सोहनलाल और नानिया खाना खाकर हटे थे। रात के ग्यारह बज रहे थे। बैडरूम में टी•वी• चल रहा था। नानिया ने सुर्ख रंग का गाऊन पहना हुआ था। होंठों पर लिपस्टिक। मांग में सिन्दूर। वो बहुत खूबसूरत लग रही थी। सोहनलाल नानिया को पूर्वजन्म की दुनियाँ से लाया था और नानिया को ये दुनियाँ बहुत पसन्द आई थी। बीते तीन महीनों से सोहनलाल, नानिया को नये-नये शहर घुमा रहा था। अपना कोई काम न किया था। नानिया से शादी के बाद सोहनलाल की दुनियाँ ही जैसे बदल गई थी। उसे सबकुछ नया-सा लग रहा था।

तभी कॉलबेल बज उठी।
नानिया उस वक्त किचन से बाहर निकली ही थी। वो दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
दरवाजा खोला।
सामने मलिक और मल्होत्रा खड़े थे।
"नमस्कार...।" मलिक ने शराफत से दोनों हाथ जोड़कर कहा।
"नमस्कार।" नानिया बोला--- "क्या चाहिए?"
"सोहनलाल से मिलना है।"
"ये कोई मिलने का वक्त है? खाना खाया है अब। नींद भी आ रही है। सुबह आना।"
"हमें जरूरी काम है।"
तभी वहाँ सोहनलाल आ पहुँचा।
"हटो नानिया।" सोहनलाल ने कहा।
नानिया पीछे हट गई।
"पाँच मिनट का काम है। भीतर बैठ कर बात करें तो ठीक होगा सोहनलाल।" मलिक बोला।
"तुम लोग कौन हो?"
"मैं मलिक हूँ और ये मल्होत्रा। अब तक हमारी बात खत्म भी हो जानी थी।"
"आओ...।"
वे भीतर ड्राईंगरूम में बैठे।
नानिया सोहनलाल से बोली---
"चाय-पानी लाऊँ क्या?"
"नहीं...।" कहकर सोहनलाल ने दोनों को देखा--- "बोलो, क्या काम है?"
"कल तुमने बैंक के सीलबंद पाँच बक्से खोलने हैं। उस पर ताला पड़ा होगा। लीवर वाला लॉक भी उनमें हो सकता है।"
"मैं अभी कोई भी काम करने को तैयार नहीं हूँ...।" सोहनलाल ने कहा--- "मैं...।"
"इस काम का तुम्हें अच्छा पैसा मिलेगा। एक घण्टे में तुम ये काम कर लोगे।"
सोहनलाल के चेहरे पर सोच के भाव उभरे। फिर बोला---
"वो बक्से कहाँ हैं?"
"अभी तो बैंक में ही हैं। लेकिन कल सुबह वो बैंक से बाहर हमारे हाथों में होंगे।"
सोहनलाल के होंठ सिकुड़े।
"तुमने कहा कि बैंक के पाँच स्टील के बक्सों को खोलना है।" एकाएक वो सतर्क दिखने लगा।
"हाँ...।"
"कितने बजे ये काम होगा?" सोहनलाल अब चौकस नजर आ रहा था।
"शायद ग्यारह और एक के बीच का वक्त होगा।" मलिक बोला।
देवराज चौहान ने भी बैंक के पाँच बक्सों को खोलने के लिए, यही वक्त बताया था।
सोहनलाल समझ गया कि मामला कहीं न कहीं तो गड़बड़ है।
"तुम लोग बैंक वाले हो?"
"नहीं। हम तुम्हारे पास काम लेकर आये हैं।"
"मुझे क्या मिलेगा?"
"हर बक्से का दस लाख। कुल पचास लाख...।"
"एडवांस में?" सोहनलाल ने मलिक-मल्होत्रा को देखा।
"रकम तो हम तुम्हें कल सुबह दे देंगे। अगर काम पूरा न हुआ तो तुम्हें रकम वापस करनी होगी।"
"मंजूर है।"
"हमारा आदमी कल सुबह दस बजे तुम्हें लेने आयेगा। तब वो रकम तुम्हारे हवाले कर देगा।"
"उन बक्सों को अपने कब्जे में लेने के पश्चात् ही मुझसे काम लोगे?"
