भोजन के बाद शैलजा का घूमने जाने को कतई मूड नहीं था लेकिन अपने पति की जिद पर वह उसके साथ हो ली थी । अपने पति की ऐसी ही बेहूदी और बेबुनियाद जिदों की वजह से वह चिड़चिड़ाई रहती थी और मन-ही-मन उसे कोसती रहती थी ।
“तुम्हारा वह द्वारकानाथ नाम का दोस्त फिर कभी नहीं आया ?” - रास्ते में एकाएक शैलजा बोली ।
“हां” - कुलश्रेष्ठ अनमने स्वर में बोला - “नहीं आया ।”
“यह कोई जवाब हुआ ?” - शैलजा झुंझलाकर बोली ।
“शैलजा, अब मुझे क्या पता वह क्यों नहीं आया ?”
शैलजा चुपचाप अपने पति की बगल में चलती रही ।
चौक में जाकर उन्होंने एक-एक गिलास जूस पिया, पान खाया और फिर वे वापस लौट पड़े । कुलश्रेष्ठ चाहता था कि अभी घूमने के लिए थोड़ा और आगे जाया जाए लेकिन शैलजा न मानी । कुलश्रेष्ठ अभी तक नहीं समझ पाया था कि फोन पर उसे पत्नी के साथ सैर करने जाने के लिए क्यों कहा गया था और फिर फोन करने वाला वह आदमी कौन था ? द्वारकानाथ तो नहीं था वह । उसकी आवाज तो वह खूब पहचानता था । जरूर उसी का कोई संगी-साथी रहा होगा वह । 
वे अपने घर के फाटक के सामने पहुंचे ।
कुलश्रेष्ठ ताला खोलने लगा ।
“सुनो ।” - एकाएक शैलजा बड़े धीमे, बड़े रहस्यपूर्ण स्वर में बोली - “तुमने उस आदमी को देखा, जो अभी-अभी बीड़ी पीता हुआ हमारे सामने से गुजरा है ?”
“हां ।” - कुलश्रेष्ठ बोला - “क्यों ?”
“यह आदमी कल से ही हमारी गली में मंडरा रहा है । मैं दसियों बार इसे अपने घर के आस-पास देख चुकी हूं ।”
कुलश्रेष्ठ को सांप सूंघ गया । तो टेलीफोन पर उसे गलत नहीं कहा गया था कि उसकी निगरानी हो रही थी । जरूर वह आदमी था जो पुलिस द्वारा उसकी निगरानी के लिए तैनात किया गया था ।
फाटक ठेल वह भीतर दाखिल हुआ । उसने आगे बढकर बरामदे की बत्ती जलाई और बैठक के दरवाजे का ताला खोलने लगा ।
शैलजा ने भीतर आकर अपने पीछे फाटक बन्द किया । तभी उसकी निगाह लैटर बॉक्स पर पड़ी । वहां उसे एक लिफाफा पड़ा दिखाई दिया ।
यह चिट्ठी कहां से आ गई ? शाम तक तो कोई चिट्ठी आई नहीं थी अब क्या रात को भी चिट्ठियां आने लगी थीं ?
उसने लैटर बॉक्स में हाथ डालकर चिट्ठी उठा ली । उसने देखा वह एक लिफाफा था जो जहां से वह बन्द किया जाता था, वहां वह ठीक से चिपका नहीं था । उसने एक निगाह बैठक में दाखिल होते अपने पति पर डाली और फिर हिम्मत करके लिफाफा खेल लिया ।
उसने उके भीतर मौजूद चिट्ठी निकाली और उसे खोलकर पढा । लिखा था :
कुलश्रेष्ठ !
तुम्हारी चीज सायबान में मौजूद है ।
तुम्हारा दोस्त ।
शैलजा ने चिट्ठी वापस लिफाफे में रख दी । उसने लिफाफे को उलट-पलट कर देखा तो पाया कि उस पर न तो कोई नाम-पता लिखा हुआ था और न ही उस पर डाक टिकट या डाकखाने को मोहर लगी हुई थी ।
निश्चय ही कोई वह चिट्ठी अभी-अभी उनकी गैरहाजिरी में लैटर बॉक्स में डालकर गया था ।
तभी कुलश्रेष्ठ वापस घूमा ।
“क्या है ?” - उसने पूछा ।
“चिट्ठी है ।” - शैलजा फाटक के पास से हटकर बरामदे में आ गई - “तुम्हारी ।”
“मुझे दो ।” - कुलश्रेष्ठ व्यग्र भाव से बोला ।
शैलजा ने चिट्ठी दे दी । कुलश्रेष्ठ ने चिट्ठी निकालकर पढी । शैलजा बड़े गौर से उसे देख रही थी । उसने देखा कुलश्रेष्ठ के चिट्ठी को थामे हाथ कांप रहे थे ।
“यह चिट्ठी तुमने खोली क्यों ?” - कुलश्रेष्ठ बोला । 
“मैंने कहां खोली ?” - शैलजा क्रोधित भाव से बोली - “यह तो पहले ही खुली हुई थी । और फिर मैंने खोली भी होती तो क्या आफत आ जाती ? इस पर कौन-सा नाम लिखा है तुम्हारा ?”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा । दोनों बैठक में आ गये ।
“किसकी चिट्ठी है ये ?” - शैलजा ने पूछा - “और मतलब क्या है इसका ?”
“मैंने अपने एक दोस्त से मोटरसाइकल का एक पुर्जा मंगाया था । हम यहां थे नहीं इसलिए वह पुर्जा वह सायबान में छोड़ गया मालूम होता है ।”
“ओह !”
“तुम जाकर आराम करो । मैं अभी आता हूं ।”
शैलजा बैडरूम की तरफ बढ गई । जब तक उसने बैडरूम में जाकर दरवाजा न भिड़का लिया, कुलश्रेष्ठ वहीं खड़ा रहा । फिर वह सायबान में पहुंचा । उसने बत्ती जलाई और चारों तरफ निगाह दौड़ाई । उसे कहीं कोई अपरिचित चीज दिखाई न दी ।
वह निराश होकर वापस लौटने ही लगा था कि एकाएक उसकी निगाह छत की कड़ियों में झांकते नोटों पर पड़ी ।
कुलश्रेष्ठ का सांस सूख गया । उसने व्याकुल भाव से एक बार बैडरूम की बन्द खिड़की की तरफ देखा फिर उसने मोटरसाइकल पर चढकर वे नोट वहां से निकाल लिये ।
उसने दोनों गड्डियों को एक-दूसरे से अलग किया तो बीच में से दो कागज निकलकर नीचे आ गिरे ।
उसने दोनों कागज उठाये ।
उसका एक लाख रुपये वाला प्रोनोट ।
उसका हल्फिया बयान ।
साथ में पूरे बीस हजार रुपये ।
वह घबरा गया ।
शैलजा को पहले से ही उस पर शक था । उसने वे नोट देख लिये तो वह फौरन समझ जाएगी कि उसका डकैती में हाथ था ।
कहां छुपाये वह उन नोटों को ?
उसने फिर चारों ओर निगाह फिराई । सायबान की पिछली दीवार के साथ दुनिया-भर के कबाड़ का ढेर लगा हुआ था । वहीं एक ग्रीज का खाली डिब्बा पड़ा था । उसने नोटों की दोनों गड्डियां उस डिब्बे में बन्द कीं और डिब्बे को कबाड़ के ढेर के पीछे छुपा दिया ।
उसने बत्ती बन्द की और बाथरूम में पहुंचा ।
वहां उसने दोनों कागजों का पुर्जा-पुर्जा किया और उन्हें कमोड में डालकर ऊपर से फ्लश चला दी ।
वह बैडरूम में पहुंचा ।
शैलजा पलंग पर लेटी हुई एक पत्रिका पढ रही थी ।
कुलश्रेष्ठ ने कपड़े बदले और जाकर उसकी बगल में लेट गया । शैलजा ने पत्रिका बन्द कर दी और उसकी तरफ घूमकर बोली - “सुनो । वे बीस हजार रुपये क्या हुए जो तुम नकद मेरी हथेली पर रखने वाले थे ?”
“हौसला रखो । अभी गर्मियां बहुत दूर हैं ।” - वह बोला ।
“यानी कि मैं मान लूं कि तुम अपने वादे से फिरोगे नहीं ?”
“हां ।” - कुलश्रेष्ठ बोला । फिर उसने अपनी पत्नी की तरफ पीठ फेर ली ।
शैलजा हैरानी से उसको घूरती रही । फिर उसने कन्धे झटकाये, पत्रिका परे फेंकी और बत्ती बन्द कर दी ।
***
अगले रोज राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के ऑफिस चले जाने के बाद शैलजा हमेशा की तरह पड़ोस में ताश खेलने नहीं गई । वह निढाल-सी बैडरूम में पड़ी अपने पति के बारे में सोचती रही ।
यह बात तो अब दिन की तरह साफ हो चुकी थी कि उसका पति बहुत परेशान था । वैसे तो वह कई दिनों से बदला-बदला लग रहा था लेकिन परसों की डकैती के बाद से तो पता ही नहीं क्या हो गया था उसे । डकैती वाले रोज भी वह वक्त से जल्दी घर आ गया था । कितना हैरान-परेशान लग रहा था वह उस दिन ?
फिर वह बीड़ी पीता आदमी क्यों हर वक्त उनके घर के आसपास मंडराता रहता था ? अब उसका पति घर नहीं था तो वह आदमी भी गायब हो गया था । क्या वह उसके पति के चक्कर में ही उनकी गली में आता था ?
फिर कल खाने के बाद एकाएक सैर करने जाने का क्या भूत सवार हुआ था कुलश्रेष्ठ पर ? खाने से थोड़ी ही देर पहले तो वो बाजार से होकर आये थे ।
फिर वह रहस्यपूर्ण चिट्ठी जो कोई उनकी गैरहाजिरी में उनके लैटर बॉक्स में डाल गया था ?
धीरे-धीरे शैलजा को विश्वास होने लगा कि उसके पति ने जरूर कोई बेजा हरकत की थी जो अब उसकी अन्तरात्मा को इस हद तक कचोट रही थी कि उसका सुख-चैन हराम हुआ जा रहा था । जरूर किसी के चक्कर में पड़कर व कोई ऐसी करतूत कर बैठा था जो उसके लिए खतरा बन गई थी ।
वह कोई कौन हो सकता था ? द्वारकानाथ ?
और उसके पति की करतूत कौन सी हो सकती थी ?
डकैती ?
न जाने क्यों मन पुकार-पुकारकर कहने लगा कि उसके पति का डकैती में जरूर कोई हाथ था । कल उसे अपने पति का डकैती से रिश्ता होना नामुमकिन लगता था लेकिन आज उसे लग रहा था कि हो-न-हो यही बात थी ।
पिछली रात जब उसका पति पीछे सायबान में गया था तो वह बैडरूम की झिरी में आंख लगाकर सायबान की तरफ झांकने की कोशिश करती रही थी । उसने अपने पति को मोटरसाइकल पर खड़े होते देखा था लेकिन वह यह नहीं समझ पाई थी कि ऐसा उसने क्यों किया था । एक बार उसने उसके हाथ में एक डिब्बा-सा भी तो देखा था । उस डिब्बे का क्या कर रहा था वो ? 
एकाएक वह अपने स्थान से उठी और बैडरूम से बाहर निकल आई । वह पिछवाड़े में पहुंची ।
सायबान में उसे कोई विशेष बात दिखाई न दी । अगर कोई आदमी पिछली रात को मोटरसाइकल का कोई पुर्जा वहां छोड़कर गया था तो कम-से-कम उस वक्त वह वहां नहीं था ।
उसे फिर वह डिब्बा याद आया जो उसने अपने पति के हाथ में देखा था । उसने उसे सायबान से खाली हाथ विदा होते देखा था । इस लिहाज से वह डिब्बा वहीं होना चाहिये था । उसे उस डिब्बे की शक्ल याद थी । उसने उसकी तलाश में बड़ी बारीकी से वहां का एक-एक कोना-खुदरा टटोलना आरम्भ कर दिया ।
बहुत जल्दी ही सायबान की पिछली दीवार के साथ पड़े कबाड़ के पीछे से उसने वह डिब्बा बरामद कर लिया । उसने डिब्बा खोलकर उसके भीतर झांका तो उसके छक्के छूट गए ।
भीतर सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां मौजूद थीं ।
तो वह था वह बीस हजार रुपया जिसका वादा उसके पति ने उससे किया था ।
अब शैलजा को पूरा विश्वास हो गया कि उसके पति का किसी-न-किसी रूप में डकैती में हाथ जरूर था ।
फिर जल्दी ही वह अपने पति को कोसने लगी । कैसा मूर्ख था उसका पति ! अपना ईमान भी खराब किया तो चिड़िया के चुग्गे की खातिर ! पैंतालीस लाख की डकैती में से उसे हासिल हुए बीस हजार ठीकरे ।
बेवकूफ ! अक्ल का अन्धा !
वह कितनी ही देर डिब्बा हाथ में लिये वहीं खड़ी रही, फिर उसने कुछ सोचकर डिब्बे को वापस वहीं छुपा दिया जहां से वह उसे हासिल हुआ था । बीस हजार रुपये यूं लावारिस छोड़ने को उसका जी तो नहीं चाह रहा था लेकिन अभी वह यह भी नहीं चाहती थी कि उसके पति को पता लगे कि उसकी पोल खुल गई थी । वह वापस बैडरूम में आ गई ।
वहां उसने बडे सब्र के साथ धीरे-धीरे अपने पति की चीजें टटोलनी आरम्भ कीं ।
वार्डरोब में टंगे एक कोट की जेब में से उसे एक पुरानी चिट्ठी मिली, जिसके एक कोने में लिखा था - डी.एन. 72791 ।
डी.एन. ! द्वारकानाथ - उसे तुरन्त सूझा ।
जरूर वह द्वारकानाथ का फोन नम्बर था ।
एकाएक शैलजा के मानस-पटल पर बड़े सुखद सपने उभरने लगे । उसे लगने लगा कि बहुत जल्द उसकी तमाम वो महत्वाकांक्षायें पूरी होने वाली थी जिनके बारे में सोच-सोचकर वह बूढी हुई जा रही थी । उसको अपनी आंखों के सामने नोटों के अम्बार दिखाई देने लगे ।
फिर वह द्वारकानाथ का टेलीफोन नम्बर मन-ही-मन दोहराती दृढ कदमों से टेलीफोन की तरफ बढी ।
***
टेलीफोन की घण्टी बजी ।
विमल ने फोन उठाया और बोला - “हल्लो !”
“आप कौन बोल रहे हैं ?” - किसी स्त्री स्वर ने पूछा ।
“आपको किससे बात करनी है ?”
“द्वारकानाथ से ।”
“होल्ड कीजिये ।”
विमल बैडरूम में आया । उसने द्वारकानाथ की बांह पकड़ी और उसे हौले से हिलाया । द्वारकानाथ ने आंखें खोली ।
“कोई औरत तुमसे टेलीफोन पर बात करना चाहती है ।”
“कौन औरत ?” - द्वारकानाथ हैरानी से बोला ।
“यह तो मैंने पूछा नहीं ।”
“पूछ लो । और उसे कह दो कि मैं बीमार हूं । टेलीफोन पर नहीं आ सकता ।”
“ठीक है ।” - विमल बोला और दरवाजे की तरफ बढा ।
“या सुनो ।”
विमल ठिठका, घूमा ।
“ऐसा कहने पर शायद वह फिर फोन कर दे । तुम उसे कहना कि तुम्हीं द्वारकानाथ हो ।”
“अच्छा ।” - विमल ने ड्राइंगरूम में आकर रिसीवर उठाया और बोला - “हल्लो ।”
“द्वारकानाथ ?” - वही स्त्री स्वर फिर सुनाई दिया ।
“जी हां । आप कौन बोल रही हैं ?”
“मैं मिसेज कुलश्रेष्ठ बोल रही हूं ।”
“ओह ! फरमाइये ।”
“मैं तुमसे बात करना चाहती हूं ।” - स्त्री स्वर शुष्क हो उठा ।
“किस बारे में ?”
