मायाराम की टैक्सी मॉडल टाउन पहुंची तो उसने नीलम को ‘अल्पना’ के सामने सड़क पर एक पेड़ के नीचे पहले से मौजूद पाया। उसने उसके करीब टैक्सी रुकवाई। तत्काल ड्राइवर उतर कर एक ओर चल दिया। मायाराम उसे पहले ही ऐसा ही समझा कर लाया था। उसने नीलम की ओर का टैक्सी का दरवाजा खोल दिया और उसे भीतर आ बैठने का इशारा किया।
नीलम झिझकती हुई उसकी बगल में पिछली सीट पर आ बैठी और अप्रसन्न भाव से बोली — “क्या आफत आ गयी जो …”
“क्यों खामखाह लाल पीली हो रही है सवेरे सवेरे?”
“तेरे जैसा खरदिमाग आदमी नहीं देखा मैंने। बोलता था पास नहीं फटकूंगा। फोन नहीं करूंगा …”
“हालात बदल गये हैं।”
“अब क्या हो गया है?”
“अब मुझे लगता है कि वो मेरा वहम था कि कोई तेरी निगरानी कर रहा था।”
“वहम था तो…”
“चिट्ठी लाई है?” — मायाराम उसकी बात काट कर उतावले स्वर में बोला।
नीलम ने हाथ में थमा लिफाफा उसके मुंह पर मारने की कसर न छोड़ी।
मायाराम ने लिफाफे में से चिट्ठी निकली। सरसरी निगाह में उसे सब कुछ सामान्य लगा लेकिन जब उसने जेब से रीडिंग ग्लासिज निकाल कर नाक पर चढ़ाये और फिर उसका मुआयना किया तो उसे उसमें समाहित विसंगति तत्काल दिखाई दी।
“चिट्ठी में फेरबदल किया गया है।” — वो धीरे से बोला।
“क्या!”
“पांच को काट कर सात किया गया है।”
“अरे, क्या कह रहे हो?”
“ये तीसरी लाइन देख जहां कि रकम का जिक्र है। पांच लाख की रकम का जिक्र है। यहां पांच को काट कर सात कर दिया गया है।”
नीलम ने उचक कर चिट्ठी पर निगाह डाली।
“पहले तो ऐसा नहीं था!” — वो सकपकाई-सी बोली।
“पहले कब?”
“जब ये चिट्ठी आयी थी और मैंने इसे पढ़ा था।”
“तूने इसे एक ही बार पढ़ा था?”
“और क्या सौ बार पढ़ती?”
“पढ़ के क्या किया था?”
“लिफाफे में वापिस डालकर अलमारी में रख दी थी और क्या किया था!”
“तब के बाद अभी निकाली?”
“हां।”
“लेकिन दोबारा न पढ़ी?”
“न।”
“यानी कि तुझे खबर नहीं कि पांच लाख की मांग सात लाख की बना दी गयी थी?”
“न, बिल्कुल भी नहीं।”
“फिर तूने ट्रंक में सात लाख रुपये क्योंकर रखे?”
“मैंने नहीं रखे। मैं क्यों रखती? खसमांखानया, मुझे अगर ये गारन्टी भी दी गयी होती कि दो लाख रुपये तेरे अर्थी मुर्दे कलश के लिए थे, मैं तो भी ट्रंक में सात लाख रुपये न रखती क्योंकि और दो लाख रुपये मेरे पास न थे, न हैं।”
“तू झूठ बोल रही है।”
“क्या!”
“तू किसी की शह पर झूठ बोल रही है।”
“पागल हुआ है!”
“जिसने इस चिट्ठी में हेराफेरी की है, पांच को सात किया है, उसी ने तुझे धमका कर इस बात के लिए तैयार किया है कि पूछे जाने पर तू कभी कबूल न करे कि तूने ट्रंक में ज्यादा बड़ी रकम रखी थी।”
“अरे, खोटी अक्ल, जब कूरियर वाला बन्द लिफाफा मेरे पास लाया जो कि मैंने खुद खोला तो कोई कैसे पांच को सात…”
“वो कूरियर वाला नहीं था।”
“कौन कूरियर वाला नहीं था?”
“जो तेरे पास ये चिट्ठी पहुंचा कर गया था। वो हरिदत्त पंत नाम का मेरा एक जोड़ीदार था जिसने कूरियर वाले का रोल अदा किया था। चिट्ठी उसके हवाले थी। मेरे से चिट्ठी ले चुकने के और उसे तेरे तक पहुंचाने के बीच में वो जैसी भी हेराफेरी चाहता, चिट्ठी में कर सकता था। पूरा पूरा मौका हासिल था ऐसा करने के लिये उसे जिसका कि उसने फायदा उठाया। उसने रकम में बढ़ोत्तरी कर दी और साथ में तेरे को भी धमका कर खबरदार कर दिया कि तू बढ़ी हुई रकम का नाम न ले। पूछे जाने पर तू यही जिद पकड़े रहे कि तूने पांच लाख ही ट्रंक में रखे थे।”
“लेकिन...”
“ये बात खुलने वाली नहीं थी अगरचे कि बद्किस्मती से कल ट्रंक हाथ से न निकल गया होता। ऐसी सहूलियत कर दी थी मुझ बेवकूफ ने उसके लिये कि पहले ट्रंक उसी के हाथ में लगना था। वो बड़े इत्मीनान से उसमें से दो लाख रुपये पार करके अपनी अंटी में दबाता, अपेक्षित पांच लाख रुपये मुझे ला कर देता और उसमें भी हिस्सा मांगता। खबर अखबार में न छप गयी होती तो मुझे सात जन्म खबर न लगती कि ट्रंक में पांच नहीं, सात लाख रुपये थे।”
नीलम खामोश रही।
“अब तू कबूल कर कि ट्रंक में तूने पांच की जगह सात लाख रुपये रखे थे और ऐसी कोई नौबत आ जाने पर फालतू रकम का नाम भी न लेने के लिये तुझे धमकाया गया था।”
“खामखाह! मैं ऐसी कोई बात कबूल नहीं कर सकती जो कि सच नहीं है।”
“तो क्या जादू के जोर से रकम पांच से सात लाख हो गयी?”
“पता नहीं कैसे हो गयी! लेकिन मेरे किये नहीं हुई।”
“तू नहीं मानेगी? तू मेरे जोड़ीदार की खातिर मेरे से बाहर जायेगी?”
“तू कमला हो गया है। सठिया गया है।”
“तू एक बार अपनी जुबान से कबूल कर कि मेरे जोड़ीदार ने तुझे बरगलाया है, मैं साले का खून कर दूंगा।”
“कर दे। फिर फांसी से बचने के लिये खुद को भी गोली मार लेना। मुझे खुशी होगी।”
मायाराम ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
“मैं चलती हूं।” — नीलम अपनी तरफ के दरवाजे की तरफ हाथ बढ़ाती बोली।
“अभी कहां चलती है?” — तत्काल मायाराम डपट कर बोला — “अभी बात तो पूरी होने दे।”
“अब क्या कसर रह गयी?”
“बहुत कसर रह गयी। अभी मेरा असल काम तो हुआ ही नहीं!”
“असल काम!”
“रकम कहां मिली मुझे?”
“वो तो थाने में जमा है। पेपर में लिखा तो है। जा के ले आ।”
“मैं?”
“क्या मुश्किल काम है? जा के थानेदार को बोलना कि तू ब्लैकमेलर है और वो रकम ब्लैकमेल का हासिल थी। वो खुशी खुशी तुझे ट्रंक सौंप देगा।”
“क्या बकती है?”
“तू क्या बकता है?”
“तूने कहा था कि तू सुमन को कनॉट प्लेस थाने भेजने की बाबत सोचेगी। ऐसा तूने रकम की कोई खोज खबर लगे बिना करना था। अब तो ये बात पक्की है कि रकम कनॉट प्लेस थाने में है। तू उस लड़की को थाने भेज।”
“वो इतनी बड़ी रकम की अपने पास मौजूदगी का क्या जवाब देगी?”
“मेरा जवाब वही है जो मैंने कल भी दिया था। जवाब वो सोचे, तू सोचे, काला चोर सोचे, मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मेरी तरफ से भले ही बोल देना कि वो तुम दोनों की धन्धे की कमाई है।”
“मुंह नोच लूंगी, पटकीपैनया।”
“मैं तेरी गालियों का बुरा नहीं मानता। पहले भी कभी माना हो तो बोल। मेरे लिये तेरी गालां भी घी की नालां है। लेकिन एक बात गांठ बांध ले। रकम बरामद न होना तेरा नुकसान है, मेरा नहीं। जब तक रकम मुझे नहीं मिल जाती, मेरी डिमांड अपनी जगह कायम है।”
नीलम खामोश रही।
“मैंने जो कहना था, कह दिया। आगे तू जाने, तेरा काम जाने। मैं फिर फोन करूंगा। जैसे हालात बनें, वैसी मुझे खबर कर देना। अब जा।”
नीलम टैक्सी में से उतर गयी।
अशरफ के साथ टैक्सी पर सवार विमल खड़क सिंह मार्ग पहुंचा।
पीछे पैसेंजर की जगह बैठने के स्थान पर वो आगे अशरफ के साथ मौजूद था।
अशरफ ने हनुमान मन्दिर के सामने टैक्सी रोकी तो एकाएक उसकी निगाह अशरफ के जूतों पर पड़ी। कितनी ही देर वो उनका मुआयना करता रहा।
“क्या देख रहे हैं?” — अशरफ तनिक विचलित स्वर में बोला।
“तेरा जूता देख रहा था। काफी मजबूत और ड्यूरेबल मालूम होता है!”
“मामूली जूता है।” — अशरफ लापरवाही से बोल।
“कितने नम्बर का है?”
“सात।”
“मेरे खयाल से तुझे नया जूता पहनना चाहिये।”
“यही ठीक है, जनाब।”
“नहीं ठीक। यहां से फारिग होते ही अपने लिये नया जूता खरीद।”
“लेकिन ...”
“और पुराना मुझे दे।”
“आप को दूं?”
“हां।”
“आप क्या करेंगे इसका?”
