट कचहरी से तंग थी, क्योंकि कोर्ट की लम्बी लड़ाई का खर्चा मैं नहीं उठा सकती थी। मैंने कम्प्रोमाइज के लिये हामी भर दी। नतीजतन मुझे ये फ्लैट और पैंतालीस लाख रुपया नकद मिला।”
“बस?”
“चौतरफा बांट हुई न! बोले चौथाई हिस्सा इतना ही बनता था।”
“फाइनल सैंटलमेंट कब हुआ?”
“डेढ़ साल पहले।”
“बारटेंडर की जॉब शुरू से करती थीं?”
“नहीं। बेवा होने के बाद की।”
“कोई और जॉब न मिली?”
“मैं इन्टर पास हूं। और क्या जॉब मिलती! ये भी मिल गयी तो गनीमत समझो। फिर ये कोई बुरा काम तो नहीं! हास्पिटेलिटी इन्डस्ट्री में आज कल ऐसी जॉब्स लड़कियां आम करती हैं।”
“साइबर स्विंडलिंग के चक्कर में कैसे फंस गयीं?”
वो खामोश हो गयी। उसने नेत्रों में असहिष्णुता का भाव आया।
“आप की खामोशी अख्तियार करना नाजायज है।”—सुनील उसे समझाता-सा बोला।
“आप की चैनल लगाई है”—रमाकान्त ने तरह दी—“प्रोग्राम तो जारी होना चाहिये न!”
“जो बात आप पुलिस को बता सकती हैं”—सुनील बोला—“वो हमारे सामने भी दोहरा सकती हैं।”
“पुलिस की बात और है।”—वो बोली।
“सिर्फ इस मद में कि उनका दबदबा मजबूत है। दूसरे, ऐसी कम्यूनीकेशन के मामले में पुलिस और मीडिया में कोई खास फर्क नहीं होता। कत्ल के केस में पुलिस अपनी हर जानकारी मीडिया से शेयर करती है। पुलिस का पीआरओ पुलिस हैडक्वार्टर्स के प्रैसरूम में बाकायदा मीडिया को ब्रीफ करता है। लिहाजा ये आप की खामखयाली है कि कत्ल से ताल्लुक रखती कोई बात आप ‘ब्लास्ट’ को नहीं बतायेंगी तो वो ‘ब्लास्ट’ से छुपी रहेगी। फर्क सिर्फ इतना होगा कि पुलिस के पीआरओ से जो बात हमें कल मालूम होगी, वो आप से अभी मालूम हो जायेगी जो कि आपका ‘ब्लास्ट’ पर अहसान होगा। अब कहिये, क्या कहती हैं?”
“तुम ये जानना चाहते हो कि मकतूल से—जिसके, अब पता चला है कि, कई नाम हैं—मैंने धोखा कैसे खाया?”
“हां।”
“तो सुनो।”
सुनील ने मन ही मन चैन की सांस ली।
ठगी की उसने लगभग वही दास्तान सुनायी जो वो कियारा सोबती की जुबानी विस्तार से सुन चुका था, तोरल मेहता से सुन चुका था।
कोई फर्क था तो रकम था।
मकतूल उस को बाइस लाख की थूक लगाने में कामयाब हुआ था।
“इस बाबत आपने कुछ किया?”—सुनील ने पूछा।
“पुलिस के पास गयी।”—वो बोली—“उन्होंने साइबर क्राइम्स सैल में कम्पलेंट दर्ज कराने की राय दी जो कि मैंने कराई। नतीजा कुछ भी न निकला।”
“आई सी।”
“मैं तो अपनी रकम का गम खा चुकी थी, उसका मातम मना चुकी थी कि मुझे पता लगा कि वो...वो...”
“यहां राजनगर में था! होटल स्टारलाइट में मुकाम पाये था!”
“हां।”
“कैसे पता लगा?”
“कियारा सोबती से लगा।”
“अच्छा! तुम उसे जानती हो?”
“बस इतना जानती हूं कि ठगी के मामले में वो भी मेरी तरह भुक्तभोगी थी।”
“वाकफियत कोई नहीं?”
“न।”
“जबकि वो इसी शहर में रहती है।”
“हां।”
“तो फिर जानती कैसे हो उसे?”
“बहुत पहले के उसके एक ट्वीट की वजह से।”
“किस की वजह से?”
“उसने ट्िवटर पर एक पोस्ट डाली थी जिस में उसने अपनी आपबीती बयान की थी कि कैसे वो किसी की ठगी का शिकार हुई थी और उन्नीस लाख रुपये गंवा बैठी थी। उस पोस्ट का मकसद वैसी ठगी से अपने जैसी लड़कियों को खबरदार करना था। संयोग से वो पोस्ट वायरल हो गयी थी और मेरी भी जानकारी में आयी थी। उसकी पोस्ट में ये भी दर्ज था कि किसी को उस सिलसिले में कोई अतिरिक्त जानकारी दरकार हो तो उससे सम्पर्क किया जा सकता था। तब मैंने ट्वीट किया था कि किसी इत्तफाक से भविष्य में कभी उसे उस कॉनमैन की खबर लग जाये तो वो उसकी खबर मुझे भी करे। उसने अपनी पोस्ट में उस शख्स की फोटो भी डाली थी जिसने उसे ठगा था। मैंने उस फोटो से उसे उस शख्स के तौर पर पहचाना था जिसकी ठगी का मैं शिकार हुई थी—कोई फर्क था तो ये था कि उसकी पोस्ट वाली तसवीर में दर्ज शख्स के चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी थी जब कि जिसने मुझे ठगा था‚ उसके चेहरे पर फुल दाढ़ी थी।”
“आई सी।”
“परसों मुझे एसएमएस मिला कि हम दोनों का कामन स्विंडलर होटल स्टारलाइट के रूम नम्बर 506 में मौजूद था।”
“कियारा ने भेजा?”
“और कौन भेजता? एसएमएस पर उस का नाम दर्ज नहीं था लेकिन मैं जानती थी कि भेजने वाला कियारा सोबती के अलावा कोई नहीं हो सकता था।”
“जिस नम्बर से एसएमएस आया था, उस पर काल लगायी होती।”
“लगाई थी। पर वो रिसीव नहीं हुई थीं।”
“वो एसएमएस अभी है तुम्हारे फोन में या इरेज कर दिया?”
“है अभी।”
“दिखाओ मुझे।”
वो उठी और बैडरूम में जाकर अपना फोन लाई। उसने उस पर वांछित एसएमएस निकाला और फोन सुनील को थमाया।
सुनील ने एसएमएस भेजने वाले के नम्बर पर तवज्जो दी।
“ये मोबाइल नम्बर कियारा सोबती का ही है।”—फिर बोला।
“मेरा अपना भी यही अन्दाजा था।”
“तो तुमने उससे सम्पर्क किया?”
“हां।”
“वहीं था वो? होटल स्टारलाइट में?”
“हां।”
“बात की?”
“हां।”
“क्या?”
“यही कि वो मेरा पैसा वापिस कर दे वर्ना मैं उसे गिरफ्तार करा दूंगी।”
“पहले गिरफ्तार कराना था, फिर पैसे की मांग रखनी थी।”
“अब उस घड़ी जो मुझे सूझा, मैंने किया।”
“खैर, फिर? वो क्या बोला?”
“जवाब में गिडगिड़ाने लग गया, फरियाद करने लग गया। बोला, मैं उसे एक मौका दूं तो वो सब कुछ एक्सप्लेन कर देगा, वो भी कर देगा जो मैं चाहती थी कि वो करे लेकिन, मैं एक बार आकर उससे बात करूं।”
“क्या बात करूं?”
“मैंने पूछा था। बोला, मुलाकात पर सब बतायेगा।”
“फिर?”
“मैं पिघल गयी। मैंने मुलाकात के लिये हामी भर दी।”
“उसके होटल में गयीं?”
“हां।”
“कब?”
“परसों दोपहरबाद।”
“दोपहरबाद?”
“दो बजे के करीब।”
“लेकिन दोपहरबाद।”
“हां, तुम सुनो तो सही!”
“सॉरी।”
“मैं होटल स्टारलाइट और आगे रूम नम्बर 506 में पहुंची जो कि उसका प्रवास था। वो बहुत सलीके से मेरे से मिला, बहुत अदब से मेरे साथ पेश आया और फिर बोला कि पिछले एक साल से वो ऐसी कई पेचीदगियों के हवाले था जिनका कोई हल वो न निकाल पाता तो उसकी जान जा सकती थी। अपनी मजबूरी के तहत उसके कॉनमैनशिप में पनाह पायी थी लेकिन अब उसकी दुश्वारियां काफी हद तक दूर हो चुकी थीं, इस हद तक दूर हो चुकी थीं कि बहुत जल्द वो ऐसी स्थिति में आ जाने वाला था कि वो हर किसी का पैसा लौटा सकता था। बोला, कुछ का तो वो लौटा भी चुका था। और अब अगर मैं उसे थोड़ा सा और सहयोग देती तो वो मेरा पैसा भी मुझे लौटा सकता था।”
“कैसा सहयोग?”
“उसने मुझे कार्ड बोर्ड का एक बॉक्स दिखाया जिसमें सोने के बिस्कुट थे।”
“कितने?”
“बीस। सौ सौ ग्राम के। बॉक्स पर यूके की स्टैम्पिंग थी।”
“दो किलो सोना था उसके पास?”
“हां।”
“कीमत साठ लाख रुपये?”
“हां।”
“कहां से आया? क्या बोला? अमेरिका से साथ लाया? मुम्बई आ कर पिक किया?”
“अब तो ये बात खुल चुकी है कि वो यहीं का बाशिन्दा था।”
“अब खुल चुकी हैं। पहले तुम इस हकीकत से बेखबर थीं!”
“वो तो है!”
“तो क्या बोला वो सोने के बारे में?”
“बोला, उस बाबत वो कुछ नहीं कह सकता था। उसने मेरे से दरख्वास्त की कि मैं उस बाबत उससे सवाल न करूं।”
“चाहता क्या था?”
“कहता था कि इतना सोना वो इमीजियेटली डिस्पोज नहीं कर सकता था। कोशिश करता तो गिरफ्तार होता। वो धीरे-धीरे होने वाला काम था और हालात ऐसे थे कि उसके पास वक्त नहीं था। अगले रोज या बड़ी हद और अगले रोज उसने वहां से कूच कर जाना था। वो बोला कि उसे दस लाख रुपये की सख्त जरूरत थी, वो रकम अगर उसे मैं मुहैया करा देती तो वो सोना वो मुझे सौंप सकता था। यूं मेरी पिछली रकम भी वसूल हो जाती। यानी साठ लाख का सोना मुझे बत्तीस लाख में मिल सकता था।”
“नकली होगा?”
“मैंने साफ तो ऐसा न कहा लेकिन इस बाबत हिंट उसे बराबर सरकाया। तब उसने कहीं से एक हैक्सा ब्लेड बरामद किया, कार्ड बोर्ड बॉक्स में से एक बिस्कुट उठाया और ब्लेड की मदद से उसके एक कोने से एक टुकड़ा काट कर उसने मुझे सौंपा और कहा कि मैं इसे कहीं से परखवा लूं, अगर उसे चौकस चौबीस कैरेट पाऊं तो रात को दस लाख रुपये के साथ वहां वापिस आऊं और वो सोना ले जाऊं। मुझे पहले से मालूम था कि जौहरी बाजार में धर्मकांटा कहलाने वाली दुकानें होती थीं जहां सोने के वजन और कैरेट की तसदीक कर के बाकायदा सर्टिफिकेट जारी किया जाता था जो कि सारे सराफे में मान्य होता था। वहां से तसदीक हुई कि सोना खरा था, चौबीस कैरेट था और वो एक टुकड़ा चार प्वायन्ट वन ऐट ग्राम का था।”
“एक ही बिस्कुट खरा होगा”—रमाकान्त इस बार संजीदगी से बोला—“जिसमें से वो टुकड़ा काटा गया था। क्यों, प्यारयो?”
“वंस ए थीफ, आलवेज ए थीफ।”—सुनील धीरे से बोला।
“ये बात”—काव्या के स्वर में खेद का पुट आया—“तब मुझे नहीं सूझी थी।”
“खैर, फिर? तो रात को तुम फिर उसके होटल रूम में गयीं?”
“हां।”
“किस वक्त?”
“दस बजे के करीब। मैं लॉबी में थी तो तब पूरे दस बजे थे।”
“फिर?”
“मैंने देखा कि दरवाजा खुला था, फिर भी अपने आगमन की सूचना देने के लिये कालबैल बजाना तो जरूरी था! मैंने बजायी तो जवाब न मिला। नाम ले कर पुकारा तो भी जवाब न मिला। फिर झिझकते हुए मैंने भीतर कदम रखा। आगे ड्रार्इंगरूम में पहुंची तो वो हौलनाक नजारा मुझे दिखाई दिया। उसकी लाश देख कर मेरा तो दम ही निकल गया। तत्काल मैं वहां से भाग निकली।”
“पीछे दरवाजा बन्द करके?”
“नहीं। जैसा वो मेरे भीतर दाखिल होते वक्त था, वैसा छोड़ के।”
“कैसा था?”
“खुला हुआ। यूं कि पल्ला चौखट के साथ नहीं लगा हुआ था।”
“जब आयीं थी, तब भी ऐसा ही था?”
“हां। मेरे खयाल से दरवाजे के ऑटोमैटिक डोर क्लोजर में कोई नुक्स था, वो बराबर काम नहीं कर रहा था इसलिये दरवाजे और चौखट में झिरी रह जाती थी जिसे कि दरवाजे को धक्का देकर पाटना पड़ता था वर्ना दरवाजा खुला रह जाता था।”
“हो सकता है। तो आप उसे वैसे ही खुला छोड़ कर वहां से कूच कर गयीं?”
“हां।”
“फर्श पर लुढ़का पड़ा बटुवा देखा था...”
“मैंने लाश के सिवाय कुछ नहीं देखा था। मुझे नहीं मालूम वहां और क्या था, क्या नहीं था। लाश ने मेरे होश उड़ा दिये थे। तब वहां से फौरन निकल लेने के सिवाय मुझे कुछ नहीं सूझा था।”
“दस लाख रुपये की रकम नकद साथ ले के गयी थीं?”