“यह मैं मुलाकात होने पर ही बताऊंगी ।”
“लेकिन अभी मेरे पास मुलाकात के लिए वक्त नहीं ।”
“वक्त निकाल लो, द्वारकानाथ ।” - स्वर में धमकी थी ।
“कहां आना होगा ?”
“मेरे घर ।”
“तुम्हारे घर ?”
“हां । इस वक्त यहां कोई नहीं है ।”
“लेकिन फिर भी...”
“सुनो । तुम्हारे पास गाड़ी है ?”
“है ।”
“ठीक आधे घण्टे बाद मुझे ताज रोड पर स्पोर्ट्स स्टेडियम के सामने मिलना ।”
“ठीक है ।” 
विमल ने रिसीवर क्रेडल पर पटका और लपककर द्वारकानाथ के पास पहुंचा ।
“द्वारका” - वह बोला - “तुम्हारे सिक्योरिटी ऑफिसर की बीवी का फोन था । लगता है, उसे अपने पति की करतूत की भनक लग गई है ।”
“जरूर लग गई होगी । उस बेवकूफ आदमी ने जरूर कोई लापरवाही की होगी । यहां का नम्बर भी उसकी बीवी के हाथ उसकी लापरवाही से लगा होगा । कहती क्या है वह ?”
“मिलने के लिए बुला रही है ।”
“क्यों ?”
“यह भी कोई पूछने की बात है ?”
द्वारकानाथ कई क्षण खामोश रहा । उसके चेहरे पर चिन्ता के भाव उभरे ।
“उससे मिलना होगा ।” - अन्त में वह बोला ।
“लेकिन कैसे ? तुम्हें तो हिलने-डुलने की मनाही है ।”
“वह औरत जरूर कुछ जान गई है । उसकी सुनी न गई तो मुमकिन है वह पुलिस के पास पहुंच जाये । ऐसी नौबत आने से पहले मैं यहां से कूच भी नहीं कर सकता । विमल, तुम्हें उससे मिलने जाना होगा ।”
“मुझे ?”
“हां । वह किसी प्रकार मेरा नाम जान गई है लेकिन उसने मुझे देखा कभी नहीं है । तुम कह देना कि तुम्हीं द्वारकानाथ हो और सुन लेना कि वह क्या कहना चाहती है । उसकी बात सुनकर ही हम फैसला कर सकेंगे कि हमने क्या करना है !”
“लेकिन... लेकिन उससे मिलने मैं जाऊं ?”
“और कौन जाये ?”
“कूका ।”
“इस वक्त वह लौंडा भरोसे के काबिल नहीं । गंगाधर की मौत के बाद से उसका दिमाग ठिकाने नहीं है । वह जरूर कोई घपला कर देगा । विमल, तुम्हें ही जाना होगा ।”
“अच्छी बात है ।” - विमल गहरी सांस लेकर बोला ।
***
स्पोर्ट्स स्टेडियम के सामने वह खड़ी थी । वह एक सादी-सी साड़ी पहने थी लेकिन फिर भी वह निहायत खूबसूरत लग रही थी । विमल ने फियेट को उसकी बगल में ले जाकर रोका । वह कार से बाहर निकला और उसके समीप पहुंचा ।
“मिसेज कुलश्रेष्ठ ?” - वह मुस्कराकर बोला ।
इतने सुन्दर नौजवान को अपने से सम्बोधित पाकर शैलजा हड़बड़ाई । उसने संदिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा और फिर बोली - “हां । लेकिन तुम...”
“द्वारकानाथ ।” - विमल बोला ।
“नहीं” - शैलजा कठोर स्वर में बोली - “तुम द्वारकानाथ नहीं हो । मैं क्या द्वारकानाथ को पहचानती नहीं ?”
विमल ने एक गहरी सांस ली और बोला - “मेरा नाम विमल है । मैं द्वारकानाथ का सहयोगी हूं । द्वारकानाथ बीमार पड़ा है । वह आपसे मिलने नहीं आ सकता था । अपनी जगह उसने मुझे भेजा है । फोन पर भी आपसे मैंने ही बात की थी ।”
शैलजा ने उसकी आवाज पहचान ली थी । निश्चय ही वही आवाज उसने फोन पर सुनी थी । फिर भी वह बोली - “लेकिन मुझे कैसे विश्वास हो कि तुम द्वारकानाथ के आदमी हो ?”
“आप द्वारकानाथ को फोन करके पूछ सकती हैं ।”
शैलजा कुछ क्षण सोचती रही और फिर निर्णायात्मक स्वर में बोली - “जरूरत नहीं । चलो ।”
दोनों कार में बैठे गए । विमल ने कार आगे बढा दी ।
“किधर चलूं ?” - उसने पूछा ।
“किधर भी चलो ।” - वह बोली ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
कितना शानदार नौजवान था ? - शैलजा मन-ही-मन सोच रही थी - कैसे मीठे-मीठे अनुराग भरे भाव थे उसके चेहरे पर ? उस पर निगाह पड़ते ही उसे लगा था कि जैसे सपनों का राजकुमार साक्षात उसके सामने आ खड़ा हुआ था । अगर उसे मालूम होता कि द्वारकानाथ जैसे बूढे की जगह इतना बांका नौजवान उससे मिलने आने वाला था तो वह बढिया कपड़े पहनकर और खूब सज-धजकर आती ।
“मेरा नाम शैलजा है” - एकाएक वह बोली - “तुमने क्या नाम बताया था अपना ?”
“विमल ।” - विमल बोला ।
“तुम द्वारकानाथ के साथी हो ?”
“हां ।”
“उसके हर काम में ?”
“क्या मतलब ?”
शैलजा एक क्षण खामोश रही और फिर बोली - “मुझे मालूम है रत्नाकर स्टील कम्पनी की पगार की रकम तुम लोगों ने लूटी है ।”
विमल खामोशी से सीधा सामने सड़क पर देखता रहा ।
“यह सुनकर तुम्हें हैरानी नहीं हुई” - वह गौर से उसके चेहरे को देखती हुई बोली - “कि मुझे यह बात मालूम है ?”
“नहीं हुई । सच पूछो तो मुझे यहां आने से पहले ही मालूम था कि मुझे तुमसे ऐसी ही कोई बात सुनने को मिलेगी ।”
शैलजा नर्वस हो उठी । वह उम्मीद कर रही थी कि उसके मुंह से यह बात सुनते ही विमल के छक्के छूट जायेंगे । वह घबरा जायेगा, बौखला जायेगा और फिर आगे बात बढाना बहुत आसान होगा । लेकिन उसके कान पर तो जूं नहीं रेंगी थी । उस अप्रत्याशित स्थिति में शैलजा की जुबान को जैसे ताला पड़ गया ।
“तुम चाहती क्या हो ?” - विमल ने पूछा ।
“क्या मतलब ?”
“देखो । हमें गिरफ्तार करवाने की तो तुम्हारी मर्जी मालूम नहीं होती । ऐसा होता तो तुम अभी तक कब की पुलिस के पास पहुंच गई होतीं । तुम्हारी यहां मेरे साथ मौजूदगी साबित करती है कि तुम्हारे दिल में कुछ और ही है । बोलो, क्या चाहती हो ? हमें ब्लैकमेल करना चाहती हो ?”
विमल की दो टूक बात सुनकर वह और भी नर्वस हो उठी । वह हड़बड़ाकर बोली - “न... नहीं ।”
“तो फिर ?” - विमल ने पूछा ।
“कहीं शहर से बाहर चलो ।” - वह बात बदलकर बोली ।
“शहर से बाहर जाने वाले तमाम रास्तों पर पुलिस की नाकाबन्दी हुई हुई है । मैं नहीं चाहता मेरा वास्ता पुलिस से पड़े ।”
“तो फिर किसी तनहा रास्ते पर चलो ।”
“अच्छा ।” - विमल बोला - “तुम्हें हमारे बारे में मालूम कैसे हुआ ? क्या तुम्हारे पति ने खुद बताया ?”
“नहीं ।” - वह बोली - “मेरे पति को नींद में बड़बड़ाने की आदत है । कल रात उसने नीद में सब कुछ बक दिया ।”
“ओह !”
“अब मैं परसों की डकैती के बारे में एक-एक बात जानती हूं ।” - उसने फिर झूठ बोला - “मुझे सब मालूम है कि डकैती में मेरे पति ने क्या किया, तुम लोगों ने क्या किया ।”
“क्या वाकई ?”
“हां ।” - वह बड़ी दिलेरी से बोली ।
विमल ने जोर का अट्टहास किया ।
“हंस क्यों रहे हो ?” - वह उखड़कर बोली ।
“तो तुम्हें हमारे बारे में सब कुछ मालूम है ?”
“कहा न, हां ।”
“और तुम चाहती थीं कि मैं गाड़ी किसी तनहा रास्ते पर लेकर चलूं ?”
“हां ।”
“तनहा रास्ता तो आ गया है ।”
“फिर ?”
“अगर मैं अभी तुम्हारा गला काटकर तुम्हें यहां कहीं फेंक जाऊं तो किसी को क्या पता लगेगा ?”
शैलजा के शरीर में सिर से पांव तक कंपकंपी की लहर दौड़ गई । उसने तो यह सोचा था कि वह द्वारकानाथ से मिलेगी, वह उसको बताएगी कि वह उसके बारे में सब कुछ जानती थी तो उसके छक्के छूट जायेंगे । वह उसके सामने रोने-गिड़गिड़ाने लगेगा और दरख्वास्त करेगा कि वह उसकी पोल न खोले । फिर अपनी जुबान बन्द रखने के लिए वह उससे एक ऐसी मोटी रकम की मांग करेगी जो उसके पति को हासिल हुए चिड़िया के चुग्गे से कहीं ज्यादा होगी । कैसी मूर्ख थी वह ? उसे यह क्यों नहीं सूझा था कि उसकी बात सुनते ही द्वारकानाथ उसका गला काट देगा । तभी विमल ने कार को कच्चे रास्ते पर उतार दिया और उसे पेड़ों के एक घने झुरमुट के पीछे ले जाकर रोक दिया ।
शैलजा और भयभीत हो उठी लेकिन उसने अपने मन के भाव अपने चेहरे पर परिलक्षित न होने दिया ।
विमल स्टेयरिंग छोड़कर उसकी तरफ घूमा ।
“विमल” - एकाएक शैलजा व्यग्र स्वर में बोली - “तुम मुझे अपनी तरफ समझो ।”
“क्या मतलब ?” - विमल हड़बड़ाया ।
“मैं न तुम्हारी कोई दुश्मन हूं और न तुम्हारे लिए कोई खतरा हूं । लेकिन... लेकिन... मेरा पति...”
“हां, हां ।”
“अगर तुम किसी तो मारना चाहते हो तो मेरे पति को मारो ।” - वह यूं फट पड़ी जैसे एकाएक उसके भीतर का कोई बांध टूट गया हो ।
“क्यों ?”
“क्योंकि इससे तुम्हारा भी भला होगा और... मेरा भी । वह आदमी भरोसे के काबिल नहीं । डकैती के फौरन बाद से ही उसकी हालत खराब हो गई है । मुझे तो डर लगता है कि कहीं वह पागल न हो जाये । उसकी मौजूदा हालत ऐसी है कि अगर उस पर जरा भी दवाब पड़ा तो वह फट पड़ेगा । उसने जुबान खोल दी तो पुलिस बाज की तरह तुम लोगों पर टूट पड़ेगी ।”
“उसकी मौत से तुम्हें क्या फायदा होगा ?”
“मुझे ऐसे मर्द से निजात मिल जायेगी जो मुझे तरीके से रख नहीं सकता ।”
“क्यों नहीं रख सकता ? क्या तरीके से नहीं रह रही हो ?”
“कहां रह रही हूं ? मिस्टर, जूता जिसके पांव में होता है, वही जानता है कि वह कहां काटता है ।”
विमल ने बहस नहीं की । औरतों की ऐसी किस्म को वह खूब समझता था । उनके लिए मर्द आसमान से सितारे भी तोड़कर ला दे तो उनकी पूरी नहीं पड़ती थी ।
“देखो” - विमल बोला - “मैं जानता हूं कि तुम्हारा पति हमारे अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है लेकिन उसको मार देना और भी खतरनाक साबित हो सकता है ।”
“क्यों ?”
“पहली बात तो यह है कि पुलिस उसकी निगरानी कर रही है । ऐसे माहौल में उसका कत्ल करना मुसीबत मोल लेना है । फिर वह यूं एकाएक मर गया तो पुलिस को साफ-साफ दाल में काला दिखाई देने लगेगा । पुलिस तुम पर चढ दौड़गी । वे तुम पर पति की हत्या के षड्यन्त्र में शामिल होने का शक करेंगे और फिर तुम पर बहुत दबाव डाला जायेगा ।”
“मैं किसी दबाव से टूटने वाली नहीं । मैं किसी भी स्थिति का डटकर मुकाबला कर सकती हूं ।”
“मैं मानता हूं । लेकिन फिर भी मौजूदा हालात में उसका कत्ल करने का ख्याल भी करना मुसीबत को दावत देना है ।”
“अगर वह फट पड़ा तो ?”
“तुम उसकी बीवी हो । उसके साथ रहती हो । तुम उस पर बखूबी निगाह रख सकती हो । अगर तुम्हें ऐसा लगे कि वह टूटने वाला है तो तुम हमें फौरन खबर करना । फिर हम उसका फौरन कोई इन्तजाम जरूर करेंगे ।”
“अच्छी बात है ।” - अन्त में वह बोली - “मैं अब तुम लोगों के साथ हूं । मेरी सेवाओं के बदले में मुझे क्या मिलेगा ?”
“तुम क्या चाहती हो ?” - विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं क्या बताऊं ? तुम बताओ ।”
“वक्त आने दो ! हम तुम्हें शिकायत का मौका नहीं देंगे ।”
“वादा ?”
“वादा ।”
शैलजा की आंखें लालच से चमक उठीं ।
“अब चलें ?” - विमल बोला ।
शैलजा ने सीधे विमल की आंखों में देखा और मादक स्वर में बोली - “विमल, मेरी तरफ देखो ।”
विमल ने उसकी तरफ देखा ।
“मैं तुम्हें कैसी लगती हूं ?”
“बहुत अच्छी । दिलकश । दिलफरेब ।”
मन-ही-मन वह बोला - ‘बहुत बेहूदी । हरजाई । हर्राफा ।’
“झूठे ।” - वह इठलाकर बोली - “दिल पर हाथ रखकर कहो ।”
विमल ने अपने दिल पर हाथ रखा ।
“अपने नहीं । मेरे ।”
विमल हंसा ।
एकाएक उसने विमल को अपने अंक में खींच लिया ।
विमल ने विरोध नहीं किया । उस वक्त उस औरत की दिलजोई जरूरी थी । कितनी ही देर वे एक-दूसरे से लिपटे रहे ।
“यहां कोई आता तो नहीं होगा ?” - शैलजा बोली ।
“भरी दोपहरी है” - विमल बोला - “कोई आ तो सकता है ।”
“डरते हो ?”
“अपनी वजह से नहीं । तुम्हारी वजह से ।”
“मैं तो नहीं डरती ।”
“तुम्हारी क्या बात है !”
