20 नवम्बर-बुधवार
अगला एक हफ़्ता विमल के लिये बहुत हलचल वाला गुजरा, लेकिन उसकी हिदायत पर नीलम ने घर से बाहर भी कदम न रखा। उस दौरान उसकी चोटें काफी हद तक ठीक हो गयीं, चेहरा तो बिल्कुल साफ हो गया, लेकिन जिस्मानी चोटें ही ठीक हुईं, रूहानी चोटें बरकरार थीं।
बुधवार सुबह विमल जब गैलेक्सी के आफिस में पहुँचा तो सबसे पहले कम्पनी की वर्तमान प्रोपराइटर, दिवंगत शिव शंकर शुक्ला की पत्नी शोभा शुक्ला से मिला। उसने सविनय अपनी एम्पलायर को बताया कि आइन्दा दिनों में उसकी हाजिरी अनियमित हो सकती थी। मिसेज शुक्ला ने कोई ऐतराज न किया — आखि़र अपने पति के सदके वो विमल की हकीकत से वाकिफ थी — बल्कि उसे राय दी कि वो जब तक चाहे आफिस आये ही नहीं। उस सूरत में वो मैनेजर आप्टे से बोल देगी कि खुद उसने एक जरूरी काम से उसे गैलेक्सी के हैदराबाद आफिस भेजा था।
विमल को वो अभयदान पसन्द आया।
बतौर अपने अपहर्त्ता और मोलेस्टर जो नाम नीलम ने लिया था, वो पड़ोस के छोकरे अरमान त्रिपाठी का था। विमल की शह पर नीलम ने चोरी से फिर उसकी सूरत का गंभीर मुआयना किया था, लेकिन वो निश्चित तौर पर नहीं कह सकी थी कि वो उसके साथ गंभीर अनाचार करने वाले चार युवकों में से एक था।
बकौल नीलम, उसमें और आतताईयों में चलती कार के भीतर इतनी भीषण हाथापायी हुई थी कि अनाचारियों को भी खरोंचे आना लाजमी था लेकिन, विमल ने देखा था, अरमान के चेहरे पर अपनी कहानी खुद कहने वाली ऐसी कोई खरोंच नहीं थी, जिस्म का मुआयना करने का उसके पास कोई जरिया नहीं था।
एक हफ़्ता उसने अरमान त्रिपाठी पर मुतवातर निगाह रखी। उस निगाहबीनी के जो नतीजे सामने आये, वो इस प्रकार थे:
उसकी हर शाम — दोस्तों के साथ या अकेले — किसी डिस्को में, किसी रेस्टोबार में गुजरती थी। फीमेल कम्पैनियनशिप का रसिया था इसलिये उसने कई ऐसी जगह ताड़ी हुई थीं जहाँ ऐसी कम्पैनियन आसानी से हासिल हो जाती थी। उसकी निगरानी के नतीजे के तौर पर ऐसी जो जगह विमल की जानकारी में आयीं, वो थी:
साउथ एक्स में स्मोकिंग चिमनी।
डिफेंस कालोनी में बोस्टन क्लब
खान मार्केट में चायना टाउन
खैबर पास में लिटल तिब्बत।
दो बार वो हौज खास भी गया जहाँ कि गोल्डन गेट नाम की एक बड़ी फूँ- फां वाली जगह थी जो कि उस पर लगे बोर्ड के मुताबिक रेस्टोबार, डिस्को, नाइट क्लब, सब कुछ थी लेकिन दोनों ही बार उसका निशाना उसकी बगल में मौजूद एक गारमेंट फैक्ट्री थी जिस पर नीना इन्टरनेशनल का बोर्ड लगा हुआ था।
उसका पिता चिन्तामणि त्रिपाठी वर्तमान में नाम का ही ठेकेदार था, फिलहाल उसका ठेकेदारी का कहीं कोई प्रोजेक्ट नहीं चल रहा था। विमल ने गारमेंट फैक्ट्री के चक्कर लगाते उसको भी देखा था और नोट किया था कि पुत्र की तरह उसकी वहाँ लम्बी हाजिरी थी।
ये भी मालूम हुआ कि उसके शगल के बारे में पूछे जाने पर बेटा अरमान त्रिपाठी खुद को अपने पिता के बिजनेस में पार्टनर बताता था लेकिन विमल को उसकी ऐसी कोई सक्रियता कभी न दिखाई दी — जब पिता का कोई प्रोजेक्ट ही चालू नहीं था तो पार्टनर पार्ट किस काम में लेता।
तो क्या करता था?
ऐश करता था।
सम्पन्न पिताओं की बिगड़ी औलाद की तरह हर वो काम करता था जिसे मॉडर्न सोसायटी में ‘इन थिंग’ कहा जाता था। आधी रात से पहले कभी घर नहीं लौटता था और रोजमर्रा की सोहबत के लिये अपने हमउम्र इतने लड़कों को जानता था कि बामुश्किल ही विमल ने उसे सभी एक ग्रुप के साथ एक से ज्यादा बार देखा था।
पिता पुत्र की गारमेंट फैक्ट्री में हाजिरी ने फैक्ट्री को विमल की तवज्जो का मरकज बना दिया तो उसने उसकी और पड़ताल करने का फैसला किया। इस कोशिश में पहली बात तो उसे ये मालूम हुई कि फैक्ट्री में दो शिफ्ट लगती थीं — एक सुबह आठ से शाम चार बजे तक और दूसरी शाम चार बजे से रात बारह बजे तक। ये भी वो जैसे तैसे जानने में कामयाब हुआ कि वहाँ सिर्फ जींस और शर्ट्स ही बनती थीं।
एक बार जब उसने पिता को आके चले जाते देखा तो उसने फैक्ट्री की बाबत अपनी जानकारी में इजाफा करने का फैसला किया।
मुबारक अली के चौदह भांजों में से एक भांजा अशरफ मुबारक अली की तरह इस फर्क के साथ टैक्सी ड्राइवर था कि अब वो काली-पीली फियेट टैक्सी नहीं चलाता था, नयी नकोर ‘असैंट’ चलाता था। उसकी कार पर सवार विमल शाम छः बजे के करीब फैक्ट्री के गेट पर पहुँचा।
वहाँ आने का वो वक्त उसने इसलिये चुना था, क्योंकि उसकी पड़ताल के मुताबिक सर्दियों के उस मौसम में पिता पुत्र में से किसी का फैक्ट्री का फेरा लगता था तो शाम को इतना लेट उन दोनों में से वहाँ कोई भी नहीं ठहरता था।
उसके संकेत पर अशरफ ने हॉर्न बजाया।
गेट में बनी खिड़की-सी खुली और उस पर एक वर्दीधारी गार्ड प्रकट हुआ। कार और पैसेंजर का प्रत्यक्षतः उसने रौब खाया इसलिये उसने खिड़की से बाहर कदम रखा।
“फाटक खोल, भई।” — अशरफ उसकी तरफ का शीशा गिराता उतावले स्वर में बोला।
“कार अन्दर ले जाने का हुक़्म नहीं है।” — गार्ड अदब से बोला।
अशरफ ने विमल की तरफ देखा।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, वो कार से निकल कर गार्ड के करीब पहुँचा।
“किस का हुक्म नहीं है?” — उसने अधिकारपूर्ण स्वर से पूछा।
उसके लहजे का गार्ड पर प्रत्याशित प्रभाव पड़ा।
“मालिक का।” — वो पूर्ववत् अदब से बोला।
“मालिक मेरे वाकिफ हैं।”
“आपके वाकिफ हैं?”
“हाँ। चिन्तामणि त्रिपाठी वाकिफ हैं मेरे।”
“पर, साहब, मालिक तो उनके छोटे भाई हैं!”
“अच्छा!”