“हां।”
“कैसे? ब्रीफकेस में? बैग में?”
“अपने हैण्डबैग में। तमाम नोट दो हजार के थे। पांच गड्डियां ही तो थीं! मेरे हैण्डबैग में आराम से आ गयी थीं।”
“इतना बड़ी रकम कैश में आपके पास थी?”
“नहीं। खास उस काम के लिये बैंक से निकाली थी।”
“अब कहां है?”
‘अगले ही रोज बैंक में वापिस जमा करा दी थी।”
“ड्रार्इंगरूम से आगे गयी थीं?”
“नहीं। मैंने तो लाश देखी थी और उलटे पांव वहां से निकल भागी थी।”
“दिन वाले फेरे में बैडरूम में गयी थीं?”
“हां, तब गयी थी। गोल्ड बिस्कुट्स वाला कार्ड बोर्ड का बॉक्स उसने मुझे बैडरूम में ही दिखाया था।”
“तब राइटिंग टेबल पर एक पिक्चर फ्रेम पड़ा देखा था?”
“इत्तफाक से नजर पड़ी थी। मुझे बड़ी हैरानी हुई थी कि उस में... उसमें...”
“आप की तसवीर थी!”
“हां। मैंने उस बाबत उससे सवाल किया था तो वो रोमांटिक होने की कोशिश करने लगा था। मैंने सख्ती से उसे कहा था कि वो ऐसे डिस्प्ले पर मेरी तसवीर न लगाये, बल्कि मुझे लौटाये। उसने लौटाई तो नहीं थी पर फ्रेम को मेज पर से उठा कर दराज के भीतर रख दिया था।”
“आप को कोई अन्दाजा है कि कत्ल किसने किया था?”
“नहीं, मुझे कोई अन्दाजा नहीं।”
“खुद अपने बारे में क्या खयाल है?”
“मैंने कत्ल नहीं किया। ऐसा सोचना भी मेरे साथ ज्यादती है।”
“पुलिस ने कत्ल के वक्त का जो पैरामीटर मुकरर्र किया है, आप की विजिट उसमें आती है।”
“आती होगी। जब मैं कहती हूं कि मैंने कत्ल नहीं किया तो नहीं किया। मेरा इरादा कत्ल का होता तो मैं दस लाख रुपया साथ लेकर न गयी होती।”
“आप ही तो कहती हैं आप दस लाख रुपया साथ ले कर गयी थीं!”
“बैंक भी कहता है। बैंक भी कहता है कि परसों दोपहरबाद मैंने बैंक से दस लाख रुपये निकलवाये थे। मिस्टर, वो रकम मैंने ब्यूटी पार्लर में खर्चा करने के लिये नहीं निकलवाई थी।”
“कत्ल की खबर लगने के बाद आपने वहां किसी चीज को छुआ था?”
“नहीं। जब तब के बाद मैं वहां टिकी ही नहीं थी तो किसी चीज को छूने का क्या मतलब?”
“फिर भी ...”
“क्या फिर भी? मेरी ऐसी कोई मंशा होती तो मैंने सोने के बिस्कुटों वाला बॉक्स ही कब्जाया होता। मैंने ऐसा किया होता तो किसी को सात जन्म खबर न लगती।”
“मंगला नाम की किसी लड़की को जानती हैं?”
“नहीं।”
“मकतूल से उसकी जुबानी उसका जिक्र सुना हो।”
“मकतूल क्या?”
“जिसका कत्ल हुआ। हत्प्राण।”
“ओह! नहीं मेरे सामने उसने किसी मंगला का नाम नहीं लिया था।”
“ड्रिंक करती हैं?”
“भई, मैं बारटेंडर हूं। कोई दरिया में उतरे और भीगे नहीं, ऐसा कहीं होता है!”
“विस्की?”
“शौक से। आई एम वैरी फौंड आफ सिंगल माल्ट विस्कीज़।”
“सोहनयो”—रमाकान्त बोला—“फिर तो खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने तीन!”
“आप लोगों के दस मिनट नहीं हुए अभी? मैंने बोला था कि ठीक चार बजे मैंने ड्यूटी पर पहुंचना है।”
“बस दो मिनट और।”—सुनील जल्दी से बोला—“आप साबित कर सकती हैं कि परसों अपने दूसरे फेरे में आप रात दस बजे होटल पहुंची थीं।”
“नहीं साबित कर सकती। मुझे मालूम होता कि आगे कत्ल हुआ देखने को मिलने वाला था तो साथ कोई गवाह ले के जाती।”
“मकतूल बैडरूम में डिसप्ले पर आप की तसवीर लगाये था। आपने कहा था कि उस बाबत उसने रोमांटिक होने की कोशिश की थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि रोमांटिक होना और जोर जबरदस्ती करना उसे एक ही कारोबार लगता हो!”
“क्या मतलब?”
“दूसरे फेरे में उसने आप से जोर जबरदस्ती करने की कोशिश की हो, बाज न आया हो तो उसके दिल में उतरने की जगह आपने चाकू उस के दिल में उतार दिया हो?”
“मेरे पास चाकू कहां से आया?”
“वो वहीं कहीं लुढ़का पड़ा हो और आपने आत्मरक्षा के इरादे से उस को उठा लिया हो और बाखूबी इस्तेमाल किया हो!”
“नहीं।”—वो बड़े सब्र से, बड़ी दृढ़ता से बोली—“वहां एक ही चाकू था और वो...क्या बोले थे तुम?...हां, मकबूल की...”
“मकतूल की।”
“मकबू...मकतूल की छाती में पैबस्त था।”
“एक्स्ट्रा हाई हील पहनती हैं?”
“स्टिलेटो।”—रमाकान्त बोला।
“नहीं। एक्स्ट्रा क्या, हाई हील ही नहीं पहनती। पांच फुट सात इंच कद है मेरा। लम्बी लगने के लिये मुझे हील की जरूरत नहीं।”
“कभी कभार के लिये भी हाई हील नहीं रखतीं?”
“न।”
“आप के बायें हाथ की रिंग फिंगर में रिंग पहने होने की चुगली करता स्किन कलर से लाइटर कलर का गोल निशान तो है लेकिन रिंग नहीं है। ऐसा क्यों?”
“रिंग गिर गयी कहीं।”
“आप को पता न लगा?”
“हां।”
“कैसी थी?”
“मामूली थी। कोई खास कीमती नहीं थी। वैसे जड़ाऊ थी लेकिन उस में जो नग लगा था, वो नकली था। ग्लास था। मैं आजकल डायटिंग कर रही हूं इसलिये थोड़ी लूज हो गयी थी? इसलिये पता ही नहीं लगा था कब गिर गयी थी।”
सुनील ने अपने मोबाइल की ‘फोटोज़’ में रिंग की फोटो को एनलार्ज किया और स्क्रीन युवती के सामने की।
“कहीं ये तो नहीं आप की अंगूठी?”—वो बोला।
युवती ने पहले लापरवाही से, फिर गौर से तसवीर को देखा।
“लगती तो है!”—फिर बोली—“मेरे खयाल से है ही। कहां मिली?”
“नहीं मिली।”
“तो तसवीर कैसे खींच ली?”
“कहीं पड़ी देखी थी। उठाना पुलिस के कारोबार में दखलअन्दाजी होता।”
“कहां पड़ी देखी थी।”
“मौकायवरदात पर। लाश के पहलू में।”
“लाश के पहलू पर बड़ा जोर है तुम्हारा। जैसे इतने से ही साबित हो सकता हो कि अंगूठी कत्ल के वक्त गिरी। मैंने पहले ही बोला वो मेरे को लूज़ हो गयी थी। जरूर वो मेरे पहले फेरे में मेरी उंगली से सरक गयी थी और वहां गिर गयी थी जहां बाद में किसी वक्त लाश भी गिरी।”
“अगर अंगूठी आपकी है तो ये मौकायवारदात पर आपकी हाजिरी लगाती है।”
“लेकिन कत्ल के वक्त गिरी, इस बात की हाजिरी नहीं लगाती। अंगूठी से कुछ साबित नहीं होता। इस से तो ये ही साबित नहीं होता कि ये मेरी है।”
“आप इसकी ओनरशिप से मुकर रही हैं?”
“समझ लो मुकर रही हूं। इस पर मेरा नाम लिखा है? कैसे साबित करोगे ये मेरी है?”
“आपने खुद कुबूल किया...”
“मैंने कुछ कुबूल नहीं किया।”
“...एक गवाह के सामने कबूल किया...”
“भाड़ में गया तुम्हारा गवाह!”—वो भड़क कर बोली—“अब तुम भी वहीं जाओ।”
“मेरे से गर्मी बर्दाश्त नहीं होती इसलिये तुम्हारी सलाह पर अमल नहीं कर सकता। ब्राइटआइज, तुम्हारी जड़ाऊ अंगूठी गायब है, उंगली पर बना सफेद गोल निशान इस बात की चुगली कर रहा है।”
“कोई चुगली नहीं कर रहा। अगली बार मिलोगे—जिसकी गुंजाइश कम है—तो इस उंगली में अंगूठी मौजूद पाओगे। फार गॉड सेक, अब बस करो? मुझे देर हो रही है।”
“आखिरी सवाल। पाजिटिवली लास्ट क्वेश्चन।”
“शूट।”
“कपूर आपका बाई मैरिज नाम है?”
“हां।”
“मेडन नाम क्या है?”
“अबरोल।”
“एक अबरोल”—तुषार अबरोल—होटल स्टारलाइट में असिस्टेंट मैनेजर हैं। आपका उन से कोई रिश्ता...”
“मेरे कजन हैं। पिता के बड़े भाई के बेटे।”
“आप की उनसे मेल मुलाकात...”
“देखो।”—वो उठ खड़ी हुई—“मैं बैडरूम में ड्रैस चेंज करने जा रही हूं। मेरे वहां से निकलने पर तब भी तुम दोनों मुझे यहां दिखाई दिये तो मैं फ्लैट खुला छोड़ के यहां से चली जाऊंगी। फिर जब तक जी चाहे यहां डेरा जमाना।”
“तम्बू पहले ही उखाड़ जाओगे, सोहनयो, तो डेरा कैसे जमेगा?”—रमाकान्त बोला।
“आप खातिर जमा रखिये। आपको ऐसा कुछ नहीं करना पड़ेगा”—सुनील उठ खड़ा हुआ, उसकी देखा देखी रमाकान्त भी उठा—“हम जा रहे हैं।”
“थैंक्यू! सो नाइस आफ यू।”
“एक आखिरी सवाल।”
“अभी भी आखिरी! पूछ नहीं चुके आखिरी सवाल?”
“सोने का वो टुकड़ा कहां है जो मकतूल ने एक बिस्कुट पर से काट कर आपको सौंपा था?”
“वो वो इन्स्पेक्टर ले गया जो तुम लोगों से पहले यहां पूछताछ के लिये आया था। जो”—उसने घूर कर सुनील को देखा—“तुम कहते हो तुम्हारा फ्रेंड है।”
“आपने तमाम कहानी उस इन्स्पेक्टर को भी सुनाई?”
“हां।”
“वही जो हमें भी सुनाई?”
“हां। आई हैव नथिंग टु हाइड। कोई और भी पूछेगा तो उसे यही सब सुनने को मिलेगा।”
“आई सी।”
“एक सवाल मेरा भी है, मालको।”—रमाकान्त जल्दी से बोला।
“आखिरी?”—वो बोली।
“पहला भी। आप को पता है मैंने कोई सवाल नहीं पूछा।”
“पूछो।”
रमाकान्त ने उसके बालों की तरफ उंगली उठाई।
“ये विग है?”—वो बोला।
“नहीं।”—वो बड़े सब्र से बोली।
“विग है।”
“नहीं, भई।”
“मेरे खयाल से तो विग है!”
“तुम्हारा खयाल गलत है।”
“विग है, मोतियांवालयो।”
“अच्छा, भई, विग है।”
“कमाल है? लगता तो नहीं!”
युवती ने आंखें तरेरीं।
रमाकान्त धूर्त भाव से हँसा और फिर बाहर जाने को तत्पर सुनील के साथ हो लिया।
वे मुगलबाग में ही स्थित पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचे।
“क्या इरादा है?”—रमाकान्त बोला।
“प्रभूदयाल से मिलने का इरादा है। चलो।”
“मैं भी चलूं?”
“क्या हर्ज है?”
“मुझे तुम्हारे साथ देखकर भड़क तो नहीं जायेगा?”
“क्यों भड़क जायेगा, भई? तुम्हारी क्लब में तुम्हारे साथ बैठ कर चियर्स बोलता है...”
“तभी जब कोई ऐसा केस हल हुआ होता है जिस में हमारी भी शिरकत होती है।”
“...आल दि सेम, क्यों भड़क जायेगा?”
“हाकिम के मिजाज का क्या पता लगता है?”
“भड़क जायेगा भी तो क्या होगा? बात करने से मना कर देगा न! चले आयेंगे।”
“हां, यार। पीर पुत्तर नर्इं देगा ते सुत्थन ते नर्इं ला लैगा।”
“इसका क्या मतलब हुआ?”
“हुआ कुछ।”
रमाकान्त ने कार पार्क की।
दोनों पहली मंजिल पर पहुंचे।
प्रभूदयाल अपने आफिस में मौजूद था।
“नमस्ते, माई बाप।”—सुनील बोला।
“पैरी पौना, मालको।”—रमाकान्त बोला।
प्रभूदयाल के चेहरे पर उलझन के भाव आये।
“चरण वन्दना।”—तत्काल सुनील बोला—“चरण वन्दना बोल रहे हैं, मल्होत्रा साहब।”
“ओह!”—प्रभूदयाल बोला—“आइये। बिराजिये।”
दोनों उसके सामने विजिटर्स चेयर पर बैठे।
“कैसे आये?”—प्रभूदयाल सुनील से सम्बोधित हुआ।
“गिला करने आया।”—सुनील बोला।
“कैसा गिला?”