“मेरे ख्याल से यहां कोई नहीं आयेगा ।”
“शायद आ जाए । रिस्क लेने का क्या फायदा ? कभी फिर सही ।”
शैलजा आह भरकर उससे अलग हट गई ।
विमल उसे अब और भी ज्यादा पसन्द आने लगा ।
ऐसा मर्द होना चाहिए । विवेकपूर्ण । संयमशील । उसके पति जैसा नहीं कि औरत सामने देखी और उस पर यूं टूट पड़े जैसे जूठन पर कुत्ते टूट पड़ते हैं । इस आदमी से जिन्दगी का साथ बन जाये तो जन्नत का नजारा हो जाये । शैलजा अपने ख्यालों में डूबी रही ।
विमल ने पेड़ों के झुरमुट के पीछे से कार निकाली और उसे मुख्य सड़क पर ले आया । उसने कार शाहगंज की दिशा में भगा दी । थोड़ी देर बाद उसने कार को शाहगंज में उसके घर के समीप ला खड़ा किया ।
“अब कब मिलोगे ?” - शैलजा यूं बोली जैसे वह विमल से पहले सौ-पचास बार मिल चुकी हो ।
“बहुत जल्द ।” - विमल बोला - “कोई खास बात हो तो द्वारका के नम्बर पर फोन करना ।”
“मैं दिन भर घर में अकेली होती हूं, कभी तुम ही फोन करना या आना ।”
“अभी चलूं ?” - विमल उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं, अभी नहीं ।” - वह घबराकर बोली - “अब तो मेरे पति के आने का वक्त हो चुका है ।”
विमल हंसा ।
शैलजा ने एक सरसरी निगाह गली में डाली और फिर एक बार फिर उसके साथ लिपट गई । विमल ने एक चुम्बन उसके एक गाल पर अंकित किया और फिर उसे परे धकेल दिया ।
शैलजा हड़बड़ाई-सी कार से बाहर निकली और सीधी जाकर वहां से गुजरती काली साड़ी वाली एक युवती से टकरा गई । शैलजा ने आतंकित भाव से उसकी तरफ देखा । यह देखकर उसे बड़ी राहत महसूस हुई कि वह युवती उस गली की नहीं थी, वह शैलजा के लिए नितान्त अजनबी थी ।
वह जल्दी से अपने घर में घुस गई ।
विमल ने कार आगे बढा दी ।
जिस युवती से शैलजा कार से निकलते ही टकराई थी, वह सरोज थी जो राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के लैटर बॉक्स में दूसरी गुमनाम चिट्ठी डालने आई थी । कल पहली चिट्ठी उसने उसके मिल के पते पर भेजी थी । लेकिन आज उसने अनुभव किया था कि यूं दस्ती चिट्ठी पहुंचने पर वह ज्यादा बौखलायेगा । उसके मन में यह अहसास खूब घर कर जायेगा कि उसका अनदेखा दुश्मन उसके आसपास ही कहीं मंडरा रहा था ।
चिट्ठी लैटर बॉक्स में डालकर वह घूमी ही थी कि तभी एक कार वहां आ खड़ी हुई थी । कार में उसे एक सुन्दर युवक और वही युवती दिखाई दी थी जिसे उसने पिछली रात को कुलश्रेष्ठ से बातें करते देखा था ।
उसके देखते-देखते वे दोनों एक-दूसरे के संक्षिप्त से आलिंगन में बंधे थे, फिर युवक ने युवती का एक गाल चूमा था और उसने युवती को परे धकेल दिया था । उसके बाद युवती कार से निकली थी तो सीधी उससे आ टकराई थी ।
फिर सरोज के देखते-देखते वह कुलश्रेष्ठ के घर में घुस गई थी ।
वह निश्चित ही कुलश्रेष्ठ की बीवी थी - सरोज ने मन-ही-मन सोचा - जो अपने किसी यार के साथ तफरीह करके वापस लौटी थी । जैसा हरामजादा कुलश्रेष्ठ खुद था, वैसी ही जलील उसकी बीवी थी ।
वह अपनी कार पर सवार हुई और हेस्टिंग्स रोड की तरफ चल पड़ी । कुलश्रेष्ठ को अगली चिट्ठी में उसने कुलश्रेष्ठ की बीवी की आशिकी की पोल खोलने का फैसला कर लिया । अच्छा है मियां-बीवी में जूतम-पैजार हो जाए ।
***
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ घर लौटा ।
लैटर बॉक्स में एक चिट्ठी पड़ी थी ।
उसने कांपती उंगलियों से वह चिट्ठी वहां से निकाली और उसे खोला । चिट्ठी पर निगाह पड़ते ही उसका रंग फीका हो गया । वैसी ही एक चिट्ठी उसे आज मिल के पते पर भी मिली थी । उसने उस चिट्ठी को बिना पढे अपनी कमीज की उस जेब में रख लिया जिसमें वह पहली चिट्ठी भी पड़ी थी ।
बरामदे में जाकर उसने कॉलबैल बजाई ।
शैलजा ने दरवाजा खोला ।
कुलश्रेष्ठ मुंह से एक शब्द भी बोले बिना उसकी बगल से गुजरा और सीधा बाथरूम में घुस गया । उसने बाथरूम का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और कमोड की सीट गिराकर उस पर बैठ गया ।
उसने पहले वाली चिट्ठी निकाली और उसे फिर से पढना आरम्भ किया । चिट्ठी इंगलिश में थी और बड़े अनाड़ी हाथों द्वारा टाइप की हुई थी । लिखा था:
कुलश्रेष्ठ, यू सन आफ बिच ।
जो गन्दा खेल तुम खेल रहे हो, उसकी हमें पूरी खबर है । हम जानते हैं कि तुमने मिल की बख्तरबन्द गाड़ी लूटने वाले डकैतों के पास अपना ईमान बेचा है और वैन के निर्दोष ड्राइवर का खून तुम्हारे सिर पर है । कमीने, तुम समझते हो कि तुम उस सजा से बच जाओगे जिसके कि तुम हकदार हो ? हरगिज नहीं । तुम्हारी जानकारी के लिए हमारे पास तुम्हारी हर करतूत का सबूत है । अभी तक पुलिस के सामने तुम्हारा भांडा इसलिए नहीं फोड़ा गया है क्योंकि हम नहीं चाहते कि इतनी जल्दी तुम्हें तुम्हारे कुकर्मों की सजा मिले । हम चाहते हैं कि अभी तुम पछताओ, पछताकर तड़पो और तड़प-तड़पकर मरो और मरकर भी चैन न पाओ ।
अब कल तक के लिए नमस्ते ।
कुलश्रेष्ठ ने तभी मिली दूसरी चिट्ठी निकाली । उसमें भी पहली चिट्ठी जैसा ही मसाला था । उसने कांपते हाथों से दोनों चिट्ठियां मोड़कर अपनी जेब में रख लीं और अपने हाथों से अपना सिर थाम लिया ।
क्या पत्र लिखने वाले के पास वाकई कोई ऐसा सबूत था, जो उसकी करतूत का पर्दाफाश कर सकता था या यह केवल ब्लफ था ? किसी के पास कोई सबूत कैसे हो सकता था ?
नहीं-नहीं । उसे खामखाह डराया जा रहा था ।
वह उठा और बाथरूम से निकलकर बैठक में आ गया ।
“एक प्याली चाय तो बना दो ।” - वह शैलजा से बोला ।
शैलजा को उसके चेहरे पर ऐसे दयनीय भाव दिखाई दिये कि उसे उस पर तरस आने लगा ।
“अभी लाती हूं ।” - वह बोली और किचन में घुस गई ।
कुलश्रेष्ठ बैडरूम में आया और बिना कपड़े या जूते उतारे पलंग पर लेट गया ।
अगर वह निर्दोष आदमी होता तो उन चिट्ठियों को लेकर सीधा पुलिस के पास पहुंच गया होता । लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता था । वह निर्दोष नहीं था और पुलिस पहले ही उसके पीछे पड़ी हुई थी । तो फिर वह क्या करे ?
तभी एकाएक टेलीफोन की घण्टी बज उठी । घण्टी की तीखी, अप्रत्याशित आवाज से वह यूं चिहुंका जैसे किसी ने उसे गोली मार दी हो । उसने हाथ बढाकर रिसीवर उठाया और उसे कान से लगाता हुआ बोला - “हैलो ।”
तुरन्त फोन करने वाले ने लाइन काट दी ।
गलत नम्बर लग गया होगा । - कुलश्रेष्ठ ने सोचा और रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया ।
तुरन्त फिर घण्टी बज उठी ।
उसने रिसीवर उठाया लेकिन फिर फौरन लाइन कट गई ।
यही सिलसिला पांच-छ: बार चला ।
कुलश्रेष्ठ पसीने से नहा गया । भय से उसकी हालत बद होने लगी । जरूर यह इसी शख्स की शरारत थी, जो उसे गुमनाम चिट्ठियां लिख रहा था ।
इस बार उसने रिसीवर को क्रेडल पर रखने के स्थान पर टेलीफोन को बगल में रख दिया ।
हे भगवान ! यह किस गोरखधन्धे में फंस गया था वह !
***
रविवार की शाम से ही कूका पी रहा था । नशे के आधिक्य से जब उसकी आंखें बन्द होने लगती थीं तो वह सो जाता था, जब सोकर उठता तो फिर पीने लगता था ।
लेकिन फिर भी उसकी आंखों के आगे से तड़पते, छटपटाते गंगाधर की सूरत गायब नहीं होती थी । द्वारका ने कसम खाकर कहा था कि उसने अपनी आंखों के सामने गंगाधर को दम तोड़ते देखा था लेकिन पता नहीं क्या बात थी कि कूका को उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था । साधारणतया द्वारका जो कहता था वह उसे आंख बन्द करके सच मान लेता था लेकिन इस बार द्वारका ने दुर्गा भवानी की कसम खाई थी लेकिन फिर भी कूका को लग रहा था कि वह झूठ बोल रहा था ।
उसका बहुत जी चाह रहा था कि वह एक बार गैरेज में बन्द स्टेशन वैगन में पड़े गंगाधर को देखकर आये कि वह किस हालत में था लेकिन द्वारका के डर की वजह से उधर का रुख करने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी । उसके दिल से रह-रहकर यह आवाज उठने लगती थी कि गंगाधर जिन्दा था और उसे मदद के लिए पुकार रहा था ।
अपना नोटों से भरा सूटकेस अपने घर पर रखने की उसकी हिम्मत नहीं हुई थी । गंगाधर के गैरेज से विदा होने के बाद वह एक रिक्शा पर बैठकर अपने घर लौटा था । उसने रास्ते से दो ताले खरीदे थे और सूटकेस में से सौ-सौ के बीस नोट निकालकर वे ताले सूटकेस पर जड़ दिये थे ।
फिर वह दोबारा एक रिक्शा पर सवार हुआ था और राजा की मण्डी रेलवे स्टेशन पहुंचा था । सूटकेस उसने स्टेशन के अमानती सामान घर में जमा करवा कर रसीद हासिल कर ली थी । उससे ज्यादा सुरक्षित जगह उसे नहीं सूझी थी ।
बुधवार शाम को जब उसका नशा कुछ उतरा तो उसे एकाएक एक ख्याल आया ।
क्या उसका मुंह बन्द करने के लिए द्वारका उसका खून कर सकता था ? नशे में भन्नाये हुए उसके दिमाग ने यही फैसला किया कि द्वारका सरासर ऐसा कर सकता था ।
फिर अपने बचाव के लिए उसने वह तरकीब अपनायी जो उसने कई बार कई घटिया जासूसी उपन्यासों में पढी थी ।
उसने चिट्ठी लिखी । चिट्ठी में उसने डकैती की सारी कहानी दोहरा दी और फिर उसे एक लिफाफे में बन्द कर दिया, उसने एक चिट्ठी मुजफ्फरनगर में रहते अपने मामा के नाम लिखी और पहले बन्द लिफाफे और उस चिट्ठी को एक नये लिफाफे में बन्द करके उस पर अपने मामा का नाम और पता लिख दिया ।
अब नौबत आने पर वह द्वारका को धमका सकता था कि अगर उसे कुछ हो गया तो उसका एक सहयोगी वह चिट्ठी पुलिस को सौंप देगा जिसमें उसने द्वारका की सारी करतूतों का भंडाफोड़ कर दिया था ।
लिफाफा उसने जेब में रखा और उसे डाक में डालने की नीयत से वह घर से बाहर निकला ।
उसके घर के सामने ही एक इमारत की पहली मंजिल पर एक बार था । उसका नशा टूट रहा था जिसकी वजह से उसका दिमाग भन्ना रहा था । उसने डाकखाने जाने से पहले दो-तीन पैग विस्की पी लेने का फैसला किया ।
वह बार की सीढियां चढकर ऊपर पहुंचा ।
बार कोई बहुत बड़ा हॉल नहीं था बल्कि वहां पांच-छ: छोटे-छोटे रिहायशी कमरे थे जिनको ‘बार एण्ड रेस्टोरेंट’ में तब्दील किया गया था । वह कमरे में पहुंचा ।
वहां चार मेजें बिछी हुई थी जिसमें से केवल एक पर दो आदमी बैठे विस्की पी रहे थे ।
बाकी के कमरे भी लगभग खाली थे ।
कूका ने उन दो आदमियों के बीच में रखी हाईलेंड चीफ की आधी बोतल पर निगाह डाली और नाक चढाई । वेटर आया तो वह बोला - “तुम्हारे यहां स्कॉच विस्की मिलती है ?”
दौलत हासिल होने के बाद से कूका पहली बार घर से निकला था इसलिए थोड़ा ठाट-बाट दिखाने का लोभ वह संवरण नहीं कर सका था । अगर उसका दिमाग ठिकाने होता तो उसे द्वारका की वह चेतावनी जरूर याद आती जिसमें उसने उसे खास तौर पर ऐसी हरकतें करने से मना किया था ।
“स्कॉच तो नहीं है, साहब ।” - वेटर बोला ।
“क्या बार है ?” - कूका ने नाक चढाई - “तो फिर बढिया विस्की कौन-सी है तुम्हारे पास ?”
“रायल गार्ड है, साहब !”
“लेकर आओ । एक बोतल ।”
वेटर चला गया ।
हाइलैंड चीप पीते दोनों आदमी दबी आंखों से उसे देखते हुए आपस में खुसर-पुसर करने लगे ।
वेटर रायल गार्ड की बोतल, सोडे और गिलास लेकर लौटा । उसने सब कुछ कूका के सामने रखा और बिल पेश कर दिया ।
“बिल बाद में लाना ।” - कूका शान से बोला ।
“बोतल का बिल पहले देना पड़ता है, साहब” - वेटर बोला - “ऐसा ही दस्तूर है ।”
कूका ने अपनी जेब से नोटों का पुलन्दा निकाला और उसमें से एक सौ का नोट अलग करके वेटर की तरफ उछाल दिया ।
उसके पास इतने नोट देखकर बगल की मेज पर बैठे दोनों आदमियों की आंखें फट पड़ी । वे फिर खुसर-पुसर करने लगे ।
“कबाब लाओ ।” - कूका ने आदेश दिया ।
वेटर चला गया । कूका ने विस्की पीनी आरम्भ कर दी ।
वे दोनों आदमी बहुत गौर से देख रहे थे ।
तभी एक नये आदमी ने उस कमरे में कदम रखा ।
आहट सुनकर कूका ने सिर उठाया । फिर उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे । आगन्तुक विमल था ।
विमल ने भी उसको देखा । वह अपने पाइप के कश लगाता हुआ उसके समीप पहुंचा ।
“हल्लो कूका ।” - वह उसके सामने बैठता हुआ बोला ।
“तुम यहां कैसे पहुंच गए ?” - कूका बोला ।
“तुम्हें ही देखने आया था ।”
“तुम्हें मालूम था मैं यहां हूं ?”
“नहीं लेकिन द्वारका ने मुझे बताकर भेजा था कि अगर तुम अपने घर पर न होवो तो मैं जरूर देख लूं ।”
“विस्की पियो ।”
“नहीं । मैं विस्की पीने नहीं आया ।”
“तो फिर कैसे आए हो ?”
“तुम्हें लेने आया हूं । द्वारका बुला रहा है तुम्हें ।”
“क्या चाहता है वो ?”
“तुम्हारा हाल-चाल जानना चाहता है ।”
“ऐसी की तैसी में घुस गया, द्वारका । मैं नहीं जाता ।”
“कूका, वो...”
“मैं नहीं चाहता वो मेरा हाल-चाल जाने ।”
“तो तुम उसका हाल-चाल जानने के लिए चल पड़ो ।”
“क्या मतलब ?”
“द्वारका को बड़ा खतरनाक दिल का दौरा पड़ा है ।”
“अच्छा हुआ । मर नहीं गया कम्बख्त ?”