“पहन कर देखूंगा। शायद मुझे फिट आ जाये।”
“आप मजाक कर रहे हैं।”
“या किसी और को।”
“किसी और को! मैं समझ गया। हुक्म सिर माथे, जनाब। मैं आज ही नया जूता खरीदूंगा।”
“बढ़िया।”
विमल टैक्सी से उतरा।
जैसा कि पूर्वनिर्धारित था, सुमन मन्दिर के प्रवेशद्वार की सीढ़ियों के सामने मौजूद थी।
विमल उसके करीब पहुंचा।
सुमन ने उसका अभिवादन किया।
“सब ठीक से याद है?” — विमल बोला।
सुमन ने सहमति में सिर हिलाया।
“एक बार फिर दोहरा देता हूं। गौर से सुन।”
“ठीक है।”
दो मिनट उसने विमल का मोनोलॉग सुना, फिर पैदल चलते वो दोनों करीब ही स्थित कनॉट प्लेस थाने पहुंचे।
अशरफ जो कि विमल के साथ आया था, उनके पीछे पीछे टैक्सी चलाता थाने पहुंचा।
विमल के संकेत पर उसने थाने के कम्पाउण्ड में टैक्सी खड़ी कर दी और उसी में बैठा रहा।
ड्यूटी आफिसर के माध्यम से विमल और सुमन एसएचओ के आफिस में पहुंचे। अभिवादनों के आदान प्रदान के बाद विमल बोला — “मेरा नाम अरविन्द कौल है। ये सुमन है। हम ट्रंक के सिलसिले में यहां आये हैं।”
“कौन सा ट्रंक?” — जानबूझ कर अंजान बनता एसएचओ बोला।
“सात लाख की रकम वाला वो ट्रंक जिसकी आज अखबारों में खबर छपी है। वो ट्रंक कल शाम इनकी नादानी से टैक्सी में रह गया था।”
“खबर अखबारों में छपी है। उसे पढ़ कर कोई भी नौजवान लड़की उसकी क्लेमेंट बन सकती है।”
“दुरुस्त फरमाया आपने।”
“तो?”
“जिस टैक्सी ड्राइवर की टैक्सी में ट्रंक रह गया था, वो इस वक्त बाहर मौजूद है।”
“कैसे पहुंच गया?”
“मैं तलाश करके लाया। वो अपने कल शाम के पैसेंजर की शिनाख्त कर सकता है।”
“आपने पटा लिया होगा उसे!”
“किसलिये?”
“ताकि वो आपके कहे किसी भी गलत लड़की की शिनाख्त कर दे!”
“उसे क्या फायदा?”
“कोई फायदा आपने सुझाया होगा! कोई लालच दिया होगा उसे! रकम में कोई हिस्सेदारी मुकर्रर की होगी उसकी!”
“उस रकम में, जो कि ट्रंक में है?”
“जाहिर है।”
“वो उस रकम में हिस्सेदार बनने की सोचेगा जो कि कल पूरी की पूरी उसके कब्जे में थी? जिसकी वो चाहता तो किसी को हवा भी न लगने देता?”
एसएचओ सकपकाया।
“ऐसा कह कर आप उसकी ईमानदारी पर थूक रहे हैं, जनाब।”
“कहां है वो?”
“बाहर कम्पाउन्ड में। अपनी टैक्सी में बैठा है।”
एक हवलदार को भेजकर उसने अशरफ को बुलवाया।
“इस मेम साहब को पहचानते हो?” — एस.एच.ओ. उसे घूरता हुआ बोला।
“हां, साहब।” — तत्काल अशरफ तत्पर स्वर में बोला — “ये वही हैं जो कल शाम मेरी टैक्सी में सवार थीं, जो अपना ट्रंक मेरी टैक्सी में भूल गयी थीं।”
“पक्की बात?”
“जी हां।”
“कहां उतरी थीं ये?”
“मैरीना होटल के सामने। इन्होंने मुझे भाड़ा चुकता कर दिया था और दस मिनट इंतजार करने को कहा था। दस मिनट में ये नहीं लौटी थीं तो मैं वहां से रवाना हो गया था। तब मुझे पता लगा था कि ये पीछे अपना ट्रंक छोड़ गयी थीं।”
“कैसे मालूम है कि ट्रंक इन्होंने छोड़ा था? क्या पता ट्रंक इनसे पहले तुम्हारी टैक्सी में सवार हुए पैसेंजर का हो?”
“ऐसा होता तो इनकी जगह वो पैसेंजर यहां हाजिरी भर रहा होता।”
एस.एच.ओ. हकबकाया।
“और फिर मैंने इन्हें .. इन्हें उस ट्रंक के साथ मेरी टैक्सी में सवार होते देखा था।”
“अखबार के दफ्तर क्यों पहुंच गये? सीधे थाने क्यों न आये?”
“साहब” — अशरफ की आंखो में धूर्तता की चमक आयी और गायब हुई— “तब मेरी छापे में फोटू कैसे छपती?”
“बस, यही वजह थी?”
“मै पुलिस वालों का खौफ खाता हूं। थाने अकेले आने से डर गया था।”
एसएचओ कुछ क्षण अशरफ को घूरता रहा, फिर सुमन की तरफ आकर्षित हुआ — “आप मैरीना क्यों गयी थीं?”
“मुझे वहां एक सहेली से मिलना था।”
“वो मिली?”
“नहीं।”
“सहेली का इंतजार दस मिनट से तो ज्यादा ही किया होगा, क्योंकि कम किया होता तो ये अभी टैक्सी में बैठा आपके लौटने का इंतजार कर रहा होता!”
“मैंने बीस मिनट इंतजार किया था।”
“ये कब सूझा था कि ट्रंक टैक्सी में रह गया था?”
“जब मै के.जी. मार्ग पर पहुंची थी, जहां कि गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन का आफिस है जहां कि ये ट्रंक मैंने पहुंचाना था।”
“अपने तभी थाने का रुख क्यों न किया?”
“क्योंकि मुझे इस टैक्सी ड्राइवर के मॉडल टाउन मेरे घर लौटने की उम्मीद थी जहां से कि इसने मुझे टैक्सी में बिठाया था।”
“तूने” — एसएचओ फिर अशरफ की तरफ घूमा — “ऐसा क्यों न किया?”
“क्योंकि” — अशरफ बड़ी मासूमियत से बोला — “मुझे याद नहीं रहा था कि मैंने इन्हें कहां से बिठाया था।”
“क्या!”
“सारा दिन पैसेंजर ढोता हूं, साहब! क्या याद रहता है कि कौन किधर से बैठा!”
“लेकिन ये याद रहता है कि कौन किधर उतरा?”
“वो भी नहीं याद रहता। ये मैडम इसलिये याद रहीं क्योंकि कोई और सवारी उठाने से पहले ही मेरी ट्रंक पर निगाह पड़ गयी थी।”
“इन्हें ढूंढ़ने की कोशिश क्यों नहीं की?”
“की। बराबर की। मैरीना के रिसैप्शन से जा कर दरयाफ्त किया। कनॉट प्लेस के सारे आउटर, इनर और मिडल सर्कल में टैक्सी लेकर खूब गोल गोल घूमा लेकिन ये मुझे कहीं दिखाई न दीं। तभी इनसे नाउम्मीद होकर मैंने हिन्दोस्तान टाइम के दफ्तर का रुख किया था।”
“क्योंकि तुझे अखबार में फोटो छपवाने का शौक था?”
“हां, साहब।”
“बाहर जा के बैठ।”
अशरफ सलाम करके वहां से रुखसत हो गया।
“आप” — एसएचओ सुमन से सम्बोधित हुआ — “गायबखयाल ज्यादा हैं या लापरवाह ज्यादा हैं?”
“जी!” — सुमन सकपकाई सी बोली।
“इतनी बड़ी रकम के मामले में आपने ये जिम्मेदारी दिखाई कि उसे टैक्सी में छोड़कर चल दीं?”
जवाब देने की जगह सुमन रोने लगी।
विमल ने उसका कंधा थपथपा कर उसे तसल्ली दिया।
“रकम का क्या किस्सा है?” — एसएचओ बोला — “इतनी बड़ी रकम आपके पास क्यों थी?”
“भाई साहब ने दी थी।” — विमल की तरफ संकेत करती सुमन रुंआसे स्वर में बोली।
एसएचओ विमल की तरफ घूमा।
“रकम गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन की है।” — विमल बोला — “जहां कि मैं एकाउन्टेंट की नौकरी करता हूं। ये मेरा विजिटिंग कार्ड। ये मेरा आई. कार्ड।”
एसएचओ ने एक सरसरी निगाह दोनों चीजों पर डाली।
“इतनी बड़ी रकम आपके पास भी क्यों थी?” — वो बोला।
“क्योंकि मैं एकाउन्टेंट हूं। क्योंकि ऐसी, इससे बड़ी, इससे कहीं बड़ी रकमें ढोना मेरी नौकरी का हिस्सा है।”
“आपकी नौकरी में ये आपकी सहायक है?”
“जी नहीं।”
“तो?”
“कल दोपहरबाद एकाएक मेरी तबीयत खराब हो गयी थी। मैंने ये रकम मॉडल टाउन के ही गैलेक्सी के एक डीलर से कलैक्ट की थी लेकिन तबीयत खराब हो जाने की वजह से मैं गैलेक्सी जाने की जगह रकम के साथ घर लौट आया था।”
“आप मॉडल टाउन में रहते हो?”
“जी हां। डी-9 में।”
“ये आपके साथ रहती हैं?”
“जी हां।”
“सगी बहन हैं ये आपकी?”
“जी नहीं। मुंहबोली। इस दुनियां में इसका कोई नहीं। इसलिये हमारे साथ रहती हैं।”
“रकम आपने इन्हें क्यों दी?”
“गैलेक्सी के आफिस में पहुंचाने को दी। ये जनपथ पर एम.टी.एन.एल. के ट्रंक एक्सचेंज में आपरेटर की नौकरी करती है। कल इसकी रात की ड्यूटी थी। ये उधर जा रही थी इसलिये रकम को गैलेक्सी पहुंचाने के लिये ट्रंक मैंने इसे सौंप दिया था।”
“बड़े अच्छे तरीके से जिम्मेदारी निभाई इन्होंने अपनी!”
“उसमें मेरी भी गलती थी।”
“क्या?”
“मैंने इसे ये नहीं बताया था कि ट्रंक में इतनी बड़ी रकम थी। मैंने इसे सिर्फ ट्रंक को ले जाकर गैलेक्सी के दफ्तर में छोड़ आने के लिये कहा था।”
“गैलेक्सी का दफ्तर रात को भी खुलता है?”
“जी नहीं। लेकिन कुछ स्टाफ रात नौ बजे तक बैठता है।”
“हूं। तो ये रकम उस कम्पनी की है जिसमें कि आप एकाउन्टेंट हैं?”
“जी हां।”
“वहां से इस बात की तसदीक होगी?”