“आपने तो सच में ही वो माल अलग बान्ध के रख दिया जो कि बढ़िया था!”
“क्या मतलब?”
“मकतूल के पास दो किलो सोने का कोई जिक्र न किया!”
“पीआरओ ने नहीं किया था?”
“बिल्कुल नहीं।”
“भूल गया होगा। लेकिन”—उसने सुनील को घूर के देखा—“अगर पीआरओ ने नहीं बताया तो तुम्हें सोने की कैसे खबर लगी?”
“वो... लग गयी किसी तरह से।”
“मुझे सूझ रहा है कैसे लग गयी! काव्या कपूर के पास भी पहुंच गये!”
सुनील निर्दोष भाव से मुस्कराया!
“फिर भी कहते हो कि मकतूल के कमरे में नहीं घुसे थे।”
“वो खता मैं बख्शवा तो चुका हूं!”
“नहीं बख्शवा चुके। दो टूक कभी नहीं माना तुमने कि तुम मकतूल के कमरे में घुसे थे।”
“माई बाप, अब दोस्त का तो लिहाज करो! इनके सामने तो मेरी मिट्टी न छीलो!”
असहाय भाव से गर्दन हिलाता प्रभूदयाल खामोश हुआ।
कुछ क्षण खामोशी रही।
“तो”—आखिर सुनील ने खामोशी भंग की—“मकतूल अपने साथ दो किलो सोने की खेप लिये फिर रहा था!”
“हां।”—प्रभूदयाल कठिन स्वर में बोला—“लेकिन सोना नकली था। सिर्फ एक बिस्कुट असली था जिस में से एक छोटा सा टुकड़ा काट लिया गया हुआ था।”
“एक बिस्कुट भी तीन लाख का होता है।”
“तो क्या! उसे पता थोड़े ही था कि मर जाने वाला था!”
“लड़की क्या कहती है इस बारे में?”
“कौन लड़की?”
“काव्या कपूर।”
“जैसे तुम्हें मालूम नहीं!”—प्रभूदयाल के स्वर में व्यंग्य का पुट आया—“तुम मिल चुके हो उससे। इसीलिये तुम्हें दो किलो सोने की खबर है।”
“वो कातिल हो सकती है?”
“अगर सच कहती है कि रात दस बजे उस के कमरे में गयी थी तो नहीं हो सकती।”
“कहती ही तो है! क्या पता कब गयी थी?”
“अभी तफ्तीश जारी है। अभी उससे सरसरी तौर पर पूछताछ हुई है‚ यहां बुला कर सख्ती से पूछताछ करेंगे तो शायद कोई और राग अलापे।”
“ठीक। कातिल के बारे में आपने कोई राय कायम की?”
“अभी नहीं।”
“आप कहते हैं फूलदान पर जनाना उंगलियों के निशान थे। अभी तक तीन देवियां आप की जानकारी में आ चुकी हैं...”
“चार। चौथी का नाम देवीना महाजन है। तुम्हें मालूम ही होगा?”
सुनील परे देखने लगा।
“उससे मिल चुके हो या अभी जाओगे मिलने?”
“मैं किसी देवीना महाजन को नहीं जानता।”
“मकतूल के मोबाइल की ‘फेवरिट्स’ की लिस्ट में उसका भी नाम था।”
“देवीना!”
“पूरा नाम देवीना महाजन। पता बी-12, ज्योति कालोनी, धोबी नाका क्रीक के पास। टैली कर लो। तुम्हें भी उसका यही पता मालूम है न!”
“आप तो, बन्दानवाज, मेरी खुश्की उड़ा रहे हैं?”
“पुलिस से ऐसी खिलवाड़ अच्छी नहीं होती, रिपोर्टर साहब।”
“मैंने कभी पुलिस की मुखालफत नहीं की।”
“नहीं की तो बोलो काव्या का पता कैसे जाना? देवीना का पता कैसे जाना?”
“मोबाइल नम्बर मालूम था...”
“कैसे मालूम था? क्योंकि मकतूल के मोबाइल में दर्ज देखा था। मकतूल का मोबाइल कैसे देखा था? क्योंकि उसके कमरे में घुसे थे।”
“जब घुसा था तब क्या मुझे मालूम था कि वो भीतर मरा पड़ा था?”
“कुबूल। तुम यूं ही उत्सुकतावश कमरे के भीतर कदम डाल बैठे, कुबूल। तुम्हें नहीं मालूम था वो भीतर मरा पड़ा था, ये भी कुबूल। ये भी कुबूल कि अपनी स्थापित आदत के खिलाफ तुमने भीतर किसी चीज़ को नहीं छुआ था। ओके?”
“क्या कहना चाहते हैं, जनाब?”
“ये तो जानते हो न कि अगर कत्ल से वास्ता पड़े तो उसकी खबर पुलिस को करना हर नेक शहरी का फर्ज होता है? जब तुमने उस होटल रूम में उसके आकूपेंट की लाश देखी तो की पुलिस को खबर?”
“की।”
“क्याबोला?”
“की खबर! खाली नाम न बताया।”
“अच्छा! तो अब ये दावा करना चाहते हो कि कत्ल की बाबत जो गुमनाम काल पुलिस को आयी थी, वो तुमने की थी!”
“मैंने ही की थी!”
“तो फिर तुम मेरे से क्यों पूछ रहे थे कि पुलिस को कत्ल की बाबत गुमनाम काल किस ने की थी?”
“ताकि काल की गुमनामी बनी रहती।”
“तुम नहीं सुधरोगे।”
“अब छोड़िये न वो किस्सा! आप ये बताइये कि कातिल की बाबत आपने कोई राय कायम की है?”
“पहले मेरे सवाल का जवाब दो जो बीच में रह गया।”
“कौन सा सवाल?”
“लड़कियों के नाम तो तुमने मकतूल के मोबाइल से जाने, पते कैसे जाने?”
“सर्विस प्रोवाइडर कम्पनी का एक बड़ा एग्जीक्यूटिव यूथ क्लब का मेम्बर है। रमाकान्त ने उससे मनुहार करके पते निकलवाये।”
प्रभूदयाल ने रमाकान्त की ओर देखा।
रमाकान्त ने मजबूती से सहमति में सिर हिलाया।
“हूं।”—प्रभूदयाल ने गम्भीर हूंकार भरी, और कुछ न बोला।
“अब बताइये”—सुनील बोला—“कातिल की बाबत आपने कोई राय कायम की है?”
“अभी नहीं।”—प्रभूदयाल बोला।
“कोई सस्पैक्ट तो होगा निगाह में?”
“परसों रात जिस के भी मकतूल के कमरे में कदम पड़े थे, वो सस्पैक्ट हैं। तुम भी।”
“मेरे पास कत्ल का कोई उद्देश्य नहीं।”
“है।”
“है?”
“खुद कहते हो कि यू कैटनाट सी ए डैससेल इन डिसट्रेस। हर मुसीबतजदा हसीना के सगे वाले हो और उसके लिये कुछ भी कर सकते हो।”
“कत्ल भी?”
“कत्ल भी।”
“ऐसा होता तो अब तक मैं सौ कत्ल कर चुका होता।”
प्रभूदयाल चुप रहा।
“तो वो तीन लड़किया मर्डर सस्पैक्ट हैं?”
“चार।”
“चार?”
“चौथी देवीना महाजन जिस से हमारी अभी मुलाकात नहीं हुई।”
“वजह?”
“अभी उपलब्ध नहीं। ज्योति कालोनी का उस का जो पता हमारे पास है, वो उस पर नहीं है। हमने ऐसा इन्तजाम किया है कि उसके वहां लौटते ही हमें खबर लगे।”
“आई सी। बाकी तीन के फिंगरप्रिंट्स चैक किये कि वो फूलदान पर थे या नहीं?”
“फूलदान मर्डर वैपन नहीं था। उस पर उन में से किसी लड़की के फिंगरप्रिंट्स होना ये साबित नहीं करता कि वो कातिल है। उससे महज ये साबित होता है कि जब वो वहां थी तो उसने फूलदान को हैंडल किया था, नीचे गिरे पड़े फूलदान को उठा कर वापिस टेबल पर रखा था। फिर भी दो के—कियारा सोबती के और काव्या कपूर के—फिंगरप्रिंट्स हमने फूलदान पर से उठाये गये जनाना फिंगरप्रिंट्स से चैक करवाये थे और वो मिलते नहीं पाये गये थे।”
“तीसरी के—तोरल मेहता के—क्यों नहीं लिये?”
“फिंगरप्रिंट्स देने को तैयार नहीं।”
“वजह?”
“कानून छांटती है। कहती है चार्ज लगाकर गिरफ्तार किये बिना हम उसे फिंगरप्रिंट्स देने पर मजबूर नहीं कर सकते। किसी खास उस्ताद ने उसे ये पट्टी पढ़ाई जान पड़ती है।”
“कमाल है!”
“पता लगा है कि पड़ोस में रहते एक वयोवृद्ध कलाकार से उसके बड़े घनिष्ट सम्बन्ध हैं। हमें शक है कि इस मामले में वो ही उसका सलाहकार है। अभी हम उस लड़की को थोड़ी ढ़ील दे रहे हैं लेकिन जल्दी ही हम उसे भी देख लेंगे और उसके सलाहकार को भी देख लेंगे।”
“मुझे हैरानी है कि उस लड़की ने ये रवैया अख्तियार किया। आप कहें तो मैं उससे बात करूं?”
“कोई जरूरत नहीं। अभी राजनगर पुलिस इतनी मोहताज नहीं हुई कि तफ्तीश में किसी प्रैस रिपोर्टर का आसरा तलाशे।”
“श्योर, सर। ये भी कोई कहने की बात है!”
प्रभूदयाल खामोश रहा।
“मकतूल के”—सुनील ने विषय परिवर्तित किया—“तीन कारनामे तो कत्ल के बाद से उजागर हो भी चुके हैं, और भी होंगे जिन की भनक पुलिस को या मीडिया को अभी नहीं लगी। जिन लोकल तीन लड़कियों के नाम सामने आये हैं, पचपन लाख के करीब तो वो उन्हीं से ठग चुका था। लाखों रुपया उसने खर्च तो कर नहीं डाला होगा जब कि उसका अपना सोर्स आफ इंकम भी था। पुलिस ने उस रकम की टोह लेने की कोशिश नहीं की?”
“अभी नहीं।”—प्रभूदयाल बोला—“लेकिन ये काम हमारे एजेंडा में है। कातिल की खबर लग जाये, उसके बाद हम उस काम की तरफ तवज्जो देंगे।”
“अगर ऐसा रुपया पकड़ा जाता है तो क्या वो उनको लौटाया जायेगा जिन से कि वो ठगा गया था?”
“ऐसे रुपये की खबर लगते ही ठगी के शिकार उस पर अपना दावा ठोकने लगें, ये मुमकिन नहीं होगा। ऐसी किसी रकम को हम तभी अपने कब्जे में ले पायेंगे जबकि मकतूल के घर वाले—उसकी बेवा—उसके बारे में कोई माकूल जवाब नहीं दे पायेंगे कि वो कहां से आयी, क्या मकतूल ने उस पर टैक्स भरा था वगैरह। कोई तसल्लीबख्श जवाब सामने न आने पर भी उस रकम को पुलिस नहीं, इंकम टैक्स डिपार्टमेंट सीज करेगा। ये एक लम्बी प्रक्रिया साबित होगी जिसमें ये स्थापित करना भी जरूरी होगा कि वाकई वो धोखाधड़ी की, स्विंडलिंग की कमाई थी। ये सब कुछ हो चुकने के बाद रकम पर कॉनमैनशिप की शिकार लड़कियों के दावे पर विचार किया जायेगा।”
“आई सी। मंगला के बारे में कुछ बताइये।”
“क्या?”
“कोई मंगला नजर में आयी?”
“नहीं।”
“जब मकतूल ने मरते वक्त नाम लिया तो होगी तो जरूर कोई!”
“होगी तो नजर में भी आ जायेगी।”
“ठीक। ओके, सर। इजाजत दीजिये।”
प्रभूदयाल ने सहमति में सिर हिलाया।
वे कूपर रोड पहुंचे।
शाम की उस घड़ी होटल स्टारलाइट की लॉबी में काफी रौनक थी, काफी हलचल थी।
रिसैप्शन पर उन्होंने असिस्टेंट मैनेजर तुषार अबरोल की बाबत दरयाफ्त किया। रिसैप्शनिस्ट ने उन्हें एक बैल ब्वाय के हवाले कर दिया जो उन्हें पहली मंजिल पर स्थित एक कमरे में छोड़ गया जिस में काले सूट में सजा धजा एक चालीसेक साल का व्यक्ति मौजूद था।
“तुषार अबरोल?”—सुनील बोला।
“हां।”—वो बोला, उसने सन्दिग्ध भाव से बारी बारी दोनों को देखा।
“मेरा नाम सुनील है, सुनील चक्रवर्ती। मैं ‘ब्लास्ट’ में चीफ रिपोर्टर हूं। ये मेरे...”
“मिस्टर मल्होत्रा! यूथ क्लब!”
दोनों सकपकाये।
“कैसे जानते हो, मालको?”—रमाकान्त बोला।
“मैं एक अरसे से हास्पिटेलिटी बिजनेस में हूं। आप भी मिलते जुलते बिजनेस में हैं इसलिये ऐसी बातें जानकारी में आ ही जाती हैं।”
“ओह! मैं समझा हम कभी मिले हैं।”
“नहीं, मिले तो कभी नहीं! अलबत्ता मैं आप के नेम और फेम से वाकिफ हूं क्योंकि एक दो बार यूथ क्लब में जाने का इत्तफाक हुआ था।”
“ठीक।”
वो सुनील की तरफ घूमा।
“क्या चाहते हैं?”—फिर बोला।
“दो मिनट आप से बात करना चाहते हैं।”
“किस सिलसिले में?”
“बोलेंगे न!”
“बैठिये।”
“थैंक्यू।”
दोनों अगल बगल उसके सामने बैठे।
“तो”—सुनील बोला—“आप यहां असिस्टेंट मैनेजर हैं!”