“नहीं । गनीमत है अभी जिन्दा है । तुम चल रहे हो ?”
“नहीं । अगर उसे मुझसे मिलना है तो यहां आ जाये ।”
“अभी उसे पलंग पर से उठने की मनाही है ।”
“जब मनाही न रहे तब आ जाये ।”
“तो तुम नहीं चल रहे हो ?”
“नहीं और तुम भी या तो पीने में मेरा साथ दो या फिर फूटो ।”
विमल उठा और वहां से बाहर निकल गया ।
अपनी जिस आशंका के अन्तर्गत द्वारका ने उसे कूका के पास भेजा था, वह सच निकल रही थी ।
कूका किसी भी क्षण उनकी पोल खुलवा सकता था ।
कूका की गैर जिम्मेदारना हरकतों की खबर द्वारका के पास पहुंचाई जाना जरूरी था ।
विमल के जाते ही कूका ने अपना गिलास खाली किया और फिर अगला पैग इतना बड़ा बनाया कि बोतल आधी खाली हो गई । थोड़ी ही देर बाद नशे से उसका भेजा हवा में तैरने लगा ।
वह साला विमल का बच्चा - उसने गुस्से में सोचा - पीने के लिए साथ बैठ जाता तो पीने का आनन्द आ जाता । अकेले पीने में कोई मजा नहीं है ।
फिर उसका ध्यान बगल की मेज पर बैठे दोनों आदमियों की तरफ गया । उनकी बोतल खाली हो चुकी थी ।
“और मंगाओ ।” - कूका नशे में थरथराती आवाज में बोला - “आज तो मौसम सुहावना है ।”
“माल-पानी चुक गया, उस्ताद ।” - उनमें से एक, जो गले में लाल रुमाल बांधे था, बोला ।
“अरे, तो यहां आ जाओ । आज अपनी तरफ से सही ।”
दोनों वहां से उठकर फौरन उसकी मेज पर पहुंच गए ।
“लो, पियो ।” - उसने बोतल उनकी तरफ सरका दी ।
लाल रुमाल वाला अपनी मेज से गिलास उठा लाया ।
उसने अपने और अपने साथी के लिए दो बड़े-बड़े पैग बना लिए ।
अगले राउण्ड में बोतल खत्म हो गई ।
“माल-पानी तो चुक गया, उस्ताद ।”
“फिर क्या हुआ, और मंगाते हैं ।”
कूका ने वेटर को नई बोतल लाने का आदेश दिया ।
उसके दिल के किसी कोने से एक नन्हीं-सी आवाज उठ रही थी और उसे कह रही थी कि जो कुछ वह कर रहा था, ठीक नहीं कर रहा था लेकिन वह आवाज उसकी नशे से जड़ हो चुकी बुद्धि को भेद पाने में असमर्थ थी ।
तभी कूका को ध्यान आया कि घर से तो वह अपने मामा को चिट्ठी डालने के लिए निकला था । उसने दीवार पर लगी घड़ी देखी । आठ कब के बज चुके थे । यानी कि अब तो बड़े डाकखाने से भी टिकट नहीं मिलने वाली थी ।
“तुममें से किसी के पास चार आने वाली टिकट है ?”
“कैसी टिकट ?” - लाल रुमाल वाला बोला ।
“लिफाफे पर लगाने वाली ।”
“वह तो डाकखाने से मिलती है ।”
“लेकिन डाकखाना अब तक बन्द हो चुका होगा ।”
“फिर क्या हो गया ? कल दोबारा भी तो खुलेगा ।”
“हां ।” - कूका हर्षित स्वर में यूं बोला जैसे लाल रुमाल वाले ने उसे किसी बहुत कठिन समस्या का हल सुझा दिया हो ।
वेटर ने नई बोतल लाकर मेज पर रख दी ।
कूका ने फिर जेब से नोटों का पुलन्दा निकाला और उसमें से एक सौ का नोट अलग करके वेटर की तरफ उछाल दिया ।
“बहुत नावां है, उस्ताद ।” - लाल रुमाल वाला बोला ।
“सौ के नोट को नावां कहते हो ?” - कूका तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “मेरे पास इससे कहीं बड़ा नोट है ।”
“क्यों मजाक करते हो, उस्ताद” - लाल रुमाल वाला हंसा - “सौ से बड़ा नोट तो होता ही नहीं ।”
“पहले हजार का होता था” - उसका साथी बोला - “लेकिन उसे सरकार ने बन्द करा दिया है ।”
कूका ने अपना गिलास ठक्क की आवाज के साथ मेज पर रख दिया । उसने अपनी जेब में हाथ डाला और बड़े नाटकीय अन्दाज से रेलवे स्टेशन के अमानती सामान-घर में रखे अपने सूटकेस की रसीद निकाली ।
“इसे देख रहे हो ?” - वह रसीद हवा में हिलाता हुआ नशे में धुत्त स्वर में बोला - “यह दस लाख रुपये का नोट है ।”
सामने बैठे दोनों आदमियों ने जोर का अट्टहास किया ।
फिर लाल रुमाल वाला बोला - “क्यों घिस रहे हो, उस्ताद !”
“यह दस लाख रुपये का नोट है ।” - कूका गर्जकर बोला ।
“अच्छा !” - लाल रुमाल वाले का साथी बोला ।
कूका ने रसीद ऐन उसकी आंखों के सामने कर दी ।
लाल रुमाल वाले ने बाज की तरह झपट्टा मारकर रसीद उसके हाथ से छीन ली । कूका के चेहरे का रंग उड़ गया । एकाएक उसका सारा नशा हिरण हो गया ।
“वापस करो ।” - वह चिल्लाया और लाल रुमाल वाले पर झपटा । लेकिन लाल रुमाल वाले के साथी ने एकाएक उसे पीछे से जकड़ लिया । कूका उसकी पकड़ में छटपटाने लगा ।
“अभी वापस करते हैं ।” - लाल रुमाल वाला बोला - “जरा देख तो लें कि दस लाख रुपये का नोट कैसा होता है ।”
“छोड़ो ! छोड़ो मुझे !” - कूका चिल्लाया ।
लाल रुमाल वाले ने रसीद पर निगाह डाली और फिर उखड़े स्वर में बोला - “लानत ! अबे बिहारी, यह तो साली स्टेशन के क्लॉक-रूम की रसीद है ।”
“बेवकूफ बना रहा था साला हमें ।” - बिहारी कूका की बांहें उमेठता हुआ बोला ।
“देखो” - कूका चिल्लाया - “मेरी रसीद वापस कर दो वरना अच्छा नहीं होगा ।”
“यह रसीद थोड़े ही है !” - लाल रुमाल वाला अट्टहास करता हुआ बोला - “क्या अन्धे हो गए हो ? पहचानते नहीं हो ? अबे टेसू, यह तेरा दस लाख रुपये का नोट है ।”
फिर लाल रुमाल वाले ने अपनी जेब से एक मुड़ा-तुड़ा सिगरेट निकालकर होंठों से लगा लिया । उसने माचिस जलाई लेकिन माचिस की लौ सिगरेट से लगाने के स्थान पर उसने उसे दूसरे हाथ में थमी रसीद से लगा दिया ।
“नहीं !” - कूका आतंकित भाव से चिल्लाया ।
“मैंने कभी नोट से सिगरेट नहीं जलाया था ।” - लाल रुमाल वाला बोला - “आज जिन्दगी की एक हसरत पूरी हो गई ।” - फिर उसने जलती हुई रसीद से सिगरेट सुलगा लिया ।
क्रोध और बेबसी में कूका की आंखों से आंसू बह निकले ।
तभी एक लम्बा-चौड़ा आदमी तीन-चार वेटरों के साथ उस कमरे में पहुंचा । आते ही वह चिल्लाकर बोला - “यह क्या हंगामा है ? निकालो हरामजादों को बाहर ।”
वेटरों ने तीनों को काबू किया और सीढियों से नीचे धकेल दिया । नीचे सड़क पर पहुंचते ही लाल रुमाल वाले ने और उसके साथी ने कूका को दबोच लिया । वे उसे घसीटते हुए बगल की एक अन्धेरी गली में ले गये । कूका ने अपने-आपको बन्धन-मुक्त करने के लिए बहुत हाथ-पांव पटके लेकिन कामयाब न हो सका । फिर लाल रुमाल वाला और उसका साथी अन्धाधुन्ध उसकी धुनाई करने लगे । बीच में लाल रुमाल वाले ने उसकी जेब में हाथ डालकर सौ-सौ के नोटों का पुलन्दा खींच निया और उसे फिर पीटना शुरु कर दिया ।
***
विमल ने कार को बार के सामने लाकर खड़ा किया ।
“मैं गाड़ी में ही बैठा हूं” - द्वारकानाथ क्षीण स्वर में बोला - “तुम उसे बुलाकर लाओ । अगर वह अब भी नहीं आयेगा तो मैं ऊपर चलूंगा ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । वह कार से बाहर निकला और बार की सीढियां चढ गया ।
नर्स ने द्वारकानाथ को बहुत कड़ी चेतावनी दी थी कि अगर वह पलंग से उठकर भी खड़ा हुआ तो उसकी जान पर आ बनेगी, लेकिन वह फिर भी नहीं माना था । जो हरकतें, उसे विमल ने आकर बताया था कि, कूका कर रहा था, वे वैसे ही उसकी जान को खतरा बन सकती थी । उस लौंडे को काबू में करना निहायत जरूरी था । इसी वजह से वह अपनी जान के लिए इतना बड़ा खतरा मोल लेकर वहां तक आया था ।
तभी विमल लौटा ।
“वह ऊपर नहीं है” - उसने द्वारकानाथ को बताया - “लेकिन मुझे मालूम हुआ है कि अभी थोड़ी देर पहले वह ऊपर इतना हुड़दंग मचाने लगा था, कि बार के मालिक ने उसे बाहर निकलवा दिया था । मुझे यह भी पता लगा है कि उसके साथ दो गुण्डे से लगने वाले आदमी और थे जिन्हें वह अपने साथ विस्की पिला रहा था ।”
“सत्यानाश !” - द्वारकानाथ वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “उसने अपनी रईसी का ढोल पीटना आरम्भ कर दिया होगा और वे गुण्डे उसके साथ चिपक लिए होंगे ।”
विमल खामोश रहा ।
द्वारकानाथ की व्याकुल निगाह चारों तरफ फिरने लगीं । उसे कूका तो कहीं दिखाई नहीं दिया लेकिन बार की इमारत की बगल से गुजरती एक अन्धेरी गली पर आकर उसकी निगाह ठिठक गई ।
“उस गली में देखो ।” - वह बोला ।
विमल आगे बढा । वह गली में दाखिल हो गया ।
थोड़ी देर बाद वह दौड़ता हुआ गली से बाहर निकला ।
“वह वहां पड़ा है ।” - विमल बोला ।
“जिन्दा है ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“हां । लेकिन बेहोश है । लगता है किसी ने उसकी खूब धुनाई की है ।”
द्वारकानाथ खामोश रहा ।
“मैं उसे उठाकर यहां लाऊं ?” - विमल ने पूछा ।
“नहीं ।” - द्वारकानाथ कार से बाहर निकलता हुआ बोला - “ऐसे लोगों का ध्यान हमारी ओर आकर्षित हो जायेगा । हम वहां चलाकर उसे होश में लाने की कोशिश करते हैं ।”
“तुम बैठो । मैं कोशिश करके देखता हूं ।”
“क्या जगह काफी दूर है ?”
“नहीं, पास ही है ?”
“तो फिर मैं भी चलता हूं ।”
द्वारकानाथ ने विमल के कंधे का सहारा ले लिया । दोनों नीम-अन्धेरी गली में दाखिल हुए ।
कूका कूड़े के एक ड्रम के पास औंधे मुंह पड़ा था ।
द्वारकानाथ कुछ क्षण उसके सिर पर खड़ा रहा । फिर उसने आदेश दिया - “इसकी जेबें टटोलो ।”
विमल ने जेबें टटोलीं और फिर बोला - “माल-पानी गायब है । जो कुछ इसके पास था बदमाशों ने झटक लिया मालूम होता है ।”
“पता नहीं कितना माल साथ लेकर फिर रहा था हरामजादा !” - द्वारकानाथ नफरत भरे स्वर में बोला ।
“इसकी जेब में एक चिट्ठी पड़ी है ।”
“कैसी चिट्ठी ?”
विमल ने जेब से लाइटर निकालकर जलाया और चिट्ठी का मुआयना किया ।
“इस पर किसी गिरधारीलाल का नाम लिखा है” - विमल बोला - “और मुजफ्फरनगर का पता लिखा है ।”
“गिरधारीलाल कूका का मामा है ।” - द्वारकानाथ बोला - “यह अक्सर अपने मामा का जिक्र किया करता था लेकिन चिट्ठी तो इसने आज तक नहीं लिखी थी ।”
“आज लिखी तो डाक में नहीं डाली ।”
“चिट्ठी खोलो ।”
विमल ने लिफाफा फाड़ा । भीतर से एक चिट्ठी और एक और लिफाफा बरामद हुआ । उसने दोनों चीजें द्वारका को दिखाई ।
“चिट्ठी पढो ।” - द्वारका बेचैनी से गली के दोनों सिरों की तरफ निगाह दौड़ाता हुआ बोला ।
गली सुनसान थी ।
विमल ने चिट्ठी पढी और फिर बोला - “इसने अपने मामा को लिखा है कि वह चिट्ठी के साथ वाले लिफाफे को बिना खोले अपने पास सुरक्षित रख ले । अगर उसे कभी खबर मिले कि वह इस दुनिया में नहीं रहा था और अपनी आई मौत नहीं मरा था तो वह साथ के लिफाफे को पुलिस के किसी उच्चाधिकारी के पास पहुंचा दे ।”
द्वारकानाथ सन्न रह गया । वह बच्चा नहीं था । लिफाफे को खोले बिना भी वह समझ गया कि उसके भीतर क्या था ।
“दूसरा लिफाफा भी खोलो ।” - फिर भी वह बोला ।
विमल ने दूसरा लिफाफा भी खोला और लाइटर की रोशनी में उसे पढने लगा - “यह अनमोल कुमार श्रीवास्तव उर्फ कूका का हल्फिया बयान है । मैं तसदीक करता हूं कि मैं एक मार्च को रत्नाकर स्टील कम्पनी की बख्तरबन्द गाड़ी को लूटने वालों में शामिल था । हमारे गैंग का सरगना द्वारकानाथ था...”
विमल जल्दी-जल्दी पढता चला गया ।
द्वारकानाथ के छक्के छूट गए । कूका ने उसमें उसकी तो पूरी जन्मकुण्डली लिख दी थी । उसमें उसके मेटकाफ रोड वाले फ्लैट का तो पता था ही, उस फ्लैट का भी पता था जिसके गैरेज में बन्द स्टेशन वैगन में गंगाधर की लाश पड़ी थी । उसमें गंगाधर के बड़ी दरेसी में स्थित गैरेज का भी पता था । उसमें यह भी लिखा था कि उनका चौथा, द्वारकानाथ द्वारा ताजा भरती किया हुआ, साथी विमल वास्तव में इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था । उसने यह बात भी साफ-साफ, बहुत जोर देकर लिखी थी कि अगर उसकी मौत किन्हीं असाधारण स्थितियों में हो जाये तो उसके कत्ल के लिये द्वारकानाथ को जिम्मेदार समझा जाये ।
विमल ने चिट्ठी पढनी बन्द की और फिर द्वारकानाथ से बिना पूछे उसमें आग लगा दी ।
“हरामजादा !” - द्वारकानाथ सांप की तरह फुंफकारा - “कमीना ! धोखेबाज ! नाशुक्रा !”