“यकीनन होगी। गैलेक्सी के मालिक शिव शंकर शुक्ला इस वक्त तक आफिस पहुंच चुके होंगे। आप फोन पर उनसे बात कर सकते हैं।”
“आप कीजिये।” — एसएचओ मेज पर पड़े दो टेलीफोनों में से एक उनकी तरफ सरकाता हुआ बोला — “और उन्हें यहां बुलाइये।”
विमल ने फोन किया।
पांच मिनट में शुक्ला थाने पहुंच गया।
“क्या बात है?” — उसने विमल से पूछा।
विमल ने बताया।
“रकम गैलेक्सी की है।” — शुक्ला रौब से बोला — “उसकी बाबत कैसी भी कोई तसल्ली करनी है, मेरे से कीजिये। मेरे एकाउन्टेंट कौल की बाबत कैसी भी कोई तसल्ली करनी है, मेरे से कीजिए। कोई खानापूरी करनी है तो कीजिए और रकम मुझे सौंपिये।”
“आप को?”
“इस लड़की को। मेरे एकाउंटेन्ट को। किसी को भी।”
एसएचओ खामोश रहा।
“कम आन!” — शुक्ला उतावले स्वर में बोला — “स्नैप आउट ऑफ इट। आई डोंट हैव आल डे फार दिस पैटी मैटर।”
“दिस इज नाट ए पैटी मैटर।” — एसएचओ तीखे स्वर में बोला।
“इट इज। रकम थाने पहुंच गयी तो ये आपकी नहीं हो गयी। आप सिर्फ कस्टोडियन हैं इस रकम के। मौजूदा हालात में आपकी कस्टडी की अब जरूरत नहीं रही इसलिये वापिस कीजिये इसे।”
“लेकिन …”
“एसीपी कौन है आजकल यहां? पहले तो सक्सेना साहब थे।”
“अब भी वही हैं लेकिन …”
“जहां तक मुझे याद पड़ता है, इसी थाने में बैठते हैं।”
“जी हां। लेकिन..”
“सक्सेना इज माई फ्रेंड। इस डिस्ट्रिक्ट का डीसीपी मनोहर लाल भी मेरा फ्रेंड है। कम, कौल। कम, यंग लेडी। लेट्स नाट वेस्ट टाइम हेयर। वुई विल स्पीक टु एसीपी।”
“उसकी कोई जरूरत नहीं।”
“एण्ड इफ फाउन्ड नैसेसरी, टु डीसीपी। ईवन टू कमिशनर हिमसैल्फ।”
“बोला न, उसकी कोई जरूरत नहीं।”
“दैन डिसपैंस विद दि रैड टेप, मिस्टर इन्स्पेक्टर। आई टोल्ड यू, आई एम ए बिजी मैन।”
“आप जा सकते हैं। जो खानापूरी करनी है, वो हम आपके एकाउन्टेंट से करा लेंगे।”
“दैट्स मोर लाइट इट। थैंक्यू वैरी मच। कौल!”
“सर!” — विमल तत्पर स्वर में बोला।
“फारिग होकर रकम के साथ सीधे आफिस पहुंचना।”
“यस, सर।”
“दोबारा कभी ऐसे कम्पनी की रकम आगे अपने किसी सगे सम्बन्धी को सौंपी तो मुझे तुम्हें डिसमिस करना पड़ेगा।”
“दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी, सर।”
“गैलेक्सी हैज एम्प्लायड यू, नाट युअर फैमिली।”
“आई अन्डरस्टैण्ड, सर।”
“यू बैटर डू।”
शान के साथ चलता शुक्ला वहां से रुखसत हो गया।
“सुपुर्दगी की कार्यवाही सब-इंस्पेक्टर करेगा।” — एसएचओ घण्टी बजाता बोला — “दस मिनट लगेंगे।”
“कोई बात नहीं।” — विमल बोला।
घंटी के जवाब में हवलदार आया तो उसने सुमन को सब इंस्पेक्टर के पास भेज दिया।
पीछे एसएचओ और विमल अकेले रह गये।
“तुम्हारी नौकरी जाते जाते बची।” — एसएचओ हंसता हुआ बोला।
“वो तो है!” — विमल भी हंसा।
“बड़ी रकम का मामला है।”
“वो भी है।”
“इस बात पर इधर के लोगों का कोई चाय पानी होना चाहिये।”
“शुक्ला साहब के सामने बोलना था।”
“एक ही बात है। और फिर क्या पता वो बड़े साहबान के — एएसपी, डीसीपी के — चाय पानी में ही विश्वास रखते हों।”
“क्या चाहते हो?”
एसएचओ ने दोनों हाथों की सारी उंगलियां उसके सामने फैलाईं।
विमल ने एक आह-सी भरी और धीरे से बोला — “कुत्ता राज बिठालिये मुड़ चक्की चट्टे।”
“क्या!” — इंस्पेक्टर उसे घूरता हुआ बोला — “क्या कहा?”
“कुछ नहीं।” — विमल ने सौ सौ के नोटों की एक गड्डी अपने बैग से निकाल कर उसके सामने मेज पर डाल दी — “कोई और सेवा?”
“इतनी काफी है।” — एसएचओ संतुष्ट स्वर में बोला।
फिर पलक झपकते गड्डी मेज पर से गायब हो गयी।
मायाराम कश्मीरी गेट पहुंचा तो उसने पंत को चाल के सामने की राहदारी में चहलकदमी करता पाया।
“कहां चले गए थे सवेरे सवेरे, उस्ताद जी?” — पंत अचरज से बोला।
“ऐसे ही जरा हवा खाने गया था।” — मायाराम अनमने स्वर में बोला।
“टैक्सी पर?”
“तू जानता है मैं चल नहीं सकता।”
“ऐसे अकेले तो पहले कभी कहीं नहीं गये!”
“वो चिट्ठी, जो तू कूरियर वाला बन के नीलम को पहुंचा के आया था...”
“क्या हुआ उसे?”
“कैसे पहुंचाई थी? बन्द का बन्द लिफाफा दे आया था उसे?”
“और क्या करता?”
“खोल कर पढ़ी नहीं?”
“लो! मेरे सामने तो तुमने वो चिट्ठी टाइप की थी। तुम टाईप कर रहे थे और मैं तुम्हारे सिरहाने खड़ा पढ़ रहा था। क्या भूल गये?”
“नहीं, भूला तो नहीं! पर सोचा, शायद कोई खास बात फिर से पढ़ने का मन कर आया हो!”
“क्या खास बात?”
“या दुरुस्त करने का!”
“अरे, क्या बात?”
“तू बता!”
“उस्ताद जी, क्यों खामखाह पहेलियां बुझा रहे हो?”
मायाराम खामोश रहा।
“एकाएक तुम्हारे तेवर बहुत बदले बदले नजर आने लगे हैं। उस्ताद जी, साफ बोलो, क्या है तुम्हारे मन में?”
“लड़के, मैंने उम्र भर कुल जहान को धोखा दिया है, अब इस उम्र में कोई मुझे धोखा दे, ये मुझे क्योंकर बर्दाश्त होगा?”
“कौन धोखा दे रहा है तुम्हें?”
“अक्लमंद को इशारा ही काफी होता है।”
“वो औरत? तुम्हारा मतलब है उसकी मजाल हो गयी तुम्हे धोखा देने की?”
“उसकी कैसे हो जायेगी! गर्दन नहीं मरोड़ दूंगा!”
“तो? तो और कौन धोखा दे रहा है?”
“सोच। समझ।”
“अरे, कुछ समझाओ तो समझूं न!”
“बाजू हट। मुझे अपने पोर्शन में जाने दे। खड़ा खड़ा थक गया हूं।”
पंत एक तरफ हटा।
मायाराम बैसाखियां ठकठकाता अपने पोर्शन की ओर बढ़ चला।
नेत्र सिकोड़े पंत उसे जाता देखता रहा।
फिर कुछ सोच कर वो भी उसके पीछे पीछे चल दिया।
मायाराम दरवाजे का ताला खोल कर भीतर दाखिल हुआ तो उसने भी उसके पीछे भीतर कदम डाला।
“क्या है?” — मायाराम रूखे स्वर में बोला।
“उस्ताद जी, ऐसे बेएतबारी से काम नहीं चलता।”
“किसने कहा बेएतबारी की बाबत कुछ?”
“हर बात मुंह जुबानी ही नहीं कहनी पड़ती।”
“देख, मैं थका हुआ हूं। मेरा दिमाग न चाट। मुझे आराम करने दे।”
“क्यों थके हुए हो सवेर सवेरे? कहां गये थे?”
मायाराम ने जवाब न दिया।
“अच्छा, अब आगे की बात तो बोलो!”
“आगे की क्या बोलूं?”
“आगे क्या प्रोग्राम है? वो औरत थाने से माल निकलवा लेगी?”
“क्या पता निकलवा लेगी या नहीं निकलवा लेगी! शाम को पता करेंगे।”
“वो सुबह दूसरी लड़की को थाने भेजने को बोल रही थी। इतना तो पता करना था कि उसने ऐसा किया या नहीं!”
“वो भी शाम को पता करेंगे। अब तू यहां से जा ताकि मैं आराम कर सकूं।”
चेहरे पर असन्तोष और झुंझलाहट के भाव लिये पंत वहां से टला।
मायाराम के मिजाज में एकाएक आयी तब्दीली उसकी समझ से बाहर थी।
सुमन मॉडल टाउन पहुंची।
उसने एक विजेता के से भाव से नीलम को ट्रंक दिखाया।
“मिल गया?” — नीलम हैरानी से बोली।
“और क्या!” — सुमन शान से बोली।
“इतनी आसानी से!”
“आसानी से तो नहीं! उस टैक्सी ड्राईवर ने मेरी शिनाख्त की, तभी मिला।”
“वो वहां था?”
“इत्तफाक से मेरी मौजूदगी में पहुंच गया था।”
“ये तो कमाल हो गया!”
“ऊपर से थानेदार शरीफ था। भला था। आम पुलिसियों जैसा नहीं था।”
“उसने रकम की बाबत कोई सवाल न किया?”
“किया।”
“तो तूने क्या जवाब दिया?”
“मैंने कहा कि गोल मार्केट की कोविल हाउसिंग सोसाइटी में मेरी मां का छोड़ा एक फ्लैट था जिसकी कि मुझे जरूरत नहीं थी इसलिए मैं उसे बेच रही थी और वो फ्लैट की एडवांस पेमेंट थी।”
“उसने खरीदार की बाबत सवाल न किया?”
“किया। मैंने प्रदीप का नाम ले दिया कि वो ही खरीदार था।”
प्रदीप से नीलम भली भांति परिचित थी।
“ओह! वो प्रदीप को फोन करता तो?”