“जोगमणि त्रिपाठी। वो” — गार्ड के स्वर में गर्व का पुट आया — “रूलिंग पार्टी के नेता हैं। सरकार में विधायक हैं।”
“वो सब मुझे मालूम है लेकिन फैक्ट्री जोगमणि की है, ये नहीं मालूम था।”
“वही मालिक हैं। नेता हैं न, इसलिये बहुत मसरूफ रहते हैं। इसलिये अपने कारोबार की देखभाल के लिये टाइम नहीं निकाल पाते। इसलिए बड़े भाई — चिन्तामणि जी — यहाँ का कारोबार देखते हैं।”
“फोकट में तो न देखते होंगे!”
“क्या मतलब, साहब?”
“मुलाजमत में भी नहीं देखते होंगे! आखि़र बड़े भाई हैं।”
“मैं समझा नहीं, साहब।”
“जरूर दोनों भाई पार्टनर हैं और इस बात की तुम्हें ख़बर नहीं।”
उसने उस बात पर विचार किया।
“हो सकता है।” — फिर बोला।
“है।”
“है ही सही। पर आप तो बोलिये, साहब, आपको काम क्या है?”
“भई, जींस, शर्ट लेने का न!”
“यहाँ रिटेल सेल नहीं होती, साहब।”
“रिटेल को कौन बोला?”
“होलसेल भी नहीं होती।”
“तो कहाँ होती है? शहर में जहाँ रिटेल का या होलसेल का आउटलैट है, उसका पता बोलो।”
गार्ड की सूरत पर अनिश्चय के भाव आये।
“मैं मुरादाबाद से आया हूँ, बार-बार नहीं आ सकता।”
“मुरादाबाद से!”
“हाँ। आज ही लौटना भी है। पहले ब्रांड नेम बोलो।”
“कौन सा नेम बोलूँ?”
“अरे, मार्का . . . मार्का बोलो।”
वो हिचकिचाया।
विमल ने एक सौ का नोट उसकी तरफ बढ़ाया।
गार्ड के चेहरे पर रौनक आयी। नोट उसकी वर्दी में कहीं गायब हुआ।
“मैं मुरादाबाद का बड़ा व्यापारी हूँ। अपना कारोबार बढ़ाना चाहता हूँ। रामनगर और बरेली में स्टोर खोलना चाहता हूँ। बड़ा कारोबार यानी माल की बड़ी खपत। इसीलिये यहाँ आया।”
वो प्रभावित दिखाई देने लगा।
“यहाँ की ख़बर कैसे लगी, साहब?” — फिर बोला।
“लगी किसी तरह से। बड़े व्यापारियों में सौ तरह की बातें होती हैं, लगी किसी तरह से। तुम मार्का बोलो।”
वो फिर हिचकिचाया।
“मामूली बात है, हुज्जत न करो। वर्ना पीली पत्ती नहीं मिलेगी।”
“मैं पान नहीं खाता, साहब।”
“ईडियट!”
वो हड़बड़ाया।
“लगता है दो सौ का नया नोट अभी तक नहीं देखा!”
उसकी आँखों में प्रत्याशा की चमक आयी।
“मेरी जेब में ही रह जायेगा। अब बोलो, चाहते हो ऐसा हो?”
उसने व्यग्रता से इंकार में सिर हिलाया।
“तो जवाब दो।”
“साहब” — वो दबे स्वर में बोला — “इस कम्पनी का अपना कोई मार्का नहीं है।”
“क्या! कोई ब्रांड नेम नहीं?”
“न।”
“तो माल मार्केट में कैसे बिकता है?”
“साहब, जवाब तो देता हूँ” — गार्ड का स्वर और दब गया — “पर किसी को बोलना नहीं कि जवाब हेतराम गार्ड से मिला।”
“नहीं बोलूँगा। वादा।”
“साहब, यहाँ जो माल बिकता है, वो डायरेक्ट मार्केट में नहीं जाता।”
“वो कहाँ जाता है? जो कहना है, एक ही बार में कहो, यार।”
“आर्डर पर जो मार्का कोई बोले वो जींस पर, शर्ट्स पर लगा दिया जाता है। कोई बोले, पाँच सौ जींस हजार शर्ट्स पार्क एवेन्यू की, मार्का पार्क एवेन्यू का। हजार जींस हजार शर्ट्स ऐरो की, मार्का ऐरो का। हजार जींस दो हजार शर्ट्स फ्लाईंग मैशीन की, पीटर इंगलैंड की, एलन सोली की . . .”
“मैं समझ गया। तो यहाँ डुप्लीकेट माल तैयार होता है!”
“साहब, ऐसा न बोलो। माल एकदम चौकस तैयार होता है, सिर्फ मार्का ग्राहक के आर्डर और उसकी जरूरत के मुताबिक लगाया जाता है। आगे आर्डर देने वाला जाने, उसका काम जाने।”
“हूँ।”
“कुछ फैब्री . . . फैब्री करके बोलते हैं इस काम को।”
“फैब्रीकेशन?”
“वही। फैब्री . . . वही।”
“हूँ।”
“बड़ी कम्पनियाँ दूसरों से ऐसे माल बनवाती ही हैं। इसीलिये तो फैब्री . . . केशन का इतना कारोबार है दिल्ली में। बाटा क्या अपनी तमाम चप्पलें, जूते खुद बनाता है! बाहर से बनवाता है, अपना मार्का लगवाता है। बजाज के गीजर . . .”
“बहुत सयाना है। कभी कोई एक्शन नहीं हुआ?”
“कैसा एक्शन?”
“कभी रेड पड़ी हो डुप्लीकेट माल पकड़ने के लिये?”
“क्या गजब करते हो साहब! अव्वल तो माल डुप्लीकेट होता ही नहीं है . . .”
“क्या कहने?”
“. . . फिर सरकारी अमलदारी में किस को नहीं मालूम कि एमएलए साहब की फैक्ट्री है! और एमएलए भी कैसे? जो सुना है बहुत जल्द मंत्री बनने वाले हैं।”
“कभी खुद चक्कर लगाते हैं?”
“बहुत कम। मुश्किल से महीने में एक बार।”
“ये तो न आने जैसा हुआ!”
“हाँ, साहब! आते हैं तो ठहरते भी तो नहीं! बस, नेताओं वाली उड़न हाजिरी भरते हैं।”
“फ्लाईंग विजिट।”
“यही कहते होंगे!”
“एक पार्टनर आता नहीं, दूसरा कम आता है . . .”
“आपको कैसे मालूम?”
“. . . इससे तो लगता है कि कोई तीसरा पार्टनर भी है।”
उसके चेहरे ने रंग बदला।
“लगता है, है?”
“अब क्या बोलूँ, साहब! पता नहीं इस बाबत कुछ कहना मुनासिब होगा या नहीं!”
“उसके लिये मुनासिब होगा, जिसके लिये मेरे पास अभी एक पीली पत्ती और है।”
उसके नेत्रें में फिर चमक आयी।
“एडवांस!”
विमल ने दो सौ का एक और नोट उसे थमाने की जगह उसकी वर्दी की ऊपरी जेब में खोंस दिया।
“शुक्रिया, साहब।” — वो खींसे निपोरता बोला — “आप बहुत मेहरबान हैं।”
“काहे का शुक्रिया! काहे की मेहरबानी! इसे आपसदारी समझो।”
“फिर भी, साहब . . .”
“अब तीसरे पार्टनर की बोलो।”
“साहब, है तो सही।” — वाचमैन का स्वर दब गया — “लेकिन वो कहीं बाहर से है।”
“बाहर से क्या मतलब?”
“इधर से, दिल्ली से नहीं है। आसपास से भी नहीं है। सुना है मुम्बई से है।”
“नाम!”