फिर उसने अपने पांव की भरपूर ठोकर अचेत पड़े कूका की खोपड़ी पर जमाई ।
कूका के मुंह से एक कराह निकली । उसके शरीर में हरकत हुई ।
द्वारका ने एक और ठोकर उसकी पसलियों में रसीद की ।
“हाय !” - कूका के मुंह से निकला ।
“इसे उठाकर खड़ा करो ।” - द्वारकानाथ बोला ।
विमल ने उसकी बगल में हाथ डालकर उसे उठाया और उसे कूड़े के डम के सहारे खड़ा कर दिया ।
“सब्र नहीं हुआ न, उल्लू के पट्ठे ?” - द्वारकानाथ कहरभरे स्वर में बोला - “इन्हीं हरकतों के लिए मैंने तुझे खास तौर से मना किया था ।”
कूका कुछ न बोला । वह ड्रम का सहारा लिये आगे-पीछे झूमता रहा । द्वारकानाथ ने उसे गिरहबान से पकड़ लिया और उसे झिझोड़ता हुआ बोला - “कितने पैसे छिनवाये ?”
“दो-दो हजार !” - बड़ी मुश्किल से कूका ने कहा ।
“बाकी माल तो सलामत है ?”
“बाकी माल ।” - कूका ने दोहराया । फिर एकाएक वह फूट-फूटकर रोने लगा - “द्वारकानाथ ! मेरी रसीद...”
“कैसी रसीद !” - द्वारकानाथ ने उसे फिर झिंझोड़ा ।
“कैसी रसीद ?” - विमल ने भी पूछा ।
“अमानती सामानघर की रसीद । उन बदमाशों ने रसीद जला दी ।”
“अबे, क्या बक रहा है ?”
“अपने हिस्से के माल वाला सूटकेस मैंने राजा की मण्डी स्टेशन पर जमा करवा दिया था । वहां से मिली रसीद को उन लोगों ने आग लगा दी ।”
“तुमने वह रसीद उन्हें दिखाई क्यों ? उन्हें बताया क्यों कि वह किस चीज की रसीद थी ?”
“मेरी शामत आई थी ।” - वह हिचकियां लेता हुआ बोला - “मेरी अक्ल खराब हो गई थी । मैं...”
“और वह चिट्ठी जो तुमने अपने मामा को लिखी थी ?”
एकाएक कूका ने रोना बन्द कर दिया । उसने आतंकित भाव से द्वारकानाथ की तरफ देखा ।
द्वारकानाथ ने एक जोर का झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया । कूका ड्रम के ऊपर उलट गया ।
“तुम जरा कार में चलो ।” - द्वारकानाथ विमल से बोला । उसका स्वर एकाएक भावहीन हो उठा था ।
“लेकिन” - विमल बोला - “द्वारका तुम...”
“सुना नहीं, सरदार साहब ।” - द्वारकानाथ कर्कश स्वर में बोला ।
विमल सकपकाया । नीमअन्धेरे में उसकी निगाह एक क्षण के लिए द्वारका की निगाह से मिली और फिर वह सब कुछ समझ गया । वह घूमा और लम्बे डग भरता हुआ कार की तरफ बढ गया । अभी वह गली के दहाने पर ही पहुंचा था कि उसे अपने पीछे से एक ऐसी आवाज सुनाई दी जैसे कोई पटाखा चला हो या किसी कार ने बैकफायर किया हो । विमल ने घूमकर पीछे नहीं देखा । वह कार में जा सवार हुआ । उसने कार को थोड़ा-सा इस प्रकार बैक किया कि वह गली के दहाने से जा लगी ।
तभी द्वारकानाथ गली के दहाने पर प्रकट हुआ ।
विमल ने देखा उसका चेहरा सलेट की तरह साफ था ।
विमल ने हाथ बढाकर कार का उसकी तरफ वाला दरवाजा खोल दिया । द्वारकानाथ चुपचाप उसकी बगल में आ बैठा ।
विमल ने उससे निगाह नहीं मिलाई । न ही उसने उससे कूका के बारे में कोई सवाल पूछा । उसने कार को धीरे से गियर में डाला और उसे आगे बढा दिया ।
***
“सरासर मौत को दावत देने वाला काम किया है तुम्हारे अंकल ने ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । उसने एक चिन्तापूर्ण निगाह पलंग पर पड़े द्वारका पर डाली ।
नर्स ने उसे सिडेटिव दे दिया था । द्वारकानाथ की आंखें बन्द थीं और उसकी सांस बड़े व्यवस्थित ढंग से चल रही थी ।
“इस वक्त तो चिन्ता की कोई बात नहीं है न ?”
“मैं क्या कह सकती हूं ?” - नर्स बोली - “यह तो बड़ा डॉक्टर ही आकर बतायेगा । मैंने उसे फोन करके बुलवाया है । वह आता ही होगा ।”
“लेकिन फिर भी...”
“दिल के मरीज का कुछ नहीं पता लगता, भाई साहब । देखने में बहुत ठीक लगते हुए भी दिल का मरीज बहुत खस्ताहाल हो सकता है और देखने में बहुत खस्ताहाल लगते हुए भी वह बहुत ठीक हो सकता है ।”
“ओह !”
“बड़े डॉक्टर को जब यह मालूम होगा कि पेशेण्ट उठकर यहां से बाहर गया था तो वह बहुत खफा होगा । मुममिन है वह ये केस ही छोड़ दे ।”
“डॉक्टर को तुम समझा लेना । मेरे अंकल का यहां से जाना बहुत ही ज्यादा जरूरी था ।”
“जिन्दगी से भी ज्यादा जरूरी कोई चीज होती है ?”
“तुम ठीक कह रही हो । लेकिन कभी कभार...”
तभी बैठक में टेलीफोन की घण्टी बज उठी ।
विमल ने बैठक में जाकर फोन उठाया ।
“कौन बोल रहा है ?” - उसके कानों में शैलजा की दहशतनाक आवाज पड़ी ।
“विमल ।” - विमल बोला ।
“विमल, मैं शैलजा बोल रही हूं ।”
“बोलो, शैलजा ! तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो ?”
“विमल, तुम फौरन यहां मेरे पास आ जाओ ।”
“यहां कहां ?”
“शाहगंज । मेरे घर ।”
“लेकिन बात क्या है ?”
“विमल, मेरा पति पागल हो गया है । वह मुझे जान से मार डालना चाहता है ।”
“क्या ?”
“वह आ रहा है । वह आ रहा है । वह नहीं छोड़ेगा मुझे । विमल, मुझे बचा लो । अगर तुम फौरन न आये तो मैं तो मरूंगी ही लेकिन मरने से पहले मैं तुम लोगों की पोल भी खोलकर जाऊंगी । इसलिए...”
तभी लाइन कट गई । विमल को शैलजा की आतंकित आवाज की जगह डायल टोन सुनाई देने लगी ।
विमल ने धीरे से रिसीवर रख दिया ।
वह फैसला नहीं कर पा रहा था कि उसे जाना चाहिये था या नहीं । इस मामले में वह द्वारका से सलाह भी नहीं ले सकता था । वह तो सिडेटिव के प्रभाव में बेहोश पड़ा था ।
फिर उसने यही फैसला किया कि उसे एक बार वहां जरूर जाना चाहिए था ।
वह बैडरूम में आया और नर्स से बोला - “मैं थोड़ी देर के लिए बाहर जा रहा हूं । डॉक्टर साहब अगर गुस्सा करें तो उन्हें तुम समझा लेना । प्लीज ।”
नर्स ने सहमति में सिर हिला दिया ।
विमल फ्लैट से निकला । नीचे आकर वह फिर फियेट में सवार हुआ और शाहगंज की तरफ उड़ चला ।
शैलजा के घर वाली गली में दाखिल होते ही उसने कार रोक दी । आगे गली में लोगों की भीड़ लगी हुई थी ।
वह कार से उतरकर आगे बढा ।
भीड़ में एक पुलिस की जीप भी खड़ी थी और वहां कुछ वर्दीधारी पुलिसिये भी दिखाई दे रहे थे ।
वह और समीप पहुंचा तो उसने देखा उस तमाम हंगामे का केन्द्र कुलश्रेष्ठ का घर था । विमल भीड़ में जा मिला ।
उसने देखा घर के सामने के रोशनदानों और खिड़कियों में से गहरा काला धुआं निकल रहा था । और कई तरह की चीजों के जलने की गन्ध घर से बाहर तक आ रही थी ।
“क्या हुआ ?” - उसने एक आदमी से पूछा ।
“घर में आग लग गई थी लेकिन अब बुझाई जा चुकी है ।”
“कैसे लग गई आग ?”
“मालूम नहीं ।”
“आग बुझी कैसे ? फायर ब्रिगेड वाले तो दिखाई नहीं दे रहे ।”
“अब थोड़ी देर में दिखाई देंगे । अब उनकी जरूरत जो नहीं रही । आग तो मौहल्ले वालों ने ही बुझा ली है ।”
“पुलिस कैसे पहुंच गई ?”
“मुझे नहीं पता ।”
तभी इमारत के सामने दरवाजे से तीन आदमी बाहर निकले । विमल ने अपने पंजों पर उचककर उधर देखा ।
उसने देखा दो पुलिसिये राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को दायें-बायें से पकड़कर बाहर ला रहे थे । कुलश्रेष्ठ का चेहरा धुएं से काला पड़ा हुआ था और उसके कपड़े जगह-जगह से जले हुए दिखाई दे रहे थे । उसके चेहरे पर वहशियों के-से भाव थे और वह यूं यंत्रचलित-सा दो पुलसियों के बीच में चल रहा था जैसे उसे कतई मालूम नहीं था कि उसके साथ क्या बीत रही थी ।
विमल भीड़ में रास्ता बनाता हुआ अगली कतार में आ गया । कुलश्रेष्ठ उसके सामने से गुजरा । वह कई जगह से जला हुआ था ।
तभी उसे फाटक के पास शैलजा दिखाई दी ।
दोनों की निगाहें मिलीं । विमल उसके पास पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - उसने दबे स्वर में पूछा ।
“यहां से चलो ।” - वह बोली ।
“कहां ?”
“गाड़ी लाये हो ?”
“हां...”
“कहां है ?”
“गली के मोड़ पर ।”
“तुम चलो । मैं आती हूं ।”
विमल घूमकर कार की तरफ चल दिया ।
तभी उसने फायर बिग्रेड की घण्टी की आवाज सुनी ।
कुलश्रेष्ठ के घर के सामने लगी भीड़ में सरोज भी मौजूद थी । वह कुलश्रेष्ठ के लैटर बॉक्स में नई चिट्ठी डालने की नीयत से वहां पहुंची थी तो उसने इमारत में आग लगी हुई पाई थी ।
वह भी भीड़ में मिलकर देखने लगी थी कि आगे क्या होता था ? फिर उसके देखते-देखते लोगों ने आग बुझा दी थी और फिर कुलश्रेष्ठ को भी पुलिस ने अपने अधिकार में ले लिया था ।
फिर एकाएक उसे फाटक के पास खड़ी शैलजा से बातें करता वही युवक दिखाई दिया था, जिसके साथ पिछले रोज एक नीली फियेट में उसने शैलजा को चूमा-चाटी करते देखा था - उसका वह यार जिसका जिक्र उसने अपनी आज शाम की चिट्ठी में किया था ।
फिर वह युवक तेजी से एक तरफ बढ चला ।
थोड़ी देर बाद शैलजा भी भीड़ से अलग हुई और चुपचाप उसके पीछे चल दी ।
सरोज बड़ी हैरान हुई । कैसी औरत थी शैलजा ? उसका घर जल रहा था । उसका पति लगता था कि पागल हो गया था, उसे पुलिस पकड़कर ले जा रही थी और वह अपने यार के पीछे कहीं खिसकी जा रही थी ।
फिर कुछ सोचकर सरोज भी उसके पीछे हो ली ।
***
विमल ने कार का इंजन पहले ही स्टार्ट किया हुआ था और उसे रिवर्स गियर में डाला हुआ था । शैलजा के आकर कार में सवार होते ही उसने कार को गली से निकाला और उसे मुख्य सड़क पर दौड़ा दिया ।
घटनास्थल से काफी आगे निकल जाने के बाद उसने सवाल किया - “क्या हुआ था ?”
“वह” - शैलजा बदहवास ढंग से बोली - “वह तो पागल हो गया है !”
“हुआ क्या था ?”
“शाम को वह ऑफिस से लौटकर आया । आते ही वह सीधा बैडरूम में चला गया । उसकी कोई चिट्ठी आई थी जिसे वह अपने साथ बैडरूम में ले गया था । परेशान तो वह हमेशा ही रहता था इसलिए मैंने छेड़ना मुनासिब नहीं समझा । मैं खाना वगैरह पकाने में लग गई । नौ बज गए लेकिन वह बैडरूम से बाहर न निकला । हारकर मैंने ही उसे आवाज दी । मेरी आवाज के जवाब में वह बाहर तो निकल आया लेकिन उस वक्त उसने अपनी ऐसी हालत बनाई हुई थी कि उस पर निगाह पड़ते ही मेरी चीख निकल गई । उसके चेहरे पर वहशियों जैसे भाव थे और वह नशे में धुत था । अब मुझे क्या पता था कि इतनी देर से भीतर बैठा वह विस्की पी रहा था ! बाहर निकलते ही उसने मुझे दबोच लिया और चीख-चीखकर कहने लगा - “बोलो कौन-सा यार है तुम्हारा जो मेरी गैरहाजिरी में नीली फियेट पर आता है और जिसके साथ तुम रोज गुलछर्रे उड़ाने जाती हो ?”
“वह मेरा जिक्र कर रहा था ?”
“और नहीं तो क्या ?”
“मेरी खबर कैसे लग गई उसे ?”
“जो चिट्ठी शाम को आई थी, उसी में सब लिखा था ।”
“उसने चिट्ठी दिखाई थी तुम्हें ?”
“हां । जब मैंने कहा कि वह खामखाह मुझ पर इल्जाम लगा रहा था तो उसने वह चिट्ठी मेरे सामने लहरानी शुरु कर दी । वह कोई गुमनाम चिट्ठी थी जो भगवान जाने किसने लिखी थी । उसमें साफ लिखा हुआ था कि मेरा तुमसे अफेयर था ।”
“लेकिन चिट्ठी लिखने वाले को भी यह बात कैसे मालूम हुई ? कुल जमा एक बार तो मैं तुमसे मिला हूं ।”
“भगवान जाने क्या चक्कर है ?”
“और वह चिट्ठी लिखी किसने ?”
“भगवान जाने ।”
“खैर, फिर क्या हुआ ?”
“पहले तो वह मुझ पर गरजता-बरसता रहा, फिर वह बच्चों की तरह हिचकियां ले-लेकर रोने लगा । कहने लगा कि उसने जो कुछ किया था मुझे सुखी रखने की खातिर किया था । कहने लगा कि मुझे सुखी देखने लिए उसने अपना सुख-चैन बरबाद कर लिया था और मैं फिर भी उसके साथ बेवफाई करने से बाज नहीं आई थी । ऐसे ही पता नहीं प्रलाप-सा करता हुआ क्या-क्या कहता रहा वो ! उसने रोना-धोना बन्द किया तो उसे फिर गुस्सा चढने लगा । उसने फिर मुझे दबोच लिया । उसने मुझे झिंझोड़ना और मारना आरम्भ कर दिया । फिर एकाएक उसने मुझे परे धकेला और पिछवाड़े में चला गया ।”
“फिर ?”
“तभी मैंने तुम्हें फोन किया ।”
“मुझे क्यों ?”
“और किसे करती ? तुम्हारी ही वजह से मुझे जलील होना पड़ रहा था और मैं तुम्हें मदद के लिए भी न पुकारती ?”
“हूं ।”
“और फिर तुम्हीं ने तो कहा था कि अगर मेरा पति कोई उल्टी-सीधी हरकत करे तो मैं तुम्हें खबर करूं ।”
“खैर, फिर ?”
“मैं टेलीफोन पर तुमसे बात कर ही रही थी कि वह ऊपर से आ गया । उसने टेलीफोन उठाकर जमीन पर पटक दिया जिसकी वजह से लाइन कट गई । फिर उसने बैठक के फर्श पर बिछी दरी पर सौ-सौ के नोटों का ढेर लगा दिया, उसके बाद उसने नोटों पर पैट्रोल छिड़का और उन्हें आग लगा दी । पैट्रोल की वजह से आग बड़ी जोर से भड़की । मैंने वहां से भागने की कोशिश की तो उसने मुझे भागने न दिया । उसने मुझे सोफे पर पटक दिया और मेरे सिर पर खड़ा हो गया । मैं बदहवास-सी जोर-जोर से चीखें मारने लगी ।”
“फिर ?”