"हाँ...।"
"मतलब कि मेरे पास काम करने का पर्याप्त वक्त होगा।"
"लेकिन हम चाहेंगे कि तुम ये काम दस-बीस मिनट में कर दो।"
"इस बारे में कोई गारण्टी नहीं। क्योंकि मैं अभी तक बक्सों का लॉक सिस्टम नहीं जानता।"
"हमने सुना है कि तुम ताले-तिजोरी खोलने में मास्टर हो।"
"ठीक ही सुना होगा।"
"तो हम आशा करते हैं कि कल तुम हमारा ये काम अवश्य दस-बीस मिनट में निपटा दोगे।"
"ये तो कल मौके पर ही पता चलेगा।"
मलिक-मल्होत्रा उठ खड़े हुए।
"सुबह दस बजे हमारा आदमी नोट लेकर आएगा। तुम उसके साथ आ जाना।"
वो दोनों बाहर निकल गये।
नानिया ने दरवाजा बंद कर दिया और पास आकर बोली---
"बैंक के बक्से वो तुमसे क्यों खुलवाना चाहते हैं सोहनलाल?"
"ये मेरे काम की बात है। तुम ध्यान मत दो।" सोहनलाल ने कहा और भीतर की तरफ बढ़ गया।
बैडरूम में पहुँचकर मोबाइल उठाया और देवराज चौहान को नम्बर मिलाने लगा।
नम्बर लगा, फौरन ही देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी---
"हैलो...।"
"मैं।" सोहनलाल बोला--- "तुमसे एक बार फिर पूछना चाहता हूँ कि कल मैंने क्या काम करना है?"
"एक बैंक के पाँच स्टील के बक्सों को खोलना है।"
"वक्त?"
"11 से 1 के बीच का होगा।"
"मेरे पास अभी मलिक और मल्होत्रा नाम के आदमी आये थे। वो भी पाँच स्टील के, बैंक के बॉक्स खुलवाना चाहते हैं। वक्त ग्यारह से एक के बीच। उनका कहना है कि कल वो बक्से उनके पास होंगे। अभी वो बैंक में ही हैं।"
देवराज चौहान की फौरन आवाज नहीं आई।
सोहनलाल भी खामोश रहा।
"इसका मतलब कोई और भी है जो कल उन बक्सों पर हाथ मार रहा है।" उधर से देवराज चौहान ने कहा।
"मैं क्या करूँ?"
"तुम मलिक और मल्होत्रा के साथ लग जाओ। मुझे खबर देते रहना उनकी।"
"मैंने उन्हें हाँ कर दी है। इस काम का वो मुझे पचास लाख दे रहे हैं।"
"ठीक किया।"
"तुम क्या करोगे?"
"मैं अपना काम वैसे ही करूँगा जैसे कि कर रहा हूँ।" देवराज चौहान का गम्भीर स्वर कानों में पड़ा।
"मलिक और मल्होत्रा को तुम नहीं जानते?"
"नहीं। लेकिन जगमोहन उनके पास हो सकता है। अब जगमोहन का गायब होना मेरी समझ में आया...।"
"जगमोहन?' सोहनलाल चौंका--- "क्या हुआ जगमोहन को?"
देवराज चौहान ने सोहनलाल को सारी बात बताई।
सुनकर सोहनलाल ने गहरी साँस ली।
"अब समझ में आया कि क्यों जगमोहन को मलिक-मल्होत्रा ने उठाया। वो जगमोहन से बैंक वैन डकैती के बारे में ही जानना चाहते होंगे, ताकि वो अपनी योजना को तैयार कर सकें।"
"इसका मतलब तुम्हारी बात बाहर गई।किसी ने खबर बाहर निकाली कि तुम क्या कर रहे हो। तभी तो मलिक-मल्होत्रा को पता चला सबकुछ और उन्होंने जगमोहन को उठा लिया।"
"ऐसा ही हुआ होगा।"
"खबर कहाँ से बाहर निकली?"