“नहीं मालूम।”
“आता तो रहता होगा!”
“नहीं।”
“कभी भी नहीं!”
“ऐसा तो नहीं है! हो सकता है कभी आता हो। लेकिन इधर कभी नहीं आया। साहब लोगों से मिलकर बाहरोबाहर ही चला जाता होगा।”
“कहाँ मिल के?”
“पता नहीं। वैसे एक बार सुना था कि बाजू के रेस्टोरेंट में मिले थे सब लोग।”
“‘गोल्डन गेट’ में?”
“एक ही रेस्टोरेंट है बाजू में।”
‘रेस्टोरेंट! डिस्को! नाइट क्लब!”
“वही।”
“हूँ। ये . . . कोई बड़ा कारोबार तो नहीं!”
“साहब, दो शफ़ि्रट चलती हैं।”
“तो भी।”
“अभी साहब लोगों को कारोबार बढ़ाना भी तो है!”
“अच्छा!”
“अभी फैक्ट्री का कारोबार दो फ्लोर से है, एक फ्लोर खाली पड़ा है। वो इसीलिये तो है! फूचर एक्सरेंडसन के लिये!”
“फ्यूचर एक्सटेंशन के लिये!”
“वही।”
“फिर भी इमीटेशन का काम बड़ा कारोबार नहीं हो सकता।”
“कौन सा काम, साहब?”
“जो यहाँ होता है। चलो फैब्रीकेशन। ठीक!”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“फिर भी तीन पार्टनर! एक ऑल दि वे मुम्बई से?”
“अब मैं क्या बोलूँ, साहब!”
“ऐसा तो नहीं पार्टनरशिप में कोई और कारोबार भी हो जिसकी तुम्हें ख़बर न हो!”
“अब बस करो, साहब। कोई देखेगा तो क्या कहेगा कि गार्ड हेतराम क्यों किसी से इतनी देर से बतिया रहा था!”
“ठीक! शुक्रिया भई तेरा, हेतराम!”
उसने सिर नवाकर शुक्रिया कुबूल किया, फिर बोला — “साहब, मुरादाबाद में चलता आपका अपना कोई मार्का हो जिसका माल आपने बाहर से बनवाना हो तो इधर आना फिर कभी, पहले ख़बर करके, और आकर बड़े त्रिपाठी जी से मिलना।”
“अच्छी राय दी। शुक्रिया।”
विमल ने उसकी पीठ थपथपाई फिर वापिस घूमा।
गार्ड भी घूमकर भीतर चला गया। उसके पीछे फाटक की खिड़की बंद हो गयी।
विमल वापिस कार में जा बैठा।
अशरफ ने कार स्टार्ट न की।
“क्या सोच रहा है?” — विमल बोला।
“दो नम्बर का माल बनता है इधर नेता जी की सरपरस्ती में।” — अशरफ संजीदगी से बोला — “नकली माल का ठीया है।”
“तू सुन रहा था?”
“कभी-कभी गार्ड की आवाज ऊँची हो जाती थी तो कुछ सुनायी दे जाता था।”
“ओह!”
अशरफ तब भी न चला।
“अब क्या है?” — विमल तनिक उतावले स्वर में बोला।
“एक बात है।” — वो बोला — “पशोपेश में हूँ कि आपको बोलूँ या न बोलूँ!”
“पशोपेश खत्म कर। बोल।”
“वो . . . वो क्या है कि . . . अभी मैंने ‘गोल्डन गेट’ में एक शख़्स को जाते देखा, जोकि मेरा पहचाना हुआ था।”
“तो!”
“सिविल लाइन्स में रहता है। बड़ी कोठी में। मर्सिडीज में चलता है पर इधर ‘इन्डिका’ में पहुँचा। मेरे को हैरानी हुई।”
“मर्सिडीज के मालिक को तू कैसे पहचानता था?”
“मेरा कस्टमर। रेगुलर।”
“टैक्सी का रेगुलर कस्टमर?”
“हाँ। मेरा पक्का अड्डा होटल मेडंस है। वहाँ एक टूर आपरेटर का आफिस है जिससे मेरा टाई-अप है। उस शख़्स की, मर्सिडीज के मालिक की, कोठी होटल से करीब ही है। बड़ी कोठी है इसलिये उसका एक बिजनेस आफिस कोठी में भी है। वहाँ टैक्सी की अक्सर जरूरत पड़ती है जिसके लिये वहाँ से होटल के ठीये पर फोन आता है। कई बार मैं उधर जा चुका हूँ। वहाँ मेरी ऐसी गुडविल बन गयी है कि मालिक मुझे बाई नेम जानता है। वहाँ से ठीये पर काल आती है तो इस हिदायत के साथ आती है कि अशरफ अवेलेबल हो तो उसी को भेजा जाये।”
“कौन है मालिक?”
“सुखनानी नाम है। कीमत राय सुखनानी।”
“सिन्धी है?”
“हाँ।”
“कारोबार क्या है?”
“सुना है कोई एक्सपोर्ट का बड़ा बिजनेस है। वो जो बड़ा आफिस होता है, जिसे बड़े व्यापारी कार्पोरेट आफिस कहते हैं, बाराखम्बा रोड पर है।”
“ठीक! ठीक! लेकिन इसमें जिक्र के काबिल क्या है कि तूने एक वाकिफ पैसेंजर को ‘गोल्डन गेट’ में जाते देखा? अब ये न कहना कि मर्सिडीज में चलने वाले को इंडिका में पहुँचते देखा। ऐसा हुआ होने की दर्जनों वजह हो सकती हैं।”
“है तो वो भी अजीब ही बात लेकिन नहीं कहूँगा।”
“गुड।”
“मैं सोचता था कि सिविल लाइन में रहता आदमी, बाराखम्बा रोड पर आफिस रखने वाला आदमी हौजखास के रेस्टोरेंट में कैसे पहुँच गया!”
विमल सकपकाया।
“इधर कहीं किसी काम से आया होगा!” — फिर बोला — “कुछ खाने की या ड्रिंक की तलब लगी होगी!”
“इंडिका पर आया।”
“अरे, बोला न!”
“जो उसे ‘गोल्डन गेट’ के मेन डोर पर उतारते ही चली गयी।”
“क्या कहना चाहता है?”
“इतना बड़ा आदमी! वापिस कैसे जायेगा?”
“बहुत खुराफाती दिमाग पाया है तूने? अरे, इंडिका ने लौट आना होगा! उसी ने उसे कहीं किसी काम से भेजा होगा कि जब तक वो ‘गोल्डन गेट’ में था, ड्राइवर फलाँ जगह जाये और फलाँ काम करके आये।”
“हो तो सकता है!”
“नहीं भी हो सकता है तो हमें क्या! खासतौर से तुझे क्या!”
“हाँ। ठीक।”
उसने इग्नीशन आन किया।
21 नवम्बर-गुरुवार
नौवें दिन — गुरुवार को — दिन के वक्त ही अरमान त्रिपाठी महरौली के एक फैंसी रेस्टोरेंट में एक ऐसी नौजवान लड़की के साथ मौजूद था, जिसका खुद का शगल भी तफरीहबाजी ही जान पड़ता था।
दो घंटे विमल ने दोनों को वोदका का आनन्द लेते देखा — इस फर्क के साथ कि जितनी देर में लड़की ने एक ब्लडी मैरी पी, उतनी देर में लड़के ने तीन लार्ज वोदका हलक में उतारीं।
फिर लंच।
तीन बजे जिससे वो फारिग हुए।
फिर वो रेस्टोरेंट से बाहर निकले और पाँव-पाँव चलते बाहर सड़क की ओर बढ़ चले।
विमल ने अरमान की ‘वरना’ रेस्टोरेंट की पार्किंग में खड़ी देखी थी लेकिन उसने उधर का रुख नहीं किया था।
पैदल चलते वो सड़क पर एक ओर बढ़े।
फिर सड़क छोड़कर एक संकरी, कच्ची राहदारी पर उतर गये।
कहे जा रहे थे?