“हां।”—जवाब मिला।
“किस डिपार्टमेंट में?”
“फूड एण्ड बेवरेजिज़।”
“सुना है होटल में ही रहते हैं।”
“ठीक सुना है।”
“ऐसा क्यों? सिंगल लिविंग है, इसलिये?”
“यहां सिंगल लिविंग है। वैसे शादीशुदा हूं। दो बच्चे हैं। फैमिली हिमाचल में देहात में है। यहां अकेला हूं। होटल से हैवी सबसिडी हासिल है, इसलिये होटल के ही एक कमरे में रहता हूं।”
“505 में?”
“हां। कैसे मालूम?”
“आप के नैक्स्ट डोर कत्ल हुआ। उसके बारे में क्या कहते हैं?”
“बुरा हुआ। ऐसी इन-हाउस वारदातों से होटल की रिप्यूट खराब होती हे। ये होटल तो वैसे भी बिजनेस के मामले में अभी टीथिंग ट्रबल से गुजर रहा है, अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा होने की कोशिश कर रहा है।”
“रिसैप्शन वाले कहते थे कि पांचवी मंजिल पर एक ही गैस्ट था, बाकी सारा फ्लोर खाली था। जब आप भी पांचवी मंजिल पर स्थायी रूप से बसे हुए हैं तो ये बात तो सच न हुई!”
“ऐसा मेरे नोटिस में भी आया था लेकिन वो कोई कहने सुनने में चूक की, फर्क की बात है। मैं होटल का एम्पलाई हूं, गैस्ट तो न हुआ न! इस लिहाज से ठीक कहा गया था कि पांचवी मंजिल पर एक ही गैस्ट था। अलबत्ता ये कहा गया होता कि पांचवीं मंजिल पर एक ही रूम आकूपाइड था तो वो बात गलत होती।”
“कत्ल के बारे में आप का क्या खयाल है?”
“मैं क्या खयाल जाहिर करूं? सिवाय इस के क्या कहूं कि जो हुआ बुरा हुआ?”
“रूम 506 अभी भी पुलिस के कब्जे में है?”
“हां।”
“परसों रात जब सोये तो इस खयाल ने न सताया कि ऐन आप के बगल के कमरे में काफी अरसा एक लाश पड़ी रही थी।”
“बहुत सताया, यार, सारी रात बुरे बुरे सपने आते रहे।”
“पुलिस ने आप...”
“एक मिनट। एक मिनट। पहले मेरी एक बात का जवाब दो।”
“पूछिये।”
“इस पूछताछ का प्रयोजन क्या है? वाट्स दि ऑब्जेक्ट आफ दिस इंक्वायरी?”
“देर में पूछना सूझा!”
“शुरू में ही सूझा था लेकिन तुमने तो मशीनगन की तरह सवाल दागने शुरू कर दिये।”
सुनील हँसा, तत्काल संजीदा हुआ।
“मैं”—वो बोला—“इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट हूं। इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट का काम पुलिस के काम से मिलता जुलता ही होता है। सवाल पूछे बिना उन की भी गुजर नहीं, मेरी भी गुजर नहीं। पुलिस की जिम्मेदारी केस को हल करने की है, मेरी जिम्मेदारी बाजरिया ‘ब्लास्ट’ रीडिंग पब्लिक को केस की प्रॉग्रेस की खबर देने की है।”
“आई सी। अब पूछो, क्या पूछने जा रहे थे!”
“पुलिस ने आप का बयान लिया?”
“अभी तो नहीं लिया! लेंगे तुम्हारे खयाल से?”
“ले सकते हैं। आप मौकायवारदात के इतने करीब थे, ले सकते हैं। आपने कुछ देखा हो सकता है, कुछ सुना हो सकता है...”
“न। ऐसा कुछ नहीं था।”
“कत्ल के वक्त के आसपास आप कहां थे?”
“यहां था या डायनिंग हाल में था।”
“बीच में किसी घड़ी अपने कमरे में गये थे?”
“हां। पांच मिनट को गया था। मैं किचन में चिकन सूप टेस्ट कर रहा था कि मेरी नेकटाई सूप के बाउल में जा पड़ी थी। टाई तब्दील करने की खातिर मैं अपने कमरे में गया था।”
“जाना और आना ही हुआ होगा?”
“हां।”
“तब आपने पांचवीं मंजिल के गलिहारे में किसी को देखा था?”
“नहीं।”
“ ‘506’ में किसी को दाखिल होते या वहां से निकलते देखा था?”
“नहीं।”
“बगल के कमरे से कोई आवाज सुनी हो?”
“नहीं। रात का वो वक्त मेरा बड़ा बिजी पीरियड होता है। टाई बदल के फौरन डायनिंग हाल में पहुंचने के अलावा मेरी किसी बात की तरफ तवज्जो नहीं थी।”
“आपके रूम और ‘506’ के बीच में एक कम्यूनीकेटिंग डोर है...”
“हां, पर वो हमेशा बन्द रहता है।”
“ऐसा इन्तजाम उन दो कमरों में ही है?
“नहीं। और भी कुछ कमरों में है। दरअसल वो इन्तजाम बड़ी पार्टीज़ के लिये है जो चैक-इन करती हैं तो दो एडजायनिंग रूम्स, अगल बगल के कमरे, मांगती हैं। जब ऐसा होता है तो उन की सहूलियत के लिये बीच का दरवाजा खोल दिया जाता है।”
“चाबी से?”
“क्या? ओह, हां। हां। चाबी से। वैसे दरवाजों में कार्ड-की वाला लॉक नहीं है, ताकि दो अनजानी पार्टी अगल बगल ठहरी हों तो वो दरवाजा न खोला जा सके।”
“वो चाबी कहां होती है?”
“रिसैप्शन पर।”
“आम इस्तेमाल होती है?”
“अभी कहां! अभी तो होटल मुश्किल से फोर्टी पर्सेंट आकूपेंसी के दौर से गुजर रहा है।”
“आपने कभी वो दरवाजा खोला?”
“नहीं, भई। मैं भला क्यों खोलूंगा? किस जरूरत के तहत खोलूंगा?”
“आप की जानकारी के बिना कोई उस दरवाजे को खोल सकता है?”
“भई, मेरी पीठ पीछे सर्विस स्टाफ मेरे कमरे में तो दाखिल होता है लेकिन वो दरवाजा नहीं खोल सकता क्योंकि रिसैप्शन से चाबी उसे हासिल नहीं हो सकती। मैंने पहले ही कहा कि जब कोई लार्ज फैमिली दो एडजायनिंग रूम्स लेती है, तभी वो चाबी काम में आती है, वो दरवाजा खुलता है। इस के अलावा वो दरवाजा खुलने की, खोले जाने की‚ कोई वजह नहीं।”
“अगर मैं कहूं कि परसों रात नौ बजे के आसपास किसी वक्त वो दरवाजा खोला गया था तो आप क्या कहेंगे?”
“तो मैं कहूंगा तुम गलतबयानी कर रहे हो। ऐसा हुआ होना मुमकिन नहीं।”
“एक गवाह उपलब्ध है जिस ने अपनी आंखों से वो दरवाजा बाल बाल सरक कर खुलता देखा था।”
“ऐसा नहीं हो सकता। कहां था वो गवाह?”
“दूसरे कमरे में। 506 में।”
“उसका आकूपेंट? मकतूल?”
“नहीं, कोई और।”
“बीच का दरवाजा बाल बाल खुलता जिसने देखा, रूम के आकूपेंट ने न देखा!”
“आकूपेंट उस वक्त रूम में नहीं था।”
“आकूपेंट रूम में नहीं था तो उस के पीछे दूसरा शख्स वहां क्या कर रहा था?”
“आकूपेंट कहीं चला गया था और वो दूूसरा शख्स—जो कि एक लड़की थी—उसके लौटने का वहां इन्तजार कर रही था। इन्तजार के वक्फे दौरान उसने बीच का दरवाजा बाल बाल सरक कर खुलते देखा था। उससे लड़की खौफजदा हो उठी थी और उसने वहां से कूच कर जाने का फैसला कर लिया था। उस कोशिश में उसका पांव कहीं उलझा था तो वो लड़खड़ा गयी थी, गिरने से बाल बाल बची थी और उसके हाथ से उसका हैण्डबैग निकल गया था जिस के मेज से टकराकर नीचे गिरने की जोर की आवाज हुई थी। वो आवाज होते ही दरवाजा सरकना बन्द हो गया था और वापिस, यथापूर्व चौखट से जा लगा था। अब कहिये, क्या कहते हैं?”
“मैं क्या कहूं! मैं तो, जहां तक मुझे याद पड़ता है, उस वक्त यहां अपने आफिस में था।”
“आई सी।”
“लेकिन इतना फिर भी कहता हूं कि जो तुम कह रहे हो, वो नहीं हो सकता। कोई बाहरी आदमी किसी तिगड़म से—मेरे से दरवाजा खुला रह गया हो। उसने डुप्लीकेट की-कार्ड मुहैया कर लिया हो—मेरे कमरे में दाखिल हो सकता था लेकिन रिसैप्शन से बीच के दरवाजे की चाबी नहीं हासिल कर सकता था।”
“वो चाबी भी डुप्लीकेट हो?”
“ऐसी डुप्लीकेशन के लिये ओरीजिनल पास होना जरूरी होता है जो उसे नहीं हासिल हो सकती।”
“बाहरी आदमी को?”
“हां।”
“भीतरी आदमी की बाबत क्या कहते हैं?”
“हाउसकीपिंग स्टाफ के पास मास्टर की-कार्ड होता है लेकिन नीचे के दरवाजे की ओल्ड-फैशंड चाबी रिसैप्शन से उसे नहीं हासिल हो सकती।”
“किसी ने तो उस डोर को अनलॉक किया और दरवाजा खोलने की कोशिश की!”
“कैसे होगा? जरूर तुम्हारी गवाह को कोई मुगालता लगा। दरवाजा बाल बाल सरकता दिखाई देना कोई हँसी खेल नहीं।”
“माई डियर सर, जो काम हो चुका है, उसके बारे में कहना कि नहीं हो सकता, जायज नहीं है। आप बरायमेहरबानी ये मान के चलिये कि गवाह जो कहती है उसने देखा, यकीनन देखा तो बताइये वो दरवाजा आपके कमरे की तरफ से कौन खोलता हो सकता था?”
“मैं क्या बताऊं?”
“खुद अपने बारे में क्या खयाल है आप का?”
“क्या!”
“रिसैप्शन से स्टाफ चाबी हासिल नहीं कर सकता लेकिन आप अफसर हैं और रिसैप्शनिस्ट अफसर नहीं, स्टाफ होते हैं। आप तो मैनेजर हैं, आप को रिसैप्शन के पीछे जाने से कौन रोकेगा, चुपचाप चाबी कब्जा लेने से कौन रोकेगा?”
“मिस्टर, यू आर टाकिंग नानसेंस।”
“माई नानसेंस स्टैण्ड्स टु रीजन, तूफानेहमदम।”—सुनील का स्वर शुष्क हुआ—“जो काम हुआ, जो बाकायदा होता देखा गया, उसे तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा अंजाम नहीं दे सकता था। और किसी को ऐसा करने की जरूरत ही नहीं थी... सिवाय तुम्हारे।”
“मुझे क्या जरूरत थी?”
“जरूरत थी और जरूरत ऐसी थी कि जब से बगल के कमरे में मकतूल आ के बसा था, तुम वो दरवाजा अक्सर खोलते थे इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि पहली बार रिसैप्शन पर से चाबी सरकाने के बाद तुमने उसकी डुप्लीकेट बनवा ली हो ताकि बार बार तुम्हें रिसैप्शन से चाबी न सरकानी पड़ती...”
“लेकिन...”
“अभी और सुनो। पहले पूरी बात सुनो।”
“बोलो।”
“मेरी जानकारी में आया है कि मकतूल ने जब चैक-इन किया था तो उसे चौथी मंजिल पर कमरा मिला था लेकिन अगले ही रोज उसका रूम चेंज कर दिया गया था और वो पांचवीं मंजिल पर ‘506’ में यानी आपके पड़ोस में पहुंचा दिया गया था। ठीक?”
“हां। क्या कहना चाहते हो?”
“मैं ये कहना चाहता हूं कि उस रूम चेंज की प्रक्रिया में भी आप की कलाकारिता का कोई हाथ था...”
“नानसेंस!”
“ताकि उसकी निगाहबीनी में आप को सहूलियत होती। उस पर वाच रखने में ही नहीं, उसका साजोसामान टटोलने में भी आप को सहूलियत होती।”
“दिस इज शियर नानसेंस। क्या जरूरत थी मुझे ऐसा करने की?”
“एक जरूरत वजूद में आयी तो है!”
“क्या?”
“मकतूल एक कॉनमैन था जो थर्टी नाइन, मेफेयर टावर, चर्च रोड, मुगल बाग की रेजीडेंट काव्या कपूर नाम की एक लड़की को अपनी कॉनमैनशिप का शिकार बना चुका था। वो लड़की आप की बहन है। छोटी, चचेरी बहन है जिसका मेडन नेम दिव्या अबरोल है। कहिये कि मैं गलत कह रहा हूं!”
उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
“आप अपनी बहन की वजह से मकतूल की निगाहबीनी कर रहे थे। आप को बीच के दरवाजे की चाबी हासिल थी और परसों रात दांव लगा कर, बीच का दरवाजा खोल कर आप उसके कमरे में घुसे थे। आपने उस का सामान टटोलना शुरू किया था तो वो एकाएक ऊपर से आ गया था। आप दोनों में तकरार हुई थी जो हाथापायी में तब्दील हो गयी थी। मकतूल ने आप पर वार करने के लिये सैंटर टेबल पर से पीतल का भारी फूलदान उठा लिया था तो आपने खुद को डिफेंड करने के लिये वहीं कार्पेट पर लुढ़का पड़ा एक चाकू उठा लिया था और उसके सीने में घोंप दिया था। भले ही सैल्फ डिफेंस में हुआ लेकिन कत्ल आपके हाथ से हुआ। अब कहिये, क्या कहते हैं?”