"कोशिश करूँगा कि पता चले। तुम उनके साथ रहना और मुझे सब खबर करते रहना।"
"परन्तु इन हालातों में तुम्हारे लिए खतरा बढ़ जायेगा। शायद जगमोहन भी उनके पास हो। ऐसे में जगमोहन को भी खतरा होगा। टकराव की नौबत आ सकती है।" सोहनलाल ने व्याकुल स्वर में कहा।
"मुझे हालातों पर फिर से गौर करना होगा। हम सुबह बात करेंगे सोहनलाल। मेरे सामने नई समस्या खड़ी हो गई है।"
सोहनलाल ने फोन बंद कर दिया।
◆◆◆
"क्या हुआ?" प्रतापी कह उठा--- "मलिक-मल्होत्रा कौन हैं?"
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाकर चारों को देखा।
चारों की निगाह उस पर थी।
चारों हल्के नशे में थे। एक बोतल में चारों ने गुजारा किया था। इसी वजह से वो ठीक-ठाक थे। इतने नशे में नहीं थे कि बात को समझ न सकें। खाना वे कुछ देर पहले ही खाकर हटे थे।
"किस समस्या की बात कर रहे थे फोन पर?" शेख बोला।
देवराज चौहान कश लेकर कह उठा---
"कोई और लोग भी हैं जो कल उसी बैंक में हाथ डालने जा रहे हैं।"
"क्या?" टिड्डा चौंका।
"ये क्या कह रहे हो?" पव्वे ने हड़बड़ा कर कहा।
प्रतापी और शेख व्याकुल हो उठे।
"तुम्हें ये खबर किसने दी...।" शेख ने पूछा।
"मेरी खास पहचान वाला है, ताले-तिजोरी खोलने वाला...।"
"सोहनलाल!" प्रतापी कह उठा--- "मैं पहले से ही उसका नाम जानता हूँ।"
"वो ही।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- "सोहनलाल को मैंने शाम को कहा था कि कल वो तैयार रहे, उसे बैंक के पाँच स्टील बॉक्स खोलने हैं। 11 और 1 का वक्त दिया था उसे। अब सोहनलाल ने मुझे फोन करके बताया कि अभी-अभी उसके पास मलिक और मल्होत्रा नाम के दो लोग आये थे और वो भी बैंक के पाँच स्टील बॉक्स खोलने के लिए उससे बात कर गए हैं। वक्त 11 से 1 के बीच का। हर बॉक्स का दस लाख, मतलब कि कुल 50 लाख उसे दे रहे हैं।"
"तो सोहनलाल को ये काम मना कर देना चाहिए...।" प्रतापी बोला।
"उससे कोई फायदा नहीं। वो किसी और को ढूंढ लेंगे।"
"तो सोहनलाल उनका काम करने के लिए तैयार हो गया?"
