रत्ना खुशी थी कि जगदीप भंडारे ने उसे अपनी दौलत के बारे में बता दिया था कि उसने वो कहां पर संभाल कर रखी है। भंडारे के जाने के बाद वो खुश-खुश घर के काम करती रही फिर सदाशिव को फोन कर डाला।

"मिल रही हो आज?" उसकी आवाज सुनते ही उधर से सदाशिव कह उठा।

"नहीं, तुम्हें एक खुशखबरी देने के लिए फोन किया है।" रत्ना ने मुस्कुराकर कहा।

"क्या?"

"भंडारे ने अपनी दौलत के बारे में बता दिया है।"

"वेरी गुड।" सदाशिव की तेज आवाज कानों में पड़ी--- "तो अब तुम्हें पता है कि भंडारे की दौलत कहां पड़ी है।"

"सब कुछ पता है।"

"तो सोचना कैसा। उसे अभी ले चलते...।"

"पागलों वाली बात मत करो। वो अभी जिंदा है। उसे मरने दो।"

"तुम्हें कैसे पता कि वो अभी मर जाएगा।"

"वो जो काम कर रहा है, उसमे जिंदा बचने वाला नहीं। वागले रमाकांत या अशोक गानोरकर के आदमियों के हाथों वो मारा जाएगा। उसकी मौत के बाद आराम से उसकी दौलत लेंगे और मुंबई से दूर चल देंगे।"

"फिल्म नहीं बनाओगी?"

"कभी नहीं। दोबारा ये बात मत कहना। मैं पैसा खराब नहीं करना चाहती।"

"मेरे में बहुत टैलेंट है। एक बार हीरो बनकर स्क्रीन पर आ गया तो...।"

"तुम्हें मेरे साथ जिंदगी बितानी है कि नहीं?"

"बितानी है।"

"वो फिल्म बनाने की बात मेरे से मत किया करो। ये सोचो कि कौन से शहर में जाना है?"

"लखनऊ-कानपुर चले जाएंगे।"

"वहां गर्मी बहुत होती है।"

"दिल्ली?"

"वहां भी गर्मी बहुत होती है। मेरे ख्याल में खंडाला या उंटी जाना ठीक रहेगा।" रत्ना बोली।

"ये ठीक रहेगा। मुंबई के पास रहेंगे तो आना-जाना लगा रहेगा इधर भी...। गोवा भी जा सकते हैं।"

"देख लेंगे। इसमें कोई समस्या नहीं। वैसे मेरे को ऊंटी पसंद है।"

"जहां तुम कहोगी वहीं चल देंगे। अब एक घंटे के लिए तो मिल लो।"

"हीरो! मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती कि भंडारे को किसी प्रकार का शक हो। तुम नहीं जानते, वो खतरनाक इंसान है उससे संभलकर रहना पड़ता है, खासतौर से इन दिनों के वक्त में...।"

"तुम्हारे बिना दिल नहीं लगता। पहले तुमने आदत डाल दी और अब दूरी बनाए हुए हो। पिज्जा लेकर आ जाता...।"

"कुछ दिन की बात है फिर तो हर वक्त तुम्हारी गोद में बैठा करूंगी।"

"सच?"

"कसम से। जानता है हीरो, भंडारे की दौलत कितनी है जो हमारे हाथ आने वाली है।"

"कितनी?"

"छब्बीस करोड़।"

"ओह! मोटा माल है।"

"कुछ ही दिनों में हम छब्बीस करोड़ के मालिक बन जाएंगे।" रत्ना से खुशी छिपाए ना छिप रही थी।

"वो मरेगा कब?"

"जल्द ही। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा।"

■■■

देवराज चौहान,बाबू भाई के साथ एंबुलेंस देखने शिंदे के गैराज की तरफ रवाना हो गया था।

जगमोहन बंगले की तरफ रवाना हो गया था।

जगदीप भंडारे अपनी कार में आ बैठा था। उसके मस्तिष्क में खलबली मची हुई थी। बार-बार वो यही सोच रहा था कि अस्सी करोड़ देवराज चौहान ले जाएगा जो कि उसकी निगाहों में जरूरत से ज्यादा था। वो उन्हें दस-बीस करोड़ से ज्यादा नहीं देना चाहता था। यही बात भंडारे को परेशान कर रही थी।

भंडारे ने सोचा। बहुत सोचा।

धीरे-धीरे छोटी-सी योजना उसके मस्तिष्क में जन्म लेने लगी। होंठ भिंच गए। चेहरे पर दरिंदगी के भाव नजर आने लगे। देर तक वो कार की स्टेयरिंग सीट पर बैठा सोचता रहा। सोचता रहा।

करीब डेढ़ घंटे बाद वो किसी नतीजे पर पहुंचा।

भंडारे ने मोबाइल फोन निकालकर जैकब कैंडी, कृष्णा पाण्डे और मोहन्ती को एक बॉर में पहुंचने को कहा वहां के लिए चल पड़ा। उसके होंठ अभी तक भिंचे हुए थे।

■■■

"क्या काम शुरू होने जा रहा है?" मोहन्ती बोला।

"लगता तो ऐसा ही है।" कृष्णा पाण्डे कह उठा।

जैकब कैंडी की निगाह भी भंडारे पर थी।

जबकि भंडारे अब शांत नजर आ रहा था।

"परसों सुबह काम शुरू होगा।" भंडारे ने तीनों को देख कर कहा।

"खुश कर दिया तुमने।" मोहन्ती हंसा।

"दस हाथ आएगा।" जैकब कैंडी मुस्कुराया।

"इतने बड़े हाथ मारने की तो मैं सोच भी नहीं सकता था। काम हो जाएगा ना?" कृष्णा पाण्डे बोला।

"जिस काम में भंडारे होता है, वो काम हमेशा ही पूरा होता है। तुम लोग काम करने को तैयार हो?"

"क्यों नहीं?"

"ये भी भला पूछने की बात है।"

"काम तो हो जाएगा परन्तु मुझे एक समस्या आ रही है।" भंडारे में अपना जाल फैलाना शुरू किया।

"कैसी समस्या?"

"हमें बता, हम सब ठीक कर देंगे। दस करोड़ कम नहीं होता। ये मैंने ही पाना ही है।" मोहन्ती ने कहा।

तीनों पर नजर मारकर भंडारे बोला---

"दोस्तों! हमारा साथ पुराना है। हम पहले भी कई बार एक साथ काम कर चुके हैं। हम लोगों का आपस में विश्वास पक्का है। इस मौके पर मैं चाहता हूं कि तुम लोग मेरे साथ मिलकर चलो। मेरा साथ दोगे तो तभी ये काम हो पाएगा।"

"ऐसा क्या हो गया जो काम करने में रुकावट आने लगी।" पाण्डे बोला।

"हमें बता?" जैकब कैंडी कह उठा।

"तुम लोगों ने डकैती मास्टर देवराज चौहान का नाम तो सुना ही होगा।"

"क्यों नहीं...।"

"वो इस मामले में कहां से आ गया?"

"बाबू भाई का दिमाग खराब हो गया है। वो देवराज चौहान को इस मामले में ले चुका है।" भंडारे बोला।

"ओह...!"

"देवराज चौहान के साथ जगमोहन भी है। इस काम के देवराज चौहान ज्यादा पैसे मांग रहा है और बाबू भाई तुम लोगों को दिए जाने वाले पैसों में कटौती करना चाहता है कि तुम तीनों को दस के बदले पांच-पांच करोड़ दिया जाए।" भंडारे ने एक और पैंतरा फेंका अपने जाल का।

"ये तो गलत बात है।"

"हमें दस कहा गया है तो दस ही मिलने चाहिए।"

"मैं बाबू भाई से इस बारे में बात करूंगा।"

"कोई फायदा नहीं बात करने का। मैं बात कर चुका हूं परन्तु बाबू भाई के सिर पर तो देवराज चौहान का भूत सवार है। वो मेरी बात की परवाह ही नहीं कर रहा। दरअसल बाबू भाई का ये आखिरी काम है। वो बूढ़ा हो गया है। इस काम में वो पूरी तरह अपनी चला रहा है और हमें अभी मिलकर भविष्य में बहुत काम करने हैं। इसलिए मैं तुम लोगों के भले की सोच रहा हूं कि तुम लोगों को दस-दस करोड़ जरूर मिलना चाहिए जो कि देवराज चौहान के आने से पहले तय था।"

"इस धंधे में जो बात एक बार कह दी जाती है, उस पर जरूर टिके रहना चाहिए।"

"लेकिन बाबू भाई देवराज चौहान के प्रभाव में आ गया है। वो तुम लोगों के पैसे कम करके उसे ज्यादा दे रहा है।" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा--- "अब ये बताओ कि इस मामले में मैं तुम लोगों के लिए कुछ करूं तो क्या तुम लोग तैयार हो?"

"हम क्यों ना तैयार होंगे।"

"लेकिन तुम करना क्या चाहते हो?"

"ऐसा कुछ कि काम होते ही देवराज चौहान को झटका देकर इस मामले से बाहर कर दिया जाए ताकि तुम लोगों को दस-दस करोड़ मिल जाएं और ऐसा सफलता से किया गया तो दो-दो करोड़ और ऊपर से तुम लोगों को दूंगा।"

"अपने पल्ले से?"

"देवराज चौहान को बाहर कर दिया गया तो, उसका हिस्सा बचेगा, उस में से दो-दो करोड़ दूंगा।"

तीनों की नजरें मिलीं।

चंद पलों के लिए वहां चुप्पी छा गई।

"हम तेरे साथ हैं भंडारे...!" मोहन्ती बोला।

"हम भी...।" पाण्डे ने जैकब कैंडी को देखा।

"ऐसी की तैसी देवराज चौहान की।" कैंडी ने कहा--- "बता हमें क्या करना होगा?"

जगदीप भंडारे उन्हें अपनी योजना समझाने लगा।

■■■

जगदीप भंडारे ने व्हिस्की का घूंट भरा और रत्ना को देखा।

रत्ना नाइटी में उसके सामने खड़ी थी और बम का गोला लग रही थी। भंडारे के आने के बाद रत्ना ने पन्द्रह मिनट लगाकर अपने रूप को और भी संवार लिया। उसके दिलो-दिमाग पर भंडारे का छब्बीस करोड़ छाया था और छाया था सदाशिव जैसा हैंडसम युवक। जिसके साथ शादी करके जिंदगी बिताने की सोच रही थी।

जब तक रत्ना सजी-संवरी तब तक भंडारे ने पैग बनाया और रत्ना को सब कुछ बताया कि आज दिन में उसने क्या-क्या किया। सुनने के बाद रत्ना के चेहरे पर सोच के भाव आ गए थे।

"इधर आ।" भंडारे ने एक हाथ में व्हिस्की का गिलास थामें, दूसरे हाथ से अपनी टांगों को थपथपाया--- "यहां बैठ...।"

रत्ना मुस्कुराई और आगे बढ़कर उसकी टांगों पर आ बैठी। गले में बांहें डाल लीं। ऐसा होते ही भंडारे के जिस्म में मौजूद दिन भर का तनाव गायब हो गया।

"हीरो!" रत्ना उसके गाल पर हाथ फेरते कह उठी--- "तू तो बहुत खतरनाक खेल खेल रहा है।"

"वो कैसे?"

"उधर देवराज चौहान को साथ मिला रहा है दूसरी तरफ उन तीनों को अपने साथ मिला लिया, देवराज चौहान को झटका देने के लिए...।"

"तो तू क्या चाहती है देवराज चौहान को अस्सी करोड़ दे दूं।"

"नहीं देना था तो हां क्यों की?"

"मजबूरी थी। इंकार करता तो देवराज चौहान काम को मना कर देता जबकि बाबू भाई उसे इस काम में हर हाल में लेना चाहता है। बाबू भाई को लगता है कि इस बड़े काम को देवराज चौहान सही ढंग से संभाल सकता है मैं नहीं। जब तक काम शुरू नहीं होता, तब तक बाबू भाई की चलेगी। काम शुरू होते ही मेरी चलेगी। क्योंकि फील्ड में काम मैंने करना है बाबू भाई ने नहीं।"

"बाद में बाबू भाई तुम पर नाराज होगा।"

"बाद की परवाह कौन करता है। वैसे भी मैं बाबू भाई को जरूर बताऊंगा कि मैं क्या करने वाला हूं।"

"ऐसा मत करना। वो देवराज चौहान को बता सकता है कि तुम्हारा क्या इरादा है।"

"बाबू भाई मेरे साथ कभी भी गड़बड़ नहीं कर सकता। उसका मेरा साथ पन्द्रह साल पुराना है। मैं उसकी इज्जत करता हूं वो मेरी करता है। हम पुराने साथी हैं। वो मेरे मन को समझता है। वैसे वो भी सोच रहा होगा कि अस्सी करोड़ ज्यादा है देने के लिए।"

"फिर भी बाबू भाई ने हां कर दी।"

"क्योंकि वो इस काम को बड़ा समझ रहा है। वो बूढ़ा हो गया है, लेकिन मुझे अभी लंबी जिंदगी जीनी है। जिसके लिए मुझे पैसे की जरूरत है। बाबू भाई को अब पैसे की ज्यादा जरूरत नहीं रही। वैसे भी देवराज चौहान से धोखेबाजी की शुरुआत बाबू भाई ने की, मैंने नहीं की।" भंडारे ने गिलास खाली किया और टेबल पर रख दिया।

"कैसी शुरुआत?"

