शुक्रवार : 19 मई : मुम्बई दिल्ली
“बाप, वो भीड़ू” - इरफान बोला - “जो कल रात सोहल का फरियादी बन कर पनाह तलाशता इधर आया था....”
विमल ने उस सुबह की चाय की अपनी पहले प्याली पर से सिर उठाया ।
“ख्वाजा नाम था उसका ।” - इरफान बोला ।
“क्या हुआ उसे ?”
“खलास ।”
“अच्छा !”
“हां । कल ही रात । लगता है इधर से निकलते ही काम हो गया । होटल से बाहर वाली सड़क पर कोई आधा मील आगे एक पेड़ के नीचे से उसकी गोलियों से बिंधी लाश बरामद हुई ।”
“यानी कि वो सच बोलता था कि उसकी जान को खतरा था ?”
“हां । आखिर में बोल कर गया था कि जाता हूं मौत की आगोश में । सीधा वहीं पहुंचा । दायें बायें कहीं भी न भटका ।”
“हमने उसके साथ ज्यादती की ।”
“नहीं, बाप । जो वो चाहता था, जैसे वो चाहता था, वो कहीं होता है !”
“जब जान से गया तो दुश्मन का भेदिया तो न हुआ न ?”
“वो तो है । पण उस वक्त ऐसा सोचना जरूरी था और जो सोचा था, उस पर अमल करना जरूरी था ।” - इरफान एक क्षण ठिठका और फिर तनिक विचलित स्वर में बोला - “और, बाप....”
“हां ।”
“तेरे को अपना खून माफ करके गया ।”
“ऐसा ?”
“हां । आखिर में यहीच बोल के गया कि सोहल को बोलना कि उसके एक शैदाई ने अपना खून उसे माफ किया ।”
“दाता !”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
विमल ने चाय की प्याली खाली कर के एक तरफ रखी और फिर तनिक उत्सुक भाव से बोला - “वो काम क्या था जो ‘भाई’ उससे करवाना चाहता था ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ? तेरी सुपारी लेने को बोलता होगा ?”
“ये तो तेरा अन्दाजा हुआ न ? वो क्या बोला ?”
“वो बोला तो था कुछ पण मैंने कान नहीं दिया था । मैं उसे इधर से जल्दी नक्की होना जो मांगता था ।”
“तुझे उसकी बात ध्यान से सुननी चाहिये थी ।”
“अब तब क्या मालूम था कि....”
“वो बात तो ध्यान से सुननी हो चाहिये थी । मेरे खिलाफ जिस काम को करने से उसने इंकार किया, उससे जरूरी थोड़े ही है कि हर कोई इनकार करे ?”
“ये चूक तो हुई, बाप ।”
“किसी खास चाल की एडवांस में खबर हो तो उसका तोड़ भी तो एडवांस में सोच के रखा जा सकता है ?”
इरफान खामोश रहा, उसकी सूरत पर स्पष्ट खेद के भाव थे ।
“इस वाकये से हमें कोई सबक लेना चाहिये ।”
“क्या ? आइन्दा कोई ख्वाजा की माफिक तेरे को पूछता इधर पहुंचे तो उसे तेरे पास आने दिया जाये ?”
“नहीं । हरगिज नहीं । वो नहीं चलेगा ।”
“तो ?”
“कोई दूसरा ठिकाना स्थापित करना पड़ेगा ।”
“दूसरा ठिकाना ?”
“जिसके बारे में अफवाह हो कि उस ठिकाने के जरिये सोहल के कद्रदान मेहरबान उस तक पहुंच बना सकते थे । बना सकते थे कहा मैंने । गारन्टी कोई नहीं ।”
“जैसे भिंडी बाजार की ट्रैवल एजेन्सी में फोन करने से इनायत दफेदार तक पहुंच बनती है ?”
“और पहले छोटा अंजुम तक बनती थी । अभी और पहले इब्राहीम कालिया तक बनती थी ।”
“मैं समझा, बाप । पण ऐसा ठिकाना... चैम्बूर में तुका का घर कैसा रहेगा ? खाली पड़ेला है और हमारे कब्जे में है ।”
“उधर की तो और भी प्रापर्टी हमारे कब्जे में है - जैसे कि तुका के आजू बाजू के घर, सामने के घर - जिनका कि हम कभी कोई इस्तेमाल न कर सके ।”
“तुका तन्दुरुस्त होकर वापिस लौटा था, सलामत रहता तो अब करते ।”
“हां ।” - विमल ने गहरी सांस ली - “खामखाह मर गया । बीमार न मरा, तन्दुरुस्त हो के मरा । जैसे कि मरने के लिये ही तन्दुरुस्त हुआ था ।”
इरफान चुप रहा ।
“ठीक है तुका का घर । बढिया रहेगा ।”
“मैं उधर दो आदमी बिठाता हं ।”
“ठीक है ।”
“बाप, ख्वाजा के साथ कल जो हुआ सो बुरा हुआ पण हमारी भी मजबूरी थी, फिर भी कल के वाकये से एक सबक हमें मिलता है ।”
“क्या ?”
“‘भाई’ अब पहले जैसा ताकतवर नहीं रहा ।”
“मैं नहीं मानता ।”
“तू इसलिये नहीं मानता, बाप, क्योंकि तू अपने आपको ताकतवर नहीं मानता । क्योंकि अभी तू उस ताकत को नहीं पहचानता जो कि तेरे पहचनवाये बिना भी अन्डरवर्ल्ड में तेरी बन गयी है ।”
“मेरी कौन सी ताकत ? इतने से मेरी ताकत साबित हो गयी कि एक आदमी फरियाद करता यहां पहुंच गया ?”
“क्यों पहुंच गया ? क्योंकि उसने ‘भाई’ की हुक्मउदूली की जुर्रत की । क्यों की ? क्योंकि वो ‘भाई’ को सोहल जितना ताकतवर नहीं मानता । इसका क्या मतलब हुआ ? ये कि अब अन्डरवर्ल्ड में ‘भाई’ का कहा खुदा का हुक्म नहीं रहा ।”
“किसी एक शख्स के हुक्मउदूली करने की जुर्रत करने से ये साबित नहीं होता ।”
“होता है ।”
“जवाब उस शख्स के अंजाम को निगाह में रख कर दे ।”
“वैसीच दिया है । बाप, एक पहल तो हुई । ख्वाजा मरा या जिया, एक पहल तो कर गया ।”
“हूं ।”
“उसको मरवाना ‘भाई’ की मजबूरी थी । वो ऐसा न करता तो उसका जलवा-जलाल बिलकुल ही बैठ जाता ।”
“चलो, बहस के लिये मान लिया कि दिल्ली के वाकये के बाद ‘भाई’ पिलपिला रहा है और मैं ताकतवर समझा जा रहा हूं, इससे हमें क्या फायदा हुआ ?”
“आगे होगा ।”
“कैसे ?”
“अब ‘भाई’ के कैम्प का कोई आदमी फोड़ लेना आसान होगा ।”
“तू ऐसी कोशिश करेगा ?”
“जरूर करूंगा । अगर तूने ‘भाई’ को लुढकाना है तो उसके करीब पहुंचने का कोई जरिया तो बनाना होगा न, बाप !”
तभी विमल के मोबाइल फोन की घन्टी बजी ।
उसने कॉल रिसीव की ।
मुबारक अली का फोन था सुबह सवेरे ।
उसने बातचीत मुकम्मल की, मोबाइल बन्द किया और फिर गहरी सांस लेता बोला - “शायद तू सच ही कह रहा है, मियां ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“मैं सच में ही ताकतवर समझा जाने लगा हूं ।”
“वो तो है ही, मैं बरोबर ऐसा बोला, पण अब तेरे को कैसे मालूम पड़ा ?”
“अभी दिल्ली से मुबारक अली का फोन था । बोलता है चार में से तीन बिरादरीभाई अन्डरग्राउन्ड हो गये हैं, ढूंढे नहीं मिल रहे ।”
“देखा ?” - इरफान विजेता के से स्वर में बोला ।
“और चौथा बिरादरी भाई, पवित्तर सिंह, मेरे से पनाह पाना चाहता है...”
“सोहल के खौफ का मारा ।”
“...अपनी खता बख्शवा कर मेरी शरण में आना चाहता है ताकि बिरादरीभाइयों का कहर उस पर टूटे तो मैं उसका मुहाफिज बन सकूं ।”
“तभी तो बोला, बाप, कि तू अपनी ताकत नहीं पहचानता ।”
“मुहाफिज ! मैं !” - विमल के स्वर में एकाएक उदासी झलक आयी - “जो नामुराद शख्स अपनी बीवी का मुहाफिज न बन सका, वो किसी दूसरे का मुहाफिज क्या बनेगा ?”
इरफान से कुछ कहने न बना ।
“खबर आयेगी, बाप” - आखिरकार वो दबे स्वर में बोला - “जरूर आयेगी ।”
“वाहे गुरु, जीऊ जंत सभि सरण तुम्हारी, सरब चिंत तुध पासे ।”
***
सुबह सवेरे मुबारक अली तिराहा बैरम खान के हवेलीनुमा मकान के सेहन में एक तख्तपोश पर बैठा था और अपने सामने खड़े अपने चौदह भांजों पर गरज बरस रहा था ।
“नामाकूल ! नालायक ! नादानिस्त ! गैरजिम्मेदार ! अरे, अल्लामारो, अब मैं सोहल को क्या जवाब दूंगा ?”
कोई कुछ न बोला ।
“अल्लाह ! एक एक पै तीन तीन निगाहबीन फिर भी कुछ न कर सके मनहूससूरत ।”
“मामू” - हाशमी झिझकता हुआ बोला - “जान की अमान पाऊं तो मैं कुछ अर्ज करूं ?”
“कौन बोला, कम्बख्तमारो ?”
“मैं बोला, मामू ?”
“तू ? तू कया अर्ज करना चाहता है ? तू तो निगाहबीनों में नहीं था ? तू तो मेरे साथ था ? ...अच्छा ! सब की तरफ से बोलना चाहता है ? वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, लीडरी करना चाहता है ?”
“नहीं, मामू ।”
“कह, क्या कहना है ?”
“मामू, मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि कोताही किसी से नहीं हुई ।”
“तो फिर क्या हुआ ?”
“अनोखा या गैरमामूली कुछ नहीं हुआ ।”
“क्यों नहीं हुआ ? बराबर हुआ ! वो गायब हो गये ।”
“जो शख्स इस बात से वाकिफ हो कि उसकी निगाहबीनी हो रही थी, उसे गायब होने से कोई नहीं रोक सकता ।”
“क्यों वाकिफ हो ? क्यों होने दी वाकफियत ?”
“हो के रहती है देर सवेर । इतना अन्धा कोई नहीं होता । खबरदार शख्स की निगाहबीनी के लिये तीन क्या, दस जने भी काफी नहीं ।”
“नाकारो ! ये बात तब क्यों न बोले जबकि ये काम, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सौंपा गया था ?”
“तुम्हारे सामने कोई जुबान खोल सकता है, मामू ? किसी की शामत आई है जो....”
“अच्छा ! ये जो फर्ल-फर्ल बोल रहा है, मुंह बन्द करके बोल रहा है ?”
“अब तो मजबूरी है । जवाबदारी तो करनी ठहरी ।”
“मजबूरी है ।” - मुबारक अली बड़बड़ाया, कुछ क्षण खामोश रहा और फिर एकदम भड़का - “और वो कहां है बड़ी चिरानगोई जो शीशे की जगह भाई की शक्ल देख के हजामत बना लेता है ।”
अली मुहम्मद आगे आया ।
फिर उसका जुड़वां वली मुहम्मद भी उसके करीब सरक आया ।
“तीसरा कौन था तुम्हारे साथ ?” - मुबारक अली बोला ।
“मैं, मामू ।” - इमरोज बोला ।
“अब एक जना बोले । तीनों ने चबर चबर की तो एक पड़ेगा कनपटी पै । समझे ?”
“हां, मामू ।” - अली जैसे अपने ग्रुप की लीडरी की हाजिरी लगाने के लिये बोला ।
“सरदार के पीछे थे न ?”
“हां, मामू ।”
“कैसे खिसक गया ?”
“पुलिसिये ने मदद की । राजघाट क्रासिंग की लालबत्ती पर उसकी कार खड़ी थी । हम अपनी कार में उसके पीछे थे । उसने उतर कर ट्रैफिक के सब-इन्स्पेक्टर से कोई खुसर फुसर की और वापिस कार में आ बैठा । आगे हरी बत्ती हुई तो वो तो चल दिया, सब-इन्स्पेक्टर ने हमें रोक लिया ।”
“खामखाह !”
“खामखाह ही, मामू, खामखाह ही ।”
“मिलीभगत थी ।” - वली भाई की हिमायत में बोला ।
“मैं बोला तेरे को बोलने को ?” - मुबारक अली आंखें निकालता बोला ।
वली ने जोर से थूक निगली ।
“मैं बोला एक जना जना बोले । नहीं सुनता ।”
“सॉरी ।”
“अब मेरे पै अंग्रेजी का रोब गांठेगा ?”
“खता माफ, मामू ।”
“और कान से मैल निकलवा पहली फुरसत में । कम सुनता है तेरे को ।”
वली खामोश रहा ।
“तू बोल” - मुबारक अली अली की तरफ घूमा - “क्या कह रहा था ?”
“मैं कह रहा था कि सब-इन्स्पेक्टर ने हमें रोक लिया, लाइसेंस चैक किया, गाड़ी के कागज चैक किये, गाड़ी की तलाशी ली तब जाने दिया । तब तक सरदार अपनी एस्टीम पर कहां का कहां पहुंच गया । ढूंढे न मिला ।”
“ये कब का वाकया है ?”
“कल सुबह ग्यारह बजे का ।”
“उसके बाद कहीं ढूंढा ?”
“बहुत जगह ढूंढा । उसका घर, दफ्तर, गोदाम, हर जगह का चक्कर लगाया । उसके जोड़ीदारों के भी ठीये टटोले - यहां तक कि झामनानी के फार्म पर भी गये - लेकिन... वो न मिला ।”
“बस ? कहानी खत्म ?”
“अभी नहीं, मामू ।”
“शुक्र है । आगे बोल ।”
“उस फजीहत के बाद हमने हाशमी भाई से बात की थी । तब हमें पता चला था कि सरदार छ: बजे होटल रेडीसन पहुंचने वाला था । मामू, हमारा यकीन करना, हम साढे चार बजे ही वहां पहुंच गये और होटल के सामने पीछे और बाजू से दाखिले वाले दरवाजे पर तैनात हो गये लेकिन वो न पहुंचा ।”
“क्या !”
“एक बार खता खाने के बाद हम कितने मुस्तैद थे, इसका सबूत ये है कि हम से वो आदमी न छुपा रहा जो कि होटल के सामने पार्किंग में मौजूद था और हमारी ही तरह हर आवाजाही पर निगाह रखे था ।”
“कोई और भी था वहां ?”
“हां, मामू । नीली ओमनी में ।”
“वो किस की फिराक में था ?”
“मेरे को तो तुम्हारी ही में लगा था ।”
“क्या !”
“तुम्हारे भीतर दाखिल होते ही तुम्हारे पीछू गया । पांच मिनट बाद फिर गया ।”
“फिर ?”
“फिर आधे घन्टे बाद एक और आदमी ओमनी वाले के पास पहुंचा जिसे कि हम जानते हैं कि झामनानी का खास आदमी मुकेश बजाज था । उसने ओमनी वाले से कोई गुफ्तगू की, तभी तुम बाहर निकले और हाशमी के साथ टैक्सी में सवार होकर चल दिये । तब बजाज ओमनी से उतर गया, एक और आदमी ओमनी में सवार हुआ और ओमनी तुम्हारी टैक्सी के पीछे चल दी ।”
“हूं ।” - मुबारक अली हाशमी की तरफ घूमा - “क्यों भई, तुझे खबर न लगी कि कल उधर रेडी के सन पर कोई मेरी निगाहबीनी कर रहा था ?”
“लगी ।” - हाशमी बोला - “अली के बताये लगी ।”
“अपने आप तो न लगी ?”
“अपने आप वाली नौबत हो न आयी । पहले ही अली मिल गया । तुम्हारा हुक्म भी तो था कि मैं इन लोगों का पता करूं ।”
“हूं । तो वो झामनानी के आदमी वापसी में मेरी टैक्सी के पीछे भी लगे और टैक्सी चलाते हमारे अच्छे मियां को उनकी खबर न लगी ?”
“खामखाह !”
“यानी कि लगी ?”
“अभी तक खबर है । एक तिराहे पर बैठा है, दूसरा कहीं गया है, लगता है लौट आयेगा ।”
“क्यों बैठा है ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“है । है पूछने की बात ।”
“मामू, साफ जाहिर है कि झामनानी को किसी तरीके से खबर लग गयी थी कि रेडीसन में पवित्तर सिंह की तुम्हारे से मुलाकात होने वाली थी । इस बात की तसदीक के लिये उसने अपने आदमी वहां तैनात किये । वो तसदीक हो जाती तो यकीनन पवित्तर सिंह पर गद्दारी का इलजाम आयद होता और फिर झामनानी जरूर उसकी कोई खबर लेता । लेकिन मुलाकात तो न हुई ।”
“कौन कहता है ?”
“झामनानी के आदमियों का तुम्हारे पीछे लगना कहता है । अभी भी तुम्हारे पीछे लगे होना कहता है कि उन्हें उम्मीद है कि जो मुलाकात कल रेडीसन में न हो सकी, वो आज कहीं होगी ।”
“तू क्या कहता है ?” - मुबारक अली अली की तरफ घूमा ।
“मामू” - अली बोला - “हम पीछे आठ बजे तक ठहरे थे । जैसे हमने उसे वहां आते नहीं देखा था, वैसे वहां से जाते भी नहीं देखा था । जब वो न आया न गया तो मुलाकात....”
“हुई थी । बराबर हुई थी ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“सोच । आखिर बड़ी चिरानगोई है ।”
“गुस्ताखी माफ, मामू, क्या कहना चाहते हो ?”
“अरे कमअक्ल, वो इसलिये आता नहीं दिखाई दिया था, इसलिये जाता नहीं दिखाई दिया था क्योंकि उसने कहीं से आना नहीं था, कहीं जाना नहीं था । वो वहीं था । शर्तिया उसने वहां दो कमरे लिये हुए थे - एक चार सौ पांच, जिसमें वो मेरे से आ के मिला और दूसरा कोई और जिसमें कि वो अपना मौजूदा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मुकाम बनाये है । मेरे बच्चो, जो शख्स तुम्हें गच्चा दे गया और फिर तुम्हें ढूंढें न मिला वो अभी भी उस होटल रेडी के सन में ही है, इस पर कोई शर्त बदे तो तुम्हारा मामू एक पर पांच हारेगा ।”
भांजे जानते थे कि उनका मामू उन पर फर्जी खफा होता था इसलिये उसकी झाड़ फटकार को वो कभी खातिर में नहीं लाते थे लेकिन वो आखिरी फिकरा खफा होकर कहना तो दूर, उसने ऐसे अनुराग से कहा कि भतीजे बाग बाग हो गये ।
“हम वहां पहुंचते हैं ।” - अली जोश से बोला ।
“फौरन से पेश्तर ।” - वली बोला ।
“बस पहुंचे कि पहुंचे ।” - इमरोज बोला ।
तीनों एक साथ तीर की तरह बाहर को लपके ।
“अरे, रुको....”
“मत रोको, मामू ।” - अली बोला - “मंजिल खोटी ही रही है ।”
“अरे, तुम्हारे मतलब की बात है ।”
तीनों ठिठके ।
“सरदार वहां हुआ भी तो कैसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तसदीक कर पाओगे ? इतने बड़े होटल में उसे कैसे तलाश कर पाओगे ? क्या जाकर एक एक कमरे के दरवाजे पर दस्तक दोगे ? ऐसा कौन करने देगा तुम्हें ? रिसैप्शन से पूछना भी बेकार होगा, वो किसी और नाम से वहां ठहरा हो सकता है...”
“या” - हाशमी बोला - “होटल की बुकिंग किसी और के नाम से कराई गयी हो सकती है ।”
“बड़ी हदये कर सकोगे कि उधर से निकासी के तमाम रास्तों की पहरेदारी करोगे, उसने होटल से बाहर कदम न निकाला तो पड़े सूखते रहोगे ।”
“हम कर लेंगे कुछ ।” - अली अनिश्चित भाव से बोला ।
“मेरे को यकीन है कर लोगे । इस वक्त जोश में हो इसलिये यकीनन कुछ कर गुजरोगे पण मामू के पास एक आसान तरीका है जो कि, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कारआमद साबित हो सकता है ।”
“क्या ?”