"ताकि उन लोगों की खबर मुझे दे सके।" देवराज चौहान ने प्रतापी को देखा।
"ये तो भारी गड़बड़ वाली बात है।" पव्वे ने कहा।
"कहीं सारा मामला खटाई में न पड़ जाये।" टिड्डा बोला--- "जब हम वैन पर हाथ डालें, तभी वो ये काम करें या आसपास हों तो भारी गड़बड़ हो जायेगी। हमारा उनसे झगड़ा हो सकता है। वो हम पर गोलियाँ चला सकते हैं।"
देवराज चौहान गम्भीर दिखा।
"और तुम हमें खाली रिवाल्वरें देकर डकैती करने को कह रहे हो...।"
देवराज चौहान ने कश लिया। चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।
"ये हमें पहले ही सोच लेना चाहिये था कि कल कोई और भी 60 करोड़ के फेर में हो सकता है।"
देवराज चौहान उठा और टहलने लगा।
चुप्पी सी आ ठहरी थी।
वे रह-रहकर एक-दूसरे को देख रहे थे।
एकाएक देवराज चौहान ठिठककर चारों को देखता कह उठा---
"मैं तुम लोगों को भरी रिवाल्वरें दूंगा।"
"अब ठीक है।" पव्वे ने सिर हिलाया।
"परन्तु शर्त ये है कि अगर दूसरी पार्टी मुकाबले पर उतरती है तो तभी तुम लोग गोलियाँ चलाओगे।"
"मंजूर...।" शेख ने सिर हिलाया।
"बैंक के, वैन के या राह चलते किसी आदमी पर गोली नहीं चलाई जायेगी।"
"ठीक है।" पव्वे ने कहा।
"अगर किसी ने निर्दोष की जान ली तो उसे उसका हिस्सा नहीं मिलेगा।" देवराज चौहान ने कहा।
वे चारों एक-दूसरे को देखने लगे।
"ये क्या बात हुई?" टिड्डा बोला।
"इस शर्त से मैं भी बंधा हूँ।" देवराज चौहान ने कहा।
"तुम भी?"
"हाँ, जो बात तुम पर लागू होती है, वो मुझ पर भी लागू होती है। पहले तुम लोगों के साथ जगमोहन ने काम पर रहना था, लेकिन अब मैं तुम लोगों के साथ फिल्ड में रहूँगा। हमें किसी बेगुनाह को नहीं मारना है।"
"तुम्हें लगता है कि हम ऐसा कर देंगे?" प्रतापी ने पूछा।
"हाँ। घबराहट में कर सकते हो। बड़े काम के लिए तुम लोग नए हो। ऐसे कामों में अक्सर कभी-कभी ऐसे हालात सामने आ जाते हैं कि घबराहट में गोली चल जाती है। मंजे हुए होते तो, मुझे इस बात की चिंता नहीं होती। याद रखो कि जहाँ गोली चलती है, शोर पैदा होता है, या मासूम की जान ले ली जाती है, वहाँ से दौलत ले भागना आसान नहीं होता।"
"इस हिसाब से तो हम पर डबल काम आ पड़ा है।" पव्वे ने कहा--- "बैंक वैन को अपने कब्जे में लेना और उन लोगों से भी निपटना जो बैंक वैन पर हाथ डालने की सोच रहे हैं। हो सकता है वे लोग तब वहाँ ही हों, जब हम बैंक वैन पर हाथ डाल रहे हों या फिर जब हम बैंक वैन लेकर भाग रहे होंगे तो वो हमें रास्ते में मिल सकते हैं।"
"कुछ भी हो सकता है। हमें सतर्क रहना होगा हर हाल में।"
देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला--- "ये अच्छा हुआ कि हमें वक्त रहते पता चल गया कि दूसरी पार्टी भी है, जो कल कुछ करने का इरादा रखती है। अब तुम लोगों की रिवाल्वरें भरी होंगी। फालतू राउण्ड भी तुम लोगों के पास होंगे। तुम लोग पहले से नहीं जानते?"
"नहीं। वो कोई भी हो सकते हैं।" देवराज चौहान कह उठा।
"पहले जगमोहन गायब हो गया और अब ये नई मुसीबत आ गई...।"
"हो सकता है जगमोहन मलिक और मल्होत्रा के कब्जे में हो।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्या मतलब?"
"ऐसा मेरा ख्याल है। हो सकता है कि वे लोग जानते हों कि हम कल बैंक वैन डकैती करने जा रहे...।"
"जगमोहन उनके पास नहीं हो सकता।" पव्वा कह उठा।
"क्यों?"