भंडारे के हाथ रत्ना के जिस्म पर चलने लगे थे।

"बाबू भाई ने देवराज चौहान से छिपाया कि इस मामले में वागले रमाकांत जैसा डॉन वास्ता रख रहा है। वागले रमाकांत के बदले उसे विक्रम मदावत जैसा नकली नाम बता दिया। अगर देवराज चौहान को पता होता कि इस मामले में वागले रमाकांत का दखल है तो वो जरूर पीछे हट जाता। वो कभी भी नहीं चाहेगा कि वागले रमाकांत के पैसे पर हाथ डाले और पंगा खड़ा हो।"

"ये बात देवराज चौहान को डकैती के बाद तो पता चलेगी।"

"जरूर पता चलेगी। तब बाबू भाई ये कहकर पल्ला झाड़ लेगा कि उसके पास तो विक्रम मदावत का ही नाम आया था। उसे खबर देने वाले से कोई गलती हो गई है। यानि कि ऐसा ही कुछ कह देगा। परन्तु अब ऐसी नौबत नहीं आएगी। मैंने जो योजना बनाई है उसके बाद देवराज चौहान कहीं का नहीं रहेगा।"

"ऐसा करके तुम देवराज चौहान को अपना दुश्मन बना लोगे।" रत्ना ने कहा।

"देवराज चौहान की परवाह कौन करता है।" भंडारे हंसा, रत्ना के जिस्म पर उसके हाथ फिर रहे थे--- "मुझे वो साधारण-सा इंसान लगा है। शायद ज्यादा दम-खम भी नहीं है उसमें। यूं ही उसके नाम की हवा बनी हुई है। पर बाबू भाई की एक बात तो सही है।"

"क्या?"

"इस डकैती के बाद वागले रमाकांत और गानोरकर देवराज चौहान के पीछे पड़ जाएंगे।"

"उन्हें कैसे पता चलेगा कि ये काम देवराज चौहान ने...।"

"ऐसी बातें छिपती नहीं हैं। नहीं पता चला तो मैं खबर पहुंचा दूंगा वागले रमाकांत के पास।" भंडारे हंसा।

"तुम बहुत ही खतरनाक खेल खेल रहे हो। मुझे तुम्हारी चिंता है हीरो!"

"चल उठ।" भंडारे ने उसके कूल्हों को थपथपाया।

रत्ना ने उसका गाल चूमा फिर खड़ी हो गई।

मंडारे भी उठा। वो हल्के नशे में था।

"भंडारे जो भी खेल खेलता है, बहुत सोच-समझकर खेलता है।" भंडारे ने गिलास उठाया और बोतल के पास पहुंचकर कह उठा--- "मेरा इरादा किसी को भी कुछ देने का नहीं है।"

"क्या मतलब?" रत्ना चौंकी।

"सिर्फ बाबू भाई को थोड़ा-सा दूंगा। बाकी सारा मेरा।"

"और वो पाण्डे, मोहन्ती, जैकब कैंडी?"

"उन्हें भी झटका दूंगा।"

रत्ना दो पल के लिए ठगी-सी रह गई।

भंडारे ने गिलास बनाया और पलटकर रत्ना को देखा फिर कहा---

"चुप क्यों हो गई तू?" साथ ही मुस्कुराया।

"तू सबको अपने जान में लपेटेगा?"

"हां, सबको...।"

"सबको अपना दुश्मन बना लेगा?"

"मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि मैंने तेरे साथ मुंबई से दूर खिसक जाना है। कोई मुझ तक नहीं पहुंच सकेगा।"

रत्ना ने कई गहरी सांसें लीं।

"तेरे साथ शादी करूंगा। हम मजे से जिंदगी बिताएंगे।" भंडारे ने गिलास होंठों से लगाया--- "एक ही सांस में खाली करके गिलास टेबल पर रखा--- "ये मेरा भी आखिरी काम होगा। मेरे नाम का जैकपॉट लगेगा परसों।"

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तू सही कह रहा है या गलत।" रत्ना बोली--- "एक बात तो बता।"

"बोल मेरी रानी...।"

"क्या ये काम हो जाएगा?"

"जरूर होगा। इस काम को देवराज चौहान करेगा बिना खून-खराबे के। वो ना कर सका तो वहां से चला जाएगा फिर सारा मामला मैं संभाल लूंगा और भंडारे आज तक किसी में असफल नहीं हुआ, ये तो तू जानती ही है।"

"वहां पर गानोरकर और वागले रमाकांत के आदमी होंगे। 180 करोड़ की दौलत वो यूं ही नहीं छोड़ने वाले।"

"सब साले मरेंगे।" जगदीप भंडारे खतरनाक स्वर में कह उठा।

"तेरे काम, तू ही जान हीरो! ये मामला तो मेरी समझ में नहीं आ रहा। तू सबको झटका देने की सोचे हुए है, लेकिन ये सोच कि बाजी पलट भी सकती है। कोई तेरे सिर में गोली उतार देगा।" रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा।

"भंडारे को कुछ नहीं होने वाला। अब जल्दी से खाना लगा, मैंने जाना है।"

"रात यहीं रह, मेरे पास।" रत्ना नखरे वाले स्वर में कह उठी।

"जाना है। सारी रात व्यस्त रहूंगा। मुझे वो जगह तैयार करनी है, जहां 180 करोड़ से भरी एंबुलेंस को ले जाना है। जानती है वो जगह कौन-सी सोच रखी है मैंने।" भंडारे ने रत्ना को बांहों में भरकर कहा।

"कौन-सी?"

भंडारे उसके गालों पर किस करके बोला।

"कभी मेरा बाप चैंबूर में गैराज चलाया करता था। वो जगह अभी तक मेरे पास ही है। बंद है गैराज। उसकी साफ-सफाई करके इतनी जगह बनानी है कि वहां पर एंबुलेंस को ले जाकर खड़ा कर सकूं। उधर ही जाना है।"

"मैं भी चलूं तेरे साथ?"

"तू क्या करेगी?"

"साफ-सफाई में तेरा हाथ बटाऊंगी। तेरा साथ नहीं दूंगी तो किसका दूंगी।"

"ठीक है खाना खाकर चलते हैं।" भंडारे ने सिर हिलाया।

"मैं अभी खाना लगाती हूं।" कहने के साथ ही रत्ना किचन की तरफ बढ़ गई। किचन में पहुंचते ही  बड़बड़ा उठी--- "उस डकैती में तू बचने वाला नहीं हीरो। अगर कामयाब हो भी गया तो देवराज चौहान, वागले रमाकांत, गानोरकर तेरे को जिंदा नहीं छोड़ेंगे। तेरा मरना तो तय हो ही गया है।"

■■■

"यहां कहां?"

रात के अंधेरे में भंडारे को एक अपार्टमेंट के सामने कार रोकते देख रत्ना कह उठी।

"बाबू भाई इधर रहता है।"

"तो?"

"पांच मिनट के लिए उससे मिलना जरूरी है। उसे बताना है कि मैं क्या करने का इरादा रखता हूं...।"

"क्या जरूरत है बताने की?" रत्ना के होंठों से निकला।

"जरूरत है। वो मेरा पुराना साथी है। उसने हमेशा मेरे साथ अच्छा बर्ताव किया है। मैं उसे धोखे में नहीं रख सकता।"

"मैं उसे जरूर बताऊंगा कि मैं क्या इरादा कर चुका हूं।"

"वो देवराज चौहान को बता देगा।"

"पागल मत बन। तू मेरे और बाबू भाई के रिश्तो को अभी ठीक से नहीं जानती। पांच मिनट में आया।"

रत्ना गहरी सांस लेकर रह गई।

भंडारे कार से निकलकर अपार्टमेंट के गेट की तरफ बढ़ गया।

दो मिनट बाद ही वो बाबू भाई के फ्लैट की बेल बजा रहा था।

बाबू भाई ने दरवाजा खोला तो भंडारे को इतनी रात गए सामने पाकर चौंका।

"मैंने तुम्हारी नींद खराब कर दी बाबू भाई।"

"बात क्या है। इस समय कैसे आना हुआ?" बाबू भाई ने नींद भरी आंखों से उसे देखते गम्भीर स्वर में पूछा।

"मैं कुछ गड़बड़ करने वाला हूं। सोचा उस बारे में तेरे को बता दूं।"

"कैसी गड़बड़?" बाबू भाई की बूढ़ी आंखें सिकुड़ी।

"मैं देवराज चौहान को उस पैसे में से एक पैसा भी नहीं देना चाहता और ना ही कैंडी, मोहन्ती और पाण्डे को। सारा पैसा मैं ले जाऊंगा। परन्तु तुम्हारा हिस्सा तुम तक पहुंचा दूंगा।" भंडारे ने मुस्कुराकर कहा।

बाबू भाई अचकचाया-सा भंडारे को देखता रहा, फिर उसके होंठों से निकला---

"नहीं, ये गलत होगा। ऐसा मत करना।"

"मैं ठीक कह रहा हूं। तुम्हारी तरह ये काम मेरी जिंदगी का भी आखिरी काम होगा। मैं सारी दौलत के साथ कहीं बैठकर आराम से जिंदगी बिताऊंगा। इतनी बड़ी दौलत बार-बार सामने नहीं आती।"

"ऐसा भूल कर भी मत करना भंडारे! देवराज चौहान को धोखा देने की सोचना भी मत। मैंने उसके बारे में बहुत कुछ जाना है। वो धोखा देने वालों को पसंद नहीं करता और उनसे हिसाब बराबर करके रहता है, हम तो...।"

"बचने वाले तो हम तब भी नहीं। वागले रमाकांत की दौलत पर डकैती करके हम कैसे बचे रह सकते हैं। मतलब कि जो मेहनत वागले रमाकांत से बचने के लिए की जाएगी, वही मेहनत देवराज चौहान पर भी लागू होगी। मतलब कि भाग निकलना तो हमें है ही, फिर क्या दिक्कत है देवराज चौहान पीछे है या वागले रमाकांत। मैं तुम्हें पहले इसलिए बताने आया हूं कि अपने बचाव का इंतजाम कर लेना। देवराज चौहान यही मानेगा कि भंडारे के धोखे में बाबू भाई भी शामिल है और...।"

"होश में आ भंडारे, ये ठीक नहीं होगा।"

"दरवाजा बंद कर लेना बाबू भाई...।" भंडारे दरवाजे से बाहर निकलता कह उठा।

"भंडारे...!" बाबू भाई ने उसे रोकना चाहा।

परन्तु भंडारे नहीं रुका।

■■■

अगले दिन बारह बजे सब बाबू भाई के फ्लैट पर इकट्ठे हुए। मोहन्ती, जैकब कैंडी और कृष्णा पाण्डे भी थे। वो देवराज चौहान और जगमोहन से मिले। तीनो इस तरह का व्यवहार कर रहे थे जैसे कोई बात ही ना हो। भंडारे ने उन्हें बियर सर्व की। परन्तु आज देवराज चौहान ने बियर नहीं ली। बाबू भाई ने भी मना कर दिया। वो बेचैन दिख रहा था। भंडारे को देख रहा था।

आपस में मिलने और बियर सर्व होने के बाद देवराज चौहान कह उठा---

"कल हमने जो करना है। जो-जो हमें मालूम है, उन सब पर हमें एक बार बातचीत कर लेनी चाहिए, क्योंकि कल हमने काम करना है। लेकिन हमारे पास जानकारी अभी भी अधूरी है।"

"क्या अधूरी है?" कृष्णा पाण्डे ने पूछा।

"हमें उनके सुरक्षा इंतजामों के बारे में ठीक से पता नहीं है। बाबू भाई ने ही ये सारी जानकारी इकट्ठी की है और अब इतना वक्त भी नहीं बचा कि जानकारी हासिल करने का प्रयास किया जाए। जल्दबाजी में जानकारी पाने की चेष्टा की गई तो कहीं पर भी गड़बड़ हो सकती है और बात गानोरकर या विक्रम मदावत के कानों तक पहुंच सकती है।"

"गानोरकर और विक्रम मदावत कौन?" जैकब कैंडी ने पूछा।

"मैं हवाला किंग गानोरकर की बात कर रहा हूं जिसने कल पैसा विक्रम मदावत को देना है।" देवराज चौहान सबको देखता कह उठा--- "हमारी जानकारी के मुताबिक पैसा कल सुबह साढ़े नौ बजे वरसोवा के दाउद मैनशन में तीसरी मंजिल पर स्थित अम्बे पेपर एजेंसी में पहुंचाया जाएगा और करीब पांच घंटे वहां पैसा रहेगा। हम लोग वहां साढ़े आठ बजे ही पहुंच जाएंगे। किस प्रकार पहुंचना है ये मैं बाद में बताऊंगा। पैसा पहुंचने के बाद हमने ये जानना है कि वहां सुरक्षा के क्या इंतजाम हैं। उसके बाद हाथों-हाथ ही योजना बनाकर इस मामले में आगे बढ़ा जाएगा और...।"

"इसमें दिक्कत क्या है?" मोहन्ती कह उठा--- "वहां दस-पन्द्रह लोग होंगे। हम आसानी से उन्हें खत्म...।"

"तुममें कोई भी किसी की जान नहीं लेगा।" जगमोहन कह उठा--- "ऐसा हुआ तो ये काम कभी नहीं हो पाएगा।"

"गोलियां नहीं चलाएंगे तो काम कैसे होगा?" जैकब कैंडी ने कहा।

"ये देखना हमारा काम है।" देवराज चौहान बोला--- "तुम लोग हमारे पीछे रहोगे, इंजन बनने की चेष्टा नहीं करोगे। मेरे ख्याल में तुम लोगों का काम बाद में शुरू होगा। इस काम में हर किसी को सबसे पहले तो अपनी-अपनी भूमिका समझ लेनी चाहिए। हर कोई उतना ही काम करे, जितना कि बताया जाए। मौके पर कोई गड़बड़ होती है तो उसे संभालने को हम हैं।"

"कदम-कदम पर हम तुमसे पूछते ही तो नहीं रहेंगे।" मोहन्ती बोला।

"ऐसी नौबत नहीं आएगी।" देवराज चौहान ने कहा--- "अभी तो सिर्फ मेरी बात सुनो, जो मैं कह रहा हूं।"