“तुम आधे पौने घन्टे में उधर पहुंचोगे । एक घन्टे बाद मैं उसके मोबाइल नम्बर पर - जो कि उसने खुद मुझे दिया है - फोन लगाऊंगा और उसे बोलूंगा कि सोहल का हुक्म है कि वो फौरन मुम्बई होटल सी-व्यू पहुंचे । अगर वो सच में सोहल से पनाह पाने का तमन्नाई है तो फौरन ही ऐसा करेगा । अब ऐसा वो कैसे करेगा ?”
“कैसे भी करेगा, मामू, सबसे पहले तो होटल से बाहर निकलेगा ।”
“और मैं क्या बोला ? यहीच तो बोला ।”
“ठीक है, मामू । एक घन्टे बाद फोन लगाना ।”
तीनों फिर बाहर को लपके ।
“अरे, कम्बख्तमारो” - पीछे से मुबारक अली बोला - “सब के लिये बेडमी कचौड़ी मंगायी हैं, वो तो खा के जाओ ।”
“अब तो मत रुके, मामू ।” - अली बेाला ।
“अरे, तुम्हारी अम्मा सुनेगी कि तुम्हें भूखे पेट रवाना कर दिया तो मुझे बद्दुआयें देगी ।”
“झेल लेना ।”
पीछे मुबारक अली सिर झुका कर, मुंह पर हाथ रख कर खांसने के बहाने अपनी एकाएक डबडबा आयी आंखों को पोंछने लगा ।
“भूखे पेट चले गये सुबह सवेरे ।” - वो खांसता हुआ बोला - “देखा, अल्लामारो ! इसे कहते हैं फरजन्दी ! इसे कहते है बरखुदारी !”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“मामू” - फिर हाशमी बोला - “जो बाहर तिराहे पर बैठे हैं, उनका क्या करना है ?”
“सूखने दे कमीनों को ।” - मुबारक अली बोला - “आज मैं घर से ही नहीं निकलने का । बस एक जरा सोहल को एक बार फिर फोन लगा लूं, उसके बाद लम्बी तान के सोता हूं ।”
“बढिया ।”
***
इनायत दफेदार ने डी.सी.पी. डिडोलकर के घर फोन किया ।
“आज शनिवार है ?” - डिडोलकर बोला ।
“ऐसीच फोन लगाया । सोचा शायद ‘भाई’ के लिये कोई खबर हो ! शायद शनिवार से पहले ‘भाई’ के लिये कोई खबर हो !”
“नहीं है लेकिन....”
“‘भाई’ थोड़ा शुकराना, थोड़ा रोकड़ा भेजा । मिला ?”
“मिला । ‘भाई’ को मेरा शुक्रिया बोलना ।”
“बोलेगा । तो मैं कट करता है ।”
“नहीं, नहीं । अभी नहीं । अभी सुनो ।”
“बोलो, बाप ।”
“सच पूछो तो मैं भी तुम्हें फोन लगाने ही वाला था ।”
“ऐसा ?”
“हां । एक काम करो ।”
“बोलो, बाप ।”
“एक तहरीर तैयार करो जिसमें दर्ज हो कि राजा गजेन्द्र सिंह जो कि अपने आपको दो महीने पहले नैरोबी से आया एन.आर.आई. बताता है असल में एक इललीगल इमीग्रेन्ट है ।”
“क्या है, बाप ?”
“अवैध प्रवासी । गैरकानूनी ढंग से भारत में मौजूद शख्स । इललीगल इमीग्रेंट ।”
“अब समझा, बाप । आगे बोलो ।”
“तहरीर में आगे दर्ज हो कि उसके पास न पासपोर्ट है, न वीजा है और न दो महीने पहले के किसी शिप से या किसी प्लेन से उसकी भारत में आमद का कहीं कोई रिकार्ड है ।”
“और ?”
“और बस । अभी इतना काफी है ।”
“इससे क्या होगा ?”
“वो सब छोड़ो तुम । जब कुछ होगा तो खबर कर दी जायेगी । अभी जो बोला है, वो करो ।”
“समझो हो गया । तहरीर तैयार करके क्या करें ?”
“मेरे को भेजो ।”
“कैसे ? कहां ?”
“मेरे आफिस में । फैक्स से या ई-मेल से । फैक्स नम्बर और ई-मेल अड्रैस नोट करो ।”
दफेदार ने किया ।
***
पवित्तर सिंह ने मोबाइल की कॉल खत्म करके उसे वापिस जेब में रखा और अपने कमरे से निकल कर नीचे लॉबी में पहुंचा जहां कि इन्डियन एयरलाइन्स का काउन्टर था ।
“मुम्बई ।” - वो क्लर्क से बोला - “कब का टिकट मिल सकदा है ?”
“आप कब जाना चाहते हैं, सर ?” - क्लर्क आदरपूर्ण स्वर में बोला ।
“फौरन ।”
“फौरन ।” - क्लर्क ने दोहराया और फिर अपने कुछ कागजात उलटे पलटे और कम्प्यूटर पर कुछ डाटा निकाला ।
“इत्तफाक से अभी कुछ कैंसलेशंस हुई हैं ।” - फिर वो बोला - “आप साढे दस बजे की फ्लाइट से जा सकते हैं ।”
“वदिया ।”
“बट यू विल हैव टू हरी अप, सर ।”
“ओये काका, तू हरी आप करेगा तो मैं करूंगा न ! टिकट बना ।”
“यस, सर ।”
पवित्तर सिंह ने क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करके टिकट हासिल किया ।
वो वापिस अपने कमरे में पहुंचा जहां से उसने रिसैप्शन पर फोन लगाया ।
“मैं चैक आऊट कर रहा हूं ।” - वो बोला - “रूम नम्बर चार सौ पांच और दो सौ तीन का कट्ठा बिल मेरे पास दो सौ तीन में भेजो ।”
“यस, सर ।”
“मैनूं होर वी कम्म है । बिल कोई जिम्मेदार आदमी ले के आये । समझ गये ?”
“यस, सर ।”
पवित्तर सिंह ने रिसीवर रख दिया और अपना सामान पैक करने लगा ।
दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
“खुल्ला ए ।” - वो उच्च स्वर में बोला ।
काले कोट और टाई वाला एक युवक भीतर दाखिल हुआ । उसने पवित्तर सिंह का अभिवादन किया और बिल का फोल्डर मेज पर रखा ।
“युअर बिल, सर ।” - वो बोला ।
“कौन हो, भई ?” - पवित्तर सिंह ने पूछा ।
“असिस्टेंट मैनेजर, सर ।”
“असिस्टेंट मैनेजर साहब, इक कार आजादपुर पौंचानी ए । इंतजाम कर सकोगे ?”
“हो जायेगा, सर ।”
“तो ये चाबी पकड़ो । सफेद एस्टीम । पार्किंग में खलोती है । नम्बर डी एल 7 सी 1199 है । ये आजादपुर का पता है । चाबी इस कोठी के लैटर बक्स विच पा देनी है । ये हजार रुपये, ड्राइवर का वापिसी का टैक्सी का किराया और उसकी टिप ।”
युवक ने सब सामान काबू में किया ।
“ये मेरा क्रेडिट कार्ड । बिल दे नाल नीचे ले जा, मैं रिसैप्शन से ले लूंगा ।”
“यस, सर ।”
“और ये तेरा नजराना ।” - पवित्तर सिंह ने उसे एक सौ का नोट दिया ।
“थैंक्यू, सर ।”
“मैं पंज मिंट में नीचे आ रहा हूं । एयरपोर्ट वास्ते एक टैक्सी बुला के रखना ।”
“यस, सर ।”
निर्विघ्न पवित्तर सिंह एयरपोर्ट पर पहुंचा ।
उसने टैक्सी का भाड़ा चुकाया, अपना हल्का सा सूटकेस काबू में किया और टर्मिनल की तरफ बढा ।
उसने लाउन्ज में कदम रखा ।
तभी एक जोर की धौल उसके कन्धे पर पड़ी ।
वो चिहुंक कर वापिस घूमा ।
पीछे ब्रजवासी खड़ा हंस रहा था ।
“किधर चले, गुरमुखो ?” - वो बोला ।
“किद्दर वी नईं, वीर मेरे ।” - पवित्तर सिंह यूं खिसियाया सा हंसा जैसे चोरी करता पकड़ा गया हो - “किसी नू रिसीव करन आया हूं ।”
“किसे ?”
“एक रिश्तेदार है, लंदन से ।”
“ये तो डोमेस्टिक टर्मिनल है ! लंदन की फ्लाइट का इधर क्या काम ?”
“लंदन से आ चुका है । फेर बैंगलौर गया सी । हुन बैंगलौर से आ रहा है ।”
“एस्टीम कहां गयी ?”
“एस्टीम कहां गयी, की मतलब ?”
“अभी टैक्सी से इधर पहुंचे न, इसलिये पूछा ।”
सप्प लड़े माईयवे नूं । सब ताड़ी बैट्ठा ए ।
“रास्ते च विगड़ गयी ।” - प्रत्यक्षत: वो बोला ।
“नयी गाड़ी ?”
“की पता लगदा ए अज्जकल, भ्रावा ! वन्दा भी नवां नकोर ही होता है कि चल चल हो जाती है ।”
“वो तो है । ...मैंने तुम्हारे हाथ में सूटकेस देखा, टैक्सी से उतरते देखा तो यही समझा था कि अपने सरदार जी कहीं जा रहे थे ।”
“सूटकेस ?”
“जो तुम्हारे हाथ में है ।”
“ओह ! ये सूटकेस ! ये तो कुज समान ए जो मैं अपने बैंगलौर तों आते रिश्तेदार नू अग्गे लुधियाने ले जान वास्ते सौंपना है ।”
“ओह ! मोबाइल ऑफ रखते हो ?”
“क्या ? नहीं तो ।”
“तो कोई खराबी आ गयी होगी ?”
“खामखाह !”
“सिन्धी भाई शिकायत कर रहा था, बोलता था सरदार का मोबाइल लगाओ तो जवाब नहीं मिलता ।”
“इक वारी ओदी कॉल मिस होई सी । फोन गड्डी च रह गया सी गलती नाल । मैं ने वापिस कीत्ता तो उसदा न मिलया ।”
“हो जाता है ऐसा कभी कभी ।”
“हुन अपनी तां बोल, भैय्यन, तेरी किद्दर दी तैयारी ए ?”
“मुम्बई जा रहा हूं ।”
“अभी ?”
“और कब ? साढे दस बजे की फ्लाइट है इन्डियन एयरलाइन्स की ।”
“कमला हो गया है ? लोग मुसीबत तों दूर भागते हैं, तू मुसीबत की तरफ भाग रहा है ?”
“चिराग तले अन्धेरा ।”
“अच्छा !”
“हां ।”
“फिर कल्ला क्यों जा रहा है, सब चलते हैं ?”
“चिराग का अन्धेरा सबको नहीं ढंक सकेगा ।”
“वजह कोई और है, बिरजवासी ।”
“अभी तो ये ही वजह है, आगे और वजह निकल सकती है ।”
“क्या ?”
“शायद सोहल से दो दो हाथ हो जायें ।”
“क्या !”
“और जीत मेरी हो जाये ।”
“तू सच में ही कमला हो गया है ।”
“सरदार जी, किसी सयाने ने कहा है, बहादुर बनो नहीं तो बहादुरी का पाखण्ड करो । किसी को फर्क पता नहीं लगेगा ।”
“हुन तेरी की पोजीशन है ? बहादुर बन रहा है या बहादुरी का पाखण्ड कर रहा है ?”
“तुम्हें क्या लग रहा है ?”
“मुझे तो पाखण्ड करता लग रहा है ।”
“यानी कि सच में ही फर्क पता नहीं लगता ।”
“बहुत रहस्य वाली बातें कर रहा हैं, भैय्यन ।”
“हा हा हा । मैं चलता हूं । चैक इन का टाइम हो रहा है ।”
पवित्तर सिंह ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया । ब्रजवासी भीड़ में मिल कर निगाहों से ओझल हो गया । पवित्तर सिंह चेहरे पर चिन्ता के भाव लिये पीछे ठिठका खड़ा रहा ।
ब्रजवासी का एकाएक वहां मिलना उसके लिये दुखद घटना थी । अब उसके प्लेन पर चढने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था क्योंकि उसी फ्लाइट से ब्रजवासी मुम्बई जा रहा था ।
और ब्रजवासी जैसा कोई और भी वहां मौजूद होता तो बेड़ा ही गर्क था ।
उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
कोई पहचानी सूरत उसे न दिखाई दी ।
वो इस बात से बेखबर नहीं था कि मुबारक अली के आदमी उसके पीछे लगे हुए थे - उन हमशक्ल लड़कों को तो वो खासतौर से पहचानता था जिनसे कल उसने राजघाट के चौराहे पर ट्रैफिक के सब-इन्स्पेक्टर को पांच सौ रुपये देकर पीछा छुड़ाया था - लेकिन वो उस लाउन्ज में उसके पीछे नहीं आ सकते थे क्योंकि वहां आने के लिये टिकटधारी होना जरूरी था ।
वो इन्डियन एयरलाइन्स के काउन्टर पर पहुंचा ।
“ये टिकट” - उसने अपना टिक्ट क्लके के सामने रखा - “किसी अगली डेट का बना कर दो ।”
“कितनी अगली डेट का, सर ?” - क्लर्क ने पूछा ।
“कल दी की पोजीशन ए ?”
“चार बजे की फ्लाइट में जगह है ।”
“ठीक है ।”
टिकट सम्बन्धी जरूरी कार्यवाही करा के वो लाउन्ज से बाहर निकला ।
वो सीधा नो पार्किंग एरिया में कार में बैठ अली, वली और इमरोज के पास पहुंचा और कार का दरवाजा खोल कर पीछे वली के साथ बैठ गया ।
“चलो ।” - वो इत्मीनान से बोला ।
“क्या !” - वली हकबकाया सा बोला ।
“जद तुम लोगों ने मेरे पिच्छे ही रहना है तो मेरा टैक्सी दा भाड़ा क्यों लगवाते हो ?”
“कमाल है !”
“हुआ क्या ?” - आगे पैसेंजर सीट पर बैठा अली बोला ।
“पंगा पड़ गया । ऐत्थों हिल्लो ।”
“हमें जानते हो ?”
“कल से पीछे लगे हो, नहीं जानूंगा ?”
“जानते हो ?”
“मुबारक अली दे बन्दे हो, अब मेरी उससे कोई अदावत नहीं, इसलिये मेरे अजीज हो । चलो ।”
इमरोज ने कार आगे बढाई ।
लाउन्ज के परले दरवाजे के पास, जो कि आगे रनवे पर ले जाता था, एक पिलर की ओट में खड़ा ब्रजवासी नेत्र सिकोड़े पवित्तर सिंह को लाउन्ज से बाहर जाता देखता रहा ।
क्यों ?
फ्लाइट तो कोई आई ही नहीं थी ।
उससे पहले उसने उसे इन्डियन एयरलाइन्स के काउन्टर पर पहुंचते देखा था लेकिन फासले से वो नहीं जान सका था कि वहां उसने क्या किया था ।
किस फिराक में था सरदार ?
कोई चक्कर तो यकीनन था ।
तभी तो झूठा और खिसियाया हुआ लग रहा था ।
उसे अफसोस था कि उस घड़ी वो सरदार के गैरमामूली मिजाज की झामनानी को खबर करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था ।
***
इरफान होटल की बेसमेंट में पहुंचा ।
उसके साथ परचुरे और मतकरी नाम के दो, उसके भरोसे के, आदमी थे ।
“कहां है ?” - इरफान बोला ।
परचुरे ने पिछवाड़े के अन्धेरे की तरफ इशारा किया और बोला - “कोने की कोठरी में ।”
“निकाल के ला ।”
परचुरे ने सहमति में सिर हिलाया और फिर मतकरी के साथ आगे बढ गया ।
उन्होंने जमीर मिर्ची को वापिस ला कर उसी कुर्सी पर बिठाया जिस पर कि वो कल बिठाया गया था ।
मिर्ची का रंग बदरंग था और सूजी आंखों से लगता था कि रात भर सो नहीं पाया था ।
“कैसा है, मिर्ची ?” - इरफान बोला ।
उससे जवाब देते न बना । उसने सिर उठा कर मुंह बाये इरफान की तरफ देखा और फिर हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
“बिरेकफास्ट किया ?”
मिर्ची का सिर सहमति में हिला ।
“मूंडी हिलाता है । जुबान नहीं चलाता ।”
“हं... हं... हां ।”
“तो क्या सोचा तूने रात भर ?”
“क्या बोलेंगा, बाप ।”
“धारावी के पांच नम्बर कमरे में तो तेरा उस्ताद पहुंचा नहीं, मोबाइल पर फोन लगाओ तो जवाब नहीं देता । ऐसे कैसे चलेंगा ?”
मिर्ची ने जवाब न दिया ।
“कल मैं तेरे को क्या बोला ?”
“क्या बोला, बाप ?”
“अच्छा ! भूल भी गया ! मैं बोला, मिर्ची, मेरे बिरादर, परदेसी को काबू कराये बिना तू इधर से नहीं छूट सकता । येहीच बोला मैं । क्या ?”
“बाप, मेरे को जो मालूम, मैं पहले ही बोल के रखा ।” - वो गिड़गिड़ाया - “मां कसम, मेरे को ज्यास्ती कुछ नहीं मालूम ।”
“मां को क्यों बीच में लाता है, पगले ?” - इरफान ने मीठी झिड़की दी - “वो बेचारी तो आराम से कल्याण में बैठी पी.सी.ओ. बूथ चला रही है और अपने लख्तेजिगर की - तेरी - खैर मना रही है ।”
मिर्ची का फक चेहरा और फक पड़ गया ।
“तेरी और तेरी छोटी बहन की, जिसकी कि अभी तूने शादी करनी है ।”
मिर्ची के रहे सहे हवास भी उड़ गये ।
“देखा ! कितनी जल्दी मैं तेरी बाबत इतना जानकारी निकाला ?”
“बाप, बकश दो । मेरी मां को कुछ न कहना । मेरी बहन को कुछ न कहना ।”
“सब कुछ मैं ही करे ? तू कुछ न करे ?”
“बाप, जब इतनी जल्दी मेरी हर खबर निकाल सकता है तो परदेसी की नहीं निकाल सकता ?”
“नहीं निकाल सकता । तभी तो तेरे सामने खड़ेला है । फिरयाद ले के । मिर्ची कुछ बोल । मिर्ची कुछ बता । क्या ?”
वो खामोश रहा ।
“सोच ले । जी भर के सोच ले । मेरे को और कोई काम हैईच नहीं तेरे बोलने का इन्तजार करने के अलावा । पण एक बात बोलता है, जो कि तेरे लिये गुड न्यूज है ।”
“क्या ?”
“मैं तेरे कू बकरे का माफिक ऊपर हुक पर टांगने का आइडिया ड्राप किया ।”
“शुक्रिया, बाप ।”
“मैं तेरे कू हॉट वाटर बाथ देंगा ।”
“क... क्या ?”
“एक बाथ टब में हंड्रेड डिग्री वाला हॉट वाटर जमा करेंगा और तेरे कू उसमें डालेंगा । ऐन कचालू का माफिक उबल जायेगा । क्या ?”
“बाप, रहम... रहम करो ।”
“काफी चिल्लाक है । फिर बोला सब कुछ मैं ही करे ।”
“बाप, मां कसम, बहन कसम, मेरे को जो मालूम, मैं सब कुछ बोल दिया । पण....”
“क्या पण ?”
“मेरे को छोड़ दो । मैं जी जान से परदेसी को तलाश करने की कोशिश करेंगा ।”
“किधर से करेंगा ।”
“भटकेंगा । धक्के खायेंगा । अपनी जान की खातिर अक्खी मुम्बई की खाक छानेंगा पण कोई खबर निकालेंगा ।”
“ऐसा ?”
“हां, बाप ।”
“ठीक है । तू भी क्या याद करेगा ! मिर्ची, मेरे को तेरी पेशकश कुबूल है ।”
“शुक्रिया, बाप ।”
“अब तू भी मेरी पेशकश कुबूल कर ।”
“क्या बाप ?”
“दुश्मनों का पीछा छोड़ और दोस्तों में शामिल हो ।”
“दोस्त !”
“जो तेरी जान बकश रहे हैं ।”
“मुझे मंजूर है, बाप ।”
“इतना जोश नहीं खाने का है । पहले बात को समझ फिर जवाब दे ।”
“समझ के बोला, बाप । सोच के बोला, बाप ।”
“बंडल मार के इधर से छूटने का अंजाम जानता है ?”
“बाप, मैं धोखा करेंगा तो जान से जायेंगा । मेरे को मालूम ।”
“जान से जाना आसान काम नहीं होता । ऐसा किस्मत वालों के साथ होता है कि एक सांस आयी, दूसरी नहीं आयी । तू ऐसा किस्मत वाला किधर है ?”
“मैं समझा नहीं, बाप ।”
“मैं समझाता है । मौत मांगना आसान, मिर्ची, झेलना मुश्किल ।”
“झे... झेलना ।”
“मैं तेरा पेट खोलेंगा और तेरी आंतां निकाल कर तेरी गोद में रख के इधर से जायेंगा तो कितना टेम लगेंगा तेरे को ऊपर पहुंचने में ?”