“फिर कोई जोर-जोर से बाहर से दरवाजा भड़भड़ाने लगा । मैं किसी प्रकार दरवाजे को भीतर से खोलने में कामयाब हो गई । मैंने देखा दरवाजा वही आदमी भड़भड़ा रहा था, जिसे मैं सोमवार से ही अपनी गली में मंडराता और बीड़ी पीता देखती आ रही थी । उसने मुझे बताया कि वह पुलिस का आदमी था और वह मेरी चीखों की आवाज सुनकर वहां पहुंचा था । तब तक मेरे पति ने दरवाजा दोबारा भीतर से बन्द कर लिया था । मैंने उस पुलिस वाले को बताया कि मेरा पति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा था और वह मुझे कत्ल कर देने वाला था ।”
“फिर ?”
“फिर सारा मौहल्ला इकट्ठा हो गया । पुलिस आ गई । लोग आग बुझाने की कोशिश करने लगे । पुलिस ने घर का दरवाजा तोड़कर मेरे पति को बाहर निकाला और उसे जल मरने से रोका । बाकी... बाकी सब कुछ तुम्हें पता ही है ।”
विमल खामोश रहा । कार आगे बढती रही ।
“अब तुम्हारा क्या इरादा है ?” - विमल बोला ।
“मैं क्या बताऊं ?” - शैलजा बोली - “उस घर में तो वापस जाने की अब मेरी उम्र भर हिम्मत नहीं हो सकती ।”
“तो फिर कहां जाओगी ?”
“जहां तुम जाओगे ।”
“क्या मतलब ?”
“ऐसे नादान मत बनो । मतलब क्या तुम समझते नहीं ? तुमने खुद नहीं कहा था मैं तुम्हें बहुत अच्छी लगती हूं ?”
“ओह ! वह ।”
“मेरा मरना-जीना तो अब तुम्हारे ही साथ है ।”
“मेरी खुशकिस्मती ।”
“दिल से कह रहे हो न ?”
“सरासर ।”
“ओह, विमल ।” - वह बोली और उसके ऊपर ढेर हो गई ।
“अरे, अरे ! क्या कर रही हो !” - विमल हड़बड़ाकर बोला - “एक्सीडेंट हो जाएगा ।”
शैलजा परे सरक गई । उसने बुरा-सा मुंह बनाया ।
“हौसला रखो, शैलजा ।”
“अब हम कहां चल रहे हैं ?”
“द्वारका के पास ।”
“वहां क्यों ?”
“उसे सब कुछ बताना होगा न । और फिर माल-पानी तो वहीं है ।”
“ओह !”
बाकी का रास्ता शैलजा खामोश बैठी रही ।
मैटकाफ रोड पहुंचकर विमल ने गाड़ी रोकी ।
दोनों कार से निकले और द्वारकानाथ के फ्लैट में पहुंचे ।
द्वारकानाथ मरा पड़ा था ।
अब खेल खत्म हो गया था ।
विमल के लिए अब शैलजा की चबर-चबर सुनना जरूरी नहीं था । अब वह बड़ी आसानी से शैलजा से पीछा छुड़ा सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । वह उस नगर में अकेला था और निकासी के तमाम रास्तों की पुलिस द्वारा नाकेबन्दी की हुई होने की वजह से फंसा हुआ था । शैलजा के साथ होने से उसकी निकासी की कोई तरकीब निकल सकती थी ।
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ अब पुलिस की हिरासत में था । वह विक्षिप्त व्यक्ति किसी भी वक्त सब कुछ बक सकता था । या शायद बक भी चुका था । उस लिहाज से अब विमल का द्वारकानाथ के फ्लैट में एक क्षण के लिए भी ठहरना खतरनाक था ।
नर्स ने उसे बताया कि द्वारकानाथ नींद में ही चल बसा था ।
विमल ने सबसे पहले नर्स को वहां से विदा किया । फिर उसने जल्दी-जल्दी द्वारका के फ्लैट की तलाशी ली ।
तलाशी में पाई दो चीजें उसने अपने अधिकार में ले लीं ।
लगभग तेरह हजार रुपये ।
और एक रिवॉल्वर ।
रुपये डकैती के नहीं थे इसलिए उन्हें खर्चना सुरक्षित था ।
फिर विमल ने दो फेरों में अपना सूटकेस और नोटों से भरे दोनों सूटकेस नीचे कार में पहुंचाये ।
उस कार को भी वह अपने पास ज्यादा देर नहीं रख सकता था । पुलिस को एक बार द्वारकानाथ का पता लगाने की देर थी कि फिर उन्हें उसकी कार की भी खबर लगे बिना न रहती ।
द्वारकानाथ की लाश को लावारिस फ्लैट में पड़ा छोड़कर विमल मैटकाफ रोड से रवाना हो गया ।
“क्या बात हुई ?” - शैलजा ने व्यग्र भाव से पूछा ।
“द्वारकानाथ मर गया है ।” - विमल ने बताया ।
“अरे, कैसे ?”
“हार्ट अटैक से । सुनो, तुम्हारा क्या ख्याल है, तुम्हारा पति पुलिस को द्वारकानाथ से अपने गंठजोड़ के बारे में बता देगा ?”
“वह जरूर बता देगा । वह तो पागल हो गया है । अब अपनी जान की परवाह तो उसे रही नहीं है । इसलिए अब वह किसी दूसरे की जान की क्या परवाह करेगा ?”
“फिर तो पुलिस यहां भी पहुंचती ही होगी । अच्छा हुआ हम भले वक्त यहां से निकल आए ।”
“अब हम जा कहां रहे हैं ?”
“यही समस्या तो सामने खड़ी है मुंह फाड़े । कहां जायें ?”
“गाड़ी हमारे पास है । इस शहर से बाहर कहीं भी निकल चलते हैं ।”
“काम इतना आसान नहीं । मैं तुम्हें पहले भी बता चुका हूं कि डकैतों की तलाश में पुलिस ने निकासी के हर रास्ते पर नाकाबन्दी की हुई है । पुलिस बड़ी कड़ी तलाशी के बाद लोगों को आगरे से बाहर निकलने दे रही होगी ।”
“ओह !” - वह बोली । वह एक क्षण ठिठकी और फिर पिछली सीट पर निगाह डालती हुई बोली - “तो माल इन तीनों सूटकेसों में है ?”
“दो में ।” - विमल बोला - “छोटे वाले में मेरे कपड़े हैं ।”
“कितना माल है ?”
“पैंतीस लाख ।”
“वाह !” - वह बोली । उसकी आंखें हजार-हजार वॉट के बल्बों की तरह चमकने लगीं । फिर वह बोली - “लेकिन अखबार में तो छपा था कि पैंतालीस लाख ।”
“तुम्हारे लिए पैंतीस लाख क्या कम हैं ?”
“नहीं लेकिन...”
“तो फिर चुप करो ।”
“तुम खामखाह गुस्से हो रहे हो ।”
विमल खामोश रहा ।
शैलजा लालचभरी निगाहों से पिछली सीट पर पड़े सूटकेसों को देखती रही । फिर एकाएक वह बोली - “सुनो ।”
“सुन रहा हूं ।” - विमल बोला ।
“जरा माल के दर्शन तो कराओ ।”
“कर लो ।” - विमल बोला । उसने जेब में हाथ डालकर चाबी निकाली और उसे शैलजा को सौंप दिया ।
शैलजा ने एक सूटकेस के दोनों ताले खोले और उसका ढक्कन उठाया । भीतर मौजूद नोटों पर निगाह पड़ते ही उसके मुंह से अनायास निकल गया - “हाय राम ! इतने नोट !”
विमल खामोश रहा ।
उसने सूटकेस बन्द करके उसके तालों में चाबी फिरा दी और फिर चाबी से दूसरे सूटकेस के ताले खोले । उसने एक बार फिर राम को याद किया और फिर उसे भी बन्द कर दिया ।
माल के दर्शन कर लेने-भर से ही उसकी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी । उसने चाबी वापस विमल को सौंप दी, बड़ी कठिनाई से अपनी सांसों पर काबू किया और फिर बोली - “अब कहां जाने का इरादा है ?”
“किसी होटल में ।” - विमल बोला ।
“क्लार्क शीराज में चलो” - शैलजा उत्साहपूर्ण स्वर में बोली - “वह आगरे का सबसे शानदार होटल है । और फिर वह यहां से पास भी है ।”
“पैसा दिखाई देते ही ऐय्याशी सूझने लगी ?”
“सूझने भी लगी तो क्या हुआ ?”
“हुआ तो कुछ भी नहीं ।”
“और पैसा होता किसलिए है ?”
“तुम ठीक कह रही हो । वहीं चलते हैं । रास्ता बताती जाना ।”
वे ताज रोड पहुंचे ।
मोड़ काटते ही होटल की बहुमंजिली इमारत विमल को दूर से ही दिखाई दे गई । उसने गाड़ी रोक दी ।
“गाड़ी क्यों रोक दी ?” - शैलजा बोली ।
“होटल में हम दोनों का एक साथ जाना ठीक नहीं” - विमल बोला - “मैं फरार अपराधी हूं । मुझे कोई भी पहचान सकता है । मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ तुम भी फंस जाओ ।”
“मुझे परवाह नहीं ।” - वह जोश में बोली ।
“मूर्खों जैसी बातें मत करो । खामखाह मुसीबत मोल लेने का कोई फायदा है ? तुम वहां जाओ । अपने लिए एक कमरा बुक करवाओ । तुम्हारे पीछे-पीछे ही मैं चला आऊंगा ।”
“होटल में हम अलग-अलग कमरों में रहेंगे ?”
“हम कमरे लेंगे अलग-अलग पर रहेंगे एक ही कमरे में । अपने कमरे में जाकर सैटल हो जाने के बाद मैं चुपचाप तुम्हारे कमरे में आ जाऊंगा ।”
“अच्छा ।” - वह अनमने स्वर में बोली । प्रत्यक्षत: वह सावधानी उसे अनावश्यक लग रही थी ।
विमल ने अपना कपड़ों वाला छोटा सूटकेस पीछे से उठाया और उसे शैलजा के पैरों के पास रख दिया ।
“यह सूटकेस तुम साथ ले जाना ताकि होटल वाले शक न करें । रिसैप्शन पर अपने-आपको दिल्ली से आई शैलजा शर्मा बताना और अपने कमरे में पहुंचने के फौरन बाद नीचे लॉबी में आ जाना और मुझे इशारे से बता देना कि तुम्हें कौन-सा कमरा मिला था । समझ गईं ?”
“तुम कितनी देर में आओगे ?”
“यही कोई दस मिनट बाद ।”
“आओगे तो सही ?”
“क्या मतलब ?”
“मुझे छोड़ तो नहीं जाओगे ?”
“पागल हो क्या ! अगर मैंने तुम्हें छोड़ना होता तो क्या मैं तुम्हें अभी नहीं छोड़ सकता ? शैलजा, मैं दिलो-जान से तुम पर फिदा हूं । तुम्हारे जैसी शानदार औरत मेरी जिन्दगी में आज तक नहीं आई । मैं अक्ल का अंधा हूं, जो तुम्हें छोड़कर चला जाऊंगा ? सच पूछो तो मुझे डर है कि कहीं तुम मुझे न छोड़कर चली जाओ ।”
“ओह, विमल ।” - वह बोली और उसके साथ लिपट गई ।
इस बार विमल ने कोई एतराज नहीं किया ।
तभी विमल को एक खाली रिक्शा आती दिखाई दी । उसने उसे रोका और शैलजा को इशारा किया ।
“रिक्शा पर जाऊं ?” - शैलजा हड़बड़ाकर बोली ।
“और क्या हवाई जहाज में जाओगी ?”
“इतने शानदार होटल में रिक्शा पर जाऊं ?”
“रिक्शा पर तुमने होटल के सामने तक जाना है होटल के अन्दर नहीं ।”
“मुझे कुछ पैसे दो ।”
विमल ने द्वारका के माल में से कुछ नोट निकालकर उसे दे दिए । उसने रिक्शा वाले को एक रुपया अलग से दिया ।
शैलजा रिक्शा पर बैठकर होटल की तरफ चली गई ।
विमल ने पाइप सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
औरत जरूरत से ज्यादा घटिया है । - वह बुदबुदाया ।
कोई पन्द्रह मिनट बाद उसने कार आगे बढाई ।
उसने कार को होटल की मारकी में ले जाकर खड़ा किया ।
एक वर्दीधारी बैल बॉय उसकी तरफ लपका ।
विमल बाहर निकला । उसने कार की चाबियां बैल बॉय को सौंप दीं और बोला - “सामान निकाल लो और गाड़ी को पार्क कर आओ ।”
“यस सर ।” - बैल बॉय तत्पर स्वर में बोला ।
विमल होटल के भीतर दाखिल हो गया ।
रिसैप्शन के समीप एक कुर्सी पर शैलजा बैठी थी । उसे देखकर वह उठ खड़ी हुई और उसकी तरफ बढी ।
विमल ठिठका ।
शैलजा उसके समीप से गुजरते समय धीरे से ‘चार सौ पांच’ कह गई । विमल रिसैप्शन पर पहुंच गया ।
तभी बैल बॉय उसके दोनों सूटकेस उठाए उसके समीप आ खड़ा हुआ ।
“रूम ।” - विमल रिसैप्शन क्लर्क से बोला - “सिंगल । बहुत ऊपरली मंजिल पर नहीं । बहुत नीचे भी नहीं ।”
क्लर्क ने अपना चार्ट देखा और फिर आदरपूर्ण स्वर में बोला - “विल फोर्थ फ्लोर बी आल राइट सर ?”
“चलेगा ।” - विमल बोला ।
क्लर्क ने 406 की चाबी उठाकर बैल बॉय को सौंप दी ।
विमल अपने कमरे में पहुंचा ।
थोड़ी देर बाद वह 405 के सामने पहुंचा ।
कमरा खुला था । शैलजा वहां लौट आई हुई थी ।
वह वापस कमरे में आया ।
उसने वेटर को बुलाकर उससे स्कॉच की एक बोतल और खाने-पीने का काफी सारा सामान मंगवाया ।
पन्द्रह मिनट के बाद जब वेटर एक ट्रॉली धकेलता हुआ वहां पहुंचा तो विमल ने उसे टिप में दस रुपये का नोट दिया और सब कुछ 405 में छोड़ आने के लिए कहा ।
वेटर ने तुरन्त आदेश का पालन किया ।
फिर विमल ने अपने कमरे को ताला लगाकर चाबी अपनी जेब के हवाले की और 405 में पहुंचा ।
शैलजा बड़ी व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी ।
उसके भीतर दाखिल होते ही वह उसके साथ लिपट गई ।
“अरे, अरे ! इतनी उतावली क्यों हो रही हो ?” - विमल बोला - “सारी रात अपनी है । सारी जिन्दगी अपनी है ।”
शैलजा बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से उससे अलग हटी ।
विमल ने स्कॉच की बोतल खोली । उसने दो पैग तैयार किये ।
“लो ।” - वह गिलास उसकी तरफ सरकाता हुआ बोला ।
“मैं ?” - वह हड़बड़ाई ।
“और नहीं तो क्या ?”
“लेकिन... लेकिन यह... मैं तो... मैं तो...”
“पहले कभी नहीं पी ?”
“न ।”
“तुम्हारा पति नहीं पीता ?”
“वह पीता है लेकिन मैंने तो यह कभी नहीं पी । मुझे तो इसकी गंध से ही चिढ है ।”
“जो तुम्हारा पति पीता है, यह उससे बहुत उम्दा है ।”
“लेकिन फिर भी... मैं...”
“अरे, यह तो ऊंची सोसायटी तक पहुंचने की सबसे पहली सीढी है । ऊंची सोसायटी के तौर-तरीके नहीं सीखोगी तो तरक्की कैसे करोगी ?”