सबकी निगाह देवराज चौहान पर भी।

देवराज चौहान ने बाबू भाई से कहा---

"तुमने कहा था कि ऐसी कोई जगह का इंतजाम कर लोगे जहां पैसों की गाड़ी को हम छिपा सकें।"

"शिंदे ने इंतजाम कर दिया है। इसके बदले उसे दो करोड़ देना होगा।" बाबू भाई बोला।

"यहां की बातें खत्म होने पर तुम मुझे वो जगह दिखाना।"

बाबू भाई ने सिर हिला दिया।

"देवराज चौहान!" कृष्णा पाण्डे कह उठा--- "मैंने तुम्हारा बहुत नाम सुन रखा है। तुम काबिल डकैती मास्टर हो। परन्तु दिन के वक्त में, भीड़ भरी जगह पर, गोलियां चलाए बिना हम कैसे सफल हो...।"

"सफल होने की बात तुम लोग मुझ पर छोड़ दो।" देवराज चौहान ने कहा--- "वैसे ये काम मेरा नहीं बाबू भाई का है। सारी तैयारी इसने की है। मैंने तो बीच में आकर ये काम संभाला है और मुझे लगता है कि हम सफल हो जाएंगे। तुम लोगों को जो समझाने जा रहा हूं, सब कुछ वैसे ही करना। हममें से कोई भी काम के लिए परेशानी खड़ी नहीं करेगा। डिब्बे बनकर रहो। इंजन मुझे बने रहने दो तो तभी गाड़ी ठीक से दौड़ेगी। सब इंजन बनोगे तो गाड़ी नहीं चलने वाली।"

"तुम बताओ।" पाण्डे बोला--- "हम वही करेंगे, जो तुम कहोगे।"

उसके बाद देवराज चौहान उन सबको समझाने लगा कि काम कैसे करना है और किस-किसने क्या करना है, और इस दौरान वो क्या करेंगे। बताने और सवाल-जवाब की स्थिति ढाई घंटों तक चलती रही।

जब बातें खत्म हुईं तो वहां गंभीरता भरा माहौल बन चुका था।

"ये जो अम्बे पेपर एजेंसी के सामने वाले ऑफिस को काबू करने का जो काम है, वहां लफड़ा हो सकता है।" जैकब कैंडी कह उठा--- "वहां से जरा भी शोर उठा तो खेल खत्म हो जाएगा।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा तो जगमोहन कह उठा---

"सब ठीक रहेगा। ये काम मैं करूंगा। अम्बे पेपर एजेंसी के सामने वाला ऑफिस एडवरटाइजिंग का है। वहां पर सिर्फ तीन लोगों का स्टाफ है एक कंप्यूटर ऑपरेटर, एक ऑफिस काम के लिए लड़की और तीसरा फील्ड में काम करने वाला युवक है। जो कि कभी ऑफिस में होता है तो कभी नहीं होता। वहां का मालिक भी कभी आता है तो कभी फील्ड में रहता है। अगर वे सब भी वहां पर हमें मिले तो उनकी संख्या चार होगी। परन्तु वो चार एक साथ कभी भी ऑफिस में नहीं होते। मैं जब भी गया मुझे वहां दो या तीन ही मिले और दिन भर में वहां शायद ही कोई आता हो। एडवरटाइजिंग एजेंसी का काम ठीक से नहीं चलता। हम आसानी से उन लोगों को काबू में करके उस जगह को अपने काम के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सब कुछ संभालने की जिम्मेवारी मेरी रही।"

"ठीक है। हम तैयार हैं।" मोहन्ती कह उठा।

बातचीत खत्म हो गई।

"तुम लोगों को और कुछ पूछना हो तो भंडारे से पूछ सकते हो।" देवराज चौहान ने कहा फिर बाबू भाई से बोला--- "तुम्हें कहीं पर कोई कमी लग रही हो तो कहो...।"

"सब बढ़िया है।" बाबू भाई उठते हुए बोला--- "मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें वो जगह दिखा दूं जहां नोटों से भरी एंबुलेंस को ले जाकर खड़ा करना है।"

■■■

अगले दिन!

सुबह 9:30 बजे, वरसोवा के दाउद मैनशन नाम की इमारत के कंपाउंड में एक मिनी ट्रक आकर रुका। एक ड्राइविंग सीट पर था। दो आगे ही, उसकी बगल में बैठे थे और दो ट्रक के पीछे वाले हिस्से में मौजूद थे। ट्रक में रखे सामान पर नीले रंग की तिरपाल डाल रखी थी। वो दाऊद मैनशन के मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक सामने आ रुका था।

अभी सुबह का वक्त था। पूरे ऑफिस नहीं खुले थे। इसलिए भीड़ कम थी और पार्किंग भी खाली जैसी दिख रही थी। ट्रक के आगे मौजूद तीन व्यक्ति उतरकर ट्रक के पीछे वाले हिस्से में आ गए थे। तब तक पीछे मौजूद दोनों आदमियों ने सामान पर बिछा रखी तिरपाल को इकट्ठा करके एक कोने में घुसेड़ दिया था।

सामान के नाम पर गत्ते के बड़े वाले नौ डिब्बे मौजूद थे।

उन्होंने बिना वक्त खराब किए ट्रक के पीछे का पल्ला नीचे गिराया और एक डिब्बे को सरकाकर किनारे पर लाए तो नीचे खड़े तीन में से दो आदमियों ने डिब्बे को हाथ देकर दायें-बायें से संभाला और धीमे-धीमे इमारत के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गए। डिब्बे को उठाने के अंदाज से पता चल रहा था कि वो काफी भारी है। अब एक ट्रक के पास नीचे खड़ा था और ट्रक पर खड़े दोनों आदमी नीचे उतर आए थे फिर उन्होंने भी एक डिब्बे को संभाला और भीतर की तरफ बढ़ गए। उसी पल भीतर से दो आदमी निकलकर ट्रक के पास आ पहुंचे।

"सब ठीक है?" उनमें से एक ने ट्रक के पास खड़े आदमी से पूछा।

"हां...।"

"हम यहीं रहेंगे, जब तक सामान भीतर नहीं चला जाता।" दूसरा बोला--- "लोहरा ने हमें ये ड्यूटी सौंपी है।"

"मुझे कोई एतराज नहीं।" वो बोला--- "उदय लोहरा भीतर है?"

"नहीं। आने वाला है।"

■■■

जैकब कैंडी वहां से कुछ दूर खड़ा था और ट्रक पर हो रही सब हरकतें देख रहा था। उसने जेब से मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा। जल्दी ही वो जल्दी ही वो जगदीप भंडारे से बात कर रहा था जो कि एंबुलेंस के साथ वहां से आधा किलोमीटर दूर खड़ा था, और उसने रास्ता क्लियर मिलते ही एंबुलेंस को लेकर आना था।

"वो लोग आ गए हैं। मिनी ट्रक पर आए हैं और पांच हैं। ट्रक में बड़े-बड़े गत्ते के मजबूत डिब्बे हैं और चार लोग उन डिब्बों को भीतर ले जाना शुरू कर चुके हैं। भीतर से दो लोग और ट्रक के पास पहरेदारी के लिए आ पहुंचे हैं। सब खतरनाक लग रहे हैं और इनके पास हर हाल में हथियार भी हैं। रिवाल्वरें भी होंगी।"

"कितनी देर में ये ट्रक के डिब्बे भीतर पहुंचा देंगे?" उधर से भंडारे ने पूछा।

"तीसरी मंजिल तक जाना है। आधा घंटा तो लग ही जाएगा।"

"पौन घंटा भी लग सकता है। भारी डिब्बों के साथ सीढ़ियां चढ़ने में वक्त लगेगा। मेरी योजना याद है ना?"

"हां...।"

"देवराज चौहान को मौके पर वैसे ही झटका देना है जैसे कि मैंने समझाया था।"

"हो जाएगा, पर एक बात मेरी समझ से बाहर है भंडारे...!"

"क्या?"

"इतने खतरनाक लोग यहां हैं। अम्बे पेपर एजेंसी में भी दो-चार और होंगे। ऐसे में बिना खून-खराबे के देवराज चौहान नोटों को ले जा पाएगा। मेरे ख्याल में तो उसे पीछे हटना पड़ेगा, ये काम छोड़कर।"

"ऐसा हो गया तो और भी बढ़िया बात है। एंबुलेंस में गनें रखी हैं। तब हम गनों के साथ मैदान में आएंगे और सबको गोलियों से भूनकर नोटों को ले उड़ेंगे। देवराज चौहान तो बाबू भाई की जिद की वजह से इस मामले में बना हुआ है।"

"अगर हमें लगा कि मामला देवराज चौहान के बस का नहीं है तो हम गनें उठा लेंगे।"

"ऐसा ही करेंगे।"

"तब देवराज चौहान ने कोई झंझट खड़ा किया तो सबसे पहले उसे ही मार देंगे।" उधर से आती भंडारे की आवाज में खूंखारता के भाव थे।

"ये ठीक रहेगा।"

"इस वक्त देवराज चौहान कहां है?"

"यहीं कहीं होगा। जगमोहन, मोहन्ती, पाण्डे भी उनके साथ हैं।"

"कोई नई खबर हो तो फोन करना।"

■■■

जगमोहन ने कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा। दस बज रहे थे। वो कुछ दूर मौजूद ट्रक पर नजरें टिकाए हुए थे। आठ बक्से भीतर ले जाए जा चुके थे। सिर्फ नौंवा बक्सा ही ले जाना बाकी था।

मोहन्ती पास खड़े देवराज चौहान से कह उठा---

"तुमने एक भारी भूल कर दी देवराज चौहान...।"

"क्या?"

"जब ट्रक यहां पहुंचा था, हम ट्रक को ही उड़ा ले जा सकते थे।"

"खून-खराबे की नौबत आती तब। जो ट्रक के पास खड़े हैं वो पीछे हटने वाले नहीं...।"

"क्या फर्क पड़ता है दो-चार मर भी जाते तो...।"

"मुझे फर्क पड़ता है।"

"तुम इन सब लोगों पर कैसे काबू पाकर दौलत को ले जा सकते हो, तब तो ये लोग...।"

"हमारे पास पांच घंटों का भरपूर वक्त है। इन पांच घंटों में वो  हर पल सतर्क नहीं रहेंगे और मैंने जो योजना बनाई है, वो काम करेगी। तुम लोग अपना काम ठीक से करना।"

"मुझे तुम्हारी योजना के सफल होने पर शक है।" पाण्डे ने कहा।

"पहले कभी योजना पर काम किया है?"

"हम तो गोलियां चलाते हैं और माल ले उड़ते हैं।"

तभी जगमोहन की निगाह इमारत में जाती एक युवती पर जा टिकी।

"वो आ गई।" जगमोहन कह उठा।

"कौन?"

"एडवरटाइजिंग एजेंसी वाली ऑफिस की चाबी इसी के पास रहती है। ये अम्बे एजेंसी के ठीक सामने एडवरटाइजिंग के ऑफिस को खोलेगी। हमें उस ऑफिस पर कब्जा करना है। मैं जा रहा हूं तुम लोग बीस मिनट बाद आ जाना।" कहने के साथ ही जगमोहन साधारण-सी चाल से आगे बढ़ता चला गया।

देवराज चौहान ने देखा कि वो लोग नौंवा बक्सा भी भीतर ले जा रहे हैं।"

"गिनती की कि कितने आदमी है वहां?" देवराज चौहान बोला।

"सात।" मोहन्ती ने कहा--- "पांच ट्रक वाले और दो भीतर से आए थे।"

"नजर रखो, इनका कोई और आदमी भी दिखे तो उसे भी निगाह में लो।"

तभी ट्रक के पास खड़े भीतर से आने वाले दोनों व्यक्ति भी नौंवे बक्से के साथ भीतर की तरफ चल पड़े। तो ट्रक के पास खड़ा पांचवा वापस ट्रक की स्टेयरिंग सीट पर जा बैठा और ट्रक को बैक करके पास ही पार्किंग में लगाया और उतरकर वो भी इमारत के भीतर की तरफ चल दिया।

"अब भीतर के लोग नोटों की गिनती करेंगे।" पाण्डे ने कहा।

"कितने नोट हैं कुल?" कहते हुए मोहन्ती ने देवराज चौहान को देखा।

"तुम्हें नहीं पता?" देवराज चौहान बोला।

"नहीं। हमें तो दस करोड़ देने की बात हुई है। एक-एक को दस करोड़...।"

"तुम लोग बाबू भाई की तरफ से हो। ऐसे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकता। जो पूछना है उससे पूछना।"

"ज्यादा माल लगता है। तभी तुम नहीं बता रहे।" मोहन्ती मुस्कुराया।

"अब हमने क्या करना है?" पाण्डे कह उठा।

"जगमोहन के फोन का इंतजार करो।"

जैकब कैंडी ने भंडारे को फोन किया।

"गत्ते के सारे डिब्बे भीतर जा चुके हैं और मिनी ट्रक को पार्किंग में लगाकर आखिरी आदमी भी भीतर चला गया है। अब तुम एंबूलेंस को भीतर ला सकते हो। पार्किंग में बहुत खाली जगह है।"

"मैं एंबूलेंस को लेकर आ रहा हूं।" भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

■■■

वो पच्चीस बरस की मध्यम कद की युवती थी। शरीर पर जींस और टॉप पहन रखा था। उसे हर वक्त यही चिंता रहती कि ये एडवरटाइजिंग एजेंसी कभी भी बंद हो सकती है, क्योंकि काम ज्यादा नहीं आता था। ऐसे में वो इस नौकरी के साथ नई नौकरी की भी तलाश जारी रखे हुए थी। एडवरटाइजिंग एजेंसी का मालिक सप्ताह में दो-तीन बार ही आता था। सारा काम वो और बाकी के दो लड़के ही संभालते थे। वैसे भी काम कभी भी इतना नहीं होता था कि वो दिनभर व्यस्त रह सके। पुरानी पार्टियों का काम ही आता रहता था जो दोपहर से पहले समाप्त हो जाता था।

रोज की तरह वो आज भी समय पर पहुंची थी और छोटे से पर्स में से चाबी निकालकर नीचे लगे शटर के ताले खोलने लगी। अभी ताले खोलकर हटी ही हुई थी कि जगमोहन वहां पहुंच गया।

"नमस्कार जी...।" जगमोहन ने शराफत से कहा।

"नमस्कार...।" युवती ने जगमोहन को प्रश्न भरी निगाहों से देखा।

"लाइए मैं शटर उठा देता हूं।" कहने के साथ ही जगमोहन झुका और शटर उठा दिया।

सामने एल्युमीनियम के फ्रेम वाला दरवाजा था। शीशे लगे थे जिन पर काली फिल्म लगी थी। ऐसे में बाहर से भीतर देख पाना आसान नहीं। भीतर की तरफ शीशे पर पोस्टर चिपका था जिसकी वजह से वहां से देखने पर पोस्टर की ओट हो जाती थी। युवती जिसका नाम आस्था था वो कह उठी---

"आप तो कल भी आए थे। किसी और का ऑफिस तलाश करते यहां आ गए थे।"

"जी हां। पर आज तो मैं आपके ऑफिस में आया...।"

"यहां एडवरटाइजिंग का काम होता...।"

"जानता हूं। तभी तो आया हूं। भीतर चलते हैं। काम है आपसे...।"

युवती दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गई। जगमोहन उसके पीछे था।

आस्था ने ऑफिस की लाइटें ऑन की। एक तरफ टेबल पर कंप्यूटर रखा था। बाकी दो अन्य टेबल पर फ़ाइलें और कागज बिखरे पड़े थे। फर्श पर ऑफिस कारपेट था। साधारण-सा ऑफिस था। ए•सी• भी नहीं लगा था। छत पर पंखा लटक रहा था, जो कि अब धीमी रफ्तार से चलने लगा था।

आस्था अपना पर्स एक टेबल पर रखती और खुद भी बैठती कह उठी---

"बैठिए और बताइए कि आपको क्या काम है?"