मिर्ची के चेहरे पर गहरी दहशत के भाव उभरे ।
“पौना-एक घन्टा तो लग ही जायेंगा तिलतिल करके प्राण निकलने में । क्या ?”
“बाप, रहम ।”
“वो तो पहले ही कर दिया । तू आजाद है, मिर्ची । जा और जेकब परदेसी की कोई खबर निकाल के ला । उसकी नहीं तो दफेदार की । दफेदार की नहीं तो ‘भाई’ के गैंग के किसी और आदमी की ।”
“मैं जी जान से कोशिश करूंगा । तो मैं जाऊं ?”
“हां, जा । पण सैम्पल तो ले के जा ।”
“सैम्पल ?”
“नहीं समझता ? नमूना ! जैसे पब्लिकसिटी से माल बेचने वाला भीड़ू लोग देता है । नमूने से ही तो माल की परख होती है....”
“वो तो है ।”
“जो कि अभी तेरे को होगी ।”
“क... कैसे ?”
“अभी मालूम पड़ता है ।”
इरफान ने परचुरे और मतकरी को इशारा किया ।
दोनों ने तत्काल बड़ी दक्षता से, बड़ी खामोशी से जमीर मिर्ची को धनुना शुरू कर दिया । वो ऐसी धुनाई थी जो कोई तजुर्बेकार लोग ही कर सकते थे । उससे कोई हड्डी नहीं चटकती थी, कोई स्थायी चोट नहीं आती थी और कोई अंग भंग नहीं होता था ।
केवल तीन मिनट वो सिलसिला चला ।
उतने में ही मिर्ची को यूं लगा जैसे उसे कन्क्रीट मिक्सर में डाल कर घुमाया गया हो ।
उसके बाद वो आजाद था ।
***
झामनानी ने बजाज को फोन लगाया ।
उसके लाइन पर आने पर उसने ब्रजवासी से हासिल हुई जानकारी आगे बजाज को ट्रांसफर की और बोला - “पुटड़े, ब्रजवासी बोलता है कि अपना सरदार साईं प्लेन से कहीं जाने के लिये ही एयरपोर्ट पहुंचा था लेकिन ब्रजवासी से एकाएक टकरा जाने की वजह से बिदक गया था । खुद मेरे को भी यही लगता है । अब तू इस बात की तसदीक कर ।”
“कैसे ?”
“वडी दिल्ली से बाहर जाने वाली लोकल फ्लाइट्स की पैसेंजर लिस्ट्स से और कैसे ?”
“ठीक है ।”
“वडी एक बात ध्यान में रखना नी । अगर सरदार साईं ने दिल्ली से खिसकने का इरादा बना लिया है तो आज सुबह की एयरपोर्ट की मिसएडवेंचर के बाद वो उसने छोड़ नहीं दिया होगा । ब्रजवासी तो इत्तफाक से उसका निगहबान बन गया था, वो तो अब गया इसलिये सरदार साईं ने आइन्द का कोई इन्तजाम किया हो सकता है । वडी क्या समझा नी ?”
“बॉस, समझ तो मैं गया लेकिन जरूरी थोड़े ही है कि अभी भी वो प्लेन से ही जाये ? ट्रेन से भी जा सकता है ।”
“वडी पैदल भी जा सकता है नी । इधर से अन्तर्ध्यान होकर उधर प्रकट भी हो सकता है, नी ।”
“सॉरी, बॉस ।”
“मैं तेरे को वो काम बोला नी, जो आसान है ।”
“मैं समझ गया । मैं चैक करवाऊंगा ।”
“अभी आगे सुन ।”
“बोलो, बॉस !”
“अगर उसकी आइन्दा की फ्लाइट का पता लग जाये तो किसी भी तरीके से उसी फ्लाइट पर अपने दो आदमियों की - दो की नहीं तो एक की तो यकीनन - सीट बुक करानी है ताकि वो आगे भी उस पर निगाह रख सकें ।”
“गुस्ताखी माफ, बॉस, लेकिन फायदा क्या ? मुबारक अली से तो उसकी मुलाकात हुई नहीं ।”
“वडी पता नहीं आगे की कब की टिकट है उसकी । नहीं हुई तो वो वक्त आने तक हो जायेगी । तेरे आदमी तो चौकस हैं न मुबारक अली के पीछे ?”
“हां ।”
“बढिया । अब फिलहाल जैसा मैं बोला, वैसा कर और तेल देख और तेल की धार देख ।”
“ठीक है ।”
“तेरे आदमियों की निगाहबीनी में अगर सरदार साईं दिल्ली छोड़ जाये तो समझना मुबारक अली के पीछे लगे तेरे आदमी फारिग ।”
“बढिया ।”
“सरदार साईं के अनोखे व्यवहार का राज मेरी समझ में आना चाहिये नी । मुझे मालूम होना ही चाहिये कि क्यों वो दुश्मन के कैम्प के आदमी से मिलने को तड़प रहा है और क्यों वो मोबाइल पर कॉल लगायी जाने पर जवाब नहीं देता । और सौ बातों की एक बात, अभी किधर छुपा हुआ है ।”
“सब मालूम होगा, बॉस, मैं पता लगाऊंगा ।”
“वडी जीता रह नी ।”
***
चौथी मंजिल के ऑफिस में विमल की इरफान से मुलाकात हुई ।
“क्या खबर है ?” - विमल बोला ।
जवाब में इरफान ने सबसे पहले मिर्ची की बाबत अपनी स्ट्रेटेजी बयान की और फिर बोला - “मैं ठीक किया, बाप ?”
“हां ।” - विमल बोला - “ठीक किेया । अगर वो सच में कुछ नहीं जानता तो उस पर खामखह का जुल्म नाजायज है, बेमानी है ।”
“वैसीच सोचा मैंने भी । पण सैम्पल फिर भी चखाया ।”
“सैम्पल ! कैसा सैम्पल ?”
इरफान ने बताया ।
“बल्ले, भई ।” - विमल बोला - “खामखाह धुनवा दिया ?”
“खामखाह नहीं, बाप । सैम्पल से वो अब खौफजदा होगा । खौफजदा रहेगा तो इस्ट्रेट रहेगा ।”
“क्या कहने ! और ?”
“मैने सुबह ‘भाई’ के कैम्प का एक आदमी फोड़ने की बात की थी ।”
“फोड़ तो लिया ।”
“बाप, जमीर मिर्ची आदमी मामूली । उसकी हैसियत मामूली, सीधे से ‘भाई’ के गैंग का आदमी तो वो जान भी नहीं पड़ता । वो जेकब परदेसी का चमचा जान पड़ता है और उसकी पहुंच उसी तक है । अलबत्ता उसकी वजह से जेकब परदेसी हाथ में आ गया तो बात कुछ और होगी ।”
“वो काम अभी होते होते होगा । लेकिन तेरी बातों से लगता है कि कुछ हो भी चुका है ।”
“ऐसीच है, बाप । वो क्या है कि भाई के कैम्प का कोई खास आदमी - खास बोला मैं, मिर्ची जैसा नहीं - फोड़ने का काम अब आसानी से होता जान पड़ता है ।”
“कैसे ?”
“‘भाई’ का एक आदमी जेल में है । ‘भाई’ से खफा है क्योंकि ‘भाई’ ने उसे आजाद करवाने की कोई कोशिश न की ।”
“क्यों न की ?”
“कोई तो वजह होगी । मसलन पेश नहीं चली होगी । या वो आदमी उसका खास तो होगा पण ज्यादा खास नहीं होगा । या वो मसरूफ होगा ।”
“मसरूफ होगा ?”
“अपनी जान बचाने के कारोबार में । ‘सोहल आ जायेगा’ । गब्बर का माफिक ।”
“तू फिर मुझे बावन गज का साबित करने की कोशिश कर रहा है ।”
इरफान हंसा और फिर आगे बढा - “या उसे जेल भिजवाया ही ‘भाई’ ने होगा । बहरहाल मालूम पड़ जायेगा, बाप ।”
तभी फोन की घन्टी बजी ।
“देख ।” - विमल बोला ।
इरफान ने फोन उठा कर कान से लगाया कुछ क्षण बात की और फिर बोला - “पुलिस हैडक्वार्टर से फोन है । कोई इन्स्पेक्टर दामोदर राव होटल के मौजूदा मालिक से अप्वायन्टमेंट चाहता है ।”
“क्यों ?”
“वजह नहीं बताता ।”
“कुछ तो कहता होगा ।”
“जरूरी इंक्वायरी है ।”
“मौजूदा मालिक से यानी कि राजा साहब से ?”
“हां ।”
“चार बजे आने को बोल ।”
“इतनी देर बाद क्यों ?”
“राजा साहब बिजी हैं । चार बजे का टाइम भी उन्होंने बिटविन अप्वायन्टमेंट्स निकाला है ।”
“अच्छा ?”
“हमें ये जानने को बेताब नहीं लगना चाहिये कि वे क्या इंक्वायरी करना चाहता है राजा साहब की ।”
“ओह ! अब समझा, बाप ।”
“जब वो आयेगा तो उसे थोड़ा इन्तजार भी करायेंगे ताकि राजा साहब की मसरूफियात का उस पर रोब पड़े ।”
“बढिया ।” - इरफान हंसता हुआ बोला, उसने फोन में मुलाकात का वक्त दोहराया और फोन रख दिया - “मैं ‘भाई’ के आदमी की बात कर रहा था जो कि जेल में बन्द है ।”
“हां । उसकी बाबत खबर कैसे लगी ?”
“उसी ने फैलवाई अन्डरवर्ल्ड में ।”
“क्यों ?”
“ताकि खबर तेरे तक पहुंच जाती । जो कि इस घड़ी पहुंच रही है । बाप, उसका सोहल के नाम एक पैगाम है ।”
“क्या ?”
“सोहल उसे जेल से छुड़वाने का सामान करे, बदले में वो उसे ‘भाई’ का पता बतायेगा ।”
“दुबई का या कराची का ? या कहीं और का ?”
“लोकल ।”
“उसे कैस मालूम है कि ‘भाई’ आजकल इधर है ?”
“है किसी तरीके से । हर बात हरकारे को तो नहीं बतायी जाती न ?”
“हूं । अन्दर किस इलजाम में है ?”
“कोकीन बेचने के इलजाम में ।”
“नाम क्या है ?”
“हैदर ।”
“पिछले से पिछले इतवार को एक हैदर हमें धारावी के एक्रेजी के इलाके में पास्कल के बार में मिला था जबकि मैं उसके बॉस छोटा अंजुम से मिलने शेरवानी में सफेद फूल लगा कर उधर पहुंचा था ।”
“हो सकता है ये वो ही हैदर हो । मैंने देखा था उस ठिगने हैदर को पास्कल के बार में । उसके लम्बे जोड़ीदार का घुटना फोड़ते भी तुझे देखा था । अगर ये वो ही हैदर हुआ तो कम से कम इतना तो पक्का हो ही जायेगा कि वो ‘भाई’ के गैंग का आदमी है ।”
“तो फिर ?”
“मैं पड़ताल करता हूं उसकी और फिर बोलता हूं ।”
“वो तो तू करेगा लेकिन क्या गारन्टी है कि हम उसे जेल से निकलवा पायेंगे ?”
“अभी कैसे होगी गारन्टी ? अभी तो हमें येहीच नहीं मालूम कि वो कितना फिट है जेल में ? आजाद कराये जाने लायक केस है भी या नहीं ।”
“वही तो । तू उसकी खबर निकालेगा, फिर हम उसके काम आयेंगे, बदले में वो हमारे काम आयेगा, इस लम्बे रास्ते को छोड़ कर अपना मतलब शार्टकट से क्यों नहीं हल करता ?”
“कैसे ?”
“दफेदार को थाम ।”
“दफेदार को ?”
“तू भूल रहा है कि उसकी एक जगह की हाजिरी की हमें पहले से खबर है । आज शाम को उसने रणदीवे के पास आना है उसका जवाब हासिल करने के लिये ।”
“बरोबर बोला, बाप । ये बात तो मैं भूल ही गया था । मैं अभी सब इन्तजाम करता है ।”
“गुड ।”
***
डी.सी.पी. मनोहरलाल का मातहत इन्स्पेक्टर पदमेश तिवारी करोलबाग पहुंचा ।
उसे पहले से मालूम था कि झामनानी का ऑफिस ठीक दस बजे उसकी मौजूदगी में खुलता था । उसकी उस घड़ी की मौजूदगी वहां अनिवार्य होती थी, भले ही वो आफिस खुलने के पांच मिनट बाद वहां से चला जाये और सारा दिन वापिस न लौटे ।
उस रोज वैसा न हुआ ।
उस रोज दफ्तर तो हमेशा की तरह ठीक दस बजे खुला लेकिन झामनानी के दर्शन न हुए ।
कहीं अटक गया होगा ।
उसने पन्द्रह मिनट इन्तजार किया ।
झामनानी न आया ।
जरूर बीमार पड़ गया होगा । ऑफिस से पता चलेगा ।
उसने ऑफिस में कदम रखा ।
बाहरी ऑफिस में मुकेश बजाज बैठा था ।
सुबह सवेरे अपने सामने वर्दीधारी इंस्पेक्टर को मौजूद पाकर वो सकपकाया ।
“झामनानी किधर है ?” - इन्स्पेक्टर दबंग स्वर में बोला ।
“नहीं है ।” - बजाज अनमने भाव से बोला ।
“अरे, वो तो मुझे भी दिखाई दे रहा है । क्यों नहीं ?”
“बाहर गया है ।”
“बाहर गया है ! कहां ?”
“भोपाल ।”
“कब गया ?”
“आज सुबह ।”
“कब लौटेगा ?”
“पांच छ: दिन लगेंगे ।”
“भोपाल का पता ?”
“मेरे को नहीं बोल के गया ।”
“तुम कौन हो ?”
“साहब का मुलाजिम हूं ।”
“नाम बोलो ।”
“मुकेश बजाज ।”
“तुम्हारा इधर क्या काम है ?”
“काम कोई नहीं । खाली फोन अटेंड करने के लिये इधर हूं ।”
“किस का ?”
“किसी का भी । जो भी झामनानी को पूछे ।”
“खुद झामनानी का भी ?”
“हो सकता है ।”
“तुम्हारा साहब तुम्हें अपने पीछे अपने ऑफिस का जिम्मेदार बना कर गया लेकिन ये नहीं बोल के गया कि भोपाल में उससे कहां सम्पर्क किया जा सकता था ?”
“नहीं । नहीं बोल के गया ।”
“क्यों ?”
“उसकी मर्जी । वो चाहता तो ये भी न बोल के जाता कि वो भोपाल जा रहा था ।”
“इधर कोई इमरजेंसी आन पड़े तो कैसे अपने साहब को खबर करोगे ?”
“कैसे भी नहीं करूंगा । साहब का फोन आने का इन्तजार करूंगा ।”
“फोन न आये तो ?”
“तो मजबूरी है ।”
“फिर इमरजेन्सी की तो मां... ऐसी तैसी फिर गयी !
बजाज ने लापरवाही के कन्धे उचकाये ।”
“मुझे यकीन नहीं आ रहा कि तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारा साहब कहां गया है ?”
“मालूम है न ! भोपाल गया है ।”
“भोपाल में कहां गया है ?”
“वो नहीं मालूम ।”
“मालूम नहीं या न बताने की हिदायत है ?”
“मालूम नहीं ।”
“पता तुमसे जबरन भी कुबुलवाया जा सकता है ।”
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“तुम्हें हिरासत में लिया जा सकता है ।”
“झामनानी साहब का पता कुबुलवाने के लिये ?”
“हां ।”
“क्यों ? क्या किया है साहब ने ? खून किया है ? डाका डाला है ? क्या किया है ?”
“ये सब किये बिना भी उसे हिरासत में लिया जा सकता है ।”
“खामखाह ?”
“खुद डी.सी.पी. ने उसे तलब किया है ।”
“तलब ही तो किया है । साहब जब लौटेगा तो तलब पूरी कर देगा ।”
“उसे गिरफ्तार किया जा सकता है ।”
“वक्त के हाकिम हो, कुछ भी कर सकते हो । ठीक है, जब लौटे तो कर लेना गिरफ्तार ।”
“उसके हिमायतियों को भी । पुलिस से लुकाछिपी का खेल खेलने वालों को भी ।”
“मालिक हो, भई ।”
इन्स्पेक्टर कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तुम्हारा साहब जब भी, जैसे भी तुमसे सम्पर्क करे, सबसे पहले उसे डी.सी.पी. मनोहरलाल का पैगाम देना कि वो फौरन पुलिस हैडक्वार्टर में उनसे सम्पर्क करे । समझ गये ?”
“हां ।”
“अब किसी ऐसे शख्त का नाम पता बोलो जो कि झामनानी का खास हो, करीबी हो और जिसे ये मालूम होने की सम्भावना हो कि वो भोपाल में कहां था ?”
बजाज ने निसंकोच बाकी के तीन बिरादरीभाइयों के नाम बोल दिये ।
क्योंकि उसे यकीन था कि इंस्पेक्टर उन नामों से पहले से वाकिफ था ।
***
ब्रजवासी निर्विघ्न मुम्बई पहुंचा ।
चि☐रकुट उसे एयरपोर्ट पर ही मिल गया ।
चि☐रकुट एक लोकल मवाली था, जो असल में ‘भाई’ के गैंग का आदमी था और जो ब्रजवासी के पिछले मुम्बई प्रवास के दौरान, बाजरिया छोटा अंजुम, उसे तब अपने हाथ आये टोकस की मदद करने के लिये मिला था ।
ब्रजवासी उसे दिल्ली से फोन लगा कर आया था कि उसकी दिल्ली से साढे दस बजे की फ्लाइट के आगमन के वक्त वो उसे एयरपोर्ट पर मिले ।
उसके साथ उसी जैसा भीड़ू कोली भी था ।
ब्रजवासी ने वहीं उन्हें समझाया कि वो क्या चाहता था ।
नतीजतन अभी उसने बांद्रा में स्थित होटल सी-रॉक में चैकइन ही किया था कि चि☐रकुट और कोली ने वहां पहुंच कर गुड न्यूज दी कि भाड़े पर काम करने वाले आधा दर्जन लोकल मवाली - जिनमें दो डीसेंट थे, यानी कि शक्ल सूरत और रखरखाव में मवाली नहीं लगते थे - वो इकट्ठा कर चुके थे और ब्रजवासी के सुझाये बाकी के तामझाम का भी इन्तजाम किया जा चुका था ।
नतीजतन ब्रजवासी ने जैसे अभी मुम्बई में कदम रखा भी नहीं था कि वो अपनी पहली चाल चल भी चुका था ।
***
डी.सी.पी. मनोहरलाल विस्की का रसिया तो बराबर था लेकिन अब अपनी बढती उम्र में उसकी भरपूर कोशिश होती थी कि वो एक शाम को दो या ढाई या बड़ी हद तीन पैग से ज्यादा न पिये । अमूमन वो इस बात पर अमल भी करता था लेकिन पिछली रात ऐसा नहीं हो सका था । जीओज क्लब से उठकर वो एक पार्टी में गया था जहां उसका हाजिरी भरना निहायत जरूरी था और जहां न चाहते हुए भी ऐसा माहौल बन गया था कि उसने जितनी विस्की क्लब में पी थी, उससे ज्यादा पार्टी में पी ली थी ।
और डट कर खाना खाया था ।
नतीजा ये हुआ था कि सुबह दस बजे से पहले वो उठ नहीं सका था और जब उठा था तो कांखता कराहता ही उठा था । फिर नाश्ता और दफ्तर जाने के जिस कारोबार को वो अमूमन एक घन्टे से कम में अंजाम देता था वो उसने उस रोज दो घन्टे में ऊंघते-आंघते निपटाया जबकि उस रोज उसने चाय सिर्फ एक बार पी और अखबार पर निगाह तक न डाली ।
वो ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ा अपनी वर्दी दुरुस्त कर रहा था जबकि उसकी बीवी ने बैडरूम में कदम रखा । उसके हाथ में उस रोज का अखबार था जिसे उसने एक खास जगह से मोड़ा हुआ था ।
“बच्चे कॉलेज गये ?” - मनोहरलाल ने निरर्थक सा प्रयत्न किया ।
“कब के गये ।” - उसकी पत्नी बोली - “वो क्या तुम्हारी तरह हैं ?”
मनोहरलाल हंसा ।
“कई बार ख्याल आता है कि पुलिस वाले से शादी करके गलती की मैंने ।”
“अच्छा !”