विमल सावधानी से उनके पीछे लगा रहा।
वो राहदारी आगे एक उजाड़, सुनसान खंडहर पर जाकर खत्म हुई।
विमल जानता था कि महरौली के इलाके में ऐसे खंडहर अनगिनत थे जिन में कोई आवाजाही नहीं होती थी।
अब विमल को अन्दाजा होने लगा कि छोकरा किस फिराक में था।
वो खंडहर में दाखि़ल हो गये। भीतर नीमअन्धेरा था जिसमें वो और गहरे धँस गये। फिर सिरे की दीवार के करीब पहुँचे तो अरमान ने लड़की को दबोच लिया।
विमल एक खम्बे के पीछे सरक गया। वो उनसे मुश्किल से दस गज दूर था, इसलिये लड़की बोली तो उसे उसकी आवाज स्पष्ट सुनाई दी।
“अरे, अरे! क्या करते हो!”
“वाह, मेरी भोली बेगम! तेरे को नहीं पता क्या करता हूँ?”
“अरे, कोई आ जायेगा!”
“साली, ये तब सोचना था जब मैंने तेरे को बोला था कि कहाँ चल रहे थे!”
“लेकिन दिन दहाड़े . . .”
“क्या हुआ है दिन को! दहाड़े को! है कोई यहाँ?”
“आ तो सकता है!”
“‘नहीं आ सकता। इस भुतहा खंडहर में कौन आयेगा साला!”
“हम भी तो आये हैं!”
“अरे, किसी वजह से आये हैं। वजह से तू वाकिफ है।”
“वही वजह किसी और को भी यहाँ ला सकती है!”
“साली वहमी!”
“तो . . .”
“अरे, तो कोई एकाएक थोड़े ही सिर पर आ खड़ा होगा! कोई आवाज तो होगी उसके आने की या नहीं?”
“हाँ, लेकिन . . .”
“जब आवाज होगी तो सम्भल जायेंगे।”
“वो सोचेगा नहीं हम यहाँ क्या करते थे?”
“टूरिस्ट हैं। साइट सीईंग पर हैं।”
“लेकिन ये भुतहा खंडहर . . .”
“हमें क्या मालूम था! भीतर आने पर ही तो मालूम हुआ!”
“हूँ। पर . . .”
“अब चुप कर न पर पर।”
दो क्षण ख़ामोशी में गुजरे।
“सब्र तो करो . . .”
“मेरे से नहीं होता।”
“अरे, बाँह तो न तोड़ो।”
“तो हाथ हटा।”
“क्या करोगे?”
“हटायेगी तो पता लगेगा न, साली!”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
उस दौरान खम्बे के पीछे से निकल कर विमल प्रेत की तरह उनके करीब पहुँचा।
अब उसके चेहरे पर फैंटम वाला वो मुख़ौटा चढ़ा था जो उसने दो दिन पहले किनारी बाजार से खरीदा था, जहाँ कि वैसे साजोसामान की बहुताहत में दुकानें थीं।
वो उनके सिर पर जा खड़ा हुआ तो उन्हें उसकी ख़बर लगी।
वो छिटक कर एक दूसरे से अलग हुए।
बद्हवास लड़की अपने अस्त-व्यस्त कपड़े व्यवस्थित करने लगी।
औनी पौनी वैसी हरकत अरमान ने भी की।
“कौन है बे?” — फिर कड़क कर बोला।
“अंधा है?” — विमल शांति से बोला — “दिखाई नहीं देता?”
“चलता बन यहाँ से।”
“अभी। अभी। पहले जरा . . .” वो लड़की की तरफ घूमा — “तू इसकी सगेवाली है?”
“न-नहीं।” — वो बड़ी मुश्किल से बोल पायी — “ये मेरा कुछ नहीं लगता।”
“आगे लगने वाला हो?”
“नहीं। नहीं।”
“अभी जो करने जा रही थी, गैर के साथ करने जा रही थी?”
“ये . . . ये जबरदस्ती मुझे यहाँ ले आया।”
“ठहर जा, साली।” — अरमान गुर्राया।
“साली!” — विमल की भवें उठीं — “तू साली है इसकी?”
“न-नहीं।”
“अभी ये बोला तो!”
“ग-गाली . . . गाली के तौर पर बोला।”
“तो ये जबरदस्ती तुझे यहाँ लाया?”
“हाँ।”
“अभी ये जो करने पर आमादा था, वो जबरदस्ती करता?”
लड़की से जवाब देते न बना, वो बेचैनी से पहलू बदलने लगी।
“यहाँ इसका अंजाम बुरा होने वाला है, तू उसमें शरीक होना चाहती है?”
“कौन साला कहता है” — अरमान पूर्ववत् आवेश से बोला — “मेरा अंजाम बुरा होने वाला है?”
“तुझे मेरे सिवाय कोई दिखाई दे रहा है यहाँ?”
“तू है कौन?”
“बोलूँगा। अभी मैं लड़की से बात कर रहा हूँ।”
“मेरे से बात कर, मादर . . .।”
“दो मिनट सब्र कर ले, फिर मैंने तेरे से ही बात करनी है।” — विमल एक क्षण ठिठका फिर बोला — “प्लीज।”
“क्या बात करनी है?”
“तू सुनेगा न!”
उसके जबड़े भिंचे।
“मैंने एक सवाल किया था” — विमल लड़की से सम्बोधित हुआ — “जवाब दे।”
“न-नहीं . . . नहीं शरीक होना चाहती।”
“मुँह बंद रख सकती है?”
“हाँ।”
“अभी तो न रख सकी!”
ख़ामोशी।
“ख़ैर। रखेगी?”
“हाँ। हाँ।”
“मैं तुझे चला जाने दूँ तो सेफ़ जगह पहुँच कर याद रख पायेगी कि तूने मुँह बंद रखना है, पुलिस को फोन नहीं करना?”
“पुलिस को फोन! हरगिज नहीं।”
“ब्वॉयफ्रेंड की ख़ातिर!”
“ब्वॉयफ्रेंड! मैं नहीं जानती ये कौन है!”
“यू बिच!” — अरमान फुँफकारा।
“मैं जिन्दगी में दोबारा इसकी सूरत नहीं देखना चाहती। मुझे नहीं पता ये कौन है।”
“ठहर जा, कुत्ती!”
अरमान उस पर झपटा।
विमल ने उसे रास्ते में ही थामा और परे धकेल दिया। वो फिर झपटा तो विमल का एक इतना प्रचंड घूंसा उसके जबड़े पर पड़ा कि वो धराशायी हो गया। बड़ी मुश्किल से वो उठकर खड़ा हुआ। एक हाथ से वो जबड़ा टटोलने लगा।
“टूटा नहीं है।” — विमल यूँ बोला जैसे उसे तसल्ली दे रहा हो। — “मैंने ख़ास एहतियात बरती कि न टूटे। टूट जाये तो वायर करना पड़ता है। बहुत तकलीफ होती है। खाया पिया भी नहीं जाता। बोला भी नहीं जाता। क्या समझा?”