"आप अकेली हैं ऑफिस में?"

"और भी स्टाफ है। अभी आते ही होंगे। आपको क्या अपने  प्रोडक्ट के लिए डिजाइन बनवाना है?"

"नहीं-नहीं।" जगमोहन सिर हिलाकर कह उठा--- "मैंने शादी करनी है।"

"शादी?"

"जी हां मैडम। अभी तक मेरी शादी नहीं...।"

"ये शादी करवाने का ऑफिस नहीं है। आज भी आप गलत जगह आ गए। इसी इमारत की पहली मंजिल पर मैरिज ब्यूरो है, वहां जाकर बात कीजिए... शायद वहां...।"

"गया था। महीने भर से वहां चक्कर काट रहा हूं। कोई फायदा नहीं हुआ। वो लोग दो बच्चों की माँ के साथ मेरी शादी कराना चाहते हैं। मैं तो आपके पास अखबार में वैवाहिक विज्ञापन देने आया था।"

"हां। ऐसा विज्ञापन हम अखबार में देते हैं। मैं आपको फार्म देती हूं। उसमें आप भर दीजिए, जो भी विज्ञापन में देना चाहते हैं। इस संडे के अखबार में आपका विज्ञापन छप जाएगा।"

"लड़की मिल जाएगी?" जगमोहन खुश हुआ।

"हम सिर्फ विज्ञापन देने का काम करते हैं। उसके बाद क्या होता है, हमें कोई मतलब नहीं।"

"आपकी शादी हो गई?"

"क्या मतलब?" आस्था ने जगमोहन को घूरा।

"मेरा मतलब कि अगर आप शादी करने की सोच रही हो तो हम...।"

"आप जिस काम को करने आए हैं, वो कीजिए और...।"

तभी दरवाज़ा खुला और तीस बरस के एक युवक ने भीतर प्रवेश किया।

"सौरभ...!" आस्था उसे देखते ही कह उठी--- "ये साहब वैवाहिक विज्ञापन बुक कराना चाहते हैं। इनसे फार्म भरवा लो।"

सौरभ दूसरी टेबल की कुर्सी पर बैठता कह उठा---

"इधर आ जाइए सर!"

जगमोहन तुरन्त उसकी टेबल की कुर्सी पर जा बैठा।

उसने एक फार्म जगमोहन के आगे सरकाते हुए कहा---

"इसे भर दीजिए। वैसे आप शादी क्यों करना चाहते हैं?" सौरभ ने चिढ़े स्वर में कहा।

"लोग शादी क्यों कराते हैं?" जगमोहन उसे देखने लगा।

"कोई फायदा नहीं।"

"क्या?"

"कोई फायदा नहीं सर शादी कराके। बिना शादी के ज्यादा अच्छा लगता है।" सौरभ ने उखड़े स्वर में कहा--- "छः महीने पहले मैंने भी शादी कराई। तब मैं भी आपकी तरह खुश था। आजाद था। पर अब पता चल गया कि शादी कराना मुसीबत मोल लेने जैसा होता है। वक्त पर घर पहुंचना पड़ता है। दोस्तों में वक्त नहीं बिता सकता। पहले लंच में नई-नई चीजें बाजार से खाता था और अब वो खाना साथ बांध देती है। अपने लिए कह देती है भटूरे लेते आना। कभी डोसा लेते आना। तनख्वाह के सारे पैसों पर नजर रखती है कि मैं बाहर किसी को खिला-पिला तो नहीं रहा। कम-से-कम दस बार फोन करके पूछती है कि मैं कहां पर हूं। जबकि उसे पता होता है कि मैं अपने ऑफिस में हूं। मुझे एक कमीज नहीं खरीदने देती जबकि खुद दसवें दिन नया सूट ले आती है। कुछ दिन पहले मैंने सूट लाने को मना किया तो जहर खाने की धमकी देने लगी। मुझे तो समझ में नहीं आता लोग मुसीबत क्यों मोल लेते हैं। कहती है पापा ने शादी में जो खर्च किया वो भी उन्हें वापस देना है। मेरे लिए तो मेरी पत्नी बीमारी से ज्यादा बीमार है। मैं तो सोच रहा हूं कि घर से भाग जाऊं...।"

"बहुत दुखी हैं आप...।" जगमोहन शांत स्वर में बोला।

"बहुत ज्यादा।"

"मैं अभी पापा से बात करता हूं इस बारे में। वो भी मुझे मना कर रहे थे शादी को।" कहने के साथ ही जगमोहन ने फोन निकाला और नंबर मिलाने लगा--- "मुझे नहीं पता था कि शादी इतनी बड़ी मुसीबत होती है।"

"इससे भी बड़ी मुसीबत होती है।" सौरभ मुंह लटकाकर कह उठा--- "मुझे मेरे मां-बाप के पास जाने को मना करती है और खुद रोज अपनी माँ के पास दौड़ जाती है। कई बार तो हजार-पांच सौ भी दे आती है।"

जगमोहन की बात हो गई।

"आ जाओ।" जगमोहन ने कहा और फोन बंद कर दिया।

"किसे बुलाया है तुमने?"

"कुछ लोग और भी हैं जो शादी करना चाहते हैं। तुम अपनी समस्या उन्हें बताना, शायद उन्हें भी मेरी तरह अकल आ जाए।"

"बहुत बेवकूफ भरे हैं दुनिया में।" सौरभ कड़वे स्वर में कह उठा।

■■■

जलदीप भंडारे ने पार्किंग में उसी ट्रक के साथ ही एंबुलेंस पार्क कर दी थी। मिनी बस को एंबुलेंस का रूप दिया गया था। वो फुल साइज की शानदार एंबुलेंस लग रही थी। पेंट भी नया था। चमक रही थी वो। अब पार्किंग में वाहनों की भीड़ लगनी शुरू हो गई थी। ऑफिसों में काम करने वाले लोग एक के बाद एक आ रहे थे।

भंडारे एंबुलेंस से नीचे उतरा और दरवाजा बंद करके आगे बढ़ा।

तभी एक तरफ से जैकब कैंडी सामने आ गया।

दोनों की नजरें मिलीं।

"सब ठीक है?" भंडारे ने पूछा।

"हां। कुछ देर पहले मैंने जगमोहन को भी तरह आते देखा था।" कैंडी बोला।

"बाकी लोग कहां हैं?"

"उधर। आओ मेरे साथ...।"

दोनों सामान्य ढंग से एक तरफ बढ़ गए। भंडारे बोला।

"एंबूलेंस के आगे-पीछे के दरवाजे खुले हुए हैं। चाबियां भी भीतर हैं। जब भी बड़े हथियारों की ज़रूरत हो, जाकर निकाल लेना। मेरे को पूछने की जरूरत नहीं है। मोहन्ती, पाण्डे से भी कह देना।"

"ठीक है।"

"हमने हर हाल में सफल होना है कैंडी।" भंडारे भिंचे स्वर में बोला।

"हर बार की तरह इस बार भी हम सफल रहेंगे।" कैंडी ने दृढ़ स्वर में कहा।

"देवराज चौहान की जरा भी परवाह मत करना। जब लगे कि वो हमारा काम खराब करने पर आमादा है, खत्म कर देना। रिवाल्वर है तेरे पास या मैं दूं?" भंडारे ने कहा।

"हां, पर रिवाल्वर ज्यादा बढ़िया नहीं है। लेकिन देवराज चौहान को खत्म करने के लिए काफी है।"

"चूहा है साला देवराज चौहान!" भंडारे ने कड़वे स्वर में कहा।

"उन गत्ते के बड़े डिब्बों में नोट भरे थे?" कैंडी ने पूछा।

"हां...।"

"काफी ज्यादा माल होगा। कितना है?"

"तुझे क्या करना है पूछ के। दो-दो करोड़ ऊपर मिलेगा दस के, अगर देवराज चौहान को झटका देने में कामयाब रहे, नहीं तो पांच करोड़। सोच लेना कि क्या लेना है।"

"बारह करोड़ लेना है।

वे दोनों एक तरफ खड़े देवराज चौहान, पाण्डे और मोहन्ती के पास जा पहुंचे।

"क्या चल रहा है?" भंडारे ने देवराज चौहान से पूछा।

"जगमोहन के फोन आने का इंतजार है।" देवराज चौहान ने कहा।

"वो भीतर गया उस एडवरटाइजिंग एजेंसी के दफ्तर में?"

"हां।" देवराज चौहान की निगाह हर तरफ घूम रही थी। लोगों का इस इमारत में बराबर आना-जाना लगा हुआ था।

"कितने आदमी दिखे उनके?" भंडारे ने पूछा।

"सात। पांच नोटों के साथ आए थे और दो भीतर से निकले थे।"

"सात तो ज्यादा नहीं हैं।" भंडारे ने देवराज चौहान को देखा।

"सात बहुत ज्यादा हैं।" देवराज चौहान ने कहा--- "हमारा काम खराब करने के लिए एक ही काफी है।"

"क्या तुम्हें लगता है कि काम खराब होगा?" भंडारे की आंखें सिकुड़ी।

"नब्बे प्रतिशत आशा है कि काम संभल जाएगा।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।

तभी देवराज चौहान का मोबाइल बजा।

देवराज चौहान ने बात करने के बाद फोन बंद करते कह उठा---

"जगमोहन का बुलावा आ गया है। तुम तीनों एक-एक करके जाओ। प्लान के मुताबिक वहां की पोजीशन बताते रहना।"

मोहन्ती बिना कुछ कहे, आगे बढ़ गया।

पांच मिनट बाद कैंडी इमारत की तरफ बढ़ गया।

कुछ देर बाद पाण्डे भी चला गया।

देवराज चौहान और भंडारे वहां खड़े रहे।

■■■

आस्था और सौरभ अपनी-अपनी टेबलों के पास बंधे पड़े थे। जेबों में डालकर नाड़ा वो साथ लाए थे, जिससे कि उनके हाथ बांधे गए थे। सौरभ की कमीज फाड़कर, उसे गोल करके उनके मुंह में ठूंसा गया था कि वो चीखें नहीं। मोहन्ती और कैंडी के आने पर ये काम फुर्ती से किया गया था। सौरभ और आस्था को डराने के लिए उन्होंने रिवाल्वरें निकाल लीं। रिवाल्वरें देखकर दोनों के होश उड़ गए थे। वो नहीं समझ पाए कि ये सब क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है। वे दोनों जरूरत से ज्यादा डर गए थे।

"आराम से पड़े रहो।" कैंडी ने दांत पीसकर कहा।

दोनों के होश तो वैसे ही गुम थे।

एडवरटाइजिंग एजेंसी के एलुमिनियम के प्रवेश द्वार के शीशों पर काली फिल्म चढ़ी होने की वजह से बाहर से भीतर देख पाना कठिन था। बाकी की कसर उस पोस्टर ने पूरी कर दी थी जो कि शीशे पर ऑफिस के भीतर की तरफ चिपकाया गया था। अगर सामने से कुछ नजर भी आता तो वो सिर्फ काले सायों की तरह था, जिससे कि लगता ऑफिस के लोग भीतर काम कर रहे हैं। परन्तु भीतर से बाहर स्पष्ट देखा जा सकता था और जगमोहन अपनी ड्यूटी पर लगा था।

जगमोहन दरवाजे के सामने की टेबल की कुर्सी पर बैठकर बाहर देखने लगा। गैलरी पार ठीक सामने अम्बे पेपर एजेंसी का ऑफिस था, परन्तु वहां नजर पड़ते ही जगमोहन की आंखें सिकुड़ी।

ये दो वो थे जो ट्रक के साथ आए थे। पैसा लाए थे। उन पांचों में से दो। वो दोनों इस तरह बाहर खड़े थे जैसे बातें कर रहे हों। लेकिन जगमोहन को समझते देर न लगी कि वो पहरेदारी कर रहे हैं।

कुछ देर और बीत गई।

परन्तु वे दोनों अपनी जगह पर मौजूद रहे।

जगमोहन ने मोबाइल पर देवराज चौहान से बात की।

"दो आदमी अम्बे पेपर एजेंसी के बाहर खड़े हैं।" जगमोहन ने बताया।

"कौन से आदमी है वो?"