“और क्या ? बीवी के लिये कभी टाइम ही नहीं होता तुम्हारे पास ।”
“अब नहीं होता न ! हमेशा तो ऐसा नहीं था ।”
“हमेशा भी ऐसा ही था । कभी था तो उन्नीस बीस का फर्क था ।”
“नवम्बर में मेरी जायन्ट कमिश्नर की पोस्ट पर प्रोमोशन होने वाली है । मैं मेहनत न करता, जांमारी न करता तो अभी तक तुम ए.सी.पी. की ही बीवी होतीं ।”
“चलो, चलो । इन बातों का उस बात से कोई रिश्ता नहीं जो मैं कहने आयी हूं ।”
“क्या कहने आयी हो ।”
“अब क्या ? कई बार कह चुकी हूं । कोई सुने तो सही ।”
“अरे, क्या ?”
“इतनी बार बोला, लम्बा नहीं तो ओवरनाइट ही कहीं ले चलो, दूर नहीं तो करीब ही कहीं ले चलो, लेकिन कौन सुनता है !”
“अच्छा, अच्छा ।”
“क्या अच्छा, अच्छा ? तुम तो दिल्ली के मोड़ तक नहीं ले के जाते ।”
“मोड़ तक ।”
“गुड़गांव मोड़ ही तो हुआ दिल्ली का । वहां एस्टोरिया नाम का एक होटल है जहां ओवरनाइट स्टे का डबल रूम ड्रिंक डिनर आल इंक्लूसिव पैकेज है । वहां दिल्ली वाले आंम जाते हैं, सिर्फ हम नहीं जाते ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है इस बाबत ?”
“अखबार में छपा है ।” - वो हाथ में थमा अखबार आगे करती हुई बोली - “वहां ओवरनाइट स्टे करने वालों का फोर्टनाइटली लक्की ड्रॉ निकलता है । ये देखो, पिछली फोर्टनाइट के ड्रॉ में डी-14 विवेक विहार दिल्ली के किसी साधूराम मालवानी का पच्चीस सौ वाट का केनवुड का स्टीरियो सिस्टम लक्की ड्रा में निकला है जो कि बाजार में चालीस हजार रुपये का आता है ।”
मनोहरलाल को जैसे सांप सूंघ गया ।
“क्या ?” - उसके मुंह से निकला ।
“स्टीरियो सिस्टम । हमारा भी निकल सकता था, अगर हम गये होते ।”
“अरे, नाम क्या लिया ?”
“केनवुड ।”
“अरे, स्टीरियो सिस्टम का नहीं, उस आदमी का, जिसने वो जीता !”
“साधूराम मालवानी । तुम्हारे से तो सिन्धी ही अच्छे जो....”
“अखबार इधर कर ।”
पत्नी के अखबार आगे करने से पहले उसने उसे उसके हाथ से झपट लिया । जहां से अखबार मुड़ा हुआ था वहां होटल एस्टोरिया, गुड़गांव का एक विज्ञापन प्रकाशित था जिसमें स्पष्ट रूप से लक्की ड्रॉ के विजेता के रूप में साधूराम मालवानी का नाम और पता दर्ज था जो कि पन्द्रह मई सोमवार रात को होटल के ‘पर कपल ओवरनाइट स्टे प्लान’ पर वहां के रूम नम्बर 232 में ठहरा था और जिससे अनुरोध किया गया था कि वो होटल में आकर अपना लक्की ड्रॉ में निेकला स्टीरियो सिस्टम कलैक्ट कर ले ।
***
एक जीप और एक होंडा सिटी कार आगे पीछे चलती होटल सी-व्यू की मारकी में पहुंचीं ।
जीप में आगे ड्राइविंग सीट पर एक सिपाही और उसके पहलू में एक सब-इंस्पेक्टर मौजूद था, पीछे एक हवलदार सवार था ।
होंडा सिटी में ड्राइविंग सीट पर एक सिपाही था, उसके पहलू में एक गनर था और पीछे एक ए.सी.पी. था ।
डोरमैन ने दोनों गड़ियों में इतने पुलिसियों को मौजूद देखा तो उससे ये कहते न बना कि वे गाड़ियों को पार्किंग में लगायें ।
जीप में से सब-इन्स्पेक्टर बाहर निकला और शीशे के दरवाजे की तरफ बढा ।
डोरमैन ने उसके लिये दरवाजा खोला ।
उसके भीतर कदम रखते ही लॉबी में ड्यूटी पर मौजूद मैनेजर उसके सामने पहुंचा । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से सब-इन्स्पेक्टर की तरफ देखा ।
“मालिक से मिलना है ।” - सब-इन्स्पेक्टर रौब से बोला ।
“मालिक ?”
“मालिक नहीं समझते । प्रोप्राइटर । राजा गजेन्द्र सिंह । यही नाम है न ?”
“क्यों मिलना है ?”
“उन्हीं को बतायेंगे ।”
“फिर भी....”
“बोला न !”
“यहीं ठहरिये ।”
लॉबी मैनेजर जल्दी से रिसैप्शन पर पहुंचा जहां से उसने एक फोन किया ।
दो मिनट में दो जुदा दिशाओं से इरफान और शोहाब वहां पहुंचे । उस घड़ी दोनों सूट पहने थे और टाई लगाये थे - जो कि सिक्योरिटी आफिसर्ज की वर्दी थी - और बड़े सजीले लग रहे थे ।
“क्या है ?” - इरफान ने सब-इन्स्पेक्टर से पूछा ।
“कितने आदमियों को बताना पड़ेगा ?” - सब-इन्स्पेक्टर भुनभुनाया ।
“क्या है ?” - इरफान ने कदरन सख्त लहजे में अपना सवाल दोहराया ।
“राजा साहब से मिलना है ।”
“क्यों ?”
“कमिश्नर साहब का हुक्म है ।”
“पुलिसिया जुबान न बोल, भीड़ू । गोल मोल बातें न कर । मतलब की बात बोल ।”
“कमिश्नर साहब मिलना चाहते हैं ।”
“खास राजा साहब से ?”
“हां । मुलाकात के लिये हम उन्हें लेने आये हैं ।”
“क्यों मिलना चाहते हैं ?”
“वो खुद बतायेंगे मुलाकात पर ।”
“ऐसे मुलाकात नहीं होती ।”
“क्या ?”
“वही, जो बोला । राजा साहब बिजी आदमी हैं ।”
“अरे, मुम्बई पुलिस के कमिश्नर के लिये बिजी आदमी हैं ?”
“वजह हो तो नहीं । बेवजह हां ।”
“तुम कौन हो ?”
“मैं सिक्योरिटी आफिसर हूं ।”
“ये फैसला तुम्हीं ने करना है कि राजा साहब कमिश्नर साहब से मुलाकात के लिये चलेंगे या नहीं ?”
“फैसला राजा साहब ही करेंगे लेकिन उन्होंने किस बाबत फैसला करना है, इसकी खबर राजा सहब को मैं करूंगा ।”
सब-इन्स्पेक्टर खामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तुम्हारे एक इंस्पेक्टर ने भी राजा साहब से मुलाकात की अप्वायन्टमेंट ली है । क्या सारा महकमा ही राजा साहब से मुलाकात का तमन्नाई हो उठा है ।”
“मुझे इन्स्पेक्टर की अप्वायन्टमेंट की खबर नहीं ।”
“क्यों खबर नहीं ?”
“अरे, इतना बड़ा महकमा है, इतनी डिवीजन हैं, इतने थाने हैं, कोई किस किस की खबर रख सकता है ?”
“वो हैडक्वार्टर से बोला था ।”
“हैडक्वार्टर कौन सा छोटा है ! वहां भी सबको सबकी खबर हो, ये मुमकिन नहीं ।”
“जैसे इन्स्पेक्टर यहां आ सकता है, वैसे कमिश्नर नहीं आ सकता ? उसके पांव में मेहन्दी लगी है या वो चीफ मिनिस्टर, गवर्नर के बराबर समझता है अपने आपको ?”
सब-इन्स्पेक्टर ने उल्लू की तरह पलकें झपकाते उसकी तरफ देखा ।
“एक तो हुक्म दनदना दिया कि कमिश्नर मिलना चाहता है, ऊपर से वजह नहीं बताता कि क्यों मिलना चाहता है !”
“देखो” - सब-इन्स्पेक्टर विवशभाव से बोला - “मुझे सिर्फ यही हुक्म हुआ है कि मैं राजा साहब को बोलूं कि कमिश्नर साहब उनसे मिलना चाहते थे । वजह जानना चाहते हो तो मेरे साहब से बात करो ।”
“तुम्हारा साहब !” - इरफान बोला ।
“ए.सी.पी., जो मेरे साथ आया है ।”
“साथ आया है ? कहां है ?”
“गाड़ी में बैठा है । वो जो जीप के पीछे खड़ी है, उसमें ?”
इरफान और शोहाब दोनों की निगाहें बाहर की तरफ उठीं ।
“उस नयी होंडा सिटी में ?” - शोहाब सकपकाया सा बोला ।
“हां ।”
“ये पुलिस की कार है ?”
“हां, भई । अब क्या रसीद ला के दिखाऊं ?”
“नहीं । हम बात करते हैं ए.सी.पी. से । क्या नाम है ए.सी.पी. साहब का ?”
“नानवटे । बाल किशन नानवटे ।”
“अभी बात करते हैं ।”
दोनों बाहर कार के करीब पहुंचे ।
कार का उनकी ओर के पिछले दरवाजे का धुंधला शीशा नीचे गिरा और उन्हें ए.सी.पी. की वर्दी में पीछे बैठे एक रोबीले व्यक्ति के दर्शन हुए ।
“सर” - उनके पीछे से सब-इन्स्पेक्टर विनयशील स्वर में बोला - “ये कमिश्नर साहब के राजा साहब से मिलने की वजह जानना चाहते हैं । ये कहते हैं कि वजह जाने बिना राजा साहब से मुलाकात तो हो ही नहीं सकती, उन्हें हमारी आमद की भी खबर नहीं की जा सकती ।”
“ऐसा ?” - ए.सी.पी. गम्भीरता से बोला ।
“वजह तो मालूम होनी ही चाहिये, सर ।” - शोहाब बोला ।
“कोई काम बेवजह होता है ?”
“ऐग्जैक्टली ।”
“तुमने” - ए.सी.पी. सख्ती से सब-इन्स्पेक्टर से मुखातिब हुआ - “पार्टी की बाबत नहीं बताया ?”
“साहब” - सब-इन्स्पेक्टर बोला - “इनकी मेरे कुछ बताये से तसल्ली कहां हो रही है ! ये दोनों तो मेरे से यूं पेश आ रहे थे जैसे राजमहल में चोर घुस आया हो ।”
“नैवर ।” - शोहाब विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “हमने तो महज...”
“तभी मुझे कहना पड़ा कि साहब से बात कर लो ।”
“स्टैण्ड असाइड ।” - ए.सी.पी. बोला ।
थूक निगलता सब-इन्स्पेक्टर कार से परे हट गया ।
“अगले हफ्ते मुम्बई पुलिस का फाउन्डेशन डे है” - ए.सी.पी. संजीदगी से बोला - “जो कि हमारे कमिश्नर साहब इस बार बहुत धूमधाम से मनाना चाहते हैं । सरकारी अमले के अलावा बड़े राजनेता और उद्योगपति भी इनवाइटिड होंगे । कुछ बड़े फिल्म स्टार्स की शिरकत के लिये भी कोशिशें की जा रही हैं । फाउन्डेशन डे का फंक्शन और उसकी पार्टी कमिश्नर साहब सी-व्यू में करना चाहते हैं । पार्टी के इन्तजामात को डिसकस करने के लिये ही कमिश्नर साहब राजा साहब से मिलना चाहते हैं ।”
“ओह !” - इरफान के मुंह से निकला ।
“लेकिन” - शोहाब बोला - “उसके लिये राजा साहब से मुलाकात क्यों जरूरी है ? इस बाबत तो बेहतर होगा कि आप लोग हमारे फूड एण्ड बैवरेजिज मैनेजर से बात करें ।”
“उससे भी कर लेंगे” - ए.सी.पी. सब्र से बोला - “लेकिन राजा साहब से मुलाकात फिर भी जरूरी है ।”
“हम समझे नहीं, सर ।”
“तुम दोनों जिम्मेदार आदमी हो ?”
“हैं तो सही ।”
“तो सुनो । जैसी भव्य और धूमधाम वाली पार्टी कमिश्नर साहब आर्गेनाइज करना चाहते हैं, उसके लिये मुम्बई पुलिस के पास फंड्स नहीं हैं । तुम्हारे फाइव स्टार डीलक्स होटल में आर्गेनाइज की जाने वाली कोई पांच सौ लोगों की पार्टी का मुकम्मल खर्चा मुम्बई पुलिस का महकमा अफोर्ड नहीं कर सकता ।”
“ओह !”
“अब समझे कि क्यों कमिश्नर साहब खुद राजा साहब से मिलना चाहते हैं ?”
“जी हां । पुलिस का महकमा चाहता है कि पार्टी का खर्चा हमारा होटल अफोर्ड करे ।”
“सारा नहीं । सारा नहीं । जितना हम कर सकते हैं, करेंगे ।”
“कितना कर सकते हैं ?”
“कमिश्नर साहब बतायेंगे । राजा साहब को । तमाम डिस्कशंस तुम्हारे हमारे बीच ही हो जायेंगी तो फिर उस मुलाकात की क्या जरूरत रह जायेगी जिसकी खातिर हम यहां भेजे गये हैं ?”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“एक बात मैं अपनी तरफ से कहना चाहता हूं ।”
“फरमाइये ।”
“होटल अगर पुराने निजाम के ही हवाले होता तो होटल ने इज्जत महसूस की होती पुलिस की पार्टी यहां अरेंज करने में । पूरा खर्चा उठा कर । समझे ?”
“हां ।”
“तो फिर राजा साहब को खबर करो कि हम उन्हें लिवा ले चलने आये हैं ।”
शोहाब की इरफान से निगाह मिली ।
“तुम्हारे बिग बॉस की कमिश्नर के आफिस में जाने से नाक नीची होती हो तो कमिश्नर साहब ने खास कहलवाया है कि उनकी कोई जिद नहीं है कि राजा साहब ही उनके पास आयें, राजा साहब के न आ सकने की सूरत में कमिश्नर साहब भी उनसे मिलने आ सकते हैं ।”
“नहीं, नहीं ।” - इरफान बोला - “ऐसी कोई बात नहीं ।”
“कमिश्नर साहब ने पार्टी तो डिसकस करनी ही है, उसके अलावा भी वो होटल सी-व्यू के नये मालिक से मिलने के इच्छुक हैं ।”
“क्यों नहीं ? जरूर । कमिश्नर साहब जैसे चाहते हैं, वैसे ही मुलाकात होगी ।”
“गुड ।”
“लेकिन” - शोहाब बोला - “क्योंकि ये बड़ी पार्टी है इसलिये फूड एण्ड बेवरेजिज मैनेजर की हाजिरी फिर भी जरूरी होगी ।”
“जरूर हो ।” - ए.सी.पी. बोला - “राजा साहब जिसकी भी मौजूदगी अपने साथ जरूरी समझें, उसे साथ ले के चल सकते हैं । हमें क्या एतराज होगा ?”
“शुक्रिया ।”
“वो तो हमारे भले की बात होगी ।”
“सही फरमाया आपने ।”
“लेकिन जो लोग साथ चलना चाहें, उनके लिये अलग गाड़ी का इन्तजाम करना पड़ेगा क्योंकि, तुम लोग देख ही रहे हो कि, इस गाड़ी में तो खाली राजा साहब ही बैठ सकेंगे मेरे साथ ।”
“गाड़ी की कोई प्राब्लम नहीं ।”
“गुड ।”
“हम अभी राजा साहब को खबर करते हैं ।”
“हां । प्लीज ।”
“तब तक आप” - इरफान बोला - “भीतर चल के बैठना चाहें तो....”
“नहीं । यहीं ठीक है । यूं तुम लोग जरा जल्दी करोगे । वो क्या है कि कमिश्नर साहब को भी टाइम का तोड़ा है, कई प्रीशिड्यूल्ड मीटिंगें हैं आज उनकी ।”
“हम बस गये और आये ।”
दोनों वापिस घूमे और होटल में दाखिल हो गये ।
“क्या देखा ?” - भीतर शोहाब दबे स्वर में बोला ।
“क्या देखा ?” - इरफान ने उसका सवाल दोहराया ।
“पुलिस होंडा सिटी में । पार्टी करने के लिये फंड्स नहीं हैं, होंडा सिटी के लिये फंड्स हैं ।”
“मांगे की होगी ।”
“मैंने खास पूछा था इस बाबत । सब-इन्स्पेक्टर ने तसदीक की थी कि पुलिस की कार थी । रसीद ला के दिखाने की पेशकश कर रहा था ।”
“मुहावरे की जुबान में ।”
“आगे पीछे की नम्बर प्लेट्स पर पुलिस लिखा है ।”
“मैंने देखा था । तो अब ?”
“तू बोल ।”
“चार बजे की एक और पुलिसिये से भी राजा साहब की अप्वायन्टमेंट है ।” - इरफान ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “वो भी आता ही होगा ।”
“तो क्या करें ?”
“ऊपर जा और जा के विमल से बोल ।”
“ठीक है ।”
“बोल क्या, खुद सब इन्तजाम कर ।”
“सब इन्तजाम ? मैं करूं ? खुद ?”
“हां । मेहमान की मेहमाननवाजी तो बराबर होनी चाहिये न ?”
“मैं समझ गया । बराबर ही होगी । मैं ऊपर जाता हूं और राजा सहब को भेजता हूं ।”
“बढिया । तब तक मैं खानपान के मैनजर को और सिक्योरिटी चीफ को तैयार करता हूं और एक कार भी मारकी में पहुंचाता हूं ।”
“ठीक है ।”
***
इंस्पेक्टर पदमेश तिवारी आजादपुर पहुंचा ।
भूतपूर्व मैट्रोपोलिटन काउन्सर पवित्तर सिंह के घर को उसने ताला लगा पाया । घर एक चौकीदार के हवाले था जो कि पिछवाड़े की एक कोठरी में रहता था और घर का फोन लम्बी तार खींच कर जिसकी कोठरी में पहुंचा दिया गया था । चौकीदार से पूछने पर उसे वैसे ही निरर्थक जवाब मिले जैसे झामनानी के आदमी से मिले थे ।
कल सरदार जी अपनी एस्टीम पर लुधियाने के लिये रवाना हुए थे लेकिन आज सुबह एस्टीम कोई लौटा गया था ।
कब लौटेंगे ?
एक हफ्ते में ।
लुधियाने का पता ?
नहीं मालूम ।
घर का फोन उसकी कोठरी में किस लिये ?