वो ख़ामोश रहा।
विमल ने कुछ क्षण किसी प्रतिक्रिया का इन्तजार किया, फिर वापिस लड़की की तरफ आकर्षित हुआ।
“तू बहुत खूबसूरत है।” — वो बोला।
“थैंक्यू।” — अब तक भय से त्रस्त लड़की मुस्करा कर, इठला कर बोली।
“लेकिन खूबसूरती सदा साथ नहीं देती। कभी-कभी तो जीवन की तरह क्षणभंगुर साबित होती है।”
“म-मैं समझी नहीं।”
“अंग भंग हो जाये तो सुन्दरियाँ जिस रूप को शीशे में देखती अघाती नहीं, उसकी परछाईं से डरने लगती हैं।”
“म-मैं अभी भी नहीं समझी।”
“क्योंकि अभी मैंने समझाया नहीं। अब समझाता हूँ।”
विमल ने जेब से नाईयों वाला उस्तरा निकाला और आगे बढ़ कर उसकी नाक पर रख दिया।
लड़की सिर से पाँव तक काँपी।
“ताजिन्दगी” — विमल का स्वर एकाएक हिंसक हुआ — “शीशा नहीं देख पायेगी।”
“नहीं।” — वो बड़ी मुश्किल से बोल पायी — “नहीं।”
“एक झटका। नीचे की तरफ। अंग भंग। जलवे ख़त्म। गुलजार ख़त्म। बहार ख़त्म।”
“नहीं!” — वो फुसफुसाई।
“फिर भले ही बाहर निकलते ही यहाँ जो देखा, उसकी दुहाई देने लगना।”
“मैं होंठ सी लूँगी, जुबान को ताला लगा लूँगी, किसी को कुछ नहीं बोलूँगी। मैं सीधी घर जाऊँगी।”
“मुझे तेरी बात पर ऐतबार है, फिर भी ताकीद के तौर पर . . .”
उस्तरा इतना तेज था कि उसके बाल बराबर दबाव से नाक पर ख़ून की एक बूँद चुहचुहा आयी।
लड़की को पहले तो कुछ पता ही न लगा फिर उसने झिझकते हुए अपनी नाक को छुआ तो नाक पर की ख़ून की बूंद उसकी उँगली के पोर पर चमकी।
उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव आये।
“जा!”
उसने यूँ विमल की तरफ देखा जैसे जो सुना, उस पर यकीन न आ रहा हो।
“अपने उस अंजाम को याद करती जा, जो हो सकता था पर न हुआ।”
वो हिली, आगे बढ़ी, फिर एकाएक जैसे उसके पैरों में पंख लग गये।
विमल अरमान की ओर घूमा।
अरमान मुँह बाये, नेत्र फैलाये सब नजारा देख रहा था।
“अब” — विमल बोला — “मैं जो पूछूँ, तूने उसका जवाब देना है।”
उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये।
“मुझे ऐसी शक्ल बना के न दिखा। तू ख़ामोश नहीं रह सकता।”
“क-क्या . . . क्या जानना चाहते हो?”
“पिछले से पिछले सोमवार शाम को तू कहाँ था?”
“मैं कहाँ था?”
“जवाब दे, भई। सवाल न कर। ग्यारह तारीख़ को। सोमवार के दिन शाम सात बजे के बाद। कहाँ था?”
“याद नहीं।”
“याद कर।”
“क्या याद करूँ? जो मेरी हर शाम की रूटीन होती है, उसी में मसरूफ़ था। दोस्तों के साथ कहीं तफ़रीह में ही रहा होऊँगा।”
“गोल-मोल जवाब नहीं चलेगा। बात को सोच, समझ, फिर ठीक से याद करके बोल कि सोमवार ग्यारह तारीख़ की शाम सात बजे के बाद तू कहाँ था, किन दोस्तों के साथ था और तुम सब क्या कर रहे थे?”
“बोला तो, तफ़रीह कर रहे थे।”
“दोस्त कौन थे? तफ़रीह की किस्म क्या थी?”
“याद नहीं।”
“याद कर।”
“याद नहीं।”
“याद कर, भई।”
“बोला न, याद नहीं।”
“याद कर। जरूरी है याद करना।”
“किसके लिये?”
“मेरे लिये। लेकिन तेरे लिये भी बराबर।”
“मेरे लिये क्यों?”
“क्योंकि जवाब पर तेरी जान का दारोमदार है।”
वो हड़बड़ाया।
“फिर भी” — फिर बोला — “पता तो लगे कि याद करना क्यों जरूरी है!”
“लगेगा। पहले जवाब दे।”
“याद नहीं।”
“तो तू नहीं बोलेगा?”
“बोल तो रहा हूँ, बोल तो रहा हूँ याद नहीं।”
“हम्म! लगता है मेरी नर्मी तुझे गुमराह कर रही है।”
वो ख़ामोश रहा, उसकी सूरत से धृष्टता झलकी।
“लगता है तू भूल गया है कि उस्तरा अभी भी मेरे हाथ में है।”
“त-तो!”
“नकटा मर्द भी अच्छा नहीं लगता। अभी पहले धार परख।”
विमल ने उस्तरे वाला हाथ हवा में उठाया।
उसकी विमल से आँख मिली तो उसे उसमें मौत नाचती दिखाई दी।
“हाथ नीचे करो।” — वो फँसे कण्ठ से बोला।
विमल ने जैसे सुना ही नहीं।
“बोलता हूँ न!”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, फिर हाथ नीचे किया।
“उस शाम हम कनॉट प्लेस में थे।”
“बहुत जल्दी याद आ गया!”
वो ख़ामोश रहा।
“‘हम’ में कौन-कौन शामिल थे?”
“मैं और मेरे तीन दोस्त।”
“कनॉट प्लेस में कहाँ?”
“एक बार में।”
“बार का नाम बोल।”
“न-नाम तो याद नहीं!”
“कहाँ था?”
“जनपथ की साइड में कनॉट प्लेस के आउटर सर्कल में कहीं था।”
“नाम क्यों नहीं याद?”
“बस, नहीं याद। सच पूछो तो नाम की तरफ हम में से किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था। कनॉट प्लेस में आज की तारीख़ में दस-बीस-पचास नहीं, दो सौ बार हैं। कहीं खड़े सिर उठाओ, सामने बार दिखाई देता है।”
“हूँ।”
“ऐसा ही हमारे साथ हुआ। बरामदे में खड़े बतिया रहे थे, सिर उठाया तो पाया बार के सामने खड़े थे। बस, भीतर जा बैठे।”
“कब तक रहे वहाँ?”
“मेरे ख़याल से ग्यारह तो बज ही गये थे, क्योंकि डिनर भी हमने वहीं किया था।”
“इतनी सी बात पर हुज्जत क्यों की?”
“हुज्जत न की। एकबारगी तो सच में ही याद नहीं आया था।”
“आखि़र आया?”
“हाँ। वो . . . वो उस्तरे की धमकी के जेरेसाया आया।”
“दोस्त हालिया थे या पुराने?”
“पुराने।”
“जिगरी?”
“हाँ।”
“तीनों?”
“हाँ।”
“नाम बोलो। सच बोलना। झूठ बोला तो अंजाम बुरा होगा।”
“नीरज चावला, यादवेन्द्र ठाकुर, भूषण तिवारी।”
“तीनों जिगरी?”
“हाँ।”
“रेगुलर मिलना-जुलना?”
“हाँ।”
“तेरे पास मोबाइल कौन सा है?”
“आई-फोन एट।”
“वो तो लेटेस्ट है! मैंने देखा नहीं कभी। देखें जरा।”
वो हिचकिचाया।
विमल ने अपलक उसे देखा।
वो निगाह चुराने लगा।
विमल ने उसके गले से उस्तरे की धार लगा दी और खुद जेब से उसका मोबाइल फोन निकाला।
कुछ क्षण उसने फोन का मुआयना किया।
“चावला! ठाकुर! तिवारी!” — फिर बोला — “सब तेरे जिगरी। एक का भी ‘कान्ट्रैक्ट्स’ में नाम दर्ज नहीं — न ‘फेवरेट्स’ में, न ‘रीसेन्ट्स’ में। क्यों भला? तीनों में से किसी के पास भी मोबाइल नहीं है?”