“उसने नहीं किया था।”
“लेकिन करता तो?”
“करता तो माकूल जवाब मिलता, क्योंकि प्रदीप को जवाब की बाबत सब समझा कर ही मैं थाने गयी थी।”
“ओह! सुमन, तूने तो कमाल कर दिया!”
“अपने आप ही हो गया।”
“रकम चौकस है?”
“हां। थाने वालों ने मुझे सौंपने से पहले मेरे सामने गिनी थी।”
“ओह! लेकिन मैंने तो इस ट्रंक में पांच लाख रुपये रखे थे!”
“दो थाने वालों ने अपनी तरफ से मिला दिए होंगे।”
“मजाक मत कर।”
“आप भी छोड़ो ये किस्सा। कोई खाना-वाना बनाया हो तो बोलो। भूख से जान निकल रही है।”
उस विषय पर नीलम फिर न बोली।
हरिदत्त पंत मायाराम के व्यवहार से बहुत नाखुश था।
सारा दिन पंत इसी बाबत सोचता रहा था कि क्यों एकाएक मायाराम उससे इशारों वाली जुबान बोलने लगा था! इतना वो बाखूबी समझ सकता था कि उसकी शिकायत, उसकी रंजिश का मरकज वो रकम थी जो पता नहीं कैसे पांच से सात लाख हो गयी थी! उसने मायाराम का ये इशारा भी देर सबेर समझा था कि रकम में हुए रहस्यपूर्ण इजाफे के पीछे उसे शक था कि उसका हाथ था और यह कि वो किसी तरीके से अतिरिक्त रकम को खुद पार कर जाने का इरादा रखता था।
जो कि झूठ था। जो कि बेबुनियाद झूठ था।
अब उसके दिल से बार बार आवाज उठने लगी थी कि मायाराम से उसकी जुगलबंदी लम्बी नहीं चलने वाली थी। सवा दो लाख की जो रकम तीन किश्तों में उसे हासिल हो चुकी थी, उसमें अब कोई बातरतीब इजाफा नहीं होने वाला था।
उसे इस बात का अफसोस था कि नीलम नाम की उस औरत को ब्लैकमेल करने की जो बुनियाद थी, उस पर पूरा पूरा कब्जा मायाराम का था। वो कोई ऐसा हथियार नहीं था जो कि जिस किसी के भी हाथ में आ जाता, वो उसे इस्तेमाल कर लेता। वो बात न होती तो अब तक वो भी मायाराम को वैसे तेवर दिखा चुका होता जैसे कि अब मायाराम उसे दिखा रहा था।
अब कैसे वो अपनी तरफ से मायाराम का मन साफ करे? कोई सीधी बात तो वो करता ही नहीं था। वो तो इशारों की जुबान बोलता था जिसे समझने की कोशिश में वो कोई गलत मतलब निकालता तो रंजिश और बढ़ती, सही मतलब निकालता तो मायाराम शेर हो जाता और कहता कि देखा! मैं न कहता था!
शाम को एक बार फिर उसने उस्ताद जी का मिजाज भांपने का फैसला किया।
वो उसके पास पहुंचा।
उसने मायाराम को एक हाथ में शीशा, और दूसरे हाथ में कैंची लिये बड़े यत्न से अपनी दाढ़ी तराशते पाया।
“कहां की तैयारी है, उस्ताद जी?” — वो मीठे स्वर में बोला।
“तफरीह की।” — मायाराम बोला।
“कल नहीं जा सके, इसलिये उतावले हो रहे हो?”
“यही बात है।”
“लेकिन अभी तो बहुत वक्त है। अभी तो दिन भी नहीं ढला।”
“जल्दी तैयार हो जाने में कोई हर्ज है?”
“नहीं तो! हर्ज कैसा?”
“तो फिर?”
“लगता है पहले कहीं और भी जाने का इरादा है!”
“और कहां?”
“आपको मालूम हो।”
“आज मैंने एक ही जगह जाना है। और वहां भी अपने टाइम पर ही जाऊंगा। आते जाते इधर चक्कर लगाते रहना।”
“वो किसलिये?”
“तसदीक के लिये कि टाइम के टाइम ही यहां से निकला।”
“तौबा, उस्ताद जी। पता नहीं क्यों एकाएक कोई और ही जुबान बोलने लगे हो।”
“कैसे आया?”
“पता करने आया था कि रकम की वापिसी की बाबत मॉडल टाउन से कोई पूछताछ की या नहीं!”
“अभी नहीं की।”
“करो न! ताकि सस्पेंस दूर हो।”
“तू फिक्र न कर। मैं कर लूंगा।”
“कब कर लोगे?”
“बोला न, कर लूंगा।”
“कर ही तो नहीं चुके हो?”
“क्या?”
“पूछताछ भी और वसूली भी!”
मायाराम ने कैंची वाले हाथ को रोक कर घूर कर उसे देखा, उसने पंत को विचलित होता न पाया तो बोला — “मैं तेरे जैसा नहीं हूं।”
“मैं कैसा हूं?”
“अपने दिल से पूछ।”
“फिर लगे पहेलियां बुझाने!”
मायाराम खामोश रहा।
“उस्ताद जी” — पन्त एकाएक सख्ती से बोला — “इशारेबाजी बहुत हो चुकी।”
“कैसी इशारेबाजी?” — मायाराम बोला।
“तुम्हें पता है कैसी इशारेबाजी!”
“अरे, कैसी इशारेबाजी?”
“तुम समझते हो चिट्ठी में पांच को सात मैंने बनाया था?”
“तुझे क्या पता है मैं क्या समझता हूं?”
“अब इतना भी नादान नहीं मैं।”
मायाराम खामोश रहा।
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।” — पंत बोला — “न करना सूझा, न सूझता तो करता।”
“ठीक है फिर।”
“जैसे तुम मेरे पर शक कर रहे हो, वैसे मैं भी तो तुम्हारे पर शक कर सकता हूं!”
“तू शक कर सकता है! तू कौन सा शक कर सकता है?”
“मैं भी तो सोच सकता हूं कि चिट्ठी में पांच को सात तुम ने बनाया!”
“तेरा दिमाग खराब है। मुझे ऐसी हेराफेरी की क्या जरूरत थी? मैं बड़ी रकम का तमन्नाई होता तो पहले ही बड़ी रकम न लिख लेता!”
“पहले लिख लेते तो मुझे उसकी खबर होती। खबर होती तो मैं बड़ी रकम में हिस्सेदार होता। बात चुपचाप चल जाती, ट्रंक थाने न पहुंच गया होता तो तुम सात लाख वसूलते और पांच लाख में हिस्सा बंटाते। ऊपर के दो लाख साफ ही अकेले हड़प जाते।”
मायाराम भौंचक्का-सा उसका मुंह देखने लगा।
“इसे कहते हैं उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।” — फिर वो विषभरे स्वर में बोला।
“अच्छा!” — पंत तिलमिलाया।
“ये मेरी शराफत है जो मैं तेरे साथ हिस्सा बंटाता हूं।” — मायाराम बोला।
“तो ये तेवर हैं?”
मायाराम खामोश रहा।
“खैरात नहीं देते हो, उस्ताद जी, उजरत देते हो। साल भर तुम्हें लाश की तरह ढोया है मैंने। अभी भी ढो रहा हूं। मैं न होता तो चण्डीगढ़ में पुलिस के हाथों तो पड़ते पड़ते पड़ते, पहले उस प्लॉट में ही पड़े दम तोड़ चुके होते जहां कि तुम मुझे लुंज पुंज, अपनी जिन्दगी की आखिरी सांसें गिनते पड़े मिले थे। अपने मुर्दा जिस्म में जिन्दगी की फूंक मारने वाले से ऐसी नाशुक्री बातें करोगे तो जहन्नुम में भी जगह नसीब नहीं होगी।”
“मैंने क्या नाशुक्री बात की है? दे नहीं रहा तुझे तेरा हिस्सा?”
“दे रहे हो लेकिन ऐसे दे रहे हो जैसे फांसी लग रही हो।”
“वहम है तेरा।”
“और फिर ये मेरी ... सुना? … मेरी शराफत है कि मुझे एक चौथाई का हिस्सा कबूल है। वरना क्यों होना चाहिये मेरा हिस्सा छोटा? क्यों नहीं होना चाहिये बराबर का हिस्सा?”
“क्योंकि ....क्योंकि ...”
“जेब में रखो अपनी क्योंकि और मेरी सुनो। सुनो और गौर करो।”
“क्या सुनूं?”
“अरे, जब मैंने तुम्हारे मुकर्रर किये छोटे हिस्से को खुशी से कबूल किया, जब मैंने पहले लालच न किया और बड़े हिस्से की मांग न की तो अब भला क्यों लालच करूंगा? वो भी धोखे से! यारमारी करके! है इस बात का कोई जवाब तुम्हारे पास?”
मायाराम परे देखने लगा।
“मैंने तुम्हें उस्ताद कह दिया तो सच में ही उस्ताद समझने लगे अपने आपको! इत्तफाक से बात खुल गयी तो अपनी करतूत मेरे मत्थे मढ़ने पर आमादा हो गये!”
“हरिदत्त, मैं कसम खा कर रहता हूं, मैंने चिट्ठी में पांच को सात नहीं बनाया।”
“मैं भी कसम खा कर कहता हूं कि मैंने भी ऐसा नहीं किया।”
“फिर क्या है! फिर बात खत्म हो गयी।”
“अरे, दिल से खत्म करो तो खत्म हो गयी न! बात को टालने के लिये ऐसा कहा तो क्या कहा!”
मायाराम खामोश रहा।
पंत कितनी ही देर अपलक उसे देखता रहा।
“ठीक है फिर।” — आखिरकार वो भुनभुनाता-सा बोला — “आगे जैसा प्रोग्राम हो, बोल देना।”
वो यहां से बाहर निकल गया।
अब उसका दिल गवाही देने लगा था कि मायाराम का नयी रकम में उसके साथ पहले की तरह हिस्सा बंटाने का कोई इरादा नहीं था।
क्या वो रकम हासिल कर भी चुका हो सकता था?
कैसे?
वो उस औरत को या उस दूसरी लड़की को रकम के साथ वहां तलब कर सकता था।
या खुद मॉडल टाउन जा सकता था।
सुबह गया तो था कहीं वो! क्या पता मॉडल टाउन ही गया हो!
लेकिन वहां की निगरानी!
निगरानी वाली बात अब या उसे बेबुनियाद लगने लगी थी और या फिर उसे उसकी कल जैसी परवाह नहीं रही थी।
अब क्या करे वो?