फोन करने वालों को खबर करने के लिये कि सरदार जी लुधियाना गये थे ।
किंग्सवे कैम्प में स्थित पवित्तर सिंह के गोदाम को भी घर की तरह ताला लगा मिला ।
वैसा ही हाल माताप्रसाद ब्रजवासी के त्रिनगर में स्थित घर का मिला जो कि उसका ऑफिस भी था ।
पता चला कि ब्रजवासी मुम्बई गया था जहां से उसने अहमदाबाद जाना था और वो दो हफ्ते से पहले लौट के नहीं आने वाला था ।
आखिर में वो दरियागंज पहुंचा, जहां कि भोगीलाल का ऑफिस था, और गान्धी नगर पहुंचा, जहां कि वो रहता था ।
ऑफिस बन्द । घर बन्द ।
लाला पटना गया । अगले महीने लौटेगा ।
यानी कि जिन लोगों से झामनानी का कोई अता पता मालूम होने की उम्मीद थी, वो खुद गायब थे ।
थक हार कर उसने वापिस हैडक्वार्टर का रुख किया ।
***
होटल से एक किलोमीटर दूर स्थित उसी बनती इमारत के टॉप फ्लोर पर बारबोसा मौजूद था जिसे दो दिन पहले होटल की लॉबी को वॉच करने के लिये जमीर मिर्ची ने अपना मुकाम बनाया था । आंखों पर फील्ड ग्लासिज लगाये वो सुबह से होटल की निगाहबीनी कर रहा था जो कि निहायत बोरिंग काम था लेकिन काम की भारी उजरत को मद्देनजर रखते हुए जिसे करने से उसे कोई गुरेज नहीं था ।
सुबह सवेरे से वो वहां मौजूद था ।
उसके करीब स्टैण्ड पर लगा एक कोई गज भर लम्बे टेलीलेंस वाला वैसा कैमरा था जो स्पोर्ट्स फोटोग्राफर स्पोर्ट्स इवेंट्स कवर करने के लिये इस्तेामल करते थे । उसके फील्ड ग्लासिज भी कम शक्तिशाली नहीं थे लेकिन कैमरे के टेलीलेंस से होटल की तरफ झांकने से तो यूं लगता था जैसे वो हाथ बढा कर डोरमैने की मूंछ को ताव दे सकता था ।
स्टैण्ड के करीब सैंडविचिज का एक कार्टन, कॉफी की एक थर्मस फ्लास्क और मिनरल वाटर की दो बोतलें पड़ी थीं ।
उसके साजोसामान में टेलीस्कोपिक लैंस वाली रायफल भी शुमार थी जिसका रुख होटल की तरफ करके जिसे वो कई बार परख चुका था । आखिरकार वो इसी नतीजे पर पहुंचा था कि रायफल के असरदार इस्तेमाल के लिये वो फासला ज्यादा था, उसका निशाना चूक सकता था बल्कि उसके निशाना साध सकने से पहले ही उसक टार्गेट उसकी निगाहों से ओझल हो सकता था ।
लेकिेन टेलीलेंस वाले कैमरे से अपने टार्गेट का क्लोजअप फोटो वो बाखूबी खींच सकता था, पलक झपकते खींच सकता था ।
तभी एक शाही रखरखाव वाले रोबीले सिख ने होटल के ग्लास डोर से बाहर कदम रखा ।
तत्काल बारबोसा ने फील्ड ग्लासिज से किनारा किया और कैमरे के व्यू फाइन्डर में आंख लगा दी ।
राजा साहब ने होटल के ग्लास डोर से बाहर कदम रखा ।
होंडा सिटी की ड्राइविंग सीट पर बैठा सिपाही राजा साहब के लिये पिछला दरवाजा खोलने के लिये फुर्ती से बाहर निकला लेकिन इरफान ने पहले ही आगे बढ कर पिछला दरवाजा खोल दिया । राजा साहब भीतर बिराजे तो उसने मुस्तैदी से दरवाजा बन्द किया ।
होंडा सिटी के पीछे एक जेन आ खड़ी हुई थी जिसमें पीछे होटल का सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े और सीनियर मैनेजर फूड एण्ड बेवरेजिज जाफरी हाल सवार थे । आगे होटल का वर्दीधारी शोफर था और उसके साथ मारवाड़े का पुंडालिक नाम का एक मातहत सवार था ।
फिर एक मिनी कानवाय की सूरत में तीन गाड़ियां वहां से रवाना हुईं ।
पहले लाल बत्ती चमकाती पायलट जीप, फिर होंडा सिटी और फिर होटल की जेन ।
उन गाड़ियों के ड्राइव वे से गुजर कर ‘आउट’ का आयरन गेट पार करते ही, ‘इन’ के आयरन गेट से पुलिस की एक अन्य जीप भीतर दाखिल हुई ।
होटल में दाखिल होने को तत्पर इरफान ठिठका ।
जीप मारकी में उसके सामने आकर खड़ी हुई और उसमें से एक युवा पुलिस इन्स्पेक्टर बाहर निकला ।
इरफान ने देखा पीछे जीप में ड्राइवर के अलावा कोई नहीं था और ड्राइवर ने जीप से नीचे उतरने की कोशिश नहीं की थी ।
इंस्पेक्टर ने आगे पार्किंग की तरफ इशारा किय तो ड्राइवर जीप को मंथर गति से चलाता उधर ले चला ।
इंस्पेक्टर भीतर को बढा तो इरफान उसके साथ चलने लगा ।
डोरमैन ने दरवाजा खोला, दोनों भीतर दाखिल हुए । फिर इन्स्पेक्टर ठिठका, उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से इरफान की तरफ देखा ।
“मैं सिक्योरिटी अफसर हूं ।” - इरफान बोला - “कोई मेरे लायक सेवा हो तो बताइये ।”
“सूरत” - इन्स्पेक्टर उसे घूरता हुआ बोला - “कुछ पहचानी सी जान पड़ती है ।”
“कभी इधर आये होंगे ।” - इरफान लापरवाही से बोला ।
“पहली बार आया हूं ।”
“किसी से मिलती होगी ।”
“हो सकता है । मेरा नाम दामोदर राव है । इन्स्पेक्टर होता हूं मैं मुम्बई पुलिस में । मेरी होटल के मौजूदा प्रोप्राइटर से चार बजे की अप्वायन्टमेंट है ।”
“ओह ! वो इन्स्पेक्टर दामोदर राव हो !”
“वो का क्या मतलब ?”
“जिसने सुबह अप्वायन्टमेंट के लिये फोन किया था ?”
“हां, लेकिन तुम्हें कैसे मालूम ?”
“तुम्हारी कॉल मैंने रिसीव की थी । मैं” - इरफान के स्वर में गर्व का पुट आ गया - “मालिक का खास हूं ।”
“मालिक ?”
“राजा गजेन्द्र सिंह ।”
“जो कि नैरोबी से आये एन.आर.आई. बताये जाते हैं ?”
“बताये नहीं जाते । हैं ।”
“अच्छा, भई । हैं ।”
“वैसे कमाल है ।”
“क्या ? क्या कमाल है ?”
“अक्खे महकमे को राजा साहब की सूझ रहे हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“अभीच तो पुलिस वालों की एक टीम....”
“याद आ गया ।” - दामोदर राव चुटकी बजाता हुआ बोला - “तुम्हारी जुबान से, तुम्हारे लहजे से याद आ गया । डी.वी. मार्ग पुलिस स्टेशन । दंगा करने के इलजाम में पकड़ कर लाया गया था । तुकाराम और उसके बड़े भाई शान्ताराम ने जमानत भरी थी । तब मैं नया नया सब-इन्स्पेक्टर भरती हुआ था और वो - डी.वी. मार्ग पुलिस स्टेशन वाली - मेरी पहली पोस्टिंग थी । कुछ याद आया, इरफान अली ?”
“सब याद आया, बाप ।” - इरफान सकपकाया सा बोला - “क्या मांगता है ?”
“हौसला रख । तेरे को नहीं मांगता ।”
“शुक्र है ।”
“अनपढ टपोरी ! इतने बड़े होटल का सिक्योरिटी अफसर ! वाह !”
“सुधर गया न, बाप !”
“लेकिन अफसर ?”
“मालिक मेहरबान है । कद्र किया । रुतबा दिया ।”
“मालिक यानी कि राजा गजेन्द्र सिंह एन. आर.आई. फ्रॉम नैरोबी ?”
“हां ।”
“मेरा पास राजा साहब की बाबत मेरे डी.सी.पी. डिडोलकर को आयी ई-मेल की हार्ड कापी है । इरफान अली, तू तो समझता नहीं होगा कि ई-मेल क्या होती है ? हार्ड कापी क्या होती है ?”
“समझता है न, बाप ?”
“इंगलिश में भी हुई तो कोई वान्दा नहीं, तू तर्जुमा कर ही लेगा ?”
“खिल्ली उड़ाता है, बाप !”
दामोदर राव हंसा ।
“खुद ही बोलो न, क्या है ई-मेल में ?”
“ये देख ।” - दामोदर राव ने से कम्पयूटर से निकला एक लेजर प्रिंट दिखाया - “इसके जरिये किसी ने पुलिस के पास गुमनाम शिकायत दर्ज करायी है कि कथित राजा गजेन्द्र सिंह गैरकानूनी तरीके से हिन्दोस्तान में मौजूद है ।”
“बंडल मारेला है कोई ।” - इरफान आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “राजा साहब इतना बड़ा आदमी है । इतने बड़े होटल का मौजूदा मालिक है । इतना पैसा लगाया है उसने बाहर से कमा के लाकर इस होटल में । वो कोई गैरकानूनी काम क्यों करेगा ?”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा । मुझे तफ्तीश करने का हुक्म हुआ है । हो सकता है कि तफ्तीश से यही साबित हो कि ये शिकायत झूठी है ।”
“जब हो सकता है तो....”
“हो सकता है बोला । है नहीं बोला । तफ्तीश करनी पड़ती है, जो हुक्म हुआ है, उसे बजाना पड़ता है ।”
“भले ही कोई कुत्ता भौंक दे ?”
“हां । ऐसा ही कायदा है । ऐसा ही दस्तूर है ।”
“ये तो अन्धेर है....”
“अब तू मुझे राजा साहब से मिलवा ताकि मैं अपनी ड्यूटी कर सकूं ।”
“टेम लगेगा ।”
“क्यों, भई ? चार तो बजने वाले हैं ।”
“तुम्हारे से पहले वाली अप्वायन्टमेंट लम्बी खिंच गयी है ।”
“ओह ! हो जाता है ऐसा ।”
“वही तो ।”
“कोई बात नहीं । मैं इन्तजार करता हूं उनके फारिग होने का ।”
“बार मैं बैठ जाओ, इन्तजार खलेगा नहीं । राजा साहब फारिग होंगे तो मैं खबर कर दूंगा ।”
“नहीं, बार में नहीं ।”
“तो कॉफी शाप में ?”
“राजा साहब का ऑफिस कहां है ?”
“चौथी मंजिल पर ।”
“वहां इन्तजार करने में क्या वान्दा है ?”
“वान्दा तो कोई नहीं....”
“तो ?”
“मेरे पास बैठो न, बाप । वो रिसेप्शन के बाजू में मेरा ऑफिस है । मैं कॉफी मंगायेंगा तुम्हारे लिये । कॉफी में तो कोई वान्दा नहीं ?”
“नहीं । चलो ।”
इरफान दामोदार राव को उस ऑफिस में ले आया जो अभी कल तक ‘कम्पनी’ के आखिरी सिपहसालार श्याम डोंगरे का ऑफिस होता था ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर पहुंच कर इन्स्पेक्टर पदमेश तिवारी अपने आला अफसर डी.सी.पी. मनोहरलाल के हुजूर में पेश हुआ ।
उसने अपनी विस्तृत रिपोर्ट पेश की ।
“हूं ।” - मनोहरलाल बोला - “ये तो साफ मिलीभगत का नतीजा जान पड़ता है । मशवरा करके, एक राय बना के गायब हुए जान पड़ते हैं दादा लोग ।”
“सर, तभी तो एक साथ गायब हुए ।”
“कोई बात नहीं । जायेंगे कहां ? दाना पानी छोड़ कर कौन कहीं जा सकता है ? नीड़ से उड़े पंछी ने नीड़ पर ही लौटना होता है । ये भी लौट आयेंगे ।”
इंस्पेक्टर खामोश रहा ।”
“लेकिन ताड़ रखनी है इन लोगों की - खासतौर से झामनानी की - ये न हो कि वो लोग लौट भी आये हों और हमें खबर न लगे ।”
“ऐसा नहीं होगा, सर ।”
“अब एक काम और करो ।”
“और काम ?”
“गुड़गांव पहुंचो ।”
“गुड़गांव पहुंचूं ?”
“इन्स्पेक्टर । तुम्हारी हियरिंग मे कोई प्राब्लम है, मेरी बात समझने में तुम्हें कोई दिक्कत हो रही है ?”
“नो, सर ।”
“तो फिर ?”
“सर, मैं अर्ली मार्निंग का निकला हुआ हूं, अभी तक लंच भी नहीं कर सका हूं ।”
“लंच क्या प्राब्लम है ? पांच मिनट का काम होता है । नो ?”
“यस, सर ।”
“गुड़गांव में तुम्हें होटल एस्टोरिया पहुंचना है । वहां ओवरनाइट स्टे का एक पैकेज चलता है, जो कि बहुत पापुलर है, जिनका कि फोर्टनाइटली लक्की ड्रॉ निकाला जाता है । वो ड्रॉ इस बार डी-14, विवेक विहार, दिल्ली के साधूराम मालवानी का निकला है जो कि पन्द्रह मई को वहां ठहरा था । तुमने होटल में इस साधूराम मालवानी की बुकिंग के रिकार्ड की फोटोकापी लानी है । चैक-इन के वक्त उसने होटल का कोई रजिस्टर साइन किया हो तो रजिस्टर के उस पेज की फोटोकापी लानी है, कोई रजिस्ट्रेशन कार्ड साइन किया हो तो कार्ड की फोटोकापी लानी है । समझ गये ?”
“यस, सर ।”
“लक्की ड्रॉ वहां ओवरनाइट स्टे करने वाले जोड़े का ही निकाला जाता है इसलिये जाहिर है कि उस शाम उसके साथ फीमेल कम्पैनियन थी ।”
“बीवी होगी, सर ।”
“इन्स्पेक्टर, डोंट जम्प टु इन्क्लूजंस ।”
“सॉरी, सर ।”
“बीवी थी तो तफ्तीश से तसदीक करना है कि बीवी थी । बीवी नहीं थी तो पता लगाना है कि वो कौन थी, दिखने में कैसी थी वगैरह । ठीक ?”
“यस, सर ।”
“वो वहां रूम नम्बर दो सौ बत्तीस में ठहरा था । वहां के सर्विस स्टाफ से, फ्लोर वेटर से, रूम सर्विस वाले स्टाफ से, या ऐसे ही किसी स्टाफ से जो वहां पहुंचने पर तुम्हें सूझे, उसकी बाबत जानकारी हासिल हो सकती है । फालोड ?”
“यस, सर ।”
“छ: बजे तक मुझे तमाम जानकारी हासिल हो जाये ।”
“छ:.. छः बजे तक ?”
“यस । नाओ गैट अलांग ।”
इन्स्पेक्टर ने सैल्यूट मारा और मन ही मन अपनी नौकरी से ज्यादा अपने डी.सी.पी. को कोसता वो वहां से रुख्सत हुआ ।
पीछे मनोहरलाल ने सब-इन्स्पेक्टर दीपक वधावन को तलब किया ।
“गोली की तरह विवेक विहार पहुंचो ।” - मनोहरलाल बोला - “वहां डी-14 में साधूराम मालवानी नाम का एक शख्स रहता है । कोई आदमी जिस इलाके में रहता होता है, उसमें आसपास के किसी बैंक में उसका खाता अमूमन जरूर होता है । तुमने डी-14 से नजदीकी बैंक से शुरू करके अपना दायरा और बैंकों तक बढाना है और मालूम करना है कि इस साधूराम मालवानी का खाता कौन से बैंक में है ? जब बैंक मालूम हो जाये तो वहां से इस शख्स के हस्ताक्षरों की फोटोकापी निकलवा कर लानी हैं ।”
“वो देंगे ?”
“हुज्जत तो करेंगे लेकिन जब बड़े और गम्भीर केस के लिये जरूरी बताओगे तो मान जायेंगे । तो भी न मानें तो मैनेजर से फोन पर मेरी बात कराना ।”
“अगर आसपास के बैंकों में खाता न निकला ?”
“तो तुम्हारा काम बढ जायेगा । तो तुम्हें लौट कर इंकम टैक्स डिपार्टमेंट में जाना होगा जो कि सामने ही है । इंकम टैक्स का महकमा आज कल पूरी तरह से कम्प्यूटराइज्ड है । मालवानी टैक्स भरता होगा तो इस बात की तसदीक कम्पयूटर से हो जायेगी । फिर उसकी कोई पुरानी रिटर्न निकलवा कर उस पर हुए उसके हस्ताक्षरों की फोटोकापी निकलवाना आसान होगा । टैक्स ही नहीं भरता होगा तो कुछ हाथ नहीं लगेगा । तब खुद कोई तरकीब सोचना हस्ताक्षरों का नमूना हासिल करने की । आखिर पढ़े लिखे हो, नौजवान हो, सब-इन्स्पेक्टर भरती हुए हो तो जाहिर है कि आइन्दा जिन्दगी पुलिस के महकमे में ही कटने वाली है इसलिये जरा अपनी सोच से भी दिमाग को हरकत देना । जिस्म को भी । समझे ?”
“यस, सर ।”
“मालवानी की बाबत एक जानकारी और है जो, पहली दो कोशिशें फेल हो गयीं तो, तुम्हारे काम आयेगी । वो आजकल प्रीत विहार के सचदेवा मैडीकल सेंटर नाम के नर्सिंग होम में भरती है । ओके ?”
“यस, सर ।”
“काम हो या न हो, छ: बजे तक रिपोर्ट करना है ।”
“यस, सर ।”
“गैट अलांग ।”
***
इन्स्पेक्टर दामोदर राव ने कॉफी का आखिरी घूंट पी कर कप नीचे रखा और अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
इरफान कि निगाह भी स्वयंमेव ही घड़ी की ओर ठठ गयी ।
सवा चार बजे थे ।
“एक बात पूछने का था, बाप ।” - उसको बातों में लगाने की नीयत से इरफान बोला ।
“क्या ?”
“तुम्हारे महकमे में रिश्वतखोरी नीचे नीचे ही होती है या ऐन टॉप तक होती है ।”
दामोदर राव ने उसे घूर कर देखा ।
“ऐसीच पूछा ।” - इरफान जल्दी से बोला - “जवाब नहीं भी दोगे तो कोई वान्दा नहीं ।”
“टॉप तक होती है ।”
“मुकम्मल ?”
“नहीं । क्योंकि कोई कोई इन्स्पेक्टर दामोदर राव जैसा सुपर ईडियट भी होता है महकमे में ।”
“क्या बोल, बाप ?”
“कुछ नहीं ।”
“तुम्हारा कमिश्नर इधर बड़ी पार्टी करना मांगता है पण बिल नहीं भरना मांगता तो ये भी तो रिश्वत ही होयेंगा न ?”
“हां । लेकिन पुलिस की बड़ी पार्टी ? किस बात की ?”
“कुछ फाउन्डेशन डे करके बोला कोई ।”
“मुम्बई पुलिस का फाउन्डेशन डे ?”
“हां ।”
“उसके आने में तो अभी दस महीने बाकी हैं ।”
“क्या ?”
“अभी मार्च में तो हो के हटा है वो फंक्शन ।”
“मार्च में ? इसी महीने के अगले हफ्ते नहीं ?”
“नहीं । कौन बोला ऐसा ?”
“कोई नहीं । ऐसीच कान बजे मेरे ।”
“अभी और कितनी देर इन्तजार करना पड़ेगा ।”
“और इन्तजार नक्को ।” - इरफान एकाएक उठता हुआ बोला - “राजा साहब तुमसे मिलने के लिये तैयार हैं । आओ ।”
“कैसे मालूम ?”
“क्या कैसे मालूम ?”
“कहीं से कुछ दरयाफ्त तो किया नहीं ? न ही कोई आ के कुछ बोला ? न कोई फोन आया ?”
“ओह, वो ? वो क्या है कि... बाप, समझो इलहाम हुआ । आओ ।”
दामोदर राव उठ कर उसके साथ हो लिया ।
***
फोन की घंटी बजी ।
ऊंघते से मुकेश बजाज ने हाथ बढा कर फोन उठाया ।
“लक्ष्मी बोल रहा हूं ।” - आवाज आयी ।
“कहां है ?”
“वहीं ।”
“अभी भी ?”
“और क्या ? सवेरे से सूख रहे हैं, उसने तो एक बार भी घर से बाहर कदम नहीं रखा ।”
“कमाल है !”
“भोर से शाम हो गयी, जो अब तक न निकला वो अब क्या निकलेगा ?”
“क्या ? नहीं, नहीं । वहीं रहना है । इस मौसम में अमूमन लोग बाग शाम को ही घर से निकलते हैं ।”
“मैं कल से फंसा हुआ हूं लगातार । मेरे में अब और दम नहीं है ।”
“मुरली भी तो है ?”
“उसका भी यही हाल है ।”
“क्या चाहते हो ?”
“तुम्हें मालूम है क्या चाहते हैं ।”
“ठीक है । वहीं ठहरो अभी, मैं दो जनों को भेजता हूं तुम्हारी जगह लेने के लिये ।”
“फौरन ?”