उससे जवाब देते न बना।
“झूठ ही बोला आखि़र! मेरी वार्निंग को किसी ख़ातिर में न लाया! मैं पूरा इडियट लगा तेरे को, जिसके आगे तेरा झूठ चल जाना था!”
वो परे देखने लगा।
विमल ने एक झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया जिसका इरादा उसको चोट पहुँचाना नहीं, उसको बेइज्जत करना था, उसका मनोबल तोड़ना था।
अपमान से जलता वो अपना गाल सहलाने लगा।
“घूम जा!” — विमल सख़्ती से बोला।
आदत के खिलाफ, बिना वजह पूछे, बिना हुज्जत किये, तत्काल वो विमल की तरफ पीठ फेर कर खड़ा हुआ।
विमल ने जेब से एक स्टील वायर का रोल निकाला। तार महीन थी लेकिन प्यानो वायर की तरह मजबूत थी। उसने अरमान के दोनों हाथ थाम कर जबरन उसकी पीठ पीछे किये और तार की मदद से कलाईयों के करीब उन्हें आपस में बांध दिया। फिर उसने उसे फर्श पर बैठने का आदेश दिया और वैसे ही टखनों के पास उसके पाँव बाँधे।
आखि़र वो उकड़ू उसके सामने बैठा।
“क्या मतलब है इसका?” — अरमान कठिन स्वर में बोला।
“अभी ‘तू जानता नहीं है मैं कौन हूँ’ भी कहना होगा!” — विमल सहज भाव से बोला।
“क-क्या चाहते हो?”
“हाँ, ये टोन ठीक है। मैं दो अहम बातों की तरफ तेरी तवज्जो दिलाना चाहता हूँ। पहली ये है कि तेरे हाथ पाँव रस्सी से नहीं, प्यानो वायर से बंधे हैं। मैं तेरे को इसी हालत में छोड़ के यहाँ से चल दूँगा तो पीछे खुद को बन्धनमुक्त करने की तेरी भरपूर कोशिश होगी। बन्धन ढीले करने की ख़ातिर स्वाभाविक है कि तू अपने हाथ-पाँव उमेठेगा। हाथ-पाँव रस्सी से बंधे हों तो ऐसा करने से रस्सी की पकड़ ढीली हो जाती है और आखि़र बंधक हाथों को आजाद करने में कामयाब हो जाता है। फिर पाँव खोल लेना मामूली बात होती है। लेकिन हाथ पाँव वैसे वायर से बंधे हों जैसे तेरे बंधे हैं तो हाथ पाँव उमेठने का नतीजा उलट निकलता है। वायर ढीली पड़ने की जगह चमड़ी में धँसने लगती है और जहाँ धँसती है, वहाँ से खून निकलने लगता है। समझ रहा है न मैं क्या कह रहा हूँ?”
“समझ तो रहा हूँ लेकिन तू . . . तुम दो बातें कहना चाहते थे। दूसरी बोलो।”
“बोलता हूँ। उस परली दीवार की तरफ देख।”
“क्या है वहाँ?”
“जहाँ वो फर्श से मिलती है, वहाँ तवज्जो दे। रौशनी कदरन कम है लेकिन फिर भी गौर से देखेगा तो तुझे कुछ साफ दिखाई देगा। दिखाई दिया?”
“हाँ।”
“क्या?”
“चींटियाँ हैं। लम्बी कतार में।”
“उनमें कोई ख़ूबी दिखाई दी हो?”
“नहीं।”
“कोई बात नहीं। मैं बताता हूँ ख़ूबी। पहली बात तो ये है कि वो काली नहीं, लाल हैं और दूसरी बात ये है कि वो चींटियाँ नहीं, चींटें हैं।”
“तो?”
“इन लाल चींटों में एक ख़ासियत होती है।”
“क्या?”
“ख़ून से अट्रेक्ट होते हैं। ख़ून की मुश्क दूर से ही पा लेते हैं और फिर अपनी डगर छोड़कर मुश्क के पीछे चल देते हैं।”
“होता होगा ऐसा। मुझे क्यों बता रहे हो?”
“नहीं समझा?”
“नहीं।”
“भई, तू बन्धनमुक्त होने की कोशिश करेगा, इस कोशिश में वायर से चमड़ी कटेगी, खून रिसने लगेगा, खून की मुश्क उन चींटोें तक पहुँचेगी और फौरन उनका मरकज वो मुकाम बन जायेगा जहाँ से खून की मुश्क उठ रही होगी।”
“तो?”
“तू तो वाकेई कुछ नहीं समझता, यार। अरे, दो घंटे में वो कोहनियों तक तेरी बाँह चट कर जायेंगे। न खाल बचेगी, न मांस, ऐन झक सफेद हड्डियाँ निकाल देंगे। फिर प्यानो वायर तो अपने आप ही कलाईयों से अलग हो जायेगी, लेकिन पिंजर बन गये हाथों से क्या कर पायेगा?”
उसके शरीर ने जोर की झुरझुरी ली।
“अब बोल, जब ये सब हो रहा होगा, उस दौरान अपनी जुबान बंद रख पायेगा?”
उसने अपने एकाएक सूख आये होंठों पर जुबान फेरी।
“अब क्योंकि तुझे इस ड्रिल की ख़बर लग गयी है इसलिये तेरी भरपूर कोशिश होगी कि तार तेरी चमड़ी न छीलने पाये, खून न रिसने पाये। नहीं?”
उसने जवाब न दिया।
“मैं ज्यादा इन्तजार करने के मूड में नहीं हूं इसलिये प्यानो वायर्स से अपने आप होने वाले काम को मैं खुद करूंगा।”
“क-क्या करोगे?”
“तेरी जींस का पाहुँचा फाड़कर” — विमल ने जेब से रेजर निकाल कर फिर हाथ में ले लिया — “तेरी एक पिंडली पर हलका सा, छोटा सा, कोई तीन इंच लम्बा कट लगाऊँगा। गहरा बिल्कुल नहीं, उथला। जो स्किन तक ही रहे, फ्लैश तक न पहुँचे। ऐसा कि बस खून रिसने लगे। तुझे कुछ महसूस नहीं होगा। बस, हल्की-सी नब्ज चलती लगेगी पिंडली पर।”
“फि-फिर?”
“फिर क्या! फिर मैं लाल चींटों को तेरी टाँग पर पिकनिक करते देखूँगा। बीच-बीच में अपना सवाल दोहराऊँगा कि ग्यारह तारीख सोमवार की शाम को तेरा क्या शगल था! हड्डी झाँकने लगने तक भी तू ख़ामोश रहेगा, जवाब नहीं देगा तो मैं अपनी हार मान लूँगा।”
“मेरा बाप तुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा।”
“बशर्ते, कि जान जायेगा कि किसे जिन्दा नहीं छोड़ना। अब एमएलए चाचा के नाम से भी धमकी जारी कर। कोई और सूरमा बाकी हो तो उसका भी नाम आजमा।”
“तू . . . तुम जानना क्यों चाहते हो कि उस सोमवार शाम को मैं कहाँ था?”
“बड़ी देर में पूछना सूझा!”