"वो पांच जो पैसा लाए थे उनमें से दो।"

"वो तो गानोरकर के आदमी हैं, और कोई ऑफिस में आया?" उधर से देवराज चौहान ने पूछा।

"नहीं।"

"कोई बाहर भी नहीं निकला जो उन सातों के अलावा हो।"

"अभी तक तो नहीं निकला।"

"तुम अभी नजर रखो। हम कम-से-कम दो घंटे के बाद हरकत में आएंगे। हमें जल्दी नहीं करनी है।"

जगमोहन ने मोबाइल जेब में रखा और कैंडी को बुलाया।

"मेरी जगह पर बैठ जाओ और नजर सामने रख। जानता है ना क्या देखना है।" जगमोहन उठते हुए बोला।

"उन सातों के अलावा दिखने वाले लोगों की गिनती करनी है। कोई बाहर से आता है या नया चेहरा भीतर से निकलता है।"

"सही समझा...।"

कैंडी जगमोहन वाली कुर्सी पर बैठ गया जहां से बाहर नजर सीधी पड़ती थी।

जगमोहन टेबल के पास नीचे बंधी पड़ी आस्था के पास पहुंचकर धीमे स्वर में बोला---

"मैं तुम्हारे मुंह से कपड़ा निकालने जा रहा हूं। चीखना-चिल्लाना मत।"

बुरे हाल आस्था ने सिर हिला दिया।

जगमोहन ने उसके मुंह में ठूंसा कपड़ा निकाला तो वह मुंह खोले लंबी-लंबी सांसें लेने लगी।

जगमोहन उसके पास ही बैठ गया।

"इस ऑफिस में काम करने वाला वो तीसरा लड़का अभी तक नहीं आया?" जगमोहन ने पूछा।

"आ...आ जाएगा।" आस्था सांसे संयत करती बोली--- "वो कभी-कभी लेट आता है।"

"कितनी लेट?"

"बारह भी बजा देता है, एक भी बज जाता है।"

"आज वो कब आएगा?"

"मुझे क्या पता। कभी भी आ जाएगा। तुम लोग यहां पर क्या करने का इरादा रखते हो। यहां लूटने को कुछ भी नहीं है। हमें इस तरह बांधकर तुम लोगों को क्या मिलेगा। हम तो मामूली नौकरी करने...।"

"चुप रहो, हमें तुमसे कोई मतलब नहीं है। हमें सामने वाले ऑफिस से मतलब है।"

"वो पेपर एजेंसी...।"

"हां।" जगमोहन ने कहा और कपड़ा उठाकर उसके मुंह में ठूंसने लगा तो वो जल्दी से बोली।

"पानी तो पिला दो।"

"कहां है पानी?" जगमोहन ठिठका।

"वो उधर मयूर जग है।"

जगमोहन ने उसे पानी पिलाया।

"सौरभ को भी पानी पिला दो।" आस्था कह उठी।

"उसे जरूरत नहीं है पानी की। वो शादीशुदा है। ब्याहता लोगों को प्यास ही कहां लगती है।"

"तुम तो शादी करने आए...।"

"शादी ही तो कर रहा हूं। देख नहीं रही, बाराती भी साथ आए हैं।" कहने के साथ ही जगमोहन ने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया।

आस्था तड़पकर रह गई।

जगमोहन उठा। मोहन्ती और पाण्डे आस्था सौरभ की कुर्सियों पर बैठे थे।

"अब किस बात का इंतजार करना है?" मोहन्ती ने कहा।

"दो घंटे इंतजार करके हमें ये देखना है कि भीतर कितने लोग हो सकते हैं। कुछ देर पहले पैसा यहां पहुंचा है, किसी और ने आना हुआ तो वो अगले एक घंटे में यहां पहुंच जाएगा। उसके बाद ही हमारा काम शुरू होगा।" जगमोहन बोला।

मोहन्ती ने पाण्डे को देखकर कहा---

"तुझे क्या लगता है देवराज चौहान सफल होगा।"

उसी पल जगमोहन दांत भींचे गुर्रा उठा---

"जुबान बंद रखो बेवकूफ। किसी का नाम मत लो। यहां बंधक भी हैं।"

मोहन्ती को अपनी गलती का एहसास हुआ और चुप कर गया।

40 मिनट बीते।

एकाएक जैकब कैंडी बुरी तरह चौंका। उसकी नजरें सामने अम्बे पेपर एजेंसी के दरवाजे पर ही थीं।

अभी-अभी पैंतालीस बरस का एक आदमी बाहर की तरफ से आया था। बाहर खड़े दोनों आदमियों ने उसे सलाम किया फिर वो दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। कैंडी उस आदमी को बखूबी पहचानता था।

वो उदय लोहरा था।

मुंबई अंडरवर्ल्ड डॉन वागले रमाकांत का सबसे खास आदमी।

उदय लोहरा यहां?

जैकब कैंडी को लगा जैसे ये खतरे वाला मामला है।

"जगमोहन...!" कैंडी ने चिंतित लहजे में, धीमे स्वर में जगमोहन को पुकारा।

जगमोहन फौरन वहां पहुंचा।

कैंडी ने जगमोहन को व्याकुल निगाहों से देखकर कहा---

"मैंने अभी-अभी उदय लोहरा को भीतर जाते देखा है।"

"उदय लोहरा कौन?" जगमोहन ने पूछा।

"वागले रमाकांत का राइट हैंड...।"

जगमोहन दो पलों के लिए तो ठगा-सा रह गया।

वागले रमाकांतका राइट हैंड, अम्बे पेपर एजेंसी में?

जबकि अभी-अभी वागले रमाकांत से पंगा होते-होते बचा था।

वागले रमाकांत का इन 180 करोड़ से क्या मतलब? उसका आदमी यहां क्या कर रहा है।

"सुना तुमने।" कैंडी ने पुनः उसे देखते हुए कहा।

"वागले रमाकांत का इस मामले से क्या मतलब?" जगमोहन अजीब से स्वर में बोला--- "हवाला किंग गानोरकर ये पैसा विक्रम मदावत को दे रहा है। वागले रमाकांत का नाम इस मामले में कहीं से भी नहीं है।"

"वही तो मैं कह रहा हूं कि फिर उदय लोहरा यहां क्या करने आया है?" कैंडी कह उठा।

उनकी बातें सुनकर पाण्डे और मोहन्ती भी करीब आ गए थे।

"ये मामला वागले रमाकांत से वास्ता रखता है तो हमें ये काम नहीं करना चाहिए।" पाण्डे कह उठा--- "वागले रमाकांत के हाथ बहुत लंबे हैं। अगर उससे कोई पंगा पड़ गया तो हम बच नहीं सकेंगे।"

"पर बाबू भाई ने तो वागले रमाकांत का नाम कहीं भी नहीं लिया।" मोहन्ती ने कहा।

"तुझे पूरा यकीन है कि वो उदय लोहरा ही था?" पाण्डे ने कैंडी से पूछा।

"मैं उदय लोहरा को पहचानने में भूल नहीं कर सकता। दो बार उसे करीब से देखा है।" कैंडी गंभीर स्वर में बोला।

जबकि जगमोहन होंठ भींचे खड़ा था।

"फिर तो हमें सोचकर आगे बढ़ना चाहिए कि ये मामला वागले रमाकांत से जुड़ा हो सकता है।" पाण्डे ने सबको देखा।

"उदय लोहरा खामख्वाह तो यहां आएगा नहीं, जबकि यहां करोड़ों का लेन-देन हो रहा है।" कैंडी ने कहा।

"दोस्तों!" मोहन्ती एकाएक शांत स्वर में कह उठा--- "हमें दस-दस करोड़ मिलने वाला है। इतनी बड़ी रकम हाथ आने के मौके बार-बार नहीं मिलते। अब ये किसी का भी मामला हो, हमें काम को हर हाल में करना है।"

कैंडी और पाण्डे की निगाह उस पर जा टिकी।

"पैसे से अगर वागले रमाकांत का वास्ता हुआ तो क्या वो हमें छोड़ेगा।" पाण्डे बोला--- "हमें खत्म कर...।"

"जरूरी तो नहीं कि पैसे से वागले रमाकांत का वास्ता हो। उदय लोहरा यहां किसी और काम से आया हो।" मोहन्ती ने कहा।

"शायद अभी चला भी जाए।" जैकब कैंडी बेचैनी से कह उठा।

जबकि जगमोहन एक कोने में पहुंचकर देवराज चौहान को फोन करने लगा। चेहरे पर गंभीरता थी और हाव-भाव में बेचैनी छाई स्पष्ट नजर आ रही थी।

■■■

देवराज चौहान ने फोन बंद किया। उसकी आंखें सिकुड़ चुकी थीं। पास खड़े भंडारे को देखा।

"क्या है?" उसे इस तरह देखते पाकर भंडारे ने पूछा।

"उदय लोहरा को जानता है?" देवराज चौहान के होंठों में कसाव आ गया था।

जगदीप भंडारे चौंका फिर तुरन्त ही कह उठा।

"हां, ये मुंबई के डॉन वागले रमाकांत का सबसे खास आदमी है। पर तुम क्यों पूछ रहे हो। जगमोहन ने फोन पर तुम्हें क्या कहा?"

"एक सौ अस्सी करोड़ की रकम कौन दे रहा है?" देवराज चौहान ने उसी स्वर में पूछा।

"तुम्हें पता तो है फिर क्यों...।"

"जवाब दो...।"

"अशोक गानोरकर दे रहा है 180 करोड़...।"

"किसे?"

"विक्रम मदावत को...।"

"तो ऐसे मौके पर वागले रमाकांत का सबसे खास आदमी उदय लोहरा, अम्बे पेपर एजेंसी में क्या कर रहा है।"

"क्या कह रहे हो?" भंडारे चौंका, जबकि उसका दिमाग तेजी से दौड़ पड़ा था--- "उदय लोहरा यहां...?"

"वो यहां तभी आएगा जब पैसा वो दे रहा हो या गानोरकर उसे दे रहा हो...।"

भंडारे की निगाह देवराज चौहान के चेहरे पर टिक गई थी। दिमाग तेजी से दौड़े जा रहा था।

"वागले रमाकांत का इस मामले से कोई मतलब नहीं।" भंडारे कह उठा।

"तो उदय लोहरा यहां क्या कर रहा है?"

"यहां क्या कर रहा है, मैं नहीं जानता। इतना जानता हूं कि हम जो कर रहे हैं, वो उसका मामला नहीं है।"

"उदय लोहरा जैसा इंसान बिना वजह यहां नहीं आने वाला।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।

"वो अपने किसी काम से आया...।"

"तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो।"

"मैं क्यों छिपाऊंगा। हम मिलकर काम कर रहे हैं।" भंडारे ने तेज स्वर में कहा।

"उदय लोहरा को इस वक्त यहां नहीं होना चाहिए था। बाबू भाई ने भी मुझे बताया उसके हिसाब से वागले रमाकांत का इस मामले से कोई वास्ता नहीं है। ठीक कहा ना मैंने?"

"सही कहा। वागले रमाकांत का इस मामले से कोई वास्ता नहीं है।" भंडारे ने तुरन्त सिर हिलाया।

"फिर उदय लोहरा यहां क्यों आया?"

भंडारे झल्लाने का दिखावा करता कह उठा---

"तुम वागले रमाकांत या उदय लोहरा को इतना भाव क्यों दे रहे हो? डरते हो उससे?"

"मेरा सवाल अपनी जगह खड़ा है कि उदय लोहरा, इस मौके पर यहां क्यों आया?"

"भाड़ में गया उदय लोहरा...।"

"वागले रमाकांत का इस मामले से कोई वास्ता है तो बता दो।" देवराज चौहान बोला।

"कोई वास्ता नहीं है। तुम भी जानते हो कि कोई वास्ता नहीं है।" भंडारे ने तीखे स्वर में कहा।

देवराज चौहान की आंखें अभी तक सिकुड़ी हुई थीं।

"वो जा रहा है।" भंडारे एकाएक कह उठा--- "उदय लोहरा कार में बैठ रहा है देख लो।"

"सफ़ेद कमीज वाला।" देवराज चौहान की निगाह पार्किंग के पास खड़ी कार में बैठते व्यक्ति पर नजरें टिकी।

"वो ही...।"

तभी देवराज चौहान के हाथ में दबा मोबाइल बजा। उसने बात की।

"उदय लोहरा चला गया है।" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"सफेद कमीज पहनी थी उसने?"

"पूछ के बताता हूं।" चंद पल की चुप्पी के बाद जगमोहन की आवाज पुनः आई--- "हां, सफ़ेद कमीज ही पहनी थी। पूछा भंडारे से कि उदय लोहरा यहां क्यों आया था। भंडारे को पता होना चाहिए कि...।"

"वो कहता है उसे नहीं पता।"

"लेकिन ये अजीब बात है। अशोक गानोरकर, विक्रम मदावत को पैसे दे रहा है तो वागले रमाकांत का आदमी यहां क्यों आएगा?"

"भंडारे के साथ यही बात चल रही है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

"कहीं इस मामले में वागले रमाकांत का दखल तो नहीं?" उधर से जगमोहन ने पूछा।

"भंडारे कहता है नहीं...।"

"तो उदय लोहरा यहां क्यों आया?"

"तुम अम्बे पेपर एजेंसी पर नजर रखो और वहां आने-जाने वाले के बारे में मुझे बताते रहो।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद किया और भंडारे से बोला--- "तुम्हारे ख्याल में उदय लोहरा यहां क्यों आया?"