“हां, फौरन । बड़ी हद आधे घन्टे में वो तुम्हारे पास पहुंच जायेंगे ।”
“शुक्रिया ।”
“लेकिन ध्यान रहे लक्ष्मी, अगर आधे घन्टे से पहले मुबारक अली कहीं चल दिया तो तुम्हीं दोनों ने उसके पीछे लगना है ।”
“मरवाया ।”
“ये जरूरी है । लक्ष्मी, तू जानता है ये जरूरी है ।”
“अच्छी बात है ।”
लाइन कट गयी ।
***
तीन गाड़ियों का मिनी कानवाय फोर्ट एरिया की तरफ बढ रहा था जहां कि वृहत् मुम्बई पुलिस का मुख्यालय था ।
विलेपार्ले गया, सान्ताक्रूज गया, खार गया, बान्द्रा गया, फिर कानवाय माहिम काजवे पर दाखिल हुआ ।
तब वो वारदात वाकया हुई जिसका राजा साहब को होटल से रवाना होने के बाद से ही इन्तजार था ।
माहिम काजवे पार करते ही होंडा सिटी पायलट जीप के पीछे चलती रहने की जगह एकाएक बायें घूम गयी ।
जीप को जोर की ब्रेक लगी ।
होंडा सिटी बीच मे से निकल गयी होने की वजह से जेन के ड्राइवर के ब्रेक लगाते लगाते भी जेन जीप से जा टकराई ।
जीप से जेन के आ टकराने से पहले ही सब -इन्स्पेक्टर - जो कि कोली था - जीप में से कूद गया और सरपट होंडा सिटी के पीछे भागा । एक सैकेंड के लिये होंडा सिटी को ब्रेक लगी तो वो पिछली सीट का दरवाजा खोल कर भीतर राजा साहब की बगल में बैठ गया ।
जेन के पीछे आती एक मैटाडोर वैन जेन से टकराई ।
दो टक्करों की भीषण आवाज हुई ।
कोलाहल मच गया ।
जेन मैटाडोर वैन और जीप में सैंडविच हो कर रह गयी ।
तब तक होंडा सिटी का कहीं पता नहीं था ।
फिर जीप, जो जबरन जेन को दबोचे थी, उससे अलग हुई और गोली की रफ्तार से वीर सावरकर मार्ग की ओर भाग निकली ।
मैटोडोर वैन से दो आदमी बाहर निकले और बड़े इत्मीनान से चलते हुए माहिम फोर्ट की दिशा में बढे और भीड़ में विलीन हो गये ।
जब तक पुलिस मौकायवारदात पर पहुंची, तब तक वहां केवल लावारिस मैटाडोर वैन और आगे पीछे से बुरी तरह से चिपकी जेन - सौभाग्यवश जिसके भौंचक्के मुसाफिरों को कोई चोट नहीं पहुंची थी - खड़ी थी ।
उस घड़ी होंडा सिटी धारावी बान्द्रा लिंक रोड से माहिम क्रीक फिर पार करके वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर पहुंची थी और तब उसी दिशा में वापिस दौड़ रही थी जिससे कि वो रवाना हुई थी ।
“क्या माजरा है, ए. सी. पी. साहब ?” - दो पुलिसियों में सैंडविच बने बैठे राजा साहब धीरज से बोले - “हम तो वापिस जा रहे हैं ।”
ए. सी. पी. मुस्कराया, उसका नाम वाकई नानवटे था और वो उन दो डीसेंट मवालियों में से था जो चिरकुट और कोली ने ब्रजवासी के लिये तलाश किये थे । आगे ड्राइविंग सीट पर बैठा सिपाही और उनके बाजू में बैठा गनर बाकी चार मवालियों में से दो थे ।
“कोई एतराज ?” - वो बोला ।
“नहीं, भई, एतराज कैसा ?”
“बढिया ।”
“यानी कि कमिश्नर से मुलाकात कैंसल ?”
“कैंसल ।”
“फोर्ट जाना कैंसल ?”
“कैंसल ।”
“तो अब हम होटल वापिस जा रहे हैं ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“मालूम पड़ जायेगा । कहीं तो पहुंचेंगे ही न ?”
“वो तो है । तो... वो पीछे... पुल पर जो ड्रामा हुआ, वो तुम लोगों ने इरादतन स्टेज किया था ?”
“हां । और अभी आगे जो ड्रामा स्टेज करेंगे, वो भी इरादतन ही करेंगे ।”
“कैसा ड्रामा ?”
“तुम्हारी मौत का ड्रामा ।”
“ओह ! तो ये इरादे हैं ? ड्रामा स्टेज करने के लिये अगवा किया हमारा ?”
“और कितनी कामयाबी से किया ?”
“कामयाबी तो अभी आगे आयेगी न !”
“सामने ही है । बाकी क्या बचा है ?”
“तो जो करना है, कर क्यों नहीं चुकते हो ?”
“अभी नहीं । जरा मनोरी बीच पहुंच लें ।”
“ओह ! जो करना है, उजाड़ में करोगे ? तनहाई में करोगे ?”
“कितना श्याना है भीड़ू !”
“सोहल ?” - एकाएक कोली ने उसकी पसलियों में रिवॉल्वर की नाल सटा दी और बोला - “अब तेरा जीवन हमारे हाथ में है ।”
“मूर्ख ! मेरा जीवन ईश्वर के हाथ में है ।”
“अब तेरे लिये हम ही ईश्वर हैं, भीड़ू ।” - नानवटे बोला ।
राजा साहब हंसे ।
“सोहल ?” - कोली बोला - “दाढी पगड़ी उतार ले, गर्मी लग रही होगी ।”
“नहीं लग नहीं । बल्कि उतार लूंगा तो ठण्ड लगने लगेगी ।”
“तो तू मानता है तू सोहल है ?”
“मानना ही पड़ेगा, भाई । इतने सारे ईश्वरों से कोई झूठ बोल सकता है !”
“अब खामोश बैठ और अपने वाहेगुरु का नाम ले ।”
“अब क्यों ? अपने बनाने वाले का नाम तो मैं हमेशा लेता हूं ।”
“बढिया । खामोश बैठ ।”
मलाड पहुंचकर कार बायें घूमी, घोड़बन्दर रोड पर पहुंची और फिर आगे से बायें मोड़ काट कर मार्व रोड पर दौड़ने लगी । आखिरकार वो मनोरी बीच पहुंची और बीच के एक सुनसान हिस्से में जा कर रुकी ।
सब कार से बाहर निकले ।
उन्होंने राजा साहब को एक ओर धकेल दिया और खुद उसके सामने खड़े हो गये । गनर की गन और नानवटे और कोली की रिवॉल्वरें उसकी तरफ तन गयीं ।
“तैयार हो जा, सोहल ।” - कोली कर्कश स्वर में बोला ।
“मौत के लिये मैं सदा तैयार रहता हूं लेकिन एक दरख्वास्त है ।”
“क्या ?”
“मैं चाहता हूं मेरी मौत की घड़ी में मेरे वाहेगुरु का अनादर न हो ।”
“क्या मतलब ?”
“मेरे गले में जो जंजीर है, उसमें वाहेगुरु का कण्ठा है ।”
“तो ?”
“मैं उसे उतारना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“मैं नहीं चाहता कि मेरे वाहेगुरु की छवि मेरे खून से रंगे ।”
“हूं । उतार के क्या करेगा ?”
“मैंने क्या करना है ? अब मेरे किस काम का ? भले ही तुम ले लेना ।”
“हमारे भी किस काम का ?”
“सोने का है । चार हीरे जड़े हैं । जंजीर भी सोने की है ।”
“ओह ! उतार ।”
“शुक्रिया ।”
उसने अपना कोट उतार कर रेत पर एक ओर डाला, टाई उतार कर कोट पर डाली और कमीज के बटन खोले ।
नीचे से जगमग कण्ठा बरामद हुआ जिस पर आशीर्वाद की मुद्रा में बाबा नानक गुदे हुए थे ।
चारों अपलक उसे देख रहे थे ।
उसने दोनों हाथ उठा कर उन्हें पीठ पीछे किया ताकि वो जंजीर उतार सकता ।
“जल्दी कर ।” - कोली उतावले स्वर में बोला ।
“जरूर । अभी ।” - उसका हाथ शोल्डर ब्लेड्स के बीच में पीठ पर टेप से चिपकाई रिवॉल्वर पर पड़ा - “मुझे भी जल्दी है ।”
“तुझे भी जल्दी है ?”
“हां ।” - रिवॉल्वर की मूठ उसकी पकड़ में आयी, उसने मूठ उमेठ कर उसे टेप की गिरफ्त से आजाद किया ।
“मरने की ?”
“मारने की ।”
बिजली की फुर्ती से रिवॉल्वर वाला हाथ सामने आया और इससे पहले कि रिवॉल्वर पर उनकी ठीक से निगाह भी पड़ पाती, उसने प्वायन्ट ब्लैंक रेंज से तीनों हथिरयारबन्द मवालियों को शूट कर दिया ।
चौथा - सिपाही की वर्दी वाला मवाली, कार का ड्राइवर, जिसका नाम रघु था, जो कि खाली हाथ था - घूम कर बगूले की तरह कार की तरफ भागा ।
पीछे से एक फायर हुआ ।
वो बाल बाल बचा ।
वो कार के पास पहुंचा लेकिन दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल होने की जगह कार के नीचे घुस गया और पार निकल कर कार की ओट में करीबी पेड़ों के झुरमुट की ओर भागा ।
दो फायर और हुए ।
एक गोली उसके बायें कन्धे को छूती गुजरी ।
तब तक वो पेड़ों की सुरक्षात्मक ओट में पहुंच चुका था ।
“बच गया साला ?” - पीछे शोहाब बोला । उसने रेत पर से कोट और टाई उठाई, टाई को कोट की जेब में ठूंसा और जा कर कार में सवार हो गया । उसने पगड़ी उतार कर पैसेंजर सीट पर रखी और फिफ्टी और दाढ़ी मूंछ उतार कर पगड़ी में रख दीं । वैसे ही उसने हीरा जड़ी पांच अंगूठियां, कण्ठे वाली जंजीर और सोने का भारी कड़ा उतार कर पगड़ी में रखा ।
रिवॉल्वर उसने ड्राइविंग सीट के नीचे रख ली ।
फिर हौले हौले सीटी बजाता वो वापिस लौट चला ।
ब्रजवासी की पहली चाल पीट कर ।
उसके तीन पिटे हुए मोहरे पीछें रेत पर लुढके पड़े छोड़ कर ।
***
पिछले रोज ईस्साभाई विगवाला से हासिल हुई नयी दाढी मूंछ के सदके राजा साहब का भव्य बहुरूप धारण किये विमल ऑफिस में मौजूद था ।
उस घड़ी बायीं कलाई पर रौलेक्स की गोल्ड वॉच के अलावा वो कोई जेवर नहीं पहने था क्योंकि राजा साहब के बहुरूप का अंग तमाम जेवरात शोहाब ले गया था ।
दाढी मूंछ के दो सैट उपलब्ध होने से ही शोहाब को ये आइडिया आया था कि वो भी राजा साहब का बहुरूप धारण कर सकता था और विमल की जगह उन पुलिस वालों के साथ जा सकता था जिनके नकली होने का शक उनकी होंडा सिटी कार ने जगाया था ।
अब उसके आइन्दा शिड्यूल में सिवरी के उस प्राप्स सप्लायर से मिलना भी था जिससे कि उसने राजा साहब की शान जेवरात हासिल किये थे और अब दाढी मूंछ के डबल सैट की तरह जेवरात का डबल सैट भी मुहैया करना था ।
वो अब महसूस कर रहा था कि उसके बहुरूप का सैट पहले से डबल होता तो वो रणदीवे की कौल से मुलाकात अपनी मौजूदगी में कराने की मांग भी पूरी कर सकता था । तब वो आज की तरह शोहाब को राजा साहब बना सकता था और खुद कौल बन सकता था ।
शोहब को वैसे अकेला जाने देने के हक में वो नहीं था लेकिन जब इरफान ने भी यही जिद पकड़ ली थी कि उसे शोहाब को जाने देना चाहिये था तो उसने हथियार डाल दिये थे ।
एक शंका उसके मन में थी ।
पुलिस वाले नकली न होते और वो अपने हुक्स के मुताबिक राजा साहब को अपने कमिश्नर से मिलवाने पुलिस हैडक्वार्टर ले जाते तो क्या होता ?
क्या शोहाब के बहुरूप की पोल खुल जाती ?
वो खतरा तो विमल को भी होता ।
क्या शोहाब कमिश्नर से वांछित वार्तालाप करने में कामयाब हो पाता ?
क्यों न हो पाता ? आखिर खूब पढा लिखा था, काबिल था, जहीन था, दुनियादार था ।
विमल को न जाने देने के पीछे इरफान की दूसरी दलील ये थी कि उसकी इन्सपेक्टर दामोदर राव से फिक्स्ड टाइम अप्वायन्टमेंट थी, चार बजे उस अप्वायन्टमेंट के लिये उसका होटल में मौजूद न होना पीछे कोई ऐसी समस्या खड़ी कर सकता था जिससे दो चार हो पाना हर किसी के बस का न होता ।
वैसे भी होटल पर और उसके नये मालिक पर पुलिस का फोकस बनना गलत था इसलिये चार बजे वहां पहुंचने वाले इन्स्पेक्टर को राजी कर के भेजना जरूरी था ।
उसने वाल क्लॉक पर निगाह डाली ।
चार बीस हुए थे ।
पन्द्रह बीस मिनट ही उसने इरफान को इन्स्पेक्टर को इन्तजार कराने की हिदयत दी थी ।
तभी दरवाजा खुला और पहले इंस्पेक्टर ने और फिर इरफान ने भीतर कदम रखा ।
इंस्पेक्टर ने उसका अभिवादन किया ।
“आइये ।” - विमल स्वागतपूर्ण स्वर में बोला - “आइये, इन्स्पेक्टर साहब । जी आया नूं । तशरीफ रखिये ।”
“थैंक्यू ।” - दामोदर राव सुसंयत स्वर में बोला और एक विजिटर्स चेयर पर ढेर हो गया ।
“फरमाइये, क्यों मिलना चाहते थे आप हमसे ?”
दामोदर राव ने एक अर्थपूर्ण निगाह करीब खड़े इरफान पर डाली लेकिन उसके मेजाबान ने उसकी उस निगाह का कोई नोटिस लिया हो, ऐसा उसे न लगा ।
“सर” - वो जानबू्झ कर अंग्रेजी में बोला ताकि इरफान न समझ पाता - “आई विल एडवाइज यू इन युअर ओन इन्टरेस्ट नाट टु हैव ए विटनेस प्रेजेन्ट ड्यूरिंग अवर डायलाग ।”
“इन अवर इन्टरेस्ट ?” - विमल की भवें उठीं ।
“यस, सर ।”
“इन वाट वे ?”
“यू विल कम टु नो ।”
“इरफान अली से हमारा कुछ छुपा नहीं है ।”
“आई एप्रिशियेट इट सर, लेकिन डायलाग दो जनों में होता है ।”
“क्या मतलब ?”
“मेरा बहुत कुछ छुपा हो सकता है, बल्कि सब कुछ छुपा हो सकता है ।”
“हूं ।” - विमल ने कुछ क्षण उस बात पर मनन किया और फिर इरफान को संकेत किया
हिचकता हुआ इरफान ऑफिस से निकल गया । उसके पीछे दरवाजा पूर्ववत् बन्द हो गया ।
“अब ठीक है ?” - पीछे विमल बोला ।
“जी हां ।”
“तो कहिये जो कहना चाहते हैं । पूछिये जो पूछना चाहते हैं ।”
“कुछ कहने पूछने की शुरुआत से पहले मैं आपको आगाह करना चाहता हूं ।”
“किस बात से ?”
“इस बात से कि आप मेरे किसी सवाल का जवाब देने के लिये बाध्य नहीं हैं ।”
“अच्छा !”
“आप मुझे मुलाकात का वक्त देने के लिये भी बाध्य नहीं हैं ।”
“हम मुलाकात का वक्त न देते तो आपकी सो काल्ड जरूरी इंक्वायरी का क्या होता ? हम अभी भी आप की राय पर अमल करें और आपके किसी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दें तो आप क्या करेंगे ? उठ कर चल देंगे ?”
“जी हां ।”
“और इंक्वायरी ड्रॉप कर देंगे ?”
“जी नहीं ।”
“तो ?”
“तो पुलिस से असहयोग के आपके रवैये को आपके खिलाफ इस्तेमाल किया जायेगा । तो आपके साथ ऐसे पेश आया जायेगा जैसे कि कोर्ट में अपने बयान से मुकर गयी किसी होस्टाइल विटनेस के साथ पेश आया जाता है तो मेरे आला अफसरों का अख्तियार बन जायेगा आपको हिरासत में लेकर वो सवालात पूछने का जिन्हें पूछने का तमन्नाई बना मैं आपके दरबार में सविनय हाजिरी भर रहा हूं ।”
“वैरी वैल सैड । लिहाजा हमने अच्छा किया जो कि आपको मुलाकात का वक्त देने से इनकार न किया ?”
“जी हां । यूं अब जो बात आपके और मेरे बीच होगी, हो सकता है कि वो कोई व्यापक रूप अख्तियार न कर पाये ।”
“कौन सी बात ?”
“आगे आयेगी ।”
“तो आगे पहुंचो, भाई ।”
“बस, पहुंचा ही समझिये । सर, सबसे पहले मैं आप को कुछ दिखाना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“ये” - दामोदर राव ने कम्प्यूटर से निकाला लेसर प्रिंट विमल के सामने रखा - “मेरे डी.सी.पी. मिस्टर डिडोलकर को आयी ई-मेल की हार्ड कापी है । मेरी प्रार्थना है कि आप इसे पढ लें, फिर मेरे लिये अपनी यहां आमद की वजह बयान करना जरूरी नहीं रह जायेगा । तो समझियेगा कि जिस बात पर मैंने आगे पहुंचना है, मैं पहुंच गया ।” - वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “आप भी ।”
“इज दैट सो ?”
“यस, सर । दि टैक्स्ट इज सैल्फ एक्सप्लेनेटरी ।”
“हूं ।”
विमल ने बड़ी संजीदगी से तहरीर को पढा, दोबारा पढा ।
“इस पर” - फिर वो बोला - “भेजने वाले के तो कोई पर्टीकुलर्स दर्ज नहीं हैं !”
“जाहिर है, लेकिन गुमनाम कम्यूनीकेशन पुलिस के लिये रोजमर्रा की बात है ।”
“कोई गैरजिम्मेदार, खुन्दकी आदमी अपने मन की भड़ास निकालने के लिये या अपनी जहालत का हवा देने के लिये या खुद को मैंटल केस साबित करने के लिये किसी के खिलाफ ऐसी बकवास करता है तो वो आप लोगों को कुबूल होती है ?”
“कुबूल तो नहीं होती लेकिन तफ्तीश तो करनी पड़ती है ।”
“एक पागल के प्रलाप की ?”
“ये भी तो तफ्तीश से ही पता चलता है न, सर, कि किसी पागल ने प्रलाप किया है या कोई सारगर्भित बात कही है ।”
“हूं ।”
“ऐसी कम्यूनीकेशन को हम नजरअन्दाज करें और तफ्तीश न करें तो हमारे लिये ही मुश्किल खड़ी हो सकती है ।”
“वो कैसे ?”
“अगली बार यही ई-मेल कमिश्नर के पास पहुंच जायेगी । साथ में डी.सी.पी. की शिकायत दर्ज होगी कि उसने कोई एक्शन न लिया । कमिश्नर भी इसे नजरअन्दाज करेगा तो चिट्ठी स्टेट होम मिनिस्टर के पास पहुंच जायेगी, चीफ मिनिस्टर के पास पहुंच जायेगी ।”
“यू डू हैव ए प्राब्लम देयर ।”
“यस, सर । सर, शिकायत भले ही गुमनाम हो, बेपर की हो लेकिन उस पर कोई एक्शन लेना जरूरी लेना जरूरी होता है, भले ही वो खानापूरी के लिये हो ।”
“तो आप खानापूरी करने के लिये पधारे हैं ?”
“अगर पूछताछ से कुछ हाथ न लगा तो ये खानापूरी ही होगी ।”
“क्या हाथ लगेगा ?”
“आप बताइये ?”
“हम बतायें ?”
“जी हां ।”
“हम तो यही कहेंगे कि कुछ हाथ नहीं लगेगा । आपकी ये ई-मेल कहती है कि हम इललीगल इमीग्रेंट हैं, न हमारे पास पासपोर्ट है, न वीजा है, न दो महीने पहले हमने किसी प्लेन से या शिप से मुम्बई का सफर किया था....”
“आखिरी बात की तसदीक मैं कर के आया हूं ।”
“क्या ?”
“मैंने दो महीने पहले मुम्बई हार्बर पर आकर लगने वाले हर शिप की पैसेंजर लिस्ट चैक की है, मैंने वैसे ही दो महीने पहले की हर इनकमिंग इन्टरनेशनल फ्लाइट की पैसेंजर लिस्ट चैक की है, मुझे किसी लिस्ट में राजा गजेन्द्र सिंह का नाम नहीं दिखाई दिया ।”
“हम शिप से सफर करना पसन्द नहीं करते ।”
“तो प्लेन से आये होंगे !”
“नहीं ।”
“तो नैरोबी से यहां तक कैसे आये ?”
“यहां तक नहीं आये । काठमाण्डू तक आये । वहां हमने इस होटल के भूतपूर्व मालिक व्यासशंकर गजरे से उन बीस पर्सेंट शेयरों का सौदा किया जिनके सदके इस वक्त ये होटल हमारे कब्जे में है । हम आपको शेयर्स की परचेज की रसीद दिखा सकते हैं, जिससे आप जान पायेंगे कि कब हम काठमाण्डू में थे ।”
“दिखाइये ।”
विमल ने वो फर्जी रसीद पेश की जिसे ओरियन्टल होटल एण्ड रिजॉर्टस का कोई डायरेक्टर फर्जी सबित नहीं कर सका था ।
“और ये” - उसने रसीद की बगल में नया कागज रखा - “शेयर्स की ट्रांसफर के बाद ओरियन्टल द्वारा जारी किया गया शेयर सर्टिफिकेट है जो कि हमारे नाम है ।”
दामोदर राव ने दोनों दस्तावेजों का मुआयना किया और फिर उन्हें वापिस मेज पर रख दिया ।
“गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज है, सर” - वो बोला - “कम्पलेंट करने वाले ने आपकी होटल की मिल्कियत पर कोई सवालिया निशान नहीं लगया है इसलिये हमारी तफ्तीश का ये मुद्दा नहीं है कि आप कानूनी तौर पर इस होटल के मालिक हैं या नहीं !”