“बोलो।”
“बोलूँगा। पहले अपनी कथा कहो।”
“दोस्तों के साथ था। मेरे तीन दोस्त उस शाम कोई पाँच बजे मेरे घर आये थे और ड्रिंक्स की डिमांड करने लगे थे। मेरे पास घर में व्हिस्की की एक बोतल थी, जो हम चारों ने शेयर की। बोतल साढ़े सात सौ मिलीलिटर की थी जो ख़त्म होती पता ही न लगी। वो और पीना चाहते थे लेकिन उस दिन ड्राई डे था, बाजार से और बोतल नहीं ख़रीदी जा सकती थी। फिर और पीने को गुड़गाँव बार्डर जाने का फैसला हुआ। हम कार में सवार होकर घर से निकले। रास्ते में एक अन्धेरी स्ट्रैच थी जिस पर एक अकेली नौजवान औरत चली आ रही थी। नशे में दोस्तों पर पता नहीं क्या जुनून सवार हुआ कि गोली की तरह उन्होंने उसे उठा लेने का फैसला कर लिया।”
“तू तो यूँ कह रहा है जैसे कि उस फैसले में तू शामिल नहीं था।”
उसका सिर झुक गया।
“शामिल था।” — फिर धीरे से बोला — “जिगरी दोस्त थे, ‘वन फॉर आल, आल फॉर वन’ जैसी मजबूत दोस्ती थी लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“मैं अपने ही इलाके में ऐसी वारदात करने के हक में नहीं था। मैंने ऐसा बोला भी लेकिन दोस्तों ने उस बात पर कान से मक्खी उड़ाई। हमने उसे उठा के कार में डाल लिया और ले उड़े।”
“उसकी सूरत न देखी?”
“न! बोला न, वो अन्धेरी स्ट्रैच थी, वहाँ स्ट्रीट लाइट्स नहीं जल रही थीं।”
“कार में तो देखी होगी?”
“कार में तो बिल्कुल अन्धेरा था। शीशों पर पर्दे पड़े हुए थे। विंड स्क्रीन के रास्ते ट्रैफिक लाइट की कभी कोई रौशनी भीतर पड़ती थी तो वो इतनी वक्ती होती थी कि कुछ दिखता ही नहीं था। फिर पता नहीं कहाँ से उसमें इतनी ताकत आ गयी थी कि वो अकेली हीे हम पर भारी पड़ने लगी थी।”
“आई सी।”
“लेकिन आखि़र तो औरत थी, अकेली कब तक लड़ती! आखि़र तो उसने काबू में आना ही था!”
“ठीक। फिर?”
“ऐसा होने की नौबत आती जान पड़ रही थी कि बीच में विघ्न अा गया।”
“क्या हुआ?”
“उस औरत से हाथापायी के दौरान कार की पीछे की एक खिड़की का पर्दा उखड़ गया था जिसकी वजह से भीतर क्या हो रहा था, बगल से गुजरती एक जीप वालों के नोटिस में आ गया। जीप में कई सिख लड़के सवार थे जो जीप को हमारी कार के पैरेलल चलाने लगे और जोर-जोर से हॉर्न बजाने लगे। फिर एक सिख लड़का हमें एकाएक मोबाइल के हवाले हुआ दिखाई दिया, वो पुलिस कन्ट्रोल रूम को फोन करता तो पुलिस का उड़नदस्ता हमें वहीं इन्टरसैप्ट कर सकता था। नतीजतन हमारी कार एक मोड़ काटने के लिए जब कदरन स्लो हुई तो हमने कार का एक दरवाजा खोला और चलती कार में से उस औरत को बाहर फेंक दिया।”
“क्या हुआ उसका?”
“क्या पता क्या हुआ! दौड़ती कार में से बाहर फेंकी गयी थी, मर खप गयी होगी। नहीं भी मरी होगी तो हमें क्या! साली कटखनी बिल्ली ठीक से हमारे काम तो न आयी न!”
अनजाने में विमल ने दाँत किटकिटाये।
“उसने गलत किया?” — बड़ी मुश्किल से अपने पर काबू पाता वो बोला।
“और क्या? मौज लेती, हमें मौज लेने देती। हम पूरे आदरमान के साथ प्रीपेड टैक्सी पर उसे घर रवाना करते। वो तो साली पता नहीं कौन-सी मिट्टी की बनी हुई थी कि खून-ख़राबे पर आमादा थी। इतना प्रोटेस्ट तो कोई कुमारी कन्या भी नहीं करती।”
“तुम्हें क्या पता वो कुमारी कन्या थी या नहीं!”
“उम्र में ज्यादा थी। इतनी उम्र तक कोई औरत कुमारी नहीं रह सकती।”
“अच्छा!”
“हाँ। पर हसीन बहुत थी साली। बनी हुई भी बढि़या थी।”
विमल का चेहरा लाल होने लगा।
“लेकिन क्या फायदा? काबू में तो न आयी! राजी से पेश आयी होती तो हम चार जने त्रिलोक दर्शन करा देते उसे।”
“उसे?”
“खुद भी करते। लेकिन क्या फायदा! साली इतनी प्राइम बॉडी! किसी काम न आयी।”
“तो तूने उसकी सूरत न देखी?”
“मैंने क्या, हम चारों में से किसी ने भी न देखी। हमारी तो सारी तवज्जो उसको काबू करने में ही लगी रही। काबू में आ जाती तो सूरत देखते . . . और भी बहुत कुछ, सब कुछ देखते।”
“वो तेरे इलाके की थी, कभी दिखाई दे जाये तो पहचान लेगा?”
“कैसे दिखाई दे जाये! बची होगी तब न!”
“बची होगी। मर गयी होती तो लाश की बरामदी की अख़बार में ख़बर होती।”
“ये भी ठीक है।”
“अब जवाब दे। इलाके में देखे तो पहचान लेगा?”
उसने उस बात पर विचार किया, फिर इंकार में सिर हिलाया।
“शिनाख्त कद-काठ से भी होती है!”
“औरतों की नहीं होती। अच्छी बनी हो तो सब एक जैसी लगती हैं।”
“औरतों का काफी तर्जुबा है तुझे!”
वो हँसा।
कुत्सित हँसी।
फिर संजीदा हुआ।
“जो लड़की अभी यहाँ से गयी, फिट थी तेरे से?”
“न होती तो यहाँ आती! बताओ तो! साली कहती थी जबरदस्ती लाया। खुद मरी जा रही थी . . .”
“किस वास्ते?”
“समझो, किस वास्ते?”
“लड़कियाँ पटाने में महारत जान पड़ती है तुझे!”
“महारत की कोई जरूरत ही नहीं होती। साली फ्रीलोडर्स होती हैं, ड्रिंक्स डिनर की अश्योरेंस दो, लैविश ट्रीट दो, तैयार हो जाती हैं।”
“सभी तो ऐसी नहीं होतीं!”
“तो क्या! मुझे क्या सब चाहिये होती हैं?”
“अच्छा! ऐसा नहीं है?”
“अपनी तो एक ही पॉलिसी है — जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला।”
“काफी हो गया।” — एकाएक विमल का स्वर शुष्क हुआ — “अब नाम बोल।”
“नाम बोलूँ? किस का नाम बोलूँ?”
“उन दोस्तों का जो उस सोमवार शाम तेरे साथ थे, जो उस . . . उस वारदात में शरीक थे। गलत नाम बोल कर मुझे गुमराह करने की कोशिश की तो अंजाम बुरा होगा।”
उसने जोर से थूक निगली, उसकी शक्ल से साफ ऐसा लगा कि असल में उसका यही इरादा था।
“नाम और पूरे पते भी। मोबाइल नम्बर भी।”
उसने नाम, पते, मोबाइल नम्बर सब बोले जो उसके बोलने के साथ साथ विमल ने अपने मोबाइल में ‘नोट्स’ में दर्ज कर लिये।
अशोक जोगी, पता न्यू राजेन्द्र नगर का।
अकील सैफी, निवासी निजामुद्दीन ईस्ट।
अमित गोयल, निवासी सैक्टर पन्द्रह-ए, नोएडा।
तीसरे नाम और पते पर विमल का माथा ठनका।
“ये अमित गोयल” — वो बोला — “इसके पिता का क्या नाम है?”