"मुझे क्या पता। वो अपने ही किसी काम से यहां आया होगा। ये इत्तेफाक ही है कि वो ऐसे मौके पर यहां पहुंचा और अब यहां से चला भी गया। अम्बे पेपर एजेंसी की आड़ में कोई तगड़ा दो नंबर का काम चल रहा है, तभी तो यहां अंडरवर्ल्ड के लोगों का आना-जाना है। वागले रमाकांत का इस मामले से कोई मतलब नहीं।"

देवराज चौहान भंडारे को देखता रहा।

उदय लोहरा वाली कार दाऊद मैनशन की चारदीवारी से बाहर जा चुकी थी।

"तुम वागले रमाकांत को जानते हो?" भंडारे ने सामान्य स्वर में पूछा।

"थोड़ा-सा।"

"अगर इस पैसे के लेन-देन में उसका दखल हो तो क्या तुम ये काम करते?"

"कभी नहीं...।"

"डरते हो वागले रमाकांत से...।" भंडारे मुस्कुरा पड़ा।

"अंडरवर्ल्ड के दादाओ की दौलत पर मैं हाथ डालने लगा तो आए दिन मेरे झगड़े होने लगेंगे। मैं ऐसे काम नहीं करता कि काम के बाद झगड़ों की नौबत आये। बाजार में पैसा-ही-पैसा है। कहीं भी हाथ मार लो। अंडरवर्ल्ड के लोगों की दौलत पर हाथ डालना हर तरफ से गलत बात होगी। ऐसा काम मैंने आज तक नहीं किया। अशोक गानोरकर या विक्रम मदावत अंडरवर्ल्ड के लोग नहीं हैं। फिर ये पैसा हथियारों को बेचकर लिया जा रहा है ऐसे में...।"

"छोड़ो ये बातें। मुझ पर यकीन करो, वागले रमाकांत का इस मामले से कोई दखल नहीं।"

देवराज चौहान फोन पर नंबर मिलाने लगा।

"किसे?" भंडारे ने जल्दी से पूछा। उसे लगा कि कहीं देवराज चौहान वागले रमाकांत से बात करने ना जा रहा हो।

"बाबू भाई से बात करूंगा।"

भंडारे ने मन-ही-मन चैन की सांस ली।

देवराज चौहान की बाबू भाई से बात हो गई।

"कुछ देर पहले अम्बे पेपर एजेंसी में उदय लोहरा आया था।" देवराज चौहान ने कहा।

"वागले रमाकांत का आदमी है ये।" दूसरी तरफ से बाबूभाई ने सहज स्वर में कहा।

"हां। ये यहां क्या करने आया था?"

"इसका अपना कोई काम होगा। हमारे मामले से वागले रमाकांत का कोई मतलब नहीं है।"

"सही कह रहे हो?"

"गलत क्यों कहूंगा। ये मामला वागले रमाकांत का होता तो मैं इसमें हाथ क्यों डालता।"

देवराज चौहान कुछ ना कह सका।

"वहां काम कैसा चल रहा है? तुम लोगों ने कुछ किया या नहीं?" बाबू भाई की आवाज कानों में पड़ी।

"कुछ देर बाद हमारा काम शुरू होगा। अभी वहां नजर रखे हुए हैं।" देवराज चौहान बोला।

"भंडारे को फोन देना।"

देवराज चौहान ने भंडारे को मोबाइल थमा दिया।

"हैलो...।"

"भंडारे।" इस बार बाबू भाई की फुसफुसाती आवाज कानों में पड़ी--- "तू जो देवराज चौहान के साथ करने वाला है मुझे उसकी चिंता है। मेरी मान तो ऐसा कुछ मत करना। देवराज चौहान से पंगा खड़ा मत करना। वरना बाद में मुसीबत...।"

"तुम मजे करो बाबू भाई।" भंडारे शांत स्वर में बोला--- "सारा काम बढ़िया ढंग से होगा।" भंडारे ने कहकर फोन बंद किया और देवराज चौहान को थमाता बोला--- "बाबू भाई को चिंता है हमारे काम की।"

■■■

डेढ़ घंटा बीत गया।

जगमोहन का फोन आया। देवराज चौहान ने बात की।

"उदय लोहरा का क्या रहा?" जगमोहन ने उधर से पूछा।

"बाबू भाई से बात की। वो कहता है इस मामले से वागले रमाकांत का कोई वास्ता नहीं है...।"

"तो वो अपने ही किसी काम के वास्ते अम्बे पेपर एजेंसी में आया।"

"ऐसा ही होगा।"

"यहां की पोजीशन वही है, जो पहले थी। सिर्फ उदय लोहरा ही वहां आया और दस मिनट बाद चला गया था। इसके अलावा ना तो कोई भीतर से निकला, ना ही कोई बाहर से आया। वो दो आदमी अभी भी दरवाजे के पास बाहर खड़े हैं। गैलरी से लोग आ-जा रहे हैं। मेरे ख्याल में भीतर नोटों की गड्डियों की गिनती चल रही है।" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"इन हालात में तो लगता है कि अब कोई आने-जाने वाला नहीं।" देवराज चौहान बोला--- "मेरे ख्याल में हमें काम शुरू कर देना चाहिए। हम वहां पहुंच रहे हैं।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।

भंडारे देवराज चौहान को देखने लगा था।

"चलो।" देवराज चौहान बोला--- "काम शुरू करें।"

दोनों दाऊद मैनशन के प्रवेश गेट की तरफ बढ़ गए।

"मुझे सब कुछ अजीब-सा लग रहा है।" साथ चलता भंडारे बोला।

"क्यों?"

"बिना हथियारों के, मेरा मतलब है कि गोली चलाए बिना 180 करोड़ की डकैती करने जा रहे हैं।"

"किसी भी स्थिति में गोली मत चलाना।"

"अगर उन्होंने गोली चलाई तो...।"

"हम उन्हें गोली चलाने का मौका ही नहीं देंगे। जैसे समझाया है, सब कुछ वैसे ही करना।"

भंडारे होंठ भींचकर रह गया।

वे सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाने लगे।

अन्य लोग भी आ-जा रहे थे। यहां हर समय भीड़ रहती थी।

सीढ़ियां तय करके वे तीसरी मंजिल पर पहुंचे और सामने की गैलरी में बढ़ गए। उन्हें एक ऑफिस के बाहर खड़े दो आदमी दिखने लगे थे जो कि बातें करने के अंदाज में खड़े थे।

"वो ही अम्बे पेपर एजेंसी है जहां दो आदमी खड़े हैं।" देवराज चौहान बोला।

"मुझे यकीन नहीं आता कि हम उन पर आसानी से काबू पा लेंगे। गोलियां चलाकर तो उनसे फौरन निपट लेते।"

"इन्हें संभालने में कोई समस्या नहीं आएगी।"

दोनों उनके पास पहुंचते जा रहे थे।

इस वक्त गैलरी में चार-पांच लोग थे जो आ-जा रहे थे।

पास पहुंचते ही देवराज चौहान ने अपने अंदाज में रिवाल्वर निकाली और एक की कमर से इस तरह लगा दी कि गैलरी में से जाता कोई भी उसकी हरकत को ना देख सके।

भंडारे ने भी दूसरे की कमर से ऐसे ही रिवाल्वर की नाल सटा दी।

"हिलना मत।" भंडारे धीमे स्वर में गुर्राया।

"आराम से खड़े रहो। जैसे कुछ हुआ ही न हो।" देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला--- "यहां पर हमारे बहुत से आदमी हैं ये जगह घेरी जा चुकी है। हमारी मर्जी के बिना जरा भी शरारत की तो मरोगे।"

"कौन हो तुम लोग, ये क्या कर...।" एक ने कहना चाहा।

"खामोश रहो।" दांत भींचे देवराज चौहान ने कहा--- "सामने वाले ऑफिस में चलो...।"

"तुम लोग मरोगे।" दूसरा कह उठा।

"चुप कर साले।" भंडारे ने कड़वे स्वर में कहा--- "अभी गोली चलाऊं क्या?"

दोनों ये सब हुआ पाकर सकते की हालत में थे।

"चल...।" भंडारे गुर्राया।

उन दोनों के लिए वे सामने एडवरटाइजिंग के ऑफिस की तरफ बढ़े।

गैलरी आठ फीट चौड़ी थी।

वे इस तरह रिवाल्वर लगाये हुए थे कि दो-तीन लोग पास से निकले, उन्हें इस बात का जरा भी आभास नहीं हो सका कि यहां पर क्या हो रहा है।

वे एडवरटाइजिंग के दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि फौरन दरवाजा खुल गया।

दरवाजा खोलने वाला मोहन्ती था।

वे दोनों को लिए भीतर प्रवेश हुए और देवराज चौहान बोला---

"बांध दो इन्हें...।" देवराज चौहान ने उस ऑफिस का जायजा लिया।

मोहन्ती, कैंडी और पाण्डे जगमोहन के साथ मिलकर उन्हें बांधने लगे।

"गानोरकर साहब तुम लोगों को नहीं छोड़ेंगे, वो...।"

तभी मोहन्ती ने रिवाल्वर निकाली और दांत भींचकर रिवाल्वर का दस्ता बोलने वाले की कनपटी पर दे मारा। उसके होंठों से कराह निकली और वो नीचे जा गिरा। फिर नहीं हिला।

"मर गया?" कैंडी बोला।

"बेहोश हुआ है।" मोहन्ती ने कहा और दूसरे के सिर के पिछले हिस्से में भी दस्ते की तगड़ी चोट मारी।

वो भी बेहोश होकर नीचे जा गिरा।

उन्हें कसकर इस तरह बांधा गया कि होश आने पर वे खुद को बेबस पाएं।

पांच मिनट में ही वो इस काम से फारिग हो गए।

"हम जा रहे हैं।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुम तीनों कुछ मिनट बाद आ जाना।" फिर जगमोहन ने कहा--- "तुम यहां बंधे लोगों पर नजर रखोगे और अम्बे पेपर एजेंसी में कोई आ पहुंचता है तो उसे बाहर का बाहर ही संभाल लोगे। कोशिश करोगे कि वो भीतर ना आ सके।"

जगमोहन ने अपना सख्त हो चुका चेहरा हिलाया।

देवराज चौहान और भंडारे बाहर निकले और अम्बे पेपर एजेंसी के बंद दरवाजे के बाहर जा खड़े हुए। दोनों के चेहरों पर शांति के भाव थे। नजरें इधर-उधर फिर रही थीं।

दोनों की नजरें मिलीं। भंडारे बोला---

"बहुत आसानी से काम हो गया।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा। आराम से खड़ा रहा। गैलरी से लोगों का आना-जाना जारी था।

दो मिनट भी नहीं बीते कि पाण्डे, कैंडी, मोहन्ती एडवरटाइजिंग के ऑफिस से बाहर निकले और सीधी उनके पास आ पहुंचे। सबकी नजरें मिलीं। देवराज चौहान शांत था जबकि बाकी चारों उत्तेजना में लग रहे थे।

"जैसे समझाया है, वैसे ही काम करना।" देवराज चौहान धीमे स्वर में बोला--- "हथियार सिर्फ दिखाने हैं, इस्तेमाल नहीं करने हैं और किसी की भी आवाज ऊंची ना हो। शोर ऑफिस से बाहर नहीं जाना चाहिए। हम आसानी से उन पर काबू पा सकते हैं। वैसे भी यहां दो नंबर का काम हो रहा है। वो लोग नहीं चाहेंगे कि शोर उठे।"

"अगर किसी ने गोली चलाने की कोशिश की तो मैं साले के सिर में गोली मारूंगा।" मोहन्ती ने दांत भींचकर धीमे से कहा।

"अपने पर काबू रखो। हम नोट लेने आए हैं, लाशें बिछाने नहीं।" देवराज चौहान का स्वर सख्त हुआ।

मोहन्ती खामोश रहा।

"जाओ।" देवराज चौहान बोला।

तीनों दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गए।

दरवाजा पुनः बंद हो गया।

देवराज चौहान और भंडारे की निगाह गैलरी में गई फिर आपस में नजरें मिलीं। एकाएक दोनों पलटे और वे भी दरवाजा धकेलते हुए भीतर प्रवेश कर गए।

■■■

आज रिसेप्शनिस्ट नहीं थी वहां। अम्बेलाल खुद ही रिसेप्शन पर बैठा अखबार पढ़ रहा था कि तीनों को आनन-फानन इस तरह भीतर आते देखकर चौंक पड़ा। हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। हाथ जेब की तरफ बढ़ा।

तब तक तीनों के हाथों में रिवाल्वरें आ चुकी थीं।

मोहन्ती ने आगे बढ़कर रिसेप्शन के उस पार खड़े अम्बेलाल पर रिवाल्वर तान दी। चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी। अम्बेलाल का हाथ जेब में पड़ा, पड़ा ही रह गया था।

"हिल मत साले।" मोहन्ती धीमे स्वर में दांत किटकिटाकर कह उठा।

"क...कौन हो तुम लोग?" अम्बेलाल के होंठों से निकला।

"चुप, जुबान खोली तो, गोली मार दूंगा।" मोहन्ती की वहशी गुर्राहट धीमी थी।

तब तक देवराज चौहान और भंडारे भी भीतर आ चुके थे।

"हाथ बाहर निकाल। खाली हाथ, रिवाल्वर मत निकालना।" मोहन्ती ने दांत पीसे।

अम्बेलाल ने खाली हाथ बाहर निकाला।

तब तक पाण्डे रिसेप्शन के पीछे पहुंच चुका था। उसने अम्बेलाल की रिवाल्वर निकालकर अपनी जेब में रखी। अम्बेलाल उन पांचों को देखकर पूरी तरह घबरा चुका था।

मोहन्ती ने अभी तक उस पर रिवाल्वर तान रखी थी। बोला---

"नोट कहां हैं?"