“लेकिन... लेकिन ।”
“अब तुम एक मामूली औरत नहीं हो, शैलजा ! तुम पैंतीस लाख रुपये की मालकिन हो । डार्लिंग, दौलत का सुख उठाना सीखो । गिलास उठाओ और देखो जन्नत का नजारा ।”
शैलजा ने झिझकते हुए गिलास उठा लिया ।
“चियर्स ।” - विमल अपना गिलास ऊंचा करता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“चियर्स । जब जाम से जाम टकराया जाता है तो साथ में चियर्स बोला जाता है । बोलो ।”
“चेयर्स ।”
“अरे, चेयर्स नहीं, चियर्स ।”
“ची... ची... यार्स ।”
“हां । अब पी जाओ ।”
शैलजा ने गिलास को मुंह लगाते ही बुरा-सा मुंह बनाया ।
“यह तो कड़वी है !” - वह बोली ।
“पहला घूंट ही कड़वा होता है । उसके बाद यह मीठी लगने लगती है । बस, पी जाओ ।”
शैलजा पी गई । उसने इतनी जल्दी गिलास खाली किया कि विमल हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
उसने उसके लिए नया पैग बना लिया ।
“यह क्या है ?” - वह तली हुई मछली की ओर संकेत करती हुई बोली ।
“पनीर के पकौड़े ।” - विमल बोला ।
शैलजा ने एक टुकड़ा तोड़कर खाया ।
“बड़े अजीब स्वाद का पनीर है यह !” - वह बोली ।
“बड़े होटलों का पनीर ऐसा ही होता है ।”
“लेकिन अच्छा है ।”
शैलजा ने एक टुकड़ा और खाया ।
“देखो” - एकाएक वह बड़ी संजीदगी से बोली - “मेरा धर्म भ्रष्ट न कर देना ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे मीट-वीट मत खिला देना ।”
“अरे, नहीं ।” - विमल बोला । मन-ही-मन वह सोच रहा था कि कैसा धर्म था उस औरत का जो शराब पीने से और गैरमर्द का बिस्तर गर्म करने से तो भ्रष्ट नहीं होने वाला था, लेकिन मीट खाने से वह जरूर भ्रष्ट हो जाता ।
“वो भी मुझसे यह पीने के लिए बहुत जिद किया करता था ।” - एकाएक शैलजा बोली ।
“कौन ?”
“लेकिन मैंने उसकी बात कभी नहीं मानी थी ।”
“किसकी ?”
“अपने पति की ।”
“ओह !”
पति हरामजादा इसी काबिल होता है - मन-ही-मन वह बोला - वह तो होता है घर के राशन-पानी का इन्तजाम करने वाला मजदूर । खूबसूरत बीवी की मेहरबानियों का असली हकदार तो होता है उसका यार कहलाने वाला कोई डाकू ।
“विमल !” - एकाएक वह बोली - “मेरा सिर घूम रहा है ।”
“अभी ठीक हो जाएगा ।” - विमल बोला ।
“मुझे कुछ हो रहा है ।”
“घबराओ नहीं । कुछ नहीं होता ।”
“लेकिन अच्छा लग रहा है ।”
दाता !
शैलजा ने अपना गिलास खाली किया और उसे ठक्क से विमल के सामने रखती हुई बोली - “और दो ।”
“बस । पहली बार इतनी ही काफी है । अब खाने की तरफ ध्यान दो ।”
उत्तर में शैलजा ने बोतल उठाई और खुद विस्की गिलास में डाल ली । उसने बड़े तजुर्बेकार ढंग से उसमें सोडा डाला और उसे गटागट पी गई । विमल हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
“मजा आ गया, यार ।” - वह झूमकर बोली ।
उसे विस्की पिलाने के पीछे विमल का उद्देश्य था कि शैलजा बेसुध होकर सो जाती और उसे भी चैन की नींद सोने देती ।
लेकिन उसका मिशन कामयाब न हो सका ।
नशा करके चैन की नींद सोने के स्थान पर वह भूखी शेरनी की तरह विमल पर टूट पड़ी । उसने विमल को इस बुरी तरह झिंझोड़ना आरम्भ किया कि उसे लगने लगा कि वह आज जिन्दा नहीं बचने वाला था ।
अपने पति से असन्तुष्ट, अपनी तकदीर से खफा, कुंठा की मारी वह औरत पता नहीं कब की भूखी थी ।
***
नीली फियेट का पीछा करती हुई सरोज मैटकाफ रोड तक पहुंची । वहां उसने देखा कि कुलश्रेष्ठ की बीवी का यार एक इमारत में दाखिल हुआ और फिर दस मिनट बाद दो फेरों में तीन सूटकेस कार तक लाया ।
सरोज सोचने लगी ।
क्या यह आदमी इस इमारत में रहता था ?
क्या यह भागने की तैयारी कर रहा था ?
और उन सूटकेसों में क्या था ? लूट का माल ?
उसके भीतर से एक आवाज उठने लगी कि उन सूटकेसों में जरूर लूट का माल था ।
अगर किसी प्रकार वह उन सूटकेसों में झांक पाती तो उसे गारण्टी हो जाती कि कुलश्रेष्ठ की बीवी का यार वह खूबसूरत नौजवान जरूर डकैतों का साथी था और उसके पति की मौत के लिए जिम्मेदार था ।
नीली फियेट वहां से रवाना हुई तो वह फिर उसका पीछा करने लगी । फियेट ताज रोड पर आकर रुकी ।
फिर थोड़ी देर बाद उसने कुलश्रेष्ठ की बीवी को एक रिक्शा पर सवार होकर आगे बढते देखा । उसने देखा तीन सूटकेसों में से एक छोटा सूटकेस वह अपने साथ ले गई थी ।
सरोज उलझन में पड़ गई ।
क्या वे लोग अलग हो रहे थे ?
वह यह फैसला भी नहीं कर पा रही थी कि वह फियेट में मौजूद नौजवान के पीछे ही लगी रहे या रिक्शा के पीछे जाए ।
फिर उसने फियेट पर ही निगाह रखने का फैसला किया ।
थोड़ी देर बाद फियेट स्टार्ट हुई और आगे बढी ।
सरोज ने भी अपनी गाड़ी आगे बढाई ।
फियेट क्लार्क शीराज में पहुंची ।
युवक लॉबी में पहुंचा । तभी कुलश्रेष्ठ की बीवी उसे फिर दिखाई दी । उसने युवक के पास से गुजरते समय कुछ खुसर-पुसर-सी की और उससे परे हट गई ।
सरोज युवक पर निगाह टिकाए रही ।
थोड़ी देर बाद युवक लिफ्ट की ओर बढा । उसके साथ उसके दो सूटकेस उठाए एक बैल बॉय था ।
सरोज भी उसके साथ लिफ्ट में दाखिल हो गई ।
सरोज जानबूझकर युवक और बैलब्वाय के बाद लिफ्ट से बाहर निकली ।
फिर उसने युवक को 406 नम्बर कमरे में दाखिल होते देखा ।
तब तक लिफ्ट वापस चली गई थी ।
सरोज उसके सामने खड़ी लिफ्ट के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । लिफ्ट उस फ्लोर पर पहुंची, उसका दरवाजा खुला और कुलश्रेष्ठ की बीवी ने बाहर कदम रखा । वह बिना सरेाज की तरफ निगाह उठाये 405 नम्बर कमरे में दाखिल हो गई ।
सरोज‍ लिफ्ट में सवार हो गई और नीचे पहुंची ।
वह होटल से निकली और कार पर आ सवार हुई ।
वह वापिस मैटकाफ रोड पहुंची ।
उस इमारत को उसने खास तौर से देखा था, जिसके भीतर से कुलश्रेष्ठ की बीवी का यार सूटकेस लेकर निकला था ।
वह तनिक हिचकिचाती हुई इमारत में दाखिल हुई ।
उसने देखा ग्राउण्ड और फर्स्ट फ्लोर के फ्लैट बाल-बच्चेदार लोगों के घर थे । उसे उम्मीद नहीं थी कि वह युवक ऐसे किसी फ्लैट से निकला हो ।
वह दूसरी मंजिल पर पहुंची ।
वहां एक ही फ्लैट था जिसका दरवाजा खुला था, भीतर बत्तियां जल रही थीं लेकिन वहां किसी की उपस्थिति का आभास नहीं हो रहा था ।
हिम्मत करके वह फ्लैट के भीतर दाखिल हुई ।
बैडरूम में उसे द्वारकानाथ की लाश पड़ी दिखाई दी ।
उसने वहीं से पुलिस का नम्बर डायल किया और सम्पर्क स्थापित होते ही बोली - “मैटकाफ रोड की सत्तरह नम्बर इमारत के सबसे ऊपर वाले फ्लैट में एक आदमी की लाश पड़ी है । हो सकता है कि मरने वाले का रिश्ता रत्नाकर स्टील कम्पनी के पे रोल की डकैती से हो ।”
फिर फौरन उसने सम्बन्धविच्छेद कर दिया ।
वह चुपचाप नीचे पहुंची और फिर कार पर सवार हो गई ।
वह हेस्टिंग्स रोड पहुंची ।
वहां अपने पिता की कोठी में से उसने एक बड़ा-सा सूटकेस लिया, उसको वजनी बनाने के लिए उसमें कुछ कपड़े डाले और फिर अपने माता-पिता के सैकड़ों सवालों को अनसुना करके वहां से विदा हो गई ।
वह फिर होटल क्लार्क शीराज पहुंची ।
रिसैप्शन पर जाकर उसने एक कमरे की मांग की ।
क्लर्क ने उसे 401 देना चाहा ।
“मुझे कोने के कमरे अच्छे नहीं लगते ।” - सरोज बोली, उसने की बोर्ड पर निगाह डाली और बोली - “यह 407 भी तो खाली है ?”
“यस, मैडम ।”
क्लर्क ने उसे 407 दे दिया । वह अपने कमरे में पहुंची ।
उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और सोचने लगी ।
फिर वह कमरे से बाहर निकली ।
वह 406 के दरवाजे पर पहुंची । उसने हैंडल थामा और उसे घुमाकर धीरे से दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा मजबूती से बन्द था ।
वह 405 के सामने पहुंची । उसका दरवाजा भी बन्द था ।
वह वापस अपने कमरे में आ गई ।
उसकी गैरहाजिरी में वे दोनों क्या कहीं चले गये थे ?
कहां ?
होटल क्लार्क शीराज उसका देखा-भाला था । लॉबी में रेस्टोरेण्ट था, ग्राउण्ड फ्लोर पर बार था, टाप फ्लोर पर कैफे था, वे लोग कहीं भी हो सकते थे ।
वह अपने कमरे की बाल्कनी में पहुंची ।
उसके कमरे के सामने, नीचे होटल का आम की शक्ल का शानदार स्विमिंग पूल था ।
वे वहां भी हो सकते थे ।
और फिर वे अपने कमरों में भी हो सकते थे ।
उसने अपनी दायीं तरफ निगाह डाली ।
उसने महसूस किया कि 406 की बाल्कनी तक वह बड़ी सहूलियत से पहुंच सकती थी ।
उसने दिल कड़ा किया और दबे पांव 406 की बाल्कनी में पहुंच गई । उसने देखा, कमरे में अन्धेरा था ।
फिर वह बाल्कनी का दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल हो गई ।
कमरा खाली था ।
एक तरफ सूटकेस पड़े थे ।
वह उनके पास पहुंची । उसने उनको सीधा किया और बारी-बारी उनको खोलने की कोशिश की ।
वह जानती थी कि वैसे तमाम सूटकेसों के ताले एक जैसे होते थे । उसका अपना सूटकेस भी उसी प्रकार का था ।
उसने अंटी में खुंसी से अपने सूटकेस की चाबी निकाली और उसे उन दोनों सूटकेसों में फिराया ।
ताल बिना किसी हुज्जत के खुल गये ।
उसने पहले सूटकेस का ढक्कन उठाया ।
सूटकेस नोटों से भरा पड़ा था ।
उसने दूसरे का ढक्कन उठाया ।
वह भी नोटों से भरा पड़ा था ।
सरोज उत्तेजित हो उठी । उत्तेजना के आधिक्य में उसका शरीर कांपने लगा ।
तो वह सही राह पर थी ।
उसने जल्दी से दोनों सूटकेस बन्द किये और हांफती हुई उठ खड़ी हुई ।
वह कहां था ?
कहां था वह डाकू जो उसके पति की मौत के लिये जिम्मेदार था ?
शायद दूसरे कमरे में उस चरित्रहीन औरत के साथ ।
वह बाल्कनी में आ गई ।
पहले जैसी ही सहूलियत से वह 405 की बाल्कनी में पहुंच गई ।
उसने देखा कि भीतर हल्की-सी रोशनी थी । उसने बाल्कनी के शीशे के दरवाजे को धीरे से खोला और उस पर पड़े परदे को थोड़ा एक ओर सरकाया ।
वे दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में जकड़े हुए सम्पूर्ण नग्नावस्था में पलंग पर सोये पड़े थे ।
सरोज ने अपना बैग खोला और धीरे-से उसमें से अपने पिता की रिवॉल्वर निकाल ली । धीरे-धीरे उसने रिवॉल्वर वाला हाथ ऊपर उठाया और उसकी नाल का रुख बेसुध सोये पड़े विमल की पीठ की तरफ किया । उसने महसूस‍ किया कि उसका हाथ कांप रहा था । उसने अपने बायें हाथ से दायें हाथ को मजबूती से थामकर उसे स्थिर किया लेकिन उसके हाथ का कम्पन फिर भी बन्द न हुआ ।
क्या वह गोली चलाने से डर रही थी ?
हरगिज नहीं ।
क्या वह अपने पति की मौत का बदला नहीं लेना चाहती ?
सरासर लेना चाहती थी ।
तो फिर उसका हाथ क्यों कांप रहा था ? वह गोली क्यों नहीं चला पा रही थी ?
उसके पति की मौत का जिम्मेदार व्यक्ति उस वक्त उसके सामने मौजूद था और उसके रहमो-करम का मोहताज था । वह गोली चला देती तो उसे मालूम भी न पड़ता कि क्या हुआ था और वह परलोक सिधार जाता ।
लेकिन वह गोली न चला पाई ।
उसके अच्छे संस्कारों ने उसे एक निहत्थे असहाय आदमी पर वार करने से रोक लिया ।
अगर उस वक्त विमल को अपने सिर पर मंडराती मौत का अहसास हो जाता, वह जाग जाता और उस पर झपटने की कोशिश करता तो वह बेहिचक उसे शूट कर देती । लेकिन विमल को उसकी मौजूदा हालत में शूट कर देने के लिए वह अपने आप को तैयार न कर पाई ।
उसका रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे झुक गया ।
फिर एकाएक उसने रिवॉल्वर वापिस बैग में रख ली और वहां से वापस लौट पड़ी ।
***
शैलजा ने बड़ी सावधानी से आंख खोलीं ।
विमल उसके पहलू में औंधे मुंह लेटा हुआ था ।
“विमल !” - उसने धीरे से आवाज लगाई ।
कोई उत्तर न मिला ।
“विमल !” - वह पहले से ज्यादा ऊंचे स्वर में बोली ।
उसकी आवाज की विमल पर कोई प्रतिक्रिया न हुई ।
शैलजा नि:शब्द पलंग पर से उतरी और नीमअन्धेरे में अपने कपड़े पहनने लगी ।
फिर उसने फर्श पर उपेक्षित-सी पड़ी विमल की पतलून में से उसके कमरे की चाबी निकाल ली और दबे-पांव वहां से बाहर निकल गई । विमल के शरीर में हरकत तक न हुई ।
बाहर गलियारा सुनसान पड़ा था । वह लम्बे डग भरती हुई विमल के कमरे के दरवाजे पर पहुंची । उसने दरवाजे को ठेला और चुपचाप भीतर दाखिल हो गई ।
विमल के दोनों सूटकेस दरवाजे के पास पड़े थे ।
उसने दोनों सूटकेस उठा लिये और लिफ्ट की तरफ बढी । सूटकेस खूब भारी थे लेकिन वह भी कम मजबूत नहीं थी ।
लिफ्ट वहां पहुंची तो वह उस पर सवार हो गई ।
नीचे आकर उसने विमल से मिले रुपयों से ही अपना बिल चुकाया और फिर होटल वालों की सन्दिग्ध और उलझनपूर्ण निगाहों की परवाह किये बिना डोरमैन द्वारा बुलाई टैक्सी पर सवार होकर वहां से विदा हो गई ।
वह आगरा फोर्ट के रेलवे स्टेशन पर पहुंची ।
वहां से उसे मालूम हुआ कि अगली सुबह से पहले जयपुर को कोई गाड़ी नहीं जाने वाली थी ।
शैलजा ने फर्स्ट क्लास का टिकट लिया और एक कुली से दोनों सूटकेस उठवाकर फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में पहुंच गई ।
वेटिंग रूम खाली था ।
उसने घड़ी देखी ।
वह सोना चाहती थी लेकिन उसकी सोने की हिम्मत न हुई ।
नींद में अगर उसके सूटकेस चोरी चले गये तो !