उसकी अक्ल ने उसे यही जवाब दिया कि सबसे पहले तो उसे ये मालूम होना चाहिये था कि रकम की क्या पोजीशन थी! वो अभी थाने में ही थी या वो वापिस मॉडल टाउन पहुंच चुकी थी!
कैसे मालूम हो?
तत्काल उसे एक तरकीब सूझी।
वो चाल से बाहर निकला और एक करीबी पीसीओ पर पहुंचा। उसने डायरेक्ट्री इन्क्वायरी से कनॉट प्लेस थाने का नम्बर दरयाफ्त किया और उस पर काल लगायी। दूसरी ओर से उत्तर मिला तो वो रौब से बोला — “हिन्दुस्तान टाइम्स से बोल रहे हैं। एसएचओ साहब से बात कराइये।”
“एसएचओ साहब इस वक्त थाने में नहीं हैं।” — जवाब मिला।
“उनकी जगह जो भी कोई जिम्मेदार आदमी हो, उससे बात कराइये।”
“मेरे से कीजिये।”
“आप कौन?”
“एडीशनल एसएचओ।”
“एएसएचओ साहब, चीफ एडीटर साहब जानना चाहते हैं कि सात लाख की जिस रकम की खबर हमारे आज के अखबार में छपी है, उसकी क्या पोजीशन है?”
“वो रकम उसके मालिकान के सुपुर्द की जा चुकी है।”
“अच्छा।”
“जी हां। टैक्सी की वो पैसेंजर ही सुबह थाने पहुंच गयी थी जिससे कि वो रकम कल टैक्सी में छूट गयी थी। मुनासिब शिनाख्त और सुपुर्दगी की कार्यवाही के बाद ट्रंक उसे सौंप दिया गया था।”
“गुड। थैंक्यू, एएसएचओ साहब।”
उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर टांग दिया।
यानी कि दोबारा हथियाई जाने के लिये रकम फिर सर्कुलेशन में थी।
पांच की जगह सात लाख की रकम।
मायाराम अभी अट्ठाइस लाख रुपये और बटोरने का जुगाड़ करे तो कहीं जाकर उसे इतनी रकम का हिस्सा मिले।
वो भी तब जब उसकी नीयत न बदल जाये।
क्यों न वो मायाराम से पहले उस रकम पर काबिज होने की कोशिश करे!
मायाराम ने अगर झूठ नहीं बोला था तो आज तो उसका कुछ करने का इरादा मालूम नहीं होता था! आज तो उसका किसी हाई-प्राइस्ड कालगर्ल के पहलू में गर्क होने का ही वन प्वायन्ट प्रोग्राम मालूम होता था!
कैसा अय्याश था कम्बख्त!
यही एक काम था जिस पर पैसा लुटाने में उसे कोई गुरेज नहीं होता था।
क्या करे वो? क्या कदम उठाये वो मायाराम से पहले सात लाख की उस रकम पर काबिज होने के लिये?
वो सोचने लगा।
फिर धीरे धीरे एक योजना की रूपरेखा उसके जेहन पर उभरने लगी।
कालबैल बजी।
नन्हें सूरज के पहलू में लेटी टीवी देखती नीलम उठ कर खड़ी हुई।
सूरज उस घड़ी गहरी नींद सो रहा था।
सुमन उस वक्त घर में थी लेकिन वो भी अपने बैडरूम में सोई पड़ी थी।
टीवी की आवाज उसने बहुत धीमी की हुई थी ताकि सोने वालों की नींद में खलन न पड़ता। उसने रिमोट से टीवी को ऑफ किया और बाहर प्रवेशद्वार पर पहुंची। उसने दरवाजे को थोड़ा खोल कर बाहर झांका तो सामने उस शख्स को खड़ा पाया जो स्वयं को कूरियर सर्विस वाला बता कर वहां मायाराम की चिट्ठी पहुंचाने आया था और जिसका नाम मायाराम ने शायद हरिदत्त या श्रीदत्त पंत बताया था।
“क्या है?” — वो अप्रसन्न भाव से बोली — “फिर कोई चिट्ठी लाये हो?”
“नहीं।” — पंत धीरज से बोला — “जुबानी सन्देशा।”
“क्या?”
“भीतर आने दो।”
“वहीं से बोलो।”
“कोई देख लेगा। और फिर मैंने दो फिकरों की बात नहीं कहनी तुम्हें। कुछ समझाना भी है।”
“क्या समझाना है? ऐसे ही बोलो।”
“रास्ता छोड़ो नहीं तो...”
“क्या नहीं तो?”
“नहीं तो मैं जाता हूं और जाकर उस्ताद जी को बोलता हूं कि तुम्हारी उनका सन्देशा सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं।”
नीलम हिचकिचाई।
“मैं सिर्फ दो मिनट लूंगा।”
“आओ।” — वो एक तरफ हटती हुई बोली।
पंत उसके पहलू से गुजरा और उससे पहले ड्राईंगरूम में जाकर सोफे पर ढेर हो गया।
नीलम उसके करीब पहुंची, उसने एक सशंक निगाह पिछले दरवाजे की ओर डाली और फिर बोली — “क्या है? जो कहना है, जल्दी कहो।”
“मायाराम को मालूम है” — पंत धीरे से बोला — “कि रकम थाने से वापिस यहां पहुंच गयी है।”
“तो?”
“तुमने रकम उसके पास पहुंचानी है।”
“मैंने?”
“हां। पिछली बार रकम किसी और के हाथ भेजी थी तो खामखाह इतना घपला हो गया था। मायाराम नहीं चाहता कि इस बार फिर ऐसा कुछ हो। इसलिये ये जिम्मेदारी इस बार तुम्हें खुद निभानी होगी।”
“क्या करना होगा?”
“उसने खास तौर से कहलवाया है कि ये जहमत आखिरी बार की है। इस बार के बाद वो फिर कभी तुम्हें अपनी सूरत नहीं दिखायेगा।”
“ऐसा था तो वही आकर रकम ले जाता!”
“वो नहीं आ सकता। उसे अभी भी अन्देशा है कि यहां की निगरानी हो रही है। वो किसी की निगाहों में नहीं आना चाहता। किसी ने उसे रकम के साथ पकड़वा दिया तो इतनी बड़ी रकम की अपने पास मौजूदगी की जवाबदेयी उसके लिये मुश्किल होगी। रकम के मामले में वो तुम्हारा नाम तो लेगा नहीं! या तुम चाहोगी कि वो तुम्हारा नाम ले?”
“नहीं, नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिये।”
“इसलिये रकम उसके पास तुम्हें कहीं पहुंचानी होगी।”
“कहां?”
“झण्डेवालान। उसके सामने रानी झांसी रोड के पार मोतियाखान डम्प स्कीम के नाम से जाने जाने वाले इलाके में एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बन रही है। उस बिल्डिंग का नाम इरोज अपार्टमेंट्स है और इस नाम का बोर्ड उसके सामने लगा हुआ है। बिल्डिंग तेरह मंजिल तक उठ चुकी है और अभी बीस तक जायेगी। आज रात साढ़े नौ बजे उसकी तेरहवीं मंजिल पर मायाराम तुम्हें तुम्हारा इन्तजार करता मिलेगा।”
“तेरहवीं मंजिल पर किसलिये? नीचे क्यों नहीं? इमारत के सामने क्यों नहीं?”
“उसे अन्देशा है कि कोई तुम्हारे पीछे लगा लगा वहां पहुंच जायेगा। ऐसा होगा तो इतनी ऊंचाई से ऐसा कोई शख्स उससे छुपा नहीं रहेगा। वो उसे फासले से ही दिखाई दे जायेगा। उसे कोई तुम्हारे पीछे लगा दिखाई दिया तो फिर वो वहां नहीं रुकेगा। वो तुमसे मिले बिना चुपचाप वहां से खिसक जायेगा।”
“बेवकूफी की बात है ये। खामखाह एक सीधे साधे काम को उलझाने वाली बात है।”
“मैं क्या कहूं! उसने जैसा मेरे को बोला, मैंने आगे बोल दिया।”
“लेकिन...”
“आसान तरीके पर अमल करना चाहती हो तो ऐसा करो, ट्रंक मुझे दे दो, मैं उसे आगे मायाराम तक पहुंचा दूंगा।”
“मुझे कोई एतराज नहीं ....”
प्रत्याशा में पंत का दिल जोर से उछला।
“...मेरी मायाराम से इस बाबत बात कराओ। वो कहेगा कि मैं ट्रंक तुम्हें दे दूं तो मैं दे दूंगी।”
“ओह!”
“बात कराओ।”
“नहीं हो सकती। कैसे हो सकती है!”
“मैं रूबरू बात कराने को नहीं कह रही। टेलीफोन पर बात कराओ।”
“नहीं हो सकती।”
“क्यों नहीं हो सकती?”
“वो टेलीफोन पर उपलब्ध नहीं है। वो घर से निकल चुका है। बीच में वो कहां जायेगा, मुझे नहीं मालूम। अब वो साढ़े नौ बजे इरोज अपार्टमेंट्स की तेरहवीं मंजिल पर ही पहुंचेगा।”
“मैं वहां जाने से इनकार कर दूं तो तुम मेरे इनकार की उसे कैसे खबर करोगे?”
“कैसे भी नहीं। वो ही नाउम्मीद होकर वापिस लौट आयेगा। इसलिये भगवान के लिये इनकार न करना। वो भड़क जायेगा। भड़क जायेगा तो कोई ऐसा कदम उठा बैठेगा जो कि तुम्हें बहुत भारी पड़ेगा।”
“अजीब मुसीबत है।”
“सन्देशा मैंने दे दिया।” — पंत एकाएक उठ खड़ा हुआ — “अब मैं जाता हूं। आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मायाराम जाने उसका काम जाने।”
“तुम वहां जाके उसे खबर कर दो कि मैं रात के वक्त ऐसी जगह आने को तैयार नहीं।”
“मैं नहीं कर सकता। उसने मुझे उस जगह के करीब भी फटकने से मना किया है। मैं उस्ताद जी को नाराज नहीं कर सकता।”
“मुसीबत का पिटारा है गोलीवज्जना उस्ताद जी।”
पंत तनिक हंसा और फिर दरवाजे की ओर बढ़ चला।
दरवाजा बन्द करने की खातिर नीलम उसके पीछे गयी।
दरवाजा बन्द करके वो घूमी तो वहीं थमक कर खड़ी हो गयी।
ड्राईंगरूम के पिछले दरवाजे की चौखट पर सुमन खड़ी थी।
“तू तो सोई पड़ी थी!” — नीलम के मुंह से निकला।
“अब क्या सोई ही रहती?” — सुमन बोली — “रात तो पड़ रही है!”