"मेरे पास तो पचास हजार रुपया...।"

"उल्लू के पट्ठे करोड़ों की बात कर रहा हूं, जो डिब्बों में भरकर आए हैं।"

अम्बेलाल ने रिसेप्शन के पास के दरवाजे की तरफ इशारा किया।

तभी देवराज चौहान करीब आकर बोला---

"कितने लोग हैं भीतर?"

"अ... आठ-दस होंगे।" अम्बेलाल ने डरे हुए कमजोर स्वर में कहा।

पाण्डे उसकी कलाई पकड़े उसे रिसेप्शन के बाहर निकाल लाया और बोला---

"हम तेरे को बाहर ले जा रहे हैं। चुप रहना। चालाकी मत करना। मरना हो तो मुंह खोलना।"

अम्बेलाल ने सिर हिला दिया।

फिर अम्बेलाल को पाण्डे और कैंडी बाहर ले गए। उसे जगमोहन के पास छोड़ने।

देवराज चौहान, भंडारे और मोहन्ती शांत खड़े रहे। एक-एक पल बीतता भारी पड़ रहा था। तीसरे मिनट पाण्डे और कैंडी ने भीतर प्रवेश किया और पुनः जेब से रिवाल्वर निकाल लीं।

सबके चेहरे गम्भीर और कठोर थे।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर थामें आने का इशारा किया और बंद दरवाजे की तरफ बढ़ा। देखते-ही-देखते उसने दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश करता चला गया। चारों उसके पीछे थे। ये ऑफिस जैसा कमरा था। यहां गत्ते के तीन बक्से रखे नजर आ रहे थे। दो आदमी थे और टेबल पर हजार-हजार के नोटों की गड्डियों का ढेर लगा हुआ था और वो दोनों आदमी गाड़ियों को वापस डिब्बे में लगा रहे थे कि उन लोगों को इस तरह आया पाकर बुरी तरह चौंके।

इससे पहले कि उनके मुंह से कोई शब्द निकलता, पाण्डे और कैंडी की रिवाल्वरें उनके साथ सट चुकी थीं। वे मुंह फाड़े उन्हें देखते रह गए। तभी मोहन्ती उनके पीछे पहुंचा और इस तरह दोनों के सिर पर रिवाल्वर के दस्ते की चोट मारी कि बेहोश होने से पहले चीख ना सके। पाण्डे और कैंडी ने उन्हें गिरने से पहले ही थामा और आहिस्ता से नीचे लिटा दिया।

सारा काम बेहद खामोशी से हुआ था।

"नोट देखकर तो मजा आ गया।" मोहन्ती दांत फाड़े टेबल पर पड़ी गड्डियों को देखता कह उठा।

"तुम यहीं रहो।" देवराज चौहान कैंडी से बोला--- "हम भीतर जा रहे हैं।"

देवराज चौहान अलमारी के साथ लगे दरवाजे की तरफ बढ़ गया। बाकी तीनों उसके साथ थे। बाबू भाई ने यहां का सारा नक्शा उसे बता दिया था कि कहां पर क्या है।

देवराज चौहान ने तेजी से दरवाजा खोला और रिवाल्वर थामें भीतर प्रवेश करता चला गया।

भंडारे, कैंडी और मोहन्ती पीछे थे।

भंडारे तेजी से दूसरे कमरे की तरफ बढ़ गया जिसका दरवाजा खोला था।

कैंडी भंडारे के पीछे चल दिया।

कैमरे में चार लोग और तीन गत्ते के डिब्बे रखे नजर आ रहे थे। नोटों की गड्डियां फर्श पर करीने से लगा रखी थीं। वो सब व्यस्त थे कि दरवाजा खोलने की आहट से पलटे। अजनबी चेहरों को देखकर चौंके।

तब तक देवराज चौहान और मोहन्ती ने उन पर रिवाल्वर तान दी थीं।

"कोई हिले नहीं।" देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला--- "ये पूरी जगह हमारे कब्जे में है। इस कमरे के बाहर भी हमारे आदमी हैं। हमसे मुकाबला करने की सोचना भी नहीं, वरना मारे जाओगे।"

पीछे खुले दरवाजे से, दूसरे कमरे में मौजूद पाण्डे नजर आ रहा था।

"कौन हो तुम लोग...?"

"जुबान बंद।" मोहन्ती रिवाल्वर ताने गुर्रा उठा--- "जो मरना चाहता हो, वही मुंह खोले। अपने हाथ ऊपर करो और दीवार की तरफ घूम जाओ। तुम लोगों को सिर्फ बेहोश किया...।"

जो व्यक्ति देवराज चौहान के तीन कदमों के फासले पर खड़ा था। उसने देवराज चौहान पर छलांग लगा दी।

ये देख, एक ने रिवाल्वर निकालने के लिए जेब की तरफ हाथ बढ़ाया।

"खबरदार।" मोहन्ती दांत पीस उठा--- "मैं तुम्हें शूट कर दूंगा।"

जब में जाता उस व्यक्ति का हाथ रुक गया।

"हाथ ऊपर करो, सारे...।" मोहन्ती बहुत सतर्क था उन लोगों से।

उधर जब वो व्यक्ति देवराज चौहान से टकराया तो, इसकी आशा नहीं थी देवराज चौहान को। देवराज चौहान की बांह को झटका लगा और रिवाल्वर उसके हाथ से छूट गई। वो आदमी देवराज चौहान से गुत्थम-गुत्था हो गया।

मौका पाते ही देवराज चौहान ने जोरों का घूंसा उसके पेट में मारा। वो कराकर दोहरा हो गया। देवराज चौहान ने आगे बढ़कर नीचे गिरी अपनी रिवाल्वर उठाई और तेजी से वापस लपककर आया। वो पेट छोड़कर सीधा हो गया था। परन्तु पास पहुंचते ही देवराज चौहान ने रिवाल्वर की नाल उसकी कनपटी पर मारी।

वो चीखा।

दूसरी चोट में वो बेहोश होता, नीचे लुढ़कता चला गया।

मोहन्ती बाकी तीनों पर रिवाल्वर ताने खड़ा था।

देवराज चौहान का चेहरा कठोर हुआ पड़ा था। वो आगे बढ़ा और एक-एक करके उनकी तलाशी लेने लगा। सिर्फ एक के पास से ही रिवाल्वर मिली। उसके बाद उनके मुंह दीवार की तरफ करके सिर पर चोट मारकर उन्हें बेहोश कर दिया गया। ये सारा काम पांच-सात मिनट में ही निपट गया था।

भंडारे और कैंडी के सामने कोई समस्या नहीं आई।

उस कमरे में दो ही थे जो नोटों की गड्डियों की गिनती में लगे थे। उन दोनों पर आसानी से काबू पा लिया था और बेहोश कर दिया। कुल पन्द्रह मिनट में ये सारी जगह उनके कब्जे में थी।

मोहन्ती वहां आया।

"सब ठीक है?" उसने पूछा।

"एकदम बढ़िया।" भंडारे होंठ भींचे कह उठा।

"इन दोनों को खींचकर दूसरे कमरे में ले...।"

"यहीं ठीक है।" कैंडी ने कहा।

"देवराज चौहान ने ऐसा करने को बोला है। जल्दी करो, यहां नोट बहुत हैं।" मोहन्ती ने दांत फाड़े।

भंडारे और कैंडी उन दोनों को वहां से पकड़कर खींचते हुए दूसरे कमरे में आए।

तब तक पाण्डे भी उस कमरे के दोनों बेहोशों को वहां पहुंचा चुका था।

"इन पर हमें कड़ी नजर रखनी होगी कि किसी को होश ना आ जाए।" भंडारे बोला।

"मैं नजर रखूंगा इन पर।" देवराज चौहान बोला--- "हमारे पास वक्त कम है। बाकी का काम जल्दी से निपटाओ। कोई भी यहां आ सकता है। गड्डियों को वापस बक्से में रखो और भंडारे तुम एंबूलेंस को इमारत के बाहर निकलने वाले रास्ते पर लगा दो। तुम एंबूलेंस के पास ही रहोगे और अपनी निगरानी में बक्सों को रखवाओगे। सतर्क रहना, वहां कोई भी खतरा आ सकता है।"

"ऐसा कुछ हुआ तो मैं संभाल लूंगा।" भंडारे बोला--- "ये बक्से बड़े हैं और भारी हैं। एक बक्सा दो उठाएंगे। ये यहां पर तीन हैं। तुम्हें जगमोहन को यहां बुला लेना चाहिए...।"

"अभी बुलाता हूं। तुम्हें एंबूलेंस दरवाजे के सामने लगाओ।"

भंडारे तेजी से बाहर निकलता चला गया।

पाण्डे, कैंडी और मोहन्ती उन गड्डियों को वापस बक्सों में डाल रहे थे। जो बाहर रखी हुई थीं।

देवराज चौहान ने जगमोहन से बात की।

"यहां का काम ठीक-ठाक निपट गया है।"

"गुड।" जगमोहन की प्रसन्नता भरी आवाज कानों में पड़ी--- "यहां भी सब ठीक है।"

"अब तुम्हें इधर आना होगा। आते वक्त उस ऑफिस का शटर आधे से ज्यादा नीचे गिरा देना।"

"मैं अभी आता हूं।"

देवराज चौहान फोन बंद करके उन तीनों से बोला।

"पचास मिनट लगे थे उन्हें इन बक्सों को ऊपर पहुंचाने में। परन्तु नीचे ले जाने का काम आसान है। मैं चाहता हूं तुम लोग पन्द्रह मिनट में सब बक्से नीचे खड़ी एंबूलेंस में पहुंचा दो। कोई आ गया तो हालात बिगड़ सकते हैं।"

"पन्द्रह क्या चौदह मिनट में ही काम निपटा देंगे।" पाण्डे कह उठा।

"बहुत तगड़ा माल है। कितना होगा ये सब?" मोहन्ती ने देवराज चौहान को देखा।

"भंडारे से पूछना। जल्दी करो। बक्सों को नीचे ले जाना शुरु कर दो।"

तभी जगमोहन भी वहां आ पहुंचा।

■■■

भंडारे नीचे एंबूलेंस के पास खड़ा था। उसकी आंखों में तीव्र चमक लहरा रही थी। बारह मिनट में सात बक्से एंबूलेंस के भीतर रखे जा चुके थे। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि गोलियां चलाए बिना काम हो गया है। परन्तु अभी आगे और काम बाकी था। उसने इस वक्त के लिए जो योजना बनाई थी, उस पर अब काम होना था। उसके द्वारा बिछाए जाल ने अब पंख फैलाए थे।

लंच का वक्त हो रहा था। लोग अब बाहर ज्यादा दिखने लगे थे।

तभी नीली वर्दी में एक गार्ड वहां पहुंचा। भंडारे की निगाह उस पर जा टिकी।

"सलाम साहब!" गार्ड बोला--- "ये क्या सामान ले जाया जा रहा है?"

"क्यों?"

"एंबूलेंस में तो पेशंट जाते हैं। सामान जाते पहली बार देख रहा हूं।" गार्ड ने कहा।

"ये हॉस्पिटल का ही सामान है। विदेश से मंगवाया है।" भंडारे ने मुस्कुराकर कहा।

गार्ड सिर हिलाता चला गया जैसा कि ये बात पूछकर उसने अपनी ड्यूटी पूरी कर ली हो।

कैंडी और पाण्डे आठवां बक्सा संभाले आ पहुंचे।

उस डिब्बे को भी एंबूलेंस में रख दिया गया। भंडारे भी भीतर आ गया। उनकी नजरें मिलीं।

"तुम दोनों यहीं रहो। अब बाहर निकलने की जरूरत नहीं। जगमोहन और मोहन्ती आखिरी बक्सा ला रहे हैं। जगमोहन को दवा लेना। साले के सिर पर चोट मारकर बेहोश कर देना। मैं स्टेयरिंग संभालने जा रहा हूं। वो बक्से के साथ ज्यों ही एंबूलेंस के भीतर आएंगे मैं चल दूंगा।" भंडारे गम्भीर स्वर में कह उठा।

"चिंता मत कर भंडारे!" पाण्डे ने दांत भींचकर कहा--- "ये तो हमारे लिए मामूली-सा काम है।"

भंडारे आगे बढ़कर स्टेयरिंग सीट पर जा बैठा। बेचैनी उभर आई थी मन में कि जल्दी से आखिरी बक्सा आ जाए। एक बार तो मन में आया एंबूलेंस भगा ले जाए।

आखिरी बक्सा आ गया।

जगमोहन और मोहन्ती ले आए थे उसे।

एंबूलेंस के चौड़े दरवाजे से बक्सा भीतर सरकाया गया। कैंडी और पाण्डे ने बक्सा भीतर खींचा।

"आओ...।" मोहन्ती ने जगमोहन से कहा।

"देवराज चौहान को आने दो वो आ ही रहा होगा।" जगमोहन बोला।

"वो आ जाएगा। तुम्हारा इस तरह बाहर खड़े होना ठीक नहीं। भीतर आकर भी तो इंतजार कर सकते हो।"

शक की कोई वजह नहीं थी।

जगमोहन भीतर आ गया। मोहन्ती ने दरवाजा बंद किया। तभी कैंडी ने रिवाल्वर निकाली और नाल की तरफ से पकड़कर दस्ते की चोट जगमोहन के पिछले हिस्से में मारी। चूंकि कैंडी जगमोहन के पीछे था, इसलिए वो कैंडी की हरकत ना देख सका। जगमोहन के होंठों से तेज चीख निकली। दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया। तभी मोहन्ती ने उसकी दोनों बांहों को झटककर नीचे किया तो उसी पल कैंडी ने एक और चोट मार दी।

जगमोहन की आंखों के सामने लाल-पीले तारे नाच उठे। घुटने मुड़ते चले गए। इससे पहले कि वो नीचे गिरता पाण्डे ने उसे संभाल लिया और एंबूलेंस के फर्श पर लिटा दिया।

एंबूलेंस तो तभी चल पड़ी थी जब जगमोहन ने भीतर प्रवेश किया था।

"काम हो गया भंडारे!" पाण्डे कह उठा--- "अब हमारे बारह-बारह करोड़ पक्के।"

एंबूलेंस चलाता भंडारे हंस पड़ा।

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इसके एक-डेढ़ मिनट बाद ही देवराज चौहान भीतर से बाहर निकला था। परन्तु एंबूलेंस को कहीं भी ना पाकर ठिठक-सा गया। मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। चंद पल तो अजीब सी हालत में खड़ा रहा।

अगले ही पल मस्तिष्क को एक नया झटका लगा।

आते-जाते लोगों की भीड़ में एक कार ने भीतर प्रवेश किया और सामने ही आ रुकी। उसका पीछे वाला दरवाजा खुला और उदय लोहरा बाहर निकला और इमारत की तरफ बढ़ गया। कार पार्किंग की तरफ चली गई।

उदय लोहरा फिर यहां?