“क्यों नहीं हैं ? नहीं है तो हम इसे मुद्दा बनाते हैं । आप हमें बताइये कि कैसे कोई इललीगल इमीग्रेंट इतने बड़े पैमाने पर इतने बड़े होटल बिजनेस को टेकओवर कर सकता है ? करोड़ो रुपया डॉलर जैसी साउन्ड करेन्सी में अदा किया है हमने बीस पर्सेंट शेयरों की कीमत के तौर पर व्यासशंकर गजरे को काठमाण्डू में । आपकी जानकारी के लिये हम से हासिल होते ही वो रकम उसने काठमाण्डू के ज्यूरिच ट्रेड बैंक में अपने नाम जमा करा दी थी । आप चाहें तो बैंक के प्रेसीडेंट मिस्टर मारुति देवाल से इस बात की तसदीक कर सकते हैं - मिस्टर देवाल का प्राइवेट फोन नम्बर आपको हम बता देंगे - अब, आप हमें बताइये कि जिस शख्स के पास एक नये बिजनेस में इनवैस्ट करने के लिये इतना पैसा होगा वो क्यों इललीगल इमीग्रेंट बनेगा ? कोई एक वजह बताइये ।”
दामोदर राव सो जवाब देते न बना ।
“हम कोई बंगलादेशी मजदूर हैं ? कोई झाड़ा पोंछा करने वाले नेपाली हैं ? कोई अपने मुल्क की गुरबत के सताये पाकिस्तानी हैं ? कोई ड्रग्स की स्मगलिंग करने वाले अफगान हैं ? हिन्दोस्तान में ऐसे लोगों के लिये मोती जड़ें हैं और वो गैरकानूनी ढंग से दाखिला पाकर इधर आ बसते हैं, हमारे लिये कौन से मोती जड़ें हैं ? लेकिन जड़े हैं । इसलिये जड़े हैं क्योंकि हिन्दोस्तान हमारा मुल्क है, हमारी मातृभूमि है और हमें इससे मां जैसा ही प्यार है । राज रजवाड़े खत्म हो गये, प्रीविपर्स बन्द हो गये इसलिये अपनी पुरानी शाही आनबान भूल कर पैसा कमाने के लिये हम यहां से निकले, नैरोबी जा के सैटल हुए, पैसा कमाया और लौट आये । अब आपका कोई मुखबिर कहता है कि हम इललीगल इमीग्रेंट हैं ।”
“आपका कहना है कि मुम्बई तक आप की जर्नी का रिकार्ड इसलिये नहीं है क्योंकि आप पहले काठमाण्डू पहुंचे थे ?”
“हां ।”
“वहां से मुम्बई कैसे आये थे ?”
“बाई रोड आये थे । अपने एक मेहरबान दोस्त के साथ उसकी मर्सिडीज पर सवार होकर आये थे ।”
“दोस्त का नाम ?”
“शेषनारायण लोहिया । पता कोठी नम्बर चौदह, मालाबार हिल, मुम्बई ।”
“वो, जिनका पिछले दिनों समुद्र में डूब जाने से इन्तकाल हुआ ?”
“वही । काठमाण्डू से मुम्बई आने के बाद पहले हम लोहिया की कोठी पर ही ठहरे थे जा के पता कीजिये ।”
“इधर और किसे जानते हैं आप ?”
“और राजेश जठार साहब को जानते हैं जो कि लोहिया साहब जैसे ही बड़े उद्योगपति हैं । और मोहसिन खां साहब को जानते हैं जो कि ओरियन्टल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स पर हैं, उनके वालिद अताउल्ला खान साहब को जानते हैं जो कि आजकल शारजाह में बसे हुए हैं । ओरियन्टल के चेयरमैन मिस्टर रणदीवे को जानते हैं । किसी से भी दरयाफ्त कीजिये जाकर राजा गजेन्द्र सिंह एन.आन.आई. फ्रॉम नैरोबी के बारे में ।”
“बहुत जल्दी आपने इतने बड़े बड़े लोगों से वाकफियत बना ली !”
“बड़े लोगों की बड़े लोगों से ही वाकफियत बनती है, इन्स्पेक्टर साहब ।”
“बजा फरमाया । मैं आपका पासपोर्ट देख सकता हूं ?”
“देखिये ।”
विमल ने पासपोर्ट पेश किया ।
दामोदर राव ने बड़े गौर से उसका मुआयना किया और बड़े धीरज से उसके तमाम पन्ने पलटे ।
उस दौरान विमल मेज पर रखे एक पेपरवेट से खिलवाड़ करता रहा ।
“यू आर ए मच ट्रैवल्ड पर्सन, सर ।” - वो प्रभावित स्वर में बोला - “योरोप और अफ्रीका खूब घूमे हुए हैं ।”
“सैर के लिये नहीं घूमे ।” - विलम बोला - “अपने बिजनेस के सिलसिले में घूमे, पैसा कमाने के लिये घूमे और पैसा भटकन और जांमारी के बिना नहीं कमाया जा सकता ।”
“सही फरमाया आपने ।”
“स्माल एफर्ट, स्माल मनी । बिग एफर्ट, बिग मनी ।”
“यू आर राइट, सर ।”
“ये हमारा इन्टरनेशनल ड्राइविंग लाइसेंस है । ये हमारा इन्टरनेशनल क्रेडिट कार्ड है । अपने इतने से ज्यादा क्रेडेन्शल्स हम फिलहाल पेश नहीं कर सकते ।”
“इललीगल इमीग्रेशन की शिकायत को झुठलाने के लिये इतने भी जरूरत से ज्यादा हैं ।”
“जान कर खुशी हुई कि आप ऐसा समझते हैं ।”
उसने जेब से एक छोटी सी डायरी और बाल पैन निकाला और उस पर कुछ लिखने लगा ।
“ये क्या कर रहे हो ?” - विमल तीखे स्वर में बोला ।
“पासपोर्ट का नम्बर और जारी करने की तारीख नोट कर रहा हूं ।” - दामोदर राव इत्मीनान से बोला ।
“क्यों ?”
“पासपोर्ट ऑफिस इंक्वायरी भेजने के लिये ।”
“लेकिन क्यों ?”
“रुटीन है ।”
“तुम्हें ये पासपोर्ट जाली लगता है ?”
“जरा भी नहीं ।”
“तो फिर ?”
“सर, बोला न, रुटीन है । अगर आपको मेरे ऐसा करने से एतराज है तो साफ बोलिये ।”
“नहीं, भई, एतराज कैसा ? एतराज करेंगे तो तुम फिर कहोगे कि हमारे एतराज को हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है ।”
“मैं ऐन यही कहता, और अपनी होस्टाइल विटनेस वाली दलील दोहराता ।”
विमल खामोश रहा ।
दामोदर राव ने ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और क्रेडिट कार्ड पर से भी सीरियल नम्बर और जारी करने की तारीख नोट की और फिर तीनों चीजें वापिस विमल की तरफ सरका दीं ।
“और ?” - विमल तनिक उतावले स्वर में बोला ।
“अन्डरवर्ल्ड में अफवाह है कि आज की तारीख में इस होटल का मालिक सोहल है । इस बाबत आप क्या कहते हैं ?”
“सोहल ! कौन सोहल ?”
“आप नहीं जानते ?”
“कैसे जानेंगे ?”
“सोहल एक अन्डरवर्ल्ड डॉन है, गैंगस्टर है, मवाली है, दुर्दान्त हत्यारा है, इश्तिहारी मुजरिम है ।”
“ऐसा शख्स इस होटल का मालिक कैसे बन सकता है ?”
“बन सकता है । क्योंकि इस होटल की ओनरशिप की शुरू से ही यही हिस्ट्री रही है । अब से पहले जो साहबान इस होटल के मालिकान रह चुके हैं, वो सोहल से कहीं ज्यादा खतरनाक गैंगस्टर और मवाली थे ।”
“केस हिस्ट्री छोड़ो और ये बताओ कि अगर सोहल इस होटल का मालिक है तो हम क्या हैं ?”
“आप बताइये ।”
“हम क्या बतायें । जानाकरी तो तुम्हारी है जिसकी विश्वसनीयता पर तुम खुद ही सवालिया निशान लगा रहे हो । खुद ही उसे अन्डरवर्ल्ड की अफवाह बता रहे हो ।”
“अफवाहें मुखबिरों का काम करती हैं, सर । और पुलिस का महकमा मुखबिरी के बिना नहीं चलता ।”
“ओके । तुम कान दो अफवाहों पर । कौन रोक सकता है तुम्हें अफवाहों के आसरे अपना कारोबार चलाने से । लेकिन इस अफवाह में कुछ ज्यादा ही हवा भरी हुई है कि कोई सोहल इस होटल का मालिक है । बहरहाल हम अपना सवाल फिर दोहराते हैं । अगर सोहल इस होटल का मालिक है तो हम क्या हैं ?”
“आप बताइये ।”
“हम क्या बतायें ?”
“जनाब, ये दो में दो जोड़ने जैसा आसान सवाल है ।”
“अच्छा !”
“और जो चार जवाब निकलता है वो ये है कि आप ही सोहल हैं ।”
“क्या !”
“सारा अन्डरवर्ल्ड जानता है कि मवालियों की ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाने वाली बादशाहत का आखिरी बादशाह व्यासशंकर गजरे था और उसकी बादशाही को नेस्तनाबूद करने वाला शख्स सोहल था । लिहाजा इस बादशाहत पर काबिज होने का स्वाभाविक और इकलौता हकदार सोहल था । अब सोहल तो गायब हो गया और उसकी जगह कोई राजा गजेन्द्र सिंह जैसे एकाएक आसमान से टपके ।”
“और तुम कूद कर इस - गलत, बेबुनियाद, अहमकाना - नतीजे पर पहुंच गये कि सोहल ही राजा गजेन्द्र सिंह था ?”
“जवाब है हां । भले ही आप नतीजे को गलत कहें, बेबुनियाद कहें, अहमकाना कहें या कुछ और कहें ।”
“हम तुम्हें सोहल लगते हैं ?”
“जिन वजह से आप ये सवाल पूछ रहे हैं, उस वजह से नहीं लगते - सोहल की सलाहियात, दूरन्देशी और दानिशमन्दी में मुझे कभी कोई शक नहीं रहा - किसी और ही वजह से लगते हैं....”
“और कौन सी वजह ?”
“मैं कहूं कि आपकी दाढी मूंछ नकली है तो मुझे यकीन है कि आप किसी करिश्माई तरीके से साबित कर दिखायेंगे कि ऐसा नहीं है....”
“करिश्मा कैसा ! और हाथ कंगन को आरसी क्या ! हमारे करीब आओ और हमारी दाढी खींचो ।”
“मेरी मजाल नहीं हो सकती ।”
“मजाल करो । हम तुम्हें इजाजत देते हैं ऐसी हत्तकभरी हरकत करने की । दाढी तुम्हारे हाथ में आ जाये तो...”
“आपका इजाजत देना ही इस बात का सबूत है कि दाढी हाथ में नहीं आने वाली । तभी तो मैंने सोहल की सलाहियात की तहेदिल से तारीफ की ।”
“भई , तुम्हारी बातें हमारी समझ से बाहर हैं ।”
दमोदर राव हौले से हंसा ।
“अभी तुम कह रहे थे कि हम किसी और वजह से तुम्हें सोहल लगते थे । वो वजह बताई तो नहीं तुमने ! हम फिर पूछ रहे हैं । और कौन सी वजह ?”
“और वजह इस बात में छुपी है, जनाब, कि आपने मुझे पहचाना नहीं ।”
“पहचाना नहीं ?” - विमल सकपकाया ।
“जी हां ।”
“पहचानना चाहिये था हमें ?”
“जी हां । इसलिये पहचानना चाहिये था कि हम पहले भी एक बार रूबरू हो चुके हैं । तब से अब तक आप में बेशुमार तब्दीलियां आ चुकी हैं लेकिन मेरे में सिर्फ ये एक मामूली तब्दीली आयी है कि मैं पहले मूंछ रखता था और अब क्लीन शेव्ड हूं । प्रोमोशन को भी तब्दीली मानें तो दो ।”
“प्रोमोशन ।”
“जब रूबरू मुलाकात हुई थी तो मैं सब-इन्स्पेक्टर था, अब इंस्पेक्टर हूं ।”
विमल ने पेपरवेट घुमाना बन्द करके उसका मुआयना किया ।
“तुम वो शख्स हो” - एकाएक उसके मुंह से निेकला - “जिसने मुम्बई सैंट्रल स्टेशन पर....”
“ऐग्जैक्टली ।”
विमल खामोश हो गया और असहाय भाव से गर्दन हिलाने लगा ।
अनजाने में उसके मुंह से ऐसी बात निकल गयी थी जो उसे नहीं कहनी चाहिेये थी ।
“मैं वो ही सब-इन्स्पेक्टर हूं जिसने चर्चगेट स्टेशन के बाहर मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल को पकड़ कर भी छोड़ दिया था । खुदा ने मुझे तीखी निगाह बख्शी है, जो सूरत मैं एक बार करीब से देख लूं उसे मैं यकीन के साथ फिर पहचान सकता हूं, भले ही उस पर सौ पर्दे पड़े हों, हजार पर्दे पड़े हों । सोहल की प्लास्टिक सर्जरी की अफवाह भी अन्डरवर्ल्ड में खूब गर्म हैं । कहा जाता है कि उसकी सूरत इतनी ज्यादा तब्दील हो चुकी है कि बतौर सोहल अब उसे कोई नहीं पहचान सकता । लेकिन जनाब, कुछ शिनाख्ती निशान ऐसे होते हैं । जैसे कानों की बनावट । उनका कनपटी से परे खड़े या कनपटी के साथ लगे बैठे होना । खोपड़ी का ओवल । ठोढी की बनावट । अन्दाजेबयां । वगैरह ।”
विमल खामोश रहा । अपनी नर्वसनैस छुपाने के लिये उसने फिर पेपरवेट को लट्टू की तरह घुमाना शुरू कर दिया ।
“आपकी जानकारी के लिये एक मर्तबा मैं सोहल की आवाज से भी सोहल की तसदीक कर चुका हूं ।”
विमल की भवें उठीं ।
“आलमगीर आर्ट म्यूजियम से फ्रांसीसी पेंटिंगों की चोरी की वारदात के दौरान । चोरों की वारदात के दौरान । चोरों की एक खास स्ट्रेटजी के तहत उन दिनों रोज किसी गुमनाम शख्स का पुलिस हैडक्वार्टर में फोन आता था कि सोहल ने फलां जगह बम लगा दिया था, फलां जगह बम लगा दिया था । तब उस बम की खबरें देने वाले शख्स की उसकी आवाज से ये शिनाख्त मैंने की थी कि वो शख्स और कोई नहीं, खुद सोहल था । अब तो कहते हैं कि सूरत के साथ साथ सोहल की आवाज भी बदल गयी है । अगर आप कुबूल फरमायें कि आप सोहल हैं तो ठीक ही कहते हैं । लेकिन आवाज ही बदली है, जनाब, अन्दाजे-बयां नहीं बदला ।”
“तुम्हारी बातों से तो जान पड़ता है कि यहां कदम रखते ही तुम्हें मालूम था कि तुम सोहल के रूबरू थे ।”
“जी हां । इसीलिये आते ही मैंने दरख्वास्त पेश की थी कि हमारा डायलाग गवाह के सामने न हो ।”
“गवाह हमारा वफादार था ।”
“आपका । मेरा नहीं ।”
“मतलब ?”
“अपने बॉस की पोल खुलती पाकर जो पहला ख्याल उसके जेहन में आता - जो पहला कदम उसकी वफादारी उसे सुझाती - वो मेरा मुंह बन्द करने का ही होता । और ऐसा मेरी लाश गिराये बिना तो न हो पाता ।”
“कौन सी पोल ? ये कि हम सोहल हैं ?”
“जी हां ।”
“ऐसा कब कुबूल किया हमने ?”
“किया तो सही ।”
“नहीं किया ।”
“बराबर किया । आपने एकाएक मुझे पहचाना और मुम्बई सैंट्रल स्टेशन के जिस वाकये का जिक्र शुरू करके बीच में छोड़ दिया, उसकी मेरे और सोहल के अलावा किसी को खबर नहीं । अगर आप सोहल नहीं हैं तो आपको कैसे खबर है ?”
“काफी काबिल, काफी जहीन नौजवान हो ।”
“तारीफ का शुक्रिया ।”
“लेकिन इतने बड़े पर्दाफाश के बाद अपने सिर पर मंडराते मौत के खतारे को नहीं पहचान रहे हो ।”
“ये मवालियों की पेटेंट जुबान है जो आपके श्रीमुख से शोभा नहीं देती । जिसे आप पर्दाफाश कहते हैं, वो कोई एकाएक नहीं हो गया । वो तो होना ही था और मुझे इस बात की पहले से खबर थी ।”
“पहले से खबर थी ?”
“जी हां । मेरी लॉजिक यही कहती थी कि सोहल और राजा साहब एक ही शख्सियत थे । मुझे पहले से मालूम था कि मेरे राजा साहब के रूबरू होते ही मेरी लॉजिक पर तसदीक की मोहर लग जानी थी । फिर भी मैं अकेला आया ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मेरी लाश गिराने की हिमाकत इरफान अली कर सकता है, आप नहीं कर सकते ।”
“हिमाकत क्यों ? जो जानते होने का दावा कर रहे हो, उसकी किसी को खबर करके आये हो ?”
“नहीं । मैं खबर करता तो अपने डी.सी.पी. को करता जो कि मुझे यहां भेजने की जगह खुद आता और आपको गिरफ्तार करके ले के जाता ।”
“तो फिर हिमाकत क्यों ?”
“क्योंकि सोहल के बारे में मशहूर है कि वो नाहक किसी की जान नहीं लेता ।”
“नाहक क्यों ? इतना बड़े पर्दाफाश को रोकने के लिये....”
“जिसके किये पर्दाफाश हो रहा हो, उसकी मंशा मुंह फाड़ने की न हो तो नाहक ही तो !”
विमल खामोश रहा । वो बड़े अनिश्चयपूर्ण भाव से इन्स्पेक्टर की तरफ देखता रहा ।
“अब बरायमेहरबानी बिना मुझे टोके दो तीन बातें सुनिये । नम्बर एक, मेरा डी.सी.पी. डिडोलकर एक करप्ट पुलिसिया है जो कि ‘कम्पनी’ के जलाल के दिनों में पूरी तरह से ‘कम्पनी’ के हाथों बिका हुआ था । ‘कम्पनी’ खत्म हो जाने से उसका भारी माली नुकसान हुआ है इसलिये वो आज भी ‘कम्पनी’ के सुनहरे दिनों के लौटने की बाट जोहता है । मेरे पास सबूत कोई नहीं लेकिन मुझे लगता है कि जैसे वो पहले इकबाल सिंह और गजरे के दरबार में कोर्निश बजा लाता था, वैसे वो अब ‘भाई’ का हुक्का भरने लगा है क्योंकि उसे यकीन है कि ‘भाई’ के सदके देर सवेर ‘कम्पनी’ की शानोशौकत फिर लौटेगी, ‘भाई’ अपने किसी खासुलखास को ‘कम्पनी’ की गद्दी पर बिठायेगा और ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर से डिडोलकर के घर तक रिश्वत का परनाला फिर बहने लगेगा । ऐसा राजा साहब के होते तो हो नहीं सकता जो कि ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर होटल सी-व्यू के मालिक बने बैठे हैं । इससे साफ जाहिर होता है कि राजा साहब की एकाएक पड़ताल का जो ख्याल उसके जेहन में पनपा है, वो खुद नहीं पनपा, शह देकर पनपाया गया है । मुझे तो ये ई-मेल भी आपको दिखाने के लिये फर्जी बनायी गयी जान पड़ती है । जनाब, असल साजिश आपको इलीमीनेट करने की है जिसका कि ये पहला कदम है ।”
“पहला कदम ?”
“हां ।”
“बाद में क्या होता ?”
“बताऊंगा । पहले वो सुनिये जो मैं मैं न होता तो होता । मेरा कहना ये है कि पुलिस आपके पीछे ही पड़ जाये तो किसी न किसी तरह से ये तो साबित करके ही मानेगी कि आप राजा साहब नहीं हैं - बावजूद इसके कि राजा साहब वाला आपका बिल्डअप बहुत शानदार है, आपकी दलीलें बहुत वजनी हैं और उनको पेश करने का आपका अन्दाज बहुत दमदार है - लेकिन मौजूदा हालात में ये साबित करना उनके बस की बात नहीं है कि आप सोहल हैं ।”
“वो सिर्फ तुम साबित कर सकते हो ?”