लगभग एक घण्टा उसने दोनों सूटकेसों को अपने दायें-बायें पहलू में दबाये पैंतीस लाख रुपये के नोटों के सपने लेते हुए काटा । वेटिंग रूम में अभी भी उसके अलावा कोई नहीं था ।
फिर एकाएक उसके मन में नोटों को देखने की इच्छा बलवती होने लगी ।
उसे ध्यान आया कि दोनों सूटकेस ठसाठस भरे हुए नहीं थे । वह सोचने लगी कि क्या दोनों सूटकेसों के नोट एक सूटकेस में समा सकते थे ?
अगर ऐसा हो जाता तो उसे सहूलियत हो जाती क्योंकि दो सूटकेसों के मुकाबले में एक सूटकेस सम्भालना आसान था ।
लेकिन सूटकेसों में तो ताले लगे हुए थे ।
और उसकी चाबी वह विमल की जेब से निकालकर लाना भूल गई थी ।
फिर उसे एक ख्याल आया ।
उसने अपने बालों में से एक सुई (जूड़ापिन) निकाली और उसे एक ताले के छेद में फिराना शुरु कर दिया । सुई कहीं अटकी, उसने उसे झटका दिया और खटाक से एक ताला खुल गया ।
अगले दस मिनटों में उसने चारों ताले खोल लिये ।
फिर उसने वेटिंग रूम का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और वापस सूटकेसों के पास पहुंची ।
वह यह जानती थी कि भीतर क्या था लेकिन फिर भी ढक्कन उठाते समय उसका दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा ।
उसने ढक्कन उठाया और भीतर झांका ।
एकाएक उसके नेत्र आतंक से फट पड़े ।
सूटकेस में नोटों के स्थान पर उसे कम्बलों के दर्शन हुए । विक्षिप्तों की तरह उसने सूटकेस में मौजूद दो कम्बलों को नोचकर बाहर फेंक दिया ।
सूटकेस खाली हो गया ।
उसने धड़कते दिल से दूसरे सूटकेस का ढक्कन उठाया ।
उसमें होटल की चादरें और तौलिये भरे हुए थे ।
फिर एकाएक वह अपने बाल नोचने लगी और धाड़ें मार-मारकर रोने लगी ।
***
विमल की नींद खुली ।
उसने देखा कि शैलजा पलंग पर उसके पहलू में मौजूद नहीं थी । वह हड़बड़ाकर उठ बैठा ।
“शैलजा !” - उसने बाथरूम की तरफ मुंह करके आवाज लगाई ।
कोई उत्तर न मिला ।
वह पलंग से उठ खड़ा हुआ ।
उसने पहले अपने कपड़े पहने और फिर बत्ती जलाई ।
शैलजा कमरे में नहीं थी ।
वह बाथरूम या बाल्कनी में भी नहीं थी ।
उसने घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
रात के तीन बजे थे । इस वक्त कहां चली गई वह ?
फिर एकाएक उसे ध्यान आया कि होटल के उसके कमरे की चाबी उसने अपनी पतलून की जेब में डाली थी लेकिन इस वक्त वह वहां नहीं थी ।
वह वहां से बाहर निकला और अपने कमरे के सामने पहुंचा । चाबी दरवाजे के ताले में लगी हुई थी और दरवाजा तनिक खुला था ।
वह दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल हुआ ।
कमरे में से उसके दोनों सूटकेस गायब थे ।
तुरन्त सारी कहानी उसकी समझ में आ गई ।
वह वापस जाने के लिये घूमा लेकिन ठिठक गया । उसने नथुने फुलाकर कमरे की हवा को सूंघा ।
कमरे की हवा में एक ऐसी सुगन्ध बसी हुई थी जो केवल स्त्रियों के पास से ही आ सकती थी ।
लेकिन वैसी कोई सुगन्ध शैलजा के पास से नहीं आती थी, यह विमल को खूब मालूम था ।
तो और कौन आया था यहां ?
पता नहीं क्या गोरखधन्धा था ।
वह वापिस शैलजा के कमरे में आया । वहां से उसने अपना सूटकेस उठाया और नीचे रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“आई एम चैकिंग आउट ।” - वह बोला - “प्लीज प्रीपेयर माई बिल ।”
“यस सर !” - क्लर्क बोला और बिल तैयार करने लगा । मन-ही-मन वह सोच रहा था कि लोगों के दिमाग खराब हो गये थे, जो आधी-आधी रात को उठकर भाग रहे थे । अभी वह औरत यहां से गई थी और अब ये हिप्पियों जैसे नक्शे वाले साहब जा रहे थे ।
विमल ने बिल चुकाया ।
एक बैल बॉय ने उसका सूटकेस सम्भाल लिया ।
डोरमैन ने उससे बिना पूछे ही टैक्सी बुला दी ।
विमल टैक्सी के लिये मना करने ही वाला था कि एकाएक उसे एक ख्याल आया ।
इतनी रात गये शैलजा वहां से निश्चय ही ऐसी ही किसी टैक्सी पर गई होगी ।
वह टैक्सी में सवार हो गया ।
टैक्सी होटल के कम्पाउण्ड से बाहर निकली ।
“किधर चलूं साहब ?” - टैक्सी ड्राइवर बोला । वह एक अधेड़ सरदार था ।
“किधर भी नहीं ।” - विमल बोला - “गाड़ी रोको ।”
ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी ।
“गुरमुखो” - विमल उससे पंजाबी में बात करने लगा - “जरा ऐदर मेरे वल देखो ।”
ड्राइवर उसकी तरफ घूमा ।
“आप लोग तो होटल की ही सवारियों पर निर्भर करते होंगे ?” - विमल बोला ।
“हां, जी । सवारी छोड़कर वापस यहीं आ जाते हैं ।”
“थोड़ी देर पहले एक बड़ी खूबसूरत युवती होटल से निकल थी । वह साड़ी पहने हुए थी और उसके पास दो बड़े-बड़े सूटकेस थे । अगर आप उस वक्त टैक्सी स्टैण्ड पर मौजूद थे तो शायद आपने उसे देखा हो ?”
“देखा क्या, जी” - ड्राइवर बोला - “मैं खुद उसे स्टेशन पर छोड़कर आया था ।”
“कौन से स्टेशन पर ?”
“आगरा फोर्ट ।”
“कितनी देर हुई ?”
“हो गया होगा कोई आधा-पौना घण्टा ।”
“शुक्रिया । अब टैक्सी चालू करो और इसे वापस होटल के कम्पाउण्ड में पार्किंग में लेकर चलो ।”
“वहां किसलिये ?”
“वहां मेरी कार खड़ी है ।”
ड्राइवर ने हैरानी से सिर हिलाते हुए गाड़ी चलाई ।
विमल के निर्देश पर उसने अपनी गाड़ी को पार्किंग में खड़ी नीली फियेट के पास ले जाकर रोका ।
विमल सूटकेस सम्भाले बाहर निकला । उसने ड्राइवर को एक पांच का नोट दिया और मीठे स्वर में बोला - “मेहरबानी, वीरजी ।”
वह फियेट में सवार हुआ और वहां से रवाना हो गया ।
वह आगरा फोर्ट स्टेशन पर पहुंचा ।
“अभी एक घण्टे में यहां से कोई गाड़ी छूटी है ?” - उसने एक ऊंघते हुए कुली से पूछा ।
“नहीं ।” - उत्तर मिला ।
फिर तो शैलजा को वहीं कहीं होना चाहिये था ।
वह उस तरफ बढा जिधर वेटिंग रूम थे ।
फर्स्ट क्लास के जनाने वेटिंग रूम के सामने उसे छोटी-मोटी भीड़ लगी दिखाई दी । वह समीप पहुंचा । उसके कानों में किसी औरत के जोर-जोर से रोने की आवाज पड़ी ।
“क्या हुआ ?” - उसने एक आदमी से पूछा ।
“एक औरत है ।” - उत्तर मिला - “लगता है पागल हो गई है । कहती है किसी ने जादू से उसका सोना मिट्टी कर दिया है ।”
“कोई भीतर जाकर बेचारी को सम्भालता क्यों नहीं ?”
“दरवाजा भीतर से बन्द है । आवाजें देने पर भी वह खोल नहीं रही । वह तो बस रोये जा रही है । वैसे स्टेशन मास्टर ने पुलिस को बुलवाया है । वही लोग आकर कुछ करेंगे ।”
विमल ने देखा दरवाजे की बगल में एक खिड़की थी, जिसके सामने भीड़ नहीं थी । वह बन्द थी लेकिन उसके पल्लों की झिरी में से भीतर की रोशनी बाहर आ रही थी ।
उसने उसने सामने जाकर झिरी में आंख लगा दी ।
भीतर उसे एक गोल मेज पड़ी दिखाई दी । मेज पर उसके दोनों सूटकेस पड़े थे । वे खुले हुए थे और उनके इर्द-गिर्द कम्बल, चादरें और तौलिये बिखरे पड़े थे ।
मेज के सामने जमीन पर शैलजा बैठी थी । उसके बाल बिखरे हुए थे और चेहरा इस कदर विकृत हुआ हुआ था कि वह चुड़ैल लग रही थी । वह जार-जार रो रही थी !
‘वाहे गुरु सच्चे पातशाह’ - विमल के मुंह से निकला - ‘तेरे रंग न्यारे ।’
वह खिड़की के पास से हटा और चुपचाप वहां से विदा हो गया ।
***
अगले दिन लाला हरद्वारीलाल की कोठी पर पुलिस के कई उच्चाधिकारी मौजूद थे । वे सरोज की कहानी सुन रहे थे और यूं आंखें फाड़-फाड़ कर सरोज को देख रहे थे । जैसे वह कोई मंगल ग्रह से आया हुआ प्राणी था ।
“हमें अफसोस है” - एस पी बोला - “कि वह आदमी होटल से खिसक गया, जिसे आपने कुलश्रेष्ठ की बीवी के साथ देखा था । अगर आप सुबह होने का इन्तजार करने के स्थान पर फौरन पुलिस को खबर कर देती तो हम उसे जरूर गिरफ्तार कर लेते ।”
“पहले मेरा ख्याल इस दौलत को खुद डकार जाने का था ।” - सरोज नोटों से भरे सूटकेस की ओर संकेत करके बोली ।
“आप मजाक कर रही हैं ।”
वह खामोश रही ।
“आपकी जानकारी के लिये शैलजा भी इस वक्त हमारी हिरासत में है । हमने उसके साथी के बारे में उससे बहुत सवाल पूछे थे । फिर उसका हुलिया सुनकर हमने उसे पुलिस के रिकॉर्ड में मौजूद कुछ तस्वीरें दिखाई । शैलजा ने उन तस्वीरों से अपने साथी युवक की तस्वीर फौरन छांट ली । लाला जी, मुझे बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे हाथ से बहुत बड़ा मगरमच्छ निकल गया ।”
“कौन था वो ?” - लाला हरद्वारीलाल ने पूछा ।
“वह सरदार सुरेन्द्र सिंह नाम का एक इश्तिहारी मुजरिम था, जिसके छ: राज्यों में वारण्ट निकले हुए हैं और जिसके सिर पर पचास हजार रुपये का इनाम है । आपकी पुत्री अगर उसे सचमुच गोली मार देती तो वह सारे देश की पुलिस पर बहुत बड़ा अहसान होता ।”
“आप लोगों को उसका कोई सुराग नहीं मिला ?”
“तलाश जारी है लेकिन एक बार तो वह निकल ही गया न ।”
“ओह !”
“बहरहाल लूट का माल भी बरामद हो गया है और राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के बयान से हमें यह भी मालूम हो गया कि यह किस आदमी की करतूत थी । इस डकैती का सरगना द्वारकानाथ हमें अपने मैटकाफ रोड के फ्लैट में मरा पड़ा मिला है । इलाही टोले के इलाके के कुछ लोगों ने एक गैरेज में से आती दुर्गन्ध की पुलिस को शिकायत की थी । यह गैरेज जबरन खोला गया था तो भीतर से वह स्टेशन वैगन बरामद हुई थी जो डकैती के वक्त घटनास्थल पर देखी गई थी । उसके भीतर एक लाश पड़ी थी जिसे गोली लगी थी । उस गोली का वैज्ञानिक परीक्षण करने पर हमें मालूम हुआ है कि वह वही गोली थी जो बख्तरबन्द गाड़ी के गार्ड प्रतापनारायण ने डकैतों पर चलाई थी । और तफ्तीश से पता लगा कि उस आदमी का नाम गंगाधर था और साफ जाहिर था कि वह भी डकैती में द्वारकानाथ के साथ शामिल था ।”
“बहुत खूब ।”
“कल रात ही किनारी बाजार के नजदीक की एक अंधेरी गली में से हमने एक नौजवान की लाश बरामद की थी । उसकी कनपटी में गोली लगी थी । उस गोली को निकालकर उसका भी वैज्ञानिक परीक्षण करने पर हमें मालूम हुआ था कि वह गोली उसी रिवॉल्वर में से चली थी जिसकी एक गोली बख्तरबन्द गार्ड प्रतापनारायण को भी लगी थी । यानी कि वह आदमी भी डकैती में द्वारकानाथ का सहयोगी था, जिसे शायद द्वारकानाथ ने ही किसी वजह से शूट कर दिया था । राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को उस नौजवान की लाश दिखाई गई थी । उसने लाश को फौरन पहचान लिया था, उसके कथनानुसार उस आदमी का नाम कूका था और वह भी द्वारकानाथ का आदमी था । राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के कथनानुसार जिन तीन आदमियों ने उसे जयपुर में अपने जाल में फंसाया था, वे द्वारकानाथ, गंगाधर और कूका थे ।”
“वे तीनों अब मर चुके हैं ?”
“इस डकैती में शामिल लोगों में से केवल एक आदमी ही बच पाया है और वह भी इसलिये क्योंकि आपकी बेटी को उस पर तरस आ गया ।”
“मेरी बेटी हत्यारी नहीं ।” - लाला हरद्वारीलाल कठोर स्वर में बोला ।
“जी हां । जी हां ।”
“बहरहाल मुझे खुशी है कि डकैतों को अपने किये की सजा मिल गई ।” - लाला हरद्वारीलाल छुपी निगाहों से अपनी बेटी की तरफ देखते हुए बोले । उनके कहने का ढंग ऐसा था जैसे कि यह बात उन्होंने एस पी को नहीं, अपनी लड़की को कही हो ।
“जी हां ।” - एस पी बोला ।
तभी सरोज का लड़का भागता हुआ वहां पहुंचा ।
“मम्मी, मम्मी ।” - वह बोला - “हमारे साथ खेलो ।”
“अभी खेलते हैं बेटा” - सरोज उठती हुई बोली - “मम्मी को जरा एक काम है । मम्मी अभी आती है ।”
सरोज वहां से उठी और बाथरूम में चली गई । उसने बाथरूम का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और दरवाजे से सटकर खड़ी हो गई ।
अब वह रो सकती थी ।
समाप्त