वो वई क्षण खामोश रहा।
“ये गम्भीर इलजाम है।”—फिर संजीदगी से बोला—“ये बात ठीक है कि उस शख्स ने काव्या को ठगा था और उसने मुझे ठगी की और उस की बाबत बताया था। काव्या”—वो एक क्षण ठिठका फिर दबे स्वर में बोला—“मेरी चचेरी बहन है लेकिन मुझे सगी बहन से ज्यादा अजीज है। मेरा कोई भाई नहीं, कोई बहन नहीं, मैं अपने मां बाप की इकलौती औलाद हूं इसलिये मैंने हमेशा काव्या को सगी बहन से बढ़कर माना है। आप यूं समझिये कि मैं सिर्फ बायलोजिकल रिश्ते से नहीं, गम्भीर जज्बाती रिश्ते से काव्या के साथ बन्धा हुआ हूं। मैं उसके लिये कुछ भी कर सकता हूं।”
“खून भी?”
“ओके, खून भी। लेकिन किया नहीं। नौबत आती तो पता नहीं क्या करता, लेकिन किया नहीं। ये मैं कुबूल करता हूं कि मैं उस शख्स की निगाहबानी करता था और इस कोशिश में बीच के दरवाजे का ताला अपने पास उपलब्ध डुप्लीकेट चाबी से खोलता था। मैं उसको बाल बाल सरका कर उस में एक झिरी पैदा करता था और झिरी के जरिये उसके कमरे में झांकता था। यूं मैं उसका पूरा ड्रार्इंगरूम देख सकता था। दरवाजा न खोलता, की-होल में आंख लगा कर देखता तो आधा ड्रार्इंगरूम देख सकता था लेकिन मैं ने उसके कमरे में दाखिल होने की कोशिश कभी नहीं की थी। मैं ऐसा करना चाहता था लेकिन मेरा कभी दांव नहीं लगा था। वो कदरन लम्बे अरसे के लिये कमरे से बाहर जाता ही नहीं था। फिर मैं ने अपनी नौकरी भी करनी होती थी। कहने का मतलब ये है कि उस के कमरे में दाखिल होने का खुला मौका मुझे कभी नहीं लगा था।”
“लगता तो होते?”
“होता। पहले ही बोला।”
“किस उम्मीद में?”
“किसी क्लू की उम्मीद में जो ये साबित कर पाता कि वो कॉनमैन था, कि वो कई आइडेन्टिटीज अख्तियार किये कोई फरेबी था।”
“उम्मीद पूरी होती तो क्या करते?”
“तो काव्या को पुलिस में फ्रैश रिपोर्ट दर्ज कराने को बोलता और जब तक उस के खिलाफ कोई पुलिस कार्यवाही न शुरू हो जाती, उसे चैक आउट न करने देता।”
“आप ऐसा कर सकते थे?”
“एक अरसे तक तो कर ही सकता था। वो क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करता था, होटल का फाइनल बिल भी ऐसे ही चुकता करता तो हम कह सकते थे किसी टैक्नीकलिटी की वजह से पेमेंट थ्रू नहीं हो रही थी।”
“कत्ल आपने नहीं किया?”
“नहीं किया।”
“गैरइरादतन आप के हाथ से हुआ?”
“नहीं। आई स्वियर, मैं कभी उसके कमरे में दाखिल नहीं हुआ था। आई रिपीट, ऐसी नौबत ही नहीं आयी थी, मेरा ऐसा दांव ही नहीं लगा था।”
“सच कह रहे हैं?”
“हां। लेकिन...”
“क्या लेकिन?”
“पता नहीं मुझे कुछ कहना चाहिये या नहीं! पता नहीं मुझे आप लोगों के सामने कुछ कहना चाहिये या नहीं!”
“आप बेहिचक कहिये।”
“तुम अखबार वाले हो।”
“आप की इजाजत बिना हम आप का बयान प्रकाशित नहीं करेंगे।”
“उसका कोई और बेजा इस्तेमाल भी नहीं करोगे?”
“नहीं करेंगे।”
“तो सुनो। मैंने”—उसने बम-सा छोड़ा—“कत्ल होता देखा था।”
“क्या?”
“आई एम विटनेस टु दि मर्डर दैट हैपंड नैक्स्ट डोर टु माई रूम।”
सुनील और रमाकान्त एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
“मालको”—रमाकान्त हैरान होता बोला—“फिर भी खामोश हो!”
“मैं किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहता।”—वो बोला।
“अगर आप कत्ल के चश्मदीद गवाह हैं तो झमेले में पड़ना न पड़ना आप की चायस नहीं।”
“कातिल की शिनाख्त तो मैं नहीं कर सकता न!”
“क्या बोला? आप ये कहना चाहते हैं कि आपने कत्ल होता देखा था लेकिन कातिल को नहीं देखा था?”
“हां।”
“आप उत्तर-उत्तर, दक्षिण-दक्षिण की बातें कर रहे हैं। ठीक से बताइये क्या देखा था?”
“वो क्या है कि मैं...मैं बीच के दरवाजे के की-होल से आँख लगाये था और यूं मुझे ड्रार्इंगरूम का प्रवेशद्वार की ओर का आधा हिस्सा दिखाई दे रहा था और वो हिस्सा वो था जिस में मकतूल और एक युवती यूं आमने सामने बैठे हुए थे कि मकतूल का मेरी तरफ मुंह था और उसके मेहमान की मेरी तरफ पीठ थी। दोनों उत्तेजित थे, भड़क रहे थे और साफ लगता था कि उन में कोई तू तू मैं मैं हो रही थी जिस की आवाजें मैं नहीं सुन पा रहा था। फिर तकरार करते दोनों में से लड़की एकाएक उठ खड़ी हुई। तब मैंने देखा कि उसके दायें हाथ में एक चाकू था। जरूर मकतूल ने भी चाकू देखा क्योंकि उसने झपट कर मेज पर से फूलदान उठा लिया और वार करने के इरादे से उसने अपना फूलदान वाला हाथ सिर से ऊंचा उठा लिया। तब लड़की ने उस की छाती में चाकू घोंप दिया लेकिन मकतूल फिर भी वार करने पर आमादा दिखा। तब लड़की ने चाकू वापिस खींचा और वैसा ही वार फिर उसकी छाती पर किया। इस बार चाकू उसके हाथ से छूट गया, या उसने खुद छोड़ दिया, और छाती में पैबस्त चाकू लिये मकतूल बेआवाज कमरे के कार्पेट बिछे फर्श पर गिरा। फूलदान उसके हाथ में छूट गया और कार्पेट पर कहीं लुढ़क गया।”
“इस सारे वाकये के दौरान हमलावर लड़की की आपकी तरफ पीठ रही?”
“हां।”
“जब आपने कहा आप कातिल की शिनाख्त नहीं कर सकते थे, जब आपने इस बात की हामी भरी थी कि आपने कत्ल होता देखा था लेकिन कातिल को नहीं देखा था तो आप के कहने का मतलब ये था कि आप ने कातिल की सूरत नहीं देखी थी?”
“हं-हां, लेकिन...”
“क्या लेकिन?”
“वहां से कूच के लिये जब वो प्रवेश द्वार की तरफ दौड़ी थी तो ...तो उसकी सूरत की एक... बड़ी ब्रीफ...झलक मुझे मिली थी।”
“गॉड! फिर भी कहते हैं कि कातिल को नहीं देखा था।”
“न देखने जैसा देखा था। पलक झपकने जितना देखा था। उतने से क्या पता लगता है...”
“वो काव्या थी?”
“नहीं।”
“गुलेगुलजार, एक तरफ कह रहे हो कि उतने से कुछ पता नहीं लगता, दूसरी तरफ पुरइसरार लहजे से कह रहे हो कि वो काव्या नहीं थी। जब ‘नहीं’ की बाबत श्योर हो सकते हो तो ‘हां’ की बाबत क्यों श्योर नहीं हो सकते?”
वो खामोश रहा।
“उस वक्त के टाइम का कोई अन्दाजा?”
उसने उस बात पर विचार किया, यूं शक्ल बनायी जैसे टाइम याद करने के लिये दिमाग पर बहुत जोर देना पड़ रहा हो।
“साढ़े नौ।”—फिर बोला—“साढ़े नौ के आस पास का टाइम था वो, दो एक मिनट इधर या दो एक मिनट उधर।”
“आप को मालूम है परसों रात काव्या भी यहां थी?”
“यहां कहां?”—वो हड़बड़ाया।
“होटल में। वो मकतूल के कमरे में भी गयी थी।”
“साढ़े नौ बजे?”
“वो दस पांच पर कहती है लेकिन वक्त में उसे मुगालता लगा हो सकता है या वक्त की बाबत वो झूठ बोल रही हो सकती है।”
“मुझे उस की यहां आमद की खबर नहीं। लेकिन अगर आयी थी तो वक्त की बाबत झूठ क्यों बोलेगी? उसे क्या पता था कि आगे उसे मकतूल नहीं, मकतूल की लाश मिलने वाली थी?”
“अगर मकतूल को लाश ही उसने बनाया था तो पता था।”
“ये नहीं हो सकता। मैंने भले ही कातिल की शक्ल की एक बहुत ही संक्षिप्त झलक देखी थी लेकिन वो काव्या नहीं थी, ये मैं गारन्टी से कह सकता हूं।”
“मैं आप को दो तसवीरें दिखाने जा रहा हूं। उतनी ही गारन्टी से कहियेगा कि उन दो में से कोई कातिला थी या नहीं थी।
सुनील ने अपने मोबाइल पर उसे तीन तसवीरों में से काव्या के अलावा बाकी दो तसवीरें दिखार्इं जिन में से एक की बाबत उसे मालूम था कि कियारा की थी और दूसरी की कोई शिनाख्त होना अभी बाकी था।
उसने गौर से दोनों तसवीरें देखीं।
“आई एम नाट श्योर बट”—आखिर बोला—“ये हो सकती है।”
वो कियारा की तसवीर को प्वायन्ट आउट कर रहा था।
“लेकिन आप”—सुनील बोला—“श्योर नहीं है कि कातिला, जिसे आपने चाकू चलाते देखा था, यही लड़की थी?”
“नहीं, श्योर तो नहीं!”
“कातिला ने रुखसत होने के पहले फूलदान उठा कर वापिस मेज पर रखा था?”
वो फिर सोचने लगा।
“आप सोचते बहुत हैं।”—सुनील तनिक चिड़े स्वर में बोला।
“जवाब जिम्मेदारी से देना हो तो सोच के ही देना पड़ता है।”—वो भुनभुनाया।
“आेके। ओके। दीजिये सोच के।”
“नहीं, नहीं रखा था फूलदान मेज पर।”
“श्योर?”
“हां। वो तो मकतूल के ढ़ेर होते ही बगूले की तरह वहां से निकल ली थी।”
“ये लड़की कुबूल करती है कि साढ़े नौ बजे ये मकतूल से मिलने पहुंची थी।”
“फिर तो यहीं थी जिसने चाकू चलाया था।”
“लेकिन साथ ही ये भी कहती है कि कमरे में दाखिल हुई ही नहीं थी, कालबैल के जवाब में मकतूल उसे दरवाजे पर मिला था, उसने उससे मिलने में असमर्थता दिखाई थी क्योंकि वो पहले ही किसी गैस्ट के साथ व्यस्त था और उसने इस लड़की को दरवाजे से ही चलता कर दिया था। इसका मतलब है कि साढ़े नौ बजे मकतूल जिन्दा था जब कि आप कहते हैं कि तब उस का कत्ल हो रहा था।”
“ठीक कहता हूं। ये लड़की झूठ बोलती है।”
“तब मकतूल के साथ भीतर कोई दूसरा शख्स था, मकतूल ने साफ ऐसा कहा था और इसी वजह से उसने उस लड़की को रिसीव करने से इंकार किया था।”
“मकतूल ने गलत कहा होगा। उस घड़ी मकतूल और कातिल लड़की के सिवाय मैंने किसी को भी वहां नही देखा था।”
“आप कहते हैं की-होल से आधा ड्रार्इंगरूम दिखाई देता था। क्या पता तीसरा शख्स ड्रार्इंगरूम के उस हिस्से में हो जो आप को नहीं दिखाई दे रहा था!”
“होता तो जो मैंने देखा, उसमें उसने दखल दिया होता।”
“खुद भी मरने के लिये!”
“वहां कोई तीसरा शख्स नहीं था। होता तो उसने खूब अच्छी तरह से कातिला को देखा होता और उसका दर्जा मजबूत चश्मदीद गवाह का होता और जो उसने देखा था, उस बाबत उसने तत्काल दुहाई दी होती।”
“हूं।”
“फिर भी कोई तीसरा शख्स वहां था तो वो जरूर बैडरूम में था और फौरन तो उसे कत्ल की खबर ही नहीं लगी थी।”
“ये हो सकता है।”—सुनील को कुबूल करना पड़ा—“की-होल में से तो आप कातिला की शक्ल ठीक से न देख सके, तब की क्या कहते हैं जब कि वो गलियारे में होती और कदरन ज्यादा देर आप की निगाह में होती? आप को गलियारे में झांकने का खयाल आया?”
“फौरन न आया। ये न भूलो कि मैं ने एक कत्ल का नजारा किया था जिस ने मुझे हकबका दिया था। जब तक ये खयाल आया, तब तक गलियारा खाली था।”
“आई सी। पुलिस को कत्ल की खबर किसी गुमनाम काल के जरिये लगी। और यूं समझो कि आनन फानन लगी। ऐसी आनन फानन खबर पुलिस को दो ही जने कर सकते थे। एक जो मकतूल का मेहमान था और उसके सुइट के बैडरूम में मौजूद था और दूसरे आप। बैडरूम वाले जमूरे के वजूद पर आपने खुद सवालिया निशान ये कह के लगा दिया है कि मकतूल ऐसे किसी शख्स की भीतर मौजूदगी की बाबत झूठ बोल रहा था। बाकी बचे आप। क्या कहते हैं?”