देवराज चौहान हक्का-बक्का रह गया। मस्तिष्क में एक ही विचार उठा कि 180 करोड़ से यकीनन वागले रमाकांत का वास्ता है। तभी तो उसका ख़ास आदमी बार-बार यहां आ रहा है। यहां रुकना खतरे से खाली नहीं था। देवराज चौहान तेजी से वहां से बाहर निकलता चला गया और उस तरफ चलने लगा जिधर अपनी कार खड़ी की थी। चलते-चलते उसने मोबाइल निकाला और भंडारे का नंबर मिलाकर फोन कान से लगा लिया।

दूसरी तरफ बेल गई। जाती रही। परन्तु कॉल रिसीव नहीं की गई।

देवराज चौहान के दांत भिंच गए। चेहरे पर कठोरता आ ठहरी। उसने दोबारा भंडारे को फोन किया तब भी ऐसा ही रहा। कॉल रिसीव नहीं की गई।

देवराज चौहान ने फुटपाथ पर चलते हुए बाबू भाई को फोन किया।

परन्तु बाबू भाई का फोन स्विच ऑफ आ रहा था।

देवराज चौहान को समझते देर न लगी कि गड़बड़ हो चुकी है। उसे उन लोगों ने अपने जाल में फंसाकर इस्तेमाल किया है। परन्तु उसे जगमोहन की चिंता थी कि उन लोगों ने उसके साथ क्या किया होगा?

देवराज चौहान की आंखों में दरिंदगी भर आई थी।

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भंडारे एंबूलेंस को ज्यादा तेज नहीं चला रहा था। सामान्य रफ्तार रखे हुए था। एंबूलेंस होने का उसे ये फायदा मिल रहा था कि लालबत्ती पर उसे रुकना नहीं पड़ रहा था और ट्रैफिक पुलिस उसे ना रोक रही थी। जब भी जरूरत पड़ती एंबूलेंस का सायरन बजा देता। एंबूलेंस के फर्श पर नोटों से भरे नौ बॉक्स पड़े थे। एक तरफ जगमोहन बेहोश पड़ा था। मोहन्ती, जैकब कैंडी और पाण्डे वैन की दीवार से टेक लगाए बैठे थे। उनके चेहरों पर खुशी फूट रही थी कि उन्हें बारह-बारह करोड़ मिलेगा। इतनी रकम एक साथ मिलने की तो उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था।

तभी एंबूलेंस चलाता भंडारे ऊंचे स्वर में बोला---

"मैं अभी एंबूलेंस रोकने वाला हूं। वहां मेरे चार आदमी खड़े होंगे। जगमोहन को उनके हवाले कर देना।"

"क्या मतलब?" पाण्डे उठ खड़ा हुआ।

"जगमोहन को भी तो संभालना है ना।" भंडारे ने कहा--- "हम नोटों को संभालेंगे या इसे। अभी इसे होश आ जाएगा।"

"तो तुमने जगमोहन के लिए पहले ही तैयारी कर रखी है।" कैंडी भी खड़ा हो गया।"

"रखनी पड़ती है।"

"तुम हमें हमारा हिस्सा दो।" मोहन्ती ने कहा--- "हम अपने रास्ते पर लगें।"

"जगमोहन के बाद तुम लोगों को हिस्सा दूंगा।"

"अभी?" पाण्डे के होंठों से निकला।

"हां। मैं खुद चाहता हूं कि तुम लोगों का काम निपट जाए।"

तीनों के चेहरे और भी खुशी से चमक उठे।

तभी भंडारे ने एक मोड़ काटा तो सड़क के किनारे एक कार खड़ी दिखाई दी। दो आदमी पास खड़े थे और दो कार के भीतर बैठे थे। भंडारे ने एंबूलेंस को कार के पास ले जा रोका और कहा---

"बाहर मेरे आदमी हैं। जगमोहन को उनके हवाले कर दो।

एंबूलेंस का दरवाजा खोला गया। जगमोहन को बाहर खड़े दोनों आदमियों को थमा दिया। वे बेहोश जगमोहन को कंधे पर डाले कार की तरफ बढ़ गए। एंबूलेंस का दरवाजा बंद हो गया। भंडारे ने एंबूलेंस आगे बढ़ा दी।

"देवराज चौहान अब हमें ढूंढेगा।" पाण्डे बोला।

"हम उनके हाथ नहीं आने वाले।" मोहन्ती ने कहा।

"वो तुम्हें ढूंढेगा भंडारे!" कैंडी ने कहा--- "उसके हाथ लग गए तो तुम गए।"

"वो मुझ तक कभी भी नहीं पहुंच सकेगा।" भंडारे खतरनाक स्वर में कह उठा--- "पहुंच गया तो खुद ही मरेगा।"

"देवराज चौहान खतरनाक है।"

"मेरे से ज्यादा नहीं। साला बहुत बड़ा हिस्सा मांग रहा था। अब समझ आ गई होगी उसे कि वो किस लायक है।"

"तुम हमारा हिस्सा दो, हम चलें।" मोहन्ती ने कहा।

"नोट कहां डालोगे?" भंडारे का पूरा ध्यान एंबूलेंस चलाने पर था।

तीनों ने एक-दूसरे को देखा।

"बात तो सही है कि बारह-बारह करोड़ हम कहां डालेंगे?" कैंडी कह उठा।

"चिंता मत करो। मैंने सोच रखा है।" भंडारे बोला।

"क्या?"

"मैं अभी सड़क किनारे एंबूलेंस रोकूंगा। वहां सामने ही सूटकेसों की दुकान है। वहां से तीन बड़े सूटकेस खरीद लाओगे तुम तीनों और फिर उसमें बारह-बारह करोड़ भरकर निकल जाओगे। बहुत तगड़ा माल मिल रहा है तुम लोगों को। तुम लोगों की हर रात जश्न की रात होगी। हर दिन दिवाली होगी।" भंडारे ठहाका मारकर हंस पड़ा।

"तुम्हारे भी तो मजे हैं, हमसे ज्यादा ही मिलेगा तुम्हें।" मोहन्ती भी हंसा।

"कितना माल होगा ये सब कैंडी ने पूछा।

"पता नहीं, मेरे ख्याल में पचास करोड़ तो होगा।" भंडारे ने यूं ही बात टाली।

"मुझे तो पचास से ज्यादा लगता है।"

कुछ देर बाद भंडारे ने एक भीड़ भरी सड़क के किनारे एंबूलेंस रोकी।

"जाओ। सूटकेस लेकर आओ।" भंडारे ने कहा।

उन तीनों ने एंबूलेंस का दरवाजा खोला और बाहर निकल गए। दरवाजा बंद किया और खुद वे पचास कदम दूर बनी दुकानों में से एक दुकान की तरफ बढ़ गए। एक दुकान के बाहर सूटकेस हाउस लिखा था।

भंडारे उन्हें ज्यादा देखता रहा। चेहरे पर जहरीली मुस्कान थिरक रही थी। जब वे तीनों उस सूटकेस हाउस में प्रवेश कर गए तो भंडारे ने एंबूलेंस स्टार्ट की और दौड़ा दी। साथ ही खुशी से हंस पड़ा।

"सारा माल मेरा है सिर्फ मेरा। जगदीप भंडारे का।"

बाबू भाई ने गहरी सांस ली और विचारों से बाहर आ गया। उसकी निगाहों में भंडारे ने धोखेबाजी करके गलत काम किया था। लेकिन भंडारे खुश था कि वो अपनी योजना में सफल रहा। बाबू भाई ने दोनों सूटकेस और बैग पर नजर मारी। जिसमें भंडारे उसे बीस करोड़ दे गया था।

परन्तु बाबू भाई मन-ही-मन खुश नहीं था।

भंडारे की गद्दारी उसे परेशान कर रही थी।

देवराज चौहान उन्हें नहीं छोड़ेगा। वो पागलों की तरह उन्हें ढूंढ रहा होगा। वो तो दो दिन से समुद्र के किनारे बनी इस कॉटेज में छिपा पड़ा था। भंडारे उसके छिपने के ठिकानों को जानता था। और यहां तक आ पहुंचा था, परन्तु बाबू भाई को यकीन था कि कोई और उस तक नहीं पहुंच सकता।

बाबू भाई जानता था मामला गम्भीर रूप लेने जा रहा था।

वागले रमाकांत की दौलत पर हाथ डाला और भंडारे ने देवराज चौहान को भी धोखा दे दिया। अब हालात बहुत बुरी स्थिति में आ सकते थे। एक तरफ वागले रमाकांत दूसरी तरफ देवराज चौहान। तीसरी तरफ वह और भंडारे। यहां तक कि भंडारे ने मोहन्ती, जैकब कैंडी और कृष्णा पाण्डे को भी धोखा दे दिया था। ऐसे में भंडारे को विश्वास था कि वो इस झमेले से साफ बच जाएगा।

परन्तु बाबू भाई जानता था कि ऐसा हो पाना संभव नहीं। अब मुसीबत रंग लाएगी। भंडारे ने जो भी किया, बहुत गलत किया। नोटों के लालच ने उसका दिमाग खराब कर दिया था।

बाबू भाई सोचता रहा। देर तक सोचता रहा। फिर मोबाइल निकाला और बलबीर सैनी का नंबर मिलाकर मोबाइल कान से लगाया। चेहरे पर गंभीरता ठहरी हुई थी।

दूसरी तरफ बेल गई फिर बलबीर सैनी की आवाज कानों में पड़ी।

"हैलो...।"

"सैनी मैं...।"

"ओह बाबू भाई! क्या बात है। अभी तो हमारी बात हुई थी।" सैनी का धीमा स्वर उसके कानों में पड़ा।

"मैं चाहता हूं तू अपना एक परसेंट यानी एक करोड़ अस्सी लाख ले ले। मैं आगे-पीछे हो गया तो पैसा तुझे मिलेगा नहीं।"

"मैं छिपा हुआ हूं। वागले रमाकांत मेरी तलाश में है, उसे पता चल गया है कि मैंने खबर बाहर की...।"

"तू अपना एक करोड़ अस्सी लाख ले ले।"

चंद पलों की खामोशी के बाद बलबीर सैनी की आवाज आई---

"ठीक है, कहां आऊं?"

बाबू भाई ने उसे बताया कि कहां मिलना है।

दो घंटे बाद का वक्त तय हुआ।

"वागले रमाकांत अभी तक नहीं जानता ना, कि हम इस मामले में हैं?" बाबू भाई ने पूछा।

"मेरा मुंह नहीं खुलेगा तो वो कैसे जान पाएगा ये बात।"

"तू अपना मुंह बंद रखना।"

"लगता है मुझे मुंबई छोड़नी पड़ेगी। मैं वागले रमाकांत की नजरों में आ गया। वो मुझे छोड़ने वाला नहीं।"

"दो घंटे बाद मिल और अपना एक करोड़ अस्सी लाख ले ले।"

"मिलता हूं। तू वहां वक्त पर आना।"

"तेरे से पहले आ जाऊंगा।"

बाबू भाई ने फोन बंद किया फिर जगदीप भंडारे को फोन किया।

"बोल बाबू भाई...!" भंडारे की शांत आवाज कानों में पड़ी।

"वागले रमाकांत को सैनी के बारे में पता चल गया है कि उसने पैसों के लेन-देन की खबर बाहर की। उसके आदमी सैनी की तलाश में हैं। अभी वागले रमाकांत नहीं जानता कि ये काम हमने किया है।"

"हूं...।"

"मैंने सैनी को एक करोड़ अस्सी लाख देने के बहाने बुलाया है एक जगह पर, दो घंटे बाद वहां पहुंचेगा।" कहकर बाबू भाई ने सैनी से मिलने की जगह बताई--- "तू वहां पहुंच और सैनी को खत्म कर दे। सैनी मर जाएगा तो शायद हमारा नाम वागले रमाकांत को पता ना चले। एक चांस वाली बात है ये।"

"सैनी को मैं संभाल लूंगा।"

"तूने गलती पर गलती की है भंडारे! देवराज चौहान को धोखा देने के बाद मोहन्ती, कैंडी और पाण्डे को धोखा दे दिया। सबको अपना दुश्मन बना लिया। वो तीनों चुप नहीं बैठने वाले।"

"मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं सुरक्षित हूं। मौका मिलते ही मैंने मुंबई से निकल जाना है।"

"तुझे अभी भी एहसास नहीं हुआ कि तूने दूसरों को धोखा देकर गलती की है।"

"मैंने कोई गलती नहीं की...।"

बाबू भाई ने गहरी सांस ली।

"सैनी को मैं खत्म कर दूंगा और तुम भी कहीं खिसक जाओ बाबू भाई...! मुंबई में टिके रहना ठीक नहीं।"

बाबू भाई ने फोन बंद कर दिया चेहरे पर गंभीरता थी। अभी बाबू भाई का कहीं भी जाने का इरादा नहीं था। क्योंकि उसकी निगाहों में ये सुरक्षित जगह थी। वागले रमाकांत या देवराज चौहान उस तक नहीं पहुंच सकते।

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