“कब जागी?”
“अभी।”
“यहां कब से खड़ी है?”
“अभी दो सैकंड पहले आयी।”
“ओह!”
“कौन था ये आदमी?”
“कोई नहीं।”
“वही पहले वाला, भाई साहब वाला, कोई नहीं?”
“और क्या कोई नया खसम था मेरा?”
सुमन हंसी।
“बहुत नुक्ताचीनी करने लगी है आजकल तू।”
“अरे, नहीं।”
“जा, जाके चाय बना।”
सहमति में सिर हिलती सुमन घूमकर किचन की ओर बढ़ चली।
मोतियाखान। — वो मन ही मन दोहरा रही थी — इरोज अपार्टमेंट्स। तेरहवीं मंजिल। साढ़े नौ बजे। हूं।
साढ़े सात से थोड़ी देर पहले सजाधजा मायाराम पंत के कमरे में पहुंचा। पंत उस वक्त कुर्ता पाजामा पहने था और पलंग पर अधलेटा सा बैठा टीवी देख रहा था। मायाराम को आया पा कर उसने रिमोट से टीवी आफ कर दिया।
“चल दिये अपने खास ठिकाने?” — उसकी सजधज देखकर पंत रंगीन स्वर में बोला।
“हां।” — मायाराम मुस्कराया — “आ चल, आज तुझे भी ले के चलता हूं।”
“मुझे भी ले के चलते हो?”
“सिर्फ बीस हजार लगेंगे। लड़की ऐसी चिकनी कि हाथ लगाये मैली हो।”
“शुक्रिया। मैं बीस हजार नहीं खर्च सकता।”
“खर्च सकता नहीं या खर्चना नहीं चाहता?”
“इधर एक ही बात है।”
“बीस हजार पूरी रात की फीस होती है। चल, मैं तेरा दस में काम बनवाता हूं।”
“दस में क्या मिलता है?”
“दो घन्टे की तफरीह। परी जैसी लड़की के साथ वो भी कम नहीं होती।”
“तुम्हारी तफरीह तुम्हें ही मुबारक हो।”
“अरे, पैसे का आनन्द न उठाया तो क्या फायदा कमाने का!”
“उस्ताद जी, मुझे चिकनी लड़की नहीं चाहिये। मेरा काम खुरदरी से ही चल जाता है जो कि पांच सौ रुपये लेती है।”
“तू ...तू पागल है। तू फाइव स्टार होटल के लजीज खाने में और ढाबे के टुकड़ों में फर्क नहीं समझता।”
“फर्क तुम्हें ही मुबारक हो, उस्ताद जी।”
मायाराम हंसा।
“लिहाजा सुबह ही लौटोगे?” — पंत सावधान स्वर में बोला।
“नहीं। जल्दी लौट आऊंगा।”
“आज मिनी तफरीह का प्रोग्राम है? दस हजार वाला?”
“हां। तेरा क्या प्रोग्राम है?”
“मैंने तो होटल से खाना मंगाया है। खाते ही सो जाऊंगा।”
“वजह?”
“आज मूड और तबीयत दोनों खराब हैं।”
“क्या मंगाया?”
“तन्दूरी चिकन। मटर पनीर। नान।”
“घूंट लगाया?
“अभी नहीं।”
“उसका भी मूड नहीं है आज?”
“उसका तो मूड बराबर है! वो क्या है कि चिकन का इन्तजार था।”
“बोतल निकाल। एक पैग मुझे दे।”
पंत ने सहमति में सिर हिलाया।
मायाराम का मिजाज उसकी समझ से परे था। ऐसा घड़ी में तोला घड़ी में माशा जैसा मिजाज उसने पहले तो कभी नहीं दिखाया था।
उसने बोतल निकाल कर दो पैग तैयार किये और मायाराम के साथ चियर्स बोला।
तभी होटल का वेटर एक ट्रे उठाये वहां पहुंचा। उसने ट्रे को उन दोनों के बीच मेज पर रख दिया और उस पर से अखबार हटा कर उसे गुच्छा मुच्छा करके अपने साथ ले गया।
“सिर्फ एक बोटी।” — मायाराम तन्दूरी चिकन की ओर हाथ बढ़ाता बोला।
“सारा खा लो, उस्ताद जी। और आ जायेगा।”
“वक्त नहीं है। आठ से पहले मुझे निजामुद्दीन पहुंचना है। साढ़े सात बज भी गये हैं।”
“मर्जी तुम्हारी।”
मायाराम ने सच में ही एक ही बोटी खायी, अपना विस्की का गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ।
“मैं छोड़ कर आऊं?” — पंत उठने का उपक्रम करता बोला।
“नहीं, जरूरत नहीं।” — मायाराम बोला — “टैक्सी! तक ही तो जाना है!”
“कभी कभी करीब से टैक्सी नहीं मिलती। मैं छोड़ आता हूं। चाल के सामने से न मिली तो टैक्सी दूर से भी ला दूंगा।”
“लेकिन तेरा खाना...”
“कहीं भागा नहीं जा रहा। लौट के खा लूंगा।”
“ठीक है फिर।”
पंत उसे टैक्सी पर सवार करा के आया। यूं मायाराम को टैक्सी ड्राइवर को निजामुद्दीन चलने के लिये कहते उसने अपने कानों से सुना।
बढ़िया।
वो वापिस लौटा।
उसने एक पैग और पिया, खाना खत्म किया और फिर उठ कर खड़ा हो गया।
तभी वेटर वापिस लौटा और खाली ट्रे उठा कर ले गया।
तब बड़े इत्मीनान से पंत ने अपने अभियान के लिये तैयार होना शुरू किया।
साढ़े आठ बजे नीलम तैयार होने लगी। तब साड़ी की जगह उसने चुस्त शलवार कमीज को तरजीह दी।
“कहीं जाने की तैयारी है?” — सुमन ने सहज भाव से पूछा।
“हां।” — नीलम गम्भीरता से बोली — “जो काम कल अधूरा रह गया था, उसे आज पूरा करना है।”
“यानी कि ट्रंक को फिर कहीं पहुंचना है?”
“हां।”
“आज भी ये काम मैं क्यों नहीं कर सकती?”
“क्योंकि कल तू काम को ठीक से नहीं कर सकी थी। अब उन लोगों को तेरे पर एतराज है। इसलिये आज ये जिम्मेदारी मुझे भुगतनी पड़ेगी।”
“मैं भी साथ चलूंगी।”
“पागल हुई है! पीछे सूरज के पास कौन रहेगा?”
“ओह!”
“मैं चलती हूं। सवा दस या बड़ी हद साढ़े दस तक लौट आऊंगी।”
मशीनी अन्दाज से सुमन ने सहमति में सिर हिलाया।
नीलम कोठी से बाहर निकली, काली एम्बैसेडर पर सवार हुई और फिर उसे ड्राइव करती वहां से रवाना हो गयी।
सुमन लपक कर टेलीफोन पर पहुंची, उसने एक मोबाइल फोन का नम्बर डायल किया।
“हां।” — तत्काल दूसरी ओर से प्रदीप की आवाज आयी।
“आ जाओ।” — सुमन व्यग्र भाव से बोली — “साथ में एक टैक्सी लेकर आना।”
प्रदीप — जिसने कि करीबी मार्केट से ही आना था, जहां कि वो सुमन की एसओएस काल सुनने के लिये मौजूद था — दो मिनट में कोठी पर पहुंच गया। वो अपनी मोटरसाइकल पर सवार था और मोटरसाइकल के पीछे पीछे एक टैक्सी आ रही थी।
सुमन उसे सड़क पर खड़ी मिली।
प्रदीप एक कोई अट्ठाइस साल का सुन्दर युवक था, एमबीबीएस डाक्टर था, स्थानीय लोहिया हस्पताल में नौकरी करता था और नौकरी के साथ ही एमडी की तैयारी कर रहा था।
सुमन के ब्वाय फ्रेंड के तौर पर नीलम भी उसे जानती थी। प्रदीप ने खुद उसे बताया था कि एमडी की पढ़ाई खत्म होते ही वो सुमन से शादी का इरादा रखता था।
“पीछे बच्चे का खयाल रखना।” — सुमन व्यग्र स्वर में बोली।
“मैं भी साथ चलूं तो ...”
“तुम साथ चल सकते होते तो मुझे खुशी होती। लेकिन नीलम की गैरहाजिरी में यहां किसी न किसी का बच्चे के पास ठहरना जरूरी है।”
“तू ठहर जा और जो काम तू करने जा रही है, वो तू मुझे समझा दे।”
“अब टाइम नहीं।”
“वापिस कब लौटेगी?”
“साढ़े दस से पहले। नीलम से पहले। मैं चली।”
“मुझे तेरी फिक्र रहेगी। मैं अभी भी कहता हूं कि ...”