“निर्विवाद रूप से साबित तो मैं भी नहीं कर सकता लेकिन स्थापित कर सकता हूं, स्थापित कर सकता हूं कि आप सोहल होने के अलावा और कोई हो ही नहीं सकते । किसी बात का जब चश्मदीद गवाह कोई न हो - और न हो सकता - तो सरकमस्टांशल इवीडेंस का, परिस्थितिजन्य सबूतों का, रोल बड़ा अहम हो जाता है और वो आपके खिलाफ कोई कम नहीं हैं ?”
“अच्छा ?”
“जी हां । आप जानते हैं आपका पासपोर्ट, आपका इन्टरनेशनल ड्राइविंग लाइसेंस, आपका क्रेडिट कार्ड, बारीक पड़ताल के आगे नहीं टिक पायेंगे । पासपोर्ट ऑफिस से रपट आयेगी कि इस नम्बर का कोई पासपोर्ट किसी राजा गजेन्द्र सिंह के नाम जारी नहीं किया गया । ऐसी ही रपट नैरोबी से जारी हुए आपके इन्टरनेशनल ड्राइविंग लाइसेंस और क्रेडिट कार्ड की बाबत आयेगी । फिर जो गाज राजा गजेन्द्र सिंह पर गिरेगी, वो एक तरह से सोहल पर ही गिरेगी ।”
“हूं ।”
“अब मैं अपनी वो बात दोहराता हूं जो जब मैं मुम्बई सैंट्रल स्टेशन के बाहर पहली बार सोहल के रूबरू हुआ था तो मैंने कही थी, इसलिये दोहराता हूं क्योंकि अपनी इस बात पर मैं आज भी स्टैण्ड करता हं । मैं हर तरह के क्राइम और क्रिमिनल के खिलाफ हूं । मैं उन लोगों की जात से नफरत करता हूं जो अपने आपको सरकारी कायदे कानून और मुल्क के निजाम से ऊंचा समझते हैं । मैं बड़े अरमान से पुलिस की नौकरी में भरती हुआ था और समझता था कि मैं अकेला ही शहर से - शहर से क्या, मुल्क से - क्राइम और क्रिमिनल्स का समूल नाश कर दूंगा । कितना भ्रामक ख्याल था मेरा ? और कितना मूर्ख था मैं ? कायदे कानून की लक्ष्मण रेखा के भीतर कैद रह कर कहीं अपराधियों का नाश होता है ! पुलिस में भरती होने के बाद ही मुझे मालूम हुआ कि हमारे सारे कायदे कानून तो अपराधियों के हक में हैं और उन्हीं की हिफाजत के लिये गढे गये मालूम होते हैं । एक महीने की नौकरी में ही मुझे अहसास हो गया था कि अपराध और अपराधियों का समूल नाश करने का तमन्नाई मैं तो एक मामूली जेबकतरे को सजा नहीं दिलवा सकता था । बड़े से बड़े अपराध के अपराधी रंगे हाथों पकड़े जाते हैं तो भी जमानत पा कर छुट्टे घूमते हैं । गवाह मुकर जाते हैं, सबूत गायब हो जाते हैं या तब्दील कर दिये जाते हैं, इनवैस्टिगेटिंग एजेन्सियां जानबूझ कर केस कमजोर बना कर अदालत में पेश करती हैं, नतीजा ये होता है कि न चाहते हुए भी न्यायाधीश को लैक आफ इवीडेंस की बिना पर मुजरिम को छोड़ना पड़ता है । जानबूझ कर केस को लम्बा घिसटने दिया जाता है ताकि उसका डंक निकल जाये, ताकि पब्लिैक सैन्टीमेंट्स ठण्डे पड़ जायें, ताकि मजलूम, मकतूल का कुनबा ये कह कर बहला लिया जाये कि मरने वाला तो मर गया अब क्यों नहीं वो मुआवजा - या हयूमीनिटेरियन ग्राउन्ड्स पर मालदार प्रतिवादी द्वारा की गयी माली इमदाद, रिश्वत हरगिज नहीं - लेकर खामोश बैठ जाते थे ! खामोश बैठ जाते हैं, कम्बख्त ! लाश का सौदा कर लेते हैं । गैरत को रोकड़े के मीठे शरबत में घोल के पी जाते हैं । नौजवान मकतूल की जिन्दगी के वो साल नहीं गिनते जो कि उसने अभी बड़े अरमानों के साथ जीने थे, नोट गिनते हैं । उस ईजाद का तसव्वुर नहीं करते जो वो जिन्दा रहता तो करता, उस गीत संगीत का तसव्वुर नहीं करते जो वो जिन्दा रहता तो उसे अमर कर देता, उस पेड़ का तसव्वुर नहीं करते जो बीज देता है, जिससे कोंपल फूटती है और खुद पेड़ बनती हैं; उस आनन्द, उस ऐश का तसव्वुर करते हैं जो अपनी आत्मा शैतान के पास गिरवी रख कर उन्हें हासिल होती है । हर हाल में इंसाफ पाने की जिद पता नहीं कहां हवा हो जाती है रोकड़े की चमक के सामने ! ऐसे लोगों को कमजोर कहना गुनाह है, फिर भी वो ऐसे हैं तो उनकी कमजोरी उनका लालच है, उनका सफेद खून है, उनकी खुदगर्जी है जिसको पैसे वाला कैश करता है । कैसे कोई उन अतिसाधन सम्पन्न लोगों से जीत सकता है जो पुलिस कमिश्नर से बगलगीर होकर मिलते हैं, चीफ मिनिस्टर के साथ बैठ कर चाय पीते हैं ! नहीं जीत सकता । लेकिन इसलिये नहीं क्योंकि जीत नामुमकिन होती है, बल्कि इसलिये कि जीत की ख्वाहिश की तिजारत हो चुकी होती है । मेरा बस चले तो मैं जालिम को बाद में मारूं, ऐसे नपुन्सक मजलूम को पहले मारूं । कमीने अखबार और टी.वी. को बयान देंगे कि इंसाफ नहीं हो रहा लेकिन ये हरगिज नहीं बतायेंगे कि इंसाफ के रास्ते में सबसे बड़ा अड़ंगा खुद वो हैं ।”
विमल ने देखा आखिरी शब्द कहते कहते उसका चेहरा तमतमा आया था । उसने दो तीन लम्बी सांसें ले कर अपने आप पर काबू पाया और फिर बोला - “इंसाफ की देवी - जिसके एक हाथ में इंसाफ का तराजू होता है, दूसरे में मुजरिम पर गाज की तरह गिरने को तैयार दोधारी तलवार होती है और आंखों पर पट्टी बन्धी होती है - कहती है कि इंसाफ जल्द-अज-जल्द होना चाहिये क्योंकि इंसाफ में देर इंसाफ से इनकार है । जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड । लेकिन वो नेकबख्त नहीं जानती कि जस्टिस डिनाई करने के लिये ही जस्टिस डिले की जाती है । कैसे जाने ? उसकी आंखों पर तो पट्टी बन्धी है । कानून तो अन्धा होता है । अन्धा न होता तो निहित स्वार्थ एकजुट होकर खुद उसकी आंखें फोड़ देते ।”
“तलवार कुंद कर देते” - सहमति में सिर हिलाता विमल बोला - “और तराजू का तवाजन बिगाड़ देते ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
विमल खामोश रहा ।
“जनाब, मुम्बई सैंट्रल स्टेशन के सामने जब मैंने आपको पकड़ कर भी छोड़ दिया था तो ऐसा मैंने ये जान के किया था कि कायदे कानून के शिकंजे में कसा दामोदर राव जो काम नहीं कर सकता था, वो सोहल कर सकता था, कर रहा था । इसीलिये मैंने पूछा था कि क्या बखिया को मार सकोगे ? जवाब मुझे हां में मिला था । फिर मुझे बखिया की मौत की खबर लगी, मैं खुश हो गया । बखिया की मौत के बाद इकबाल सिंह ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज हो गया लेकिन सोहल के खौफ से गद्दी छोड़ कर फरार हो गया, मैं बाग बाग हो गया । फिर गजरे की मौत के साथ ‘कम्पनी’ का ही समूल नाश हो गया, मेरा मन झूम गया । तब मुझे इस बात का रत्ती भर भी अफसोस न रहा कि मैंने एक इश्तिहारी मुजरिम को पकड़ कर भी छोड़ दिया था । आज मुम्बई में खूनखराबे का बाजार ठंडा है तो पुलिस की वजह से नहीं, आज मुम्बई में अमनचैन है तो सरकारी निजाम की वजह से नहीं ‘कम्पनी’ के कहर और खौफ के काले बादल अगर अब आवाम के सिरों पर मंडराते नहीं दिखाई देते तो हकूमत की वजह से नहीं, उस वाहिद शख्स की वजह से जिसका नाम सोहल है । सर, मैं आपको कोई मैडल नहीं दे सकता, कोई प्रशस्ति पत्र नहीं दे सकता, तोप की सलामी नहीं दे सकता लेकिन आपको सैल्यूट मार सकता हूं ।”
उसने सच में उठ कर, तन कर सैल्यूट मारा ।
“अरे, अरे ! क्या करते हो ?”
“आपकी हस्ती के सामने नतमस्तक होता हूं ।”
“बैठो । बैठो ।”
वो वापिस बैठ गया ।
“आपने जो किया, वो न कर पाते या इरादतन न करते” - वो फिर बोला - “या आप के किये में कोई जाती फायदा प्रधान होता तो मुझे मुम्बई सैंट्रल स्टेशन के बाहर लिये अपने फैसले पर ताजिन्दगी अफसोस रहता । बखिया को मार कर आप खुद बखिया बन जाते तो शायद मैं ही कोई तरकीब सोचने लगता आपको खत्म करने की । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । मुझे मालूम है ऐसा नहीं हुआ क्योंकि अन्डरवर्ल्ड में गूंजता आपका ये स्लोगन मेरे कानों में अमृत घोलता है कि ‘कम्पनी’ खत्म है, उसका मुर्दा गहरा दफ्नाया जा चुका है, अब कोई ‘कम्पनी’ का नाम न ले’ । सर, मैं बहुत खुश हूं कि मेरे एक गलत डिसीजन का सही नतीजा निकला ।”
“गलत काम तो गलत ही है ।” - विमल धीरे से बोला ।
“नहीं है गलत । जिस काम से आवाम का भला होता हो, वो कैसे गलत हो सकता है ?”
“इससे सिर्फ इतना साबित होता है कि दलीलों से स्याह को भी सफेद साबित किया जा सकता है ।”
“मुझे आपके किसी कारनामे में कोई स्याही नहीं दिखाई देती ।”
“क्योंकि तुम एक सम्मोहन के हवाले हो इसलिये जानबूझ कर कलर ब्लाइंड बने हुए हो ।”
“अब छोड़िये वो किस्सा और मुझे अपनी बात आगे बढाने दीजिये ।”
“बोलो ।”
“आपने जो डाकूमेंट्स पेश किये हैं, वो बारीक स्क्रूटिनी स्टैण्ड नहीं कर सकते ।”
“मुझे भी ऐसा ही अन्देशा है ।”
“लेकिन कर भी सकते हैं ।”
“कर भी सकते हैं ?”
“जी हां । इसलिये कर सकते हैं क्योंकि इत्तफाक से तफ्तीश के लिये इंस्पेक्टर दामोदर राव आया है । मेरे करप्ट डी.सी.पी. ने मुझे इसलिये इस काम के लिये चुना था क्योंकि सिर्फ मैं सोहल की सूरत और आवाज को पहचान सकता था । डी.सी.पी. डिडोलकर ने मुझे राजा साहब की पड़ताल के लिये कम, सोहल की शिनाख्त के लिये ज्यादा भेजा है । उसे मेरी रिपोर्ट से बहुत नाउम्मीदी होगी कि राजा साहब सोहल नहीं हैं । न हैं, न हो सकते हैं ।”
“वो यकीन कर लेगा ?”
“करना पड़ेगा । जब मैं ही इकलौता एक्सपर्ट माना गया हूं इस फ्रंट का तो करना पड़ेगा ।”
“आई सी ।”
“पासपोर्ट की इंक्वायरी का जवाब माकूल आयेगा । ड्राइविंग लाइसेंस और क्रेडिट कार्ड का जवाब भी माकूल आयेगा ।”
“ऐसा क्योंकर होगा ?”
“होगा । फर्जी ई-मेल का इन्तजाम करना क्या सिर्फ डिडोलकर जानता है ?”
“ओह !”
“उस ई-मेल की बानगी ये होगी कि विभिन्न एजेन्सियों से सवाल तो डिडोलकर करेगा लेकिन जवाब पुलिस कमिश्नर के ई-मेल अड्रैस पर आयेगा ।”
“ऐसा क्यों ?”
“ताकि जवाब माकूल न पाकर डिडोलकर जवाब को रद्दी की टोकरी के हवाले न कर सके । ताकि वो ये फरेब न कर सके कि आपकी बाबत गुमनाम ई-मेल के जवाब में राजा साहब की तफ्तीश अभी मुकम्मल नहीं हुई थी ।”
“आई सी ।”
“आपने ज्यूरिच ट्रेड बैंक काठमण्डू के प्रेसीडेंट मारुति देवाल का नाम बड़े विश्वास के साथ लिया इसलिये मैं डिडोलकर को प्रेरित करूंगा कि उसे वो खुद ट्रंककॉल लगाये ।”
“जवाब एकदम माकूल मिलेगा । मिस्टर देवाल हर बात की तसदीक करेंगे । डॉलर में गजरे के एकाउन्ट में जमा हुई शेयरों की कीमत की, उनकी खरीद फरोख्त की और राजा गजेन्द्र सिंह की भी जो कि शेयर के खरीदार थे ।”
“आप गारन्टी करते हैं इस बात की ?”
“हां ।”
“तो फिर तो मेरी जिद होगी कि मिस्टर देवाल से डिडोलकर खुद बात करे । अब बाकी बची फिंगरप्रिंट्स की बात ।”
“फिंगरप्रिंट्स ?”
“जी हां । मुझे हुक्म हुआ है कि मैं किसी बहाने से आपके - आई मीन राजा गजेन्द्र सिंह के - फिंगरप्रिंट्स मुहैया करूं । मुम्बई पुलिस के पास सोहल के फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड है । अगर पड़ताल पर राजा साहब के फिंगरप्रिंट्स सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिलते पाये गये तो बाकी के माकूल सबूतों पर वो इकलौता नामाकूल सबूत भारी होगा । वो अपने आप में अकाट्य सबूत होगा कि राजा गजेन्द्र सिंह और कोई नहीं, खुद सोहल है ।”
“तो ?”
“अब मैं यहां से कोई आइटम उठाऊंगा, जैसे कि वो पेपरवेट जिससे कि आप इतनी देर खिलवाड़ करते रहे, उसे लट्टू की तरह घुमाते रहे, गेंद की तरह उछाल कर लपकते रहे ।” - उसने जेब से रूमाल निकाल कर उस पेपरवेट पर डाला और उसे उठा लिया - “इस पेपरवेट पर आपकी उंगलियों के निशान हैं लेकिन हैडक्वार्टर पहुंच कर जब मैं ये पेपरवेट डिडोलकर को सौंपूंगा तो इस पर आपकी उंगलियों के निशान होंगे ?”
“तो किस की उंगलियों के निशान होंगे ?”
“किसी की भी ।”
“तुम्हारी शक्ल से लगता है कि खुद तुम्हारी ।”
“क्या हर्ज है ?”
“हर्ज है । किन्हीं जज्बात के हवाले होकर किसी के लिये कुछ करना जुदा बात होती है लेकिन अपनी जान को सांसत में डाल कर कुछ करना जुदा बात होती है । मैं इस बात की इजाजत नहीं दे सकता ।”
“जबकि खुद आप आम ऐसा करते हैं ।”
“मेरी बात और है । मैं उधार की जिन्दगी जीता शख्स हूं । तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है ।”
“आज मरे कल प्रलय वाली बात सब के साथ है ।”
“इन मायनों में नहीं है । मुसीबत के खुद आने में और उसको बुलाने में फर्क होता है । मेरा जमीर इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं किसी को आ बैल मुझे मार जैसी हरकत करने पर आमदा करूं ।”
“कमाल है !”
“और फिर तुम्हारा ऐसा करना जरूरी भी नहीं ।”
“जी !”
“तुम बेखटके राजा साहब के फिंगरप्रिंट्स का पेपरवेट पर चस्पां नमूना हैडक्वार्टर लेकर जाओ । ये सोहल के प्रमाणिक फिंगरप्रिंट्स से मिलते नहीं पाये जायेंगे ।”
“क्यों ? क्योंकि पेपरवेट पर जो फिंगरप्रिंट्स हैं, वो सोहल के नहीं हैं ?”
“क्योंकि तुम्हारे रिकार्ड में जो फिंगरप्रिंट्स हैं, वो सोहल के नहीं हैं ।”
“ऐसा तो नहीं हो सकता । कभी हाल ही में उन फिंगरप्रिंट्स की एक कापी दिल्ली पुलिस की दरख्वास्त पर दिल्ली भेजी गयी थी, तब वो सोहल के दिल्ली पुलिस के पास उपलबध फिंगरप्रिंट्स से मिलते पाये गये थे ।”
“मैं बताऊं क्यों मिलते पाये थे ?”
“जरूर बताइये । मुझे तो भारी सस्पेंस हो गया है ।”
“हमारा राज महफूज रख सकोगे ?”
“अपनी जान से ज्यादा ।”
“तो सुनो । वो फिंगरप्रिंट्स इसलिये मिलते पाये गये थे, और अब वो ही फिंगरप्रिंट्स इसलिये नहीं मिलते पाये जायेंगे, क्योंकि तुम्हारे हैडक्वार्टर के रिकार्ड के फिंगरप्रिंट्स सैक्शन का इंचार्ज हवलदार केशवराव भौंसले है ।”
“ओह ! मैं समझ गया, सर । उस बाबत और कुछ कहने की जरूरत नहीं ।”
“क्या समझ गये ?”
“यही कि ये कहावत खामखाह मशहूर नहीं कि सोहल के हजार हाथ हैं ।”
“जिनमें कि अब एक जोड़ी का इजाफा हो गया ? नो ?”
“यस ।”
“मैं एक ऐसा कमजोर लाचार और तनहा आदमी हूं जिसे लाइक माइन्डिड लोगों की मदद न हासिल होती तो जो कब का मर चुका होता । आर्गेनाइज्ड क्राइम का समूल नाश करने का और गरीब गुरबा की मदद का मिशन मेरे सामने न होता तो अब तक बीसियों बार मेरी जीवन लीला समाप्त हो चुकी होती । शायद मेरे मिशन की खातिर ही मेरे वाहेगुरु ने मुझे हर हाल में जिन्दा रखा । कहने का मतलब ये है, मेरे भाई, कि ताकत कहीं और है, साधन कहीं और हैं जिनको आर्गेनाइज करने का, चैनेलाइज करने का जरिया मैं हूं । बजातेखुद मेरी कोई हस्ती नहीं, कोई औकात नहीं । अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ।”
“अब तो आप अकेले नहीं है ।”
“दुरुस्त । यही मेरी कमाई है ।”
“सर, जरूर आपके लिये ही किसी शायर ने कहा है कि मैं अकेला ही चला था जानिबेमंजिल; लोग आते गये, कारवां बनता गया ।”
विमल खामोश रहा ।
“बहरहाल” - दामोदर राव उठ खड़ा हुआ - “मेरा काम मुकम्मल हुआ, सर, इजाजत दीजिये ।”
“सर, कहना बन्द करो तो इजाजत है ।”
दामोदर राव हंसा, उसने विमल की तरफ हाथ बढाया ।
विमल ने बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और उसे वहां से रुख्सत किया ।
“वाहेगुरु !” - पीछे विमल बोला - “तू मेरा राखा सबनी थांहीं ।”
इरफान भीतर दाखिल हुआ ।
“क्या हुआ, बाप ?” - वो उत्सुक भाव से बोला ।
“बहुत बुरा होने जा रहा था लेकिन वाहेगुरु की मेहर से न हुआ । एक बहुत बड़ी मुसीबत आयी लेकिन टल गयी ।”
“कौन सी मुसीबत ? कैसे टली ?”
विमल ने बताया ।
वो खामोश हुआ तो इरफान भौंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“बाप, तू तो वाकई पीर पैगम्बर है । पता नहीं क्या जादू कर देता है कि जो मिलता है तेरा मुरीद बन जाता है ।”
“दीन दयाल दयानिध दोखन, देखत हैं पर देत न हारै ।”
“क्या बोला, बाप ।”
“कुछ नहीं । तू शोहाब की बोल । मेरा दिल बैठा जा रहा है ।”
“काहे कू ? वो तो लौट भी आया । फतह का परचम लहराता । ऐन तेरी माफिक ।”
“सच्चे पातशाह ! तेरा लख लख शुकर ।” - विमल भाव विभोर स्वर में बोला - “जिसके सिर ऊपर तू स्वामी, वो दुख कैसे पावे !”
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