"अगर उन्हें कुछ पता होता तो वे सोहनलाल के पास हरगिज न पहुँचते।"
"इस बारे में वो धोखा भी तो खा सकते हैं। क्या पता उन्हें ये खबर न हो कि सोहनलाल मेरा खास है।"
"हजम नहीं हुई ये बात कि वो ना जानते हों कि...।"
"ऐसी ही बात है, वरना वे सोहनलाल के पास जाने की गलती कभी न करते।" देवराज चौहान ने दृढ स्वर में कहा--- "वैसे जगमोहन के बारे में मैं पक्का नहीं कह सकता कि वो उन्हीं के पास ही होगा। ऐसा मेरा ख्याल है कि कहीं जगमोहन उनके कब्जे में न हो। वे जगमोहन से शायद हमारी योजना के बारे में जान लेना चाहते हों।" प्रतापी बोला।
"अभी ये पक्का तो नहीं कि जगमोहन उन्हीं के पास है।" पव्वे ने कहा।
देवराज चौहान ने कश लिया।
"सबकुछ ठीक चल रहा था कि ये गड़बड़ हो गई...।" टिड्डे ने मुँह बनाकर कहा।
"कल हमें डबल मेहनत करनी होगी।" पव्वे ने उसे देखा।
"क्या पता सब ठीक रहे!" शेख बोला--- "हम यूँ ही चिन्ता कर रहे...।"
"ठीक नहीं रहेगा।" देवराज चौहान एकाएक कह उठा।
सबकी निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।
"क्या कहना चाहते हो?" टिड्डे के होंठ सिकुड़े।
"जो लोग सोहनलाल के पास पहुँच गए हैं, जो लोग कल सुबह उसे 50 लाख एडवांस में दे देंगे। उन लोगों के बारे में इस तरह का शक करना ठीक नहीं कि कल वे कच्चे ढंग से काम करेंगे।" देवराज चौहान बोला--- "उनकी प्लानिंग पक्की है। उन्हें पूरा भरोसा है कि कल वो ये काम कर लेंगे और सफल होंगे।"
"क्या पता कि उन्हें पता ही न हो कि कल हम भी ये काम करने जा रहे हैं।"
"सम्भव है। इस बात का फायदा हमें उठाना चाहिए। क्योंकि हमें पता चल गया है। हम पूरी तैयार होकर मैदान में उतरेंगे और वे लोग अगर बीच में आये तो उन्हें शिकस्त देने की पूरी चेष्टा करेंगे।"
परन्तु उनके दिमाग में तो गड़बड़ हो चुकी थी।
कल के लिए, आने वाले खतरे का आभास उन्हें होने लगा था।
लेकिन किसी का भी हौसला न टूटा था।
कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था।
हर कोई इस बात के प्रति दृढ़ता से भरा था कि कल वे बैंक वैन पर कब्जा करने में सफल रहेंगे।
◆◆◆
प्यारा।
हमारा प्यारा सा पत्र।
पाठकों ! अब आप कहानी के साथ-साथ दो पात्रों से रूबरू होने जा रहे हैं। एक का नाम प्यारा है और दूसरे का सोनू। हो सकता है कि आपको लगे कि कहानी में इन पात्रों की जरूरत कहाँ पड़ गई? पढ़ते जाइये और देखते जाइये। आगे चलकर प्यारा और सोनू दोनों ही अपना कमाल दिखाने वाले हैं। तब आपको महसूस होगा कि कहानी में ये तो खास पात्र हैं।
उस कच्ची-पक्की कॉलोनी में 19 बरस के प्यारे का घर था। माँ-बाप बचपन में ही चल बसे थे। सिर्फ ये मकान ही उसका अपना था। मकान के नाम पर दो कमरे नीचे और दो ऊपर बने थे। पढ़ाई पाँच क्लासों तक की थी। कमाई के नाम पर दो कमरों का किराया आता था। जिससे उसकी रोटी-पानी का खर्चा पूरा नहीं हो पाता था। परन्तु जैसे-तैसे वो गाड़ी खींच रहा था। सारा दिन घर में पड़ा रहता और सपने बुनता रहता।
प्यारे का दोस्त सोनू।