“पिता का नाम!” — वो सकपकाया।
“हाँ।”
“वो तो मुझे मालूम नहीं, कभी जिक्र ही न आया।”
“नाम न सही, कारोबार तो मालूम होगा!”
“वो तो मालूम है! पहाड़गंज में टिम्बर का बड़ा बिजनेस है।”
“बेटा क्या करता है?”
“पिता के बिजनेस में ही है।”
“वो भी पहाड़गंज में टिम्बर के शोरूम में बैठता है?”
“हमेशा नहीं।”
“हमेशा नहीं। क्योंकि अय्याशी पर जोर है। उससे फुरसत मिल जाये तो बाप का हाथ बँटाता है। नहीं?”
वो ख़ामोश रहा!
“जवाब दे, भई!”
“हँ-हाँ।”
“क्या हाँ!”
“शोरूम पर उसकी हाजिरी छिटपुट ही होती है।”
“कैसे मालूम?”
“बस, मालूम।”
“क्योंकि यारबाशी में हाजिरी ज्यादा होती है, ऐसे मालूम?”
“हाँ।”
विमल ने उसके मोबाइल में बारी-बारी तीनों के नाम पंच किये तो पाया तीनों नाम उसमें मौजूद थे और मोबाइल नम्बर भी वही थे, जो अरमान ने बोले थे। तीनों नामों के साथ मटर के दाने जितनी नाम के स्वामियों की तसवीरें थीं।
उसने ‘फोटोज’ को खोला।
वहाँ बेशुमार फोटोज दर्ज थीं फिर भी वो तीन फोटो उसने जल्दी ही तलाश कर लीं जिनसे फोन नम्बरों के साथ मटर के दाने के व्यास की फोटो जोड़ी गयी थीं।
बाजरिया एमएमएस उसने वो तीनों फोटो अपने फोन पर फारवर्ड कीं।
“अमित गोयल कार कौन-सी चलाता है?” — उसने फिर सवाल किया।
“जो अवेलेबल हो।” — वो अनमने भाव से बोला।
“क्या मतलब?”
“उनके पास तीन कारें हैं जो उनकी कोठी के पहलू की राहदारी में आगे पीछे खड़ी होती हैं। जो सबसे आगे हो, वो उस पर काबिज हो जाता है।”
“एक कार आई-20 है . . .”
अरमान के चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
“. . . बाकी दो कौन-सी हैं?”
“एक फोर्ड है — शायद ईको स्पोर्ट नाम है — दूसरी बीएमडब्ल्यू है।”
“बीएमडब्ल्यू?”
“सैकण्डहैण्ड। बाकी दो नयी हैं।”
“लेकिन बीएमडब्ल्यू!”
“हाँ।”
“बीएमडब्ल्यू तो सैकण्डहैण्ड भी बड़ी हैसियत वाले ही रख सकते हैं! यानी तकड़ा बिजनेस है टिम्बर का बाप का!”
“है तो सही!”
“रिहायश नोएडा, सैक्टर पन्द्रह-ए में! यानी तगड़ा क्या, बहुत तगड़ा!”
“क्या कहना चाहते हो?”
“उस रोज जब ये लोग तुम्हारे घर पर आये थे, तो अमित गोयल की कार पर आये थे?”
“कैसे जाना?”
“जवाब दे।”
“हाँ।”
“कौन-सी कार?”
“फोर्ड।”
“कौन चला रहा था? मालिक खुद? अमित गोयल?”
वो हिचकिचाया।
विमल ने कहरभरी निगाह से उसे घूरा।
“अकील।” — वो बोला।
“अमित गोयल की कार अकील सैफ़ी चला रहा था?”
“हाँ।”
“आती बार भी, जाती बार भी?”
“हाँ।”
“इसका मतलब लड़की उठाने के एक्ट में वो शामिल नहीं था?”
“न-हीं। वो ड्राइविंग सीट पर था न!”
“लेकिन चलती कार में जो हुआ, होने वाला था, उसमें शामिल था?”
“हाँ। एक्सीडेंट का रिस्क था लेकिन . . . शामिल था।”
“तुम्हें कोई अफसोस है?”
“हाँ, है। टंच माल था। नाहक हाथ से निकल गया। वो सिख लड़के . . .”
“मेरा वो मतलब नहीं था लेकिन . . . खैर। अब बोल क्या ख़याल है? जो करतूत तुम लोगों ने की, तुम्हें उसकी सजा मिलनी चाहिये या नहीं?”
“सजा! कौन देगा?”
“वो जुदा मसला है।”
“काहे की सजा? किसी को क्या पता हमने क्या किया?”
“ऊपर वाले को पता है। वो सब देखता है।”
“वो सजा देने नीचे आयेगा? प्रकट भयेगा?”
“कहते हैं उसकी लाठी बेआवाज होती है। ऊपर से ही चलती है।”
“बचकानी बातें हैं।”
“यानी तुझे सजा का कोई खौफ नहीं?”
“नॉनसेंस!”
“अभी तेरे साथ जो बीत रही है, तू इसको सजा नहीं मानता?”
“देखो, अब मुझे तुम कुछ और ही जान पड़ रहे हो।”
“और क्या?”
“अगर तुम कोई लुटेरे हो तो मेरा आई-फोन तो पहले ही तुम्हारे पास है, जेब में पर्स है, वो भी निकाल लो। घड़ी उतार लो। चेन झपट लो . . .”
विमल हँसा।
“रईस बाप का बेटा है न . . .”
“तुम्हें क्या पता?”
“. . . इसलिये ये तेरे लिये मामूली नुकसान होंगे। लेकिन तेरे प्रारब्ध में तेरा बड़ा नुकसान लिखा है।”
“ब-बड़ा नुकसान!”
“फैमिली ज्वेल्स का।”
“क्या! तुम हमारे घर पर चोरी . . .”
“लेकिन पहले ये नुकसान तेरे दोस्तों का होगा। तेरा नम्बर आखि़र में आयेगा।”
“क-क्या . . . क्या बक रहे हो?”
“आपदा से ज्यादा आपदा का इन्तजार भारी पड़ता है। तेरी जिन्दगी के आइन्दा दिन तेरे पर भारी, बहुत भारी पड़ने वाले हैं।”
“ख़ामख़ाह लम्बी-लम्बी छोड़ रहे हो . . .”
विमल ने उसका मोबाइल उसके करीब फर्श पर रख दिया।
“चलता हूँ।” — फिर बोला।
“चलता है!” — वो बौखलाया — “मेरे को खोल के तो जा!”
“बढि़या! आगे संकट दिखाई दिया तो अदब भूल गया।”
“मेरे को खोल के तो जाओ!”
“खुद खोलना!”
“म-मैं . . . मैं कैसे . . .”
“एक गुड न्यूज है तेरे वास्ते।”
“क-क्या!”
“वो लाल चींटियाँ चींटियाँ ही हैं, चींटें नहीं हैं। और उनमें ताजा ख़ून से अट्रैक्ट होने वाली कोई ख़ूबी नहीं।”
उसके नेत्र फैले।
“मेरे पीछे अब तू अपने बन्धनों से जोर आजमायश करेगा तो वो ख़तरा पेश नहीं आयेगा, जिसका मैंने अन्देशा जताया था। बेहिचक जोर आजमाना। बंदा चला।”
“अरे, खोल जाओ, प्लीज!”
“जय हिन्द!”
“इतना तो बताते जाओ कि तुम हो कौन?”
“मैं! मैं मैं हूँ।”
“मैं कौन?”
“फैंटम, दि घोस्ट हू वाक्स!”
पीछे फरियाद करते अरमान को छोड़कर लम्बे डग भरता वो वहाँ से रुख़सत हो गया।
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