उसकी बाकी की बात सुमन ने न सुनी। वो झपट कर टैक्सी में सवार हुई और ड्राइवर से बोली — “झण्डेवालान। रानी झांसी रोड। जल्दी।”
टैक्सी तत्काल आगे को दौड़ी।
वो नहीं जानती थी कि वो उसी डीएल 1टी 4979 नम्बर की टैक्सी पर सवार थी जिस पर कि वो पिछले रोज सवार हुई थी। कोई फर्क था तो ये कि टैक्सी में अशरफ की जगह वली मुहम्मद ने ले ली थी और अशरफ पीछे वली के जुड़वां अली मुहम्मद के साथ ठहर गया था।
अलबत्ता सुमन का ध्यान इस ओर न गया कि वो कल वाली टैक्सी पर ही सवार थी।
चला भी जाता तो कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि तब वली मुहम्मद ही इस जवाब के साथ उसकी जिज्ञासा को शान्त कर सकता था कि वो किराये पर चलने वाली टैक्सी थी जिसका कभी इस हाथ तो कभी उस हाथ पहुंच जाना ऐसी आम बात थी जो कि रोज वाकया हो सकती थी।
सुमन को क्योंकि नीलम की मंजिल मालूम थी इसलिये उसके पीछे लगना जरूरी नहीं था। वो रूट भी पकड़ना जरूरी नहीं था जिस पर नीलम कार चलाती आगे बढ़ रही थी।
उसकी टैक्सी ने झण्डेवालान पहुंचने के लिये राणाप्रताप बाग, अशोक विहार, आनन्द पर्वत, रोहतक रोड वाला रूट पकड़ा जिससे सुमन को उम्मीद थी कि वो नीलम से जल्दी इरोज अपार्टमेंट्स पहुंच सकती थी।
पर ऐसा न हो सका।
गन्तव्य स्थान तक पहुंचने पर उसने नीलम की काली एम्बैसेडर को बनती इमारत से परे रानी झांसी रोड के करीब खड़ी पाया।
उस घड़ी वहां मुकम्मल सन्नाटा और अन्धेरा था और नीलम का कहीं नामोनिशान नहीं मिल रहा था।
टैक्सी से उतर कर वो इमारत के करीब पहुंची।
तेरह मंजिल तक उठ चुकी उस इमारत में आरसीसी के कालम, बीम और छतें ही दिखाई दे रही थीं। ग्राउण्ड फ्लोर के एक पहलू को छोड़ कर कहीं कोई पार्टीशन वाल अभी नहीं बनी थी। इमारत की बाउन्ड्री वाल की तामीर अभी नहीं हुई थी इसलिये उस तक चारों दिशाओं में से किसी भी तरफ से पहुंचा जा सकता था।
जो और बात उसने नोट की वो यह थी कि इमारत में सीढ़ियों के दो सैट थे। सीढ़ियों का एक सिलसिला इमारत के फ्रंट में था और दूसरा पिछवाड़े में। लिफ्ट के लिये वैल उठती इमारत के साथ साथ बनता जा रहा था लेकिन अभी तक लिफ्ट लगी नहीं थी।
आसपास कहीं कोई सिक्योरिटी गार्ड, कोई दरबान नहीं दिखाई दे रहा था।
नीलम या तो इमारत की तेरहवीं मंजिल पर पहुंच चुकी थी या फिर अभी वो सीढ़ियों पर ही कहीं थी।
हिचकिचाते हुए उसने भी सामने की सीढ़ियों पर पांव डाला और फिर वो दबे पांव सीढ़ियों चढ़ने लगी।
ट्रंक उठाये नीलम तेरहवीं मंजिल पर पहुंची।
वहां ऐसा सन्नाटा था कि उसे अपनी उखड़ी सांसों की वजह से तेज हुई दिल की धड़कन भी नगाड़े की तरह बजती लग रही थी।
वहां के अन्धेरे में पैन होती उसकी निगाह अपने सामने फिरी।
कहीं कोई नहीं था।
“कोई है?” — फिर वो हिम्मत करके बोली।
तत्काल एक पिलर के पीछे से एक साया निकला।
साये ने दो ही कदम आगे बढ़ाये तो नीलम समझ गयी कि वो मायाराम नहीं था।
“कौन?” — वो हौसला कर के बोली।
“ऐन टाइम पर पहुंचीं!” — साया बोला।
नीलम ने वो आवाज साफ पहचानी। वो पंत नाम का मायाराम का जोड़ीदार था जो दो बार उसके लिये हरकारे का काम कर चुका था।
“श्रीदत्त पंत?” — फिर भी उसने पुछा।
“हरिदत्त।” — जवाब मिला — “हरिदत्त पंत।”
“तुम यहां क्या कर रहे हो?
“तुम्हारा इन्तजार।”
“मायाराम कहां है?”
“वो नहीं आया।”
“तुम कैसे आ गये? तुम तो कहते थे कि उसने तुम्हें इस जगह के करीब भी फटकने से मना किया था!”
“मना करने से कोई मना हो जाता है?”
“तुम तो कहते थे कि तुम उसे नाराज नहीं कर सकते थे?”
वो हंसा।
“है कहां मायाराम?”
“किसी चिकनी जनानी के साथ लेटने गया है। उसकी फीस भर के। बेवकूफ! मुफ्त के माल को छोड़ कर फीस भरने जाता है। सामने नौ नकद नहीं दिखाई देते, तेरह उधार की टोह लेने जाता है।”
“क्या बकते हो?”
वो फिर हंसा।
“लगता है तुम्हें पहले से मालूम था कि मायाराम यहां नहीं आने वाला था!”
“यही समझ लो।”
“तुमने मुझे गलत सन्देशा दिया! तुमने धोखे से मुझे यहां बुलाया!”
“ऐसा ही है कुछ कुछ।”
“मायाराम तुम्हारी अच्छी खबर लेगा।”
“देखते हैं, बीबी, कि कौन किसकी खबर लेता है!”
“मैं जाती हूं।”
“अरे, अरे! ऐसे कैसे चली जायेगी! ट्रंक तो देती जा।”
“तुझे किसलिये?”
“क्योंकि मैं यहां हूं। और इस घड़ी सिर्फ ट्रंक ही नहीं, तू भी मेरे हवाले है।”
“क्या!”
“मत्त मारी हुई है उस्ताद जी की। दो घन्टे के दस हजार भरते हैं। सारी रात के बीस हजार भरते हैं। मेरा काम तो फ्री हो जायेगा!”
“क्या बकता है?”
“सैंकड़ों वाला मजा ही चख पाया आज तक। आज जरा हजारों वाला मजा चखूंगा।”
“क्या मतलब है तेरा?”
“ट्रंक नीचे रख और इधर आ के ठा करके मेरे कलेजे से लग जा, मतलब अपने आप समझ में आ जायेगा।”
“तो ये इरादे हैं तेरे, कमीने?”
“हैं तो सही कुछ कुछ!”
वो फिर बड़े अश्लील भाव से हंसा, फिर उसने नीलम की तरफ कदम बढ़ाया।
“खबरदार!” — नीलम चिल्लाई — “वहीं खड़ा रह।”
“यहां न किसी को तेरी आवाज सुनायी देने वाली है और न तेरी हिमायत को कोई आने वाला है। समझी?”
“तुझे रुपया चाहिये न...”
“उसका अब क्या चाहना? वो तो समझ, मिल गया। रुपये ने अब यहां से कहां जाना है!”
“तो तू ...”
“तूने भी अब यहां से कहां जाना है!”
उसने फिर कदम आगे बढ़ाया।
“तू पछतायेगा!” — नीलम चेतावनीभरे स्वर में बोली।
“रमता जोगी क्या पछतायेगा?” — पंत अश्लील हंसी हंसता बोला — “बस एक बार, सिर्फ एक बार खुश कर दे। फिर तू अपनी राह लगना, जोगी अपनी राह लगेगा।”
“अगर जहन्नुम की राह नहीं लगना चाहता” — नीलम एकाएक आतंकित भाव से चिल्लाई — “तो वहीं रुक जा वरना...”
“वरना तू क्या करेगी?”
“गोली मार दूंगी।”
“गोली मार देगी।” — पन्त जोर से हंसा — “कहती है गोली मार देगी। ठहर जा, साली।”
“रुक जा वरना...”
पंत बगूले की तरह उस पर झपटा।
बारह मंजिल पार करने तक सुमन बुरी तरह से हांफने लगी थी। उसे गारन्टी थी कि नीलम ऊपर पहुंच चुकी थी क्योंकि अब उसे नीलम की आवाज और एक मर्दाना आवाज सुनायी देने लगी थी।
आखिरी मंजिल के वो आधे रास्ते में ही थी कि एकाएक एक फायर की आवाज हुई।
आवाज सुनते ही सुमन थमक कर खड़ी हो गयी।
क्या हो रहा था ऊपर? क्या उस शख्स ने, जिससे कि नीलम वहां मिलने आयी थी, नीलम को गोली मार दी थी? ऐसे में अब वो ऊपर पहुंचती तो उसे भी गोली मारी जा सकती थी।
उसने वो अन्देशा झटक कर अपने जेहन से निकाला और दौड़ कर बाकी की सीढ़ियां भी पार कर गयी।
आगे अन्धेरे में आंखे फाड़ फाड़ कर देखने पर उसे जो नजारा दिखाई दिया, उसने उसके छक्के छुड़ा दिये।
गोली नीलम ने खाई नहीं थी, मारी थी। उसके हाथ में एक रिवाल्वर थमी हुई थी जिसकी नाल में से तब भी धुंआ निकल रहा था। उससे कोई छ: गज दूर फर्श पर औंधे मुंह एक व्यक्ति पड़ा था जो कि जाहिर था कि नीलम की चलायी गोली का शिकार हुआ था।
सुमन लपक कर नीलम के करीब पहुंची।
“क्या हुआ?” — वो आतंकित भाव से बोली।
“ये ....ये ..” — नीलम ने उस से कहीं अधिक आतंकित भाव से गिरे पड़े व्यक्ति की ओर इशारा किया।
“आपने इसे शूट कर दिया?”
“हां ...हां। हां।”
“क्यों?”
“ये वो आदमी नहीं जिसे कि मैंने ट्रंक सौंपना था। इसने धोखे से मुझे यहां बुलाया था। मेरे से ट्रंक जबरन छीनना चाहता था। मेरी इज्जत पर हाथ डालना चाहता था। जान और माल की हिफाजत के लिये मजबूरन मुझे इस पर गोली चलानी पड़ी।”
“ये है कौन?”
“इसका नाम श्रीदत्त... नहीं, हरिदत्त पंत है। ये उस शख्स का जोड़ीदार है जिसे कि मैंने ट्रंक सौंपना था।”
“वो कौन हुआ?”
“उसका नाम मायाराम है।”
“जो कि आपको ब्लैकमेल कर रहा है?”
नीलम खामोश रही।
“अब चुप रहने का क्या फायदा! दीदी, तकरीबन किस्सा तो मैं पहले से जानती हूं!”
“कैसे जानती है?” — नीलम हैरानीभरे स्वर में बोली।
“वो एक लम्बी कहानी है। घर चल कर सुनाऊंगी।”
“तू ...तू यहां कैसे पहुंच गयी?”
“इसका जवाब भी उस लम्बी कहानी का हिस्सा है।”
“तूने मेरा पीछा किया था?”
“नहीं।”
“तो फिर तुझे कैसे मालूम था कि मैं कहां थी और तूने कहां पहुंचना था?”
“घर चल कर बताऊंगी। आप बताइये, ट्रंक कहां गया?”
“मेरे हाथ से छूट कर कहीं गिर गया।”
“गिर गया?”
“रिवाल्वर सम्भालने के लिये मुझे ट्रंक छोड़ना पड़ा। अब पता नहीं कहां गिर गया!”
“करीब तो कहीं दिखाई दे नहीं रहा!”
“पता नहीं कहां गया!”
“फ्लोर पर दीवारें तो कहीं हैं नहीं! लगता है नीचे कहीं जा गिरा।”
“शायद।”
“आप रिवाल्वर मुझे दीजिये और चलिये यहां से।”
“रिवाल्वर तुझे दूं?”
“हां।”
“क्यों?”