उसने जवाब न दिया, बेचैनी से पहलू बदला।
“कुबूल कीजिये कि पुलिस को कत्ल की बाबत गुमनाम काल आपने की थी।”
“जब बतौर कत्ल के गवाह खुद को सामने लाने का मेरा कोई इरादा नहीं था तो उस घड़ी के अपने फर्ज की राह में मैं इतना तो कर ही सकता था कि पुलिस को कत्ल की खबर कर देता वर्ना पता नहीं कब तक लाश वहां अनडिटेक्टिड पड़ी रहती!”
“ठीक।”
“सुनो, इस लड़की की तुम्हारे मोबाइल में तसवीर है तो जाहिर है कि तुम इसे जानते हो।”
“नहीं जाहिर है। मेरे मोबाइल में लड़की की तसवीर नहीं है, लड़की की तसवीर की तसवीर है।”
“ओह! तो तुम लड़की को नहीं जानते?”
“जानता हूं, अब जानता हूं, लेकिन तसवीर की वजह से नहीं।”
“किसी भी वजह से सही, कौन है ये?”
“इस का नाम कियारा सोबती है और तुम्हारी जानकारी के लिये तुम्हारी कज़न काव्या की तरह ये भी मकतूल की कॉनमैनशिप का शिकार है।”
“ये भी?”
“हां।”
“फिर तो जरूर यही थी।”
“जरूर क्यों?”
“मैंने ‘ताजा खबर’ में पढ़ा था कि पुलिस ने कियारा सोबती नाम की एक लड़की को कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार किया था।”
“गलत पढ़ा था। पूछताछ के लिये हिरासत में लिया था, एक घन्टे के बाद छोड़ दिया था।”
“हिरासत में लिया था तो पुलिस के पास इस के खिलाफ कुछ तो होगा!”
“होगा, लेकिन जब समुचित न पाया गया तो चले जाने दिया।”
“ओह! लेकिन फिर भी...”
“नो फिर भी। यूं पूछताछ के लिये किसी को भी काबू में किया जा सकता है। आप को भी।”
“मुझे खामखाह!”
“पूछताछ के लिये।”
“उसके लिये भी क्यों?”
“आपने पुलिस को कत्ल की बाबत गुमनाम टेलीफोन काल की...”
“अपना फर्ज निभाया।”
“...अपना नाम बता कर काल करते तो क्या पुलिस थैंक्यू बोल कर किस्सा खत्म कर देती?”
वो खामोश रहा।
“आप से कई तरह के सवाल करती या न करती कि क्योंकर आप कत्ल के चश्मदीद गवाह थे?”
वो खामोश रहा।
“लगता है”—फिर चिन्तित भाव से बोला—“तुम्हें मुंह लगा के मैंने गलती की। अब अगर पुलिस को मेरी खबर लगी तो तुम्हारी ही वजह से लगेगी।”
सुनील धूर्त भाव से मुस्कुराया।
“कोई बात नहीं, लगे। सवाल हो मेरे से। जब मैंने सच ही बोला है और सच ही बोलना है तो वो मैं कहीं भी खड़ा हो के बोल सकता हूं। पुलिस के सामने भी।”
“ब्रावो!”—सुनील उठ खड़ा हुआ—“तभी तो कहते है सच्चे का बोल बाला, झूठे का मुंह काला। बहरहाल टाइम देने का शुक्रिया।”
“एक सवाल मेरा भी।”—रमाकान्त जल्दी से बोला—“अब जबकि तुम खुद अपनी जुबानी कुबूल कर चुके हो कि तुमने कत्ल होता देखा था तो अब क्या इरादा है? पुलिस के पास जाओगे।”
“ऐसे तो मैं नहीं जाने लगा।”—वो दृढ़ता से बोला—“क्यों मैं खुद अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी करूंगा?”
“तो कैसे जाओगे?”
“कैसे भी नहीं जाऊंगा। पुलिस मेरे पास पहुंच जाये तो बात जुदा है। लेकिन”—उसने सर्द निगाह से सुनील की तरफ देखा—“अगर पुलिस आ कर खुद ही मेरे से सवाल करने लगी कि चोरी छुपे मैंने बगल के कमरे में क्या होता देखा था तो...तो मैं समझूंगा तुम एक वादाफरामोश शख्स हो।”
“जानेजमां”—सुनील गहरी सांस लेता बोला—“हूं तो नहीं मैं ऐसा लेकिन पुलिस अगर मेरे साथ भी उसी सख्त अन्दाज से पेश आयी जिस से मुझे उम्मीद है कि वो तुम्हारे साथ पेश आयेगी तो हो सकता है जुबान को ताला लगाये रखना मुमकिन न रह जाये।”
“पुलिस का तुम्हारे से क्या मतलब?”
“है न मतलब! पुलिस का फोकस मेरे पर भी है क्योंकि परसों रात उन्होंने मुझे तब मकतूल के कमरे की कालबैल बजाता पाया था जब कि वो भीतर मरा पड़ा था।”
“तुम...तुम तब यहां थे?
“हां।”
“डैड बॉडी तुमने...तुमने... यू डिसकवर्ड दि डैड बॉडी?”
“बट दैट्स अनदर स्टोरी। थैंक्यू। थैंक्यू वैरी मच, डार्लिंगैस्ट।”
पीछे हकबकाये से असिस्टेंट मैनेजर को छोड़ कर वो उसके कमरे से बाहर निकले और आगे लॉबी में पहुंचे।
“क्या खयाल है?”—सुनील ठिठका और बोला।
“मेरा खयाल पूछ रहा है?”—रमाकान्त भी ठिठका।
“हां।”
“तेरा खयाल तेल लेने गया?”
“जवाब दो।”
“झूठ बोल रहा है।”—रमाकान्त के स्वर में निश्चय का पुट था।
“अच्छा!”
“अरे, वो होटल का मुलाजिम है, असिस्टेंट मैनेजर है, यानी होटल मैनेजमैंट का जिम्मेदार पुर्जा है, उसने अपनी आंखों के आगे कत्ल होता देखा होता तो उसे तो होटल सिर पर उठा लेना चाहिये था! पुलिस के आने से पहले आनन फानन ऐसा इन्तजाम करना चाहिये था कि होटल का सिक्योरिटी स्टाफ ही हमलावर को काबू में कर लेता।”
“यानी वो झूठ बोल रहा है?”
“न सिर्फ झूठ बोल रहा है, बड़े भोले अन्दाज से, सरका सरका के—जैसे बीच का दरवाजा सरकाता था—कियारा को फोकस में लाने की कोशिश कर रहा है। बाद में सब कुछ हो चुकने के बाद शहीदी अन्दाज से जाहिर करेगा कि उसे तो मजबूरी में, पुलिस के दबाव में आ कर, कियारा की तरफ उंगली उठानी पड़ी थी वर्ना वो तो खामोश था।”
“क्यों वो कत्ल का फोकस कियारा पर बनाने की फिराक में है?”
“मुझे तो एक ही वजह सूझती है।”
“क्या?”
“बहन से फोकस हटाना चाहता है। किसी तरह से इस खुराफाती शख्स को इल्म है कि या तो काव्या ने कत्ल किया है, या काव्या कातिल हो सकती है। अब एक शख्स के दो कातिल तो नहीं हो सकते न!”
“लेकिन काव्या कहती है वो दस पांच पर उसके कमरे में पहुंची थी!”
“कहती ही तो है! औरत की जुबान का क्या पता लगता है!”
“वो पहले आयी होती तो उस का कियारा से या देवीना से टकराव हो सकता था।”
“ओये, मां सदके, वो दोनों भी तो औरतें ही हैं! उन की कोई गारन्टी है कि टाइम की बाबत वो सच बोल रही हैं?”
“हूं।”
“फिर क्या पता उस जमूरे ने ही बहन को पट्टी पढ़ाई हो कि वो अपनी आमद का वक्त दस पांच का बताये जो कि सेफ टाइम है। जिस की बाबत सथापत है...”
“स्थापित है।”
“... कि कत्ल उस टाइम से पहले हो चुका था।”
“ठीक। तो यूं कहो कि इस प्यारेलाल ने इस मर्डर मिस्ट्री में एक नया पेंच डाल दिया!”
“आहो! अब इरादा क्या है तेरा? रात लॉबी की रौनक देखते ही गुजरनी है तो कम से कम बैठ ही जायें।”
“नहीं। जब इरादा देवीना महाजन से मुलाकात करने का है। ज्योति कालोनी चलो।”
वो धोबी नाका क्रीक के करीब स्थिति ज्योति कालोनी और आगे मकान नम्बर बी-12 पर पहुंचे जो कि मुश्किल से सौ गज में बना, डिब्बे जैसा, एकमंजिला मकान था।
सुनील ने कालबैल बजायी।
पचपन के पेटे में पहुंची एक वृद्धा ने दरवाजा खोला। उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से आगन्तुकद्वय की तरफ देखा।
“देवीना जी से मिलना है।”—सुनील अदब से बोला।
वृद्धा ने सन्दिग्ध भाव से सिर से पांव तक सुनील का मुआयना किया, फिर बोली—“वाकिफ हो उससे?”
“अब होंगे न!”
“हो कौन?”
“मेरा नाम सुनील है, मैं प्रैस रिपोर्टर हूं। ये रमाकान्त है, मेरे साथ है।”
उसने रमाकान्त का भी वैसा ही मुआयना किया और फिर बोली—“यहीं ठहरो।”
उसने उन के मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया।
“मार्इंयवी!”—रमाकान्त गुस्से से बोला।
“चिल!”—सुनील बोला—“चिल! वड्डे भापा जी, जरूरत हमारी है।”
“हां, यार।”
“मायें औलाद की ऐसी ही हिफाजत करती हैं राजनगर जैसे महानगरों में।”
“करती हैं लेकिन कर कहां पाती हैं!”
“ये भी ठीक है।”
“ओये! ओये! तो क्या तेरे वड्डे भापा जी की कही बात गलत होगी?”
तभी दरवाजा खुला और चौखट पर एक पच्चीसेक साल की गोरी चिट्टी, साफ सुथरी लड़की प्रकट हुई जो कि सादा शलवार कमीज पहने थी और जिसके चेहरे पर बुद्धिमत्ता की छाप थी। उसने बिना कोई सवाल किये रास्ता छोड़ा और उन्हें भीतर आने का इशारा किया।
दोनों भीतर एक बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढ़ण्ग से सुसज्जित ड्रार्इंगरूम में पहुंचे।
वृद्धा वहां नहीं थी।
युवती के इशारे पर वो दोनों एक थ्रीसीटर सोफे पर अगल बगल बैठे तो वो उन के सामने एक सोफाचेयर पर बैठी।
“मेरा नाम सुनील है”—सुनील चेहरे पर गोल्डन जुबली मुस्कुराहट लाता बोला—“सुनील चक्रवर्ती। मैं...”
“ ‘ब्लास्ट’ के जाने माने खोजी पत्रकार हो। मैं तुम्हारे नाम से अच्छी तरह से वाकिफ हूं। काफी नाम है तुम्हारा इनवैस्टिगेटिव जर्नलिज्म के क्षेत्र में।”
“अहोभाग्य!”
उसने सहज भाव से रमाकान्त की तरफ देखा।
“ये मेरे फ्रेंड हैं। इत्तफाक से मेरे साथ हैं।”
“वैलकम।”—वो रमाकान्त पर दृष्टिपात करती बोली—“वैलकम...जो कोई भी आप हैं।”
“कोई तो गैर होता है, सोहनयो!”—रमाकान्त चहका—“मैं तो अपना हूं।”
“क्या?”
“अपना रमाकान्त अम्बरसरिया। आलसो काल्ड मल्होत्रा बाई नियर्स एण्ड डियर्स।”
“बातें बढ़िया करते हो।”
“सोहबत का असर है।”
“किसकी?”
“शार्गिद की।”
“वो कौन हुआ?”
रमाकान्त ने सुनील की तरफ इशारा किया।
“और आप उस्ताद!”
“आहो, जी।”
“उस्ताद पर शागिर्द की सोहबत का असर है?”
“कलजुग है, जी। जो न हो जाये, थोड़ा है।”
“ऐनीवे, नाइस मीटिंग यू मिस्टर अम्बर...अम्बर...मल्होत्रा।”
“साडा भी ‘नाइस मीटिंग यू’ टिका लैना, सोहनयो।”
“ऐनफ आफ दिस नानसेंस।”—एकाएक युवती का स्वर शुष्क हुआ, वो सुनील की तरफ घूमी—“नाओ, कम टु दि प्वायन्ट। स्टेट दि परपस आफ युअर विजिट।”
“यस, मैम।”—सुनील तत्पर स्वर में बोला—“उम्मीद है आप को कूपर रोड पर स्थित होटल स्टारलाइट में परसों रात हुए कत्ल की खबर होगी।”
“खबर है।”—वो बोली—“तुम्हारे ही पेपर में विस्तार से खबर पढ़ी थी।”
“गुड। ये भी खबर है कि मरने वाला आदित्य खन्ना, अंशुल खुराना, आकाश खोसला जैसे कई नामों से जाना जाता था जबकि उस का असली नाम अविनाश खत्री था और वो कोई फॉरेन से आया शख्स नहीं, एक लोकल बाशिन्दा था?”
“हां। आज के अखबार में इस बाबत भी मैंने पढ़ा था।”
“आप उसे किस नाम से जानती थीं?”
“अंशुल खुराना के नाम से।”
सुनील ने हैरानी से उस की तरफ देखा। वो तो किसी नकारात्मक उत्तर की अपेक्षा कर रहा था जब कि उसने तो सहज ही स्वीकार कर लिया था कि वो मल्टीनेम्ड कॉनमैन से वाकिफ थी।
“ऐंजलफेस, यू श्योर आर ए नो नानसेंस गर्ल। इसलिये मैं भी उस कई नामों वाले कॉनमैन के स्टाइल आफ फंकशनिंग की ग्राफिक डिटेल में जा कर टाइम जाया नहीं करूंगा। इसलिये मेरा सीधा सवाल है, आप को ठग चुका था कि वो घड़ी आनी अभी बाकी थी?”
“बाकी थी। लेकिन ठगी की बुनियाद पूरी पूरी बना चुका था।”
“कभी शक न हुआ?”