चार घर छोड़कर उसका भी काम चलाऊ घर था। उसके माँ-बाप भी नहीं थे। उसने भी मकान का हिस्सा किराये पर दे रखा था। उसका खर्चा भी पूरा नहीं होता था। उसकी उम्र 20 बरस थी।
दोनों जवान हो चुके थे और उनकी जवानी वाली इच्छाएं जोर मारने लगी थीं।
प्यारा इस वक्त कमरे में बेड पर लेटा था। सामने का दरवाजा खुला हुआ था जो कि बाहरी सड़क पर खुलता था। वहाँ से रह-रहकर कोई न कोई निकल रहा था।
तभी पड़ोस में रहने वाली चालीस बरस की औरत बाल्टी थामे भीतर आई।
"प्यारे...ओ प्यारे...।"
"बोल चाची...।" प्यारे की निगाह उसके शरीर पर फिरने लगी।
"जा, गली के मोड़ पर लगी टूटी से ये बाल्टी भर कर ला दे।" चाची कह उठी।
"मैं नहीं जाता चाची।" प्यारा चोर नजरों से उसके शरीर के उभारों को देखता बोला--- "तेरा तो रोज का काम है...।"
"तू नखरे भी दिखाने लगा?" चाची ने आँखें तरेरीं।
प्यारा चुप रहा।
"ला दे ना प्यारे पानी...।" चाची ने प्यार से कहा।
"प्यारा-प्यारा तू तो कहती रहती है, कभी प्यार-व्यार तो करती नहीं।"
"तो अब प्यारा जवान हो गया है...।" चाची ने मुस्कुराकर कहा और आगे बढ़कर उसके गालों पर हाथ फेरा।
प्यारा हड़बड़ा कर उठ बैठा।
"क्या हुआ?" चाची मुस्कुराई।
"क...कुछ नहीं।" प्यारे ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"ये बता, तेरे को मेरी बेटी गिन्नी कैसी लगती है?"
"गिन्नी, वो तो बहुत अच्छी है।"
"सोलह की हो गई पूरे...।" चाची ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा--- "साल-छः महीने में उसकी शादी कर दूँगी...।"
"शादी...किससे?" प्यारे के होंठों से निकला।
"सोचती हूँ तेरे से कर दूँ...।"
"सच चाची...।"
"लेकिन तू मेरे कामों को मना करेगा तो गिन्नी की शादी मैं तेरे से नहीं करुँगी।"
प्यारे ने फौरन उसके हाथ से बाल्टी थाम ली।
"मैं अभी पानी ला देता हूँ।"
"तू कितना अच्छा है प्यारे...।"
"गिन्नी की शादी मुझसे करेगी न चाची...।"
"सोलह आने...।" चाची ने पुनः उसके गालों पर हाथ फेरा।
प्यारा हड़बड़ा कर बाल्टी थामे दरवाजे की तरफ बढ़ा।
"गिन्नी को कभी-कभी मेरे पास भेज दिया कर। दो बातें कर लिया करुँगी।"
"वो आती तो है तेरे पास...।"
"कम आती है। वो तो...।"
"शादी हो जायेगी तो गिन्नी के साथ जी भर के बातें करना। चल जल्दी से पानी ला। इसके बाद एक और बाल्टी ले आना। गिन्नी कह रही थी आज बाल धोने हैं।"
"गिन्नी के बाल कितने अच्छे हैं... बिल्कुल तुम्हारे बालों की तरह चाची।"
"चल हट, शरारत करता है।"
"सच कहता हूँ चाची। 16 की उम्र में तो तू भी बहुत खूबसूरत रही होगी।"
"अब क्या कम हूँ...।" चाची ने गहरी साँस ली।
"ईमान खराब करने के लिए तो सामान तगड़ा है...।"
"सामान, कौन सा सामान?"
प्यारा बाल्टी थामें बाहर निकलता चला गया।
चाची के चेहरे पर नशा सा आ ठहरा। दांतों से होंठ काटा और ब्लाउज में कैद दोनों वक्षों को सहारा देकर थोड़ा सा ऊपर उठाया और बड़बड़ा उठी---
"सामान में भी दम है। दो-चार को तो यूँ ही गिरा दूँ...।" 
◆◆◆