“क्योंकि आपने कुछ नहीं किया है। यहां जो कुछ हुआ है, मैंने किया है। कल की तरह आज भी मैं ही ट्रंक लेकर यहां पहुंची थी। इसने मेरे से ....सुना आपने ...मेरे से ट्रंक छीनना चाहा था और मेरी ....मेरी इज्जत लूटने की कोशिश की थी इसलिये आत्मरक्षा के लिये इस पर गोली मैंने चलाई थी। सुन रही हैं आप? गोली मैंने चलायी थी।”
“नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। गोली मैंने...”
“पहले यहां से हिलिये। ऊपर से कोई आ गया तो बहुत मुश्किल खड़ी हो जायेगी हम दोनों के लिये। पिछवाड़े की सीढ़ियों से चलिये ताकि कोई सामने से ऊपर आ रहा हो तो हमारा उससे आमना सामना न हो।”
साथ ही उसने उसके हाथ में थमी रिवाल्वर निकाल कर अपने कब्जे में ले ली और उसकी बांह पकड़ कर उसे पिछवाड़े की सीढ़ियों की तरफ धकेलना शुरू किया।
नीलम उसके साथ घिसटती चली गयी।
तेरह मंजिलों की सीढ़ियों उतर कर वो दोनों नीचे पहुंचीं।
कहीं कोई नहीं था।
ट्रंक उन्हें कहीं दिखाई न दिया।
“कहां गया!” — नीलम के मुंह से निकला।
“कहीं भी गया। अब उसकी तलाश में यहां रुकना खतरे से खाली नहीं।”
“लेकिन...”
“चलो।”
दोनों सड़क पर पहुंचीं। वो वहां खड़ी काली एम्बैसेडर में सवार हुईं। नीलम ने तत्काल कार को सड़क पर दौड़ा दिया।
वो मॉडल टाउन पहुंचीं।
प्रदीप ने उन्हें दरवाजा खोला।
“प्रदीप!” — नीलम के मुंह से निकला — “तुम यहां!”
“मैंने बुलाया था।” — सुमन जल्दी से बोली — “सूरज का खयाल रखने के लिये।”
“यानी कि तेरा पहले से इरादा मेरे पीछे आने का था?”
“हां।”
“क्यों?”
“क्योंकि रात की घड़ी एक सुनसान जगह पर, एक ब्लैकमेलर से मिलने आपका अकेले जाना मुझे हज्म नहीं हुआ था। साथ ले जाने को आप तैयार नहीं थीं इसलिये मुझे आपके पीछे जाना पड़ा।”
“तू क्या जानती है? कैसे जानती है?”
“ये एक लम्बी कहानी है। फिर सुनाऊंगी। फिलहाल आप आराम कीजिये। आइये।”
लगभग जबरदस्ती वो नीलम को उसके बैडरूम में लायी।
फिर वो बाहर प्रदीप के पास पहुंची।
“इन्हें सीडेटिव का इन्जेक्शन दे सकते हो?”
“हां।” — प्रदीप बोला — “मेरा विजिट बैग मेरी मोटरसाइकल के बक्से में है। उसमें है सीडेटिव का इन्जेक्शन।”
“ले के आओ।”
“लेकिन क्यों? सीडेटिव का इन्जेक्शन किसलिये?”
“मेरा दिल गवाही दे रहा है कि पुलिस किसी भी क्षण यहां पहुंच सकती है।”
“खामखाह!”
“खामखाह नहीं। उस ट्रंक की वजह से जिसमें सात लाख के नोट बन्द थे और जो पीछे घटनास्थल पर ही कहीं छूट गया है। आज के अखबारों में उस ट्रंक की बहुत पब्लिसिटी हो चुकी है। पुलिस ने अगर वो ट्रंक बरामद कर लिया तो उन्हें ये समझते देर नहीं लगेगी कि उन्होंने कहां पहुंचना था!”
“ओह!”
“सीडेटिव के हवाले होने की वजह से ये आज रात पुलिस को कोई बयान नहीं दे पायेंगी।”
“कल दोपहर तक भी नहीं दे पायेंगी।”
“गुड। होश में आने पर हो सकता है कि अपनी झण्डेवालान वाली विजिट इन्हें एक सपना ही लगे।”
“वो सब तो ठीक है लेकिन तुम कत्ल का इलजाम अपने सिर क्यों ले रही हो?”
“इनकी तरफ से फोकस हटाने के लिये।”
“शहीद हो रही हो?”
“मुझे कोई एतराज नहीं। इस परिवार के मेरे ऊपर बहुत अहसान हैं। मैं इनके लिये कुछ भी कर सकती हूं।”
“तुम जज्बाती हो रही हो।”
“बहस छोड़ो। जाके अपना बैग लेकर आओ।”
प्रदीप मोटरसाइकल में से अपना विजिट बैग निकाल कर लाया। फिर नीलम की ना-नुकर के बावजूद उसने उसे तगड़ा इन्जेक्शन दे दिया।
फिर दोनों बाहर बैठक में आ गये।
“गोली इन्होंने तुम्हारे सामने चलाई थी?” — प्रदीप ने पूछा।
“मैंने दीदी को रिवाल्वर का घोड़ा खींचते तो नहीं देखा था लेकिन गोली की आवाज सुनने के मुश्किल से पन्द्रह सैकेंड बाद जब मैं तेरहवीं मंजिल पर पहुंची तो धुंआ उगलती रिवाल्वर मैंने दीदी के हाथ में देखी थी और वो ....वो आदमी औंधे मुंह फर्श पर गिरा पड़ा था। अब बताओ, गोली दीदी के सिवाय किसी और ने चलाई कैसे हो सकती थी? और तो कोई वहां था ही नहीं! ऊपर से दीदी ने खुद अपनी जुबानी कबूल किया था कि क्योंकि वो आदमी जोर जबरदस्ती पर उतर आया था इसलिये मजबूरन उन्हें उस पर गोली चलानी पड़ी थी।”
“इस बात की क्या गारन्टी है कि वो मर ही गया था?”
“गोली खा कर मरते ही हैं लोग!”
“जरूरी नहीं। क्या पता गोली उसके किसी घातक स्थल पर न लगी हो! क्या पता गोली उसके कन्धे-वन्धे पर लगी हो!”
“क्या कहना चाहते हो?”
“तुमने या नीलम ने इस बात की तसदीक तो की नहीं होगी कि वो सच में मर गया था!”
“वो औंधे मुंह फर्श पर पड़ा था। कोई हिलडुल नहीं थी उसके जिस्म में। मर ही गया होगा!”
“शायद न मरा हो! शायद घायलावस्था में वो अभी भी वहां पड़ा हो और तिल तिल करके मर रहा हो!”
“फिर पूछ रही हूं। क्या कहना चाहते हो?”
“जब तक कि इस बात की तसदीक न हो जाये कि वो मर चुका था, उसका खून अपने सिर लेना बेवकूफी है। क्या पता वो मामूली घायल हुआ हो और तुम लोगों के वहां से लौट आने के बाद अपना घायल अंग सम्भाले वो भी उठ कर चल दिया हो!”
“ऐसा हो सकता है?”
“क्यों नहीं हो सकता? होने को तो ये भी हो सकता है कि गोली उसे लगी ही न हो।”
“वापिसी में इस बाबत मैंने दीदी से बहुत सवाल किये थे। वो कहती हैं कि गोली उसे निश्चित रूप से लगी थी। गोली लगने पर ही उसने अपना कलेजा थामा था और औंधे मुंह दीदी के सामने फर्श पर गिरा था।”
“फिर तो मैं अपनी पहली वाली बात ही दोहराता हूं कि शायद गोली लगने से वो मरा न हो!”
वो सोचने लगी।
“तुम्हारा कत्ल का इलजाम अपने सिर लेना मूर्खता है। क्योंकि अभी ये स्थापित नहीं हुआ है कि कत्ल हुआ है।”
“गोली तो उसे जरूर लगी थी। जहां तक मैं समझती हूं, इरादायेकत्ल भी कत्ल जितना ही गम्भीर अपराध होता है।”
“वो ब्लैकमेलर है। अगर वो सिर्फ घायल हुआ है तो वो ही इस बाबत अपनी जुबान खोलना पसन्द नहीं करेगा। कोई ब्लैकमेलर पुलिस का पचड़ा नहीं चाहता। समझी?”
“हां।”
“यही बात नीलम को भी समझाई जानी चाहिये थी। तूने नाहक उसे सीडेटिव का इन्जेक्शन दिलवाया।”
“अब समझा देंगे।”
“हां। उसे समझाना होगा कि वो जानती है कि उसने गोली चलाई थी लेकिन गोली घातक निकली थी, ये वो नहीं जानती। ये तुम भी नहीं जानती हो। इसलिये जज्बाती होकर बढ़ बढ़ के मत बोलो। नाहक शहीद होने की कोशिश मत करो।”
सुमन खामोश रही। अब उसकी सूरत पर उलझन के भाव दिखाई देने लगे थे।
“मुझे मौकायवारदात का पता ठीक से समझाओ।”
“क्यों?” — सुमन सकपकाई-सी बोली।
“मैं वहां हो के आता हूं। अगर नीलम की चलाई गोली घातक साबित हुई थी तो उसकी लाश अभी भी वहां पड़ी होगी।”
“अगर वो वहां घायलवस्था में पड़ा पाया गया तो?”
“तो मैं चुपचाप उसके लिये मेडीकल एड का बन्दोबस्त कर दूंगा। उसकी जान बच गयी तो फिर ये कम से कम कत्ल का केस नहीं होगा।”
“कहीं लेने के देने न पड़ जायें!”
“कुछ नहीं होगा। दिन चढ़े तक उसकी किसी को खबर नहीं लगने वाली।”
“वो वहां न हुआ तो?”
“तो इसका मतलब होगा कि वो मामूली तौर पर घायल हुआ था और बाद में खुद ही उठ कर चल दिया था।”
“ओह!”
“मैं वहां ट्रंक तलाश करने की भी कोशिश करूंगा। ट्रंक मेरे हाथ लग गया तो फिर नीलम की तरफ या तुम्हारी तरफ कोई उंगली नहीं उठेगी।”
“गुड। ट्रंक वहीं होगा। अन्धेरे में हमें वो दिखाई नहीं दिया होगा। फिर हमें वहां से खिसकने की भी जल्दी थी।”
“मेरे विजिट बैग में टार्च हमेशा रहती है। मैं टार्च साथ लेकर जाऊंगा। अब पता बोलो।”
सुमन ने न सिर्फ पता बोला, उसे वहां तक पहुंचने का रूट भी समझाया।
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