“नहीं ही हुआ। हुआ होता तो बात इतनी आगे तक न बढ़ी होती कि न्यूयार्क से राजनगर ही आ धमकता।”
“लोकल बाशिन्दा था।”
“अब मालूम हुआ न! उसके कत्ल के बाद मालूम हुआ न! पहले कहां थी शक की कोई गुंजायश!”
“रेगुलर चैट करती थीं?”
“हां।”
“कभी शक न हुआ कि चैट न्यूयार्क से नहीं हो रही थी?”
“न। मोबाइल की स्क्रीन पर वहां का नम्बर आता था, यूएसए लिखा आता था, कैसे शक होता!”
“जब चैट के जरिये पूरी इंटीमेसी स्थापित हो गयी तो वो राजनगर आ धमका?”
“हां।”
“आप को उसकी आमद की खबर थी?”
“नहीं। एकाएक आया। बोला सरपराईज देना चाहता था।”
“दी सरपराइज?”
“क्या?”
“पिछले शुक्रवार उसने होटल में चैक इन किया था। उसी रोज मिला वो आप से?”
“नहीं।”
“वजह?”
“मैं शहर में नहीं थी। गुरुवार को मैं दिल्ली गयी थी जहां से सोमवार को लौटी थी।”
“तो आखिर सोमवार को मुलाकात हुई?”
“हां। शाम को वो मुझे होटल शाहजहां में डिनर के लिये लेकर गया। वहां के फेमस रेस्टोरेंट मुमताज में आधी रात तक मैं उसके साथ थी। हमारे में ड्रिंक्स का भी दौर चला।”
“आपने भी विस्की पी?”
“नहीं। तहजीब बहुत थी उसमें। वो मेरे को विस्की के लिये पूछता तो मैं कम्पनी सेक एकाध जाम से इनकार न करती लेकिन उस ने मेरे से सिर्फ इतना पूछा कि मुझे ड्रिंक्स से परहेज तो नहीं था, फिर मेरे लिये शैम्पेन काकटेल मंगवाई और अपने लिये विस्की मंगवाई।”
“कौन सी?”
“ब्लू लेबल।”
“शाहजहां में जिस का लार्ज पैग आठ हजार रुपये का आता है।”
“शायद।”
“यूं वो ये स्थापित करना चाहता था कि पैसे वाला आदमी था, अपने अमेरिका प्रवास के दौरान उसने बहुत पैसा कमाया था?”
“हां। ऐसे और भी हिन्ट ड्रॉप किये थे उसने।”
“मसलन?”
“कहता था कि शाहजहां में ही ठहरना चाहता था लेकिन वहां वेकेंसी नहीं थी इसलिये उसे स्टारलाइट में ठहरना पड़ा था।”
“जबकि स्टारलाइट भी फाइव स्टार होटल है।”
“हां, लेकिन शाहजहां सेवन स्टार डीलक्स है।”
“यानी ‘मुमताज’ में उसने खूब पैसा उड़ाया?”
“हां। छक के विस्की पी। डालर में पेमेंट की। सौ डालर के नोटों का ये...मोटा पुलन्दा था उसके पास।”
“अपनी बड़ी हैसियत जो आप की निगाह में लानी थी!”
“तब नहीं मालूम था लेकिन अब उसके कत्ल के बाद, उसकी पोल खुल जाने के बाद मैं सेफली कह सकती हूं कि यही बात थी। ‘मुमताज’ में उसने जो कुछ किया था, मेरे पर अपनी सम्पन्नता की गहरी छाप छोड़ने के लिये किया था।”
“जो कि उसका स्टाक-इन-ट्रेड था!”
“अब जाहिर है न! पहले तो उसके फर्जी किरदार का मुझे हिंट तक नहीं लगा था। शाम की आउटिंग के लिये उसने जो गाड़ी हायर की हुई थी, जिस पर उसने मुझे यहां से पिक किया था और वापिस यहां छोड़ कर गया था, वो भी मर्सिडीज थी। ‘मुमताजʼ में वेटर को उसने पचास डालर टिप छोड़ी थी जब कि बिल में सर्विस चार्जिज़ लगे हुए थे।”
“पचास डालर यानी लगभग सवा तीन हजार रुपये!”
“हां।”
“आप ने रौब खाया?”
“बहुत ज्यादा। इतना कि अपने को खुशकिस्मत माना कि वो मेरे से मुतासिर था।”
“जब कि सब आडम्बर था! कॉनगेम था!”
“फिर कहती हूं, अब मालूम है न! तब तो नहीं मालूम था न!”
“कोई गिफ्ट न लाया आप के लिये? अमेरिका से?”
“कहता था लाया था, मेरे से मिलने के जोश और हड़बड़ी में होटल में भूल गया।”
“हो जाता है ऐसा। कोई हिंट दिया गिफ्ट की बाबत?”
“हां। स्टिलेटो हील वाली इटैलियन सैंडलें।”
“रंग लाल।”
“रंग का जिक्र नहीं आया था।”
“कीमत का?”
“अरे, भई, वो गिफ्ट लाया था! कोई गिफ्ट की कीमत का जिक्र अपनी जुबानी करता है!”
“ठीक! और क्या बोला?”
“और पूछा कि मैं ने कभी पांच इंच की स्टिलेटो हील वाली सैंडलें पहनी थीं!”
“क्या जवाब दिया?”
“नहीं पहनी थीं। बोला, अब पहनोगी।”
“हील के साइज के बारे में तो उसने चांस लिया लेकिन अगर वो सैंडलें सरपराइज गिफ्ट था तो उसे आप के पांव का नाप कैसे मालूम था?”
“चैट के दौरान कभी ऐसा कोई जिक्र आया होगा!”
“आप को याद नहीं?”
“नहीं, याद तो नहीं! घन्टा घन्टा चैट होती थी, क्या पता क्या क्या जिक्र आते जाते थे।”
“उसने कहा कि आप पांच इंच की हील अब पहनोगी। इस का मतलब ये न हुआ कि अभी एक मुलाकात और होना निश्चित था जिसमें गिफ्ट की बाबत हुई अपनी कोताही को वो दुरुस्त करता?”
“हुआ। अगले रोज उससे फिर मुलाकात िफक्स हुई थी और वो मुलाकात आखिरी होती क्योंकि परसों सुबह उसने राजनगर से कूच कर जाना था।”
“ओह! आपने कहा कि उसने छक के विस्की पी थी!”
“हां। इतनी कि जज्बाती हो गया था। एक बार तो रोने लग गया था। मैंने उस के आंसू पोंछे और उसे चुप कराया।”
“आई सी।”
“बोला, फॉरेन लिविंग से उसका बिल्कुल दिल हट गया था, बड़े शौक से अमरीका गया था, आठ साल से वहां था और अब हालत ये थी कि उसे वहां एक एक दिन गुजारना भारी पड़ रहा था। बोला पंछी नीड़ पर लौटना चाहता था।”
“वैरी पोयेटिक!”
“फिर बोला परदेस में लोकल लड़की से शादी की, जो मुश्किल से छ: महीने चली। डाईवोर्स दिया तो सैटलमेंट में अमरीकी बीवी ने उसको स्ट्रिप कर देने में कसर न छोड़ी। बड़ी मुश्किल से फिर अपनी औकात बनायी और अब हमेशा के लिये परदेस को छोड़कर होमकमिंग करना चाहता था। बोला मेरे से शादी कर के नये सिरे से गृहस्थी बसाना चाहता था और उस दिशा में पहला कदम ये उठाना चाहता था कि अपना सर्वस्व मेरे हवाले कर देना चाहता था! बोला अमेरिका वापिस लौटते ही उसकी जितनी भी असैट्स थीं—गोल्ड, डायमंड ज्वेलरी, शेयर्स, डिबेंचर्स, कैश—वो सब मुझे अरसाल कर देगा जिसके राजनगर पहुंचने पर मैं कनसाइनमेंट कस्टम से छुड़ा लूं और उसे खबर कर दूं। उसके एक महीने बाद वो इन्डिया में मेरे सामने खड़ा होगा और शादी की दरख्वास्त कर रहा होगा।”
“कई घन्टे आप दोनों ने साथ गुजारे, आधी रात के बाद कहीं वो आप को यहां छोड़कर गया, फिर कहती हैं कि छक के विस्की पी, ‘मुमताज’ में या वापिसी के रास्ते में फ्रैश होने की कोशिश न की?”
“क्या मतलब?”
“बद्तमीजी के कहूं?”
“कैसे भी कहो!”
“कोई प्यार मुहब्बत! कोई चूमा चाटी! कोई फीलिंग! कोई फौंडलिंग!”
“नो, नाट एट आल। मेरी उंगली तक न छुई।”
“मर्सिडीज शोफर ड्रिवन थी?”
“हां।”
“फिर भी बैक सीट पर कोई हरकत न की?”
“बोला न, उंगली न छुई।”
“मंजिल पर पहुंचकर कोई गुडनाइट किस भी नहीं?”
“न! मिस्टर, ऐवरी मिनट ही वाज ए पर्फेक्ट जन्टलमैन।”
“खेल का शातिर, तजुर्बेकार खिलाड़ी जो ठहरा! छवि बिगाड़ना नहीं चाहता होगा!”
“कुछ भी।”
“वैसे छोटी मोटी किसिंग, समूचिंग, ग्रोपिंग करता तो आप करने देतीं?”
उसने उस बात पर विचार किया, फिर हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“असैट्स की कोई वैल्यू बताई?”
“ऐग्जैक्ट तो न बताई लेकिन हिंट दिया कि करोड़ों में थीं।”
“आप तो खुश हो गयी होंगी!”
“बल्लियां उछलती घर लौटी।”
“दोबारा मुलाकात हुई?”
“कैसे होती! अगले रोज की मुलाकात का जो वक्त मुकर्रर हुआ था, उसके आस पास तो वो अपने होटल रूम में मरा पड़ा था।”
“शायद लंच पर हुई हो!”
“काहे को?”
“आशिक का दिल है, क्या पता कब किस बात पर मचल उठे!”
“ऐसा कुछ नहीं हुआ था।”
“बहरहाल कुल जमा एक ही मुलाकात हुई थी आप की उससे?”
“हां। उस से पहले के तीन दिन मैं राजनगर में होती तो जरूर रोज मुलाकात होती।”
“ठीक! तो उसने कहा था कि कल सुबह, यानी कत्ल के अगले रोज, बुधवार को उसने राजनगर से कूच कर जाना था!”
“हां। बोला, बुधवार सुबह की उसकी मुम्बई की फ्लाइट थी और फिर रात के दो बजे मुम्बई से न्यूयार्क की सिंगापुर एयरलाइन्स की उसकी डायरेक्ट फ्लाइट थी। मुझे दोनों टिकटें दिखाई थीं उसने।”
“अमेरिकन कोर्ट से जारी हुआ अमरीकी बीवी से तलाक का सर्टिफिकेट भी दिखाया होगा?”
“हां। तुम्हें कैसे मालूम?”
“कस्टम से कनसाइनमेंट छुड़ाने की बाबत कुछ बोला था?”
“हां। बोला था कि जो कनसाइनमेंट वो मेरे नाम भेजेगा, वो कस्टम ड्यूटी पेड होगी, फिर भी ड्यूटी में कोई कमी बेशी हो जाये तो वो मैं देख लूं।”
“उसका कॉनगेम ऐसी इंडीपेंडेंट युवतियों से ही ताल्लुक रखता था जिन की गांठ में मोटा माल हो। आप की गांठ की क्या पोजीशन है?”
“रानीखेत में हमारी एग्रीकल्चरल लैंड थी जिसे बेच कर मैं और ममी यहां सैटल हुए थे। साठ लाख में ये छोटा सा मकान खरीदा था, फिर भी कोई पचास लाख अभी पल्ले हैं।”
“किसके? ममी के?”
“मेरे। ममी को मेरे पर पूरा भरोसा है। वैसे भी जायन्ट एकाउन्ट है।”
“आप को उसकी फैंसी स्टोरी पर ऐतबार आया था?”
“उसका कहने का ढ़ण्ग ही इतना कनविंसिंग था कि न एतबार आने की कोई वजह ही नहीं थी।”
“आप को शादी मंजूर थी?”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“उसकी विनिंग पर्सनैलिटी की वजह से या उसकी माली औकात की वजह से?”
“दोनों ही बातें थीं।”
“लेकिन माली औकात ज्यादा वजह थी। करोड़ों की असैट्स का जो बेट उसने आप की आंखों के सामने लहराया था, वो ज्यादा वजह थी। नो?”
“यस। लेकिन इकलौती वजह नहीं थी।”
“लेकिन उस वजह को आप नजरअन्दाज नहीं कर सकती थीं!”
“अच्छा, भई। ऐसे ही सही।”
“अखबारों में ये तो छपा है कि वो परदेसी नहीं था, लोकल बाशिन्दा था और कॉनमैन था जो ऐसी लड़कियों को अपनी हाई फाई ठगी का निशाना बनाता था जिनके पल्ले मोटा माल होता था...जैसे कि आप के पल्ले है।”
“उसने कैसे जाना?”
“ये बात जाहिर होना अभी बाकी है लेकिन मालूम उसे बराबर था। आप जैसी और पैसे वाली लड़कियों की बाबत, जिन्हें कि उसने कामयाबी से ठगा, मालूम था। कैसे मालूम था, इस राज से पर्दा उठना अभी बाकी है।”
“उठेगा?”
“पता नहीं। बहरहाल आप अपने आप को खुशकिस्मत समझिये कि हलाल की जाने के लिये पूरी तरह से तैयार मुर्गी बन चुकने के बावजूद आप बच गयीं क्योंकि शिकारी शिकार हो गया, आप के एडमायरर और होने वाले हसबैंड अंशुल खुराना का कत्ल हो गया।”
“किसने किया?”
“लाख रुपये का सवाल है। आपने तो न किया क्योंकि आप को तो चूना वो लगा न सका वर्ना अपने जैसी और लड़कियों की तरह आप भी उसकी खून की प्यासी होतीं।”
“और लड़कियां?”
“तीन अभी सामने आयी हैं, इस तादाद में इजाफा भी हो सकता है। आप ठगी जा चुकी होतीं तो एक तो और बढ़ ही जाती।”
“लेकिन मैं ठगी जाती कैसे?”
“सुनिये।”
सुनील ने उसे कस्टम ड्यूटी की अतिरिक्त डिमांड से सम्बन्धित वो कहानी सुनायी जो उसने कियारा सोबती से सुनी थी।
देवीना भौंचक्की सी उसका मुंह देखने लगी।
“आप ये खयाल बिल्कुल मन से निकाल दीजिये”—सुनील बोला—“कि जब वो नौबत आती, आप इस जाल में, बल्कि जंजाल में, न फंसतीं। जो लड़कियां फंसीं, वो आप जैसी ही समझदार और दुनियादार थीं। जब वो फंसीं तो कोई वजह नहीं कि आप न फंसतीं। मछली के आगे ये बहुत बड़ा चारा लहरा रहा होता कि उसके नाम कस्टम पर करोड़ों की कनसाइनमेंट पहुंची हुई थी जिसे वो एडीशनल कस्टम ड्यूटी खुद चुकता कर के छुड़ा सकती थी। ये ठगी की वो किस्म है जिस में शिकार का मुकम्मल विश्वास जीता जाना लाजमी होता है। आप के केस में आप समझती हैं कि कोई कसर बाकी थी?”
उसका सिर स्वयमेव इंकार में हिला।
“सोहनयो”—रमाकान्त बोला—“जमूरे से ये सवाल पूछना न सूझा कि वो करोड़ों का कनसाइममेंट तुम्हें क्यों भेज रहा था? जब वो हमेशा के लिए इंडिया लौट रहा था तो साथ ले के आता!”
“मैंने पूछा था।”—वो व्यग्र भाव से बोली।
“जवाब क्या मिला था?”
“बोला था कि काफी सारी असैट्स ऐसी थीं—जैसे कि गोल्ड बिस्कुट्स—जिनको उसने इनकम टैक्स अनपेड अमाउन्ट से खरीदा था। ऐसी अटैट्स वो साथ लाने की कोशिश करता तो उस पर इंकम टैक्स का केस बन सकता था, उससे सवाल हो सकता था कि वो असैट्स खरीदने के लिये उसके पास पैसा कहां से आया, उसने खुद कमाया तो उसे डिक्लेयर क्यों न किया, इंकम टैक्स क्यों न भरा!”
“बकवास!”
“यही सवाल”—सुनील बोला—“कस्टम पर भी तो हो सकता था?”
“वो कहता था कस्टम पर इतनी स्क्रूटिनी नहीं थी, फिर वहां छोटी मोटी रिश्वत भी चल जाती थी।”
“अमरीका में?”
“हां।”
“असल में”—रमाकान्त बोला—“आपने इन बातों पर सिर धुना ही नहीं होगा क्योंकि आप की निगाह में कुछ —बल्कि बहुत कुछ—आ रहा था, कुछ जा थोड़े ही रहा था!”
“ऐग्जैक्टली।”—सुनील बोला—“और बाद में जब जाता तो आप को यही लगता कि जो गया था, उसने बीस गुणा, तीस गुणा, पचास गुणा बन के वापिस लौटना था।”
उसने निहायत संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
“तो आप खुश हैं कि आप लाखों की ठगी से बच गयीं?”
“हां।”—वो हड़बड़ाकर बोली—“बहुत।”
“आप के सद्कर्मों का फल मिला आप को।”
“हां।”
“अब मौजूदा डिसकशन से हट के एक दो बातों का जवाब दीजिये।”
“पूछो।”
“आप होटल स्टारलाइट गयी थीं?”
“कब?”—वो तनिक हड़बड़ाई।
“परसों रात! नौ और दस बजे के बीच!”
“क्या करने?”
“क्या करने! भई, आपने खुद कहा कि अभी आप की उससे एक मुलाकात और होना निश्चित था क्योंकि अभी उसने वो कीमती तोहफा आप की नजर करना था। जिसे वो सोमवार मुलाकात के जोशोजुनून में पीछे होटल में भूल गया था। वो मुलाकात अगले रोज ही तो होनी थी क्योंकि उससे अगले रोज की सुबह तो उसके कथनानुसार उसने राजनगर से कूच कर जाना था!”
वो खामोश हो गयी।
वो दोनों धीरज से उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे।
“ऐसी कोई मुलाकात नहीं हुई थी।”—आखिर वो बोली।
“वजह?”—सुनील बोला—“जब प्रीशिड्यूल्ड थी तो...”
“टाइम मुकरर्र नहीं हुआ था, वो उसने अगले रोज फोन कर के मुकरर्र करना था।”
“कब का?”
“जाहिर है कि शाम का।”
“फोन न आया उसका?”
“न।”
“आपने कर लिया होता!”
“नहीं, भई। यूं मेरी हेठी होती। यूं लगता कि मैं ही मुलाकात के लिये, कीमती तोहफा हासिल करने के लिये मरी जा रही थी।”
“मोटे तौर पर बात तो ठीक है आप की लेकिन सारा दिन फोन काल का इंतजार करने के बाद शायद आखिर आप को खयाल आया हो कि आप को खुद उसके होटल में जाना चाहिए था।”
“रात नौ और दस के बीच!”—उसके स्वर में व्यंग्य का पुट आया।
“हां।”
“क्या करने? उसकी छाती में चाकू उतार कर अपना गिफ्ट कलैक्ट करने?”
सुनील को तुरन्त जवाब न सूझा।
“मैं ने जाकर खामखाह उसे चाकू मार दिया! क्योंकि एकाएक मेरा भेजा हिल गया था! मेरे पर दीवानगी तारी हो गयी थी! अक्ल से मेरा दूर दूर का रिश्ता बाकी नहीं रहा था और एकाएक मेरे में होमीसिडल कम्पलैक्स आ गया था!”
सुनील का सिर मशीनी अंदाज से इंकार में हिला।
“ये न भूलो कि सीधे से मेरे पास कत्ल का कोई उद्देश्य नहीं था क्योंकि फिलहाल मेरे साथ कोई ठगी नहीं हुई थी।”
“या ठगी हुई थी”—रमाकान्त बोला—“हो चुकी थी और किसी वजह से आप इस बात पर पर्दा डाल कर रखना चाहती थीं!”
उसने अपलक रमाकान्त की तरफ देखा।
रमाकान्त ने निर्भीक भाव से उसकी निगाह का मुकाबला किया।
युवती का निगाह भटकी, उसके होंठ भिंचे, फिर एकाएक वो सोफे पर से उठी और घूमकर लम्बे डग भरती, एक दरवाजे पर पड़ा एक पर्दा हटा कर उसके पीछे कहीं गायब हो गयी। जब लौटी तो उसके हाथ में ए-फोर साइज का एक कागज था।
“ये मेरे बैंक एकाउन्ट की स्टेटमेंट है।”—गुस्से से वो कागज रमाकान्त की गोद में डालती बोली—“देखो, देखो इस में कोई लार्ज विदड्राअल है?”
“सोहनयो”—रमाकान्त मीठे स्वर में बोला—“जब आप कहते हो नहीं है तो...”
“अरे, मैं क्या कहती हूं, उसे छोड़ो।”—वो झल्लाई—“बैंक स्टेटमेंट क्या कहती है, उसे देखो।”
रमाकान्त स्टेटमेंट पर निगाह फिराने लगा।
“ब्राइटआइज़”—सुनील बोला—“मैंने तो कहा था कि आप को आप के सद्कर्मों का फल मिला था जो आप लाखों की ठगी से बच गयी थीं।”
“मैंने सुना था।”—वो बोली—“लेकिन तुम्हारे जोड़ीदार ने नहीं सुना था।”
“मुबारकां, सोहनयो।”—रमाकान्त बैंक स्टेटमेंट सेंटर टेबल पर डालता बोला—“आप का पैसा आप के बैंक में सेफ है।”
“हो गयी तसल्ली!”—वो व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली।
“हां। अब सॉरी टिका लो और ठण्ड रखो।”
उसने रमाकान्त से निगाह न मिलाई।
“तो”—सुनील बोला—“आप मंगलवार रात को होटल स्टारलाइट नहीं गयी थी।”
“फिर वहीं पहुंच गये!”—वो भुनभुनाई।
“सनशाइन, मैं पूछ नहीं रहा था, महज लाउड थिकिंग कर रहा था कि तुम इतनी गैरतमन्द, इतनी खुद्दार लड़की हो कि विदाउट फार्मल इनवीटेशन तुम्हें उसके पास जाना कुबूल नहीं था। ओके नाओ?”
उसने जवाब न दिया।
“किसी मंगला को जानती हो?”—सुनील ने एकाएक पूछा।
“नहीं।”—माथे पर बल डालती वो बोली—“कौन है वो?”
“है कोई। बरायमेहरबानी जवाब दीजिये, आप इस नाम की किसी महिला को जानती हैं?”
“नहीं।”
“कभी नाम सुना हो किसी की जुबानी! खास तौर से अपने...अंशुल खुराना की जुबानी?”
“नहीं।”
“तो आपने कभी पांच इंच की स्टिलेटो हील वाली सैंडलें नहीं पहनीं?”
“हां।”
“वो सलामत रहता तो अब पहनतीं?”
“हां, शायद।”
“वैसे हील पहनती तो हैं न आप!”
“पहनती हूं, लेकिन तीन इंच से ज्यादा नहीं।”
“आई सी।”
“एक बार चार इंच पहनी थी तो दस मिनट में तीन बार लड़खड़ाई थी। चौथी बार तो गिरने से बाल बाल बची थी और पांव में मोच आ गयी थी?”
“फिर तो अब पांच इंच पहनतीं तो... प्राब्लम होती!”
“अरे, भई, जो काम हुआ नहीं, अब होना भी नहीं, उस पर क्यों सिर धुन रहे हो?”
“क्योंकि ख्वाहिश है कि मैं जनाना सैंडलों की जानकारी हासिल करूं।”
“करो ये वाहियात ख्वाहिश पूरी लेकिन जा कर बाजरिया बीवी अपनी ख्वाहिश पूरी करो।”
“बीवी नहीं है। खुशकिस्मती से मेरी अभी शादी नहीं हुई।”
“खुशकिस्मती से!”
सुनील निर्दोष भाव से मुस्कराया, फिर एकाएक उठ खड़ा हुआ—“इजाजत चाहते हैं। सहयोग का शुक्रिया।”
रमाकान्त भी उठा।
“अरे, बैठो”—वो जल्दी से बोली—“मैं कुछ पीने को लाती हूं।”
“आई विल हैव ए लार्ज अमरीक सिंह काला बिल्ला विद सोडा।”—रमाकान्त बोला—“थैंक्यू।”
देवीना ने सकपका कर रमाकान्त की तरफ देखा।
“मजाक कर रहा है।”—सुनील बोला।
“लेकिन अमरीक सिंह काला बिल्ला!”
“जानी वाकर ब्लैक लेबल को कह रहा है।”
“ओह!”
“आप खातिर जमा रखिये, हमें किसी चीज की जरूरत नहीं।”
“जरूरत हो भी तो, सोहनयो”—रमाकान्त पूरी संजीदगी के साथ बोला—“वो आते वक्त होती है, जाते वक्त नहीं। जाते वक्त ‘वन फार दि रोड’ होता है जो मैंने बोल दिया और जिसे मित्तर प्यारे ने मजाक कह दिया।”
“आप”—वो भुनभुनाई—“मुझे एटीकेट सिखा रहे हैं।”
“नहीं, जी। सीखे सिखायों को कौन सिखा सकता है!”
“अजीब आदमी हो!”
“पहचाना तो ठीक लेकिन अजीब ये है, मैं आदमी हूं।”
सुनील ने रमाकान्त की बांह खींची।
“हला हला।”—वो बोला।
सुनील ने मेजबान का फिर शुक्रिया अदा किया। फिर दोनों ने वहां से रुखसत पायी।
“क्यों लड़की की क्लास लेने लग गये थे?”—बाहर आ कर सुनील बोला।
“तो और क्या करता?”—रमाकान्त हाथ नचाता बोला—“मेजबान कोई कर्टसी आफर करता है तो मेहमान की आमद पर करता है या उसकी रुखसती पर?”
“तुम्हारी बात ठीक है लेकिन मेजबान से कोताही हुई तो कोताही मेजबान के मुंह पर तो नहीं मारनी चाहिये!”
“तो और कहां मारनी चाहिये?”
“मेरा मतलब है ऐसी बातों को नजरअन्दाज किया जाता है।”
“अच्छा!”
“हां।”
“तेरे को पक्का पता है?”
“हां।”
“चल, ठीक है फिर। अगली बार करूंगा नजरअन्दाज। अब तू मेरे को एक बात बता।”
“क्या?”
“जब तूने बीवी की बात मान ली कि मंगलवार शाम को वो होटल नहीं गयी थी तो उसे सैंडलों की बाबत क्यों टटोल रहा था? मंगला की बाबत टटोलने की तो तूने वजह निकाल ली कि शायद मकतूल ने उससे किसी मंगला का कोई जिक्र किया हो लेकिन जब वो होटल गयी ही नहीं, मकतूल के कमरे में गयी ही नहीं तो सैंडलों से उसका क्या लेना देना था?”
“वो सैंडलें उसके लिये थीं।”
“ओये, मां सदके, तूने खुद उसे गैरतमन्द, खुद्दार लड़की करार दिया या नहीं दिया?”
“दिया?”
“तो सैंडलों से क्यों उस का रिश्ता जोड़ने पर तुला था?”
“कोई खास वजह नहीं। बस, यूं ही।”
“यूं ही। मार्इंयवे अन्ने कुत्ते हिरणा दे शिकारी।”
सुनील हँसा।
“हस्सया ई कंजर।”
सुनील संजीदा हुआ।
“अब बोल, कहां चलें?”
सुनील ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली।
“अब तो”—फिर बोला—“वहीं चलें जहां दोनों तरफ खुला है ठेका तेरी गली में।”
“ज्यूंदा रह। यानी यारां नाल बहारां?”
“मेले मित्तरा दे।”
“शावाशे!”
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